11/08/2025: डाटा केंचुआ के, सबूत राहुल दे | कारण नहीं बताएंगे | एक मक़ान में 250 वोटर, दूसरे में 247 | असम में माफ़ी की शर्तें | न अमेरिका का साथ मिला, न चीन का | गाज़ा पर पूरे कब्ज़े की तैयारी
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निधीश त्यागी, साथ में राजेश चतुर्वेदी, गौरव नौड़ियाल
आज की सुर्खियां
चुनाव आयोग ने सुप्रीम कोर्ट से कहा- वोटर लिस्ट से हटाए गए नाम और कारण नहीं बता सकते
कर्नाटक सीईओ ने राहुल गांधी से सबूत मांगे
बिहार के डिप्टी सीएम के दो एपिक नंबर, तेजस्वी का सवाल- चुनाव आयोग का फर्जीवाड़ा या डिप्टी सीएम फर्जी?
बिहार में एक ही मकान में 250 से ज्यादा वोटर दर्ज, ऐसे कई मामले
जमुई में एक मकान में 247 वोटर
मतदाता सूची : लोकतंत्र की आधार अवधारणा को गंभीर क्षति
असम में चुनिंदा लोगों को ही माफ़ी, बशर्ते आप मुसलमान न हों
असम मॉडल में मुसलमान: भारत के सौतेले नागरिक?
आकार पटेल भारत, चीन और अमेरिका: शिकारी कुत्तों के साथ शिकार करना और खरगोशों के साथ दौड़ना
प्रवीण साहनी: जवाब कम और सवाल ज्यादा निकलते हैं वायु सेना प्रमुख के बयान से
रिलायंस और नायरा ने रियायती रूसी कच्चे तेल से 16 अरब डॉलर कमाए, ईयू और अमेरिका को निर्यात बढ़ा
अमेरिकी टैरिफ़ के बाद क्या सस्ता रूसी तेल फ़ायदेमंद है, नोबेल विजेता बनर्जी का सवाल
सेना प्रमुख ने पाकिस्तान के 'ऑपरेशन सिंदूर' के नैरेटिव मैनेजमेंट का मज़ाक उड़ाया
असीम मुनीर फिर अमेरिका में
एबीवीपी के कारण सेंट जेवियर्स को रद्द करना पड़ा स्टेन स्वामी स्मृति व्याख्यान
ट्रम्प-पुतिन शिखर सम्मेलन से पहले ज़ेलेंस्की को मिला यूरोपीय संघ और नाटो का समर्थन
गाज़ा पर पूरे कब्ज़े की तैयारी, नेतन्याहू की आलोचना
केंचुआ + बिहार एसआईआर
चुनाव आयोग ने सुप्रीम कोर्ट से कहा- वोटर लिस्ट से हटाए गए नाम और कारण नहीं बता सकते
चुनाव आयोग ने बिहार की ड्राफ्ट मतदाता सूची से हटाए गए 65 लाख मतदाताओं का विवरण देने से इनकार कर दिया है. "एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स" (एडीआर) ने राज्य में विशेष गहन पुनरीक्षण प्रक्रिया को चुनौती देते हुए हटाए गए लोगों की पूरी सूची और नाम कटने के कारण सार्वजनिक करने की मांग की थी. लेकिन, आयोग ने सुप्रीम कोर्ट में जवाबी हलफनामा पेश कर स्पष्ट किया है कि मौजूदा कानून के तहत वह उन मतदाताओं के नाम या नाम काटने के कारण बताने के लिए बाध्य नहीं है, जिनका नाम ड्राफ्ट सूची में नहीं आया है. "द वायर" में श्रावस्ती दासगुप्ता के अनुसार, चुनाव आयोग ने कहा कि नियमों के मुताबिक, ड्राफ्ट मतदाता सूची सार्वजनिक निरीक्षण के लिए उपलब्ध कराई जाती है, परंतु वैधानिक ढांचे के तहत इसमें शामिल नहीं किए गए लोगों की अलग सूची बनाने, उसे शेयर करने या कारण बताने की आवश्यकता नहीं है. सभी राजनीतिक दलों को ड्राफ्ट सूची की प्रतियां दी जाती हैं, जिससे वे अपने क्षेत्र के छूटे हुए वोटरों तक पहुंच सकें और मदद कर सकें. आयोग का कहना है कि विपक्षी याचिकाकर्ता कोर्ट को गुमराह करने की कोशिश कर रहे हैं.
सुप्रीम कोर्ट ने चुनाव आयोग से जवाब मांगा था और आयोग ने कहा कि पहले जैसी प्रक्रिया के अनुसार ही अंतिम मतदाता सूची बनेगी जिसमें सभी योग्य मतदाता शामिल किए जाएंगे.
उल्लेखनीय है कि विपक्ष ने आरोप लगाया है कि चुनाव आयोग ने पक्षपात कर 65 लाख लोगों के नाम काट दिए, जिससे आगामी विधानसभा चुनाव में उनका वोट नहीं डल सकेगा. सुप्रीम कोर्ट में याचिका दाखिल कर नाम प्रकाशित करने और हटाने का कारण बताने की मांग की गई थी.
कर्नाटक सीईओ ने राहुल गांधी से सबूत मांगे
कर्नाटक के मुख्य चुनाव अधिकारी (सीईओ) ने कांग्रेस नेता राहुल गांधी को नोटिस भेजकर उनके वोट चोरी वाले बयान पर सबूत मांगे हैं. राहुल ने 7 अगस्त को आरोप लगाया था कि महादेवपुरा विधानसभा सीट पर 1 लाख से ज्यादा वोट चोरी हुए हैं और एक महिला ने दो बार मतदान किया. सीईओ ने रविवार को कांग्रेस नेता को भेजे नोटिस में लिखा कि राहुल ने प्रेजेंटेशन में जो दस्तावेज और स्क्रीन शॉट दिखाए, वे चुनाव आयोग के रिकॉर्ड से मेल नहीं खाते. उन्होंने लिखा, जांच में यह भी सामने आया कि जिस महिला पर दो बार वोट डालने का आरोप लगाया गया, उसने खुद यह बात नकार दी है. पत्र में राहुल से कहा गया है कि विस्तृत जांच के लिए वे सभी दस्तावेज उपलब्ध कराएं, जिनके आधार पर आरोप लगाए गए.
