06/10/2025: कॉमेडियन के दु:ख | दार्जिलिंग बाढ़, 20 मौतें | कफ़ सिरप से बच्चों का मरना जारी | वांगचुक अपनी रिहाई के खिलाफ़ | सीजेआई और बुलडोज़र न्याय | भारत में मानवाधिकार पर आकार पटेल
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निधीश त्यागी, साथ में राजेश चतुर्वेदी, गौरव नौड़ियाल, फ़लक अफ़शां
आज की सुर्खियां
कुणाल कामरा पर न्यूयॉर्क टाइम्स का लेख: भारत में मोदी का मज़ाक ‘ईशनिंदा’ जैसा, कॉमेडियन बोले- ‘टूटी हड्डियों से बेहतर है एफआईआर’
दार्जिलिंग में आपदा: भारी बारिश और भूस्खलन का क़हर, 20 लोगों की मौत, हज़ारों पर्यटक फंसे
मध्य प्रदेश में त्रासदी: ज़हरीले कफ सिरप ने ली 16 बच्चों की जान, सिरप लिखने वाला डॉक्टर गिरफ़्तार, निर्माता कंपनी पर भी केस
लद्दाख संकट: सोनम वांगचुक का जेल से संदेश- ‘न्यायिक जांच तक रिहाई नहीं चाहिए’, सुप्रीम कोर्ट में आज सुनवाई
बिहार चुनाव: वोटर लिस्ट पर संग्राम: कांग्रेस का 23 लाख महिलाओं के नाम काटने का आरोप, चुनाव आयोग बोला- ‘सूची को शुद्ध किया’
पीओके भारत का कब्ज़ाया हुआ कमरा, इसे वापस लेना ही होगा’ - मोहन भागवत
‘भारत बुलडोज़र से नहीं, कानून के राज से चलता है’, मॉरीशस में बोले सीजेआई गवई
नीतीश के ‘अजीब व्यवहार’ पर तेजस्वी ने उठाए सवाल
बस्तर में सीआरपीएफ ने बांटे 10,000 से ज़्यादा रेडियो
वेदांता के खनन का विरोध करने वाली अकेली महिला कार्यकर्ता नरिंग देई की ज़मानत खारिज
कैसे एक दशक तक सरकार और FSSAI ने आपको पैकेटबंद खाने के खतरों से अनजान रखा
भारत में मानवाधिकार हनन पर आकार पटेल का कॉलम: अभी तो अक्टूबर है
पुस्तक समीक्षा: ‘सुनने की राजनीति’ करने वाले गांधी
कॉमेडियन ख़तरे में
कुणाल कामरा: भारत में अब मोदी जी का मज़ाक उड़ाना ईशनिंदा जैसा
अपने ही देश के एक एकांत कोने में निर्वासित जीवन बिता रहे भारतीय स्टैंड-अप कॉमेडियन कुणाल कामरा ने अमेरिका में जिमी किमेल के निलंबन के बाद हुई अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर बहस को देखा. उन्हें इसमें अपना अतीत, ख़तरा और बहुत सारी ईर्ष्या महसूस हुई. अमेरिकी ब्रॉडकास्टर एबीसी ने ट्रंप प्रशासन की आलोचना के बाद अपने लेट-नाइट होस्ट को किनारे कर दिया था, जिसके बाद देश में विरोध की लहर दौड़ गई कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की परंपराओं को खत्म किया जा रहा है. एक हफ़्ते के भीतर, मिस्टर किमेल वापस टीवी पर थे और एक बार फिर अमेरिका के राष्ट्रपति पर चुटकुले सुना रहे थे. न्यूयॉर्क टाइम्स ने कामरा पर इस वीकेंड एक बड़ा फ़ीचर लिखा है.
लेख के मुताबिक मोदी जो प्रेस कॉन्फ़्रेंस में शायद ही कभी सवाल लेते हैं, उन्हें अब देश का ब्रॉडकास्ट मीडिया ज़्यादातर आलोचना से परे मानता है। उनका या सरकार के दूसरे अधिकारियों का मज़ाक उड़ाना अब तेज़ी से ईशनिंदा जैसा हो गया है।
वहीं 37 वर्षीय कामरा, जो कभी कॉमेडी क्लबों का दौरा करते हुए दिन में कई स्टैंड-अप शो करते थे, पिछले छह महीनों से पूरी तरह से मंच से दूर हैं. यह सब तब शुरू हुआ जब सत्तारूढ़ गठबंधन के स्थानीय नेताओं द्वारा भेजी गई भीड़ ने मुंबई के एक क्लब में तोड़फोड़ की, जहां उन्होंने पहले एक राजनेता पर मज़ाक किया था. हालांकि दोनों कॉमेडियन के चुटकुले बहुत अलग थे, लेकिन दोनों ने सत्ताधारी राजनेताओं को नाराज़ किया. लेकिन भारत में, जो दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र है, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के तहत पिछले एक दशक में सेंसरशिप इतनी गहरी हो गई है कि जिमी किमेल जैसे शो की मेज़बानी करना या सत्ताधारी राजनेताओं का सीधा मज़ाक उड़ाना अब लगभग असंभव है.
मार्च के बाद से कामरा का काम यूट्यूब पर इंटरव्यू और वीडियो पोस्ट करने तक ही सीमित रह गया है. उनके वकील अदालतों में लंबित आपराधिक मामलों से लड़ रहे हैं. उनके घर पर चौबीसों घंटे एक सशस्त्र पुलिस गार्ड पहरा देता है और जब भी वे बाहर निकलते हैं, तो उनके साथ साये की तरह रहता है, क्योंकि उन्हें लगातार धमकियां मिलती रहती हैं. कामरा कहते हैं, “समय इतना ख़राब है कि मुझे लगता है कि प्रधानमंत्री आपके सपने में भी सम्मान के साथ प्रवेश करते हैं. सपनों में भी, वह मोदी जी के रूप में आते हैं, सिर्फ़ मोदी नहीं.”
विश्लेषकों का कहना है कि दक्षिणपंथी प्रतिष्ठान ने अपनी ज़बरदस्त ऑनलाइन उपस्थिति और राज्य की ताक़त को ऐसी असहिष्णुता के पीछे लगा दिया, जिससे पूरा परिदृश्य ही बदल गया. 2014 में जब से मोदी सत्ता में आए, पुलिस शिकायतें, उत्पीड़न, अदालती मामले और टैक्स छापों ने एक स्पष्ट संदेश दिया: यदि आप रास्ते से भटकते हैं, तो आपको भुगतना पड़ेगा और आप जेल भी जा सकते हैं. यदि आप लाइन में लग जाते हैं, तो आपके लिए दौलत इंतज़ार कर रही है. देश के अधिकांश ब्रॉडकास्ट मीडिया आउटलेट सरकार के समर्थक बन गए हैं.
कॉमेडियन का शुरुआती निशाना बनना यह दिखाता है कि मोदी ने कितनी जल्दी और सफलतापूर्वक रक्षा की पहली पंक्ति, यानी समाचार मीडिया को झुका दिया था. कामरा ने कहा कि भारत का मीडिया और मनोरंजन उद्योग ऐतिहासिक रूप से सत्ता में बैठे लोगों के साथ रहा है, लेकिन सत्ता के इशारे पर चलने की हद नई दिल्ली में शासन करने वालों के रुख पर निर्भर करती है. उन्होंने कहा, “भारतीय कलाकार लंबे समय से प्रतिष्ठान की सेवा में रहे हैं. फ़र्क़ सिर्फ़ इतना है कि पहले वे मैनेजर के तौर पर सेवा कर रहे थे और अब वे वेटर के तौर पर सेवा कर रहे हैं.”
