01/12/2025: बीएलओ फांसी पर | आयोग का ज़ुम्बा| हवाई अड्डे | मोदी काल में मीडिया | टीटीई का ट्रेन से धक्का | लंबे साये | कंट्रोल फ्रीक | महिलाओं का डेटा | आकार पटेल | पीएम की अयोध्या | एआई वाले खिलौने
‘हरकारा’ यानी हिंदी भाषियों के लिए क्यूरेटेड न्यूजलेटर. ज़रूरी ख़बरें और विश्लेषण. शोर कम, रोशनी ज़्यादा.
निधीश त्यागी, साथ में राजेश चतुर्वेदी, गौरव नौड़ियाल, फ़लक अफ़शां
आज की सुर्खियां
यूपी में एसआईआर के काम के दबाव में बीएलओ की जान जा रही है और प्रशासन मौन है
दिल्ली एयरपोर्ट पर जीपीएस से छेड़छाड़ की बात सरकार ने कबूली और संसद का सत्र हंगामेदार शुरू हुआ
मोदी काल में प्रेस की स्वतंत्रता की गारंटी अब मीडिया मालिकों को भी नहीं रही
यूपी में टीटीई ने नौसेना अधिकारी की पत्नी का सामान फेंका और फिर ट्रेन से धक्का दे दिया
जनगणना और परिसीमन के बहाने क्या भारत के संघीय ढांचे को हमेशा के लिए बदलने की तैयारी हो रही है
सरकारी प्रक्रियाएं और फॉर्म नागरिकों को सुविधा देने के बजाय उन्हें नियंत्रित करने का जरिया बन गए हैं
अपनी मर्जी से शादी करने वाली महिलाओं को भी सरकारी आंकड़े लापता और पीड़ित मान रहे हैं
ब्रिटेन की लेबर सांसद ट्यूलिप सिद्दीक को बांग्लादेश की अदालत ने दो साल की सजा सुनाई
दिल्ली के दो-तिहाई हिस्से में वायु गुणवत्ता मापने का कोई विश्वसनीय सिस्टम और डेटा नहीं है
संयुक्त राष्ट्र में भारत के दावों के बीच खुर्रम परवेज़ की चार साल की कैद मानवाधिकारों की असलियत बयां करती है
प्रधानमंत्री का अयोध्या में धर्म ध्वज फहराना संघ की वैचारिक विजय और हिंदू राष्ट्र की ओर एक कदम है
इजरायल के प्रधानमंत्री नेतन्याहू ने भ्रष्टाचार के मुकदमे से बचने के लिए राष्ट्रपति से माफी की गुहार लगाई
बच्चों के लिए एआई वाले खिलौने बाजार में आ गए हैं लेकिन क्या वे वाकई सुरक्षित हैं
‘एसआईआर’; यूपी में दुखी बीएलओ ने फांसी लगाई, बोला, “जीना चाहता हूं, पर क्या करूं”, तीन बीएलओ की मौत
उत्तरप्रदेश में दो और राजस्थान में एक बीएलओ की दुखद मौतों ने एसआईआर (विशेष गहन पुनरीक्षण) के कारण काम के कथित दबाव को लेकर खासा तूफान खड़ा हो गया है, क्योंकि अग्रिम पंक्ति के बीएलओ (बूथ लेवल अधिकारी) भारी दबाव में संघर्ष कर रहे हैं. मुरादाबाद के एक बीएलओ सर्वेश सिंह ने कई दिनों की नींद न आने, डिजिटल तनाव और नौकरी खोने के डर के बाद आत्महत्या कर ली. जबकि बिजनौर में, 56 वर्षीय शोभा रानी अपने लक्ष्य को पूरा करने के लिए देर रात तक काम करने के बाद दिल का दौरा पड़ने से मर गईं. दोनों के परिवारों का कहना है कि ‘एसआईआर’ के दबाव ने उन्हें मार डाला. हालांकि, अधिकारियों का कहना है कि ‘एसआईआर’ से कोई सीधा संबंध नहीं है. लेकिन कुछ ही दिनों में हुई सात बीएलओ की मौतों — आत्महत्याओं, दिल के दौरों, ब्रेन हैमरेज — के साथ सवाल तेज़ी से उठ रहे हैं. क्या ‘एसआईआर’ के लक्ष्य एक शांत प्रशासनिक संकट में बदल रहे हैं? और यूपी के मुख्य निर्वाचन अधिकारी (सीईओ) या केंद्रीय चुनाव आयोग चुप क्यों हैं?
‘पीटीआई’ के अनुसार, पुलिस ने रविवार को बताया कि मुरादाबाद के बहेरी गाँव में काम के दबाव के कारण 46 वर्षीय बूथ-लेवल अधिकारी (बीएलओ) ने अपने घर के स्टोर-रूम में फांसी लगाकर आत्महत्या कर ली. सर्वेश सिंह एक सहायक शिक्षक थे और उनकी पोस्टिंग भगतपुर टांडा गांव के एक स्कूल में थी. उन्हें 7 अक्टूबर को बीएलओ की ड्यूटी सौंपी गई थी. यह बीएलओ के रूप में उनका पहला काम था. आत्महत्या करने से पहले सर्वेश ने एक वीडियो भी बनाया, जिसमें वह फूट-फूटकर रो रहे हैं और अपनी चार बेटियों की चिंता में माँ से गुहार लगा रहे हैं. कह रहे हैं, “मैं जीना चाहता हूं, पर क्या कर सकता हूं. मुझे घुटन हो रही है. मैं भयभीत हूं. मेरी बच्चियों का क्या होगा.?” उनकी पत्नी, बबली ने बताया कि वह कई दिनों से हर रात केवल दो से तीन घंटे ही सो पा रहे थे. वह डिजिटल प्रक्रिया को समझने में, खासकर फॉर्म अपलोड और दैनिक लक्ष्यों को लेकर संघर्ष कर रहे थे, और उन्हें अनुशासनात्मक कार्रवाई का डर था. उन्हें अधिकारियों से लगातार अपडेट की मांग करने वाले और काम पूरा न होने पर परिणामों की चेतावनी देने वाले संदेश मिल रहे थे.”
उधर शनिवार को, राजस्थान के धौलपुर में एसआईआर में लगे 42 वर्षीय एक बीएलओ अपने घर पर गिर पड़े और उनकी मृत्यु हो गई. अनिल गर्ग शनिवार देर रात मतदाता डेटा अपलोड करते समय गिर पड़े थे. पुलिस ने बताया कि उनके परिवार ने आरोप लगाया कि वह अत्यधिक दबाव में काम कर रहे थे.
और, तकलीफ़ का मजाक उड़ाते चुनाव आयोग के ज़ुम्बा डांस वाले वीडियो
एक तरफ एसआईआर के दबाव में बीएलओ कथित तौर पर आत्महत्या कर रहे हैं, और कई राज्यों से उनकी मौतों की खबरें हैं, वहीं चुनाव आयोग अपने सोशल मीडिया हैंडल “एक्स” पर बीएलओ के ज़ुम्बा डांस करते वीडियो शेयर कर यह जताने की कोशिश कर रहा है कि “बीएलओ’ अपने काम से इतना आनंदित हैं कि मस्ती में झूम रहे हैं. उसने दो वीडियो साझा किये, जिनमें केरल के बूथ लेवल अधिकारी (बीएलओ) और अन्य मतदानकर्मी “ब्रेक टाइम का आनंद” लेते हुए नृत्य करते दिखाए गए. कहा गया कि यह “तनाव मुक्ति” की पहल है. चुनाव आयोग के ये वीडियो ऐसे वक्त आए हैं, जब केरल, उत्तरप्रदेश, राजस्थान, बिहार और अन्य जगहों पर बीएलओ और उनके परिवार थकान और उत्पीड़न का हवाला दे रहे हैं. और, विपक्षी नेताओं, कार्यकर्ताओं और नेटिज़न्स ने चुनाव आयोग को एक “असंवेदनशील प्रतिक्रिया” के लिए फटकार लगाई है.
सरकार ने स्वीकारा, एएमएसएस में छेड़छाड़ के कारण हुई थी हवाई अड्डों पर गड़बड़ी, संसद सत्र शुरू, मोदी की नसीहत
दिल्ली के इंदिरा गांधी अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डे के ऑटोमैटिक मैसेज स्विचिंग सिस्टम (एएमएसएस) में 6 नवंबर को छेड़छाड़ की गई थी. सोमवार को केंद्रीय नागरिक उड्डयन मंत्री किंजरापु राममोहन नायडू ने राज्यसभा में यह जानकारी दी. दिल्ली के अलावा देश के बड़े शहरों के हवाई अड्डों पर यह समस्या उत्पन्न हुई थी. नायडू ने बताया कि इस वजह से वायुयान को गलत सिग्नल (जीपीएस स्पूफिंग) मिले थे, जिससे फ्लाइटस ऑपरेशन 12 घंटे से ज्यादा प्रभावित रहा था. नायडू ने सदन में बताया कि वैश्विक स्तर पर रैनसमवेयर-मैलवेयर अटैक का खतरा बढ़ा है. भारतीय विमानपत्तन प्राधिकरण (एएआई) अपने आईटी और क्रिटिकल इंफ्रास्ट्रक्चर की सेफ्टी के लिए एडवांस साइबर सिक्योरिटी अपना रहा है. सांसद एस. निरंजन रेड्डी ने पूछा था कि सरकार की इससे बचने की क्या तैयारी है?
