04/11/2025: ट्रंप की न्यूयॉर्क को धमकी | आरके सिंह का अडानी पर आरोप | घुसपैठिये कितने | आरएसएस टैक्स चोर? | सरकार ने कल्याण के डेढ़ लाख करोड़ डकारे? | टूटी सड़क और नागा शांति वार्ता | ये लड़कियां!
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आज की सुर्खियां
न्यूयॉर्क मेयर चुनाव में ममदानी की बढ़त पर ट्रंप की धमकी
वोटर लिस्ट में बदलाव पर चुनाव आयोग को डीएमके की चुनौती
बिहार में घुसपैठिये कितने, हकीकत कुछ और
पूर्व मंत्री ने खोली पोल, अडानी का 1.4 लाख करोड़ का घपला
वोटिंग से ठीक पहले केंद्रीय मंत्री ललन सिंह पर मुक़दमा
क्या सरकार डकार गई कल्याण के डेढ़ लाख करोड़
सिर्फ 2500 रुपये के लिए दलित मज़दूर की पीट-पीटकर हत्या
पाकिस्तान कर रहा परमाणु परीक्षण, ट्रंप का सनसनीखेज दावा
लड़कियों ने दोहराया 1983 का इतिहास, क्रिकेट में एक नई सुबह
न्यूयार्क मेयर पद के चुनाव पर दुनिया भर की निग़ाह
ममदानी की बढ़त, ट्रंप की धमकी
बीबीसी की रिपोर्ट के अनुसार, अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने इस दौड़ में एंड्रयू कुओमो का समर्थन किया है और मतदाताओं से वामपंथी उम्मीदवार ज़ोहरान ममदानी को न चुनने की अपील की है. ट्रंप ने सोमवार शाम को ट्रुथ सोशल पर पोस्ट किया, “चाहे आप व्यक्तिगत रूप से एंड्रयू कुओमो को पसंद करते हों या नहीं, आपके पास वास्तव में कोई विकल्प नहीं है. आपको उन्हें वोट देना चाहिए.” उन्होंने यह भी धमकी दी कि अगर ममदानी चुने गए तो वह न्यूयॉर्क शहर को मिलने वाली संघीय फंडिंग में कटौती कर सकते हैं. ट्रंप ने कहा, “अगर न्यूयॉर्क में एक कम्युनिस्ट शासन करता है, तो आप वहां भेजे जा रहे पैसे को बर्बाद कर रहे हैं.” इसके जवाब में ममदानी ने कहा कि वह इस धमकी का सामना करेंगे, क्योंकि यह कानून नहीं है.
ममदानी की उम्मीदवारी भारतीय हितों के लिए भी महत्वपूर्ण है, क्योंकि वह दक्षिण एशियाई मूल के पहले मेयर हो सकते हैं, जो अप्रवासन, आर्थिक समानता और ग्लोबल साउथ के प्रति अमेरिकी विदेश नीति जैसे मुद्दों पर प्रवासी आवाज़ों को बढ़ा सकते हैं. उनके पिता महमूद ममदानी एक प्रसिद्ध युगांडा-भारतीय शिक्षाविद हैं. सीएनएन और पोलिटिको जैसी समाचार एजेंसियों ने ट्रंप के हस्तक्षेप को ममदानी के लिए एक दोधारी तलवार बताया है, जिससे कुछ डेमोक्रेटिक मतदाता दूर हो सकते हैं, लेकिन युवाओं और अल्पसंख्यकों के बीच उनकी लोकप्रियता बढ़ सकती है. द न्यूयॉर्क टाइम्स ने इस चुनाव को “समाजवाद की एक बड़ी परीक्षा” बताया है, जबकि द वॉल स्ट्रीट जर्नल ने ममदानी की आर्थिक नीतियों पर चिंता जताई है, जिसका असर भारतीय-स्वामित्व वाले छोटे व्यवसायों पर पड़ सकता है.
हाल के चुनावों के अनुसार, ममदानी अपने प्रतिद्वंद्वियों, निर्दलीय कुओमो और रिपब्लिकन उम्मीदवार कर्टिस सिल्वा से दोहरे अंकों की बढ़त बनाए हुए हैं. एमर्सन कॉलेज/PIX11 के एक हालिया पोल में ममदानी को 50% समर्थन मिला, जबकि कुओमो को 25% और सिल्वा को 21% समर्थन मिला. क्वीनिपिएक यूनिवर्सिटी के पोल में भी ममदानी एशियाई अमेरिकी मतदाताओं के बीच 67% समर्थन के साथ आगे थे. वहीं, इज़रायली अख़बार हारेत्ज़ ने न्यूयॉर्क के यहूदी समुदाय में ममदानी को लेकर विभाजन पर प्रकाश डाला है. कुछ लोग उनकी फ़लस्तीन समर्थक टिप्पणियों से चिंतित हैं, जबकि अन्य उन्हें एक प्रगतिशील सहयोगी के रूप में देखते हैं. कुल मिलाकर, चुनाव की पूर्व संध्या पर ममदानी की बढ़त, ट्रंप का विरोध और पहचान की राजनीति चर्चा का केंद्र बनी रही.
न्यूयॉर्क शहर का मेयर चुनाव, जो 4 नवंबर, 2025 को होने वाला है, ट्रंप के बाद के युग में प्रगतिशील राजनीति के लिए एक महत्वपूर्ण मोड़ बन गया है. इस चुनाव पर राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर गहरी दिलचस्पी ली जा रही है. डेमोक्रेटिक उम्मीदवार ज़ोहरान ममदानी, जो 34 वर्षीय लोकतांत्रिक समाजवादी और युगांडा-भारतीय मुस्लिम विरासत के न्यूयॉर्क राज्य विधानसभा सदस्य हैं, पूर्व गवर्नर एंड्र्यू क्योमो पर एक आश्चर्यजनक प्राइमरी जीत के बाद सबसे आगे चल रहे हैं. विभिन्न मीडिया संस्थानों की 3 नवंबर की कवरेज के अनुसार, ममदानी का अभियान किफायती आवास, सार्वजनिक शिक्षा सुधार और गाजा में इज़राइल की नीतियों की आलोचना जैसे मुद्दों पर केंद्रित है. इस अभियान ने युवा मतदाताओं, दक्षिण एशियाई और प्रगतिशील लोगों के बीच काफी प्रतिध्वनित किया है, लेकिन इसने नरमपंथियों, व्यापारिक नेताओं और इज़राइल-समर्थक समूहों से प्रतिक्रिया भी पैदा की है.
भारतीय हितों के लिए, ममदानी की जीत दक्षिण एशियाई मूल के पहले मेयर के रूप में एक मील का पत्थर हो सकती है. यह आप्रवासन, आर्थिक समानता और ग्लोबल साउथ के प्रति अमेरिकी विदेश नीति जैसे मुद्दों पर प्रवासी भारतीयों की आवाज़ को बढ़ा सकता है. उनके पिता, महमूद ममदानी, जो एक प्रमुख युगांडा-भारतीय शिक्षाविद हैं, की विद्वतापूर्ण विरासत उनके व्यक्तित्व में सांस्कृतिक गहराई जोड़ती है. हालांकि, 3 नवंबर की कवरेज में इस पर ज़्यादा ध्यान नहीं दिया गया. इसके बजाय, मीडिया आउटलेट्स ने चुनावों में उनकी बढ़त, उनके खिलाफ़ ट्रंप के हस्तक्षेप और न्यूयॉर्क के यहूदी समुदाय के भीतर के सांप्रदायिक तनावों पर ध्यान केंद्रित किया.
विभिन्न मीडिया संस्थानों की कवरेज
द न्यूयॉर्क टाइम्स (NYT): एनवाईटी ने इस दौड़ को “उच्च-दांव” वाली समाजवादी परीक्षा के रूप में प्रस्तुत किया. इसमें ट्रंप की उन धमकियों का भी उल्लेख किया गया, जिसमें कहा गया था कि अगर ममदानी जीतते हैं तो संघीय सहायता रोक दी जाएगी. रिपोर्ट में क्वींस में भारतीय-अमेरिकी और मुस्लिम मतदाताओं सहित विविध गठबंधनों के बीच ममदानी की अपील पर प्रकाश डाला गया, लेकिन कम ऊर्जा वाले मतदाताओं के बीच मतदान के जोखिमों के बारे में भी चेतावनी दी गई.
सीएनएन (CNN): सीएनएन ने दौड़ पर बाहरी दबावों पर जोर दिया, जिसमें राष्ट्रपति ट्रंप ने क्योमो का समर्थन किया और ममदानी को “कट्टरपंथी” करार दिया. यह कदम डेमोक्रेटिक आधार के मतदाताओं को अलग-थलग कर सकता है, लेकिन युवाओं और अल्पसंख्यकों के बीच ममदानी की वायरल अपील को बढ़ा सकता है. सीएनएन के कार्यक्रमों में ममदानी को “फ्रंटरनर” के रूप में चित्रित किया गया, और उनके फिलिस्तीन-समर्थक रुख को भारतीय प्रवासी मुसलमानों के लिए एक ज्वलंत बिंदु के रूप में चर्चा की गई.
एक्सियोस (Axios): एक्सियोस ने एक संक्षिप्त रिपोर्ट में ट्रंप के क्योमो को अंतिम-मिनट के समर्थन की खबर दी. ट्रंप ने कहा कि ममदानी “सक्षम नहीं हैं” और एनवाईसी में “समाजवादी अराजकता” की चेतावनी दी. इसे राष्ट्रीय जीओपी रणनीति के प्रॉक्सी के रूप में देखा गया. कवरेज में ट्रंप की बयानबाजी के जवाब में ममदानी की युगांडा-भारतीय जड़ों का उल्लेख किया गया.
पोलिटिको (Politico): पोलिटिको ने 3 नवंबर को ममदानी की समाजवादी लहर के लिए “हाई-ड्रामा की पूर्व संध्या” के रूप में चित्रित किया. प्रमुख कहानियों में ममदानी को ट्रंप के सामने एक प्रतिद्वंद्वी के रूप में स्थापित करना और क्वींस में उनके दक्षिण एशियाई आउटरीच पर प्रकाश डालना शामिल था.
