10/08/2025: वोटर लिस्ट की जाँच मुश्किल | केंचुआ नाम काटने से पहले नोटिस देगा | चुनाव के फिक्सर मिले थे, पवार का दावा | इधर शांति की बात, उधर यूक्रेन पर बढ़ते हमले | न चीन सध रहा, न अमेरिका | मिलेनिया
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आज की सुर्खियां
ट्रम्प-पुतिन वार्ता की तैयारी, ज़ेलेंस्की की शर्त, यूक्रेन पर रूस के बढ़ते हमले
केंचुआ ने फिर राहुल गांधी से शपथ पर सबूत मांगा
बिहार मतदाता सूची / बिना नोटिस के कोई नाम नहीं हटेगा, आयोग ने सुप्रीम कोर्ट को दिया भरोसा
केंचुआ ने वोटर लिस्ट में की जाँच और मुश्किल की
धराली : आर्मी के जवान भी लापता हैं, मृतक संख्या 5 नहीं ग्रामीणों के मुताबिक दसियों हुए हताहत
वायु सेना प्रमुख ने कहा, पाकिस्तान के 5 जेट और एक और विमान मार गिराए, पाकिस्तान का खंडन
राणा अय्यूब : ट्रम्प रोज़ भारत की बेइज्ज़ती कर रहें और हम करवा रहे हैं
मोदी न चीन को साध पा रहे हैं, न अमेरिका को
जगदीप धनखड़ ‘लापता’? सिब्बल को चिंता
विवेक कौल: क्रिकेट की रोमांचक जीत से आत्मनिर्भरता की जटिल बहस तक
मेलानिया पर इतना ध्यान क्यों दिया जा रहा है?
वोट चोरी
केंचुआ ने फिर राहुल गांधी से शपथ पर सबूत मांगा
चुनाव आयोग ने शनिवार (9 अगस्त, 2025) को एक बार फिर कांग्रेस नेता राहुल गांधी से कर्नाटक के एक विधानसभा क्षेत्र में मतदाता सूची में हेरफेर के उनके आरोपों पर शपथ के साथ सबूत जमा करने को कहा है. चुनाव आयोग के सूत्रों के अनुसार, राहुल गांधी को या तो एक घोषणा पत्र या शपथ पत्र देना चाहिए, या फिर देश से माफी मांगनी चाहिए.
यह मामला राहुल गांधी के उस दावे से जुड़ा है जो उन्होंने गुरुवार को एक प्रेस कॉन्फ्रेंस में किया था. उन्होंने आरोप लगाया था कि भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) की जीत सुनिश्चित करने के लिए कर्नाटक के बेंगलुरु सेंट्रल लोकसभा क्षेत्र के तहत आने वाली महादेवपुरा विधानसभा सीट पर 1,00,250 "फर्ज़ी वोट" बनाए गए थे. इस दावे के बाद, कर्नाटक के मुख्य निर्वाचन अधिकारी ने कांग्रेस नेता को एक पत्र जारी किया था. इस पत्र में उन्हें रजिस्ट्रेशन ऑफ इलेक्टर्स रूल्स, 1960 के नियम 20 (3) (बी) के तहत शपथ पर सबूत पेश करने के लिए कहा गया था.
यह नियम पंजीकरण अधिकारी को किसी भी दावे या आपत्ति पर संक्षिप्त जांच करने और किसी भी व्यक्ति से शपथ पर सबूत पेश करने की मांग करने का अधिकार देता है. हालांकि, चुनावी कानून के जानकारों का कहना है कि चुनाव आयोग द्वारा उद्धृत यह नियम इस संदर्भ में लागू नहीं होता है. उनके अनुसार, इस नियम के तहत कोई भी शिकायत मतदाता सूची के प्रकाशन के 30 दिनों के भीतर दर्ज की जानी चाहिए.
बिहार मतदाता सूची
बिना नोटिस के कोई नाम नहीं हटेगा, चुनाव आयोग ने सुप्रीम कोर्ट को दिया भरोसा
चुनाव आयोग ने शनिवार (9 अगस्त, 2025) को सुप्रीम कोर्ट को यह आश्वासन दिया है कि बिहार में विशेष गहन पुनरीक्षण (SIR) अभ्यास के तहत किसी भी मतदाता का नाम बिना पूर्व सूचना दिए मतदाता सूची से नहीं हटाया जाएगा. आयोग ने कहा कि जिन मतदाताओं के नाम हटाने की प्रक्रिया होगी, उन्हें कार्रवाई का आधार बताते हुए नोटिस दिया जाएगा और सुनवाई का उचित मौका भी मिलेगा.
चुनाव आयोग ने यह जवाब एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स (ADR) द्वारा दायर एक याचिका पर दिया. एडीआर ने अपनी याचिका में मांग की थी कि आयोग मसौदा मतदाता सूची से हटाए गए लगभग 65 लाख नामों का व्यक्तिगत विवरण प्रदान करे. आयोग ने अपने हलफनामे में सीधे तौर पर इस मांग का जवाब तो नहीं दिया, लेकिन यह स्पष्ट किया कि वह प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों का पालन करेगा. मतदाताओं को सुनवाई और संबंधित दस्तावेज़ पेश करने का उचित मौका दिया जाएगा और सक्षम अधिकारी द्वारा दिया गया कोई भी आदेश तर्कसंगत होगा.
आयोग ने अदालत को यह भी बताया कि मसौदा मतदाता सूची की मुद्रित और डिजिटल प्रतियां राजनीतिक दलों को उपलब्ध करा दी गई हैं और आम जनता के लिए ऑनलाइन सुविधा भी मौजूद है ताकि 1 अगस्त से 1 सितंबर के बीच इसकी पूरी जांच की जा सके. इसके अलावा, आयोग ने लगभग 2.5 लाख स्वयंसेवकों, जिनमें ज़्यादातर बिहार सरकार के अधिकारी हैं, को तैनात किया है. ये स्वयंसेवक पात्र मतदाताओं को विभिन्न विभागों से ज़रूरी दस्तावेज़ हासिल करने में मदद करेंगे ताकि कोई भी योग्य मतदाता अंतिम सूची से बाहर न रह जाए. आयोग ने यह भी कहा कि वह यह सुनिश्चित करने के लिए हर संभव कदम उठा रहा है कि कोई भी पात्र मतदाता चुनावी सूची से बाहर न हो.
केंचुआ ने वोटर लिस्ट में की जाँच और मुश्किल की
बिहार की डिजिटल वोटर लिस्ट को स्कैन्ड इमेज से बदला
चुनाव आयोग ने शनिवार को बिहार में अपनी आधिकारिक वेबसाइटों पर मौजूद डिजिटल ड्राफ़्ट वोटर लिस्ट को स्कैन्ड इमेज से बदल दिया है. डिजिटल ड्राफ़्ट लिस्ट मशीन-रीडेबल यानी कंप्यूटर द्वारा पढ़ी जा सकने वाली होती हैं, जिससे उनमें गलतियों और पैटर्न का बड़े पैमाने पर विश्लेषण करना आसान होता है. इसके उलट, अब अपलोड किए गए स्कैन्ड वर्ज़न इस प्रक्रिया को बहुत मुश्किल बना देते हैं.
