09/07/2025: बिहार में मतदाता परेशान, एनडीए बेचैन | गरीबी घटने पर सरकार के झूठे दावे | राफेल गिरा पर पाकिस्तान की वजह से नहीं | असम से मुस्लिम परिवारों की बेदखली जारी, पुणे में पलायन | गुरुदत्त@100
‘हरकारा’ यानी हिंदी भाषियों के लिए क्यूरेटेड न्यूजलेटर. ज़रूरी ख़बरें और विश्लेषण. शोर कम, रोशनी ज़्यादा.
निधीश त्यागी, साथ में राजेश चतुर्वेदी, गौरव नौड़ियाल
आज की सुर्खियां :
सबसे ज्यादा मांग डोमिसाइल सर्टिफिकेट की, लेकिन लाखों आवेदन पेंडिंग
कहीं उल्टा न पड़ जाए एनडीए के लिए चुनाव आयोग का दाँव
चुनाव आयोग के विरोधाभासी संकेत बिहार की मतदाता पंजीकरण प्रक्रिया को खतरे में डालते हैं
हर मतदाता शक के कठघरे में यकायक कैसे आया
कांग्रेस ने पूछा, जेन स्ट्रीट ने अवैध कमाई का 44,000 करोड़ रुपये अमेरिका भेजा, सरकार कैसे वापस लाएगी?
गरीब कहां गायब हो रहे हैं भारत में?
असम : 3 गांवों से 1400 मुस्लिम परिवार बेदखल
पुणे के दो गांवों से मुस्लिम परिवारों का पलायन
‘भारतीय वायुसेना का एक राफ़ेल विमान नष्ट, लेकिन पाकिस्तान ने नहीं गिराया’
तालिबान पर दुनिया सख्त, भारत नरम
बुरी आत्माओं को भगाने के नाम पर इतना पीटा कि वह मर गई
बिहार : जादू टोना के शक में एक ही परिवार के पांच लोगों की हत्या के बाद शव जलाए
तमिलनाडु: मंदिर में दलितों से भेदभाव का आरोप, पुजारी ने ‘विभूति’ देने से किया इनकार
‘यह सवाल कल के पेपर में पक्का आएगा. तय है’
तेलुगु राज्यों में मोदी-शाह का गणित गड़बड़ाया
गाज़ा में संघर्षविराम की उम्मीदों पर फेरा पानी, रफ़ा के मलबे में नजरबंदी शिविर बनाने की बात
रॉयटर्स हैंडल ब्लॉकिंग पर बड़ा टकराव,एक्स ने कहा – 'सरकार ने ही दिया था आदेश' आईटी मंत्रालय बोला – 'नहीं थी कोई मंशा',
ट्रम्प के लिए नोबेल की मांग
हरकारा डीपडाइव | गुरुदत्त की सौवीं जयंती पर ख़ास बातचीत
सबसे ज्यादा मांग डोमिसाइल सर्टिफिकेट की, लेकिन लाखों आवेदन पेंडिंग
इधर, “द इंडियन एक्सप्रेस” में संतोष सिंह ने बताया है कि बिहार में चुनाव आयोग के विशेष गहन पुनरीक्षण अभियान के दौरान, सबसे ज्यादा मांग निवास प्रमाण पत्र (डोमिसाइल सर्टिफिकेट) की है.
अधिकतर आवेदकों को सिर्फ आधार कार्ड दिखाकर निवास प्रमाण पत्र मिल रहा है, जबकि चुनाव आयोग ने आधार को मान्य दस्तावेजों की सूची में शामिल नहीं किया है. 28 जून से 6 जुलाई के बीच 13 लाख से ज्यादा निवास प्रमाण पत्र के आवेदन आए, जिनमें से 9 लाख से अधिक अब भी लंबित हैं.
आरटीपीएस (सार्वजनिक सेवा का अधिकार) के अधिकारियों का कहना है कि स्टाफ की कमी के कारण काम का बोझ बहुत ज्यादा है और अंतिम तारीख (25 जुलाई) तक यह और बढ़ सकता है.
सामान्यतः निवास प्रमाण पत्र के लिए कई दस्तावेजों की जरूरत होती है, लेकिन अभी अधिकतर केंद्रों पर सिर्फ आधार कार्ड ही मांगा जा रहा है. गांवों में अधिकतर लोगों के पास केवल आधार कार्ड ही एकमात्र सरकारी दस्तावेज है.
कुछ लोग सवाल उठा रहे हैं कि जब आधार से निवास प्रमाण पत्र और पासपोर्ट बन सकता है, तो चुनाव आयोग इसे मान्यता क्यों नहीं देता. सीमित स्टाफ और कमजोर इंटरनेट के कारण प्रक्रिया धीमी है. चिंता है कि कई आवेदन अंतिम तिथि 25 जुलाई से पहले पूरे नहीं हो पाएंगे.
कहीं उल्टा न पड़ जाए एनडीए के लिए चुनाव आयोग का दाँव
चुनाव आयोग द्वारा बिहार में शुरू किए गए विशेष गहन पुनरीक्षण (SIR) अभियान ने सत्ताधारी राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) को विपक्ष से भी ज़्यादा बेचैन कर दिया है. एनडीए के सहयोगी और राष्ट्रीय लोक मोर्चा के अध्यक्ष उपेंद्र कुशवाहा ने सार्वजनिक रूप से इस अभियान के लिए दिए गए कम समय पर चिंता जताते हुए कहा कि ग्रामीण क्षेत्रों के लोगों के पास मांगे गए दस्तावेज़ नहीं हैं. यह अभियान बिहार में एक बड़े राजनीतिक संकट की आशंका पैदा कर रहा है, क्योंकि इसके पीछे राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर (एनआरसी) लागू करने की छिपी मंशा होने के आरोप लग रहे हैं. द वायर में बिहार के वरिष्ठ पत्रकार सुरूर अहमद का कहना है कि चुनाव आयोग की कार्रवाई के कारण एनडीए दिक्कत में आ सकता है.
एनडीए नेताओं की बेचैनी का सबसे बड़ा कारण यह है कि उन्हें डर है कि इस प्रक्रिया में उनके अपने ही मूल मतदाता बड़ी संख्या में प्रभावित हो सकते हैं. बिहार की जातिगत जनगणना के अनुसार, राज्य में 57% से अधिक आबादी अनुसूचित जाति (19.65%), अनुसूचित जनजाति (1.68%) और अति पिछड़ा वर्ग (36.01%) की है, जो सामाजिक और आर्थिक रूप से बेहद कमजोर हैं. ये वर्ग एनडीए और महागठबंधन दोनों के लिए निर्णायक वोट बैंक हैं और इन्हीं के एक बड़े हिस्से के पास नागरिकता साबित करने के लिए ज़रूरी दस्तावेज़ों की कमी है. असम के अनुभव से भी एनडीए चिंतित है, जहाँ ऐसी ही प्रक्रिया के बाद बड़ी संख्या में हिंदू बंगाली और स्थानीय लोग नागरिकता सूची से बाहर हो गए थे.
इस अभियान की व्यावहारिक कठिनाइयाँ भी गंभीर हैं. बिहार के लाखों खेतिहर मजदूर काम के सिलसिले में पंजाब, हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश जैसे राज्यों में हैं और उनके लिए इतने कम समय में वापस आकर कागजी कार्रवाई पूरी करना लगभग असंभव है. कई लोगों के पास आधार या राशन कार्ड तो हैं, लेकिन पुनरीक्षण के तहत मांगे गए अन्य दस्तावेज़ जुटाना एक बड़ी चुनौती है. विपक्ष, विशेषकर तेजस्वी यादव, इसे लगातार अपने मतदाताओं को मताधिकार से वंचित करने की साजिश बता रहे हैं.
यह स्थिति एनडीए के दलित सहयोगियों, जैसे चिराग पासवान की लोजपा और जीतन राम मांझी की 'हम' के लिए भी चिंताजनक है, क्योंकि उनका मुख्य आधार दलित समुदाय ही है. सबसे बड़ी अनिश्चितता इस बात को लेकर है कि जो लोग दस्तावेज़ नहीं दे पाएंगे, उनका भविष्य क्या होगा. क्या उन्हें सिर्फ वोट देने से रोका जाएगा या फिर सरकारी योजनाओं से वंचित कर डिटेंशन कैंप में भेजा जाएगा. इस उलझन और डर के माहौल में एनडीए के पारंपरिक मतदाता भी अब विपक्ष के आरोपों को गंभीरता से सुनने लगे हैं, जिससे भाजपा के जमीनी कार्यकर्ताओं के लिए इस अलोकप्रिय फैसले का बचाव करना मुश्किल होता जा रहा है.
