04/07/2025 : नड्डा की जगह कौन? | बिहार तक ही नहीं रहने वाला मतदाता सूची का मामला | रामदेव को कोर्ट का फिर फटका | कामठी का मतदान गणित | भारत वेजीटेरियन देश नहीं | गायब होते परिंदों की कैद होती आवाजें
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निधीश त्यागी, साथ में राजेश चतुर्वेदी, गौरव नौड़ियाल
आज की सुर्खियां :
नड्डा की जगह कौन? नये भाजपा अध्यक्ष के लिए तीन नाम आगे, आरएसएस का हस्तक्षेप बढ़ा
बिहार : काम के लिए पलायन करने वाली 20% आबादी को बाहर कर देगा पुनरीक्षण
सिर्फ बिहार तक सीमित नहीं रहेगा यह मामला और न सिर्फ मतदान तक.
कामठी : जिन 96 बूथों पर 10% से अधिक वोटर बढ़े, उनमें से 94 बीजेपी प्रमुख ने जीते
कोर्ट ने रामदेव की कंपनी को अब हमदर्द के बाद डाबर के खिलाफ विज्ञापन प्रसारित करने से रोका
बलात्कारी आसाराम की जमानत एक माह और बढ़ी, कोर्ट ने कहा- यह अंतिम
अमेरिका का स्टूडेंट वीज़ा लेने वालों को सोशल मीडिया प्रोफाइल्स सार्वजनिक करने होंगे
आरोप खारिज, लेकिन दाग़ बाकी: अकेले मौलाना कलीमुद्दीन की कहानी नहीं
यूनियन कार्बाइड : जहरीला कचरा नष्ट करने पर 126 करोड़ खर्च, 800 टन राख नई चुनौती
मानसून सत्र में जस्टिस वर्मा के खिलाफ महाभियोग प्रस्ताव, सरकार इकट्ठा करेगी हस्ताक्षर
दबाकर मुर्गा, मीट, मछली खा रहे हैं भारतीय
चंद्रशेखर रावण पर यौन शोषण के आरोप लगाने वाली लड़की ने एफआईआर दर्ज न होने पर भूख हड़ताल की चेतावनी दी
दिल्ली में प्रदूषण से निपटने के लिए पुराने वाहनों को ईंधन बेचना बंद
आदिवासी पहचान वही है जो मुख्यधारा चाहती है
ट्रम्प-पुतिन के बीच 'करीब एक घंटे' बात, यूक्रेन पर रूस अपने लक्ष्यों से पीछे नहीं हटेगा
48 घंटे में ग़ाज़ा में इज़रायली हमलों में 300 से अधिक लोगों की मौत
गिल ने डबल सेंचुरी लगा तेंडुलकर-कोहली को पीछे छोड़ा
एवरेस्ट का नया रास्ता: जब पहाड़ ने खुद बदली अपनी राह
गायब होने से पहले परिंदों की आवाज़ें इकट्ठे करने का फितूर और उससे बनी प्ले लिस्ट
नड्डा की जगह कौन? नये भाजपा अध्यक्ष के लिए तीन नाम आगे, आरएसएस का हस्तक्षेप बढ़ा
भाजपा में अध्यक्ष पद को लेकर चल रही अनिश्चितता को दूर करने के लिए राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) ने हस्तक्षेप किया है. पिछले दो हफ्तों में भाजपा ने जिस तेजी से विभिन्न राज्यों में अपने प्रदेश अध्यक्षों का चुनाव किया है, उससे यह स्पष्ट हो गया है कि पार्टी अब नए अध्यक्ष के चुनाव को और टाल नहीं सकती और उसे तत्काल निवर्तमान अध्यक्ष जे.पी. नड्डा की जगह किसी को नियुक्त करना जरूरी हो गया है. नड्डा का कार्यकाल पिछले साल जनवरी में ही समाप्त हो गया था, लेकिन पार्टी तब से नए अध्यक्ष का चुनाव नहीं कर पाई है. पार्टी ने नड्डा का कार्यकाल कई बार बढ़ाया, लेकिन बार-बार आश्वासन देने के बावजूद वह अपने संविधान के अनुसार आवश्यक न्यूनतम राज्य इकाइयों में अध्यक्षों का चुनाव नहीं कर सकी, जिससे राष्ट्रीय अध्यक्ष का चुनाव करने के लिए जरूरी निर्वाचक मण्डल का गठन नहीं हो सका.
2024 के लोकसभा चुनावों की राजनीतिक आवश्यकता का हवाला देकर नड्डा का कार्यकाल बढ़ाया गया, लेकिन इसके बाद से पार्टी विभिन्न राज्यों में अंदरूनी कलह से जूझ रही थी, जिससे संगठनात्मक चुनाव पूरे नहीं हो सके. भाजपा के संविधान के अनुसार, नए अध्यक्ष के चुनाव से पहले राज्य स्तर पर मंडल, ब्लॉक और जिला स्तर तक संगठनात्मक चुनाव जरूरी हैं, और कम से कम 36 में से 50% राज्यों में चुनाव पूरे होने चाहिए.
कुछ हफ्ते पहले तक पार्टी नेतृत्व केवल 12 राज्यों में ही संगठनात्मक चुनाव और अध्यक्षों का चुनाव कर पाया था, जिनमें ज्यादातर छोटे राज्य थे. पार्टी के गढ़ जैसे उत्तरप्रदेश, गुजरात और पश्चिम बंगाल में अब तक नए अध्यक्ष नहीं चुने गए थे, जबकि मध्यप्रदेश में 2 जुलाई, 2025 को ही नया अध्यक्ष चुना गया.
पार्टी के लिए ये लगातार देरी शर्मिंदगी का कारण बन गई थी. ऐसे में, शीर्ष नेतृत्व ने जल्द से जल्द निर्वाचक मण्डल बनाने का फैसला किया ताकि नड्डा की जगह नया अध्यक्ष चुना जा सके. पिछले दो हफ्तों में भाजपा ने नौ राज्यों में नए अध्यक्ष चुने और निर्वाचक मण्डल की शर्तें पूरी कीं. इस संकट से उबरने के लिए पार्टी को अंततः अपने वैचारिक स्रोत, आरएसएस पर निर्भर होना पड़ा.
इनमें से अधिकांश नए नियुक्त अध्यक्ष राज्य इकाइयों के प्रमुख नेता नहीं हैं, लेकिन वे आरएसएस से जुड़े हुए हैं और चुपचाप, लगातार काम करने के लिए जाने जाते हैं. इन नियुक्तियों से पार्टी के भीतर चल रही गुटबाजी पर फिलहाल विराम लग गया है, क्योंकि कोई भी आरएसएस से टकराव मोल नहीं लेना चाहता. अधिकांश नए अध्यक्ष निर्विरोध चुने गए, जिससे उनके नामों पर आरएसएस की मुहर स्पष्ट दिखती है. हालांकि, यह कदम केवल सतही इलाज है, जबकि समस्या गहरी है. उत्तरप्रदेश और हरियाणा जैसे बड़े राज्यों में गुटबाजी जारी है. बिहार में भी गुटबाजी बनी हुई है और कर्नाटक में राज्य अध्यक्ष बी.वाई. विजयेंद्र के खिलाफ विरोध बढ़ता जा रहा है. “द वायर” के अनुसार, पिछले कुछ महीनों में आरएसएस की भूमिका फिर से महत्वपूर्ण हो गई है. मोदी-शाह युग में आरएसएस की भूमिका सीमित मानी जा रही थी, लेकिन 2024 लोकसभा चुनावों में भाजपा की सीटें घटने के बाद आरएसएस ने फिर से सक्रिय हस्तक्षेप शुरू किया है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने मार्च 2025 में नागपुर स्थित आरएसएस मुख्यालय का दौरा भी किया था.
फिलहाल, तीन नेता – भूपेंद्र यादव, एम.एल. खट्टर और शिवराज सिंह चौहान – नए भाजपा अध्यक्ष की दौड़ में सबसे आगे हैं. तीनों का आरएसएस से गहरा संबंध है. अंतिम निर्णय आरएसएस के शीर्ष नेतृत्व की मंजूरी पर निर्भर करेगा, जो संभवतः 4 से 6 जुलाई को नई दिल्ली में होने वाली आरएसएस की प्रांत प्रचारक बैठक में लिया जाएगा.