स्क्रोल के लिए आयुष तिवारी की रिपोर्ट है कि यह कदम कांग्रेस नेता राहुल गांधी के उस आरोप के ठीक दो दिन बाद उठाया गया है, जिसमें उन्होंने कहा था कि चुनाव आयोग डिजिटल वोटर लिस्ट साझा करने से इनकार कर रहा है. गांधी ने आरोप लगाया था कि ऐसा इसलिए किया जा रहा है क्योंकि इससे उन संदिग्ध और फ़र्ज़ी मतदाताओं का पर्दाफ़ाश हो सकता है जो कथित तौर पर भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) को चुनाव जीतने में मदद करते हैं. स्क्रॉल ने इस मामले पर टिप्पणी के लिए चुनाव आयोग के एक अधिकारी से संपर्क किया है. जवाब मिलने पर रिपोर्ट को अपडेट किया जाएगा.
बिहार की ड्राफ़्ट वोटर लिस्ट 1 अगस्त को तब जारी की गई थी जब चुनाव आयोग ने राज्य में मतदाता सूचियों के विशेष गहन संशोधन का पहला चरण पूरा किया था. इस प्रक्रिया में 65 लाख से ज़्यादा मतदाताओं के नाम हटाए गए थे. आयोग ने आरोप लगाया था कि ये मतदाता या तो मर चुके हैं, पहले से कहीं और नामांकित हैं या स्थायी रूप से कहीं और शिफ़्ट हो गए हैं. चुनाव आयोग के अनुसार, बिहार के ड्राफ़्ट रोल में 90,712 मतदाता सूचियां हैं, जिनमें 7.2 करोड़ मतदाताओं के नाम शामिल हैं.
1 अगस्त को, चुनाव आयोग ने दो अलग-अलग वेबसाइटों पर वोटर लिस्ट अपलोड की थीं. एक वोटर सर्विस पोर्टल है, जो सभी उपयोगकर्ताओं को देश भर में किसी भी वोटर लिस्ट को 10 के बैच में डाउनलोड करने की अनुमति देता है. दूसरी एक समर्पित वेबसाइट "बिहार एसआईआर ड्राफ़्ट रोल 2025" थी जिसमें विधानसभा क्षेत्र-वार ज़िप फ़ाइलें थीं. हर ज़िप फ़ाइल में उस निर्वाचन क्षेत्र की हर मतदाता सूची शामिल थी. 2 अगस्त से 5 अगस्त के बीच स्क्रॉल ने दोनों वेबसाइटों से वोटर लिस्ट डाउनलोड की थीं, जो डिजिटल और मशीन-रीडेबल फ़ॉर्मैट में थीं.
चुनाव आयोग वोटर लिस्ट को डिजिटल या स्कैन्ड, दोनों ही रूपों में पीडीएफ़ फ़ॉर्मैट में रखता है. डिजिटल रोल तक पहुंच आसान होती है क्योंकि वे खोजने योग्य (searchable) होते हैं. एक मतदाता इन सूचियों में किसी भी नाम या वोटर आईडी नंबर को आसानी से खोज सकता है. डिजिटल रोल डेटा की गहन जांच की भी अनुमति देते हैं क्योंकि इसके डेटा को कम समय में कंप्यूटर प्रोग्राम और आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस टूल का उपयोग करके निकाला और व्यवस्थित किया जा सकता है.
6 अगस्त को चुनाव आयोग ने वोटर सर्विस पोर्टल से डिजिटल वोटर लिस्ट हटाकर उनकी जगह स्कैन्ड इमेज लगा दीं. स्कैन्ड फ़ॉर्मैट वोटर लिस्ट की एक तस्वीर जैसा होता है. यह खोजने योग्य नहीं होता और इससे डेटा निकालना बहुत मुश्किल होता है. ये फ़ाइलें आकार में बड़ी होती हैं, इनका रिज़ॉल्यूशन कम होता है, और डेटा निकालने में बहुत अधिक समय लगता है और गलतियों की आशंका बनी रहती है. वोटर सर्विस पोर्टल पर लिस्ट बदलने के बाद भी, समर्पित वेबसाइट पर डिजिटल लिस्ट उपलब्ध थीं.
7 अगस्त को, राहुल गांधी ने एक प्रेस कॉन्फ्रेंस की और चुनाव आयोग पर कर्नाटक के एक विधानसभा क्षेत्र में संदिग्ध मतदाता सूची बनाने का आरोप लगाया. महादेवपुरा विधानसभा क्षेत्र उन आठ विधानसभा क्षेत्रों में से एक है जो बेंगलुरु सेंट्रल लोकसभा सीट बनाते हैं, जिसे बीजेपी ने 2024 के लोकसभा चुनावों में बड़े अंतर से जीता था. उन्होंने आरोप लगाया कि महादेवपुरा विधानसभा क्षेत्र में कम से कम एक लाख मतदाता "फ़र्ज़ी" थे - उनमें से दर्जनों एक ही पते पर या "0" जैसे पतों पर पंजीकृत थे, या देश के अन्य हिस्सों की मतदाता सूचियों में भी शामिल थे.
गांधी ने कहा कि कांग्रेस को छह महीने तक निर्वाचन क्षेत्र में मतदाता सूचियों के हजारों पन्नों को खंगालना पड़ा क्योंकि चुनाव आयोग ने डिजिटल, मशीन-रीडेबल फ़ॉर्मैट में डेटा साझा करने से इनकार कर दिया था. जून में, चुनाव आयोग के एक अनाम अधिकारी ने यह कहते हुए डिजिटल मतदाता सूचियों के लिए गांधी के अनुरोध को अस्वीकार कर दिया था कि यह "मौजूदा कानूनी ढांचे के दायरे में तर्कसंगत नहीं है".
शनिवार को, चुनाव आयोग ने "बिहार एसआईआर ड्राफ़्ट रोल 2025" वेबसाइट से भी डिजिटल वोटर लिस्ट को हटा दिया. बिहार में मतदाता सूचियों के संशोधन की घोषणा चुनाव आयोग ने जून में की थी. इस कवायद के तहत, जिन लोगों के नाम 2003 की मतदाता सूची में नहीं थे, उन्हें वोट देने के लिए पात्रता का प्रमाण प्रस्तुत करना था. स्क्रॉल द्वारा 1 अगस्त को प्रकाशित आंकड़ों के एक विश्लेषण से पता चला है कि संशोधन के बाद बिहार की ड्राफ़्ट मतदाता सूची से बाहर किए गए मतदाताओं में 55% महिलाएं थीं. यह भी पता चला कि राज्य के सबसे ज़्यादा मुस्लिम आबादी वाले 10 ज़िलों में से पांच में सबसे ज़्यादा मतदाताओं को बाहर रखा गया था.
पवार : विपक्षी गठबंधन को 288 में से 160 सीटें जिताने में मदद करने की पेशकश की थी
एनसीपी (एसपी) प्रमुख शरद पवार ने कहा कि 2024 महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव की घोषणा से पहले दिल्ली में दो लोग उनसे मिलने आए थे. इन लोगों ने महा विकास अघाड़ी (एमवीए) को 288 में से 160 सीटें जिताने की गारंटी दी थी.
पवार ने शनिवार को नागपुर में मीडिया से बातचीत के दौरान बताया कि वह इन दोनों लोगों को लेकर राहुल गांधी के पास गए थे, उन्होंने ये ऑफर राहुल को भी दिया था. पवार ने कहा कि उन्होंने और राहुल ने ये ऑफर नहीं लिया और मना कर दिया. पवार ने दोनों लोगों के नाम और पहचान उजागर नहीं की है. उन्होंने कहा, हमें इस रास्ते पर चलकर चुनाव नहीं जीतना था, इस वजह से हमने उनके ऑफर पर ध्यान नहीं दिया और न ही उनका नाम और संपर्क रखा.
