11/07/2025: चुनाव आयोग को अदालती हिदायत | नागरिकता गृह मंत्रालय तय करेगा| बिहार के बाद बंगाल! | मतदाता अभी भी कठघरे में | दिल्ली पुलिस की दलील | बिजली नहीं है, जय श्रीराम बोलो | एड शीरन का नया शौक़
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निधीश त्यागी, साथ में राजेश चतुर्वेदी, गौरव नौड़ियाल
आज की सुर्खियां :
आधार, वोटर आईडी और राशन कार्ड को स्वीकार करने पर विचार करने चुनाव आयोग को हिदायत
बिहार के बाद बंगाल में होगा
कटघरे में बिहार मतदाता, ख़तरे में देश का लोकतंत्र
दिल्ली पुलिस की दलील : जब तक बेकसूर साबित न हों, दंगा आरोपियों को जेल में ही रखा जाए
कांवड़ यात्रा के दौरान दुकानदारी पर कहर, स्वामी यशवीर महाराज ने ढाबा मालिकों को किया परेशान
बिजली नहीं है, बोलो जय श्रीराम!
जब तक सड़कें रहेंगी, तब तक गड्ढे भी रहेंगे
छात्राओं को पीरियड्स की जांच के नाम पर नंगा किया गया, प्रिंसिपल समेत 8 पर केस दर्ज
25 करोड़ मजदूरों की हड़ताल, खबर देखी?
हिंसा शुरू होने के दो साल बाद शांति का आइडिया
वकीलों को समन भेजने की नई प्रथा का सुप्रीम कोर्ट ने संज्ञान लिया
ट्रम्प की टैरिफ धमकी पर लूला का पलटवार
इलोन मस्क की कंपनी स्टारलिंक को भारत में मिली सैटेलाइट इंटरनेट सेवा शुरू करने की मंजूरी
ज़िम्बाब्वे की लीथियम खदानों में मौत और मुनाफा, ईवी क्रांति की स्याह हकीकत
बीबीसी स्टाफ से इज़राइल के लिए पीआर करवाया जा रहा है?
ये जैक्सन पोलक हैं या एड शीरन? गायक ने अब उठाया पेंटिंग का ब्रश!
बिहार
आधार, वोटर आईडी और राशन कार्ड को स्वीकार करने पर विचार करने चुनाव आयोग को हिदायत
“द हिंदू” के अनुसार, सुप्रीम कोर्ट ने चुनाव आयोग से कहा है कि बिहार में चल रही मतदाता सूची के गहन विशेष पुनरीक्षण (स्पेशल इंटेनसिव रिवीजन) प्रक्रिया के दौरान वह न्याय के हित में आधार कार्ड, वोटर आईडी और राशन कार्ड को वैध दस्तावेज़ के रूप में स्वीकार करने पर विचार करे. कोर्ट ने यह भी स्पष्ट किया कि आयोग के पास इन दस्तावेज़ों को स्वीकार या अस्वीकार करने का विवेकाधिकार रहेगा, लेकिन आयोग को केवल सीमित दस्तावेज़ों तक ही सीमित नहीं रहना चाहिए.
इस मुद्दे पर सुप्रीम कोर्ट में लगाई गईं याचिकाओं पर गुरुवार को सुनवाई के दौरान जस्टिस सुधांशु धूलिया और जस्टिस जॉयमाल्या बागची की बेंच ने कहा कि आयोग द्वारा नागरिकता साबित करने के लिए जो 11 दस्तावेज़ों की सूची दी गई है, वह अंतिम नहीं है, बल्कि उदाहरण के तौर पर है. इसलिए, आधार कार्ड, चुनाव आयोग द्वारा जारी फोटो पहचान पत्र और राशन कार्ड जैसे आम तौर पर इस्तेमाल होने वाले सरकारी दस्तावेज़ भी स्वीकार किए जाएं, ताकि किसी भी योग्य मतदाता को बाहर न किया जा सके.
कोर्ट ने यह भी कहा कि सिर्फ इन दस्तावेज़ों के आधार पर किसी का नाम मतदाता सूची में शामिल करना अनिवार्य नहीं है, लेकिन यदि आयोग के पास आधार को अस्वीकार करने का ठोस कारण है, तो उसे कारण बताना होगा.
कोर्ट ने आयोग से यह भी पूछा कि चुनाव से कुछ महीने पहले ही यह प्रक्रिया क्यों शुरू की गई, और क्या यह लोकतंत्र की जड़ पर असर डाल सकती है. अगली सुनवाई प्रारूप मतदाता सूची के प्रकाशन के पहले 28 जुलाई को होगी और आयोग को 21 जुलाई तक अपना जवाब दाखिल करने को कहा गया है.
“द इंडियन एक्सप्रेस” के मुताबिक, सुप्रीम कोर्ट ने अपने आदेश में कहा, “दोनों पक्षों की दलीलें सुनने के बाद, हमारी प्रारंभिक राय है कि इस मामले में तीन प्रश्न शामिल हैं : (अ) चुनाव आयोग की वे शक्तियां जिनके तहत यह प्रक्रिया की जा रही है, (ब) वह प्रक्रिया और तरीका जिससे यह कार्य किया जा रहा है, और (स) समय-सीमा, जिसमें ड्राफ्ट मतदाता सूची तैयार करने, आपत्तियां आमंत्रित करने और अंतिम मतदाता सूची बनाने की समय-सीमा भी शामिल है, जो कि बिहार में नवंबर में चुनाव होने के मद्देनज़र बहुत कम है.”
कोर्ट ने यह भी जोड़ा, “हम भी इस विचार के हैं कि इस मामले की सुनवाई आवश्यक है. अतः इसे 28 जुलाई को उपयुक्त बेंच के समक्ष सूचीबद्ध किया जाए. इस बीच, प्रतिवादी चुनाव आयोग द्वारा एक सप्ताह के भीतर, अर्थात आज से या 21 जुलाई तक, प्रत्युत्तर हलफनामा दायर किया जाएगा, और यदि कोई प्रत्युत्तर दायर करना हो, तो वह 28 जुलाई से पूर्व दायर किया जाए.”
द्विवेदी ने कहा कि आदेश में अतिरिक्त दस्तावेजों का उल्लेख करना बाधाएं उत्पन्न कर सकता है, क्योंकि प्रक्रिया पहले से ही चल रही है. उन्होंने कहा कि अतिरिक्त दस्तावेजों का नाम लेना आवश्यक नहीं था. लेकिन जस्टिस धूलिया ने कहा, “हम कह रहे हैं कि यह आपके ऊपर है—अगर आपको अस्वीकार करना है, तो कारण दें और अस्वीकार करें.”
याचिकाकर्ताओं ने कहा कि वे इस चरण पर अंतरिम स्थगन की मांग नहीं कर रहे हैं, क्योंकि मसौदा मतदाता सूची 1 अगस्त को प्रकाशित की जानी है. द्विवेदी ने कहा कि याचिकाकर्ताओं ने स्पष्ट रूप से अंतरिम स्थगन की मांग की थी और इसलिए, अदालत को स्पष्ट करना चाहिए कि चुनाव आयोग प्रक्रिया को आगे बढ़ा सकता है. जस्टिस धूलिया ने टिप्पणी की, “हमने कह दिया है. आप आगे बढ़िए.”
‘नागरिकता का मुद्दा गृह मंत्रालय के अधीन, चुनाव आयोग के नहीं’
याचिकाकर्ताओं ने सुप्रीम कोर्ट में कहा कि चुनाव आयोग के पास नागरिकता के प्रश्नों का निर्धारण करने का अधिकार नहीं है. यह अधिकार गृह मंत्रालय के अधीन आता है, चुनाव आयोग के नहीं. इस पर बेंच ने कहा, “नागरिकता का मुद्दा चुनाव आयोग द्वारा नहीं, बल्कि गृह मंत्रालय द्वारा तय किया जाना चाहिए.” दरअसल, बिहार में मतदाता सूची के विशेष पुनरीक्षण के दौरान, यह सवाल उठा है कि क्या चुनाव आयोग मतदाताओं की नागरिकता की जांच कर सकता है. इस पर सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट किया कि चुनाव आयोग केवल यह सुनिश्चित कर सकता है कि मतदाता भारतीय नागरिक हों, लेकिन नागरिकता की जांच या निर्णय गृह मंत्रालय का कार्यक्षेत्र है. पहले के सुप्रीम कोर्ट के फैसलों (जैसे 1995 का 'लाल बाबू हुसैन केस') में भी यह रेखांकित किया गया है कि चुनाव आयोग को नागरिकता सत्यापन प्रक्रिया में सीमित भूमिका निभानी चाहिए और अंतिम निर्णय गृह मंत्रालय द्वारा ही होना चाहिए.
सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि नागरिकता से जुड़े मामलों में उचित प्रक्रिया और संबंधित व्यक्ति को सुनवाई का अवसर मिलना चाहिए. यदि किसी मतदाता की नागरिकता पर संदेह हो, तो उसे नोटिस देकर सुनवाई का अवसर देना आवश्यक है. चुनाव आयोग केवल मतदाता सूची में नाम जोड़ने या हटाने की प्रक्रिया में नागरिकता के दावे/आपत्तियों को देख सकता है, लेकिन किसी की नागरिकता का अंतिम निर्धारण उसका अधिकार क्षेत्र नहीं है. नागरिकता संबंधी विवादों का निपटारा गृह मंत्रालय या न्यायालय द्वारा ही किया जा सकता है.
“अगर आप तुरंत ये दस्तावेज़ मांगेंगे, तो मैं भी अभी नहीं दे पाऊंगा,” जस्टिस धूलिया
चुनाव आयोग के वकीलों ने संविधान के अनुच्छेद 326 का हवाला दिया, जो वयस्क मताधिकार के आधार पर मतदान को अनिवार्य करता है. आयोग के वकील राकेश द्विवेदी द्विवेदी ने दलील दी, “वयस्क मताधिकार की पूर्व शर्त नागरिकता है.” इस पर बेंच ने टिप्पणी की कि यदि चुनाव आयोग यह सुनिश्चित करना चाहता था कि केवल नागरिक ही मतदाता सूची में हों, तो उसे “यह प्रक्रिया बहुत पहले शुरू करनी चाहिए थी.” जस्टिस बागची ने कहा, “आपका निर्णय, जिससे 2025 में पहले से मतदाता सूची में मौजूद व्यक्ति को मताधिकार से वंचित किया जाएगा, उस व्यक्ति को (इस) निर्णय के खिलाफ अपील करने और पूरी प्रक्रिया से गुजरने के लिए मजबूर करेगा, जिससे वह आगामी चुनाव में अपने वोट के अधिकार से वंचित हो जाएगा. गैर-नागरिकों को सूची से हटाने के लिए आप गहन प्रक्रिया के जरिए मतदाता सूची को शुद्ध करें, इसमें कोई बुराई नहीं है. लेकिन अगर आप प्रस्तावित चुनाव से केवल कुछ महीने पहले ही यह निर्णय लेते हैं...”
“द इंडियन एक्सप्रेस” में अपूर्वा विश्वनाथ ने बताया है कि जस्टिस धूलिया ने भी व्यावहारिकता और समयसीमा पर सवाल उठाते हुए कहा, “अगर आप तुरंत ये दस्तावेज़ मांगेंगे, तो मैं भी अभी नहीं दे पाऊंगा, व्यावहारिकता देखिए, समयसीमा देखिए.”
कोर्ट ने यह भी पूछा कि यदि किसी मतदाता को मतदाता सूची से हटाया जाता है तो उसकी प्रक्रिया क्या होगी, और क्या ‘गहन पुनरीक्षण’ के दौरान भी वही प्रक्रिया अपनाई जाएगी जो ‘संक्षिप्त पुनरीक्षण’ के दौरान होती है, जिसमें मतदाता को मौखिक सुनवाई का अधिकार मिलता है.
शहरी-ग्रामीण भेदभाव; आधार पटना में तो स्वीकार्य, लेकिन सीमांचल में नहीं
बिहार में मतदाता सूची के विशेष गहन पुनरीक्षण ने गति पकड़ ली है. 7.89 करोड़ पंजीकृत मतदाताओं में से 57% (4.5 करोड़) ने बुधवार तक अपनी गिनती के फॉर्म जमा कर दिए हैं. लेकिन यह प्रक्रिया शहरी-ग्रामीण विभाजन को उजागर करती नजर आ रही है, जैसा कि “टाइम्स ऑफ इंडिया” ने अधिकारियों और विभिन्न क्षेत्रों के लोगों से बात करके पाया.
जयनारायण पांडे ने अपनी खबर में बताया है कि जहां पटना में अधिकारी आधार कार्ड के आधार पर फॉर्म ले रहे हैं, वहीं सीमांचल और बिहार के अन्य ग्रामीण हिस्सों में लोग आधार कार्ड को स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं हैं. वहां जन्म प्रमाण पत्र या, उसके स्थान पर, भूमि आवंटन जैसे दस्तावेजों को प्राथमिकता दी जा रही है. जमीनी हकीकत जानने के लिए बूथ लेवल ऑफिसर, जीविका दीदी, शिक्षामित्र और आंगनबाड़ी सेविकाओं से बात की. ये लोग गांवों और कस्बों में फॉर्म बाँट रहे हैं और प्रक्रिया को गति दे रहे हैं. पटना और आसपास के क्षेत्रों में, मतदाताओं से कहा गया है कि वे खुद फॉर्म भरें और जमा करें.
बिहार के बाद बंगाल में होगा
'रिपोर्टर्स कलेक्टिव' के लिए आयुषी कर और नितिन सेठी की रिपोर्ट है कि बिहार के बाद अब पश्चिम बंगाल में भी मतदाता सूची को लेकर एक अभूतपूर्व और विवादास्पद प्रक्रिया शुरू होने जा रही है. स्पेशल इंटेंसिव रिवीजन (SIR) यानी विशेष गहन पुनरीक्षण के तहत, राज्य की पूरी मतदाता सूची को खारिज कर, फिर से शून्य से तैयार किया जाएगा. चुनाव आयोग (ECI) ने राज्य के मुख्य निर्वाचन अधिकारी को यह निर्देश दे दिया है और अगले पंद्रह दिनों में इस प्रक्रिया के लिखित आदेश आने की संभावना है.
पश्चिम बंगाल के एक वरिष्ठ अधिकारी ने 'रिपोर्टर्स कलेक्टिव' को बताया, “हमें वीडियो कॉन्फ्रेंस में तैयार रहने को कहा गया है. जल्द ही लिखित आदेश आ सकता है.” एक अन्य अधिकारी ने बताया कि उन्हें अक्टूबर की दुर्गा पूजा के मद्देनज़र बिहार से थोड़ी अधिक समय-सीमा मिलने की उम्मीद है.
क्या है विशेष गहन पुनरीक्षण? यह भारत के चुनावी इतिहास में पहली बार हो रहा है कि मतदाता सूची की पूरी तरह से जांच और पुनः निर्माण का आदेश दिया गया है. इस प्रक्रिया में, मतदाता की नागरिकता और पहचान को नए सिरे से साबित करने के लिए सीमित दस्तावेज़ों को स्वीकार किया जा रहा है. बिहार में यह प्रक्रिया 24 जून से शुरू हो चुकी है, जहां अलग-अलग वर्गों के लोगों से अलग स्तर की दस्तावेजी जांच की जा रही है. राज्य के निर्वाचन अधिकारियों के मुताबिक, पश्चिम बंगाल ने 2025 की शुरुआत में ही एक नियमित स्पेशल समरी रिवीजन पूरी कर ली थी और जनवरी 6, 2025 को अंतिम मतदाता सूची प्रकाशित भी की गई थी. चुनाव आयोग अब उसी सूची को 'त्रुटिपूर्ण' मानते हुए नकार सकता है और नए सिरे से पुनरीक्षण का आदेश दे सकता है. बूथ-स्तर के अधिकारियों ने पुष्टि की है कि यह पुनरीक्षण हाल ही में पूरी तरह किया गया था. बंगाल की अंतिम मतदाता सूची अब तक राज्य या चुनाव आयोग की वेबसाइट पर सार्वजनिक रूप से उपलब्ध नहीं कराई गई है. बूथवार दावे और आपत्तियों की सूची भी सार्वजनिक नहीं की गई है, जो सामान्य प्रक्रिया में होती है.
संभावित प्रभाव
बिहार की तरह बंगाल में भी करोड़ों मतदाताओं को दोबारा नागरिकता साबित करनी पड़ सकती है.
बूथ स्तर पर वर्गीकरण आधारित जांच की संभावना पर गहरा संदेह बना हुआ है.
2026 के विधानसभा चुनाव से ठीक पहले मतदाता सूची को खारिज करना राजनीतिक ध्रुवीकरण को जन्म दे सकता है.