द वॉशिंगटन पोस्ट (WaPo): वाशिंगटन पोस्ट ने ममदानी के उदय को स्थापित डेमोक्रेट्स के लिए एक “चेतावनी” के रूप में विश्लेषित किया. एक ऑप-एड में तर्क दिया गया कि उनकी जीत एक समाजवादी बदलाव का संकेत है जो भारतीय-अमेरिकियों जैसी अल्पसंख्यक आवाज़ों को सशक्त बना सकता है. एक अन्य लेख में ममदानी की मुस्लिम पहचान और गाजा आलोचना पर यहूदी समुदाय की चिंताओं का विवरण दिया गया.
द वॉल स्ट्रीट जर्नल (WSJ): डब्ल्यूएसजे ने एक संदेहपूर्ण स्वर अपनाते हुए ममदानी के तहत “समाजवाद की जीत” की चेतावनी दी. इसमें उनके किराया-नियंत्रण विस्तार पर व्यापारिक आशंकाओं का हवाला दिया गया, जिसका असर भारतीय स्वामित्व वाले छोटे व्यवसायों पर पड़ सकता है.
हारेत्ज़ (Haaretz): इजराइल के अख़बार हारेत्ज़ ने यहूदी दृष्टिकोणों पर ध्यान केंद्रित करते हुए विभाजन को बढ़ाया. एक पॉडकास्ट में ममदानी के फिलिस्तीन-समर्थक रिकॉर्ड के बीच सवाल उठाया गया, “ज़ोहरान ममदानी से कौन डरता है?”. इसमें रब्बियों द्वारा उनकी पिछली टिप्पणियों को “यहूदी-विरोधी राक्षसीकरण” के रूप में निंदा करने का उल्लेख किया गया, जो न्यूयॉर्क शहर में भारतीय-यहूदी संबंधों को तनावपूर्ण कर सकता है.
हालांकि जैसा कि पोल्स बता रहे हैं, ममदानी की बढ़त लगातार बनी रही.
डीएमके ने चुनाव आयोग की मतदाता सूची संशोधन प्रक्रिया को दी चुनौती
तमिलनाडु की सत्तारूढ़ पार्टी, द्रविड़ मुनेत्र कड़गम (डीएमके) ने चुनाव आयोग द्वारा 12 राज्यों में शुरू किए गए मतदाता सूचियों के विशेष गहन संशोधन ( SIR) के विस्तार को चुनौती दी है. पार्टी का दावा है कि यह प्रक्रिया “मनमानी, अनुचित और अवैध” है और यह मतदाताओं के राजनीतिक अभिव्यक्ति के अधिकार का उल्लंघन करती है. पार्टी ने चेतावनी दी है कि इससे बड़ी संख्या में मतदाता अपने मताधिकार से वंचित हो सकते हैं, जैसा कि बिहार में देखने को मिला है.
द हिंदू की रिपोर्ट के अनुसार, डीएमके के संगठन सचिव आर.एस. भारती ने वरिष्ठ अधिवक्ताओं एन.आर. एलांगो और अमित आनंद तिवारी के माध्यम से अपनी याचिका में कहा कि संविधान के अनुच्छेद 326 के तहत दी गई सार्वभौमिक वयस्क मताधिकार की गारंटी स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनावों का आधार है. मतदाता सूचियों से गलत तरीके से नाम हटाना इस गारंटी पर सीधा हमला है. पार्टी ने चुनाव आयोग के 27 अक्टूबर के आदेश पर सवाल उठाते हुए कहा कि बूथ लेवल अधिकारियों (बीएलओ) को घर-घर जाकर गणना करने और मतदाताओं को गणना फॉर्म देने का निर्देश दिया गया है, जबकि जनप्रतिनिधित्व अधिनियम (ROPA) या मतदाता पंजीकरण नियमों में ऐसे किसी फॉर्म का उल्लेख नहीं है.
डीएमके ने इस पर भी आपत्ति जताई कि मतदाताओं को अपनी पात्रता साबित करने के लिए 13 निर्दिष्ट दस्तावेज़ों में से एक प्रदान करना होगा, लेकिन राशन कार्ड, पैन कार्ड और EPIC जैसे सामान्य रूप से उपलब्ध दस्तावेज़ों को बाहर रखा गया है. पार्टी ने तर्क दिया कि यदि कोई मतदाता दस्तावेज़ प्रदान नहीं करता है, तो उसका नाम स्वतः ही ड्राफ्ट सूची से हटा दिया जाएगा, जिससे बड़े पैमाने पर लोगों को मनमाने ढंग से चुनावी प्रक्रिया से बाहर किया जा सकता है. इसके अलावा, जो मतदाता गणना फॉर्म वापस नहीं करते, उनके बारे में बीएलओ को स्थानीय पूछताछ के आधार पर “अनुपस्थित, स्थानांतरित, मृत या डुप्लिकेट” जैसी वजहों की पहचान करनी होगी, जो पूरी तरह से व्यक्तिपरक हो सकता है.
याचिका में यह भी कहा गया है कि दावों और आपत्तियों के लिए निर्धारित समय-सीमा (9 दिसंबर, 2025 से 8 जनवरी, 2026) और मतदाता पात्रता की जांच की अवधि (9 दिसंबर, 2025 से 31 जनवरी, 2026) एक-दूसरे के साथ ओवरलैप होती है. अंतिम सूची 7 फरवरी, 2026 को प्रकाशित होनी है. इससे मतदाताओं को चुनावी पंजीकरण अधिकारी (ERO) के फैसले के खिलाफ अपील करने के वैधानिक अधिकार से प्रभावी रूप से वंचित कर दिया गया है. डीएमके ने कहा कि इस प्रक्रिया से गलत तरीके से बाहर किए गए मतदाता आने वाले चुनावों के लिए बाहर ही रह सकते हैं.
बिहार
बिहार में घुसपैठिये कितने?
हकीकत: अयोग्य घोषित लोगों में ज़्यादातर भारतीय नागरिक या नेपाली बहुएँ
बिहार के आगामी चुनावों में ‘विदेशी मतदाताओं’ का मुद्दा ज़ोर-शोर से उठाया गया है, लेकिन ज़मीनी हकीकत कुछ और ही कहानी बयां करती है. द वायर की एक ग्राउंड रिपोर्ट के अनुसार, चुनाव आयोग के विशेष गहन संशोधन (SIR) के बाद जिन लगभग 9,500 लोगों को ‘अयोग्य’ घोषित किया गया, उनमें से अधिकांश या तो भारतीय नागरिक थे जिन्हें गलत तरीके से बाहर कर दिया गया या फिर वे नेपाली महिलाएँ थीं जिनकी शादी भारतीय पुरुषों से हुई है.
चुनाव आयोग ने जून 2025 में राज्य में लगभग 8 करोड़ मतदाताओं के सत्यापन के लिए SIR शुरू किया था, जिसमें “अवैध अप्रवासियों” की चिंताओं का हवाला दिया गया था. बीजेपी ने अपने चुनाव अभियान में इस मुद्दे को खूब उछाला, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृह मंत्री अमित शाह ने अपनी रैलियों में ‘घुसपैठियों’ का ज़िक्र किया. हालांकि, द वायर द्वारा अंतिम मतदाता सूची के विश्लेषण से पता चला है कि अयोग्य घोषित मतदाताओं की संख्या कुल मतदाताओं का केवल 0.012% है. इनमें से 85% से अधिक नेपाल की सीमा से लगे चार जिलों - सुपौल, किशनगंज, पश्चिम चंपारण और पूर्वी चंपारण में केंद्रित थे.
रिपोर्ट में पाया गया कि सुपौल में, अयोग्य घोषित की गईं लगभग सभी मतदाता नेपाली महिलाएँ थीं, जो शादी के बाद बिहार में बस गईं. इनमें से कई ने पिछले चुनावों में मतदान भी किया था और उनके पास आधार कार्ड, राशन कार्ड और निवास प्रमाण पत्र जैसे दस्तावेज़ भी थे. लेकिन SIR प्रक्रिया के कारण अचानक उनकी स्थिति बदल गई. उनमें से कई को यह भी नहीं पता था कि उन्हें अयोग्य घोषित कर दिया गया है. इसी तरह, पूर्वी चंपारण और किशनगंज में कई भारतीय नागरिकों को, जिनमें पश्चिम बंगाल की महिलाएँ भी शामिल थीं, दस्तावेज़ों की कमी या गलत वर्गीकरण के कारण ‘अयोग्य’ करार दिया गया. एक बूथ लेवल ऑफिसर ने बताया कि उन्होंने कुछ मतदाताओं को ‘स्थानांतरित’ या ‘मृत’ के रूप में चिह्नित किया था, लेकिन अंतिम सूची में उन्हें ‘अयोग्य’ घोषित कर दिया गया.
यह अभ्यास इस बात पर गंभीर सवाल खड़े करता है कि क्या कुछ हज़ार लोगों की पहचान करने के लिए आठ करोड़ लोगों को परेशान करना उचित था. राजनीतिक कार्यकर्ता योगेंद्र यादव ने इसे “नाक पर बैठी मक्खी को मारने के लिए हथौड़े का इस्तेमाल करना” जैसा बताया.