मार्च में, कामरा ने एक स्टैंड-अप स्पेशल यूट्यूब पर अपलोड किया, जिसे महीनों पहले मुंबई के प्रतिष्ठित हैबिटेट क्लब में रिकॉर्ड किया गया था. शो में, उन्होंने मोदी की पार्टी द्वारा महाराष्ट्र में क्षेत्रीय दलों को तोड़कर चुनाव जीतने का मज़ाक उड़ाया था. एक प्रसिद्ध बॉलीवुड गीत की पैरोडी में, कामरा ने संकेत दिया कि एकनाथ शिंदे—जिन्होंने अपनी ही पार्टी को तोड़कर एक गुट को मोदी के साथ ला दिया था—एक “गद्दार” थे. हालांकि कामरा ने उनका नाम नहीं लिया था, लेकिन शिंदे के सहयोगियों ने तुरंत धमकी दी कि अगर उन्होंने माफ़ी नहीं मांगी तो हिंसा होगी.
अगले दिन पुलिस के साथ एक भीड़ हैबिटेट क्लब पर टूट पड़ी. दूसरे शो के दर्शक देखते रहे और भीड़ ने आयोजन स्थल पर तोड़फोड़ की, जिसके बाद नगरपालिका कर्मचारियों ने हथौड़ों से उसके बाहरी हिस्से को तोड़ दिया और उसे बंद करने पर मजबूर कर दिया. स्थल प्रबंधक की यह दलील कि कामरा वहां नहीं थे और शो पहले ही टेप हो चुका था, किसी काम नहीं आई.
कामरा के लिए अब पुलिस शिकायत या अदालती मामला सबसे अच्छी स्थिति है. वे कहते हैं, “मैं सोचता था कि एफ़आईआर, अदालती मामले उत्पीड़न हैं. अब मुझे लगता है कि उत्पीड़न टूटी हुई हड्डियों से बेहतर है.” कामरा अब अपना ज़्यादातर समय पांडिचेरी स्थित अपने घर में बिताते हैं, जहां उन्होंने एक छोटा रिकॉर्डिंग स्टूडियो, एक बॉक्सिंग जिम बनाया है. वे कहते हैं, “उन्होंने बड़े आयोजन स्थल बंद कर दिए, मैं छोटे स्थलों पर चला गया. उन्होंने छोटे स्थल भी बंद कर दिए, मैं यूट्यूब पर काम कर रहा हूं. अगर वे यूट्यूब बंद कर देंगे, तो मैं कुछ और सोच लूंगा.” अमेरिका में, किमेल के समर्थन में कई मनोरंजनकर्ता सामने आए, लेकिन कामरा का ग़ुस्सा विशेष रूप से भारत के उन सितारों पर है, जिन्होंने उनके अनुसार आवाज़ उठाना छोड़ दिया है. वह कहते हैं, “नागरिकों के रूप में आपके भी कर्तव्य होते हैं, खासकर जब आपके पास एक माइक हो.”
बिहार चुनाव
एक तरफ कांग्रेस ने आरोप लगाया 23 लाख महिलाओं के नाम काटने का, दूसरी तरफ केंचुआ का दावा कि बिहार की सूची को ‘शुद्ध’ किया गया
कांग्रेस ने रविवार को दावा किया कि बिहार में विशेष गहन पुनरीक्षण (एसआईआर) के तहत मतदाता सूची से लगभग 23 लाख महिलाओं के नाम हटा दिए गए हैं. पार्टी ने आरोप लगाया कि इनमें से अधिकांश नाम उन 59 विधानसभा सीटों से हैं जहां 2020 के चुनावों में “कड़ा मुक़ाबला” देखा गया था. अपने “वोट चोरी” के दावों को दोहराते हुए, विपक्षी दल ने यह भी आरोप लगाया कि भारत के चुनाव आयोग (ईसीआई) ने “एक सुनियोजित साज़िश” के तहत दलित और मुस्लिम महिला मतदाताओं को “निशाना बनाया”.
यहां पार्टी के इंदिरा भवन मुख्यालय में एक संवाददाता सम्मेलन को संबोधित करते हुए, अखिल भारतीय महिला कांग्रेस की अध्यक्ष अलका लांबा ने आरोप लगाया कि “प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृह मंत्री अमित शाह के इशारे पर,” चुनाव आयोग बिहार में एसआईआर के नाम पर “बड़ा धोखा” कर रहा है. उन्होंने दावा किया, “बिहार में लगभग 3.5 करोड़ महिला मतदाता हैं, लेकिन लगभग 23 लाख महिलाओं (22.7 लाख) के नाम मतदाता सूची से हटा दिए गए हैं.”
लांबा ने दावा किया, “गोपालगंज, सारण, बेगूसराय, समस्तीपुर, भोजपुर और पूर्णिया बिहार के छह ज़िले हैं जहां से सबसे ज़्यादा महिलाओं के नाम मतदाता सूची से हटाए गए हैं.” इन छह ज़िलों में लगभग 60 विधानसभा सीटें आती हैं. लांबा ने कहा, “अगर हम 2020 के विधानसभा चुनाव के आंकड़ों को देखें, तो इंडिया ब्लॉक की पार्टियों ने यहां 25 सीटें जीती थीं, जबकि एनडीए ने 34 सीटें जीती थीं और यहां कड़ा मुक़ाबला देखा गया था.”
दूसरी ओर, मुख्य चुनाव आयुक्त ज्ञानेश कुमार ने रविवार को बिहार में एसआईआर के पूरा होने पर संतोष व्यक्त करते हुए दावा किया कि इस प्रक्रिया ने 22 साल बाद मतदाता सूची को “शुद्ध” किया है. पटना में एक संवाददाता सम्मेलन में उन्होंने कहा कि जिन मतदाताओं के नाम हटाए गए हैं, उनमें वे लोग शामिल हैं जो भारतीय नागरिक नहीं थे, जिनकी मृत्यु हो चुकी थी, जो कई जगहों पर पंजीकृत पाए गए और जो स्थायी रूप से कहीं और चले गए थे. हालांकि, ‘द वायर’ की एक रिपोर्ट के अनुसार, सीईसी ने हटाए गए 47 लाख मतदाताओं के नामों के पीछे के कारणों या सूची में पाए गए “अवैध अप्रवासियों” की संख्या के बारे में कोई विशेष विवरण नहीं दिया.
यह इस तथ्य के बावजूद है कि सुप्रीम कोर्ट ने 14 अगस्त को चुनाव आयोग को अपनी वेबसाइट पर हटाए गए नामों की सूची, हटाने के कारणों के साथ प्रकाशित करने का निर्देश दिया था. चुनाव आयोग ने 24 जून को इस अभ्यास की घोषणा करते हुए कहा था कि एसआईआर की ज़रूरत अन्य कारणों के अलावा, सूची में “विदेशी अवैध अप्रवासियों” के शामिल होने के कारण भी पड़ी. लेकिन आयोग ने इस अभ्यास में पाए गए ऐसे अप्रवासियों की संख्या प्रदान नहीं की है.
चुनाव आयोग के इस अभ्यास का विपक्ष ने कड़ा विरोध किया है, जिसने चुनाव निकाय पर सत्तारूढ़ भाजपा के इशारे पर काम करने का आरोप लगाया है, जिसे आयोग ने सिरे से ख़ारिज कर दिया है.
नीतीश कुमार का बर्ताव उनके ‘मानसिक स्वास्थ्य’ पर संदेह पैदा करता है: तेजस्वी यादव
इंडियन एक्सप्रेस की एक रिपोर्ट के अनुसार, राजद नेता तेजस्वी यादव ने रविवार को आरोप लगाया कि एक दिन पहले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के एक कार्यक्रम में बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के “अजीब” व्यवहार ने उनके “मानसिक स्वास्थ्य” और “सरकार चलाने की क्षमता” के बारे में नए संदेह पैदा कर दिए हैं. पूर्व उपमुख्यमंत्री, जो अब विपक्ष के नेता हैं, ने अपने एक्स हैंडल पर नई दिल्ली में आयोजित समारोह का एक वीडियो साझा किया, जिसमें मुख्यमंत्री अपने आवास से वर्चुअली शामिल हुए थे.