राजनीतिक प्रतिक्रिया और सुप्रीम कोर्ट में चुनौती : इस आशंका के चलते कि चुनाव आयोग बिहार के बाद अब बंगाल को निशाना बना रहा है, तृणमूल कांग्रेस की सांसद महुआ मोइत्रा ने इस प्रक्रिया के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की है. राष्ट्रीय जनता दल के सांसद मनोज झा पहले ही बिहार के संदर्भ में याचिका दाखिल कर चुके हैं. कांग्रेस समेत INDIA गठबंधन के 9 दलों ने भी इस ‘अभूतपूर्व’ कदम के खिलाफ अदालत का दरवाज़ा खटखटाया है.
विश्लेषण
कटघरे में बिहार मतदाता, ख़तरे में देश का लोकतंत्र
निधीश त्यागी
लोकतंत्र महज़ चुनाव जीतने या हारने का खेल नहीं है. यह इस भरोसे पर टिका है कि हर एक नागरिक की आवाज़ सुनी जाएगी, उसका मत गिना जाएगा और उसकी पहचान को सम्मान मिलेगा. लेकिन जब इस भरोसे को तोड़ने की कोशिश होती है, तो लोकतंत्र की बुनियाद हिलने लगती है. बिहार में चुनाव आयोग द्वारा शुरू किया गया मतदाता सूची का विशेष गहन पुनरीक्षण (Special Intensive Revision - SIR) आज इसी भरोसे पर एक गहरे संकट की तरह मंडरा रहा है. यह मामला सिर्फ एक प्रशासनिक प्रक्रिया का नहीं है, बल्कि यह सीधे तौर पर देश के करोड़ों ग़रीब, दलित, आदिवासी और प्रवासी मज़दूरों के वोट देने के मौलिक अधिकार पर एक सोचा-समझा हमला महसूस होता है.
24 जून 2025 को चुनाव आयोग ने एक आदेश जारी किया. इसके तहत बिहार के लगभग 7.9 करोड़ मतदाताओं की सूची की नए सिरे से जाँच की जाएगी. यह फ़ैसला नवंबर 2025 में होने वाले विधानसभा चुनावों से ठीक पहले लिया गया है, जो अपने आप में कई सवाल खड़े करता है. लेकिन सबसे ज़्यादा चिंताजनक बात इस पूरी प्रक्रिया के लिए दी गई समय-सीमा है. महज़ 30 दिनों के भीतर, यानी 25 जुलाई तक, 77,895 बूथ लेवल अधिकारियों को घर-घर जाकर यह पुष्टि करनी है कि मतदाता सूची में दर्ज हर व्यक्ति असली है और उसी पते पर रहता है. अगर कोई व्यक्ति मौके पर नहीं मिलता या ज़रूरी दस्तावेज़ नहीं दिखा पाता, तो उसका नाम सूची से काटा जा सकता है. यह सुनने में जितना आसान लगता है, ज़मीनी हक़ीक़त उतनी ही भयावह है.
इस प्रक्रिया का अर्थात समझिए. यह उन लोगों के लिए एक चक्रव्यूह है जो दो वक्त की रोटी के लिए दिन-रात मेहनत करते हैं. बिहार के लाखों प्रवासी मज़दूर जो दिल्ली, मुंबई, सूरत या पंजाब में काम करते हैं, वे 30 दिन की इस छोटी सी अवधि में वापस अपने गाँव कैसे लौटेंगे. अगर लौट भी आए, तो क्या काम-धंधा छोड़कर अधिकारियों का इंतज़ार करते रहेंगे. उनके लिए रोज़ी-रोटी ज़्यादा ज़रूरी है या अपनी नागरिकता का सबूत देना. यह प्रक्रिया उन दिहाड़ी मज़दूरों के लिए भी एक सज़ा की तरह है जो सुबह काम पर निकल जाते हैं और देर रात लौटते हैं. अगर अधिकारी दिन में उनके घर आया और वे नहीं मिले, तो क्या उनका वोट देने का अधिकार छीन लिया जाएगा. यह एक ऐसा सवाल है जिसका जवाब चुनाव आयोग की नौकरशाही के पास नहीं, बल्कि भारत के संविधान की आत्मा में छिपा है.
देश के 10 से ज़्यादा विपक्षी दलों के नेताओं, नागरिक अधिकार संगठनों जैसे एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स (ADR) और पीपुल्स यूनियन फॉर सिविल लिबर्टीज (PUCL) के साथ-साथ योगेंद्र यादव जैसे कार्यकर्ताओं ने सुप्रीम कोर्ट का दरवाज़ा खटखटाया है. उनकी दलील सीधी और साफ़ है: यह प्रक्रिया मनमानी, भेदभावपूर्ण और अलोकतांत्रिक है. यह संविधान के अनुच्छेद 14 (समानता का अधिकार), अनुच्छेद 21 (जीवन और स्वतंत्रता का अधिकार) और सबसे बढ़कर अनुच्छेद 326 (सार्वभौमिक वयस्क मताधिकार) का खुला उल्लंघन है. याचिकाकर्ताओं का कहना है कि चुनाव आयोग ने इतना बड़ा फ़ैसला लेने से पहले राजनीतिक दलों से कोई सलाह-मशविरा नहीं किया, जो चुनावी प्रक्रिया में पारदर्शिता और निष्पक्षता की पहली शर्त है.
सुप्रीम कोर्ट ने 10 जुलाई को इस मामले पर सुनवाई की. कोर्ट ने इस प्रक्रिया पर तत्काल रोक लगाने से तो इनकार कर दिया और इसे एक "संवैधानिक अनिवार्यता" बताया, लेकिन साथ ही उसने चुनाव आयोग के तौर-तरीकों पर गंभीर चिंताएँ भी जताईं. कोर्ट ने साफ़ कहा कि आयोग को पहचान के लिए आधार कार्ड, वोटर आईडी और राशन कार्ड जैसे दस्तावेज़ों को शामिल करने पर विचार करना होगा. यह एक महत्वपूर्ण निर्देश है, क्योंकि आयोग की मूल सूची में ऐसे कई दस्तावेज़ मांगे गए थे, जिन्हें बनवाना ग़रीब और हाशिए पर रहने वाले समुदायों के लिए लगभग असंभव है. जैसे, प्रवासी मज़दूरों से निवास प्रमाण पत्र (डोमिसाइल) मांगना एक क्रूर मज़ाक जैसा है. उनका तो कोई एक स्थायी पता ही नहीं होता. दलित और आदिवासी समुदायों के लिए जाति प्रमाण पत्र बनवाना आज भी एक बड़ी चुनौती है, जिसमें महीनों लग जाते हैं और दफ़्तरों के अनगिनत चक्कर काटने पड़ते हैं.
कोर्ट ने इस मामले की अगली सुनवाई 28 जुलाई को तय की है और चुनाव आयोग को 21 जुलाई तक अपना जवाब दाखिल करने को कहा है. यह तारीख़ बहुत अहम है क्योंकि 1 अगस्त को मतदाता सूची का मसौदा प्रकाशित होना है. कोर्ट की टिप्पणी से यह उम्मीद ज़रूर बंधी है कि न्याय का दरवाज़ा अभी बंद नहीं हुआ है, लेकिन ख़तरा टला नहीं है. जब तक यह प्रक्रिया जारी है, लाखों लोगों के सिर पर मताधिकार छिन जाने की तलवार लटकती रहेगी.
अब सवाल यह उठता है कि चुनाव आयोग ने यह अजीबोगरीब और अव्यावहारिक क़दम उठाया ही क्यों. क्या यह सचमुच एक बड़ी साज़िश है, जैसा कि विपक्ष आरोप लगा रहा है, ताकि सत्ता के आलोचकों को मतदाता सूची से बाहर कर दिया जाए. या फिर यह महज़ नौकरशाही की एक भारी भूल है. रुचि गुप्ता के मुताबिक एक सिद्धांत है, जिसे 'हैनलन्स रेज़र' कहते हैं. इसका मतलब है कि किसी चीज़ को सीधे-सीधे बुरी नीयत या साज़िश का नतीजा मानने से पहले ये सोचना चाहिए कि क्या वो किसी भारी नाकामी या अयोग्यता का परिणाम तो नहीं है. हो सकता है कि हाल ही में महाराष्ट्र में मतदाता सूची पर लगे आरोपों के बाद चुनाव आयोग अपनी साख बचाने के लिए दबाव में आ गया हो. शायद वे यह दिखाना चाहते थे कि वे मतदाता सूची की शुचिता को लेकर बहुत गंभीर हैं.