इस बीच, संसद का शीतकालीन सत्र सोमवार से शुरू हो गया. दोनों सदनों में ‘एसआईआर’ और वोट चोरी के आरोप के मुद्दे पर हंगामा हुआ. विपक्ष चर्चा के लिए अड़ा रहा. संसदीय कार्य मंत्री किरेन रिजिजू ने राज्यसभा को बताया कि सरकार एसआईआर और चुनावी सुधारों पर चर्चा के लिए तैयार है. आज संसद की कार्यवाही से पहले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने संसद के बाहर मीडिया से बात की. उन्होंने कहा, “यह सत्र पराजय की हताशा या विजय के अहंकार का मैदान नहीं बनना चाहिए. नई पीढ़ी के सदस्यों को अनुभव का लाभ मिलना चाहिए. ड्रामा नहीं, डिलीवरी होनी चाहिए. जोर नीति पर होना चाहिए, नारों पर नहीं.”
मोदी काल में मीडिया, प्रेस की स्वतंत्रता की गारंटी अब सेठों को भी नहीं
“मिड डे” में अपने कॉलम में एजाज़ अशरफ़ ने लिखा है- “सोमवार की उदासी का शोक संदेश लिखने का मन कर रहा है, जो आज इसकी अंतिम किस्त पढ़ने के तुरंत बाद, बिना किसी समारोह या शोक के, अंतिम बार कराहकर मर जाएगा. हालांकि, मैं खुद को “मिड-डे” को श्रेय देने तक ही सीमित रखूंगा कि उसने मुझे अधिकतर अपने विचारों को खुलकर व्यक्त करने की अनुमति दी, जिसमें वे विचार भी शामिल हैं, जो सत्ताधारी शासन के लिए अभिशाप हैं, जो रखवाली करने वाले एक कुत्ते की तरह मुस्तैदी और क्रूरता के साथ मीडिया के लेखों को सूंघता और छांटता है. अगर आपको लगे कि मैं व्यंग्य कर रहा हूं, तो इसमें आपकी कोई गलती नहीं है.
पत्रकार मित्र पूछेंगे, “आपको यह सब लिखने की अनुमति कैसे मिल जाती है?” लोकतंत्र में यह सवाल जितना चौंकाने वाला है, यह मुझे अमेरिकी पत्रकार ए.जे. लाइब्लिंग की याद दिलाता है, जिन्होंने मशहूर टिप्पणी की थी, “प्रेस की स्वतंत्रता केवल उन्हें ही गारंटीकृत है, जो इसके मालिक हैं.” मालिक ही तय करते हैं कि उनके लिए काम करने वाले पत्रकारों को कितनी स्वतंत्रता मिलनी चाहिए. मैंने आज तक अत्यंत स्वतंत्रता का आनंद लिया है.
फिर भी, जब से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी मई 2014 में सत्ता में आए हैं, प्रेस की स्वतंत्रता अब मालिकों को भी ‘गारंटीकृत’ नहीं रही है. अनुराधा भसीन और प्रबोध जामवाल से पूछिए, यह पति-पत्नी की जोड़ी ‘कश्मीर टाइम्स’ की मालिक और संपादक है, जिसकी जीवन शक्ति को सरकारी विज्ञापन देने से मना करके धीरे-धीरे खत्म कर दिया गया. यह समाचार पत्र 2023 में एक छोटे डिजिटल ऑपरेशन के रूप में पुनर्जीवित होने से पहले बंद हो गया था, जो रोज़ाना लगभग 52,000 विज़िटर को आकर्षित करता है. निःसंदेह, चौथे स्तंभ के दिग्गजों के विपरीत, ‘कश्मीर टाइम्स’ कश्मीर में नियमित रूप से की जाने वाली ज्यादतियों और गलतियों के खिलाफ मुखर था, जिससे राज्य को इसके बंद जम्मू कार्यालय पर छापा मारने और अविश्वसनीय रूप से, वहां जमा किए गए हथियारों और गोला-बारूद को खोजने के लिए उकसाया गया. यह छापा राष्ट्र-विरोधी गतिविधियों की श्रेणी के तहत लगाए गए आरोपों की जांच के लिए मारा गया था. राज्य ने लोकतंत्र के एक और “रखवाले” को घेर लिया है, एक सम्मान जो ‘कश्मीर टाइम्स’ के लिए उपयुक्त है, ताकि उसके साथ वह व्यवहार किया जा सके, जो सुप्रीम कोर्ट ने आवारा कुत्तों के लिए आरक्षित किया है.
अशरफ़ लिखते हैं, स्वतंत्र मीडिया की आवाज़ों को दबाने के तरीके असीमित हैं. मालिक होने के बावजूद भी, प्रेस की स्वतंत्रता भसीन और जामवाल की नहीं हो सकी, क्योंकि वे जुझारू पत्रकार भी हैं, जो अब तेजी से लुप्तप्राय होती जा रही एक जमात है. अधिकांश मालिक व्यवसायी होते हैं, जो अपने पत्रकारों को सेंसर करते हैं, खबरों को हटा देते हैं. वे इसलिए दबे रहते हैं, क्योंकि उन्हें छापों और कर चोरी के मामलों का डर रहता है, हालांकि उनकी चुप्पी उन्हें सरकार द्वारा दिए जाने वाले विज्ञापनों के माध्यम से राजस्व दिलाती है. कम से कम उनके मामलों में, सरकार को, अपनी अपार शक्तियों के साथ, मीडिया की कलम तोड़ने के लिए आंशिक रूप से दोषी ठहराया जा सकता है. कॉर्पोरेट दिग्गजों के लिए यह कोई बहाना नहीं हो सकता, क्योंकि वे नीतियों को प्रभावित करने और क्रोनी कैपिटलिज्म (साठगांठ वाला या सहचर पूंजीवाद) के लाभार्थी होने के कारण अपनी खराब हुई प्रतिष्ठा को बचाने के लिए मीडिया में आए हैं. शक्ति और धन प्राप्त करने के लिए मीडिया की स्वतंत्रता से समझौता करना एक आवश्यक शर्त है. यह स्वाभाविक है कि वे सत्तारूढ़ पार्टी के अनैतिक आचरण को, जैसा कि हाल के बिहार चुनावों में हुआ था, एक ‘मास्टरस्ट्रोक’ के रूप में पेश करेंगे.
डर और लालच के अलावा, विचारधारा ने भी मीडिया को सरकार की आवाज़ बनने में बदल दिया है, यह पहलू मोदी के छठे रामनाथ गोयनका व्याख्यान में दिए गए भाषण में सामने आया. उन्होंने ‘इंडियन एक्सप्रेस’ समूह के संस्थापक गोयनका की, पहले अंग्रेजों और फिर, दशकों बाद, आपातकाल के दौरान इंदिरा गांधी का विरोध करने के साहस के लिए प्रशंसा की. लेकिन उन्होंने, उसी सांस में, गोयनका की राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) और भारतीय जनसंघ (भारतीय जनता पार्टी का पूर्व अवतार) से निकटता का भी स्पष्ट रूप से वर्णन किया, जिसने उन्हें अपने टिकट पर लोकसभा चुनाव जिताया था. मोदी ने एक तरह से पुष्टि की कि श्रीमती गांधी का गोयनका द्वारा किया गया विरोध प्रेस की स्वतंत्रता के लिए लड़ने जितना ही हिंदुत्व को मजबूत करने के बारे में भी था.
अपने दशकों के प्रभुत्व के दौरान कांग्रेस की विचारधारा के प्रति झुकाव भी मीडिया की एक विशेषता थी. इसने भी मीडिया मालिकों को विधायक बनाया. इससे भी बुरा यह हुआ कि नेहरू सरकार ने संघ के मुखपत्र ‘ऑर्गनाइजर’ और रमेश थापर के वामपंथी प्रकाशन ‘क्रॉस रोड्स’ की तीखी आलोचना पर एक भ्रमित प्रतिक्रिया के रूप में, अनुच्छेद 19 में “उचित प्रतिबंधों” पर एक खंड शामिल कर दिया. फिर भी, पार्टी की अंतर्निहित उदारता, जिसमें अक्सर समझौता किया गया, लेकिन जिसे कभी मिटाया नहीं गया, ने उसे पूरे मीडिया को अपना जयजयकार करने वाला बनने के लिए मजबूर करने से रोके रखा. जैसा कि अभिषेक चौधरी ने ए.बी. वाजपेयी की जीवनी में बताया है, 1960 के दशक में कांग्रेस सरकार ने ‘ऑर्गनाइजर’ को भी विज्ञापन दिए थे.
यह कोई आश्चर्य की बात नहीं है कि हाल के दिनों में बड़ी संख्या में पत्रकारों ने टीवी चैनलों को छोड़कर अपने यूट्यूब चैनल शुरू कर दिए हैं. निडर और निष्पक्ष पत्रकारिता बड़े पैमाने पर डिजिटल क्षेत्र में की जाती है, हालांकि वे धन की कमी से जूझ रहे हैं और उन्हें दान पर निर्भर रहना पड़ता है. उन्होंने भी सरकार की तीखी धार का अनुभव किया है, जिसका सबसे गहरा घाव ‘न्यूज़क्लिक’ को लगा, जिसके 80 से अधिक कर्मचारियों और योगदानकर्ताओं पर 2023 की एक सुबह छापा मारा गया था. इस निराशाजनक माहौल में, यह एक चमत्कार है कि ‘Monday Blues’ छह साल तक जीवित रहा— यह इस कॉलम के लिए एक उपयुक्त शोक संदेश- लेख है, जो अपनी अंतिम सांस के साथ अलविदा कहता है.
