07/09/2025: जमानत नहीं देनी, तो सुनवाई का नाटक क्यों? | चुनाव आयोग बना वोट चोरी जांच में रोड़ा | ट्रम्प से क्या सीखा मोदी ने | उर्दू किसकी है ? | बढ़ते ही जाते गौमूत्र के चमत्कार | ईश्वर का इंफ्लूएंसर
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निधीश त्यागी, साथ में राजेश चतुर्वेदी, गौरव नौड़ियाल, फ़लक अफ़शां
आज की सुर्खियां
इंसाफ़ का इंतज़ार या सज़ा? उमर खालिद की ज़मानत याचिका पर कपिल सिब्बल ने उठाए बड़े सवाल.
6000 वोटरों के नाम गायब करने की साज़िश, अब जांच में चुनाव आयोग ही बना रोड़ा?
'डेड इकोनॉमी', 'मोदी का युद्ध'... ट्रंप ने भारत को क्या सबक सिखाया?
न दोस्त, न बराबर का साझीदार... क्या अमेरिका के लिए भारत सिर्फ़ एक 'ग्राहक' है?
माल्या-नीरव को लाने की तैयारी? तिहाड़ जेल का जायज़ा लेने पहुंचे ब्रिटिश अधिकारी.
विश्वगुरु का सपना, पर यूनिवर्सिटी में गुरु ही नहीं! IIT-IIM में हज़ारों पद खाली.
जावेद अख़्तर के विरोध पर नसीरुद्दीन शाह का सवाल- 'आखिरकार, उर्दू है किसकी?'
गोमूत्र से कैंसर का इलाज, गोबर से 'वैदिक प्लास्टर'... जयपुर के 'गौ महाकुंभ' में क्या-क्या?
'आदिवासी हिंदू नहीं हैं', कांग्रेस नेता के बयान पर मध्य प्रदेश में सियासी भूचाल.
दूसरों का भविष्य बताने वाला ज्योतिषी, अपनी ही गिरफ्तारी न जान सका.
'ईश्वर का इन्फ्लुएंसर' बनेगा पहला मिलेनियल संत, जींस-ट्रेनर्स में रखे हैं अवशेष.
अडानी पर 'मानहानिकारक' खबर छापने से रोका, कोर्ट का पत्रकारों और वेबसाइटों पर एक्शन.
272 दिन, 407 दिन : प्रोसेस ही पनिशमेंट
अगर आप ज़मानत नहीं देना चाहते हैं तो सीधे याचिका ख़ारिज कर दीजिए. 20-30 बार सुनवाई करने की ज़रूरत क्यों है : कपिल सिब्बल
सीनियर एडवोकेट कपिल सिब्बल ने कहा है कि उमर खालिद के मामले में दिल्ली हाईकोर्ट ने ज़मानत याचिका पर फ़ैसला करने में 407 दिन लगाकर सुप्रीम कोर्ट के उन फ़ैसलों का उल्लंघन किया गया है, जिनमें ज़मानत याचिकाओं की त्वरित सुनवाई पर ज़ोर दिया गया था.
राज्यसभा सदस्य सिब्बल ने एक प्रेस कॉन्फ़्रेंस कहा कि इस आदेश को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी जाएगी, क्योंकि खालिद को स्वतंत्रता के अधिकार से वंचित किया गया है. उन्होंने बताया कि खालिद चार साल, 11 महीने और 15 दिन से जेल में बंद है. सिब्बल की यह प्रेस कॉन्फ़्रेंस उस पृष्ठभूमि में हुई जब पूर्व सीजेआई डी.वाई. चंद्रचूड़ के इस बयान की चर्चा थी कि खालिद के वकील ने कम से कम सात बार स्थगन मांगे थे. चंद्रचूड़ का बिना नाम लिए सिब्बल ने कहा कि सुप्रीम कोर्ट में जब यह मामला लंबित था, तब बचाव पक्ष ने सिर्फ़ दो स्थगन मांगे थे —एक जुलाई 2023 में और दूसरा सितंबर 2023 में. उन्होंने बताया, “ज़मानत याचिका सुप्रीम कोर्ट में 272 दिन लंबित रही. पहली बार इसकी सुनवाई 18 मई 2023 को हुई थी और फिर फ़रवरी 2024 में याचिका वापस ले ली गई.” इसके बाद खालिद ने दूसरी बार हाईकोर्ट का रुख़ किया. सिब्बल ने कहा, “अगर अदालत सालों तक फ़ैसला नहीं देती तो क्या इसके लिए वकील ज़िम्मेदार हैं? यही अदालत की स्थिति है. अगर आप ज़मानत नहीं देना चाहते हैं तो सीधे याचिका ख़ारिज कर दीजिए. 20-30 बार सुनवाई करने की ज़रूरत क्यों है?”
उन्होंने कहा, “2022 और 2024 में दो अपीलें दायर हुईं, दोनों हाईकोर्ट ने खारिज कर दीं. पहली अपील, जो हाईकोर्ट में आई, 180 दिनों में 28 बार सुनी गई. 2024 की अपील को ख़ारिज करने में 407 दिन लगे.”
कड़े आतंकवाद संबंधी आरोपों पर सवाल उठाते हुए, जो खालिद पर गैरक़ानूनी गतिविधि (निवारण) अधिनियम यानी यूएपीए के तहत लगाए गए हैं, सिब्बल ने कहा कि कई मामलों में यूएपीए के आरोपियों को ज़मानत मिल चुकी है. उन्होंने कहा, “मैं पूरे विश्वास के साथ कहना चाहता हूं कि जब उनका (खालिद और अन्य आरोपियों का) मुकदमा चलेगा, तो लगभग सभी बरी हो जाएंगे.”
शरजील इमाम ने सुप्रीम कोर्ट का रुख़ किया
वर्ष 2020 के दिल्ली दंगों की साज़िश के मामले में अभियुक्त शरजील इमाम ने शनिवार को सुप्रीम कोर्ट का रुख़ किया. इससे पहले दिल्ली हाईकोर्ट ने इमाम को ज़मानत देने से इनकार किया था. उन्होंने हाईकोर्ट के उस आदेश को चुनौती दी है, जिसमें उनके अलावा उमर खालिद, मोहम्मद सलीम खान, शिफा-उर-रहमान, अथर खान, मीरान हैदर, अब्दुल खालिद सैफी और गुलफिशा फातिमा की जमानत याचिकाएं खारिज कर दी गई थीं.
