01 दिसंबर 2024 : कांग्रेस के प्रस्ताव में ईवीएम का जिक्र नहीं, रोमिला थापर हिंदू मुस्लिम रिश्तों पर, नई तरह का फासीवाद, अब अडानी के पक्ष में लामबंदियां, शहद में मिलावट, मुहर्रम और सीताराम
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निधीश त्यागी, साथ में राजेश चतुर्वेदी, मज़कूर आलम, गौरव नौड़ियाल
कांग्रेस “ईवीएम” पर लाख सवाल खड़े करे, लेकिन सच्चाई यह है कि उसके पास साबित करने के लिए ठोस प्रमाण नहीं हैं. हाथ खाली हैं, लिहाजा पार्टी की कार्यसमिति (सीडब्ल्यूसी) के पारित प्रस्ताव में ईवीएम का कोई उल्लेख ही नहीं है. इसीलिए पार्टी ने तय किया है कि वह स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनावों के लिए देश व्यापी अभियान शुरू करेगी. पहले हरियाणा और अभी महाराष्ट्र में मिली हार की पृष्ठभूमि में शुक्रवार को हुई कांग्रेस कार्यसमिति की बैठक में निर्णय हुआ कि सिर्फ ईवीएम की “पवित्रता” या बैलेट पेपर से चुनाव कराने की मांग पर ही फोकस न करके अभियान के दायरे में “पूरी चुनाव प्रक्रिया” को ही लाया जाए. बैठक में पक्षपातपूर्ण कार्यप्रणाली के लिए चुनाव आयोग पर निशाना साधा गया.
कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खरगे हालांकि कुछ दिन पहले बैलेट पेपर पर वापस लौटने की बात कह चुके थे, लेकिन कांग्रेस की सर्वोच्च ईकाई ने लगभग साढ़े 4 घंटे की मैराथन बैठक में मंथन करने के बाद निष्कर्ष निकाला कि पार्टी को “चुनावी अनाचार” पर फोकस करना चाहिए, जो हर स्तर पर हुआ है. असल में कांग्रेस के भीतर एक वर्ग मानता है कि, पार्टी के पास चूंकि अपने आरोपों के पक्ष में अभी तक कोई ठोस सबूत नहीं है, लिहाजा चुनावी हार के लिए ईवीएम को दोष देना बुद्धिमानी नहीं है और फोकस व्यापक होना चाहिए. नतीजतन, कार्यसमिति द्वारा मंजूर प्रस्ताव में ईवीएम का जिक्र ही नहीं है. लेकिन इसमें यह कहा गया है कि पूरी चुनाव प्रक्रिया में बड़े पैमाने पर छेड़छाड़ की जा रही है. स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव संवैधानिक आज्ञा हैं, लेकिन चुनाव आयोग की पक्षपातपूर्ण कार्यशैली ने उस पर गंभीर सवाल खड़ा कर दिया है.
हरियाणा और महाराष्ट्र में मिली हार के लिए कांग्रेस ने चुनावी गड़बड़ियों को जिम्मेदार माना है. खासकर, हरियाणा में पार्टी का प्रदर्शन सारी उम्मीदों के विपरीत रहा. अच्छे खासे मार्जिन के साथ वह सरकार बनाने वाली थी, जो कि वह नहीं बना पाई. महाराष्ट्र का चुनाव तो साफ साफ हेराफेरी का मामला है. नतीजे सामान्य समझ से भी परे हैं. ये बातें प्रस्ताव में कही गई हैं.
जिन नेताओं ने वापस बैलेट पेपर पर लौटने की मांग करने की पुरजोर वकालत की, उनमें कांग्रेस महासचिव प्रियंका गांधी वाड्रा भी हैं. राज्यसभा सांसद अभिषेक मनु सिंघवी की राय भी यही थी कि कांग्रेस को पहली मांग बैलेट पेपर से चुनाव कराने की ही करना चाहिए और चुनाव आयोग अगर इसे नहीं मानता है तो फिर वीवीपैट (VVPAT) की सौ फीसदी पर्चियों के मिलान की मांग उठाना चाहिए. लोकसभा में कांग्रेस के उपनेता गौरव गोगोई का सुझाव था कि पार्टी की सुई ईवीएम पर ही नहीं अटकनी चाहिए, क्योंकि वोटिंग मशीन तो विशाल चुनाव प्रक्रिया का एक हिस्सा है. चुनावी अनाचार की रेंज बहुत बड़ी है, जिसमें आयोग के पक्षपातपूर्ण कामकाज से लेकर मतदाता सूचियों में गड़बड़ी और वोटरों को डराना, धमकाना सबकुछ शामिल है. राहुल गांधी ने गोगोई के सुझाव का समर्थन किया और कहा कि ईवीएम तो स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनावों की बड़ी मांग का हिस्सा होना चाहिए. राहुल ने कार्यसमिति से कहा, “पार्टी को इस मामले में स्पष्ट स्टैंड लेना चाहिए.’