चुनाव आयोग के विरोधाभासी संकेत बिहार की मतदाता पंजीकरण प्रक्रिया को खतरे में डालते हैं
चुनाव आयोग की बिहार में मतदाता सूची की विशेष गहन पुनरीक्षण प्रक्रिया, जिसे सुगम और सफल बताया गया है, वास्तव में विरोधाभासों से भरी हुई है और मतदाता अधिकारों के लिए गंभीर खतरा पैदा करती है. अनुमानित मतदाताओं में से 11% से अधिक द्वारा फॉर्म जमा करने के बावजूद, आयोग के विरोधाभासी बयान गहरे मुद्दों को उजागर करते हैं.
शुरुआत में, बिहार के मुख्य निर्वाचन अधिकारी ने विज्ञापनों के माध्यम से उन मतदाताओं के लिए नरम रुख अपनाने का सुझाव दिया था, जिनके पास सभी 11 अनिवार्य दस्तावेज़ नहीं हैं. उन्हें बताया गया कि वे बूथ स्तर के अधिकारियों को फॉर्म जमा कर सकते हैं और दस्तावेज़ बाद में दे सकते हैं या बिना अनिवार्य दस्तावेज़ों के भी स्थानीय जांच के बाद सत्यापन करा सकते हैं. लेकिन बाद में मुख्य चुनाव आयुक्त ने स्पष्ट किया कि पहले के नियम, जिनमें दस्तावेज़ 25 जुलाई 2025 तक जमा करने का निर्देश है, यथावत रहेंगे. जो लोग समय पर दस्तावेज़ नहीं देंगे, उनके लिए 1 अगस्त से 1 सितंबर तक दावा और आपत्ति की अवधि होगी.
“द हिंदू” ने लिखा है कि स्थानीय स्तर पर जांच और सत्यापन का यह तरीका कई समस्याएं पैदा करता है. इससे स्थानीय अधिकारियों के विवेक पर निर्भरता बढ़ती है, जिससे दुरुपयोग और पक्षपात की संभावना बढ़ जाती है. ऐसा तरीका गलत तरीके से किसी को बाहर करने या शामिल करने का जोखिम बढ़ाता है, जिससे मतदाता सूची की विश्वसनीयता कमजोर होती है.
इसके बजाय, चुनाव आयोग को आधार, राशन कार्ड और मनरेगा जॉब कार्ड जैसे अधिक व्यापक रूप से मान्य पहचान पत्र स्वीकार करने चाहिए. आधार की अनिवार्यता और व्यापकता इसे आदर्श पहचान पत्र बनाती है. इसी तरह, बिहार में जन्म प्रमाणपत्र, स्कूल नामांकन और अन्य दस्तावेजों की ऐतिहासिक चुनौतियों के कारण कई वास्तविक मतदाताओं के पास 11 में से कोई भी दस्तावेज़ नहीं हो सकता है. जिम्मेदारी राज्य और उसकी संस्थाओं, जिसमें चुनाव आयोग भी शामिल है, पर है कि वे नागरिकों की भागीदारी सुनिश्चित करें.
वर्तमान कठोर दस्तावेज़ीकरण नियम, गरीब और हाशिए पर रहने वाले लोगों पर अनावश्यक बोझ डालते हैं, जो पहले से ही सरकारी प्रक्रियाओं में शामिल होने में कठिनाई का सामना करता रहा है. इससे बड़े पैमाने पर धोखा होने का खतरा है. मौजूदा कवायद हर मतदाता को संभावित गैर-नागरिक मानता है, जब तक कि वे साबित न कर दें. सार्वभौमिक वयस्क मताधिकार के सिद्धांत को बनाए रखने और बड़े पैमाने पर बहिष्कार को रोकने के लिए, चुनाव आयोग को अपनी पुनरीक्षण प्रक्रिया पर पुनर्विचार करना चाहिए. सुप्रीम कोर्ट में इस पर याचिकाएं लंबित हैं, ऐसे में आयोग को तुरंत पहचान के स्वीकार्य रूपों को व्यापक बनाना चाहिए, ताकि सभी पात्र नागरिकों को वोट देने का संवैधानिक अधिकार मिल सके.
वैकल्पिक मीडिया | खोजबीन
हर मतदाता शक के कठघरे में यकायक कैसे आया
बिहार मतदाता सूची में जनवरी तक सब ठीक था और फिर वह यकायक ऐन वक्त पर गलत और अधूरी हो गई..
‘द रिपोर्टर्स कलेक्टिव’ के लिए एक लंबी खोजी रिपोर्ट में नितिन सेठी और आयुषी कर उस चकित कर देने वाले फैसले की तहकीकात करते हैं जिसके कारण बिहार में चुनाव आयोग की कार्रवाई सवालों के घेरे में आ गई है. 7 जुलाई, 2025 को प्रकाशित उनकी रिपोर्ट के मुताबिक जनवरी 2025 तक एक विस्तृत समीक्षा के बाद जिस मतदाता सूची को पूरी तरह से दुरुस्त और अद्यतन पाया गया था, को भारत के चुनाव आयोग ने अचानक त्रुटिपूर्ण बताते हुए खारिज कर दिया है. चुनाव आयोग ने मतदाताओं के शून्य से सत्यापन का एक अभूतपूर्व आदेश जारी किया है, जिसने राज्य में अराजकता की स्थिति पैदा कर दी है. यह निर्णय उस समय आया जब अधिकारी जून महीने तक भी कानूनी रूप से अनिवार्य तरीकों से सूची को लगातार अपडेट कर रहे थे.
इस फैसले का सीधा असर पूर्वी चंपारण के तबरेज आलम जैसे लाखों नागरिकों पर पड़ा है. तबरेज ने हाल ही में एक मृत व्यक्ति का नाम सूची से हटाने की प्रक्रिया पूरी की थी. अब उसी तबरेज को अपनी नागरिकता और निवास साबित करने के लिए दस्तावेजी सबूत पेश करने को मजबूर किया जा रहा है. बिहार के वे सभी नागरिक, जिन्होंने पिछले कई चुनावों में मतदान किया है, अब अपने मताधिकार को बनाए रखने के लिए एक कठिन और समय-सीमा वाली प्रक्रिया का सामना कर रहे हैं. यदि वे असफल रहते हैं, तो उनकी नागरिकता पर भी सवालिया निशान लग सकता है.
'द रिपोर्टर्स कलेक्टिव' द्वारा समीक्षा किए गए रिकॉर्ड इस बात की पुष्टि करते हैं कि 24 जून का चुनाव आयोग का यह फैसला एक चौंकाने वाला यू-टर्न था. सबूत दर्शाते हैं कि इस आदेश से कुछ दिन पहले तक, राज्य की चुनाव मशीनरी 2024 के संसदीय चुनावों के लिए अंतिम रूप दी गई मतदाता सूची को वैध मानकर नियमित रूप से अपडेट कर रही थी. इससे भी महत्वपूर्ण बात यह है कि बिहार के चुनाव तंत्र ने जून 2024 और जनवरी 2025 के बीच 'विशेष सारांश पुनरीक्षण 2025' नामक एक व्यापक अभ्यास पहले ही पूरा कर लिया था. यह अभ्यास चुनाव आयोग के उन दावों का खंडन करता है कि बिहार का चुनावी डेटाबेस इतना खराब था कि उसे पूरी तरह से बदलने की जरूरत थी.
चुनाव आयोग के इस कदम की आलोचना पूर्व वरिष्ठ अधिकारियों ने भी की है. एक पूर्व अधिकारी ने इसे अभूतपूर्व और "विघटनकारी" बताया, जो 2003 से पहले और बाद में नामांकित मतदाताओं के बीच अनुचित रूप से भेदभाव करता है. उन्होंने सवाल उठाया कि क्या चुनाव आयोग यह मान रहा है कि पिछले पांच संसदीय और राज्य चुनावों में मतदान करने वाले लाखों लोग धोखाधड़ी से मतदाता बने थे. अगर ऐसा है, तो यह दशकों से चुनाव प्रक्रिया में शामिल पूरे सरकारी तंत्र की घोर विफलता या मिलीभगत को दर्शाता है. एक अन्य पूर्व अधिकारी ने इसे आयोग की विवेकाधीन शक्तियों का गलत उपयोग बताया, जो लोगों के मतदान के अधिकार को छीन सकता है और उनकी नागरिकता पर अनुचित संदेह पैदा कर सकता है.