शनिवार को हुई प्रेस कॉन्फ्रेंस में, शरद पवार ने लोकसभा के प्रतिपक्ष नेता राहुल गांधी द्वारा हाल ही में किए गए "वोट चोरी" के आरोपों पर प्रस्तुतिकरण की तारीफ की और चुनाव आयोग की आलोचना की कि वह प्रतिपक्ष नेता से हस्ताक्षरित घोषणा-पत्र मांग रहा है. पवार ने कहा कि चुनाव आयोग एक स्वतंत्र संस्था है, राहुल गांधी ने पहले ही संसद में शपथ ली है, इसलिए अलग से हलफनामा देने की जरूरत नहीं है. यदि चुनाव आयोग ऐसा मांगता है तो वह उचित नहीं है. उन्होंने कहा कि राहुल गांधी के आरोपों की गहराई से जांच होनी चाहिए और सच बाहर आना चाहिए. पवार ने आगे कहा कि आपत्ति आयोग के खिलाफ थी, तो भाजपा नेताओं या मुख्यमंत्री को क्यों जवाब देना चाहिए? जवाब चुनाव आयोग से चाहिए, भाजपा से नहीं.
पवार ने कहा कि राहुल गांधी ने चुनाव आयोग और भाजपा पर चुनावों में “एक बड़ा अपराध” करने का आरोप लगाया है. उन्होंने कांग्रेस की एक जांच रिपोर्ट जारी की, जिसमें बेंगलुरु के महादेवपुरा विधानसभा क्षेत्र में 2024 के लोकसभा चुनावों में वोट चोरी की बात कही गई थी. इस प्रकार, पवार ने राहुल गांधी के आरोपों का समर्थन किया और चुनाव आयोग से इसकी जांच कराने का आग्रह किया. उन्होंने यह भी कहा कि विपक्ष अगले सोमवार को चुनाव आयोग के कार्यालय के बाहर मार्च करेगा.
पवार के इस दावे के कुछ ही घंटों बाद मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस ने इस पर कड़ी प्रतिक्रिया दी. उन्होंने पवार के खुलासे के समय पर सवाल उठाते हुए कहा, "पवार यह खुलासा राहुल गांधी के दावों के बाद क्यों कर रहे हैं? पहले तो पवार ने कभी भी ईवीएम में हेरफेर को लेकर गांधी के दावों का समर्थन नहीं किया. भारत में चाहे कुछ भी हो, स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव होते हैं. गांधी ऐसी कहानियां सुनाते हैं जो सलीम-जावेद की स्क्रिप्ट जैसी लगती हैं, और पवार ने जो कहा है वह भी वही स्क्रिप्ट लगती है."
धराली : आर्मी के जवान भी लापता हैं, मृतक संख्या 5 नहीं ग्रामीणों के मुताबिक दसियों हुए हताहत
गौरव नौड़ियाल
उत्तराखंड के उत्तरकाशी जिले के मशहूर पर्यटक स्थल हर्षिल से सटे हुए कस्बे धराली में आई हालिया आपदा में दसियों लोगों के हताहत होने की सूचना आ रही है. स्थानीय निवासियों की मानें तो यह संख्या 60 से उपर है. हालांकि, सरकार की ओर से अब तक पांच लोगों की मृत्यु की ही पुष्टि की गई है.
स्थानीय लोगों की मानें तो अकेले आठ जवान आर्मी के लापता हैं, जबकि अपने तीन साथियों को जवान बचाने में कामयाब रहे हैं. हर्षिल से सटे झाला गांव के स्थानीय निवासियों के मुताबिक आर्मी के जवान धराली में रेस्क्यू के दौरान बाढ़ की चपेट में आ गए थे. धराली के अलावा हर्षिल में आर्मी कैंप भी आपदा की चपेट में आया है, जिससे भारत-तिब्बत सीमा के नजदीक इस कैंप को भी भारी क्षति पहुंची है. प्रत्यक्षदर्शियों ने सेना की गाड़ियों को गंगा नदी में बहते हुए देखा है. फिलहाल पत्रकारों को गंगनानी से आगे नहीं जाने दिया जा रहा है.
ग्रामीणों की मानें तो बर्फवारी से पहले इन दिनों घाटी में निर्माण कार्यों और सेब के बगीचे में मजदूरों की आवक भी बढ़ जाती है. अकेले धराली कस्बे से ही दसियों बिहारी और नेपाली मजदूरों के लापता होने की सूचना है. कुछ के मुताबिक मजदूरों की संख्या ही 50 के करीब है, जबकि कुछ इस संख्या को बढ़ाकर भी बता रहे हैं. इस वक्त धराली कस्बा 20 फीट से भी ज्यादा मलबे के नीचे दबा हुआ है, तब वास्तविक मृतक संख्या का सटीक आंकलन बेहद मुश्किल है.
घाटी में फिलवक्त बिजली बहाल हो गई है. आपदा के चलते क्षतिग्रस्त हुए उत्तरकाशी-गंगोत्री राष्टीय राजमार्ग पर भी मरम्मत का काम जोरों-शोरों से चल रहा है. घाटी में पुलिस के जवान और एनडीआरएफ के अलावा सेना के जवान भी रेस्क्यू में जुटे हुए हैं. स्थानीय युवक मंगल दलों को भी राहत कार्यों में शामिल किया गया है.
वायु सेना प्रमुख ने कहा, पाकिस्तान के 5 जेट और एक और विमान मार गिराए, पाकिस्तान का खंडन
भारतीय वायु सेना प्रमुख एपी सिंह ने खुलासा किया है कि भारत ने मई में पाकिस्तान के साथ हुए संघर्ष में पांच पाकिस्तानी लड़ाकू विमान और एक अन्य बड़े सैन्य विमान (सर्विलांस एयरक्राफ्ट) समेत कुल 6 विमानों को मार गिराया था. सर्विलांस एयरक्राफ्ट को लगभग 300 किलोमीटर की दूरी से मार गिराया. यह सतह से हवा में टारगेट हिटिंग का अभी तक का रिकॉर्ड है.
बेंगलुरु में आयोजित एक कार्यक्रम में एअर चीफ मार्शल सिंह ने कहा कि ऑपरेशन सिंदूर के दौरान हमारे एयर डिफेंस सिस्टम ने शानदार काम किया, पाकिस्तान हमारा एयर डिफेंस सिस्टम नहीं भेद पाया. उन्होंने कहा, "हाल ही में खरीदे गए एस-400 सिस्टम गेम-चेंजर रहे हैं. पाकिस्तान लंबी दूरी के ग्लाइड बम होने के बाद भी इनका इस्तेमाल नहीं कर सका." उन्होंने कहा कि पाकिस्तान के बहावलपुर में हमले के पहले और बाद की तस्वीरें सबके सामने हैं. वहां कुछ नहीं बचा था. ये तस्वीरें न सिर्फ सैटेलाइट से ली गईं, बल्कि स्थानीय मीडिया ने भी तबाह हुई बिल्डिंग की अंदर की तस्वीरें दिखाई थीं.
सिंह ने यह नहीं बताया कि गिराए गए लड़ाकू विमानों का प्रकार क्या था, लेकिन उन्होंने कहा कि हवाई हमलों में एक अतिरिक्त निगरानी विमान और ‘कुछ एफ-16’ लड़ाकू विमान, जो दक्षिण-पूर्वी पाकिस्तान के दो वायुसेना ठिकानों पर हैंगर में खड़े थे, को भी निशाना बनाया गया.