(लेखक एक वरिष्ठ पत्रकार और ‘भीमा कोरेगांव: चैलेंजिंग कास्ट’ के लेखक हैं)
यूपी: टीटीई ने नौसेना अधिकारी की पत्नी का सामान फेंका, और फिर ट्रेन से धक्का दिया, पटरियों पर मिली लाश
यूपी के इटावा में सरकारी रेलवे पुलिस (जीआरपी) ने ट्रेन टिकट परीक्षक (टीटीई) संतोष कुमार के खिलाफ गैर इरादतन हत्या का मामला दर्ज किया है. यह कार्रवाई 26 नवंबर को सम्हों और भरथना स्टेशनों के बीच पटरियों पर आरती यादव (30), जो एक भारतीय नौसेना के चीफ पेटी ऑफिसर की पत्नी थीं, का शव मिलने के बाद की गई है.
प्राथमिकी (एफआईआर) के अनुसार, सेना अस्पताल (अनुसंधान और रेफरल) में चिकित्सा परामर्श के लिए नई दिल्ली की यात्रा करते समय आरती गलती से कानपुर सेंट्रल से गलत ट्रेन में सवार हो गई थीं. उन्हें मंगलवार रात बरौनी-नई दिल्ली क्लोन स्पेशल (02563) लेनी थी, लेकिन ट्रेन 10 घंटे से अधिक लेट थी. भ्रम में, वह बुधवार सुबह पटना-आनंद विहार टर्मिनल स्पेशल फेयर स्पेशल (04089) में सवार हो गईं.
उनके पिता, अनिल कुमार ने प्राथमिकी में आरोप लगाया कि आरती एस-11 कोच में चढ़ी और टीटीई संतोष कुमार ने उनके आरक्षित टिकट को लेकर उनसे बहस की. अरविंद चौहान के मुताबिक, गाजियाबाद के राज वैभव सहित कोच के प्रत्यक्षदर्शियों ने दावा किया कि टीटीई ने उनका सामान बाहर फेंक दिया और उन्हें ट्रेन से धक्का दे दिया. आरती का शव बाद में उनके सामान से लगभग 4 किमी दूर मिला.
आरती के पति, अजय यादव ने ‘टीओआई’ (टाइम्स ऑफ इंडिया) से बात करते हुए कहा, “अपनी मौत से ठीक तीन दिन पहले, आरती मेरे पोस्टिंग स्थल मुंबई से कानपुर में अपने माता-पिता के घर लौटी थी. वह परामर्श के लिए दिल्ली के आर्मी अस्पताल जाने की योजना बना रही थी. मेरे पिता, भगवान सिंह, को उसकी मृत्यु के बारे में पहला फोन आया.” फरवरी 2020 में शादी करने वाले इस जोड़े के कोई संतान नहीं थी. घटना के समय अजय नौसेना प्रशिक्षण के लिए चेन्नई में थे.
हालांकि, जीआरपी अधिकारियों ने अभी तक टीटीई को गिरफ्तार नहीं किया है. सर्किल ऑफिसर (सीओ) इटावा जीआरपी, उदय प्रताप सिंह ने कहा, “प्रथम दृष्टया, ऐसा लगता है कि पीड़िता ने ट्रेन से छलांग लगा दी, लेकिन हम मामले की जांच कर रहे हैं और सह-यात्रियों के बयान दर्ज कर रहे हैं.”
अनिल कुमार ने सीओ के दावे को खारिज करते हुए इसे आरोपी टीटीई को बचाने का प्रयास बताया. उन्होंने आरोप लगाया, “टीटीई ने ट्रेन क्यों नहीं रोकी या चिकित्सीय सहायता क्यों नहीं मांगी? ट्रेन के डिब्बों में अलार्म चेन का क्या उद्देश्य है? सम्हों स्टेशन से 30 किमी दूर इटावा जंक्शन पहुंचने के बाद भी ट्रेन ने अपनी यात्रा जारी रखी. मेरी बेटी की हत्या की गई है, और अधिकारी अपनी छवि बचाने की कोशिश कर रहे हैं.” इस बीच, उत्तर मध्य रेलवे के मुख्य जनसंपर्क अधिकारी, शशिकांत त्रिपाठी ने पुष्टि की कि टीटीई संतोष कुमार अभी भी सक्रिय ड्यूटी पर है. एक प्राथमिकी दर्ज की गई है, और जीआरपी जांच कर रही है.
साये लंबे हो रहे हैं: परिसीमन, जनगणना और लोकतंत्र पर गहराते सवाल
टेलीग्राफ में प्रकाशित जी.एन. देवी के लेख के अनुसार, चुनाव आयोग की विश्वसनीयता में आई गिरावट को देखते हुए, हर भारतीय का सबसे बड़ा डर यह है कि क्या अगला परिसीमन (Delimitation) भारत के लोकतंत्र को हमेशा के लिए बदल कर रख देगा.
लेखक बताते हैं कि लोकतंत्र की न्यूनतम परिभाषा यह है कि नागरिकों को अपनी पसंद की सरकार चुनने का अबाधित अधिकार मिले और हर वोट का मूल्य समान हो. 1952 से अब तक 18 आम चुनाव इसी संवैधानिक ढांचे के भीतर हुए हैं, जहां सार्वभौमिक मताधिकार लोकतंत्र की आधारशिला है. संविधान में संसद में लोगों के प्रतिनिधियों की संख्या और मतदाता क्षेत्रों का निर्धारण करने के लिए ‘परिसीमन आयोग’ का प्रावधान है. 1952, 1962 और 1972 में लोकसभा सांसदों की कुल संख्या बढ़ाई गई थी, लेकिन उसके बाद से यह संख्या स्थिर है. 2002 में यह तय किया गया था कि सांसदों की संख्या 2026 के बाद होने वाली पहली जनगणना के आधार पर ही बढ़ाई जा सकेगी.
समस्या जनसंख्या और प्रतिनिधित्व के अनुपात में है. 1971 की जनगणना के आधार पर उस समय प्रति संसदीय क्षेत्र लगभग 10 लाख लोग थे. 2011 की जनगणना और अब के अनुमान के मुताबिक, एक सांसद लगभग 24 से 25 लाख लोगों का प्रतिनिधित्व कर रहा है. 2029 के चुनाव तक अगर सांसदों की संख्या नहीं बढ़ती है, तो यह अनुपात प्रति सांसद 30 लाख लोगों तक पहुंच सकता है. इसलिए, अगला परिसीमन आयोग सांसदों की संख्या में भारी वृद्धि कर सकता है.
लेकिन बड़ा सवाल यह है कि क्या यह प्रक्रिया निष्पक्ष होगी? क्या इससे रिपब्लिक का संघीय ढांचा (Federal Structure) सुरक्षित रहेगा? या फिर यह किसी एक पार्टी के निरंतर शासन को सुनिश्चित करने और केवल कुछ राज्यों का राजनीतिक वजन बढ़ाने का काम करेगा?
लेखक ने जनगणना में देरी पर भी गंभीर चिंता जताई है. 2021 की जनगणना कोविड के कारण नहीं हो सकी, लेकिन इसे 2023 में पूरा किया जा सकता था. इसके बजाय, सरकार ने इसे 2026-27 में कराने का निर्णय लिया है, जो संयुक्त राष्ट्र के जनगणना सिद्धांतों का उल्लंघन है. ऐसा प्रतीत होता है कि सरकार 2029 के चुनाव से पहले परिसीमन पूरा करने पर आमादा है, संभवतः कोविंद समिति द्वारा समर्थित ‘वन नेशन, वन इलेक्शन’ को लागू करने के लिए.
चुनाव आयोग की विश्वसनीयता में हालिया गिरावट, मतदाता सूची के विशेष संशोधन का समय और जनगणना के अजीबोगरीब टाइमिंग को देखते हुए, यह आशंका प्रबल है कि अगला परिसीमन भारत के पूरे राजनीतिक परिदृश्य को हमेशा के लिए बदल सकता है.
कंट्रोल फ्रीक: नौकरशाही का जाल और नागरिक की बेबसी
टेलीग्राफ में टी.एम. कृष्णा लिखते हैं कि सरकार द्वारा नागरिकों के लिए बनाई गई हर प्रक्रिया—चाहे वह मतदाता सूची का फॉर्म हो या कोई सरकारी आवेदन—नागरिक को सक्षम बनाने के बजाय उसे उलझाने और डराने के लिए डिज़ाइन की गई लगती है.
लेखक अपना अनुभव साझा करते हुए बताते हैं कि उन्होंने अपने ब्लॉक लेवल ऑफिसर (BLO) से ‘स्पेशल इंटेंसिव रिव्यु’ (SIR) फॉर्म लिया. सुप्रीम कोर्ट में वकीलों की बहस से परे, आम नागरिक के लिए यह फॉर्म ही भ्रम का कारण है. इसमें सवाल इस तरह पूछे गए हैं कि पढ़े-लिखे लोग भी गलती कर बैठते हैं. विपक्ष इसे राजनीतिक हस्तक्षेप मान रहा है, लेकिन लेखक का तर्क है कि यह एक बेहद खराब तरीके से तैयार की गई प्रक्रिया का नतीजा है.