बिहार के डिप्टी सीएम के दो एपिक नंबर, तेजस्वी का सवाल- चुनाव आयोग का फर्जीवाड़ा या डिप्टी सीएम फर्जी?
बिहार विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष तेजस्वी यादव के बाद अब उप मुख्यमंत्री विजय सिन्हा के भी दो एपिक नंबर मिले हैं. मतदाता सूची में विजय सिन्हा का लखीसराय और पटना के बांकीपुर विधानसभा के नाम से एपिक नंबर दर्ज है. इस मामले में तेजस्वी यादव ने रविवार को प्रेस कॉन्फ्रेंस में कहा- विजय कुमार सिन्हा का दो एपिक नंबर है. वो भी दो विधानसभा क्षेत्रों में, जिनमें उम्र भी अलग अलग है.
तेजस्वी ने चुनाव आयोग की आधिकारिक वेबसाइट पर दोनों नंबरों को ऑनलाइन चेक कर दिखाया. उन्होंने कहा, "हम लोग विशेष गहन पुनरीक्षण को लेकर यही आरोप तो लगा रहे हैं. या तो विजय सिन्हा ने दो जगह जाकर साइन किया होगा. या फिर चुनाव आयोग ने फर्जीवाड़ा किया है या बिहार के डिप्टी सीएम फर्जी हैं." उन्होंने आगे कहा, "चुनाव आयोग से हमलोग निष्पक्षता और पारदर्शिता की बात कर रहे हैं. तेजस्वी के ऊपर मीडिया ट्रायल हुआ. दिल्ली में बैठकर लोग मुझे जेल भेज रहे थे. मुझे नोटिस आया, जिसका मैंने जवाब दिया. अब विजय सिन्हा के मामले में क्या होगा?" इस बीच चुनाव आयोग ने उपमुख्यमंत्री सिन्हा को नोटिस जारी कर 14 अगस्त तक जवाब भेजने के लिए कहा है. उनसे दो एपिक नंबर — AFS0853341 और IAF3939337 रखने के मामले में स्पष्टीकरण मांगा गया है. विशेष गहन पुनरीक्षण के दौरान दोनों विधानसभा क्षेत्रों की मतदाता सूची में सिन्हा का नाम मौजूद था. संपर्क करने पर सिन्हा ने कहा कि वे संबंधित प्राधिकरण को नोटिस का जवाब भेजेंगे.
बिहार में एक ही मकान में 250 से ज्यादा वोटर दर्ज, ऐसे कई मामले
पत्रकार अजित अंजुम ने अपने यू ट्यूब चैनल पर बिहार के मुजफ्फरपुर के भगवानपुर क्षेत्र के मकान नंबर 27 का उदाहरण देते हुए चुनाव आयोग की मतदाता सूची की गड़बड़ियों पर सवाल उठाया है. वीडियो में कहा गया है कि एक ही मकान पर 250 से अधिक वोटर दर्ज हैं, और वे सब अलग-अलग जाति व धर्म के हैं—हिन्दू, मुस्लिम, ईसाई आदि. एक मकान में 250 से ज्यादा वोटर दर्ज होना सामान्य नहीं है; इसमें अलग-अलग जाति और समुदाय के लोग भी शामिल हैं, जिनकी उम्र ज़्यादातर सीनियर सिटिज़न जैसी है.वे सवाल उठाते हैं कि क्या सचमुच ये लोग एक ही घर में रहते हैं या सिर्फ कागजों पर ऐसा दिखा दिया गया है? क्या बीएलओ (बूथ लेवल ऑफिसर) ने सही तरीके से सर्वे किया? इसी तरह की समस्या कर्नाटक और अन्य राज्यों में भी देखने को मिली, जहां सिंगल पते पर सैकड़ों वोटर दिखाए गए हैं. सवाल यह है कि इस तरह के फर्जीवाड़े या गड़बड़ी के आंकड़े क्यों छुपाए जा रहे हैं और पारदर्शिता क्यों नहीं अपनाई जा रही है?
जमुई में एक मकान में 247 वोटर
मतदाता सूची के इस फर्जीवाड़े को "दैनिक भास्कर" ने भी उजागर किया है. भास्कर के अनुसार, मुजफ्फरपुर में एक ही पते पर 269 तो जमुई में 247 वोटर रहते हैं. अखबार लिखता है कि बिहार की मतदाता सूची में कुछ ऐसे पते हैं, जिन पर सैकड़ों वोटर दर्ज हैं. मुजफ्फरपुर के भगवानपुर विधानसभा क्षेत्र के साथ ही जमुई में भी कहानी कुछ ऐसी ही है. यहां विधानसभा के बूथ नंबर 86 पर मकान नंबर 3 के पते पर 247 वोटरों के नाम हैं. इनमें दो ही गैर मुस्लिम हैं. भास्कर ने मतदाता सूची का प्रारूप जारी होने के बाद राज्य के करीब 150 बूथों की जांच की. पड़ताल में ऐसे कई चौंकाने वाले पते सामने आए हैं.
8 मई 2014 को नरेंद्र मोदी ने चुनाव आयोग के बारे में ट्विटर पर लिखा था, "यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि चुनाव आयोग अपनी निष्पक्षता को लेकर चिंतित नहीं है, इसीलिए हमारे कार्यकर्ताओं को सत्याग्रह करना पड़ रहा है."
मतदाता सूची : लोकतंत्र की आधार अवधारणा को गंभीर क्षति
"स्क्रोल" में शोएब दानियाल ने लिखा है कि राहुल गांधी ने कथित "वोट चोरी" को लेकर जो खुलासे किए या आरोप लगाए, उन पर चुनाव आयोग की प्रतिक्रिया या उसकी कमी चिंताजनक है. गांधी की प्रेस कॉन्फ्रेंस के कुछ घंटे बाद ही आयोग ने #ECIFactCheck टैग के साथ एक ट्वीट किया, लेकिन उसमें सच की जांच नहीं थी और न ही गांधी के दावों को खारिज किया गया. बल्कि आयोग ने कहा कि तब ही कार्रवाई होगी, जब गांधी दस्तखत के साथ शपथ पत्र देंगे.
