09/03/2025 : बलात्कारी धनखड़ को 40 साल की सज़ा, कपिल मिश्रा और कानून, पत्रकार की गोली मार कर हत्या, मणिपुर में फिर हिंसा, भीमा कोरेगांव की साजिश, चुनावी सूची पर सवाल, बॉलीवुड में पेड न्यूज
‘हरकारा’ यानी हिंदी भाषियों के लिए क्यूरेटेड न्यूजलेटर. ज़रूरी ख़बरें और विश्लेषण. शोर कम, रोशनी ज़्यादा !
निधीश त्यागी, साथ में राजेश चतुर्वेदी, मज़्कूर आलम, गौरव नौड़ियाल
आज की सुर्खियां
कपिल मिश्रा के कानून से बदलते रिश्ते
मणिपुर में झड़प में 1 मौत, 25 घायल
यूपी में पत्रकार को गोली मारी
मध्यप्रदेश में लड़कियों के धर्मांतरण पर फांसी की सजा होगी
अब ईवीएम के बाद चुनावी सूची में गड़बड़ी की तरफ विवाद?
वक़्फ़ पर इकोनामिस्ट की हेडलाइन
भीमा कोरेगांव: जातिवाद हिंसा की जड़ या एल्गार की साजिश?
तेज़ी से सिकुड़ते हुए पूर्वोत्तर के जंगल
अब उठ जाएगा क्रिकेट का ये अनोखा अड्डा
चैम्पियंस ट्रॉफी फाइनल, किसकी दावेदारी कितनी मज़बूत
अरेंज्ड मैरिज के अपमान का सफरनामा
खरीदी हुई प्रशंसा से बॉलीवुड का लंगड़ाता धंधा और लड़खड़ाती साख़
मोदी के साथ फोटो पोस्ट करने वाले बलात्कारी, भाजपा के समुद्रपारी दोस्त बालेश धनखड़ को ऑस्ट्रेलिया में 40 साल की सजा
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के साथ अपनी कई फोटो पोस्ट करने वाले और ऑस्ट्रेलिया में भारतीय जनता पार्टी के संगठन ‘ओवरसीज़ फ्रेंड्स ऑफ बीजेपी’ के संस्थापक बालेश धनखड़ को पांच कोरियाई महिलाओं के साथ बलात्कार करने के लिए 40 वर्ष की कैद की सजा सुनाई गई है.
धनखड़ पर बलात्कार के 13, खुद को बलात्कार के लिए सक्षम बनाने के लिए दवा देने के 6, बिना सहमति के निजी वीडियो रिकॉर्ड करने के 17 और अश्लील हरकत के तीन आरोप थे. कुल मिलाकर धनखड़ पर 39 अपराधों में केस दर्ज किया गया था, जो कथित तौर पर जनवरी और अक्टूबर 2018 के बीच की अवधि के थे. अप्रैल 2023 में सिडनी की एक जूरी ने उसे सभी 39 आरोपों में दोषी पाया.
“द वायर” के अनुसार, धनखड़ की भाजपा और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के साथ निकटता का ऑस्ट्रेलियाई मीडिया ने उल्लेख किया है. “2018 में उसकी गिरफ्तारी तक, धनखड़ भारतीय-ऑस्ट्रेलियाई समुदाय में बहुत सम्मानित व्यक्ति था. उसने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की पार्टी का एक सैटेलाइट ग्रुप स्थापित किया और ऑस्ट्रेलिया की ‘हिंदू परिषद’ के लिए एक प्रवक्ता के रूप में कार्य किया. ‘ओवरसीज़ फ्रेंड्स ऑफ बीजेपी’ ने कथित तौर पर 2014 में सिडनी में मोदी के स्वागत के आयोजन में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी. सिडनी कोर्ट के जज ने धनखड़ को सजा सुनाते हुए कहा, “अपराधी का आचरण पूर्व नियोजित, सुनियोजित, चालाकी पूर्ण और अत्यधिक हिंसक था और उसने दिखाया कि यौन संतुष्टि की उसकी इच्छा प्रत्येक पीड़ित के प्रति पूर्ण और कठोर उपेक्षा में थी.”
इस बीच कांग्रेस ने इस ख़बर को भाजपा के साथ ही 8 मार्च के कारण अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस से भी जोड़ा है. पार्टी ने अपने “एक्स” हैंडल पर 51 सेकंड का एक वीडियो पोस्ट कर लिखा है, “महिला दिवस पर साफ संदेश है, भाजपा नेताओं से बेटी बचाओ.” वहीं एक अन्य पोस्ट में पार्टी ने दो तस्वीरें पोस्ट कर लिखा, “कोर्ट ने बालेश धनखड़ को 40 साल की सजा दी है और 30 साल तक पैरोल न देने का आदेश दिया है. ऑस्ट्रेलिया के कोर्ट ने कहा है कि ये जघन्य अपराध है, ये हैवानी प्रवृति है.” साथ ही वीडियो में भी पार्टी ने कई तस्वीरें शेयर की हैं, जिनमें बालेश धनखड़ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के साथ दिखते हैं. लिखा है कि “ये बीजेपी के वरिष्ठ नेता थे जो ऑस्ट्रेलिया में रहते थे.”
दैनिक भास्कर ने लिखा है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के शपथ ग्रहण समारोह में भाग लेने धनखड़ मई 2014 में भारत भी आया था. नवंबर 2014 में मोदी जब ऑस्ट्रेलिया दौरे पर गए तो वह उनकी अगवानी में काफी सक्रिय दिखाई दिया था. उसकी मोदी के साथ कई तस्वीरें सोशल मीडिया में हैं. खुद धनखड़ ने भी मोदी और भाजपा के अन्य नेताओं के साथ कई फोटो अपने अकाउंट पर पोस्ट कीं.
नफरत के साँप, सियासत की सीढ़ी : कपिल मिश्रा के कानून से बदलते रिश्ते
भाजपा नेता कपिल मिश्रा को हाल ही में दिल्ली सरकार में कानून एवं न्याय, श्रम और पर्यटन मंत्री बनाया गया है. हालांकि वे कानून को मानने से ज्यादा उससे खिलवाड़ करने के लिए मशहूर रहे हैं. कपिल मिश्रा की कहानी इसलिए भी दिलचस्प है कि वह आम आदमी पार्टी से भाजपा में आये और जब तक वहां थे, तब तक उनसे ज्यादा सेक्युलर (फ़ोटो देखिये) और मोदी निंदा करने वाला शायद ही कोई था.
