01/09/2025: सात साल बाद शी से मिले मोदी | आकार पटेल: मोदी की शानदार नाकामी | भागवत कथा के दुराग्रह | तानाशाही और अरुंधति रॉय | लड़कियों को पढ़ाने पर मैगसेसे | सुरंग में 19 फंसे
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आज की सुर्खियां
मोदी-जिनपिंग मुलाक़ात: सात साल बाद, पिघलती बर्फ़...?
आकार पटेल का विश्लेषण: वो 'शानदार' नाकामी...
राहुल की यात्रा: 1300 किमी के बाद, अब...?
यात्रा के हल्के पल: जब गूंजा 'दिल से रे'...
उत्तराखंड हादसा: सुरंग में अटकी 19 सांसें...
फर्ज़ी राजनीतिक दल: कागज़ पर चलती सियासत...
'एजुकेट गर्ल्स' को मेगसेसे
दलित बच्चों पर अत्याचार: बस एक मटका छूने पर...
पीएम की माँ पर टिप्पणी: जब माँगा गई फ़तवा ...
तुर्की पर यू-टर्न: तीन महीने में बदला रुख...
यमन पर हमला: इस्रायली निशाना और हूती PM...
एचवन बी वीज़ा: भारतीयों के लिए संकट...
भागवत का विश्लेषण: लफ़्ज़ों का उदारवाद...?
ट्रम्प-मोदी विश्लेषण: जब 'दोस्ती' पर लगा झटका...
अरुंधति रॉय: तानाशाही में कैसे लिखें...?
सात साल बाद मोदी-जिनपिंग मुलाक़ात

सात साल के लंबे अंतराल के बाद चीन की धरती पर कदम रखते हुए, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने रविवार को तियानजिन शहर में चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग से एक महत्वपूर्ण मुलाक़ात की. शंघाई सहयोग संगठन (SCO) शिखर सम्मेलन के मौके पर हुई इस बैठक ने दोनों पड़ोसी देशों के बीच 2020 के गलवान संघर्ष के बाद से चले आ रहे गहरे तनाव को कम करने की दिशा में एक बड़ा कदम उठाया है. इस मुलाक़ात का सार यह था कि दोनों देशों को सीमा विवाद को अपने समग्र संबंधों पर हावी नहीं होने देना चाहिए और दोस्ती का रास्ता अपनाना ही दोनों के लिए "सही विकल्प" है. यह बैठक एक ऐसे महत्वपूर्ण समय पर हुई है, जब अमेरिका के साथ भारत के व्यापारिक और रणनीतिक संबंधों में खटास आई है, जिससे भारत अपनी विदेश नीति में एक नया, अधिक संतुलित और व्यावहारिक दृष्टिकोण अपनाने के लिए प्रेरित हुआ है.
यह बैठक केवल दो नेताओं की मुलाक़ात नहीं है, बल्कि यह बदलते वैश्विक समीकरणों में भारत की रणनीतिक स्थिति को फिर से परिभाषित करने का एक प्रयास है. 2020 में गलवान घाटी में हुए हिंसक सैन्य संघर्ष के बाद भारत और चीन के रिश्ते अपने सबसे निचले स्तर पर पहुंच गए थे. यह बैठक उस गतिरोध को तोड़कर संबंधों को सामान्य बनाने की एक गंभीर कोशिश का प्रतीक है. वैश्विक मंच पर, अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प की "अमेरिका फर्स्ट" और एकतरफ़ा व्यापार नीतियों ने भारत जैसे देशों को यह सोचने पर मजबूर कर दिया है कि केवल एक महाशक्ति पर निर्भर रहना बुद्धिमानी नहीं है. इसलिए, अपनी "रणनीतिक स्वायत्तता" को बनाए रखने और अपने राष्ट्रीय हितों को साधने के लिए, भारत अब चीन के साथ संवाद के दरवाज़े फिर से खोल रहा है ताकि वैश्विक अनिश्चितताओं के बीच अपने विकल्पों को खुला रख सके.
दोस्ती और सहयोग का संदेश: बैठक के दौरान राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने स्पष्ट रूप से कहा कि भारत और चीन को एक-दूसरे को प्रतिद्वंद्वी के रूप में नहीं, बल्कि सहकारी भागीदार के रूप में देखना चाहिए. उन्होंने एक काव्यात्मक उपमा का उपयोग करते हुए कहा कि "ड्रैगन (चीन) और हाथी (भारत) का एक साथ नृत्य करना" दोनों देशों के लिए सही चुनाव होना चाहिए. प्रधानमंत्री मोदी ने भी इसी भावना को दोहराते हुए कहा कि भारत आपसी विश्वास, सम्मान और एक-दूसरे की संवेदनशीलताओं को ध्यान में रखते हुए चीन के साथ सहयोग बढ़ाने के लिए प्रतिबद्ध है. उन्होंने इस बात पर ज़ोर दिया कि दुनिया के दो सबसे अधिक आबादी वाले देशों के 2.8 अरब लोगों का कल्याण सीधे तौर पर उनके सहयोग पर निर्भर करता है.
सीमा पर शांति और आगे का रास्ता: दोनों नेताओं ने पिछले साल सीमावर्ती क्षेत्रों से सैनिकों की सफल वापसी और उसके बाद से बनी शांति और स्थिरता की स्थिति पर संतोष व्यक्त किया. उन्होंने इस बात पर अपनी प्रतिबद्धता दोहराई कि सीमा विवाद का एक निष्पक्ष, उचित और दोनों पक्षों को स्वीकार्य समाधान बातचीत के माध्यम से खोजा जाना चाहिए. इस सकारात्मक माहौल के परिणामस्वरूप ही कैलाश मानसरोवर यात्रा की बहाली और दोनों देशों के बीच सीधी उड़ानों को फिर से शुरू करने जैसे कदमों पर सहमति बनी, जिससे लोगों के बीच संपर्क बढ़ेगा.
बहुपक्षवाद पर ज़ोर: अमेरिकी नीतियों के अप्रत्यक्ष संदर्भ में, दोनों नेताओं ने बहुपक्षवाद (multilateralism) और एक बहुध्रुवीय दुनिया बनाने की वकालत की. शी जिनपिंग ने कहा कि दोनों देशों को अंतरराष्ट्रीय संबंधों में अधिक लोकतंत्र लाने के लिए मिलकर काम करना चाहिए, जो स्पष्ट रूप से किसी एक देश के वैश्विक प्रभुत्व के विचार के खिलाफ़ एक संदेश था.
यह मुलाक़ात प्रधानमंत्री मोदी की व्यक्तिगत कूटनीति की सीमाओं को भी उजागर करती है. विश्लेषकों का मानना है कि ट्रम्प के लिए बड़े कार्यक्रम आयोजित करना या शी जिनपिंग के साथ झूला झूलना जैसी प्रतीकात्मक कार्रवाइयां ज़मीनी हकीकत को बदलने के लिए पर्याप्त नहीं हैं, क्योंकि ये नेता केवल अपने राष्ट्रीय हितों के कठोर समीकरणों से चलते हैं. हाल के महीनों में अमेरिका द्वारा भारत पर भारी व्यापार शुल्क लगाना और कश्मीर मुद्दे पर पाकिस्तान का पक्ष लेता दिखना भारत के लिए एक बड़ा झटका था. इसने भारत के नीति निर्माताओं को यह सोचने पर मजबूर किया कि क्या अमेरिका वास्तव में एक विश्वसनीय दीर्घकालिक भागीदार है. इसी पृष्ठभूमि में, चीन के साथ संबंधों को सुधारना भारत के लिए एक रणनीतिक आवश्यकता बन गया है, ताकि वह वैश्विक शतरंज की बिसात पर अकेला न पड़ जाए. हालांकि, इस बैठक के बावजूद, सीमा विवाद और रणनीतिक प्रतिस्पर्धा को लेकर दोनों देशों के बीच गहरा अविश्वास बना हुआ है, जिसे दूर करने में लंबा समय लगेगा.
