02/12/2025: संचार साथी पर सरकार बैकफुट पर | एसआईआर की संवैधानिकता पर सवाल | पीएम इंटर्नशिप का फीका असर | इमरान जिंदा हैं और सोनम वांगचुक भी | पुतिन की भारत यात्रा पर विवाद
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निधीश त्यागी, साथ में राजेश चतुर्वेदी, गौरव नौड़ियाल, फ़लक अफ़शां
आज की सुर्खियां
संचार साथी ऐप अनिवार्य नहीं मगर विशेषज्ञों को जासूसी का डर और विपक्ष ने उठाए सवाल
चुनाव आयोग संसद की जगह कानून नहीं बना सकता और एसआईआर प्रक्रिया को सिंघवी ने बताया असंवैधानिक
संसद में चुनाव सुधारों पर चर्चा के लिए सरकार तैयार मगर वंदे मातरम पर बहस के बाद ही होगी शुरुआत
पीएम इंटर्नशिप योजना में लक्ष्य से ज्यादा ऑफर मगर युवाओं की दिलचस्पी कम और बीस फीसदी ने ही स्वीकारा
सरकारी स्कूलों की संख्या में लगातार गिरावट और कम छात्रों वाले स्कूलों की तादाद बढ़ने पर सरकार का संसद में जवाब
अनिल अंबानी के खिलाफ ईडी की जांच का दायरा बढ़ा और रिलायंस ग्रुप के अधिकारी के संपर्क में रहने वाली इन्फ्लुएंसर गिरफ्तार
इमरान खान शारीरिक रूप से स्वस्थ लेकिन मानसिक प्रताड़ना के शिकार होने का बहन उज्मा खानम ने लगाया आरोप
संदेसरा मामले में सुप्रीम कोर्ट के फैसले से ईडी चिंतित कि माल्या और नीरव मोदी जैसे भगोड़े उठा सकते हैं लाभ
बिना ट्रायल आतंकवादी कहना गलत है और शरजील इमाम ने सुप्रीम कोर्ट में लगाई गुहार
कश्मीर के अस्पतालों में गोल्डन कार्ड का सच और मुफ्त इलाज के वादे के बावजूद कर्ज में डूब रहे मरीज
पुतिन की यात्रा से पहले यूरोपीय राजनयिकों के लेख पर विदेश मंत्रालय नाराज़ और कहा यह कूटनीतिक रूप से अस्वीकार्य
संचार साथी ऐप पर विवाद: सरकार ने कहा यह वैकल्पिक है, विपक्ष और विशेषज्ञों ने जताई जासूसी की आशंका
केंद्र सरकार द्वारा मोबाइल निर्माताओं को ‘संचार साथी’ (Sanchar Saathi) ऐप को फोन में अनिवार्य रूप से प्री-लोड करने के कथित निर्देश के बाद विवाद खड़ा हो गया है. हालांकि, भारी विरोध के बाद केंद्रीय संचार मंत्री ज्योतिरादित्य सिंधिया ने सफाई दी है. टेलीग्राफ और रॉयटर्स की रिपोर्ट के अनुसार, सिंधिया ने मंगलवार को कहा कि यह ऐप उपयोगकर्ताओं के लिए वैकल्पिक है. ANI के हवाले से सिंधिया ने कहा, “अगर आप संचार साथी नहीं चाहते हैं, तो आप इसे डिलीट कर सकते हैं. यह वैकल्पिक है. इस ऐप को सभी से परिचित कराना हमारा कर्तव्य है, लेकिन इसे डिवाइस में रखना है या नहीं, यह उपयोगकर्ता पर निर्भर है.”
इससे पहले रॉयटर्स ने अपनी एक रिपोर्ट में खुलासा किया था कि सरकार ने मोबाइल कंपनियों को एक आदेश जारी किया है, जिसके तहत नए फोन में इस ऐप को पहले से इंस्टॉल करना और इसे ‘नॉन-डिलीटेबल’ (जिसे हटाया न जा सके) बनाना अनिवार्य किया गया था. रिपोर्ट में यह भी कहा गया था कि पुराने फोन्स के लिए सॉफ्टवेयर अपडेट के जरिए इसे पुश करने का निर्देश दिया गया है. इस खबर के सामने आते ही सोशल मीडिया और राजनीतिक गलियारों में हंगामा मच गया. डिजिटल अधिकारों के लिए काम करने वाले निखिल पाहवा ने ‘X’ (पूर्व में ट्विटर) पर लिखा कि अगर सरकार को ऐसा करने दिया गया, तो यह हर डिवाइस पर एक सरकारी ट्रैकर लगाने जैसा होगा. उन्होंने इसे निजता का हनन बताया और आशंका जताई कि भविष्य में सरकार इसका उपयोग मैसेजेस और ब्राउज़र हिस्ट्री को ट्रैक करने के लिए कर सकती है. उन्होंने इसे ‘ब्लोटवेयर’ (अनावश्यक सॉफ्टवेयर) बताया और कहा कि सरकार बिना किसी जन परामर्श के इसे थोप रही है.
दूसरी ओर, द हिंदू की रिपोर्ट के मुताबिक, भाजपा प्रवक्ता संबित पात्रा ने विपक्ष के आरोपों को खारिज करते हुए इसे “दुष्प्रचार” बताया. पात्रा ने कहा कि संचार साथी ऐप का उद्देश्य जासूसी करना नहीं, बल्कि मोबाइल उपयोगकर्ताओं को सुरक्षित रखना है. उन्होंने दावा किया कि इस ऐप की मदद से अब तक 1.75 करोड़ फर्जी मोबाइल कनेक्शन काटे गए हैं और लाखों चोरी हुए फोन बरामद किए गए हैं. उन्होंने स्पष्ट किया कि यह ऐप मैसेज या कॉल नहीं सुनता और न ही डेटा चोरी करता है. वहीं, रॉयटर्स की रिपोर्ट में बताया गया कि एपल जैसी कंपनियां, जो निजता को लेकर सख्त हैं, सरकार के इस आदेश का विरोध कर सकती हैं. Apple ने ऐतिहासिक रूप से ऐसे सरकारी ऐप्स को प्री-इंस्टॉल करने से मना किया है.
सभी मोबाइल फोन में साइबर सिक्योरिटी एप “संचार साथी” को प्री-इंस्टॉल करने के केंद्र सरकार के आदेश पर विवाद बढ़ने के बाद मंगलवार को केंद्र सरकार की सफाई आई. केंद्रीय संचार मंत्री ज्योतिरादित्य सिंधिया ने कहा कि ये अनिवार्य नहीं है. यूजर चाहें तो इसे डिलीट कर सकते हैं.
केंद्र सरकार ने एक दिसंबर को स्मार्टफोन कंपनियों को आदेश दिया था कि वे स्मार्टफोन में सरकारी साइबर सेफ्टी एप को पहले से इंस्टॉल करके बेचें. आदेश में एप्पल, सैमसंग, वीवो, ओप्पो और शाओमी जैसी मोबाइल कंपनियों को 90 दिन का समय दिया गया है. इस एप को यूजर्स डिलीट या डिसेबल नहीं कर सकेंगे. पुराने फोन पर सॉफ्टवेयर अपडेट के जरिए यह एप इंस्टॉल किया जाएगा. इसके लिए 90 दिन का समय दिया था. इस फैसले का कांग्रेस समेत विपक्षी पार्टियों ने विरोध किया. कांग्रेस सांसद प्रियंका गांधी ने कहा कि इस आदेश से साफ है कि “देश अब तानाशाही की तरफ फिसल” रहा है. यह कदम लोगों की निजता (प्राइवेसी) पर सीधा हमला है. यह एक जासूसी एप है. सरकार हर नागरिक की निगरानी करना चाहती है. साइबर धोखाधड़ी की रिपोर्टिंग के लिए सिस्टम जरूरी है, लेकिन सरकार का ताजा आदेश लोगों की निजी जिंदगी में अनावश्यक दखल जैसा है.
लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष राहुल गांधी ने हालांकि कहा कि वह सदन में बहस के दौरान बोलेंगे, अभी कोई टिप्पणी नहीं करेंगे. कांग्रेस सांसद शशि थरूर ने कहा कि संचार साथी एप उपयोगी हो सकता है, लेकिन इसे स्वैच्छिक होना चाहिए. जिसे जरूरत हो, वह खुद इसे डाउनलोड कर सके. किसी भी चीज़ को लोकतंत्र में जबरन लागू करना चिंता की बात है. सरकार को मीडिया के जरिए आदेश जारी करने के बजाय जनता को स्पष्ट रूप से बताना चाहिए कि इस फैसले के पीछे तर्क क्या है. कांग्रेस सांसद केसी वेणुगोपाल का भी कहना था कि यह आम लोगों की प्राइवेसी पर सीधा हमला है. मदद के नाम पर भाजपा लोगों की निजी जानकारी तक पहुंच बनाना चाहती है. भारत में हमने पेगासस जैसे मामले देखे हैं. अब यह एप लगाकर देश के लोगों की निगरानी करने की कोशिश की जा रही है.
कांग्रेस सांसद रेणुका चौधरी ने स्थगन प्रस्ताव का नोटिस दिया है और नियम 267 के तहत चर्चा की मांग की है. उन्होंने कहा कि निजता का अधिकार संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत हर नागरिक का मौलिक अधिकार है. संचार साथी एप लोगों की आजादी और प्राइवेसी पर सीधा हमला है.
