10/12/2025: आर्थिक असमानता में भारत टॉप पर | छत्तीसगढ़ की बेचैन शांति | वंदे मातरम और महुआ मोइत्रा | एनआईए की कन्विक्शन तिकड़म | टिकैत, किसान और राजनेता | टीटीडी में अंगवस्त्रम घोटाला | अनंत अंबानी
‘हरकारा’ यानी हिंदी भाषियों के लिए क्यूरेटेड न्यूजलेटर. ज़रूरी ख़बरें और विश्लेषण. शोर कम, रोशनी ज़्यादा.
निधीश त्यागी, साथ में राजेश चतुर्वेदी, गौरव नौड़ियाल, फ़लक अफ़शां
आज की सुर्खियां
भारत में असमानता की खाई और गहरी: शीर्ष 1% अमीरों के पास देश की 40% संपत्ति.
छत्तीसगढ़ की बेचैन शांति: माओवाद पर ‘जीत’ के जश्न के बीच आदिवासियों पर मंडराता ‘खनन’ का खतरा.
इंडिगो की मनमानी पर हाईकोर्ट की केंद्र को फटकार: ‘पहले हालात बिगड़ने दिए, तब जाकर कार्रवाई की’.
‘सब ठीक’ होने के दावे हवा-हवाई: इंडिगो की 220 उड़ानें फिर रद्द, डीजीसीए ने सीईओ को किया तलब.
एनआईए के ‘100% कन्विक्शन’ का सच: लंबी हिरासत और दबाव के चलते बिना ट्रायल ‘दोषी’ बनने को मजबूर आरोपी.
‘मंच पर नेताओं को जगह देने से आंदोलन कमजोर होता है’: राकेश टिकैत की खरी-खरी.
एमपी में दलित के घर भोजन करने पर ‘पाप’ का फरमान, गंगा स्नान और भोज देकर करना पड़ा ‘प्रायश्चित’.
कोलकाता: गीता पाठ कार्यक्रम में चिकन पैटी बेचने पर वेंडर की पिटाई, वीडियो वायरल होने पर राजनीतिक घमासान.
तिरुमाला तिरुपति देवस्थानम में 55 करोड़ का ‘अंगवस्त्रम’ घोटाला, भगवान के नाम पर भी हेराफेरी.
मणिपुर: हिंसा के बाद पहली बार किसी मैतेई विधायक का कुकी गांव दौरा, संगठनों ने बताया ‘फोटो-ऑप’.
गुजरात ने 5 साल में रद्द किए 6.34 लाख राशन कार्ड: डेटा की सफाई या गरीबों का बहिष्कार?
गुजरात में मनरेगा का हाल भी बेहाल, 22 लाख से ज्यादा मजदूरों के नाम जॉब कार्ड से हटाए गए.
‘सावरकर के नाम पर पुरस्कार स्वीकार करने का सवाल ही नहीं’: शशि थरूर ने ठुकराया सम्मान.
‘वंतारा’ के लिए अनंत अंबानी सम्मानित, ग्लोबल ह्यूमैनिटेरियन अवार्ड पाने वाले पहले एशियाई बने.
वंदे मातरम पर बहस: महुआ मोइत्रा ने संसद में पूछा- ‘सुजलाम सुफलाम’ का दावा करने वाली सरकार ने हवा-पानी का क्या हाल किया?
भारत में आर्थिक असमानता दुनिया में सबसे ज़्यादा, शीर्ष 1% के पास 40% संपत्ति
स्क्रॉल की एक रिपोर्ट के अनुसार, भारत में सबसे अमीर 1% आबादी के पास देश की कुल संपत्ति का 40% हिस्सा है, जो इसे दुनिया के सबसे असमान देशों में से एक बनाता है. बुधवार को प्रकाशित खबर में बताया गया है कि 2026 की ‘वर्ल्ड इनइक्वालिटी रिपोर्ट’ (World Inequality Report) के निष्कर्ष काफी चिंताजनक हैं. वर्ल्ड इनइक्वालिटी लैब द्वारा प्रकाशित अध्ययन के अनुसार, हाल के वर्षों में भारत में असमानता में कमी का कोई संकेत नहीं मिला है.
रिपोर्ट में बताया गया है कि सबसे अमीर 10% लोग कुल संपत्ति का लगभग 65% हिस्सा रखते हैं. वहीं, आय असमानता (income inequality) के मामले में, शीर्ष 10% कमाने वालों को राष्ट्रीय आय का लगभग 58% प्राप्त होता है, जबकि नीचे की 50% आबादी को केवल 15% ही मिलता है. रिपोर्ट के मुताबिक, 2014 और 2024 के बीच शीर्ष 10% और निचले 50% के बीच आय का अंतर स्थिर बना रहा है. क्रय शक्ति समता (Purchasing Power Parity) के आधार पर भारत में औसत वार्षिक आय लगभग 6,200 यूरो या लगभग 6.49 लाख रुपये प्रति व्यक्ति है. रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि महिला श्रम भागीदारी 15.7% पर “बहुत कम” है और पिछले एक दशक में इसमें कोई सुधार नहीं हुआ है. रिपोर्ट में कहा गया है कि कुल मिलाकर, भारत में आय, धन और लिंग के आयामों में असमानता गहरी बनी हुई है.
वैश्विक स्तर पर, शीर्ष 0.001% लोग (जो 60,000 से भी कम करोड़पति हैं) मानवता के सबसे गरीब आधे हिस्से की कुल संपत्ति से तीन गुना अधिक संपत्ति के मालिक हैं. रिपोर्ट के प्रमुख लेखक रिकार्डो गोमेज़-करेरा ने कहा कि असमानता तब तक “खामोश रहती है जब तक कि यह अपमानजनक न हो जाए”.
बेचैन शांति: माओवाद पर ‘जीत’ के जश्न के बीच आदिवासियों पर मंडराता ‘विकास’ का खतरा
फ्रंटलाइन में प्रकाशित आशुतोष शर्मा की एक विस्तृत रिपोर्ट में छत्तीसगढ़ के 25 साल पूरे होने पर राज्य की स्थिति का गहरा विश्लेषण किया गया है. रिपोर्ट में बताया गया है कि जहाँ राज्य नक्सलवाद पर अपनी “जीत” का जश्न मना रहा है, वहीं खनन आधारित विकास अब आदिवासी समुदायों के लिए गोलीबारी से ज़्यादा बड़ा खतरा बन गया है. फ्रंटलाइन की इस रिपोर्ट के मुताबिक, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 1 नवंबर को राज्य के रजत जयंती समारोह में इसे “नए युग का सूर्योदय” कहा और दावा किया कि नक्सलवाद अब कुछ ही जिलों तक सिमट गया है. केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने भी घोषणा की कि भारत जल्द ही वामपंथी उग्रवाद से पूरी तरह मुक्त हो जाएगा.
हालांकि, जमीनी हकीकत इन दावों से अलग है. युवा आदिवासी सोशल मीडिया पर सड़कों के गड्ढों, खराब सार्वजनिक सेवाओं और जंगलों के कटने की तस्वीरें साझा कर रहे हैं. अंबिकापुर की 25 वर्षीय सोशल मीडिया इन्फ्लुएंसर आकांक्षा टोप्पो जैसे युवा सवाल उठा रहे हैं कि अगर शहरों की हालत खराब है, तो दूरदराज के इलाकों का क्या होगा. बस्तर में ग्रामीण बता रहे हैं कि उनके “पैतृक रक्षक” माने जाने वाले पेड़ों को अभूतपूर्व गति से काटा जा रहा है. रिपोर्ट में लोकेश नामक एक पूर्व माओवादी और अब डीआरजी (DRG) जवान की कहानी है, जो ‘शांति’ के बाद भी अपने भविष्य को लेकर अनिश्चित है.
रिपोर्ट में इस बात पर ज़ोर दिया गया है कि माओवादी कमांडर हिड़मा की मौत और उसके बाद हुए आत्मसमर्पणों को सुरक्षा बल एक बड़ी सफलता मान रहे हैं, लेकिन स्थानीय लोगों के बीच अविश्वास गहरा है. हसदेव क्षेत्र में पेड़ों की कटाई और खनन परियोजनाओं (विशेषकर अडानी समूह से जुड़ी) को लेकर भारी विरोध है. पूर्व मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ने आरोप लगाया है कि राज्य को “अडाणीगढ़” में बदला जा रहा है. सरगुजा और मैनपाट जैसे इलाकों में कोयला और बॉक्साइट खदानों के विस्तार के खिलाफ हिंसक विरोध प्रदर्शन हो रहे हैं. ग्रामीणों का आरोप है कि पेसा (PESA) कानून और ग्राम सभा की सहमति की अनदेखी की जा रही है. विशेषज्ञ चेतावनी दे रहे हैं कि अगर आदिवासी समुदायों के भूमि अधिकारों और संवैधानिक सुरक्षा को नज़रअंदाज़ कर सिर्फ संसाधनों के दोहन पर ज़ोर दिया गया, तो संघर्ष का स्वरूप बदल सकता है—यह अब जंगल में गोलीबारी नहीं, बल्कि कानूनी और विस्थापन की लड़ाई होगी.
इंडिगो मामले में हाईकोर्ट की केंद्र को फटकार, ‘पहले आपने स्थिति को बिगड़ने दिया, उसके बाद कार्रवाई की’
इधर, दिल्ली उच्च न्यायालय ने बुधवार को इंडिगो एयरलाइन की उड़ानों के कारण हुई अव्यवस्था को रोकने में विफल रहने पर केंद्र सरकार की आलोचना की. मुख्य न्यायाधीश देवेंद्र कुमार उपाध्याय और न्यायमूर्ति तुषार राव गेडेला की खंडपीठ ने पूछा कि क्या सरकार इंडिगो के खिलाफ कार्रवाई करने में ‘असहाय’ थी? खंडपीठ ने टिप्पणी की कि सरकार ने तभी हस्तक्षेप किया जब हवाई यात्रा की स्थिति बदतर हो गई.