लेकिन अपनी गंभीरता साबित करने की हड़बड़ी में आयोग ने एक ऐसा काम कर डाला जो ज़मीनी हक़ीक़त से कोसों दूर है. उन्होंने यह आकलन ही नहीं किया कि जिन दस्तावेज़ों की वे मांग कर रहे हैं, वे बिहार के आम लोगों, ख़ासकर ग़रीबों के पास हैं भी या नहीं. नतीजा यह हुआ कि जो प्रक्रिया लोकतंत्र को मज़बूत करने के लिए थी, वही आज लोकतंत्र के लिए सबसे बड़ा ख़तरा बन गई है. यह एक संस्थागत घबराहट का नतीजा ज़्यादा लगता है, न कि लोकतंत्र को हाईजैक करने की कोई सुनियोजित साज़िश. लेकिन इसका असर वही है. चाहे इरादा साज़िश का हो या नाकामी का, अंत में पिस तो आम नागरिक ही रहा है.
चुनाव आयोग की सबसे बड़ी ग़लती यह थी कि उसने संवाद का रास्ता नहीं अपनाया. उसे सभी राजनीतिक दलों और नागरिक समाज के लोगों को बुलाकर एक बैठक करनी चाहिए थी. उसे अपनी समस्याएँ बतानी चाहिए थीं और सबसे पूछना चाहिए था कि एक ऐसी मतदाता सूची कैसे बनाई जाए जिस पर सबको भरोसा हो. भारत जैसे विशाल और विविधता वाले देश में चुनावी प्रक्रिया की शुचिता केवल तकनीकी या जाँच-पड़ताल से सुनिश्चित नहीं हो सकती. इसका आधार एक साझा राजनीतिक विश्वास होता है, जिसमें सत्ता पक्ष, विपक्ष और नागरिक, सभी भागीदार होते हैं. चुनाव आयोग ने एकतरफ़ा फ़ैसला लेकर इसी विश्वास को तोड़ा है. अपनी संस्थागत ताक़त बचाने की कोशिश में, उसने संस्थागत भरोसे को और भी ज़्यादा कमज़ोर कर दिया है.
आज ज़रूरत इस बात की है कि इस पूरी प्रक्रिया को तत्काल रोका जाए. चुनाव आयोग को अपनी ग़लती स्वीकार करनी चाहिए और एक नई शुरुआत करनी चाहिए. उसे एक सर्वदलीय बैठक बुलानी चाहिए, जिसमें नागरिक संगठनों को भी शामिल किया जाए. यह समय एक-दूसरे पर दोष मढ़ने का नहीं, बल्कि मिलकर समस्या का समाधान निकालने का है. विपक्ष की भी यह ज़िम्मेदारी है कि वे हर संस्थागत ग़लती को साज़िश का नाम देकर लोकतंत्र को और कमज़ोर न करें. उन्हें रचनात्मक तरीक़े से अपनी बात रखनी चाहिए और ज़मीनी स्तर पर लोगों को संगठित करके उनके अधिकारों की रक्षा करनी चाहिए.
लोकतंत्र ध्रुवीकरण से मज़बूत नहीं होता. वह संवाद, सहयोग और विश्वास से फलता-फूलता है. चुनाव आयोग को अपना पहला क़दम उठाना होगा, लेकिन विपक्ष को भी सकारात्मक प्रतिक्रिया देनी होगी. बिहार के मतदाता आज डरे हुए हैं, चिंतित हैं और अपने ही देश में अपनी पहचान साबित करने के लिए दस्तावेज़ों के ढेर के साथ लाइनों में लगने को मजबूर हैं. हम उन्हें इस हाल में नहीं छोड़ सकते. वोट देने का अधिकार कोई खैरात नहीं है, यह हर भारतीय नागरिक का सबसे पवित्र अधिकार है. इस अधिकार की रक्षा करना केवल कोर्ट या सरकार की नहीं, बल्कि हम सब की ज़िम्मेदारी है. अगर बिहार में यह प्रयोग सफल हो गया, तो इसे पूरे देश में लागू करने से कोई नहीं रोक पाएगा, और वह भारतीय लोकतंत्र के लिए एक काला दिन होगा. इसलिए, जनता को सतर्क रहना होगा और अपने मताधिकार के लिए संघर्ष करना होगा, क्योंकि एक जागरूक नागरिक ही लोकतंत्र का सबसे बड़ा प्रहरी होता है.
मैंने यहां पर 20 सवाल बताए हैं जिसके कारण इस फैसले और कार्रवाई में दाल में काला लगता है. और गुरुवार को सुप्रीम कोर्ट का फैसला आने के बाद जनाधिकारों के लिए बिहार की जमीन पर लड़ रही कामायनी स्वामी से बात की जो आप यहां सुन सकते हैं.
बिहारी में सियासी भसड़: इस बीच, बिहार में चुनाव आयोग के कदम से भड़के जनाक्रोश के कारण भाजपा और उसके सहयोगी दलों जदयू और लोजपा (आरवी) की सत्ता पर पकड़ कमजोर पड़ती दिख रही है. मतदाताओं का भरोसा संदेह में बदल रहा है. पार्टी के अपने सर्वेक्षणों में 10 में से 6-7 नागरिक एक संदिग्ध बहाने के तहत मताधिकार से वंचित होने के डर से पार्टी के खिलाफ गुस्सा जाहिर कर रहे हैं. एक दशक पहले राजद प्रमुख लालू प्रसाद ने अपने ठेठ अंदाज में पूछा था, "ये आईटी-बाइट क्या होता है?". आज उनके बेटे तेजस्वी यादव के नेतृत्व में पार्टी एक टेक-सेवी राजनीतिक ताकत बन गई है. राजद अब एनडीए का मुकाबला करने के लिए आईटी और एआई-संचालित संचार रणनीतियों का इस्तेमाल कर रही है. पार्टी के आईटी सेल ने मतदाता सूची की समीक्षा को "वोटबंदी" का नाम दिया है. हाल ही में पीएम मोदी और सीएम नीतीश पर बना एक एआई-जनरेटेड मीम वीडियो, जिसमें 'जुमलों की बारिश...' गाना था, काफी वायरल हुआ था.
एनपीआर पर फैसला नहीं : इस महीने की शुरुआत में हुई जनगणना संचालन निदेशकों की एक कॉन्फ्रेंस में जब राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर (एनपीआर) के बारे में सवाल उठाए गए, तो बताया गया कि इसे अपडेट करने पर अभी कोई फैसला नहीं हुआ है. एनपीआर, राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर (एनआरसी) बनाने की दिशा में पहला कदम है. मकान सूचीकरण और आवास जनगणना चरण के लिए प्री-टेस्ट अगस्त-सितंबर में होना है. लेकिन जनसंख्या गणना चरण, जिसमें जाति पर सवाल शामिल हैं, को प्री-टेस्ट से बाहर रखा गया है. यह संकेत देता है कि इस चरण के लिए कार्यप्रणाली अभी तय नहीं हुई है.
2020 दिल्ली दंगे
दिल्ली पुलिस की दलील : जब तक बेकसूर साबित न हों, दंगा आरोपियों को जेल में ही रखा जाए
'स्क्रोल' की रिपोर्ट है कि दिल्ली पुलिस ने बुधवार को दिल्ली हाईकोर्ट से आग्रह किया कि 2020 के दंगों की "बड़ी साज़िश" में शामिल आरोपियों को ज़मानत न दी जाए. पुलिस का कहना है कि इन लोगों ने योजनाबद्ध तरीके से देश को बदनाम करने की कोशिश की थी. सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने न्यायमूर्ति नवीन चावला और शालिंदर कौर की पीठ से कहा — “अगर आप देशविरोधी गतिविधियों में शामिल हैं, तो आपको दोषमुक्त होने या दोषी ठहराए जाने तक जेल में ही रहना चाहिए.” उन्होंने कहा कि यह कोई साधारण मामला नहीं है जिसमें आरोपी लंबे समय से हिरासत में रहने का हवाला देकर ज़मानत की मांग करें. “जब बात देश की संप्रभुता पर हमला करने की हो, तो लंबी कैद कोई रियायत का आधार नहीं हो सकती.”
क्या है मामला? यह मामला फरवरी 2020 में उत्तर-पूर्वी दिल्ली में भड़के दंगों से जुड़ा है, जिसमें नागरिकता संशोधन कानून (CAA) के समर्थकों और विरोधियों के बीच हिंसक झड़पें हुई थीं. इस हिंसा में 53 लोग मारे गए और सैकड़ों घायल हुए थे. पुलिस का दावा है कि यह हिंसा एक सुनियोजित साजिश का हिस्सा थी, जिसका मकसद मोदी सरकार को बदनाम करना था. पुलिस ने कहा कि इस साजिश की रूपरेखा CAA विरोधी प्रदर्शनों के दौरान तैयार की गई थी.