चुनावी लोकतंत्र को कमजोर करती चंद्रचूड़ की विरासत
एम.जी. देवसहायम ने 'द वायर' के लिए लिखे एक लेख में न्यायमूर्ति डी.वाई. चंद्रचूड़ की भूमिका की आलोचना की है. देवसहायम पहले आईएएस थे और अब सिटीजन्स कमीशन ऑन इलेक्शन्स के समन्वयक हैं. यह लेख विशेष रूप से चंद्रचूड़ की "मास्टर ऑफ द रोस्टर" के रूप में शक्तियों के कथित दुरुपयोग पर केंद्रित है. देवसहायम ने तर्क दिया है कि इन शक्तियों का प्रयोग भारत के चुनावी लोकतंत्र को कमजोर करने के लिए किया गया है. उनका कहना है कि इन कार्यों ने लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं और न्यायपालिका की स्वतंत्रता को खतरे में डाला है, जिससे चुनावी प्रणाली की निष्पक्षता पर सवाल उठे हैं. लेख में ऐसे मामलों का जिक्र है, जहां न्यायपालिका के निर्णयों ने राजनीतिक और प्रशासनिक व्यवस्थाओं को प्रभावित किया. इसे न्यायपालिका की पारदर्शिता और जवाबदेही के संदर्भ में गंभीर चुनौती बताया गया है.
देवसहायम ने लिखा है कि हाल ही में हुए महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव के नतीजे चौंकाने वाले थे. दलबदलू से प्रभावित एनडीए सरकार की तीन मुख्य पार्टियों ने 76.9% की स्ट्राइक रेट के साथ भारी जीत हासिल की, जिसमें भाजपा अभूतपूर्व 89% के साथ शीर्ष पर रही. कांग्रेस, जिसने 16% की मामूली स्ट्राइक रेट हासिल की थी, उसका कहना था- 'कांग्रेस को हराने के लिए राज्य में समान स्तर के खेल के मैदान में गड़बड़ी के बाद एक लक्षित साजिश के माध्यम से महाराष्ट्र का परिणाम सामने लाया गया है.''लक्षित साजिश' जैसे शब्दों का प्रयोग चिंताजनक है. इसमें हाल ही में सेवानिवृत्त हुए सीजेआई डी.वाई. चंद्रचूड़ की महान विरासत की कहानी निहित है. देवसहायम ने लिखा अपने कार्यकाल के दौरान चंद्रचूड ने 'चुनावी समग्रता वाले मामलों से परहेज किया' क्योंकि उनमें 'ज्यादा राजनीतिक जोखिम' थे. तथ्य यह है कि इसी कारण से, वह कई कदम आगे बढ़े और "रोस्टर के मास्टर" के रूप में अपनी भूमिका का दुरुपयोग करके चुनावों की समग्रता (इंटिग्रिटी) को ख़त्म करने में मदद की. इसे सीजेआई द्वारा निभाई गई सबसे महत्वपूर्ण भूमिका के रूप में देखना चाहिए, क्योंकि उन्हें चुनिंदा बेंचों को मामले सौंपने की विवेकाधीन, अनियंत्रित शक्ति मिली थी, जिससे उनके कार्यकाल के दौरान अदालत की दिशा काफी हद तक प्रभावित हुई है, चाहे वे उन मामलों पर निर्णय लेने में व्यक्तिगत रूप से शामिल रहे हों या नहीं.
फेंगल का अलर्ट बंगाल की खाड़ी के ऊपर चक्रवाती तूफान 'फेंगल' के चलते तमिलनाडु और पुडुचेरी के कई इलाकों में रेड अलर्ट घोषित किया गया है. मलेशिया के उत्तरी राज्यों में लगातार बारिश के कारण आई भीषण बाढ़ के कारण 122,000 से अधिक लोगों को अपने घरों को छोड़कर सुरक्षित जगहों पर जाने के लिए मजबूर होना पड़ा है. यह संख्या 2014 में देश की सबसे भीषण बाढ़ के दौरान विस्थापित हुए 118,000 से अधिक हो गई है और आपदा अधिकारियों को डर है कि यह और भी बढ़ सकती है, क्योंकि इलाके में मूसलाधार बारिश में अभी कोई कमी नहीं आई है. आप चाहें तो यहां पर जाकर ताज़ा जानकारी ले सकते हैं.