पूर्व गृह सचिव और भाजपा मंत्री आरके सिंह का अडानी पर भ्रष्टाचार का बड़ा आरोप एबीपी चैनल ने दिखाया, फिर हटाया
बिहार में अडानी पावर प्लांट: यह 62 हजार करोड़ का बहुत बड़ा घपला है, वैसे कुल 1.40 लाख करोड़ का, आरके सिंह का सीधा आरोप
नरेंद्र मोदी सरकार के पूर्व मंत्री आरके सिंह ने कथित तौर पर भाजपा और अडानी के गठजोड़ और बिहार में करोड़ों रुपए के भ्रष्टाचार की पोल खोली है. आरके सिंह, जो देश के गृह सचिव भी रहे हैं और जिनकी गिनती ईमानदार नौकरशाहों में होती रही है, ने “एबीपी न्यूज़” से बातचीत में आरोप लगाया कि बिहार में 62 हज़ार करोड़ रुपये का घोटाला किया गया है, जिसका खामियाजा सीधे-सीधे बिहार की जनता को भुगतना पड़ेगा. “एबीपी न्यूज़” के साथ सिंह की बातचीत का ये वीडियो क्लिप आज मंगलवार 4 नवंबर को कांग्रेस के मीडिया और पब्लिसिटी विभाग के अध्यक्ष पवन खेड़ा ने “एक्स” पर साझा किया. खेड़ा ने लिखा, “इस सनसनीखेज खुलासे को दोबारा साझा कर रहा हूं, क्योंकि हिरेन जोशी के आदेश पर ‘एबीपी’ ने मूल रिपोर्ट हटा दी है.” दरअसल, इस वीडियो में सिंह ने सीधे तौर पर 62 हजार करोड़ के घोटाले का आरोप लगाकर ऐन चुनाव चलते भाजपा के नेतृत्व वाले एनडीए को मुश्किल में डाल दिया है. इसमें संवाददाता के अडानी पावर लिमिटेड को थर्मल पावर संयंत्र स्थापित करने के लिए बिहार में आवंटित भूमि के बारे में सवाल करने पर सिंह कह रहे हैं कि “यह बहुत बड़ा घपला है. अडानी के साथ एग्रीमेंट साइन किया गया है कि 25 साल तक 6 रुपये साढ़े सात पैसे के हिसाब से बिहार सरकार बिजली खरीदेगी. अडानी को बहुत ही ज्यादा दाम पर यह पावर प्लांट लगाने के किए दिया गया है. जिससे राज्य और उसके लोगों को घाटा होगा. कुलमिलाकर, यह 1 लाख 40 हजार करोड़ का यह घपला है.” यह पूछने पर कि क्या आप इसकी जांच की मांग करेंगे, सिंह जो खुद भी बिहार के रहने वाले हैं, जवाब देते हैं-“अरे भाई साहब इतना बड़ा घपला है. किसी को आप प्रति वर्ष 2500 करोड़ रुपये ज्यादा दे दे रहे हैं. कुलमिलाकर, 25 साल में 62 हजार करोड़ रुपये ज्यादा दे रहे हैं. केपिटल पर जो लाभ मिलना है, वो तो है ही. उसके अलावा जो दे रहे हैं, उसका भुगतान कौन करेगा? पब्लिक करेगी. 1.41 रुपये प्रति यूनिट ज्यादा देना पड़ेगा. यह बहुत बड़ा घपला है. हम इसकी सीबीआई जांच हो. हमने खुद केलकुलेशन किया है. सीबीआई केलकुलेट करे. जो मंत्री या पदाधिकारी इसमें लिप्त हो, उन सब पर क्रिमिनल केस हो और वो सब जाएं जेल.”
उल्लेखनीय है कि अडानी पावर लिमिटेड को बिहार चुनाव के ऐलान के ठीक पहले भागलपुर जिले में थर्मल पावर प्लांट लगाने के लिए “एक रुपये में एक हजार एकड़” जमीन आवंटित की गई थी. विपक्ष ने इसे बड़ा मुद्दा बनाया है. उसका आरोप है कि यह सीधे तौर पर अडानी समूह को लाभ पहुंचाने का मामला है. बता दें, सिंह स्वयं मोदी सरकार में ऊर्जा मंत्री रहे हैं. वह भाजपा के टिकट पर दो बार आरा से लोकसभा चुनाव जीते, लेकिन पिछला चुनाव हार गए थे. बहरहाल, पवन खेड़ा की पोस्ट को सोशल मीडिया पर री पोस्ट किया जा रहा है.
वोटिंग के ऐन पहले केंद्रीय मंत्री ललन सिंह पर मामला दर्ज
बिहार विधानसभा चुनावों के लिए मतदान में बस एक दिन शेष है और चुनावी जंग तेज़ हो गई है. इसी बीच, केंद्रीय मंत्री राजीव रंजन सिंह ‘ललन’ पर मोकामा में गिरफ्तार जद (यू) उम्मीदवार अनंत सिंह के लिए प्रचार करते समय विपक्षी नेताओं के खिलाफ कथित तौर पर विवादास्पद टिप्पणी करने के लिए मामला दर्ज किया गया है. उनके भाषण का एक कथित वीडियो वायरल हो गया है, और राजद तथा कांग्रेस के नेताओं ने उनकी आलोचना करते हुए कहा है कि यह “राज्य में गुंडगर्दी और जंगल राज का नया उदाहरण” है.
वीडियो में, ललन को मगही भाषा में यह कहते हुए सुना जा सकता है कि “यहां कुछ लोग हैं, जिन्हें आपको मतदान के दिन बाहर नहीं निकलने देना चाहिए. उन्हें उनके घरों के अंदर बंद कर दो. अगर वे तुम्हें बहलाते हैं, तो उन्हें मतदान केंद्र तक ले जाओ और सुनिश्चित करो कि वे अपना वोट डालने के बाद घर चले जाएं.
मोकामा में सिंह के लिए अपने प्रचार के दौरान, ललन ने आरोप लगाया कि जिस घटना में जन सुराज पार्टी के कार्यकर्ता की हत्या हुई, वह एक “षड्यंत्र” था और कहा कि सिंह ने पुलिस के साथ सहयोग किया और कानून का पालन किया.
उपमुख्यमंत्री सम्राट चौधरी के साथ ललन सिंह मोकामा गए और अनंत सिंह के लिए प्रचार किया. ललन ने कहा, “अनंत सिंह की गिरफ्तारी के बाद, हर व्यक्ति को अनंत सिंह बनकर चुनाव लड़ना चाहिए. जब अनंत बाबू बाहर थे, तो मेरी जिम्मेदारी कम थी, लेकिन अब जब वह जेल में हैं, तो मेरी जिम्मेदारी और भी बढ़ गई है.”
मोकामा इलाके में नीतीश का साथ नहीं देंगे धानुक
उमेश कुमार रे की रिपोर्ट के अनुसार, पिछले सप्ताह दुलारचंद यादव की दिनदहाड़े हत्या में अनंत सिंह का शामिल होना जनता दल (यूनाइटेड) और एनडीए को मोकामा और आसपास के क्षेत्रों में नुकसान पहुंचा सकता है. यादव जन सुराज पार्टी के उम्मीदवार पीयूष प्रियदर्शी के लिए मोकामा में प्रचार कर रहे थे, जो धानुक ईबीसी समुदाय से आते हैं. ईबीसी आरक्षण के कारण कई धानुक नीतीश के प्रति वफादार हो गए थे, लेकिन रे की रिपोर्ट के अनुसार, यादव की हत्या के कारण वे हो सकता है मोकामा और आसपास के निर्वाचन क्षेत्रों में जद (यू) का समर्थन न करें.
मोदी के रोडशो से नीतीश को दूर रखा गया
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के पटना रोड शो में मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की अनुपस्थिति स्पष्ट रूप से दिखाई दी. हालांकि, एनडीए ने नीतीश की अनुपस्थिति का कारण उनके व्यस्त चुनावी कार्यक्रम को बताया, पर अभय कुमार से बात करने वाले गठबंधन के एक वरिष्ठ नेता ने कहा कि नीतीश को उनकी गिरती सेहत के साथ-साथ इसलिए भी अलग रखा गया, क्योंकि पड़ोसी मोकामा विधानसभा सीट से बाहुबली अनंत सिंह को टिकट देने का उनका फैसला वरिष्ठ भाजपा नेतृत्व को पसंद नहीं आया है. अनंत सिंह को सप्ताह के अंत में एक अन्य बाहुबली दुलारचंद यादव की हत्या के सिलसिले में गिरफ्तार किया गया था. यह तब हुआ जब भाजपा, राष्ट्रीय जनता दल पर ‘जंगल राज’ को लेकर हमला कर रही है. यद्यपि, श्रावस्ती दासगुप्ता ने पाया कि मुख्यमंत्री को उनके गृह क्षेत्र और आसपास के इलाके में काफी समर्थन मिल रहा है.
बिहार चुनाव: चुनाव आयोग के पर्यवेक्षकों में ज्यादातर भाजपा शासित राज्यों के
बिहार विधानसभा चुनावों के लिए चुनाव आयोग ने सामान्य पर्यवेक्षक (आईएएस से लिए गए) और पुलिस पर्यवेक्षक (आईपीएस अधिकारियों से लिए गए) नियुक्त किए हैं, लेकिन “स्क्रॉल” के इस विश्लेषण में आयुष तिवारी लिखते हैं कि भाजपा शासित राज्य और केंद्र शासित प्रदेशों में सेवारत नौकरशाहों का अनुपात बहुत अधिक है. ये राज्य और क्षेत्र 68% सामान्य पर्यवेक्षकों का प्रतिनिधित्व करते हैं, भले ही उनमें भारत के केवल 57% आईएएस अधिकारी हैं. इसी तरह, ये स्थान 68% पुलिस पर्यवेक्षकों का प्रतिनिधित्व करते हैं, जबकि देश के केवल 59% आईपीएस अधिकारी इन स्थानों पर सेवारत हैं. तिवारी ने यह भी पाया कि जिन सीटों पर 2020 के विधानसभा चुनावों में करीबी मुकाबला हुआ था, वहां आईपीएस अधिकारियों की तैनाती असमान रूप से अधिक की गई है.
बिहार में शिक्षकों की लाखों की रिक्तियां, एनडीए के 1 करोड़ के दावे पर सवाल
“द टेलीग्राफ” लिखता है कि एनडीए ने बिहार के लोगों को 1 करोड़ नौकरियां देने का वादा किया है, लेकिन इस वादे को राज्य में सरकारी शिक्षकों की रिक्तियों के परिदृश्य के सामने रखने पर स्थिति बहुत उज्जवल नहीं दिखती. 2023-24 तक 2.78 लाख रिक्तियों के साथ, बिहार में इस संबंध में देश की कुल रिक्तियों का 26% था, जो सभी राज्यों में सबसे अधिक है. अखबार से बात करते हुए, पूर्व प्रोफेसर सुनील रे ने कहा कि एनडीए दलों को ये आंकड़ा देना चाहिए कि उनकी सरकार ने पिछले पांच वर्षों में कितने रोजगार सृजित किए. उन्होंने कहा कि एनडीए को अगले पांच साल में 1 करोड़ रोजगार देने के अपने वादे के पक्ष में एक ब्लू प्रिंट देना चाहिए, अन्यथा इस तरह के वादे खोखले ही माने जाएंगे. रे ने विपक्षी महागठबंधन को भी राज्य के हर परिवार को सरकारी नौकरी देने के अपने वादे के लिए एक योजना का मसौदा तैयार करने का सुझाव दिया.