किन पर है आरोप? जिन आरोपियों की ज़मानत याचिकाओं पर अदालत ने सुनवाई की, उनमें उमर खालिद, शरजील इमाम, गुलफिशा फातिमा, मोहम्मद सलीम खान, शिफा-उर-रहमान, अथर खान, खालिद सैफी, तस्लीम अहमद (अलग पीठ में सुनवाई), शादाब अहमद (गुरुवार को सुनवाई) शामिल हैं.
क्या कहा गया कोर्ट में? सॉलिसिटर जनरल ने आरोप लगाया कि शरजील इमाम और उमर खालिद ने “Muslim Students of JNU” नामक वॉट्सएप ग्रुप बनाकर विश्वविद्यालय के धर्मनिरपेक्ष स्वरूप को बिगाड़ा. उन्होंने एक भाषण का उल्लेख किया जिसमें इमाम ने कथित तौर पर "असम को भारत से काट देने" की बात कही थी. इमाम ने बाद में स्पष्ट किया कि उनका मतलब केवल चक्का जाम था.
बीते वर्षों में इस केस को लेकर कई आलोचक यह कहते रहे हैं कि पुलिस की जांच पक्षपातपूर्ण रही है और इसका इस्तेमाल सरकार के खिलाफ बोलने वालों को दबाने के लिए किया गया है. उमर खालिद ने अदालत में दलील दी कि वॉट्सएप ग्रुप का हिस्सा होना किसी आपराधिक साजिश में शामिल होने का प्रमाण नहीं है. जस्टिस चावला और कौर की पीठ ने सात आरोपियों की ज़मानत याचिका पर फैसला सुरक्षित रख लिया है. तस्लीम अहमद की याचिका पर दूसरी पीठ ने भी फैसला सुरक्षित कर लिया.
हेट अलर्ट
कांवड़ यात्रा के दौरान दुकानदारी पर कहर, स्वामी यशवीर महाराज ने ढाबा मालिकों को किया परेशान
'द टेलिग्राफ' की रिपोर्ट है कि उत्तर प्रदेश में कांवड़ यात्रा की तैयारियों के बीच धर्म के नाम पर उत्पीड़न की घटनाओं की बाढ़ आ गई है. खुद को 'सनातन धर्म का रक्षक' बताने वाला स्वामी यशवीर महाराज नामक एक व्यक्ति राज्य सरकार द्वारा जारी विशेष QR कोड का इस्तेमाल करके दुकानदारों और ढाबा मालिकों की पहचान जांचने और उन्हें हिंदू प्रतीकों को लगाने के लिए मजबूर कर रहा है.
मुजफ्फरनगर का निवासी स्वामी यशवीर राज्य सरकार से सुरक्षा प्राप्त है. बुधवार को गाजियाबाद के मोहन नगर में कांवड़ मार्ग पर स्थित दुकानों और ढाबों पर यशवीर पहुंचा. उसने वहां लगाए गए QR कोड स्कैन किए, जो दुकान के मालिक और कर्मचारियों की पहचान उजागर करते हैं. इसके बाद उसने दुकानों पर भगवा झंडे और भगवान वराह की तस्वीरें लगाने का अभियान चलाया.
स्वामी यशवीर का कहना है - “मैं कोई छापा नहीं मार रहा. मैं बस दुकानदारों को सनातन धर्म के प्रतीकों से मार्गदर्शन दे रहा हूं कि कांवड़िये कहां खाएं और कहां सामान खरीदें”. यशवीर के समर्थकों ने पिछले सप्ताह कई दुकानों और ढाबों पर कथित तौर पर मुस्लिम मालिकों को निशाना बनाया. हिंदू देवी-देवताओं की तस्वीरें लगाने के बावजूद, उन्हें शक हुआ तो एक ढाबा कर्मचारी को कपड़े उतरवाकर उसकी धार्मिक पहचान जांची गई.
यूपी सरकार के खाद्य सुरक्षा और औषधि प्रशासन विभाग ने कांवड़ मार्ग पर स्थित सभी दुकानों को आदेश दिया है कि वे अपने रजिस्ट्रेशन बोर्ड के साथ-साथ विशेष QR कोड लगाएं. यह QR कोड ग्राहकों को शिकायत दर्ज करने और प्रतिक्रिया देने की सुविधा देता है, लेकिन यह दुकान मालिक का नाम भी उजागर करता है, जिससे उनकी धार्मिक पहचान पता लगाई जा सकती है.
पुलिस की भूमिका और मौन स्वीकृति: अब तक पुलिस ने यशवीर के खिलाफ कोई सख्त कार्रवाई नहीं की है. सिर्फ कुछ समर्थकों को नोटिस जारी किए गए हैं. पुलिस अधिकारी सत्यानारायण प्रजापति ने कहा, "किसी को ढाबा मालिकों की पहचान पूछने का अधिकार नहीं है. जो पहले गड़बड़ी कर चुके हैं उन्हें चेतावनी दी गई है." लेकिन ढाबा मालिकों की शिकायतें कुछ और ही कहानी बयां करती हैं.
"प्याज़ डाली, तो कुर्सियाँ तोड़ दीं" : मुजफ्फरनगर के डालौदा गांव के ढाबा मालिक धीरेज मलिक ने बताया कि हरियाणा से आए चार कांवड़ियों ने खाना खाया और बाद में हंगामा मचा दिया क्योंकि सब्ज़ी में प्याज़ थी. धीरेज मलिक का कहना है - “उन्हें पहले बता देना चाहिए था कि प्याज़ नहीं खाएंगे. खाना खाकर कुर्सियां तोड़ने लगे.” पुलिस के मुताबिक मामूली विवाद था और स्थिति को काबू कर लिया गया.
धर्म के नाम पर उत्पीड़न : पूर्व समाजवादी सांसद एस.आर. हसन ने इन घटनाओं को लेकर कहा, “कुछ लोग आतंकवादियों की तरह बर्ताव कर रहे हैं और सरकार उन्हें संरक्षण दे रही है.” मेरठ में यात्रा से पहले समीक्षा बैठक में डीजीपी राजीव कृष्ण ने कहा कि “खाद्य सुरक्षा विभाग के अधिकारियों को छोड़कर किसी को दुकानदारों की पहचान पूछने की इजाज़त नहीं है.”
सवाल खड़े करता यह QR कोड मॉडल:
जब सरकार द्वारा जारी QR कोड दुकान मालिक की पहचान उजागर करता है, तो क्या यह एक प्रच्छन्न सामाजिक छंटनी का माध्यम बन रहा है?
क्या कांवड़ यात्रा की आड़ में कुछ समूह सांप्रदायिक उन्माद फैला रहे हैं, और उन्हें राज्य समर्थन प्राप्त है?
क्या यह नव-राजनीतिक ‘सफाई अभियान’ है, जो सार्वजनिक स्थानों पर धार्मिक असहिष्णुता को संस्थागत रूप दे रहा है?
बिजली नहीं है, बोलो जय श्रीराम!
आम जनता की तकलीफों या शिकायतों को लेकर जब बात जावबदेही की आती है, तो भाजपा सरकारों के मंत्री इससे कैसे निपटते हैं, हाल ही में इसके दो नमूने देखने को मिले हैं. कई लोगों की यह धारणा है कि 'जय श्री राम' एक ऐसा नारा है, जिसका इस्तेमाल जनता को बेवकूफ बनाने के लिए किया जाता है, लेकिन इस प्रवृत्ति का इतना शुद्ध उदाहरण मिलना दुर्लभ है. पहला केस उत्तरप्रदेश का है, जहां के ऊर्जा मंत्री ए.के. शर्मा को जब सुल्तानपुर दौरे के दौरान बिजली कटौती की शिकायतें सुनने को मिलीं, तो बजाय समाधान करने के उन्होंने “जय श्री राम” का नारा लगाया और चलते बने. शर्मा, जो गुजरात काडर के आईएएस अधिकारी थे और नरेंद्र मोदी के साथ क़रीबी से काम कर चुके हैं, सक्रिय 'राजनीति' में आ गए.
रेखा गुप्ता के बंगले का टेंडर रद्द: दिल्ली सरकार ने मुख्यमंत्री रेखा गुप्ता के राज निवास मार्ग स्थित आधिकारिक आवास के नवीनीकरण के लिए जारी किए गए 60 लाख रुपये के टेंडर को "प्रशासनिक कारणों" का हवाला देते हुए रद्द कर दिया है. इस टेंडर में मुख्यमंत्री के आवास पर 14 एयर कंडीशनर, कई टेलीविज़न सेट और अन्य विद्युत उपकरणों को लगाने का प्रस्ताव था.