सबसे बुरा असर उन लोगों पर पड़ता है जो कम पढ़े-लिखे हैं या जागरूक नहीं हैं. बीएलओ (BLO) उनसे आधार कार्ड मांगते हैं और खुद फॉर्म भरते हैं. जानकारी को नागरिक से क्रॉस-चेक नहीं किया जाता और सीधे सर्वर पर अपलोड कर दिया जाता है. इसमें गलती होने की पूरी संभावना रहती है और मतदाता का नाम सूची से कट सकता है, बिना उसकी किसी गलती के. चुनाव आयोग यह मानकर चलता है कि अगर किसी का नाम कटेगा तो वह अपील करेगा, लेकिन आम आदमी सरकारी आदेशों का पालन करने का आदी है, वह सवाल नहीं पूछता.
यह जटिलता सिर्फ चुनाव आयोग तक सीमित नहीं है. इनकम टैक्स रिटर्न भरने की प्रक्रिया को ही लें—सरकार कहती है कि ऑनलाइन सिस्टम ने चीज़ें आसान कर दी हैं, लेकिन एक सामान्य व्यक्ति के लिए बिना चार्टर्ड अकाउंटेंट (CA) के इसे भरना असंभव है. इसी तरह ग्रामीण भारत में सांस्कृतिक संगठन सरकारी अनुदान के लिए आवेदन करने में असमर्थ हैं क्योंकि उन्हें ऑनलाइन सिस्टम समझ नहीं आता.
लेखक का मानना है कि राज्य (State) का यह व्यवहार सिर्फ लाल फीताशाही नहीं है, बल्कि यह नागरिकों को ‘नियंत्रित’ करने और अपनी सत्ता दिखाने की प्रवृत्ति है. नौकरशाही का पूरा ढांचा इसी सोच पर बना है कि नागरिक हमेशा डर के साये में रहे. जब तक राज्य का अपने नागरिकों के साथ व्यवहार करने का तरीका जमीनी स्तर पर नहीं बदलता, तब तक कोई वास्तविक सुधार नहीं हो सकता. चुनाव आयोग को अपनी पुरानी भावना को फिर से खोजने की ज़रूरत है, जहां नागरिक का वोट देने का अधिकार किसी भी प्रक्रिया से ऊपर था.
‘मिसिंग’ महिलाएं और सरकारी आंकड़ों का सच: क्या अपनी मर्जी से शादी करना अपराध है?
स्क्रोल.इन के लिए मनीषा चाचरा लिखती हैं कि नेटफ्लिक्स सीरीज़ ‘दिल्ली क्राइम’ का नया सीज़न मानव तस्करी के ज़रिए गायब हुई महिलाओं के मुद्दे को उठाता है. यह एक गंभीर समस्या है, लेकिन सरकारी आंकड़े और समाज एक महत्वपूर्ण श्रेणी की अनदेखी करते हैं—वे महिलाएं जो अपनी मर्जी से शादी करने के लिए घर से भागती हैं .
एनसीआरबी (NCRB) का 2023 का डेटा बताता है कि 1,13,564 महिलाओं का अपहरण हुआ, लेकिन यह डेटा यह स्पष्ट नहीं करता कि इनमें से कितनी महिलाएं अपनी मर्जी से गई थीं. चूंकि परिवार अक्सर इन रिश्तों को स्वीकार नहीं करते, वे पुलिस में गुमशुदगी या अपहरण की रिपोर्ट दर्ज कराते हैं. नतीजतन, कानून उन वयस्क महिलाओं को भी ‘पीड़ित’ करार देता है जो वास्तव में स्वायत्त फैसले ले रही होती हैं.
शोध बताते हैं कि पुलिस और अदालतें अक्सर महिला की सहमति के बजाय उसके माता-पिता की ‘इज्ज़त’ और इच्छा को प्राथमिकता देती हैं. परिवार वाले अक्सर बालिग लड़कियों को नाबालिग साबित करने की कोशिश करते हैं ताकि उनकी शादी को अवैध ठहराया जा सके. कई मामलों में महिलाओं का जबरन ऑसिफिकेशन टेस्ट (उम्र जांचने के लिए हड्डियों का टेस्ट) कराया जाता है.
इसके अलावा, अंतरजातीय या अंतरधार्मिक विवाह करने वाली महिलाओं को ‘लव जिहाद’ और धर्मांतरण विरोधी कानूनों के तहत और भी अधिक दबाव का सामना करना पड़ता है. इन कानूनों का इस्तेमाल करके राज्य (State) वयस्क महिलाओं को भी ‘नासमझ’ मानकर उनके अभिभावक की भूमिका निभाने लगता है और यह मान लेता है कि वे अपना भला-बुरा नहीं समझ सकतीं.
लेखिका का तर्क है कि सरकारी आंकड़ों को स्पष्ट रूप से ‘अपहरण’ और ‘अपनी पसंद की शादी’ के बीच अंतर करना चाहिए. हर ‘लापता’ महिला पीड़ित नहीं होती. सहमति से किए गए विवाह को सुरक्षा मिलनी चाहिए और महिलाओं को पीड़ित के रूप में देखने के पुराने नज़रिए को बदलना होगा.
ब्रिटेन की लेबर सांसद ट्यूलिप सिद्दीक को बांग्लादेश में जेल की सजा
बीबीसी की रिपोर्ट के अनुसार, ब्रिटेन की लेबर पार्टी की सांसद और पूर्व मंत्री ट्यूलिप सिद्दीक को उनकी अनुपस्थिति में बांग्लादेश की एक अदालत ने भ्रष्टाचार के आरोपों में दो साल की जेल की सजा सुनाई है. उन्हें अपनी खाला (मौसी) और बांग्लादेश की अपदस्थ प्रधानमंत्री शेख हसीना के प्रभाव का इस्तेमाल करके अपने परिवार के लिए जमीन आवंटित कराने का दोषी पाया गया है.
ट्यूलिप सिद्दीक, जो लंदन में रहती हैं, ने इन आरोपों को पूरी तरह खारिज किया है. उन्होंने कहा कि यह प्रक्रिया “शुरुआत से अंत तक त्रुटिपूर्ण और हास्यास्पद” थी. सिद्दीक ने इसे “मीडिया ट्रायल” करार दिया है और कहा है कि उन्हें बांग्लादेशी अधिकारियों से न तो कोई समन मिला और न ही संपर्क किया गया.
चूंकि शेख हसीना की सरकार गिरने के बाद वहां नई अंतरिम सरकार है, हसीना और उनके सहयोगियों व परिवार के खिलाफ कई मामले चल रहे हैं. अभियोजन पक्ष का दावा है कि सिद्दीक ने अपनी शक्ति का दुरुपयोग कर ढाका के बाहरी इलाके में जमीन हासिल की. हालांकि, सिद्दीक के वकीलों का कहना है कि उनके पास बांग्लादेशी नागरिकता या आईडी भी नहीं है.
अदालत ने उन पर 100,000 टका (लगभग 620 पाउंड) का जुर्माना भी लगाया है. ब्रिटेन और बांग्लादेश के बीच प्रत्यर्पण संधि नहीं है, इसलिए सिद्दीक द्वारा यह सजा भुगतने की संभावना बेहद कम है. लेबर पार्टी के प्रवक्ता ने भी इस फैसले को मान्यता देने से इनकार करते हुए कहा है कि यह निष्पक्ष कानूनी प्रक्रिया नहीं थी और सिद्दीक को अपना पक्ष रखने का मौका नहीं दिया गया.
दिल्ली के दो-तिहाई हिस्से में वायु गुणवत्ता का कोई विश्वसनीय डेटा नहीं
इंडियास्पेंड के लिए अनुज बहल की रिपोर्ट बताती है कि जैसे-जैसे सर्दियां गहरा रही हैं, दिल्ली की हवा फिर से ज़हरीली हो रही है. नवंबर में एक्यूआई (AQI) ‘बहुत खराब’ श्रेणी में पहुंच गया. लेकिन प्रदूषण के खिलाफ इस लड़ाई में सबसे बड़ी बाधा यह है कि दिल्ली के पास समस्या को मापने के लिए मज़बूत सिस्टम ही नहीं है.
रिपोर्ट के मुताबिक, दिल्ली में वायु गुणवत्ता मापने के लिए 38 निगरानी स्टेशन (मॉनिटर) हैं. देखने में यह संख्या ठीक लग सकती है, लेकिन विशेषज्ञों के अनुसार, शहर की 2 करोड़ से ज़्यादा आबादी और क्षेत्रफल के हिसाब से यह नाकाफी है. इंडियास्पेंड के विश्लेषण से पता चलता है कि दिल्ली का केवल 34.5% हिस्सा ही इन मॉनिटर्स के 2 किलोमीटर के दायरे में आता है. इसका मतलब है कि दिल्ली का लगभग 65% हिस्सा—खासकर बाहरी दिल्ली, बवाना, मुंडका और ग्रामीण इलाके—विश्वसनीय डेटा कवरेज से बाहर हैं.