“द न्यू इंडियन एक्सप्रेस” के मुताबिक, न्यायालय ने पूछा, “आपने स्थिति को बिगड़ने दिया और उसके बाद ही आपने कार्रवाई की. आपने यह सब क्यों होने दिया?” न्यायालय ने यह भी पूछा कि अन्य एयरलाइनें इस संकट की स्थिति का फायदा कैसे उठा सकीं और यात्रियों से टिकट के लिए भारी भरकम शुल्क क्यों वसूला.
“जो टिकट ₹5,000 में उपलब्ध था, उसकी कीमतें ₹30,000 से ₹35,000 तक पहुंच गईं. अगर कोई संकट था, तो अन्य एयरलाइनों को फायदा उठाने की अनुमति कैसे दी जा सकती थी?” “यह (टिकट की कीमत) ₹35,000 और ₹39,000 तक कैसे जा सकती है? अन्य एयरलाइनों ने शुल्क लेना कैसे शुरू कर दिया?” खंडपीठ ने पूछा.
खंडपीठ ने फंसे हुए यात्रियों को हुई परेशानी और उत्पीड़न के अलावा कहा कि सवाल देश की अर्थव्यवस्था को हुए नुकसान का भी है. खंडपीठ ने निर्देश दिया कि अगली सुनवाई की तारीख, 22 जनवरी तक, यदि किसी समिति द्वारा शुरू की गई जांच पूरी हो जाती है, तो उसकी रिपोर्ट बंद लिफाफे में न्यायालय को प्रस्तुत की जानी चाहिए.
सरकार के वकील ने कहा कि चालक दल के सदस्यों के उड़ान ड्यूटी घंटों सहित, अधिकारियों द्वारा समय-समय पर जारी किए गए दिशानिर्देशों का पालन नहीं करने के कारण संकट बढ़ गया था. न्यायालय ने एयरलाइन को फंसे हुए यात्रियों को मुआवजा देने की व्यवस्था करने का निर्देश दिया, न केवल उड़ानों के रद्द होने के लिए, बल्कि उन्हें हुई अन्य परेशानियों के लिए भी. न्यायालय ने अधिकारियों को यह सुनिश्चित करने का भी निर्देश दिया कि स्थिति जल्द ही सामान्य हो जाए और सभी एयरलाइनें पर्याप्त संख्या में पायलटों को नियुक्त करें.
डीजीसीए ने इंडिगो के सीईओ को तलब किया, आज भी 220 फ्लाइट्स रद्द हुईं
भले ही इंडिगो के सीईओ पीटर एल्बर्स ने दावा किया था कि एयरलाइन का परिचालन “पटरी पर लौट आया है”, लेकिन इंडिगो ने बुधवार को देश के तीन प्रमुख हवाई अड्डों पर लगभग 220 उड़ानें रद्द कर दीं.
‘पीटीआई’ की एक रिपोर्ट के अनुसार, एयरलाइन ने दिल्ली हवाई अड्डे पर 137 और मुंबई हवाई अड्डे पर 21 सेवाएं रद्द कर दीं. जबकि, बेंगलुरु हवाई अड्डे पर 61 उड़ानें रद्द कीं, जिनमें 35 आगमन और 26 प्रस्थान शामिल थे.
मंगलवार को, एल्बर्स ने दावा किया था कि एयरलाइन “फिर से अपने पैरों पर खड़ी हो गई है” और इसका परिचालन “स्थिर” है, भले ही सरकार ने इंडिगो के शीतकालीन उड़ान कार्यक्रम में 10 प्रतिशत या लगभग 2,300 स्वीकृत उड़ानों में से लगभग 230 उड़ानों की कटौती की थी. इंडिगो ने अकेले मंगलवार को छह महानगरों से 460 उड़ानें रद्द कर दी थीं.
इस बीच विमानन नियामक डीजीसीए ने पीटर एल्बर्स को एयरलाइन के हालिया परिचालन संकट पर विस्तृत ब्रीफिंग की मांग करते हुए, गुरुवार को दोपहर 3 बजे अपने मुख्यालय में उपस्थित होने के लिए बुलाया है.
बुधवार को जारी इस निर्देश में एल्बर्स और प्रमुख विभागीय प्रमुखों को उड़ान बहाली के प्रयासों, पायलट और केबिन क्रू की उपलब्धता, भर्ती योजनाओं, रद्दीकरण और धनवापसी (रिफंड) पर व्यापक डेटा प्रस्तुत करने की आवश्यकता है.
डीजीसीए ने भी संकट के मूल कारणों की पहचान करने के लिए चार सदस्यीय जांच समिति का गठन किया है. यह जांच पैनल इंडिगो की जनशक्ति नियोजन, क्रू रोस्टरिंग प्रथाओं और पायलटों के लिए अद्यतन ड्यूटी-समय और आराम मानदंडों को लागू करने की एयरलाइन की तत्परता की बारीकी से जांच करेगा.
एनआईए का ‘परफेक्ट’ रिकॉर्ड: कैसे लंबी हिरासत और दबाव के कारण आरोपी ‘दोषी’ होने की दलील देने को मजबूर हो रहे हैं
केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह द्वारा संसद में राष्ट्रीय जांच एजेंसी (एनआईए) की 100% दोष सिद्धि दर (conviction rate) का दावा करने के बाद, ‘द वायर’ की एक जांच ने इसके पीछे की एक अलग तस्वीर उजागर की है. जांच में पाया गया है कि लंबी हिरासत, ज़मानत मिलने में अत्यधिक मुश्किल और जांचकर्ताओं का दबाव दर्जनों आरोपियों को ट्रायल शुरू होने से पहले ही ‘दोषी’ (Guilty) होने की दलील देने के लिए मजबूर कर रहा है. इनमें से ज़्यादातर आरोपी मुस्लिम हैं. ‘द वायर’ की ‘द फोर्स्ड गिल्ट प्रोजेक्ट’ सीरीज़ के तहत यह खुलासा किया गया है.
दिसंबर 2024 में एनआईए ने दावा किया था कि उसने उस साल 100% कन्विक्शन रेट हासिल किया है. लेकिन सवाल यह है कि क्या यह सफलता निष्पक्ष जांच का नतीजा है या इसके पीछे कोई परेशान करने वाला पैटर्न है? 2008 के मुंबई हमलों के बाद गठित एनआईए को UAPA के तहत असीमित अधिकार मिले हैं. 2019 में हुए संशोधनों ने इसे और ताकतवर बना दिया. सुप्रीम कोर्ट के ‘वताली’ जजमेंट (2019) के बाद UAPA के तहत ज़मानत मिलना लगभग असंभव हो गया है. इसका मतलब है कि एक बार जेल जाने के बाद आरोपी को कई सालों तक बिना ट्रायल के जेल में रहना पड़ता है.
‘द वायर’ द्वारा एनआईए के डेटा (सितंबर 2025 तक) के विश्लेषण से पता चला है कि एजेंसी ने अपने 15 सालों में दर्ज 633 मामलों में से केवल 133 में फैसले सुनाए हैं. इन 133 मामलों में से, एजेंसी ने केवल 79 मामलों में ही पूरा ट्रायल (गवाहों और सबूतों के साथ) चलाया. बाकी 54 मामलों में आरोपियों ने खुद को ‘दोषी’ मान लिया (pleaded guilty). यानी एजेंसी की 40% से ज़्यादा जीत ‘दोषी होने की दलील’ के ज़रिए हासिल हुई. इन 54 मामलों में से 49 मामलों में आरोपी मुस्लिम थे.
जांच में सामने आया है कि कई आरोपी अपराध स्वीकार इसलिए नहीं करते क्योंकि उन्होंने अपराध किया है, बल्कि इसलिए करते हैं ताकि वे उस अनिश्चितकालीन कानूनी प्रक्रिया और जेल से बाहर निकल सकें. कई मामलों में उन्हें उतनी ही सज़ा दी जाती है जितनी वे पहले ही जेल में काट चुके होते हैं. हालांकि, एनआईए का कहना है कि आरोपी के गुनाह कबूलने में अभियोजन पक्ष की कोई भूमिका नहीं होती और यह कोर्ट और आरोपी के बीच का मामला है. वकीलों का कहना है कि यह ‘प्ली बार्गेनिंग’ (सज़ा कम करने का समझौता) नहीं है, क्योंकि UAPA जैसे गंभीर अपराधों में इसकी अनुमति नहीं है, बल्कि यह हताशा में उठाया गया कदम है.
हरकारा डीपडाइव
राकेश टिकैत : पॉलिटिकल नेता जनांदोलन को कमज़ोर करते हैं.
किसान आंदोलन को 5 साल हो गए. तीन कृषि क़ानून वापस तो हो गए, लेकिन क्या किसानों की परेशानियाँ सच में कम हुईं? हरकारा डीप डाइव के इस एपिसोड में किसान आंदोलन के सबसे बड़े चेहरों में से एक राकेश टिकैत ने निधीश त्यागी से बात चीत की.
इस इंटरव्यू में टिकैत साफ़-साफ़ बताते हैं, “सरकार ने किसानों से आख़िरी बार 22 जनवरी 2021 को बात की थी, उसके बाद 5 साल से कोई संवाद नहीं हुआ. क़ानून वापस ज़रूर हुए, लेकिन प्राइवेट मंडियाँ, कम दाम और ज़मीन छीनने की कोशिशें अब भी जारी हैं. बिहार के किसानों को अकेले एमएसपी से नीचे फसल बेचने पर करीब ₹1 लाख करोड़ से ज़्यादा का नुक़सान होने की बात वे सामने रखते हैं.
किसान आंदोलन के दौरान 700 से ज़्यादा किसानों की मौत और उसके बाद के सालों में लगभग 47,000 किसान व किसान मज़दूर आत्महत्याएँ, इस पूरे दर्द का ज़िक्र भी आता है.
टिकैत ये भी बताते हैं , अगर आंदोलन को सफल रखना है, तो उसे सीधे पार्टी राजनीति से दूर रखना होगा.
