08/12/2025: मोदी का व्हिसलब्लोअर या भ्रष्टाचारी अफसर? | भाजपा का नफ़रती सोशल मीडिया | बाबरी की लाभार्थी भाजपा पर आकार पटेल | प्रियंका ने मोदी का किया वंदेमातरम पर फैक्टचैक | भारत पर रूश्दी की फिक्र
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निधीश त्यागी, साथ में राजेश चतुर्वेदी, गौरव नौड़ियाल, फ़लक अफ़शां
आज की सुर्खियां
गुजरात के पूर्व आईएएस अधिकारी प्रदीप शर्मा को पांच साल की जेल
भाजपा का नफरती सोशल मीडिया
बाबरी की लाभार्थी बनी भाजपा पर आकार पटेल
प्रियंका ने वंदे मातरम बहस को मोड़ा
सेना में धर्मनिरपेक्षता पर सवाल
ईसाई अफ़सर की बर्ख़ास्तगी और ‘प्रोजेक्ट उद्भव’ ने सेना के सेक्युलर चरित्र पर नई बहस छेड़ दी है.
नवजोत कौर सिद्धू निलंबित
स्मार्टफ़ोन ट्रैकिंग पर एमनेस्टी की चिंता
सरकार के ‘ऑलवेज़ ऑन’ लोकेशन ट्रैकिंग प्रस्ताव को एमनेस्टी ने निजता के लिए ख़तरा बताया.
केंद्र ने एलजी और हिल काउंसिल के वित्तीय अधिकार कम किए, स्थानीय नेताओं में ग़ुस्सा.
मृत पशुओं के अवशेष ले जा रहे मज़दूरों को पीटा गया, वाहन फूंक दिया गया.
500 उड़ानें रद्द, सरकार ने रोस्टरिंग की दिक्क़त को ज़िम्मेदार बताया.
ज़ेलेंस्की और यूरोपीय नेताओं की लंदन में बैठक, अमेरिकी प्रस्ताव पर संदेह.
रुश्दी बोले, “भारत में इतिहास बदलने की कोशिश हो रही है.”
गुजरात के पूर्व आईएएस अधिकारी प्रदीप शर्मा को पांच साल की जेल
गुजरात के अहमदाबाद की एक विशेष पीएमएलए (धन शोधन निवारण अधिनियम) अदालत ने पूर्व आईएएस अधिकारी प्रदीप निरंकारनाथ शर्मा को मनी लॉन्ड्रिंग (धन शोधन) के गंभीर आरोपों में दोषी ठहराते हुए पांच साल की जेल की सजा सुनाई है. हिंदू की रिपोर्ट के मुताबिक, यह मामला उस समय का है जब शर्मा 2 मई 2003 से 3 जून 2006 तक कच्छ जिले के भुज में कलेक्टर और जिला भूमि मूल्य निर्धारण समिति (डीएलपीसी) के अध्यक्ष के रूप में तैनात थे. शर्मा का जिक्र इसलिए भी किया जाता है, क्योंकि उन्होंने गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी के खिलाफ पब्लिक और कोर्ट में बयान दिये थे (आगे देखें).
अदालत ने अपने आदेश में पाया कि डीएलपीसी प्रमुख के पद पर रहते हुए शर्मा ने अन्य लोगों के साथ आपराधिक साजिश रची. उन्होंने अंजार तालुका के वर्षमेड़ी गांव में सरकारी जमीन वेलस्पन इंडिया लिमिटेड और उसकी सहयोगी कंपनियों को बेहद कम दरों पर आवंटित कर दी. शर्मा ने 78 रुपये प्रति वर्ग मीटर की निर्धारित सरकारी दर के बजाय महज 15 से 18 रुपये प्रति वर्ग मीटर की दर पर कई भूखंड आवंटित किए. इस फैसले से सरकारी खजाने को सीधे तौर पर 1.2 करोड़ रुपये का नुकसान हुआ.
प्रवर्तन निदेशालय (ईडी) की जांच में शर्मा के खिलाफ मनी लॉन्ड्रिंग के पुख्ता सबूत मिले. जांच में सामने आया कि उन्होंने “अवैध रूप से कमाए गए धन” को अपनी पत्नी श्यामल पी. शर्मा के जरिए वैध बनाने की कोशिश की. उनकी पत्नी को वेलस्पन ग्रुप से जुड़ी एक कंपनी ‘वैल्यू पैकेजिंग प्राइवेट लिमिटेड’ में बिना किसी पूंजी निवेश के 30% का भागीदार बना दिया गया. अदालत ने नोट किया कि उनकी पत्नी के बैंक ऑफ इंडिया के एनआरओ खाते में आए 22 लाख रुपये और 7.5 लाख रुपये का ‘गुडविल पेमेंट’ वास्तव में वेलस्पन ग्रुप को अनुचित लाभ पहुंचाने के बदले दी गई रिश्वत थी. इसके अलावा, जनवरी 2008 में उनकी पत्नी के नाम पर किया गया 1 लाख रुपये का निवेश 28 लाख रुपये से अधिक के लाभ वितरण का जरिया बन गया.
आरोपों के मुताबिक, इन पैसों का इस्तेमाल गांधीनगर में एक घर के लिए हाउसिंग लोन चुकाने और देहगाम में कृषि भूमि खरीदने में किया गया. इतना ही नहीं, ‘हवाला’ के जरिए करीब 1 करोड़ रुपये अमेरिका भेजे गए और उनकी पत्नी के अमेरिकी बैंक खातों में तीसरे पक्ष से पैसे मंगवाए गए.
सजा सुनाते हुए कोर्ट ने सख्त टिप्पणी की. अदालत ने कहा कि चूंकि आरोपी एक आईएएस अधिकारी था और उसने कलेक्टर व डीएम जैसे जिम्मेदार पदों पर रहते हुए भ्रष्टाचार किया और अपने आधिकारिक पद का दुरुपयोग किया, इसलिए वह किसी भी तरह की दया का हकदार नहीं है. शर्मा ने अनुरोध किया था कि उनकी इस सजा को उनकी पिछली सजाओं के साथ साथ चलाया जाए, लेकिन कोर्ट ने इसे खारिज कर दिया. कोर्ट ने स्पष्ट किया कि भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम और मनी लॉन्ड्रिंग अधिनियम दोनों अलग-अलग उद्देश्यों वाले कानून हैं. अपराध की गंभीरता को देखते हुए दोनों सजाएं अलग-अलग चलेंगी.
‘स्नूपगेट’ के आरोपों से लेकर 5 साल की जेल तक
गुजरात कैडर के 1984 बैच के रिटायर्ड आईएएस अधिकारी प्रदीप शर्मा और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के बीच चला आ रहा लंबा विवाद एक बार फिर सुर्खियों में है. हाल ही में 7 दिसंबर 2025 को शर्मा को मनी लॉन्ड्रिंग के एक मामले में 5 साल की जेल की सजा सुनाई गई है. लेकिन इस कानूनी लड़ाई की जड़ें 2013 के बहुचर्चित “स्नूपगेट” या “स्टॉकगेट” कांड और 2002 के गुजरात दंगों से जुड़ी हैं.
विभिन्न मीडिया रिपोर्ट्स (इंडिया टुडे, एनडीटीवी, द इंडियन एक्सप्रेस) के विश्लेषण के अनुसार, प्रदीप शर्मा कभी गुजरात के मुख्यमंत्री के तौर पर नरेंद्र मोदी के करीबी माने जाते थे. लेकिन बाद में वे बागी हो गए और उन्होंने आरोप लगाया कि राज्य मशीनरी का दुरुपयोग कर उनकी आवाज़ दबाने की कोशिश की जा रही है.
‘इंडिया टुडे’ की नवंबर 2013 की रिपोर्ट के मुताबिक, शर्मा ने सुप्रीम कोर्ट में दायर एक हलफनामे में आरोप लगाया था कि नरेंद्र मोदी ने एक युवा महिला आर्किटेक्ट, की अवैध जासूसी (Surveillance) का आदेश दिया था. शर्मा का दावा था कि 2001 के कच्छ भूकंप के बाद एक प्रोजेक्ट के सिलसिले में उन्होंने ही सोनी को मोदी से मिलवाया था. शर्मा ने आरोप लगाया कि मोदी और सोनी के बीच “नज़दीकियां” बढ़ गई थीं और उन्हें सरकारी ठेकों का लाभ दिया गया.
शर्मा के अनुसार, 2009 तक आते-आते मोदी ने तत्कालीन गृह मंत्री अमित शाह के ज़रिए राज्य पुलिस को सोनी और उनके परिवार की पल-पल की ख़बर रखने और कई शहरों में उनकी गतिविधियों को ट्रैक करने का आदेश दिया. 2013 में लीक हुए ऑडियो टेप्स ने इन आरोपों को तूल दिया, जिससे 2014 के चुनाव प्रचार के दौरान भारी विवाद हुआ. बीजेपी ने बचाव में कहा था कि यह निगरानी सोनी की सुरक्षा के लिए थी क्योंकि शर्मा उनकी स्टॉकिंग या पीछा कर रहे थे.
शर्मा ने अपने हलफनामे में दावा किया कि उन्हें भ्रष्टाचार और मनी लॉन्ड्रिंग के 10 से ज़्यादा मामलों में इसलिए फंसाया गया क्योंकि मोदी को डर था कि शर्मा के पास सीएम से जुड़ी एक “संवेदनशील वीसीडी” (Sensitive VCD) है. इसके अलावा, इस विवाद के तार 2002 के गुजरात दंगों से भी जुड़ते हैं. शर्मा ने एसआईटी के सामने दावा किया था कि मोदी के कार्यालय से उन्हें फोन कर कहा गया था कि वे अपने आईपीएस भाई, कुलदीप शर्मा को दंगों के दौरान अल्पसंख्यकों की मदद के लिए “सक्रिय कदम” उठाने से रोकें. हालांकि, एसआईटी ने मोदी को क्लीन चिट दी जिसे सुप्रीम कोर्ट ने 2022 में बरकरार रखा.