चुनाव आयोग ने इस प्रक्रिया को 'विशेष गहन पुनरीक्षण' का नाम दिया है, यह एक ऐसा शब्द है जो निर्वाचक रजिस्ट्रीकरण नियमों में परिभाषित नहीं है. इस नई प्रक्रिया के तहत, नागरिकों को अलग-अलग समूहों में बांटकर सबूतों की मांग की जा रही है:
2003 तक पंजीकृत मतदाताओं को उस वर्ष की सूची में अपना नाम होने का प्रमाण देना होगा.
40 वर्ष से अधिक उम्र के मतदाता जो 2003 की सूची में नहीं हैं, उन्हें अपनी नागरिकता, पहचान और निवास का प्रमाण देना होगा.
21 से 40 वर्ष की आयु के मतदाताओं को अपने माता-पिता के 2003 की सूची में होने का प्रमाण या अपनी पहचान और नागरिकता के साथ-साथ अपने माता-पिता में से किसी एक की नागरिकता का प्रमाण देना होगा.
21 वर्ष से कम आयु के मतदाताओं को अपने माता-पिता के 2003 की सूची में होने का प्रमाण या अपनी और अपने दोनों माता-पिता की नागरिकता और पहचान का दस्तावेजी प्रमाण देना होगा.
यह भेदभावपूर्ण दृष्टिकोण भारतीय चुनावी इतिहास में पहले कभी नहीं देखा गया. चुनाव आयोग ने अपने फैसले के पीछे "तेजी से शहरीकरण और जनसंख्या के लगातार प्रवास" का हवाला दिया है. हालांकि, बिहार के मुख्य निर्वाचन अधिकारी के रिकॉर्ड बताते हैं कि जनवरी 2025 में पूरे हुए पुनरीक्षण ने इन मुद्दों को प्रभावी ढंग से संबोधित किया था. उस रिपोर्ट के अनुसार, राज्य स्तर पर जनसंख्या और लिंग अनुपात पिछले वर्षों की तरह ही स्थिर थे, और 1,91,222 स्थानांतरित मतदाताओं की पहचान की गई थी. इससे यह साबित होता है कि मौजूदा प्रणाली प्रवासन जैसे मुद्दों को दर्ज करने में सक्षम थी.
इस प्रक्रिया ने नागरिकों की नागरिकता को लेकर भी गंभीर चिंताएं पैदा कर दी हैं. असम में हुए ऐसे ही एक अभ्यास का अनुभव बताता है कि जिन लोगों के नाम सूची से बाहर रह जाते हैं, उन्हें "संदिग्ध" नागरिक के रूप में वर्गीकृत किया जा सकता है, जिससे वे अपने अधिकारों से वंचित हो जाते हैं.
मामले को और जटिल बनाते हुए, सबूत पेश करने के लिए दस्तावेजों को लेकर भी भ्रम की स्थिति है. चुनाव आयोग ने 11 दस्तावेजों की एक सूची जारी की है, जिसमें आधार और राशन कार्ड को बाहर रखा गया है, लेकिन साथ ही यह भी कहा है कि सूची "विस्तृत नहीं" है. इस अस्पष्टता के कारण जमीनी स्तर पर भ्रम फैल गया है. बिहार सरकार के आधिकारिक संचार में इन 11 दस्तावेजों को अनिवार्य बताया जा रहा है, जबकि बूथ-स्तरीय अधिकारियों (बीएलओ) को आधार और राशन कार्ड स्वीकार न करने का प्रशिक्षण दिया गया है. यह चुनाव आयोग के अपने 2023 मैनुअल के भी खिलाफ है, जिसमें आधार को उम्र और निवास के प्रमाण के रूप में स्वीकार्य बताया गया है.
जमीनी हकीकत अराजकता से भरी है. बीएलओ को इस विशाल कार्य के लिए देरी से प्रशिक्षण और फॉर्म मिले. सीतामढ़ी के एक बीएलओ भरत भूषण को 900 से अधिक लोगों के फॉर्म तीन सप्ताह के भीतर भरवाने हैं. नागरिकों के गुस्से और प्रक्रिया की जटिलता को देखते हुए, अधिकारियों ने अब बीएलओ को मौखिक निर्देश दिए हैं कि वे बिना किसी दस्तावेजी प्रमाण के ही फॉर्म एकत्र कर लें. अररिया की एक बीएलओ रीना कुमारी ने बताया कि उन्हें केवल भरे हुए फॉर्म को फोटो के साथ अपलोड करने के लिए कहा गया है. कुछ बीएलओ को यह भी निर्देश दिया गया है कि बिना दस्तावेजों वाले फॉर्म को अलग रखा जाए, जिनका मूल्यांकन बाद में किया जाएगा. यह स्पष्ट नहीं है कि इन अधूरे आवेदनों का क्या होगा.
इन तमाम समस्याओं के बावजूद, सरकार दावा कर रही है कि यह प्रक्रिया "सुचारू रूप से" चल रही है और 6 जुलाई तक 21.46% फॉर्म जमा हो चुके हैं. लेकिन जमीनी हकीकत एक अलग ही तस्वीर पेश करती है, जहां जल्दबाजी में लिए गए एक फैसले ने लाखों नागरिकों के मताधिकार को खतरे में डाल दिया है और पूरी चुनाव मशीनरी को अव्यवस्था में झोंक दिया है.
कार्टून
कांग्रेस ने पूछा, जेन स्ट्रीट ने अवैध कमाई का 44,000 करोड़ रुपये अमेरिका भेजा, सरकार कैसे वापस लाएगी?
कांग्रेस ने आरोप लगाया है कि अमेरिकी ट्रेडिंग फर्म जेन स्ट्रीट ने भारतीय शेयर बाजार में हेरफेर कर 44,000 करोड़ रुपये से अधिक की अवैध कमाई की, और यह पैसा सरकार की नाक के नीचे अमेरिका भेज दिया गया. कांग्रेस ने सरकार और सेबी पर छोटे निवेशकों के हितों की रक्षा न कर पाने और इस अवैध मुनाफे के भारत से बाहर जाने को रोकने में विफल रहने का आरोप लगाया है.
कांग्रेस की सोशल मीडिया प्रमुख सुप्रिया श्रीनेत ने प्रेस कॉन्फ्रेंस में कहा कि जेन स्ट्रीट ने एल्गोरिदम के जरिए भारतीय शेयर बाजार में हेरफेर कर फ्यूचर्स और ऑप्शंस (एफ एंड ओ) बाजार में हजारों करोड़ रुपये का अवैध मुनाफा कमाया, जिससे आम निवेशकों को भारी नुकसान हुआ, जबकि सेबी मूकदर्शक बनी रही. उन्होंने सवाल किया कि जब जेन स्ट्रीट पिछले साढ़े चार साल से बाजार में हेरफेर कर रही थी, तब सेबी क्या कर रही थी? उन्होंने पूछा कि जेन स्ट्रीट ने पिछले साढ़े चार सालों में कितना पैसा अमेरिका भेजा और सरकार इसे वापस लाने के लिए क्या करेगी?
कांग्रेस ने यह भी आरोप लगाया कि सेबी ने हाल ही में जेन स्ट्रीट और उसकी चार सहयोगी कंपनियों को भारत में ट्रेडिंग से प्रतिबंधित कर दिया है और 4,844 करोड़ रुपये की संपत्ति जब्त की है, जो कि कुल अवैध मुनाफे का एक छोटा हिस्सा है. जेन स्ट्रीट ने जनवरी 2023 से मार्च 2025 के बीच ट्रेडिंग से 43,289 करोड़ रुपये (लगभग 5.1 बिलियन डॉलर) का मुनाफा कमाया.
कांग्रेस ने पूछा कि प्रधानमंत्री और गृह मंत्री को इस घोटाले और बाजार हेरफेर की जानकारी थी या नहीं, और क्यों सरकार ने छोटे निवेशकों की सुरक्षा के लिए समय पर कदम नहीं उठाए?
विश्लेषण
गरीब कहां गायब हो रहे हैं भारत में?