सरकारी नौकरी की चाह: वादों के बीच हताशा
बिहार में नौकरियों के वादों के बीच, हज़ारों युवा एक सरकारी नौकरी के सपने को पूरा करने के लिए छोटी-छोटी लाइब्रेरियों में भीड़ लगाए हुए हैं. हिंदू की एक रिपोर्ट के अनुसार, भ्रष्टाचार, पेपर लीक, अनियमित परीक्षाओं और देरी से आने वाली सूचनाओं ने उनके मनोबल को तोड़ दिया है. पटना के पास बभनपुरा में एक निजी लाइब्रेरी में 250 से ज़्यादा युवा रोज़ाना प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी करते हैं. यह उन लोगों के लिए एक ठिकाना बन गया है जो महंगी कोचिंग का खर्च नहीं उठा सकते.
इन्हीं में से एक 23 वर्षीय अमन कुमार हैं, जो डेढ़ साल से तैयारी कर रहे हैं. वह कहते हैं, “मैंने दो बार बिहार पुलिस की लिखित परीक्षा पास की. पहली बार, पैर में समस्या के कारण मैं फिजिकल टेस्ट में शामिल नहीं हो सका. दूसरी बार, पेपर लीक हो गया और परीक्षा रद्द कर दी गई.” अमन का कहना है कि उनके जैसे लोगों के लिए सरकारी नौकरी ही एकमात्र विकल्प है, क्योंकि यहाँ निजी नौकरियां नहीं हैं. वह बताते हैं कि परीक्षाओं की सूचना अनियमित होती है, जिससे योजना बनाना मुश्किल हो जाता है. वह कहते हैं, “हम ईमानदारी से पढ़ते हैं. लेकिन यहाँ ईमानदारी काम नहीं आती.”
पटना से लगभग 30 किलोमीटर दूर मधुबन गाँव में 27 वर्षीय धर्मेंद्र कुमार पिछले चार साल से तैयारी कर रहे हैं. महामारी में पिता की मृत्यु के बाद, उनकी माँ रीता देवी खेत में काम करके परिवार का भरण-पोषण करती हैं. धर्मेंद्र कहते हैं, “यहाँ निजी नौकरियों में बारह घंटे काम करने पर आठ या दस हज़ार रुपये मिलते हैं, जो परिवार चलाने के लिए पर्याप्त नहीं है.” वह अपनी फ़ाइल दिखाते हैं, जो परीक्षा की रसीदों और एडमिट कार्ड से भरी है. वह कहते हैं, “पेपर लीक सब कुछ नष्ट कर देता है. हर बार जब सरकार एक नई परीक्षा की घोषणा करती है, तो हमारी उम्मीदें बढ़ जाती हैं. लेकिन जब तक वह रद्द होती है, हमारा पैसा और महीनों की पढ़ाई बर्बाद हो चुकी होती है.”
उनकी माँ रीता देवी कहती हैं, “मैंने बकरियाँ और फसलें बेचकर उसकी फीस भरी. गाँव के लोग मुझसे पूछते हैं कि मैं उसकी पढ़ाई पर पैसा क्यों खर्च करती हूँ, लेकिन मैं उनसे कहती हूँ कि यही हमारी एकमात्र उम्मीद है.” बिहार में बेरोज़गारी एक गंभीर समस्या बन गई है. पीरियोडिक लेबर फोर्स सर्वे (PLFS) के अनुसार, बिहार की बेरोज़गारी दर लगभग 5% है, लेकिन श्रम-भागीदारी दर भारत में सबसे कम है. 2024 और 2025 की शुरुआत में हुए पेपर लीक ने पुलिस, कर्मचारी चयन और राजस्व सहित कई प्रमुख विभागों में भर्ती में पहले ही देरी कर दी है. चुनाव नज़दीक आने के साथ, कई युवा उम्मीदवार कहते हैं कि इस देरी ने विश्वासघात की भावना को और गहरा कर दिया है.
आनंद के. सहाय : नीतीश का भविष्य दांव पर
बिहार में विधानसभा चुनाव नज़दीक आने के साथ ही राजनीतिक चर्चाएं तेज़ हो गई हैं. द वायर में पत्रकार आनंद के. सहाय लिखते हैं कि 20 साल तक मुख्यमंत्री रहने के बावजूद, नीतीश कुमार के प्रति जनता में व्यक्तिगत सद्भावना का एक स्तर बना हुआ है. यह एक ऐसी उपलब्धि है जो उस राज्य में मायने रखती है जो बेरोज़गारी, शिक्षा और स्वास्थ्य जैसी सामाजिक-आर्थिक समस्याओं से जूझ रहा है. नीतीश कुमार ने अच्छी सड़कें बनाई हैं, लेकिन विनिर्माण या व्यापार की कमी के कारण अर्थव्यवस्था को बढ़ावा नहीं मिला है. फिर भी, उन्होंने भाई-भतीजावाद नहीं किया और न ही अपनी जेब भरने के लिए व्यवस्था का दुरुपयोग किया, जो बिहार की राजनीति में एक बड़ी बात मानी जाती है.
अब सवाल यह है कि क्या नीतीश कुमार का राजनीतिक सूरज अस्त हो रहा है या वे घने बादलों के पीछे से फिर से चमकने की कोशिश कर रहे हैं. इस समय बिहार की राजनीति में कोई भी नतीजा स्पष्ट नहीं दिख रहा है. सत्तारूढ़ एनडीए और विपक्षी इंडिया ब्लॉक (महागठबंधन) दोनों के अपने-अपने दावे हैं. प्रशांत किशोर की नई पार्टी ‘जन सुराज’ के मैदान में होने से स्थिति और भी जटिल हो गई है. जाति एक महत्वपूर्ण कारक बनी हुई है, लेकिन ऐसा लगता है कि विचारधारा भी जाति के पीछे छिपकर अपनी भूमिका निभा रही है. सवर्ण जातियाँ आम तौर पर बीजेपी के साथ खड़ी दिखती हैं, लेकिन बीजेपी केवल सवर्ण वोटों से नहीं जीत सकती, इसलिए उसने नीतीश के जनता दल (यूनाइटेड) जैसी कई ‘सामाजिक न्याय’ वाली पार्टियों के साथ गठबंधन किया है.
इस बार इस स्थापित पैटर्न में बदलाव की संभावना दिख रही है. मतदाताओं के कुछ वर्गों में यह चिंता है कि नीतीश कुमार के शासन में बीजेपी ने संगठनात्मक रूप से खुद को बहुत मजबूत कर लिया है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृह मंत्री अमित शाह ने सार्वजनिक रूप से यह संकेत देने से परहेज किया है कि अगर एनडीए जीतता है तो नीतीश कुमार फिर से मुख्यमंत्री बनेंगे. इससे यह अटकलें लगाई जा रही हैं कि बीजेपी इस बार बिहार में अपना मुख्यमंत्री बनाना चाहती है. यदि ऐसा होता है, तो नीतीश कुमार को अपनी राजनीति चलाने के लिए कुछ अलग सोचना पड़ सकता है.
सबसे आम चर्चा यह है कि अगर एनडीए में उनका लक्ष्य पूरा नहीं होता, तो नीतीश कुमार इंडिया ब्लॉक के साथ मिलकर फिर से सरकार बना सकते हैं. यदि ऐसा होता है, तो इसका असर नई दिल्ली की राजनीति पर भी पड़ सकता है. इन संभावनाओं के कारण बिहार चुनाव का नतीजा पढ़ना मुश्किल हो गया है, हालांकि एनडीए शुरुआत में थोड़ा मजबूत दिख रहा है. इस चुनाव में दांव बहुत ऊँचे हैं. बिहार का परिणाम अन्य राज्यों पर भी प्रभाव डाल सकता है, और नई दिल्ली कोई भी जोखिम नहीं उठाना चाहेगी.
प्रियांक खड़गे का सवाल, क्या आरएसएस टैक्स चोर है?
कर्नाटक के सूचना प्रौद्योगिकी (आईटी) और जैव प्रौद्योगिकी (बीटी) मंत्री प्रियांक खड़गे ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) के कानूनी पंजीकरण की कमी और उसकी फंडिंग को लेकर पारदर्शिता के अभाव पर सवाल उठाए हैं. उन्होंने कहा कि यह संगठन “राष्ट्र की सेवा करने का दावा करते हुए जांच और करों से बच रहा है.”
द वायर की रिपोर्ट के अनुसार, खड़गे ने रविवार (2 नवंबर) को एक्स पर एक पोस्ट में पूछा, “आरएसएस ने आधिकारिक तौर पर लिखित में कहा है कि यह एक पंजीकृत इकाई नहीं है. अगर यह वास्तव में निस्वार्थ भाव से राष्ट्र की सेवा करता है, तो उन लाखों गैर सरकारी संगठनों की तरह पंजीकरण क्यों नहीं कराता जो पारदर्शी और कानूनी रूप से काम करते हैं? उनका दान कहाँ से आता है और दानदाता कौन हैं?”
खड़गे ने आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत को दी गई उच्च स्तरीय सुरक्षा की भी आलोचना की और दावा किया कि यह प्रधानमंत्री और शीर्ष केंद्रीय मंत्रियों के बराबर है. उन्होंने सवाल किया, “एक अपंजीकृत संगठन के प्रमुख को प्रधानमंत्री और गृह मंत्री के बराबर सुरक्षा क्यों मिलती है? आरएसएस प्रमुख के लिए करदाताओं का पैसा क्यों खर्च किया जा रहा है? पूर्णकालिक प्रचारकों को कौन भुगतान करता है और संगठन के दैनिक कार्यों और ‘सामाजिक’ अभियानों को कौन फंड करता है?” उन्होंने कहा कि अगर आरएसएस अपंजीकृत और गैर-जवाबदेह है, तो यह स्पष्ट रूप से जांच और करों से बच रहा है.
खड़गे की यह टिप्पणी आरएसएस द्वारा उनके विधानसभा क्षेत्र कलाबुर्गी जिले के चित्तापुर में एक रूट मार्च निकालने की योजना पर चल रहे विवाद के बीच आई है. स्थानीय प्रशासन ने इस मार्च की अनुमति देने से इनकार कर दिया था, जिसके बाद संगठन ने कर्नाटक उच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटाया था.
इन्वेस्टिगेटिव रिपोर्ट
सरकार ने कल्याण के डेढ़ लाख करोड़ डकारे?