वोट चोरी
कर्नाटक वोटर धोखाधड़ी जांच में अड़ंगा चुनाव आयोग ने डाला, तकनीकी डेटा साझा नहीं किया
कर्नाटक की आपराधिक जांच विभाग (सीआईडी) द्वारा 2023 के विधानसभा चुनाव से पहले कलबुर्गी ज़िले के आलंद विधानसभा क्षेत्र में फ़ॉर्म 7 का फ़र्ज़ीवाड़ा कर मतदाता सूची से 5,994 मतदाताओं के नाम हटाने के एक संगठित प्रयास की जांच एक अड़चन पर पहुंच गई है. जांच इसलिए ठप हो गई है क्योंकि भारत निर्वाचन आयोगने अभी तक उन महत्वपूर्ण तकनीकी डेटा को साझा नहीं किया है जो अभियुक्तों को पकड़ने के लिए ज़रूरी हैं. हिंदू ने इस पर विस्तार से लिखा है.
यह मामला दर्शाता है कि कैसे एक संगठित तरीके से हज़ारों मतदाताओं को उनके मतदान के अधिकार से वंचित करने की कोशिश की गई. यह चुनाव आयोग की भूमिका और जांच में सहयोग न करने के आरोपों को भी उजागर करता है, जिससे लोकतांत्रिक प्रक्रिया में विश्वास कम हो सकता है.
यह मामला फरवरी 2023 में सामने आया, जब कांग्रेस नेता और आलंद के उम्मीदवार बी.आर. पाटिल को पता चला कि उनके क्षेत्र में मतदाताओं की जानकारी के बिना उनके नाम हटाने के लिए कई आवेदन किए जा रहे हैं. उन्होंने तुरंत चुनाव आयोग से शिकायत की. जांच में पता चला कि कुल 6,018 आवेदनों में से केवल 24 ही असली थे, जबकि बाकी 5,994 आवेदन फ़र्ज़ी थे. इसके बाद अज्ञात लोगों के खिलाफ़ जालसाज़ी और झूठे दस्तावेज़ देने के आरोप में FIR दर्ज की गई. सीआईडी ने जांच के लिए चुनाव आयोग से उन आवेदनों के आईपी लॉग, डेस्टिनेशन आईपी और डेस्टिनेशन पोर्ट्स का विवरण मांगा, ताकि उन डिवाइसों का पता लगाया जा सके जिनसे ये फ़र्ज़ी आवेदन किए गए थे. हालांकि, कई बार अनुरोध के बावजूद, चुनाव आयोग ने यह महत्वपूर्ण डेटा उपलब्ध नहीं कराया है, जिससे जांच आगे नहीं बढ़ पा रही है.
अपराधियों ने बहुत ही चालाकी से काम किया. उन्होंने राष्ट्रीय मतदाता सेवा पोर्टल (NVSP), वोटर हेल्पलाइन ऐप (VHA) और गरुड़ ऐप जैसे चुनाव आयोग के ऑनलाइन प्लेटफ़ॉर्म का इस्तेमाल किया. आवेदन करने के लिए जिन मोबाइल नंबरों का इस्तेमाल किया गया, वे ज़्यादातर महाराष्ट्र और आंध्र प्रदेश के थे, और उनके मालिकों को इस बारे में कोई जानकारी नहीं थी. अपराधियों ने डायनेमिक आईपी एड्रेस का इस्तेमाल किया, जिससे उन्हें ट्रैक करना मुश्किल हो गया. डेस्टिनेशन आईपी और डेस्टिनेशन पोर्ट्स के बिना, लाखों संभावित डिवाइसों की जांच करना सीआईडी के लिए लगभग असंभव है. इस पूरी प्रक्रिया ने चुनाव आयोग के ऐप्स की सुरक्षा और OTP प्रमाणीकरण प्रणाली पर भी गंभीर सवाल खड़े किए हैं.
जब तक चुनाव आयोग आवश्यक तकनीकी डेटा सीआईडी को नहीं सौंपता, तब तक यह जांच रुकी रहेगी और इस बड़ी साज़िश के पीछे के असली अपराधी शायद ही कभी पकड़े जा सकेंगे. विधायक बी.आर. पाटिल ने चिंता व्यक्त करते हुए कहा है कि अगर समय पर हस्तक्षेप नहीं किया गया होता तो हज़ारों योग्य मतदाता अपने मताधिकार से वंचित हो जाते. उन्होंने चुनाव आयोग से लोकतंत्र को बचाने के लिए जांच में पूरा सहयोग करने का आग्रह किया है.
इस वर्ष के अंत में पूरे देश में एसआईआर
चुनाव आयोग का शीर्ष नेतृत्व अगले सप्ताह अपने राज्य प्रतिनिधियों के साथ पूरे देश में मतदाता सूची के विशेष गहन पुनरीक्षण की तैयारियों पर चर्चा करेगा. आयोग ने बुधवार को राज्यों के मुख्य निर्वाचन अधिकारियों की बैठक बुलाई है. संकेत हैं कि “एसआईआर” की यह प्रक्रिया इस वर्ष के अंत में असम, केरल, पुडुचेरी, तमिलनाडु और पश्चिम बंगाल में 2026 के विधानसभा चुनावों से पहले शुरू हो सकती है.
विश्लेषण
मुकुल केसवन | ट्रम्प से बार बार झटका खाने के बाद मोदी के लिए कठिन सबक
यह लेख गार्डियन के ओपनियन पेज में प्रकाशित हुआ. उसके खास अंश.
जब डोनाल्ड ट्रम्प ने अपना दूसरा कार्यकाल जीता, तो भारत का शासक वर्ग मन ही मन खुश हुआ होगा. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा किंग डोनाल्ड को रिझाने के दिखावटी प्रयासों ने, चाहे वे पद पर रहे हों या नहीं, यह संकेत दिया कि धुर दक्षिणपंथ के इन दो दिग्गजों के बीच एक विशेष केमिस्ट्री है.