सांप्रदायिक तनाव को भड़काकर सियासी रोटी सेंकने वाले नेताओं में उनका नाम लिया जाता है. फ्रंटलाइन में इस्मत आरा लिखती हैं कि नरेंद्र मोदी के भारत में हिंदू राष्ट्रवादी नेताओं के नफ़रत भरे भाषणों को न सिर्फ छूट मिलती है, बल्कि इनाम भी मिलता है. 2020 के दिल्ली दंगों में मिश्रा की भूमिका स्पष्ट थी. फरवरी 2020 में उन्होंने जाफराबाद में एंटी-सीएए प्रदर्शनकारियों (ज्यादातर महिलाएं) को धमकी देते हुए कहा था, "अगर पुलिस ने इन्हें नहीं हटाया, तो हमारे समर्थक हटाएंगे." कुछ ही घंटों बाद हिंसा भड़क गई, जिसमें 53 लोग मारे गए (38 मुस्लिम). वीडियो सबूतों के बावजूद, मिश्रा पर कोई कार्रवाई नहीं हुई.
मिश्रा का उदय कोई अपवाद नहीं है. यूपी के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ से लेकर भाजपा सांसद अनुराग ठाकुर तक, सत्ता तक पहुंचने का रास्ता सांप्रदायिक ध्रुवीकरण से ही बना है. 2020 में ठाकुर ने "देश के गद्दारों को गोली मारो" का नारा लगाया, लेकिन 2021 में उन्हें केंद्रीय मंत्री बना दिया गया. 2023 में भाजपा के रमेश बिधूड़ी ने संसद में बसपा सांसद कुंवर दानिश अली को "आतंकवादी" और कई अपशब्द कहे, फिर भी उन्हें राजस्थान के टोंक जिले का चुनाव प्रभारी बनाया गया.
दिल्ली विश्वविद्यालय के प्रोफेसर अपूर्वानंद के अनुसार, "मुस्लिम विरोधी भावनाएं भाजपा की मुख्य विचारधारा हैं. नेता पार्टी में ऊपर चढ़ने के लिए इन्हें खुलकर भड़काते हैं." उनका कहना है कि भाजपा का लक्ष्य मुसलमानों को राजनीतिक और सांस्कृतिक रूप से मिटाकर उन्हें द्वितीय श्रेणी का नागरिक बनाना है.
2024 के दिल्ली विधानसभा चुनाव में भाजपा ने "हिंदुओं को न्याय" का नारा देकर सांप्रदायिक विभाजन को गहराया. दंगा-प्रभावित इलाकों में होर्डिंग्स लगाए गए: "जहां दंगाई राज करते हैं, क्या वह मेरी दिल्ली है?" नए मंत्री प्रवेश वर्मा और बिधूड़ी जैसे नेताओं को प्रमुखता दी गई. आरएसएस ने बांग्लादेशी और रोहिंग्या प्रवासियों के खिलाफ डर फैलाया.
भारत की 15% मुस्लिम आबादी का लोकसभा में प्रतिनिधित्व महज 24 सीटें (5% से कम) है. भाजपा ने 2024 में एक भी मुस्लिम उम्मीदवार नहीं उतारा. राज्यसभा में मुख्तार अब्बास नकवी और सैयद ज़फर इस्लाम के बाद कोई मुस्लिम नहीं है. संदेश साफ है : मोदी के भारत में मुसलमानों को मिटाया जा रहा है.
वाशिंगटन स्थित इंडिया हेट लैब की रिपोर्ट के अनुसार, 2024 में भारत में अल्पसंख्यकों के खिलाफ नफ़रत भरे भाषण में 74% की वृद्धि हुई. 98.5% मामले मुसलमानों के खिलाफ, ज्यादातर भाजपा शासित राज्यों में. प्रधानमंत्री मोदी और गृहमंत्री शाह को प्रमुख उकसाने वालों में गिना गया.
दिल्ली में भाजपा की जीत सिर्फ राजनीतिक सफलता नहीं, बल्कि ध्रुवीकरण की रणनीति की जीत है. कपिल मिश्रा जैसे नेता, जो कभी हाशिये पर थे, उकसाने वाले भाषणों के बाद अब सत्ता के केंद्र में हैं. यह सिलसिला दिखाता है कि नफ़रत और हिंसा को भाजपा सत्ता का हथियार बना रही है.
पाठकों से अपील
मणिपुर में शाह के निर्देशों का पहले दिन ही विरोध, सुरक्षाबलों के साथ झड़प में 1 मौत, 25 घायल
केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह के मणिपुर में 8 मार्च से निर्बाध आवाजाही (फ्री मूवमेंट) सुनिश्चित करने के निर्देशों का पहले दिन ही विरोध हो गया. शनिवार को आवाजाही शुरू करते ही कांगपोकपी जिले के विभिन्न हिस्सों में कुकी प्रदर्शनकारियों और सुरक्षा बलों के बीच संघर्ष में एक प्रदर्शनकारी की मौत हो गई, जबकि महिलाओं समेत 25 अन्य घायल हो गए. गृहमंत्री शाह ने पिछले हफ्ते ही राज्य की सड़कों पर आवाजाही को सामान्य बनाने के लिए कहा था. साथ ही इसमें बाधा बनने वालों के खिलाफ सख्त कार्रवाई करने के निर्देश भी दिए थे.
मृतक की पहचान लालगौथांग सिंगसित (30) के रूप में हुई है. उसको कीथेलम्बी में हुए झड़पों के दौरान गोली लगी और अस्पताल ले जाते समय मृत्यु हो गई. गामगिफाई, मोतबुंग और कीथेलम्बी में सुरक्षा बलों के साथ झड़पों में घायल प्रदर्शनकारियों को उपचार के लिए स्वास्थ्य केंद्र में भर्ती कराया गया है. कुकी-बहुल जिले में प्रदर्शनकारियों और सुरक्षा बलों के बीच झड़पें उस समय शुरू हुईं जब पुलिस ने उन्हें खदेड़ने के लिए आंसू गैस का इस्तेमाल किया. प्रदर्शनकारियों ने निजी वाहनों में आग लगा दी और इंफाल से सेनापति जिले की ओर जा रही राज्य परिवहन की बस को रोकने की कोशिश की. प्रदर्शनकारियों ने एनएच-2 (इंफाल-दीमापुर राजमार्ग) को भी अवरुद्ध कर दिया और टायर जलाकर सरकारी वाहनों की आवाजाही को रोका. यह विरोध एक शांति मार्च के खिलाफ भी था, जिसे मैतेई संगठन फेडरेशन ऑफ सिविल सोसाइटी (एफओसीएस) द्वारा आयोजित किया गया था. इस मार्च में 10 से अधिक वाहन शामिल थे, लेकिन पुलिस ने इसे कांगपोकपी से पहले ही रोक दिया. हालांकि, एफओसीएस के सदस्यों ने आपत्ति जताई. कहा कि वे शाह के निर्देशों का पालन कर रहे थे. इस बीच, कुकी-ज़ो गांव के वालंटियर ग्रुप द्वारा एक अज्ञात स्थान से जारी वीडियो में कहा गया कि यह भारत सरकार के “फ्री मूवमेंट” के निर्णय के खिलाफ है. वीडियो में एक वालंटियर को यह कहते हुए सुना गया, “हमारे इलाकों में प्रवेश करने की किसी भी कोशिश को मजबूत प्रतिरोध का सामना करना पड़ेगा. पृथक प्रशासन से पहले कोई निर्बाध आवाजाही नहीं.”