माकपा सांसद जॉन ब्रिटास ने कहा कि मोबाइल में इस एप डालना लोगों की प्राइवेसी का सीधा उल्लंघन है और सुप्रीम कोर्ट के 2017 के पुट्टास्वामी फैसले के खिलाफ है. यह एप हटाया भी नहीं जा सकता, यानी 120 करोड़ मोबाइल फोन में इसे अनिवार्य किया जा रहा है.
‘एसआईआर प्रक्रिया असंवैधानिक, चुनाव आयोग संसद की जगह कानून नहीं बना सकता’: सिंघवी ने सुप्रीम कोर्ट में कहा
नई दिल्ली: वरिष्ठ अधिवक्ता और कांग्रेस सांसद अभिषेक मनु सिंघवी ने सुप्रीम कोर्ट में मतदाता सूची के ‘विशेष गहन पुनरीक्षण’ (एसआईआर) की संवैधानिकता को चुनौती देते हुए तर्क दिया कि भारत के चुनाव आयोग (EC) को यह तय करने का अधिकार नहीं है कि मतदाताओं को सामूहिक रूप से अपने मतदान के अधिकार को साबित करना होगा. द वायर की रिपोर्ट के मुताबिक, सिंघवी ने कहा कि कानून बदलने का अधिकार केवल संसद के पास है.
भारत के मुख्य न्यायाधीश (CJI) सूर्य कांत और जस्टिस जॉयमालिया बागची की पीठ एसआईआर प्रक्रिया की संवैधानिकता को चुनौती देने वाली याचिकाओं के एक बैच की सुनवाई कर रही है. यह प्रक्रिया पहले बिहार में आयोजित की गई थी और अब 12 राज्यों में चल रही है. 27 नवंबर को अपनी शुरुआती दलीलों में सिंघवी ने विस्तार से बताया कि चुनाव आयोग जिस तरह से एसआईआर आयोजित कर रहा है, वह असंवैधानिक क्यों है.
सिंघवी ने तर्क दिया कि चुनाव आयोग संविधान के अनुच्छेद 324 के तहत नई “मौलिक आवश्यकताएं” (substantive requirements) नहीं बना सकता, जो चुनाव कराने की सामान्य शक्ति से संबंधित है. उन्होंने कहा, “किसी भी मानक से यह नहीं कहा जा सकता है कि आयोग विधायी प्रक्रिया में तीसरा सदन (third chamber) है. केवल संविधान द्वारा निर्मित होने से इसे विधायिका द्वारा बनाए गए कानून के संदर्भ के बिना अपनी मर्जी से कानून बनाने की पूर्ण शक्ति नहीं मिल जाती.”
सिंघवी ने कोर्ट से कहा कि चुनाव आयोग प्रभावी रूप से मतदाताओं को मतदाता सूची में “एक तरह का अस्थायी मेहमान” मान रहा है और उनसे नागरिकता साबित करने के लिए कह रहा है. उन्होंने बताया कि मौजूदा एसआईआर प्रक्रिया के तहत, आयोग “उन 11 दस्तावेजों के नागरिकता परीक्षण” के माध्यम से मतदाताओं की जांच कर रहा है, भले ही वे दस्तावेज “वैधानिक रूप में नहीं हैं” और नियमों का हिस्सा नहीं हैं.
उन्होंने यह भी कहा कि अनुच्छेद 324 को अनुच्छेद 327 (जो संसद को कानून बनाने की शक्ति देता है) के साथ सामंजस्य में पढ़ा जाना चाहिए. सिंघवी ने तर्क दिया कि 11 दस्तावेजों की मांग करने वाला फॉर्म जन प्रतिनिधित्व अधिनियम, 1950 या निर्वाचक पंजीकरण नियम, 1960 में कहीं नहीं मिलता है. उन्होंने इसे एक “बड़ा बदलाव” करार दिया जो पिछले 75 वर्षों में नहीं किया गया है. उन्होंने कहा, “पिछले 75 वर्षों में हमारे पास यह आवश्यकता नहीं थी कि ‘आप पहले एक फॉर्म भरें और मैं आपको सूची में रखूंगा या हटा दूंगा’. यह एक मौलिक बदलाव है जो केवल विधायिका द्वारा किया जा सकता है.” पिछली सुनवाई में, शीर्ष अदालत ने इस अभ्यास में आधार (Aadhaar) की भूमिका का परीक्षण किया था. मामले की सुनवाई जारी है.
संसद में चुनाव सुधारों पर चर्चा के लिए सरकार तैयार, लेकिन ‘वंदे मातरम’ पर बहस के बाद ही होगी शुरुआत
नई दिल्ली: संसद के मानसून सत्र के दौरान मतदाता सूची के विशेष गहन पुनरीक्षण यानी एसआईआर पर चर्चा की विपक्ष की मांग का विरोध करने के बाद, सरकार ने मंगलवार (2 दिसंबर) को शीतकालीन सत्र के दूसरे दिन इस मुद्दे पर बहस के लिए सहमति दे दी है. द वायर की रिपोर्ट के अनुसार, सरकार अगले सप्ताह चुनाव सुधारों पर चर्चा के लिए तैयार हो गई है, जिसमें एसआईआर का मुद्दा भी शामिल होगा. हालांकि, यह चर्चा ‘वंदे मातरम’ के 150 साल पूरे होने पर होने वाली बहस के बाद ही आयोजित की जाएगी.
संसद की यह घोषणा ऐसे समय में आई है जब देश भर के 12 राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों में एसआईआर की प्रक्रिया चल रही है और इस काम में लगे ब्लॉक लेवल अधिकारियों (BLOs) की मौत की खबरें बढ़ रही हैं. मंगलवार दोपहर लोकसभा अध्यक्ष ओम बिरला के कार्यालय में सभी दलों के फ्लोर लीडर्स की बैठक के बाद यह निर्णय लिया गया. तय कार्यक्रम के अनुसार, सोमवार (8 दिसंबर) को ‘वंदे मातरम’ के 150 साल पूरे होने पर विशेष चर्चा होगी, जबकि मंगलवार और बुधवार (9 और 10 दिसंबर) को चुनाव सुधारों पर चर्चा की जाएगी.
बैठक के बाद संसदीय कार्य मंत्री किरेन रिजिजू ने स्पष्ट किया कि संसद में केवल चुनाव सुधारों पर चर्चा हो सकती है. रिजिजू ने कहा, “हम पहले भी कह रहे थे कि चुनाव आयोग की बड़ी भूमिका है क्योंकि वह चुनाव कराता है. जन प्रतिनिधित्व अधिनियम जैसे नियम हैं जिन्हें संसद ने पारित किया है. चुनाव सुधारों पर संसद में ही चर्चा होनी चाहिए. लेकिन एसआईआर चुनाव आयोग का एक प्रशासनिक निर्णय है, इसलिए सरकार इस पर कुछ नहीं कह सकती क्योंकि चुनाव आयोग स्वतंत्र है.” उन्होंने कहा कि अब जब सब एक साथ आए हैं, तो सरकार का पक्ष भी देश के सामने रखा जाएगा.
राज्यसभा में नेता प्रतिपक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे ने कहा कि एसआईआर पर चर्चा देशहित में है और इसे अभी कराया जाना चाहिए. उन्होंने कहा, “यह नागरिकों और लोकतंत्र के हित में है. एसआईआर के काम के दबाव के कारण 28 से अधिक लोगों की मौत हो चुकी है.”
विपक्षी दलों ने कहा कि लोकतंत्र की भावना को देखते हुए उन्होंने अपनी रणनीति बदली है. तृणमूल कांग्रेस के सांसद डेरेक ओ ब्रायन ने कहा, “एक जिम्मेदार विपक्ष ने संसद चलाने के लिए वह सब किया जो ज़रूरी था. एसआईआर पर चर्चा सर्वोच्च प्राथमिकता थी और है (लोग मर रहे हैं). हालांकि, संसदीय लोकतंत्र की भावना में, हमने समय को लेकर सरकार के प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया और एक रणनीतिक बदलाव किया. हम दोनों बहसों में सरकार को घेरेंगे.” इससे पहले सोमवार को विपक्षी सांसदों ने आरोप लगाया था कि सरकार पर “विश्वास की कमी” है क्योंकि पिछला सत्र बिना चर्चा के खत्म हो गया था.
पीएम इंटर्नशिप योजना: लक्ष्य से ज्यादा ऑफर, लेकिन युवाओं की दिलचस्पी कम; 20% ने ही स्वीकारा ऑफर
संसद में पेश किए गए आंकड़ों के मुताबिक, पीएम इंटर्नशिप योजना (PM Internship Scheme) का पायलट प्रोजेक्ट भले ही एक साल में 1.25 लाख इंटर्नशिप अवसर प्रदान करने के अपने लक्ष्य को पार कर गया हो, लेकिन इसे भारत के युवाओं के बीच बहुत कम स्वीकार्यता मिली है. हिंदू की रिपोर्ट के अनुसार, केंद्रीय कॉरपोरेट मामलों के राज्य मंत्री हर्ष मल्होत्रा ने लोकसभा में एक प्रश्न के लिखित उत्तर में बताया कि दो चरणों में कंपनियों द्वारा आवेदकों को 1.65 लाख इंटर्नशिप के ऑफर दिए गए थे. इनमें से केवल 20% ऑफर ही स्वीकार किए गए. उम्मीदवारों ने ऑफर ठुकराने के पीछे लोकेशन, भूमिका और इंटर्नशिप की अवधि को वजह बताया. वहीं, जिन लोगों ने ऑफर स्वीकार किए, उनमें से भी पांचवें हिस्से (one-fifth) ने इंटर्नशिप पूरी होने से पहले ही छोड़ दी.