मंच पर पॉलिटिकल नेताओं को जगह देने से आंदोलन कमज़ोर होता है.’ कर्नाटक, छत्तीसगढ़, बिहार, महाराष्ट्र, राजस्थान जैसे राज्यों के उदाहरणों से वे बताते हैं कि कहाँ किसान संगठन मज़बूत हैं और कहाँ कमज़ोर हैं. नौजवानों के लिए टिकैत का सीधा संदेश है: “कोई भी काम करो, लेकिन ज़मीन मत बेचो. खेत तुम्हें अनाज, दूध और सहारा देते हैं – ये तुम्हारा एसेट है, बोझ नहीं।”
इस बातचीत में आप सुनेंगे: किसान आंदोलन की “मास्टरक्लास” – ये आंदोलन कैसे खड़ा हुआ और क्यों सफल हुआ, MSP गारंटी क़ानून, प्राइवेट मंडियाँ और पूँजीवाद की राजनीति पर टिकैत की साफ़ राय
क्यों वे कहते हैं , “हमारा हल बेईमान नहीं है, दिल्ली की कलम बेईमान है”
सुनिये किसान आंदोलन के मुख्य चेहरे राकेश टिकैत से निधीश त्यागी की बातचीत.
दलित के घर भोजन करने पर ‘बहिष्कार’ का फरमान, गंगा में स्नान कर ‘पाप’ का प्रायश्चित करना पड़ा
मध्यप्रदेश के रायसेन जिले के एक व्यक्ति ने आरोप लगाया है कि एक दलित परिवार के घर मृत्यु के बाद के अनुष्ठान के तहत भोजन करने पर उनके ग्राम पंचायत ने उनके और उनके परिवार के खिलाफ सामाजिक बहिष्कार का आदेश दिया है, जिसके बाद अधिकारियों ने जांच शुरू कर दी है. यह घटना जिला मुख्यालय से लगभग 100 किलोमीटर दूर उदयपुरा के पिपरिया पुआरिया गांव में करीब एक महीने पहले हुई थी और मंगलवार को मामले की “जन सुनवाई” के दौरान सामने आई.
कथित तौर पर ग्राम पंचायत ने दलित व्यक्ति के घर खाना खाने पर उच्च जाति समुदाय के तीन सदस्यों के सामाजिक बहिष्कार का आदेश दिया था, और अलगाव से बचने के लिए उन पर कुछ शर्तें रखी थीं, जिसमें भोज का आयोजन करना शामिल था. एक पुलिस अधिकारी ने बताया कि उन तीन पुरुषों में से दो ने पंचायत की शर्तों को स्वीकार कर लिया और ‘प्रायश्चित’ किया, लेकिन उनमें से एक - भरत सिंह धाकड़ - ने पुलिस से संपर्क किया और ग्राम निकाय के खिलाफ शिकायत दर्ज कराई, आरोप लगाया कि उनके और उनके परिवार के सदस्यों के साथ “अछूतों” जैसा व्यवहार किया जा रहा है और उन्हें सामाजिक कार्यक्रमों में भाग लेने से रोका जा रहा है.
उदयपुरा मध्यप्रदेश के स्वास्थ्य राज्य मंत्री नरेंद्र शिवाजी पटेल का विधानसभा क्षेत्र है. उदयपुरा तहसीलदार दिनेश बारगाले ने कहा कि धाकड़ ने मंगलवार को जन सुनवाई के दौरान कलेक्टर को एक आवेदन दिया, जिसमें पंचायत पर सामाजिक बहिष्कार का आदेश जारी करने का आरोप लगाया गया. उन्होंने बताया कि धाकड़ ने ये आरोप संबंधित ग्राम पंचायत के सरपंच, उप सरपंच और पंचों के खिलाफ लगाए हैं. बारगाले ने कहा, “मामले की जांच की जा रही है और यदि आरोप सही पाए जाते हैं, तो इसमें शामिल लोगों के खिलाफ कानूनी कार्रवाई की जाएगी.” धाकड़ ने बताया कि उन्होंने और उनके साथी ग्राम पंचायत सहायक सचिव मनोज पटेल और शिक्षक सत्येंद्र सिंह रघुवंशी ने एक ‘श्राद्ध’ समारोह के हिस्से के रूप में गांव में एक दलित परिवार के घर भोजन किया था.
उन्होंने कहा, लेकिन घटना के बाद, पंचायत ने एक प्रस्ताव पारित किया जिसमें घोषणा की गई कि दलित के घर खाना खाना “गौ हत्या से भी बड़ा पाप” है और जो लोग इसमें शामिल थे उन्हें गंगा नदी में स्नान करके और गांव में भोज देकर खुद को शुद्ध करना होगा. धाकड़ ने दावा किया कि पंचायत के दबाव में, पटेल और रघुवंशी ने गंगा नदी में स्नान किया और गांव में भोज का आयोजन किया, लेकिन उन्होंने अनुपालन करने से इनकार कर दिया. इसके बाद, उनका और उनके परिवार का सामाजिक बहिष्कार कर दिया गया और उन्हें सभी कार्यक्रमों से बाहर कर दिया गया.
धाकड़ ने कहा कि उनके साथ अछूत जैसा व्यवहार किया जा रहा है और उन्हें मंदिर में प्रवेश करने से रोक दिया गया है. उन्होंने यह भी दावा किया कि जब उन्होंने पंचायत के सामने यह मुद्दा उठाया, तो उन्हें पापों से मुक्ति पाने के लिए सिर मुंडवाने और अपने जीवित पिता के लिए “पिंड दान” (मृत्यु के बाद का अनुष्ठान) करने के लिए कहा गया.
सरपंच भगवान सिंह पटेल ने आरोपों को निराधार बताया. अस्पृश्यता जैसे आरोप सही नहीं हैं. सरपंच ने कहा कि विधायक और राज्य मंत्री नरेंद्र शिवाजी पटेल भी आए और लोगों को समझाने की कोशिश की, लेकिन अगर वे नहीं सुन रहे हैं, तो वह क्या कर सकते हैं?
त्रिवेणी संगम में स्नान कर भोज देना पड़ा
धाकड़ के साथ दलित के घर भोजन करने वाले शिक्षक सत्येंद्र सिंह रघुवंशी से जब इस बारे में संपर्क किया गया, तो उन्होंने कहा कि उन्हें अब किसी बहिष्कार का सामना नहीं करना पड़ रहा है. उन्होंने कहा कि वह पिछले 16 वर्षों से गांव के सरकारी माध्यमिक विद्यालय में कार्यरत हैं और जिस दलित व्यक्ति के घर वह भोजन करने गए थे, वह उनका दोस्त रहा है. उन्होंने कहा, “मैं जाति व्यवस्था में विश्वास नहीं करता, इसलिए मैं श्राद्ध समारोह के दौरान अपने दोस्त संतोष मेहतर के घर खाना खाने गया था. किसी ने घटना का वीडियो बनाकर स्थानीय स्तर पर प्रसारित कर दिया, जिससे विवाद खड़ा हो गया.” ‘पीटीआई’ से बात करते हुए, रघुवंशी ने स्वीकार किया कि पंचायत के आदेश के अनुसार, वह इलाहाबाद में अपने गुरु के आश्रम गए और नदियों के संगम में स्नान करने के बाद वापस आए. उन्होंने कहा, “मुझे किसी से कोई शिकायत नहीं है.”
कोलकाता: गीता पाठ कार्यक्रम में चिकन पैटी बेचने पर स्ट्रीट वेंडर की पिटाई, वीडियो वायरल होने पर राजनीतिक घमासान
कोलकाता के ब्रिगेड परेड ग्राउंड में रविवार (7 दिसंबर) को आयोजित “लक्ष कंठ गीता पाठ” कार्यक्रम के दौरान एक स्ट्रीट फूड वेंडर की कथित तौर पर पिटाई का मामला सामने आया है. हुगली जिले के आरामबाग निवासी शेख रजाउल, जो पिछले 20 सालों से कोलकाता में पैटी बेच रहे हैं, को भीड़ ने उस वक्त निशाना बनाया जब पता चला कि वे चिकन पैटी बेच रहे थे. इस घटना का वीडियो वायरल होने के बाद सोशल मीडिया पर गुस्सा फूट पड़ा है और कलकत्ता उच्च न्यायालय में स्वतः संज्ञान लेने के लिए याचिका दायर की गई है.
शेख रजाउल ने बताया, “कुछ लोगों ने मुझसे पूछा कि क्या मेरे पास चिकन पैटी है. जब मैंने हाँ कहा, तो उन्होंने मुझे पीटना शुरू कर दिया. उन्होंने मेरा नाम पूछा. मेरा नाम सुनने के बाद, मार-पिटाई और बढ़ गई. उन्होंने मुझसे कान पकड़कर उठक-बैठक भी करवाई.” रजाउल के मुताबिक, उनका 3,000 रुपये का सामान नष्ट कर दिया गया, जो उनकी हफ्ते भर की कमाई से ज़्यादा था. इस घटना के बाद उनका परिवार बेहद डरा हुआ है. उनके साथी विक्रेताओं का कहना है कि कई अन्य लोगों के साथ भी बदसलूकी की गई.
इस घटना ने पश्चिम बंगाल में खान-पान और संस्कृति को लेकर राजनीतिक बहस छेड़ दी है. माकपा (CPI-M) नेता और वकील सायन बंदोपाध्याय ने कार्यवाहक मुख्य न्यायाधीश को पत्र लिखकर इसे ‘मॉब लिंचिंग’ के समान बताया है और पुलिस में FIR भी दर्ज कराई है. पुलिस ने शिकायत दर्ज कर ली है लेकिन अभी तक कोई गिरफ्तारी नहीं हुई है. सोशल मीडिया पर दावा किया जा रहा है कि आरोपी एक बीजेपी पदाधिकारी है, हालांकि इसकी पुष्टि नहीं हुई है. तृणमूल कांग्रेस (TMC) ने भी इस घटना की निंदा की है और बीजेपी पर बंगाल की संस्कृति पर हमला करने का आरोप लगाया है. वहीं, रजाउल को अब जनता से समर्थन भी मिल रहा है, जिससे उन्हें वापस काम पर लौटने की हिम्मत मिल रही है.