अडानी के दाग धुलने को इकट्ठा हुई ताकत, चलने लगे हैश टैग
रिश्वतखोरी की साजिश में गौतम अडानी की संलिप्तता के अमेरिका द्वारा लगाए गए आरोपों के लगभग एक सप्ताह बाद, अडानी के समर्थकों ने अमेरिकी आरोपों का मुकाबला करने के लिए एक संयुक्त मोर्चा जुटा लिया है. जमीनी स्तर पर इसकी हलचल बुधवार सुबह शुरू हुई, जब अडानी समूह की एक इकाई ने एक फाइलिंग जारी कर कहा कि अभियोग पर प्रारंभिक रिपोर्टें गलत थीं. कंपनी ने अपने बचाव में कहा था कि उसके अधिकारियों पर केवल धोखाधड़ी का आरोप लगाया गया था, रिश्वतखोरी का नहीं. मुकुल रोहतगी ने भी इसके बाद अडानी के बचाव में कहा- 'मुझे आरोप पत्र में एक भी नाम या विवरण नहीं मिला कि किसे रिश्वत दी गई है.' रोहतगी, एक वकील और भारत के पूर्व अटॉर्नी जनरल हैं, जिन्होंने अतीत में अडानी समूह के लिए काम भी किया है. बाद में उन्होंने ब्लूमबर्ग न्यूज को बताया कि कंपनी ने उनसे अपने विचार सार्वजनिक रूप से साझा करने के लिए कहा था, लेकिन ये विचार उनके अपने थे. सोशल मीडिया पर अडानी समूह के समर्थन में एक अभियान #AdaniNotGuilty हैशटैग कर खूब चलाया गया, ताकि निवेशक न बिदकें. इसे राष्ट्रीय गौरव और भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के करीबी संबंधों के संदर्भ में देखा गया. समर्थकों ने इसे अमेरिका के “डीप स्टेट” द्वारा भारत पर हमला करार दिया. कांग्रेस ने शनिवार को अडानी के मामले पर विदेश मंत्रालय का मजाक उड़ाते हुए पूछा है कि यह सरकार खुद की जांच का हिस्सा कैसे हो सकती है! असल में हाल ही में विदेश मंत्रालय ने एक बयान जारी कर कहा था कि भारत सरकार किसी भी तरह से अडानी समूह की अमेरिकी जांच का हिस्सा नहीं है. संयुक्त राज्य अमेरिका में अभियोजकों द्वारा अडानी और अन्य पर कथित धोखाधड़ी का आरोप लगाए जाने के बाद पहली आधिकारिक प्रतिक्रिया में विदेश मंत्रालय (एमईए) के प्रवक्ता रणधीर जायसवाल ने कहा था कि भारत से इस मामले में सहयोग के लिए अभी तक किसी ने कुछ पूछा नहीं है. इसी पर पलटवार करते हुए कांग्रेस महासचिव जयराम रमेश ने कहा, 'विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता का कहना है कि भारत सरकार अडानी समूह की अमेरिकी जांच का हिस्सा नहीं है. उन्होंने बस स्पष्ट बात कही है. ऐसा कैसे हो सकता है सरकार स्वयं जांच का हिस्सा बने?'
अडानी के बाद इंफोसिस पर शिकंजा, 280 करोड़ रुपये जुर्माना भरवाया
इंफोसिस पर आरोप लगे हैं कि उसने वीज़ा धोखाधड़ी और अप्रवासन (इमिग्रेशन) प्रक्रियाओं के दुरुपयोग के आरोपों को निपटाने के लिए 280 करोड़ रुपये सैटेलमेंट के तौर पर दिए. यह राशि अप्रवासन से जुड़े मामलों में अब तक का सबसे बड़ा भुगतान बताया जा रहा है. इन्फोसिस पर आरोप था कि उसने H-1B वीज़ा की जगह B-1 वीज़ा धारकों को अमेरिका में काम पर लगाया. H-1B वीज़ा विशेष कौशल के लिए होता है और इसमें अमेरिकी श्रमिकों और विदेशी श्रमिकों के अधिकारों की सुरक्षा के नियम होते हैं. दूसरी ओर, B-1 वीज़ा केवल अस्थायी व्यवसाय यात्राओं के लिए होता है, जैसे कि सेमिनार या सम्मेलनों में भाग लेना, न कि काम करने के लिए. मामले की जांच अमेरिकी इमिग्रेशन और कस्टम्स एनफोर्समेंट (ICE) और अन्य अमेरिकी एजेंसियों ने की.
11333 करोड़ रुपये
संख्यात्मक : गृह मंत्रालय (एमएचए) के इंडियन साइबर क्राइम को-ऑर्डिनेशन सेंटर के मुताबिक, 2024 के पहले नौ महीनों में साइबर धोखाधड़ी से करीब 11,333 करोड़ रुपये का फटका लगा है.
इसमें सबसे बड़ा हिस्सा स्टॉक ट्रेडिंग घोटालों का रहा. 2,28,094 शिकायतों में 4,636 करोड़ रुपये का नुकसान.
निवेश-आधारित घोटालों में 1,00,360 शिकायतों से 3,216 करोड़ रुपये.
डिजिटल अरेस्ट धोखाधड़ी में 63,481 शिकायतों में 1,616 करोड़ रुपये.
1,865 करोड़ रुपये अन्य डिजिटल धोखाधड़ी से
इस्कॉन का एक और भिक्षु बांग्लादेश में गिरफ्तार
बांग्लादेश में इस्कॉन से जुड़े चिन्मय कृष्ण दास की गिरफ्तारी पर बांग्लादेश में बढ़ती अशांति के बीच एक अन्य इस्कॉन भिक्षु श्याम दास प्रभु को शुक्रवार को चटगांव पुलिस ने हिरासत में लिया है. कथित तौर पर भिक्षु चिन्मय कृष्ण दास से जेल में मिलने गए थे, जब उन्हें गिरफ्तार किया गया था. इस्कॉन के पूर्व सदस्य चिन्मय कृष्ण दास को इस सप्ताह की शुरुआत में राजद्रोह के आरोप में गिरफ्तार किया गया था, जिसके बाद शेख हसीना से लेकर भारत सरकार ने तक उनकी रिहाई की बात कही. इधर कोलकाता के माणिकतला में स्थित जेएन रे अस्पताल ने बांग्लादेशी मरीजों का इलाज नहीं करने का निर्णय लिया है. उसने यह कदम बांग्लादेश में अल्पसंख्यक हिंदुओं पर हुए कथित अत्याचार और वहां से आई तिरंगे के अपमान की खबर के बाद लिया है.