यादव ने अपने सोशल मीडिया पोस्ट में पूछा, “क्या सीएम की इस मानसिक स्थिति के लिए उनके क़रीबी सहयोगियों को दोषी ठहराया जा सकता है जो गठबंधन सहयोगी भाजपा के इशारे पर उनके भोजन में कुछ मिला सकते हैं?” बाद में, संवाददाताओं से बात करते हुए, युवा नेता ने कहा, “काफ़ी समय से, सीएम इस तरह से व्यवहार कर रहे हैं जिससे पता चलता है कि वह उचित मानसिक स्थिति में नहीं हैं. उन्होंने मेरी मां राबड़ी देवी, जो खुद एक पूर्व सीएम हैं, के अलावा सामान्य रूप से महिलाओं के बारे में भद्दी टिप्पणी की है. एक बार, उन्हें कैमरे में तब मज़ाक करते हुए पकड़ा गया था जब पृष्ठभूमि में राष्ट्रगान बज रहा था.”
राजद नेता ने कहा, “कल हमने उनके अजीब व्यवहार का एक और उदाहरण देखा,” वीडियो फुटेज का ज़िक्र करते हुए जिसमें कुमार को हाथ जोड़कर अपने कंप्यूटर स्क्रीन पर घूरते हुए देखा जा सकता है, जबकि वरिष्ठ भाजपा नेता और उपमुख्यमंत्री सम्राट चौधरी अपना भाषण पढ़ रहे थे. यादव ने कहा, “स्पष्ट रूप से सीएम में अब अपनी सरकार चलाने की क्षमता नहीं है. एक सिंडिकेट सब कुछ चला रहा है और इसका जल्द ही पर्दाफ़ाश होगा.”
विपक्षी नेता के आरोप पर तीखी प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए, मुख्यमंत्री की अध्यक्षता वाली जद(यू) के एमएलसी और प्रवक्ता नीरज कुमार ने कहा, “नीतीश कुमार वह हैं जिन्होंने बिहार के राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक स्वास्थ्य को बहाल किया है. तेजस्वी यादव को अपने बीमार पिता, राजद अध्यक्ष लालू प्रसाद के बारे में चिंता करनी चाहिए.”
सीजेआई गवई ने मॉरिशस में कहा, भारत बुलडोज़र से नहीं, कानून के शासन से चलता है
मक्तूब मीडिया की रिपोर्ट के अनुसार, भारत के मुख्य न्यायाधीश (CJI) बी.आर. गवई ने शुक्रवार को मॉरीशस विश्वविद्यालय में उद्घाटन सर मौरिस राउल्ट मेमोरियल लेक्चर देते हुए इस बात पर ज़ोर दिया कि लोकतंत्र यह सुनिश्चित करने पर टिका है कि कानून मनमानी शक्ति के बजाय न्याय की सेवा करे. उन्होंने अवैध विध्वंस के खिलाफ़ अपने 2024 के “बुलडोज़र केस” के फ़ैसले को याद करते हुए पुष्टि की कि “भारत कानून के शासन द्वारा शासित है, बुलडोज़र के शासन से नहीं.” वहीं, आलोचकों का तर्क है कि सुप्रीम कोर्ट के दिशानिर्देशों का खुलेआम उल्लंघन किया जा रहा है, क्योंकि भाजपा शासित राज्यों में दंडात्मक विध्वंस बेरोकटोक जारी है.
“सबसे बड़े लोकतंत्र में कानून का शासन” विषय पर बोलते हुए, CJI गवई ने कहा, “अकेले वैधता निष्पक्षता या न्याय प्रदान नहीं करती है. यह याद रखना महत्वपूर्ण है कि सिर्फ़ इसलिए कि किसी चीज़ को कानूनी बना दिया गया है, इसका मतलब यह नहीं है कि वह न्यायपूर्ण है.” उन्होंने अवैध विध्वंस पर अपने 2024 के फ़ैसले का ज़िक्र किया, जिसे ‘बुलडोज़र केस’ के नाम से जाना जाता है, जिसमें सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि कार्यपालिका जज, जूरी और जल्लाद के रूप में काम नहीं कर सकती. 13 नवंबर, 2024 को, जस्टिस बी.आर. गवई और जस्टिस के.वी. विश्वनाथन की पीठ ने मनमाने विध्वंस पर प्रतिबंध लगाने वाले अखिल भारतीय दिशानिर्देश जारी करने के लिए अनुच्छेद 142 (”पूर्ण न्याय” के लिए शक्तियां) का इस्तेमाल किया था. उन्होंने कहा, “फ़ैसले ने एक साफ़ संदेश दिया कि भारतीय कानूनी प्रणाली कानून के शासन द्वारा शासित है, न कि बुलडोज़र के शासन द्वारा.” उन्होंने ज़ोर दिया कि संवैधानिक सुरक्षा उपाय सत्ता को प्रतिशोध का हथियार बनने से रोकते हैं.
दिशानिर्देशों के अनुसार, पंजीकृत डाक/स्पीड पोस्ट के ज़रिए कम से कम 15 दिन पहले एक कारण बताओ नोटिस दिया जाना चाहिए, जिसमें उल्लंघन, सबूत और जवाब देने का समय का विवरण हो. इसकी प्रतियां ज़िला मजिस्ट्रेट और सार्वजनिक पोर्टल पर भी दी जानी चाहिए. केशवानंद भारती, मेनका गांधी, शायरा बानो, जोसेफ शाइन और इलेक्टोरल बॉन्ड स्कीम को रद्द करने वाले 2024 के फ़ैसले सहित ऐतिहासिक फ़ैसलों की समीक्षा करते हुए, CJI गवई ने कहा कि इन फ़ैसलों ने लगातार इस बात की पुष्टि की है कि मनमानापन समानता और न्याय के साथ असंगत है.
वहीं, कई कार्यकर्ता, पत्रकार, विपक्षी नेता और मानवाधिकार समूह तर्क देते हैं कि सुप्रीम कोर्ट के दिशानिर्देशों का उल्लंघन किया जा रहा है. असम, उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश जैसे राज्यों में मुसलमानों और अन्य हाशिए के समूहों को निशाना बनाकर दंडात्मक विध्वंस जारी है. सुप्रीम कोर्ट के वकील अनस तनवीर ने कहा, “मुख्य न्यायाधीश को बरेली में यूपी सरकार के अवैध विध्वंस का स्वत: संज्ञान लेने से कोई नहीं रोक रहा है. हर बुलडोज़र जो एक घर को गिराता है, वह अदालत की महिमा को भी गिरा रहा है. यह सिर्फ़ अराजकता नहीं है, यह अदालत के अधिकार का सीधा अपमान है.” पत्रकार अरित्री ने कहा, “हमारे CJI को हक़ीक़त की जांच की ज़रूरत है. बुलडोज़र फ़ैसले ने आदित्यनाथ की मंडली को अतिरिक्त-कानूनी दंडात्मक विध्वंस से शायद ही रोका हो. कोई मुआवज़ा भी नहीं मिला.”
बस्तर में सीआरपीएफ ने 10,000 से ज़्यादा रेडियो बांटे
द हिंदू की एक रिपोर्ट के अनुसार, केंद्रीय रिज़र्व पुलिस बल (CRPF) ने छत्तीसगढ़ के बस्तर के दूरदराज़ के माओवादी हिंसा प्रभावित इलाकों में 10,000 से ज़्यादा रेडियो सेट वितरित किए हैं. यह एक सार्वजनिक अभियान का हिस्सा है जिसका मक़सद राष्ट्रीय एकता को बढ़ावा देना और स्थानीय लोगों को माओवादी विचारधारा से दूर करना है. यह पहल ऐसे समय में हुई है जब इस क्षेत्र में वामपंथी उग्रवाद (LWE) की हिंसा में गिरावट देखी जा रही है.
एक वरिष्ठ अधिकारी ने बताया कि बस्तर क्षेत्र के सात ज़िलों को कवर करने वाला यह विशेष नागरिक कार्रवाई कार्यक्रम इस साल की शुरुआत में गृह मंत्रालय (MHA) द्वारा 1.62 करोड़ रुपये के बजटीय आवंटन के साथ शुरू किया गया था. बीजापुर ज़िले में तैनात एक CRPF कमांडर ने कहा कि दूरदराज़ के स्थानों पर तैनात 180 कंपनियों द्वारा कुल 10,800 रेडियो सेट वितरित किए गए. उन्होंने कहा कि इस कार्यक्रम का मक़सद लगभग 54,000 व्यक्तियों को जोड़ना है, यह मानते हुए कि प्रत्येक परिवार में पांच सदस्य हैं. उन्होंने कहा, “इस विशाल रेडियो वितरण अभियान का मक़सद स्थानीय लोगों, आदिवासियों और ग्रामीणों को देश की मुख्यधारा से जोड़ना है.”