तिरुमाला तिरुपति देवस्थानम में 54.95 करोड़ का ‘अंगवस्त्रम’ घोटाला, जांच के आदेश
विवादों में रहने वाला तिरुमाला तिरुपति देवस्थानम (टीटीडी) एक और बड़े घोटाले में फंस गया है. यह मामला भगवान वेंकटेश्वर के मंदिर में आने वाले वीआईपी अतिथियों को सम्मान स्वरूप दिए जाने वाले ‘अंगवस्त्रम’ (शॉल) की आपूर्ति से जुड़ा है. 2015 से 2025 के बीच टेंडर नियमों का उल्लंघन करते हुए घटिया गुणवत्ता वाले रेशमी कपड़े की आपूर्ति का आरोप लगा है. जांच में पता चला है कि शुद्ध रेशम के नाम पर घटिया दुपट्टे पास किए गए, जिससे खरीद प्रक्रिया में जानबूझकर की गई हेराफेरी का संकेत मिलता है.
टीटीडी के चेयरमैन बी.आर. नायडू ने आरोपों को गंभीरता से लेते हुए विजिलेंस जांच के आदेश दिए थे. अधिकारियों ने पाया कि सामग्री टेंडर की बुनियादी शर्तों को भी पूरा नहीं करती थी. नमूनों को सत्यापन के लिए केवल एक ही संस्थान (कांचीपुरम) भेजा जाता था, जो संदिग्ध है. जब नए अधिकारियों ने नमूनों को बेंगलुरु और धर्मावरम में सेंट्रल सिल्क बोर्ड की प्रयोगशालाओं में भेजा, तो नतीजे चौंकाने वाले थे. सामग्री न केवल घटिया थी, बल्कि उन पर लगे होलोग्राम भी नकली थे और शॉल पर अनिवार्य रूप से होने वाले पारंपरिक चिह्न (शंख, चक्र और नामम) भी गायब थे.
जांच में यह भी सामने आया है कि पिछले एक दशक से तिरुपति जिले की एक ही संस्था इन शॉलों की आपूर्ति कर रही थी. इस पूरे घोटाले में लगभग 54.95 करोड़ रुपये की राशि शामिल बताई जा रही है. TTD ट्रस्ट बोर्ड ने इस मामले की विस्तृत जांच के लिए एंटी-करप्शन ब्यूरो (ACB) के महानिदेशक से अनुरोध करने का प्रस्ताव पारित किया है. साथ ही, खरीद विभाग से जुड़े एक कर्मचारी का तबादला कर दिया गया है. TTD अब भविष्य में उच्च गुणवत्ता वाले रेशम की आपूर्ति के लिए तमिलनाडु को-ऑपटेक्स (Co-optex) के साथ बातचीत कर रहा है.
मणिपुर: हिंसा के बाद पहली बार किसी मैतेई विधायक ने किया कुकी गांवों का दौरा, संगठनों ने बताया ‘फोटो-ऑप’
मणिपुर में जारी जातीय संघर्ष के बीच, एक महत्वपूर्ण घटनाक्रम में भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) के विधायक और पूर्व स्पीकर युमनाम खेमचंद सिंह ने सोमवार (8 दिसंबर, 2025) को दो कुकी-ज़ो गांवों का दौरा किया. मई 2023 में हिंसा भड़कने के बाद से वे पहले ऐसे राजनीतिक नेता हैं, जो मैतेई समुदाय से होने के बावजूद विरोधी समुदाय के क्षेत्र में गए. इसे राज्य में विश्वास बहाली के उपाय के रूप में देखा जा रहा है.
विधायक सिंह ने उखरुल और कामजोंग जिलों के लिटन और चसाद गांवों का दौरा किया. उन्होंने लिटन सरेखोंग बैपटिस्ट चर्च में एक कुकी राहत शिविर के निवासियों से मुलाकात की और उनकी समस्याएं सुनीं. उन्होंने ग्रामीणों से कहा, “क्रिसमस आ रहा है, हमें शांति की वापसी के लिए प्रार्थना करनी चाहिए. संघर्ष दुनिया के हर हिस्से में होता है, लेकिन इसे क्षेत्र की प्रगति में बाधा नहीं बनने देना चाहिए.” नागा नेता होपिंगसन शिमरे ने विधायक के साहस की सराहना की है.
हालांकि, कुकी संगठनों ने इस दौरे की आलोचना की है. कुकी इनपी उखरुल और अन्य संगठनों ने एक संयुक्त बयान में इसे एक “बिना बुलावे का पड़ाव” और “फोटो-ऑप” (photo-op) करार दिया. उनका आरोप है कि विधायक सुबह 9:30 बजे के बाद आए जब पुरुष काम पर चले गए थे, और उन्होंने केवल बच्चों और महिलाओं के साथ तस्वीरें खिंचवाईं ताकि यह दिखाया जा सके कि शांति बहाल हो गई है. उन्होंने इसे अवसरवादी कार्रवाई बताया है. बता दें कि जातीय हिंसा में अब तक 260 से अधिक लोगों की जान जा चुकी है और 62,000 से अधिक लोग विस्थापित हुए हैं.
गुजरात ने पांच वर्षों में 6.34 लाख राशन कार्ड रद्द किए: डेटा की सफाई या मौन बहिष्करण?
बुधवार को लोकसभा में एक ताजा खुलासे ने गुजरात के खाद्य सुरक्षा ढांचे को गहन जांच के दायरे में ला दिया है. खुलासे के अनुसार, राज्य में 75,17,392 सक्रिय राशन कार्ड हैं, लेकिन यह संख्या पिछले पांच वर्षों में विलोपन (निरस्तीकरण) की लगातार शिकार हुई है.
कुल मिलाकर, गुजरात ने 2020 और अक्टूबर 2025 के बीच 6.34 लाख राशन कार्ड हटा दिए हैं, जिससे उसकी लाभार्थी सूची में निरंतर बदलाव सामने आया है. ये विलोपन एक चल रहे सत्यापन अभियान का संकेत देते हैं, जिसने लाभार्थी की पहचान, डेटा सटीकता और प्रशासनिक जवाबदेही पर गंभीर सवाल खड़े किए हैं.
दिलीप सिंह क्षत्रिय की रिपोर्ट है कि 2020 में 47,936 विलोपनों के साथ जो एक नियमित सुधार के रूप में शुरू हुआ, वह 2021 में नाटकीय रूप से बढ़कर 2,19,151 हो गया, जिससे तुरंत यह सवाल उठने लगा कि वास्तव में क्या हटाया जा रहा था.
2022 में 1,32,519, 2023 में 1,35,362 और 2024 में 30,889 विलोपन ने दिखाया कि यह छंटनी एक संरचनात्मक अभ्यास बन गई थी. अक्टूबर 2025 तक, 69,102 कार्ड पहले ही हटाए जा चुके थे.
छह वर्षों में गुजरात ने अपनी सूचियों से कुल 6.34 लाख राशन कार्ड हटा दिए हैं, जिससे यह स्पष्ट है कि यह कोई एक बार का सफाई अभियान नहीं था. 2021 की बढ़ोतरी सबसे बड़ी वार्षिक छलांग थी, लेकिन 2022 और 2023 में 1.3 लाख से अधिक विलोपन ने दिखाया कि यह छंटनी एक संरचनात्मक अभ्यास बन गई थी. प्रत्येक वर्ष का आंकड़ा अगले वर्ष में जुड़ता जाता है, जिससे यह महत्वपूर्ण सवाल उठता है कि क्या गुजरात में व्यवस्थागत सुधार किया जा रहा है या यह प्रशासनिक विसंगतियों और संभावित मौन बहिष्करण का संकेत है.
केंद्र ने इस मामले में राज्यों/केंद्र शासित प्रदेशों पर जिम्मेदारी डालते हुए संसद में दोहराया कि एनएफएसए लाभार्थी सूचियों की पहचान और प्रबंधन पूरी तरह से राज्य सरकारों के दायरे में आता है. यह स्पष्टीकरण जवाबदेही के लेंस को सीधे गुजरात के सत्यापन तंत्र पर केंद्रित करता है, जबकि केंद्र सरकार को परिचालन निर्णयों से दूर करता है. आधिकारिक स्पष्टीकरण के अनुसार, विलोपन के कारण डुप्लिकेट प्रविष्टियां, अपात्र लाभार्थी, बेमेल ई-केवाईसी, दर्ज की गई मौतें और स्थायी प्रवासन थे.
महत्वपूर्ण रूप से, सरकार ने जोर देकर कहा कि ई-केवाईसी या आधार प्रमाणीकरण में विफल रहने के कारण अकेले किसी भी राशन कार्ड को रद्द नहीं किया गया, जो डिजिटल बहिष्करण की चिंताओं को खारिज करता है. हालांकि, सरकार ने यह भी दावा किया कि गलत विलोपन की कोई औपचारिक शिकायत प्राप्त नहीं हुई है. फिर भी, बढ़ते हुए विलोपनों के बीच शिकायतों की अनुपस्थिति अपने आप में एक सवाल उठाती है: क्या यह कुशल शासन को दर्शाता है या कमजोर परिवारों के बीच शिकायत निवारण तंत्र तक सीमित पहुंच को?
क्षत्रिय लिखते हैं कि जैसे-जैसे आंकड़े साल दर साल जमा होते जा रहे हैं, उभरती हुई कहानी तीव्र और विवादास्पद है: एक व्यापक डेटा सफाई अभियान, जिसे गुजरात आवश्यक रखरखाव के रूप में प्रस्तुत करता है, लेकिन आलोचकों को डर है कि यह चुपचाप उन लोगों को बाहर कर रहा होगा, जिन्हें सबसे अधिक समर्थन की आवश्यकता है.
मनरेगा में भी 22 लाख से ज्यादा मजदूरों को जॉब कार्ड से हटाया
इतना ही नहीं लोकसभा में पेश किए गए नए आधिकारिक आंकड़ों ने गुजरात में मनरेगा के तहत बड़े पैमाने पर मजदूरों के विलोपन (नाम हटाने) की एक खतरनाक तस्वीर पेश की है. 2019-20 से 2024-25 तक, 7.49 लाख से अधिक जॉब कार्ड हटाए गए, और लगभग 22.68 लाख श्रमिकों को जॉब कार्ड से हटाया गया, जिससे पारदर्शिता, पात्रता जांच और राज्य में ग्रामीण आजीविका सहायता के भविष्य पर गंभीर सवाल उठ रहे हैं.