यह स्पष्ट नहीं है कि चुनाव आयोग को वोटर सूची में हुई गलतियां तत्काल कार्रवाई योग्य क्यों नहीं लगतीं, या विपक्ष की मांग पर मशीन-रीडेबल मतदाता सूचियां क्यों नहीं दीं, जो गलतियों की पहचान आसान कर देतीं. चुनाव आयोग की गैर-प्रतिक्रिया चिंताजनक है, क्योंकि मतदाता सूचियों की विश्वसनीयता पर पहले भी संदेह उठे हैं. 2023 में, इंडिया फिक्स ने एक शोध पत्र को उजागर किया था, जिसमें 2019 लोकसभा चुनाव की कई सांख्यिकीय विसंगतियां दिखीं, जिनका कुछ हिस्सा मतदाता सूची में भ्रष्टाचार के आरोपों से जुड़ा था. मार्च में, तृणमूल कांग्रेस ने शिकायत की थी कि मतदाता पहचान पत्र के नंबर अद्वितीय नहीं हैं; देशभर में कई मतदाताओं के कार्ड पर एक ही नंबर था. चुनाव आयोग इस गलती को समझाने में विफल रहा, जबकि उसने भविष्य में इसे सुधारने का आश्वासन दिया.
यहां तक कि आयोग यह समझाने में असमर्थ है कि ये गलतियां कैसे हो रही हैं, फिर भी वह बिहार में मतदाताओं की सूची का विशेष गहन पुनरीक्षण कर रहा है. हालांकि, ऐसा लगता है कि महिलाओं और मुसलमानों को विशेष रूप से बाहर रखा जा रहा है. इस पुनरीक्षण की प्रक्रिया एक नागरिकता परीक्षा की तरह है, जो स्थानीय नौकरशाही को व्यापक शक्ति देती है और राजनीतिक दबाव के अधीन है. मतदाता सूचियों को लेकर बढ़ती शंकाएं भारत में सर्वसमावेशी वयस्क मताधिकार की परंपरा के विपरीत हैं. स्वतंत्र भारत ने पहला प्रशासनिक काज सभी भारतीय मतदाताओं को शामिल करना माना. ब्रिटिश राज के तहत चुनाव केवल अभिजात वर्ग के लिए सीमित थे, लेकिन आजादी के कुछ महीने बाद नई मतदाता सूची सर्वसमावेशी मताधिकार के आधार पर बनाई गई थी. जैसे कि ऑर्नित शानी के शोध से पता चलता है, भारतीय पहले मतदाता बने और फिर नागरिक. उन्होंने लिखा है, "एक सर्वसमावेशी मताधिकार पर आधारित चुनावी सूची जो यथासंभव सटीक और अद्यतित बनी रहे, वह चुनावी लोकतंत्र की संस्थानों की नींव थी."
संविधान सभा के लिए भी यह महत्वपूर्ण था. बी आर अम्बेडकर ने स्पष्ट किया था कि किसी भारतीय को "किसी अधिकारी की इच्छा से" मतदाता सूचियों से बाहर नहीं रखा जाना चाहिए.चुनाव लोकतंत्र की रीढ़ हैं और मतदाता सूची चुनाव की रीढ़ है. आज, यह धारणा कि अधिकारियों और राजनीतिकों की मनमानी से मतदाता सूची तय होती है, भारत के लोकतंत्र की आधार अवधारणा को गंभीर क्षति पहुंचा रही है.
असम में चुनिंदा लोगों को ही माफ़ी, बशर्ते आप मुसलमान न हों
"आर्टिकल 14" में संस्कृता भारद्वाज की रिपोर्ट कहती है कि असम सरकार ने दरअसल 2026 के विधानसभा चुनावों को प्रभावित करने के लिए 2019 के नागरिकता कानून के तहत कवर किए गए 50,000 से अधिक गैर-मुस्लिम प्रवासियों—मुख्यतः हिंदू बंगालियों—के खिलाफ 'विदेशी' मामले वापस लेने की योजना बनाई है. यद्यपि, मुख्यमंत्री हिमंता बिस्वा सरमा ने जोर देकर कहा है कि कानून के प्रावधानों से इतर कोई आदेश जारी नहीं किया गया है, और अब तक औपचारिक वापसी केवल गोरखा और कोच राजबोंगशी समुदायों के लिए हुई है. लेकिन, आलोचकों और विधि विशेषज्ञों का कहना है कि यह कदम न्यायिक प्रक्रिया की अनदेखी करता है और दोहरे ट्रैक वाली नागरिकता व्यवस्था को स्थापित करता है, जिससे विदेशी ट्रिब्यूनल्स लगभग पूरी तरह मुस्लिम समुदाय को ही निशाना बनाएंगे.
भारद्वाज के मुताबिक, असम सरकार ने चुपके से जिले के अधिकारियों और विदेशी न्यायाधिकरणों को निर्देश दिया है कि वे 31 दिसंबर 2014 या उससे पहले राज्य में आए हिंदू, ईसाई, सिख, बौद्ध, जैन और पारसी समुदायों के खिलाफ मामले बंद कर दें. इसका कारण यह बताया गया है कि ये लोग 2019 के नागरिकता संशोधन अधिनियम (सीएए) के दायरे में आते हैं. मगर धरातल पर यह मुद्दा विवादास्पद कदम माना जा रहा है और राजनीतिक और सामाजिक रूप से एक ज्वलंत विषय बन चुका है. इस कदम के तहत हजारों मामले वापस लिए जाएंगे किन्तु इसका लाभ केवल गैर-मुस्लिम लोगों को मिलेगा, मुस्लिम अवैध प्रवासियों के मामले जारी रहेंगे. इस निर्णय को कुछ लोगों ने भेदभावपूर्ण और सांप्रदायिक बताया है, क्योंकि यह धार्मिक आधार पर लिया गया प्रतीत होता है. यह फैसला असम के राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर (एनआरसी) प्रक्रिया और अवैध प्रवासियों के मुद्दे से जुड़ा है और इससे राज्य में और भी विभाजन होने का खतरा है. असम सरकार का तर्क है कि यह कदम पुराने मामलों को खत्म करने के लिए है जो लंबे समय से फंसे थे और इससे न्याय व्यवस्था को बोझ से राहत मिलेगी. हालांकि, आलोचक इसे धार्मिक पहचान के आधार पर भेदभाव कहते हैं.
