05/05/2025 : फौजी हिरासत में मौत | पाकिस्तानी पत्नियों का दु:ख | सरहद पर गोलीबारी के सिलसिले | भारत-पाक के बीच का हाइफन | 50% सीमा लांघ सकता है आरक्षण | नक्सलवाद पर बेला भाटिया | वारेन बफे के बाद |
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निधीश त्यागी, साथ में राजेश चतुर्वेदी, मज़्कूर आलम, गौरव नौड़ियाल
आज की सुर्खियां :
अब्दाली और अबाबील मिसाइलों का परीक्षण
भारत-पाक सीमा पर पाकिस्तानी रेंजर गिरफ्तार
आकार पटेल : भारत पाकिस्तान के साथ हाइफन को अलग भी करना चाहता है, और नहीं भी
बहराइच की दरगाह पर सदियों पुराने मेले पर रोक
1984 दंगों पर कांग्रेस की गलतियों की जिम्मेदारी राहुल गांधी ने ली
ओडिशा में दसवीं की परीक्षा में जुड़वां भाइयों ने समान अंक के साथ टॉप किया
लक्ष्य था प्रतिवर्ष 13 लाख बंधुआ मजदूरों का पुनर्वास, हुए केवल 468
तेल अवीव हवाई अड्डे पर हूथी मिसाइल हमला
पोप बनकर आभासी दुनिया में टहल रहे हैं ट्रम्प
सिंगापुर के मतदाताओं ने स्थिरता को दी तरजीह
एसटीएफ ने नीट और एमबीबीएस में गोरखधंधा करने वाले गैंग को पकड़ा
पहलगाम आतंकी हमला
फौज ने उसे हिरासत में लिया था, फिर लाश मिली
बांदीपोरा में पुलिस हिरासत में कथित मौत के बमुश्किल एक हफ्ते बाद, कुलगाम जिले के 23 वर्षीय युवक इम्तियाज अहमद मागरे का शव रविवार (4 मई) को दक्षिण कश्मीर की विश्वा नदी से बरामद किया गया. बताया जाता है कि उसे पिछले हफ्ते सेना ने हिरासत में लिया था.
नेशनल कॉन्फ्रेंस ने इस मौत की न्यायिक जांच की मांग की है. सेना ने आधिकारिक तौर पर आरोपों पर प्रतिक्रिया नहीं दी है, लेकिन स्थानीय पत्रकारों के एक व्हाट्सएप ग्रुप में प्रसारित सेना के कथित बयान में कहा गया है कि पीड़ित ने सुरक्षा बलों को कथित ठिकाने की ओर ले जाते समय नदी में कूदकर आत्महत्या कर ली. आत्महत्या का एक कथित 38 सेकंड का ड्रोन वीडियो भी एक्स पर लीक हुआ, जिसकी प्रामाणिकता सत्यापित नहीं है.
नेशनल कान्फ्रेंस की वरिष्ठ नेता सकीना इटू ने रविवार शाम परिवार से मुलाकात की और कहा कि मागरे को पिछले हफ्ते हिरासत में लिया गया था. सेना के कथित बयान में स्वीकार किया गया है कि मागरे उनकी हिरासत में था और उसने दो पाकिस्तानी आतंकवादियों की मौजूदगी वाले ठिकाने की जानकारी होने की बात कबूल की थी. इटू ने मागरे की मौत में गड़बड़ी का आरोप लगाया और न्याय का आश्वासन दिया.
कुलगाम में मागरे का जनाजा.
पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी अध्यक्ष महबूबा मुफ्ती ने घटना की निष्पक्ष जांच की मांग करते हुए कहा कि यह "गंभीर आरोपों" और "गहरे चिंताजनक" सवालों को उठाती है. उन्होंने इसे पहलगाम हमले के बाद शांति भंग करने, पर्यटन को बाधित करने और सांप्रदायिक सद्भाव को कमजोर करने का प्रयास बताया. यह घटना बांदीपोरा में एक व्यक्ति की कथित हिरासत में मौत के कुछ दिनों बाद हुई है, जिसके बारे में पुलिस का कहना है कि वह मुठभेड़ में मारा गया एक आतंकी सहयोगी था.
सीज फायर का कई जगह उल्लंघन, लोगों में फिक़्र
पहलगाम आतंकी हमले के बाद जम्मू-कश्मीर में नियंत्रण रेखा पर फिर से गोलियों की आवाज गूंजने लगी है. उत्तरी कश्मीर के बारामूला जिले के उरी निवासी मुनीर हुसैन 13 नवंबर, 2020 के उस भयानक दिन को याद करते हैं, जब पाकिस्तानी सैनिकों द्वारा दागा गया एक भारी मोर्टार शेल उनके गांव की राशन की दुकान पर गिरा था, जिसमें दो ग्रामीणों की मौत हो गई थी और उनके भाई नादिर हुसैन के दोनों पैर काटने पड़े थे. हालिया गोलीबारी ने सीमावर्ती निवासियों में चिंता और भय पैदा कर दिया है.
उरी, जो श्रीनगर से लगभग 100 किमी दूर है, की पूरी सीमा एलओसी से लगती है, जिससे यह किसी भी सैन्य तनाव का केंद्र बन जाता है. अधिकारियों के अनुसार, भारत और पाकिस्तान के सैन्य अभियानों के महानिदेशकों (DGMOs) के बीच हॉटलाइन पर बातचीत के बावजूद, पाकिस्तान ने कश्मीर घाटी के कुपवाड़ा और उरी तथा जम्मू के अखनूर सेक्टर में एलओसी पर लगातार गोलीबारी की है. भारतीय सेना ने जवाबी कार्रवाई की है.
हालांकि अभी तक किसी नागरिक की मौत या घायल होने की खबर नहीं है, लेकिन झड़पों ने सीमावर्ती निवासियों की चिंताओं को बढ़ा दिया है, जिन्हें अक्सर भारत और पाकिस्तान के बीच किसी भी सैन्य तनाव की भारी कीमत चुकानी पड़ती है. एलओसी के करीब के गांवों में पहले भी पाकिस्तानी गोलाबारी से मौतें और तबाही हुई है, जिससे हजारों निवासियों को अपने घर और खेत छोड़ने पड़े हैं. उरी के निवासी बताते हैं कि संघर्ष विराम उल्लंघन के दौरान स्कूलों को अस्थायी आश्रयों में बदल दिया जाता है, जिससे उनके बच्चों की शिक्षा प्रभावित होती है.
2021 में, भारत और पाकिस्तान एक संयुक्त बयान के माध्यम से संघर्ष विराम समझौते को बनाए रखने पर सहमत हुए थे. सीमावर्ती निवासियों को शांति का सीधा लाभ मिला था. बंदूकें शांत होने पर, इन निवासियों ने भरपूर फसल और स्थिर आजीविका के साथ अपने सामाजिक और आर्थिक स्थिति में नाटकीय बदलाव देखा. उरी के पूर्व सरपंच लाल दीन खटाना कहते हैं कि पिछले दो वर्षों में शांति से उनके गांव को फायदा हुआ था, लेकिन अगर तनाव बढ़ता है, तो वे पहले शिकार होंगे.
इंडियन एक्सप्रेस की रिपोर्ट के अनुसार, पिछले 10 दिनों में एलओसी पर पाकिस्तान द्वारा बार-बार संघर्ष विराम उल्लंघन से पता चलता है कि सीमा पार से अकारण गोलीबारी अब पहले की तरह एक या दो सेक्टरों तक सीमित नहीं है, बल्कि एलओसी के साथ कई सेक्टरों में एक साथ हुई है. ये घटनाएं कुपवाड़ा, बारामूला, पुंछ, राजौरी, मेंढर, नौशेरा, सुंदरबनी और अखनूर सेक्टरों में हुई हैं.
उरी उपखंड में भूमिगत बंकरों की कमी ने डर को और गहरा कर दिया है. रिपोर्टों के अनुसार, उरी में 42 बंकर बनाए जा रहे हैं, लेकिन कई गांवों में एक भी सामुदायिक बंकर नहीं है. निवासियों का कहना है कि वे लगातार छोटी हथियारों की गोलीबारी की आवाज सुन रहे हैं, जिससे पुराने डर और अनिश्चितता फिर से जाग गई है. एक निवासी ने गुमनाम रहने की शर्त पर कहा, "हम उम्मीद कर रहे हैं कि बेहतर समझ बनेगी. दोनों देश परमाणु शक्तियां हैं और अगर युद्ध छिड़ गया, तो कोई नहीं बचेगा. हम सबसे पहले मरने वाले होंगे."