अनिल अंबानी और ‘फ्रॉड’ लोन खाता: 'द टेलिग्राफ' की रिपोर्ट है कि गुरुवार को कैनरा बैंक ने बॉम्बे हाई कोर्ट को सूचित किया कि उसने अनिल अंबानी से जुड़ी रिलायंस कम्युनिकेशंस के लोन खाते को ‘धोखाधड़ी’ घोषित करने वाला आदेश वापस ले लिया है. अनिल अंबानी ने बॉम्बे हाई कोर्ट में याचिका दायर कर कैनरा बैंक द्वारा उनके लोन खाते को 'फ्रॉड' घोषित करने के फैसले को चुनौती दी थी. बैंक ने अब यह आदेश स्वेच्छा से वापस ले लिया, जिसकी जानकारी अदालत को दे दी गई है. इस फैसले को अनिल अंबानी के लिए एक बड़ी राहत के तौर पर देखा जा रहा है.
जब तक सड़कें रहेंगी, तब तक गड्ढे भी रहेंगे
दूसरे साहब हैं, मध्यप्रदेश के पीडब्ल्यूडी मंत्री राकेश सिंह, जिन्होंने कल अपना “गड्ढा सिद्धांत” पेश किया, जिसमें उन्होंने घोषणा की कि “जब तक सड़कें रहेंगी, तब तक गड्ढे भी रहेंगे.” उन्होंने आगे कहा, “रहेंगे” से मेरा मतलब है कि कई बार ऐसा हो सकता है कि पांच साल की आयु वाली सड़क चार साल बाद गड्ढेदार हो जाए. लेकिन अगर चार साल की आयु वाली सड़क छह महीने में ही गड्ढेदार हो जाए, तो यह गलत है और इसकी जांच होनी चाहिए. लेकिन मुझे दुनिया में ऐसी कोई सड़क नहीं पता जो कभी गड्ढेदार न हुई हो. ऐसी सड़कें बनाने की कोई तकनीक पीडब्ल्यूडी के संज्ञान में नहीं आई है.”
छात्राओं को पीरियड्स की जांच के नाम पर नंगा किया गया, प्रिंसिपल समेत 8 पर केस दर्ज
‘एबीपी न्यूज’ की रिपोर्ट है कि महाराष्ट्र के थाणे जिले के शाहापुर इलाके में एक निजी स्कूल (आरएस दामानी स्कूल) में कक्षा 5 से 10 तक की छात्राओं के साथ अमानवीय घटना सामने आई है. मंगलवार को स्कूल के शौचालय में खून के दाग मिले थे. बुधवार को लड़कियों को असेंबली हॉल में बुलाकर प्रोजेक्टर के जरिए खून के दाग दिखाए गए और पूछा गया कि क्या उनमें से कोई मासिक धर्म से गुजर रही है. छात्राओं को दो ग्रुप्स में बांटा गया, जिन्होंने पीरियड्स होने की बात कही, उनसे अंगूठे का निशान लिया गया. जिन लड़कियों ने पीरियड्स नहीं होने की बात कही, उन्हें एक-एक करके शौचालय में ले जाकर एक महिला अटेंडेंट द्वारा उनके प्राइवेट पार्ट्स की जांच की गई. छात्राओं के माता-पिता को जब इस शर्मनाक घटना के बारे में पता चला, तो वे स्कूल परिसर में जमा हुए और जिम्मेदार शिक्षकों और प्रबंधन के खिलाफ कार्रवाई की मांग की है. इस मामले में प्रिंसिपल और चार शिक्षकों समेत आठ लोगों के खिलाफ केस दर्ज किया गया है.
25 करोड़ मजदूरों की हड़ताल, खबर देखी?
केंद्र सरकार द्वारा लाए गए चार श्रम संहिताओं (लेबर कोड) के विरोध में बुधवार को 10 केंद्रीय ट्रेड यूनियनों ने देशव्यापी हड़ताल का आयोजन किया. इस हड़ताल में सार्वजनिक और निजी क्षेत्रों के करीब 25 करोड़ से अधिक श्रमिकों ने हिस्सा लिया. श्रमिक संघों ने 17-सूत्रीय मांगों का एक चार्टर पेश किया, जिसमें मुख्य मांग इन श्रम संहिताओं को रद्द करना है. मुख्यधारा की मीडिया से यह खबर गायब रही.
विरोध कर रहे यूनियनों, जिनमें इंटक, आयटक और सीटू शामिल हैं, ने मोदी सरकार पर सुधारों के नाम पर श्रमिक अधिकारों को कमजोर करने का आरोप लगाया है. उनकी अन्य प्रमुख मांगों में ₹26,000 का न्यूनतम मासिक वेतन और रोजगार के अवसर पैदा करने में सरकार की विफलता का मुद्दा भी शामिल है. ये चार श्रम संहिताएं 2019-20 में 29 पुराने श्रम कानूनों को मिलाकर बनाई गई थीं, जिसका यूनियनें लगातार विरोध कर रही हैं.
इस हड़ताल का असर देश के कई राज्यों में देखने को मिला. असम, बिहार, झारखंड, तमिलनाडु, पंजाब, केरल और पश्चिम बंगाल जैसे राज्यों में बंद जैसी स्थिति बन गई. कोयला, बैंकिंग, बीमा, दूरसंचार और रक्षा जैसे कई महत्वपूर्ण क्षेत्रों के कर्मचारी इस हड़ताल में शामिल हुए. संयुक्त किसान मोर्चा समेत कई किसान संगठनों ने भी इस हड़ताल को अपना समर्थन दिया, जिससे ग्रामीण भारत में भी इसका व्यापक असर दिखा.
हालांकि, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से संबद्ध भारतीय मजदूर संघ (BMS) ने इस हड़ताल से खुद को दूर रखा. BMS ने इसे 'राजनीति से प्रेरित' बताते हुए अपने संघों से इसमें शामिल न होने की अपील की. वहीं, बिहार में विपक्षी दलों पर श्रमिक आंदोलन को 'हाईजैक' करने का भी आरोप लगा.
विश्लेषकों के अनुसार, यह हड़ताल इन श्रम संहिताओं के खिलाफ पहला बड़ा संगठित प्रदर्शन है, जो बढ़ती महंगाई और बेरोजगारी के बीच श्रमिकों की एकजुटता और असंतोष को दर्शाता है.
हिंसा शुरू होने के दो साल बाद शांति का आइडिया
मणिपुर में मई 2023 से शुरू जातीय हिंसा को समाप्त करने की दिशा में अब जाकर केंद्र ने तय किया है कि हिंसा से प्रभावित कुकी और मैतेई समुदायों के नेताओं को एक साथ बातचीत की मेज पर लाया जाए. यह कदम राज्य में हिंसा में आई कमी और दोनों पक्षों के साथ अलग-अलग हुई सफल वार्ताओं के बाद उठाया जा रहा है.एक वरिष्ठ अधिकारी ने बताया कि पिछले तीन महीनों में केंद्र ने दोनों समुदायों के प्रतिनिधियों के साथ तीन-तीन दौर की अलग-अलग बातचीत की है, जो "रचनात्मक" रही है. इन बैठकों में दोनों पक्षों ने शांति बहाली की इच्छा जताई है, जिससे एक संयुक्त बैठक की उम्मीदें बढ़ गई हैं. अधिकारियों का मानना है कि अगर अगले कुछ महीने शांतिपूर्ण रहते हैं, तो यह संयुक्त वार्ता राज्य में स्थायी शांति स्थापित करने में मील का पत्थर साबित हो सकती है. इस शांति प्रक्रिया के साथ-साथ सुरक्षाबल भी राज्य में कानून-व्यवस्था कायम करने के लिए लगातार काम कर रहे हैं. राज्यपाल अजय भल्ला की अपील के बाद अब तक 1,089 अवैध हथियार स्वेच्छा से सौंपे जा चुके हैं, जिससे बरामद कुल हथियारों की संख्या 5,859 हो गई है. सुरक्षाबलों ने इंफाल घाटी समेत कई पहाड़ी जिलों में तलाशी अभियान चलाकर बड़ी मात्रा में हथियार और विस्फोटक जब्त किए हैं. इसके अलावा, जबरन वसूली करने वाले आपराधिक नेटवर्कों पर भी शिकंजा कसा गया है. अब तक 600 से अधिक मामले दर्ज कर 320 से ज्यादा लोगों को गिरफ्तार किया गया है.