शनिवार को मणिपुर पुलिस के बयान में कहा गया है कि मणिपुर में एक पुलिस स्टेशन और विधायकों के आवासों पर हमलों के सिलसिले में आठ लोगों को गिरफ्तार किया गया है.
रोमिला थापर : शादियाँ हों या जंग, मुसलमान और हिंदू लम्बे समय तक साथ थे
इतिहासकार रोमिला थापर ने ‘हमारा इतिहास, उनका इतिहास, किसका इतिहास?’ में विभिन्न राष्ट्रवादों के जटिल संसार और इतिहास पर उनके प्रभाव का गहराई से विश्लेषण किया है. संजय कुंदन द्वारा अनूदित किताब में उन्होंने चुनिंदा उदाहरणों के ज़रिए बताया है कि मध्यकाल में हिंदू-मुसलमानों के बीच मुख्यतः मेलजोल का रिश्ता रहा है. और जो संघर्ष होते थे, उसका कारण सांप्रदायिक न होकर राजनीतिक या आर्थिक हुआ करता था. कई बार एकदम स्थानीय कारण भी होते थे, जिन्हें स्थानीय स्तर पर ही मिल-जुलकर सुलझा लिया जाता था. उन्होंने एनसीईआरटी की भारतीय इतिहास की पाठ्यपुस्तकों के कई हिस्सों को हटाए जाने की चर्चा करते हुए कहा है कि इसके पीछे सत्ता की विचारधारा के अनुरूप इतिहास के अध्ययन को बढ़ावा देने की मंशा ज़्यादा है. किताब का एक अंश:
मैं दूसरी सहस्राब्दी ईस्वी के दौरान हिंदुओं और मुसलमानों के बीच के व्यापक संबंधों पर विचार करना चाहूंगी, दूसरे शब्दों में पिछले हज़ार वर्षों के रिश्तों पर, जिसके बारे में कहा जाता है कि हिंदुओं को मुसलमानों द्वारा पीड़ित किया गया था. मैंने समाज के अलग-अलग स्तरों पर हालात का ख़ुलासा करने वाले कुछ चुनिंदा उदाहरण लिए हैं ताकि एक सामान्य नज़रिया सामने आ सके. ये विभिन्न स्रोतों से इकट्ठा किए गए हैं, मुख्यतः संस्कृत और क्षेत्रीय भाषाओं में और ग़ैर-मुसलमानों द्वारा लिखे गए हैं, जिनके बारे में कहा जाता है कि वे पीड़ित थे. ये आवाज़ें उतनी नहीं सुनी गईं, जितनी सुनी जानी चाहिए थीं. न ही हिंदुओं और मुसलमानों के बीच के संबंधों को लेकर उनके दृष्टिकोण पर पर्याप्त ध्यान दिया गया है. उनके द्वारा एक-दूसरे के लिए इस्तेमाल किए गए शब्दों और उनके संदर्भ को समझने की कोशिश नहीं की गई है.
अभिजात वर्ग से शुरू करें, हम जानते हैं कि कई हिंदू शाही परिवारों को उच्च सामाजिक स्थिति वाला माना जाता रहा है. यही कारण था कि कुछ सुल्तानों और मुग़ल शासकों ने इन परिवारों में शादियां कीं. जिन राजाओं ने आधिपत्य स्वीकार कर लिया और प्रशासन में शामिल हो गए, वे प्रायः अपने पूर्ववर्ती राज्यों में प्रशासन के प्रमुख बने रहे और राजा का उनका दर्जा और पदवी बरक़रार रखी गई, कभी-कभी कुछ मनसब भी दिया जाता था जो कि प्रशासनिक ओहदा था और इनमें कुछ आय भी थी. मौजूदा व्यवस्था के कुछ हद तक जारी रहने से प्रशासन की राजनीति को लाभ हुआ. ऐसे राजाओं की कृषि और वाणिज्यिक स्रोतों से आने वाली आय उनकी कुलीन जीवन शैली को बनाए रखने के लिए पर्याप्त थी.
मुग़लों की पूरी रियासत में राजा बिखरे पड़े थे. उनमें से कई ऐसे थे, जो महाराजाधिराज की उपाधि के साथ ‘सुरत्राण’ की उपाधि धारण करते थे, जो सुल्तान का लिप्यंतरण है. विजयनगर के एक राजा ने कोई जोख़िम न लेते हुए हिंदूराय-सुरत्राण यानी हिंदू राजा सुल्तान की उपाधि धारण की! हालांकि, यह स्पष्ट नहीं है कि क्या हिंदू द्वारा वह भौगोलिक इकाई अल-हिंद के एक व्यक्ति का उल्लेख कर रहा था या हिंदू धर्म का - क्योंकि दोनों ही अर्थ तब प्रासंगिक थे. पहले रणक, रौता, ठक्कुर और नायक जैसी उपाधियां अनिवार्य रूप से नहीं छोड़ी जाती थीं. प्रशासन के उच्च स्तर पर कुछ हिंदू अधिकारियों का काम जारी रहा, वे प्रशासन के लिए राजस्व संग्रहकर्ता भी थे. जहां यह एक पारिवारिक व्यवसाय था, जैसा कि अकसर होता था, वे अच्छी तरह जानते थे कि इसमें करना क्या है. संस्कृत में अनेक अभिलेखीय दस्तावेज़ मिलते हैं, जो ब्राह्मणों ने लिखे हैं. जब उनमें से कई में एक निश्चित क्रम दिखाई पड़ता है, तो उनसे काफ़ी मदद मिलती है.