केंद्रीय बजट 2024 में घोषित इस योजना का उद्देश्य पांच वर्षों में भारत की शीर्ष 500 कंपनियों में एक करोड़ युवाओं को इंटर्नशिप के अवसर प्रदान करना है. अक्टूबर 2024 में इसका पायलट प्रोजेक्ट शुरू किया गया था.
आंकड़ों के मुताबिक, पायलट प्रोजेक्ट के पहले दौर में कंपनियों ने 1.27 लाख से अधिक अवसर पोस्ट किए, जिसके लिए 6.21 लाख आवेदन आए. कंपनियों ने 82,000 ऑफर दिए, जिनमें से केवल 8,700 (10.6%) स्वीकार किए गए. चिंताजनक बात यह है कि 26 नवंबर, 2025 तक पहले दौर के आधे से अधिक उम्मीदवार (4,565) अपनी इंटर्नशिप पूरी किए बिना ही छोड़ गए.
जनवरी 2025 से शुरू हुए दूसरे दौर में स्थिति थोड़ी बेहतर रही. कंपनियों ने 83,000 से अधिक ऑफर दिए, जिनमें से 24,600 (30%) स्वीकार किए गए. अब तक, दूसरे दौर में शामिल होने वाले 8.3% उम्मीदवारों ने इसे बीच में ही छोड़ दिया है. कुल मिलाकर दोनों चरणों में केवल 33,300 (20.2%) ऑफर स्वीकार किए गए और उनमें से भी लगभग 20% लोग समय से पहले निकल गए.
मंत्रालय द्वारा किए गए सर्वे और फीडबैक में पता चला कि लोकेशन एक बड़ा मुद्दा है; उम्मीदवार 5 से 10 किलोमीटर के दायरे में काम करना पसंद करते हैं. इसके अलावा, 12 महीने की अवधि को सामान्य स्किलिंग प्रोग्राम की तुलना में लंबा माना गया और कुछ उम्मीदवार प्रस्तावित भूमिकाओं में रुचि नहीं रखते थे. सरकार ने शुरुआत में पायलट प्रोजेक्ट के लिए ₹840 करोड़ का बजट रखा था, जिसे घटाकर ₹380 करोड़ कर दिया गया है.
सरकारी स्कूलों की संख्या में गिरावट, कम छात्रों वाले स्कूलों की तादाद बढ़ी: संसद में सरकार का जवाब
पिछले छह वर्षों में भारत में सरकारी स्कूलों की संख्या में लगातार गिरावट आई है, जबकि शून्य या 10 से कम छात्रों वाले स्कूलों की संख्या में वृद्धि हुई है. द वायर की रिपोर्ट के अनुसार, केंद्रीय शिक्षा मंत्री धर्मेंद्र प्रधान ने सोमवार (1 दिसंबर) को संसद में कांग्रेस सांसदों अमरिंदर सिंह राजा वड़िंग और कार्ति पी. चिदंबरम के एक सवाल के जवाब में यह जानकारी दी. आंकड़ों के मुताबिक, सरकारी स्कूलों की कुल संख्या 2019-20 में 10,32,570 थी, जो 2024-25 में घटकर 10,13,322 रह गई है.
2019 से 2024 के बीच सरकारी स्कूलों की संख्या में सबसे तेज गिरावट मध्य प्रदेश, ओडिशा और जम्मू-कश्मीर में दर्ज की गई है. मध्य प्रदेश में स्कूलों की संख्या 99,411 से घटकर 92,250 हो गई, यानी 7,000 से अधिक स्कूलों की कमी आई. इसके बाद ओडिशा में 4,600 से अधिक और जम्मू-कश्मीर में 4,300 से अधिक स्कूल बंद हुए. साल 2024-25 में सबसे ज्यादा स्कूल बिहार (1890), हिमाचल प्रदेश (492) और कर्नाटक (462) में बंद हुए हैं.
यूनिफाइड डिस्ट्रिक्ट इंफॉर्मेशन सिस्टम फॉर एजुकेशन (UDISE+) से प्राप्त डेटा एक विरोधाभासी तस्वीर भी पेश करता है. 10 से कम या शून्य नामांकन (enrolment) वाले सरकारी स्कूलों की संख्या 2022-23 में 52,309 थी, जो 2024-25 में बढ़कर 65,054 हो गई. दिलचस्प बात यह है कि ऐसे कम छात्रों वाले स्कूलों में शिक्षकों की संख्या इसी अवधि में 1.26 लाख से बढ़कर 1.44 लाख हो गई. 2024-25 में सबसे कम नामांकन वाले स्कूलों की संख्या पश्चिम बंगाल (6,703), उत्तर प्रदेश (6,561) और महाराष्ट्र (6,552) में सबसे अधिक थी.
शिक्षा मंत्री धर्मेंद्र प्रधान ने कहा कि शिक्षकों की भर्ती और तैनाती संबंधित राज्य सरकारों के अधिकार क्षेत्र में आती है और केंद्र सरकार ‘समग्र शिक्षा’ योजना के तहत राज्यों को वित्तीय सहायता प्रदान करती है. हालांकि, मंत्री के जवाब में यह स्पष्ट नहीं किया गया कि स्कूलों की संख्या में गिरावट का कारण विलय (mergers), बंदी या कोई अन्य वजह है.
अनिल अंबानी के खिलाफ ईडी की जांच का दायरा बढ़ा, रिलायंस ग्रुप के अधिकारी के संपर्क में रहने वाली इन्फ्लुएंसर गिरफ्तार
प्रवर्तन निदेशालय (ईडी) ने रिलायंस ग्रुप के चेयरमैन अनिल अंबानी और उनसे जुड़ी कंपनियों के खिलाफ मनी लॉन्ड्रिंग जांच को अगले स्तर पर ले जाते हुए बड़ी कार्रवाई की है. द प्रिंट में मयंक कुमार की रिपोर्ट के अनुसार, जांच एजेंसी ने मंगलवार और बुधवार को ग्रुप के प्रेसिडेंट (कॉर्पोरेट अफेयर्स) अंगराई नटराजन सेतुरमन के ठिकानों पर छापेमारी की. इसके साथ ही, ईडी के प्रवक्ता ने बुधवार को पुष्टि की कि ऑनलाइन इन्फ्लुएंसर और उद्यमी संदीपा विर्क को सेतुरमन के साथ “अवैध लाइजनिंग” का काम करने के आरोप में गिरफ्तार किया गया है.
विर्क, जिनके इंस्टाग्राम पर 10 लाख से अधिक फॉलोअर्स हैं, ‘हाइबूकेयर’ नामक एक फैशन और ब्यूटी फर्म की संस्थापक होने का दावा करती हैं. एक एजेंसी सूत्र ने द प्रिंट को बताया कि जांच के दौरान विर्क की भूमिका सामने आई और वह अवैध गतिविधियों के लिए सेतुरमन के “नियमित संपर्क” में पाई गईं. विर्क के खिलाफ मनी लॉन्ड्रिंग का मामला पंजाब पुलिस द्वारा मोहाली में दर्ज एक केस पर आधारित है. उन पर आरोप है कि उन्होंने एक फिल्म प्रोजेक्ट में निवेश के बहाने जसनीत कौर नामक महिला से 6 करोड़ रुपये की ठगी की.
ईडी अधिकारी ने बताया कि विर्क पर कानून प्रवर्तन एजेंसियों के अधिकारी होने का रूप धारण करने और ‘हाइबूकेयर डॉट कॉम’ नामक फर्जी ई-कॉमर्स वेबसाइट चलाने का आरोप है, जिस पर उत्पादों के अमेरिकी एफडीए से अप्रूव्ड होने का झूठा दावा किया गया था. अधिकारी ने कहा, “उसने दावा किया था कि प्रवर्तन निदेशालय (ईडी) में उसके संपर्क हैं और इसी बहाने उसने सेतुरमन के माध्यम से अनिल अंबानी तक पहुंच बनाई और चल रही जांच में मदद करने का वादा किया.”
जांच एजेंसी के अनुसार, सेतुरमन रिलायंस कमर्शियल फाइनेंस लिमिटेड (आरसीएफएल) और रिलायंस कैपिटल से धन की हेराफेरी में शामिल पाए गए. जांच में पता चला कि आरसीएफएल ने बिना उचित जांच-पड़ताल के सेतुरमन को 18.71 करोड़ रुपये की सार्वजनिक धनराशि वितरित की. इसके अलावा, सेतुरमन को नियमों का उल्लंघन करते हुए रिलायंस कैपिटल से 22 करोड़ रुपये का होम लोन भी मंजूर किया गया था, जिसे अंततः नहीं चुकाया गया और गबन कर लिया गया. सेतुरमन ‘थेल्स रिलायंस डिफेंस सिस्टम्स लिमिटेड’ के निदेशक भी हैं, जो रिलायंस और फ्रांसीसी फर्म थेल्स ग्रुप का एक संयुक्त उद्यम है.
रिलायंस ग्रुप के प्रवक्ता ने मीडिया को दिए एक बयान में सेतुरमन पर लगे ईडी के आरोपों को “पूरी तरह से निराधार” बताया है. उन्होंने संदीपा विर्क के साथ किसी भी संबंध या उनसे जुड़े किसी भी लेन-देन से सख्ती से इनकार किया. प्रवक्ता ने यह भी कहा कि सेतुरमन को मिला होम लोन उचित प्रक्रिया के तहत दिया गया था और यह संपत्ति के बदले सुरक्षित था. यह कार्रवाई अनिल अंबानी से ईडी द्वारा पूछताछ और ओडिशा स्थित एक फर्म के एमडी पार्थ सारथी बिस्वाल की गिरफ्तारी के बाद हुई है.