सूत्रों का कहना है कि ताजा गोलीबारी छोटे हथियारों से की गई है और तोपखाने तक नहीं बढ़ी है, हालांकि पाकिस्तान किसी भी संभावित वृद्धि के लिए मध्यम तोपखाने की बंदूकें तैयार रख सकता है. भारतीय सैनिक भी किसी भी वृद्धि के लिए चयनित लक्ष्यों और पर्याप्त गोला-बारूद के साथ तैयार हैं. भारत ने अपनी तोपखाने आधुनिकीकरण योजना के तहत एलओसी पर तैनात अधिकतर तोपखाने रेजिमेंटों को 105 मिमी-कैलिबर गन से 155 मिमी-कैलिबर गन में अपग्रेड किया है, जिनकी रेंज और मारक क्षमता बेहतर है.
अब्दाली और अबाबील मिसाइलों का परीक्षण
इंडियन एक्सप्रेस की खबर के अनुसार, पहलगाम आतंकी हमले के बाद भारत के साथ बढ़ते तनाव के बीच पाकिस्तान ने 450 किलोमीटर की रेंज वाली कम दूरी की मिसाइल अब्दाली और मध्यम दूरी का अबाबील का सफलतापूर्वक प्रक्षेपण किया. अब्दाली मिसाइल परीक्षण व्यापक ‘अभ्यास इंडस’ का हिस्सा था. इसका उद्देश्य परिचालन तत्परता सुनिश्चित करना था. वहीं अबाबील 2,200 किलोमीटर की रेंज वाली मध्यम दूरी की मिसाइल है और MIRV से लैस है. इसे भारत की S-400 रक्षा प्रणाली का मुकाबला करने के लिए डिज़ाइन किया गया है.
मुंहतोड़ जवाब देना मेरा दायित्व : राजनाथ सिंह : रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह ने रविवार को कहा कि सशस्त्र बलों के साथ काम करना और भारत पर बुरी नजर डालने वालों को "मुंहतोड़ जवाब" देना उनका दायित्व है. उनकी यह टिप्पणी हाल के पहलगाम आतंकी हमले की पृष्ठभूमि में आई है. दिल्ली में एक कार्यक्रम को संबोधित करते हुए सिंह ने कहा कि लोग प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को अच्छी तरह जानते हैं और उनकी कार्यशैली, दृढ़ संकल्प और जीवन में "जोखिम लेने" के तरीके से परिचित हैं. उन्होंने आश्वासन दिया कि मोदी के नेतृत्व में जो चाहा जाएगा, वह निश्चित रूप से होगा. यह बयान ऐसे समय आया है, जब भारत 22 अप्रैल के पहलगाम आतंकी हमले, जिसमें ज्यादातर पर्यटक मारे गए थे, के सीमा पार संबंधों को देखते हुए पाकिस्तान के खिलाफ जवाबी उपायों पर विचार कर रहा है.
पाकिस्तानी पत्नियों का दर्द
'यह एक जीता-जागता जनाज़ा लगता है'

42 वर्षीय गृहिणी अलीज़ा बेगम ने कभी नहीं सोचा था कि एक सरकारी नोटिस कश्मीर में 12 वर्षों में बसाई उनकी ज़िंदगी को तबाह कर देगा, उन्हें उनके परिवार और घर से जुदा कर देगा. 28 अगस्त 2025 को जब गांव के मुखिया ने पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर (PoK) के मीरपुर की रहने वाली अलीज़ा को नोटिस थमाया, तो उन्हें यह मज़ाक लगा. उनके पास श्रीनगर से 60 किमी उत्तर में बांदीपोरा के अपने गांव नदिहाल को छोड़ने के लिए चार दिन थे, अन्यथा तीन साल की जेल, 3 लाख रुपये का जुर्माना या दोनों का सामना करना पड़ता. आर्टिकल 14 के लिए इस पर तौसीफ अहमद और साजिद रैना ने इस पर विस्तार से रिपोर्टिंग की है.
यह सब तब शुरू हुआ, जब दो दिन पहले आतंकवादियों ने घाटी के लोकप्रिय पर्यटन स्थल पहलगाम में 26 लोगों की हत्या कर दी. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सरकार ने इसके लिए पाकिस्तान को दोषी ठहराया और तब से जल संधि निलंबित कर दी, पंजाब में मुख्य अटारी सीमा बंद कर दी, पाकिस्तानी नागरिकों के भारत आने पर प्रतिबंध लगा दिया और भारत में रह रहे लोगों को निष्कासित करने का आदेश दिया.
अलीज़ा ने PoK में रफीक अहमद से शादी की थी और 2010 की पुनर्वास नीति के तहत पूर्व कश्मीरी उग्रवादी रफीक के साथ कश्मीर आई थीं. यह नीति उन उग्रवादियों के लिए थी, जो 1989 और 2009 के बीच PoK चले गए थे, लेकिन हिंसा छोड़ अपने परिवारों के साथ लौटना चाहते थे. सरकारी आंकड़ों के अनुसार, 2010 से 377 पूर्व उग्रवादी परिवार के 864 सदस्यों के साथ लौटे थे.
47 वर्षीय अहमद कहते हैं कि उन्होंने एक दशक पहले उग्रवाद छोड़ दिया था और गांव में साधारण जीवन जी रहे थे. उन्होंने एक दुकान खोली और तीन बच्चों का पालन-पोषण किया. अलीज़ा कहती हैं, "हमने यहां अपना जीवन बसाया, पति ने दुकान खोली, मैंने मदद की. अतीत को पीछे छोड़ नई शुरुआत की." नोटिस मिलने के बाद से वह सो नहीं पाई हैं. "सरकार के लिए माँ को बच्चे से अलग करना आसान हो सकता है, लेकिन माँ के लिए यह जीते-जी नरक भोगने जैसा है." अहमद का दर्द छलकता है, "पहलगाम हमले के दोषियों को सज़ा दो, हमें अलग मत करो. हम सब कुछ छोड़कर शांति से जी रहे हैं. यह एक जीता-जागता जनाज़ा लगता है. ऐसा दर्द कौन सह सकता है?"
मीडिया रिपोर्टों के अनुसार, पहलगाम हमले के बाद पूर्व कश्मीरी आतंकवादियों से शादी करने वाली 60 पाकिस्तानी महिलाओं को अटारी-वाघा सीमा के रास्ते पाकिस्तान भेज दिया गया. इसी प्रक्रिया के दौरान 30 मई को लकवाग्रस्त 80 वर्षीय अब्दुल वहीद भट की बस में ही मौत हो गई.
बांदीपोरा की 39 वर्षीय ज़ाहिदा बेगम भी उन्हीं में से एक हैं, जिन्हें 25 अप्रैल को नोटिस मिला. वह पूर्व उग्रवादी बशीर अहमद नजर की पत्नी हैं और 13 साल से कश्मीर में रह रही हैं. एक कमरे की झोपड़ी में रहती ज़ाहिदा कहती हैं, "मेरे पास आधार कार्ड, राशन कार्ड, वोटर आईडी, डोमिसाइल सब है. पति मज़दूरी करते हैं. हम शांति चाहते हैं, कहीं नहीं जाना चाहते." ज़ाहिदा ने भारत में तीन बार वोट भी डाला है. वह एक साल से कैंसर से जूझ रही हैं. उनकी 16 साल की बेटी मरियम कहती है, "हम यहीं पले-बढ़े हैं. पाकिस्तान में हमें कौन जानता है? हमें क्यों अलग किया जा रहा है?"
इस निष्कासन के फैसले की काफी आलोचना हो रही है. मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला ने कहा कि निर्दोष लोगों को निशाना नहीं बनाना चाहिए. फारूक अब्दुल्ला ने इसे "मानवता के सिद्धांतों के खिलाफ" बताया. महबूबा मुफ्ती ने मानवीय आधार पर सहानुभूति दिखाने की अपील की.
कई परिवारों के लिए अनिश्चितता बनी हुई है. ज़ाहिदा पूछती हैं, "वहां हमारा कोई नहीं है. कश्मीर ही अब हमारा घर है. अगर हमें वापस भेजा गया तो हम कहाँ जाएँगे?" इन सवालों का फिलहाल कोई जवाब नहीं है, बस दर्द और बिछड़ने का डर है.