एक अन्य अधिकारी ने कहा, “बल मार्च 2026 तक देश में माओवाद को समाप्त करने के केंद्र सरकार के घोषित लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए काम कर रहा है. ये उपाय स्थानीय समुदाय के साथ जुड़ने का हिस्सा हैं ताकि उन्हें माओवादी विचारधारा से दूर किया जा सके और सशस्त्र अभियानों से प्राप्त लाभों को जागरूकता और कल्याणकारी पहलों के ज़रिए मज़बूत किया जा सके.” उन्होंने कहा कि स्थानीय लोगों को प्रधानमंत्री के मासिक ‘मन की बात’ संबोधन के अलावा रेडियो पर प्रसारित होने वाले विभिन्न सरकारी और मनोरंजन कार्यक्रमों के बारे में भी जानकारी दी गई.
इस विशेष अभियान के लिए खरीदे गए रेडियो सेट सूखी बैटरी या सीधे पावर बोर्ड कनेक्शन के माध्यम से चल सकते हैं. प्रत्येक रेडियो सेट की क़ीमत लगभग 1,500 रुपये है और यह एफएम, एमडब्ल्यू और एसडब्ल्यू फ्रीक्वेंसी को सपोर्ट करता है.
पहाड़ियों की लड़ाई: ओडिशा के सिजिमाली में बॉक्साइट खनन के खिलाफ़ लड़ने वाली एकमात्र महिला कार्यकर्ता की ज़मानत खारिज
मक्तूब के लिए निकिता जैन की रिपोर्ट के अनुसार, ओडिशा के रायगड़ा और कालाहांडी ज़िलों में स्थित सिजिमाली के एक शांत गांव में, प्रस्तावित खनन परियोजनाओं के खिलाफ़ दो साल से अधिक समय से एक प्रतिरोध आंदोलन चल रहा है. सिजिमाली पहाड़ियों की एक श्रृंखला है जो अपने समृद्ध बॉक्साइट भंडार, स्वदेशी समुदायों के लिए पवित्र महत्व और जैव विविधता के लिए जानी जाती है. 2023 में, खनन की दिग्गज कंपनी वेदांता लिमिटेड को 1,549.022 हेक्टेयर क्षेत्र में सिजिमाली बॉक्साइट ब्लॉक के लिए आशय पत्र मिला, जिसमें अनुमानित 311 मिलियन टन बॉक्साइट भंडार है.
वर्तमान में, सिजिमाली इस क्षेत्र में रहने वाले आदिवासियों और दलितों के नेतृत्व में एक प्रतिरोध आंदोलन का केंद्र है. सिजिमाली में ही ओडिशा पुलिस ने खनन परियोजना का विरोध करने के लिए एक अकेली महिला को गिरफ़्तार कर जेल में डाल दिया है. 50 के दशक की एक कमज़ोर महिला नरिंग देई, सिजिमाली विरोध प्रदर्शनों में एक सक्रिय नेता रही हैं. अगस्त की शुरुआत में उन्हें गिरफ़्तार कर लिया गया था.
1 अगस्त की रात को, देई को अपनी बहू के प्रसव के लिए रायगड़ा के एक सरकारी अस्पताल में जाना पड़ा. 2 अगस्त की सुबह, देई की बहू ने एक बेटे को जन्म दिया. एक प्रत्यक्षदर्शी रुकदई माझी ने बताया, “वह बच्चे से मिलने के लिए कमरे के अंदर गई और कुछ ही मिनट हुए थे कि कुछ डॉक्टरों ने उन्हें दवा के लिए बाहर बुलाया.” जैसे ही देई बाहर गईं, उन्हें सफ़ेद कोट पहने कुछ लोगों ने एक कोने में बुलाया. माझी ने कहा, “जब देई उनसे मिलने गईं, तो उन्होंने उसे पकड़ लिया और बिना किसी स्पष्टीकरण के बाहर खींचने लगे. लेकिन मुझे लगता है कि वह समझ गई थीं कि वे पुलिस के आदमी थे जो उसे बाहर निकालने के लिए डॉक्टरों के वेश में आए थे.”
कार्यकर्ताओं का कहना है कि यह ग्रामीणों को और आतंकित करने के लिए उत्पीड़न और अपमान की एक जानबूझकर की गई रणनीति है. देई को दो अन्य पुरुष सदस्यों के साथ गिरफ़्तार किया गया है और उन पर दंगा, गैरकानूनी सभा और हत्या के प्रयास सहित अन्य अपराधों का आरोप लगाया गया है. हालांकि, ग्रामीणों ने कहा कि देई को विशेष रूप से निशाना बनाया गया क्योंकि वह मुखर थीं और पिछले साल भारत जोड़ो यात्रा के दौरान विपक्षी नेता राहुल गांधी से मिली थीं.
2023 से, सिजिमाली में खनन विरोधी आंदोलन बढ़ रहा है. पहाड़ियां कुई आदिवासियों और दलितों का घर हैं, और संविधान और पंचायत (अनुसूचित क्षेत्रों तक विस्तार) अधिनियम के तहत संरक्षित हैं. देई की गिरफ़्तारी भूमि के लिए चल रही लड़ाई के बीच हुई. जबकि वह गिरफ़्तार होने वाली एकमात्र महिला हैं, आस-पास के गांवों के कई पुरुषों को या तो जेल में डाल दिया गया है या उन पर झूठे आपराधिक मामले दर्ज किए गए हैं, जिससे लोग यात्रा करने से डरते हैं. देई के वकील मंगल मूर्ति बेउरिया ने कहा कि ग्रामीणों के खिलाफ़ झूठे मामले दर्ज किए जा रहे हैं. उन्होंने कहा, “कंपनी यह सुनिश्चित करने के लिए भारी रक़म ख़र्च कर रही है कि ग्रामीण, विशेष रूप से मुखर लोग, सलाखों के पीछे रहें.”
जहरीली कफ सिरप
एमपी में 16 बच्चों की मौत के बाद डॉक्टर गिरफ्तार
मध्यप्रदेश में खांसी की जहरीली दवा के सेवन से मरने वाले बच्चों की संख्या 14 से बढ़कर 16 हो गई है. 16 बच्चों की मौत के बाद छिंदवाड़ा जिले के परासिया में तैनात शिशु रोग विशेषज्ञ डॉ. प्रवीण सोनी को गिरफ्तार कर लिया गया है. सोनी को दूषित कफ सिरप बच्चों को लेने की सलाह देने के लिए गिरफ्तार किया गया है. इन 16 मौतों में से 14 छिंदवाड़ा और शेष दो बैतूल से बताई गई हैं.
रविशपाल सिंह के मुताबिक, इससे पहले दिन में, पुलिस ने डॉ. सोनी और ‘कोल्ड्रिफ’ सिरप बनाने वाली कंपनी स्रेसुन फार्मास्यूटिकल्स के संचालकों के खिलाफ एक एफआईआर दर्ज की. मुख्यमंत्री मोहन यादव के निर्देश पर डॉ. सोनी को निलंबित भी कर दिया गया है. जांच में पता चला कि डॉ. सोनी ने प्रभावित बच्चों में से अधिकांश को कोल्ड्रिफ कफ सिरप लेने की सलाह दी थी. प्रयोगशाला रिपोर्ट में पाया गया कि सिरप में 48.6 प्रतिशत डाईथाइलीन ग्लाइकॉल नामक जहरीला रसायन मौजूद था, जिसके सेवन से गुर्दे फेल होने और मौत होने का खतरा होता है.