पाकिस्तान का खंडन: हालांकि, पाकिस्तान के रक्षा मंत्री ख्वाजा मोहम्मद आसिफ ने इस बयान को खारिज करते हुए कहा कि भारत ने एक भी पाकिस्तानी विमान को नहीं मारा या नष्ट किया. उन्होंने "एक्स" पर अपनी पोस्ट में भारत पर बेईमानी का आरोप लगाया और कहा, "यदि सच्चाई पर सवाल है, तो दोनों पक्ष अपनी विमान सूची को स्वतंत्र सत्यापन के लिए खोल दें — हालांकि हमें संदेह है कि इससे वह हकीकत सामने आ जाएगी जिसे भारत छिपाना चाहता है."
उन्होंने आगे कहा, "ऐसी हास्यास्पद कहानियां, जिन्हें घरेलू राजनीतिक लाभ के लिए गढ़ा जाता है, एक परमाणु-सज्जित वातावरण में रणनीतिक गलत आकलन के गंभीर ख़तरों को बढ़ा देती हैं."
राणा अय्यूब : ट्रम्प रोज़ भारत की बेइज्ज़ती कर रहें और हम करवा रहे हैं
पत्रकार राणा अय्यूब ने अपने एक लेख में तर्क दिया है कि जब से डोनाल्ड ट्रम्प व्हाइट हाउस में लौटे हैं, ऐसा एक भी दिन नहीं बीता जब उन्होंने भारत पर निशाना न साधा हो - चाहे वह हमारी अर्थव्यवस्था हो, हमारा नेतृत्व हो, या हमारा आत्म-सम्मान. उन्होंने लिखा है कि ट्रम्प ने भारत की अर्थव्यवस्था को "मृत" बताया, भारत-पाकिस्तान संघर्ष विराम का पूरा श्रेय खुद ले लिया, पाकिस्तान के जनरल असीम मुनीर से मुलाक़ात की और भारतीय सामानों पर 50% का भारी टैरिफ़ लगा दिया. इसके बावजूद, नई दिल्ली की तरफ़ से लगभग चुप्पी छाई हुई है.
अय्यूब लिखती हैं कि यह अपमान अचानक या अप्रत्याशित नहीं है. यह उस विदेश नीति का नतीजा है जो परिणामों पर नहीं, बल्कि दिखावे पर केंद्रित थी - एक ऐसी कूटनीति जो राष्ट्रीय गौरव या जन कल्याण के बजाय सुर्खियों और कॉर्पोरेट हितों की सेवा के लिए बनाई गई थी.
लेख में 2019 के ह्यूस्टन में हुए "हाउडी मोदी" रैली का ज़िक्र है, जहाँ प्रधानमंत्री मोदी ने ट्रम्प को गले लगाया था और अमेरिकी धरती पर "अब की बार, ट्रम्प सरकार" के नारे के साथ एक विदेशी नेता का समर्थन किया था. इसके बाद 2020 में ट्रम्प की भारत यात्रा हुई. अय्यूब के मुताबिक़, मोटेरा स्टेडियम में गुजरात सरकार द्वारा एक लाख से ज़्यादा लोगों को बसों में भरकर लाया गया था और करदाताओं के करोड़ों रुपये खर्च किए गए थे. इसे "विश्वगुरु क्षण" के रूप में प्रचारित किया गया और आलोचना करने वालों को देश-विरोधी और गद्दार करार दिया गया.
अय्यूब के अनुसार, 2024 में ट्रम्प के सत्ता में लौटते ही सबसे पहले भारतीय छात्रों और वीज़ा धारकों पर असर पड़ा. कुछ को हथकड़ी लगाकर सैन्य विमानों में वापस भेज दिया गया. ये छात्र, तकनीकी कर्मचारी और पेशेवर थे. भारत ने इसका दबे सुर में विरोध किया. ट्रम्प के भारत-पाकिस्तान के बीच शांति स्थापित करने के दावों पर भी भारत ने कभी मज़बूती से जवाब नहीं दिया.
लेख में मोदी सरकार की नीतियों में बड़े उलटफेर की भी आलोचना की गई है. पिछले साल जहां मालदीव का बहिष्कार करने वाले वीडियो बनाए जा रहे थे, वहीं आज पीएम मोदी मालदीव के नेता से हाथ मिला रहे हैं. दो साल पहले जहां चीनी सामानों को जलाया जा रहा था, वहीं अब मोदी एससीओ शिखर सम्मेलन के लिए चीन की यात्रा कर रहे हैं. अय्यूब सवाल करती हैं कि क्या यह विदेश नीति है या कोई मीम वॉर?
इस बीच, लेख में मुकेश अंबानी के नेतृत्व वाले रिलायंस का भी ज़िक्र है, जिसने रूसी कच्चे तेल को रिफ़ाइन करके और फिर से निर्यात करके रिकॉर्ड मुनाफ़ा कमाया. जब पश्चिम ने यूक्रेन युद्ध के बाद रूस पर प्रतिबंध लगाए, तो भारत रियायती रूसी तेल के शीर्ष खरीदारों में से एक बन गया. अय्यूब इसे "राष्ट्रवाद के भेस में एक बिजनेस मॉडल" और "केसरिया स्कार्फ़ पहने पूंजीवाद" कहती हैं.
रॉयटर्स की एक हालिया रिपोर्ट का हवाला देते हुए, लेख में कहा गया है कि एक वरिष्ठ भारतीय सरकारी अधिकारी ने स्वीकार किया कि व्यापार वार्ता का टूटना और टैरिफ़ की मार ग़लत आकलन के कारण हुई. इसके बावजूद, पीएम मोदी ट्रम्प के टैरिफ़ की धमकियों पर यह कहकर जवाब देते हैं कि वह भारत के किसानों के लिए "भारी क़ीमत चुकाने को तैयार हैं" - वही किसान जिन्हें विरोध प्रदर्शन के दौरान बदनाम किया गया था.
अंत में, अय्यूब सवाल उठाती हैं कि यह सब हमारी विदेश नीति और हमारे आत्म-सम्मान को कहाँ छोड़ता है? यह उस देशभक्ति के बारे में क्या कहता है जो सिर्फ़ आम नागरिकों से मांगी जाती है, जबकि कॉर्पोरेशन और नेता मुनाफ़ा कमाते हैं? वह लिखती हैं, "हमें झंडे लहराने के लिए कहा गया था. हमें बारीकियों को पढ़ना चाहिए था."
यह लेख राणा अय्यूब ने अपने सबस्टैक न्यूज़लैटर के लिए लिखा है.
मोदी न चीन को साध पा रहे हैं, न अमेरिका को
डोनाल्ड ट्रम्प के एक के बाद एक झटकों के बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी चीन की यात्रा पर जा रहे हैं. बदली हुई परिस्थितयों में, सात साल बाद उनकी यह यात्रा हो रही है. अमेरिकी अखबार "द न्यूयॉर्क टाइम्स" में मुजीब मशाल और हरि कुमार ने लिखा है कि मोदी का चीन और अमेरिका दोनों के साथ जो रिश्ता बनाने का प्रयास रहा है, वह अब चुनौतीपूर्ण मोड़ पर है और भारत को अपनी प्राथमिकताओं पर फिर से विचार करना होगा.
याद करिए, नरेंद्र मोदी ने किस तरह चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग के भव्य स्वागत में कोई कमी बाकी नहीं रखी थी. गुजरात में जिनपिंग के साथ साबरमती नदी के किनारे झूला साझा किया था, यह दर्शाने के लिए कि भारत अपने विशाल पड़ोसी चीन की आर्थिक सफलता से प्रेरणा लेना चाहता है. लेकिन जब वे बातचीत कर रहे थे, तब चीन और भारत की सेनाओं के बीच सीमा पर टकराव हो गया. यह 2014 में पहला टकराव था, जो कई वर्षों तक जारी रहा और जिसने भारत को सैकड़ों सैनिकों को हिमालय में युद्ध की स्थिति बनाए रखने के लिए मजबूर कर दिया.