भारत-पाक सीमा पर पाकिस्तानी रेंजर गिरफ्तार : सूत्रों के हवाले से मिली खबर के अनुसार, भारत-पाकिस्तान बॉर्डर पर सीमा सुरक्षा बल (बीएसएफ) ने राजस्थान के श्रीगंगानगर के पास भारतीय क्षेत्र में घुसपैठ करने की कोशिश कर रहे एक पाकिस्तानी रेंजर को गिरफ्तार किया. ग्रेटर कश्मीर के अनुसार, प्रारंभिक रिपोर्टों से पता चलता है कि वह व्यक्ति निहत्था था और उसने गिरफ्तारी का विरोध नहीं किया. गिरफ्तार रेंजर से फिलहाल पूछताछ की जा रही है.
विश्लेषण
आकार पटेल : भारत पाकिस्तान के साथ हाइफन को अलग भी करना चाहता है, और नहीं भी
1990 के दशक से लेकर हाल तक, भारत ने 'डि-हाइफनेशन' नामक अवधारणा पर जोर दिया है. हाइफन से यहां तात्पर्य 'इंडो-पाक' शब्द में प्रयुक्त हाइफन से था, जिस तरह दुनिया दक्षिण एशिया को देखती थी. बाहरी दुनिया में दोनों देशों को एक-दूसरे के साये के बिना नहीं देखा जाता था.
क्लिंटन प्रशासन की एक अधिकारी रॉबिन राफेल जैसे भारत आने वाले अमेरिकी राजनयिक, भारत के दौरे पर आते समय संबंधों में 'संतुलन' बनाने के लिए पाकिस्तान जाना सुनिश्चित करते थे. राष्ट्रपति क्लिंटन स्वयं जब मार्च 2000 में भारत आए थे, तो वापस जाते समय इस्लामाबाद को यह आश्वासन देने के लिए कि उसे भुलाया नहीं गया है, कुछ घंटों के लिए पाकिस्तान भी रुके थे.
भारत हाइफनेशन से चिढ़ता था, क्योंकि वह खुद को, वाजिब तरीके से ही, एक बड़ी ताकत, दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र और कई मायनों में पश्चिम के समान मानता था, जबकि इसके विपरीत हमारा पड़ोसी आतंकवाद निर्यात करने वाला, विफल राज्य था. पर दूसरे देश हमेशा इसे इस तरह नहीं देखते थे. दुनिया इंडो-पाक के हाइफनेशन पर टिकी हुई थी, विशेष रूप से 1998 में जब अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में भारत ने मई के बीच में परमाणु परीक्षण किए और फिर नवाज़ शरीफ के नेतृत्व में पाकिस्तान ने भी 28 मई को ऐसा ही किया. दुनिया अस्थिरता और लापरवाही को लेकर चिंतित थी और यह चिंता 1999 के कारगिल युद्ध के साथ और बढ़ गई, जो आधिकारिक तौर पर युद्ध नहीं था — क्योंकि किसी भी देश ने युद्ध की घोषणा नहीं की थी — हालांकि 1,000 से अधिक सैनिक मारे गए थे.
पाकिस्तान और भारत ने पारंपरिक तरीके से तोपखाने और वायु सेना के साथ लड़ाई लड़ी, जिसमें अनकही समझ यह थी कि परमाणु युद्ध तक मामला बढ़ाया नहीं जाएगा. यह पहला मौका था, जब दुनिया में परमाणु शक्ति संपन्न राज्यों के बीच ऐसा संघर्ष देखा गया था. दोनों पक्षों के मीडिया और जनता को उस तरह के उन्माद के साथ लामबंद किया गया था, जिससे हम परिचित हैं. दुनिया हैरान थी और क्लिंटन ने दखल किया और पाकिस्तान को कारगिल से अपनी सेनाओं को वापस लेने के लिए मजबूर किया.
इसके बाद दो चीजें हुईं, जिसने हाइफन हटा दिया. पहला था 11 सितंबर 2001 का हमला, जिसने वर्ल्ड ट्रेड सेंटर के टावरों को गिरा दिया, जिससे अमेरिका ने आतंकवाद के खिलाफ युद्ध की घोषणा की. तालिबान नियंत्रित अफगानिस्तान पर अमेरिकी आक्रमण के लिए कराची की जरूरत थी और लगभग सभी ईंधन, गोला-बारूद और अतिरिक्त सामग्री जिसकी अमेरिकी/नाटो सैन्य बलों को जरूरी थी, पाकिस्तान के माध्यम से भेजी गई थी, जिसकी कीमत अदा की गई. 1979 में अफगानिस्तान पर सोवियत आक्रमण के बाद जनरल जिया-उल-हक की तरह, जनरल परवेज मुशर्रफ अचानक खुद को स्वीकार्य पाने लगे और नवाज़ शरीफ के खिलाफ उनके तख्तापलट को नज़रअंदाज़ कर दिया गया.
भारत सरकार शुरू में चिंतित, नाराज और शायद वैश्विक मंच पर मुशर्रफ को मिले सारे ध्यान से ईर्ष्या भी करती थी, लेकिन वाजपेयी ने समझदारी के साथ इस रोमांचक स्थिति से दूरी बनाए रखी. अब अमेरिकियों ने 'अफ-पाक' शब्द गढ़ा. इंडो-पाक हाइफन धुंधला हो गया.
दूसरा कारण 'इंडिया शाइनिंग' शब्द से सर्वोत्तम रूप से प्रदर्शित होता है, जो इस धारणा पर शुरू किया गया विज्ञापन अभियान था कि आर्थिक विकास के मामले में भारत अगला चीन है. 2004 में, यूपीए मंत्री जयराम रमेश ने इस उम्मीद में 'चिनडिया' शब्द का प्रयोग किया कि "भारत-चीन आगे की चुनौतियों का सामना करने के लिए सहयोग कर सकते हैं और साथ काम कर सकते हैं."
भारत अपने उत्तर-पूर्व के बड़े पड़ोसी के सापेक्ष देखा जाना चाहता था और उत्तर-पश्चिम वाले से अपने आप को अलग करना चाहता था. दुर्भाग्य से, चिनडिया शब्द स्थायी नहीं रहा. चीन के शानदार उत्थान का मतलब था कि आर्थिक रूप से कोई मुकाबला नहीं था. भारत ने कुछ संभावना तो दिखाई, लेकिन उसमें प्रदर्शन के बजाय शेखी ज्यादा थी.
सच कहें तो चिनडिया का फ्लॉप होना उतना बुरा भी नहीं था. देखिए, पाकिस्तान के साथ जोड़े जाने पर भारत की नाराजगी सिर्फ रोष से थी. हम खुद को श्रेष्ठ माने जाने की और गरीब चचेरे भाइयों के साथ न जोड़े जाने की इच्छा रखते थे. हालांकि, वास्तविकता यह थी और है कि भारत सबसे अधिक स्वाभाविक अंदाज में पाकिस्तान के साथ मुकाबला करते वक़्त ही होता है. जबकि चीन या यहां तक कि बांग्लादेश के साथ व्यवहार करना ऐसा नहीं है.
संयुक्त राष्ट्र जैसे मंचों पर जब हमारे राजनयिक पाकिस्तान पर बोलते हैं, भारत जो जोश दिखाता है, वह हम अन्य देशों के लिए प्रदर्शित नहीं करते. हमने जो भाषण दिए हैं, जैसे कि स्वर्गीय विदेश मंत्री सुषमा स्वराज के द्वारा, जो दिखावटी तौर पर वैसे तो महासभा के लाभ के लिए थे, लेकिन वास्तव में एक विशेष देश को ही लक्षित करते थे.
पाकिस्तान का मुकाबला करना वह स्थिति है जो सबसे संतोषजनक है और जहां भारतीय प्रतिष्ठान खुद को सबसे आरामदायक महसूस करता है. यह विशेष रूप से भाजपा के अधीन भारत के लिए सच है, जिसके लिए पाकिस्तान उसके प्राथमिक दुश्मन का बाहरी प्रकटीकरण है. हमारे 'सामरिक मामलों का समुदाय' में शामिल सेवानिवृत्त फौजी अफसर शामिल हैं, स्वाभाविक रूप से पाकिस्तान के खिलाफ युद्ध चलाने के लिए उत्साही है जैसा हम देख सकते हैं. सोशल मीडिया और टीवी बहसों पर उनके बेलाग विचार बहुत कुछ बताते हैं.