मध्यप्रदेश में लड़कियों के धर्मांतरण पर फांसी की सजा होगी : मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री डॉ. मोहन यादव ने कहा है कि लड़कियों का धर्मांतरण करने वाले दुराचारियों को फांसी की सजा होना चाहिए. अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस पर एक कार्यक्रम में डॉ. यादव ने बताया कि मध्यप्रदेश में लागू धार्मिक स्वतंत्रता कानून में सरकार फांसी की सजा का प्रावधान करने जा रही है. उन्होंने कहा कि जो कानूनी प्रावधान नाबालिग लड़कियों के साथ बलात्कार के मामले में है, वही लड़कियों का धर्म परिवर्तन करने वालों पर लागू किया जाएगा. अगर ऐसा होता है तो मध्यप्रदेश धर्मांतरण पर फांसी का प्रावधान करने वाला देश में पहला राज्य होगा. इस वक्त मौजूदा कानून के तहत अधिकतम 10 साल की सजा का प्रावधान है.
यूपी में पत्रकार को गोली मारी : उत्तरप्रदेश के सीतापुर में शनिवार को राष्ट्रीय हिंदी दैनिक के एक पत्रकार राघवेंद्र वाजपेयी (36) की गोली मारकर हत्या कर दी गई. वाजपेयी के परिजनों ने बताया कि महोली तहसील में धान उपार्जन और जमीन के सौदे में हुई अनियमितताओं को उजागर करने के बाद पिछले दस दिनों से उन्हें धमकियां मिल रही थीं. उनकी रिपोर्ट के बाद चार लेखापालों को निलंबित किया गया था.
अब ईवीएम के बाद चुनावी सूची में गड़बड़ी की तरफ विवाद?
भारत के विपक्षी दलों (इंडिया गठबंधन) का मानना है कि भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) चुनाव जीतने के लिए मतदाता सूची में हेराफेरी कर रही है. यह आरोप पहले के ईवीएम (इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन) हैकिंग के दावों से अलग है. पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने 27 फरवरी को कहा कि 2026 के चुनाव से पहले नकली मतदाताओं को सूची में शामिल किया जा रहा है. यही आरोप महाराष्ट्र के महाविकास अघाड़ी और दिल्ली की आम आदमी पार्टी ने भी लगाए हैं. स्क्रोल में अनंत गुप्ता की इस पर विस्तार से लिखा है.
टीएमसी (तृणमूल कांग्रेस) ने पश्चिम बंगाल के मुर्शिदाबाद जिले से एक उदाहरण दिया है, जहां 129 मतदाताओं के मतदाता फोटो पहचान पत्र (इपीआईसी या एपिक) नंबर अन्य राज्यों के लोगों के साथ मेल खाते हैं. चुनाव आयोग के अनुसार, हर एपिक नंबर विशिष्ट होना चाहिए. टीएमसी का कहना है कि यह डुप्लीकेट नंबर भाजपा द्वारा "घोस्ट वोटर्स" लाने का तरीका है.
चुनाव आयोग ने इस गलती को स्वीकार किया है, लेकिन दावा किया कि मतदाता सिर्फ अपने निर्वाचन क्षेत्र में ही वोट डाल सकते हैं. हालांकि, टीएमसी का मानना है कि अलग-अलग लोगों के एक ही एपिक नंबर से फोटो मिसमैच होने पर असली मतदाता वोट नहीं डाल पाएंगे.
अन्य विपक्षी दलों ने भी आरोप लगाए : महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव (2024) में हार के बाद कांग्रेस ने चुनावी सूची में 39 लाख अतिरिक्त मतदाताओं को जोड़े जाने का आरोप लगाया था. पार्टी के डेटा विशेषज्ञ प्रवीण चक्रवर्ती के अनुसार, 30-50 सीटों पर सूची संदिग्ध है. दिल्ली विधानसभा चुनाव में मतदाताओं के नाम गलत तरीके से हटाए जाने का आरोप लगाया. आम आदमी पार्टी के संजय सिंह के मुताबिक, इससे भाजपा को 5-7% अतिरिक्त वोट मिल सकते हैं. उत्तर प्रदेश में प्रशासन पर भाजपा के साथ मिलकर नकली वोटिंग कराने का आरोप सपा (समाजवादी पार्टी) पार्टी प्रवक्ता अब्बास हैदर ने लगाया और कहा है कि ग्रासरूट कार्यकर्ता इसकी जांच कर रहे हैं.
विपक्षी पार्टियों में से कांग्रेस, टीएमसी, आप, सपा जैसे दल तकनीकी जानकारी साझा कर रहे हैं. महाराष्ट्र में कांग्रेस, शिवसेना (उद्धव) और एनसीपी (शरद पवार) ने संयुक्त प्रेस कॉन्फ्रेंस कर आरोप लगाए. उधर टीएमसी ने दरवाजे-दरवाजे जाकर नकली मतदाताओं की पहचान शुरू की है. संसद के बजाय सड़कों पर विरोध करने की योजना है. टीएमसी की सांसद सागरिका घोष ने कहा कि 10 मार्च से संसद में यह मुद्दा उठाया जाएगा. पश्चिम बंगाल भाजपा ने टीएमसी पर बांग्लादेशी हिंदू शरणार्थियों और हिंदी भाषियों के नाम सूची से हटाने का आरोप लगाया.
चुनाव आयोग के तटस्थ रुख पर सवाल उठते रहने से विपक्ष को लगता है कि संस्थाएं भाजपा के पक्ष में काम कर रही हैं. हालांकि, राजनीतिक विश्लेषक पराकला प्रभाकर जैसे लोगों का मानना है कि सिर्फ जनता का दबाव ही चुनावी प्रक्रिया को साफ कर सकता है.
“अल्लाह भारत का तीसरा सबसे बड़ा भूस्वामी है और अब नये कानून के निशाने पर”
द इकोनामिस्ट ने भारत को लेकर एक ताबड़तोड़ शीर्षक लिखा है, “ए न्यू लॉ टारगेट्स इंडियाज़ थर्ड बिगेस्ट लैंडओनर : अल्लाह”. अर्थात एक नया कानून भारत के तीसरे सबसे बड़े भूस्वामी को निशाना बना रहा है यानी अल्लाह को. लेख वक़्फ़ के बारे में है. वक़्फ़ बोर्ड भारत का तीसरा सबसे बड़ा भू-स्वामी हैं. अंबानी का आवास भी एक वक़्फ़ ज़मीन पर बना है, जिसे 1894 में मुस्लिम अनाथालय के लिए दान किया गया था, लेकिन 2002 में अंबानी की कंपनी को बेच दिया गया.