बिहार : काम के लिए पलायन करने वाली 20% आबादी को बाहर कर देगा पुनरीक्षण
इंडिया गठबंधन बिहार में विधानसभा चुनाव से पहले किए जा रहे मतदाता सूची के विशेष गहन पुनरीक्षण (एसआईआर) को चुनौती देने के लिए कानूनी विकल्पों पर विचार कर रहा है. विपक्षी नेताओं ने कहा है कि चुनाव आयोग ने लगभग यह पुष्टि कर दी है कि यह पुनरीक्षण राज्य की 20% आबादी को, जो काम के लिए पलायन करती है, मतदाता सूची से बाहर कर सकता है. पार्टियों ने मुख्य चुनाव आयुक्त ज्ञानेश कुमार की बैठक के दौरान की गई टिप्पणी की भी कड़ी निंदा की, जिसमें उन्होंने कथित तौर पर कहा, "यह एक नया चुनाव आयोग है."
बिहार विधानसभा चुनाव से ठीक पहले मतदाता सूची के विशेष गहन पुनरीक्षण को लेकर विपक्षी इंडिया गठबंधन ने चुनाव आयोग के समक्ष अपनी आपतियां दर्ज कराईं हैं. गठबंधन का कहना है कि यह प्रक्रिया राज्य में दो से तीन करोड़ मतदाताओं को उनके वोटिंग अधिकार से वंचित कर सकती है, खासकर अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति, प्रवासी मजदूरों और गरीब परिवारों के लोग प्रभावित होंगे, क्योंकि उनके पास आवश्यक दस्तावेज़ उपलब्ध नहीं हैं. गठबंधन के नेताओं ने कहा कि उनकी चिंताओं का चुनाव आयोग ने संतोषजनक जवाब नहीं दिया.
सिर्फ बिहार तक सीमित नहीं रहेगा यह मामला, और न सिर्फ मतदान तक..
भारत के चुनाव आयोग ने हाल ही में बिहार में वोटर लिस्ट के एक विशेष संशोधन के दौरान मतदाताओं से नागरिकता का सबूत मांगने का फ़ैसला किया है. इस फ़ैसले ने एक बार फिर इस सच्चाई पर रोशनी डाली है कि भारत में अपनी नागरिकता साबित करना कितना मुश्किल काम है. इस प्रक्रिया के तहत, जिन लोगों का नाम 2003 की मतदाता सूची में नहीं है, उन्हें यह साबित करना होगा कि वे भारतीय नागरिक हैं. भारत के नागरिकता क़ानून के अनुसार, किसी व्यक्ति के जन्म के साल के आधार पर उसे यह साबित करने के लिए दस्तावेज़ देने पड़ सकते हैं कि उसका जन्म भारत में हुआ था और साथ ही उसके माता-पिता में से कोई एक या दोनों भारत में पैदा हुए थे. बिहार और देश के अन्य हिस्सों में विपक्षी दलों ने इस क़दम की आलोचना की है, क्योंकि इससे बड़ी संख्या में मतदाताओं के नाम लिस्ट से बाहर हो सकते हैं. ‘स्क्रोल’ में विनीत भल्ला ने एक लंबे लेख में कई सारे सवाल उठाए हैं.
यह सिर्फ़ बिहार की बात नहीं है. पिछले एक दशक में भारतीय राजनीति में नागरिकता एक बड़ा मुद्दा बनकर उभरी है. 2019 में असम में राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर (NRC) को अपडेट करने के लिए नागरिकों से अपनी नागरिकता साबित करने को कहा गया था. उसी साल, भारतीय जनता पार्टी ने अपने घोषणापत्र में पूरे देश में एनआरसी लाने का वादा किया था. यह स्थिति चिंताजनक है, क्योंकि भारत में नागरिकता साबित करना एक बेहद थकाऊ और जटिल काम है. इसकी एक बड़ी वजह यह है कि भारत में कोई एक ऐसा दस्तावेज़ नहीं है, जो सीधे तौर पर किसी की नागरिकता को प्रमाणित करता हो. क़ानूनी विशेषज्ञों के अनुसार, भारतीय राज्य नागरिकों को बुनियादी दस्तावेज़ आसानी से और सभी तक पहुँचाने में नाकाम रहा है. इसी वजह से एक ऐसी कमज़ोर व्यवस्था बन गई है, जहाँ किसी भी व्यक्ति की नागरिकता पर कभी भी सवाल उठाया जा सकता है. यह एक मौलिक अधिकार को एक बोझ में बदल देता है, ख़ासकर देश के सबसे ग़रीब और वंचित समुदायों के लिए.
क़ानून के मुताबिक़, नागरिकता का प्रमाण पत्र सिर्फ़ उन विदेशी नागरिकों को दिया जाता है जो भारतीय नागरिकता लेते हैं. जो लोग जन्म से भारतीय हैं, उनके पास ऐसा कोई दस्तावेज़ नहीं होता. इसलिए, अगर किसी जन्मजात भारतीय नागरिक को अपनी नागरिकता साबित करने के लिए कहा जाए, तो उसे कई तरह के दस्तावेज़ पेश करने होंगे. जो लोग 1987 से पहले पैदा हुए थे, उन्हें भारत में अपने जन्म का सबूत देना होगा. लेकिन जो लोग 1987 के बाद पैदा हुए हैं, उन्हें तीन तरह के दस्तावेज़ चाहिए: भारत में अपने जन्म का प्रमाण, अपने माता-पिता की नागरिकता का प्रमाण और माता-पिता के साथ अपने रिश्ते का प्रमाण. आम धारणा के विपरीत, आधार कार्ड, वोटर आईडी कार्ड या पैन कार्ड जैसे दस्तावेज़ क़ानूनी तौर पर नागरिकता का सबूत नहीं हैं. सुप्रीम कोर्ट और विभिन्न हाई कोर्ट ने कई बार यह साफ़ किया है.
यह क़ानूनी ढाँचा ज़्यादातर भारतीयों के लिए एक बड़ी चुनौती है, क्योंकि भारत में दस्तावेज़ों की भारी कमी है. ख़ासकर 1987 से पहले, ग्रामीण भारत में जन्म का रिकॉर्ड ठीक से नहीं रखा जाता था. आज भी कई बच्चे घरों में पैदा होते हैं, जिनका कोई सरकारी रिकॉर्ड नहीं होता. दस्तावेज़ों तक पहुँच अक्सर किसी व्यक्ति के वर्ग, शिक्षा और सुविधाओं से जुड़ी होती है. जो लोग स्कूल नहीं गए या कभी औपचारिक नौकरी नहीं की, उनके पास दस्तावेज़ कम होते हैं. जब दस्तावेज़ होते भी हैं, तो उनमें अक्सर गलतियाँ होती हैं. भारत में जन्म के तुरंत बाद बच्चे का नाम रखने की परंपरा नहीं है, जिससे कई जन्म प्रमाण पत्रों में नाम की जगह खाली रह जाती है. अंग्रेज़ी में भारतीय नामों की स्पेलिंग भी अलग-अलग हो सकती है, जिससे दस्तावेज़ों में inconsistency आ जाती है. कई बार अधिकारी अपनी तरफ़ से नामों के आगे कुमार, बेगम या मुहम्मद जैसे सरनेम जोड़ देते हैं, जो बाद में समस्या पैदा करते हैं.
इसका सीधा असर ग़रीब, वंचित, प्रवासी मज़दूर, ट्रांसजेंडर व्यक्ति और ख़ास तौर पर महिलाओं पर पड़ता है. असम में काम करने वाले विशेषज्ञों का कहना है कि वंचित समुदायों की कई महिलाओं का न तो जन्म दर्ज हुआ, न वे स्कूल गईं और न ही उन्हें अपने पिता की संपत्ति में हिस्सा मिला. ऐसे में, उनके पास अपने माता-पिता से संबंध साबित करने वाला कोई दस्तावेज़ नहीं होता. यह व्यवस्था निचले स्तर के अधिकारियों को बहुत ज़्यादा शक्ति देती है, जिससे वे किसी के साथ भी भेदभाव कर सकते हैं. इससे प्रोफ़ाइलिंग का ख़तरा बढ़ता है, जहाँ एक ख़ास समुदाय, जैसे बंगाली मुसलमानों, को शक की निगाह से देखा जा सकता है और उनके दस्तावेज़ों में ज़रा सी भी कमी होने पर उनकी नागरिकता पर सवाल उठाया जा सकता है.