जैसे ही ट्रम्प ने टैरिफ को हथियार बनाकर वैश्विक व्यापार और भू-राजनीति को नया आकार देना शुरू किया, भारत ने अमेरिका के साथ जल्द ही व्यापार वार्ता शुरू कर दी. नई दिल्ली ने यह स्वीकार कर लिया था कि कृषि और डेयरी उत्पादों पर अपनी लक्ष्मण रेखाओं को देखते हुए बातचीत मुश्किल होगी. फिर भी, वह भारत के आर्थिक दबदबे – और चीन के मुकाबले एक जवाबी ताकत के रूप में अमेरिका के लिए उसके रणनीतिक मूल्य – के अनुरूप एक सौदा पाने को लेकर आशावादी था.
इसके बजाय, ट्रम्प ने पहले अप्रैल में भारत पर 25% का टैरिफ लगाया, जो खुद ही अमेरिका के अधिकांश सहयोगियों पर लगाए गए दर से अधिक था. अब यह बढ़कर 50% हो गया है, जो यूक्रेन के साथ युद्ध के दौरान रूसी तेल खरीदने, रिफाइन करने और निर्यात करने के लिए भारत को दी गई सजा है. यह टैरिफ दर अमेरिका को होने वाले सभी गैर-छूट वाले भारतीय निर्यातों को अप्रतिस्पर्धी बना देगी.
ट्रम्प के साथ मोदी का बहु-प्रचारित विशेष संबंध अब हास्यास्पद लगता है. और यह सिर्फ टैरिफ की बात नहीं थी. अप्रैल में पहलगाम आतंकवादी कांड के बाद पाकिस्तान के साथ भारत के संक्षिप्त युद्ध में ट्रम्प और उनके उपराष्ट्रपति जेडी वेंस ने भारत और पाकिस्तान को झगड़ालू दक्षिण एशियाई पड़ोसियों के रूप में देखा, जिन्हें अमेरिकी हस्तक्षेप द्वारा काबू में लाने की आवश्यकता थी. ट्रम्प का यह जोर देना कि उनकी टेलीफोन पर दी गई धमकियों ने भारत और पाकिस्तान को लड़ने से रोकने के लिए मजबूर किया, भारत और पाकिस्तान को उपद्रवी बाधाओं के रूप में एक ही श्रेणी में रखता प्रतीत हुआ, यह एक अपमानजनक समानता थी जिसे अस्वीकार करना भारत ने अपना कर्तव्य समझा. बाद में यह भी कहा गया कि 50% टैरिफ का असली कारण भारत द्वारा नोबेल शांति पुरस्कार के लिए बेताब ट्रम्प को शांति स्थापित करने का श्रेय देने से इनकार करना था.
ट्रम्प ने यह स्पष्ट कर दिया कि यह एक दंडात्मक कार्रवाई थी. उन्होंने भारत को 'मृत अर्थव्यवस्था' कहकर खारिज कर दिया, जबकि उनके मुख्य व्यापार सलाहकार, पीटर नवारो, ने भारत पर रियायती रूसी तेल खरीदकर युद्ध से मुनाफाखोरी का आरोप लगाया. उन्होंने यूक्रेनी संघर्ष को 'मोदी का युद्ध' तक कह डाला.
संबंधों में इस शर्मनाक गिरावट ने एक अच्छी पहुंच वाले विश्व राजनेता की भूमिका निभाने के मोदी के दशक भर के प्रयास को बदनाम कर दिया है. विश्व नेताओं के साथ उनके फोटो अवसरों की विशेषता रहे जोशीले आलिंगन और अत्यधिक मिलनसारिता अब पीछे मुड़कर देखने पर भद्दे लगते हैं. लेकिन भारत-अमेरिका संबंधों में इस मोड़ को केवल शक्तिशाली व्यक्तियों के संदर्भ में सोचना एक गलती होगी.
भारत जैसे बड़े देशों की भू-राजनीतिक जड़ें होती हैं जिन्हें आसानी से ढीला नहीं किया जा सकता. गुटनिरपेक्षता – शीत युद्ध काल में भारत की न तो पूंजीवादी और न ही साम्यवादी होने की स्थिति – मोदी के भारत में अपनी नेहरूवादी पृष्ठभूमि के कारण एक प्रचलित शब्द नहीं है, लेकिन उनकी विदेश नीति ने एक बहुध्रुवीय दुनिया में भारत की कार्रवाई की स्वतंत्रता को बनाए रखने की कोशिश की है. गुटनिरपेक्षता अब 'रणनीतिक स्वायत्तता' के झंडे तले उड़ सकती है, लेकिन इसका उद्देश्य अलग नहीं है. बाइडेन प्रशासन के मौन आशीर्वाद से रूसी तेल खरीदने, उसे रिफाइन करने और यूरोप को फिर से निर्यात करने की भारत की क्षमता को हाल तक इस गुट-निरपेक्ष लचीलेपन के एक उदाहरण के रूप में देखा जाता था.
जो बदला वह यह था कि पिछली चौथाई सदी में, भारत का राजनीतिक वर्ग अमेरिका को देश के स्वाभाविक भागीदार के रूप में देखने लगा था. यह भारत के निर्यातों का मुख्य गंतव्य था और साथ ही इसके शासक वर्ग के बच्चों के लिए एक आकांक्षापूर्ण गंतव्य भी था. मोदी के पूर्ववर्ती, मनमोहन सिंह, जिन्होंने भारत-अमेरिका परमाणु समझौते पर हस्ताक्षर किए थे, के समय से ही भारत का झुकाव वाशिंगटन की ओर रहा है. क्वाड, चार देशों – जापान, ऑस्ट्रेलिया, अमेरिका और भारत – का एक समूह, जिसे इंडो-पैसिफिक में चीन की योजनाओं को विफल करने के लिए बनाया गया है, को व्यापक रूप से इस पश्चिमी झुकाव के संकेत के रूप में पढ़ा गया.
इस झुकाव ने भारत की विदेश नीति में एक अजीब असंतुलन पैदा कर दिया है. रणनीतिक स्वायत्तता में अपने पैर मजबूती से जमाए रखते हुए, भारत अमेरिका की ओर झुका है ताकि उन गठबंधनों के माध्यम से करीब और व्यक्तिगत हो सके जो पूरी तरह से गठबंधन नहीं हैं, और ऐसी भावनाओं के माध्यम से जिनका कोई ठोस आधार नहीं है. मोदी के अधीन भारत के नीति-निर्माताओं ने मान लिया था कि भारत के कुल आर्थिक दबदबे और उसकी विकास दर ने उसे दुनिया की शीर्ष मेज पर पहुंचा दिया है.