कई और अभिलेख और शाही आदेश फ़रमान के रूप में थे. ऐसा प्रतीत होता है कि स्थानीय स्तर के प्रशासन में इस्लाम-पूर्व काल से कुछ हद तक निरंतरता रही है.
स्थानीय व्यक्तियों को उच्च पद पर नियुक्त करने की प्रथा सदियों से चली आ रही थी. इससे स्थानीय मामलों पर केंद्रीय प्रशासन को नियंत्रण रखने में सहूलियत होती थी. तुर्क, अफ़गान और मुगल शासकों - जिन्हें हम 'मुसलमान' कहते हैं और जिन्हें तब 'तुरुष्क' कहा जाता था- द्वारा राजपूतों को उच्च पद पर नियुक्त करने या उन्हें बरक़रार रखने का यह एक कारण हो सकता है. उदाहरण के लिए, मुगल अर्थव्यवस्था राजा टोडरमल के भरोसेमंद हाथों में थी. एक अन्य राजपूत, अंबर के राजा मान सिंह ने हल्दीघाटी की लड़ाई में मुग़ल सेना की कमान संभाली थी. इस लड़ाई में उसने मुग़लों के विरोधी राजपूत, राणा प्रताप को हरा दिया. प्रताप की सेना में शेरशाह सूरी के वंशज हकीम खान सूरी के नेतृत्व में अफ़गान सैनिकों की एक बड़ी टुकड़ी थी. यदि विशुद्ध रूप से धर्म के संदर्भ में देखा जाए, तो इसे सेना में एक उल्लेखनीय मुस्लिम टुकड़ी के रूप में देखा जा सकता है, जिसमें एक मुस्लिम कमांडर भी शामिल था, जो एक राजपूत हिंदू की ओर से लड़ रहा था.
लेकिन लड़ाइयां, जैसा कि हम जानते हैं, अकसर किसी एक कारण से नहीं होतीं, उनके पीछे विभिन्न प्रकार के संघर्षपूर्ण और अनिश्चित रिश्ते होते हैं, जिन्हें सुलटाना होता है. कुछ लड़ाइयां तो इसलिए हुईं कि नए हमलावरों ने कई राज्य छीन लिए थे और उन्हें फिर से हासिल करना था. इसके अलावा भी कई स्तरों पर टकराहटें थीं. मुग़ल सेना का नेतृत्व मुग़लों के करीबी कछवाहा राजपूत कर रहे थे, जो मुग़लों के क़रीबी थे. वे सिसोदिया राजपूतों से हिसाब बराबर कर रहे थे, जिनमें से एक महाराणा प्रताप भी थे. इसलिए वे विपरीत पक्षों से लड़ रहे थे. नए विजेताओं के हाथों गंवाए गए राज्यों को पुनः प्राप्त करने की मंशा ही संघर्षों के पीछे सबसे ज़्यादा रहती थी. महाराणा प्रताप और हकीम खान सूरी दोनों इसी कारण मुग़लों के ख़िलाफ़ थे. ज़ाहिर है यह संघर्ष मुस्लिम शासन के प्रति हिंदू प्रतिरोध से अलग कुछ और भी था.
इस जटिल राजनीतिक संघर्ष में राजनीतिक और धार्मिक, दोनों ही अस्मिताओं की दोनों ही तरफ़ भागीदारी थी. राजपूत कुलों की आपस में और शाही शक्ति के प्रति अलग-अलग वफ़ादारी थी. इस लड़ाई की राजनीतिक व्याख्या यह हो सकती है कि इसमें एक अफ़गान और राजपूत मिलकर उस चीज़ के लिए लड़ रहे थे, जिसे वे अपनी विरासत मानते थे, जिसे मुग़ल शासन ने उनसे छीन लिया था. कोई अगर इस लड़ाई के प्राथमिक कारण के बारे में फिर से सोचे तो उसके मन में यह सवाल उठेगा कि क्या वाकई धार्मिक संघर्ष ही शत्रुता का मुख्य कारण था?