इसी दौरान, उनके भाई कुलदीप शर्मा के खिलाफ भी 1984 के एक पुराने मामले में गैर-जमानती वारंट जारी किया गया है. आलोचक इन कार्यवाहियों को मोदी के विरोधियों के खिलाफ “बदले की राजनीति” के रूप में देखते हैं, जबकि सरकार का कहना है कि शर्मा एक भ्रष्ट अधिकारी हैं और कानून अपना काम कर रहा है.
मोदी पर उंगली उठाने वाले और भी नौकरशाह हैं
नरेंद्र मोदी के गुजरात के मुख्यमंत्री रहने के दौरान (2001-2014), सरकार की आलोचना करने वाले या 2002 के दंगों की जांच से जुड़े कई वरिष्ठ पुलिस (IPS) और प्रशासनिक (IAS) अधिकारियों को ट्रांसफर, निलंबन, प्रमोशन रुकने और गिरफ्तारी जैसी कार्रवाइयों का सामना करना पड़ा. मानवाधिकार समूहों ने इसे “व्हिसलब्लोअर्स” (गड़बड़ी उजागर करने वालों) के खिलाफ बदले की कार्रवाई बताया, जबकि गुजरात सरकार का तर्क था कि यह अनुशासनहीनता या कदाचार के लिए की गई कार्रवाई थी. प्रमुख मामले इस प्रकार हैं:
संजीव भट्ट (IPS): पूर्व अतिरिक्त पुलिस महानिदेशक . भट्ट ने 2011 में सुप्रीम कोर्ट में हलफनामा दायर कर आरोप लगाया कि मोदी ने 2002 में गोधरा कांड के बाद वरिष्ठ अधिकारियों को हिंदुओं को “गुस्सा निकालने” की छूट देने का निर्देश दिया था. इसके कुछ ही दिनों बाद उन्हें ड्यूटी से नदारद रहने के आरोप में निलंबित कर दिया गया. 2015 में उन्हें सेवा से बर्खास्त कर दिया गया.
आर.बी. श्रीकुमार (IPS): पूर्व अतिरिक्त पुलिस महानिदेशक (इंटेलिजेंस). इन्होंने 2002 के दंगों को रोकने में सरकार की विफलता और जांच में राजनीतिक हस्तक्षेप के आरोप लगाए. 2005 में उनका प्रमोशन रोक दिया गया और उन्हें कम महत्व वाले पदों पर ट्रांसफर कर दिया गया. 2011 में एसआईटी (SIT) ने भी माना कि निष्पक्ष अधिकारियों का तबादला किया गया था.
कुलदीप शर्मा (IPS): पूर्व अतिरिक्त पुलिस महानिदेशक( सीआईडी). पप्रदीप शर्मा के आईपीएस भाई ने केतन पारेख घोटाले में तत्कालीन गृह मंत्री अमित शाह के खिलाफ रिश्वत के आरोपों की जांच की थी. 2008 में उन्हें सजा के तौर पर ‘गुजरात राज्य भेड़ एवं ऊन विकास विभाग’ में ट्रांसफर कर दिया गया, जो एक पुलिस अधिकारी के लिए असामान्य था. 2025 में, उन्हें 41 साल पुराने एक मामले में दोषी ठहराते हुए गैर-जमानती वारंट जारी किया गया, जिसे आलोचक बदले की कार्रवाई मानते हैं.
रिपोर्ट्स के मुताबिक, 2002 के बाद कम से कम पांच ऐसे व्हिसलब्लोअर आईपीएस अधिकारियों को “पनिशमेंट पोस्टिंग” दी गई थी, जिन्होंने सरकार के रुख पर सवाल उठाए थे.
हेट क्राइम
ये भाजपा का ऑफिशियल सोशल मीडिया है…
भारतीय जनता पार्टी की दिल्ली प्रदेश ईकाई ने अपने सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर इस्लामोफोबिक मीम्स, वीडियो और ग्राफिक्स की एक श्रृंखला को बढ़ावा दिया है, जिसमें मतदाता सूचियों के विशेष गहन पुनरीक्षण (एसआईआर) का उपयोग मुसलमानों को “घुसपैठियों” और राष्ट्र के दुश्मन के रूप में चित्रित करने के लिए किया जा रहा है.
“मकतूब मीडिया” के मुताबिक, गोल टोपी और बुरका पहने मुसलमानों के कैरिकेचर से लेकर, उन्हें चूहों, सूअरों और मच्छरों के समान बताने वाली पशु इमेजरी तक की सामग्री ने नागरिक समाज, विपक्षी नेताओं और मीडिया वॉचडॉग्स की ओर से कड़ी आलोचना की जा रही है.
भाजपा नेताओं द्वारा ‘एसआईआर’ को कथित अवैध अप्रवासियों पर एक बड़ी कार्रवाई के रूप में आक्रामक रूप से प्रचारित किया गया है. हालांकि, चुनाव आयोग ने अभी तक बिहार में ‘एसआईआर’ के दौरान हटाए गए विदेशी नागरिकों की संख्या पर समेकित डेटा जारी नहीं किया है. जबकि इसे “अवैध मतदाताओं” के खिलाफ एक अभियान के रूप में प्रचारित किया गया था.
“द वायर” द्वारा उपलब्ध आधिकारिक दस्तावेजों पर आधारित एक स्वतंत्र विश्लेषण से पता चलता है कि बिहार के मतदाता आधार में विदेशी नागरिक मुश्किल से 0.012% थे, जो भाजपा के इस नैरेटिव के पैमाने, प्रस्तुति और राजनीतिक उपयोगिता के बारे में सवाल खड़े करता है.
इस नगण्य अनुपात के बावजूद, दिल्ली भाजपा ने ‘एसआईआर’ को “घुसपैठियों” के देशव्यापी सफाये के रूप में चित्रित करना जारी रखा, जिसमें मुसलमानों को प्राथमिक लक्ष्य के रूप में दर्शाया गया. पोस्ट की एक श्रृंखला में रोहिंग्या या बांग्लादेशी-कोडित पात्रों को व्यापक रूप से मुसलमानों का प्रतीक बनाने के लिए दिखाया गया, जिससे अवैध अप्रवासियों और भारतीय मुस्लिम नागरिकों के बीच का अंतर खत्म हो गया.
यह विवाद 1 दिसंबर को तब बढ़ गया, जब दिल्ली भाजपा के “एक्स” हैंडल ने एक मूवी-पोस्टर-शैली का ग्राफिक जारी किया, जिसमें विपक्षी नेताओं राहुल गांधी, अरविंद केजरीवाल, अखिलेश यादव और ममता बनर्जी को मुस्लिम वेशभूषा में चित्रित किया गया था. ग्राफिक यह दर्शाता है कि ‘एसआईआर’ की किसी भी आलोचना का अर्थ घुसपैठियों का पक्ष लेना है, जिससे एक नैरेटिव मजबूत होता है जो मुस्लिम पहचान को ‘अवैधता’ के साथ जोड़ता है.
सोशल मीडिया पर अन्य पोस्ट में तेजी से अमानवीय बनाने वाले रूपकों का उपयोग किया गया, जैसे- एक ग्राफ़िक, जिसमें प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को दरारों से झांकते चूहों को रोकने के लिए छेद सील करते हुए दिखाया गया है. एक अन्य रील में ‘एसआईआर’ लेबल वाली एक कटाई मशीन से सूअर जैसे दिखने वाले जीवों को भागते हुए दिखाया गया है. एक वीडियो में एक मुस्लिम परिवार को अपने घर से भागते हुए दिखाया गया है, जहां मच्छर कॉइल का धुआँ ‘एसआईआर’ का प्रतीक है, जो स्पष्ट रूप से मुसलमानों को कीट-जैसी संक्रामकता से जोड़ता है. ऐसे वीडियो भी हैं, जहां नियोक्ताओं ने मुस्लिम श्रमिकों को चेतावनी दी कि श्रमिकों के रूप में भेष बदलकर आए घुसपैठिए नौकरियां चुरा रहे हैं.
अन्य भाजपा इकाइयों के साथ तालमेल
यह अभियान अन्य भाजपा इकाइयों से आ रहे इसी तरह के संदेशों के साथ तालमेल बिठाता नज़र आता है. असम में, मंत्री अशोक सिंघल ने फूलगोभी के खेतों का जिक्र करने वाली इमेजरी प्रसारित की, जिसे व्यापक रूप से 1989 के भागलपुर मुस्लिम नरसंहार के दौरान मुस्लिम पीड़ितों के सामूहिक दफन के एक संकेत के रूप में समझा गया.
असम भाजपा के आधिकारिक अकाउंट ने भी नियमित रूप से इस्लामोफोबिक सामग्री साझा की है, जो पार्टी के डिजिटल नेटवर्क में एक व्यापक समन्वित प्रवृत्ति की ओर इशारा करती है. राजनीतिक विश्लेषक ध्यान देते हैं कि भाजपा ने लंबे समय से “घुसपैठिया” शब्द को बांग्लादेश और म्यांमार से आने वाले अवैध अप्रवासियों को निशाना बनाने के लिए एक हथियार के रूप में इस्तेमाल किया है. फिर भी, चुनाव चक्रों के दौरान, यह बयानबाजी अक्सर ऐसे संदेशों में बदल जाती है, जो भारत की अपनी मुस्लिम आबादी को फंसाती है.
मानवाधिकार समूहों का कहना है कि ध्रुवीकृत राजनीतिक माहौल में मुसलमानों को कीट और आक्रमणकारी के रूप में चित्रित करने के खतरनाक निहितार्थ हैं. चुनाव आयोग द्वारा अभी तक कोई ठोस डेटा प्रकाशित नहीं किए जाने के कारण, आलोचकों का तर्क है कि भाजपा का संदेश जानबूझकर चलाए जा रहे एक सांप्रदायिक अभियान के बराबर है—जो डर फैलाने, अल्पसंख्यकों को बलि का बकरा बनाने और राजनीतिक विपक्ष को अवैध ठहराने के लिए एक नियमित प्रशासनिक अभ्यास का फायदा उठाता है.