कुछ वर्षों बाद, मोदी ने अमेरिका के साथ संबंधों को मजबूत करने की कोशिश की. उन्होंने राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प के पहले कार्यकाल में उनके साथ करीबी मित्रता विकसित की, इतना कि उन्होंने अमेरिका में ट्रम्प के पुनर्निर्वाचन (अबकी बार ट्रम्प सरकार) के लिए सार्वजनिक रूप से समर्थन भी किया. अमेरिकी बाइडेन प्रशासन ने इस एकतरफा समर्थन के बाद भी भारत के साथ संबंधों को जारी रखा और मोदी ने पिछले साल संयुक्त कांग्रेस में कहा कि “AI” का मतलब “अमेरिका और भारत” है.
लेकिन ट्रम्प के दूसरे कार्यकाल में मोदी को सार्वजनिक रूप से चोट पहुंची. ट्रम्प ने भारत पर 50% टैरिफ लगाया, उसे "डेड इकनॉमी" कहा, और इसे रूस से तेल खरीदने का कारण बताया. इसके अलावा, ट्रम्प ने पाकिस्तान को भी भारत के साथ समान दर्जा दिया, जो भारत में नाराजगी का कारण बना. इस घटनाक्रम ने भारत को आत्ममंथन की स्थिति में ला दिया. भारत भले ही बड़ा देश है और उसकी अर्थव्यवस्था बढ़ रही है, लेकिन उसकी विश्व शक्ति की सीमाएं भी उजागर हुई हैं. मोदी ने हाल ही में कहा है कि इस व्यापार विवाद के लिए वे राजनीतिक रूप से बड़ी कीमत चुकाने के लिए तैयार हैं. इस बीच भारत ने अब चीन के साथ संबंध सुधारने की कोशिश शुरू कर दी है, हालांकि सीमावर्ती विवाद और पाकिस्तान को चीन के समर्थन की वजह से तनाव जारी है. मोदी ने रूस के साथ भी अपने खास कूटनीतिक संबंधों को मज़बूत किया है, और राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन की भारत यात्रा की तैयारी में हैं.
विश्लेषकों का कहना है कि भारत को “रणनीतिक स्वायत्तता” के मार्ग पर लौटना होगा, यानि कूटनीतिक गठबंधनों को कम कसना और कई तरह के सीमित संबंधों पर जोर देना. निरुपमा राव, जो कि चीन और वाशिंगटन में भारत की पूर्व राजदूत हैं, ने कहा कि ट्रम्प के कठोर कदमों ने “एक अत्यंत महत्वपूर्ण साझेदारी के रणनीतिक तर्क को उलट-पुलट कर दिया है,” जिसे दो दशकों से अधिक समय तक सावधानीपूर्वक पोषित किया गया था. नई दिल्ली अपने हितों की रक्षा के लिए "बहुत व्यावहारिक रणनीतिक सुधार" करेगी, उन्होंने कहा.भारत की बढ़ती अर्थव्यवस्था उसके नेताओं को कुछ राहत देती है, लेकिन यह देश के लिए "गहरे आत्ममंथन" का क्षण है. "हमें इससे सीख लेनी चाहिए और वास्तव में राष्ट्रीय प्राथमिकताओं पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए — और यह सोचना चाहिए कि हमें मजबूत और अधिक प्रभावशाली बनने के लिए क्या करना है," राव ने कहा.
जगदीप धनखड़ ‘लापता’? सिब्बल को चिंता
इस बीच राज्यसभा सांसद कपिल सिब्बल ने पूर्व उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ के अचानक लापता होने पर चिंताते हुए केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह से इस मामले में बयान देने की मांग की है. सिब्बल ने कहा- मुझे उनकी चिंता हो रही है. इस्तीफे के बाद से हमें उनकी कोई जानकारी नहीं है. पहले मैंने 'लापता लेडीज' के बारे में सुना था, लेकिन पहली बार है जब 'लापता उपराष्ट्रपति’ के बारे में सुन रहा हूं. उन्होंने कहा कि गृह मंत्रालय को इस बारे में जरूर जानकारी होगी, इसलिए अमित शाह को इस पर बयान देना चाहिए. यह शोभा नहीं देता कि एफआईआर करें. क्या धनखड़ का पता लगाने के लिए सुप्रीम कोर्ट में हैबियस कॉर्पस याचिका दायर करें? उन्होंने कहा कि लगता है विपक्ष को ही धनखड़ की सुरक्षा करनी पड़ेगी. सिब्बल ने बताया कि उन्होंने पहले फोन किया था, तो धनखड़ के पीए ने कहा कि वे आराम कर रहे हैं, इसके बाद से किसी ने फोन नहीं उठाया. कई नेताओं ने भी यही शिकायत की.
सत्यपाल मलिक, धनखड़ के साथ "बर्ताव" पर बोलने वाले को भाजपा ने निकाला
राजस्थान भाजपा ने शुक्रवार को अपने प्रवक्ता कृष्ण कुमार जानू को छह साल के लिए निष्कासित कर दिया. उनकी निष्कासन की आधिकारिक वजह जून में दिए गए कारण बताओ नोटिस का असंतोषजनक जवाब देना था, जो उन्होंने पार्टी के झुंझुनू जिला अध्यक्ष हरशीनी कुल्हारी की नियुक्ति पर अपनी आपत्तियों के कारण दिया था. हालांकि, विवाद तब बढ़ा जब जानू का एक वीडियो सोशल मीडिया पर वायरल हुआ, जिसमें वे पार्टी के जाट नेताओं की चुप्पी पर सवाल उठा रहे थे और दिवंगत पूर्व राज्यपाल सत्यपाल मलिक तथा पूर्व उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ के साथ पार्टी के कथित "तिरस्कारपूर्ण" (असम्मान) व्यवहार की आलोचना कर रहे थे. हमज़ा खान के मुताबिक, जानू ने मलिक के अंतिम संस्कार में राज्य का सम्मान न मिलने को बेहद दुखद बताया और जाट सांसदों, विधायकों तथा अन्य पदधारकों से पूछा कि वे कैसे सोच सकते हैं कि उनके साथ ऐसा नहीं होगा. उन्होंने भाजपा के वर्तमान नेतृत्व पर भी वरिष्ठ नेताओं को किनारे करने और पार्टी के कुछ नेताओं को कठपुतली बनाने का आरोप लगाया.
विवेक कौल: क्रिकेट की रोमांचक जीत से आत्मनिर्भरता की जटिल बहस तक
6 अगस्त को भारत और इंग्लैंड के बीच पांचवें टेस्ट मैच के पांचवें दिन, खेल शुरू होने के 57 मिनट के अंदर ही तेज़ गेंदबाज़ मोहम्मद सिराज ने एक शानदार यॉर्कर फेंकी. यह गेंद सीधे गाइ एटकिंसन के स्टंप्स पर लगी और भारत ने यह मैच छह रनों से जीत लिया. यह भारत के क्रिकेट इतिहास में टेस्ट मैचों में सबसे कम अंतर से मिली जीत थी. इस जीत के बाद एक विचार तेज़ी से फैला कि यह एक 'नया भारत' है, जो हार के मुंह से जीत छीनना जानता है. यह सोच काफी लोकप्रिय हुई क्योंकि यह सुनने में स्पष्ट, आत्मविश्वास से भरी और राष्ट्रवाद की मौजूदा भावना को बढ़ावा देती है. लेकिन कई बार ऐसी सीधी-सपाट बातें असलियत की जटिलताओं को नज़रअंदाज़ कर देती हैं. क्रिकेट की इस जीत की तरह ही, आर्थिक चुनौतियों पर भी आजकल ऐसी ही सरल लेकिन अधूरी बातें की जा रही हैं.