विशेषज्ञों का मानना है कि इस समस्या का समाधान कोई एक नागरिकता दस्तावेज़ बनाना नहीं है, क्योंकि यह समस्या प्रशासनिक नहीं, बल्कि राजनीतिक है. इसका मक़सद लोगों को बाहर करना है. वे कहते हैं कि सरकार को नागरिकता की जाँच करने के बजाय अपने सामाजिक ढाँचे को मज़बूत करने पर ध्यान देना चाहिए. अगर राज्य यह सुनिश्चित करे कि हर बच्चे का जन्म दर्ज हो, हर कोई स्कूल जाए, तो सभी के पास ज़रूरी दस्तावेज़ अपने आप होंगे. जिस राज्य ने अपने नागरिकों को दस्तावेज़ उपलब्ध कराने की ज़िम्मेदारी नहीं निभाई, वह उन्हें दस्तावेज़ न होने के लिए दंडित नहीं कर सकता.
| महाराष्ट्र में मतदाता वृद्धि का खेल
कामठी : जिन 96 बूथों पर 10% से अधिक वोटर बढ़े, उनमें से 94 बीजेपी प्रमुख ने जीते
पिछले चुनाव में महाराष्ट्र के कामठी विधानसभा क्षेत्र के 96 बूथों में नए मतदाताओं की संख्या में 10% से अधिक की वृद्धि देखी गई. इन बूथों में से 94 पर बीजेपी के चंद्रशेखर बावनकुले, जो पार्टी के प्रदेशाध्यक्ष हैं, ने जीत हासिल की. “न्यूज़ लॉन्ड्री” की पड़ताल में लोकसभा में विपक्ष के नेता राहुल गांधी के इस दावे को ध्यान में रखा गया कि कामठी में पांच महीनों में लगभग 35,000 नए मतदाता जोड़े गए और पिछले साल विधानसभा चुनाव में बीजेपी की जीत का अंतर “लगभग नए मतदाताओं की संख्या के बराबर” था. यह ध्यान देने योग्य है कि बावनकुले ने 40,946 वोटों के अंतर से जीत दर्ज की.
सुमेधा मित्तल और विशाल वैभव ने पाया कि लोकसभा और विधानसभा चुनावों के बीच, कामठी में कम से कम 33,295 नए मतदाता जुड़े. यह मतदाता सूची में 7% की बढ़ोतरी थी, जो चुनाव आयोग द्वारा चेतावनी के बतौर निर्धारित 4 प्रतिशत की सीमा से काफी अधिक है.
पिछले 20 वर्षों में दो चुनावों के बीच कामठी में मतदाताओं की यह सबसे तेज़ वृद्धि थी. और भी चौंकाने वाली बात यह है कि 14 बूथों में मतदाताओं की संख्या में 30% से अधिक की वृद्धि हुई. एक बूथ पर तो नए मतदाताओं की संख्या पुराने मतदाताओं से भी अधिक थी—यहां 100% से ज्यादा की वृद्धि दर्ज की गई.
राहुल गांधी ने यह भी कहा था कि कामठी में कांग्रेस के वोट लगभग स्थिर रहे, जबकि बीजेपी गठबंधन के वोट 1.18 लाख से बढ़कर 1.74 लाख हो गए. हालांकि, चुनाव आयोग ने उनके दावे को यह कहकर खारिज कर दिया कि कांग्रेस उम्मीदवार सुरेश भोयर ने नतीजों को हाईकोर्ट में चुनौती नहीं दी, और भोयर के वोट भी 2019 की तुलना में बढ़े हैं. 2024 लोकसभा चुनाव में कांग्रेस ने बीजेपी की सहयोगी शिवसेना (शिंदे) को 17,000 से ज्यादा वोटों से हराया था. लेकिन पांच महीने बाद विधानसभा चुनाव में बीजेपी ने जीत दर्ज की और 2019 के मुकाबले उसे 55,219 वोट ज्यादा मिले. 524 बूथों के वोट शेयर के विश्लेषण में पाया गया कि जहां-जहां नए मतदाताओं की संख्या में बड़ी वृद्धि हुई, वहां-वहां बीजेपी को जीत मिली.
10% से अधिक वृद्धि वाले बूथ : 96 बूथों में नए मतदाताओं की वृद्धि 10% से 108% तक रही. बीजेपी ने इनमें से 94 बूथ जीते, जहां उसे 63% वोट मिले. कांग्रेस सिर्फ दो बूथ जीत सकी और उसे 32% वोट मिले. इन बूथों से बीजेपी को कुल वोटों का 23%—यानी 40,964 वोट—मिले. यहां बीजेपी को औसतन 400 से ज्यादा वोट मिले, जबकि कांग्रेस को लगभग 210 वोट ही मिले.
बूथ संख्या 335 (मारोडी का जिला परिषद प्राथमिक स्कूल) में 108% की वृद्धि के साथ सबसे ज्यादा 526 नाम जुड़े, जिससे कुल मतदाता 1,009 हो गए. यहां 79% मतदान हुआ, जबकि पूरी विधानसभा में औसत 53% था. बीजेपी को यहां 508 वोट और कांग्रेस को 258 वोट मिले. एक दिलचस्प मामला कबीर कॉन्वेंट, बेसा का है, जहां 1,100 से ज्यादा मतदाता थे, लेकिन शून्य मतदान दर्ज हुआ.
अभूतपूर्व वृद्धि पर सवाल : जिन बूथों पर मतदाताओं की संख्या में 20% से ज्यादा की वृद्धि हुई, उनके बीएलओ से बात की. बूथ संख्या 260 (बिडगांव के ज़िला परिषद उच्च प्राथमिक विद्यालय) की बीएलओ प्रीति ने बताया कि उन्होंने इन मतदाताओं को जोड़ने के लिए फॉर्म 6 नहीं भरा. उन्होंने कहा, “2024 विधानसभा चुनाव से पहले एक राजनीतिक पार्टी नए मतदाताओं के पंजीकरण के लिए कैंप लगा रही थी. हमें जब ये फॉर्म सत्यापन के लिए मिले, तो मैं इन मतदाताओं को नहीं ढूंढ पाई. फिर भी ये मतदाता सूची में जुड़ गए. क्यों? इसका जवाब जिला कार्यालय देगा.” पूछने पर कि कौन सी पार्टी कैंप लगा रही थी, उन्होंने कहा कि उन्हें याद नहीं.
बूथ संख्या 376 (गोहिस्म के संजुबा हाई स्कूल) के बीएलओ रविंद्र सहारे ने भी दावा किया कि उन्होंने 200 नए मतदाताओं के फॉर्म नहीं भरे. “एक राजनीतिक पार्टी और उसके कार्यकर्ता फॉर्म 6 भर रहे थे. लेकिन हम इन मतदाताओं को जमीनी सत्यापन में नहीं ढूंढ पाए.” बीजेपी ने इस बूथ पर 170 से ज्यादा वोटों से जीत दर्ज की.
बूथ संख्या 261 (बिडगांव के ज़िला परिषद उच्च प्राथमिक विद्यालय) की बीएलओ छाया चौधरी ने भी कहा कि उन्होंने 241 नए मतदाताओं के फॉर्म नहीं भरे. जब पूछा गया कि क्या वे सत्यापन में इन मतदाताओं को ढूंढ पाईं, तो उन्होंने कहा “मुझे इसके बारे में कोई जानकारी नहीं” और कॉल काट दी.
कोर्ट ने रामदेव की कंपनी को अब हमदर्द के बाद डाबर के खिलाफ विज्ञापन प्रसारित करने से रोका
दिल्ली हाईकोर्ट ने गुरुवार को रामदेव की कंपनी पतंजलि आयुर्वेद को डाबर च्यवनप्राश के खिलाफ अपमानजनक और भ्रामक टीवी विज्ञापन प्रसारित करने से अस्थायी रूप से रोक लगा दी है. यह आदेश डाबर इंडिया की याचिका पर दिया गया, जिसमें पतंजलि के कथित मानहानिकारक विज्ञापन अभियान पर रोक लगाने की मांग की गई थी. जस्टिस मिनी पुष्करणा ने डाबर द्वारा दायर अंतरिम आवेदन को मंजूरी दी. मामले की अगली सुनवाई 14 जुलाई को होगी. याद रहे कि रूह अफजा शरबत के मामले में भी कोर्ट ने पतंजलि के खिलाफ सख्त रुख अपनाया था.