तथ्य यह है कि भारत न तो पश्चिम और न ही अंग्रेजी भाषी दुनिया का संस्थापक सदस्य बनने के लिए पर्याप्त अमीर है, न पर्याप्त गोरा है और न ही पर्याप्त अंग्रेजी बोलने वाला है. मोदी के नौकरशाह यह भूल गए कि – पश्चिम के सम्मोहित दायरे के बाहर – अमेरिका के सहयोगी नहीं होते, उसके ग्राहक होते हैं. नाराजगी के कारण भारत पर टैरिफ और बढ़ाने का ट्रम्प का निर्णय इस बात की याद दिलाता था कि अमेरिकी राष्ट्रपतियों ने अक्सर भारत को या तो एक याचक या एक बाधा या दोनों के रूप में देखा है.
पंडितों का तर्क है कि ट्रम्प मनमौजी व्यक्ति हैं, कि भारत-अमेरिका संबंध आर्थिक और भू-राजनीतिक दोनों रूप से इतने महत्वपूर्ण हैं कि यह ठंडापन टिक नहीं सकता. यह अधिक संभावना है कि ट्रम्प समय से आगे हैं, कि वह जोर से वह कह रहे हैं जिसे अन्य पश्चिमी नेता अभी भी उदारवादी परंपरा से इतने बंधे हुए हैं कि कह नहीं सकते.
पश्चिमी उदारता हमेशा पश्चिमी आधिपत्य पर आधारित रही है. एक बार जब जलवायु संकट और चीन के उदय ने यह स्पष्ट कर दिया कि पश्चिम की सर्वोच्चता भविष्य के लिए सुरक्षित नहीं थी; एक बार जब स्थिर आर्थिक विकास का वादा, जो धर्मनिरपेक्ष प्रगति का आधुनिक पैमाना है, पूरा न हो सका, तो पश्चिमी मध्यमार्गियों ने उस विश्व व्यवस्था से अलग होना शुरू कर दिया जिसे उन्होंने अपने वैभव के दिनों में बनाया था. गाजा इस अलगाव का कुल योग है. डब्ल्यूटीओ, विदेशी सहायता, शरण चाहने वालों के लिए उचित प्रक्रिया, अंतर्राष्ट्रीय मानवीय कानून, संयुक्त राष्ट्र प्रणाली – पश्चिम द्वारा निर्मित और अमेरिका के नेतृत्व वाली पूरी युद्धोत्तर व्यवस्था – को दरकिनार किया जा रहा है क्योंकि अमीर देश एक जरूरतमंद, उपद्रवी दुनिया के खिलाफ अपने किले मजबूत कर रहे हैं.
इसके कारण पश्चिमी देशों में एजेंडा-निर्धारक धुर-दक्षिणपंथी दलों का लगभग एक साथ उदय हुआ है. ट्रम्प-जैसे और ट्रम्प-लाइट लोकलुभावन नेता अपरिहार्य हो गए हैं. निगेल फराज, जॉर्डन बार्डेला, एलिस वीडेल, विक्टर ओर्बान इस बात के जीते-जागते सबूत हैं कि ट्रम्प का राष्ट्रवाद और संरक्षणवाद का मिश्रण वह वास्तविकता है जिसका सामना भारत और सामान्य तौर पर गैर-पश्चिमी देशों को निकट भविष्य में करना होगा. (ट्रम्प के दूसरे कार्यकाल के खुलासों में से एक यह रहा है कि यूरोपीय नेता अमेरिका को खुश करने के लिए खुद को नीचा दिखाने को तैयार हैं.).
ट्रम्प की अशिष्टताओं के बारे में उदारवादियों की तमाम चिंताओं के बावजूद, जहाँ वह नेतृत्व करते हैं, यूरोपीय राजनीतिक वर्ग उनका अनुसरण करेगा. ट्रम्प के टैरिफ सनक नहीं हैं, वे भविष्य के संकेत हैं. वे उस दीवार में ईंटें हैं जिसे पश्चिम अपने परिसर को मजबूत करने के लिए बना रहा है.
मोदी, अपने से पहले के भारतीय प्रधानमंत्रियों की तरह, सीख रहे हैं कि भूगोल से परे नहीं जाया जा सकता, कि गुटनिरपेक्षता कोई विकल्प नहीं है – यह एक आवश्यकता है. दुनिया में भारत की जगह अक्सर उसके सामने गंभीर, सीमित विकल्प प्रस्तुत करेगी. यह चीन की तरह एक बराबरी वाले के रूप में अमेरिका का सामना नहीं कर सकता. न ही यह यूरोपीय संघ की तरह ट्रम्प के सामने झुक सकता है, जैसे कोई ग्राहक सुरक्षा की तलाश में हो. भारत एक रस्सी पर चलना जारी रखेगा, कभी इधर तो कभी उधर लड़खड़ाते हुए, क्योंकि यह अपने कमजोर लोगों की सतर्क नजरों के नीचे एक शत्रुतापूर्ण दुनिया से निपट रहा है.
मुकुल केसवन एक भारतीय इतिहासकार, उपन्यासकार और राजनीतिक और सामाजिक निबंधकार हैं.
माल्या और नीरव मोदी के प्रत्यर्पण के बीच, ब्रिटिश अधिकारियों ने तिहाड़ जेल का दौरा किया
ब्रिटिश अधिकारियों के एक दल ने दिल्ली की तिहाड़ जेल का दौरा कर वहां की स्थितियों का निरीक्षण किया है. यह दौरा ऐसे समय में हुआ है जब भारत सरकार विजय माल्या और नीरव मोदी जैसे भगोड़े आर्थिक अपराधियों को ब्रिटेन से प्रत्यर्पित कराने के लिए लगातार प्रयास कर रही है. ब्रिटेन की अदालतें अक्सर प्रत्यर्पण याचिकाओं पर सुनवाई करते समय भारतीय जेलों की स्थितियों, खासकर मानवाधिकार और सुरक्षा को लेकर चिंता जताती रही हैं. इस दौरे के ज़रिए भारत ब्रिटिश अधिकारियों को यह विश्वास दिलाना चाहता है कि प्रत्यर्पित होकर आने वाले कैदियों को सुरक्षित और मानवीय माहौल में रखा जाएगा, जिससे प्रत्यर्पण की प्रक्रिया में आने वाली एक बड़ी कानूनी अड़चन को दूर किया जा सके.