भारत में गरीबी में गिरावट एक छलावा? आंकड़ों पर उठे गंभीर सवाल
सेंटर फॉर डेवलपमेंट अल्टरनेटिव्स अहमदाबाद की निदेशक और अर्थशास्त्री इंदिरा हिरवे ने द वायर में तफसील से सरकारी दावों की हवा निकाली है. हाल ही में जारी दो अलग-अलग आंकड़ों में यह दावा किया गया है कि भारत में अत्यधिक गरीबी में भारी गिरावट आई है. रंगराजन और एस. महेंद्र देव के एक अध्ययन के अनुसार, भारत में अत्यधिक गरीबी 2011-12 के 29.5% से घटकर 2023-24 में 4.9% रह गई है. वहीं, विश्व बैंक के अनुसार, यह 2011-12 के 16.2% से घटकर 2022-23 में 2.3% हो गई है.
लेकिन इन आंकड़ों पर गंभीर सवाल उठ रहे हैं. लेखिका इंदिरा हिरवे पूछती हैं कि अगर देश में अत्यधिक गरीबी केवल 4.9% है, तो 5 साल से कम उम्र के 35% बच्चे नाटेपन (stunted) और 18.5% बच्चे कम वजन (wasted) का शिकार क्यों हैं?
गरीबी रेखा की अवधारणा पर सवाल : रंगराजन-देव अध्ययन में ग्रामीण क्षेत्रों के लिए प्रति व्यक्ति प्रतिदिन ₹64.66 और शहरी क्षेत्रों के लिए ₹91.2 की खपत को गरीबी रेखा माना गया है. सवाल यह है कि क्या कोई व्यक्ति इतने कम खर्च में अपना जीवनयापन कर सकता है?
इसी तरह, विश्व बैंक ने भारत के लिए $2.15 PPP (क्रय शक्ति समता) की गरीबी रेखा का उपयोग किया है, जो निम्न-आय वाले देशों के लिए है. जबकि भारत एक निम्न-मध्यम-आय वाला देश है, जिसके लिए गरीबी रेखा $3.65 PPP होनी चाहिए. यदि इस मानक का उपयोग किया जाता, तो गरीबी से बाहर निकलने वालों की संख्या बहुत कम होती.
अन्य संकेतकों से मेल नहीं खाते आंकड़े : ये आंकड़े अन्य सामाजिक संकेतकों से भी मेल नहीं खाते:
भुखमरी: 80 करोड़ से अधिक लोगों को मुफ्त अनाज मिलने के बावजूद, ग्लोबल हंगर इंडेक्स 2024 में भारत 127 देशों में 105वें स्थान पर है, जिसे "चिंताजनक" स्थिति माना गया है.
कुपोषण: देश की 13.7% आबादी स्पष्ट रूप से कुपोषित है.
शिक्षा और रोजगार: लगभग 20% आबादी निरक्षर है और 90% से अधिक कार्यबल असंगठित क्षेत्र में कम मजदूरी पर काम करता है.
निष्कर्ष यह है कि भले ही भारत की जीडीपी 6-7% की दर से बढ़ रही है, लेकिन लोगों की स्थिति में बहुत धीमी गति से सुधार हो रहा है. 4.9% गरीबी का आंकड़ा भारतीय आबादी की वास्तविक स्थिति से मेल नहीं खाता. लेखिका का सुझाव है कि भारत को अब "अत्यधिक गरीबी रेखा" की इस पुरानी अवधारणा को पूरी तरह से त्याग देना चाहिए.
हेट अलर्ट
असम : 3 गांवों से 1400 मुस्लिम परिवार बेदखल
असम के धुबरी जिले में मंगलवार को राज्य सरकार ने अपनी अब तक की सबसे बड़ी बेदखली कार्रवाई की, जिसमें करीब 1,400 परिवारों को 3,500 बीघा (450 हेक्टेयर से अधिक) जमीन से हटाया गया. यह जमीन मुख्य रूप से बंगाली भाषी मुस्लिमों द्वारा आबाद है. जिला प्रशासन के अनुसार, यहां लगभग 1,700 संरचनाएं हैं, जिनमें 1,400 परिवार रहते हैं. इसे प्रस्तावित थर्मल पावर प्रोजेक्ट के लिए खाली कराया जा रहा है.
“द इंडियन एक्सप्रेस” में सुकृता बरुआ की रिपोर्ट है कि चारुआबखरा, संतोषपुर और चिराकुटा पार्ट-1 नामक तीन गांवों में कार्रवाई के दौरान हिंसा भड़क उठी. स्थानीय निवासियों ने बुलडोजर पर पत्थर और ईंटें फेंकी, जिसके बाद पुलिस ने भीड़ को तितर-बितर करने के लिए लाठीचार्ज किया. सिवसागर के विधायक और रायजोर दल के नेता अखिल गोगोई भी मौके पर पहुंचे, लेकिन पुलिस ने उन्हें हिरासत में ले लिया. गोगोई ने इस बेदखली को अवैध और असंवैधानिक बताया और कहा, "यह अल्पसंख्यकों की धमकाने की कार्रवाई है.” धुबरी के डीसी दिबाकर नाथ ने कहा, "यह सरकारी जमीन है, जिसे थर्मल पावर प्लांट के लिए असम पावर डिस्ट्रीब्यूशन कंपनी लिमिटेड को आवंटित किया गया है.”
बता दें, मुख्यमंत्री हिमंता बिस्वा सरमा ने पिछले महीने इन स्थानों का दौरा किया था और घोषणा की थी कि यह जमीन 3,200 मेगावाट के प्रस्तावित थर्मल पावर प्लांट के लिए चिन्हित की गई है, जिसके लिए राज्य सरकार अडानी समूह से बातचीत कर रही है.
यह कार्रवाई पिछले एक महीने में असम सरकार द्वारा चलाए गए ऐसे चौथे बड़े अभियान में से एक है. इसके पहले गोलपारा, नलबाड़ी और लखीमपुर में भी इसी तरह की बेदखली की गई थी. कुल मिलाकर 2,300 से अधिक परिवार अब तक बेदखल किए जा चुके हैं.
इस बीच, पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने मंगलवार को कहा कि असम के फॉरेनर्स ट्रिब्यूनल द्वारा कूचबिहार के दिनहाटा निवासी को एनआरसी नोटिस जारी किए जाने की खबर से वह हैरान और परेशान हैं. उन्होंने आरोप लगाया कि पूर्वनियोजित तरीके से हाशिए पर मौजूद समुदायों को डराने, मताधिकार छीनने और निशाना बनाने की कोशिश की जा रही है. उन्होंने भाजपा की विभाजनकारी नीतियों के खिलाफ विपक्षी दलों से एकता की अपील की है.
पुणे के दो गांवों से मुस्लिम परिवारों का पलायन
पुणे जिले की मुलशी तालुका के पौड और पिरंगुट गांवों में सांप्रदायिक धमकी और सामाजिक-आर्थिक बहिष्कार के कारण कई मुस्लिम परिवारों को पलायन के लिए मजबूर होना पड़ा है. इनमें से अधिकांश परिवार दशकों से इन गांवों में रह रहे थे, लेकिन कुछ स्थानीय हिंदुओं ने उन्हें "गैर-स्थानीय" बताकर उनके बहिष्कार को सही ठहराया है.