डाबर ने अपनी याचिका में आरोप लगाया कि पतंजलि ने समंस जारी होने के बाद एक सप्ताह में उसके उत्पाद के खिलाफ हजारों विज्ञापन चलाए. पतंजलि ने अपने विज्ञापनों में दावा किया कि उसके च्यवनप्राश में 51 जड़ी-बूटियां हैं, जबकि डाबर के उत्पाद में केवल 40. इसके साथ ही, पतंजलि ने डाबर के च्यवनप्राश को 'साधारण' और अन्य कंपनियों के उत्पादों को 'गुणहीन' बताकर अपने उत्पाद को श्रेष्ठ बताया, जिससे डाबर की प्रतिष्ठा को नुकसान पहुंचा.
डाबर ने यह भी कहा कि पतंजलि के च्यवनप्राश में 'मकरध्वज पाउडर' है, जिसमें पारा और गंधक जैसे तत्व होते हैं. केंद्रीय उपभोक्ता संरक्षण प्राधिकरण की सलाह के अनुसार, ऐसे उत्पादों पर डिस्क्लेमर देना अनिवार्य है, लेकिन पतंजलि ने ऐसा कोई डिस्क्लेमर नहीं दिया. डाबर का कहना है कि पतंजलि के विज्ञापन न सिर्फ भ्रामक हैं, बल्कि जनहित के भी खिलाफ हैं, क्योंकि इनमें बच्चों को भी लक्षित किया गया. कोर्ट ने पाया कि पतंजलि के विज्ञापन न केवल डाबर, बल्कि अन्य सभी च्यवनप्राश उत्पादों को भी साधारण और निम्न स्तर का बताकर उनकी छवि खराब कर रहे हैं.
बलात्कारी आसाराम की जमानत एक माह और बढ़ी, कोर्ट ने कहा- यह अंतिम
गुजरात हाईकोर्ट ने बलात्कारी आसाराम बापू की अस्थायी जमानत एक महीने के लिए और बढ़ा दी है, लेकिन कोर्ट ने साफ किया कि यह 'अंतिम विस्तार' होगा. आसाराम (86) को 2013 में राजस्थान के उनके आश्रम में नाबालिग से दुष्कर्म के मामले में उम्रकैद की सजा सुनाई गई थी. इससे पहले 28 मार्च को मिली जमानत 30 जून को खत्म हो रही थी, जिसे 7 जुलाई तक अंतरिम रूप से बढ़ाया गया था.
सुनवाई के दौरान आसाराम के वकील ने जमानत तीन महीने और बढ़ाने की मांग की, लेकिन हाईकोर्ट ने सिर्फ एक महीने का विस्तार दिया और कहा कि यह आखिरी मौका है. सुप्रीम कोर्ट ने मेडिकल ग्राउंड पर 31 मार्च तक अंतरिम जमानत दी थी, जिसकी मियाद खत्म होने पर आसाराम ने हाईकोर्ट का रुख किया था. इससे पहले हाईकोर्ट की डिवीजन बेंच में मतभेद हो गया था, जिसके बाद तीसरे जज ने तीन महीने की अस्थायी जमानत दी थी.
अमेरिका का स्टूडेंट वीज़ा लेने वालों को सोशल मीडिया प्रोफाइल्स सार्वजनिक करने होंगे
अमेरिका में पढ़ाई के लिए वीज़ा (स्टूडेंट वीज़ा) के आवेदनकर्ताओं को अब अपने सोशल मीडिया प्रोफाइल्स सार्वजनिक करने होंगे. अमेरिकी दूतावास ने यह नया निर्देश जारी किया है कि F, M और J श्रेणी के सभी स्टूडेंट और एक्सचेंज वीज़ा आवेदकों को अपने सोशल मीडिया अकाउंट्स की प्राइवेसी सेटिंग्स 'पब्लिक' करनी होंगी, ताकि वीज़ा प्रक्रिया के दौरान उनकी पहचान और अमेरिका में प्रवेश की पात्रता की जांच की जा सके.
यह नियम तत्काल प्रभाव से लागू हो गया है, और इसमें फेसबुक, लिंक्डइन, एक्स, टिकटॉक आदि सभी प्रमुख सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म शामिल हैं. दूतावास ने कहा है कि वीज़ा अधिकारी अब आवेदकों की ऑनलाइन गतिविधियों, पोस्ट, कमेंट्स और लाइक्स आदि की भी समीक्षा करेंगे, जिससे किसी भी प्रकार की सुरक्षा संबंधी चिंता या अमेरिका के खिलाफ गतिविधि को पहचाना जा सके.
यूएपीए
आरोप खारिज, लेकिन दाग़ बाकी: अकेले मौलाना कलीमुद्दीन की कहानी नहीं
'आर्टीकल 14' के लिए साहेर हिबा ख़ान और अदनान अली ने यूएपीए मामलों के पीड़ितों की जिंदगी के बहाने इस कानून के दुरुपयोग को खंगाला है. झारखंड के एक इस्लामी धर्मगुरु मौलाना कलीमुद्दीन मुजाहिरी को फरवरी 2025 में आतंकवाद के झूठे आरोपों से बरी कर दिया गया. उन पर अल-कायदा से संबंध का आरोप था और यूएपीए जैसी कड़ी धाराएं लगाई गई थीं. हालांकि, अदालत ने कहा कि अभियोजन पक्ष कोई भी ठोस सबूत पेश नहीं कर सका. इस मामले में साल 2019 में उनकी गिरफ्तारी हुई और 2020 में जमानत मिली. अब जाकर साल 2025 में अदालत ने उन्हें पूरी तरह निर्दोष करार दिया. हालांकि, इस पूरी प्रक्रिया ने उन्हें सामाजिक बहिष्कार, आर्थिक नुकसान और पुलिस यातना का जीवन सौंपा. पूरे मामले में 16 गवाहों में कोई भी उन्हें पहचान नहीं सका.
2014 के बाद यूएपीए के मामलों में 160% वृद्धि हुई है, लेकिन सज़ा की दर मात्र 2.55% है. मौलाना का कहना है - "इल्ज़ाम हट गया, लेकिन बदनामी अब भी साथ चल रही है." यह कहानी सिर्फ मौलाना मुजाहिरी की नहीं, बल्कि उन हज़ारों मुस्लिमों, आदिवासियों, दलितों और असहमति जताने वालों की है, जिन पर यूएपीए का हथियार चलाया गया, लेकिन प्रमाण कभी नहीं मिले. वरिष्ठ वकील संजय हेगड़े ने कहा, “इस तरह के मामले आम हो गए हैं. असल मकसद जांच की ईमानदारी नहीं, बल्कि फाइल बंद करना होता है. फिर अदालतों की धीमी प्रक्रिया पर सब कुछ छोड़ दिया जाता है.”
यूएपीए के आंकड़े: केस बढ़ते गए, सज़ा ना के बराबर : भारत सरकार द्वारा 6 अगस्त 2024 को संसद में दिए गए आंकड़ों के मुताबिक, 2014 से 2022 के बीच 8,719 यूएपीए मामले दर्ज किए गए, जिनमें सिर्फ 2.55% मामलों में सज़ा हुई और 6.5% में बरी किया गया. पीयूसीएल (पीपुल्स यूनियन फॉर सिविल लिबर्टीज) की रिपोर्ट कहती है कि 2014 के बाद से यूएपीए के दुरुपयोग में तेज़ बढ़ोतरी हुई है. एनआईए द्वारा दर्ज मामलों में 160% की वृद्धि देखी गई.