भारत में वक़्फ़ संपत्तियों को लेकर चल रहा विवाद दिल्ली की संसद स्ट्रीट मस्जिद और मुकेश अंबानी के मुंबई स्थित 27 मंजिला आवास जैसे विपरीत उदाहरणों से जुड़ा है. वक़्फ़ संपत्तियाँ मुस्लिम धार्मिक या चैरिटेबल उद्देश्यों के लिए दान की गई ज़मीन या इमारतें हैं. भारत में 8.72 लाख से अधिक वक़्फ़ संपत्तियाँ (लगभग 14 अरब डॉलर मूल्य की) मौजूद हैं, जिन्हें वक़्फ़ बोर्ड प्रबंधित करते हैं. अप्रैल 2024 में एक प्रस्तावित नया कानून सरकार को इन संपत्तियों पर नियंत्रण लेने की अनुमति दे सकता है. सरकार का दावा है कि यह कानून वक़्फ़ प्रबंधन में भ्रष्टाचार रोकेगा, लेकिन विरोधियों का मानना है कि यह मुस्लिम अधिकारों को कमजोर करने और हिंदू राष्ट्रवादी एजेंडे को बढ़ावा देने का प्रयास है.
विपक्षी नेता असदुद्दीन ओवैसी और जमात-ए-इस्लामी हिंद के नेता सैयद सदातुल्ला हुसैनी का कहना है कि यह कानून मुस्लिम संपत्तियों की जब्ती और सरकारी नियंत्रण बढ़ाने का औजार है. "वक़्फ़ बाय यूजर" जैसी श्रेणियों को हटाने से ताजमहल जैसे ऐतिहासिक स्थलों का दर्जा भी प्रभावित हो सकता है.
मोदी सरकार ने पहले ही मुस्लिम-बहुल कश्मीर की स्वायत्तता समाप्त की, गैर-मुस्लिम शरणार्थियों को नागरिकता दी, और अयोध्या में राम मंदिर का उद्घाटन किया. नया वक़्फ़ कानून इसी शृंखला का हिस्सा माना जा रहा है. हालाँकि, 2024 के चुनाव में बीजेपी को पूर्ण बहुमत न मिलने के बाद मोदी ने रणनीति में नरमी दिखाई, लेकिन हरियाणा और दिल्ली में हालिया जीत के बाद उनकी आक्रामकता फिर बढ़ी है.
उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने वक़्फ़ संपत्तियों की जाँच और "अवैध कब्जा" वापस लेने की बात कही है. दिल्ली और मुंबई जैसे शहरों में वक़्फ़ ज़मीनों पर सरकारी दावों को लेकर विवाद तेज़ है. विशेषज्ञों का मानना है कि नया कानून पारित होने पर ऐसे मामलों में मुस्लिम पक्षों के लिए कानूनी लड़ाई जीतना मुश्किल होगा. कई मुस्लिम समूहों को डर है कि सरकारी हस्तक्षेप से धार्मिक स्थलों का अस्तित्व खतरे में पड़ जाएगा. कुछ चेतावनी देते हैं कि इससे सामाजिक अशांति भी फैल सकती है, हालाँकि अधिकांश समुदाय अब अगले झटके के लिए मानसिक रूप से तैयार हैं. इकोनामिस्ट के मुताबिक वक़्फ़ विवाद भारत के धर्मनिरपेक्ष ढाँचे और अल्पसंख्यक अधिकारों पर बढ़ते दबाव का प्रतीक है.
विचार
टीके अरुण : थोपी न जाए, तो बढ़ती रहेगी हिंदी
इकोनामिक टाइम्स के पूर्व संपादक का यह लेख ‘द फेडरल’ में प्रकाशित हुआ है. अरुण सब्सटैक पर यहां.
तमिलनाडु के राजनेताओं को भाषा को लेकर लड़ाई करने में मज़ा आता है. तमिल की रक्षा करना एक ऐसा मुद्दा है, जो पूरे राज्य में जुनून की हद तक लोकप्रिय है. केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह यह सोचकर गलती कर रहे हैं कि तमिलनाडु के मुख्यमंत्री को इंजीनियरिंग और मेडिसिन की पढ़ाई तमिल में कराने की चुनौती देने से वे घबरा जाएंगे. इन विषयों की किताबें पहले से ही तमिल में लिखी जा रही हैं, और यह संभव है कि जल्द ही इन्हें औपचारिक शिक्षा में इस्तेमाल किया जाने लगे.
जब यूरोप में लैटिन विद्वता की सार्वभौमिक भाषा हुआ करती थी — न्यूटन ने अपनी ‘प्रिंसिपिया मैथेमेटिका’ इसी भाषा में लिखी थी — तब यूरोप की स्थानीय बोलियों (जो बाद में अंग्रेजी, फ्रेंच, जर्मन, डेनिश आदि भाषाओं में विकसित हुईं) के बारे में यह मजाक उड़ाया जाता था कि वे विज्ञान जैसे जटिल और अनुभवजन्य विषयों को लैटिन जितनी सटीकता से व्यक्त नहीं कर सकतीं. लेकिन समय ने साबित किया कि ये भाषाएं न केवल जनसाधारण और विद्वानों के बीच सेतु बनीं, बल्कि शोध के ज़रिए विज्ञान को आगे भी बढ़ाया.
आज के दौर में, सिर्फ उपनिवेशवाद से प्रभावित देशों में यह धारणा बची है कि "गोरों की भाषा" सीखे बिना दुनिया को समझना असंभव है. दक्षिण कोरिया की आबादी तमिलनाडु से भी कम है, लेकिन वहाँ के लोग अपनी मातृभाषा में पढ़ते हैं और समझते हैं. यही कारण है कि सैमसंग, एलजी और हुंडई जैसी कंपनियाँ वहाँ पनपीं, जो तकनीक और डिज़ाइन में अग्रणी हैं.
स्कैंडिनेवियाई देशों की आबादी दक्षिण दिल्ली से भी कम है. वे अपनी मातृभाषा में पढ़ते हैं और सांस्कृतिक, वैज्ञानिक और आर्थिक रूप से सफल हैं. हाँ, वे जर्मन या अंग्रेजी जैसी अन्य भाषाएँ सीखते हैं, लेकिन यह भ्रम नहीं पालते कि शिक्षा का माध्यम विदेशी भाषा होना ज़रूरी है. यही भ्रम भारतीयों को गर्व से अपनाए बैठा है.
अंग्रेजी के वैश्विक प्रभुत्व के बावजूद, ब्रिटिश अभिजात वर्ग अपने बच्चों को लैटिन और ग्रीक पढ़ाता रहा, ताकि उनकी सांस्कृतिक पहचान बनी रहे. लेकिन अपने उपनिवेशों में, उन्होंने शिक्षा का माध्यम अंग्रेजी बना दिया.