पीपुल्स यूनियन फॉर सिविल लिबर्टीज और एसोसिएशन फॉर प्रोटेक्शन ऑफ सिविल राइट्स की एक टीम ने 2 जुलाई को गांवों का दौरा किया, जहां डर का माहौल, बंद दुकानें और विस्थापित परिवार मिले. यह मामला 2 मई को पौड में एक अन्नपूर्णा देवी की मूर्ति के कथित अपमान के बाद शुरू हुआ, जिसके बाद 5 मई को भाजपा और अन्य दक्षिणपंथी समूहों ने एक मार्च निकाला. इन रैलियों में मुसलमानों को खुली धमकियां दी गईं और उनके बहिष्कार का आह्वान करने वाले पोस्टर लगाए गए. एक प्रेस कॉन्फ्रेंस में रोशन बेकरी के मालिक ने कहा, "हम 40 साल से यहां रह रहे हैं, फिर भी हमें बाहरी कहा जा रहा है. हमें बेकरी दोबारा न खोलने की धमकी दी गई है." उनकी तरह ही दो अन्य बेकरियों पर भी ताले लगे हैं, जिससे लगभग 400 मजदूर बेरोजगार हो गए हैं. एक कबाड़ की दुकान के मालिक ने बताया कि जून में उनकी दुकान में आग लगा दी गई, जिससे 20 लाख रुपये का नुकसान हुआ. उन्होंने कहा, "मैं सालों से यहां रह रहा हूं, लेकिन दुकान जलने के बाद मुझे अपने परिवार को कामशेत ले जाना पड़ा." आरोप है कि हिंदू राष्ट्र सेना के सदस्य धनंजय देसाई इस धमकी अभियान को अंजाम दे रहे हैं, जिन पर पहले एक आईटी पेशेवर मोहसिन शेख की हत्या का मुकदमा चला था और सबूतों के अभाव में बरी हो गए थे. पुलिस ने देसाई के खिलाफ एक फार्महाउस पर कब्जा करने का मामला दर्ज किया है और उन्हें फरार बताया है. नफरती अभियान ने धार्मिक स्थलों को भी निशाना बनाया है. मस्जिदों के बाहर पोस्टर लगाकर केवल स्थानीय मुसलमानों को नमाज पढ़ने की अनुमति दी गई, जिससे डर का माहौल है. इस विस्थापन का सबसे बुरा असर बच्चों की पढ़ाई पर पड़ा है. नागरिक अधिकार समूह इस मामले में कानूनी कार्रवाई की तैयारी कर रहे हैं.
‘भारतीय वायुसेना का एक राफ़ेल विमान नष्ट, लेकिन पाकिस्तान ने नहीं गिराया’
राफ़ेल लड़ाकू विमानों की निर्माता कंपनी दसॉ एविएशन के सीईओ ने उन लंबी बहसों पर विराम लगा दिया है, जिनमें पाकिस्तान भारतीय वायुसेना के राफ़ेल विमानों को मार गिराने का दावा कर रहा था. सीईओ ने इन दावों को सिरे से खारिज कर दिया है.
दसॉ एविएशन के चेयरमैन और सीईओ एरिक ट्रैपियर ने कहा कि किसी भी राफ़ेल को लड़ाई में नहीं गिराया गया, लेकिन भारत का एक जेट तकनीकी खराबी के कारण नष्ट हो गया था, जिसकी जांच अभी चल रही है. फ्रांसीसी वेबसाइट 'एवियन डी चेसे' की रिपोर्ट के अनुसार, ट्रैपियर ने बताया कि इस घटना में कोई दुश्मन शामिल नहीं था. रिपोर्ट में कहा गया है, "यह घटना 12,000 मीटर से अधिक की ऊंचाई पर एक प्रशिक्षण मिशन के दौरान हुई, जिसमें कोई दुश्मन या hostile रडार संपर्क नहीं था."
पाकिस्तान के उन आरोपों पर, जिसमें 'ऑपरेशन सिंदूर' के दौरान तीन भारतीय राफ़ेल गिराने का दावा किया गया था, एरिक ट्रैपियर ने इन्हें "गलत और बेबुनियाद" बताया. उन्होंने 15 जून को एक प्रेस कॉन्फ्रेंस में पाकिस्तान के झूठे दावों का खंडन किया.
ट्रैपियर ने कहा कि राफ़ेल में लगे 'स्पेक्ट्रा' इलेक्ट्रॉनिक वॉरफेयर सिस्टम ने उस दौरान किसी भी तरह की दुश्मन गतिविधि को दर्ज नहीं किया. इसके अलावा, विमान के फ्लाइट लॉग और पहचान उपकरणों से भी यह साबित होता है कि लड़ाई में कोई विमान नष्ट नहीं हुआ.
हालांकि, भारत सरकार या भारतीय वायुसेना ने इन परिस्थितियों में राफ़ेल विमान के नुकसान पर कोई आधिकारिक पुष्टि नहीं की है. पिछले महीने, चीफ ऑफ डिफेंस स्टाफ जनरल अनिल चौहान ने सिंगापुर में शांगरी-ला डायलॉग में स्वीकार किया था कि 'ऑपरेशन सिंदूर' के दौरान वायु सेना को कुछ नुकसान हुआ था, लेकिन उन्होंने पाकिस्तान के छह भारतीय विमान गिराने के दावे को "पूरी तरह से गलत" बताया था.
दुष्प्रचार के पीछे चीन का हाथ? फ्रांसीसी खुफिया और सैन्य अधिकारियों के अनुसार, राफ़ेल लड़ाकू विमानों के खिलाफ इस दुष्प्रचार अभियान के पीछे चीन का हाथ था. एसोसिएटेड प्रेस की रिपोर्ट के मुताबिक, अधिकारियों ने दावा किया कि मई में भारत और पाकिस्तान के बीच झड़पों के बाद चीन ने अपने दूतावासों को राफ़ेल जेट के प्रदर्शन पर सवाल उठाने के लिए सक्रिय कर दिया था. इस कदम का मकसद राफ़ेल की प्रतिष्ठा और बिक्री को नुकसान पहुंचाना था.
तालिबान पर दुनिया सख्त, भारत नरम
यह एक अजीब संयोग है कि जिस दिन अंतरराष्ट्रीय आपराधिक न्यायालय (ICC) अफगानिस्तान में महिलाओं पर अत्याचार के लिए तालिबान के शीर्ष नेतृत्व पर शिकंजा कस रहा था, उसी दिन भारत संयुक्त राष्ट्र में तालिबान के प्रति एक नरम दृष्टिकोण अपनाता दिखा. इन दो अलग-अलग घटनाओं ने अफगानिस्तान को लेकर वैश्विक समुदाय के भीतर की दुविधा को उजागर कर दिया है.
एक तरफ, हेग स्थित आईसीसी ने तालिबान के सुप्रीम लीडर हैबतुल्लाह अखुंदजादा और चीफ जस्टिस अब्दुल हकीम हक्कानी के खिलाफ गिरफ्तारी वारंट जारी कर दिया. इन पर 2021 में सत्ता में आने के बाद से महिलाओं और लड़कियों के खिलाफ मानवता के विरुद्ध अपराध करने के गंभीर आरोप हैं. ICC का मानना है कि तालिबान ने जानबूझकर महिलाओं को उनके मौलिक अधिकारों से वंचित किया है, जिसमें लड़कियों की शिक्षा पर प्रतिबंध और महिलाओं को नौकरियों से बाहर करना शामिल है. मानवाधिकार संगठनों ने इस कदम का स्वागत किया है.
वहीं दूसरी ओर, इसी दिन संयुक्त राष्ट्र महासभा में अफगानिस्तान की स्थिति पर लाए गए एक प्रस्ताव पर भारत ने वोटिंग में हिस्सा नहीं लिया और अनुपस्थित (एब्सटेन) रहा. भारत ने अपने इस कदम के पीछे तर्क दिया कि सिर्फ दंडात्मक उपायों वाला दृष्टिकोण शायद ही सफल होगा. भारत के अनुसार, अफगानिस्तान जैसे संघर्ष के बाद की स्थिति से निपटने के लिए एक संतुलित नीति की ज़रूरत है, जिसमें अच्छे व्यवहार को प्रोत्साहित करने और बुरे कामों को रोकने के दोनों उपाय शामिल हों. भारत ने कहा कि "जैसे को तैसा" वाला रवैया अफगान लोगों के लिए बेहतर परिणाम नहीं दे पाएगा.
भारत का रवैया अजीब इसलिए भी है क्योंकि वह एक तरफ तालीबान की तरफदारी में एब्सटेन कर रहा है, उधर इजराइल की तरफदारी में भी. जिसने फिलीस्तीन में क्रूरतम जनसंहार लगातार जारी रखा है.
यह घटनाक्रम एक विरोधाभास पैदा करता है. जहाँ एक ओर दुनिया की एक बड़ी न्यायिक संस्था तालिबान को उसके महिला विरोधी कदमों के लिए सीधे तौर पर ज़िम्मेदार ठहरा रही है, वहीं भारत सज़ा देने की बजाय बातचीत और प्रोत्साहन का रास्ता खुला रखने की वकालत कर रहा है. हालांकि भारत ने अफगानिस्तान में अपनी मानवीय सहायता जारी रखने और यह सुनिश्चित करने की बात भी कही कि अफगान धरती का इस्तेमाल आतंकवाद के लिए न हो.