कार्टून | मंजुल
यूनियन कार्बाइड : जहरीला कचरा नष्ट करने पर 126 करोड़ खर्च, 800 टन राख नई चुनौती
भोपाल स्थित बंद पड़ी यूनियन कार्बाइड फैक्ट्री से निकले 337 टन जहरीले कचरे को नष्ट करने में सरकार को 126 करोड़ रुपये की राशि खर्च करना पड़ी. कचरे के निस्तारण की प्रक्रिया में मध्यप्रदेश हाईकोर्ट, सुप्रीम कोर्ट और केंद्रीय पर्यावरण मंत्रालय सहित कई हितधारकों के हस्तक्षेप की आवश्यकता पड़ी, जो एक दशक से भी अधिक समय तक चला. स्पष्ट है कि संसाधन हमेशा उपलब्ध थे; बस राजनीतिक इच्छाशक्ति की कमी रही. यह एक महत्वपूर्ण तथ्य है कि अपशिष्ट, एक बार पर्यावरण में प्रवेश कर जाने के बाद, विभिन्न रूपों में परिवर्तित हो जाता है; और यह शायद ही कभी पूरी तरह समाप्त होता है. अब तक नष्ट किए गए विषैले अपशिष्ट से 800 टन से अधिक राख और अवशेष निकले हैं, जिन्हें अधिकारियों को वैज्ञानिक तरीके से लैंडफिल करना होगा. देशभर के अन्य ठोस अपशिष्ट लैंडफिल्स की तरह, इस नई सुविधा की भी नियमित देखरेख, निगरानी और अपने स्वयं के फंड की आवश्यकता होगी. “द हिंदू” के मुताबिक, यूनियन कार्बाइड संयंत्र स्थल पर अभी भी कई टन दूषित मिट्टी और अन्य खतरनाक अवशेष, साथ ही क्षेत्र में दूषित भूमिगत संसाधन मौजूद हैं.
मानसून सत्र में जस्टिस वर्मा के खिलाफ महाभियोग प्रस्ताव, सरकार इकट्ठा करेगी हस्ताक्षर
सरकार जल्द ही इलाहाबाद हाईकोर्ट के न्यायाधीश यशवंत वर्मा को हटाने के लिए प्रस्ताव पर हस्ताक्षर इकट्ठा करने की प्रक्रिया शुरू करेगी, क्योंकि ज्यादातर प्रमुख राजनीतिक दलों ने सैद्धांतिक रूप से इस प्रस्ताव का समर्थन करने पर सहमति जताई है. इसे संसद के आगामी मानसून सत्र में पेश किया जा सकता है. “द हिंदू” के अनुसार मार्च 2025 में दिल्ली स्थित वर्मा के सरकारी आवास में आग लगने के बाद जांच एजेंसियों को भारी मात्रा में नकदी बरामद हुई थी. सुप्रीम कोर्ट द्वारा नियुक्त इन-हाउस जांच समिति ने इस नकदी की पुष्टि की थी और जस्टिस वर्मा से पैसे के स्रोत के बारे में जवाब मांगा था, लेकिन वे संतोषजनक जवाब नहीं दे सके. इसके बाद, तत्कालीन सीजेआई संजीव खन्ना ने केंद्र सरकार को जस्टिस वर्मा के खिलाफ महाभियोग की सिफारिश की थी.
सरकार ने पहले जस्टिस वर्मा को स्वेच्छा से इस्तीफा देने का अवसर दिया, लेकिन उन्होंने इनकार कर दिया. अब सरकार विपक्ष के सहयोग से संसद में महाभियोग प्रस्ताव लाने की कोशिश कर रही है. महाभियोग प्रस्ताव पारित करने के लिए राज्यसभा में 50 और लोकसभा में 100 सांसदों का समर्थन जरूरी है. यदि दोनों सदनों में दो-तिहाई बहुमत से प्रस्ताव पास हो जाता है, तो जस्टिस वर्मा भारत के इतिहास में संवैधानिक अदालत के पहले ऐसे न्यायाधीश बन सकते हैं, जिन्हें महाभियोग के जरिए हटाया जाएगा.
दबाकर मुर्गा, मीट, मछली खा रहे हैं भारतीय
भारत में पिछले एक दशक में प्रोटीन और वसा (फैट) की खपत में उल्लेखनीय बढ़ोतरी दर्ज की गई है. हालांकि, वसा की खपत में यह वृद्धि प्रोटीन की तुलना में कहीं अधिक तेज़ रही है. ‘टाइम्स ऑफ इंडिया’ की एक रिपोर्ट के मुताबिक अंडा, मांस और मछली की खपत में सबसे तीव्र वृद्धि हुई है, जिससे अनाज आधारित प्रोटीन में गिरावट की भरपाई हुई. राष्ट्रीय सांख्यिकी कार्यालय (NSO) द्वारा बुधवार को जारी की गई "पोषण सेवन रिपोर्ट" के अनुसार साल 2009-10 के मुकाबले साल 2023-24 तक शहरी और ग्रामीण दोनों क्षेत्रों में प्रतिदिन प्रति व्यक्ति प्रोटीन सेवन में इजाफा हुआ है. शहरी क्षेत्रों में, प्रतिदिन प्रति व्यक्ति प्रोटीन का सेवन 58.8 ग्राम से बढ़कर 63.4 ग्राम हो गया है – यानी 8% की वृद्धि0 ग्रामीण क्षेत्रों में, यह खपत 59.3 ग्राम से बढ़कर 61.8 ग्राम हुई है – थोड़ी धीमी वृद्धि. राजस्थान, हरियाणा, महाराष्ट्र और उत्तर प्रदेश जैसे कुछ राज्यों में प्रोटीन सेवन में मामूली गिरावट भी देखी गई.
वैकल्पिक मीडिया
चंद्रशेखर रावण पर यौन शोषण के आरोप लगाने वाली लड़की ने एफआईआर दर्ज न होने पर भूख हड़ताल की चेतावनी दी
बीते दिनों इंदौर की पीएचडी स्कॉलर और स्विट्जरलैंड में रहने वाली डॉ. रोहिणी घावरी ने उत्तर प्रदेश के नगीना से सांसद और भीम आर्मी चीफ चंद्रशेखर आजाद पर यौन शोषण और शादी के झूठे वादों के गंभीर आरोप लगाए. 'द मूकनायक' की रिपोर्ट है कि गुरुवार को अपने लेटेस्ट ट्वीट में रोहिणी ने दिल्ली पुलिस और राष्ट्रीय महिला आयोग (एनसीडब्ल्यू) पर अपनी शिकायत पर कार्रवाई न करने का आरोप लगाते हुए कहा कि यदि एक सप्ताह के भीतर इस मामले में कोई सुनवाई नहीं हुई, तो उन्हें मजबूरन यूनाइटेड नेशंस के सामने भूख हड़ताल पर बैठना पड़ेगा. उन्होंने यह भी कहा कि अगर वह भारत में होतीं, तो संसद के बाहर धरना देतीं. रोहिणी ने अपने ट्वीट में गहरी निराशा जताते हुए लिखा कि वह नहीं चाहतीं कि उनके देश की छवि अंतरराष्ट्रीय मीडिया में खराब हो, जहां यह खबर फैले कि भारत अपनी बेटी की आवाज नहीं सुन रहा.
रोहिणी लगातार सोशल मीडिया, खासकर एक्स प्लेटफॉर्म के जरिये अपनी बात दुनिया के सामने रख रही हैं. बीते दिनों उन्होंने दिल्ली पुलिस और राष्ट्रीय महिला आयोग को जरिये ईमेल शिकायत भेजी थी. रोहिणी ने आरोप लगाया है कि जब उन्हें चंद्रशेखर के शादीशुदा होने का पता चला, तो उन्होंने रिश्ता तोड़ने की कोशिश की, लेकिन चंद्रशेखर ने उन्हें यह कहकर मना लिया कि वह उनकी 'सोल मेट' (आत्मीय साथी) हैं और दोनों मिलकर बहुजन समुदाय के लिए वो काम कर सकते हैं, जो कांशीराम या मायावती भी नहीं कर सके. रोहिणी ने यह भी दावा किया कि चंद्रशेखर के खिलाफ अपनी आवाज उठाने के बाद से उन्हें लगातार सोशल मीडिया पर हमलों और बदनाम करने के आरोपों का सामना करना पड़ रहा है.