इस बैठक के बाद अब सारा ध्यान उन ठोस कदमों पर होगा जो इन सहमतियों को ज़मीन पर उतारने के लिए उठाए जाएंगे. दोनों देश सीमा पर शांति बनाए रखने के लिए सैन्य और राजनयिक स्तर पर बातचीत जारी रखेंगे. व्यापार घाटे को कम करने और भारतीय उत्पादों के लिए चीनी बाज़ार तक बेहतर पहुंच बनाने पर भी आगे चर्चा होगी. प्रधानमंत्री मोदी ने शी जिनपिंग को 2026 में भारत में होने वाले ब्रिक्स शिखर सम्मेलन के लिए आमंत्रित किया है, जो संवाद को जारी रखने की इच्छा का संकेत है. आने वाले समय में भारत को अमेरिका और चीन-रूस धुरी के बीच एक बहुत ही नाजुक संतुलन बनाकर चलना होगा, जो उसकी विदेश नीति के लिए एक बड़ी चुनौती होगी.
विश्लेषण
आकार पटेल: हमारे प्रधानमंत्री व्यक्तिगत कूटनीति में अच्छे नहीं हैं. वे इसमें शानदार रूप से बुरे हैं.
किसी समस्या को ठीक करने के लिए, हमें पहले यह स्वीकार करना होगा कि कोई समस्या मौजूद है. अगर हम यह स्वीकार नहीं करते हैं, तो हम समस्या को संबोधित नहीं करेंगे और यह ठीक नहीं होगी. पहला क़दम यह स्वीकार करना है कि कोई मुद्दा है और फिर हम इसे हल करने की दिशा में आगे बढ़ सकते हैं.
जिस समस्या पर हम आज चर्चा कर रहे हैं वह 2014 के बाद से दिख रही उस तरह की व्यक्तिगत कूटनीति की प्रभावशीलता है. यह भौतिक संपर्क और स्नेह प्रदर्शन, मेहमानों के सम्मान में भव्य कार्यक्रमों, और इस विचार के इर्द-गिर्द केंद्रित है कि इन कार्यों से पैदा होने वाली 'दोस्ती' मुद्दों को हल करने में मदद करेगी.
हम आज इस पर क्यों चर्चा कर रहे हैं? बेशक इसका कारण यह है कि भारत सरकार आज दुनिया में अपनी जगह खोजने के लिए संघर्ष कर रही है. जिन राष्ट्रों को वह दोस्त अगर सहयोगी नहीं तो मानती थी, उन्होंने इसे बिना वजह सज़ा दी है, और इसे उन राष्ट्रों की तरफ़ मुड़ना पड़ा है जिन्हें यह कुछ दिन पहले तक प्रतिद्वंद्वी अगर दुश्मन नहीं तो देखती थी.
यही समस्या है. इसे संबोधित करने के लिए, हमें पहले यह स्वीकार करना होगा कि यह मौजूद है. इस सरकार के लिए यह आसान नहीं होगा क्योंकि इसने अपनी पूरी परफ़ॉर्मेंस एक व्यक्ति की प्रतिभा पर टिकाई है. समस्या स्वीकार करना यह मानना है कि जो प्रतिभा मानी गई थी वह वैसे काम नहीं आई. लेकिन कॉलमनिस्ट का एक काम बिना मांगी राय देना भी है और संकट के समय ख़ासकर हमें अपना कंधा लगाना चाहिए.
मामले की जड़ में एक सरल तथ्य है जो स्पष्ट हो गया है: हमारे प्रधानमंत्री व्यक्तिगत कूटनीति में अच्छे नहीं हैं. जैसा कि हम देखेंगे, वे इसमें शानदार रूप से बुरे हैं. ध्यान दें कि यह इस बात से अलग मुद्दा है कि व्यक्तिगत कूटनीति अपने आप में काम करती है या नहीं. यह काम कर सकती है. रिचर्ड निक्सन और हेनरी किसिंजर ने इसका इस्तेमाल चीन को अमेरिका के साथ लाने के लिए किया था, और माओ को सोवियत संघ के साथ गठबंधन करने से रोका था.
जब वे विदेशी गणमान्य व्यक्तियों की मेज़बानी कर रहे थे, तो पाकिस्तान के प्रधानमंत्री ज़ुल्फ़िक़ार अली भुट्टो कभी-कभी व्यक्तिगत रूप से हवाई अड्डे पर किसी व्यक्ति का स्वागत करते थे. अपने सहयोगियों इक़बाल अख़ुंद और राफ़ी रज़ा के संस्मरणों में, वे लिखते हैं कि इससे कभी-कभी नतीजे मिलते थे. हालांकि, हम यहां इस पर नहीं हैं.
जब गलवान में झड़प हुई, तो इसने उस मित्रता की भावना को ध्वस्त कर दिया जिसे प्रधानमंत्री ने ख़ुद बढ़ावा दिया था. सितंबर 2014 में, उन्होंने अपना एक मशहूर संक्षिप्त नाम गढ़ा, चीन के साथ द्विपक्षीय संबंधों के बारे में कहा कि वे 'INCH' (India and China) से 'MILES' (Millennium of Exceptional Synergy) की तरफ़ बढ़ रहे हैं.
जिस रिपोर्ट में यह समाचार प्रकाशित हुआ, वह इस पैराग्राफ़ के साथ समाप्त हुई, और याद रखें यह 2014 की बात है: 'मोदी की टिप्पणी ऐसे समय में आई जब लेह के स्थानीय अधिकारी दावा कर रहे थे कि सरकारी वाहनों में चीनी नागरिक लद्दाख़ के डेमचोक में भारतीय इलाक़े में दाख़िल हो गए थे और स्थानीय लोगों को एक सिंचाई परियोजना पर काम करने से रोक रहे थे. विवादास्पद सीमा विवाद उन मुद्दों में से होगा जिन पर मोदी और शी चर्चा करेंगे.'
2020 में गलवान में झड़प से पहले मोदी कुल 18 बार शी से मिले. तय शादी में युवा भारतीय जोड़े 18 बार से कम मिलते हैं लेकिन वे दूसरे व्यक्ति को जीवन साथी के तौर पर मुनासिब या नामुनासिब समझने में कामयाब हो जाते हैं. हमारे प्रधानमंत्री तमाम गले मिलने और झूला झूलने के बावजूद ऐसा नहीं कर सके. शी एक सख़्त हिसाब-किताब से चालित व्यक्ति है और चापलूस मुद्राओं के आगे पसीजने वाले नहीं.
कि हमें यह पता नहीं था, यह हमारी नाकामी थी. उनके कार्यों की प्रतिक्रिया भी हमारी तरफ़ से व्यक्तिगत थी: गलवान के बाद, मोदी ने अब तक शी से मिलने से परहेज़ किया है. वास्तविक व्यक्तिगत कूटनीति के लिए उन्हें फ़ोन उठाकर यह पूछना चाहिए था कि शी ऐसा बर्ताव क्यों कर रहा था, बजाय नाराज़गी दिखाने के, लेकिन जैसा कि नोट किया गया है, वे वास्तव में इन चीज़ों में अच्छे नहीं हैं जिनमें उन्हें अच्छा समझा जाता है.
हमारे राजनयिक आज इस बात को लेकर अनिश्चित हैं कि ट्रम्प भारत के साथ क्यों सख़्ती बरत रहा है लेकिन इसकी एक मिसाल है. अपने पहले कार्यकाल में, ट्रम्प ने मोदी को तेहरान से तेल ख़रीदना बंद करने पर मजबूर किया. हमने शिकायत की कि हमारी रिफ़ाइनरियां ईरानी कच्चे तेल के लिए कैलिब्रेट की गई हैं लेकिन यद्यपि कोई संयुक्त राष्ट्र प्रतिबंध लागू नहीं था, हमने तब ट्रम्प की बात मान ली.
टैरिफ़ पर ट्रम्प के हमारे साथ सख़्त होने की सबसे आसान व्याख्या इस सिद्धांत में नहीं मिलती कि वह इस बात से परेशान है कि भारत ने पाकिस्तान के साथ हमारे युद्ध को समाप्त करने का उसका श्रेय स्वीकार नहीं किया है (उसे परवाह नहीं कि हम क्या सोचते हैं). व्याख्या दुनिया भर के सभी स्कूल के मैदानों में मिलती है. गुंडा हमेशा सबसे लड़ना नहीं चाहता. गुंडा सार्वजनिक रूप से एक व्यक्ति की मिसाल बनाना चाहता है ताकि बाक़ी बिना लड़े ही मान जाएं. यही यहां दुनिया की आंखों के सामने हुआ है.