यहां तक कि भारतीय जनता की भागीदारी भी तब अपने चरम पर होती है, जब उसे पाकिस्तान के खिलाफ लामबंद किया जाता है. विदेशों में भारतीयों को दूतावासों के बाहर गाली देते और इशारे करते हुए दिखाने वाले दृश्य कुछ को अप्रिय लग सकते हैं, लेकिन कई लोगों को खुशी देते हैं. हम नहीं चाहते कि दुनिया इंडो-पाक पर ध्यान केंद्रित करे, लेकिन हम निश्चित रूप से इसमें डूबना चाहते हैं. यह इंडो-पाक डि-हाइफनेशन का विरोधाभास है. हम इतने महत्वपूर्ण हैं कि पाकिस्तान के साथ जोड़े जाना नहीं चाहते, लेकिन इससे इतनी गहराई से जुड़े हैं कि खुद को उनसे सफलतापूर्वक अलग भी नहीं कर सकते.
स्वर्गीय विद्वान स्टीफन कोहेन ने इस पर अंतर्दृष्टि प्रदान की : "संरचनात्मक रूप से, भारत-पाक संबंध विषाक्त है. यह उस चीज का एक क्लासिक उदाहरण है, जिसे मैं 'पेयर्ड माइनॉरिटी कॉन्फ्लिक्ट' कहता हूं. इन स्थितियों में दोनों पक्ष खुद को कमजोर, खतरे में, घिरा और जोखिम में देखते हैं. उनमें एक अल्पसंख्यक या छोटी-शक्ति का कॉम्प्लेक्स है, जिसका यह भी मतलब है कि पारंपरिक नैतिकता उन पर लागू नहीं होती" और यह कि "पाकिस्तान भारतीय सोच में गहराई से अंतर्निहित है." कोहेन का मानना था कि श्रीलंका (सिंहला बनाम तमिल) और मध्य पूर्व में भी इसी तरह के संबंध हैं. कोहेन की 2019 में मृत्यु हो गई और दुनिया ने कई वर्षों से हाइफन का उपयोग नहीं किया है. लेकिन कभी-कभी घटनाएं हमें इसे खुद से जोड़ने का अवसर देती हैं.
जातिगत जनगणना
क्या आरक्षण 50% की हद लांघ सकता है?
पहलगाम आतंकी हमले के बाद, जहां भारत में पाकिस्तान के खिलाफ जवाबी कार्रवाई की उम्मीद थी, वहीं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने एक अलग तरह का 'सर्जिकल स्ट्राइक' किया. बुधवार को केंद्रीय मंत्रिमंडल ने आगामी जनगणना में जाति को शामिल करने का फैसला किया. शोएब दानियल ने द स्क्रोल के लिए एक लंबा विश्लेषण लिखा है.
यह भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) और मोदी द्वारा एक बड़ा यू-टर्न है. केवल एक साल पहले, मोदी ने जातिगत जनगणना की पैरवी करने वालों को ‘शहरी नक्सली’ करार दिया था. उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ, जो मोदी के बाद संभवतः दूसरे सबसे लोकप्रिय भाजपा नेता हैं, ने ‘बंटेंगे तो कटेंगे’ के नारे के साथ जातिगत जनगणना के विरोध की लाइन तय की थी. यह ग्राफिक इमेजरी हिंदुत्व की उस पुरानी मान्यता को दर्शाती है कि जातिगत समानता की मांगें हिंदू समाज को केवल खंडित करेंगी. राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (RSS) ने कथित हिंदू एकता के योगी के आह्वान का समर्थन किया था. जल्द ही मोदी ने योगी की लाइन को अपनी ‘एक हैं तो सेफ हैं’ के साथ दोहराया. स्पष्ट रूप से, भाजपा कांग्रेस पार्टी के खिलाफ पूरी ताकत से उतर रही थी, जिसने राहुल गांधी के नेतृत्व में सामाजिक समानता पर ध्यान केंद्रित करने के हिस्से के रूप में जातिगत जनगणना के लिए जोर दिया था.
भगवा पार्टी का अचानक पलटना और अब जातिगत जनगणना का श्रेय लेने की कोशिश करना इस बात का अच्छा संकेतक है कि यह नीति कितनी लोकप्रिय है. स्पष्ट रूप से भाजपा को उम्मीद है कि वह दलित और अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) के उस गुस्से को कुछ हद तक कम कर पाएगी, जिसके कारण पिछले लोकसभा चुनावों में उसे इन समूहों का समर्थन खोना पड़ा था.
लेकिन जैसे ही भाजपा कांग्रेस के एजेंडे को अपनाने की कोशिश कर रही है, मुख्य विपक्षी दल ने अपना खेल तेज कर दिया है: उसका कहना है कि वह अब सरकार पर शैक्षणिक संस्थानों और सरकारी नौकरियों में सीटों के लिए आरक्षण पर लगी 50% की सीमा हटाने के लिए दबाव बनाने पर ध्यान केंद्रित करेगी.
यदि ऐसा होता है, तो यह एक राजनीतिक भूकंप पैदा कर सकता है जो 1990 के दशक की शुरुआत के मंडल विरोधी आंदोलन से भी बड़ा हो सकता है. 1990 में, वीपी सिंह सरकार ने मंडल आयोग की सिफारिशों को लागू किया, जिससे अन्य पिछड़ा वर्गों (OBC) - कृषि और कारीगर जातियों का एक विशाल, विविध संग्रह, जो सामाजिक सीढ़ी में उच्च जातियों और दलितों के बीच आते हैं - को आरक्षण प्रदान किया गया. इससे जाति कोटा लगभग दोगुना होकर 50% हो गया, जिससे उच्च जातियों के वर्चस्व वाली सामान्य श्रेणी काफी सिकुड़ गई. इससे नाराज होकर, उच्च जातियों के सदस्यों ने दिल्ली में एक युवा ब्राह्मण छात्र राजीव गोस्वामी द्वारा आत्मदाह करने के साथ एक आंदोलन शुरू किया.
इस आंदोलन के समानांतर, विशेष रूप से हिंदी पट्टी में, ओबीसी दावे की एक नई राजनीति उभरी. समाजवादी पार्टी और राष्ट्रीय जनता दल जैसी पार्टियों ने इस दावे के साथ उच्च जाति के नेतृत्व वाली कांग्रेस से ओबीसी वोट खींच लिए कि ओबीसी हितों की रक्षा ओबीसी नेतृत्व द्वारा बेहतर ढंग से की जाएगी.
अंततः एक राजनीतिक समझौता हुआ - राजनेताओं द्वारा नहीं, बल्कि भारत के सर्वोच्च न्यायालय द्वारा. ऐतिहासिक 1992 के इंदिरा साहनी फैसले में, अदालत ने ओबीसी आरक्षण को बरकरार रखा, लेकिन महत्वपूर्ण सीमाएं भी लगाईं. आरक्षण 50% से अधिक नहीं हो सकता था और "क्रीमी लेयर" या संपन्न ओबीसी को कोटे का लाभ उठाने से बाहर रखा जाएगा. विशेष रूप से, अदालत ने वास्तव में यह नहीं बताया कि उसने 50% का आंकड़ा क्यों चुना.
इससे भी अधिक भ्रामक रूप से, 2022 में अदालत ने उच्च जातियों के गरीब सदस्यों के लिए आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग कोटे के लिए इस 50% सीमा को तोड़ने की अनुमति दी. उसने कहा कि इंदिरा साहनी सीमा केवल जाति कोटा पर लागू होती थी.
भारत दुनिया का एकमात्र ऐसा देश है, जहां सकारात्मक कार्रवाई कोटा जनसंख्या के बहुमत तक फैला हुआ है. ईडब्ल्यूएस कोटा लागू होने के साथ, यह अब लगभग 60% है. इसका एक कारण यह है कि भारतीय समाज कितना अनूठा है. उदाहरण के लिए, अंतर्विवाह (endogamy), जिसके तहत विवाह केवल एक जाति या उपजाति के भीतर ही होना चाहिए, ने आनुवंशिकीविदों को भी चकित किया है. हार्वर्ड विश्वविद्यालय के आनुवंशिकीविद् डेविड रीच ने कहा था कि चीनी वास्तव में एक बड़ी आबादी हैं, जबकि भारतीय वास्तव में "छोटी आबादी की एक बड़ी संख्या" हैं. इस बंद सामाजिक संरचना को देखते हुए, भारतीय जातियों का विशाल बहुमत यह महसूस नहीं करता कि वे कभी उन सवर्ण जातियों के साथ प्रतिस्पर्धा कर सकते हैं, जिन्होंने पिछले दो सहस्राब्दियों से सामाजिक व्यवस्था पर प्रभुत्व जमाया है.