विकसित भारत का सपना? जेएनयू में अर्थशास्त्र के प्रोफेसर एमेरिटस दीपक नैय्यर ने कहा है कि 2047 तक भारत के विकसित होने की संभावना 'लगभग न के बराबर' है, जब तक कि हम अपनी उच्च शिक्षा प्रणाली को ठीक नहीं करते. कल बीजी देशमुख स्मृति व्याख्यान में उन्होंने कहा कि हमारी उच्च शिक्षा राजनीतिक हस्तक्षेप, धन की कमी और स्वायत्तता के अभाव से बाधित है. उन्होंने कहा, "यह कोई संयोग नहीं है कि हमारे विश्वविद्यालयों ने कोई नोबेल पुरस्कार विजेता नहीं दिया है. और जिस तरह से हम चल रहे हैं, मुझे लगता है कि वे अगले 25 वर्षों में भी ऐसा नहीं कर पाएंगे".
वकीलों को समन भेजने की नई प्रथा का सुप्रीम कोर्ट ने संज्ञान लिया
सीजेआई बी.आर. गवई ने जांच एजेंसियों द्वारा मनी लॉन्ड्रिंग और अन्य अपराधों में अभियोजन का सामना कर रहे ग्राहकों को कानूनी सलाह देने वाले अधिवक्ताओं को समन भेजने की नई प्रवृत्ति के खिलाफ स्वत: संज्ञान कार्यवाही शुरू की है. सीजेआई के अलावा जस्टिस के. विनोद चंद्रन और जस्टिस एन.वी. अंजारिया की बेंच इस मामले की सुनवाई 14 जुलाई को करेगी. यह कदम ऐसे समय में उठाया गया है, जब कई बार एसोसिएशनों और वकीलों ने प्रवर्तन निदेशालय (ईडी) द्वारा वरिष्ठ अधिवक्ताओं को समन भेजने की प्रथा की निंदा की है.
नईम साहब का निधन: उर्दू के सबसे सम्मानित विद्वानों में से एक, प्रोफेसर चौधरी मोहम्मद नईम का 89 वर्ष की आयु में निधन हो गया. उत्तर प्रदेश के बाराबंकी में जन्मे नईम उर्दू साहित्य की बेहतरीन आवाजों में से थे. उनकी एक हालिया किताब 'Urdu Crime Fiction, 1890–1950: An Informal History' थी, जो 2023 में प्रकाशित हुई. उनकी आने वाली किताब 'Prison Observations of a Maverick Maulana' मौलाना हसरत मोहानी के शुरुआती जीवन पर है. यह किताब सैयद फजलुल हसन हसरत के उस दौर के बारे में है, जब वे एक महान गजल शायर, 'इंकलाब जिंदाबाद' का नारा देने वाले दिलेर राजनीतिक कार्यकर्ता और संविधान सभा के सदस्य नहीं बने थे.
ट्रम्प की टैरिफ धमकी पर लूला का पलटवार
अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प द्वारा ब्राजीलियाई सामानों पर 50% का भारी-भरकम आयात शुल्क (टैरिफ) लगाने की धमकी के बाद ब्राजील ने तीखा पलटवार किया है. ब्राजील के राष्ट्रपति लुइज़ इनासियो लूला डा सिल्वा ने स्पष्ट किया है कि यदि अमेरिका ऐसा कोई एकतरफा कदम उठाता है, तो ब्राजील भी अमेरिकी उत्पादों पर बराबरी का टैरिफ लगाकर जवाब देगा.
यह विवाद तब शुरू हुआ जब ट्रम्प ने एक पत्र में ब्राजील द्वारा पूर्व राष्ट्रपति जायर बोल्सोनारो के साथ किए जा रहे व्यवहार को टैरिफ वृद्धि का कारण बताया. बोल्सोनारो पर 2022 के चुनाव में हार के बाद लूला के खिलाफ तख्तापलट की कोशिश का मुकदमा चल रहा है. ट्रम्प ने इस मामले की तुलना अमेरिका में अपने खिलाफ चल रहे कानूनी मामलों से की थी. राष्ट्रपति लूला ने सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म 'एक्स' पर एक पोस्ट में कहा, "ब्राजील एक संप्रभु देश है जिसकी संस्थाएं स्वतंत्र हैं और हम किसी का दबाव स्वीकार नहीं करेंगे." उन्होंने ट्रम्प के इस दावे को भी "गलत" बताया कि अमेरिका को ब्राजील के साथ व्यापार घाटा है. अमेरिकी सरकारी आंकड़ों के अनुसार, 2024 में अमेरिका को ब्राजील के साथ 7.4 बिलियन डॉलर का व्यापार अधिशेष (सरप्लस) हुआ है. ट्रम्प ने अपने पत्र में ब्राजील पर अमेरिकी सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स पर "गैर-कानूनी सेंसरशिप" लगाने का भी आरोप लगाया था. इस पर लूला ने कहा कि ब्राजीलियाई समाज नफरती सामग्री, नस्लवाद और लोकतंत्र विरोधी भाषणों को खारिज करता है, और इसी कारण अदालत ने ऐसे आदेश दिए. राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि ट्रम्प का यह राजनीतिक हमला लूला को घरेलू स्तर पर फायदा पहुंचा सकता है, क्योंकि ट्रम्प का विरोध करने वाले नेताओं की लोकप्रियता अक्सर अपने देशों में बढ़ जाती है.
इलोन मस्क की कंपनी स्टारलिंक को भारत में मिली सैटेलाइट इंटरनेट सेवा शुरू करने की मंजूरी
'रॉयटर्स' की रिपोर्ट है कि इलोन मस्क की स्वामित्व वाली सैटेलाइट संचार कंपनी स्टारलिंक को भारत में अपनी सैटेलाइट आधारित इंटरनेट सेवा शुरू करने के लिए इंडियन नेशनल स्पेस प्रमोशन एंड ऑथराइजेशन सेंटर (IN-SPACe) से नियामकीय मंजूरी मिल गई है. इससे कुछ सप्ताह पहले ही भारत सरकार ने जून की शुरुआत में स्टारलिंक को को GMPCS, VSAT और ISP Category-A सेवाओं के लिए यूनिफाइड लाइसेंस के तहत लाइसेंस जारी किया था. अब स्टारलिंक भारत में उपग्रह संचार (satcom) सेवाएं शुरू करने वाली तीसरी कंपनी बन गई है. इससे पहले वनवेब और रिलायंस जिओ को इस क्षेत्र में मंजूरी मिल चुकी है. स्टारलिंक की एंट्री से भारत में डिजिटल समावेशन को बल मिलेगा, खासकर उन क्षेत्रों में जहां फाइबर या मोबाइल नेटवर्क पहुंचना मुश्किल है.
ज़िम्बाब्वे की लीथियम खदानों में मौत और मुनाफा, ईवी क्रांति की स्याह हकीकत
मार्च 2023 की एक सर्द और भीगी रात, 22 वर्षीय डार्लिंगटन विविटो ने अपने मां-बाप से अलविदा कहा और एक टॉर्च, बोरे और उम्मीदों के सहारे निकल पड़ा, लिथियम खदान की ओर जहां अब चीनी कंपनी सिनोमाइन का कब्जा है. सुबह होते-होते, वह ज़िंदा नहीं बचा. सुरक्षा गार्ड की गोली उसके सिर में लगी. अस्पताल में कुछ दिन जूझने के बाद उसकी मौत हो गई. 'रेस्ट ऑफ द वर्ल्ड' की रिपोर्ट है कि डार्लिंगटन न तो कोई अपराधी था, न ही उग्रवादी. वह उन हज़ारों ज़िम्बाब्वे निवासियों में से था जिन्हें लीथियम समृद्ध ज़मीन पर जीने का हक़ तो है, पर हिस्सा नहीं. नौकरी के दरवाज़े बंद थे, खेत बंजर हो चुके थे और पानी की तलाश अब 4 किलोमीटर दूर ले जाती है. वजह, चीनी कंपनी द्वारा बनाए गए विषैली कचरे की झीलें और खाइयां. नई मालिक कंपनी ने खदान को चारों ओर से खाई और दीवारों से घेर दिया है. स्थानीयों की जमीन छिन गई, पशुओं के चरने की जगह और पीने के पानी के स्रोत खत्म हो गए. गांवों को कोई मुआवज़ा नहीं मिला.
साल 2022 में चीन की सिनोमाइन कंपनी ने $180 मिलियन में बिकिता लिथियम खदान खरीदी और जल्द ही एक और $200 मिलियन के निवेश का ऐलान किया. सरकार ने इसे आर्थिक क्रांति बताया, लेकिन ज़मीनी सच्चाई यह है कि गांवों के घर उजड़े, युवाओं को खदान में अवैध घुसपैठ करनी पड़ी और महिलाओं ने सुरक्षा गार्डों द्वारा यौन हिंसा की गंभीर शिकायतें कीं, जिन पर कोई आधिकारिक कार्रवाई नहीं हुई. खदान में चोरी से काम करने वाली छह महिलाओं ने सुरक्षा गार्डों द्वारा यौन शोषण के आरोप लगाए हैं. इनमें से कई ने कहा कि बढ़ी सुरक्षा के बाद शोषण और बढ़ गया, क्योंकि अंदर जाने के लिए रिश्वत देना पड़ता था.