असम मॉडल में मुसलमान: भारत के सौतेले नागरिक?
असम में एक सुनियोजित अभियान के तहत शासन की प्रक्रिया को ही वहां के बंगाली भाषी मुस्लिम समुदाय के लिए सज़ा में तब्दील किया जा रहा है, जिन्हें अक्सर मिया मुसलमान कहा जाता है. मानवाधिकार वकील अमन वदूद के अनुसार, इस समुदाय को, जिसकी जड़ें इस क्षेत्र में 19वीं सदी से हैं, "विदेशियों" की पहचान करने की आड़ में व्यवस्थित रूप से निशाना बनाया जा रहा है, बेदखल किया जा रहा है और उनके अधिकारों से वंचित किया जा रहा है. हरकारा डीपडाइव के लिए अमन ने निधीश त्यागी से बात की है.
यह मुद्दा राष्ट्रीय स्तर पर तब और प्रासंगिक हो गया जब यह डर बढ़ने लगा कि नागरिकता सत्यापन का "असम मॉडल" देश के दूसरे हिस्सों में भी दोहराया जा सकता है, खासकर बिहार में मतदाता सूची के चल रहे विशेष गहन समीक्षा (SIR) को देखते हुए. वदूद, SIR के "संदिग्ध" नागरिकों की जांच करने के प्रावधान और असम की कुख्यात 'डी-वोटर' (संदिग्ध मतदाता) प्रणाली के बीच एक भयावह समानता बताते हैं. 1997 में शुरू हुई डी-वोटर प्रक्रिया ने बिना किसी उचित प्रक्रिया के मतदाता सूची में 3 लाख से अधिक नामों को मनमाने ढंग से चिह्नित किया, और उन्हें अपनी ही नागरिकता साबित करने के लिए विदेशी न्यायाधिकरण (Foreigners' Tribunals) में एक लंबी कानूनी लड़ाई में धकेल दिया.
यह बुनियादी कानूनी सिद्धांत को "नागरिकता की धारणा" से बदलकर "गैर-नागरिकता की धारणा" में बदल देता है. इसका मतलब है कि सबूत का बोझ उन व्यक्तियों पर डाल दिया जाता है, जिन्होंने पीढ़ियों से भारत को अपना घर माना है. वदूद का तर्क है कि यह लोगों को मताधिकार से वंचित करने का एक प्रयास है, जो भारतीय संविधान की समावेशी भावना के बिल्कुल विपरीत है, जिसे अंग्रेजों से बड़ी मुश्किल से हासिल किया गया था.
वदूद का कहना है कि असम में "लाखों अवैध बांग्लादेशियों" का नैरेटिव एक सावधानी से गढ़ा गया राजनीतिक मिथक है. वे बताते हैं कि उस क्षेत्र से प्रवास, जिसे अब बांग्लादेश के नाम से जाना जाता है, विभाजन से बहुत पहले शुरू हो गया था. कई परिवार 120 साल पहले ही असम में बस गए थे, जिसे 'ग्रो मोर फूड' जैसी ब्रिटिश औपनिवेशिक नीतियों ने भी बढ़ावा दिया था. दशकों से, इस समुदाय ने असमिया भाषा और संस्कृति को अपनाकर खुद को आत्मसात कर लिया. सुप्रीम कोर्ट की निगरानी में हुए राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर (NRC) के विशाल और महंगे अभ्यास में अंततः केवल 19 लाख लोग ही बाहर पाए गए, न कि राजनीतिक भाषणों में दावा किए गए लाखों लोग. वदूद का तर्क है कि ये 19 लाख लोग भी विदेशी नहीं हैं, बल्कि ऐसे नागरिक हैं जो निष्पक्ष मौका मिलने पर अपनी स्थिति साबित कर सकते हैं.
इस निरंतर अभियान की मानवीय कीमत विनाशकारी है. अपनी नागरिकता खोने के डर से लोगों ने आत्महत्या तक कर ली है. गोलाघाट में 350 परिवारों को विस्थापित करने जैसी सामूहिक बेदखली में परिवारों को उजाड़ा जा रहा है. राज्य के सर्वोच्च राजनीतिक पद से "लैंड जिहाद" और "जनसांख्यिकीय आक्रमण" जैसे भड़काऊ बयानों ने सांप्रदायिक रूप से तनावपूर्ण माहौल बना दिया है. फिर भी, वदूद कहते हैं, असम के लोगों ने काफी हद तक उकसावे का विरोध किया है.
वे निष्कर्ष निकालते हैं कि इस संघर्ष का मूल मानवीय गरिमा और बंधुत्व के संवैधानिक मूल्य पर हमला है. असम की लड़ाई सिर्फ एक समुदाय के लिए नहीं है, बल्कि गणतंत्र को पुनः प्राप्त करने और एक धर्मनिरपेक्ष, एकीकृत भारत के मूलभूत सिद्धांतों की रक्षा करने की लड़ाई है.