अंध विश्वास
बुरी आत्माओं को भगाने के नाम पर इतना पीटा कि वह मर गई
55 वर्षीय एक महिला की मौत ने भद्रावती तालुक के होलेहोनूर के पास जांबरघट्टा के निवासियों को हैरान कर दिया है. गांव वाले सदमे में हैं और उन्होंने महिला को ही दोषी ठहराया है, जो खुद को विशेष शक्तियों से युक्त बताती थी. दरअसल, महिला को “बुरी आत्माओं को भगाने” के नाम पर बुरी तरह पीटा गया था.
“द हिंदू” में जी.टी. सतीश की रिपोर्ट है कि 55 वर्षीय गीता रविवार रात को उस वक्त बेहोश होकर गिर पड़ी, जब उसे गांव के चौदेस्वरी मंदिर के पास “बुरी आत्माओं को भगाने” की एक रस्म के दौरान 45 वर्षीय आशा ने कथित तौर पर पीटा. पुलिस ने मामला दर्ज कर तीन लोगों को गिरफ्तार किया है. गिरफ्तार लोगों में आशा और उसके पट्टी के अलावा मृतका गीता का बेटा संजय भी है, जो अपनी मां को इस रस्म के लिए ले गया था. गीता की बेटी शालिनी ने कहा, “आशा खुद को देवी बताती थी. अब आए और मेरी मां को जगा कर दिखाए.”
गीता के दामाद अविनाश ने बताया, “पिछले कुछ हफ्तों से वह (गीता) सुस्त और परेशान थी. पास ही रहने वाली आशा को लगा कि उस पर बुरी आत्माओं का साया है, और उसने संजय को समझाया कि इस रस्म के बाद उसकी मां ठीक हो जाएगी. संजय मान गया, लेकिन वही जानलेवा साबित हुआ.”
बिहार : जादू टोना के शक में एक ही परिवार के पांच लोगों की हत्या के बाद शव जलाए
बिहार के पूर्णिया जिले में जादू-टोना और काला जादू के शक में एक ही परिवार के पांच सदस्यों की हत्या कर दी गई और उनके शवों को जला दिया गया. पुलिस ने तीन लोगों को गिरफ्तार किया है. पुलिस ने बताया कि टेटमा गांव में रामदेव उरांव के बच्चे की तीन दिन पहले मौत हो गई थी, जिसके बाद आरोपियों ने पीड़ित परिवार पर काला जादू करने का आरोप लगाते हुए उनकी हत्या कर दी. राजनीतिक प्रतिक्रिया में, आरजेडी नेता तेजस्वी यादव ने सोशल मीडिया पर लिखा, “बिहार में अराजकता चरम पर है, कानून-व्यवस्था ध्वस्त हो चुकी है.”
वैकल्पिक मीडिया
तमिलनाडु: मंदिर में दलितों से भेदभाव का आरोप, पुजारी ने ‘विभूति’ देने से किया इनकार
'द मूकनायक' की रिपोर्ट है कि पुडुकोट्टई ज़िले के वडवलम पंचायत के दलित निवासियों ने आरोप लगाया है कि एचआर एंड सीई के अधीन आने वाले कलियुग मय्या अय्यनार मंदिर में उनके साथ जातीय भेदभाव किया गया. उनका कहना है कि 6 जुलाई को वार्षिक रथ महोत्सव से पहले मंदिर के बाहर आयोजित एक अनुष्ठान के दौरान पुजारियों ने उन्हें पवित्र विभूति (राख) देने से इनकार कर दिया. संबत्तिविदूथी पुलिस थाने में उसी दिन दी गई शिकायत के अनुसार, दीपाराधना के बाद पुजारी ने अन्य भक्तों को विभूति वितरित की लेकिन जानबूझकर दलितों को छोड़ दिया. जब दलितों ने इस पर सवाल किया तो पुजारी ने कथित तौर पर कहा, “हम तुम्हारे जैसे लोगों को विभूति नहीं दे सकते.”
मीडिया रिपोर्ट के अनुसार, वडवलम के दलित निवासी एम. पनीस्वामी ने बताया कि, “यह सिर्फ एक दिन की बात नहीं है. पीढ़ियों से हमें मंदिर में प्रवेश, अनुष्ठानों में भागीदारी या यहां तक कि उसी छाया में बैठने से भी रोका जाता रहा है.” सोमवार को कलेक्टर एम. अरुणा को भेजे पत्र में वडवलम और आसपास के गांवों - ईचड़ी अन्नानगर, कंडंगरापट्टी, चिन्नैया सथिरम, चेत्तियापट्टी और कयमपट्टी के दलितों ने मंदिर में पूर्ण प्रवेश की मांग की.
वैकल्पिक मीडिया
‘यह सवाल कल के पेपर में पक्का आएगा. तय है’
केरल में शिक्षा बनी बाज़ार: सीईओ की गिरफ्तारी और पेपर लीक ने खोली व्यवस्था की पोल
केरल में 11 दिसंबर 2024 को 11वीं कक्षा की गणित की परीक्षा से ठीक एक दिन पहले, कोझिकोड स्थित एड-टेक प्लेटफॉर्म 'एमएस सॉल्यूशंस' के एक ट्यूटर ने यूट्यूब पर एक वीडियो अपलोड किया. ट्यूटर सी. के. जिष्णु ने एक सवाल हल करते हुए दावा किया, "यह सवाल कल के पेपर में पक्का आएगा. यह तय है." अगले दिन, वही सवाल हूबहू परीक्षा पत्र में पांचवें प्रश्न के रूप में छपा था. यह घटना क्राइम ब्रांच की जांच का मुख्य सबूत बन गई. जांच अधिकारी केके मोइदीनकुट्टी ने कहा कि बिना पेपर देखे ठीक वैसा ही सवाल बना पाना "असंभव" है. इस विवाद के बाद, 6 मार्च 2025 को केरल हाईकोर्ट से अग्रिम जमानत याचिका खारिज होने पर एमएस सॉल्यूशंस के सीईओ मोहम्मद शुएब के. ने सरेंडर कर दिया. शुएब ने आरोपों को खारिज करते हुए कहा, "ये एक बड़ी कंपनी द्वारा हमें बर्बाद करने के लिए लगाए गए निराधार आरोप हैं." हालांकि, पुलिस ने एमएस सॉल्यूशंस पर आपराधिक विश्वासघात और धोखाधड़ी का मामला दर्ज किया है.
एक चपरासी से शुरू हुआ लीक का सिलसिला : जांच में पता चला कि लीक की शुरुआत मलप्पुरम जिले के एक गैर-सहायता प्राप्त स्कूल, मादिन हायर सेकेंडरी स्कूल के चपरासी इलांजोल अब्दुल नसर (36) ने की थी. नसर ने सीलबंद प्रश्नपत्रों के पैकेट खोलकर उनकी तस्वीरें खींचीं और व्हाट्सएप के जरिए एमएस सॉल्यूशंस के एक शिक्षक फहाद को भेज दीं, जो पहले उसी स्कूल का हेडमास्टर था. फहाद ने इन प्रश्नों का इस्तेमाल यूट्यूब वीडियो बनाने में किया.
जांच में यह भी सामने आया कि एमएस सॉल्यूशंस के वीडियो में कक्षा 12 के अंग्रेजी के पेपर के प्रश्न 18 से 26 तक उसी क्रम में थे, जिस क्रम में वे असली पेपर में आए थे.
शिक्षा का बाजारीकरण : यह मामला केरल के तेजी से बढ़ते एड-टेक बाजार की भयावह तस्वीर पेश करता है, जहां परीक्षा में सफलता दिलाने के नाम पर 'भविष्यवाणियां' असल में संगठित कदाचार का रूप ले चुकी हैं. सीईओ शुएब की गिरफ्तारी के बाद भी, एमएस सॉल्यूशंस ने 70,000 से अधिक फॉलोअर्स वाले व्हाट्सएप ग्रुप के जरिए अपना कारोबार जारी रखा. छात्रों को 199 रुपये में "एसएसएलसी के सबसे संभावित प्रश्न और उत्तर" की पीडीएफ बेची जा रही थी.