उत्तर भारतीय अभिजात वर्ग एक अजीब विरोधाभास है. वे अपनी मातृभाषा हिंदी को तुच्छ समझते हैं — कोई भी संपन्न उत्तर भारतीय हिंदी का इस्तेमाल सिर्फ रोज़मर्रा के कामों तक ही सीमित रखता है — लेकिन फिर भी चाहते हैं कि पूरा देश उनकी भाषा सीखे. अधिकांश हिंदीभाषी हिंदी साहित्य पढ़ने में अक्षम हैं, लिखना तो दूर की बात है. उन्हें यह भी पता नहीं कि आधुनिक हिंदी 19वीं सदी में हिंदवी/रेख़्ता/उर्दू के मिश्रण से विकसित हुई, जिसे ईसाई मिशनरियों ने उत्तर भारतीय हिंदुओं तक पहुँचने के लिए प्रोत्साहित किया.
कई उत्तर भारतीय यह मानकर चलते हैं कि हिंदी संस्कृत से निकली है, जबकि वास्तव में उत्तर भारतीय भाषाएँ विभिन्न प्राकृतों से विकसित हुईं. संस्कृत (जिसका अर्थ है 'परिष्कृत') सिर्फ अभिजात वर्ग की भाषा थी — संस्कृत नाटकों में छोटे पात्र और महिलाएँ प्राकृत बोलते थे. संस्कृत के प्रति गर्व होने के बावजूद, कलिदास के अलावा शायद ही कोई संस्कृत कवि का नाम जानता हो.
साहित्य की बात छोड़िए, एक औसत हिंदीभाषी ने मुक्तिबोध की कविता नहीं पढ़ी होगी या जयशंकर प्रसाद के ‘कामायनी’ के बारे में नहीं जानता. उसे मलयालम, तमिल, कन्नड़, तेलुगु, मराठी या बांग्ला के साहित्यिक महाकाव्यों का कोई ज्ञान नहीं. लेकिन बंगलुरू के किसी रेस्तराँ में जब वेटर हिंदी नहीं समझता, तो वह चिढ़ जाता है — "ये लोग राष्ट्रभाषा क्यों नहीं सीखते?"
हिंदी भारत की राष्ट्रभाषा नहीं है. भारत जैसे विविधतापूर्ण लोकतंत्र में कोई एक राष्ट्रभाषा नहीं हो सकती. हिंदी और अंग्रेजी को छोड़कर, संविधान की आठवीं अनुसूची की सभी 22 भाषाओं को राजभाषा का दर्जा मिलना चाहिए. हाँ, संपर्क भाषाएँ हो सकती हैं — जैसे पूर्व और उत्तर-पूर्व में बांग्ला, दक्षिण में तमिल.
बहुभाषी राष्ट्र में बहुसंख्यकों की भाषा को राष्ट्रभाषा बनाना कोई स्वाभाविक नियम नहीं है. इंडोनेशिया ने आज़ादी के बाद मलय (बहासा इंडोनेशिया) को राष्ट्रभाषा चुना, हालाँकि जावा द्वीप की भाषाएँ वहाँ ज़्यादा बोली जाती थीं. मलय व्यापार की भाषा थी, इसलिए उसे चुना गया.
1960 के दशक की तुलना में आज हिंदी भारत में कहीं अधिक समझी और अपनाई जाती है, जब संसद ने गैर-हिंदी भाषियों पर इसे थोपने की कोशिश की थी और तमिलनाडु के विरोध के बाद पीछे हटना पड़ा. हिंदी फिल्मों और टीवी कार्यक्रमों ने इसे "हिंदुस्तानी" स्वरूप में लोकप्रिय बनाया है, न कि संस्कृतनिष्ठ रूप में.
तमिलनाडु को अपनी द्विभाषी नीति (तमिल + अंग्रेजी) जारी रखने दें. उत्तर भारतीय राज्यों में भी यही नीति अप्रत्यक्ष रूप से लागू है. हिंदी को जबरन थोपने के बजाय उसके स्वाभाविक विस्तार को बढ़ावा देना चाहिए. ज़बरदस्ती से यह प्रक्रिया रुकेगी ही.
भीमा कोरेगांव
जातिवाद हिंसा की जड़ या एल्गार की साजिश?
प्रशांत राही और मौली शर्मा ने 'द पोलिस प्रोजेक्ट' के लिए भीमा कोरेगांव हिंसा और एल्गार परिषद के बीच के संबंधों की पड़ताल की है. भीमा कोरेगांव हिंसा 1 जनवरी 2018 को हुई थी, जब दलितों और बहुजनों का एक बड़ा समूह भीमा कोरेगांव में शहीद स्मारक पर श्रद्धांजलि देने के लिए एकत्र हुआ था. इस दौरान हिंदुत्व समर्थकों के एक समूह ने हिंसा भड़काई, जिसमें कई लोग घायल हुए और संपत्तियों को नुकसान पहुंचा. इस हिंसा के पीछे के कारणों और जिम्मेदार लोगों की पहचान करने के लिए महाराष्ट्र सरकार ने एक जांच आयोग का गठन किया था.
एल्गार परिषद, जो 31 दिसंबर 2017 को पुणे के शनिवार वाड़ा में आयोजित हुई थी, उसे इस हिंसा के लिए जिम्मेदार ठहराया गया. परिषद का उद्देश्य भारत में लोकतंत्र की रक्षा के लिए जनता को जागरूक करना था. हालांकि, जांच आयोग के सामने पेश किए गए सबूतों से पता चलता है कि एल्गार परिषद और भीमा कोरेगांव हिंसा के बीच कोई संबंध नहीं था. पुलिस अधिकारियों ने भी इस बात की पुष्टि की कि उन्हें ऐसा कोई सबूत नहीं मिला है जो परिषद और हिंसा को जोड़ता हो.
जांच आयोग के सामने पेश किए गए सबूतों से यह भी पता चलता है कि हिंसा का असली कारण वधु बुधरुक गांव में 29 दिसंबर 2017 को हुई घटना थी. इस घटना में दलितों द्वारा लगाए गए एक साइनबोर्ड को हिंदुत्व समर्थकों के एक समूह ने हटा दिया था. इस साइनबोर्ड में गोविंद गोपाल महार के योगदान का उल्लेख था, जो मराठा राजा संभाजी के सबसे विश्वसनीय सहयोगी थे. इस घटना के बाद दलितों और हिंदुत्व समर्थकों के बीच तनाव बढ़ गया, जिसके परिणामस्वरूप 1 जनवरी 2018 को भीमा कोरेगांव में हिंसा भड़क उठी. जांच आयोग के सामने पेश किए गए सबूतों से यह भी पता चलता है कि हिंसा की योजना पहले से बनाई गई थी और इसे अंजाम देने में मिलिंद एकबोटे और संभाजी भिड़े जैसे हिंदुत्व नेताओं की प्रमुख भूमिका थी. इन नेताओं ने सोशल मीडिया के माध्यम से हिंसा भड़काने के लिए लोगों को उकसाया था. हालांकि, अभी तक इस मामले में कोई बड़ी सजा नहीं हुई है और आरोपियों को जमानत मिल गई है. पुलिस और प्रशासन की लापरवाही के कारण हिंसा को रोका नहीं जा सका था. रिपोर्ट से स्पष्ट हो जाता है कि भीमा कोरेगांव हिंसा के पीछे जातिवादी हिंदुत्व का विचार था न कि एल्गार परिषद की कोई साजिश, जिसे लगातार सरकार ने निशाना बनाया.