आकार पटेल
भारत, चीन और अमेरिका: शिकारी कुत्तों के साथ शिकार करना और खरगोशों के साथ दौड़ना
फरवरी 2018 में ट्रम्प शासन में व्हाइट हाउस ने 'इंडो-पैसिफिक के लिए अमेरिकी रणनीतिक ढांचा' तैयार किया. यह दस्तावेज, जो जनवरी 2021 में डिक्लासिफाई किया गया, कहता है कि अमेरिका का मकसद है 'अमेरिकी रणनीतिक प्रभुत्व बनाए रखना... और चीन को नए, अलोकतांत्रिक प्रभाव क्षेत्र स्थापित करने से रोकना'. यह कहता है कि चीन का उदय इस क्षेत्र को बदल देगा और वैश्विक स्तर पर अमेरिकी प्रभाव को चुनौती देगा, और निष्कर्ष निकालता है कि 'एक मजबूत भारत, समान विचारधारा वाले देशों के सहयोग से, चीन के लिए एक संतुलन का काम करेगा'. इस उद्देश्य के लिए, अमेरिका द्वारा चाही गई 'वांछित अंतिम स्थिति' यह थी कि वह 'सुरक्षा मुद्दों पर भारत का पसंदीदा साझीदार' बने, और 'दोनों समुद्री सुरक्षा बनाए रखने और चीन के प्रभाव का मुकाबला करने के लिए सहयोग करें'. अमेरिका का उद्देश्य एक चतुर्भुजीय ('क्वाड') ढांचे का निर्माण था जो भारत, जापान, ऑस्ट्रेलिया और अमेरिका की नौसेनाओं को चीन के खिलाफ 'मुख्य केंद्रों' के रूप में खींचे. यह योजना भारत को एक 'प्रमुख रक्षा साझीदार' बनाएगी और 'एक मजबूत भारतीय सेना अमेरिका के साथ प्रभावी रूप से सहयोग करेगी' और 'चीन की सैन्य और रणनीतिक क्षमताओं के अधिग्रहण को रोकेगी'.
भारत इसके लिए क्यों साइन अप कर रहा था? यह स्पष्ट नहीं है. संसद में कोई चर्चा नहीं, मीडिया को कोई इंटरव्यू नहीं और कोई प्रेस कॉन्फ्रेंस नहीं, अपने घोषणापत्रों में इसका कोई उल्लेख नहीं, मोदी ने भारत को अमेरिका के साथ इस रणनीतिक साझेदारी और सैन्य गठबंधन की ओर ले जाना शुरू किया. फरवरी 2020 में, ट्रम्प की भारत यात्रा के दौरान और लद्दाख संकट शुरू होने से कुछ दिन पहले, मोदी ने भारत को चीन के खिलाफ समझौते के लिए प्रतिबद्ध किया.
27 अक्टूबर 2020 को, अमेरिकी रक्षा सचिव माइक पोम्पियो की यात्रा के दौरान, भारत ने बेसिक एक्सचेंज एंड कोऑपरेशन एग्रीमेंट (BECA) पर हस्ताक्षर किए. इससे भारत को अमेरिकी खुफिया जानकारी तक पहुंच मिलेगी जो भारतीय सेना की मिसाइलों और सशस्त्र ड्रोन की सटीकता में सुधार करेगी. यह वायु सेनाओं के बीच सहयोग का संकेत देता था. दूसरा समझौता जिस पर हस्ताक्षर किए गए वह था लॉजिस्टिक्स एक्सचेंज मेमोरेंडम ऑफ एग्रीमेंट (LEMOA). यह दोनों देशों की सेनाओं को एक-दूसरे के ठिकानों से पुनर्भरण करने और एक-दूसरे की भूमि सुविधाओं, हवाई अड्डों और बंदरगाहों से आपूर्ति, स्पेयर पार्ट्स और सेवाओं तक पहुंच की अनुमति देता है, जिसकी बाद में प्रतिपूर्ति की जा सकती है. लेमोआ भारत-अमेरिका नौसेना से नौसेना सहयोग के लिए है. दिल्ली में बीका समझौते पर हस्ताक्षर करते हुए, पोम्पियो ने सीधे चीन पर हमला किया: 'मुझे यह कहते हुए खुशी हो रही है कि संयुक्त राज्य अमेरिका और भारत सभी प्रकार के खतरों के खिलाफ सहयोग को मजबूत बनाने के लिए कदम उठा रहे हैं और न केवल उन खतरों के खिलाफ जो चीनी कम्युनिस्ट पार्टी द्वारा पैदा किए गए हैं.'
विदेश सचिव माइक एस्पर ने कहा: 'हम कंधे से कंधा मिलाकर खड़े हैं, सभी के लिए एक स्वतंत्र और खुले इंडो पैसिफिक के समर्थन में, विशेष रूप से चीन की बढ़ती आक्रामकता और अस्थिरता पैदा करने वाली गतिविधियों के प्रकाश में.' राजनाथ सिंह और जयशंकर, जो पोम्पियो और एस्पर के बगल में खड़े थे, ने चीन का नाम नहीं लिया. राजनाथ सिंह की तैयार की गई टिप्पणियों में यह लाइन थी, जिसे बाद में हटा दिया गया: 'महानुभावों, रक्षा के क्षेत्र में हमें अपनी उत्तरी सीमाओं पर लापरवाह आक्रामकता से चुनौती का सामना करना पड़ रहा है.' अंग्रेजी में भारतीय अनुवादक को बताया नहीं गया कि यह लाइन हटानीी थी, जिसने मूल पाठ पढ़ा, और अमेरिकियों ने इसे जारी किया. जब यह दस्तावेज डीक्लासीफाई किया गया, तो चीन ने कहा 'अमेरिकी पक्ष गिरोहबंदी, छोटे गुट बनाने और फूट डालने जैसे घृणित साधनों का सहारा लेने का दीवाना है, जिसने क्षेत्रीय शांति, स्थिरता, एकजुटता और सहयोग को कमजोर करने वाले एक परेशानी पैदा करने वाले के रूप में अपना असली चेहरा पूरी तरह से उजागर कर दिया है'. भारत ने अमेरिकी दस्तावेज की रिलीज पर सार्वजनिक रूप से कोई प्रतिक्रिया नहीं दी.