ब्रिटिश उच्चायोग के दो अधिकारियों सहित चार सदस्यीय दल ने 16 जुलाई को तिहाड़ की जेल नंबर 4 का दौरा किया. यह जेल पहली बार अपराध करने वाले कैदियों के लिए है. दल ने उच्च-सुरक्षा वाले वार्डों का निरीक्षण किया और कुछ कैदियों से बातचीत भी की. तिहाड़ के अधिकारियों ने ब्रिटिश दल को आश्वासन दिया कि प्रत्यर्पित किए जाने वाले कैदियों की उचित देखभाल की जाएगी और ज़रूरत पड़ने पर उन्हें अन्य कैदियों से अलग रखने के लिए एक विशेष बाड़ा (enclosure) भी बनाया जा सकता है.
हाल के वर्षों में तिहाड़ जेल के अंदर गैंगवार, हत्याओं और कैदियों पर हमलों की घटनाओं ने जेल की सुरक्षा पर गंभीर सवाल उठाए हैं. 2023 में टिल्लू ताजपुरिया जैसे गैंगस्टर की हत्या ने इन चिंताओं को और बढ़ा दिया था. ब्रिटिश अदालतें इन्हीं रिपोर्टों के आधार पर प्रत्यर्पण से इनकार कर सकती हैं. यह दौरा भारत द्वारा इन चिंताओं को सीधे संबोधित करने और यह दिखाने का एक प्रयास है कि वह उच्च-प्रोफ़ाइल कैदियों की सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए तैयार है.
ब्रिटिश अधिकारियों का यह दल अपनी रिपोर्ट ब्रिटेन की क्राउन प्रॉसिक्यूशन सर्विस (CPS) को सौंपेगा. इस रिपोर्ट का इस्तेमाल माल्या, नीरव मोदी और संजय भंडारी जैसे भगोड़ों के प्रत्यर्पण मामलों की सुनवाई के दौरान किया जाएगा. अगर रिपोर्ट सकारात्मक रहती है, तो इससे ब्रिटेन की अदालतों में भारत का पक्ष मज़बूत होगा और इन भगोड़ों को भारत वापस लाने की प्रक्रिया में तेज़ी आ सकती है.
एवन इंडस्ट्रीज के खिलाफ सीबीआई की एफआईआर
वैंकटेश इंफ्रा प्रोजेक्ट्स प्राइवेट लिमिटेड (वीआईपीपीएल) के बाद अब एवन स्टील इंडस्ट्रीज प्राइवेट लिमिटेड, स्टील अथॉरिटी ऑफ इंडिया लिमिटेड (सेल) से जुड़ी कथित स्टील बिक्री घोटाले का नया केंद्र बनकर उभरी है. लोकपाल की फटकार के बाद सीबीआई ने उसके खिलाफ एफआईआर दर्ज की है. इसमें आरोप लगाया गया है कि सेल अधिकारियों की मिलीभगत से एवन को कच्चे माल सस्ते दामों पर बेचे गए, जिससे कंपनी को लगभग 263 करोड़ रुपये से 370 करोड़ रुपये तक का नुकसान हुआ.
अडानी समूह पर ‘मानहानिकारक’ और ‘अपुष्ट’ खबरें करने से रोक
दिल्ली की एक अदालत ने शनिवार को कई पत्रकारों और दो वेबसाइटों को अडानी समूह के बारे में प्रथम दृष्टया मानहानिकारक और अप्रमाणित खबरें प्रकाशित करने से अस्थायी रूप से रोक दिया. रोहिणी कोर्ट के विशेष सिविल जज अनुज कुमार सिंह ने अडानी एंटरप्राइजेज लिमिटेड के पक्ष में यह “एकपक्षीय अंतरिम निषेधाज्ञा” (एड-इंटेरिम इंजंक्शन) आदेश पारित किया. जिन पत्रकारों पर रोक लगाई गई है, वे हैं: परांजॉय गुहा ठाकुरता, रवि नायर, अबीर दासगुप्ता, अयस्कांत दास और आयुष जोशी. जिन वेबसाइटों पर रोक लगी है, वे हैं: pranjoy.in, adaniwatch.org और adanifiles.com.au. “लाइव लॉ” के अनुसार जज ने कहा, “वादी (अडानी ग्रुप) ने हाल ही में प्रकाशित और लगातार प्रसारित कथित मानहानिकारक लेखों के प्रति अपनी शिकायत दर्ज कराई है. ऐसा कोई आधार नहीं है, जिससे यह माना जा सके कि वादी ने इन कथित मानहानिकारक लेखों और पोस्टों के प्रसार को स्वीकार कर लिया है.” अदालत ने प्रतिवादियों को निर्देश दिया कि वे अडानी समूह के खिलाफ मानहानिकारक सामग्री को अपने संबंधित लेखों या सोशल मीडिया पोस्टों या ट्वीट्स से हटाएं और यदि ऐसा करना संभव न हो, तो उसे 5 दिनों के भीतर हटा दें.
गुजरात में रोपवे की तार टूटी, 6 मरे
शनिवार को गुजरात के पंचमहल ज़िले के पावागढ़ क्षेत्र में सामग्री ढोने के लिए बने रोपवे की तार टूट जाने से केबिन ज़मीन पर गिर गया, जिससे 6 लोगों की मौत हो गई. मृतकों में एक ठेकेदार के चार कर्मचारी शामिल हैं, जो पावागढ़ स्थित कालिका माता मंदिर में चल रहे नवीनीकरण और निर्माण कार्य में लगे हुए थे. एक पुलिस अधिकारी ने “द इंडियन एक्सप्रेस” को बताया कि माल ढुलाई रोपवे के केबिन में सवार लोगों की मौत टक्कर और केबिन की धातु से लगी चोटों के कारण हुई. हादसे के बाद पर्यटकों के लिए बनाए गए रोपवे को भी दोपहर बाद बंद कर दिया गया.