घुसपैठिए; डबल इंजन की सरकार, और योगी जनता से कह रहे सतर्क रहें
ताज्जुब है कि केंद्र में 2014 से भाजपा का राज है और देश के सबसे बड़े प्रांत उत्तरप्रदेश में भी 8 वर्षों से उसकी सरकार है, बावजूद इसके यूपी के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ आम लोगों से ही सतर्क रहने के लिए कह रहे हैं. मुख्यमंत्री ने लोगों से यह सुनिश्चित करने के लिए कहा कि घर या व्यावसायिक प्रतिष्ठानों में किसी भी व्यक्ति को नौकरी पर रखने से पहले उसका उचित सत्यापन किया जाए. नमिता बाजपेयी के मुताबिक, उनकी यह अपील राज्य में अवैध रूप से रह रहे और काम कर रहे बांग्लादेशियों और रोहिंग्याओं की पहचान करने के लिए चल रहे अभियान और निरोध शिविरों की स्थापना के बीच आई है. उन्होंने कहा कि अवैध प्रवासियों को किसी भी कीमत पर संरक्षण नहीं दिया जा सकता.
उन्होंने कहा, “राज्य में अवैध रूप से रह रहे रोहिंग्या और बांग्लादेशी घुसपैठियों के खिलाफ सख्त और निर्णायक कार्रवाई शुरू की गई है.” उन्होंने कहा कि सरकारी संसाधनों पर अवैध रूप से रहने वालों के बजाय राज्य के नागरिकों का पहला अधिकार है और राज्य की सुरक्षा “सामूहिक जिम्मेदारी” है. सामूहिक जिम्मेदारी से क्या आशय है, मुख्यमंत्री द्वारा साझा किए पत्र से स्पष्ट नहीं होता है.
आकार पटेल: मस्जिद तोड़ने से लेकर जनादेश के इनाम तक, आडवाणी और भाजपा
एक और 6 दिसंबर पर, आधुनिक भारत के सबसे महत्वपूर्ण आंदोलन के बारे में लिखना ज़रूरी लगता है, जिसने हमारी राजनीति को हमेशा के लिए बदल दिया.
चालीस साल पहले, बीजेपी एक पठार पर पहुंच गई थी, 1984 में 7% वोट जीतकर और लोकसभा की सिर्फ़ दो सीटें. जब 1986 में एल.के. आडवाणी ने ज़िम्मेदारी संभाली, तो वे कभी चुनावी राजनीति में भागीदार नहीं रहे थे. राजनीति में उनका प्रवेश आरएसएस की पत्रिका में पत्रकार के रूप में समय बिताने के बाद हुआ, जहां वे फ़िल्म समीक्षाएं लिखते थे.
एक राजनेता के रूप में, आडवाणी हमेशा मनोनीत सदस्य रहे थे, चाहे दिल्ली परिषद में हों या राज्यसभा में. उन्हें राजनीतिक जन-गोलबंदी का कोई अनुभव नहीं था और, उनकी आत्मकथा (माई कंट्री, माई लाइफ़, 2008 में प्रकाशित) के अनुसार, ऐसा नहीं लगता कि वे जानते थे कि यह कैसे काम करता है. अयोध्या मुद्दा वास्तव में आरएसएस के अंदर गै़र-राजनीतिक समूहों द्वारा शुरू किया गया था, जिसका नेतृत्व विश्व हिंदू परिषद कर रहा था.
फ़रवरी 1989 में, इलाहाबाद के कुंभ मेले में, विहिप ने कहा कि वह नवंबर में मंदिर की नींव रखेगा. इसमें देश भर में राम के नाम की छाप वाली ईंटें बनाना और उन्हें जुलूसों में शहरों और गांवों से होते हुए नवंबर में अयोध्या तक ले जाना शामिल था. इस समय तक, आडवाणी अपनी आत्मकथा में लिखते हैं, यह मुख्यधारा की राजनीति में कोई मुद्दा नहीं था.
जून 1989 में, हिमाचल प्रदेश में बीजेपी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक में, आडवाणी ने पार्टी को इस मुद्दे के पीछे खड़ा कर दिया. बीजेपी के प्रस्ताव में मांग की गई कि जगह ‘हिंदुओं को सौंप दी जानी चाहिए’ और ‘मस्जिद किसी और उपयुक्त जगह बनाई जाए’.
कुछ महीने बाद, नवंबर 1989 में चुनाव आए. बीजेपी के घोषणापत्र में अब अयोध्या का पहला ज़िक्र हुआ: ‘अयोध्या में राम जन्म मंदिर के पुनर्निर्माण की अनुमति न देकर, सोमनाथ मंदिर की तर्ज़ पर जो 1948 में भारत सरकार द्वारा बनाया गया था, इसने तनाव बढ़ने दिया है, और सामाजिक सद्भाव को गंभीर रूप से तनावग्रस्त किया है.’ यह बीजेपी के अपने संविधान का उल्लंघन था, जो अपने पहले पृष्ठ और शुरुआती अनुच्छेदों में धर्मनिरपेक्षता के सिद्धांत के प्रति सच्ची आस्था और निष्ठा का वादा करता था. मतदान से कुछ दिन पहले, विहिप भारत भर से अपने सभी जुलूस अयोध्या लाया और मस्जिद के बगल में नींव का पत्थर रखा.
अपनी विभाजनकारी, मुस्लिम-विरोधी मांग से प्रेरित होकर, आडवाणी की बीजेपी ने 85 सीटें जीतीं, जो पिछले चुनाव में जनसंघ द्वारा अकेले लड़े जाने पर जीती गई सीटों से चार गुना अधिक थीं और 1984 में वाजपेयी द्वारा दिलाई गई सीटों से चालीस गुना अधिक. आडवाणी आरएसएस के सबसे सफल राजनीतिक नेता बन गए और उन्हें चुनावी सफलता का नुस्ख़ा मिल गया.
उन्होंने उस मुद्दे में और अधिक निवेश करना शुरू कर दिया जिसने लाभ दिया था. चुनाव में कांग्रेस ने अपना बहुमत खो दिया, और वी.पी. सिंह के नेतृत्व वाली एक गठबंधन सरकार ने आडवाणी के समर्थन से सत्ता संभाली, हालांकि केवल थोड़े समय के लिए. चुनाव के तीन महीने बाद, फ़रवरी 1990 में, विहिप ने मस्जिद के ख़िलाफ़ अपना गोलबंदी फिर से शुरू किया और कहा कि वह अक्टूबर से कार सेवा की प्रक्रिया जारी रखेगा.
आडवाणी के अनुसार, राजनीतिक बढ़ोतरी संयोग से हुई. आडवाणी अपनी आत्मकथा में लिखते हैं कि जून में उन्हें लंदन जाना था, और जाने से ठीक पहले, आरएसएस की पत्रिका पांचजन्य ने उनका साक्षात्कार लिया और पूछा कि अगर सरकार अयोध्या मामले को हल करने में विफल रहती है तो क्या होगा. आडवाणी ने कहा कि बीजेपी 30 अक्टूबर को कार सेवा शुरू करने के फै़सले का समर्थन करती है, और अगर इसे रोका गया तो बीजेपी के नेतृत्व में एक जन आंदोलन होगा.
‘सच कहूं तो, मैं इस साक्षात्कार के बारे में भूल गया था,’ आडवाणी लिखते हैं, जब उनकी पत्नी ने उन्हें फ़ोन किया और पूछा, ‘आपने क्या कह दिया है? यहां के अख़बारों ने इसे तेज़ सुर्खियों के साथ छापा है: “अयोध्या पर, आडवाणी ने स्वतंत्र भारत के इतिहास में सबसे बड़े जन आंदोलन की धमकी दी”.’ आडवाणी जोड़ते हैं: ‘पासा पलट गया था.’
इसके बाद, आडवाणी कहते हैं कि उन्होंने मुसलमानों को एक सौदा पेश किया. अगर वे बाबरी मस्जिद सौंप देंगे, तो वे मथुरा और वाराणसी में दो अन्य मस्जिदों के ख़िलाफ़ अभियान न चलाने के लिए विहिप से ‘व्यक्तिगत रूप से अनुरोध’ करेंगे. वे लिखते हैं कि वे ‘गहराई से निराश’ और ‘नाराज़’ थे कि मुसलमानों द्वारा इसे संतोषजनक नहीं माना गया. उन्होंने घोषणा की कि वे दीनदयाल उपाध्याय के जन्मदिन, 25 सितंबर को गुजरात में मस्जिद के ख़िलाफ़ अपना अभियान शुरू करेंगे, और 30 अक्टूबर 1990 को एक ‘रथ’ (वास्तव में एक ट्रक) पर सवार होकर अयोध्या जाएंगे.
आडवाणी लिखते हैं कि उनके अभियान को मिली उन्मादी प्रतिक्रिया से वे चकित थे. ‘मुझे कभी एहसास नहीं हुआ था कि भारतीय लोगों के जीवन में धार्मिकता इतनी गहरी जड़ें जमाए हुए है,’ उन्होंने कहा, और जोड़ा कि यह ‘पहली बार था जब उन्होंने स्वामी विवेकानंद के इस कथन की सच्चाई को समझा कि “धर्म भारत की आत्मा है और अगर आप भारतीयों को कोई विषय पढ़ाना चाहते हैं, तो वे इसे धर्म की भाषा में बेहतर समझते हैं”.’
रास्ते में हर पड़ाव पर, आडवाणी बाबरी मस्जिद को क्यों गिराना है इसके बारे में बात करते रहे, धर्म की शब्दावली और रूपकों का इस्तेमाल करते हुए, बुनियादी भाषणों में जो वे कहते हैं पांच मिनट से ज़्यादा नहीं थे. कमी की केवल कल्पना की जा सकती है; परिणाम अनुमानित था.
एक सांप्रदायिक मुद्दे को राजनीतिक बनाने और उस पर गोलबंदी करने के आडवाणी के फै़सले से छूटी हिंसा का पैमाना मारे गए लोगों की संख्या और भौगोलिक फैलाव दोनों में चौंका देने वाला था. आडवाणी के बाबरी मस्जिद विरोधी अभियान से शुरू हुई हिंसा में 3,400 से अधिक भारतीय मारे गए लेकिन इसने बीजेपी को सत्ता की दहलीज़ तक पहुंचा दिया.
1991 के मध्य में हुए आम चुनावों में, बीजेपी ने 20% वोट और 120 सीटें जीतीं. विध्वंस के बाद 1996 में हुए पहले चुनाव में, बीजेपी 161 सीटों तक पहुंच गई. 2002 के बाद बीजेपी ने विभाजनकारी राजनीति करने के लिए इच्छुक और उत्साही हमारी एकमात्र पार्टी के रूप में अपनी स्थिति मज़बूत कर ली, और इसके लिए उसे भरपूर इनाम मिला है.