इमरान खान शारीरिक रूप से स्वस्थ लेकिन मानसिक प्रताड़ना के शिकार: बहन उज्मा खानम
पाकिस्तान के पूर्व प्रधानमंत्री इमरान खान की बहन उज्मा खानम ने मंगलवार को रावलपिंडी की अडियाला जेल में उनसे मुलाकात की. इंडियन एक्सप्रेस और डॉन की रिपोर्ट के अनुसार, मुलाकात के बाद उज्मा ने बताया कि इमरान खान शारीरिक रूप से पूरी तरह स्वस्थ हैं, लेकिन उन्हें मानसिक रूप से प्रताड़ित किया जा रहा है. उज्मा ने कहा, “इमरान खान की सेहत बिल्कुल ठीक है, लेकिन वह बहुत गुस्से में थे और उन्होंने कहा कि उन्हें मानसिक यातना दी जा रही है.” सोशल मीडिया पर वायरल वीडियो और खबरों के मुताबिक, उज्मा ने आरोप लगाया है कि पाकिस्तान के सेना प्रमुख असीम मुनीर उन्हें मानसिक रूप से प्रताड़ित कर रहे हैं और उन्हें कमरे से बाहर नहीं निकलने दिया जा रहा है.
उज्मा खानम पीटीआई (PTI) समर्थकों के साथ जेल पहुंची थीं. इमरान खान अगस्त 2023 से भ्रष्टाचार के मामलों में जेल में बंद हैं. उनके समर्थक उनकी रिहाई और सलामती की मांग को लेकर लगातार प्रदर्शन कर रहे हैं. इस्लामाबाद और रावलपिंडी में धारा 144 लागू होने के बावजूद पीटीआई समर्थकों ने इस्लामाबाद हाईकोर्ट के बाहर प्रदर्शन किया. पाकिस्तान के आंतरिक राज्य मंत्री तलाल चौधरी ने चेतावनी दी है कि कानून तोड़ने वालों के खिलाफ सख्त कार्रवाई की जाएगी. वहीं, इमरान खान के बेटे कासिम खान ने रॉयटर्स से बातचीत में डर जताया कि अधिकारी उनके पिता की स्थिति के बारे में कुछ छिपा रहे हैं. इमरान की एक और बहन अलीमा खान ने जेल अधिकारियों के खिलाफ अदालत की अवमानना याचिका दायर की है, क्योंकि अदालती आदेशों के बावजूद उन्हें इमरान से मिलने नहीं दिया जा रहा था.
संदेसरा मामले में सुप्रीम कोर्ट के फैसले से ईडी चिंतित: माल्या और नीरव मोदी जैसे भगोड़े उठा सकते हैं लाभ
संदेसरा बंधुओं के मामले में सुप्रीम कोर्ट के हालिया आदेश ने प्रवर्तन निदेशालय (ED) की चिंता बढ़ा दी है. इंडियन एक्सप्रेस में दीप्तिमान तिवारी की रिपोर्ट के अनुसार, सुप्रीम कोर्ट ने स्टर्लिंग बायोटेक ग्रुप के प्रमोटरों (संदेसरा परिवार) के खिलाफ आपराधिक कार्यवाही को बंद करने का आदेश दिया है, क्योंकि उन्होंने बैंकों को धोखाधड़ी की एक बड़ी रकम वापस करने पर सहमति जताई है. कोर्ट ने कहा कि चूंकि सार्वजनिक पैसा वापस आ रहा है, इसलिए मुकदमा चलाने का कोई मतलब नहीं है. हालांकि कोर्ट ने यह भी स्पष्ट किया कि इस आदेश को नजीर (precedent) नहीं माना जाना चाहिए, लेकिन ED के सूत्रों का मानना है कि विजय माल्या, नीरव मोदी और मेहुल चोकसी जैसे अन्य भगोड़े आर्थिक अपराधी इसका फायदा उठाने की कोशिश कर सकते हैं.
संदेसरा बंधुओं पर 16,000 करोड़ रुपये से अधिक की बैंक धोखाधड़ी का आरोप है और वे 2017 से विदेश में हैं. कोर्ट के आदेश के मुताबिक, उन्हें लगभग 5,100 करोड़ रुपये जमा करने होंगे. ED के अधिकारियों का कहना है कि अन्य भगोड़े भी अपनी देनदारियां चुकाने को तैयार हैं और उनके वकील इसी तरह के समझौते के लिए तर्क दे सकते हैं. रिपोर्ट में अन्य प्रमुख मामलों का भी जिक्र किया गया है:
विजय माल्या: 17,000 करोड़ रुपये से अधिक का बकाया (ब्याज सहित). ED ने 14,000 करोड़ की संपत्ति कुर्क की है. वह यूके में है.
नीरव मोदी: 6,498 करोड़ रुपये का डिफॉल्ट. यूके की जेल में है और प्रत्यर्पण के खिलाफ लड़ रहा है.
मेहुल चोकसी: 6,097 करोड़ रुपये का डिफॉल्ट. एंटीगुआ की नागरिकता ले चुका है.
अनिल अंबानी: कई कंपनियों पर हजारों करोड़ का कर्ज और फंड डायवर्जन के आरोप.
संदेसरा मामले में सरकार ने कोई आपत्ति नहीं जताई थी, जिसके बाद कोर्ट ने यह फैसला सुनाया. अब जांच एजेंसियों को डर है कि यह एक ऐसा रास्ता खोल सकता है जिससे बड़े आर्थिक अपराधी कानूनी चंगुल से बच निकलेंगे.
बिना ट्रायल ‘आतंकवादी’ कहना गलत: शरजील इमाम ने सुप्रीम कोर्ट में लगाई गुहार
फरवरी 2020 के दिल्ली दंगों से जुड़े मामले में जमानत की मांग कर रहे छात्र कार्यकर्ता शरजील इमाम ने सुप्रीम कोर्ट से कहा कि बिना किसी दोषसिद्धि और पूरा ट्रायल हुए बिना उन्हें “खतरनाक बौद्धिक आतंकवादी” (intellectual terrorist) करार दिया जा रहा है. न्यू इंडियन एक्सप्रेस की रिपोर्ट के मुताबिक, जस्टिस अरविंद कुमार और जस्टिस एन.वी. अंजारिया की बेंच के सामने शरजील की ओर से वरिष्ठ वकील सिद्धार्थ दवे ने दलील दी. उन्होंने कहा, “मैं आतंकवादी या देशद्रोही नहीं हूं. मैं इस देश का नागरिक हूं और मुझे किसी अपराध में दोषी नहीं ठहराया गया है. मेरे भाषणों से दंगे नहीं भड़के; मैं दंगों से पहले ही 28 जनवरी 2020 को गिरफ्तार हो चुका था.”
दवे ने कोर्ट को बताया कि मार्च 2020 में उन पर साजिश (conspiracy) का मामला दर्ज किया गया, जबकि वे पहले से ही हिरासत में थे. उन्होंने कहा कि केवल भाषण देना आपराधिक साजिश में शामिल होना नहीं हो सकता. बेंच ने सवाल किया कि क्या ऐसे भाषण किसी बड़ी योजना का हिस्सा हो सकते हैं? वहीं, कार्यकर्ता उमर खालिद की ओर से पेश वरिष्ठ वकील कपिल सिब्बल ने दलील दी कि खालिद दंगों के दौरान दिल्ली में थे ही नहीं. उन्होंने खालिद के अमरावती भाषण का हवाला देते हुए कहा कि उसमें शांतिपूर्ण विरोध की बात कही गई थी, न कि हिंसा की. कार्यकर्ता गुलफिशा फातिमा के वकील अभिषेक मनु सिंघवी ने कहा कि उनकी मुवक्किल पिछले छह साल से जेल में हैं और अभी तक आरोप भी तय नहीं हुए हैं. उन्होंने इस देरी को “हैरान करने वाला और अभूतपूर्व” बताया.
कश्मीर के अस्पतालों में ‘गोल्डन कार्ड’ का सच: मुफ्त इलाज के वादे के बावजूद कर्ज में डूब रहे मरीज
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की प्रमुख स्वास्थ्य योजना ‘आयुष्मान भारत’ (PM-JAY), जिसे ‘गोल्डन कार्ड’ के नाम से भी जाना जाता है, कश्मीर में मरीजों को कर्ज से बचाने में विफल साबित हो रही है. आर्टिकल 14 के लिए रिपोर्टर जायद मलिक की एक विस्तृत रिपोर्ट के अनुसार, बांदीपोरा की 57 वर्षीय रोशन जान, जो ओवेरियन कैंसर से जूझ रही हैं, इस योजना की कड़वी हकीकत का उदाहरण हैं. इस कार्ड के तहत 5 लाख रुपये तक के मुफ्त इलाज का वादा है, लेकिन रोशन जान के परिवार को कीमोथेरेपी और दवाइयों के लिए अपनी जमीन गिरवी रखनी पड़ी और जेवर बेचने पड़े.