"हम चोर नहीं, अपने ही खजाने के हिस्सेदार हैं," - यह कहना है उन हज़ारों छोटे खनिकों का जो बिना लाइसेंस, जान जोखिम में डालकर खनन करते हैं. सरकार के मुताबिक ज़िम्बाब्वे में करीब 1.5 मिलियन लोग लघु खनन में लगे हैं, लेकिन अधिकतर बिना वैधानिक मंज़ूरी के. विविटो की मौत के बाद न तो खदान कंपनी ने संपर्क किया, न ही कोई क्षतिपूर्ति दी गई. उसकी मां जेस्टिना मकुसे कहती हैं, “मेरे बेटे ने कुछ गलत नहीं किया था. वह बस जीना चाहता था.”
विविटो और उसके जैसे अन्य लोगों की कहानी बताती है कि विकास के नाम पर जो चमक दुनिया देख रही है, वह बिकिता में दर्द, विस्थापन और खामोश कब्रगाहों से होकर गुज़रती है. डार्लिंगटन की कहानी किसी एक गांव की नहीं, बल्कि पूरे अफ्रीकी महाद्वीप में फैलते उस ‘हरित उपनिवेशवाद’ की गवाही है, जहां हरित ऊर्जा की दौड़ में सबसे पहले कुचला जाता है - मनुष्य का अधिकार. यह सिर्फ लिथियम की नहीं, इंसानियत की भी खुदाई है.
मीडिया
बीबीसी स्टाफ से इज़राइल के लिए पीआर करवाया जा रहा है?
ओवेन जोन्स का कहना है कि ब्रिटेन की प्रतिष्ठित प्रसारण संस्था बीबीसी एक अभूतपूर्व संकट में घिरती दिखाई दे रही है. बीबीसी के 100 से अधिक पत्रकारों और कर्मचारियों ने निदेशक टिम डेवी को एक पत्र लिखकर आरोप लगाया है कि बीबीसी की संपादकीय नीतियां इज़राइल के पक्ष में झुकी हुई हैं और संगठन अब एक "प्रोपेगेंडा टूल" बन गया है. पत्र के मुताबिक, बीबीसी ने फ़िलिस्तीन को लेकर कई रिपोर्टों और डॉक्यूमेंट्री को सेंसर किया है. इसमें विशेष रूप से बीबीसी की डॉक्यूमेंट्री 'Gaza: Medics Under Fire' का ज़िक्र है, जिसे पूरी तरह संपादकीय दिशानिर्देशों के तहत मंज़ूरी मिलने के बावजूद प्रसारित नहीं किया गया. कर्मचारियों का आरोप है कि यह एक "राजनीतिक निर्णय" था और इससे स्पष्ट होता है कि बीबीसी अब इज़राइली सरकार की आलोचना से डरती है. पत्र में यह भी कहा गया है कि बीबीसी की फ़िलिस्तीन कवरेज नस्लीय पूर्वाग्रहों से ग्रसित है. "बीबीसी की रिपोर्टिंग में फ़िलिस्तीनी जीवन का कोई मूल्य नहीं दिखता जबकि इज़राइली जीवन को केंद्र में रखा गया है." पत्र ने बीबीसी बोर्ड के सदस्य सर रॉबी गिब की भूमिका पर भी गंभीर सवाल उठाए हैं. गिब पूर्व कंज़र्वेटिव प्रधानमंत्री टेरेसा मे के संचार प्रमुख रहे हैं और द जियूश क्रोनिकल से उनके संबंध हैं. यह एक ऐसा अख़बार है, जिसे पत्र में ‘फिलिस्तीन विरोधी और नस्लीय सामग्री’ प्रकाशित करने वाला बताया है.
पत्र में कहा गया है— "गिब की संपादकीय भूमिका से बीबीसी की निष्पक्षता पर सवाल उठते हैं. उन्हें पद पर बने रहने की अनुमति देना दोहरे मानकों को दर्शाता है." पत्र में यह भी कहा गया है कि बीबीसी की फ़िलिस्तीन रिपोर्टिंग उसकी अपनी संपादकीय नीतियों से नीचे गिर चुकी है और कई मानवाधिकार संगठनों, संयुक्त राष्ट्र स्टाफ और जमीनी पत्रकारों की विश्वसनीय रिपोर्ट्स को नज़रअंदाज़ किया गया है.
पत्र में यह चौंकाने वाला दावा भी किया गया— "अक्सर ऐसा प्रतीत होता है कि बीबीसी इज़राइली सरकार और सेना के लिए पीआर एजेंसी की तरह काम कर रही है." पत्र पर हस्ताक्षर करने वालों में बीबीसी के कर्मचारियों के अलावा अभिनेता जूलियट स्टीवेंसन, मिरियम मार्गोयल्स, और खालिद अब्दल्ला जैसे जाने-माने सांस्कृतिक हस्तियां भी शामिल हैं.
पत्र यह भी उजागर करता है कि बीबीसी की रूस-यूक्रेन युद्ध पर रिपोर्टिंग स्पष्ट और पक्षधर रही है, लेकिन जब फ़िलिस्तीन की बात आती है तो "जटिलता" के नाम पर सच्चाई को टाल दिया जाता है. एक बीबीसी कर्मचारी ने कहा — "ग़ाज़ा और वेस्ट बैंक से आ रही तस्वीरों को आम दर्शक अपने फ़ोन पर देख रहा है, लेकिन बीबीसी इन्हें 'जटिल' बता कर टाल रही है."
ये जैक्सन पोलक हैं या एड शीरन? गायक ने अब उठाया पेंटिंग का ब्रश!
अपने प्यार और जुदाई वाले गानों से दुनिया को दीवाना बनाने वाले एड शीरन को शायद सिर्फ़ गिटार बजाना काफ़ी नहीं लग रहा था. तभी तो अब वो पेंटिंग की दुनिया में भी छपाक-छपाक करते हुए एंट्री मार चुके हैं! उन्होंने 2019 में बनाए अपने चित्रों की पहली प्रदर्शनी लगाई है. और सच कहें, तो शुक्र है कि गाना-वाना उन्होंने अभी नहीं छोड़ा है. उनकी इस रंग-बिरंगी सीरीज़ का नाम है "कॉस्मिक कारपार्क पेंटिंग्स". नाम सुनकर लगता है कि ज़रूर कोई गहरी बात होगी, लेकिन कहानी सीधी-सादी है. ये पेंटिंग्स एक कारपार्क में बनाई गई थीं. और 'कॉस्मिक' शब्द? शायद इसलिए कि ऐसी कला को देखकर ब्रह्मांड की याद आ जाती है, या शायद... बस सुनने में अच्छा लगता है! कहानी कुछ यूँ है कि शीरन पिछले साल अपने टूर के बीच, रोज़ सुबह लंदन के सोहो में एक खाली पड़े कारपार्क में दौड़ लगाकर पहुँचते थे. वहाँ एक सफ़ेद सूट पहनकर कैनवस पर घरेलू पेंट की बाल्टियाँ फेंकते और रंगों की बौछार करते थे.
यह शौक शायद शौक ही रह जाता, अगर शीरन अपने 'अच्छे दोस्तों' डेमियन हर्स्ट और जो हेज को इसके बारे में न बताते. उन्होंने आइडिया दिया, "क्यों न एक प्रदर्शनी लगाई जाए?" और बस, अब शीरन के फैंस £900 (लगभग ₹1,00,000) में उनकी पेंटिंग्स खरीद सकते हैं. लेकिन रुकिए, इस कहानी में एक बहुत अच्छा पहलू भी है. शीरन अपनी कमाई का 50% हिस्सा 'एड शीरन फाउंडेशन' को दान कर रहे हैं, जो युवाओं को संगीत से जोड़ने का काम करता है. हाँ, पेंटिंग्स देखकर आपको मशहूर पेंटर जैक्सन पोलक की याद ज़रूर आएगी. शीरन खुद इस बात को मानते हैं. उन्होंने कहा, "ये बस कैनवस पर रंगों को इधर-उधर फेंकना है, जैक्सन पोलक के बारे में सोचिए." वो यह भी मानते हैं कि "मैं कोई 'कलाकार' नहीं हूँ, लेकिन मुझे आर्ट बनाना पसंद है." अब देखना यह है कि जनता को शीरन का यह नया अंदाज़ कितना पसंद आता है.
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