“द न्यू इंडियन एक्सप्रेस” के अनुसार, लोकसभा में पेश इस नए डेटा ने गुजरात में महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना (मनरेगा) के कार्यान्वयन में पारदर्शिता और जवाबदेही पर एक तीखी बहस छेड़ दी है. केंद्रीय ग्रामीण विकास मंत्रालय ने विलोपन की एक बड़ी और तेज होती प्रवृत्ति की सूचना दी है, जो राज्य में ग्रामीण रोजगार की जमीनी हकीकत को बदल रही है.
चालू वित्तीय वर्ष 2024-25 में भी विलोपन की प्रवृत्ति जारी है, जिसमें 53,616 जॉब कार्ड पहले ही हटाए जा चुके हैं, जो संकेत देता है कि यह प्रक्रिया धीमी होने से बहुत दूर है. लेकिन केवल जॉब कार्ड ही चिंता का विषय नहीं हैं; श्रमिकों के विलोपन का डेटा तो और भी चौंकाने वाला है. डेटा के अनुसार, 2019-20 और 2023-24 के बीच श्रमिकों के विलोपन में छह गुना से अधिक की वृद्धि हुई, जिससे एक ऐसा पैटर्न बनता है जिसके लिए गहन जांच की आवश्यकता है. यहां तक कि 10 अक्टूबर, 2025 और 14 नवंबर, 2025 के बीच की छोटी समीक्षा अवधि में भी, गुजरात ने 5,433 श्रमिकों को हटा दिया, जो यह साबित करता है कि यह छंटनी जारी है.
केंद्र सरकार ने विलोपन को यह बताते हुए सही ठहराने की कोशिश की कि वे फर्जी या डुप्लीकेट प्रविष्टियों, गलत पंजीकरण, प्रवासन, शहरी के रूप में पुनर्वर्गीकृत ग्राम पंचायतें, या उन मामलों पर आधारित थे जहां जॉब कार्ड पर सूचीबद्ध एकमात्र सदस्य की मृत्यु हो गई थी.
हालांकि, व्यापक राष्ट्रीय परिदृश्य सरकार के जवाबों से अधिक सवाल खड़े करता है. सरकार ने स्वीकार किया कि 2019-20 और 2024-25 के बीच, पूरे भारत के राज्यों ने 4.57 करोड़ (457.97 लाख) जॉब कार्ड हटा दिए, भले ही इसी अवधि के दौरान 6.54 करोड़ (654.22 लाख) नए जॉब कार्ड जारी किए गए. यह व्यापक प्रतिस्थापन पैटर्न या तो बड़े पैमाने पर सिस्टम सुधारों या डेटाबेस और लाभार्थी निरंतरता में समान रूप से बड़े पैमाने पर अस्थिरता का सुझाव देता है.
कुल मिलाकर, ये संख्याएं एक ऐसा विवरण बनाती हैं जो खुलासा करने वाला और परेशान करने वाला दोनों है. डेटा एक स्थिर लाभार्थी प्रणाली के बजाय एक अव्यवस्था को इंगित करता है, जिससे यह चिंता बढ़ जाती है कि क्या वास्तविक श्रमिक गारंटीकृत रोजगार तक पहुंच खो रहे हैं, जो सबसे कमजोर लोगों का समर्थन करने के लिए था.
थरूर का ‘वीर सावरकर पुरस्कार’ लेने से इनकार, पार्टी के साथ विवाद की आशंका
कांग्रेस नेता शशि थरूर ने वीर सावरकर के नाम पर पुरस्कार लेने से इनकार कर दिया है. उन्होंने “एक्स” पर कहा कि न तो उन्हें इस पुरस्कार के बारे में कोई जानकारी है, न ही इसे देने वाले संगठन के बारे में. और न ही उनकी सहमति ही थी. हालांकि, जिस संगठन ने यह अवार्ड देने का ऐलान किया था, उसका दावा है कि थरूर ने इसके लिए अपनी सहमति प्रदान की थी. “एनडीटीवी” की रिपोर्ट के अनुसार, वीर सावरकर के नाम पर पुरस्कार के लिए नामित कारण तिरुवनंतपुरम सांसद और उनकी पार्टी के बीच एक और विवाद पैदा होने का जोखिम था.
थरूर ने कहा, “पुरस्कार की प्रकृति, इसे प्रस्तुत करने वाले संगठन या किसी अन्य प्रासंगिक विवरण के बारे में स्पष्टीकरण के अभाव में, आज मेरे कार्यक्रम में शामिल होने या पुरस्कार स्वीकार करने का सवाल ही नहीं उठता.” ‘वीर सावरकर अंतर्राष्ट्रीय प्रभाव पुरस्कार 2025’ को गैर-सरकारी संगठन हाई रेंज रूरल डेवलपमेंट सोसाइटी द्वारा स्थापित किया गया है, जिसमें थरूर को इसके पहले प्राप्तकर्ता के रूप में नामित किया गया था.
अनंत अंबानी ग्लोबल ह्यूमेन सोसाइटी से ‘ग्लोबल ह्यूमैनिटेरियन अवार्ड’ पाने वाले पहले एशियाई बने
‘वंतारा’ (Vantara) के संस्थापक अनंत अंबानी को ग्लोबल ह्यूमेन सोसाइटी ने पशु कल्याण के लिए ‘ग्लोबल ह्यूमैनिटेरियन अवार्ड’ से सम्मानित किया है. वह यह सम्मान पाने वाले सबसे कम उम्र के व्यक्ति और पहले एशियाई बन गए हैं. यह पुरस्कार उन्हें वन्यजीव संरक्षण और पशु कल्याण को आगे बढ़ाने के लिए आयोजित अंतर्राष्ट्रीय नेताओं की एक सभा में वाशिंगटन डीसी में प्रदान किया गया.
ग्लोबल ह्यूमेन सोसाइटी के अनुसार, यह सम्मान उन व्यक्तियों के लिए आरक्षित है जिनके काम ने जानवरों और लोगों दोनों के लिए वैश्विक स्तर पर परिवर्तनकारी प्रभाव डाला है. सोसाइटी की अध्यक्ष और सीईओ डॉ. रॉबिन गैंजर्ट ने कहा कि अनंत अंबानी का नेतृत्व वंतारा के माध्यम से करुणा और संरक्षण का एक नया वैश्विक मानक स्थापित कर रहा है. वंतारा सिर्फ एक बचाव केंद्र नहीं, बल्कि उपचार का एक अभयारण्य है.
सम्मान प्राप्त करते हुए अनंत अंबानी ने कहा, “मेरे लिए, यह ‘सर्व भूत हित’ (सभी प्राणियों का कल्याण) के शाश्वत सिद्धांत की पुष्टि करता है. वंतारा के माध्यम से हमारा उद्देश्य सेवा की भावना से निर्देशित होकर हर जीवन को गरिमा और देखभाल देना है.” यह पुरस्कार ऐतिहासिक रूप से अमेरिकी राष्ट्रपतियों जैसे बिल क्लिंटन, जॉर्ज एच.डब्ल्यू. बुश और जॉन एफ. कैनेडी के अलावा हॉलीवुड दिग्गजों को दिया जा चुका है. वंतारा को हाल ही में एक व्यापक ऑडिट के बाद ‘ग्लोबल ह्यूमेन सर्टिफाइड’ भी घोषित किया गया था.
बक़ौल महुआ मोइत्रा
वंदे मातरम का इतिहास और वर्तमान
राष्ट्रगान वंदे मातरम के 150 साल पर संसद में हुई बहस पर तृणमूल कांग्रेस की लोकसभा सदस्य महुआ मोइत्रा का भाषण इसलिए हिंदी वालों के लिए जरूरी है क्योंकि इसमें न सिर्फ इस कृति की सप्रसंग व्याख्या है, बल्कि आज के भारत और समय के हिसाब से टिप्पणी भी. इस भाषण को हम जस का तस हिंदी में प्रकाशित कर रहे हैं.
माननीय सभापति महोदय, धन्यवाद. आज आप सब यहाँ क्यों एकत्रित हुए हैं? ऐसा इसलिए है क्योंकि आज की सरकार हमारे राष्ट्रीय गीत ‘वंदे मातरम’ के जन्म के 150वें वर्ष में उस पर चर्चा करना चाहती है.
‘हम ध्यान से आपकी बात सुने. राजनाथ जी और पीएम साहब दोनों...
बहुत खूबसूरत है हर बात लेकिन / अगर दिल भी होता तो क्या बात होती.’
विडंबना यह है कि हम यहाँ मौजूद सांसदों या एक अरब से अधिक भारतीयों, जिनका हम प्रतिनिधित्व करते हैं, से यह बात छिपी नहीं है कि हम आज एक ऐसे भारत में रह रहे हैं जहाँ युवाओं के बीच वास्तविक बेरोजगारी 20% से ऊपर है.
कि हम एक ऐसी राष्ट्रीय राजधानी में दम घोंट रहे हैं जहाँ AQI का स्तर नियमित रूप से 800 से ऊपर रहता है. जब केंद्र जानबूझकर गैर-बीजेपी राज्यों को उनके मनरेगा, उनके आवास और उनके पानी के बकाये के लिए भूखा मार रहा है. जहाँ लाखों लोगों को बड़े पैमाने पर मताधिकार से वंचित करने की एक परेशान करने वाली मनमानी प्रक्रिया के अधीन किया जा रहा है.
जब सत्र दर सत्र, हम विपक्ष को धमकाया जाता है, डराया जाता है और राष्ट्रीय महत्व के ज्वलंत मुद्दों को उठाने से रोका जाता है, अचानक सरकार को एक गीत की ऐतिहासिक जटिलताओं पर चर्चा करना इतना महत्वपूर्ण, इतना आवश्यक, इतना जरूरी लगता है.
इससे भी बड़ी विडंबना यह दावा है कि आज के भारत में नफरत और विभाजन को इस गीत से जोड़ा जा सकता है.
और वैसे, अभी दो हफ्ते पहले 24 नवंबर 2025 को राज्यसभा संसदीय बुलेटिन ने संसदीय रीति-रिवाजों और परंपराओं पर एक खंड प्रकाशित किया, जहाँ उसने स्पष्ट रूप से सभी सदस्यों को सूचित किया कि सदन की कार्यवाही की मर्यादा और गंभीरता की मांग है कि सदन में कोई ‘जय हिंद’, ‘वंदे मातरम’ या कोई अन्य नारा न लगाया जाए.