तेज़ी से सिकुड़ते हुए पूर्वोत्तर के जंगल
भारत का पूर्वोत्तर क्षेत्र हरियाली और जैव विविधता के लिए प्रसिद्ध है, लेकिन हाल के वर्षों में इस क्षेत्र में जंगल तेजी से साफ किए गए हैं. पूर्वोत्तर क्षेत्र में जंगल सिकुड़ रहे हैं, जो न केवल जैव विविधता को प्रभावित कर रहा है, बल्कि इस क्षेत्र के पारंपरिक समुदायों की सांस्कृतिक पहचान को भी खतरे में डाल रहा है. सरकारी रिपोर्टों और नए कानूनी प्रावधानों के कारण इस समस्या को सुलझाने में कठिनाइयां आ रही हैं और यह क्षेत्र और भी अधिक पर्यावरणीय संकटों का सामना कर सकता है.
'इंडियास्पेंड' की रिपोर्ट है कि विशेषज्ञों के अनुसार यह स्थिति वन कानूनों में ढील के कारण और भी बदतर हो सकती है. भारत के पूर्वोत्तर राज्य मसलन अरुणाचल प्रदेश, मेघालय, नगालैंड, मणिपुर, मिजोरम, त्रिपुरा, असम और सिक्किम में 75% से अधिक क्षेत्र जंगलों से ढंके हुए हैं. अरुणाचल प्रदेश में फॉरेस्ट कवर का यह आंकड़ा 92.8% तक है. इस क्षेत्र के जंगल न केवल दुर्लभ वन्यजीवों जैसे लाल पांडा, हिम तेंदुआ और एक-सींग वाले गैंडे का घर हैं, बल्कि यहां की वनस्पतियों और पारिस्थितिकी तंत्र में भी अहम भूमिका निभाते हैं. हालांकि, इन जंगलों का संरक्षण हाल के वर्षों में एक गंभीर चुनौती बन गया है.
साल 2023 के 'भारत राज्य वन रिपोर्ट" (आईएसएफआर) के अनुसार, पिछले दो वर्षों में इस क्षेत्र में 327 वर्ग किलोमीटर में फॉरेस्ट कवर कम हुआ है. इसके अलावा 2013 से 2023 तक नगालैंड ने 6.11% (794 वर्ग किलोमीटर) जंगल खो दिए, जो लगभग दिल्ली के आकार के बराबर है. पूर्वोत्तर के जंगलों में हो रहे नुकसान के प्रमुख कारणों में अवैध लकड़ी की कटाई, शिफ्टिंग कृषि (झूम कृषि), बड़ी इंफ्रास्ट्रक्चर परियोजनाएं और सरकार द्वारा वन भूमि का व्यावसायिक उपयोग के लिए अधिग्रहण शामिल हैं. आईएसएफआर रिपोर्ट के अनुसार झूम खेती में वन भूमि को कृषि भूमि में बदलने के कारण वन की गुणवत्ता में गिरावट आई है, जिससे जैव विविधता पर नकारात्मक असर पड़ा है.
आईएसएफआर रिपोर्ट के अनुसार 2021 से 2023 के बीच असम, त्रिपुरा, मणिपुर और अरुणाचल प्रदेश में वन कवर में कमी आई है, जबकि मिजोरम ने इस अवधि में 192 वर्ग किलोमीटर का लाभ देखा. इन आंकड़ों को लेकर सवाल उठाए जा रहे हैं कि क्या असल में ये आंकड़े सही हैं, खासकर जब बात बायोडायवर्सिटी से जुड़ी है. वन संरक्षण अधिनियम 1980 में 2023 में किए गए संशोधनों के कारण, अब सीमावर्ती क्षेत्रों में सुरक्षा संबंधी परियोजनाओं के लिए जंगलों का उपयोग बिना समुदाय की अनुमति के किया जा सकता है. इससे भी इन जंगलों को और नुकसान पहुंचने की संभावना है. पूर्वोत्तर में जंगलों के अधिकांश हिस्से (लगभग 60%) पारंपरिक समुदायों के स्वामित्व में हैं. इन समुदायों का जंगलों के साथ गहरा संबंध है, लेकिन वर्तमान में उनकी वन सुरक्षा पर असुरक्षा के कारण यह संरक्षण कमजोर हो गया है. साथ ही युवा पीढ़ी का इन जंगलों से संबंध कमजोर हुआ है.
अब उठ जाएगा क्रिकेट का ये अनोखा अड्डा
आईसीसी मेन्स चैंपियंस ट्रॉफी 2025 अपने अंतिम पड़ाव पर है. इस टूर्नामेंट के साथ क्रिकेट का अनोखा शो- ‘डीपी वर्ल्ड ड्रेसिंग रूम’ भी समाप्त हो जाएगा. इसे लेकर विश्व भर के दर्शकों में निराशा देखी जा रही है. पाकिस्तान में टेन स्पोर्ट्स पर प्रसारित होने वाला यह शो क्रिकेट की बारीकियों का गहन विश्लेषण पेश करता है. इस शो की प्रतिष्ठा भारत समेत दुनिया भर में है.
इस शो के सभी एपिसोड यूट्यूब पर उपलब्ध हैं. इस चैट शो की लोकप्रियता का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि इसे 30 मिलियन से भी ज़्यादा बार देखा गया है, जबकि इसके वीडियो और संबंधित पोस्ट को सोशल मीडिया पर 130 मिलियन से ज़्यादा बार देखा गया है।
इसका सबसे पसंदीदा सेगमेंट #AskTheRoom है. इसमें दुनिया भर के क्रिकेट प्रेमियों ने ढेरों सवाल पूछे हैं. प्रतिष्ठित पैनल सीधे दर्शकों से जुड़कर आधे घंटे से ज्यादा समय तक सवालों के जवाब देता है.
पाकिस्तान के दो पूर्व कप्तान वसीम अकरम, वकार यूनुस, भारत के एक पूर्व मध्यक्रम बल्लेबाज़ और कप्तान अजय जडेजा, ऑफ स्पिनर निखिल चोपड़ा और एंकर फ़ख़रे आलम खेल पर एक नया नजरिया लेकर आते हैं, जो आम विश्लेषण से अलग होता है. शो इतना लोकप्रिय है कि इसमें शामिल होने का मोह पूर्व कप्तान सुनील गावस्कर भी नहीं रोक पाए.