समस्या यह है कि ज़्यादातर मॉनिटर मध्य दिल्ली और पॉश इलाकों में केंद्रित हैं. बाहरी इलाकों में, जहां कचरा जलाने, ईंट भट्ठों और औद्योगिक प्रदूषण की समस्या सबसे ज़्यादा है, वहां निगरानी स्टेशन न के बराबर हैं. विशेषज्ञों का कहना है कि प्रदूषण निगरानी के तीन स्तर होते हैं: रेगुलेटरी (नियमन), सेंटिनल (रेफरेंस), और लोकल (स्थानीय). दिल्ली में मुख्य रूप से रेगुलेटरी मॉनिटर हैं जो शहर का औसत बताते हैं, लेकिन वे स्थानीय स्तर के ‘हॉटस्पॉट’ को नहीं पकड़ पाते.
इसके अलावा, मौजूदा स्टेशनों की विश्वसनीयता पर भी सवाल हैं. कई बार सेंसर खराब होते हैं, डेटा ब्लैकआउट हो जाता है, या फिर मॉनिटर को नियमों के विपरीत पेड़ों या पानी के स्प्रिंकलर के पास लगाया गया है, जिससे डेटा गलत आता है. विशेषज्ञों का सुझाव है कि सरकार को ‘हाइब्रिड मॉडल’ अपनाना चाहिए—जिसमें सटीक सरकारी स्टेशनों के साथ-साथ कम लागत वाले सेंसर का घना नेटवर्क हो. इससे लोगों को पता चलेगा कि वे अपने मोहल्ले में वास्तव में क्या सांस ले रहे हैं, न कि सिर्फ शहर का औसत.
विश्लेषण
आकार पटेल: भारत के दुनिया में मानवाधिकार दावे और अपने गिरेबान में झांकना
पिछले महीने पाकिस्तान और इराक के साथ भारत एशिया से संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार परिषद में चुना गया. यूएनएचआरसी कहता है कि यह ‘दुनिया भर में मानवाधिकारों के प्रचार और संरक्षण को मजबूत करने के लिए जिम्मेदार है’, जिसमें संभवतः भारत के अंदर भी शामिल है. भारत की सरकार ने चुने जाने का बड़ा श्रेय लिया (जैसा कि उम्मीद की जा सकती थी), और इसके बयान में कहा गया कि यह चुनाव मानवाधिकारों और मौलिक स्वतंत्रताओं के प्रति भारत की अटूट प्रतिबद्धता को दर्शाता है. हम अपने कार्यकाल के दौरान इस उद्देश्य की सेवा करने के लिए उत्सुक हैं. हां, हां.
मैं एक खास मामले पर ध्यान केंद्रित करना चाहता था जो भारत में मानवाधिकारों की स्थिति को स्पष्ट करेगा क्योंकि अमूर्त शब्दों में बात करने का कोई मतलब नहीं है. इस मोर्चे पर भारत के आचरण का मूल्यांकन उन लोगों के संदर्भ में किया जाना चाहिए जिनके अधिकारों का वह जानबूझकर उल्लंघन करता है.
22 नवंबर 2025 को खुर्रम परवेज़ ने बिना मुकदमे के हिरासत में चार साल पूरे किए. वह अपने घर श्रीनगर से सैकड़ों किलोमीटर दूर दिल्ली की रोहिणी जेल में बंद है, जबकि उसकी पत्नी और दो छोटे बच्चे कश्मीर में एक ऐसी न्याय प्रणाली का इंतज़ार कर रहे हैं जिसने आगे बढ़ने से इनकार कर दिया है. उसकी कैद सबसे प्रतीकात्मक उदाहरणों में से एक बन गई है कि कैसे भारत के आतंकवाद विरोधी कानून, गैरकानूनी गतिविधियां (रोकथाम) अधिनियम या यूएपीए का उपयोग मानवाधिकार रक्षकों को चुप कराने के लिए किया जा रहा है.
नए भारत में भी जम्मू-कश्मीर दुनिया के सबसे भारी सैन्यीकृत क्षेत्रों में से एक बना हुआ है. यह गैरकानूनी हत्याओं, दंडात्मक घर विध्वंस, अपमानजनक प्रशासनिक हिरासत कानूनों के तहत मनमानी गिरफ्तारी, गैरकानूनी निगरानी और यात्रा प्रतिबंधों को देखता रहता है. यह एक ऐसी जगह है जहां पहले से ही बुनियादी अधिकारों से वंचित लोगों को सम्मान से और भी वंचित कर दिया गया है. निवासी उस सरकार के तहत रहते हैं जिसे उन्होंने चुना था, लेकिन केंद्र सरकार ने इसकी शक्तियों को खोखला कर दिया है, जैसा कि हम इस सप्ताह एक पत्रकार के घर की बुलडोज़िंग में देख सकते हैं. इन कारणों से खुर्रम परवेज़ का इन दुर्व्यवहारों का दस्तावेज़ीकरण करने का काम न केवल आवश्यक था बल्कि अपरिहार्य था.
दो दशकों तक परवेज़ कश्मीर की सबसे सम्मानित और प्रसिद्ध मानवाधिकार आवाज़ों में से एक रहे हैं. मैं इसकी पुष्टि कर सकता हूं क्योंकि मैं वैश्विक पैनलों में रहा हूं जहां उनकी कैद पर चिंता के साथ चर्चा की गई है.
जम्मू कश्मीर कोएलिशन ऑफ सिविल सोसाइटी (जेकेसीसीएस) के कार्यक्रम समन्वयक के रूप में परवेज़ ने क्षेत्र के सबसे विश्वसनीय मानवाधिकार समूहों में से एक बनाने में मदद की. यातना, अनिश्चितकालीन हिरासत और जबरन गायब होने के श्रमसाध्य दस्तावेज़ीकरण के माध्यम से जेकेसीसीएस ने इतना कठोर काम किया कि संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार उच्चायुक्त ने कश्मीर पर अपनी 2018 और 2019 की रिपोर्ट में इस पर बड़े पैमाने पर भरोसा किया.
यह ठीक यही काम है जिसने उसे निशाना बनाया. 21 नवंबर 2021 को राष्ट्रीय जांच एजेंसी ने उसे “आतंकी फंडिंग”, “साजिश” और यहां तक कि “राज्य के खिलाफ युद्ध छेड़ने” के आरोप में गिरफ्तार किया. चार साल बाद आरोपों की लंबी सूची के बावजूद उसके मामले में मुकदमा अभी शुरू नहीं हुआ है. परवेज़ इस बात की स्पष्टता के बिना जेल में बने हुए हैं कि वह कभी अदालत देखेंगे या नहीं.
वह अकेले नहीं हैं. मार्च 2023 में पत्रकार इरफान मेहराज, जो जेकेसीसीएस से भी जुड़े थे, को उसी मामले में गिरफ्तार किया गया था. उसी साल अगस्त में एनआईए ने जेकेसीसीएस के संस्थापक परवेज़ इमरोज़ के घर पर छापा मारा और उन्हें पूछताछ के लिए दिल्ली बुलाया. कानूनी आधार के बिना छापे और समन संगठन और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के केंद्र पर हमला करते हैं, और जब हिरासत के साथ होते हैं तो गोपनीयता, स्वतंत्रता के अधिकारों को खतरे में डालते हैं.
अंतर्राष्ट्रीय मानवाधिकार निकायों ने बार-बार चिंता व्यक्त की है. जून 2023 में मनमानी हिरासत पर संयुक्त राष्ट्र कार्य समूह ने निष्कर्ष निकाला कि परवेज़ की हिरासत मनमानी थी और उनकी तत्काल रिहाई का आह्वान किया. आज तक भारतीय अधिकारियों ने न तो इसका पालन किया है और न ही कार्य समूह को कोई अपडेट प्रदान किया है. यह पहली बार नहीं है जब परवेज़ को संयुक्त राष्ट्र के साथ जुड़ने के लिए प्रतिशोध का सामना करना पड़ा है. सितंबर 2016 में उन्हें मानवाधिकार परिषद के सत्र में भाग लेने के लिए जिनेवा जाने से रोक दिया गया था और 76 दिनों के लिए मनमाने ढंग से हिरासत में रखा गया था. उनके मामले को 2018 से हर साल प्रतिशोध पर संयुक्त राष्ट्र महासचिव की वार्षिक रिपोर्ट में शामिल किया गया है. अक्टूबर 2023 में संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार विशेषज्ञों ने फिर से यूएपीए के बारे में चिंता जताई, विशेष रूप से इसकी 180 दिन की पूर्व-मुकदमा हिरासत अवधि, जिसे और बढ़ाया जा सकता है. उन्होंने इसे अत्यधिक बताया और भारत से अंतर्राष्ट्रीय मानवाधिकार मानकों के अनुरूप कानून में सुधार करने का आग्रह किया.
दुनिया का भी परवेज़ और जेकेसीसीएस के प्रति यह क़र्ज़ है. उनके काम ने लगभग दो दशकों तक लाखों कश्मीरियों द्वारा सामना किए गए मानवाधिकार उल्लंघनों को उजागर किया. आज वह भारत में आतंकवाद विरोधी कानूनों के बढ़ते दुरुपयोग के सबसे हड़ताली शिकार में से एक हैं. उनका मामला उन मानवाधिकार रक्षकों के सामने आने वाले खतरों का प्रतीक है जो सत्ता को चुनौती देते हैं और तुरंत राज्य के दुश्मन के रूप में ब्रांडेड किए जाते हैं. जब वे लोग जो दुर्व्यवहारों की जांच, दस्तावेज़ीकरण या उनके बारे में बोलते हैं, उन्हें प्रतिशोध के डर में ऐसा करना पड़ता है तो भारत विश्वसनीय रूप से यह दावा नहीं कर सकता कि वह कानून के शासन द्वारा शासित देश है.