रिपोर्ट बताती है कि अस्पतालों में कई महंगी दवाइयां और टेस्ट इस योजना के दायरे से बाहर हैं या उपलब्ध नहीं हैं. रोशन जान को बताया गया कि ‘डे-केयर’ (दिन भर के इलाज) में उन्हें मुफ्त दवाइयां नहीं मिल सकतीं, इसके लिए भर्ती होना जरूरी है, जबकि उनका इलाज डे-केयर में ही होता है. परिवार हर कीमोथेरेपी पर 25,000 रुपये और टेस्ट पर 10,000 रुपये खर्च करने को मजबूर है. श्रीनगर के SKIMS अस्पताल में भी यही हाल है, जहाँ मरीज फार्मेसी के बाहर अपनी बारी का इंतजार करते हैं लेकिन उन्हें अक्सर दवाइयां बाहर से खरीदने को कहा जाता है.
सरकारी आंकड़ों के मुताबिक 40 करोड़ से ज्यादा कार्ड जारी किए गए हैं, लेकिन जैद मलिक की ग्राउंड रिपोर्ट बताती है कि अस्पतालों पर सरकार का करोड़ों रुपये बकाया है, जिसके कारण निजी अस्पताल और वेंडर सेवाएं देने से कतराते हैं. रिपोर्ट में पाया गया कि मरीज कागजी कार्रवाई और ‘सिस्टम अपडेट’ के चक्कर में पिस रहे हैं. डॉक्टर और स्टाफ भी दबी जुबान में स्वीकार करते हैं कि सबसे महंगी थेरेपी और दवाइयां इस स्कीम की लिस्ट से बाहर हैं. गरीबी रेखा से नीचे (BPL) वाले परिवार, जिन्हें उम्मीद थी कि यह कार्ड उन्हें कर्ज से बचाएगा, अब इलाज के लिए साहूकारों से पैसा उधार ले रहे हैं.
पुतिन की यात्रा से पहले यूरोपीय राजनयिकों के लेख पर विदेश मंत्रालय नाराज़, कहा- यह कूटनीतिक रूप से अस्वीकार्य
रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन की भारत यात्रा से ठीक पहले यूरोपीय राजनयिकों द्वारा रूस की आलोचना करने वाले एक लेख पर भारत सरकार ने कड़ी प्रतिक्रिया दी है. द प्रिंट की रिपोर्ट के अनुसार, भारतीय विदेश मंत्रालय (एमईए) फ्रांस, यूनाइटेड किंगडम और जर्मनी के राजदूतों से उस संयुक्त लेख को लेकर नाराज़ है जो सोमवार को एक राष्ट्रीय दैनिक में प्रकाशित हुआ था.
विदेश मंत्रालय के एक अधिकारी ने मंगलवार को कहा, “हम इसे (लेख को) बहुत असामान्य मानते हैं. किसी तीसरे देश के साथ भारत के विदेशी संबंधों पर सलाह देना एक स्वीकार्य कूटनीतिक प्रथा नहीं है. हमने इसका संज्ञान लिया है.”
फ्रांस के राजदूत थिएरी माथौ, जर्मनी के फिलिप एकरमैन और यूके की उच्चायुक्त लिंडी कैमरून ने सोमवार को टाइम्स ऑफ इंडिया में एक संयुक्त लेख लिखा था. इसमें उन्होंने यूक्रेन के साथ चल रहे युद्ध में अंतरराष्ट्रीय कानूनों के उल्लंघन को लेकर रूस की आलोचना की थी. तीनों राजनयिकों ने तर्क दिया कि जहां दुनिया शांति के लिए ज़ोर दे रही है, वहीं मॉस्को यूक्रेन के खिलाफ हमलों के साथ शांति प्रयासों को रोक रहा है.
इस लेख ने सोशल मीडिया पर भी हंगामा मचा दिया है. पूर्व भारतीय विदेश सचिव कंवल सिब्बल ने इसे “शातिर” और “भारत के खिलाफ कूटनीतिक अपमान” करार दिया, क्योंकि यह एक मित्र देश के साथ भारत के संबंधों पर सवाल उठाता है. सिब्बल ने विदेश मंत्रालय से तीनों दूतों के साथ सार्वजनिक रूप से अपनी नाराज़गी ज़ाहिर करने की मांग की.
रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन दो दिवसीय राजकीय यात्रा के लिए गुरुवार को नई दिल्ली पहुंचने वाले हैं. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के साथ चर्चा के अलावा, उनका शुक्रवार सुबह राष्ट्रपति भवन में स्वागत किया जाएगा. यह यात्रा वार्षिक भारत-रूस शिखर सम्मेलन तंत्र का हिस्सा है और 2000 में शुरू होने के बाद से यह 23वां शिखर सम्मेलन होगा. एजेंडे में 5 अतिरिक्त एस-400 ट्रायम्फ वायु रक्षा प्रणालियों की संभावित खरीद और नागरिक परमाणु सहयोग जैसे क्षेत्र शामिल हैं.
पुतिन की भारत यात्रा ऐसे समय में हो रही है जब अमेरिका में ट्रम्प प्रशासन इस संघर्ष में शांति समझौते का रास्ता खोजने का प्रयास कर रहा है. भारत का यह रुख रहा है कि “संवाद और कूटनीति” ही एकमात्र तरीका है जिससे युद्ध समाप्त हो सकता है.
चुनाव आयुक्त संधू ने ‘वास्तविक नागरिकों’ के उत्पीड़न से आगाह किया था, लेकिन अंतिम आदेश से ‘नागरिक’ हटा दिया गया
24 जून 2025 को, जिस दिन चुनाव आयोग ने बिहार से शुरू होने वाले मतदाता सूचियों के राष्ट्रव्यापी विशेष गहन पुनरीक्षण (एसआईआर) का निर्देश देने वाला आदेश जारी किया था, उस आदेश के मसौदे में चुनाव आयुक्त सुखबीर सिंह संधू ने सावधानी बरतने का एक नोट दर्ज किया था, जैसा कि “द इंडियन एक्सप्रेस” को पता चला है.
संधू ने मसौदा आदेश की फ़ाइल में लिखा था, “यह सुनिश्चित करने के लिए सावधानी बरती जानी चाहिए कि वास्तविक मतदाता/नागरिक, विशेष रूप से वृद्ध, बीमार, पीडब्ल्यूडी (दिव्यांग व्यक्ति), गरीब और अन्य कमजोर समूह परेशान महसूस न करें और उन्हें सुविधा प्रदान की जाए.”
यह उस प्रक्रिया का स्पष्ट संदर्भ था, जिसमें सभी मौजूदा मतदाताओं को गणना प्रपत्र भरने की आवश्यकता थी और कुछ श्रेणियों को अपनी पात्रता साबित करने के लिए अतिरिक्त दस्तावेज प्रस्तुत करने थे. मुख्य चुनाव आयुक्त ज्ञानेश कुमार ने बाद में फ़ाइल पर हस्ताक्षर किए.
महत्वपूर्ण रूप से, जिस तत्परता के साथ आदेश जारी किया गया था, उसके संकेत के रूप में, मसौदा आदेश को उसी दिन व्हाट्सएप पर अनुमोदित किया गया था. जब 24 जून की शाम को अंतिम आदेश सार्वजनिक किया गया, तो उसमें एक स्पष्ट संशोधन किया गया था.
“द इंडियन एक्सप्रेस” की दामिनी नाथ के मुताबिक, मसौदा आदेश के पैरा 2.5 और 2.6 में, एसआईआर को स्पष्ट रूप से नागरिकता अधिनियम से जोड़ा गया था, और प्रक्रिया को सही ठहराने के लिए अधिनियम में किए गए परिवर्तनों का उपयोग किया गया था: “आयोग का एक संवैधानिक दायित्व है कि वह यह सुनिश्चित करे कि केवल वही व्यक्ति जो भारत के संविधान और नागरिकता अधिनियम, 1955 (’नागरिकता अधिनियम’) के अनुसार नागरिक हैं, उन्हें ही मतदाता सूची में शामिल किया जाए. नागरिकता अधिनियम में 2004 में एक महत्वपूर्ण संशोधन हुआ और उसके बाद से देश भर में कोई गहन संशोधन नहीं किया गया है. “
हालांकि, अंतिम आदेश में नागरिकता अधिनियम और 2003 में पारित और 2004 से लागू संशोधन के संदर्भों को हटा दिया गया. 24 जून के अंतिम आदेश के पैरा 8 में, चुनाव आयोग ने लिखा: “जबकि, संविधान के अनुच्छेद 326 में निर्धारित मूलभूत पूर्व-शर्तों में से एक यह है कि किसी व्यक्ति को भारतीय नागरिक होना आवश्यक है, ताकि उसका नाम मतदाता सूची में पंजीकृत हो सके. परिणामस्वरूप, आयोग का एक संवैधानिक दायित्व है कि वह यह सुनिश्चित करे कि केवल वही व्यक्ति जो नागरिक हैं.” पैरा अचानक समाप्त हो जाता है, वाक्य अर्धविराम के बाद टूट जाता है. 24 जून के बाद से, चुनाव आयोग ने इस अधूरे वाक्य पर कोई टिप्पणी नहीं की है.
28 नवंबर को, “द इंडियन एक्सप्रेस” ने चुनाव आयोग के प्रवक्ता से दोनों आदेशों में बदलाव के बारे में पूछने के लिए संपर्क किया, लेकिन कोई टिप्पणी उपलब्ध नहीं हो सकी.
“द इंडियन एक्सप्रेस” ने आयुक्त संधू से भी उनके नोट के बारे में और क्या उनकी चिंताओं को दूर किया गया था, यह पूछा. वह टिप्पणी के लिए उपलब्ध नहीं थे. हालांकि, अंतिम आदेश के अवलोकन से पता चलता है कि संधू की चिंताओं को अंतिम आदेश में जगह मिली. उनके द्वारा उठाए गए बिंदु को अंतिम आदेश के पैरा 13 में शामिल किया गया था, लेकिन इसका श्रेय उन्हें नहीं दिया गया.