इससे पहले शनिवार को, मध्यप्रदेश सरकार ने कोल्ड्रिफ कफ सिरप की बिक्री और वितरण पर प्रतिबंध लगा दिया था, जब परीक्षणों में 16 बच्चों की मौत से जुड़े बैच के नमूनों में जहरीले पदार्थ की पुष्टि हुई थी. राज्य के औषधि नियंत्रक द्वारा जारी एक निर्देश के अनुसार, तमिलनाडु के कांचीपुरम जिले में स्रेसुन फार्मास्यूटिकल्स द्वारा निर्मित इस सिरप को 2 अक्टूबर की तमिलनाडु औषधि नियंत्रण निदेशालय की रिपोर्ट में “गैर-मानक और दोषपूर्ण” पाया गया था.
पीओके का जिक्र करते हुए बोले भागवत- इसे वापस लेना होगा
आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत ने कहा है पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर (पीओके) भारत का एक कमरा है, जिस पर अजनबियों ने कब्जा कर लिया है, और इसे वापस लेना ही होगा.
“टाइम्स ऑफ इंडिया” के अनुसार, मध्यप्रदेश के सतना में एक कार्यक्रम में बोलते हुए, उन्होंने अखंड भारत की स्थायी एकता के बारे में बात करते हुए यह टिप्पणी की. भागवत ने कहा, “कई सिंधी भाई यहां बैठे हैं. मैं बहुत खुश हूं. वे पाकिस्तान नहीं गए; वे अखंड भारत गए थे... परिस्थितियां हमें उस घर से यहां भेज चुकी हैं, क्योंकि वह घर और यह घर अलग नहीं हैं.”
अखंड भारत का आगे उल्लेख करते हुए, उन्होंने कहा, “पूरा भारत एक घर है, लेकिन किसी ने हमारे घर का एक कमरा हटा दिया है जहाँ मेरी मेज, कुर्सी और कपड़े रखे होते थे. उन्होंने उस पर कब्ज़ा कर लिया है. “
दार्जिलिंग में भूस्खलन और बाढ़: 20 की मौत
रविवार की सुबह पश्चिम बंगाल के दार्जिलिंग जिले में भारी बारिश के कारण हुए एक बड़े भूस्खलन में कम से कम 20 लोगों की मौत हो गई और दो अन्य लापता हो गए.
एनडीआरएफ और जिला प्रशासन द्वारा संकलित रिपोर्टों के अनुसार, सारसली, जसबीरगांव, मिरिक बस्ती, धर गांव (मेची), नागाकाटा और मिरिक झील क्षेत्र सहित कई स्थानों से हताहतों की सूचना मिली है.
“द न्यू इंडियन एक्सप्रेस” के अनुसार, मिरिक और कर्सियांग को जोड़ने वाला दूधिया आयरन ब्रिज भी ढह गया है, जिससे प्रमुख कस्बों तक पहुंच कट गई है और बचाव व राहत प्रयासों में और भी जटिलता आ गई है. सोशल मीडिया पर दृश्यों में सड़क के बड़े हिस्से मलबे से ढके हुए दिखाई दे रहे हैं, जो व्यवधान की भयावहता को उजागर करते हैं. राज्य की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने उत्तरी बंगाल में बाढ़ की स्थिति को “गंभीर” बताया और कहा कि वह नुकसान का आकलन करने के लिए सोमवार को क्षेत्र का दौरा करेंगी. बनर्जी ने कहा, “भूटान में लगातार बारिश के कारण पानी का बहाव उत्तरी बंगाल की तरफ है.”
उन्होंने कहा कि 12 घंटों में 300 मिमी से अधिक बारिश के कारण सात स्थानों पर भयंकर बाढ़ और भूस्खलन हुआ है. सड़क मार्ग बाधित होने और भूस्खलन के कारण हजारों पर्यटक फंसे हुए हैं. मुख्यमंत्री ने उनसे अपील की कि वे घबराएं नहीं, उनकी सुरक्षित वापसी के लिए व्यवस्था की जा रही है.
मौसम विज्ञान विभाग ने 6 अक्टूबर तक उप-हिमालयी पश्चिम बंगाल, जिसमें दार्जिलिंग और कलिम्पोंग शामिल हैं, के लिए अत्यधिक भारी वर्षा का रेड अलर्ट जारी किया है. विभाग ने और अधिक भूस्खलन और सड़क अवरोधों की चेतावनी दी है. एनडीआरएफ के अनुसार, दार्जिलिंग जिले और उत्तरी सिक्किम में सड़क संपर्क गंभीर रूप से बाधित है. मिरिक का एक गांव वर्तमान में बाढ़ और सड़क अवरोधों के कारण चारों ओर से पानी से घिरा हुआ है.
‘जेल में रहने को तैयार’: सोनम वांगचुक की शांति की अपील, लद्दाख हिंसा की न्यायिक जांच की मांग
जेल में बंद कार्यकर्ता सोनम वांगचुक ने लद्दाख के लोगों से शांति और एकता बनाए रखने की अपील की है. उन्होंने पूर्ण राज्य का दर्जा और संविधान की छठी अनुसूची के तहत सुरक्षा उपायों के लिए चल रहे संघर्ष को सच्चे गांधीवादी तरीक़े यानी अहिंसा से जारी रखने का आग्रह किया है. उनके वकील ने रविवार को यह जानकारी दी.
वांगचुक ने यह संदेश लेह एपेक्स बॉडी के क़ानूनी सलाहकार हाजी मुस्तफ़ा के माध्यम से भेजा, जिन्होंने कार्यकर्ता के बड़े भाई का त्सेतन दोरजे ले के साथ शनिवार को राजस्थान की जोधपुर जेल में उनसे मुलाक़ात की. वांगचुक ने कहा कि जब तक 24 सितंबर की हिंसा के दौरान चार लोगों की हत्या की स्वतंत्र न्यायिक जांच नहीं हो जाती, “मैं जेल में रहने के लिए तैयार हूं”.
उन्हें 26 सितंबर को लेह में कड़े राष्ट्रीय सुरक्षा अधिनियम (एनएसए) के तहत हिरासत में लिया गया था. यह कार्रवाई केंद्र शासित प्रदेश में पूर्ण राज्य का दर्जा और छठी अनुसूची की मांग को लेकर हुए हिंसक विरोध प्रदर्शनों के दो दिन बाद हुई, जिसमें चार लोगों की मौत हो गई थी और कई अन्य घायल हो गए थे. अधिकारियों ने वांगचुक पर हिंसा भड़काने का आरोप लगाया है. सुप्रीम कोर्ट सोमवार को वांगचुक की पत्नी गीतांजलि जे अंगमो द्वारा दायर याचिका पर सुनवाई करने वाला है, जिसमें जलवायु कार्यकर्ता की एनएसए के तहत हिरासत को चुनौती दी गई है और उनकी तत्काल रिहाई की मांग की गई है.
मुस्तफ़ा ने रविवार को कार्यकर्ता से मिलने के बाद वांगचुक का “संदेश” अपने व्यक्तिगत सोशल मीडिया अकाउंट्स पर पोस्ट किया. वांगचुक ने कहा, “मैं शारीरिक और मानसिक रूप से ठीक हूं और सभी की चिंता और प्रार्थनाओं के लिए धन्यवाद देता हूं. अपनी जान गंवाने वाले लोगों के परिवारों के प्रति मेरी हार्दिक संवेदना और जो लोग घायल हुए हैं और गिरफ़्तार किए गए हैं, उनके लिए मेरी प्रार्थनाएं.” उन्होंने कहा, “मैं एपेक्स बॉडी और केडीए तथा लद्दाख के लोगों के साथ छठी अनुसूची और राज्य के दर्जे की हमारी वास्तविक संवैधानिक मांग में दृढ़ता से खड़ा हूं और लद्दाख के हित में एपेक्स बॉडी जो भी कार्रवाई करेगी, मैं तहे दिल से उनके साथ हूं.” उन्होंने लोगों से शांति और एकता बनाए रखने और अपने संघर्ष को शांतिपूर्ण तरीक़े से जारी रखने की अपील की.