इसमें यह तथ्य भी जुड़ता है कि भारतीय अर्थव्यवस्था रोजगार सृजित करने में भयानक रही है. वास्तव में, अध्ययन बताते हैं कि भारत में आर्थिक विकास और रोजगार वृद्धि के बीच बहुत कम संबंध है. 'स्टेट ऑफ वर्किंग इंडिया' रिपोर्ट 2023 में कहा गया है, "इसका मतलब है कि जब जीडीपी तेजी से बढ़ती है तो रोजगार तेजी से बढ़ने के बजाय, तेज जीडीपी विकास के वर्ष, इसके विपरीत, धीमे रोजगार वृद्धि के वर्ष होते हैं."
ये दोनों कारक दर्शाते हैं कि भारत में लगभग हर कोई सोचता है कि उन्हें धन और शिक्षा तक पहुंचने के लिए राज्य समर्थित कोटा की आवश्यकता है. इसलिए, कोटा सीमा हटाने के लिए भारी समर्थन है. मोदी जातिगत जनगणना पर राहुल गांधी के सामने झुक गए हैं. क्या वह अब 50% सीमा पर भी झुकेंगे?
‘नक्सलवाद से आदिवासियों के मसले हल नहीं हो सकते’
बिहार के नक्सलवाद पर पीएचडी करने वाली मानवाधिकार कार्यकर्ता बेला भाटिया पिछले कई सालों से बस्तर में रह कर आदिवासियों के साथ काम कर रही हैं. उनका मानना है कि बस्तर में संघर्ष कर रहे नक्सलियों को आज यह विचार करने की ज़रूरत है कि उनकी उपस्थिति से बस्तर को क्या लाभ मिला? क्योंकि इतना तो तय है कि वे कुरबानी दे रहे हैं. 30-30 साल से जंगलों में भटक रहे हैं. डर में जी रहे हैं. यह आसान नहीं है. मगर उन्होंने हासिल क्या किया. बस्तर को ही ले लें तो वह जो हासिल करना चाहते थे, कर पाए. नहीं. उनका रास्ता सही नहीं है. इस रास्ते से विकास हासिल नहीं किया जा सकता है. आदिवासियों की अपनी समस्याएं हैं. वह अपने जमीन पर रह रहे हैं. प्राकृतिक संसाधनों को उन्होंने बचा रखा है. जल, जंगल. मगर वहां विकास पहुंचा. आप भी मानेंगे कि नहीं. इस गैर बराबरी को दूर करना जरूरी है. इसी को लेकर लड़ाई है. उनको फोर लेन सड़कें नहीं, अपने हिसाब का विकास चाहिए. पूरी दुनिया का इतिहास उठाकर देख लें. सत्ताओं से अधिकार लड़कर ही लेना पड़ा है. ऐसे ही नहीं मिला है. आदिवासियों को संरक्षित रखने के लिए कानून तो बहुत हैं, मगर कहीं अमलीजामा नहीं पहनाया गया है. हमें इनका दुख-दर्द और इनकी जरूरतें समझकर उनका विकास करना होगा और उन्हें मुख्यधारा में लाना होगा. आप उनका पूरा इंटरव्यू यहां सुन सकते हैं.
बहराइच की दरगाह पर सदियों पुराने मेले पर रोक
उत्तर प्रदेश सरकार ने बहराइच में 11वीं सदी के अर्ध-पौराणिक सैन्य शख्सियत सैयद सालार मसूद गाजी की दरगाह पर हर साल लगने वाले सदियों पुराने जेठ मेले को इस साल अनुमति देने से इनकार कर दिया है. गाजी को लोकप्रिय रूप से गजनवी शासक महमूद गजनवी का भतीजा माना जाता है. द वायर के उमर राशिद के मुताबिक अधिकारियों ने कहा कि मेले की अनुमति न देने का निर्णय कानून और व्यवस्था की दृष्टि से लिया गया, खासकर पहलगाम हमले के बाद के माहौल को देखते हुए, लेकिन इसकी पृष्ठभूमि मार्च में ही तैयार हो गई थी, जब मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने मसूद गाजी का अप्रत्यक्ष रूप से जिक्र करते हुए कहा था कि एक "आक्रमणकारी" का "महिमामंडन" "देशद्रोह की नींव को मजबूत करने" के समान है. मार्च में ही यूपी के कई जिलों की पुलिस ने गाजी मियां (जैसा कि उन्हें लोकप्रिय रूप से जाना जाता है) से जुड़े मेलों और त्योहारों पर प्रतिबंध लगा दिया था. अब, सरकार ने गाजी मियां से जुड़े सबसे बड़े और सबसे लोकप्रिय वार्षिक मेले को अनुमति देने से इनकार कर दिया है, जो भारत-नेपाल सीमा के पास बहराइच में उनकी दरगाह पर लगता है. इसमें पारंपरिक रूप से लाखों लोग, हिंदू और मुसलमान दोनों, शामिल होते हैं और यह त्योहार क्षेत्र की समन्वयवादी संस्कृति का एक उदाहरण माना जाता है.
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और उसके सहयोगी पिछले कुछ दशकों से लगातार गाजी मियां की कहानी को वर्तमान राजनीति में आरोपित करने और उन्हें एक खलनायक चरित्र के रूप में पेश करने की कोशिश कर रहे हैं, जिसे पिछड़ा वर्ग के हिंदू योद्धा महाराजा सुहेलदेव ने मारा था. सुहेलदेव को आज राजभर और पासी समुदाय अपना प्रतीक मानते हैं. हिंदुत्व का यह संस्करण गाजी मियां की दरगाह पर प्रदर्शित होने वाली समन्वयवादी संस्कृति के विपरीत है. भाजपा ने दलितों और ओबीसी को मुसलमानों के खिलाफ खड़ा करने के लिए सुहेलदेव की कहानी का उपयोग करने की कोशिश की है. बहराइच की सिटी मजिस्ट्रेट शालिनी प्रभाकर ने कहा कि दरगाह प्रबंधन समिति ने मेले के लिए जिला मजिस्ट्रेट को लिखा था, लेकिन पुलिस और जिला अधिकारियों की रिपोर्टों में कानून व्यवस्था और अन्य परिस्थितियों के कारण अनुमति न देने की सिफारिश की गई थी.
1984 दंगों में कांग्रेस की गलतियों की जिम्मेदारी राहुल गांधी ने ली
1984 के दंगों और सिख समुदाय के साथ कांग्रेस के संबंधों पर एक सवाल का जवाब देते हुए, राहुल गांधी ने कहा है कि कांग्रेस ने जो बहुत सारी ‘गलतियां’ कीं, वे तब हुईं जब वह वहां नहीं थे, लेकिन उन्होंने कहा कि वह पार्टी द्वारा अपने इतिहास में की गई हर गलत बात की जिम्मेदारी लेने के लिए तैयार हैं. गांधी ने बताया कि उन्होंने सार्वजनिक रूप से कहा है कि 80 के दशक में जो हुआ वह ‘गलत’ था.
यह टिप्पणी गांधी ने 21 अप्रैल को अमेरिका में ब्राउन यूनिवर्सिटी के वॉटसन इंस्टीट्यूट फॉर इंटरनेशनल एंड पब्लिक अफेयर्स में एक इंटरैक्टिव सत्र के दौरान की थी. एक सिख छात्र ने सवाल पूछा था कि वह सिख समुदाय के साथ सुलह के लिए क्या प्रयास कर रहे हैं और अपने लंबे सवाल में 1984 के सिख विरोधी दंगों का उल्लेख किया. गांधी ने जवाब में कहा, "मुझे नहीं लगता कि सिखों को कोई चीज डराती है... जहां तक कांग्रेस पार्टी की गलतियों का सवाल है, उनमें से बहुत-सी गलतियां तब हुईं, जब मैं वहां नहीं था, लेकिन मैं कांग्रेस पार्टी द्वारा अपने इतिहास में की गई हर गलत बात की जिम्मेदारी लेने के लिए राजी हूं." उन्होंने कहा कि उनका सिख समुदाय के साथ बेहद अच्छा और प्रेमपूर्ण संबंध है.