मुग़ल प्रशासन में उच्च पदों पर काम करने वाले हिंदू मुख्य रूप से उच्च जातियों-ब्राह्मण, कायस्थ, खत्री- से थे. साधन-संपन्न जैन भी उनमें शामिल थे. दरअसल उच्च प्रशासन में उच्च जातियों के वर्चस्व वाली पिछली व्यवस्था को बरक़रार रखा गया था. ऐसे प्रशासकों का उपयोग करना उचित समझा गया क्योंकि इनके पास प्रशासनिक समस्याओं से निपटने का अनुभव और समझ दोनों थी. हमें चंद्रभान के लेखन से बहुत कुछ जानकारी मिलती है, जो औरंगजेब के दरबार में सर्वोच्च पदों पर रहा और उसने अपने शुरुआती दिनों में जहांगीर और शाहजहां की भी सेवा की थी. उसने उनकी बहुत सी गतिविधियों को दर्ज किया है. ख़ासकर औरंगजेब पर तो विस्तार से लिखा है. उसने अपने बारे में कहा कि वह एक ब्राह्मण और एक धर्मपरायण हिंदू है. संस्कृत के साथ-साथ उसे फ़ारसी में भी महारत हासिल थी. शाही दरबार के प्रबुद्ध सदस्यों ने उसकी बहुत प्रशंसा की थी. उसने मुगल सेवा में अन्य उच्च जाति के हिंदू मंत्रियों का उल्लेख करते हुए इस तरह की नियुक्तियों के सिलसिले को जारी रखने का सुझाव दिया था.
दिलचस्प यह है कि महाभारत के समय से भारत के इतिहास का वर्णन करते हुए चंद्रभान ने उन घटनाओं में युधिष्ठिर की भूमिका पर ज़ोर दिया, जिन्हें वह महत्त्वपूर्ण मानता था. उसने राजपूत शासकों के साथ-साथ विभिन्न सुल्तानों की गतिविधियों का विस्तार से वर्णन किया और इस क्रम में मुग़लों तक आया. इस आख्यान में मुग़लों को शामिल करने पर टिप्पणी की गई है और इसे औपचारिक ऐतिहासिक आख्यान में लाने का एक प्रयास बताया गया है. वर्तमान को वैधता देने के लिए अतीत का उपयोग सबने किया है, चाहे फ़ारसी के विद्वान हों या संस्कृत के.
मुग़ल दरबार की राजनीति में हिंदू राजाओं का हस्तक्षेप कुछ मामलों में बढ़-चढ़कर था. एक उदाहरण है बुंदेलखंड के साथ मुग़लों का संबंध, जो एक पीढ़ी से भी अधिक समय तक चला. बुंदेला राजा, बीर सिंह देव- जो जहांगीर का क़रीबी था और जिसे सर्वोच्च मनसब तथा राजस्व कार्यभार हासिल था- मुग़ल दरबार की राजनीति में इस क़दर डूबा हुआ था कि उसका नाम प्रमुख इतिहासकार और अकबर के क़रीबी रह चुके अबुल फज़ल की हत्या से जोड़ा गया था. यह हिंदू-मुस्लिम संघर्ष को नहीं दर्शाता. इसमें बहुत सारी चीज़ें हैं- मुग़ल शाही परिवार के भीतर उत्तराधिकार के लिए संघर्ष, दरबार में अलग-अलग गुटों की महत्त्वाकांक्षाओं की टकराहट, राजनीति के सर्वोच्च स्तर पर शाही परिवार से सीधे जुड़े मामले में, एक छोटे राजपूत के शामिल होने का प्रयास.
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भाजपा की शाजिया इल्मी : मंदिर-मस्जिद विवाद भड़काना विकसित भारत का अपमान
द इंडियन एक्सप्रेस के लिए एक आलेख में भाजपा नेत्री शाजिया इल्मी ने लिखा कि मंदिर-मस्जिद विवाद भड़काना ‘विकसित भारत’ का अपमान करना है. उन्होंने लिखा, ‘संभल में भड़की आग की लपटें अब भी जारी हैं. सुप्रीम कोर्ट ने हाईकोर्ट की ओर से उचित आदेश पारित किए जाने तक ट्रायल कोर्ट की ओर से स्वीकृत सर्वे की कार्रवाई पर रोक लगा दी है. अजमेर की एक स्थानीय अदालत के एक याचिका पर सुनवाई करने से एक और धार्मिक आग भड़कने का खतरा है. सूफी संत मोइनुद्दीन चिश्ती की दरगाह के नीचे शिव मंदिर होने का दावा कर याचिका में अजमेर दरगाह का सर्वे करने और यहां हिंदुओं के पूजा करने का अधिकार मांगा गया है.’ शाजिया लिखती हैं, ‘फर्जी शिकायतों के लंबे इतिहास वाले हिंदू सेना के याचिकाकर्ता विष्णु गुप्ता ने दरगाह को महादेव मंदिर घोषित करने का तर्क दिया है. काश गुप्ता ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) के सरसंघचालक मोहन भागवत के शब्दों पर ध्यान दिया होता. उन्होंने स्पष्ट रूप से कहा था कि हर मस्जिद में ‘शिवलिंग’ खोजने और हर दिन एक नया विवाद शुरू करने की जरूरत नहीं है.
फासीवाद हमारे बीच नये तरह से कैसे आ रहा है?