24 जून के आदेश में कहा गया है, “यह एक गहन पुनरीक्षण होने के कारण, यदि 25 जुलाई, 2025 से पहले गणना प्रपत्र जमा नहीं किया जाता है, तो मतदाता का नाम मसौदा सूचियों में शामिल नहीं किया जा सकता है. हालाँकि, सीईओ/डीईओ/ईआरओ/बीएलओ (मुख्य निर्वाचन अधिकारी, जिला निर्वाचन अधिकारी, निर्वाचक पंजीकरण अधिकारी और बूथ स्तर के अधिकारी के लिए) को भी ध्यान रखना चाहिए कि वास्तविक मतदाताओं, विशेष रूप से वृद्ध, बीमार, पीडब्ल्यूडी, गरीब और अन्य कमजोर समूहों को परेशान न किया जाए और स्वयंसेवकों की तैनाती सहित यथासंभव उन्हें सुविधा प्रदान की जाए.” लेकिन, महत्वपूर्ण रूप से, संधू का “नागरिकों” का संदर्भ हटा दिया गया.
नाम में बहुत कुछ रखा है, पीएमओ अब सेवा तीर्थ कहलाएगा
हर ड्रामे का अपना कालखंड होता है...और कालखंड के हिसाब से ड्रामे के संवाद होते हैं, लाइनें होती हैं. जैसे शेक्सपियर के नाटक की मशहूर लाइन,-“नाम में क्या रखा है”, मौजूदा कालखंड में बदलकर हो गई है-“नाम में बहुत कुछ रखा है.” रेलवे स्टेशन के नाम, शहरों के नाम, गांवों-कस्बों के नाम, सबमें बहुत कुछ रखा है. ताज़ा खबर है कि केंद्र सरकार ने प्रधानमंत्री कार्यालय (पीएमओ) का नाम बदलकर सेवा तीर्थ कर दिया है. देश भर के राज्य भवन का नाम अब लोक भवन होगा. इसके अलावा केंद्रीय सचिवालय को कर्तव्य भवन के नाम से जाना जाएगा.
“द हिंदू” के अनुसार, पीएमओ के अफसरों ने कहा कि सार्वजनिक संस्थानों में बड़ा बदलाव हो रहा है. सत्ता से सेवा की ओर बढ़ रहे हैं. ये बदलाव प्रशासनिक नहीं, सांस्कृतिक है. इससे पहले केंद्र सरकार ने राजपथ का नाम बदलकर कर्तव्य पथ किया था. पीएम का आधिकारिक निवास भी रेस कोर्स रोड कहलाता था, जिसे 2016 में बदलकर लोक कल्याण मार्ग किया गया था.
रूबिया सईद अपहरण कांड: सीबीआई ने 35 साल बाद फरार अपराधी को गिरफ्तार किया
जम्मू और कश्मीर लिबरेशन फ्रंट (जेकेएलएफ) के आतंकवादियों द्वारा रूबिया सईद के अपहरण के 35 साल बाद सीबीआई ने इस मामले में वांछित एक “फरार” अपराधी को गिरफ्तार किया है.
सीबीआई ने कहा कि उसने श्रीनगर निवासी शफात अहमद शांगलू को घाटी से गिरफ्तार किया है, जिस पर तत्कालीन जेकेएलएफ प्रमुख यासीन मलिक के साथ मिलकर तत्कालीन केंद्रीय गृह मंत्री मुफ्ती मोहम्मद सईद की बेटी रूबिया सईद के अपहरण की साजिश रचने का आरोप है. सीबीआई अब उसे निर्धारित समय के भीतर टाडा कोर्ट, जम्मू में पेश करेगी.
केंद्रीय जांच एजेंसी ने कहा कि शांगलू ने वर्ष 1989 के दौरान आरपीसी और टाडा अधिनियम की विभिन्न धाराओं के तहत एक अपराध करने में यासीन मलिक और अन्य के साथ साजिश रची थी. उस पर 10 लाख रुपये का इनाम रखा गया था. सीबीआई ने सईद के अपहरण से संबंधित मामले में दो दर्जन लोगों के खिलाफ आरोपपत्र दायर किया था. 2021 में जम्मू की अदालत ने मलिक सहित 10 लोगों के खिलाफ आरोप तय किए. दो पहले ही मर चुके थे और शांगलू सहित 12 फरार थे.
“द इंडियन एक्सप्रेस” के अनुसार, 8 दिसंबर 1989 को – वी.पी. सिंह सरकार में मुफ्ती मोहम्मद सईद के केंद्रीय गृह मंत्री के रूप में शपथ लेने के ठीक छह दिन बाद– रूबिया सईद एक यात्री मिनीबस में घर जा रही थीं. 23 वर्षीया सईद तब श्रीनगर में लाल डेड मैटरनिटी अस्पताल में इंटर्नशिप कर रही थीं और श्रीनगर शहर के बाहरी इलाके में नौगाम स्थित अपने घर लौट रही थीं. जैसे ही मिनीबस मुफ्ती के आवास से कुछ सौ मीटर दूर पहुंची, चार बंदूकधारी अंदर घुस गए और बंदूक की नोक पर सईद का अपहरण कर लिया. उन्हें एक मारुति कार से अज्ञात स्थान पर ले जाया गया. सरकार द्वारा जेल में बंद पांच आतंकवादियों को रिहा करने के बाद उन्हें 13 दिसंबर को मुक्त कर दिया गया था.
सोनम वांगचुक की मौत की घोषणा वाले डीपफेक वायरल, जबकि वह सही सलामत
सोनम वांगचुक की जोधपुर सेंट्रल जेल में मौत की कथित खबरें देते हुए न्यूज़ बुलेटिनों की क्लिपिंग सोशल मीडिया पर सामने आई हैं और विभिन्न सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर व्यापक रूप से साझा की जा रही हैं.
इन कथित बुलेटिनों में से कुछ प्रमुख समाचार एंकरों द्वारा प्रस्तुत किए गए हैं, जबकि एक में भारतीय सेना प्रमुख जनरल उपेंद्र द्विवेदी एक प्रेस कॉन्फ्रेंस में खबर को संबोधित करते हुए दिखाई दे रहे हैं.
“ऑल्ट न्यूज़” की अंकिता महालनोबिश के अनुसार, पाकिस्तानी प्रचार अकाउंट एम. (@Mushk_0) ने ऐसे चार वीडियो प्रसारित किए, जिसमें आरोप लगाया गया कि जलवायु एवं पर्यावरण कार्यकर्ता सोनम वांगचुक की जोधपुर सेंट्रल जेल में हिरासत के दौरान मौत की “खबरों” के बाद भारत “प्रमुख और संवेदनशील घटनाक्रम” का सामना कर रहा है. यह वीडियो भारतीय सेना प्रमुख जनरल उपेंद्र द्विवेदी द्वारा एक प्रेस कॉन्फ्रेंस को दर्शाता है. उन्हें वांगचुक के परिवार के प्रति संवेदना व्यक्त करते हुए सुना जा सकता है. क्लिप में, वह एक “गहन और पारदर्शी जांच” की भी मांग करते हैं. इस पोस्ट को लगभग 201,500 बार देखा गया. जबकि फैक्ट चैक में पाया गया कि “एक्स’ उपयोगकर्ता द्वारा जनरल द्विवेदी की साझा की गई क्लिप को डिजिटल रूप से हेरफेर कर तैयार किया गया था. तथ्य यह है कि जनरल द्विवेदी 27 नवंबर 2025 को, चाणक्य डिफेंस डायलॉग 2025 के तीसरे संस्करण के उद्घाटन सत्र में बोल रहे थे. उन्होंने वांगचुक के बारे में कोई टिप्पणी नहीं की थी.
अपनी जांच में “ऑल्ट न्यूज़” ने पाया कि प्रेस सूचना ब्यूरो (पीआईबी) ने आधिकारिक तौर पर इस क्लिप को जनरल द्विवेदी के एक बदले हुए वीडियो के रूप में चिह्नित किया था, और स्पष्ट किया था कि उन्होंने ऐसा कोई बयान नहीं दिया था. सोनम वांगचुक की पत्नी, गीतांजलि जे आंगमो ने भी की थी कि वह 28 नवंबर 2025 को अपने पति से मिली थीं. उन्होंने कहा, “वह सुरक्षित और सही सलामत हैं.” इसी तरह के तीन वीडियो और हैं, जिनमें वांगचुक की मौत की खबर को दिखाया गया. इनमें फर्स्टपोस्ट यूट्यूब चैनल पर एंकर पलकी शर्मा, एनडीटीवी बुलेटिन में एंकर शिव आरूर और चौथा इंडिया टुडे न्यूज़ चैनल का है.
भोपाल गैस त्रासदी की 41वीं बरसी: भाजपा पर पीड़ितों को धोखा देने का आरोप, ‘आरोप पत्र’ में 13 बिंदु
द वायर की रिपोर्ट के अनुसार, 1984 की भोपाल गैस त्रासदी के 41 साल बाद पीड़ित संगठनों ने भाजपा पर गंभीर आरोप लगाए हैं. चार प्रमुख सर्वाइवर समूहों ने 1 दिसंबर को प्रेस कॉन्फ्रेंस कर “भोपाल सर्वाइवर्स का आरोप-पत्र” जारी किया, जिसमें 1982 से 2024 के बीच 13 घटनाओं का ज़िक्र है. उनका कहना है कि इन वर्षों में भाजपा सरकारों ने कई बार ऐसे फैसले लिए, जिनसे यूनियन कार्बाइड और डाउ के ख़िलाफ़ कार्रवाई कमज़ोर हुई, मुआवज़े और पुनर्वास से जुड़े प्रयास धीमे पड़े और कंपनियों के भारत में विस्तार को बढ़ावा मिला.