आकार पटेल एक प्रमुख भारतीय पत्रकार, लेखक और सामाजिक कार्यकर्ता हैं. वे 2015 से 2019 तक एमनेस्टी इंटरनेशनल इंडिया के प्रमुख रहे और वर्तमान में एमनेस्टी इंटरनेशनल इंडिया के बोर्ड के चेयरमैन हैं.
प्रियंका ने वंदे मातरम बहस को पीएमओ की गड़बड़ियों, सरकारी नाकामयाबी की तरफ मोड़ा
लोकसभा में राष्ट्रीय गीत ‘वंदे मातरम’ की 150वीं वर्षगांठ पर आयोजित विशेष चर्चा एक तीखी राजनीतिक बहस में बदल गई, जिसके केंद्र में भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू रहे. कांग्रेस ने आरोप लगाया कि सत्ताधारी बीजेपी अपनी विफलताओं, बेरोजगारी और महँगाई जैसे मुद्दों से ध्यान भटकाने के लिए नेहरू का इस्तेमाल ढाल की तरह कर रही है.
द टेलीग्राफ की रिपोर्ट के मुताबिक, वायनाड से पहली बार सांसद बनीं प्रियंका गांधी वाड्रा ने चर्चा के दौरान सरकार पर सीधा हमला बोला. उन्होंने कहा, “यह बहस बहुत अजीब लगती है. आज हम राष्ट्रीय गीत पर बहस क्यों कर रहे हैं? इसके पीछे दो कारण हैं. पहला, बंगाल में विधानसभा चुनाव आ रहे हैं और प्रधानमंत्री वहां भूमिका निभाना चाहते हैं. दूसरा, यह स्वतंत्रता संग्राम में बलिदान देने वालों पर नए आरोप मढ़ने और आज के ज्वलंत मुद्दों से लोगों का ध्यान भटकाने की साजिश है.”
प्रियंका गांधी ने तंज कसते हुए बीजेपी को एक सुझाव भी दिया. उन्होंने कहा, “जैसे आज आप यह चर्चा कर रहे हैं, वैसे ही नेहरू जी, इंदिरा जी और राजीव जी की गलतियों पर भी चर्चा कर लीजिए. वंशवाद की राजनीति पर भी बात कर लीजिए. यह चर्चा 24 घंटे चलने दीजिए, 40 घंटे चलने दीजिए, जब तक आप संतुष्ट न हो जाएं. इसे एक बार में ही खत्म कीजिए. लेकिन उसके बाद, हमें बेरोजगारी पर बात करने दीजिए. हमें इस पर बात करने दीजिए कि पीएमओ में सट्टेबाजी रैकेट को लेकर क्या चल रहा है, या आपके एक मंत्री का नाम एपस्टीन फाइलों में कैसे आया.”
उन्होंने आगे कहा कि जनता दुखी है, वे अपने दैनिक जीवन में भारी कठिनाइयों का सामना कर रहे हैं, लेकिन सरकार के पास कोई समाधान नहीं है. “वे (बीजेपी) केवल अतीत के बारे में बात करने में सक्षम हैं,” प्रियंका ने कहा. उन्होंने सत्ता पक्ष के सांसदों को इतिहास का पाठ पढ़ाते हुए याद दिलाया कि 1937 में कांग्रेस कार्यसमिति ने वंदे मातरम के पहले दो छंदों को क्यों अपनाया था. उन्होंने पूछा, “क्या सत्ता पक्ष के सांसद इतने अहंकारी हो गए हैं कि वे खुद को महात्मा गांधी, टैगोर, सुभाष चंद्र बोस और अंबेडकर से बड़ा समझने लगे हैं?”
उधर, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने आरोप लगाया कि नेहरू ने वंदे मातरम के साथ विश्वासघात किया था. मोदी ने कहा कि मोहम्मद अली जिन्ना की सांप्रदायिक चिंताओं का समर्थन करते हुए नेहरू ने तुष्टिकरण की राजनीति के तहत राष्ट्रीय गीत के टुकड़े किए, जो अंततः देश के विभाजन का कारण बना. इस पर कांग्रेस सांसद गौरव गोगोई ने पलटवार करते हुए कहा कि पीएम मोदी ने अपने भाषण में 91 बार नेहरू और कांग्रेस का नाम लिया, जो उनकी घबराहट को दर्शाता है. पीडीपी प्रमुख महबूबा मुफ्ती और कांग्रेस सांसद रंजीत रंजन ने भी सवाल उठाया कि जब यात्री हवाई अड्डों पर फंसे हैं और इंडिगो का संकट चल रहा है, तब संसद एक गीत पर बहस क्यों कर रही है.
संविधान, सेना और सेक्यूलरिज्म
ईसाई अधिकारी की बर्खास्तगी और ‘प्रोजेक्ट उद्भव’ ने छेड़ी धर्मनिरपेक्षता पर बहस
भारतीय सेना, जो अपनी विविधता और ‘नाम, नमक और निशान’ के धर्मनिरपेक्ष सिद्धांत के लिए जानी जाती है, इन दिनों एक आंतरिक वैचारिक बदलाव के दौर से गुजर रही है. द वायर में राहुल बेदी की एक विस्तृत रिपोर्ट के अनुसार, 2021 में एक ईसाई अधिकारी, लेफ्टिनेंट सैमुअल कमलेसन की बर्खास्तगी ने सेना के भीतर दबी हुई धार्मिक दरारों को सतह पर ला दिया है. कमलेसन को इसलिए बर्खास्त किया गया था क्योंकि उन्होंने अपनी बख्तरबंद रेजिमेंट के मंदिर और गुरुद्वारे के गर्भगृह में प्रवेश करने से इनकार कर दिया था. पिछले हफ्ते सुप्रीम कोर्ट ने भी उन्हें बहाल करने से इनकार कर दिया, जिससे यह मुद्दा फिर गर्मा गया है.
वरिष्ठ पूर्व सैन्य अधिकारियों और विश्लेषकों का मानना है कि सेना में अब देशभक्ति और विश्वसनीयता को देश के बहुसंख्यक धर्म के प्रदर्शन से जोड़ा जा रहा है. यह सेना के पुराने अप्राकृतिक (apolitical) लोकाचार के बिल्कुल उलट है. रिपोर्ट में बताया गया है कि नौसेना और वायु सेना की तुलना में, सेना का ढांचा ब्रिटिश राज के समय से ही जाति और समुदाय आधारित रेजिमेंटों से जुड़ा रहा है, जिससे वह राजनीतिक संकेतों के प्रति अधिक संवेदनशील है.
पिछले एक दशक में, सेना ने आधिकारिक तौर पर धार्मिक इमेजरी और हिंदू पौराणिक कथाओं को अपनाना शुरू कर दिया है. युद्धक संरचनाओं, ऑपरेशन्स और अभ्यासों के नाम अब देवताओं और महाकाव्यों पर रखे जा रहे हैं. इसे संस्थागत रूप देने के लिए ‘प्रोजेक्ट उद्भव’ जैसी पहल शुरू की गई है. रक्षा मंत्रालय के तहत शुरू किए गए इस प्रोजेक्ट का उद्देश्य प्राचीन भारतीय ज्ञान (जैसे चाणक्य का अर्थशास्त्र) को आधुनिक सैन्य प्रथाओं के साथ मिलाना है. सरकार इसे ‘औपनिवेशिक मानसिकता से मुक्ति’ कहती है, लेकिन कई दिग्गज इसे सेना के तटस्थ चरित्र को मिथकों और इतिहास की चुनिंदा व्याख्याओं से बदलने की कोशिश मानते हैं.
इसके अलावा, सेना मुख्यालय ने सैनिकों को छुट्टी के दौरान सरकारी कल्याणकारी योजनाओं (जैसे स्वच्छ भारत) का प्रचार करने का ‘सुझाव’ दिया है, जिसे आलोचक सेना का राजनीतिकरण मानते हैं. सबसे ज्यादा चिंता वरिष्ठ अधिकारियों के सार्वजनिक धार्मिक प्रदर्शन को लेकर है. अयोध्या में राम मंदिर की प्राण प्रतिष्ठा के दौरान सेना के जवानों द्वारा भगवा ध्वज फहराने में मदद करना, या कुंभ मेले में वर्दीधारी अधिकारियों की सक्रिय भागीदारी जैसे उदाहरण आम हो रहे हैं.
लेफ्टिनेंट जनरल (रिटायर्ड) डी.एस. हुड्डा ने चेतावनी दी है कि वरिष्ठ अधिकारियों द्वारा वर्दी में धार्मिक गतिविधियों की तस्वीरें सोशल मीडिया पर डालने से सेना के भीतर आपसी विश्वास कमजोर हो सकता है. यह चिंता तब और बढ़ गई जब सेना प्रमुख जनरल उपेंद्र द्विवेदी को रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह के साथ उज्जैन के महाकालेश्वर मंदिर में भगवा वस्त्रों में पूजा करते देखा गया. इसके अलावा, ‘ऑपरेशन सिंदूर’ के बाद सेना प्रमुख का चित्रकूट में जगद्गुरु रामभद्राचार्य से मिलना और कथित तौर पर पीओके (पाक अधिकृत कश्मीर) को ‘दक्षिणा’ के रूप में देने का वादा करना भी सवालों के घेरे में है. सुप्रीम कोर्ट का फैसला भले ही आ गया हो, लेकिन सवाल यह है कि क्या सेना अपनी पेशेवर तटस्थता को बचा पाएगी?
‘सूटकेस में 500 करोड़ लाओ, सीएम बनो’: बयान पर नवजोत कौर सिद्धू कांग्रेस से निलंबित
पंजाब की राजनीति में एक नए विवाद ने जन्म ले लिया है. कांग्रेस नेता और पूर्व क्रिकेटर नवजोत सिंह सिद्धू की पत्नी, पूर्व विधायक नवजोत कौर सिद्धू को सोमवार (8 दिसंबर, 2025) को पार्टी से तत्काल प्रभाव से निलंबित कर दिया गया. यह कार्रवाई उनके उस बयान के बाद हुई है जिसमें उन्होंने मुख्यमंत्री पद की ‘बोली’ लगाने जैसी बात कही थी.