इस घटना ने केरल की शिक्षा प्रणाली पर गंभीर सवाल खड़े कर दिए हैं, जहां सार्वजनिक शिक्षा और निजी मुनाफे के बीच की रेखा धुंधली होती जा रही है. शिक्षा विभाग ने अब भविष्य में पेपर लीक रोकने के लिए डिजिटल लॉक सिस्टम और ऑटोमेटेड प्रश्न पत्र जनरेटिंग सिस्टम लागू करने की घोषणा की है, लेकिन इसके लिए अभी कोई समय-सीमा तय नहीं की गई है.
तेलुगु राज्यों में मोदी-शाह का गणित गड़बड़ाया
नरेंद्र मोदी और अमित शाह ने भारतीय राजनीति को नए सिरे से परिभाषित किया है, लेकिन, तेलुगु भाषी राज्यों तेलंगाना और आंध्रप्रदेश में उनकी राजनीतिक समझ कमजोर पड़ जाती है. भाजपा के हाल के फैसले, खासकर तेलंगाना में, क्षेत्र की जटिल राजनीतिक धारा से एक हैरान करने वाला असंबंध दिखाते हैं, जो इसके अनूठे इतिहास और मतदाताओं की मानसिकता में निहित है. सवाल उठता है कि क्या हाई कमान को गलत जानकारी दी जा रही है, या वह तेलुगु राज्यों की विशिष्ट राजनीति को समझने में नाकाम है?
साउथ फर्र्स्ट में आर. दिलीप रेड्डी दोनों राज्यों में भाजपा की राजनीतिक स्थिति के बारे में कहते हैं- भले ही मोदी और शाह के नेतृत्व में बीजेपी ने राष्ट्रीय स्तर पर दबदबा कायम किया है, लेकिन तेलंगाना और आंध्रप्रदेश में उसे क्षेत्रीय परिस्थितियों को सही से न समझ पाने, कमजोर नेतृत्व चयन और गठबंधनों पर अधिक निर्भरता के कारण संघर्ष करना पड़ रहा है. तेलंगाना में, बंडी संजय को किनारे करने से पार्टी की गति को नुकसान पहुंचा; वहीं आंध्र प्रदेश में पार्टी अब भी जूनियर साझेदार बनी हुई है. बीजेपी को अब यह तय करना होगा कि वह अपनी स्वतंत्र ताकत बढ़ाए या गठबंधन की राजनीति पर निर्भर रहे.
तेलंगाना में बीजेपी : तेलंगाना में बीजेपी के नए प्रदेश अध्यक्ष के रूप में एन. रामचंदर राव की नियुक्ति ने व्यापक चर्चा और अटकलों को जन्म दिया है. कुछ लोग इसे तेलुगू देशम पार्टी (टीडीपी) प्रमुख चंद्रबाबू नायडू के प्रभाव का नतीजा मानते हैं, तो कुछ इसे भारत राष्ट्र समिति (बीआरएस) के साथ संभावित गठबंधन से जोड़कर देख रहे हैं.
तेलंगाना की राजनीतिक पहचान उसके कठिन राज्य आंदोलन से बनी है, जो ऐसे नेताओं की मांग करती है, जो स्थानीय आकांक्षाओं से जुड़ सकें. बीजेपी का केंद्रीकृत निर्णय तंत्र इस सांस्कृतिक बारीकी को नजरअंदाज करता है, जिससे वे मतदाता दूर होते जा रहे हैं जो क्षेत्रीय स्वायत्तता को महत्व देते हैं. राव की नियुक्ति संकेत देती है कि पार्टी बीआरएस के साथ गठबंधन या उसे आत्मसात करने की रणनीति अपना सकती है. लेकिन तेलंगाना के मतदाता तब तीसरे विकल्प को पसंद करते हैं, जैसा पंजाब में आम आदमी पार्टी की जीत में देखा गया. कमजोर बीआरएस के साथ गठजोड़ नए, स्वतंत्र विकल्प चाहने वालों को दूर कर सकता है. बीजेपी हाईकमान अपने ही नेताओं पर भरोसा नहीं दिखा रहा, बल्कि निर्भरता को प्राथमिकता दे रहा है.
आंध्रप्रदेश में बीजेपी : आंध्रप्रदेश में बीजेपी का रुख कम विवादास्पद लेकिन उतना ही निष्प्रभावी है. ऐतिहासिक रूप से गठबंधनों पर निर्भर रही पार्टी यहां भी बंटी हुई है, कुछ नेता वाईएसआर कांग्रेस के साथ, तो कुछ टीडीपी के साथ हैं. माधव की प्रदेश अध्यक्ष के रूप में नियुक्ति का ज्यादा विरोध नहीं हुआ, क्योंकि इस पद के लिए कोई खास होड़ नहीं थी. वे पार्टी के पुराने वफादार हैं, लेकिन यह दिखाता है कि पार्टी स्वतंत्र आधार बनाने के बजाय गठबंधन बनाए रखने पर ज्यादा ध्यान दे रही है. तेलुगू राज्यों में बीजेपी की चूक एक चेतावनी है. तेलंगाना में उसने जोश से भरे नेताओं को किनारे कर कार्यकर्ताओं का मनोबल गिराया. आंध्र प्रदेश में उसने विकास के बजाय गठबंधनों को तरजीह दी.
गाज़ा में संघर्षविराम की उम्मीदों पर फेरा पानी, रफ़ा के मलबे में नजरबंदी शिविर बनाने की बात
'द गार्डियन' की रिपोर्ट है कि गाज़ा में युद्धविराम की ओर प्रगति धीमी है, क़तर के अधिकारियों ने मंगलवार को कहा, जिससे यह उम्मीदें टूटती दिख रही हैं कि तबाह हो चुके फिलिस्तीनी इलाके में जल्द ही संघर्ष थम जाएगा. इज़रायल और हमास के बीच अप्रत्यक्ष बातचीत का नया दौर रविवार को शुरू हुआ, जब दोनों पक्षों ने अमेरिका-प्रस्तावित 60 दिन के युद्धविराम की रूपरेखा को सैद्धांतिक सहमति दी थी. यह संघर्षविराम स्थायी शांति की दिशा में पहला कदम हो सकता है. क़तर के विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता माजिद अल-अंसारी ने मंगलवार को कहा, “मैं कोई समयसीमा नहीं दे सकता, लेकिन इतना ज़रूर कह सकता हूं कि इसमें समय लगेगा.” एक फिलिस्तीनी अधिकारी ने, जो इन वार्ताओं से परिचित हैं, कहा कि “अब तक कोई ठोस सफलता नहीं मिली है.”
इस बात को मान लेने से कि तुरंत कोई समझौता नहीं होगा, डोनाल्ड ट्रम्प की योजना को झटका लग सकता है, जो इस सप्ताह वाशिंगटन में इज़रायली प्रधानमंत्री बिन्यामिन नेतन्याहू की यात्रा के दौरान युद्धविराम समझौते की घोषणा करना चाहते थे. ट्रम्प ने सोमवार को पत्रकारों से कहा था कि “चीजें अच्छी दिशा में जा रही हैं” और “हमास भी युद्धविराम चाहता है.” लेकिन क़तर के अंसारी ने स्पष्ट किया कि बातचीत अभी भी फ्रेमवर्क के स्तर पर है. “दोनों पक्ष दोहा में हैं, लेकिन हम उनसे अलग-अलग बात कर रहे हैं. वास्तविक वार्ता शुरू नहीं हुई है.”
संभावित युद्धविराम प्रस्ताव में 28 बंधकों की चरणबद्ध रिहाई, इज़रायली सैनिकों की वापसी, मानवीय सहायता में बढ़ोतरी और स्थायी शांति पर बातचीत शामिल है. हालांकि, हमास यह सुनिश्चित करना चाहता है कि 60 दिन के युद्धविराम के बाद इज़रायल फिर से हमला न करे. इससे पहले मार्च में एक युद्धविराम इसीलिए टूटा था क्योंकि इज़रायल ने दूसरी चरण की बातचीत से इनकार कर दिया था. इज़रायल का कहना है कि वह तब तक लड़ाई नहीं रोकेगा जब तक हमास अपने पास बचे सभी 50 बंधकों को रिहा नहीं करता (जिनमें से आधे से अधिक मारे जा चुके हैं) और हथियार नहीं डालता.