आर्थिक टिप्पणीकार विवेक कौल ने न्यूज लॉंड्री में अपनी अनूठी शैली में एक्सप्लेनर लिखा है. अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप द्वारा भारतीय सामानों पर 50 प्रतिशत तक टैरिफ़ लगाने के बाद भारत में एक बार फिर 'आत्मनिर्भरता' की बहस तेज़ हो गई है. कई आर्थिक थिंक-टैंक और विशेषज्ञ इसे भारत के लिए 1991 जैसा संकट बता रहे हैं, जिसे मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर में सुधार करके एक अवसर में बदला जा सकता है. लेकिन क्या भारत वाकई औद्योगिक ताकत बन सकता है, या यह सिर्फ़ एक आकर्षक नारा है जो हकीकत से दूर है? लेखक विवेक कौल अपने विश्लेषण में इस विचार की गहरी पड़ताल करते हैं और बताते हैं कि यह राह चुनौतियों से भरी है.
कौल के विश्लेषण के अनुसार, आत्मनिर्भरता का नारा ज़मीनी हकीकत से मेल नहीं खाता. आंकड़े बताते हैं कि भारतीय अर्थव्यवस्था में मैन्युफैक्चरिंग की हिस्सेदारी लगातार घट रही है. 1995-96 में यह जीडीपी का 17.9 प्रतिशत थी, जो 2024-25 में घटकर 12.6 प्रतिशत पर आ गई है, जो पिछले साढ़े चार दशकों में सबसे निचला स्तर है. मैन्युफैक्चरिंग में काम करने वाले लोगों की संख्या भी 2018-19 में 12.1 प्रतिशत से घटकर 2023-24 में 11.4 प्रतिशत रह गई है. सरकार ने सितंबर 2019 में नई मैन्युफैक्चरिंग कंपनियों के लिए टैक्स घटाकर 15 प्रतिशत कर दिया था, लेकिन इसके बावजूद भारतीय कारोबारी इस सेक्टर में निवेश करने से बच रहे हैं. इसके पीछे कारोबार करने में आसानी की कमी, ज़मीन अधिग्रहण में मुश्किलें, कुशल श्रमिकों की कमी और स्टॉक मार्केट या रियल एस्टेट में आसानी से मिलने वाला मुनाफ़ा जैसे कई कारण हैं.
आत्मनिर्भरता की बहस का बड़ा हिस्सा हाई-टेक सेक्टर जैसे एयरोस्पेस इंजन, सेमीकंडक्टर चिप्स और रक्षा उपकरणों पर केंद्रित है. लेकिन इसके लिए बड़े पैमाने पर रिसर्च और डेवलपमेंट (आरएंडडी) में निवेश की ज़रूरत होती है, जिसमें भारतीय कॉर्पोरेट जगत बुरी तरह पिछड़ा हुआ है. भारत अपनी जीडीपी का सिर्फ़ 0.64 प्रतिशत आरएंडडी पर खर्च करता है, जबकि चीन 2.41 प्रतिशत और अमेरिका 3.47 प्रतिशत खर्च करता है. देश के कुल आरएंडडी खर्च में निजी क्षेत्र का योगदान महज़ 36.4 प्रतिशत है, जबकि चीन में यह 77 प्रतिशत है. भारत की बड़ी आईटी कंपनियां (TCS, Infosys आदि) 3.64 लाख करोड़ रुपये के कैश रिज़र्व पर बैठी हैं, लेकिन उन्होंने जोखिम भरे आरएंडडी में निवेश नहीं किया. उनकी व्यापारी मानसिकता उन्हें कम जोखिम वाले आईटी सर्विस के काम में ही खुश रखती है.
बातचीत की टेबल पर भी भारत की स्थिति बहुत मज़बूत नहीं है. 2024 में अमेरिका के कुल आयात में भारत का हिस्सा सिर्फ़ 2.7 प्रतिशत (87 बिलियन डॉलर) था,जबकि चीन का हिस्सा 13प्रतिशत (87 बिलियन डॉलर) था, जबकि चीन का हिस्सा 13 प्रतिशत (87बिलियन डॉलर) था,जबकि चीन का हिस्सा 13प्रतिशत (439 बिलियन डॉलर) से ज़्यादा था. चीन के पास सप्लाई चेन, दुर्लभ खनिज और 750 बिलियन डॉलर के अमेरिकी बॉन्ड्स की ताकत है, जो उसे मोल-भाव करने की क्षमता देती है. ऐसी कोई ताकत भारत के पास नहीं है. अमेरिका चाहता है कि भारत अपने कृषि और डेयरी सेक्टर को पूरी तरह से खोल दे, जो राजनीतिक और आर्थिक रूप से असंभव है क्योंकि भारत की 46.1 प्रतिशत आबादी खेती पर निर्भर है.
ऐसे में भारत के पास सीमित विकल्प हैं. छोटी अवधि में, भारत अमेरिका से ज़्यादा कच्चा तेल खरीदने या कुछ कृषि उत्पादों पर टैरिफ़ कम करने जैसे प्रस्ताव दे सकता है. मध्यम अवधि में, यह उम्मीद की जा सकती है कि अमेरिका में टैरिफ़ से महंगाई बढ़े और ट्रंप अपना फ़ैसला बदलें. लंबी अवधि का दांव ट्रंप के सत्ता से बाहर होने का इंतज़ार करना हो सकता है, लेकिन यह आर्थिक रूप से नुक़सानदेह होगा. कौल का निष्कर्ष है कि 'आत्मनिर्भरता' का नारा तब तक खोखला है, जब तक भारत अपनी संस्थागत कमज़ोरियों, कॉर्पोरेट जगत की जोखिम न लेने की आदत और आरएंडडी में कम निवेश जैसी बुनियादी समस्याओं को नहीं सुलझाता. असली बदलाव सिर्फ़ नारों से नहीं, बल्कि ज़मीनी स्तर पर सुधारों से आएगा.
ट्रम्प-पुतिन वार्ता की तैयारी, ज़ेलेंस्की की शर्त, यूक्रेन पर रूस के बढ़ते हमले

एक तरफ जहां अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प रूस और यूक्रेन के बीच शांति स्थापित करने के लिए ज़मीनों की अदला-बदली का एक विवादास्पद प्रस्ताव पेश कर रहे हैं, वहीं दूसरी ओर यूक्रेन के युद्ध के मैदान पर रूस ने अपने हमले और भी तेज़ कर दिए हैं. यूक्रेन के राष्ट्रपति वोलोदिमीर ज़ेलेंस्की ने ट्रम्प के इस विचार को तुरंत और दो टूक शब्दों में खारिज कर दिया है. उन्होंने साफ कहा कि यूक्रेन अपनी ज़मीन किसी भी कब्ज़ा करने वाले को तोहफे में नहीं देगा. इस पूरे घटनाक्रम ने कूटनीतिक और सैन्य मोर्चों पर तनाव को और बढ़ा दिया है. जहां ट्रम्प और पुतिन अलास्का में मिलने की तैयारी कर रहे हैं, वहीं यूक्रेन के सैनिक हर दिन एक ऐसे युद्ध का सामना कर रहे हैं जो और भी घातक और अनिश्चित होता जा रहा है.