रिपोर्ट बताती है कि दिसंबर 1984 की रात 40 टन मिथाइल आइसोसाइनेट गैस लीक होने से कम से कम 5,000 लोगों की तत्काल मौत हुई थी और 5 लाख से ज़्यादा लोग इसके असर से प्रभावित हुए थे. आज भी लोग सांस की बीमारियों, कैंसर, प्रजनन संबंधी समस्याओं और पीढ़ीगत विकलांगता से जूझ रहे हैं. फैक्ट्री परिसर की मिट्टी और भूजल में मौजूद ज़हरीले कचरे का असर अब भी जारी है. यूनियन कार्बाइड और उसके CEO वॉरेन एंडरसन को कभी अदालत में पेश नहीं किया जा सका, जबकि डाउ केमिकल, जिसने 2001 में यूनियन कार्बाइड खरीदी, भारतीय अदालतों के समन स्वीकार करने से लगातार इनकार करता रहा है.
सर्वाइवर समूहों का कहना है कि वर्षों से न्याय को व्यवस्थित तरीके से टाला गया है. प्रेस कॉन्फ्रेंस में रशीदा बी ने कहा कि “बीजेपी सरकारों ने पीड़ितों के साथ सबसे बड़ा धोखा किया है. उन्होंने कंपनियों का साथ दिया, न कि ज़हरीली गैस झेल चुके नागरिकों का. आरोप-पत्र में कई उदाहरण दिए गए हैं,जैसे 2002 में केंद्र सरकार द्वारा वॉरेन एंडरसन पर लगी गंभीर धाराएँ कमज़ोर करना, 2006 में डाउ को ज़िम्मेदार न ठहराने की सलाह देना, 2008 में पुनर्वास की निगरानी करने वाली एम्पावर्ड कमीशन को रोक देना, 2015 में प्रदूषण की जाँच के लिए UNEP का प्रस्ताव ठुकराना और प्रधानमंत्री द्वारा डाउ के सीईओ को विशेष रूप से डिनर के लिए आमंत्रित करना, जबकि उन्हें यह मालूम है कि यह वही कंपनी है जो वर्षो से अदालत के समन को लगातार टालते आ रही है.
रिपोर्ट के अनुसार, पुनर्वास प्रणाली भी गंभीर रूप से कमज़ोर हुई है. अस्पतालों में स्टाफ और संसाधनों की भारी कमी है, रिसर्च बंद हो गई है, आजीविका कार्यक्रम प्रभावहीन हैं और कई महिलाओं को अब भी विधवा पेंशन नहीं मिल रही है. सर्वाइवर समूहों का कहना है कि डाउ केमिकल को भारत में तेज़ी से विस्तार की अनुमति मिली, जबकि उसे अदालत का सामना करने के लिए मजबूर किया जाना चाहिए था.
संगठनों ने अपनी पुरानी मांगों को दोहराया, यूनियन कार्बाइड और डाउ पर आपराधिक कार्रवाई, मौत और बीमारी के आंकड़ों का पुनर्मूल्यांकन, सभी पीड़ितों को उपयुक्त मुआवज़ा और पेंशन, ज़हरीली मिट्टी और पानी की वैज्ञानिक जाँच व सफाई, और एम्पावर्ड कमीशन की बहाली. द वायर की रिपोर्ट के अनुसार, भाजपा से इस आरोप-पत्र पर प्रतिक्रिया मांगी गई है, लेकिन अभी तक कोई आधिकारिक जवाब नहीं मिला है.
पीड़ित समूहों का कहना है कि यह आरोप-पत्र सिर्फ शिकायत दर्ज करने के लिए नहीं, बल्कि राजनीतिक और संस्थागत जवाबदेही तय करने और वर्षों से रुकी न्याय प्रक्रिया को आगे बढ़ाने के लिए जारी किया गया है.
ओडिशा में बंगाल के मुस्लिम कामगारों को 72 घंटे में घर छोड़ने का आदेश
द टेलीग्राफ की एक रिपोर्ट के अनुसार, ओडिशा के नयागढ़ ज़िले में रह रहे चार मुस्लिम कामगारों सहित सैकड़ों लोगों को अचानक अपने घर छोड़कर पश्चिम बंगाल लौटने के लिए मजबूर किया जा रहा है. ये सभी कई वर्षों से ओडिशा के अलग-अलग इलाक़ों में मच्छरदानी, रज़ाई और गर्म कपड़े बेचकर अपनी ज़िन्दगी गुज़र बसर करते हैं. लेकिन स्थानीय ओडागांव थाने की ओर से मिले कथित 72 घंटे के अल्टीमेटम ने उनकी ज़िंदगी उथल-पुथल कर दी है, उन्हें ओडिशा छोड़ने के लिए सोमवार तक का वक़्त दिया गया है.
इन सभी का संबंध पश्चिम बंगाल के मुर्शिदाबाद ज़िले के जलंगी ब्लॉक के सागरपाड़ा ग्राम पंचायत से है. आरोप है कि बीते गुरुवार को पुलिस ने इन्हें थाने में बुलाकर कहा कि वे “रोहिंग्या” और “बांग्लादेशी” हैं , इसीलिए इन्हीं फौरी तौर पर शहर छोड़ देना चाहिए, जबकि उन्होंने पुलिस को अपने आधार कार्ड और वोटर कार्ड दिखाए थे. पुलिस पर आरोप है कि बंगाली भाषा बोलने के कारण उन्हें “घुसपैठिया” कहा गया है.
सोमवार शाम तक ये लोग बस से भुवनेश्वर और फिर ट्रेन से हावड़ा लौटने की तैयारी कर रहे थे, लेकिन इतने कम वक़्त में उन्हें अपना घर छोड़ने पर मजबूर किया गया कि उन्हें यह समझ ही नहीं आ रहा है कि वह अपने घरेलु सामान और लगभग दो लाख रुपए के माल के साथ क्या करें.
“हमारे पास पक्का टिकट भी नहीं है। सबसे बड़ी समस्या यह स्टॉक है,” 32 वर्षीय साहेब शेख़ ने कहा. उन्होंने बताया कि डर के माहौल में मकान मालिक को भी पुलिस ने नोटिस देने पर मजबूर कर दिया.
साहेब का कहना है कि वह और उनका परिवार 15 साल से भी अधिक समय से ओडिशा आते जाते रहे हैं. “हमारे लिए नयागढ़ और कोरापुट वैसा ही है जैसा है हमारा गाँव. फिर भी हमें घुसपैठिया कहा गया,
अपनी भारतीयता क्यों साबित करें?”
समूह के एक अन्य सदस्य, अब्दुस सलाम, कहते हैं कि उनके पास 120 साल पुराने ज़मीनी कागज़ हैं। “मैं क्यों बार-बार अपनी भारतीयता साबित करूं?”
इसी साल ओडिशा में बंगाल के मुस्लिम कामगारों के ख़िलाफ़ कई घटनाएँ सामने आई हैं. 24 नवंबर को गंजाम ज़िले में मुर्शिदाबाद के ही रहने वाले 24 वर्षीय राहुल इस्लाम को भीड़ ने “बांग्लादेशी” कहकर पीटा था क्योंकि उसने “जय श्री राम” बोलने से मना कर दिया था.
अल्टीमेटम और पुलिस की भूमिका पर सवाल
साहेब बताते हैं कि गुरुवार दोपहर दो पुलिस गाड़ियाँ उनके किराए के घर पहुंचीं. अधिकारी ने उन्हें “रोहिंग्या” कहा और कागज़ मांगे. कागज़ दिखाने पर भी वह संतुष्ट नहीं हुआ और मकान मालिक को डराकर सभी को थाने में हाज़िर होने को कहा.
समूह का कहना है कि वे उन लोगों को पहचानते हैं जो उन्हें परेशान कर रहे थे, वे एक हिंदुत्ववादी संगठन से जुड़े हैं. “हमने उन्हें बाज़ारों में देखा है. वे थाने में भी मौजूद थे,” अब्दुस ने बताया.
इन चारों की कुल बचत मिलाकर लगभग ₹1,200 प्रतिदिन होती है, जो वे घर भेजते हैं. यह कमाई अचानक रुक गई है।
माइग्रेंट लेबर यूनिटी फोरम ने ओडिशा पुलिस को पत्र लिखकर कार्रवाई की मांग की है. नयागढ़ के पुलिस अधीक्षक को किए गए कॉल का कोई जवाब नहीं मिला. उधर, गंजाम में पिटे गए राहुल इस्लाम अब अपने गांव लौट चुके हैं और मानसिक आघात से जूझ रहे हैं.
नेली नरसंहार पर जापानी विद्वान मकिको किमुरा: 40 साल बाद भी सच और न्याय अधूरा
पिछले महीने असम विधानसभा में 1983 के नेली नरसंहार पर दो महत्वपूर्ण रिपोर्टें पेश की गईं. आज़ादी के बाद हुए सबसे बड़े नरसंहारों में शामिल इस घटना में लगभग 1,800–3,000 बंगाली मुस्लिम किसान मारे गए थे, लेकिन चार दशकों बाद भी किसी को सज़ा नहीं मिली है. स्क्रॉल से बात करते हुए जापानी शोधकर्ता मकिको किमुरा, जिन्होंने इस विषय पर पुस्तक लिखी है, ने कहा कि AASU और केंद्र सरकार दोनों ने हिंसा रोकने की पर्याप्त कोशिश नहीं की.