तीसरा समझौता, जो अमेरिका द्वारा अपनी रणनीति तैयार करने के छह महीने बाद हस्ताक्षरित किया गया, था कम्युनिकेशन्स कंपैटिबिलिटी एंड सिक्योरिटी एग्रीमेंट (COMCASA). यह भारत को एन्क्रिप्टेड संचार उपकरण और सिस्टम तक पहुंच की अनुमति देता है ताकि भारतीय और अमेरिकी सैन्य कमांडर, और दोनों देशों के विमान और जहाज सुरक्षित नेटवर्क के माध्यम से संवाद कर सकें. बीका, लेमोआ और कॉमकासा ने दोनों देशों के बीच गहरे सैन्य सहयोग के लिए 'मूलभूत समझौतों' की तिकड़ी पूरी की. कॉमकासा पर सितंबर 2018 में हस्ताक्षर किए गए, मोदी के शी से मिलने के लिए वुहान यात्रा के पांच महीने बाद. मोदी और शी के बीच 28 अप्रैल 2018 को हस्ताक्षरित समझौते में वुहान भावना निर्दिष्ट करती है कि भारत और चीन प्रतिद्वंद्वी नहीं होंगे बल्कि सहयोग करेंगे. वे 'द्विपक्षीय व्यापार और निवेश को आगे बढ़ाएंगे' भी. समस्या, जो किसी के लिए भी स्पष्ट थी, यह थी कि, चाहे वह इसे पूरी तरह समझते हों या न हों, मोदी शिकारी कुत्तों के साथ शिकार कर रहे थे और खरगोशों के साथ दौड़ रहे थे. जिस समय वह शी के साथ हाथ मिला रहे थे, उसी समय वह ट्रम्प की इंडो-पैसिफिक रणनीति की ओर आंख मार रहे थे.
चीन की प्रतिक्रिया लद्दाख सीमा को सक्रिय करना था ताकि भारत का सैन्य फोकस और संसाधन जमीन पर रहें और समुद्र पर नहीं. पूर्व राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार एमके नारायणन ने, लद्दाख में हताहतों की संख्या सामने आने के उसी दिन लिखते हुए, मोदी को चेतावनी दी, कहा: 'यह समय भारत के लिए चीन को उसकी जगह दिखाने की कोशिश करने वाले एक आक्रामक गठबंधन के अगले छोर के रूप में दिखने का नहीं है' और यह कि 'लगभग सभी भारत-चीन सीमा समझौते दोनों देशों की अनुमानित तटस्थता पर आधारित हैं.' नारायणन ने लिखा कि 'चीन के साथ सीमा वार्ता के लिए विशेष प्रतिनिधि के रूप में (2005 से 2010), यही भावना सभी सीमा चर्चाओं के दौरान एक हमेशा मौजूद वास्तविकता थी. चीन भारत सीमा से संबंधित बहुत कम दस्तावेजों में से एक "भारत गणराज्य की सरकार और चीनी जनवादी गणराज्य की सरकार के बीच भारत-चीन सीमा प्रश्न के निपटान के लिए राजनीतिक मापदंडों और मार्गदर्शक सिद्धांतों पर समझौता" (2005), इसी वास्तविकता को दर्शाता है.'
मैं इतने साल पुराने मुद्दों को क्यों उठा रहा है? क्योंकि, जैसा कि इस महीने की घटनाएं दिखाती हैं, वे न केवल प्रासंगिक हैं, बल्कि यह समझने के लिए महत्वपूर्ण हैं कि भारत आज खुद को इस ‘ भ्रमित और मित्रहीन’ क्यों पा रहा है.
मूल रूप से, इस सरकार के तहत भारत ने उन सारी प्रगतियों पर पानी फेर दिया, जो 1993 और बाद के समझौतों के जरिये हुई थीं. इससे चीन को स्थान और विकल्प मिले हैं. और ऐसा लगता है कि जिनके लिए इस सरकार ने भारत को साइन अप किया है उन संधियों चाहे वह औपचारिक हों या अनौपचारिक, उनकी पवित्रता और महत्व के बारे में ज्यादा समझ नहीं है.
प्रवीण साहनी: जवाब कम और सवाल ज्यादा निकलते हैं वायु सेना प्रमुख के बयान से
फोर्स मैगज़ीन के संस्थापक और पूर्व सैन्य अधिकारी प्रवीण साहनी ने वायु सेना प्रमुख के हाल के भाषण पर कई सवाल खड़े किये हैं.
भारतीय वायु सेना (IAF) प्रमुख ने हाल ही में मंगलुरु में दिए एक भाषण में यह चौंकाने वाला दावा किया कि IAF ने 'ऑपरेशन सिंदूर' के दौरान पाकिस्तान वायु सेना (PAF) के छह विमानों को मार गिराया. वायु सेना प्रमुख के अनुसार, इन हमलों में पांच लड़ाकू विमान और एक बड़ा निगरानी या AWACS विमान शामिल था, और यह सभी हमले S-400 वायु रक्षा प्रणाली द्वारा किए गए थे. उन्होंने यह भी बताया कि इनमें से एक विमान 300 किलोमीटर की दूरी पर मार गिराया गया. यह पहली बार है जब भारतीय वायु सेना ने इस ऑपरेशन में अपनी भूमिका पर आधिकारिक तौर पर कोई टिप्पणी की है, जबकि पाकिस्तानी वायु सेना तीन महीने पहले ही भारतीय वायु सेना के छह लड़ाकू विमानों को मार गिराने का अपना दावा कर चुकी है.
हालांकि वायु सेना प्रमुख के दावे S-400 प्रणाली की ज्ञात क्षमताओं को देखते हुए तकनीकी रूप से संभव लगते हैं, लेकिन उनके भाषण ने जवाब देने से ज़्यादा सवाल खड़े कर दिए हैं. इस बातचीत के विश्लेषण से कहानी में कई महत्वपूर्ण कमियां सामने आती हैं. प्रमुख ने यह नहीं बताया कि मार गिराए गए पांच लड़ाकू विमान किस प्रकार के थे, जबकि S-400 के उन्नत रडार को यह जानकारी प्रदान करनी चाहिए थी. इसके अलावा, इन महत्वपूर्ण दावों का समर्थन करने के लिए कोई सबूत, जैसे कि मलबा या सैटेलाइट तस्वीरें, पेश नहीं किया गया. यह भी बेहद असामान्य है कि PAF के इतने बड़े नुकसान पर तीन महीने तक अंतरराष्ट्रीय मीडिया और खुफिया एजेंसियों का ध्यान नहीं गया.