तो पिछले हफ्ते तक आपके विचार में ‘वंदे मातरम’ को संसदीय बुलेटिन में एक नारे के रूप में, एक ऐसा नारा, जो अमर्यादित और अगंभीर दोनों था, रिकॉर्ड पर रखा गया था. और फिर भी आप अचानक इस सदन में इस पर 10 घंटे चर्चा करना चाहते हैं. क्यों? मैं बताती हूँ क्यों?
क्योंकि इसमें कोई शक नहीं कि बीजेपी आईटी सेल के किसी कम अक्ल प्यादे ने शायद सलाह दी है कि अगर ‘वंदे मातरम’ कार्ड सही से खेला गया तो यह 2026 के बंगाल चुनावों में बीजेपी को फायदा देगा. इस चर्चा के समय के पीछे कोई और कारण नहीं है. बिल्कुल भी नहीं, मुझसे लिखवा लीजिए.
लेकिन हम प्रसन्न हैं. हम न केवल आपको इतिहास का पाठ पढ़ाने का यह शानदार अवसर पाकर प्रसन्न हैं, बल्कि आपको यह भी दिखाने के लिए कि कैसे ‘वंदे मातरम’ की गहराई में जाना केवल यह साबित करेगा कि आप बंगाल की आत्मा से, बंगाल की मानसिकता से कितने दूर हैं और कैसे हमारी ‘मां’ कभी भी आपके संकीर्ण चुनावी लक्ष्यों की बंधक नहीं बनेगी.
चलिए इतिहास का पाठ शुरू करते हैं. आप क्या कहते हैं? इसे शुरू होने दें.
बंकिम चंद्र चट्टोपाध्याय ने दो छंदों वाला भजन ‘वंदे मातरम’ लिखा था, जो पहली बार 7 नवंबर 1875 को साहित्यिक पत्रिका ‘बंगदर्शन’ में प्रकाशित हुआ था.
उस समय भारत में इंडियन लीग, कलकत्ता को छोड़कर कोई भी देशभक्त समाज या राष्ट्रवादी संगठन बात करने लायक नहीं था, जिसकी स्थापना कुछ देशभक्त बंगालियों - शिशिर घोष, आनंद मोहन बोस, सुरेंद्रनाथ बनर्जी - ने ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन के खिलाफ जनसमर्थन जुटाने के लिए की थी.
आरएसएस और बीजेपी कहीं नजर नहीं आ रहे थे. आरएसएस का गठन 50 साल बाद 1925 में हुआ था और बीजेपी का गठन 105 साल बाद 1980 में हुआ.
और संयोग से सत्ताधारी पार्टी, संघ परिवार ‘वंदे मातरम’ नहीं गाते हैं. मुझे 2017 का यह मजेदार किस्सा याद है, मुझे लगता है कि यह टीवी पर था जहाँ नवीन कुमार सिंह नामक एक बीजेपी प्रवक्ता थे और उन्हें ‘वंदे मातरम’ गाने के लिए कहा गया था. वह अपने मोबाइल फोन को देख रहे थे और तब भी वह इसे नहीं गा सके.
इसके अलावा अगस्त 2017 में मुझे याद है कि यूपी सरकार में एक कैबिनेट मंत्री बलदेव सिंह औलख, मुझे लगता है कि उनका नाम यही था, वह एक टीवी समाचार शो में गीत को सही ढंग से गाने में असमर्थ थे. जनवरी 2019 में पिछले लोकसभा चुनाव से पहले बीजेपी नेताओं ने एक विरोध प्रदर्शन किया जहाँ वे मुसलमानों से यह गीत गवाने वाले थे. वे खुद गीत को सही ढंग से नहीं गा सके, इसलिए बैठक अराजकता में बदल गई और बीजेपी नेताओं और उनके अनुयायियों ने नारे लगाए जैसे “इस देश में अगर रहना होगा तो वंदे मातरम कहना होगा”.
तो सच कहूं तो इस गीत के प्रति बीजेपी की प्रतिबद्धता एक खराब स्क्रिप्ट वाली कॉमेडी है.
अंग्रेजों ने राजद्रोह कानूनों के तहत ‘वंदे मातरम’ नारे के उपयोग पर प्रतिबंध लगा दिया और किसी भी सार्वजनिक स्थान पर इसके गायन पर प्रतिबंध लगा दिया. जब भारत के सबसे युवा स्वतंत्रता सेनानी, बंगाल के वीर सपूत खुदीराम बोस को 1908 में फांसी के तख्ते पर ले जाया गया, तो उनके होठों पर ‘वंदे मातरम’ था.
जब 1927 में राम प्रसाद बिस्मिल गोरखपुर जेल में फांसी के तख्ते पर चले, जब अशफाक उल्ला खान फैजाबाद जेल में फांसी के तख्ते पर चले, उन सभी के होठों पर ‘वंदे मातरम’ था. लेकिन यह वही नारा है जिसे राज्यसभा बुलेटिन राज्यसभा में अमर्यादित और अगंभीर मानता है.
बीजेपी में कौन, आरएसएस में कौन, सत्ता पक्ष में कौन स्वतंत्रता संग्राम से थोड़ा सा भी संबंध होने का दावा कर सकता है कि आज आपको लगता है कि आप ‘वंदे मातरम’ के संरक्षक हैं और हमें, बंगाल और शेष भारत को सिखाएंगे कि इसका महत्व क्या है?
1909 और 1938 के बीच अंडमान सेलुलर जेल (काला पानी) में कुल 585 कैदियों में से 68%, यानी 398 बंगाली थे. दूसरा सबसे बड़ा दल पंजाब से था, 95 क्रांतिकारी. आपने सेलुलर जेल का नाम बरिंद्र घोष के नाम पर, उल्लासकर दत्ता के नाम पर, इंदुभूषण रॉय के नाम पर क्यों नहीं रखा? आपने बंगाल को कितना भुगतान किया है? आप आज ‘वंदे मातरम’ की भूमि के साथ कितना खेल चुके हैं, आप इस पर चर्चा कर रहे हैं?
भजन ‘वंदे मातरम’ को तब तक ज्यादा लोकप्रियता नहीं मिली जब तक कि इसे 1882 में प्रकाशित बंकिम चंद्र चट्टोपाध्याय के उपन्यास ‘आनंदमठ’ में शामिल नहीं किया गया. अब जब उन्होंने इसे प्रकाशित किया, तो उन्होंने इसमें चार अतिरिक्त छंद जोड़े. पहले दो छंद जो उन्होंने 1875 में लिखे थे, वे मातृभूमि के लिए एक गीतात्मक स्तुति थे. यह कहता है “आनंद की दाता, सौंदर्य”.
उपन्यास में जो संस्करण 1881-82 में शामिल किया गया था, उसका स्वर मूल कविता से अलग था. मिठास और प्रकाश की आकृति अब एक भयानक बाहरी रूप और लगभग युद्ध के साजो-सामान से संपन्न थी, लेकिन यह उपन्यास की कथा के अनुरूप था जो संन्यासी विद्रोह के बारे में था.
यहाँ यह नोट करना महत्वपूर्ण है कि अगले चार छंदों में जो उन्होंने लिखे, बंकिम चंद्र चट्टोपाध्याय ने ‘सप्तकोटि’ शब्दों का उपयोग किया जिसका अर्थ है 7 करोड़. अब 1871 की जनगणना में 7 करोड़ अविभाजित बंगाल, बिहार, उड़ीसा और असम की जनसंख्या थी. तो इसका मतलब यह है कि उपन्यास, भजन बंगाल के बारे में था, भजन बंगाल के बारे में था और जिस मां का वह उल्लेख करते हैं वह भी बंगाल की अवधारणा और बंगाल के संदर्भ में है. यह मूल रूप से एक अखिल भारतीय राष्ट्रवादी, अखिल भारतीय गीत के रूप में नहीं लिखा गया था. ऐसा नहीं था, चलिए इस बारे में बिल्कुल स्पष्ट हो जाते हैं.
तो, यह यह कैसे बन गया? राष्ट्रवादी गीत. एआर रहमान इसे 1997 में कैसे गाते हैं? कैसे?
यह कोई और नहीं बल्कि राष्ट्रकवि रवींद्रनाथ टैगोर थे जिन्होंने 1885 के आसपास देश रागिनी पर आधारित गीत का पहला संगीत स्कोर तैयार किया था. ऋषि बंकिम को यह गीत और धुन इतनी पसंद आई कि उन्होंने इसे 1886 में अपनी पुस्तक आनंदमठ के तीसरे संस्करण में शामिल कर लिया.
1937 में टैगोर नेहरू को लिखते हैं कि इसके पहले छंद को मूल रूप से धुन में ढालने का विशेषाधिकार मेरा था जब लेखक अभी जीवित थे (बंकिम की मृत्यु 1894 में हुई). वह कहते हैं कि मैंने इसे गाया, मैंने इसकी धुन बनाई जब बंकिम अभी जीवित थे और मैं इसे गाने वाला पहला व्यक्ति था. तो, 1896 में कलकत्ता कांग्रेस की सार्वजनिक सभा से पहले टैगोर इसे सार्वजनिक रूप से गाने वाले पहले व्यक्ति थे.
तो टैगोर धुन बनाते हैं और रहमतुल्लाह सयानी, दादाभाई नौरोजी, सुरेंद्रनाथ बनर्जी की उपस्थिति में इसे सार्वजनिक रूप से गाते हैं.
गीत को व्यापक लोकप्रियता केवल 1905 के बाद मिली, जब लॉर्ड कर्जन के बंगाल विभाजन की प्रतिक्रिया के रूप में स्वदेशी आंदोलन हुआ. नरेंद्र सिंघा ने इसे गाया और प्रभात फेरियों में हर सुबह राष्ट्रीय चेतना जगाने के लिए गाया जाता था.
रवींद्रनाथ टैगोर ने स्वयं 16 अक्टूबर 1905 को रक्षाबंधन के दिन प्रसिद्ध विभाजन विरोधी विरोध का नेतृत्व किया जहां हिंदुओं और मुसलमानों ने एक-दूसरे को राखी बांधी और ‘वंदे मातरम’ कहा.