मप्र के सीएलपी लीडर ने कहा, आदिवासी हिंदू नहीं
मध्यप्रदेश में कांग्रेस विधानमंडल दल (सीएलपी) के नेता उमंग सिंघार ने बड़ा राजनीतिक विवाद खड़ा कर दिया, जब उन्होंने कहा कि आदिवासी हिंदू नहीं हैं. राज्य के मुख्यमंत्री मोहन यादव ने सिंघार के इस बयान पर कड़ी आपत्ति जताते हुए कहा कि यह कांग्रेस की वही संस्कृति है, जो हमेशा हिंदू समाज को बांटने की कोशिश करती रही है. रबींद्र नाथ चौधरी के अनुसार, सिंघार ने यह बयान गुरुवार को मध्यप्रदेश के छिंदवाड़ा में आयोजित आदिवासी विकास परिषद की बैठक को संबोधित करते हुए दिया. उन्होंने कहा, “मैं हमेशा यह मानता हूं कि हम आदिवासी हैं, हिंदू नहीं. मुझे अपनी आदिवासी पहचान पर गर्व है. शबरी, जो एक आदिवासी थीं, उन्होंने भगवान राम को जूठन खिलाई थी.” सिंघार चार बार के विधायक हैं और भील जनजाति से आते हैं.
जयपुर के ‘गौ महाकुंभ’ में गाय के मूत्र से लेकर ‘वैदिक प्लास्टर’ तक
जयपुर में आयोजित “गौ महाकुंभ” में आगंतुकों को गौमूत्र और गोबर के फायदे बताए जा रहे हैं. दावा किया जा रहा है कि गाय के मूत्र से कैंसर का इलाज संभव है और इसका उपयोग आयुर्वेद के अलावा आधुनिक चिकित्सा में भी महत्व रखता है. गोबर और मूत्र से बने वैदिक प्लास्टर की भी भारी चर्चा है. इसे प्राकृतिक विकल्प बताया गया है. कई आयुर्वेदिक और देसी उत्पाद जैसे पंचगव्य, गौमूत्र अर्क, नैचुरल पेंट, जैविक खेती के विकल्प प्रदर्शित किए गए. इस महाकुंभ में यह भी कहा गया कि केवल ‘गाय माता की जय’ बोलने से कुछ नहीं होगा, बल्कि गाय की सेवा अपने संस्कारों और देशहित में जरूरी है. राजस्थान गौ सेवा संघ का स्टॉल संभाल रहे भानु प्रकाश शर्मा ने कहा, “गाय के मूत्र से किडनी की बीमारी के इलाज में हमें उत्कृष्ट परिणाम मिले हैं. यह देखा गया है कि जिन मरीजों को पहले डायलिसिस कराना पड़ता था, उन्हें अब इसकी ज़रूरत नहीं रही, क्योंकि गौमूत्र से बनी दवाइयां लेने के बाद वे ठीक हो गए. गौमूत्र शरीर को शुद्ध करता है और इसका कार्य डिटॉक्स का होता है.” दीप मुखर्जी ने अपनी रिपोर्ट में लिखा है कि आयोजन में भारतीय संस्कृति के उद्धार, ग्रामीण अर्थव्यवस्था और गाय आधारित शोध को बढ़ावा देने की कोशिश हुई. जाहिर है, भाजपा व राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के कई नेता मौजूद रहे.
ज्योतिषी को पता ही नहीं था कि वह गिरफ्तार होने वाला है
मुंबई पुलिस को एक फर्ज़ी धमकी भरा संदेश भेजकर यह दावा करने वाले नोएडा के एक निवासी को गिरफ़्तार किया गया है कि 14 आतंकवादी विस्फोटकों के साथ शहर में घुस गए हैं. अधिकारियों ने शनिवार को बताया कि आरोपी ने यह सब उस व्यक्ति को फंसाने और बदला लेने के लिए किया जिसने उसके ख़िलाफ़ मामला दर्ज कराया था. आरोपी, अश्विनी कुमार (51), जो मूल रूप से बिहार के पटना का रहने वाला है, पिछले पांच सालों से नोएडा के सेक्टर 79 की एक हाउसिंग सोसाइटी में रह रहा था. वह खुद को एक ज्योतिषी और वास्तु विशेषज्ञ बताता था. मुंबई पुलिस को गुरुवार को मिला संदेश नोएडा से ट्रेस किया गया, जिसके बाद सेक्टर 113 पुलिस ने कार्रवाई की और कुमार को घंटों के भीतर गिरफ़्तार कर लिया. जांचकर्ताओं ने कहा कि कुमार ने स्वीकार किया कि उसने व्यक्तिगत दुश्मनी के चलते ऐसा किया. वह एक दोस्त से बदला लेना चाहता था जिसने 2023 में पटना में उसके ख़िलाफ़ मामला दर्ज कराया था, जिसमें उसे तीन महीने की जेल हुई थी. बदला लेने के लिए, कुमार ने अपने (दोस्त के) नाम का इस्तेमाल करके मुंबई पुलिस को धमकी भरा संदेश भेजा.
विश्वगुरु बनना चाहता है भारत, लेकिन उत्कृष्ट विश्वविद्यालयों में गुरुओं की कमी
देश के केंद्रीय विश्वविद्यालयों में 18,940 स्वीकृत फैकल्टी पदों में से 5,410 पद खाली हैं, जिससे शोध, मार्गदर्शन और भारत की वैश्विक महत्वाकांक्षाएं प्रभावित हो रही हैं. आईआईटी खड़गपुर में आधे से अधिक फैकल्टी पद रिक्त हैं, जबकि आईआईटी मद्रास में 39% की कमी है. अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (एम्स) में 1,874 फैकल्टी और 15,609 सहायक पद खाली पड़े हैं. प्रतिष्ठित आईआईएम में भी, संसदीय निर्देशों के बावजूद लगभग हर तीन में से एक शिक्षण पद रिक्त है. स्थिति में सुधार की कोई संभावना नहीं दिख रही है, क्योंकि नियुक्ति प्रक्रियाएं नौकरशाही से ग्रस्त हैं और योग्य उम्मीदवारों की संख्या भी पर्याप्त नहीं है. जादवपुर विश्वविद्यालय, पश्चिम बंगाल के अंग्रेज़ी विभाग की प्रोफेसर एमेरिटा और पीएचडी सुप्रिया चौधरी ने कहा, “फैकल्टी की रिक्तियाँ शिक्षा की गुणवत्ता को गंभीर रूप से नुकसान पहुंचा रही हैं, इसमें कोई संदेह नहीं है.” दिल्ली विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग के प्रोफेसर अपूर्वानंद ने कहा, शिक्षा की नींव इमारतें नहीं, बल्कि शिक्षक हैं. पर्याप्त फैकल्टी के बिना, शिक्षा की गुणवत्ता पर असर पड़ना निश्चित है. स्वतंत्र लेखक सूचक पटेल ने “आर्टिकल-14” में देश के शिक्षण संस्थानों की मौजूदा हालत के बारे में विस्तार से लिखा है.