ह्यूस्टन और अहमदाबाद में ट्रम्प के लिए हमारी विशाल रैलियों ने हमें नहीं बचाया क्योंकि वह एक स्वार्थी गुंडा है जो पहले और आख़िर में अपने हितों का ध्यान रखता है. यही उसका चरित्र है. यह हमारी ग़लती है कि उससे अपनी कथित क़रीबी के बावजूद हमने उसे नहीं समझा जो शी और सत्ता की स्थिति में मौजूद हर व्यक्ति के लिए इतना स्पष्ट था.
अगर हम यह स्वीकार करें कि हम जहां हैं वहां इसी वजह से हैं तो हम इसे ठीक करने में सक्षम हो सकते हैं. लेकिन रिकॉर्ड को देखते हुए यह ज़्यादा संभावना है कि हम 2014 से जिस रास्ते पर चल रहे हैं उसी पर चलते रहेंगे क्योंकि इस मुक़ाम पर यह बताना नामुमकिन है कि हमारा महान नेता कभी भी अपनी पूरी काबिलियत से थोड़ा भी कम हो सकता है.
'वोट अधिकार यात्रा' खत्म होने के बाद अब?
कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने बिहार में अपनी 1,300 किलोमीटर लंबी 'वोट अधिकार यात्रा' का समापन करते हुए सत्ता पक्ष पर लोकतंत्र और बहुजन समाज की आवाज़ को दबाने का तीखा हमला बोला. अपनी यात्रा के अंतिम चरण में उन्होंने मुज़फ़्फ़रपुर में उन डिजिटल मीडिया पत्रकारों और यू-ट्यूबर्स से मुलाक़ात की जो दलितों, पिछड़ों और अल्पसंख्यकों के मुद्दों को प्रमुखता से उठाते हैं. राहुल ने आरोप लगाया कि इन युवाओं को सच बोलने से रोकने के लिए डराया-धमकाया जा रहा है और उन पर झूठे मुक़दमे दर्ज किए जा रहे हैं. 17 अगस्त को शुरू हुई यह यात्रा 1 सितंबर को पटना में एक विशाल मार्च के साथ समाप्त होगी, जिसे बिहार विधानसभा चुनावों से पहले कांग्रेस और 'महागठबंधन' के शक्ति प्रदर्शन के रूप में देखा जा रहा है.
यह यात्रा कांग्रेस के लिए बिहार की राजनीति में अपनी खोई हुई ज़मीन वापस पाने और खुद को एक गंभीर खिलाड़ी के रूप में फिर से स्थापित करने का एक महत्वपूर्ण प्रयास है. कथित "वोट चोरी" और चुनाव आयोग की भूमिका पर सवाल उठाकर, कांग्रेस ने एक ऐसा मुद्दा उठाया है जो सीधे तौर पर लोकतंत्र की जड़ों से जुड़ा है. इस यात्रा ने न केवल बिहार में विपक्षी 'महागठबंधन' (जिसमें राजद, कांग्रेस, वाम दल और वीआईपी शामिल हैं) की एकजुटता का प्रदर्शन किया, बल्कि कांग्रेस को गठबंधन के भीतर अपनी मोलभाव की शक्ति बढ़ाने का एक मंच भी प्रदान किया है.
विपक्षी एकता का प्रदर्शन: यात्रा के दौरान राहुल गांधी ने एक खुली जीप में राजद नेता तेजस्वी यादव, भाकपा (माले) के दीपांकर भट्टाचार्य और वीआईपी के मुकेश सहनी के साथ यात्रा की. यह बिहार में विपक्षी एकता की एक सशक्त तस्वीर थी. "वोट चोर, गद्दी छोड़" जैसे नारे पूरी यात्रा के दौरान गूंजते रहे. इस यात्रा को राष्ट्रीय स्तर पर भी समर्थन मिला, जब डीएमके प्रमुख एम.के. स्टालिन और सपा प्रमुख अखिलेश यादव जैसे इंडिया ब्लॉक के बड़े नेता इसमें शामिल हुए.
बहुजनों की आवाज़: राहुल गांधी ने विशेष रूप से उन यू-ट्यूबर्स से मुलाक़ात कर एक बड़ा संदेश दिया जो मुख्यधारा के मीडिया द्वारा अनदेखी की गई कहानियों को सामने ला रहे हैं. उन्होंने आरोप लगाया कि "मनुवादी ताकतें" इन आवाज़ों को दबाना चाहती हैं. उन्होंने इन युवाओं को दिल्ली आकर मिलने का न्योता दिया ताकि उनकी सुरक्षा और काम को आगे बढ़ाने के तरीकों पर चर्चा की जा सके.
सीमांचल में मतदाता सूची की चिंता: यह यात्रा बिहार के सीमांचल क्षेत्र से भी गुज़री, जहां मतदाता सूची के विशेष गहन पुनरीक्षण (SIR) को लेकर अल्पसंख्यक समुदाय में गहरी चिंता व्याप्त है. चुनाव आयोग द्वारा पहचान दस्तावेज़ अपलोड करने की 1 सितंबर की समय सीमा नजदीक आने के साथ, किशनगंज, अररिया जैसे ज़िलों में लाखों लोगों ने निवास प्रमाण पत्र के लिए आवेदन किया है, क्योंकि आधार और राशन कार्ड को मान्य दस्तावेज़ों की सूची से बाहर रखा गया है. लोगों को डर है कि दस्तावेज़ों की कमी के कारण बड़ी संख्या में वास्तविक मतदाताओं के नाम सूची से हटा दिए जा सकते हैं. राजद और अन्य दलों ने इस मुद्दे को सुप्रीम कोर्ट में उठाया है, और समय सीमा बढ़ाने की मांग की है.
इस यात्रा ने कांग्रेस के कार्यकर्ताओं में निश्चित रूप से नया जोश भरा है, लेकिन इसकी असली परीक्षा आगामी विधानसभा चुनावों में होगी. यात्रा से मिली सार्वजनिक प्रतिक्रिया का उपयोग कांग्रेस 'महागठबंधन' में सीट-बंटवारे की बातचीत में बेहतर हिस्सेदारी के लिए करेगी. राहुल गांधी ने महाराष्ट्र, हरियाणा और कर्नाटक में भी कथित मतदाता धोखाधड़ी के "सबूत" सामने लाने का वादा किया है, जो यह दर्शाता है कि कांग्रेस इस मुद्दे को एक राष्ट्रीय अभियान बनाने की तैयारी में है. यह यात्रा कांग्रेस की उस रणनीति का हिस्सा है जिसके तहत वह सामाजिक न्याय और लोकतंत्र की रक्षा जैसे मुद्दों पर बीजेपी को घेरना चाहती है.
“दिल से रे”... और, बिहार की ‘वोटर अधिकार यात्रा’
कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने रविवार को बिहार में अपनी 1,300 किलोमीटर लंबी ‘वोटर अधिकार यात्रा’ का समापन कृतज्ञता संदेश के साथ किया. उन्होंने सोशल मीडिया पर इस यात्रा का एक संकलन साझा किया, जिसे एआर रहमान के “दिल से रे” संगीत पर प्रस्तुत किया गया. “बिहार आपका बहुत आभार, ढेर सारा प्यार, दिल से,” विपक्ष के नेता ने लिखा.
यह यात्रा, चुनाव आयोग और भाजपा पर लगे कथित वोट चोरी के आरोपों के खिलाफ विपक्ष के अभियान को उजागर करने के लिए आयोजित की गई थी. इसकी शुरुआत 17 अगस्त को हुई थी और यह 1 सितंबर को पटना में गांधी मैदान से अंबेडकर पार्क तक के मार्च के साथ समाप्त हो गई.
यात्रा की शुरुआत सासाराम से हुई और इस दौरान औरंगाबाद, गया, नालंदा, भागलपुर, कटिहार, पूर्णिया, मधुबनी, दरभंगा, चंपारण, गोपालगंज, सिवान, छपरा और आरा समेत कुल 25 जिलों और 110 से अधिक विधानसभा क्षेत्रों को कवर किया गया.
अभियान के दौरान कांग्रेस नेता राहुल खुले जीप में आरजेडी नेता तेजस्वी यादव, सीपीआई(एमएल) के दीपांकर भट्टाचार्य और विकासशील इंसान पार्टी के मुकेश सहनी के साथ रहे, जिससे राज्य में विपक्ष की एकजुटता का चित्र उभरा.
“द टेलीग्राफ” के अनुसार, “वोट चोर, गद्दी छोड़” के नारे यात्रा के दौरान गांव-गांव और कस्बों में गूंजते रहे.