खुर्रम परवेज़ को पहली जगह में कभी गिरफ्तार नहीं किया जाना चाहिए था. एक मानवाधिकार रक्षक के लिए हिरासत में एक भी दिन अन्याय होता जिसका एकमात्र “अपराध” मानवाधिकार उल्लंघनों का दस्तावेज़ीकरण करना रहा है. फिर भी उन्होंने अब चार साल से अधिक समय जेल में बिताया है. उनकी हिरासत का हर अतिरिक्त दिन एक याद दिलाता है कि उनकी तत्काल रिहाई कब से देर हो चुकी है. उनकी क्रूर हिरासत भारतीयों को भारत में मानवाधिकारों की वास्तविक स्थिति के बारे में शिक्षित करना चाहिए. यह हमारी सरकार द्वारा निकाली गई डींगों के विपरीत है, जो संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार परिषद में अपने पद पर इतरा रही है और ढोंग कर रही है कि वह ‘दुनिया भर में मानवाधिकारों के प्रचार और संरक्षण को मजबूत कर रही है’.
नीलांजन मुखोपाध्याय: प्रधानमंत्री का अयोध्या आयोजन संघ की व्यापक वैचारिक दृष्टि और विजय का बयान क्यों है?
नीलांजन दिल्ली-एनसीआर में स्थित एक लेखक और पत्रकार हैं. उनकी नवीनतम पुस्तक द डेमोलिशन, द वर्डिक्ट एंड द टेंपल: द डेफिनिटिव बुक ऑन द राम मंदिर प्रोजेक्ट है, और वे नरेंद्र मोदी: द मैन, द टाइम्स के भी लेखक हैं. उनका एक्स हैंडल @NilanjanUdwin है. यह लेख अंग्रेजी में द फेडरल में प्रकाशित हुआ. उसके प्रमुख अंश.
मंगलवार (25 नवंबर) को अयोध्या में ध्वजारोहण उत्सव, जिसमें प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रमुख मोहन भागवत के साथ राम मंदिर के शिखर पर विशाल भगवा ध्वज फहराया, मंदिर के निर्माण और उद्घाटन से जुड़े घोषित अनुष्ठानों में से अंतिम था.
हालांकि, यह समारोह इस बात के लिए अधिक विशिष्ट था कि यह एक ऐसे समारोह के रूप में उभरा जिसने भारत के हिंदू राष्ट्र में वास्तविक रूपांतरण को रेखांकित किया, कम से कम संघ परिवार की नजर में. मोदी ने ध्वज को, जिसे धर्म ध्वज कहा जाता है, भारतीय पुनरुत्थान का प्रतीक बताया.
उन्होंने आगे कहा कि यह ध्वज सत्यमेव जयते नानृतम् की घोषणा करता है या सत्य की ही विजय होती है, असत्य की नहीं. मोदी की यह घोषणा कि जो अनिवार्य रूप से एक धार्मिक ध्वज है, राष्ट्रीय प्रतीक पर अंकित राष्ट्रीय आदर्श वाक्य का आह्वान करना अत्यंत समस्याग्रस्त है, विशेष रूप से यह देखते हुए कि भारत एक धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र है और राज्य और धर्म के बीच उचित पृथक्करण बनाए रखा जाना चाहिए, संवैधानिक और राजनीतिक दोनों कारणों से.
राम मंदिर की औपचारिक पूर्णता : जबकि राम मंदिर में प्राण प्रतिष्ठा या अभिषेक समारोहों के दो दौर हो चुके हैं, पहला 22 जनवरी 2024 को मोदी द्वारा किया गया और दूसरा इस वर्ष 5 जून को, जबकि मंदिर परिसर का निर्माण जारी था, यह समारोह संपूर्ण मंदिर संरचना की औपचारिक, स्थापत्य और अनुष्ठानिक पूर्णता को चिह्नित करता है, इसकी संप्रभुता और आध्यात्मिक सक्रियण की घोषणा करता है.
यह याद रखना उचित है कि जनवरी 2024 का समारोह मंदिर में आयोजित किया गया था जो पूरी तरह से तैयार नहीं था, केवल इस इरादे से कि आसन्न संसदीय चुनावों में भारतीय जनता पार्टी को बड़ा बढ़ावा दिया जाए.
1984 से 1992 तक राम मंदिर के लिए आठ साल के लंबे आंदोलन में, मोदी ने कोई महत्वपूर्ण भूमिका नहीं निभाई. मंदिर शहर की उनकी एकमात्र सार्वजनिक रूप से ज्ञात यात्रा 1991 के अंत में मुरली मनोहर जोशी के नेतृत्व में पार्टी की कन्याकुमारी से श्रीनगर ‘एकता यात्रा’ के हिस्से के रूप में थी.
उस यात्रा का अयोध्या मुद्दे से कोई संबंध नहीं था और इसके बजाय कश्मीर में बढ़ती उग्रवाद और पी.वी. नरसिम्हा राव सरकार की इसे रोकने में “विफलता” पर पार्टी की स्थिति की ओर ध्यान आकर्षित करने के लिए की गई थी.
मोदी का पहला ‘अयोध्या-कनेक्ट’ : मोदी ने अंततः मुख्य रूप से गोधरा नरसंहार और उसके बाद 2002 के गुजरात दंगों के कारण ‘अयोध्या-कनेक्ट’ हासिल किया. पाठकों को याद होगा कि मोदी केवल इस भीषण अध्याय के बाद राष्ट्रीय हस्ती के रूप में उभरे जब साबरमती एक्सप्रेस पर हमला हुआ था जब कार सेवकों का एक जत्था विश्व हिंदू परिषद के अभियान में भाग लेने के बाद अयोध्या से अपने घरों को लौट रहा था.
शायद इसलिए कि राम जन्मभूमि आंदोलन में भागीदारी उनके राजनीतिक सीवी में शामिल नहीं थी, मोदी ने प्रधानमंत्री बनने के बाद, किसी भी महत्वपूर्ण अवसर को नहीं जाने दिया जिसमें वे राम मंदिर की कहानी में अपना नाम अंकित कर सकें.
अयोध्या में 3 कार्यक्रमों में मुख्य भूमिका : यह आयोजन, भगवा ध्वज फहराने के इर्द-गिर्द किया गया और टीवी पर लाखों दर्शकों को प्रसारित किया गया और मोबाइल फोन पर संदेश भेजा गया, उसी स्थल पर तीसरा था जिसमें उन्होंने मुख्य भूमिका निभाई. इस अनुष्ठान से पहले, उन्होंने पहले अगस्त 2020 में भूमि पूजन या ईंट बिछाने का समारोह किया. जनवरी 2024 में अभिषेक समारोह हुआ.
तीनों समारोहों में, भागवत मोदी के साथ थे, लगभग धार्मिक अनुष्ठानों में दूसरी भूमिका निभा रहे थे. तीनों कार्यक्रमों को आधिकारिक और निजी मीडिया दोनों द्वारा विधिवत प्रचारित किया गया, मोदी की भूमिका पर जोर देते हुए, लगभग उन्हें उस व्यक्ति के रूप में चित्रित करते हुए जिन्होंने “सदियों लंबे” संघर्ष के बाद अंततः राम मंदिर “दिया”.
महत्वपूर्ण रूप से, ध्वजारोहण समारोह समाप्त होने के बाद अपने भाषण में, मोदी ने मंदिर के लिए नागरिक कार्यों को बाबरी मस्जिद को ध्वस्त करने के बाद उस स्थल पर राम मंदिर बनाने के लिए संघर्ष और आंदोलन के संघ परिवार के संस्करण से जोड़ा.
मोदी के सटीक शब्द उल्लेखनीय हैं: मंदिर की पूर्णता के साथ, “सदियों पुराने घाव भर रहे हैं, सदियों के दर्द को राहत मिल रही है, और एक सदियों पुराना संकल्प आज पूर्ति प्राप्त कर रहा है”.
इतिहास : यह ध्यान दिया जाना चाहिए कि मौजूदा मस्जिद संरचना के स्थल पर अयोध्या में राम मंदिर बनाने के लिए आंदोलन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की सहयोगी संस्था, विहिप द्वारा केवल 1984 में शुरू किया गया था. उससे पहले, बाबरी मस्जिद के आसपास संघर्ष का ऐतिहासिक साक्ष्य पहली बार केवल 1850 के दशक में मिलता है जो अंततः एक हिंदू पक्ष से मुकदमेबाजी का कारण भी बना.
तब और दिसंबर 1949 के बीच, जब राम लला की मूर्ति को साजिशपूर्वक मस्जिद के केंद्रीय गुंबद के नीचे स्थापित किया गया था, 1930 के दशक में हिंदू और मुस्लिम समुदायों के बीच हिंसक झड़पें हुईं.
1528 के बाद से झड़पों के साक्ष्य की अनुपस्थिति के बावजूद, जब बाबरी मस्जिद का निर्माण माना जाता है, मोदी ने असत्य के प्रचार के लिए आधिकारिक सुविधाओं का उपयोग किया.