इस रहस्य को और गहराते हुए, रक्षा मंत्रालय की आधिकारिक प्रेस विज्ञप्ति में वायु सेना प्रमुख के भाषण का ज़िक्र तो था, लेकिन उसमें छह विमानों को मार गिराए जाने का कोई उल्लेख नहीं था. यह पाकिस्तान द्वारा मई में दिए गए विस्तृत ब्यौरे के बिल्कुल विपरीत है, जिसमें उसने चीनी सहायता से विकसित उन्नत इलेक्ट्रॉनिक वारफेयर (EW), 'मल्टी-डोमेन ऑपरेशंस' की अवधारणा, और एक व्यापक डिजिटल इकोसिस्टम द्वारा निर्देशित J-10C लड़ाकू विमानों से लंबी दूरी की PL-15 मिसाइलों के उपयोग के माध्यम से अपनी सफलता की व्याख्या की थी.
वायु सेना प्रमुख के भाषण में S-400 जैसी ज़मीन-आधारित रक्षा प्रणालियों की सफलता पर बहुत ज़्यादा ध्यान केंद्रित किया गया, लेकिन IAF के अपने लड़ाकू बेड़े के प्रदर्शन पर काफी हद तक चुप्पी साधे रखी गई. यह इसलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि चीफ ऑफ डिफेंस स्टाफ, जनरल अनिल चौहान ने पहले ऑपरेशन की शुरुआत में "शुरुआती नुकसान" और "रणनीति में सुधार" की बात स्वीकार की थी. विश्लेषण से पता चलता है कि इसका मतलब यह हो सकता है कि रणनीति को लड़ाकू विमानों के इस्तेमाल से हटाकर ज़मीन-आधारित मिसाइलों पर निर्भर होने की ओर मोड़ा गया. इस घोषणा का समय और प्रमुख का यह दावा कि सेना को राजनीतिक प्रतिबंधों के बिना "पूरी छूट" दी गई थी, राजनीतिक नैरेटिव का मुकाबला करने के उद्देश्य से किया गया लगता है, लेकिन अंततः यह हवा साफ करने में विफल रहा है. इसके बजाय, यह IAF के लड़ाकू विमानों के बारे में महत्वपूर्ण सवालों को अनुत्तरित छोड़ देता है, जिससे 'ऑपरेशन सिंदूर' की सच्ची घटनाओं पर धुंध और गहरी हो जाती है.
रिलायंस और नायरा ने रियायती रूसी कच्चे तेल से 16 अरब डॉलर कमाए, ईयू और अमेरिका को निर्यात बढ़ा
जैसे-जैसे रूस 2025 में भारत का शीर्ष कच्चा तेल आपूर्तिकर्ता बना हुआ है, रिलायंस इंडस्ट्रीज़ और नायरा एनर्जी जैसी निजी रिफ़ाइनरियों ने सबसे बड़ी मात्रा में आयात करके सबसे ज़्यादा मुनाफ़ा कमाया है. इन रिफ़ाइनरियों ने रियायती रूसी तेल को पेट्रोल, डीज़ल और एविएशन टरबाइन फ़्यूल (एटीएफ़) में संसाधित किया और इन उत्पादों को यूरोपीय संघ और संयुक्त राज्य अमेरिका सहित प्रमुख बाज़ारों में निर्यात किया. अंतरराष्ट्रीय मीडिया में उद्धृत कुछ अनुमानों के अनुसार, भारतीय रिफ़ाइनरियों ने रियायती रूसी तेल के आयात से 16 अरब डॉलर का अतिरिक्त लाभ कमाया था, जिसमें से लगभग 6 अरब डॉलर (या 50,000 करोड़ रुपये से अधिक) रिलायंस इंडस्ट्रीज़ को गया.
केपलर, जो वैश्विक वस्तु और शिपिंग उद्योगों के लिए बाज़ार आसूचना प्रदान करने वाली एक डेटा और एनालिटिक्स फ़र्म है, के अनुसार, भारत ने 2025 के पहले छह महीनों (24 जून तक) में 231 मिलियन बैरल यूराल्स कच्चे तेल का आयात किया. रिलायंस, जो जामनगर में दुनिया का सबसे बड़ा रिफ़ाइनिंग कॉम्प्लेक्स संचालित करती है, और रूस की रोसनेफ़्ट समर्थित नायरा ने मिलकर भारत के यूराल्स आयात का 45% हिस्सा लिया. 2022 में, रिलायंस और नायरा की वैश्विक यूराल्स आयात में छोटी हिस्सेदारी थी - रिलायंस की लगभग 8% और नायरा की 7%. रिलायंस इंडस्ट्रीज़ ने जनवरी 2025 में रूस के साथ प्रतिदिन 500,000 बैरल तक खरीदने के लिए 10 साल के सौदे पर हस्ताक्षर करने के बाद 77 मिलियन बैरल खरीदे, जिससे यह यूराल्स कच्चे तेल की दुनिया की सबसे बड़ी ख़रीदार बन गई. यूराल्स अब रिलायंस की कुल कच्ची ख़रीद का 36% हिस्सा है, जो 2022 में 10% से बढ़ गया है. नायरा एनर्जी, जो आंशिक रूप से रूस की रोसनेफ़्ट के स्वामित्व में है, के लिए यूराल्स ने 2025 में इसकी कच्ची ख़रीद का 72% हिस्सा बनाया, जो तीन साल पहले 27% था.
ब्लूमबर्ग और केपलर के आंकड़ों के अनुसार, वित्त वर्ष 2024-25 में, दोनों रिफ़ाइनरियों ने मिलकर 60 अरब डॉलर के पेट्रोलियम उत्पाद निर्यात में योगदान दिया, जिसमें से 15 अरब डॉलर का निर्यात 2025 की पहली छमाही में यूरोपीय संघ को किया गया. एक अन्य रिपोर्ट में कहा गया है कि नायरा ने 2025 की पहली छमाही में लगभग 3 मिलियन मीट्रिक टन (एमएमटी) परिष्कृत ईंधन का निर्यात किया - जो उसके कुल उत्पादन का लगभग 30% है. नायरा से परिष्कृत उत्पादों का शीर्ष ख़रीदार विटोल था, जिसमें अन्य ख़रीदारों में संयुक्त अरब अमीरात, पश्चिम अफ़्रीका, अरामको ट्रेडिंग, शेल और बीपी शामिल थे. आंकड़ों से पता चला है कि रिलायंस इंडस्ट्रीज़ की रिफ़ाइनरी ने 2025 के पहले छह महीनों में 21.66 एमएमटी परिष्कृत उत्पादों का निर्यात बीपी, एक्सॉनमोबिल, ग्लेनकोर, विटोल और ट्रैफ़िगुरा जैसे ख़रीदारों को किया.