हिंदू की खबर के अनुसार, पिछले हफ्ते चंडीगढ़ में मीडिया से बात करते हुए नवजोत कौर ने अपने पति की सक्रिय राजनीति में वापसी को लेकर शर्तें रखी थीं. उन्होंने कहा था कि नवजोत सिंह सिद्धू कांग्रेस में सक्रिय रूप से तभी लौटेंगे जब पार्टी उन्हें पंजाब में मुख्यमंत्री पद का चेहरा घोषित करे, क्योंकि वे हमेशा ‘पंजाबियत’ के लिए खड़े रहे हैं. इसी दौरान उन्होंने एक ऐसा बयान दिया जिसने सियासी बवंडर खड़ा कर दिया. उन्होंने कहा, “जो कोई भी सूटकेस में 500 करोड़ रुपये लेकर आएगा, वह मुख्यमंत्री बन सकता है.”
इस बयान के बाद पंजाब प्रदेश कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष अमरिंदर सिंह राजा वडिंग के हस्ताक्षर वाला एक निलंबन आदेश जारी किया गया. हालांकि, आदेश में निलंबन का कोई विशिष्ट कारण नहीं बताया गया, बस इतना कहा गया कि “डॉ. नवजोत कौर सिद्धू को तत्काल प्रभाव से पार्टी की प्राथमिक सदस्यता से निलंबित किया जाता है.”
कौर के इस बयान ने विपक्षी दलों को कांग्रेस पर हमला करने का मौका दे दिया. भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) और आम आदमी पार्टी (आप) ने तुरंत कांग्रेस को घेरा. बीजेपी के राष्ट्रीय महासचिव तरुण चुघ ने कहा कि नवजोत कौर की टिप्पणी ने कांग्रेस की “मनी बैग” (पैसे लेकर पद देने वाली) राजनीति की पोल खोल दी है. वहीं, आप के पंजाब महासचिव बलतेज पन्नू ने इस बयान को “बेहद परेशान करने वाला” बताया और कांग्रेस से जवाब मांगा. यह निलंबन ऐसे समय में आया है जब पंजाब कांग्रेस में पहले से ही आंतरिक कलह की खबरें आती रही हैं.
स्मार्टफोन लोकेशन हमेशा ऑन रखने के प्रस्ताव पर एमनेस्टी इंटरनेशनल ने जताई चिंता
भारत में सरकार की एक नई निगरानी योजना ने निजता (प्राइवेसी) को लेकर गंभीर सवाल खड़े कर दिए हैं. मानवाधिकार संस्था एमनेस्टी इंटरनेशनल ने भारत सरकार द्वारा दूरसंचार उद्योग के उस प्रस्ताव की समीक्षा को “बेहद चिंताजनक” बताया है, जिसमें सभी स्मार्टफोन्स पर ‘सैटेलाइट लोकेशन ट्रैकिंग’ को अनिवार्य रूप से हमेशा ऑन (always-on) रखने की बात कही गई है. ‘द टेलीग्राफ’ की रिपोर्ट के मुताबिक, मोदी सरकार लंबे समय से टेलीकॉम कंपनियों पर दबाव बना रही है कि वे जांच के दायरे में आने वाले व्यक्तियों की सटीक लोकेशन उपलब्ध कराएं.
टेलीकॉम ऑपरेटर्स का कहना है कि इसके लिए सबसे अच्छा तरीका यह है कि सरकार स्मार्टफोन निर्माताओं को आदेश दे कि वे फोन में लोकेशन ट्रैकिंग को स्थायी रूप से सक्षम (enable) करें. हालांकि, एपल, गूगल और सैमसंग जैसी बड़ी टेक कंपनियों ने गोपनीयता और सुरक्षा चिंताओं के कारण निजी तौर पर इस प्रस्ताव का कड़ा विरोध किया है.
एमनेस्टी इंटरनेशनल ने रॉयटर्स को दिए एक बयान में कहा कि लोकेशन डेटा “अविश्वसनीय खुलासा करने वाला” होता है. इससे किसी व्यक्ति के निजी और पेशेवर संपर्कों का पता चल सकता है. संस्था ने चेतावनी दी है कि इससे पत्रकारों के गुप्त सूत्रों और मानवाधिकार कार्यकर्ताओं की जान को खतरा हो सकता है. एमनेस्टी ने कहा, “ऐसे समय में जब दुनिया भर में निगरानी” एक बढ़ता हुआ खतरा है, सरकारों को अपने नागरिकों के डेटा की सुरक्षा करनी चाहिए, न कि उन्हें और अधिक संवेदनशील जानकारी देने के लिए मजबूर करना चाहिए.”
भारत के आईटी और गृह मंत्रालय, जो इस योजना की समीक्षा कर रहे हैं, ने अभी तक इस पर कोई टिप्पणी नहीं की है. गौरतलब है कि पिछले हफ्ते ही सरकार को एक अन्य आदेश वापस लेना पड़ा था जिसमें सभी स्मार्टफोन्स पर एक सरकारी ‘साइबर सुरक्षा ऐप’ पहले से लोड करने की बात कही गई थी. कांग्रेस नेता रणदीप सुरजेवाला ने लोकेशन ट्रैकिंग प्रस्ताव की आलोचना करते हुए इसे फोनों को “डिजिटल एंकल मॉनिटर” (कैदियों के पैर में बांधे जाने वाला ट्रैकर) में बदलने जैसा बताया है और पूछा है कि क्या हम भारत को एक ‘निगरानी राज्य’ बनाना चाहते हैं?
लद्दाख में एलजी और हिल काउंसिल के पर कतरे गए: वित्तीय अधिकारों में कटौती से गुस्सा
केंद्र सरकार के एक नए आदेश ने लद्दाख में पहले से सुलग रहे असंतोष को और भड़का दिया है. स्क्रोल से सफवात जरगर की रिपोर्ट के अनुसार, केंद्रीय गृह मंत्रालय ने 24 नवंबर को एक आदेश जारी कर लद्दाख के उपराज्यपाल (LG) और वहां के स्थानीय प्रशासन के वित्तीय निर्णय लेने के अधिकारों में भारी कटौती कर दी है. अब लद्दाख में 100 करोड़ रुपये तक की किसी भी परियोजना या योजना को मंजूरी देने का अधिकार सीधे केंद्रीय गृह मंत्रालय के पास होगा, जो पहले उपराज्यपाल के पास था.
सिर्फ इतना ही नहीं, नौकरशाही के स्तर पर भी शक्तियां कम की गई हैं. प्रशासनिक सचिव अब केवल 20 करोड़ रुपये तक के प्रोजेक्ट मंजूर कर सकेंगे. यहां तक कि लेह और कारगिल की स्वायत्त पहाड़ी विकास परिषदों, जो कि चुनी हुई संस्थाएं हैं, उनके भी पर कतर दिए गए हैं. वे अब 5 करोड़ रुपये तक के कार्यों को भी अपनी मर्जी से मंजूर नहीं कर सकेंगी. ये शक्तियां 2019 में लद्दाख के केंद्र शासित प्रदेश बनने के बाद दी गई थीं.
सरकार का तर्क है कि यह पारदर्शिता और बेहतर समन्वय के लिए किया गया है, लेकिन स्थानीय नेता इसे लद्दाख को “आर्थिक रूप से पंगु” बनाने की साजिश मान रहे हैं. लेह एपेक्स बॉडी के चेयरमैन और वरिष्ठ नेता चेरिंग दोरजे ने कहा, “दिल्ली में बैठा कोई बाबू सुदूर लद्दाख की विकासात्मक जरूरतों को कैसे समझेगा? लद्दाख का मौसम ऐसा है कि यहां काम करने के लिए साल में सिर्फ छह महीने मिलते हैं. अब फाइलों को दिल्ली के नॉर्थ ब्लॉक में घुमाने में ही वक्त निकल जाएगा.”
कारगिल डेमोक्रेटिक अलायंस के सज्जाद कारगीली ने कहा कि यह आदेश लद्दाख को कमजोर करने की कड़ी का अगला हिस्सा है. “2019 के बाद हमें राजनीतिक रूप से कमजोर किया गया, और अब हमें आर्थिक रूप से भी बेबस किया जा रहा है.” गौरतलब है कि लद्दाख में पिछले दो सालों से पंचायत चुनाव नहीं हुए हैं और लेह हिल काउंसिल का कार्यकाल भी खत्म हो चुका है, जिससे जमीनी स्तर पर कोई चुना हुआ नेतृत्व नहीं है. स्थानीय लोग राज्य का दर्जा और संविधान की छठी अनुसूची में शामिल करने की मांग को लेकर पहले ही आंदोलन कर रहे हैं.
‘बजरंग दल’ की भीड़ ने मृत पशुओं के अवशेष ले जा रहे वाहन को फूंका, मजदूरों को पीटा
उत्तराखंड की राजधानी देहरादून के बाहरी इलाके सेलाकुई में 28 अगस्त 2025 को हुई एक हिंसक घटना ने पीढ़ियों से चले आ रहे एक पारंपरिक पेशे और उससे जुड़े लोगों को संकट में डाल दिया है. आर्टिकल 14 की वर्षा सिंह की रिपोर्ट के मुताबिक, हसीन अहमद और उनके भाई, जो मृत पशुओं के अवशेष (हड्डियां, चमड़ा) इकट्ठा करने का काम करते हैं, पर एक उग्र भीड़ ने हमला कर दिया. उनकी गाड़ी को पुलिस स्टेशन के ठीक बाहर आग के हवाले कर दिया गया.
हसीन अहमद ने बताया, “मेरे पास जिला पंचायत द्वारा जारी लाइसेंस और परमिट के सभी असली कागज थे. मैंने उन्हें दिखाने की कोशिश की, लेकिन उन्होंने कागज देखने से भी इनकार कर दिया और बस हमें पीटते रहे.” उन्होंने आरोप लगाया कि हमला करने वाले 150-200 लोगों की भीड़ में बजरंग दल के लोग शामिल थे. अहमद और दो अन्य मजदूरों की जान पुलिस के आने से बची, लेकिन उन्हें गंभीर चोटें आईं. विडंबना यह है कि पुलिस ने उल्टा पीड़ितों के खिलाफ ही ‘अवैध परिवहन’ का मामला दर्ज कर लिया, जबकि उनके पास अनुमति थी.