स्लावोज जिजेक : बेशर्म, बेवकूफ होना और इस पर गर्व करना अब मुख्यधारा की बात
विवादास्पद दार्शनिक स्लावोज जिजेक का मानना है कि सार्वजनिक जीवन में बेशर्मी का असर है कि पूरी दुनिया में सॉफ्ट फासिज्म जोर पकड़ रहा है. सांस्कृतिक सिद्धांतकार और लेखक जिजेक लंदन विश्वविद्यालय में बर्कबेक इंस्टीट्यूट फॉर द ह्यूमैनिटीज के अंतराष्ट्रीय निदेशक हैं. पिछले दिनों ऑक्सफोर्ड यूनियन को संबोधित करते हुए उन्होंने कहा कि दुनिया सॉफ्ट फासिज्म की तरफ बढ़ रही है. सार्वजनिक जीवन में बढ़ती बेशर्मी दक्षिणपंथी नेताओं को इसके लिए प्रोत्साहित कर रही है. सॉफ्ट फासिज्म लोकतांत्रिक मानदंडों, व्यक्तिगत स्वतंत्रता और बहुलतावाद को नष्ट कर सकता है. उन्होंने बोल्सोनारो का उदाहरण देते हुए कहा कि ब्राजीलियाई लोग बोल्सोनारिज्म के उद्भव के बाद से इसे एक तथ्य के रूप में जानते हैं कि हर ‘कठोर’ फासीवाद कभी ‘नरम’ था. लोकतांत्रिक संस्थाओं का क्षरण, न्यायपालिका, मीडिया या चुनावी प्रक्रियाओं की स्वतंत्रता का कमजोर होना, असहमतिपूर्ण आवाजों और विपक्षी दलों/राजनेताओं को हाशिए पर डालना या उनका शिकार करना, राष्ट्रवाद और लोकलुभावनवाद, राष्ट्रीय श्रेष्ठता या विशिष्ट पहचान की भावना को बढ़ावा देना, अल्पसंख्यक समूहों या अप्रवासियों (बाहरी या आंतरिक ‘दुश्मन’) को बलि का बकरा बनाने का अगर लक्षण कहीं दिखे तो समझ लें कि सॉफ्ट फासिज्म आ चुका है. तानाशाह इसके जरिये डर पैदाकर समर्थन जुटाता है और खुद को मजबूत करता है. उन्होंने इसके उदाहरण के रूप में ब्राजील के बोल्सेनारो और अमेरिका के ट्रम्प का नाम लिया.
उन्होंने कहा कि बेशर्म बेवकूफ होना और इस पर गर्व करना अब मुख्यधारा की बात हो गई है. इसके साथ ही उन्होंने यह भी कहा कि कोई जरूरी नहीं कि ये बेशर्मी राजनीतिक ही हो. यह अराजनीतिक भी होती है. उदाहरण के लिए उन्होंने विवादास्पद अमेरिकी YouTuber जॉनी सोमाली का नाम लिया, जिसे राजनीति से कोई लेना-देना नहीं है. वह पूरी दुनिया में घूम-घूमकर सार्वजनिक गड़बड़ी और सांस्कृतिक संवेदनशील मुद्दों पर न सिर्फ अपमानजनक टिप्पणियां करता है, साथ में बेशर्म हरकतें भी करता है. उद्घोषणा भी करता है कि उसकी कोई नैतिकता नहीं है. वह पैसा कमाने के लिए कुछ भी कर सकता है.
जंग छिड़ेगी तो क्या करोगे? जर्मनी और कई यूरोपीय देशों में फिक़्र
यूरोप के कई देशों में लोग इन दिनों 'भविष्य के अनाम युद्ध' की तैयारियों में जुटे हैं. हमले की स्थिति में लोगों को निकटतम बंकर का पता लगाने में मदद करने के लिए जर्मनी एक ऐप विकसित कर रहा है तो स्वीडन ने अपने नागरिकों को 32 पन्नों का एक पैम्फलेट वितरित किया है, जिसका शीर्षक है- 'यदि संकट या युद्ध आता है'. पाँच लाख फ़िनवासी पहले ही आपातकालीन तैयारी के लिए मार्गदर्शिका डाउनलोड कर चुके हैं. 'द गार्डियन' ने अपनी एक रिपोर्ट में कहा है कि यूरोप में व्यापक संघर्ष की संभावना कई लोगों को दूर की कौड़ी लगती है, लेकिन कम से कम कुछ देश इसे गंभीरता से ले रहे हैं और जैसा कि जर्मनी के रक्षा मंत्री बोरिस पिस्टोरियस ने कहा भी- 'आबादी को युद्ध के लिए सक्षम बनाने के लिए कदम उठा रहे हैं.' यूक्रेन पर रूस के आक्रमण ने बाल्टिक क्षेत्र में नाटकीय रूप से सुरक्षा तनाव बढ़ा दिया है, जिससे फिनलैंड और स्वीडन को दशकों की गुटनिरपेक्षता त्यागने और नाटो में शामिल होने के लिए मजबूर होना पड़ा है. स्वीडन में तो हमले की दशा में हर किसी को तैयार रहने को कहा गया है. नागरिकों से पूछा गया है कि यदि कोई आपातकालीन स्थिति आती है तो वे शुरू के 72 घंटे तक कैसे जीवित रहेंगे? सरकारें नागरिकों को खाने-पीने की चीजें, दवाएं और अन्य आवश्यक वस्तुओं का भंडारण करने की सलाह दे रही हैं. यह पहल रूस-यूक्रेन युद्ध के प्रभावों और बढ़ती वैश्विक सुरक्षा चिंताओं के बाद शुरू की गई है.