आखिरकार, उर्दू है किसकी?
पश्चिम बंगाल उर्दू अकादमी ने अपने एक कार्यक्रम में पहले जावेद अख़्तर को आमंत्रित किया, लेकिन जब इसका विरोध हुआ तो अकादमी ने यह कार्यक्रम ही रद्द कर दिया. इस बारे में नसीरुद्दीन शाह ने “द इंडियन एक्सप्रेस” में एक लेख के जरिए कहा है कि कार्यक्रम को रद्द करना एक सभ्य भाषा की सर्वोत्तम परंपराओं के विरुद्ध है. नसीर सवाल उठाते हैं कि आखिरकार उर्दू है किसकी? जवाब भी वे खुद ही देते हैं. उन्होंने लिखा है- “भाषाएं क्षेत्रों की होती हैं, धर्मों की नहीं,” जावेद अख़्तर ने एक साक्षात्कार में कहा था. इस कथन की सत्यता पर बहस नहीं की जा सकती. हाल ही में पश्चिम बंगाल उर्दू अकादमी ने अपनी ‘तथाकथित समझदारी’ दिखाते हुए उर्दू पर एक संगोष्ठी को केवल इसलिए रद्द कर दिया, क्योंकि उसमें इस “शैतान, काफ़िर” (ये उनके शब्द हैं, मेरे नहीं) की भागीदारी थी. इस प्रक्रिया में अकादमी ने अपने ही पांव पर कुल्हाड़ी मार ली और जन्नत के पुण्य कमाने की कोशिश की. शायद मैं अकेला नहीं हूं, जिसे इस ‘जावेद अख़्तर प्रकरण’ पर अकादमी से कुछ सवाल पूछने का मन हो.
सबसे पहले, यह मान लेना कठिन होगा कि सभी लोग अख़्तर साहब की बार-बार और स्पष्ट राय से अंजान हैं. वे लगातार धार्मिक कट्टरता के ख़तरों और उग्र विचारों के खिलाफ़ चेतावनी देते रहे हैं – और यदि फिर भी किसी को यह पर्याप्त नहीं लगता तो शायद उसकी आस्था ही संदिग्ध है.
फिर भी, यदि यह माना जाए कि कुछ “सच्चे आस्थावान” लोग आहत होंगे, तो क्या यह उचित था कि उनकी असहजता सब पर लादी जाए? क्या उन लोगों को, जिन्होंने अख़्तर की भागीदारी का विरोध किया, वास्तव में इतनी शक्ति प्राप्त है कि वे संस्थानों को ऐसे फ़ैसले लेने के लिए मजबूर कर सकें?
क्या यह अकादमी का काम था कि वह किसी व्यक्ति के विचारों या भाषण को लेकर न्याय करे? अख़्तर एक बहुमुखी व्यक्ति हैं – वे गीतकार हैं, लेखक हैं, पटकथाकार हैं, गायक भी रहे हैं, और अनेक मुद्दों पर खुलकर विचार रखते हैं. साहित्य और संस्कृति—विशेषकर उर्दू साहित्य—में उनका योगदान निर्विवाद है. उन्होंने सिर्फ अपनी सच्चाई कही है. अगर अकादमी का मानना था कि यह उर्दू की शोभा नहीं बढ़ाएगी, तो उसे कुछ और रास्ता तलाशना चाहिए था.
अकादमी का तर्क था कि जावेद अख़्तर इस्लाम की आलोचना करते हैं और इसलिए मुसलमानों की भावनाएं आहत हो सकती हैं. लेकिन यह तर्क हास्यास्पद लगता है. क्या उर्दू की परंपरा केवल किसी एक आस्था या धार्मिक परंपरा की सेवा के लिए है? क्या उर्दू का विकास केवल मुसलमानों की देन है?
जावेद अख़्तर ने कभी उर्दू को लेकर कोई अपराध नहीं किया. आलोचना दरअसल इस्लाम के नाम पर किए गए पाखंड और अंधभक्ति के खिलाफ़ है. उन्होंने हमेशा कहा है कि वे किसी तीर्थस्थल पर योगदान करने की जगह इंसानियत और समानता को महत्व देते हैं. क्या इसके लिए उन्हें ‘गुनहगार’ ठहराया जाना चाहिए?
क्या अकादमी, जिसका उद्देश्य ही उर्दू के प्रसार और सराहना को आगे बढ़ाना है, यह नहीं समझ रही कि इस तरह का रुख़ उल्टा असर करेगा? इससे तो यही साबित होगा कि उर्दू केवल मुसलमानों की भाषा है, और गैर-मुसलमानों का उसमें कोई स्थान नहीं.
लेकिन सच यह है कि उर्दू एक साझा भाषा है, जिसे हिंदू, मुसलमान, सिख, ईसाई सभी ने अपनाया है. उदाहरण के लिए आयरिश कैथोलिक विद्वान विक्टर कीरन, जो उर्दू और फ़ारसी के बड़े विद्वान थे और जिन्होंने स्पष्ट रूप से कहा था कि वे मुसलमान नहीं हैं. इसीलिए, इस तरह की संकीर्ण सोच उर्दू की असली परंपरा के खिलाफ़ है. ग़ैर-मुस्लिम उर्दू लेखक और कवियों की सूची, जिन्होंने उर्दू के विकास में योगदान दिया, बेहद लंबी है. अगर ऐसा न होता तो क्या हमारे पास अतीत में अमर व्यक्तित्व जैसे जगन्नाथ आज़ाद या बृज नारायण चकबस्त होते, जो आस्था के मेल और सौहार्द्र की बात करते और अपने समय की सच्ची तस्वीर पेश करते? या फिर एक संरक्षक के रूप में मुंशी नवल किशोर होते? या गुलज़ार — जिनके साथ एक ही हवा में सांस लेना भी सौभाग्य है?