इसी बातचीत में राहुल गांधी ने भगवान राम को करुणा और क्षमा का प्रतीक बताते हुए कहा था कि यह बहुलवादी हिंदू विचार है, जो भाजपा के विचार से अलग है. उन्होंने भाजपा को ‘फ्रिंज ग्रुप’ कहा.
विचार
धसकती हुई लोकतांत्रिक दुनिया और आगे का रास्ता
इतिहासकार मार्गरेट मैकमिलन के विचारों पर आधारित यह आलेख वर्तमान अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था के विघटन और प्रभाव क्षेत्रों के पुनरुत्थान का विश्लेषण करता है.
मैकमिलन कहती हैं कि द्वितीय विश्व युद्ध के बाद स्थापित नियम-आधारित अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था, जिसमें संयुक्त राष्ट्र और ब्रेटन वुड्स जैसी संस्थाएँ शामिल थीं, अब तेज़ी से भंग हो रही है. इस व्यवस्था ने दशकों तक महाशक्तियों को बिना युद्ध के अपने मतभेदों को सुलझाने का तंत्र प्रदान किया था. वर्तमान में, इस व्यवस्था पर बाहरी और आंतरिक दबाव बढ़ रहा है. रूस जैसी संशोधनवादी शक्तियाँ इसे अमेरिका के प्रभुत्व का कवर मानती हैं. राष्ट्रपति पुतिन ने 2008 में जॉर्जिया के कुछ क्षेत्र लिए और 2014 में क्रीमिया और डोनबास पर कब्ज़ा किया. इस प्रकार ‘दूसरे देश से बलपूर्वक क्षेत्र नहीं छीने जाएंगे’ का बुनियादी अंतरराष्ट्रीय नियम टूट गया.
इज़राइल गाज़ा और संभवतः दक्षिणी लेबनान पर कब्ज़ा कर रहा है, रवांडा कांगो में घुसपैठ कर रहा है, और चीन को ताइवान पर अपना शासन स्थापित करने के लिए प्रोत्साहित किया जा रहा है.
परंतु सबसे बड़ा झटका लोकतांत्रिक देशों के भीतर से आ रहा है. अमेरिका में ट्रंप प्रशासन ने अंतरराष्ट्रीय संगठनों और नियम-आधारित व्यवस्था को ‘मूर्खों के लिए’ बताया है. उनका मानना है कि अमेरिका को अपनी आर्थिक और सैन्य शक्ति का उपयोग अंतरराष्ट्रीय समझौतों की परवाह किए बिना अपने हित में करना चाहिए.
प्रभाव क्षेत्रों का इतिहास बताता है कि ये अस्थिर होते हैं. जहाँ प्रभाव क्षेत्र मिलते हैं, वहाँ ‘शैटर ज़ोन’ बनते हैं - संघर्ष के क्षेत्र जैसे प्रथम विश्व युद्ध से पहले बाल्कन में ऑस्ट्रिया-हंगरी और रूस के बीच प्रतिस्पर्धा थी, वैसे ही आज चीन और भारत अपनी साझा सीमा के आसपास प्रतिस्पर्धा करते हैं.
हाल ही में लीक हुए प्रस्तावों से पता चलता है कि अमेरिका अपने विदेश विभाग को चार क्षेत्रीय ‘कोर’ में पुनर्गठित करने पर विचार कर रहा है - यूरेशिया, मध्य पूर्व, लैटिन अमेरिका और हिंद-प्रशांत. यह दुनिया के नए विभाजन की ओर पहला कदम हो सकता है, जिसमें रूस मध्य एशिया और यूरोप पर, चीन पूर्वी एशिया पर प्रभुत्व रख सकता है.
इस विखंडित दुनिया में अधिनायकवादी नेताओं का उदय अंतरराष्ट्रीय संबंधों को उनकी सनक और महत्वाकांक्षाओं के अधीन कर सकता है.
फिर भी इतिहास हमें आशा भी देता है. नियमों, मानदंडों और साझा मूल्यों पर आधारित अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था की धारणा गहरी जड़ें रखती है. 16वीं शताब्दी के ह्यूगो ग्रोटियस से लेकर 18वीं शताब्दी के इमैनुएल कांट तक, विचारकों ने शांतिपूर्ण अंतरराष्ट्रीय समाज की कल्पना की थी.
प्रथम विश्व युद्ध के बाद राष्ट्रपति विल्सन ने और द्वितीय विश्व युद्ध के बाद राष्ट्रपति रूज़वेल्ट ने अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं के निर्माण का नेतृत्व किया था.
वर्तमान में हम गहरे परिवर्तन के युग में हैं. पुरानी निश्चितताएँ विघटित हो रही हैं और शक्ति संतुलन पुनर्गठित हो रहा है. यह अस्थिरता और अनिश्चितता का समय है, लेकिन एक नई अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था के निर्माण का अवसर भी है. हमारे पास अतीत से सीखकर एक ऐसा भविष्य बनाने का मौका है जो युद्ध, प्रभुत्व और संघर्ष के चक्र से बाहर निकल सके. विस्तार से यहां पर पढ़ सकते हैं.
मोदी सरकार के खिलाफ रैली में भाग लेने के लिए निलंबित दलित छात्र को राहत : मुंबई के टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंसेज (टीआईएसएस) ने एक दलित पीएचडी स्कॉलर रामदास केएस को 18 अप्रैल 2024 को नरेंद्र मोदी सरकार के खिलाफ रैली में भाग लेने के कारण ‘कदाचार’ और ‘राष्ट्र-विरोधी गतिविधियों’ के आरोप में दो साल के निलंबित कर दिया था, को सुप्रीम कोर्ट ने आंशिक राहत दी है. 'द वायर' क अनुसार, जस्टिस दीपांकर दत्ता और जस्टिस मनमोहन के दो जजों की बेंच ने निलंबन आदेश अमान्य तो नहीं किया, मगर टीआईएसएस को निर्देश दिया कि उसकी अवधि को घटाकर उस अवधि तक कर दिया जाए जो उसने पहले ही पूरी कर ली है और उसे पीएचडी पूरी करने की अनुमति दी जाए.
एसटीएफ ने नीट और एमबीबीएस में गोरखधंधा करने वाले गैंग को पकड़ा : यूपी-एसटीएफ ने NEET परीक्षा में पास कराने के नाम पर स्टूडेंट्स से पैसा मांगने वाला एक गैंग पकड़ा है. सचिन गुप्ता के ट्वीट के अनुसार, इस मामले में नोएडा से विक्रम साह, धर्मपाल सिंह, अनिकेत कुमार को गिरफ्तार किया गया है. गैंग ने NEET स्टूडेंट्स का रॉ डेटा पा लिया था, फिर उन्हें कॉल करके पैसे मांग रहे थे. ये गैंग पहले भी एमबीबीएस में एडमिशन के नाम पर कई छात्रों को ठग चुका है.
कानून मंत्री से मध्यस्थता विधेयक में बदलाव का आग्रह
सुप्रीम कोर्ट ने शुक्रवार को अपूर्व कदम उठाते हुए संसद में विचाराधीन एक विधेयक की जांच की है और कानून मंत्रालय से ‘आग्रह’ किया कि वह ‘गंभीरता से विचार’ करे और भारत में मध्यस्थता व्यवस्था को ध्यान में रखते हुए इसमें बदलाव करे. संवैधानिक अदालतों को संसद और राज्य विधानसभाओं द्वारा बनाए गए कानूनों की वैधता का परीक्षण करने और कानून की व्याख्या करने का अधिकार है. अनुच्छेद 141 के तहत संविधान में प्रावधान है कि सुप्रीम कोर्ट द्वारा वैध घोषित किया गया कानून सभी न्यायालयों पर बाध्यकारी होगा, लेकिन इन न्यायालयों ने कभी किसी विधेयक की वैधता को चुनौती देने वाली याचिका पर विचार नहीं किया. मध्यस्थता और सुलह विधेयक, 2024, जो उसी विषय पर 1996 के कानून में बड़े बदलावों का प्रस्ताव करता है, सुप्रीम कोर्ट के समक्ष चुनौती के अधीन नहीं था. इसके बावजूद जस्टिस जेबी पारदीवाला और आर महादेवन की पीठ ने इसकी जांच करने का फैसला किया. उन्होंने निष्कर्ष निकाला कि विधेयक में 1996 के अधिनियम के समान ही प्रक्रियात्मक खामियाँ और शून्यता है.