शनिवार को अपने कीव स्थित कार्यालय से एक वीडियो संबोधन में, राष्ट्रपति ज़ेलेंस्की ने कहा, "यूक्रेन के खिलाफ लिया गया कोई भी फैसला, यूक्रेन के बिना लिया गया कोई भी फैसला, शांति के खिलाफ है. ये मरे हुए फैसले हैं; ये कभी काम नहीं करेंगे." ज़ेलेंस्की का यह कड़ा रुख ट्रम्प को नाराज़ कर सकता है, जिन्होंने रूस-यूक्रेन शांति समझौते को अपनी विदेश नीति का एक प्रमुख लक्ष्य बनाया है, भले ही इसके लिए कीव को नुकसानदेह शर्तें माननी पड़ें.
इससे पहले, राष्ट्रपति ट्रम्प ने शुक्रवार को घोषणा की थी कि वह युद्ध समाप्त करने के प्रयास में 15 अगस्त को अलास्का में रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन से मिलेंगे. उन्होंने संकेत दिया था कि इस शांति समझौते में "इलाकों की कुछ अदला-बदली" शामिल हो सकती है. ट्रम्प ने यह स्पष्ट नहीं किया कि किन क्षेत्रों की अदला-बदली हो सकती है, लेकिन चूंकि यूक्रेन के पास रूस की कोई ज़मीन नहीं है, इसका सीधा मतलब यह होगा कि यूक्रेन को अपने नियंत्रण वाले कुछ इलाके रूस को सौंपने होंगे.
यह प्रस्ताव यूक्रेन में व्यापक रूप से मौजूद उस भावना के खिलाफ है, जो युद्ध समाप्त करने के लिए किसी भी तरह की ज़मीनी रियायत का विरोध करती है. कीव इंटरनेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ सोशियोलॉजी के एक हालिया पोल के अनुसार, तीन-चौथाई से ज़्यादा यूक्रेनी नागरिक रूस को अपने नियंत्रण वाली ज़मीन देने के खिलाफ हैं. हालांकि, यूक्रेन के 2023 के असफल जवाबी हमले के बाद ज़मीनी रियायतों के लिए समर्थन कुछ बढ़ा है. अब लगभग 38% लोग इसे स्वीकार्य मानते हैं, जो दो साल पहले केवल 10% था. ज़ेलेंस्की ने यूक्रेन के संविधान का हवाला देते हुए कहा कि देश की सीमाएं अविभाज्य और अखंड हैं और इससे कोई पीछे नहीं हटेगा.
रूस लंबे समय से यूक्रेन के पूर्व और दक्षिण में चार क्षेत्रों को छोड़ने की मांग कर रहा है, जिन पर उसने 2022 के अंत में कब्जा करने का दावा किया था. लुहांस्क और दोनेत्स्क, जिन्हें डोनबास क्षेत्र के रूप में जाना जाता है, को छोड़ना यूक्रेन के लिए रणनीतिक रूप से विनाशकारी होगा. यह शहरों और औद्योगिक केंद्रों से समृद्ध क्षेत्र है और यहां यूक्रेन की मुख्य रक्षा पंक्ति भी मौजूद है. यूक्रेन की 72वीं ब्रिगेड के एक अधिकारी ने कहा, "इलाकों की अदला-बदली शांति नहीं है, यह दुश्मन के लिए एक नए हमले से पहले सांस लेने का मौका है. हम अपने लोगों के खून और कब्रों का सौदा नहीं करते."
एक तरफ जहां यह कूटनीतिक खींचतान चल रही है, वहीं ज़मीनी हकीकत और भी भयावह होती जा रही है. रूस ने यूक्रेन पर अपने हमले तेज़ कर दिए हैं और युद्ध के लिए नई रणनीति अपनाई है. सैन्य विशेषज्ञों के अनुसार, रूस अब लंबी दूरी के हमलों के साथ-साथ ड्रोन और छोटी सैन्य इकाइयों का इस्तेमाल कर रहा है ताकि यूक्रेनी सप्लाई लाइनों को तबाह किया जा सके.
पूर्वी यूक्रेन का पोस्क शहर इस समय रूस के निशाने पर है. मॉस्को ने यहां लगभग 110,000 सैनिक तैनात किए हैं और शहर पर लगातार हमले कर रहा है. हाल ही में, कुछ रूसी सैनिक पहली बार शहर में घुसने में कामयाब हुए और उन्होंने घात लगाकर हमले किए, जिसमें कम से-कम चार लोग मारे गए. युद्ध का स्वरूप भी पूरी तरह बदल चुका है. अब बख्तरबंद गाड़ियों की बड़ी लड़ाइयों की जगह छोटे-छोटे सैनिक समूह खाइयों और बेसमेंट से लड़ रहे हैं, जबकि ड्रोन आसमान से लगातार निगरानी कर रहे हैं. यह एक थका देने वाला युद्ध बन गया है.
यूक्रेन के पूर्व शीर्ष सैन्य कमांडर और अब ब्रिटेन में राजदूत वालेरी ज़ालुज़्नी ने हाल ही में इस नई हकीकत का कड़वा सच बयान किया. उन्होंने कहा, "अब फ्रंट लाइन मुख्य रूप से इसलिए बनाई गई है ताकि वहां लोग मारे जाएं." यह निराशा अग्रिम मोर्चे पर साफ दिखती है. कैप्टन दिमित्रो फिलातोव, जो फ्रंट के एक हिस्से की निगरानी करते हैं, दिन-रात ड्रोन वीडियो फीड देखते रहते हैं. उन्होंने एक दिन पहले ही एक हमले को रोकने के लिए भेजे गए अपने छह लोगों को खो दिया था. जब उनसे पूछा गया कि क्या उनके लोगों में अब भी उम्मीद बची है, तो उन्होंने पास से गुज़र रहे एक सैनिक से पूछा, "वासिल, क्या तुम्हारे पास उम्मीद है?" सैनिक ने हंसते हुए जवाब दिया, "नहीं."
चलते चलते
मेलानिया पर इतना ध्यान क्यों दिया जा रहा है?
जब अगले महीने प्रथम महिला मेलानिया ट्रम्प अपने पति, अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प के साथ ब्रिटेन की धरती पर क़दम रखेंगी, तो कैमरों के लेंस सिर्फ़ उनके कपड़ों या उनके रहस्यमयी हाव-भाव को क़ैद करने की होड़ में नहीं होंगे. इस बार, ब्रिटेन के शीर्ष राजनयिक और अधिकारी भी पूरी गंभीरता से उनकी हर एक गतिविधि पर नज़र रखेंगे. वजह साफ़ है: डोनाल्ड ट्रम्प के दूसरे कार्यकाल के छह महीनों के उथल-पुथल भरे सफ़र के बाद, व्हाइट हॉल के गलियारों में एक नई और हैरान करने वाली समझ ने जगह बना ली है. यह समझ है कि अगर राष्ट्रपति ट्रम्प को समझना है, या उनके फ़ैसलों पर असर डालना है, तो रास्ता व्हाइट हाउस के ओवल ऑफ़िस से नहीं, बल्कि प्रथम महिला के ज़रिए होकर जाता है.