गुलज़ार साहब का ज़िक्र आते ही एक और बाग़ी शख्सियत याद आती है — ग़ालिब. उनका शराब के प्रति अनुराग और इबादत के नाम पर ख़ुदा से सौदेबाज़ी न करने की आदत तो मशहूर है. तो उनका क्या? ऐसा भी तो हो सकता है कि पश्चिम बंगाल उर्दू अकादमी उनकी शायरी का पाठ ही रद्द कर दे. आखिर वे तो इतने "कुफ़्रपूर्ण" थे कि कह गए — "हमको मालूम है जन्नत की हक़ीक़त लेकिन / दिल को खुश रखने को ग़ालिब ये ख़याल अच्छा है."
अकादमी ने यदि अख़्तर का कार्यक्रम रद्द किया है, तो उसने न केवल उर्दू भाषा से, बल्कि उसकी संपूर्ण विरासत से गद्दारी की है. इससे वे लोग हतोत्साहित होंगे जो आज भी उर्दू सीखना और समझना चाहते हैं. आख़िरकार यह सवाल उठता है, “उर्दू किसकी है? जवाब है—उर्दू सबकी है.”
अमेरिका में हुंडई प्लांट पर बड़ी अप्रवासन छापेमारी, 475 लोग गिरफ्तार, ज़्यादातर कोरियाई नागरिक
सीएनएन के मुताबिक अमेरिकी राज्य जॉर्जिया में निर्माणाधीन हुंडई इलेक्ट्रिक कार बैटरी प्लांट पर संघीय एजेंटों ने बड़ी छापेमारी की, जिसमें 475 लोगों को गिरफ्तार किया गया. ये सभी लोग अमेरिका में अवैध रूप से रह रहे थे. गिरफ्तार किए गए लोगों में से अधिकांश दक्षिण कोरिया के नागरिक हैं. यह हाल के अमेरिकी इतिहास में किसी एक कार्यस्थल पर की गई सबसे बड़ी अप्रवासन छापों में से एक है. यह घटना ट्रंप प्रशासन की सख़्त अप्रवासन नीतियों को दर्शाती है और इसका गहरा असर अमेरिका में काम कर रही विदेशी कंपनियों और प्रवासी कामगारों पर पड़ेगा. इस छापेमारी ने एक अंतरराष्ट्रीय मुद्दा भी खड़ा कर दिया है, क्योंकि दक्षिण कोरिया ने अपने नागरिकों की गिरफ्तारी पर चिंता जताते हुए राजनयिक हस्तक्षेप की बात कही है. यह अमेरिका में अवैध रोज़गार और ठेकेदारों द्वारा नियमों के उल्लंघन की समस्या को भी उजागर करता है. लगभग 500 संघीय, राज्य और स्थानीय अधिकारियों ने इस सुनियोजित ऑपरेशन में हिस्सा लिया. एजेंटों के आने पर प्लांट में अफ़रा-तफ़री मच गई, कुछ मज़दूर भागने की कोशिश में एक सीवेज तालाब में कूद गए, जबकि कुछ एयर डक्ट में छिप गए. अधिकारियों ने एक-एक करके सभी मज़दूरों के दस्तावेज़ों की जांच की और अवैध रूप से रह रहे 475 लोगों को हिरासत में ले लिया. गिरफ्तार किए गए लोगों में वे लोग शामिल थे जो अवैध रूप से सीमा पार कर आए थे, वीज़ा की अवधि समाप्त होने के बाद भी रुके हुए थे, या वीज़ा छूट कार्यक्रम के तहत काम करने के लिए अयोग्य थे. हुंडई ने एक बयान में कहा है कि गिरफ्तार किए गए लोग सीधे तौर पर उसके कर्मचारी नहीं थे, बल्कि ठेकेदारों या उप-ठेकेदारों के लिए काम कर रहे थे. कंपनी ने कहा कि वह अपनी प्रक्रियाओं की समीक्षा कर रही है ताकि यह सुनिश्चित हो सके कि उसके प्रोजेक्ट पर काम करने वाली सभी पार्टियां कानूनों का पालन करें.
चलते चलते
'ईश्वर का इन्फ्लुएंसर' कहे जाने वाले किशोर को संत घोषित करेंगे पोप
कार्लो एक्यूटिस, जिनकी 2006 में मृत्यु हो गई थी और जिन्होंने कैथोलिक संदेश फैलाने के लिए वेबसाइटें बनाई थीं, पहले मिलेनियल संत बनेंगे. उत्तरी रोम के एक चैपल में वेदी के पीछे एक दीवार में खुदी हुई पारदर्शी तिजोरी में कार्लो एक्यूटिस के अवशेषों का संग्रह है. एक्यूटिस, लंदन में जन्मे इतालवी, जिन्हें कैथोलिक शिक्षाओं को फैलाने के लिए वेबसाइट बनाने के कारण "ईश्वर का इन्फ्लुएंसर" उपनाम मिला, 15 साल की उम्र में ल्यूकेमिया से उनकी मृत्यु हो गई थी. रविवार को वे कैथोलिक चर्च के पहले मिलेनियल संत बन जाएंगे. उनकी मृत्यु 2006 में हुई थी और पोप लियो द्वारा उन्हें पियर जियोर्जियो फ्रासाती के साथ संत घोषित किया जाएगा, जो एक सदी पहले मर गए एक और युवा कैथोलिक कार्यकर्ता थे. इस आयोजन में हज़ारों लोगों के रोम आने की उम्मीद है. पिछले एक साल में, 10 लाख से अधिक लोग मध्य इतालवी शहर असीसी में आए हैं, जहां एक्यूटिस के शरीर को - उनके नीले ट्रैकसूट टॉप, जींस और ट्रेनर्स में कपड़े पहनाकर - सांता मारिया मैगिओर चर्च में एक ग्लास-पैनल वाले केस के पीछे देखा जा सकता है. एक्यूटिस का संत बनना, विशेष रूप से फ्रासाती की तुलना में, चर्च द्वारा अधिक युवा लोगों को विश्वास की ओर आकर्षित करने की खोज का हिस्सा है.
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