दोनों रिपोर्टें एक-दूसरे से पूरी तरह अलग निष्कर्ष पर पहुँचीं. कांग्रेस सरकार द्वारा गठित ‘तेवारी आयोग’ ने कहा कि उस समय केंद्र में इंदिरा गांधी सरकार द्वारा असम आंदोलन के बीच विधानसभा चुनाव कराने का निर्णय हिंसा का कारण नहीं था. दूसरी ओर, असम आंदोलन से जुड़े संगठनों द्वारा बनाए गए ‘टी.यू. मेहता आयोग’ ने साफ कहा कि जनता की इच्छा के विरुद्ध चुनाव थोपना ही हिंसा की सबसे बड़ी वजह बना.
मुख्यमंत्री हिमंत बिस्वा सरमा की सरकार द्वारा मेहता आयोग की रिपोर्ट को सार्वजनिक करने से फिर से “ग़ैर-क़ानूनी प्रवासियों के डर” वाला राजनीतिक नैरेटिव तेज़ हो गया है, खासकर अगले विधानसभा चुनाव से ठीक पहले, जो हैरान करने वाली बात नहीं है.
किमुरा ने स्क्रॉल से कहा कि दोनों रिपोर्टें शुरुआत से ही पक्षपात से भरी थीं, क्योंकि इन्हें जिन संगठनों ने तैयार करवाया, उनकी ही राजनीतिक सोच को मज़बूत करती हैं. न ही किसी रिपोर्ट ने हमलावरों की स्पष्ट पहचान बताई, और न ही AASU या असम गण संग्राम परिषद के शीर्ष नेताओं की भूमिका की निष्पक्ष जाँच हुई। तिवारी आयोग ने हिंसा के कारणों पर बहुत टालमटोल भरा रुख़ अपनाया और सिर्फ निचले स्तर के पुलिसकर्मियों की लापरवाही को ज़िम्मेदार ठहराया. वहीं, मेहता रिपोर्ट भी आंदोलन के नेताओं की ज़िम्मेदारी पर चुप रही, जबकि यह साफ था कि चुनाव बहिष्कार जारी रहने पर हिंसा की आशंका बहुत अधिक थी और स्थानीय पुलिस आंदोलन से प्रभावित थी.
किमुरा ने बताया कि नेली के ज़्यादातर पीड़ित आज भी उसी जगह रहते हैं, जहाँ उनके परिवार के कई सदस्य मारे गए थे. कई परिवारों ने दस–बीस लोगों तक को खोया. वह कहती हैं कि हर साल छोटी-सी स्मृति सभा होती है, पर लोग डर के कारण बहुत खुलकर नहीं जुड़ते. किमुरा का मानना है कि यह दावा कि हिंसा “साम्प्रदायिक नहीं थी”, वास्तविकता को ढकने जैसा है, क्योंकि सबसे ज़्यादा और सबसे बड़े पैमाने पर हमले मुस्लिम किसानों पर हुए.
हिंसा रोकने में राज्य मशीनरी पूरी तरह विफल रही. पुलिस चुनाव ड्यूटी में व्यस्त थी, स्थानीय पुलिसकर्मियों और केंद्रीय बलों में टकराव था, और नगोाँव पुलिस स्टेशन को पहले से मिले हिंसा के चेतावनी संदेशों को भी नज़रअंदाज़ कर दिया गया. किमुरा कहती हैं कि सरकार चुनाव कराने में ज़्यादा दिलचस्पी रखती थी, हिंसा रोकने में नहीं.
किमुरा के अनुसार, ऐसी हिंसा पर जब दशकों तक न्याय नहीं मिलता, तो उससे समुदायों का लोकतंत्र पर से भरोसा टूटता है, खासकर मुसलमानों का. जब अल्पसंख्यकों को लगातार अलग-थलग किया जाता है, तो यह भविष्य के लिए ख़तरनाक संकेत है और देश को अस्थिर करता है.
धीमी होती इंसाफ़ की रफ़्तार: लंबे इंतज़ार में बदलता न्याय, अंडरट्रायल क़ैदियों की बढ़ती चिंता
स्क्रॉल में लिखे अपने लेख में संवैधानिक कानून शोधकर्ता और वकील सहिल हुसैन चौधरी बताते हैं कि भारत की जेलों में न्याय का इंतज़ार ही एक सज़ा बन चुका है. वे प्रोफेसर आनंद तेलतुम्बड़े की जेल डायरी The Cell and the Soul का ज़िक्र करते हैं, जिसमें वे समझाते हैं कि क़ैद सिर्फ़ शरीर को नहीं, बल्कि दिमाग़ और आत्मा को भी क़ैद करती है. तेलतुम्बड़े ने 31 महीने जेल में बिताए, जबकि उन पर लगे आरोप अब भी अदालत में साबित नहीं हुए हैं.
नेशनल क्राइम रिकॉर्ड्स ब्यूरो के अनुसार, देश की 73.5% जेल आबादी अंडरट्रायल है, यानी वे लोग जिन्हें किसी अपराध में दोषी नहीं ठहराया गया है. यह आंकड़ा बताता है कि न्याय पाने से पहले ही क़ैदी सालों इंतज़ार में गुज़र जाते हैं. चौधरी लिखते हैं कि भारत में अदालतों ने कई फैसलों में कहा है कि “तेज़ सुनवाई” और “ज़मानत” नागरिक का संवैधानिक अधिकार है, लेकिन व्यवहार में अदालतें इसे भूलती जा रही हैं.
हाल के हफ्तों में सुप्रीम कोर्ट उमर ख़ालिद, शरजील इमाम, मीरान हैदर, गुलफ़िशा फ़ातिमा और शिफा-उर-रहमान की यूएपीए मामलों में ज़मानत अर्ज़ी सुन रहा है। तारीखें बढ़ती जा रही हैं, पर फैसला आगे नहीं बढ़ रहा. चौधरी कहते हैं,“राज्य आरोपियों पर ‘विक्टिम कार्ड’ खेलने का आरोप लगाता है, जबकि वास्तव में राज्य ही कैलेंडर का खेल खेलता है.
वे यह भी बताते हैं कि बड़े नेताओं, टीवी एंकर्स या मशहूर व्यक्तियों के मामलों में अदालतें अक्सर एक-दो दिनों में राहत दे देती हैं, जैसे अर्नब गोस्वामी या अरविंद केजरीवाल के मामले. लेकिन यूएपीए जैसे सख्त मामलों में सुनवाई सालों खिंचती रहती है. यह फर्क कानून का नहीं, न्याय की प्राथमिकताओं का है. लेख में भीमा कोरेगांव मामले का भी ज़िक्र है, जिसमें विशेषज्ञों ने पाया कि आरोपियों के कंप्यूटर में सबूत मैलवेयर के जरिए डाले गए थे. फिर भी कई लोग सालों जेल में रहे.
वे चेतावनी देते हैं कि लगातार होती देरी संविधान की आत्मा को खोखला कर देती है. बाबा साहेब अंबेडकर के शब्दों को याद करते हुए वे लिखते हैं कि “राजनीतिक लोकतंत्र, सामाजिक नैतिकता के बिना, क़ानून के नाम पर अत्याचार बन सकता है।”
हिमयुग में भी एशिया में मौजूद थे कांटेदार बांस: मणिपुर में मिला दुर्लभ जीवाश्म
मणिपुर के इंफाल पश्चिम जिले में वैज्ञानिकों ने एक बेहद अहम खोज की है. बीरबल साहनी पुरावनस्पति विज्ञान संस्थान, लखनऊ (बीएसआईपी) के शोधकर्ताओं ने चिरांग नदी के पास मिट्टी की परतों में बांस का एक जीवाश्म टुकड़ा पाया, जिस पर मौजूद निशानों की जांच से पता चला कि ये कांटों के निशान हैं.
द हिन्दू के मुताबिक़ यह खोज इसलिए खास है क्योंकि ऐसे नाज़ुक निशान आमतौर पर जीवाश्म में सुरक्षित नहीं रहते. अध्ययन के बाद वैज्ञानिकों ने इस जीवाश्म को चिमोनोबंबूसा नामक बांस की प्रजाति से जोड़ा और बताया कि यह कांटेदार बांस हिमयुग के दौरान भी एशिया में मौजूद था.
शोध में पाया गया कि हिमयुग के ठंडे और सूखे मौसम में जब यूरोप जैसे कई इलाकों से बांस खत्म हो गया था, तब भी पूर्वोत्तर भारत एक ऐसा सुरक्षित ठिकाना साबित हुआ जहाँ बांस पनपता रहा. इस खोज से पता चलता है कि यह इलाक़ा वैश्विक जलवायु संकट के समय भी जैव विविधता को बचाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता रहा है. यह अध्ययन “रिव्यू ऑफ पैलियोबॉटनी एंड पैलिनोलॉजी” जर्नल में प्रकाशित हुआ है.
टीम के सदस्य और भूवैज्ञानिक एन. हेरोजीत सिंह ने बताया कि यह जीवाश्म 2021-22 में मिला था और इसकी लंबाई करीब एक फुट तक है. वैज्ञानिक विश्लेषण के अनुसार यह जीवाश्म लेट प्लाइस्टोसीन काल का है. शोधकर्ताओं का कहना है कि यह खोज बांस के विकास, उस दौर की जलवायु और एशिया की जैव विविधता को समझने में एक महत्वपूर्ण योगदान देती है.
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