आरबीआई के DEAF में 1.5 लाख करोड़ रुपये से ज़्यादा के सरकारी, कल्याणकारी और धर्मार्थ फंड लावारिस पड़े हैं
एक चौंकाने वाले खुलासे में यह बात सामने आई है कि करोड़ों रुपये वाले सैकड़ों सरकारी और कल्याणकारी फंड बैंकों में भुला दिए गए हैं और अब भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) के डिपॉजिटर एजुकेशन एंड अवेयरनेस फंड (DEAF) में लावारिस पड़े हैं. सुचेता दलाल की रिपोर्ट के अनुसार, यह एक बड़ी प्रणालीगत विफलता को उजागर करता है, जहाँ जनता के कल्याण के लिए बना पैसा लापरवाही की वजह से बेकार पड़ा है.
वित्त मंत्रालय ने हाल ही में नागरिकों को अपनी लावारिस जमा राशि वापस पाने में मदद करने के लिए एक अभियान शुरू किया था, लेकिन एक बैंकर द्वारा आरबीआई के UDGAM पोर्टल पर की गई एक साधारण खोज ने एक बड़े घोटाले का पर्दाफाश कर दिया. ‘फंड’, ‘योजना’, ‘ग्रामीण’ या ‘प्रधानमंत्री’ जैसे कीवर्ड्स का उपयोग करके, स्टेट बैंक ऑफ इंडिया (एसबीआई) और बैंक ऑफ बड़ौदा (बीओबी) जैसे बैंकों में सैकड़ों सरकारी-लिंक्ड खाते मिले, जिनमें करोड़ों रुपये जमा हैं. इन खातों में राष्ट्रीय संस्कृति कोष, कर्मचारी राज्य बीमा निगम (ESIC), कर्मचारी भविष्य निधि संगठन (EPFO), प्रधानमंत्री ग्राम सड़क योजना, जवाहर रोजगार योजना और मुख्यमंत्री राहत कोष जैसे महत्वपूर्ण फंड शामिल हैं. कई खातों के नाम गलत लिखे गए हैं, जिससे यह सवाल उठता है कि क्या ये असली खाते हैं या लापरवाही से बनाए गए हैं.
रिपोर्ट में कहा गया है कि इन पैसों का कभी ऑडिट नहीं हुआ कि वे सही लाभार्थियों तक पहुंचे या नहीं. यहाँ तक कि सशस्त्र सेना झंडा दिवस और सैन्य रेजिमेंटल फंड जैसे खाते भी निष्क्रिय पड़े हैं. यह समस्या केवल सरकारी फंड तक सीमित नहीं है. कई निजी ट्रस्टों, फाउंडेशनों, चैरिटी, मंदिरों, चर्चों और कर्मचारी फंडों का पैसा भी DEAF में फंसा हुआ है. आरबीआई का UDGAM पोर्टल, जिसे लोगों की मदद के लिए बनाया गया था, खुद एक बाधा है. इस पर खोज करना बेहद मुश्किल है और इसके लिए सटीक खाता नाम और पैन या वोटर आईडी जैसे पहचान पत्र की आवश्यकता होती है, जो दशकों पुराने खातों के लिए असंभव है.
मार्च 2024 तक आरबीआई के DEAF में लावारिस जमा राशि 78,213 करोड़ रुपये तक पहुंच गई थी, और लगभग 1 लाख करोड़ रुपये अन्य निष्क्रिय खातों में पड़े थे. यह पूरा मामला कम से कम 1.5 लाख करोड़ रुपये के सार्वजनिक धन की भारी बर्बादी और वित्तीय अनुशासन की पूर्ण विफलता की ओर इशारा करता है.
मजदूरी मांगने पर दलित मज़दूर की पीट-पीटकर हत्या
दलित समुदाय से ताल्लुक रखने वाले 40 वर्षीय खेतिहर मज़दूर हौसला प्रसाद की कथित तौर पर उत्तरप्रदेश के अमेठी के एक गांव में ऊंची जाति के ज़मींदार और उसके साथियों ने पीट-पीटकर हत्या कर दी, क्योंकि उसने अपने 2,500 रुपये के बकाये की मांग की थी. “द टेलीग्राफ” में पीयूष श्रीवास्तव की रिपोर्ट के अनुसार, पुलिस ने ज़मींदार शुभम सिंह को गैर-इरादतन हत्या (जो हत्या की श्रेणी में नहीं आती) के आरोप में गिरफ्तार किया था, हालांकि बाद में उसके खिलाफ हत्या का आरोप लगाया. प्रसाद की पत्नी ने आरोप लगाया था कि उसके पति को सिंह के खेत में जबरन ले जाया गया और वहां काम करने के एवज में भुगतान नहीं किया गया. बकाया मांगने पर पीटा गया.
पाकिस्तान समेत ये देश परमाणु परीक्षण कर रहे हैं : ट्रम्प
अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प का दावा है कि पाकिस्तान उन देशों में शामिल है, जो “परमाणु परीक्षण” कर रहे हैं, साथ ही रूस, चीन और उत्तर कोरिया भी. उन्होंने तर्क दिया कि वह नहीं चाहते थे कि अमेरिका ऐसा न करने वाला एकमात्र देश हो. जब सीबीएस के ‘60 मिनट्स’ कार्यक्रम में उनके साक्षात्कारकर्ता ने उनसे इस बारे में पूछा कि क्या अमेरिका परमाणु विस्फोटों को फिर से शुरू करेगा, तो ट्रम्प ने यह भी कहा: “मैं कह रहा हूं कि हम अन्य देशों की तरह परमाणु हथियारों का परीक्षण करेंगे, हां. हालांकि, उनके ऊर्जा सचिव क्रिस राइट ने एक अलग इंटरव्यू में कहा कि अमेरिका के निकट भविष्य में नियोजित परमाणु परीक्षणों में परमाणु विस्फोट शामिल नहीं होंगे, जिन पर जॉर्ज एच.डब्ल्यू. बुश प्रशासन ने 1992 में स्वैच्छिक रोक लगा दी थी. राष्ट्रपति ट्रम्प ने यह टिप्पणी ट्रुथ सोशल पर यह घोषणा करने के कुछ दिनों बाद की कि वह अन्य देशों के साथ “समान आधार पर” परमाणु परीक्षण फिर से शुरू करने का आदेश दे रहे हैं.
भारत-पाकिस्तान सैन्य संघर्ष पर ट्रम्प का फिर दावा
अपने ‘60 मिनट्स’ साक्षात्कार के दौरान, ट्रम्प ने एक बार फिर जोर देकर कहा कि उन्होंने व्यापार पहुंच का लाभ उठाकर भारत और पाकिस्तान के बीच सैन्य संघर्ष को समाप्त कर दिया. उन्होंने यह भी दावा किया कि उन्होंने ऐसा करके संभावित परमाणु युद्ध को टाल दिया था, जिस पर इस्लामाबाद ने उत्साहपूर्वक उनका समर्थन किया है. ट्रम्प ने यह भी कहा, “उन्होंने सात विमान मार गिराए थे,” यह स्पष्ट किए बिना कि वह किस पक्ष के विमानों की बात कर रहे थे. हालांकि, पाकिस्तान ने मई संघर्ष के दौरान सात भारतीय विमानों को मार गिराने का दावा किया है, जो पिछले छह के आंकड़े को संशोधित करता है, जिसे भारतीय चीफ ऑफ डिफेंस स्टाफ जनरल अनिल चौहान ने नकार दिया था.
संजय हजारिका: टूटी सड़क और नागा शांति वार्ता
मणिपुर के उखरूल से सोमदल तक की 23 किलोमीटर की सड़क, जो पूर्वोत्तर के सबसे प्रभावशाली विद्रोही नेता थुइंगलेंग मुइवा के घर तक जाती है, नागा शांति प्रक्रिया की वर्तमान स्थिति का एक सटीक प्रतीक है - कहीं ऊबड़-खाबड़, कहीं टूटी हुई और कहीं-कहीं चिकनी. द टेलीग्राफ के लिए संजय हजारिका लिखते हैं कि 91 वर्षीय मुइवा पिछले महीने दशकों के आत्म-निर्वासन के बाद हेलीकॉप्टर से अपने घर लौटे, जहाँ उनका भावनात्मक स्वागत किया गया. लेकिन इस व्यक्तिगत यात्रा के दौरान भी, मुइवा ने अपने राजनीतिक रुख को दोहराया: नागा मुद्दे का समाधान तभी हो सकता है जब केंद्र सरकार नागा ध्वज और नागा संविधान की दो प्रमुख मांगों को मान ले, जिन पर अभी भी गतिरोध बना हुआ है.
दस साल पहले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की उपस्थिति में हुए फ्रेमवर्क समझौते के बावजूद, एक स्थायी समाधान अभी भी दूर की कौड़ी लगता है. एनएससीएन (आई-एम) के नेता वी.एस. अतेम ने भी प्रक्रिया की धीमी गति पर निराशा व्यक्त की है और केंद्र पर पुराने मुद्दों को सुलझाने के बजाय नई समस्याएं पैदा करने का आरोप लगाया है, जैसे कि भारत-म्यांमार सीमा पर बाड़ लगाना.
इस बीच, एनएससीएन (आई-एम) के भीतर भी दरारें दिख रही हैं. समूह का राजनीतिक और सैन्य नेतृत्व मुइवा के तंगखुल जनजाति के हाथों में केंद्रित है, जो नागालैंड में नहीं, बल्कि मणिपुर में स्थित है. सह-संस्थापक इसाक चिशी स्वू के बेटे ने भ्रष्टाचार और नेतृत्व के नैतिक पतन को लेकर तीखा हमला बोला है. इसके अलावा, सशस्त्र गुटों के बीच विभाजन और विभिन्न गुटों के प्रति जनजातियों की वफादारी ने नागा आंदोलन को कमजोर कर दिया है. आज एक नागा राजनीतिक इकाई 27 गुटों में बंट चुकी है, और भारत सरकार इन सभी से अलग-अलग बातचीत कर रही है.