23 जून 2025 को रोहिणी ने राष्ट्रीय महिला आयोग में चंद्रशेखर आजाद के खिलाफ यौन उत्पीड़न की शिकायत दर्ज की थी. उनकी शिकायत के अनुसार, वह और चंद्रशेखर 2021 से तीन साल तक रिश्ते में थे और इस दौरान चंद्रशेखर ने उन्हें शादी का भरोसा दिलाया था. बता दें कि डॉ. रोहिणी के आरोपों पर सांसद चंद्रशेखर ने पहले चुप्पी साधे रखी, लेकिन 14 जून को झांसी में एक कार्यक्रम के दौरान उन्होंने कहा, "मेरी मां ने मुझे सिखाया है कि किसी भी महिला का अपमान नहीं होना चाहिए. यदि वे कोर्ट जा रही हैं, तो मैं भी कोर्ट में ही अपना पक्ष रखूंगा." हालांकि उन्होंने रोहिणी का नाम नहीं लिया और फिलहाल इस मामले में सार्वजनिक रूप से और कुछ नहीं कहा.
दिल्ली में प्रदूषण से निपटने के लिए पुराने वाहनों को ईंधन बेचना बंद
'द वायर' की रिपोर्ट है कि भारत की राजधानी दिल्ली ने मंगलवार (1 जुलाई) से पुराने वाहनों को ईंधन बेचने पर रोक लगा दी है. यह कदम शहर में खतरनाक वायु प्रदूषण से निपटने की एक कोशिश है. दिल्ली को दुनियाभर में सबसे प्रदूषित राजधानियों में शुमार किया जाता है। हर सर्दी में शहर की हवा जहरीले धुएं से ढक जाती है. इस दौरान पीएम 2.5 (PM2.5) जैसे सूक्ष्म कण—जो फेफड़ों से होते हुए खून में पहुंच सकते हैं और कैंसर का कारण बन सकते हैं. उनका स्तर डब्ल्यूएचओ की सिफारिश की गई दैनिक अधिकतम सीमा से 60 गुना तक बढ़ जाता है. बता दें कि सुप्रीम कोर्ट ने 2018 में ही दिल्ली की सड़कों पर 15 साल से पुराने पेट्रोल वाहनों और 10 साल से पुराने डीज़ल वाहनों के चलने पर रोक लगा दी थी. आधिकारिक आंकड़ों के अनुसार, शहर की सड़कों पर ऐसे 60 लाख से ज़्यादा वाहन अब भी दौड़ रहे हैं. मंगलवार से लागू नए प्रतिबंध के तहत इन वाहनों को ईंधन भरवाने से रोक दिया गया है, ताकि वे सड़कों से हट जाएं. दिल्ली के पेट्रोल पंपों पर पुलिस और नगर निगम के कर्मचारी तैनात किए गए हैं. वहां नंबर प्लेट पहचानने वाले कैमरे और लाउडस्पीकर लगाए गए हैं.
हालांकि, पुराने वाहनों को ईंधन देने पर लगाए गए प्रतिबंध के खिलाफ हो रहे जबरदस्त विरोध के बीच, दिल्ली सरकार ने गुरुवार को साफ कर दिया कि अब 'एंड-ऑफ-लाइफ' वाहनों को जब्त नहीं किया जाएगा. पर्यावरण मंत्री मनजिंदर सिंह सिरसा ने कहा, “हम न तो दिल्ली के पर्यावरण को नुकसान पहुंचने देंगे और न ही दिल्लीवासियों की गाड़ियों को जब्त होने देंगे. पुराने वाहनों को लेकर हम एक नया सिस्टम लाने की योजना बना रहे हैं.”
आदिवासी
आदिवासी पहचान वही है जो मुख्यधारा चाहती है
सुधीर जॉन होरो मुंडा जनजाति के सदस्य हैं और एक प्रतिष्ठित डिजाइनर हैं जिन्होंने राष्ट्रीय ब्रांडिंग और सांस्कृतिक कूटनीति के क्षेत्र में काम किया है. उनका यह लेख ‘द टेलीग्राफ’ में प्रकाशित हुआ है. जिसमें बतौर एक अंदरूनी शख्स वे कह रहे हैं. उसके अंश-
पहली बार पेट में मरोड़ तब उठी जब आदिवासी अकादमी में दोपहर के खाने के दौरान मेरे पुराने कॉलेज के तीन छात्र मिले. वे उन सांस्कृतिक ढांचों की चर्चा कर रहे थे जिन्हें उन्होंने अपनी पढ़ाई में सीखा था और जो कथित तौर पर "भारत की वैश्विक सांस्कृतिक कहानी" को आकार देते हैं.
सांस्कृतिक कूटनीति में एक सांस्कृतिक ढांचा एक सोची-समझी रणनीति होती है - एक देश अपनी पहचान, संस्कृति और रचनाशीलता के जरिए दुनिया को अपनी कहानी सुनाता है. यह बताता है कि हम कौन हैं, क्या मानते हैं और दूसरे हमें कैसे समझें.
मैंने सालों से ऐसे ढांचे बनाए हैं - सिर्फ दिखावे के लिए नहीं, बल्कि केंद्रीय विचारों के रूप में. मैंने इन्हें इसलिए बनाया ताकि आदिवासी चिंतन वैश्विक बातचीत को आकार दे सके - सजावट के रूप में नहीं, बल्कि डिजाइन की मूल भावना के रूप में.
जब मैंने छात्रों से पूछा कि क्या वे जानते हैं इन ढांचों को किसने बनाया है, तो वे चुप रह गए. उनका कोई दोष नहीं था. उनके पास पहुंचने से पहले ही नाम हटा दिया गया था. मेरा नाम.
मैं एक आदिवासी डिजाइनर हूं. दो शब्द जो एक ऐतिहासिक दरार पर सिले गए हैं. आदिवासी होने का मतलब है धरती के करीब लेकिन बुद्धि से दूर माना जाना. डिजाइनर होने का मतलब है शहरी और आधुनिक पहचान. मैं इन दोनों छवियों के बीच जिया हूं और इन्हें मिलाने की कोशिश में मैंने ऐसा काम किया है जो अब देश के नाम से दुनिया भर में जाता है - लेकिन मेरा नाम नहीं. वहां एक खाली जगह है जहां लेखक का नाम होना चाहिए. यह मेरा 20 सालों के डिजाइन, राष्ट्रीय ब्रांडिंग और सांस्कृतिक कूटनीति के काम का प्रत्यक्ष अनुभव है. भारत में आदिवासी होना सिर्फ तब दिखना है जब सुविधाजनक हो. गणतंत्र दिवस की झांकियों में. हस्तशिल्प प्रदर्शनियों में. दीवारों की पेंटिंग में. समावेश के भाषणों में. लेकिन प्रभाव की रोजमर्रा की वास्तुकला में, पाठ्यक्रम में, उद्धरण और श्रेय में, हमें सबसे सुंदर तरीकों से मिटा दिया जाता है.
पीटा नहीं जाता, प्रतिबंधित नहीं किया जाता, बस छोड़ दिया जाता है. कांच पर उंगलियों के निशान की तरह साफ कर दिया जाता है. अपराध अदृश्य है. और यही इसे इतना पूर्ण बनाता है. मुझे समझने में सालों लगे कि यह लापरवाही नहीं है. यह डिजाइन है. यह एक धीमी, निरंतर, संस्थागत रूप से स्वीकृत प्रक्रिया है. भूलने का एक नृत्य, जिसमें गिनती से ज्यादा नर्तक हैं.
लेखकत्व का क्या मतलब है? ज्यादातर लोगों के लिए यह एक बाइलाइन, एक क्रेडिट लाइन, शीर्षक के नीचे साफ-सुथरा लिखा नाम है. मेरे लिए, एक आदिवासी रचनाकार के लिए, लेखकत्व का मतलब है मौजूदगी. मैं जो भी वाक्य, दृश्य या संरचना डिजाइन करता हूं, वह चुप्पी और पहचान के बीच एक बातचीत है. क्योंकि हमारे समुदाय कभी राज्य की व्याकरण, नीति के शब्दकोश या आधुनिकता की शब्दावली का हिस्सा नहीं रहे हैं. हमारा संदर्भ दिया गया है. हम पर अनुसंधान हुआ है. कभी-कभार रोमांटिक बनाया गया है. लेकिन लेखकत्व का श्रेय शायद ही कभी दिया गया है.