वैकल्पिक मीडिया | रिपोर्टर्स कलेक्टिव की इन्वेस्टिगेटिव रिपोर्ट
कैसे सरकार और FSSAI ने पैकेटबंद खाद्य पदार्थों के ख़तरों से नागरिकों को अनजान रखा
यह कहानी इस बारे में है कि कैसे एक दशक से अधिक समय, दर्जनों हितधारक बैठकों, आधिकारिक कागजी कार्रवाई, संदिग्ध अध्ययनों और सर्वेक्षणों पर खर्च किए गए करोड़ों रुपये, उद्योग द्वारा लॉबिंग और उद्योग निगरानी संस्थाओं की मशक्कत के बाद भी, भारत वसा, नमक और चीनी वाले खाद्य पदार्थों के अनियंत्रित उपभोग से उत्पन्न सार्वजनिक स्वास्थ्य जोखिम से निपटने के क़रीब नहीं पहुंच पाया है.
द रिपोर्टर्स कलेक्टिव के लिए गायत्री सप्रू ने खोजी रिपोर्ट की है कि 2014 में, केंद्र सरकार की शीर्ष एजेंसी, भारतीय खाद्य सुरक्षा और मानक प्राधिकरण (FSSAI) के विशेषज्ञों ने सिफारिश की थी कि भारत में प्रसंस्कृत खाद्य पदार्थों को एक स्पष्ट और सख्त फ्रंट-ऑफ-पैक लेबल (FOPL) नीति के तहत बेचा जाना चाहिए. ग्यारह साल बाद भी भारत के पास ऐसी कोई नीति नहीं है. सरकार ने लोगों के स्वास्थ्य की क़ीमत पर और कॉर्पोरेट मुनाफ़े के पक्ष में एक दशक से अधिक समय तक इस मामले को लटकाए रखा.
FSSAI और सरकार 2022 में FOPL नीति लागू करने के सबसे क़रीब तब आए जब उन्होंने हेल्थ स्टार रेटिंग पद्धति की वकालत की. FSSAI द्वारा प्रस्तावित भारतीय संस्करण उपभोक्ताओं को अस्वास्थ्यकर सामग्री के बारे में सीधी चेतावनी नहीं देता था. फिर वह भी अधर में लटक गया. अब, अदालतों द्वारा मजबूर किए जाने पर, एक दशक से अधिक समय के बाद, सरकार जल्द ही एक FOPL नीति ला सकती है.
इस बीच, 28% से अधिक भारतीय वयस्क अब अधिक वज़न वाले या मोटे हैं, और चार में से एक वयस्क मधुमेह या पूर्व-मधुमेह से पीड़ित है. भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद के अनुसार, भारत के कुल रोग भार का 56.4% अब अस्वास्थ्यकर आहार के कारण है.
यह सब 2013 में शुरू हुआ था, जब दिल्ली उच्च न्यायालय ने FSSAI को स्कूली बच्चों के लिए “स्वस्थ, पौष्टिक, सुरक्षित और स्वच्छ भोजन” के लिए दिशानिर्देश तैयार करने का आदेश दिया था. 2018 में, FSSAI ने लेबलिंग नियमों का एक मसौदा तैयार किया, जिसमें उच्च वसा, चीनी, नमक (HFSS) वाले खाद्य उत्पादों पर लाल निशान लगाना अनिवार्य था. उद्योग ने तुरंत इन नियमों का विरोध किया.
उद्योग लॉबिंग ने भारत की सावधानीपूर्वक तैयार की गई चेतावनी लेबल योजना को वापस शुरुआती चरण में धकेल दिया. उद्योग प्रतिनिधि हितधारक बैठकों में नियमित रूप से उपभोक्ता समूहों से छह-से-एक के अनुपात में अधिक होते थे, जिससे पेप्सिको, कोका-कोला और हल्दीराम जैसी खाद्य कंपनियों को मेज़ पर बैठकर खाद्य सुरक्षा नीति को प्रभावित करने का मौका मिला.
FSSAI ने आईआईएम-अहमदाबाद को एक “स्वतंत्र” अध्ययन करने के लिए चुना. सार्वजनिक स्वास्थ्य विशेषज्ञों ने बार-बार इस अध्ययन को हितों का टकराव बताया. इसके निष्कर्षों के आधार पर, FSSAI ने 2022 में “इंडियन न्यूट्रिशन रेटिंग” (INR) प्रणाली का प्रस्ताव रखा. यह एक ऐसा एल्गोरिदम था जो किसी खाद्य पदार्थ को 1-5 सितारों के बीच रेट करेगा, जिसमें उत्पाद में सकारात्मक और नकारात्मक दोनों पोषक तत्वों को ध्यान में रखा जाएगा. इसका मतलब था कि एक अस्वास्थ्यकर बिस्किट में कुछ मेवे मिलाकर उसे ज़्यादा स्टार दिए जा सकते थे, जो उपभोक्ताओं को गुमराह कर सकता था.
FSSAI ने इस प्रस्तावित नीति पर टिप्पणियां आमंत्रित कीं और उसे 14,000 टिप्पणियां मिलीं, जिसके बाद नीति पर आगे की कार्रवाई अनिश्चित काल के लिए रुक गई. 2025 में, एक गैर-लाभकारी संगठन ने सुप्रीम कोर्ट में एक जनहित याचिका दायर की. सुप्रीम कोर्ट ने FSSAI के विशेषज्ञ पैनल को अपनी सिफारिशों को अंतिम रूप देने के लिए मध्य-अक्टूबर तक का समय दिया.
जब आरटीआई के तहत FSSAI से विशेषज्ञ समिति की बैठकों के विवरण मांगे गए, तो उसने “वाणिज्यिक विश्वास” और व्यापार रहस्यों की रक्षा करने वाले एक खंड का हवाला देते हुए इनकार कर दिया. एक दशक की चर्चाओं और सार्वजनिक धन खर्च करने के बाद भी, भारतीय खरीदारों को अभी भी सुपरमार्केट की अलमारियों पर उच्च वसा, नमक या चीनी वाले खाद्य पदार्थों पर एक भी अनिवार्य चेतावनी लेबल नहीं मिलता है. FSSAI एक चौराहे पर खड़ा है: यह या तो लाखों भारतीयों को सूचित विकल्प चुनने के लिए सशक्त बनाने वाले नियामक के रूप में याद किया जाएगा, या खाद्य निगमों के सामने झुकने वाले नियामक के रूप में.
भारत में मानवाधिकार
आकार पटेल : हम अभी भी अक्टूबर में हैं, और निश्चित रूप से, और भी बहुत कुछ होगा
हर साल के आखिर में, जिस संगठन के लिए मैं काम करता हूँ, वो भारत में मानवाधिकार पर एक रिपोर्ट जारी करता है. यह एमनेस्टी इंटरनेशनल के वैश्विक मूल्यांकन का एक हिस्सा है, जो दुनिया भर की सरकारों द्वारा किए गए उल्लंघनों पर ज़्यादातर ध्यान देता है, हालाँकि सिर्फ़ उन्हीं पर नहीं.
मैं इस साल की रिपोर्ट का ड्राफ़्ट देख रहा था, जो सितंबर तक अपडेटेड है, और मैंने सोचा कि पाठकों को यह जानने में दिलचस्पी होगी कि हम कहाँ खड़े हैं. यह कुछ ख़ास बातों की लिस्ट होगी, या ज़्यादा सटीक कहूँ तो, ख़राब बातों की लिस्ट होगी.
जनवरी में, उत्तराखंड ने यूनिफ़ॉर्म सिविल कोड लागू करने वाले नियम पारित किए. यह लिव-इन रिलेशनशिप का सरकारी अधिकारियों के पास रजिस्ट्रेशन अनिवार्य बनाता है, कहा गया है कि ऐसा धोखाधड़ी वाली शादियों के ज़रिए होने वाले धर्म परिवर्तन से निपटने के लिए किया गया है. ये नियम सरकार द्वारा नियुक्त नौ सदस्यों वाले पैनल की रिपोर्ट पर विचार किए बिना ही पास कर दिए गए.