शारीरिक रूप से कमजोर होने के बावजूद, मुइवा दिल्ली की मांगों के आगे झुकने से इनकार करते हैं. वह कहते हैं, “आप हमारे साथ अपने खेल खेलना चाहते हैं? चाहे जो भी हो, हम अपनी ज़मीन पर खड़े रहेंगे. हम आपके सामने आत्मसमर्पण करने नहीं आएँगे.” लेखक का मानना है कि नागाओं के उलझे हुए इतिहास का राजनीतिक समाधान सोमदल की सड़क की तरह ही है - टूटा हुआ और क्षतिग्रस्त. नागा पिछले 28 वर्षों से चल रही अंतहीन बातचीत के दौरान बहुत धैर्यवान रहे हैं. शायद उनके पास कोई और विकल्प नहीं है. इस राजनीतिक प्रक्रिया को भी समय-समय पर मरम्मत और उपचार की आवश्यकता है.
महिला क्रिकेट में जीत | विश्लेषण
प्रेम पणिक्कर : 1983, फिर से
इस बार, महिलाएँ कहानी फिर से लिख रही हैं -- और ये पढ़ने में बहुत अच्छा लगता है
बड़े क्रिकेट टूर्नामेंट के फ़ाइनल के बारे में एक मज़ेदार बात है - वे शायद ही कभी खेल को अपने सबसे अच्छे रूप में दिखाते हैं. ज़्यादातर बार, बड़े मौक़े का दबाव साफ़ महसूस होता है और खेल घबराहट भरा होता है.
आज भारत और दक्षिण अफ़्रीका के बीच का फ़ाइनल भी कुछ अलग नहीं था. दोनों टीमों ने कई बार अपनी क्लास दिखाई और कई बार साधारण भी रहीं, लेकिन जब टुकड़ों को जोड़कर एक पर्फ़ेक्ट तस्वीर बनाने की बात आती है, तो दोनों ही निशान से चूक गईं. फ़र्क़ ये था कि भारत ने अहम मौक़ों पर, ख़ासकर मैच के दूसरे हाफ़ में, दक्षिण अफ़्रीका से बेहतर प्रदर्शन किया.
शेफ़ाली वर्मा की प्रभावशाली, और ज़्यादातर उनके अंदाज़ के विपरीत, पारी पर बहुत कुछ लिखा जाएगा और गेंद के साथ उनके गेम-ब्रेकिंग, अप्रत्याशित हस्तक्षेप पर भी; श्री चरणी की स्पिन गेंदबाज़ी की मास्टरक्लास पर; हरमनप्रीत के उस अचानक आए शानदार विचार पर जब उन्होंने खेल के एक अहम मोड़ पर शेफ़ाली वर्मा को गेंद दी; दीप्ति शर्मा की क्लास पर; और मैदान में भारत की बिजली जैसी फ़ुर्ती पर. उतना ही, जिस तरह से दक्षिण अफ़्रीका ने पहली पारी के दूसरे हाफ़ में भारत के बल्लेबाज़ों पर लगाम लगाई; लॉरा वूल्वार्ट की शानदार स्किल पर, जिनका सेमीफ़ाइनल और फ़ाइनल में लगातार शतक लगाना एक बेमिसाल उपलब्धि है... और ये सारी स्याही पूरी तरह से हक़दार होगी.
लेकिन जैसा कि मैं इसे खेल के आख़िरी पलों में लिख रहा हूँ, जब दीप्ति शर्मा ने क्लो ट्रायोन को आउट किया, ठीक दो गेंद बाद जब उन्होंने अमनजोत कौर के साथ मिलकर वूल्वार्ट के विद्रोह को समाप्त किया, मैं बड़ी तस्वीर के बारे में सोचता रहा - कि कैसे ये जीत वो पल है जब भारतीय महिला क्रिकेट “होनहार” होना बंद कर “शक्तिशाली” बनना शुरू कर रहा है. वो पल जब दशकों का वज़न उठाने वाली महिलाओं की एक टीम, जिसका नेतृत्व एक ऐसी कप्तान कर रही है जिसने 2017 में भारत में इस खेल को पहली बार जगाया था, ने वही किया जो कपिल देव के लोगों ने 1983 में किया था - एक ऐसा खेल जो किसी और का था, उसे लेकर अपना बना लिया.
ये 1983 का पल फिर से है - बस, ये ज़्यादा तेज़, ज़्यादा बुलंद, और ज़्यादा समावेशी है. क्योंकि इस बार, ये हर उस लड़की का है जिसे कभी कहा गया था कि क्रिकेट उसके लिए नहीं है. हर उस माता-पिता का जिन्होंने चुपचाप चिंता की है कि इस खेल को खेलने की महत्वाकांक्षा उनकी बेटियों के लिए अशोभनीय है.
ये जीत उम्मीद है, उस संरक्षणवादी शब्दावली को मिटा देगी जो लंबे समय से महिला खेल के इर्द-गिर्द रही है - “क्षमता,” “समर्थन,” “प्रोत्साहन.” वो भाषा बदलेगी; ये सहानुभूति से वर्चस्व की ओर जाएगी, “देखो वे कितनी दूर आ गई हैं” से “वे कितनी दूर जा सकती हैं?” तक. इस तरह की एक जीत विश्वास प्रणालियों को फिर से लिख सकती है.
ये जीत एक क्रांति की चिंगारी जलाएगी, और ये छोटे शहरों के मैदानों और स्कूल के आंगनों में होगी, जहाँ भीतरी इलाक़ों की लड़कियाँ हाथों में बल्ला और आँखों में अपनेपन की चमक लेकर आने लगेंगी. जीत ऑक्सीजन है: किसी ऐसे व्यक्ति को देखना जो आपके जैसा दिखता है, आपके जैसा बोलता है, और आपके लिए जीतता है, ये आपकी अपनी संभावनाओं की धारणाओं को बदल देता है.
मुझे शक है - उम्मीद है - कि इससे एक सांस्कृतिक बदलाव भी आएगा, उस तरह का जो बदलता है कि एक देश अपनी बेटियों की कल्पना कैसे करता है. भारत की 1983 की जीत आकांक्षा के एक नए युग के साथ हुई - रंगीन टीवी, मध्यवर्गीय महत्वाकांक्षा, उपभोक्तावादी भविष्य के पहले संकेत. ये, 2025 की, कुछ सूक्ष्म लेकिन गहरे संकेत दे सकती है: एक समाज जो इस धारणा के साथ जीना सीख रहा है कि उसकी महिलाओं में एथलेटिक उत्कृष्टता एक अपवाद नहीं, बल्कि नया सामान्य है.
एक ऐसे देश के लिए जो अभी भी लैंगिक सीमाओं पर बातचीत कर रहा है, क्रिकेट में सबसे बड़ा पुरस्कार उठाती एक महिला टीम की छवि सबसे अच्छे तरीक़े से विध्वंसक है. यह सार्वजनिक स्थानों पर महिलाओं की उपस्थिति को - दौड़ना, गोता लगाना, जश्न मनाना, कमान संभालना - पूरी तरह से सामान्य बनाता है. यह युवा लड़कियों को बताता है कि गौरव ज़ोरदार, पसीने से तर और बिना किसी शक के उनका हो सकता है.
और उनके माता-पिता के लिए, जो संभावनाओं के द्वारपाल हैं, यह सम्मान के नक़्शे को फिर से बनाता है. हमारी युवा लड़कियों के लिए क्रिकेट खेलना, अब परंपरा के ख़िलाफ़ विद्रोह जैसा नहीं लगता. यह एक भविष्य जैसा लगता है.
आर्थिक परिवर्तन भी उतना ही गहरा होगा. महिला प्रीमियर लीग, जो अभी भी अपने पैर जमा रही है, को और अधिक समर्थक मिलेंगे जो इसमें शामिल होना चाहेंगे. ब्रॉडकास्टर अधिकारों के लिए प्रतिस्पर्धा करेंगे और विज्ञापनदाता जुड़ाव के लिए होड़ करेंगे. पैसा शोर का पीछा करेगा, जैसा कि हमेशा होता है, और बीसीसीआई और राज्य इकाइयों को अक्सर अपनी इच्छाओं के विरुद्ध, टोकन अकादमियों और प्रेस रिलीज़ के बजाय वास्तविक बुनियादी ढाँचे का निर्माण करने के लिए मजबूर होना पड़ेगा.
समान वेतन, जो पहले से ही काग़ज़ पर एक नीति है, अब अमल में आना शुरू हो जाएगा. पुरस्कार राशि, एंडोर्समेंट, और ब्रांड डील टोकन इशारों के रूप में नहीं, बल्कि सम्मान के निशान के रूप में बरसेंगे. ये खिलाड़ी - हरमनप्रीत कौर, स्मृति मंधाना, जेमिमा रोड्रिग्स, ऋचा घोष, और उनके साथी - अब “प्रेरणा” नहीं रहेंगे; वे पेशेवर होंगे जिनकी उत्कृष्टता बाज़ार दर अर्जित करती है. वे “महिला क्रिकेट” के सितारे नहीं, बल्कि भारतीय क्रिकेट के सितारे होंगे, बस.
शीर्ष पर सफलता हमेशा आधार को ऊपर खींचती है. एक विश्व ख़िताब घरेलू संरचना की कमज़ोरी को उजागर करेगा और सुधार के लिए मजबूर करेगा. महिला खेल को अपनी रणजी ट्रॉफ़ी, अपने मल्टी-डे टूर्नामेंट, अपना उचित कैलेंडर चाहिए. राज्य संघ अब “रुचि की कमी” का बहाना नहीं बना पाएंगे, जब लाखों लोगों ने अभी-अभी एक फ़ाइनल देखा है (हॉटस्टार पर 30+ करोड़ जब हरमन ने खेल ख़त्म करने के लिए हवा से गेंद, और इतिहास, को पकड़ा). ब्रॉडकास्टरों को प्राइम-टाइम स्लॉट, विश्लेषण और प्रोडक्शन के साथ इस भूख को पूरा करना होगा जो महिला क्रिकेट को अपने आप में एक खेल के रूप में मानता है, न कि जब पुरुष नहीं खेल रहे हों तो भरने वाली सामग्री के रूप में.
ये सब अच्छा, ज़रूरी और बहुत पहले हो जाना चाहिए था. लेकिन संरचनात्मक और वित्तीय बदलावों से परे, यह जीत कल्पना के परिवर्तन की चिंगारी जला सकती है. इस परिमाण की एक जीत सामूहिक स्मृति को फिर से लिखेगी. भारतीय क्रिकेट की पौराणिक कथाओं में - अब तक 1983 और 2011 का वर्चस्व था - एक नई प्रविष्टि मिलेगी: 2025. यह देवताओं की सभा में शामिल होगा.