इस घटना के बाद, देहरादून जिले में मृत पशुओं का निस्तारण करने वाले मजदूरों ने हड़ताल कर दी. इनमें से अधिकतर मजदूर दलित और मुस्लिम समुदाय से आते हैं. ठेकेदार राजेश कुमार बर्मन ने कहा, “मुस्लिमों को निशाना बनाने की कोशिश में दलित समुदाय को भी अपमानित किया जा रहा है और उनका रोजगार छीना जा रहा है.”
इस हड़ताल का असर भयानक हुआ. गांवों और कस्बों में मृत जानवरों के शव सड़ने लगे. छरबा गांव के पूर्व प्रधान रूमी राम जायसवाल को अपनी मृत गाय को खुद खेत में दफनाना पड़ा क्योंकि कोई उसे उठाने वाला नहीं था. उन्होंने कहा, “यह राजनीति हमारा जीवन बर्बाद कर रही है.” प्रशासन के लिए भी यह एक बड़ी चुनौती बन गई है. एक अधिकारी ने बताया कि अगर सरकार खुद यह काम करे तो एक दिन का खर्च 5 लाख रुपये आएगा.
कानूनी पेंच यह है कि 2007 के उत्तराखंड गोवंश संरक्षण अधिनियम में शवों के ‘निस्तारण’ की बात तो है, लेकिन उनके ‘परिवहन’ को लेकर स्थिति स्पष्ट नहीं है. इसी का फायदा उठाकर रक्षक दल हिंसा करते हैं. पर्यावरण के लिए भी यह खतरनाक है. सेलाकुई के पास शीतला नदी का तल गिद्धों का मुख्य भोजन स्थल है, जहां लुप्तप्राय प्रजातियां आती हैं. अगर मजदूरों ने शव वहां डालना बंद कर दिया, तो पारिस्थितिकी तंत्र बिगड़ जाएगा.
आज 500 उड़ानें रद्द हुईं, सरकार ने इंडिगो की रोस्टरिंग समस्याओं को बताया कारण
नागरिक उड्डयन मंत्रालय ने सोमवार को कहा कि इंडिगो ने आज अपनी 2,300 दैनिक उड़ानों में से 1,802 उड़ानों को संचालित करने की योजना बनाई, और लगभग 500 उड़ानों को रद्द कर दिया. मंत्रालय ने एक बयान में कहा कि एयरलाइन ने कुल 9,000 बैग में से 4,500 बैग यात्रियों को सौंप दिए हैं, और शेष 36 घंटों में वितरित कर दिए जाएंगे.
“द न्यू इंडियन एक्सप्रेस” के अनुसार, मंत्रालय ने कहा, “आज (सोमवार) इंडिगो ने 138 में से 137 गंतव्यों के लिए उड़ानों का संचालन करने की योजना बनाई. बयान में यह भी कहा गया कि 1 से 7 दिसंबर की अवधि के लिए 5,86,705 पीएनआर रद्द कर दिए गए और उनका रिफंड कर दिया गया, जिसकी कुल राशि ₹569.65 करोड़ है. 21 नवंबर से 7 दिसंबर की अवधि के लिए कुल 9,55,591 पीएनआर भी रद्द किए गए और उनका रिफंड कर दिया गया, जिसकी राशि ₹827 करोड़ है.
इस बीच, राज्यसभा में इस मुद्दे को संबोधित करते हुए, केंद्रीय नागरिक उड्डयन मंत्री राम मोहन नायडू किंजरापु ने कहा कि 2 दिसंबर से यात्रियों को हुई बड़े पैमाने पर असुविधा मुख्यरूप से एयरलाइन के आंतरिक क्रू रोस्टरिंग और परिचालन योजना की चुनौतियों के कारण हुई.
उन्होंने अद्यतन फ्लाइट ड्यूटी टाइम लिमिटेशंस (एफडीटीएल) मानदंडों का बचाव किया, जो नवंबर में लागू हुए थे और इंडिगो द्वारा व्यवधानों के मुख्य कारक के रूप में उद्धृत किए गए हैं.
डीजीसीए ने बढ़ाई समय सीमा
इस संकट ने विमानन नियामक को इंडिगो के सीईओ पीटर एल्बर्स और सीओओ-जवाबदेह प्रबंधक इसिड्रो पोरक्वेरास को उनके कारण बताओ नोटिस का जवाब देने की समय सीमा बढ़ाने के लिए प्रेरित किया है. शनिवार को जारी नोटिसों के जवाब 24 घंटों के भीतर दिए जाने थे, पर अब आज सोमवार शाम 6 बजे तक जमा किए जाने हैं. अपने नोटिस में, विमानन नियामक ने इंडिगो की योजना, पर्यवेक्षण और संसाधन प्रबंधन में “महत्वपूर्ण चूक” को उजागर किया. डीजीसीए ने बड़े पैमाने पर परिचालन विफलताओं की ओर इशारा किया, जिससे लाखों यात्री हवाई अड्डों पर फंसे रह गए, जो एयरलाइन की तैयारी और आंतरिक प्रक्रियाओं पर चिंताओं को रेखांकित करता है.
सरकार बताए, वह क्या कर रही है; कहा था, हवाई चप्पल पहनने वाले हवाई जहाज में यात्रा करेंगे
विपक्ष ने भी सोमवार को लोकसभा में सरकार से पूछा कि इंडिगो की उड़ान सेवाओं में आए व्यवधानों और देश भर के विभिन्न हवाई अड्डों पर लोगों को हो रही असुविधा के मद्देनजर वह क्या कर रही है. प्रश्नकाल के तुरंत बाद कांग्रेस के उपनेता गौरव गोगोई ने कहा, “हम सरकार से अनुरोध करते हैं कि वह देश को बताए कि कई दिनों से देश भर के सभी हवाई अड्डों पर लोग क्यों परेशानी का सामना कर रहे हैं, यहां डायलिसिस के मरीज़ हैं, जिनके घर में शादियां हैं, जो अपने बुजुर्गों के पास पहुंचना चाहते हैं, हवाई अड्डों पर अराजकता फैली हुई है.”
उन्होंने कहा, “हमें बताया गया था कि हवाई चप्पल पहनने वाले लोग भी हवाई जहाजों में यात्रा करेंगे, लेकिन कीमतें ₹20,000 तक बढ़ गई हैं, (हवाई अड्डों पर) कॉफी ₹250 की है और विमान देरी से चल रहे हैं. इसलिए, सरकार को हमें बताना चाहिए कि वह क्या कर रही है.” विपक्ष ने ‘अभूतपूर्व संकट’ के लिए सरकार को ठहराया जिम्मेदार ठहराया. कांग्रेस ने पहले दावा किया था कि इंडिगो में चल रही अराजकता कोई दुर्घटना नहीं, बल्कि यह क्षेत्र में “द्वैधता पैदा करने के लिए भाजपा सरकार के अथक प्रयास” का सीधा परिणाम है.
जम्मू-कश्मीर की पूर्व मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती ने भी “एक्स” पर कहा कि केंद्र में सत्तारूढ़ भाजपा इंडिगो एयरलाइंस में संकट से उत्पन्न आपातकालीन मुद्दों को हल करने के बजाय “खोखली प्रतीकात्मकता” में व्यस्त है. महबूबा ने कहा, “संसद दो सौ साल पुराने ‘वंदे मातरम’ पर बहस करने में व्यस्त है, जबकि इंडिगो के यात्री फंसे हुए हैं और जवाब जानने के लिए बेताब हैं.”
“आई लव मुहम्मद” : मुस्लिम प्रदर्शनकारियों के घरों पर तीन महीने तक नहीं चलेगा बुलडोजर
26 सितंबर को बरेली में “आई लव मुहम्मद” विरोध प्रदर्शन के बाद,जहां मुस्लिम प्रदर्शनकारियों पर पुलिस कार्रवाई के बाद उनके घरों को निशाना बनाकर दंडात्मक विध्वंस किया गया था, इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने अधिकारियों को निर्देश दिया है कि जिन याचिकाकर्ताओं पर पहले अवैध निर्माण का आरोप लगाया गया था, उनकी संपत्तियों पर तीन महीने तक कोई विध्वंस गतिविधि न की जाए।
“मकतूब मीडिया” के मुताबिक, न्यायमूर्ति अजीत कुमार और न्यायमूर्ति सत्यवीर सिंह की खंडपीठ ने संविधान के अनुच्छेद 226 के तहत मोहम्मद शाहिद और सात अन्य द्वारा दायर एक रिट याचिका पर सुनवाई करते हुए यह आदेश पारित किया.
विरोध प्रदर्शन और उसके बाद हुई हिंसा के तुरंत बाद, अधिकारियों ने प्रमुख मुस्लिम धर्मगुरु तौकीर रजा और उनके समर्थकों से जुड़े उल्लंघनों का दावा करते हुए विध्वंस की एक मुहिम शुरू की थी. आलोचकों ने इसे “बुलडोजर न्याय”—मुस्लिम असंतुष्टों के खिलाफ सामूहिक दंड—बताया है.
याचिकाकर्ताओं ने 9 अक्टूबर, 2025 के एक नोटिस को चुनौती दी थी, जिसमें उन्हें 15 दिनों के भीतर कथित अवैध ढाँचों को हटाने का निर्देश दिया गया था. उनके वकील ने तर्क दिया कि नगर पालिका लंबे समय से इमारतों पर कर वसूल रही थी, जिससे वे प्रभावी रूप से नियमित हो गए थे, और यह नोटिस प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों का पालन किए बिना पारित किए गए एक अंतिम आदेश जैसा था.