बारिश से भीगी हुई एक रैली में राहुल गांधी ने संविधान की प्रति उठाकर एक ऐसा भाषण दिया, जिसने यात्रा का स्वर स्पष्ट कर दिया. उन्होंने कहा, “वोट चोरी… संविधान पर हमला है. यह हिंदुस्तान की आत्मा पर हमला है. वोट चोरी भारत माता पर हमला है. हम न तो चुनाव आयोग को और न ही मोदी को अपनी भारत माता और संविधान पर हमला करने देंगे.”
कांग्रेस नेता ने मताधिकार को गांधी और अंबेडकर की विरासत से जोड़ा. उन्होंने कहा: “याद रखो, अगर तुम्हारा वोट चोरी हो गया तो तुम्हारा भविष्य भी छिन जाएगा.” राहुल गांधी बिहार के सिमरिया में नंगे पांव तालाब में उतरकर मखाना किसानों से मिले. किसानों ने उन्हें बताया कि उन्हें मखाने के लिए प्रति किलो केवल 40 रुपये मिलते हैं, जबकि शहरी बाज़ारों में यह ऊंचे दामों पर बिकता है. इस पर राहुल गांधी ने कहा कि मेहनत और कौशल का हक मज़दूर को ही मिलना चाहिए. उन्होंने मखाने को बिहार के किसानों के खून-पसीने से पैदा किया गया सुपरफूड बताया.
दरभंगा में राहुल गांधी द्वारा अपनी बहन प्रियंका गांधी वाड्रा को पीछे बिठाकर बुलेट मोटरसाइकिल चलाने का एक और प्रसंग सामने आया. सक्रिय राजनीति में आने के बाद से बिहार में यह प्रियंका गांधी की पहली उपस्थिति थी. जब राहुल गांधी ने प्रियंका का हेलमेट ठीक किया तो मज़ाक में बोले — “दीदी के लिए भी हेलमेट है ना?” उसी समय तेजस्वी यादव भी उनके बिल्कुल पास ही बाइक पर सवार थे.
कुछ ही देर बाद विवाद खड़ा हो गया, जब राहुल गांधी, प्रियंका और राजद नेता तेजस्वी यादव दरभंगा से मोटरसाइकिलों पर सवार होकर मुज़फ्फरपुर के लिए निकल गए. सोशल मीडिया पर सामने आए एक कथित वीडियो में यात्रा के दौरान मंच से किसी व्यक्ति को प्रधानमंत्री मोदी के खिलाफ अशोभनीय टिप्पणी करते दिखाया गया. इसके विरोध में भाजपा ने पटना में एक मार्च निकाला, जहां कांग्रेस और भाजपा कार्यकर्ताओं के बीच झड़प हो गई. कांग्रेस का आरोप था कि भाजपा ने उनके सदाक़त आश्रम मुख्यालय पर हमला और तोड़फोड़ की, जिसे वह एक साज़िश बता रही है.
शादी की बात हुई तो हास्य भी दिखा...
हालांकि पूरे घटनाक्रम में हल्का-फुल्का हास्य भी दिखा. राजनीतिक गठबंधनों पर पूछे गए सवाल के जवाब में तेजस्वी यादव ने चुटकी लेते हुए चिराग पासवान से उनकी शादी को लेकर मजाक किया. इस पर राहुल गांधी ने माइक पकड़कर बीच में कहा — “ये बात मुझ पर भी लागू होती है.” यह सुनकर तेजस्वी ने लोगों को याद दिलाया कि उनके पिता लालू प्रसाद यादव राहुल गांधी का रिश्ता तय करने की बातें करते रहे हैं. राहुल मुस्कुराते हुए बोले — “हां, ये सब उनके पिता के ज़रिए चलता रहता है.”
राहुल गांधी, जो इस यात्रा को एक “क्रांति” कह चुके हैं, ने अंत में लोगों से भावनात्मक जुड़ाव के लिए “दिल से” संबोधन किया. उनका यह प्रयास बिहार विधान सभा चुनाव से कुछ महीनों पहले जनता को साधने की कोशिश के रूप में देखा जा रहा है.
कांग्रेस बिहार में एसआईआर फिर करवाने की मांग, कहा, आयोग ने 89 लाख शिकायतें खारिज कीं
कांग्रेस के मीडिया और प्रचार विभाग के अध्यक्ष पवन खेड़ा ने रविवार को दावा किया कि बिहार में मतदाता सूची के विशेष गहन पुनरीक्षण (एसआईआर) के दौरान पार्टी के बूथ स्तर एजेंटों (बीएलए) ने 89 लाख अनियमितताओं की शिकायतें दर्ज कीं, लेकिन चुनाव आयोग ने सभी को खारिज कर दिया. खेड़ा ने आरोप लगाया कि इन अनियमितताओं से निर्वाचन आयोग की मंशा पर ही सवाल खड़े होते हैं और मांग की कि पूरी कवायद को दोबारा कराया जाए.
हालांकि, बिहार के मुख्य निर्वाचन पदाधिकारी के कार्यालय का कहना है कि अब तक कांग्रेस के किसी भी जिला अध्यक्ष द्वारा अधिकृत किसी भी बीएलए ने किसी भी हटाए गए नाम के खिलाफ दावा या आपत्ति दर्ज नहीं कराई है.
खेड़ा ने प्रेस कॉन्फ्रेंस में कहा, “चुनाव आयोग यह खबर फैलाता रहता है कि राजनीतिक दलों की तरफ से कोई शिकायत नहीं आ रही है. सच यह है कि कांग्रेस ने एसआईआर से जुड़ी 89 लाख अनियमितताओं की शिकायतें चुनाव आयोग को सौंपी थीं.” उन्होंने आगे कहा, “जब हमारे बीएलए शिकायत दर्ज कराने गए, तो आयोग ने उन्हें खारिज कर दिया. आयोग ने स्पष्ट तौर पर हमारे एजेंटों से कहा कि शिकायतें केवल व्यक्ति कर सकते हैं, राजनीतिक दल नहीं.”
धौलीगंगा परियोजना की सुरंग में भूस्खलन से 19 मज़दूर फंसे, बचाव कार्य जारी
उत्तराखंड के पिथौरागढ़ ज़िले में भारी मानसूनी बारिश के कारण हुए एक बड़े भूस्खलन के बाद धौलीगंगा जलविद्युत परियोजना की एक सुरंग में राष्ट्रीय जलविद्युत निगम लिमिटेड (NHPC) के कम से कम 19 कर्मचारी फंस गए. अधिकारियों ने रविवार को बताया कि भूस्खलन से गिरे भारी मलबे के कारण बिजलीघर तक जाने वाली सामान्य और आपातकालीन, दोनों सुरंगों का प्रवेश द्वार अवरुद्ध हो गया, जिससे मज़दूर बाहर नहीं निकल पा रहे हैं.
यह घटना एक बार फिर हिमालय के संवेदनशील पारिस्थितिकी तंत्र में चल रही बड़ी ढांचागत परियोजनाओं से जुड़े गंभीर खतरों को रेखांकित करती है. यह क्षेत्र भूस्खलन और आकस्मिक बाढ़ के प्रति अत्यधिक संवेदनशील है. यह घटना न केवल निर्माण कार्य में लगे मज़दूरों की सुरक्षा पर गंभीर सवाल उठाती है, बल्कि ऐसी आपदाओं से निपटने के लिए हमारी तैयारियों की भी परीक्षा लेती है. 2021 में चमोली में आई आपदा की यादें अभी भी ताज़ा हैं, जिसमें एक जलविद्युत परियोजना को भारी नुकसान हुआ था और कई लोगों की जान चली गई थी.
यह घटना धारचूला तहसील के पास एलागढ़ क्षेत्र में स्थित धौलीगंगा बिजली परियोजना स्थल पर हुई. अधिकारियों के अनुसार, लगातार हो रही भारी बारिश के कारण पहाड़ी का एक बड़ा हिस्सा खिसक गया, जिससे सुरंगों का रास्ता पूरी तरह से बंद हो गया. धारचूला के उप ज़िलाधिकारी जितेंद्र वर्मा ने जानकारी दी कि फंसे हुए सभी मज़दूर सुरक्षित हैं और उनसे संपर्क बना हुआ है. उन्होंने बताया कि मलबे को हटाने और रास्ता साफ़ करने के लिए युद्धस्तर पर काम शुरू कर दिया गया है. सीमा सड़क संगठन (BRO) की भारी मशीनरी, जिसमें जेसीबी मशीनें भी शामिल हैं, को बचाव कार्य में लगाया गया है. हालांकि, ऊपर से लगातार गिर रहे मलबे के कारण बचाव अभियान में मुश्किलें आ रही हैं.