अमेरिकी विश्वविद्यालयों ने छात्रों से 20 जनवरी से पहले लौटने को कहा
एमआईटी समेत कई अमेरिकी विश्वविद्यालयों ने अपने अंतरराष्ट्रीय छात्रों के साथ-साथ कर्मचारियों से आग्रह किया है कि वे अगले साल जनवरी में नवनिर्वाचित राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प के कुर्सी संभालने से पहले अमेरिका लौट आएं. डोनाल्ड ट्रम्प 20 जनवरी को अपने पद की शपथ लेंगे. ट्रम्प ने घोषणा की है कि वह संयुक्त राज्य अमेरिका के 47वें राष्ट्रपति के रूप में अपने पहले दिन अर्थव्यवस्था और आप्रवासन के मुद्दों पर कई कार्यकारी आदेशों पर हस्ताक्षर करेंगे. संयुक्त राज्य अमेरिका की मैसाचुसेट्स इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी (एमआईटी) ने भी ऐसा ही आदेश दिया है.
मिलावटी शहद से हलाकान यूरोप
पिछले साल की जाँच रिपोर्ट के मुताबिक यूरोप में 46 फीसदी आयातित शहद संदिग्ध तौर पर मिलावटी था, जिसमें सस्ती चीनी की सिरप मिलाई गई थी. इसमें ब्रिटेन से आने वाले दस सैम्पल भी थे. शहद प्रामाणिकता नेटवर्क ने नये तरह की डीएनए टेस्टिंग की तो पता चला कि यूके के बड़े रीटेलरों के 25 में से 24 जार संदिग्ध थे. चीन दुनिया में सबसे बड़ा शहद उत्पादक है पर विशेषज्ञों के मुताबिक उनमें चीनी की सिरप मिली हो सकती है. गार्डियन की रिपोर्ट के मुताबिक यूके हर साल चीन से 39,000 टन शहद आयात करता है.मधुमक्खी पालन संघ की अंतरराष्ट्रीय संस्था एपिमोंडिया विश्व मधुमक्खी पालन पुरस्कारों की श्रेणी में से शहद की श्रेणी में कोई पुरस्कार नहीं देगी. ये निर्णय वैश्विक आपूर्ति सीरीज में व्यापक धोखाधड़ी की लगातार मिल रही चेतावनी के बाद लिया गया है. यूरोपीय प्रोफेशनल बीकीपर्स असोसिएशन के अध्यक्ष बर्नार्ड हुवेल का कहना है, ‘इसमें मधुमक्खी पालने वालों की विश्व संस्था ही शहद की शुद्धता की गारंटी नहीं दे पा रही. इस धोखाधड़ी का स्तर बहुत बड़ा है.’
चैटजीपीटी के खिलाफ कोर्ट पहुंचे कनाडा के मीडिया हाउस
कनाडा के सबसे बड़े समाचार आउटलेट्स का एक संगठन ने कृत्रिम बुद्धिमत्ता चैटबॉट चैटजीपीटी के निर्माता ओपनएआई पर मुकदमा किया है. आरोप लगाया गया है कि कंपनी अपने सॉफ़्टवेयर को प्रशिक्षित करने के लिए अवैध रूप से समाचार लेखों का उपयोग कर रही है. टोरंटो स्टार, मेट्रोलैंड मीडिया, पोस्टमीडिया, द ग्लोब एंड मेल, द कैनेडियन प्रेस और सीबीसी सहित सभी मीडिया हाउस इस मुकदमे में शामिल हो गए हैं, जो कथित तौर पर देश में अपनी तरह का पहला मामला है. बीबीसी के लिए होली होंड्रिक ने अपनी रिपोर्ट में बताया है कि मीडिया संगठनों ने एक संयुक्त बयान में कहा - 'पत्रकारिता जनहित में है. ओपन एआई अन्य कंपनियों की पत्रकारिता का उपयोग अपने व्यावसायिक लाभ के लिए कर रहा है. यह अवैध है'. हालांकि, ओपन एआई का कहना है कि उसके मॉडल 'सार्वजनिक रूप से उपलब्ध डेटा पर प्रशिक्षित' हैं.
चलते चलते : हजारीबाग का मुहर्रम और सीताराम के जलरंग
दिल्ली आर्ट गैलरी की इस फिल्म में आप देख सकते हैं 1815 से 1825 के बीच बनाई गई झारखंड के हज़ारीबाग़ में मुहर्रम का जुलूस. जलरंगों से बने इस चित्र का आकार (साढ़े ग्यारह गुणा साढ़े सत्रह इंच) तो बड़ा नहीं है, पर बारीकी गज़ब की है. लोग, हाथी, घोड़ा, प्यादे, संगीतकार और पूरा माहौल. यह पेंटिंग पिछले महीने पहली बार मुंबई के आर्ट शो में दिखलाई गई हालांकि सीताराम का काम उनके जाने के बहुत दिनों बाद कला के लोगों को पता चला. कंपनी स्टाइल की पेंटिंग करने वालों में सीताराम का काम काफी ऊपर लिया जाता है. उनके बारे में आप यहाँ और जानकारी पा सकते हैं.
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