शो में गावस्कर ने अपने समय की एक दिलचस्प अनकही कहानी साझा की : कैसे पाकिस्तान के पूर्व कप्तान इमरान खान ने उन्हें 1986 में पाकिस्तान के भारत दौरे से पहले अपने संन्यास को टालने के लिए राजी किया. इमरान के साथ इस महत्वपूर्ण बातचीत ने गावस्कर के करियर को आगे बढ़ाया और उन्हें 10,000 टेस्ट रन पार करने वाला पहला क्रिकेटर बना दिया.
अकरम ने कहा, "मैं लगभग 20 वर्षों से प्रसारण कर रहा हूँ. यह मेरे लिए स्वाभाविक है. मेरा मानना है कि कमेंट्री का मतलब कहानी सुनाना और तकनीकी पहलू है. हम शो में इस तरह से समझाते हैं कि दुनिया के हमारे हिस्से का हर औसत व्यक्ति समझ सके कि यह अद्भुत खेल क्या है."
यह बात बहुत कम लोग जानते हैं कि शो के पीछे की प्रेरक शक्ति फ़ख़र न केवल एक अनुभवी खेल प्रसारक हैं, बल्कि एक प्रशिक्षित पायलट और पुरस्कार विजेता अभिनेता भी. पिछले कुछ वर्षों में, उन्होंने खेल मीडिया की दुनिया में अपने लिए एक अलग पहचान बनाई है.
फ़ख़र बताते हैं कि यह शो सीमाओं से परे है, शायद इसलिए क्योंकि इसका पहले से कोई तय एजेंडा नहीं होता. यह स्वाभाविक, ईमानदार और बिना पटकथा वाला है. इस शो में खान-पान संगीत, फिल्में और संस्कृति जैसे सामान्य तत्वों को शामिल कर माहौल को रोचक बनाए रखा जाता है. शो के आकर्षण में इसका हास्य भी शामिल है, जिसे अनदेखा नहीं किया जा सकता. शो उर्दू, हिंदी और अंग्रेजी का सहज मिश्रण है. इसमें लड़के अक्सर पंजाबी में बात करते दिखते हैं.
शो में शामिल होने के बारे में जडेजा बताते हैं, “यह एक शानदार अनुभव रहा है. मैं यह शो देखता रहा हूं और हमेशा से महान वसीम अकरम और वकार युनुस के साथ बैठना चाहता था. यह अनुभव बेहद आनंददायक रहा है.’
अपनी गहरी क्रिकेट पृष्ठभूमि के बावजूद, चारों पूर्व क्रिकेटरों में से कोई भी चैंपियंस ट्रॉफी में किसी भी खिलाड़ी की अत्यधिक आलोचना नहीं करता है. यहां तक कि पाकिस्तान के निराशाजनक अभियान का उनका विश्लेषण भी संतुलित और रचनात्मक रहा है. अंधराष्ट्रवाद से मुक्त, यह शो सनसनीखेजता के बजाय समाधान पर ध्यान केंद्रित करने के लिए जाना जाता रहा है. इस शो में इन पांचों की केमिस्ट्री शानदार दिखती है. लगता ही नहीं कि क्रिकेट विश्लेषण का यह शो है. इसके बजाय पांच दोस्तों की बातचीत ज्यादा लगती है. यही वजह है कि शो के घंटे कैसे बीत जाते हैं, दर्शकों को पता ही नहीं चलता.
चैम्पियंस ट्रॉफी फाइनल : किसकी दावेदारी कितनी मज़बूत
चार शहर, करीब 13 घंटे की उड़ान और 7,000 किलोमीटर से ज़्यादा की दूरी. ये सब एक पखवाड़े के अंदर. न्यूजीलैंड का अपने तीसरे ICC चैंपियंस ट्रॉफी फ़ाइनल के लिए यही कार्यक्रम रहा है. रविवार को होने वाले मेगा शो मुक़ाबले में कीवी टीम का सामना भारतीय टीम से होगा, जो टूर्नामेंट की शुरुआत में दुबई में उतरने के बाद से ही यहां से बाहर नहीं निकली है. तीन साल में अपने तीसरे ICC सीमित ओवरों के फ़ाइनल में पहुँचने के बाद, रोहित शर्मा और कंपनी 2000 के नैरोबी फ़ाइनल के रीमैच में प्रबल दावेदार हैं, जब ब्लैक कैप्स ने रोमांचक मुक़ाबले में भारत को हराकर खिताब पर कब्जा जमाया था. मगर तब से अब तक गंगा में काफी पानी बह गया है. आंकड़ों में देखें तो इस बार भारत बड़ा दावेदार लगता है. वह है पिछले पांच सालों में टीम इंडिया का प्रदर्शन, जो इसे सर्वकालिक नहीं भी तो बेहद शानदार टीम बनाती ही है.
अगर इस चैम्पियंस ट्रॉफी की बात करें तो भारत अपराजित रहा है, जबकि न्यूजीलैंड भारत से हारकर फाइनल में पहुंची है. आंकड़े बताते हैं कि स्पिनरों ने मिडिल-ओवर में 55 प्रतिशत विकेट निकाले हैं और टूर्नामेंट में लक्ष्य का पीछा करने वाली भारतीय टीम सबसे अच्छी रही है. टेलीग्राफ ने दोनों टीमों के पांच-पांच खिलाड़ियों को आमने-सामने रखकर उनके प्रदर्शन को देखने की कोशिश की है.
वहीं न्यूजीलैंड के कप्तान मिशेल सेंटनर ने फाइनल से पहले कहा, इस मुकाम तक पहुंचने के लिए हमने जो किया है, वह अच्छा रहा है. हम एक अच्छी टीम के खिलाफ खेल रहे हैं, जिन्होंने अपने सभी मैच दुबई में खेले हैं और उस सतह को जानते हैं. जाहिर है, सतह कुछ हद तक एडवांटेज तय करेगी. लाहौर में हमें जो मिला, उससे यह धीमा पिच होगा, शायद थोड़ा और संघर्षपूर्ण.” हालांकि फिर वह यह भी कहते हैं, “टीम ने यात्रा को अपने हिसाब से लिया है. यह सब चुनौती का हिस्सा है. हम यहाँ हर जगह गए हैं- पाकिस्तान और दुबई में. खिलाड़ी समझते हैं कि यह भी खेल का हिस्सा है.” वहीं न्यूजीलैंड हेराल्ड ने लिखा है कि टूर्नामेंट का पेचीदा कार्यक्रम, जिसमें टीमें पाकिस्तान से यूएई आती-जाती हैं, जबकि भारत यहीं पर है. यह बेहद विवादास्पद रहा है और दोनों देशों की पिचें काफी अलग-अलग रही हैं.