पर्यावरणविद् और स्थानीय समुदाय लंबे समय से उत्तराखंड के नाजुक पहाड़ी पारिस्थितिकी तंत्र में बड़े पैमाने पर बांधों और सुरंगों के निर्माण के विनाशकारी प्रभावों के बारे में चेतावनी देते रहे हैं. उनका तर्क है कि इस तरह की परियोजनाएं पहाड़ों को अस्थिर करती हैं, जिससे भूस्खलन का खतरा बढ़ जाता है. यह घटना एक बार फिर विकास की ज़रूरतों और पर्यावरण की सुरक्षा के बीच एक स्थायी संतुलन बनाने की तत्काल आवश्यकता पर बहस को तेज़ करती है. प्रशासन की पहली और एकमात्र प्राथमिकता सभी फंसे हुए मज़दूरों को जल्द से जल्द सुरक्षित बाहर निकालना है. उप ज़िलाधिकारी जितेंद्र वर्मा ने उम्मीद जताई है कि शाम तक रास्ता साफ़ कर लिया जाएगा और बचाव अभियान सफलतापूर्वक पूरा हो जाएगा. इस घटना के बाद, सरकार और संबंधित एजेंसियों पर पहाड़ी क्षेत्रों में चल रही परियोजनाओं के लिए सुरक्षा प्रोटोकॉल की गहन समीक्षा करने और उन्हें और अधिक सख्त बनाने का दबाव बढ़ेगा.
'फर्ज़ी राजनीतिक दलों' पर लगाम लगाने की मांग, नियमन के लिए सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर
देश में राजनीतिक दलों के पंजीकरण और कामकाज को विनियमित करने के लिए कड़े नियम बनाने की मांग को लेकर सुप्रीम कोर्ट में एक जनहित याचिका दायर की गई है. याचिका में आरोप लगाया गया है कि मौजूदा प्रणाली में खामियों का फायदा उठाकर बड़ी संख्या में "फर्ज़ी राजनीतिक दल" बनाए गए हैं, जो न केवल लोकतंत्र के लिए खतरा हैं, बल्कि काले धन को वैध बनाने और अपराधियों को राजनीतिक संरक्षण देने का एक ज़रिया भी बन गए हैं.
यह याचिका भारत की चुनावी प्रक्रिया में एक महत्वपूर्ण सुधार की आवश्यकता को उजागर करती है. वर्तमान में, चुनाव आयोग के पास किसी राजनीतिक दल को पंजीकृत करने की शक्ति तो है, लेकिन गंभीर अनियमितताओं के बावजूद उसका पंजीकरण रद्द करने की शक्ति बहुत सीमित है. इस कानूनी शून्यता का लाभ उठाकर कई संगठन केवल कागज़ पर पार्टियां बना लेते हैं, जिनका उद्देश्य चुनाव लड़ना नहीं, बल्कि वित्तीय धोखाधड़ी या अन्य अवैध गतिविधियों को अंजाम देना होता है. यदि सुप्रीम कोर्ट इस पर कोई दिशा-निर्देश जारी करता है, तो यह भारतीय राजनीति में पारदर्शिता और जवाबदेही की दिशा में एक मील का पत्थर साबित हो सकता है.
यह याचिका वकील और जनहित याचिकाकर्ता अश्विनी कुमार उपाध्याय द्वारा दायर की गई है. याचिका में दावा किया गया है कि "कट्टर अपराधियों, अपहरणकर्ताओं, ड्रग तस्करों और मनी लॉन्डरर्स" से भारी मात्रा में धन लेकर उन्हें राष्ट्रीय और राज्य स्तर के पदाधिकारी नियुक्त किया जा रहा है. याचिका में एक हालिया मीडिया रिपोर्ट का हवाला देते हुए कहा गया है कि आयकर विभाग ने एक ऐसे "फर्ज़ी" राजनीतिक दल का भंडाफोड़ किया जो 20% कमीशन लेकर काले धन को सफ़ेद में बदलने का काम कर रहा था. याचिका में तर्क दिया गया है कि चूंकि राजनीतिक दल सार्वजनिक कार्य करते हैं और जनता के जीवन को प्रभावित करते हैं, इसलिए उन्हें जवाबदेह बनाने के लिए चुनाव आयोग को नियम बनाने का निर्देश दिया जाना चाहिए ताकि धर्मनिरपेक्षता, पारदर्शिता और राजनीतिक न्याय को बढ़ावा दिया जा सके.
यह याचिका राजनीति के बढ़ते अपराधीकरण और चुनावी फंडिंग में पारदर्शिता की कमी को लेकर समाज में बढ़ती चिंताओं का प्रतिबिंब है. एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स (ADR) जैसी संस्थाओं की रिपोर्टें बार-बार दिखाती हैं कि कैसे राजनीतिक दलों को मिलने वाले चंदे का एक बड़ा हिस्सा अज्ञात स्रोतों से आता है. फर्ज़ी दल इस अपारदर्शी प्रणाली का एक महत्वपूर्ण हिस्सा हैं, जो मुख्यधारा की पार्टियों के लिए भी काले धन को खपाने का एक माध्यम बन सकते हैं.
सुप्रीम कोर्ट अब इस याचिका की स्वीकार्यता पर विचार करेगा. यदि अदालत इस मामले पर सुनवाई के लिए सहमत होती है, तो वह चुनाव आयोग और केंद्र सरकार को नोटिस जारी कर इस मुद्दे पर उनका पक्ष रखने के लिए कह सकती है. यह मामला एक लंबी कानूनी और राजनीतिक बहस को जन्म दे सकता है, लेकिन इसका अंतिम परिणाम देश में चुनावी सुधारों की दिशा तय करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाएगा.
भारतीय संस्था 'एजुकेट गर्ल्स' को लड़कियों की शिक्षा के लिए मिला प्रतिष्ठित रेमन मैग्सेसे पुरस्कार

लड़कियों की शिक्षा के क्षेत्र में ज़मीनी स्तर पर क्रांतिकारी काम करने वाली भारतीय गैर-लाभकारी संस्था 'एजुकेट गर्ल्स' को एशिया का नोबेल पुरस्कार कहे जाने वाले प्रतिष्ठित रेमन मैग्सेसे पुरस्कार से सम्मानित किया गया है. यह पहली बार है जब किसी भारतीय संगठन को यह सर्वोच्च सम्मान मिला है, जो भारत के लिए एक ऐतिहासिक उपलब्धि है. रेमन मैग्सेसे अवार्ड फाउंडेशन (RMAF) ने अपने प्रशस्ति पत्र में कहा कि 'एजुकेट गर्ल्स' को यह पुरस्कार "लड़कियों और युवा महिलाओं की शिक्षा के माध्यम से सांस्कृतिक रूढ़िवादिता को संबोधित करने, उन्हें निरक्षरता के बंधन से मुक्त करने और उन्हें अपनी पूरी मानवीय क्षमता हासिल करने के लिए कौशल, साहस और एजेंसी से लैस करने" की अटूट प्रतिबद्धता के लिए दिया गया है.
यह पुरस्कार भारत में लड़कियों की शिक्षा के लिए चल रहे उस मौन आंदोलन को एक शक्तिशाली वैश्विक मान्यता प्रदान करता है, जो अक्सर सुर्खियों से दूर, दूर-दराज के गांवों में बदलाव ला रहा है. यह इस बात का प्रमाण है कि जब सरकार, नागरिक समाज और स्थानीय समुदाय मिलकर काम करते हैं, तो गहरे सामाजिक पूर्वाग्रहों को भी तोड़ा जा सकता है और पीढ़ियों का भविष्य बदला जा सकता है. यह भारत के सामाजिक क्षेत्र के लिए एक बहुत बड़ा प्रोत्साहन है. इस ऐतिहासिक उपलब्धि पर अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए, संस्था की संस्थापक सफीना हुसैन ने कहा, "रेमन मैग्सेसे पुरस्कार प्राप्त करने वाली पहली भारतीय गैर-लाभकारी संस्था बनना 'एजुकेट गर्ल्स' और देश के लिए एक ऐतिहासिक क्षण है. यह मान्यता भारत के जन-संचालित आंदोलन पर एक वैश्विक स्पॉटलाइट डालती है, जो एक दूरस्थ गांव में एक अकेली लड़की के साथ शुरू हुआ और पूरे समुदायों को नया आकार देने, परंपराओं को चुनौती देने और मानसिकता को बदलने के लिए विकसित हुआ."