गाज़ा में मौतों का सिलसिला जारी : इस बीच, गाज़ा में हिंसा जारी है. सोमवार देर रात उत्तरी ग़ज़ा के बैत हनून क्षेत्र में हमास के हमले में पांच इज़रायली सैनिक मारे गए और 14 घायल हो गए. वहीं गाज़ा की नागरिक रक्षा एजेंसी ने बताया कि इज़रायली हमलों में पूरे इलाके में 29 लोग मारे गए, जिनमें तीन बच्चे भी शामिल थे.
‘मानवीय शहर’ के नाम पर रफ़ा के मलबे में नजरबंदी शिविर बनाने का आदेश: इज़रायल के रक्षा मंत्री इसराइल काट्ज़ ने ग़ाज़ा के सभी फ़िलिस्तीनियों को जबरन रफ़ा के मलबे पर बनाए जा रहे एक शिविर में भेजने की योजना पेश की है. कानूनी विशेषज्ञों और शिक्षाविदों ने इस योजना को ‘मानवता के खिलाफ अपराध का खाका’ बताया है. हाआरेत्ज़ अख़बार के मुताबिक, काट्ज़ ने इज़रायली सेना को आदेश दिया है कि वह रफ़ा के मलबे पर एक शिविर तैयार करे जिसे वे ‘मानवीय शहर’ कह रहे हैं. इस शहर में प्रवेश से पहले फ़िलिस्तीनियों की ‘सुरक्षा जांच’ होगी और एक बार अंदर चले जाने के बाद उन्हें बाहर निकलने की अनुमति नहीं होगी. प्रारंभ में 6 लाख फ़िलिस्तीनियों को-जो वर्तमान में अल-मवासी क्षेत्र में विस्थापित हैं, इस शिविर में ‘स्थानांतरित’ किया जाएगा. काट्ज़ के अनुसार, अंततः ग़ाज़ा की पूरी आबादी को वहीं ‘रखा’ जाएगा और फिर “प्रवास योजना को लागू किया जाएगा, जो होकर रहेगी.”
रॉयटर्स हैंडल ब्लॉकिंग पर बड़ा टकराव,एक्स ने कहा – 'सरकार ने ही दिया था आदेश' आईटी मंत्रालय बोला – 'नहीं थी कोई मंशा',
'द हिन्दू' की रिपोर्ट है कि दुनिया की प्रमुख न्यूज़ एजेंसी रॉयटर्स के एक्स (पूर्व में ट्विटर) हैंडल्स को भारत में अस्थायी रूप से ब्लॉक किए जाने पर बड़ा विवाद खड़ा हो गया है. एक तरफ जहां सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म एक्स ने दावा किया है कि भारत सरकार ने ही ब्लॉकिंग का आदेश दिया था, वहीं दूसरी ओर इलेक्ट्रॉनिक्स और सूचना प्रौद्योगिकी मंत्रालय का कहना है कि सरकार की ऐसी कोई मंशा नहीं थी और उसने कोई नया ब्लॉकिंग आदेश जारी नहीं किया. एक्स ने मंगलवार को अपने आधिकारिक बयान में कहा कि भारत सरकार ने 3 जुलाई को कुल 2,355 अकाउंट्स को ब्लॉक करने का आदेश दिया था, जिनमें @Reuters और @ReutersWorld जैसे रॉयटर्स से जुड़े प्रमुख हैंडल्स भी शामिल थे. आदेश के अनुसार, यह कार्रवाई एक घंटे के भीतर की जानी थी. हालांकि, एक्स ने इन आदेशों पर अमल 5 जुलाई की शाम को किया. एक्स ने आगे कहा कि वह भारतीय कानूनों के तहत इन आदेशों को कानूनी चुनौती नहीं दे सकता, और वह “भारत में प्रेस सेंसरशिप को लेकर गंभीर रूप से चिंतित” है.
ट्रम्प के लिए नोबेल की मांग: ‘न्यूयॉर्क टाइम्स’ की रिपोर्ट है कि इज़रायल के प्रधानमंत्री बिन्यामिन नेतन्याहू ने अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प को नोबेल शांति पुरस्कार के लिए नामित किया है. यह नामांकन पत्र मंगलवार को नेतन्याहू के कार्यालय द्वारा सार्वजनिक किया गया. उन्होंने 2020 में इज़रायल और कई अरब देशों के बीच अब्राहम समझौतों में ट्रम्प की "निर्णायक भूमिका" का हवाला देते हुए यह प्रस्ताव रखा है. सोमवार रात व्हाइट हाउस में एक डिनर के दौरान नेतन्याहू ने ट्रंप को यह चिट्ठी सौंपी और उन्हें "शांति स्थापित करने वाले" नेता के रूप में सराहा. ट्रम्प, जो वर्षों से नोबेल पुरस्कार पाने की इच्छा जता चुके हैं, इस कदम से चौंके नज़र आए.
चलते-चलते
हरकारा डीपडाइव | गुरुदत्त की सौवीं जयंती पर ख़ास बातचीत
'हरकारा डीपडाइव' के इस ख़ास अंक में वरिष्ठ पत्रकार अमिताभ श्रीवास्तव ने निधीश त्यागी से गुरुदत्त के सिनेमा पर लंबी बातचीत की और अपने समय से कई दशक आगे का सिनेमा रचने वाले इस फिल्मकार को शिद्दत से याद किया. एक ऐसा नाम जो सिनेमा को तकनीक, भाव और साहस—तीनों स्तरों पर एक नई ऊँचाई देकर गया. गुरुदत्त की ज़िंदगी लंबी नहीं थी, लेकिन उनके बनाए दृश्य, ध्वनि और संवेदना आज भी ज़िंदा हैं. 1964 में स्लीपिंग पिल्स की ओवरडोज ने उनके जीवन को अचानक रोक दिया, लेकिन उनकी फिल्मों ने कभी रुकना नहीं सीखा. उनका सिनेमा आज भी उतना ही प्रासंगिक है, जितना तब था. 9 जुलाई 2025 को गुरुदत्त होते तो अपना 100वां जन्मदिन मना रहे होते.
अमिताभ श्रीवास्तव ने कहा — "गुरुदत्त का सिनेमा समय की सीमाओं को पार करता है. उनके बनाए सवाल आज भी हमारे दौर से टकराते हैं —'ये दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है?' जब आज हर जगह 'विश्वगुरु' का शोर है, तब गुरुदत्त की ये पंक्तियाँ सत्ता से असली सवाल पूछती हैं." उन्होंने सत्ता और समाज के विरोधाभासों को बड़े ही संवेदनशील और प्रभावशाली ढंग से प्रस्तुत किया.
गुरुदत्त की फिल्मों में जो कला, संगीत और तकनीक का मिश्रण अद्भुत है. उनके साथ का पूरा क्रिएटिव ईकोसिस्टम— साहिर लुधियानवी, एस.डी. बर्मन, मोहम्मद रफ़ी, गीता दत्त, वी. के. मूर्ति—ने जो रचा, वो आज भी पाठ्यक्रमों में नहीं, दिलों में पढ़ा जाता है.
‘प्यासा’, ‘कागज़ के फूल’ और ‘साहब बीबी और गुलाम’ को एक साथ उनकी "त्रयी" माना जाता है. इन तीनों में उनकी बेचैन आत्मा की अनुगूंज सुनाई देती है, चाहे वो सत्ता से सवाल हो, बाजार से टकराव हो, या रिश्तों की दरकती दीवारें.
अमिताभ कहते हैं — "गुरुदत्त के सिनेमा में नायक सिर्फ प्रेम में पिघलता नहीं, वो समाज की क्रूरता से लड़ता भी है और अंत में हारता भी है, पर बहुत सुंदरता से."
इस दौरान गानों पर चर्चा हुई, परछाइयां और प्यास की रेखाओं में बसी उदासी पर बात हुई और अंत में यही समझा गया — गुरुदत्त के सिनेमा में जो दर्द था, वो उनका अकेलापन नहीं था, बल्कि हमारे भीतर का भी एक हिस्सा था.
पाठकों से अपील :
आज के लिए इतना ही. हमें बताइये अपनी प्रतिक्रिया, सुझाव, टिप्पणी. मिलेंगे हरकारा के अगले अंक के साथ. हरकारा सब्सटैक पर तो है ही, आप यहाँ भी पा सकते हैं ‘हरकारा’...शोर कम, रोशनी ज्यादा. व्हाट्सएप पर, लिंक्डइन पर, इंस्टा पर, फेसबुक पर, यूट्यूब पर, स्पोटीफाई पर , ट्विटर / एक्स और ब्लू स्काई पर.