विरोधाभासी रूप से, लगातार प्रचार करने के बावजूद कि राम मंदिर के लिए संघर्ष पिछले 500 वर्षों से चलाया जा रहा था, भाजपा और संघ परिवार के अन्य संगठनों ने जून 1989 तक इस आंदोलन के लिए आधिकारिक रूप से समर्थन का वादा नहीं किया.
इससे तीन दशक पहले, आरएसएस ने 1959 में एक प्रस्ताव पारित किया था जिसमें कहा गया था कि अतीत में, मंदिरों को “भारत में असहिष्णु और अत्याचारी विदेशी आक्रमणकारियों और शासकों द्वारा मस्जिदों में परिवर्तित किया गया” था. हालांकि, इस मुद्दे को बाद में उठाया या उल्लेख नहीं किया गया.
बाद के वर्षों में, जैसे-जैसे आंदोलन ने गति पकड़ी और विशेष रूप से 9 नवंबर 2019 के अयोध्या मामले में सर्वोच्च न्यायालय के फैसले के बाद, संघ परिवार की आधिकारिक कथा, जैसा कि मोदी द्वारा दोहराया गया, ने आंदोलन को अधिक उद्देश्य के साथ पांच सदियों पुराने संघर्ष के हिस्से के रूप में प्रस्तुत किया.
सामाजिक पहुंच : सहज रूप से, मोदी लगातार राजनीतिक समर्थन बढ़ाने की कोशिश करते हैं और इस भाषण में भी, उन्होंने हर व्यक्ति और सामाजिक समूह के लिए कृतज्ञता के शब्दों का चयन किया था जिन्होंने किसी भी तरह से राम मंदिर परियोजना का समर्थन किया. दाताओं, निर्माण श्रमिकों, कारीगरों, मूर्तिकारों, पर्यवेक्षकों - किसी को भी अनाम नहीं छोड़ा गया.
सामाजिक पहुंच राम मंदिर आंदोलन की एक अभिन्न विशेषता रही है. नवंबर 1989 में शिलान्यास समारोह, जिसने मंदिर अभियान को व्यापक गति प्रदान की, बिहार के विहिप के दलित नेता कामेश्वर चौपाल द्वारा किया गया था.
बाद में, राज्य में भाजपा सांसद, उन्हें अंततः श्री राम जन्मभूमि तीर्थ क्षेत्र ट्रस्ट का सदस्य बनाया गया, जो राम मंदिर के निर्माण की देखरेख के लिए गठित किया गया था, और उस क्षमता में सेवा की जब तक वे इस साल की शुरुआत में गुजर नहीं गए.
इसी तरह, मोदी के पास सामाजिक पहचानों के पार संतों और देवताओं के लिए शब्द थे: महर्षि वशिष्ठ, महर्षि वाल्मीकि, महर्षि विश्वामित्र, महर्षि अगस्त्य, निषादराज, शबरी और हनुमान, जिनके लिए उसी राम मंदिर परिसर के भीतर मंदिर भी बनाए गए हैं.
महत्वपूर्ण रूप से, अपने भाषण में, जो एक धार्मिक अवसर पर दिया गया, मोदी ने उल्लेख किया कि विविध सामाजिक समुदाय सरकार के विकास कार्यक्रमों का केंद्र रहे हैं. उन्होंने महिलाओं, दलितों, ओबीसी, ईबीसी, आदिवासियों, वंचितों, किसानों, श्रमिकों और युवाओं को राज्य की उदारता और योजनाओं के प्राप्तकर्ता और लाभार्थी के रूप में नाम दिया.
फिर भी, धार्मिक अल्पसंख्यकों का स्पष्ट रूप से नाम नहीं लिया गया. पिछले समान अवसरों की तरह, मोदी के बचाव में फिर से कहा जाएगा कि श्रमिक, किसान, वंचित और युवा जैसी श्रेणियों में धार्मिक समुदायों के लोग शामिल हैं और न तो सरकार और न ही मोदी किसी समुदाय के साथ भेदभाव करते हैं.
पौराणिक कथाओं को इतिहास के रूप में मानना : अपने राजनीतिक उद्देश्यों के अनुरूप इतिहास को चित्रित करना संघ परिवार की रणनीति का एक अभिन्न हिस्सा रहा है. भगवान राम और रामायण के अन्य पात्रों को भी मोदी द्वारा ऐतिहासिक पात्रों के रूप में संदर्भित किया गया.
मोदी ने जोर देकर कहा कि “अगर देश को आगे बढ़ना है, तो उसे अपनी विरासत पर गर्व करना चाहिए”. लेकिन इतिहास, जो एक राष्ट्र के अतीत को बनाता है, उसमें पौराणिक कथाएं शामिल नहीं हो सकतीं, जैसा कि संघ परिवार और मोदी द्वारा भी किया जाता है, इस भाषण में भी शामिल है.
अपनी अंतर्दृष्टिपूर्ण पुस्तक, हिंदुत्व एंड वायलेंस: वी.डी. सावरकर एंड द पॉलिटिक्स ऑफ हिस्ट्री में, शैक्षणिक विनायक चतुर्वेदी ने सावरकर द्वारा विचारित “संपूर्ण इतिहास” की अवधारणा की ओर ध्यान आकर्षित किया. उन्होंने लिखा कि हिंदुत्व विचारक ने इस संपूर्ण इतिहास की अवधारणा करते समय पौराणिक कथाओं और महाकाव्य परंपरा की ओर रुख किया.
मोदी पर सावरकर का प्रभाव : जब मोदी पौराणिक कथाओं और महाकाव्य परंपराओं के बारे में बोलते हैं और इन्हें इतिहास के रूप में प्रस्तुत करते हैं, तो हम उनकी अभिव्यक्ति के स्रोत या ढांचे और उन पर सावरकर के प्रभाव की सीमा को समझते हैं.
सावरकर की तरह, मोदी के लिए, हिंदुत्व “एक शब्द नहीं बल्कि एक इतिहास” है. लेकिन हिंदुत्व “एक आध्यात्मिक या धार्मिक इतिहास नहीं” है, यह “संपूर्ण इतिहास” है.
यह इतिहास की कल्पना है जो उन लोगों के प्रति मोदी के क्रोध को निर्देशित करती है जिनकी समझ में भगवान राम को “वास्तविक” चरित्र नहीं बल्कि एक काल्पनिक चरित्र माना जाता है.
मोदी के लिए, यह “गुलामी की मानसिकता” का सबूत है, एक और नया विचार जिस पर वे अब हमला करते हैं. यद्यपि (लॉर्ड) मैकॉले के खिलाफ उनकी हालिया तिरस्कार उनके ध्वजारोहण उत्सव भाषण में भी फैल गई, इस विचार की परीक्षा किसी और दिन के लिए इंतजार करनी होगी.
इसके स्थान पर, यह समारोह भारत के हिंदू राज्य में प्रभावी रूपांतरण को रेखांकित करने का विचार मोदी के सूत्रीकरण से स्थापित होता है, कि तीन प्रतीकों के साथ धर्म ध्वज फहराने का कार्य - सूर्य (भगवान राम की सूर्यवंशी वंशावली का प्रतिनिधित्व करता है), पवित्र ओम (आध्यात्मिक कंपन का वाहक), और कोविदार वृक्ष का रूपांकन (शुद्धता, समृद्धि और राम राज्य को दर्शाता है), “हमारी स्मृति की वापसी” को चिह्नित करता है. यह हमारी पहचान का पुनर्जागरण है. यह हमारी स्व-सम्मानित सभ्यता की पुन: घोषणा है”.
धार्मिक और भाषाई पहचान के आधार पर एक धर्मनिरपेक्ष और विविध राष्ट्र में, ऐसी घोषणाएं बहिष्करणवादी और बहुसंख्यकवादी इरादों के अलावा कुछ नहीं बताती हैं.
नेतन्याहू ने वर्षों से चल रहे भ्रष्टाचार मामले में माफी की गुहार लगाई
इजरायल के प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू ने देश के राष्ट्रपति से अपने खिलाफ लंबे समय से चल रहे भ्रष्टाचार के मुकदमे में माफी देने का अनुरोध किया है. उन्होंने तर्क दिया कि आपराधिक कार्यवाही उनकी शासन करने की क्षमता में बाधा डाल रही है और माफी इज़रायल के लिए अच्छी होगी.
“रॉयटर्स” की खबर है कि देश के सबसे लंबे समय तक सेवा करने वाले प्रधानमंत्री नेतन्याहू रिश्वतखोरी, धोखाधड़ी और विश्वास भंग के आरोपों से इनकार करते हैं. उनके वकीलों ने राष्ट्रपति कार्यालय को लिखे एक पत्र में कहा कि प्रधानमंत्री को अब भी विश्वास है कि कानूनी कार्यवाही से उन्हें पूरी तरह बरी कर दिया जाएगा.
नेतन्याहू ने अपनी राजनीतिक पार्टी लिकुड द्वारा जारी एक संक्षिप्त वीडियो बयान में कहा, “मेरे वकीलों ने आज देश के राष्ट्रपति को माफी के लिए अनुरोध भेजा है. मैं उम्मीद करता हूं कि देश का भला चाहने वाला कोई भी व्यक्ति इस कदम का समर्थन करेगा.” खास बात यह है कि पांच वर्षों से मुकदमे का सामना कर रहे प्रधानमंत्री या उनके वकीलों में से किसी ने भी दोष स्वीकार नहीं किया है.