न्यूजीलैंड हेराल्ड ने एक अलग खबर में दोनों टीमों का एक-दूसरे रिकॉर्ड के बारे में लिखा है. उसमें बताया गया है कि भारत 2023 से अब तक ब्लैक कैप्स के खिलाफ़ पिछले छह वनडे जीता है. उस हार के दौर की शुरुआत से पहले, न्यूज़ीलैंड भारत से लगातार पाँच मैच जीता था. दोनों पक्षों के बीच आखिरी मुक़ाबला दुबई में ग्रुप मैच था, जिसमें भारत ने जीत दर्ज की थी. ब्लैक कैप्स दुबई इंटरनेशनल स्टेडियम में कभी भी कोई वनडे नहीं जीता. दूसरी तरफ़, भारत दुबई इंटरनेशनल स्टेडियम में कभी कोई वनडे नहीं हारा है. यूएई के मैदान पर उनका रिकॉर्ड लगभग बेहतरीन है, जिसमें नौ जीत और एक टाई (2018 में अफ़गानिस्तान के खिलाफ़) शामिल है. उन नौ जीत में से चार इसी टूर्नामेंट में मिली हैं.
सिनेमा
अरेंज्ड मैरिज के अपमान का सफरनामा
यह कहा जाता है कि शादियां स्वर्ग में बनती हैं, लेकिन भारत में जहां अधिकांश शादियां अरेंज्ड (परिवार द्वारा तय) होती हैं, मैचमेकिंग की प्रक्रिया एक महिला और उसके परिवार के लिए नर्क से गुजरने जैसी महसूस हो सकती है. यही प्रमुख विषय है 2023 की मराठी फिल्म 'स्थळ: ए मैच' का, जिसने भारत और विदेशों में कई प्रतिष्ठित पुरस्कार जीते हैं. यह फिल्म पहली बार भारतीय सिनेमाघरों में 20 अक्टूबर को रिलीज हो रही है. महाराष्ट्र के ग्रामीण इलाके में सेट यह फिल्म सविता नाम की एक युवती की कहानी है, जो पितृसत्तात्मक समाज में शिक्षा और करियर के लिए संघर्ष कर रही है. उसके पिता दौलतराव वंधारे, एक गरीब कपास किसान, अपनी बेटी के लिए एक अच्छा दूल्हा ढूंढ़ने की कोशिश करते हैं. निर्देशक जयंत दिगंबर सोमलकर कहते हैं, "वह अपनी फसल के लिए अच्छी कीमत और अपनी बेटी के लिए अच्छा मैच चाहते हैं." गीता पांडेय ने बीबीसी न्यूज में इस पर लिखा है. भारत में 90% शादियां अब भी अरेंज्ड होती हैं, और स्थळ इस विषय पर बनी पहली फिल्म नहीं है. हालांकि, सोमलकर के अनुसार, भारतीय सिनेमा में शादियों को बहुत ही ग्लैमराइज्ड तरीके से दिखाया जाता है. उनकी फिल्म इस वास्तविकता को दिखाने की कोशिश करती है कि अधिकांश भारतीय परिवारों के लिए शादी की प्रक्रिया कितनी कठिन हो सकती है.
यह फिल्म इस मामले में खास है कि यह अरेंज्ड मैरिज के दौरान युवतियों के साथ होने वाले "अपमानजनक" अनुभव को बिना किसी लाग-लपेट के दिखाती है. इसकी मुख्य अभिनेत्री नंदिनी चिकटे के अनुसार, यह अनुभव बहुत ही अपमानजनक होता है. फिल्म की एक और खास बात यह है कि इसमें सभी कलाकार पहली बार अभिनय कर रहे हैं और उसी गांव से चुने गए हैं, जहां फिल्म की शूटिंग हुई है. नंदिनी चिकटे, जो सविता की भूमिका निभा रही हैं, ने अपने शानदार अभिनय के लिए पहले ही दो पुरस्कार जीत लिए हैं.
चलते-चलते
खरीदी हुई प्रशंसा से बॉलीवुड का लंगड़ाता धंधा और लड़खड़ाती साख़
2000 के दशक से भारत, जो दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा फिल्म उद्योग है (प्रति वर्ष 1,700-1,800 फिल्में), अब "खरीदी गई प्रशंसा" पर निर्भर हो रहा है. अल जज़ीरा में सुपर्णा शर्मा की रिपोर्ट के अनुसार, 20 से अधिक फिल्म पेशेवरों ने स्वीकारा कि 70-80% समीक्षाओं के लिए पैसे दिये गये.
आलिया भट्ट अभिनीत फिल्म 'जिगरा' (लागत : 80 करोड़) के निर्माताओं ने फर्जी ट्वीट्स, थिएटर टिकट खरीदे और झूठे दावे किए (जैसे ट्रेलर को 40 मिलियन व्यूज). एक्स (ट्विटर) पर क्रिकेटक्रेजीजॉन्स जैसे इन्फ्लुएंसर्स (600k फॉलोअर्स) को प्रति ट्वीट 30,000 रुपये दिए गए, हालाँकि संचालक हिंदी भी नहीं जानता! फिल्म फ्लॉप होने के बावजूद, धर्मा प्रोडक्शन्स ने "हिट" का भ्रम बनाया.
यश राज फिल्म्स के एक अधिकारी ने बताया : "समीक्षाओं की कीमतें तय हैं. सकारात्मक लेख, ट्वीट्स, यहाँ तक कि नकारात्मकता 'मैनेज' की जाती है." मीडिया घराने मसलन टाइम्स ऑफ इंडिया के 'मीडियानेट' ने 2003 में फिल्मों को 'उद्योग' दर्जा मिलने के बाद पेड न्यूज मॉडल शुरू किया, जहाँ खबरों की कीमत विज्ञापन से 20-50% अधिक थी.
सोशल मीडिया का दबाव भी बढ़ा. इन्फ्लुएंसर्स अब "जबरन वसूली" करते हैं : "पैसे न दें तो फिल्म की बुराई शुरू." करण जौहर ने 'जिगरा' से पहले प्री-रिलीज शो रोके, जिससे इन्फ्लुएंसर्स को झटका लगा.
यह रवायत इसलिए बढ़ रही है, क्योंकि फिल्मों की 60% आय पहले सप्ताह से आती है. निर्माता "हिट" का भ्रम बनाकर दर्शकों को थिएटर खींचते हैं. और फिल्में बनाना महंगा जुआ है मसलन 'जिगरा' 80 करोड़ में बनी और सिकुड़ती आमदनी के बीच पीआर और झूठे प्रचार पर निर्भरता बढ़ी. बॉलीवुड की सॉफ्ट पावर दुनिया भर में प्रशंसित है, लेकिन पेड समीक्षाओं और झूठे प्रचार ने दर्शकों का भरोसा घटाया है.
आज के लिए इतना ही. हमें बताइये अपनी प्रतिक्रिया, सुझाव, टिप्पणी. मिलेंगे हरकारा के अगले अंक के साथ. हरकारा सब्सटैक पर तो है ही, आप यहाँ भी पा सकते हैं ‘हरकारा’...शोर कम, रोशनी ज्यादा. व्हाट्सएप पर, लिंक्डइन पर, इंस्टा पर, फेसबुक पर, स्पोटीफाई पर , ट्विटर / एक्स और ब्लू स्काई पर.