न्यायालय ने याचिका का निपटारा करते हुए कहा कि याचिकाकर्ताओं को चार सप्ताह के भीतर व्यक्तिगत रूप से नोटिस का जवाब देना होगा. एक बार जवाब दाखिल होने के बाद, सक्षम प्राधिकारी को याचिकाकर्ताओं को व्यक्तिगत सुनवाई का उचित अवसर प्रदान करने के दो महीने के भीतर एक तर्कपूर्ण आदेश द्वारा कारण बताओ नोटिस पर फैसला करना होगा. न्यायालय ने यह भी निर्देश दिया कि आदेश की तारीख से तीन महीने के लिए, या जब तक प्राधिकारी कार्यवाही समाप्त नहीं कर देता, जो भी पहले हो, तब तक कोई दंडात्मक कार्रवाई या विध्वंस नहीं किया जाएगा. हालांकि यह एक अस्थायी राहत है, यह निवासियों को आसन्न विध्वंस से बचाता है.
‘लव जिहाद’ नैरेटिव चलाने पर एनबीडीएसए की पांच चैनलों को फटकार
पिछले सप्ताह, न्यूज़ ब्रॉडकास्टिंग एंड डिजिटल स्टैंडर्ड्स अथॉरिटी (एनबीडीएसए) ने पांच राष्ट्रीय और क्षेत्रीय समाचार चैनलों को एक एनसीईआरटी कक्षा-3 पर्यावरण विज्ञान पाठ्यपुस्तक में छपे एक काल्पनिक पत्र पर आधारित “लव जिहाद” साज़िश सिद्धांत को बढ़ावा देने वाले आठ प्रसारण प्रसारित करने के लिए फटकार लगाई है.
यह आदेश मीडिया शोधकर्ता इंद्रजीत घोरपड़े और वकील उत्कर्ष मिश्रा द्वारा दायर शिकायतों के जवाब में आया, जिन्होंने आरोप लगाया था कि चैनलों ने एक सामान्य स्कूली पाठ्यपुस्तक के अंश—रीना नामक एक लड़की द्वारा अहमद नामक एक लड़के को लिखे गए पत्र—को सांप्रदायिक कार्यक्रम में बदल दिया, जिसमें एनसीईआरटी पर “लव जिहाद” को बढ़ावा देने का आरोप लगाया गया.
“मकतूब” की खबर के मुताबिक, एनबीडीएसए ने अपने आदेश में कहा कि चैनलों ने धर्मनिरपेक्ष पाठ्यपुस्तक अभ्यास को एक धार्मिक साजिश के रूप में चित्रित करके वस्तुनिष्ठ रिपोर्टिंग से हटकर काम किया और आचार संहिता का उल्लंघन किया. अथॉरिटी ने टिप्पणी की, “केवल इसलिए कि एनसीईआरटी की पाठ्यपुस्तक के एक अध्याय में, यह दिखाया गया है कि एक लड़की एक लड़के को पत्र लिखती है, जो एक अलग धर्म का था, ‘लव जिहाद’ का नैरेटिव देने का कोई कारण नहीं था.”
चैनलों ने माता-पिता की शिकायत की रिपोर्टिंग से परे जाकर “इसे एक विशिष्ट नैरेटिव के साथ एक बहस में बदल दिया,” बिना किसी प्रतिवाद या शिक्षा विशेषज्ञ का साक्षात्कार लिए. अथॉरिटी ने न्यूज़18 एमपी/ छतीसगढ़, एबीपी न्यूज़, ज़ी एमपी/ छतीसगढ़, ज़ी न्यूज़ और इंडिया टीवी को सात दिनों के भीतर अपनी वेबसाइटों, यूट्यूब चैनलों और सभी हाइपरलिंक से आपत्तिजनक वीडियो हटाने और लिखित रूप में अनुपालन की पुष्टि करने का निर्देश दिया.
मीडिया-वॉच समूहों ने प्रमुख भारतीय समाचार चैनलों को “जिहाद” शब्द का भ्रामक तरीके से उपयोग करने के लिए बार-बार चिह्नित किया है—जिसमें “लैंड जिहाद,” “नारकोटिक्स जिहाद,” और “इकोनॉमिक जिहाद” शामिल हैं—बावजूद इसके कि एनबीडीएसए ने सांप्रदायिक या सनसनीखेज प्रस्तुति के खिलाफ प्रसारकों को चेतावनी देते हुए कई आदेश जारी किए हैं. नवीनतम फैसला एक बार फिर इस चिंता को रेखांकित करता है कि षड्यंत्र से भरे आख्यान (नैरेटिव) प्राइमटाइम टेलीविजन के माध्यम से मुख्यधारा में लाए जा रहे हैं.
दक्षिण की अभिनेत्री गैंग रेप केस में एक्टर दिलीप बरी
केरल के एर्नाकुलम जिला एवं सत्र न्यायालय ने सोमवार को 2017 में दक्षिण फिल्मों की एक अभिनेत्री से गैंगरेप मामले में मलयालम अभिनेता दिलीप को बरी कर दिया. न्यायाधीश हनी एम. वर्गीस ने कहा कि अभिनेत्री के साथ यौन उत्पीड़न के मामले में दिलीप शामिल नहीं थे. “द हिंदू” के अनुसार, दिलीप के साथ तीन अन्य आरोपियों को भी अदालत ने बरी कर दिया. हालांकि, अदालत ने मुख्य आरोपी सुनील एन.एस. उर्फ़ ‘पल्सर सुनी’ सहित छह आरोपियों को दोषी ठहराया. इन पर घटना को अंजाम देने का आरोप था. कोर्ट 12 दिसंबर को दोषियों के खिलाफ फैसला सुनाएगी.
दिलीप ने कोर्ट से बाहर आने के बाद मीडिया से कहा- मेरी छवि और करियर खत्म करने के लिए मेरे खिलाफ साजिश रची गई थी. किसी का नाम लिए बिना कहा- एक वरिष्ठ महिला पुलिस अधिकारी और उसके चुने गए कुछ गुंडे पुलिसवालों के एक ग्रुप ने मुझे फंसाया.
रूस - यूक्रेन में युद्धविराम के मसले पर यूरोपीय नेताओं का अमेरिकी प्रस्ताव पर खुला संदेह
लंदन में ज़ेलेंस्की के साथ यूरोपीय नेताओं का मंथन और रूसी हमलों के बीच ‘गारंटी’ की मांग
यूक्रेन-रूस युद्ध के करीब चार साल बाद शांति की उम्मीदों के बीच कूटनीतिक हलचल तेज हो गई है. यूक्रेनी राष्ट्रपति वलोडिमिर ज़ेलेंस्की ने सोमवार को लंदन में ब्रिटिश प्रधानमंत्री कीर स्टारमर, फ्रांसीसी राष्ट्रपति इमैनुएल मैक्रों और जर्मन चांसलर फ्रेडरिक मर्ज़ के साथ एक अहम बैठक की. यह बैठक ऐसे समय में हुई है जब अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने ज़ेलेंस्की पर शांति प्रस्ताव को ठीक से न पढ़ने का आरोप लगाया है और रूस ने अमेरिका की नई, सख्त सुरक्षा रणनीति की तारीफ की है.
पोलिटिको की रिपोर्ट के मुताबिक, जर्मन चांसलर फ्रेडरिक मर्ज़ ने अमेरिका के नेतृत्व वाले शांति प्रस्तावों पर खुले तौर पर संदेह जताया है. लंदन पहुंचने के बाद उन्होंने कहा, “अमेरिकी पक्ष से आ रहे दस्तावेजों में मौजूद कुछ विवरणों को लेकर मैं संशय में हूं. इसीलिए हम यहां इकट्ठा हुए हैं.” हालांकि, उन्होंने यूक्रेन के लिए यूरोपीय समर्थन की प्रतिबद्धता दोहराते हुए कहा कि यूक्रेन का भाग्य यूरोप के भाग्य से जुड़ा है.
सीएनएन के अनुसार, मियामी में अमेरिकी और यूक्रेनी वार्ताकारों के बीच सप्ताहांत में हुई बातचीत बिना किसी नतीजे के खत्म हो गई. इसके बाद डोनाल्ड ट्रंप ने कहा कि रूस को शांति योजना से कोई दिक्कत नहीं है, लेकिन उन्हें यकीन नहीं है कि ज़ेलेंस्की इससे खुश हैं. उन्होंने यह भी कहा कि ज़ेलेंस्की ने प्रस्ताव को पढ़ा ही नहीं है.
इसके जवाब में ज़ेलेंस्की ने कहा कि डोनबास क्षेत्र (डोनेट्स्क और लुहान्स्क) के भविष्य और सुरक्षा गारंटियों पर अमेरिका के साथ अभी सहमति नहीं बन पाई है. उन्होंने सवाल उठाया, “मैं और सभी यूक्रेनी एक जवाब चाहते हैं: अगर रूस फिर से युद्ध शुरू करता है, तो हमारे साझेदार क्या करेंगे?” उन्होंने स्पष्ट किया कि यूक्रेन किसी भी समझौते में यूरोपीय संघ की सदस्यता और ठोस सुरक्षा गारंटियों की मांग कर रहा है.
क्रेमलिन ने अमेरिका की नई राष्ट्रीय सुरक्षा रणनीति का स्वागत किया है, जिसमें रूस को अब ‘खतरा’ नहीं माना गया है, बल्कि यूरोपीय देशों के लिए ‘अस्तित्वगत खतरा’ बताया गया है. क्रेमलिन प्रवक्ता दिमित्री पेसकोव ने इसे “सकारात्मक संकेत” बताया है.
कूटनीतिक रस्साकशी के बीच, रूस ने यूक्रेन पर भीषण हमले जारी रखे हैं. ज़ेलेंस्की के मुताबिक, पिछले हफ्ते रूस ने 1,600 ड्रोन, 1,200 गाइडेड बम और 70 मिसाइलों से हमला किया, जिसमें ऊर्जा के बुनियादी ढांचे को निशाना बनाया गया. राजधानी कीव समेत कई इलाकों में 12-12 घंटे तक बिजली गुल रही.
रॉयटर्स की रिपोर्ट के अनुसार, एस्टोनिया, फिनलैंड, आयरलैंड समेत सात यूरोपीय देशों के नेताओं ने यूरोपीय संघ से अपील की है कि रूसी संपत्ति (फ्रोजन एसेट्स) का इस्तेमाल करके यूक्रेन को वित्तीय मदद देने के प्रस्ताव पर जल्द फैसला लिया जाए. यूक्रेन को अगले साल 71.7 बिलियन यूरो की बजट कमी का सामना करना पड़ रहा है. बेल्जियम की कानूनी चिंताओं के कारण इस पर फैसला रुका हुआ है.