विपक्षी नेता यायर लैपिड ने कहा कि नेतन्याहू को दोष स्वीकार किए बिना, पछतावा व्यक्त किए बिना और तुरंत राजनीतिक जीवन से संन्यास ग्रहण किये बिना माफ नहीं किया जाना चाहिए.
इजरायल में माफी आमतौर पर तभी दी जाती है जब कानूनी कार्यवाही समाप्त हो गई हो और आरोपी को दोषी ठहराया गया हो. नेतन्याहू के वकीलों ने तर्क दिया कि जब जनहित दांव पर हो, तो राष्ट्रपति हस्तक्षेप कर सकते हैं, जैसा कि इस मामले में, विभाजन को समाप्त करने और राष्ट्रीय एकता को मजबूत करने की दृष्टि से किया जाना चाहिए. इस बीच, राष्ट्रपति इसाक हर्ज़ोग के कार्यालय ने अनुरोध को “असाधारण” बताते हुए कहा कि इसके “महत्वपूर्ण निहितार्थ” हैं. उनके कार्यालय ने कहा कि राष्ट्रपति प्रासंगिक राय प्राप्त करने के बाद “जिम्मेदारी और ईमानदारी से अनुरोध पर विचार करेंगे.” यहां यह उल्लेखनीय है कि अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प ने भी इस महीने हर्ज़ोग को पत्र लिखकर प्रधानमंत्री को माफी देने पर विचार करने का आग्रह किया था, और कहा था कि उनके खिलाफ मामला “एक राजनीतिक, अनुचित अभियोजन” है.
बच्चों के लिए एआई (AI) वाले खिलौने आ गए हैं, लेकिन क्या वे सुरक्षित हैं?
सीएनएन के लिए ऑज़िनिया बेकन की रिपोर्ट बताती है कि टेडी बियर और स्टफ्ड खिलौने लंबे समय से बच्चों के खिलौनों का हिस्सा रहे हैं. लेकिन अब ये खिलौने सिर्फ बच्चे की कल्पना में बात नहीं करते, बल्कि इनमें लगे एआई (AI) चैटबॉट्स के ज़रिए ये सच में जवाब देते हैं.
कभी-कभी यह एक समस्या बन जाता है. हाल ही में एक प्ले-टेस्ट के दौरान स्कार्फ पहने एक टेडी बियर ने अजीबोगरीब व्यवहार किया, जिसने यह चिंता बढ़ा दी कि ये खिलौने क्या करने में सक्षम हैं. ऑनलाइन चैटबॉट्स वयस्कों के लिए भी जोखिम पैदा कर सकते हैं, जैसे कि गलत जानकारी देना (hallucinating) या भ्रम पैदा करना. ओपनएआई (OpenAI) का GPT-4o कई एआई खिलौनों के लिए पसंदीदा मॉडल रहा है. बच्चों के खिलौनों में ‘लार्ज लैंग्वेज मॉडल’ (LLM) का उपयोग सुरक्षा को लेकर सवाल खड़े करता है कि क्या बच्चों को ऐसे खिलौनों के संपर्क में आना चाहिए और खिलौना निर्माताओं को क्या सुरक्षा उपाय लागू करने चाहिए.
मैसाचुसेट्स इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी (MIT) की एक रिपोर्ट के मुताबिक, एआई खिलौनों का बाज़ार विदेशों में तेज़ी से बढ़ रहा है और चीन में लगभग 1,500 कंपनियां काम कर रही हैं. अब ये कंपनियां अमेरिका में भी अपने उत्पाद बेच रही हैं. वहीं, बार्बी बनाने वाली कंपनी मैटेल (Mattel) ने जून में ओपनएआई के साथ साझेदारी की घोषणा की है.
एआई खिलौना क्या है? ये खिलौने 1980 के दशक के ‘टेडी रक्सपिन’ जैसे नहीं हैं जो कैसेट टेप से कहानियां सुनाते थे. ये खिलौने वाई-फाई (WiFi) से जुड़ते हैं और बच्चे की बात समझने के लिए माइक्रोफोन का इस्तेमाल करते हैं. फिर ये एलएलएम (LLM) का उपयोग करके तुरंत जवाब तैयार करते हैं, जो अक्सर खिलौने के अंदर लगे स्पीकर से सुनाई देता है.
क्यूरियो का ग्रोक (Curio’s Grok), मीको (Miko) रोबोट, पो (Poe) एआई स्टोरी बियर और लूना (Loona) रोबोट पेट जैसे खिलौने बच्चों को रीयल-टाइम जवाब देते हैं.
खतरे क्या हैं? जैसा कि एक एआई बियर के मामले में देखा गया, ये रीयल-टाइम जवाब कभी-कभी अनुचित हो सकते हैं.
डेनवर स्थित उपभोक्ता अधिकार समूह ‘यूएस पब्लिक इंटरेस्ट रिसर्च ग्रुप’ (PIRG) की नवंबर में जारी रिपोर्ट के अनुसार, सिंगापुर स्थित फोलोटॉय (FoloToy) का “कुम्मा” (Kumma) बियर, जिसकी कीमत 99 डॉलर है और जो ओपनएआई के GPT-4o पर चलता है, ने शोधकर्ताओं को संभावित खतरनाक चीजें ढूंढने का रास्ता बताया और यौन रूप से स्पष्ट (sexually explicit) बातचीत में भी शामिल हुआ.
ओपनएआई के प्रवक्ता के अनुसार, उन्होंने अपनी नीतियों का उल्लंघन करने के लिए फोलोटॉय को निलंबित कर दिया. उनकी नीतियां 18 वर्ष से कम उम्र के किसी भी व्यक्ति का शोषण या यौनिकरण करने के लिए उनकी सेवाओं के उपयोग को प्रतिबंधित करती हैं.
फोलोटॉय के सीईओ लैरी वांग ने सीएनएन को बताया कि कंपनी ने टेडी बियर और अन्य एआई उत्पादों को वापस ले लिया था और आंतरिक सुरक्षा ऑडिट किया. हालांकि, शुक्रवार को फोलोटॉय ने एक्स (X) पर घोषणा की कि उसने कड़ी समीक्षा और सुरक्षा मॉड्यूल को मजबूत करने के बाद उत्पाद को फिर से पेश किया है.
टेम्पल यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर सुबोध कुमार के अनुसार, ज़्यादातर एआई खिलौनों के विपरीत, फोलोटॉय का कुम्मा बियर पूरी तरह से एलएलएम का उपयोग करता है, जिससे वह किसी भी तरह का कंटेंट जेनरेट कर सकता है. यह इसे विवादास्पद सामग्री के प्रति संवेदनशील बनाता है. वहीं, क्यूरियो का ग्रोक भी आक्रामक तरीके से पूछे जाने पर खतरनाक घरेलू वस्तुओं को खोजने का सुझाव दे सकता है.
क्या इन खिलौनों में सुरक्षा (Guardrails) के इंतज़ाम हैं? पीआईआरजी (PIRG) के अनुसार, बहुत कम एआई खिलौने व्यापक उपयोग के लिए तैयार हैं. इनमें नशे की लत लगाने वाले डिज़ाइन, परिपक्व विषयों पर असंगत जवाब और शिक्षा के बजाय सामाजिक साथी बनने पर ज़ोर जैसी कमियां हैं.
हालांकि, कुछ खिलौनों में सुरक्षा और फिल्टर होते हैं. कुछ एआई खिलौने अनुचित सवाल पूछे जाने पर बातचीत को दूसरी दिशा में मोड़ सकते हैं. क्यूरियो के ग्रोक जैसे खिलौनों में बच्चे की उम्र के हिसाब से सुरक्षा फीचर्स हैं. मीको 3 (Miko 3) जैसे खिलौनों के साथ ऐसे ऐप आते हैं जो माता-पिता को निगरानी (monitoring) की सुविधा देते हैं, जैसे बातचीत की ट्रांसक्रिप्ट पढ़ना.
चेतावनी और लाभ जब 2015 में मैटेल ने ‘हैलो बार्बी’ रिलीज़ की थी, तब भी यह चिंता उठी थी कि गुड़िया हैक हो सकती है और वह बच्चों की बातें याद रखती है. एआई खिलौनों के साथ भी यही चिंताएं हैं. खिलौना उद्योग की सलाहकार अज़ेल वेड ने सीएनएन को बताया, “एआई खिलौने मुझे ‘भेड़ की खाल में भेड़िये’ जैसे लगते हैं, क्योंकि इनका उपयोग करते समय यह बताना मुश्किल है कि आपकी कितनी गोपनीयता (privacy) खत्म हो रही है.” ये खिलौने बच्चों के नाम, चेहरे, आवाज़ और लोकेशन का डेटा स्टोर कर सकते हैं.
सुबोध कुमार ने चेतावनी दी कि डेटा हैक होने का खतरा रहता है, लेकिन उन्होंने यह भी कहा कि एआई खिलौनों का उपयोग भाषा सीखने और सामाजिक विकास के लिए किया जा सकता है. उदाहरण के लिए, मीको 3 रोबोट में चेहरे की पहचान के लिए कैमरा है और यह डिज्नी की कहानियों जैसे शैक्षिक कार्यक्रम प्रदान करता है.
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