मिटाना शायद ही कभी विनाश जैसा दिखता है. यह बूट या डंडे नहीं पहनता. ज्यादातर संस्थानों में, मिटाना लैंयार्ड पहनकर और टेड-स्टाइल भाषण देकर आता है. यह सुंदर फॉन्ट का इस्तेमाल करता है. यह जूम मीटिंग में शामिल होता है. विविधता दिवस पर सही बातें कहता है. मुस्कराता है, सिर हिलाता है और संपादित करता है. मिटाना चुपचाप होता है, और हमेशा यह कहने का रास्ता छोड़ता है कि यह जानबूझकर नहीं हुआ.
यह नाम बदलने से शुरू होता है. एक फाइल को नए शीर्षक के साथ सेव करना, जिसमें से पुराना नाम हटा दिया गया हो. या एक स्लाइड को बदलना. फिर एक पैराग्राफ को तटस्थ लहजे में दोबारा लिखना. "पहले के काम से प्रेरित" कोई अस्पष्ट रूप से नोट करता है, बिना किसी फुटनोट के. और बस इतना ही, रचना विचार से अलग हो जाती है. नाम फ्रेमवर्क से जुदा हो जाता है. लेखकत्व तैरने लगता है - मुक्त, लचीला, हड़पने योग्य.
मिटाना जल्दबाजी नहीं करता. यह अपनी गति रखता है. महीनों तक. सालों तक. यह बैकरूम में होता है - पाठ्यक्रम समिति की बैठकों में, गलियारों की चर्चाओं में, दस्तावेजों के मौन संशोधन में जहां आदिवासी योगदान एक प्लेसहोल्डर बन जाता है - उपयोगी, लेकिन नाम लेने में असहज.
फिर यह संस्थागत हो जाता है. जो फ्रेमवर्क आपने बनाया था, वह छात्रों को बिना संदर्भ के पढ़ाया जाता है. संगोष्ठियों में इसे "भारत की सांस्कृतिक स्थिति" के हिस्से के रूप में संदर्भित किया जाता है. यह रिपोर्टों में दिखता है. एक्सपो में फीचर होता है.
आपको इनमें से किसी में भी नहीं बुलाया जाता. आपको याद भी नहीं किया जाता. यहीं यह खतरनाक हो जाता है, क्योंकि अगर कोई याद नहीं करता, तो कोई सवाल नहीं करता. लेकिन दुनिया अक्सर भूल जाती है कि आदिवासी भी देख, सुन, महसूस, सोच और बोल सकते हैं. और सबसे महत्वपूर्ण बात - याद रख सकते हैं.
और इसलिए मैं याद रखता हूं. गहरी चुप्पी में. जोहार!
ट्रम्प-पुतिन के बीच 'करीब एक घंटे' बात, यूक्रेन पर रूस अपने लक्ष्यों से पीछे नहीं हटेगा
'रॉयटर्स' की रिपोर्ट है कि अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प और रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन के बीच करीब एक घंटे की बातचीत हुई है. वरिष्ठ क्रेमलिन सलाहकार यूरी उशाकोव ने पत्रकारों को बताया - ट्रम्प और पुतिन के बीच करीब एक घंटे तक फोन पर बातचीत हुई. इस दौरान दोनों नेताओं ने यूक्रेन युद्ध पर "समझौते के रास्ते" तलाशने की इच्छा जताई है. ट्रम्प ने यूक्रेन संघर्ष को "जल्द खत्म करने" का मुद्दा उठाया, लेकिन पुतिन ने साफ कहा कि रूस अपने उन मूल लक्ष्यों को जरूर हासिल करेगा, जिनकी वजह से यह युद्ध शुरू हुआ था और वह अपने उद्देश्यों से पीछे नहीं हटेगा. रूस नाटो विस्तार और यूक्रेन को पश्चिमी सैन्य समर्थन का विरोध करता है. खासतौर पर यूक्रेन की नाटो में संभावित सदस्यता. रूस का कहना है कि यूक्रेन में शांति वार्ता सिर्फ मास्को और कीव के बीच होगी, किसी तीसरे पक्ष की भूमिका नहीं होगी. ट्रम्प और पुतिन के बीच अमेरिका द्वारा यूक्रेन को हथियारों की आपूर्ति रोकने के मुद्दे पर बात नहीं हुई है. इस दौरान दोनों नेताओं के बीच ईरान और मध्य पूर्व पर भी "विस्तृत चर्चा" हुई है.
48 घंटे में ग़ाज़ा में इज़रायली हमलों में 300 से अधिक लोगों की मौत

'अल जज़ीरा' की रिपोर्ट है कि ग़ाज़ा में इज़रायली सेना ने बीते 48 घंटों में 300 से अधिक फिलीस्तीनियों की हत्या कर दी है, जिनमें बड़ी संख्या में महिलाएं, बच्चे और राहत सामग्री की तलाश में निकले आम नागरिक शामिल हैं. ग़ाज़ा की गवर्नमेंट मीडिया ऑफिस ने आरोप लगाया कि इज़राइल ने इन दो दिनों में “26 खूनी नरसंहार” किए हैं. ग़ाज़ा के स्वास्थ्य मंत्रालय के अनुसार, पिछले 24 घंटों में 118 लोग मारे गए और 581 घायल हुए. इनमें से 33 लोगों की मौत ग़ाज़ा ह्यूमैनिटेरियन फाउंडेशन (GHF) द्वारा संचालित राहत केंद्रों पर सहायता लेने के प्रयास में हुई है. गुरुवार को ग़ाज़ा सिटी के पश्चिम में विस्थापितों के लिए बने मुस्तफ़ा हाफ़िज़ स्कूल पर हमले में 16 लोगों की मौत हुई, जबकि दक्षिण ग़ाज़ा के अल-मवासी क्षेत्र में एक टेंट पर हमले में 13 लोग मारे गए. GHF राहत केंद्रों पर हुई फायरिंग को लेकर अल जज़ीरा के संवाददाता तारिक अबू अज़्ज़ूम ने दीर अल-बलाह से रिपोर्ट दी कि लोगों को बिना किसी चेतावनी के गोलियों का सामना करना पड़ा है. उन्होंने बताया कि “लोग घंटों लाइन में खड़े रहते हैं ताकि थोड़ी-सी खाद्य सामग्री मिल सके और फिर अचानक गोलियां चलने लगती हैं. आपातकालीन सेवाएं भी उन इलाकों में नहीं पहुंच पातीं.”
इधर 'द गार्डियन' की रिपोर्ट है कि हमले तेज़ हुए हैं, संघर्षविराम की संभावनाएं भी बढ़ी हैं. डोनाल्ड ट्रम्प ने मंगलवार को घोषणा की थी कि इज़रायल ने हमास के साथ संभावित संघर्षविराम के मसौदे को स्वीकार कर लिया है. हालांकि इजरायल और हमास दोनों पक्षों से इस सबंध में कोई बयान नहीं आया है. अल जज़ीरा की एक ताज़ा जांच के अनुसार, इज़रायली सेना द्वारा 18 मार्च से जारी जबरन विस्थापन आदेशों के चलते दक्षिणी ग़ाज़ा के ख़ान यूनुस शहर का 83.5 प्रतिशत हिस्सा फिलीस्तीनियों से खाली करवा लिया गया है.
गिल ने डबल सेंचुरी लगा तेंदुलकर-कोहली को पीछे छोड़ा
भारतीय कप्तान शुभमन गिल ने, ऐसा लगता है, खुद जिम्मेदारी ले ली है कि इस बदलाव के दौर में फैंस बीते युग के लिए तरसें नहीं और देश के पूर्व महान बल्लेबाजों को याद न करें. अपने सिर्फ 34वें टेस्ट में ही गिल ने सचिन तेंदुलकर के सर्वोच्च व्यक्तिगत स्कोर को पीछे छोड़ दिया है. और, कप्तान के रूप में उन्हें महज कुछ टेस्ट ही लगे एक शानदार 269 रनों की पारी खेलने में, जो विराट कोहली के सर्वोच्च स्कोर से 15 रन ज्यादा है, जब वे 'किंग' थे.