डीवाई पाटिल स्टेडियम में इस फ़ाइनल के लिए, कई लोग रोहित और विराट की टी-शर्ट पहनकर आए थे. यह जीत मुझे एक ऐसी दुनिया की कल्पना करने की अनुमति देती है जहाँ दर्शक पुरुषों के खेल के लिए स्मृति/हरमन/जेमी/शेफ़ाली की टी-शर्ट पहनकर आते हैं.
लेकिन इस जीत से पैदा होने वाली सभी जीतों में से, सबसे बड़ी यह होगी: कहीं, किसी भी स्टेडियम से दूर, एक दस साल की लड़की हाथ में प्लास्टिक का बल्ला लेकर आईने के सामने खड़ी होगी, और उस शॉट की नक़ल करेगी जिससे वह लगभग 15 साल बाद विश्व कप जीतेगी. और उसे यह नहीं कहा जाएगा कि क्रिकेट लड़कों का खेल है. उसे यह नहीं कहा जाएगा कि महत्वाकांक्षा को माफ़ी माँगने की ज़रूरत है. वह आज के इन चैंपियंस में, अपने भविष्य का एक पूर्वाभास देखेगी - आत्मविश्वासी, दृश्यमान, निडर.
यही वो है जो यह विश्व कप कर सकता है. यह भारतीय क्रिकेट को - सिर्फ़ महिला क्रिकेट को नहीं - उसका अगला बड़ा मोड़ दे सकता है, और भारतीय समाज को उसका अगला बड़ा आईना. अगर 1983 के पुरुषों ने भारत को सपने देखने का एक कारण दिया, तो 2025 की महिलाएँ उसे कुछ दुर्लभ दे सकती हैं - उस सपने को दिन के उजाले में जीने का साहस, एक खुले आसमान के नीचे जो आख़िरकार उनका है.
प्रेम पणिक्कर खेल और राजनीति पर जब लिखते हैं तब जबरदस्त लिखते हैं. सब्सटैक पर उन्हें यहां पढ़ा जा सकता है.
कैसे छोटे शहरों की लड़कियाँ भारत की क्रिकेट की कहानी फिर से लिख रही हैं
सुप्रिता दास ने हिंदू में विश्वविजेता भारतीय टीम की सदस्यों की पृष्ठभूमि और सफरनामे पर लिखा है. लेखक एक स्वतंत्र खेल मीडिया पेशेवर और पुरस्कार विजेता पुस्तक “फ़्री हिट: द स्टोरी ऑफ़ वीमेन्स क्रिकेट इन इंडिया” के लेखक हैं.
20 जुलाई, 2017 को, हरमनप्रीत कौर ने वो पारी खेली जो यक़ीनन, किसी भारतीय महिला क्रिकेटर द्वारा खेली गई सबसे महत्वपूर्ण पारी थी. आईसीसी महिला वनडे विश्व कप के सेमीफ़ाइनल में मज़बूत ऑस्ट्रेलिया के ख़िलाफ़ 115 गेंदों पर बनाए उनके दिलेर 171 रन वो पारी बन गए, जिसने भारतीय दर्शकों को “महिला क्रिकेट” को वैसे देखने पर मजबूर किया जैसा वो असल में है: क्रिकेट.
डर्बी, इंग्लैंड से लगभग 5,000 मील दूर, जहाँ कौर गत चैंपियन के गेंदबाज़ी आक्रमण को ध्वस्त कर रही थीं, 15 साल की उमा छेत्री को अपना मक़सद मिल गया. असम के गोलाघाट ज़िले में अपने स्थानीय क्लब में, छेत्री को सिर्फ़ स्कोर सुनकर ही रोंगटे खड़े हो गए थे. स्कूल, अपने माता-पिता के साथ खेती के काम, और क्रिकेट प्रैक्टिस के बीच तालमेल बिठाते हुए, वह बार-बार हाइलाइट्स देखती थीं. उन्होंने अपनी टीम के साथियों से ऐलान किया, “एक दिन, मैं ऐसे ही बल्लेबाज़ी करना चाहती हूँ. एक दिन, मैं हरमनप्रीत कौर के साथ खेलना चाहती हूँ.” सात साल बाद, 7 जुलाई, 2024 को, छेत्री पूर्वोत्तर से भारत में डेब्यू करने वाली पहली महिला क्रिकेटर बनीं. नीली टोपी उन्हें ख़ुद कप्तान कौर ने सौंपी थी.
छेत्री की तरह ही, क्रांति गौड़ की कहानी भी क्रिकेट के कम मशहूर इलाक़ों में कच्ची प्रतिभा के उभरने की है. 2017 में, मध्य प्रदेश के खजुराहो के पास घुवारा गाँव में, 14 साल की गौड़ अपनी ज़िला टीम को एक अंडर-19 टूर्नामेंट के फ़ाइनल तक ले जा रही थीं. स्थानीय कोच राजीव बिलथरे उनकी “रफ़्तार से प्रभावित हुए जो केवल भगवान का तोहफ़ा हो सकती है”. वो चिंगारी एक प्रभावशाली स्पेल में बदल गई, जहाँ उन्होंने अपने सिर्फ़ चौथे अंतरराष्ट्रीय मैच में छह विकेट लिए, और इस जुलाई में भारत को इंग्लैंड के ख़िलाफ़ एक दुर्लभ ‘अवे’ सीरीज़ जीत दिलाई.
आंध्र प्रदेश के कडप्पा ज़िले की एन. श्री चरणी के लिए क्रिकेट दूर-दूर तक एक विकल्प नहीं था, जो अपने मंदिरों और करम डोसा के लिए सबसे ज़्यादा जाना जाता है. उनके पिता चंद्रशेखर रेड्डी, जो एक थर्मल पावर प्लांट में जूनियर वर्कर हैं, के अनुसार, क्रिकेट एक टीम खेल होने के कारण, एथलेटिक्स, खो-खो, वॉलीबॉल में अच्छी उनकी बेटी पर “ध्यान नहीं दिया” जाएगा. सिवाय इसके, क़िस्मत ने उस किशोरी के लिए कुछ और ही योजना बना रखी थी जो सिर्फ़ “खेलना, खेलना, खेलना” चाहती थी.
इस साल के महिला प्रीमियर लीग (WPL) में, 21 साल की श्री चरणी ने दिल्ली कैपिटल्स के लिए सिर्फ़ दो मैचों में चार विकेट लिए. यह भारत के कोच अमोल मजूमदार के लिए उन्हें “टूर्नामेंट की खोज” कहने के लिए काफ़ी था. महीनों के भीतर, उन्हें तेज़ी से अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट में लाया गया. इंग्लैंड के ख़िलाफ़ भारत की T20 सीरीज़ जीत में 10 विकेट के साथ - जहाँ उन्हें प्लेयर ऑफ़ द सीरीज़ चुना गया था - यह कहना सुरक्षित होगा कि श्री चरणी के पिता को अपने शब्द वापस लेने पड़े, और वो भी ख़ुशी-ख़ुशी.
छेत्री, गौड़ और श्री चरणी भारत के रंगों में सिर्फ़ नए खिलाड़ी नहीं हैं; वे छोटे शहर के सपनों को सबसे बड़े मंच पर ले जाती हैं - आईसीसी महिला वनडे विश्व कप, जो 30 सितंबर से शुरू हो रहा है. भारत की 15-सदस्यीय टीम में से आधे से ज़्यादा अपना विश्व कप डेब्यू करेंगी. वे एक बड़े सांस्कृतिक बदलाव के संकेत हैं: क्रिकेट का अपने महानगरीय साँचे से और भी बाहर निकलना, परिवारों और समुदायों का अपनी बेटियों की क्षमताओं के बारे में अपने विचारों को फिर से समायोजित करना, और भारत के टियर 2 और 3 शहरों की युवा महिलाओं का बड़े सपने देखना.
कई पहली बार
भारतीय महिलाएँ अपनी पहली विश्व कप ट्रॉफ़ी पर नज़र गड़ाए हुए हैं (सिर्फ़ अंडर-19 लड़कियों ने दो बार जीता है, सीनियर टीम ने नहीं).
ऑस्ट्रेलिया गत चैंपियन और वनडे विश्व कप में सबसे सफल टीम है - रिकॉर्ड सात जीतों के साथ. ऑस्ट्रेलिया के अलावा, सिर्फ़ इंग्लैंड (4) और न्यूज़ीलैंड (1) ने ही विश्व कप जीता है. भारत (गुवाहाटी, इंदौर, विज़ाग, नवी मुंबई) मेज़बान है, लेकिन श्रीलंका (कोलंबो) भी एक आयोजन स्थल है क्योंकि पाकिस्तान भारतीय ज़मीन पर प्रतिस्पर्धा नहीं कर सकता. (पाकिस्तान के सभी खेल कोलंबो में खेले जाएंगे).
इस साल, पहली बार, एक सर्व-महिला मैच अधिकारी पैनल (14 अंपायर और 4 मैच रेफ़री) होगा.
विकास का दौर
इसे पूर्व भारतीय कप्तान झूलन गोस्वामी से बेहतर कोई नहीं समझता, जिनकी 90 के दशक के अंत में चकदा से कोलकाता तक की अपनी यात्रा - सिर्फ़ एक मैदान तक पहुँचने के लिए ट्रेन से हर तरफ़ दो घंटे - उनके विकेटों की संख्या जितनी ही लीजेंड्री है. वह कहती हैं, “हम एक परिवर्तन से गुज़र रहे राष्ट्र हैं, और आज आप महिलाओं को उन क्षेत्रों में देखेंगे जो 10 साल पहले अनदेखे और अनसुने थे.” “आबादी युवा है, और हर लड़की अपनी ज़िंदगी के साथ कुछ सार्थक करना चाहती है. क्रिकेट सिर्फ़ एक और माध्यम है. यह खेल हमेशा से लोकप्रिय रहा है, और बहुत गर्व महसूस कराता है. अब, आख़िरकार, इसने लड़कियों को वित्तीय सुरक्षा देना शुरू कर दिया है.”