आज यह बीजेपी सरकार जो ‘वंदे मातरम’ को बढ़ावा देने का दावा करती है, उसने यह सुनिश्चित किया है कि वह चाँद, रक्षा पूर्णिमा का वह चाँद, ईद का वह चाँद भी विभाजित हो गया है. हिंदू महिलाएं चाँद को देखकर अपनी छत पर अपना करवा चौथ का व्रत तोड़ सकती हैं, लेकिन बीजेपी शासित राज्यों में एक मुसलमान को उसी चाँद को अपनी छत पर ईद की नमाज अदा करने से मना किया जाता है और आप भारत के विभाजन के लिए एक गीत को दोषी ठहरा रहे हैं.
1905 में बनारस में कांग्रेस अधिवेशन के दौरान टैगोर की भतीजी सरला देवी चौधुरानी ने यह गीत फिर से गाया, जिन्होंने ‘सप्तकोटि’ (7 करोड़) को ‘त्रिंश कोटि’ से बदल दिया, जिसका अर्थ है 30 करोड़, जो 1901 की पिछली जनगणना में भारत की जनसंख्या थी. तो यह पहली बार है जब गीत एक अखिल भारतीय अपील इकट्ठा कर रहा है.
गांधीजी ने दिसंबर 1905 में ‘इंडियन ओपिनियन’ अखबार में लिखा कि यह गीत इतना लोकप्रिय है. जिस तरह हम अपनी मां की पूजा करते हैं, वैसे ही यह गीत भारत के लिए एक भावपूर्ण प्रार्थना है.
टैगोर ने अपने कुछ गीतों में लगभग एक नारे के रूप में ‘वंदे मातरम’ का प्रयोग करना जारी रखा. 1905 और 1908 के स्वदेशी आंदोलन ने ‘वंदे मातरम’ को एक स्पष्ट आह्वान के रूप में देखा. महान तमिल कवि सुब्रमण्य भारती ने 1905 में इसका तमिल में अनुवाद किया. इसे तटीय आंध्र प्रदेश से लेकर विजयवाड़ा और कृष्णा तक, और जलियांवाला बाग के बाद पंजाब की नहरों और छावनियों तक, पूरे भारत में बैठकों और जुलूसों में गाया जाने लगा, जहाँ उन्होंने इसे बंगाली संस्कृत भजन के रूप में नहीं सोचा, उन्होंने इसे प्रतिरोध की एक साझा पुकार के रूप में देखा.
आप, आज की यह सरकार संरक्षक होने का दावा करती है. ‘वंदे मातरम’ की भावना के सच्चे समर्थक. हमने प्रधान मंत्री को एक घंटे तक सुना, हमने माननीय रक्षा मंत्री को सुना. हमें बताएं कि वे ‘वंदे मातरम’ के सच्चे समर्थक कैसे हैं.
तो मुझे एक सच्चे बंगाली के रूप में, एक गर्वित बंगाली के रूप में आज 10 करोड़ बंगालियों की ओर से बोलने दीजिए. जिन्हें आप बांग्लादेशी कहते हैं? जिन्हें आप रोहिंग्या कहते हैं? आप हमें सड़कों पर परेशान करते हैं. कॉलोनियों में, जब हम गर्भवती होते हैं तो आप हमें सीमा पार फेंक देते हैं.
मैं गीत का एक-एक छंद विच्छेदित करने जा रही हूँ और यह प्रदर्शित करने जा रही हूँ कि कैसे आप ‘वंदे मातरम’ की भावना और आत्मा दोनों की हत्या कर रहे हैं. किसी भी 1937 के प्रस्ताव से कहीं अधिक.
सुजलाम् सुफलाम् मलयज शीतलाम् मातरम्.
हमारे पास यहाँ क्या है?
आपने अपने कार्यकाल में क्या किया है?
सुजलाम् (सुंदर प्रचुर जल) - आज भारत का 70% से अधिक सतही जल पीने योग्य नहीं है. जल गुणवत्ता सूचकांक में भारत 122 देशों में 120वें स्थान पर है. दिल्ली और बेंगलुरु सहित 21 प्रमुख शहरों के 2030 तक भूजल भंडार खत्म होने की उम्मीद है और फिर भी इस डेटा के सामने सरकार सभी राज्यों के लिए जल जीवन मिशन के पैसे में कटौती कर रही है. बंगाल का खुद जल जीवन मिशन के पैसे में 3000 करोड़ बकाया है. यह आप ‘सुजलाम्’ के लिए कर रहे हैं.
मलयज शीतलाम् (ठंडी ताजी हवा) - यह एक मजाक है. राष्ट्रीय राजधानी में AQI नियमित रूप से 800 से 1000 के बीच रहता है, हमारे बच्चों का दम घुट रहा है. बुजुर्ग मर रहे हैं. आप जानते हैं कि केंद्र ने क्या किया है? केंद्र ने 78% थर्मल पावर प्लांटों को प्रमुख प्रदूषण विरोधी सिस्टम स्थापित करने से छूट दे दी है. पर्यावरण मंत्रालय ने 2024-25 में अपने 858 करोड़ के प्रदूषण कोष का 1% से भी कम खर्च किया है. जीवाश्म ईंधन से होने वाला प्रदूषण भारत में 1.72 मिलियन (17 लाख से अधिक) लोगों की जान लेता है और बाहरी वायु प्रदूषण के कारण असामयिक मृत्यु दर से भारत को 339 बिलियन अमेरिकी डॉलर का नुकसान होता है. जो हमारी जीडीपी का साढ़े नौ प्रतिशत है.
हम ‘मलयज शीतलाम्’ के लिए यही कर रहे हैं.
शस्य श्यामलाम् (मिट्टी की धन्य उर्वरता) - सरकार ने क्या किया? कृषि और किसान कल्याण मंत्रालय ने इस साल अपने बजट में ढाई प्रतिशत की कटौती देखी है. प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना, जो सबसे गरीब किसानों के लिए है, उसमें 3600 करोड़ की कटौती हुई. अनुमान है कि भारत की 37% भूमि क्षरण से प्रभावित है. भारत से एकत्र किए गए दो-तिहाई मिट्टी के नमूनों में नाइट्रोजन, फास्फोरस और पोटेशियम की कमी है और 85% में कार्यशील मृदा प्रणालियों के लिए बहुत कम कार्बन है.
सुहासिनीम् सुमधुर भाषिणीम् (मीठी मुस्कान, मीठी बोली) - आप सत्ताधारी पार्टी अपने नफरत भरे भाषणों के साथ नियमित रूप से मुसलमानों और अल्पसंख्यकों के खिलाफ हिंसा का आह्वान करते हैं. हरिद्वार में नरसंहार के आह्वान से लेकर रैलियों में खुलेआम धमकियों तक. आप ‘वोट बैंक’, ‘घुसपैठिए’, ‘जिनके ज्यादा बच्चे हैं’ जैसे शब्दों का इस्तेमाल डॉग विसल (इशारों) के रूप में करते हैं. आप हम पर हिंदी थोपते हैं. आप बांग्ला को बांग्लादेश की भाषा कहते हैं. आपने हम सब पर सबसे खराब प्रकार का भाषाई आतंकवाद फैला रखा है, जहाँ लोग दिल्ली की सड़कों पर, गुड़गांव की सड़कों पर अपनी मातृभाषा बोलने से डरते हैं. आज की बीजेपी में कोई ‘सुमधुर भाषिणी’ नहीं है.
सुखदाम् वरदाम् मातरम् (हमें सुख दें) - आज आपके डिजाइन का एक मनमाना जल्दबाजी वाला अभ्यास चुनाव आयोग को काम के इतने दबाव में डाल रहा है कि बीएलओ आत्महत्या कर रहे हैं और चुनाव आयोग हमसे क्या कहता है? वे कहते हैं, “ओह यह कर्तव्य की पंक्ति में है, उन्हें इसे करने में खुशी होनी चाहिए”. 2025 की वर्ल्ड हैप्पीनेस रिपोर्ट में भारत 147 देशों में 118वें स्थान पर है. आज भारत में अल्पसंख्यक होना हमेशा संदिग्ध होना, हमेशा दोयम दर्जे का होना और हमेशा अधीनस्थ होना है. खुश महसूस करने से दूर, अल्पसंख्यक राज्य द्वारा संरक्षित महसूस करने के बजाय राज्य से डर रहे हैं.
तुमि विद्या, तुमि धर्म... (सभापति का हस्तक्षेप: समय हो गया... समय बढ़ाना होगा... आप बोल सकती हैं.)
तुमि विद्या, तुमि धर्म. चलिए पहले ‘विद्या’ की बात करते हैं. इस सरकार के तहत शिक्षा के लिए परिव्यय अभी भी एक निराशाजनक 3.8% पर है, जो आवश्यकतानुसार 6% से बहुत नीचे है और अन्य विकसित देशों से बहुत नीचे है. अखिल भारतीय तकनीकी शिक्षा परिषद (AICTE) के लिए सहायता अनुदान पिछले दो वर्षों में लगभग 61% गिर गया है. यूजीसी के बजट में 47% की कटौती की गई है. एक उदाहरण लेते हैं दिल्ली विश्वविद्यालय का. दिल्ली विश्वविद्यालय इस वित्तीय वर्ष में 250 करोड़ के फंड गैप से जूझ रहा है. इसे 544 करोड़ की जरूरत है. यूजीसी ने सिर्फ 33 करोड़ आवंटित किए हैं. ‘तुमि विद्या’ अब ऐसा नहीं लगता.
अब हम तुमि धर्म पर आते हैं. जब ऋषि अरविंदो ने 1909 में कर्मयोगी में ‘वंदे मातरम’ के छंदों का अंग्रेजी में अनुवाद किया, तो उन्होंने धर्म का अनुवाद ‘आचरण’ (Conduct) के रूप में किया, न कि ‘धर्म’ (Religion) के रूप में. यहाँ एक सांप्रदायिक और राष्ट्रवादी व्याख्या और एक गीत के रूप में, एक युद्ध घोष के रूप में ‘वंदे मातरम’ के राजनीतिक उपयोग के बीच अंतर की जड़ थी. यह सांप्रदायिक व्याख्या नहीं है, यह राष्ट्रवादी व्याख्या है और ऋषि बंकिम के भजन में धर्म ‘आचरण’ को दर्शाता है.