गिल ने अकेले दम पर भारत को सीरीज़ में वापस ला दिया. वह टीम, जिसमें बल्लेबाजों की भरमार थी और मुख्य विकेट लेने वाले गेंदबाजों को आराम दिया गया था, उसने 587 रन बना डाले. इंग्लैंड, जो पांच से ज्यादा सेशन तक फील्डिंग करने के बाद थक चुका था, स्टंप्स तक 77/3 पर था. जसप्रीत बुमराह की जगह खेल रहे आकाश दीप ने दो विकेट लिए और मोहम्मद सिराज ने एक विकेट लिया. गेंदबाजों ने इंग्लैंड को पीछे धकेलने में अपना योगदान दिया, लेकिन यह दिन गिल का था. संदीप द्विवेदी ने मैच का हाल विस्तार से लिखा है.
एवरेस्ट का नया रास्ता: जब पहाड़ ने खुद बदली अपनी राह
माउंट एवरेस्ट पर चढ़ाई का रोमांच अब एक जानलेवा सच में तब्दील हो रहा है. जलवायु परिवर्तन की वजह से दुनिया की सबसे ऊंची चोटी का सबसे खतरनाक हिस्सा, कुख्यात खुंबू हिमप्रपात, एक अस्थिर और अप्रत्याशित मौत का जाल बनता जा रहा है. बढ़ते तापमान से ग्लेशियर तेज़ी से पिघल रहे हैं, जिससे पर्वतारोहियों और विशेषकर शेरपाओं की ज़िंदगी हर पल दांव पर लगी रहती है. उन्हें हर सीज़न में अलग-अलग अभियानों के साथ कई बार इस बर्फीले दरिया को पार करना पड़ता है. इसी गंभीर चुनौती के जवाब में, एक नेपाली-फ्रांसीसी टीम ने एक क्रांतिकारी समाधान खोज निकाला है - एक ऐसा नया रास्ता जो खुंबू के कहर से पूरी तरह बचकर निकलता है और पर्वतारोहण के भविष्य को नई दिशा दे सकता है.
यह कोई मामूली बदलाव नहीं है. 1953 में तेनज़िंग नोर्गे और एडमंड हिलेरी द्वारा बनाए गए ऐतिहासिक मार्ग के बाद यह नेपाल की ओर से शिखर तक पहुंचने वाला पहला नया रास्ता होगा. फ्रांसीसी पर्वतारोही मार्क बतार्ड और नेपाली गाइड काजी शेरपा के नेतृत्व में, यह टीम बर्फ के अस्थिर ढलानों के बजाय ठोस चट्टानों पर एक सुरक्षित मार्ग बना रही है. इसमें 'विया फेराटा' तकनीक का इस्तेमाल किया जा रहा है, जिसके तहत चट्टानों में स्टील की सीढ़ियाँ और स्थायी रस्सियाँ लगाई जा रही हैं. यह मार्ग खुंबू हिमप्रपात को दरकिनार कर नुप्त्से चोटी के रिज से होकर गुज़रेगा और फिर कैंप 1 पर मुख्य रास्ते से जुड़ जाएगा. यह पहल न केवल पर्वतारोहण को सुरक्षित बनाएगी, बल्कि यह इस बात का भी प्रतीक है कि कैसे पहाड़ी समुदाय ग्लोबल वार्मिंग के अनुकूल ढलने के लिए मजबूर हो रहे हैं. इस बदलाव की ज़रूरत भयावह आंकड़ों से और भी स्पष्ट हो जाती है. एक हालिया अध्ययन में पाया गया कि पिछले दशक की तुलना में हिंदू कुश हिमालय के ग्लेशियर 65% तेज़ी से पिघले हैं. खुंबू ग्लेशियर पर भी बर्फ की परत पतली हो रही है और सतह पर झीलें (सुप्राग्लेशियल लेक) बन रही हैं, जो गर्मी को सोखकर बर्फ को अंदर से ही खा रही हैं. शेरपा बताते हैं कि पहाड़ अब बर्फ की चादर खोकर 'काले पत्थर' (कालो पत्थर) जैसे दिखने लगे हैं, जिससे चट्टानें गिरने का खतरा बढ़ गया है. कई शेरपाओं के लिए एवरेस्ट पर काम करना अब जीने और मरने के बीच 50-50 का दांव बन चुका है. हालांकि, यह नया रास्ता एक उम्मीद की किरण तो है, लेकिन विशेषज्ञ चेतावनी देते हैं कि यह सिर्फ एक अस्थायी उपाय है. अगर हमने वैश्विक स्तर पर ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन को नियंत्रित नहीं किया, तो कोई भी रास्ता लंबे समय तक सुरक्षित नहीं रहेगा. यह केवल एक पर्वतारोहण मार्ग का सवाल नहीं है, बल्कि यह हिमालय के पूरे पारिस्थितिकी तंत्र, वहां की जल सुरक्षा, अर्थव्यवस्था और लोगों की सदियों पुरानी जीवनशैली को बचाने की लड़ाई है. यह नया रास्ता इंसानी जज़्बे और अनुकूलन क्षमता का प्रमाण तो है, पर साथ ही यह हमारे ग्रह के लिए एक गंभीर चेतावनी भी है. नेपाल के बिराट नगर में रहने वाली फ्रीलांस पत्रकार रिद्धी अग्रवाल ने डायलाग अर्थ के लिए काम करते हुए लम्बी रिपोर्ट लिखी है. स्क्रोल ने छापी है.
चलते-चलते
गायब होने से पहले परिंदों की आवाज़ें इकट्ठे करने का फितूर और उससे बनी प्ले लिस्ट
लुप्तप्राय पक्षियों की पुकार की 9 साल की एक अनूठी संगीत यात्रा
ब्रिटेन के संकटग्रस्त पक्षियों की आवाज़ों को संरक्षित और जीवित रखने की एक अनोखी कोशिश में, ब्रिटिश संगीतकार कोस्मो शेल्ड्रेक ने ‘वेक अप कॉल्स’ नामक एल्बम तैयार किया है और इसे तैयार करने में उन्हें पूरे नौ साल लग गए. इस एल्बम की खास बात यह है कि इसमें ब्रिटेन के रेड और एंबर लिस्ट में दर्ज संकटग्रस्त पक्षियों की रिकॉर्ड की गई चहचहाहट को संगीत में पिरोया गया है. केवल दो पक्षियों रॉबिन और ब्लैकबर्ड ऐसे हैं जो फिलहाल इस सूची में नहीं हैं, लेकिन शेल्ड्रेक की चिंता यह है कि "शायद वो भी जल्द ही सूची में शामिल हो सकते हैं." "यह एल्बम एक संगीत नहीं, एक चेतावनी है" – शेल्ड्रेक ने कहा. शेल्ड्रेक ने उन प्रजातियों को अपने एल्बम में जगह दी है, जो ब्रिटेन की रेड लिस्ट में शामिल हैं. इसमें वे प्रजातियां शामिल होती हैं जो या तो अपने आवास खो चुकी हैं, या फिर जलवायु परिवर्तन, शहरीकरण और मानवीय गतिविधियों की वजह से विलुप्ति के कगार पर हैं.
क्या है ‘वेक अप कॉल्स’? ‘वेक अप कॉल्स’ कोई पारंपरिक संगीत एल्बम नहीं है. इसमें प्राकृतिक ध्वनियों, विशेषकर पक्षियों की आवाज़ों को डिजिटल माध्यम से संजोया गया है. इन ध्वनियों को शेल्ड्रेक ने जंगलों, झीलों, खेतों और बगीचों में वर्षों तक घूम-घूमकर रिकॉर्ड किया और फिर इन्हें आधुनिक संगीत के साथ जोड़ा, ताकि प्रकृति और श्रोता के बीच एक संवाद स्थापित हो सके. शेल्ड्रेक का कहना है, “हमारा संगीत अगर लोगों के दिलों तक पहुंचता है, तो इन पक्षियों की पुकार भी सुनी जानी चाहिए.”
कोस्मो शेल्ड्रेक के इस प्रयोग ने दुनिया भर के पर्यावरण प्रेमियों और संगीतकारों का ध्यान खींचा है. संगीत के ज़रिए जलवायु और पारिस्थितिक संकट पर बात करना अब केवल एक अभियान नहीं, बल्कि एक सांस्कृतिक आंदोलन बनता जा रहा है.
पाठकों से अपील :
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