'एजुकेट गर्ल्स' ने अपनी यात्रा राजस्थान के गांवों से शुरू की थी. संगठन का मॉडल तीन-चरणीय दृष्टिकोण पर आधारित है: सबसे पहले, उन समुदायों की पहचान करना जहां लड़कियों की शिक्षा का स्तर सबसे कम है; दूसरा, स्कूल न जाने वाली या बीच में पढ़ाई छोड़ चुकी लड़कियों को वापस कक्षा में लाना; और तीसरा, यह सुनिश्चित करना कि वे तब तक स्कूल में बनी रहें जब तक कि वे उच्च शिक्षा और सार्थक रोजगार के लिए तैयार न हो जाएं. संगठन ने अब तक भारत के सबसे पिछड़े क्षेत्रों के 30,000 से अधिक गांवों में काम किया है, जिससे दो मिलियन से अधिक लड़कियों के जीवन पर सकारात्मक प्रभाव पड़ा है. उनकी सफलता का एक बड़ा पैमाना 90% से अधिक का रिटेंशन रेट है. 'एजुकेट गर्ल्स' की सफलता का रहस्य उसके समुदाय-केंद्रित दृष्टिकोण में निहित है. संगठन स्थानीय स्वयंसेवकों का एक नेटवर्क बनाता है, जिन्हें 'टीम बालिका' कहा जाता है, जो घर-घर जाकर माता-पिता को अपनी बेटियों को स्कूल भेजने के लिए प्रेरित करते हैं. यह पुरस्कार इस बात की भी मान्यता है कि स्थायी सामाजिक परिवर्तन ऊपर से थोपा नहीं जा सकता; यह तभी संभव है जब समुदाय स्वयं बदलाव का वाहक बने. इस प्रतिष्ठित वैश्विक मान्यता से 'एजुकेट गर्ल्स' को अपने काम का विस्तार करने में काफी मदद मिलेगी. संगठन का लक्ष्य अगले दशक में 10 मिलियन शिक्षार्थियों तक पहुंचना है. यह पुरस्कार संस्था को नए साझेदार और संसाधन जुटाने में मदद करेगा. इसके अलावा, 'एजुकेट गर्ल्स' का सफल मॉडल अब भारत के बाहर अन्य विकासशील देशों के लिए भी एक प्रेरणा और ब्लूप्रिंट के रूप में काम कर सकता है, जो समान चुनौतियों का सामना कर रहे हैं.
वैकल्पिक मीडिया | दलित दमन
चॉकलेट का लालच देकर 8 साल के बच्चे से कराया टॉयलेट साफ़, पानी मांगा तो पेड़ से उल्टा लटकाकर पीटा!
राजस्थान में दलित बच्चों पर अत्याचार की दो घटनाएं सामने आई हैं. पहली घटना बाड़मेर जिले के ग्राम भाखरपुरा की है, जहां आठ वर्षीय एक नाबालिग बच्चे को गांव के कुछ लोगों ने पानी का मटका छूने और चॉकलेट मांगने पर न सिर्फ पीटा, बल्कि पेड़ से उल्टा लटकाकर उसकी निर्मम पिटाई की. पीड़ित बच्चे की मां ने आरोप लगाया है कि जब उन्होंने बच्चे को बचाने की कोशिश की तो उनके साथ भी मारपीट की गई. इस मामले में पुलिस ने एससी/एसटी एक्ट सहित भारतीय न्याय संहिता (बीएनएस) की कई गंभीर धाराएं लगाते हुए मामला दर्ज किया है.
गीता सुनील पिल्लई के अनुसार, घटना 26 अगस्त की है. शिकायतकर्ता पूरीदेवी के अनुसार, उनका आठ साल का बेटा गांव में खेल रहा था. इस दौरान आरोपियों नारणाराम पुत्र रुपाराम प्रजापत और देमाराम प्रजापत ने उससे बाथरूम साफ करवाए और कचरा इकट्ठा करवाया. काम करवाने के बाद जब बच्चे ने चॉकलेट मांगी तो आरोपियों ने मना कर दिया. बच्चे ने प्यास लगने पर पानी पीने की इच्छा जताई और पानी के मटके की ओर हाथ बढ़ाया. यह देखकर आरोपी बिगड़ गए.
पूरीदेवी ने बताया कि वे और उनकी सास चिल्लाते हुए आरोपियों के घर पहुंचे. वहां पहुंचकर उन्होंने देखा कि आरोपी उनके बच्चे को एक पेड़ से उल्टा लटकाकर उसकी पिटाई कर रहे थे. पूरीदेवी ने आरोप लगाया, "हमने मना किया कि अब और मत मारो, हमारी एक (संतान) की अनहोनी पहले ही हो चुकी है, लेकिन वे पीटते रहे." जब पीड़ित परिवार के एक सदस्य दशरथ ने इसकी वीडियो बनाना शुरू की, तभी आरोपियों ने बच्चे को पेड़ से उतार दिया.
“मूकनायक” में राजन चौधरी के मुताबिक, दूसरी घटना अलवर जिले के खेड़ली थाना क्षेत्र की है. पीपलखेड़ा गांव का रहने वाला 11 वर्षीय दलित बच्चा अपनी साइकिल से खेतों की ओर गया था. रास्ते में दो युवक बाइक से आए और उसे रोक लिया. दोनों युवक नशे में थे और बच्चे के साथ मारपीट करने लगे. फिर युवकों ने जमीन पर थूककर बच्चे से जबरन चटवाया. इतना ही नहीं, उसे गालियां भी दीं और पैरों में गिरकर माफी मांगने के लिए भी मजबूर किया.
मोदी और उनकी मां के बारे में अभद्र भाषा, आरोपी के खिलाफ फतवा जारी करने की मांग
भाजपा के एक नेता ने दारुल उलूम देवबंद को पत्र लिखकर उस व्यक्ति के खिलाफ फतवा जारी करने का आग्रह किया है, जिसने कथित तौर पर पिछले हफ्ते बिहार में राहुल गांधी की “वोटर अधिकार यात्रा” के दौरान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उनकी माँ के लिए अभद्र भाषा का प्रयोग किया था.
इसे “गंभीर चिंता और संवेदनशीलता का विषय” बताते हुए पार्टी के अल्पसंख्यक मोर्चा के राष्ट्रीय अध्यक्ष जमाल सिद्दीकी ने जोर देकर कहा कि इस्लाम बुजुर्ग माता-पिता को उच्चतम सम्मान देता है, और बिहार के दरभंगा में इंडिया गठबंधन की रैली में मोहम्मद रिज़वी द्वारा (जिन्हें अब गिरफ्तार कर 14 दिन की न्यायिक हिरासत में भेज दिया गया है) मोदी की माँ की दिवंगत माता के खिलाफ की गई टिप्पणी ने समुदाय की छवि को धूमिल किया है.
सरकार ने तुर्की विमानन क्षेत्र से जुड़े रिश्तों पर यू-टर्न लिया
तीन महीने पहले मोदी सरकार ने तुर्की के साथ नागरिक उड्डयन संबंध समाप्त करने का संकल्प लिया था, क्योंकि “ऑपरेशन सिंदूर” के दौरान यह पता चला था कि पाकिस्तान द्वारा भारत में दागे गए कई ड्रोन तुर्की द्वारा निर्मित थे. लेकिन, अब सरकार ने भारतीय और तुर्की एयरलाइंस के बीच विमान लीजिंग समझौतों को मंजूरी देना शुरू कर दिया है, जो इसके रुख में नरमी का संकेत है.
अरिंदम मजूमदार के अनुसार, भारत की सबसे बड़ी एयरलाइन इंडिगो को नागरिक उड्डयन महानिदेशालय (डीजीसीए) ने टर्किश एयरलाइंस के साथ छह महीने तक बोइंग 777 विमानों की लीजिंग जारी रखने की अनुमति दी है. यह नागरिक उड्डयन नियामक के उस निर्देश के उलट है, जिसमें इंडिगो को 31 अगस्त तक तुर्किश एयरलाइंस से विमानों की लीजिंग बंद करने को कहा गया था.