और एक सत्ताधारी पार्टी के लिए, एक प्रधानमंत्री के लिए, यह सिर्फ धर्म नहीं होना चाहिए, यह ‘राज धर्म’ होना चाहिए. मैं इस सदन को स्वर्गीय प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की याद दिलाने से खुद को नहीं रोक सकती, जिन्होंने मार्च 2002 में यह पूछे जाने पर कि एक निश्चित मुख्यमंत्री को क्या करना चाहिए, प्रसिद्ध रूप से कहा था “राज धर्म का पालन करें”. राज धर्म राजा के लिए, शासक के लिए, प्रजा-प्रजा में भेद नहीं हो - न जन्म के आधार पे, न जाति के आधार पर, न संप्रदाय के आधार पर. दिल पर हाथ रखकर बताइए, क्या यह सरकार धर्म का पालन कर रही है? नहीं.
तुमि मा शक्ति हृदये तुमि मा भक्ति. ऋषि बंकिम ने कहा था कि आस्था आपके दिल में होनी चाहिए और ताकत आपकी बाहों में होनी चाहिए. इसके बजाय इस सरकार ने आस्था को अपनी बाहों में ले लिया है. आपने अपने ‘बाहुबल’, अपनी क्रूर ताकत, अपने बहुमत के साथ ‘बहुबले’ बना दिया है और आप राष्ट्रीय धर्मनिरपेक्ष ताने-बाने में बुलडोजर चला रहे हैं. और आपका दिल कमजोर है क्योंकि हमारे दुश्मन बार-बार हमला कर रहे हैं. और फिर भी हम एक तीसरे देश के राष्ट्रपति को गर्व से बार-बार यह घोषणा करने दे रहे हैं कि उसने भारत को संघर्ष विराम स्वीकार करने के लिए ब्लैकमेल किया.
अमलां अतुलां (बिना दाग के, अतुलनीय). सरकार आज हमें कहां ले आई है? चलिए 2014 के बाद से कुछ प्रमुख वैश्विक सूचकांकों की तुलना करते हैं. संयुक्त राष्ट्र की रिपोर्ट कहती है कि असमानता भारत के मानव विकास सूचकांक को 31% कम कर देती है. क्षेत्र में सबसे अधिक नुकसानों में से एक. विश्व प्रेस स्वतंत्रता सूचकांक में भारत 2014 में 140 से गिरकर आज 141 पर आ गया है. विश्व आर्थिक मंच के ग्लोबल जेंडर गैप इंडेक्स में, भारत 2014 में 114 से गिरकर आज 131 पर आ गया है. सबसे महत्वपूर्ण, ग्लोबल हंगर इंडेक्स पर जो बाल कुपोषण को मापता है, भारत 2014 में 76 में से 55 वें स्थान पर हुआ करता था, आज यह 123 में से 102 वें स्थान पर है. तो हम निश्चित रूप से ‘बिना दाग’ के नहीं हैं.
और मुझे एक बार और हमेशा के लिए सत्ताधारी पार्टी के इस झूठे दावे का खंडन करने दें कि एक छोटा किया गया (truncated) गीत हमेशा अपमानजनक होता है.
‘जन गण मन’ मूल रूप से 1911 में एक ब्रह्मो भजन के रूप में लिखा गया था और इसमें पांच छंद थे. इसे ‘भारत भाग्य विधाता’ कहा जाता था. याद रखें कि ब्रह्म समाज का गठन राजा राममोहन राय द्वारा किया गया था और यह वही राजा राममोहन राय हैं जिन्हें मध्य प्रदेश के उच्च शिक्षा मंत्री इंदर सिंह परमार ने ब्रिटिश एजेंट, एक दलाल कहा था जो धर्म परिवर्तन के लिए काम कर रहा था. यदि आपकी पार्टी का आदमी राजा राममोहन राय को दलाल कह रहा है, तो मुझे आश्चर्य है कि वह किस तरह की उच्च शिक्षा के लिए जिम्मेदार हो सकता है?
‘जन गण मन’ भी एक छोटा किया गया गीत है. पांच छंदों में से केवल पहला छंद राष्ट्रगान के रूप में गाया जाता है. दूसरा छंद कहता है “ओह रोर, अहरह तव आह्वान प्रचारित, सुनी तव उदार वाणी, हिंदू बौद्ध सिख जैन पारसिक मुसलमान खृस्तानी”. इसका मतलब कुछ अपेक्षाकृत सरल है. टैगोर भारत भाग्य विधाता, भारत की नियति के निर्माता को संबोधित करते हैं. और यहाँ एक छंद है जिसकी बहाली विभाजन के खिलाफ एक मजबूत प्रतीक, एक मजबूत इशारा होगी. लेकिन आप इसे लाने के लिए कोई प्रस्ताव नहीं ला रहे हैं.
आप बात कर रहे हैं कि ‘वंदे मातरम’ को किस धार्मिक संदर्भ में देखा जा सकता है. और यहीं आपने सबसे बड़ी गलती की मिस्टर प्राइम मिनिस्टर. आपने इस पूरी बहस को अपनी सरकार की विफलताओं से ध्यान हटाने के लिए एक विकर्षण के रूप में प्रज्वलित किया. जिसे मैंने गीत के बोलों को एक कुंजी के रूप में उपयोग करके प्रदर्शित किया है.
लेकिन आप वहीं नहीं रुकते. बीजेपी के मुख्य प्रवक्ताओं में से एक, यहाँ एक साथी सांसद, एक कदम आगे बढ़ गए और कहा कि यह काट-छांट नेहरू के इशारे पर की गई थी. उन्होंने कहा कि उन्होंने यह इतिहासकार ‘सचिव भट्टाचार्य’ की एक किताब पढ़कर सीखा है.
माननीय सभापति महोदय, ऐसी कोई किताब नहीं है. ‘सचिव भट्टाचार्य’ नाम का कोई इतिहासकार नहीं है जिसने ‘वंदे मातरम’ के इतिहास पर कोई किताब लिखी हो. वह अस्तित्व में नहीं है.
वह सांसद की कल्पना का निर्माण करने वाली उपजाऊ खाद के अलावा अस्तित्व में नहीं है. एक इतिहासकार हैं जिन्होंने ‘वंदे मातरम’ के बारे में एक किताब लिखी है और उनका नाम ‘सब्यसाची भट्टाचार्य’ है. ‘सचिव भट्टाचार्य’ नहीं.
बीजेपी इस किताब का हवाला देने की हिम्मत नहीं करती क्योंकि अगर वे ऐसा करते हैं, तो उन्हें यह स्वीकार करना होगा कि यह बहुत ही विशिष्ट किताब कहती है कि जिस व्यक्ति ने सुझाव दिया था कि विभाजनकारी कार्रवाई को न भड़काने के लिए ‘वंदे मातरम’ को छोटे रूप में गाया जाए, वह नेहरू नहीं थे, वह बोस नहीं थे, वह कोबिगुरु रवींद्रनाथ टैगोर थे.
तो चलिए रिकॉर्ड सीधा करते हैं. भट्टाचार्य स्पष्ट हैं. पहले सुभाष बोस, फिर 1937 में कांग्रेस के कलकत्ता अधिवेशन के लिए बुलाए गए कांग्रेस वर्किंग कमेटी के सदस्यों ने टैगोर को पत्र लिखकर गीत पर उनके विचार पूछे. अपने जवाब में टैगोर ने लिखा, “वंदे मातरम का मूल देवी दुर्गा का एक भजन है. यह स्पष्ट है. इसलिए इस पर कोई बहस नहीं हो सकती. उपन्यास आनंदमठ साहित्य का एक काम है और इसलिए गीत इसके लिए उपयुक्त है. लेकिन संसद सभी धार्मिक समूहों के मिलन का स्थान है और वहां यह गीत उपयुक्त नहीं हो सकता.”
26 अक्टूबर 1937 को, सत्र से तीन दिन पहले, गुरुदेव ने इस मुद्दे पर नेहरू को फिर से लिखा और उन्होंने ‘वंदे मातरम’ के साथ विशेष संबंध रखते हुए सुझाव दिया कि पहले दो छंदों को अपनाया जाना चाहिए और उनके पत्र ने प्रस्ताव को गहराई से प्रभावित किया.
ऋषि बंकिम एक अत्यंत जटिल दिमाग थे, और आनंदमठ सांप्रदायिक इतिहास पर उनका अंतिम शब्द नहीं था. उनका अंतिम उपन्यास ‘सीताराम’ एक हिंदू क्षेत्र की कल्पना करता है. जिसकी स्थापना एक वीर और आदर्शवादी राजा द्वारा की गई थी जो अपने मुस्लिम विरोधियों को हरा देता है. हालाँकि वह मुसलमानों के लिए जिम्मेदार सभी बुराइयों को अपनाने और उससे आगे निकलने के लिए आता है...
तो अगर आप में मुद्दे में घुसने की हिम्मत है, तो उस आदमी को निशाना बनाएं जिसने बहुत ही समझदारी से इस गीत को संपादित किया. वह न तो नेहरू थे और न ही बोस. वह रवींद्रनाथ टैगोर थे.
आइए. यदि आप में सत्य का सामना करने का साहस है. आइए. 2026 में बंगाल में यह कहकर चुनाव लड़िए कि टैगोर भारत को विभाजित करने के लिए जिम्मेदार थे. देखते हैं कि वह आपको कहाँ ले जाता है.
टैगोर वही हैं जिन्होंने सार्वजनिक रूप से ‘वंदे मातरम’ गाया था. उन्होंने इसे हमारे राष्ट्र की अंतरात्मा से जोड़ा. यह बंगाल का स्पष्ट आह्वान था.
यह कोई ‘जुमला’ नहीं है जिसे बीजेपी चुनाव से पहले हथिया सकती है. आप इसे आजमाएं और आप देखेंगे कि इसके परिणाम क्या हैं. 10 करोड़ बंगाली आपको ‘वंदे मातरम’ का असली मतलब सिखाने के लिए 20 करोड़ हाथ उठाएंगे. वंदे मातरम.
धन्यवाद.
अपील :
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