टाइम्स ऑफ इंडिया की खबर के अनुसार, पीठ की टिप्पणी दो पक्षों के बीच मध्यस्थता से जुड़े एक मामले में आई. पीठ ने भारत में मध्यस्थता कानूनों की संक्षिप्त पृष्ठभूमि देते हुए 1940 के अधिनियम से शुरू होकर 1996 के अधिनियम और 2024 के विधेयक के माध्यम से प्रस्तावित परिवर्तनों के बारे में बताते हुए कहा, “1996 के अधिनियम को लागू हुए लगभग 30 साल हो चुके हैं. मध्यस्थता कार्यवाही को शीघ्रता से संचालित और समाप्त करने के लिए पिछले कुछ वर्षों में 1996 के अधिनियम में कई संशोधन किए गए हैं. यह देखना वाकई बहुत दुखद है कि इतने साल बाद भी इस मामले में शामिल प्रक्रियात्मक मुद्दे भारत की मध्यस्थता व्यवस्था को परेशान करते रहे हैं.”
ओडिशा में दसवीं की परीक्षा में जुड़वां भाइयों ने समान अंक के साथ टॉप किया : जुड़वां भाई डंबरू लेंका और डेनियल लेंका इन दिनों चर्चा में हैं. दोनों ने ही 2025 की मैट्रिक परीक्षा में 600 में से 560 (93.33%) अंक हासिल किए और दक्षिणी ओडिशा के मलकानगिरी जिले में संयुक्त रूप से टॉपर बने. द हिंदू के अनुसार, जब जुड़वाँ बच्चे पैदा हुए, तो उनके माता-पिता उनके स्वास्थ्य को लेकर चिंतित थे. एक अजीब विश्वास से प्रभावित होकर, उन्होंने दोनों के नाम अलग-अलग धर्मों के दिए- एक हिंदू और दूसरा ईसाई. उसके पिता बताते हैं कि हालांकि हमने यह सुनिश्चित किया कि दोनों के नाम एक ही अक्षर से शुरू हों, ताकि वे कक्षा में और परीक्षा में एक साथ बैठें.”
हैदराबाद : महिला ने किशोर लड़के का यौन शोषण किया : तेलंगाना टुडे के अनुसार, जुबली हिल्स में एक महिला ने अपने घर पर एक 16 साल के किशोर का कथित तौर पर यौन उत्पीड़न किया. महिला के खिलाफ पोक्सो के तहत मामला दर्ज किया गया है. वह लड़का माता-पिता के साथ बंगले के सर्वेंट क्वार्टर में रहता है.
लक्ष्य था प्रतिवर्ष 13 लाख बंधुआ मजदूरों का पुनर्वास, हुए केवल 468
21वीं सदी के ‘नए भारत’ में अब भी करोड़ों बंधुआ मजदूर हैं. भारत सरकार ने खुद 2016 में 2030 तक 1.84 करोड़ बंधुआ मज़दूरों की मुक्ति और पुनर्वास का लक्ष्य रखा है. वह भी तब जब 1976 में सरकार ने बंधुआ मज़दूरी प्रथा (उन्मूलन) अधिनियम पारित कर इसे गैरकानूनी घोषित कर दिया था. इसके बावजूद बंधुआ मजदूरी करवाने वाले लोगों पर शायद ही कोई कार्रवाई हो पाती है, जबकि केंद्र सरकार का विजन डॉक्यूमेंट कहता है कि ‘सज़ा दिलवाने की प्रक्रिया मज़बूत करनी है, ताकि नए बंधन बनने से रोका जा सके और 100% दोषियों को सज़ा हो.’
बंधुआ मजदूरी को लेकर सबसे बड़ी समस्या यह आती है कि बयान दर्ज नहीं होता और पीड़ितों की पहचान कर उन्हें रिलीज सर्टिफिकेट नहीं दिया जाता. ऐसे पीड़ितों के पुनर्वास के लिए केंद्र सरकार की योजना है, जिसके तहत बचाए गए बंधुआ मज़दूर को तत्काल 30,000 रुपये की सहायता देने का प्रावधान है. पुनर्वास के लिए 1 लाख रुपये, 2 लाख रुपये और 3 लाख रुपये तक की सहायता दी जाती है, जो मज़दूर की श्रेणी और उसके शोषण की गंभीरता के आधार पर दी जाती है, बशर्ते बंधुआ मज़दूरी प्रमाणित हो.
लेकिन यह तभी संभव है, जब डीएम या एसडीएम बंधुआ मज़दूर की पहचान कर रिलीज सर्टिफिकेट दें. बंधुआ मज़दूरों की पहचान, बचाव और पुनर्वास के लिए राष्ट्रीय स्तर काम करने वाली संस्था ‘नेशनल कैम्पेन कमेटी फॉर इरैडिकेशन ऑफ बॉन्डेड लेबर’ के संयोजक निर्मल गोराना ने 'द वायर' हिंदी को बताया कि बंधुआ मज़दूरों की पहचान करना सरकारों की प्राथमिकता नहीं होता और ज़िला प्रशासन अकसर रिहाई प्रमाण पत्र जारी ही नहीं करता.
संसद में पेश ताजा आंकड़े बताते हैं कि 2023-24 में 500 बंधुआ मज़दूरों का भी पुनर्वास नहीं कराया जा सका है, जबकि केंद्र सरकार ने 2016 में 2030 तक 1.84 करोड़ बंधुआ मज़दूरों की पहचान, मुक्ति और पुनर्वास का लक्ष्य रखा था. इस लक्ष्य को हासिल करने के लिए सरकार को हर साल औसतन करीब 13.14 लाख बंधुआ मज़दूरों का पुनर्वास करना होगा.
5 अगस्त, 2024 को लोकसभा में पूछे गए सवालों के जवाब में श्रम और रोजगार मंत्रालय ने जो आंकड़े दिए, उससे पता चलता है कि पुनर्वास किए गए बंधुआ मज़दूरों की संख्या साल दर साल घटती जा रही है. अगस्त 2024 में आरटीआई के हवाले से प्रकाशित आउटलुक की रिपोर्ट कहती है कि पिछले तीन वर्षों में बंधुआ मज़दूरों के पुनर्वास की दर में लगभग 80% की गिरावट आई है और औसतन प्रति वर्ष केवल 900 मज़दूरों का पुनर्वास हो रहा है.
तेल अवीव हवाई अड्डे पर हूथी मिसाइल हमला : यमन के ईरान समर्थित हूथी विद्रोहियों ने इज़राइल के मुख्य अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डे पर मिसाइल हमला करने के बाद प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू ने रविवार को चेतावनी दी कि इस हमले का जवाब ‘कई चरणों में’ दिया जाएगा. मिसाइल बेन गुरियन अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डे के पास गिरी थी. यह हमला ऐसे समय में हुआ है, जब जनवरी में हमास के साथ युद्धविराम के बाद कई विदेशी एयरलाइनों ने इज़राइल के लिए अपनी उड़ानें बहाल कर दी थीं. हालांकि, हमले के बाद अमेरिकी और यूरोपीय एयरलाइनों ने फिर से उड़ानें रद्द करना शुरू कर दिया है. डेल्टा एयर लाइन्स, लुफ्थांसा ग्रुप, आईटीए और एयर फ्रांस ने अगले कुछ दिनों के लिए उड़ानों को रद्द कर दिया है. हूथी सैन्य प्रवक्ता यहया सरी ने हमले की जिम्मेदारी लेते हुए दावा किया कि अब “तेल अवीव का मुख्य हवाई अड्डा हवाई यात्रा के लिए सुरक्षित नहीं है.” हमले से हवाई अड्डे पर अफरा-तफरी मच गई और एक धुएं का बड़ा गुबार देखा गया.