डीजीसीए ने स्पाइसजेट के पांच बोइंग 737 विमानों की लीज की अनुमति भी दी है, जो कि तुर्किश एयरलाइन कोरेंडन की सहायक कंपनी से लिए जाएंगे. कोरेंडन एयरलाइंस माल्टा में पंजीकृत है, लेकिन इसका स्वामित्व तुर्की कंपनी के पास है.
इंडिगो ने पहले अपने लीज के विस्तार के लिए आवेदन किया था, जिसे केवल "एक बार और अंतिम विस्तार" के रूप में अगस्त के अंत तक ही अनुमति दी गई थी.
सरकारी अधिकारियों ने बताया कि ये अनुमोदन घरेलू एयरलाइनों के हितों की रक्षा के लिए दिए गए हैं, क्योंकि वे पहले से ही अप्रैल से पाकिस्तान द्वारा लगाए गए वायुक्षेत्र प्रतिबंधों से जूझ रही हैं. अगर लीज बंद हो जाती, तो भारतीय एयरलाइंस के पास इस्तांबुल के लिए एयरबस 320 या 321 विमानों के अलावा कोई विकल्प नहीं रहता, जिनकी सीमित क्षमता है. इससे भारत-तुर्की मार्ग पूरी तरह तुर्की की एयरलाइनों के नियंत्रण में चला जाता.
इसके अलावा, मई में, नागर विमानन सुरक्षा ब्यूरो ने सेल्बी के तुर्किश ग्राउंड हैंडलिंग फर्म को हटा दिया था, लेकिन बाद में उसे वापस शुरू करने की अनुमति दी गई. इसके बाद, अडानी समूह और जीएमआर जैसे प्रमुख एयरपोर्ट ऑपरेटरों ने विमान ग्राउंड-हैंडलिंग सेवाओं में प्रवेश की तैयारियां शुरू कर दी हैं. ऑब्जर्वर रिसर्च फाउंडेशन में रणनीतिक अध्ययन के उप निदेशक कबीर तनेजा ने कहा कि सरकार को भारतीय व्यापार हितों को प्राथमिकता देते हुए भू-राजनीतिक संबंधों की जटिलताओं से निपटना होगा.
इस्रायली हमले में हूती सरकार के प्रधानमंत्री समेत कई मंत्रियों की मौत
यमन की हूती सरकार के प्रधानमंत्री अहमद ग़ालिब अल-रहवी की राजधानी सना में एक इस्रायली हमले में कई मंत्रियों के साथ मौत हो गई. समूह की समाचार एजेंसी ने शनिवार को उसके राजनीतिक प्रमुख महदी अल-मशात के हवाले से यह जानकारी दी. हूतियों ने बताया कि गुरुवार के हमले में कई अन्य लोग भी घायल हुए हैं, लेकिन उन्होंने कोई और विवरण नहीं दिया.
इस्रायली सेना ने शुक्रवार को कहा कि उसके लड़ाकू विमानों ने सना क्षेत्र में एक परिसर पर हमला किया, जहां वरिष्ठ हूती नेता बैठक कर रहे थे. सेना ने बताया कि यह अभियान समूह के चीफ़ ऑफ़ स्टाफ, रक्षा मंत्री और अन्य वरिष्ठ अधिकारियों को निशाना बनाने के लिए चलाया गया था.
ट्रम्प प्रशासन एच-1बी वीज़ा के नियमों को सख़्त करने जा रहा, भारतीयों को होगी ज्यादा दिक्कत
डोनाल्ड ट्रम्प प्रशासन एच-1बी वीज़ा देने के नियमों को सख़्त करने जा रहा है, जिससे कई भारतीय आईटी पेशेवरों के करियर पर संकट आ सकता है.
भारतीय नागरिक एच-1बी वीज़ा कार्यक्रम के सबसे बड़े लाभार्थी हैं. 26 अगस्त को अमेरिकी वाणिज्य मंत्री हॉवर्ड लटनिक ने “एक्स” पर पोस्ट किया कि मौजूदा एच-1बी वीज़ा प्रणाली एक “धोखा” है, जो विदेशी कामगारों को अमेरिकी नौकरियों पर क़ब्ज़ा करने की अनुमति देती है. उन्होंने लिखा, “अमेरिकी कामगारों की भर्ती हर महान अमेरिकी कंपनी की प्राथमिकता होनी चाहिए. अब समय आ गया है कि हम अमेरिकियों को नौकरी दें.”
लटनिक ने फ़ॉक्स न्यूज़ से कहा, “मैं एच-1बी कार्यक्रम को बदलने में शामिल हूं. हम इस कार्यक्रम को बदलने जा रहे हैं, क्योंकि यह बहुत ख़राब है. हम ग्रीन कार्ड प्रक्रिया को भी बदलेंगे. एक औसत अमेरिकी प्रति वर्ष 75,000 डॉलर कमाता है, जबकि औसत ग्रीन कार्ड धारक 66,000 डॉलर कमाता है. यानी हमने निचले दर्जे के लोगों को चुना है. ऐसा क्यों कर रहे हैं हम? यही कारण है कि डोनाल्ड ट्रम्प इसे बदलने जा रहे हैं. अब ‘गोल्ड कार्ड’ आ रहा है. इसी तरह हम इस देश में आने वाले सर्वश्रेष्ठ लोगों का चयन शुरू करेंगे.”
बसंत कुमार मोहंती के अनुसार, वह यह बात समझाने की कोशिश कर रहे थे कि एच-1बी मार्ग से आने वाले कर्मचारी बहुत अधिक कुशल नहीं होते हैं. फ़्लोरिडा के गवर्नर रॉन डीसैंटिस ने भी एच-1बी वीज़ा के बारे में इसी तरह की भावना व्यक्त की है. डीसैंटिस ने 27 अगस्त को फ़ॉक्स न्यूज़ से कहा – एच-1बी प्रणाली पूरी तरह से एक धोखा है. उनमें से अधिकांश भारत से आते हैं. जब हमारे अपने लोगों की देखभाल करनी है तो हमें विदेशी कर्मचारियों को क्यों आयात करना चाहिए? अमेरिकियों को प्राथमिकता देना इन वीज़ा कार्यक्रमों पर भी लागू होना चाहिए.”
नॉर्थ अमेरिका एसोसिएशन फॉर इंडियन स्टूडेंट्स के संस्थापक सुधांशु कौशिक, जो अमेरिका में भारतीय छात्रों के कल्याण के लिए कार्य करते हैं, ने कहा कि अमेरिकी सरकार का छात्र और एच-1बी वीज़ा नीतियों को बदलने का निर्णय भारतीय छात्रों और कर्मचारियों के बीच चिंता की लहर पैदा कर रहा है. कौशिक ने कहा कि एच-1बी वीज़ा पर कड़ी पाबंदियां भारतीयों के लिए नौकरी के नुकसान का कारण बनेंगी.
“अब तक कोई निर्णय आधिकारिक रूप से स्पष्ट नहीं हुआ है. लेकिन यदि एच-1बी वीज़ा के नियम कठोर किए जाते हैं, तो इसका असर भारतीय कर्मचारियों पर अन्य देशों के नागरिकों की तुलना में कहीं ज़्यादा पड़ेगा. यह अमेरिकी उद्योग को भी प्रभावित करेगा,” कौशिक ने कहा.
विश्लेषण
भागवत कथा के दुराग्रह और दुहरे मापदंड
संजय के. झा का द वायर में प्रकाशित विश्लेषण में तर्क है कि आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत के हालिया उदारवादी भाषण भ्रामक हैं. यह उदारवादी शब्दावली का इस्तेमाल अपने अनुदारवादी और बहुसंख्यकवादी एजेंडे को छिपाने के लिए किया गया एक चतुर प्रयास है. भागवत ने अपने भाषणों में एकता, विविधता और धार्मिक स्वतंत्रता की बातें कीं, और गांधी-टैगोर को उद्धृत किया, न कि सावरकर या गोलवलकर को. उन्होंने 'हिंदू राष्ट्र' का एक ऐसा मॉडल पेश किया जहाँ अल्पसंख्यकों को अपना धर्म मानने की आज़ादी होगी.