फ़रवरी में, राजस्थान ने एक बिल पेश किया जिसमें धर्म परिवर्तन से जुड़े सहमति वाले अंतर-धार्मिक विवाहों को अपराध बनाया गया और हिंदुओं से शादी करने वाले मुसलमानों और मुसलमानों से शादी करने वाले हिंदुओं के लिए दस साल की जेल का प्रस्ताव रखा गया. महाराष्ट्र ने अंतर-धार्मिक विवाह को रोकने के उद्देश्य से एक प्रस्ताव पारित किया. इसी महीने, मालवन नगर निगम ने एक नाबालिग लड़के के पिता की कबाड़ की दुकान को ढहा दिया, जिस पर चैंपियंस ट्रॉफ़ी क्रिकेट मैच में पाकिस्तान के ख़िलाफ़ भारत की जीत के बाद कुछ कहने का आरोप था.
मार्च में, महाराष्ट्र पुलिस ने कुणाल कामरा के ख़िलाफ़ उनके स्टैंड-अप शो ‘नया भारत’ के सिलसिले में एक एफ़आईआर दर्ज की. इसके बाद शो के वेन्यू पर हिंसा हुई. यह उन कई घटनाओं में से एक थी जहाँ अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, जो एक मौलिक अधिकार है, का सरकार ने दुरुपयोग किया. पिछले महीने, दिल्ली पुलिस ने जामिया मिलिया इस्लामिया विश्वविद्यालय के बारह छात्रों को हिरासत में ले लिया था, जो 2024 में “विश्वविद्यालय अधिकारियों से बिना अनुमति या सूचना के” कथित तौर पर नारेबाज़ी करने के लिए दो पीएचडी छात्रों को जारी किए गए कारण बताओ नोटिस का विरोध कर रहे थे. मार्च में ही, असम राज्य पुलिस ने पत्रकार दिलवर हुसैन मोज़ुमदार को राज्य सरकार द्वारा संचालित एक बैंक में कथित वित्तीय गड़बड़ी पर एक विरोध प्रदर्शन की रिपोर्टिंग करने के लिए गिरफ़्तार किया. वह लगातार उस बैंक में वित्तीय मुद्दों पर रिपोर्टिंग कर रहे थे जहाँ राज्य के मुख्यमंत्री एक निदेशक हैं.
अप्रैल में, पहलगाम में हुए आतंकवादी हमलों में 26 लोगों की मौत पर टिप्पणी करने के लिए लखनऊ में लोक गायिका नेहा सिंह राठौर के ख़िलाफ़ एफ़आईआर दर्ज की गई.
मई में, भारत ने ब्रिटिश-कश्मीरी अकादमिक नताशा कौल की ओवरसीज़ सिटिज़नशिप ऑफ़ इंडिया की स्थिति को रद्द कर दिया. वह भारत में बढ़ती तानाशाही के ख़िलाफ़ नियमित रूप से बोलती रही हैं.
मई में ही, नागपुर पुलिस ने तीन लोगों के ख़िलाफ़ एफ़आईआर दर्ज की, जिसमें दिवंगत कार्यकर्ता वीरा सथिदार की पत्नी पुष्पा सथिदार भी शामिल थीं, क्योंकि उन्होंने फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ की कविता ‘हम देखेंगे’ का पाठ किया था. हरियाणा पुलिस ने अशोका यूनिवर्सिटी के एसोसिएट प्रोफ़ेसर अली ख़ान महमूदाबाद के ख़िलाफ़ “ऑपरेशन सिंदूर” पर सोशल मीडिया पोस्ट को लेकर दो एफ़आईआर दर्ज कीं.
नागपुर पुलिस ने 26 वर्षीय रेजाज़ एम सिद्दीक़ को इंस्टाग्राम पर कथित तौर पर ऑपरेशन सिंदूर का अपमान करने के लिए गिरफ़्तार किया. बाद में उस पर ग़ैरक़ानूनी गतिविधियाँ (रोकथाम) अधिनियम के तहत आरोप लगाए गए.
22 अप्रैल से 8 मई के बीच, एसोसिएशन ऑफ़ प्रोटेक्शन ऑफ़ सिविल राइट्स ने पहलगाम हमले के बाद मुसलमानों को निशाना बनाने वाले कम से कम 184 नफ़रती अपराधों का दस्तावेजीकरण किया.
जून में, भारत ने द ओनियन से प्रेरित एक व्यंग्यात्मक मीम पेज, द सवला वडा के इंस्टाग्राम अकाउंट पर रोक लगा दी. फिर मुंबई पुलिस ने 19 लोगों को हिरासत में लिया जो फ़िलिस्तीनियों के समर्थन में एक रैली में शामिल होने के लिए आज़ाद मैदान में इकट्ठा हुए थे.
जुलाई में, भारत ने एक्स (पूर्व में ट्विटर) को 2,000 से अधिक खातों को ब्लॉक करने का आदेश दिया, जिनमें दो रॉयटर्स न्यूज़ के भी थे.
इसी महीने, महाराष्ट्र विशेष सार्वजनिक सुरक्षा अधिनियम आया जो सार्वजनिक सुरक्षा की आड़ में असहमति को अपराध बनाता है.
अगस्त में, कश्मीर ने पत्रकारों, इतिहासकारों, नारीवादियों और शांति विद्वानों द्वारा लिखी गई 25 किताबों पर प्रतिबंध लगा दिया, और उन पर ‘आतंकवाद का महिमामंडन करने और हिंसा भड़काने’ का आरोप लगाया. अगस्त में ही, गुवाहाटी पुलिस ने पत्रकारों सिद्धार्थ वरदराजन और करण थापर को राजद्रोह के एक मामले में बिना ज़्यादा जानकारी दिए तलब किया.
अगले महीने, गांधीनगर की एक अदालत ने पत्रकारों अभिसार शर्मा और राजू परुलेकर को असम में अडानी समूह को ज़मीन का एक बड़ा हिस्सा छोटी रक़म में बेचने पर रिपोर्टिंग करने के लिए नोटिस जारी किया.
कमज़ोर लोगों पर हमारा अत्याचार तेज़ी से जारी रहा. मई में, 40 रोहिंग्याओं की आँखों पर पट्टी बांधकर उन्हें अंडमान और निकोबार द्वीप समूह ले जाया गया और फिर समुद्र में फेंक दिया गया और म्यांमार के एक द्वीप तक तैरने के लिए मजबूर किया गया. और पहलगाम हमले के बाद, असम से कम से कम 300 मुसलमानों को बांग्लादेश ‘वापस धकेल’ दिया गया.
मई में, असम ने घोषणा की कि वह लोगों को, ख़ासकर मुस्लिम-बहुल ज़िलों में, हथियारों के लाइसेंस देगा.
जुलाई के पहले पखवाड़े में, गोलपाड़ा में असम द्वारा चलाए गए एक बेदखली अभियान के बाद लगभग 1800 परिवार बेघर हो गए. प्रभावित लोगों में से ज़्यादातर मुसलमान थे.
जुलाई के दूसरे पखवाड़े में, असम ने 11,000 बीघे से ज़्यादा वन भूमि को वापस लेने के लिए उरियामघाट में, जो काफ़ी हद तक मुसलमानों द्वारा बसा हुआ है, एक बड़े पैमाने पर बेदखली अभियान शुरू किया. कई प्रक्रियात्मक उल्लंघनों के कारण इस अभियान को सुप्रीम कोर्ट ने रोक दिया.
सितंबर में, भारत ने चार पुराने क़ानूनों को निरस्त कर दिया और अब शरण चाहने वालों को “अवैध प्रवासी” के रूप में वर्गीकृत करता है.
हम अभी भी अक्टूबर में हैं, और निश्चित रूप से, और भी बहुत कुछ होगा.
उमर ख़ालिद और अन्य मुस्लिम छात्र कार्यकर्ता अभी भी बिना मुक़दमे के हिरासत में हैं. उन पर फ़रवरी 2020 की उत्तर-पूर्वी दिल्ली की हिंसा में शामिल होने का आरोप है, जिसमें 53 लोगों की जान गई थी - उनमें से 38 मुसलमान थे.