द गार्डियन के लिए पैट्रिक विंटोर की एक विस्तृत रिपोर्ट इस बदलते हुए शक्ति संतुलन की परतों को खोलती है. रिपोर्ट के मुताबिक, ब्रिटिश अधिकारी अब यह मानने लगे हैं कि डोनाल्ड ट्रम्प पर अगर किसी एक व्यक्ति का सबसे गहरा और निर्णायक प्रभाव है, तो वह उनकी पत्नी मेलानिया ही हैं. एक वरिष्ठ सूत्र ने द गार्डियन को बताया, "ट्रम्प के क़रीबी लोग उन्हें सलाह दे सकते हैं, लेकिन आख़िर में सिर्फ़ वही (मेलानिया) मायने रखती हैं." यह धारणा केवल अटकलों पर आधारित नहीं है. इसके पीछे खुद राष्ट्रपति ट्रम्प के बयान और उनके हालिया फ़ैसले हैं, जो एक नई दिशा की ओर इशारा करते हैं.
इसके सबसे बड़े उदाहरण हाल के दो अंतरराष्ट्रीय संकटों में देखने को मिले. पहला, गाज़ा का मानवीय संकट. ट्रम्प ने सार्वजनिक रूप से स्वीकार किया कि यह मेलानिया ही थीं, जिन्होंने उनका ध्यान गाज़ा में भूख से मरते बच्चों की तरफ़ खींचा. ट्रम्प ने कहा, "मेलानिया को लगता है कि यह भयानक है. वह वही तस्वीरें देखती हैं जो आप और हम सब देखते हैं." यह महज़ एक पारिवारिक बातचीत नहीं थी. यह एक ऐसे मुद्दे पर ट्रम्प के रुख में नरमी का संकेत था, जिस पर उनका प्रशासन अब तक इज़राइल के साथ खड़ा नज़र आ रहा था. ट्रम्प ने यह भी कहा कि इन तस्वीरों को झूठा नहीं ठहराया जा सकता, जो ब्रिटिश राजनयिकों के लिए किसी जीत से कम नहीं था, क्योंकि वे लंबे समय से इस मुद्दे पर अमेरिका का ध्यान खींचने की कोशिश कर रहे थे.
दूसरा बड़ा उदाहरण रूस-यूक्रेन युद्ध और राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन को लेकर ट्रम्प के बदलते नज़रिए में दिखा. ट्रम्प ने कई मौकों पर बताया कि कैसे वह घर जाकर मेलानिया को पुतिन के साथ हुई "अद्भुत बातचीत" के बारे में बताते थे, और मेलानिया उन्हें ज़मीनी हक़ीक़त से रूबरू कराती थीं. वह कहती थीं, "अजीब है, क्योंकि उन्होंने अभी-अभी एक नर्सिंग होम पर बमबारी की है." मेलानिया की इन सीधी और तीखी टिप्पणियों ने ट्रम्प को यह सोचने पर मजबूर किया कि पुतिन शायद शांति के लिए उतने ईमानदार नहीं हैं, जितना वह दिखाते हैं. ट्रम्प ने यह तक कहा, "मैं उन्हें हत्यारा तो नहीं कहूंगा, लेकिन वह एक सख़्त आदमी हैं, यह सालों से साबित हुआ है."
यह सब उस मेलानिया ट्रम्प की छवि के बिल्कुल विपरीत है, जिसे दुनिया अब तक जानती आई है. उन्हें हमेशा एक बेहद निजी, शांत और राजनीति से लगभग पूरी तरह अलग रहने वाली शख़्सियत के तौर पर देखा गया. उनकी बेस्टसेलर आत्मकथा "मेलानिया" की भी आलोचकों ने यह कहकर आलोचना की थी कि यह "एक बेहद सतही और राजनीतिक रूप से असंबद्ध इंसान" को दर्शाती है. वह अक्सर व्हाइट हाउस से दूर, न्यूयॉर्क में अपने बेटे बैरन के साथ समय बिताती थीं. उनके दूसरे कार्यकाल की शुरुआत के बाद यह भी पता चला कि वह शायद ही कुछ हफ़्ते व्हाइट हाउस में रही हों. लेकिन अब ऐसा लगता है कि पर्दे के पीछे उनकी भूमिका कहीं ज़्यादा बड़ी और प्रभावशाली हो गई है.
उन्होंने खुद एक इंटरव्यू में इसकी झलक दी थी. उन्होंने कहा, "शायद कुछ लोग मुझे सिर्फ़ राष्ट्रपति की पत्नी के रूप में देखते हैं, लेकिन मैं अपने पैरों पर खड़ी हूं, मैं स्वतंत्र हूं. मेरे अपने विचार हैं. मेरा अपना 'हाँ' और 'नहीं' है. मैं हमेशा इस बात से सहमत नहीं होती कि मेरे पति क्या कह रहे हैं या कर रहे हैं, और यह ठीक है." उनकी यह स्वतंत्र सोच पहले भी दिखी है, जब उन्होंने सीमा पर प्रवासी बच्चों को उनके माता-पिता से अलग करने की नीति को "दिल तोड़ने वाला और अस्वीकार्य" बताया था.
राजनयिकों के लिए मेलानिया का यह बढ़ता प्रभाव एक दोधारी तलवार जैसा है. एक तरफ़, यह उम्मीद जगाता है कि व्हाइट हाउस में अब भी मानवीय दृष्टिकोण के लिए जगह है और कोई है जो ट्रम्प के आक्रामक और मनमौजी अंदाज़ पर लगाम लगा सकता है. लेकिन दूसरी तरफ़, यह बेहद निराशाजनक भी है, क्योंकि मेलानिया तक पहुंचना और उन्हें समझना लगभग नामुमकिन है. वह सार्वजनिक जीवन से दूर रहती हैं और किसी से मिलती-जुलती नहीं हैं.
यह स्थिति उस बड़ी समस्या का प्रतीक है जिसका सामना आज पश्चिमी देश कर रहे हैं. अमेरिकी विदेश विभाग को बजट कटौती ने अंदर से खोखला कर दिया है और सत्ता पूरी तरह से राष्ट्रपति ट्रम्प के व्यक्तिगत फ़ैसलों, उनकी सहज प्रवृत्तियों और उनकी अनौपचारिक बातचीत पर केंद्रित हो गई है. ऐसे में, राजनयिकों की पारंपरिक रणनीति, जो विदेश विभाग के साथ संबंधों पर आधारित होती थी, अब पूरी तरह से बेकार हो गई है. ब्रिटिश राजदूत लॉर्ड मैंडेलसन कहते हैं, "मैंने कभी भी ऐसी राजनीतिक व्यवस्था नहीं देखी जो एक व्यक्ति द्वारा इतनी ज़्यादा हावी हो." अब, राजनीतिक निगरानी टीमों को 24 घंटे काम करने वाले ऑपरेशन में बदला जा रहा है, ताकि ट्रम्प के लगातार आते बयानों, सोशल मीडिया पोस्ट्स और अचानक होने वाली प्रेस कॉन्फ़्रेंस पर नज़र रखी जा सके.
ऐसे में, यह एक बड़ी विडंबना है कि मेलानिया के प्रभाव को परखने का सबसे बड़ा मंच शायद शाही परिवार के साथ होने वाली मुलाक़ातें ही होंगी. क्या मेलानिया ब्रिटेन की "गुप्त सहयोगी" बन सकती हैं? क्या उनकी सलाह ट्रम्प के फ़ैसलों को एक नई, ज़्यादा मानवीय दिशा दे सकती है? इन सवालों का जवाब दुनिया भर के राजनयिक और नेता बड़ी बेसब्री से तलाश रहे हैं. व्हाइट हाउस की यह पहेली शायद दुनिया के सबसे शक्तिशाली व्यक्ति को समझने की नई कुंजी हो.
पाठकों से अपील :
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