गोस्वामी और उनकी लंबे समय की टीममेट और रिकॉर्ड तोड़ने में पार्टनर, मिताली राज, ने भारत में महिला क्रिकेट की कहानी के पूरे चक्र को जिया है. उन्होंने अपने करियर की शुरुआत तब की जब महिला खेल भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड (BCCI) के दायरे में नहीं आया था, और खिलाड़ी लगभग हमेशा कंगाल रहते थे. “हम भारत के लिए खेलने के लिए अपने परिवार की जेबें ख़ाली कर रहे थे,” राज याद करती हैं, जो महिला अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट में (सभी प्रारूपों में) सबसे ज़्यादा रन बनाने वाली खिलाड़ी हैं. “हम दौरे के बाद दौरे, सब कुछ ख़ुद ही आयोजित करते थे, सिर्फ़ खेल के प्रति हमारे जुनून के कारण.”
जब राज की अगुवाई वाली टीम 2005 में विश्व कप उपविजेता के रूप में दक्षिण अफ़्रीका से लौटी, तो यह गुमनामी में था, ठीक वैसे ही जैसे उनके करियर का ज़्यादातर हिस्सा रहा था. कुछ दिनों बाद, प्रत्येक खिलाड़ी को टीम प्रायोजक सहारा से महज़ ₹9,000 का चेक मिला. इसके ठीक विपरीत, जब भारतीय पुरुष टीम 2003 में उपविजेता के रूप में लौटी, तो उन्हें पुणे में सहारा की एम्बी वैली में आलीशान अपार्टमेंट दिए गए, इसके अलावा कई स्रोतों से चेक भी मिले.
2017 का विश्व कप, जहाँ सभी मैच लाइव प्रसारित किए गए, और भारत उपविजेता रहा, भारतीय महिला क्रिकेट के ‘पहले’ और ‘बाद’ के युगों के बीच स्पष्ट विभाजन रेखा को चिह्नित करता है. अंतर्राष्ट्रीय क्रिकेट परिषद के डिजिटल और सोशल मीडिया प्लेटफ़ॉर्मों ने रिकॉर्ड 100 मिलियन व्यूज़ बटोरे, जिससे महिला खेल को जिस कवरेज की सख़्त ज़रूरत थी, वह दोगुनी हो गई. “एक बार भी हमें यह महसूस नहीं कराया गया कि हम फ़ाइनल हार गए हैं,” राज कहती हैं, उस समय के बारे में जब वे इंग्लैंड से लौटी थीं.
तब तक, उन्होंने और गोस्वामी ने अपना जीवन राष्ट्र के लिए सम्मान लाने में बिताया था, सब कुछ गुमनामी में. “मैं अपनी ज़िंदगी में पहले कभी इतनी व्यस्त और इतनी माँग में नहीं रही,” गोस्वामी कहती हैं, आने वाले महीनों में अनगिनत इंटरव्यू, स्टूडियो विज़िट, इवेंट्स, शूट और सार्वजनिक उपस्थितियों के बारे में. अगले कुछ साल, 2020 T20 विश्व कप में एक और उपविजेता फ़िनिश के साथ, अभूतपूर्व वृद्धि से चिह्नित थे.
पीढ़ियों के पैटर्न को तोड़ना
लेकिन यह वास्तव में 2023 में WPL था जिसने भारत में महिला क्रिकेट के लिए अवसर के व्याकरण को बदल दिया. संस्थागत रूप से, यह सबसे महत्वपूर्ण बदलाव रहा है, ख़ासकर एक ऐसी प्रणाली में जहाँ घरेलू खिलाड़ी अभी भी औपचारिक अनुबंधों का इंतज़ार करते हैं. और पहली बार, नीली जर्सी वाली महिलाओं को महत्व दिया जा रहा था. बल्लेबाज़ स्मृति मंधाना की रॉयल चैलेंजर्स बेंगलुरु के साथ ₹3.4 करोड़ की डील ने सुर्खियाँ बटोरीं, लेकिन इसका असर और गहरा महसूस किया गया, क्योंकि अनकैप्ड घरेलू खिलाड़ियों ने भी एक ही नीलामी में जीवन बदलने वाली रक़म कमानी शुरू कर दी.
“WPL के बाद, आप आख़िरकार कह सकते हैं, हाँ, क्रिकेट एक पेशा हो सकता है,” राज कहती हैं. “पहले, परिवार क्रिकेट को एक जुआ के रूप में देखते थे, अब वे इसे एक करियर के रूप में देखते हैं.” WPL के अलावा, लगभग सभी भारतीय राज्यों में अब महिलाओं के लिए अपनी T20 लीग हैं, जिसका मतलब है ज़्यादा खेल का समय, टैलेंट स्काउट्स द्वारा देखे जाने के ज़्यादा मौक़े, और बेशक, ज़्यादा पैसा.
लेकिन वेतन कहानी का सिर्फ़ आधा हिस्सा बताते हैं. वित्त से परे, लीग ने इन महिलाओं को कुछ कम ठोस लेकिन ज़्यादा शक्तिशाली दिया है - आत्मविश्वास. वे देखी और सुनी जाना चाहती हैं. छोटे शहरों की लड़कियों के लिए, बाधाएँ हमेशा बड़ी रही हैं - लंबी यात्रा, कम सुविधाएँ, बढ़ी हुई सामाजिक जाँच. लेकिन बेंगलुरु, मुंबई और दिल्ली के टियर 1 स्टेडियमों में खचाखच भरी भीड़ के सामने खेलने का मतलब है कि मौजूदा पीढ़ी दबाव में सिकुड़ती नहीं है, वे फलती-फूलती हैं. खेल के प्रति उनका दृष्टिकोण भी निडर है, अपने पूर्ववर्तियों के घबराए हुए, जोखिम से बचने वाले दृष्टिकोण से बहुत दूर. “लीग ने इस मौजूदा खेप को अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट के लिए तैयार किया है,” वनडे विश्व कप टीम का हिस्सा, ऑलराउंडर जेमिमा रोड्रिग्स कहती हैं. “वे अपना सब कुछ देने के लिए तैयार हैं और ख़ुद को अभिव्यक्त करने से नहीं डरती हैं. इससे कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता कि वे असफल होती हैं, लेकिन भावना और ऊर्जा कुछ और है और यह पूरी टीम पर असर डालती है.”
यह आत्मविश्वास सिर्फ़ एक क्रिकेट की कहानी नहीं है; यह भारत में एक बड़े बदलाव को दर्शाता है. युवा महिलाओं का इंजीनियर, पायलट, पुलिस अधिकारी, सेना कर्मी, उद्यमी बनना - उनकी दृश्यता ही शक्ति का एक रूप बन रही है. सभी रिकॉर्ड्स, अनुबंधों और विश्व कप के सपनों के लिए, इस बदलाव का अर्थ शायद घर पर मिलने वाले शांत पुरस्कारों में सबसे अच्छी तरह समझा जाता है, जहाँ माताएँ पीढ़ियों के पैटर्न को तोड़ने में एक सक्रिय भूमिका निभाती हैं.
माँ सबसे अच्छा जानती है
गोलाघाट में, उमा छेत्री की माँ जानती है कि त्याग का क्या मतलब है. कम उम्र में शादी हो गई, उनकी अपनी स्कूली शिक्षा अधूरी रह गई, और जीवन छह बच्चों की देखभाल और पालन-पोषण का एक चक्र बन गया. इन सबके बीच, वह अपनी इकलौती बेटी के असंभव से लगने वाले क्रिकेट के सपने के पीछे मज़बूती से खड़ी रहीं. आज, जब छेत्री अपनी माँ के लिए एक नई साड़ी लेकर घर लौटती है, तो वह चुपके से आँसू बहाती है. सिर्फ़ ख़ुशी से नहीं, बल्कि इस गर्व से भी कि उसकी बेटी का भाग्य उसके जैसा नहीं होगा.
कडप्पा में, श्री चरणी की माँ के पास अपनी बेटी से कहने के लिए सिर्फ़ एक ही बात है: “चिन्ना, तुम जो करना चाहती हो करो, मैं तुम्हारे साथ हूँ.” उस अटूट विश्वास को उसका इनाम मिल गया है. जब श्री चरणी जुलाई में इंग्लैंड दौरे से वापस आई, तो उसने अपनी माँ को सोने की एक अंगूठी उपहार में दी - एक याद कि उसका विश्वास कभी ग़लत नहीं था.
क्रांति गौड़ के परिवार के लिए, त्याग शायद ज़्यादा बड़े थे. गेंदबाज़ के पिता की पुलिस कांस्टेबल की नौकरी छूट जाने के बाद, उसकी माँ ने अपने गहने बेच दिए ताकि उनकी बेटी खेलना जारी रख सके. इस जुलाई में, इंग्लैंड में गौड़ के शानदार प्रदर्शन के बाद, उसके गाँव ने उसके नाम पर बधाई के पोस्टर लगाकर जश्न मनाया. एक दिन, कुछ अजनबी इन पोस्टरों का पीछा करते हुए उसके घर तक पहुँच गए; गौड़ को वहाँ न पाकर, उन्होंने उसकी माँ के साथ पोज़ दिया जो अब अपनी बेटी की प्रसिद्धि की चमक में नहा रही है.
इन माताओं के लिए, यह गर्व व्यक्तिगत है. लेकिन देश के लिए, इसका अर्थ बड़ा है. बेटियाँ अब अपवाद नहीं हैं; वे रोल मॉडल हैं. और जैसे-जैसे भारत एक घरेलू विश्व कप की ओर बढ़ रहा है, छोटे शहरों और गाँवों की ये कहानियाँ हमें याद दिलाती हैं कि महिला क्रिकेट सिर्फ़ एक खेल आंदोलन नहीं है. यह एक गहरे सामाजिक परिवर्तन का हिस्सा है, परिवारों का अपनी बेटियों के लिए जो संभव है उसे फिर से लिखने का. और भारत का ख़ुद धीरे-धीरे, लेकिन निश्चित रूप से, उनके सपनों और महत्वाकांक्षाओं के साथ क़दम मिला रहा है.
सपने जो कभी धूल भरे गाँव के मैदानों में ख़त्म हो जाते थे, अब दुनिया के सर्वश्रेष्ठ स्टेडियमों और सबसे बड़ी प्रतियोगिताओं तक फैले हुए हैं. और उस चाप में एक बदलते भारत की कहानी निहित है - जहाँ युवा महिलाएँ अब सपने देखने के लिए अनुमति का इंतज़ार नहीं करतीं, बल्कि स्पॉटलाइट को अपना होने का दावा करती हैं.
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