लंदन में हुई यह बैठक इस बात का संकेत है कि यूरोप, अमेरिका के बदलते रुख से चिंतित है और यूक्रेन के भविष्य को लेकर अपनी रणनीति को मजबूत करना चाहता है. एक तरफ जहां अमेरिका रूस के साथ संबंधों को फिर से परिभाषित कर रहा है, वहीं यूरोप यह सुनिश्चित करना चाहता है कि किसी भी शांति समझौते में उसकी सुरक्षा और यूक्रेन की संप्रभुता से समझौता न हो.
सलमान रुश्दी : भारत को लेकर ख़ासा फिक़्रमंद हूँ
सलमान रुश्दी के जीवन में जोखिम और धमकियां कोई नई बात नहीं हैं. दशकों पहले, 1989 में जब उनके उपन्यास ‘द सैटेनिक वर्सेज’ को लेकर विवाद हुआ, तो उनकी दुनिया रातों-रात बदल गई थी और उन्हें छिपने के लिए मजबूर होना पड़ा. बरसों गुज़रे और ऐसा लगने लगा कि शायद सबसे बुरा दौर बीत चुका है. लेकिन 2022 में अमेरिका के एक मंच पर, जब वे साहित्य और कला पर बात करने जा रहे थे, एक हमलावर ने उन पर चाकू से कई वार किए. वह दिन उनकी ज़िंदगी का आख़िरी दिन हो सकता था. लेकिन रुश्दी वापस लौटे—लिखने के लिए और अपनी शर्तों पर जीने के लिए. हाल ही में ब्लूमबर्ग के प्लेटफॉर्म पर मिशाल हुसैन के साथ एक बेहद आत्मीय और विस्तृत बातचीत में रुश्दी ने अपनी नई किताब ‘द इलेवंथ आवर’, अपने बचपन, और भारत, ब्रिटेन व अमेरिका के बदलते सियासी और सामाजिक हालातों पर खुलकर बात की.
इस बातचीत की शुरुआत ही उस हमले और उससे उबरने की प्रक्रिया से हुई. रुश्दी, जो खुद को नास्तिक मानते हैं और जीवन भर धर्मनिरपेक्ष मूल्यों के पक्षधर रहे हैं, इस दूसरी ज़िंदगी को एक ‘सेक्युलर वरदान’ (धर्मनिरपेक्ष आशीर्वाद) की तरह देखते हैं. उन्होंने कहा, “मैं आश्चर्यजनक रूप से ठीक हूं. जब आपको ज़िंदगी की एक अतिरिक्त लीज़ (मोहलत) मिलती है, तो हर दिन एक लक्जरी बन जाता है. यह एक तरह का आशीर्वाद है जो आपको अहसास दिलाता है कि वक़्त बर्बाद मत करो. अगर आपको कुछ अतिरिक्त समय मिला है, तो उसका इस्तेमाल करो.” अपनी पिछली किताब ‘नाइफ’ को लिखने की प्रक्रिया पर बात करते हुए उन्होंने इसे थेरेपी मानने से इनकार कर दिया. उनका कहना था, “मैं नहीं चाहता था कि मैं ज़मीन पर पड़ा हुआ, खून से लथपथ सिर्फ़ एक पीड़ित बनकर रह जाऊं. लिखने से मुझे उस घटना पर ओनरशिप मिली. यह अब मेरी कहानी थी जिसे मैं अपने तरीक़े से कह रहा था.”
बातों का सिलसिला जब उनके अतीत की ओर मुड़ा, तो कई दिलचस्प परतें खुलीं. मिशाल हुसैन ने उन्हें याद दिलाया कि उनका और रुश्दी का रिश्ता सिर्फ़ एक पत्रकार और लेखक का नहीं है—रुश्दी की मां और मिशल हुसैन की दादी सगी बहनें थीं. इस पारिवारिक कनेक्शन पर बात करते हुए रुश्दी अपने बचपन के बॉम्बे (मुंबई) में लौट गए. उन्होंने उस उदार और धर्मनिरपेक्ष माहौल को याद किया जिसमें वे पले-बढ़े थे. लेकिन लेखक बनने की उनकी राह आसान नहीं थी. जब उन्होंने पहली बार अपने पिता से कहा कि वे लेखक बनना चाहते हैं, तो उनके पिता बेहद नाराज़ हुए थे. रुश्दी ने हंसते हुए बताया, “मेरे पिता ने मुझसे कहा था, ‘मैं अपने दोस्तों को क्या बताऊंगा?’ क्योंकि उनके लिए लेखन कोई असली नौकरी नहीं थी, यह तो बस एक शौक था. ख़ुशक़िस्मती से वे इतना जीए कि उनके दोस्तों ने फ़ोन करके उन्हें मेरी कामयाबी पर बधाई दी.”
अपने मशहूर उपन्यास ‘मिडनाइट्स चिल्ड्रन’ का ज़िक्र करते हुए रुश्दी ने स्वीकार किया कि कैसे लेखक अक्सर अपने ही जीवन और परिवार को कहानियों में पिरो देते हैं, जिससे रिश्तों में खटास आ सकती है. उन्होंने नोबेल पुरस्कार विजेता चेस्लाव मिलोश की एक मशहूर पंक्ति को दोहराते हुए कहा, “जब एक लेखक परिवार में प्रवेश करता है, तो परिवार बर्बाद (screwed) हो जाता है.” रुश्दी ने माना कि जब यह किताब आई तो उनके पिता समेत परिवार के कई लोग नाराज़ थे, लेकिन उनकी मां ने इसे बहुत साहित्यिक नज़रिया से देखा और कहा, “मैं देख सकती हूं कि यहां क्या हो रहा है, लेकिन यह मैं नहीं हूं, यह सब बनावटी है.”
भारत को लेकर रुश्दी का नज़रिया हमेशा से गहरा और भावनात्मक रहा है. उन्होंने ‘मिडनाइट्स चिल्ड्रन’ को अपनी यादों को फिर से हासिल करने की एक कोशिश बताया. लेकिन आज के भारत को लेकर उनकी चिंताएं साफ़ झलकती हैं. प्रधानमंत्री मोदी के नेतृत्व वाले भारत पर बात करते हुए उन्होंने कहा, “मैं बहुत चिंतित हूं. पत्रकारों, लेखकों, बुद्धिजीवियों और प्रोफेसरों की आज़ादी पर लगातार हमले हो रहे हैं. लेकिन इससे भी ज़्यादा, ऐसा लगता है कि देश के इतिहास को फिर से लिखने की एक कोशिश हो रही है—यह साबित करने की कि ‘हिंदू अच्छे और मुस्लिम बुरे’.” उन्होंने वी.एस. नायपॉल के एक पुराने विचार का हवाला देते हुए कहा, “जिसे नायपॉल ने ‘घायल सभ्यता’ कहा था—यह विचार कि भारत एक हिंदू सभ्यता है जिसे मुस्लिमों के आगमन ने घायल कर दिया—आज इस प्रोजेक्ट के पीछे बहुत ऊर्जा लगाई जा रही है.”
रुश्दी ने अमेरिका को अपना घर इसलिए बनाया था क्योंकि वहां के संविधान में ‘फर्स्ट अमेंडमेंट’ यानी अभिव्यक्ति की आज़ादी को सर्वोच्च दर्जा प्राप्त है. लेकिन आज वहां के हालात देखकर वे हैरान हैं. उन्होंने बताया, “इस वक़्त अमेरिका में 23,000 सक्रिय ‘बुक बैन’ (किताबों पर प्रतिबंध) के मामले हैं. यह सिर्फ़ कोई भी किताबें नहीं हैं, ये टोनी मॉरिसन की ‘बिलवे्ड’ या ‘टु किल अ मॉकिंगबर्ड’ जैसी महान कृतियां हैं.” रुश्दी ने चेतावनी दी कि “अगर बच्चे बड़े होकर अपने ही देश के इतिहास के एक हिस्से से अनजान रह जाएंगे, तो यह ख़तरनाक है. ख़ासकर तब जब ये किताबें अमेरिका को ग़ैर-श्वेत नज़रिया से देखने की कोशिश करती हैं. उस दृष्टिकोण को मिटाने की कोशिश हो रही है.”
अभिव्यक्ति की आज़ादी पर उनका रुख आज भी उतना ही कड़ा है. उनका मानना है कि आज़ादी की असली परीक्षा तब होती है जब आप उस बात का बचाव करें जिसे आप नापसंद करते हैं. उन्होंने कहा, “ज्यादातर लोग जो अभिव्यक्ति की आज़ादी के रक्षक बनते हैं, वे असल में सिर्फ़ अपनी आज़ादी चाहते हैं. यह आज़ादी नहीं है. अगर सेंसरशिप का दबाव है, तो सेंसर करने वाले को अपनी बात साबित करनी होगी. डिफ़ॉल्ट सेटिंग हमेशा आज़ादी होनी चाहिए.”
शारीरिक चुनौतियों के बावजूद—एक आंख की रोशनी जाने और हाथ में चोट के कारण टाइपिंग में होने वाली दिक्कतों के बाद भी—रुश्दी का लेखन नहीं रुका है. उनकी नई किताब ‘द इलेवंथ आवर’ कहानियों का एक संग्रह है. अपनी दिनचर्या और अनुशासन के बारे में बात करते हुए उन्होंने अर्नेस्ट हेमिंग्वे का ज़िक्र किया, “हेमिंग्वे ने कहा था कि एक लेखक को सिर्फ़ एक ही प्रतिबद्धता (commitment) की ज़रूरत होती है—अपनी पैंट की सीट को कुर्सी की सीट से चिपकाए रखने की.” रुश्दी के लिए लेखन सिर्फ़ एक पेशा नहीं, बल्कि उम्मीद का दूसरा नाम है. वह कहते हैं, “लेखन अपने आप में आशावाद का एक रूप है. आप एक कमरे में अकेले बैठकर सालों तक कुछ लिखते हैं, इस उम्मीद में कि वह किसी के लिए मायने रखेगा, कोई उसे पढ़ेगा और पसंद करेगा. यही वह उम्मीद है जो मुझे चलाती है.”
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