संयुक्त राष्ट्र के मानवाधिकार उच्चायुक्त भी एक रिपोर्ट जारी करते हैं और उन्होंने निम्नलिखित कहा:
“मैं मानवाधिकार रक्षकों और स्वतंत्र पत्रकारों के ख़िलाफ़ प्रतिबंधात्मक क़ानूनों के इस्तेमाल और उनके उत्पीड़न को लेकर चिंतित हूँ, जिसके कारण मनमानी गिरफ़्तारियाँ हो रही हैं और नागरिक समाज के लिए जगह कम हो रही है, जिसमें कश्मीर भी शामिल है. मैं बातचीत, शांति-निर्माण और मानवाधिकारों के आधार पर मणिपुर में हिंसा और विस्थापन को संबोधित करने के लिए और तेज़ प्रयास करने का भी आह्वान करता हूँ.”
इस चिंता पर भारत की प्रतिक्रिया दूरदर्शन पर एक ख़बर चलाना थी जिसका शीर्षक था ‘भारत ने कश्मीर और मणिपुर पर बेबुनियाद और निराधार टिप्पणी के लिए संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार की निंदा की’.
लेखक एमनेस्टी इंडिया के प्रमुख हैं. साथ में स्तंभकार भी.
किताब: ‘गांधी: द एंड ऑफ नॉनवायलेंस’
समाज को समझने के लिए गांधी को नए तरीक़ों से खोजने की कोशिश
मनाश फ़िराक़ भट्टाचार्जी की किताब ‘गांधी: द एंड ऑफ नॉनवायलेंस’ 1946-47 की सांप्रदायिक हिंसा पर एक शानदार अभिव्यक्ति के साथ सामने आई है. यह किताब बंगाल, बिहार और दिल्ली में नरसंहार को रोकने के लिए गांधी के हस्तक्षेप से जुड़ी है. भट्टाचार्जी गांधी की “असफलताओं” पर भी प्रकाश डालते हैं. लेखक का कहना है कि भारत का विभाजन नेतृत्व की विफलता थी, जिसने इसके परिणामों का अनुमान नहीं लगाया था. अलीगढ़ यूनिवर्सिटी में इतिहास के प्रोफ़ेसर मोहम्मद सज्जाद ने मनश फ़िराक़ भट्टाचार्जी की पुस्तक की समीक्षा की है. सज्जाद के अनुसार, यह पुस्तक महात्मा गांधी का एक स्पष्ट चित्र प्रस्तुत करती है, जो उनके अनुसार, सुनने की राजनीति में विश्वास करते थे.
किताब में बताया गया है कि गांधी का हस्तक्षेप राज्य मशीनरी के संसाधनों द्वारा समर्थित नहीं था. वास्तव में, गांधी एकमात्र नैतिक शक्ति थे, जिनके साथ उनके कुछ समर्पित अनुयायी थे. स्क्रॉल.इन में मोहम्मद सज्जाद लिखते हैं कि यहीं पर एक और सवाल उठता है: जिन्ना या मुस्लिम लीग के अन्य मुस्लिम नेताओं ने उन हिस्सों में ग़ैर-मुस्लिम (हिंदू और सिख) अल्पसंख्यकों को बचाने के लिए क्यों क़दम नहीं उठाए, जो 14 अगस्त, 1947 के बाद पाकिस्तान बन गए?
एक के बाद एक अध्याय में, भट्टाचार्जी हिंसा, पश्चाताप (और उसकी कमी) की व्याख्या करने के लिए नैतिक-दार्शनिक टिप्पणियां लाते हैं. किताब में बताया गया है कि गांधी सुनने की राजनीति में थे, जबकि आधुनिक राजनीति में, “नेता और विचारक लोगों से उपदेश देने और व्याख्यान देने के लिए मिलते हैं, सुनने के लिए नहीं”. और उनमें एक पीड़ित से भी कुछ कठोर कहने की नैतिक हिम्मत थी. किताब में लिखा है, “दोनों समुदायों को उनके राजनीतिक नेताओं ने छोड़ दिया था, उन्हें उनके घरों से उखाड़ दिया गया था, एक ऐसी आपदा का सामना करने के लिए मजबूर किया गया था जो हैरान करने वाली और घातक थी. केवल एक 78 वर्षीय नाज़ुक लेकिन उत्साही व्यक्ति उनके दुखों को सुन रहा था, उन्हें डांट रहा था, उनकी गालियां और ग़ुस्सा सह रहा था, प्रेम और शांति पर ज़ोर दे रहा था.”
समीक्षक मोहम्मद सज्जाद के अनुसार, भट्टाचार्जी की किताब हमें नए तरीक़ों से गांधी को फिर से खोजने में मदद करती है, जो समकालीन समय के विभाजनकारी समाज और राजनीति को समझने के लिए अंतर्दृष्टि प्रदान करती है. भट्टाचार्जी प्रस्तावना में दावा करते हैं कि यह किताब “इतिहास-लेखन की राजनीति का एक मेटा-ऐतिहासिक मूल्यांकन है”. समीक्षक कहते हैं कि किताब की भाषा सुंदर काव्यात्मक है और अकादमिक इतिहास लेखन में ऐसा सुंदर गद्य मिलना मुश्किल है.
“स्क्रॉल.इन” में प्रकाशित समीक्षा में कहा गया है कि भारत को आज़ादी 1947 में मिली, लेकिन यह धर्म-आधारित क्षेत्रीय विभाजन, बड़े पैमाने पर हत्याओं और विस्थापन के साथ आई. विभाजन की हिंसा के घावों के इर्द-गिर्द की राजनीति आज भी हिंदू-मुस्लिम विवाद को समय-समय पर जन्म देती रहती है.
भट्टाचार्जी की पुस्तक 1946-47 की सांप्रदायिक हिंसा के दौरान बंगाल, बिहार और दिल्ली में नरसंहार को रोकने के लिए गांधी के हस्तक्षेप पर विस्तार से बात करती है. लेखक गांधी की “विफलताओं” की भी व्याख्या करते हैं, यह मानते हुए कि भारत का विभाजन उस नेतृत्व की विफलता थी, जिसने इसके परिणामों का अनुमान नहीं लगाया था.
गांधी का हस्तक्षेप राज्य मशीनरी के संसाधनों द्वारा समर्थित नहीं था. गांधी एकमात्र नैतिक शक्ति थे. लेखक इस बात पर सवाल उठाते हैं कि अगर बिहार और दिल्ली के मुस्लिम अल्पसंख्यकों को बचाने के लिए गांधी और नेहरू हर संभव प्रयास कर रहे थे, तो पाकिस्तान बनने वाले सिंध और पंजाब में हिंदू और सिख अल्पसंख्यकों को बचाने के लिए मुस्लिम लीग के अन्य नेता क्यों नहीं आगे आए.
भट्टाचार्जी तर्क देते हैं कि गांधी सुनने की राजनीति में थे, जबकि आधुनिक राजनीति में नेता और विचारधारा के लोग लोगों से मिलने पर केवल उपदेश देते हैं, सुनते नहीं हैं. 78 वर्षीय कमज़ोर लेकिन उत्साही गांधी ही थे, जो लोगों के दुख सुन रहे थे, उन्हें फटकार रहे थे, उनके दुर्व्यवहार और क्रोध को झेल रहे थे, लेकिन प्रेम और शांति पर जोर दे रहे थे. यह पुस्तक गांधी को नए तरीकों से फिर से खोजने में मदद करती है, और समकालीन समय के विखंडित समाज व राजनीति को समझने के लिए अंतर्दृष्टि प्रदान करती है.
आज के लिए इतना ही. हमें बताइये अपनी प्रतिक्रिया, सुझाव, टिप्पणी. मिलेंगे हरकारा के अगले अंक के साथ. हरकारा सब्सटैक पर तो है ही, आप यहाँ भी पा सकते हैं ‘हरकारा’...शोर कम, रोशनी ज्यादा. व्हाट्सएप पर, लिंक्डइन पर, इंस्टा पर, फेसबुक पर, यूट्यूब पर, स्पोटीफाई पर , ट्विटर / एक्स और ब्लू स्काई पर.