पोप बनकर आभासी दुनिया में टहल रहे हैं ट्रम्प : डोनाल्ड ट्रम्प पर कैथोलिक चर्च के नए नेता के चुनाव का मज़ाक उड़ाने का आरोप लगा है और ऐसा उनकी नई हरकत की वजह से हुआ है. असल में ट्रम्प ने सोशल मीडिया पर खुद की पोप के रूप में एक आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस (एआई) द्वारा बनाई गई तस्वीर साझा की, जो दुनियाभर में कैथलिक समुदाय की नाराज़गी की वजह बन गई. यह तस्वीर शुक्रवार रात ट्रम्प के ट्रुथ सोशल प्लेटफॉर्म और व्हाइट हाउस के आधिकारिक एक्स (पूर्व ट्विटर) अकाउंट पर साझा की गई, जिससे वेटिकन में भौंहे तन गईं, जहां 26 अप्रैल को पोप फ्रांसिस के अंतिम संस्कार के बाद अब भी आधिकारिक नौ दिनों के शोक की अवधि चल रही है.
1.4 बिलियन की संख्या वाले कैथोलिक चर्च के नए नेता को चुनने की प्रक्रिया के बीच ट्रम्प ने ट्रुथ सोशल पर यह तस्वीर पोस्ट की है, जब कार्डिनल रोम में कॉन्क्लेव से पहले एकत्रित हुए हैं.
इस तस्वीर में ट्रम्प को एक सफेद कासॉक (पादरी पोशाक), सोने की क्रॉस की लॉकेट और बिशप की टोपी (माइटर) पहने दिखाया गया है और वह आकाश की ओर अपनी तर्जनी अंगुली से इशारा कर रहे हैं. यह छवि शनिवार को वेटिकन की दैनिक कॉन्क्लेव ब्रीफिंग के दौरान कई सवालों का विषय बनी रही. यह घटना उस समय सामने आई, जब दुनिया भर से कार्डिनल रोम में कॉन्क्लेव (गोपनीय चुनाव प्रक्रिया) के लिए एकत्र हो रहे थे, ताकि 1.4 अरब से अधिक अनुयायियों वाले कैथोलिक चर्च के नए नेता का चयन किया जा सके. ये तस्वीर ट्रम्प के उस बयान के बाद आई है, जब राष्ट्रपति ने मजाक में कहा था कि वह ‘पोप बनना चाहेंगे’.
सिंगापुर के मतदाताओं ने स्थिरता को दी तरजीह : छह दशकों के शासन के बाद सिंगापुर की राजनीति पर पीपुल्स एक्शन पार्टी के प्रभुत्व को जारी रखने की क्षमता को लेकर सभी संदेह के बादल शनिवार को आए चुनाव परिणाम के साथ छंट गए. ब्लूमबर्ग के मुताबिक, प्रधानमंत्री के रूप में अपने पहले चुनाव में लॉरेंस वोंग के नेतृत्व में पीएपी ने संसद में 97 में से 87 सीटें जीतीं. इस तरह विपक्ष को 2020 के चुनाव में जीती गई 10 सीटों पर ही फिर रोक दिया. इसकी वजह रही वैश्विक आर्थिक उथल-पुथल के खतरे. ये नतीजे ऑस्ट्रेलिया और कनाडा में पिछले हफ़्ते हुए चुनावों के नतीजों से भी मेल खाते हैं, जहाँ मतदाताओं ने मौजूदा पार्टियों का ऐसे समय में समर्थन किया, जब अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप की नीतियों ने वैश्विक व्यापार को हिलाकर रख दिया है.
संसदीय सीटों से परे, वोंग की पार्टी ने लोकप्रिय वोट के साथ काफी बेहतर प्रदर्शन किया, लगभग 66% मत प्राप्त किए, जो 2020 की तुलना में लगभग 5% अधिक है. इस चुनाव में विपक्ष के लिए भी कुछ अच्छी खबर शामिल है. वर्कर्स पार्टी ने 2020 में जीती 10 सीटें न सिर्फ बरकरार रखी है, बल्कि लोकप्रिय वोट में उसका हिस्सा लगभग 15% तक बढ़ गया.
60 साल बाद वॉरेन बफे ने छोड़ी कमान, क्या होगा अब बर्कशायर हैथवे का भविष्य?
दुनिया के सबसे सफल निवेशकों में से एक वॉरेन बफे ने आखिरकार 99 साल की उम्र में अपनी 60 साल पुरानी विरासत अगली पीढ़ी को सौंपने का फैसला कर लिया. उन्होंने शनिवार को घोषणा की कि साल के अंत तक वह अपनी कंपनी बर्कशायर हैथवे के सीईओ पद से इस्तीफा दे देंगे.
वॉरेन बफे का नाम भारत में आम लोगों के लिए भले ही ज्यादा जाना-पहचाना न हो, लेकिन दुनियाभर में उन्हें ‘ओमाहा का जादूगर’ के नाम से जाना जाता है. उन्होंने बेहद साधारण तरीके से निवेश कर अपनी कंपनी को दुनिया की सबसे बड़ी निवेश कंपनियों में बदल दिया. अब बफे की जगह ग्रेग एबेल लेंगे, जो वर्तमान में कंपनी के वाइस चेयरमैन हैं. हालांकि, निवेशकों को यह चिंता सता रही है कि बफे की मौजूदगी और उनकी "स्टार पावर" के बिना कंपनी पर क्या असर पड़ेगा.
क्या बदल जाएगा? विशेषज्ञों का मानना है कि बफे ने इस बदलाव की योजना पहले से बना रखी थी और यह बेहद सोची-समझी प्रक्रिया है. न्यूयॉर्क की निवेश कंपनी न्यूबर्गर बर्मन के डैनियल हैनसन कहते हैं, “यह बफे की ज़िंदगी की सबसे बड़ी रचना है, और उन्होंने इसे संभालने के लिए सही व्यक्ति चुना है.” लेकिन कुछ निवेशकों को इस बात की चिंता है कि बफे की करिश्माई छवि और दूरदर्शिता के बिना बर्कशायर हैथवे का भविष्य क्या होगा. डेनवर के रिचर्ड कास्टरलाइन कहते हैं, “अब देखना यह है कि सोमवार को शेयर बाजार इसका क्या असर दिखाता है.”
चलते-चलते
जब टेलीविज़न बीमार पड़ता है
वरिष्ठ पत्रकार परंजॉय गुहा ठाकुरता ने प्रेस फ्रीडम डे के अवसर पर एक विचारोत्तेजक म्यूजिक वीडियो जारी किया है. "तेरा टीवी बीमार है" नामक इस व्यंग्यात्मक संगीत रचना में भारत के मुख्यधारा टेलीविजन पत्रकारिता की वर्तमान स्थिति पर तीखी टिप्पणी की गई है.
वीडियो में दिखाया गया है कि टेलीविजन मीडिया अक्सर कैसे दर्शकों का ध्यान महत्वपूर्ण सामाजिक मुद्दों से भटकाता है, भूख और बेरोजगारी जैसी गंभीर समस्याओं को छिपाता है, किसान और मजदूरों की आत्महत्याओं जैसे असली मुद्दों को दरकिनार करता है और दर्शकों को अनावश्यक और भ्रामक मनोरंजन में उलझाए रखता है
भारत में लगभग 21 करोड़ टेलीविजन सेट हैं, और अब मोबाइल फोन भी टेलीविजन की तरह इस्तेमाल होते हैं. न सिर्फ ये कि लोकतंत्र का ‘चौथा स्तंभ’ अपनी जिम्मेदारी से कितना भटक चुका है, बल्कि ये भी कि उसे पटरी में वापस लाना कितना मुश्किल है. इस म्यूजिक वीडियो को देखकर आप हंस भी सकते हैं और शायद रो भी. लेकिन सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि आप खुद से पूछें - अगर टीवी वाकई बीमार है, तो इसका कितना असर आप पर और आपके आसपास पड़ रहा है?
पाठकों से अपील
आज के लिए इतना ही. हमें बताइये अपनी प्रतिक्रिया, सुझाव, टिप्पणी. मिलेंगे हरकारा के अगले अंक के साथ. हरकारा सब्सटैक पर तो है ही, आप यहाँ भी पा सकते हैं ‘हरकारा’...शोर कम, रोशनी ज्यादा. व्हाट्सएप पर, लिंक्डइन पर, इंस्टा पर, फेसबुक पर, स्पोटीफाई पर , ट्विटर / एक्स और ब्लू स्काई पर.