लेखक इस तर्क पर सवाल उठाते हैं. वे पूछते हैं कि अगर आरएसएस के इरादे इतने नेक हैं, तो उन्हें संवैधानिक ढांचे के भीतर काम करने से परहेज़ क्यों है और वे 'हिंदू राष्ट्र' क्यों बनाना चाहते हैं. झा के अनुसार, भागवत के 'हिंदू राष्ट्र' का असली मतलब है कि अल्पसंख्यक हिंदुओं की उदारता और दया पर निर्भर रहेंगे, न कि उन्हें संवैधानिक समानता का अधिकार मिलेगा. यह अधिकारों और न्याय की शक्ति के बजाय दया का आश्वासन है.
विश्लेषण में शब्दों और कर्मों के बीच की खाई को उजागर किया गया है. यह बताया गया है कि हिंदुत्व शासन के 11 वर्षों के बाद, पहली बार केंद्रीय मंत्रिमंडल में एक भी मुस्लिम नहीं है और उनकी आजीविका के अवसर सीमित हो गए हैं. भागवत का यह कहना कि आक्रमणकारियों के नाम हटाना मुसलमानों के ख़िलाफ़ नहीं है, यह दर्शाता है कि आरएसएस यह तय करेगा कि कौन सा मुस्लिम 'अच्छा' और स्वीकार्य है. यह अल्पसंख्यकों के प्रति एक सशर्त स्नेह है. लेखक सावरकर और गोलवलकर की उन विचारधाराओं का भी ज़िक्र करते हैं जिनसे आरएसएस ने कभी ख़ुद को आधिकारिक तौर पर अलग नहीं किया.
भागवत द्वारा आरएसएस कार्यकर्ताओं के 'चरित्र-निर्माण' के दावे का खंडन करते हुए, लेखक भाजपा नेताओं के विभाजनकारी बयानों, लिंचिंग, और मुस्लिम विक्रेताओं के बहिष्कार जैसी घटनाओं की ओर इशारा करते हैं. अंत में, काशी और मथुरा पर मुसलमानों से 'बलिदान' की मांग को इस बात का सबूत माना गया है कि संघ को खुश रखने का बोझ अल्पसंख्यकों पर डाला जा रहा है.
विश्लेषण
ट्रम्प मोदी: ज़ोर का झटका, बहुत ज़ोर से लागे
द इकोनॉमिस्ट में प्रकाशित विश्लेषण तर्क देता है कि अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प की अप्रत्याशित और आक्रामक नीतियों ने भारत को पिछले 25 वर्षों से चली आ रही अपनी विदेश नीति, विशेष रूप से अमेरिका की ओर झुकाव, पर गहराई से पुनर्विचार करने के लिए मजबूर कर दिया है. यह भारत के लिए एक निर्णायक परीक्षा का समय है. ट्रम्प ने दो तरह से भारत को झटका दिया है: पहला, भारतीय निर्यातों पर अत्यधिक टैरिफ़ लगाकर; और दूसरा, कश्मीर मुद्दे पर पाकिस्तान का पक्ष लेते हुए मध्यस्थता की पेशकश करके, जो भारत के लिए एक रेड-लाइन है.
इन कदमों ने अमेरिका को एक भरोसेमंद सहयोगी मानने की धारणा को तोड़ दिया है. हालाँकि, टैरिफ़ का तत्काल आर्थिक प्रभाव प्रबंधनीय हो सकता है, लेकिन दीर्घावधि में यह भारत की चीन के विनिर्माण विकल्प के रूप में उभरने की महत्वाकांक्षा को ख़त्म कर सकता है. इससे सेवा निर्यात और विदेशी निवेश जैसे महत्वपूर्ण क्षेत्र भी ख़तरे में आ सकते हैं. रक्षा के मोर्चे पर भी, अमेरिका का पाकिस्तान की ओर झुकाव भारत के लिए चिंताजनक है. यह अमेरिका से उन्नत रक्षा प्रौद्योगिकी तक पहुँच को बाधित कर सकता है और भारत को रूस और फ्रांस जैसे अन्य देशों के करीब जाने के लिए प्रेरित कर रहा है.
इस स्थिति में भारत के पास तीन रणनीतिक विकल्प हैं. पहला, ट्रम्प प्रशासन के साथ किसी तरह का समझौता करना. दूसरा, अपनी 'बहु-संरेखित' नीति को मज़बूत करते हुए अन्य विदेशी मित्रों जैसे यूरोपीय संघ, रूस और फ्रांस के साथ संबंधों को गहरा करना. तीसरा और सबसे अहम कदम चीन के साथ तनावपूर्ण संबंधों को सुधारना है, जैसा कि प्रधानमंत्री मोदी की आगामी चीन यात्रा से संकेत मिलता है.
विश्लेषण का निष्कर्ष है कि इन सबसे बढ़कर, भारत के लिए सबसे अच्छा जवाब घरेलू आर्थिक सुधारों में तेज़ी लाना है. अपनी आंतरिक आर्थिक और सैन्य क्षमताओं को मज़बूत करके ही भारत भविष्य में इस तरह के बाहरी दबावों का प्रभावी ढंग से सामना कर सकता है और एक ऐसी वैश्विक शक्ति बन सकता है जिसे कोई भी नज़रअंदाज़ नहीं कर सकता.
तानाशाही का सामना ? अरुंधति ने बताए तरीके
बुकर पुरस्कार विजेता लेखिका और एक्टिविस्ट अरुंधति रॉय का मानना है कि भारत और अमेरिका जैसे देशों में तानाशाही की आहट तेज़ हो रही है. द न्यूयॉर्क टाइम्स को दिए एक इंटरव्यू में उन्होंने इस बात पर चर्चा की कि ऐसे दमनकारी माहौल में कैसे जिया और लिखा जा सकता है, जहां अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर लगातार हमले हो रहे हैं.
रॉय कहती हैं कि भारत में डर का माहौल अब सामान्य होता जा रहा है. उन्होंने कहा, "लोग फेसबुक और ट्विटर पर कही गई बातों के लिए गिरफ़्तार हो रहे हैं. अमेरिका में यह आपको नया लग सकता है, लेकिन हम इसके साथ जी रहे हैं और यह लगातार सामान्य होता जा रहा है."
रॉय ने भारत में मौजूदा सरकार के तौर-तरीकों और अमेरिका के 'मागा' आंदोलन के बीच कई परेशान करने वाली समानताएं बताईं. उन्होंने कहा कि दोनों जगहों पर यूनिवर्सिटीज़ पर हमले, वोटर लिस्ट में हेरफेर और असुविधाजनक आंकड़े देने वाले विशेषज्ञों को हटाने जैसी घटनाएं आम हैं. हालांकि, उन्होंने एक बड़ा फ़र्क भी बताया. उनके मुताबिक, "भारत में मेनस्ट्रीम मीडिया ने पूरी तरह से आत्मसमर्पण कर दिया है. यह अब सिर्फ़ झुका नहीं है, बल्कि सत्तावादी राज्य का एक अंग बन गया है."
तो ऐसे में एक लेखक या कलाकार कैसे सर्वाइव करे? रॉय का मानना है कि सत्तावादी नेता उन लोगों से "डरते" हैं जो सिर्फ़ तथ्यों से नहीं, बल्कि भावनात्मक रूप से भी लोगों से जुड़ने की क्षमता रखते हैं. वे जानते हैं कि कुछ लोग कभी नहीं झुकेंगे.
उन्होंने लेखकों के लिए एक रास्ता सुझाया. उनका कहना है कि आपका काम सिर्फ़ मौजूदा हालात पर एक प्रतिक्रिया नहीं होना चाहिए. उन्होंने ज़ोर देकर कहा, "आपको यह ज़ाहिर करना होगा कि आपका काम अपने आप में एक संपूर्ण चीज़ है, दुनिया को देखने का एक दूसरा नज़रिया पेश करने का एक तरीका है."
रॉय के अनुसार, यह काम खूबसूरती से किया जाना चाहिए, न कि किसी "वैचारिक हथौड़े" की तरह. उन्होंने एक दिलचस्प बात साझा की, "किसी ने मुझसे कहा कि आप ऐसे लिखती हैं जैसे उन्होंने आपको पहले ही मार दिया हो." इसका मतलब है कि बिना डरे और भविष्य के लिए बिना कुछ बचाए, अपनी पूरी सच्चाई के साथ लिखना ही तानाशाही में सर्वाइव करने का एक तरीका है. पूरी बातचीत यहां सुनें.
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