अमेरिकी टैरिफ़ के बाद क्या सस्ता रूसी तेल फ़ायदेमंद है, नोबेल विजेता बनर्जी का सवाल
नोबेल पुरस्कार विजेता अभिजीत बनर्जी ने कहा है कि ट्रंप प्रशासन द्वारा भारतीय सामानों पर अतिरिक्त 25 प्रतिशत टैरिफ़ लगाने के बाद भारत को यह विचार करना चाहिए कि रूस से सस्ता तेल आयात करना क्या 'इसके लायक' है. पिछले हफ़्ते, अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने एक कार्यकारी आदेश पर हस्ताक्षर किए, जिसमें नई दिल्ली द्वारा रूसी तेल की खरीद पर भारत के लिए अतिरिक्त 25 प्रतिशत शुल्क लगाया गया, जिससे कुल शुल्क 50 प्रतिशत हो गया - जो अमेरिका द्वारा दुनिया के किसी भी देश पर लगाए गए उच्चतम शुल्कों में से एक है. यह अतिरिक्त 25 प्रतिशत शुल्क 27 अगस्त से प्रभावी होगा.
बीएमएल मुंजाल विश्वविद्यालय द्वारा आयोजित एक कार्यक्रम के दौरान बनर्जी ने पीटीआई से कहा, "हमें इस बारे में गंभीरता से सोचने की ज़रूरत है कि क्या रूसी तेल का आयात इसके लायक है और फिर अमेरिका के पास वापस जाकर यह कहना होगा कि, क्या वे (टैरिफ़) हटा देंगे, अगर हम रूसी तेल का आयात बंद कर दें". चूँकि इन भारी टैरिफ़ से भारत के 27 बिलियन अमेरिकी डॉलर के गैर-छूट वाले निर्यात पर असर पड़ने की संभावना है, जो भारत अमेरिका को करता है, इसलिए रूस से तेल आयात को रोकने या कम करने की चर्चा हो रही है. प्रख्यात अर्थशास्त्री ने कहा, "इसके बारे में सोचना पागलपन नहीं है. 25 प्रतिशत टैरिफ़ पर, हमारे कुछ निर्यात पहले से ही प्रतिस्पर्धी नहीं हैं, इसलिए शायद 50 प्रतिशत (टैरिफ़) से कोई फ़र्क नहीं पड़ता".
भारत रूसी कच्चे तेल का सबसे बड़ा आयातक है, जिसने जुलाई में प्रतिदिन 1.6 मिलियन बैरल की खरीद की. हालाँकि, उसने अगस्त और सितंबर के लिए कोई ऑर्डर नहीं दिया है, मुख्य रूप से क्योंकि जिन छूटों ने शुरू में भारतीय रिफ़ाइनरियों को काला सागर से तेल आयात करने के लिए प्रोत्साहित किया था, वे घटकर लगभग 2 अमेरिकी डॉलर प्रति बैरल रह गई हैं. मात्रा के हिसाब से, भारत ने वित्त वर्ष 25 में रूस से 88 मिलियन टन का आयात किया, जबकि कुल शिपमेंट 245 मिलियन टन था. अन्य अंतरराष्ट्रीय स्तर पर उपलब्ध तेल की तुलना में इतने कम मूल्य लाभ के साथ, भारतीय रिफ़ाइनरियों ने अगस्त और सितंबर के लिए कोई ऑर्डर नहीं दिया. तेल कंपनियाँ आमतौर पर लगभग दो महीने पहले आयात अनुबंध सुरक्षित करती हैं, जिसका अर्थ है कि अगस्त और सितंबर की आपूर्ति ट्रंप की 7 अगस्त की उच्च टैरिफ़ की घोषणा से पहले तय की गई थी.
अमेरिका और भारत के बीच द्विपक्षीय व्यापार सौदा भारत के कृषि और डेयरी बाज़ार में अधिक पहुँच की अमेरिकी मांग को लेकर अटका हुआ है. यह पूछे जाने पर कि क्या भारत को चीन से निवेश पर लगी पाबंदियों को हटाना चाहिए, बनर्जी ने कहा, "शायद हमें इसे चीन के साथ व्यापार वार्ता के साथ जोड़ना चाहिए". बनर्जी ने कहा, "मुझे लगता है कि यह करने का एक अच्छा समय है. चीनियों को भी यह सोचने की ज़रूरत है कि वे अमेरिका से कैसे निपटेंगे, और उनके पास क्या लाभ उठाने के बिंदु हैं". 2020 में गलवान संघर्ष के बाद, भारत ने चीन और देश में काम कर रही उसकी कंपनियों पर कड़ा रुख अपनाया था. 2020 के प्रेस नोट 3 के तहत, सरकार ने भारत के साथ भूमि सीमा साझा करने वाले देशों से विदेशी निवेश के लिए अपनी पूर्व स्वीकृति अनिवार्य कर दी है. इन देशों में चीन, बांग्लादेश, पाकिस्तान, भूटान, नेपाल और अफ़गानिस्तान शामिल हैं. इस फ़ैसले के बाद, इन देशों से एफडीआई प्रस्तावों को भारत में किसी भी क्षेत्र में निवेश के लिए सरकारी मंज़ूरी की ज़रूरत होती है.
यह पूछे जाने पर कि क्या भारत को आसियान व्यापार ब्लॉक में शामिल होना चाहिए, उन्होंने कहा, "शायद, मुझे लगता है कि हमें इसकी ज़रूरत है. मुझे लगता है कि चीन आसियान से कहीं ज़्यादा महत्वपूर्ण है". भू-राजनीतिक तनाव और व्यापार अनिश्चितताओं के बीच इस साल भारतीय अर्थव्यवस्था को आप कैसा प्रदर्शन करते हुए देखते हैं, इस सवाल के जवाब में बनर्जी ने कहा, "उतना अच्छा नहीं जितना हमने उम्मीद की थी". उन्होंने बताया कि मध्यम वर्ग वास्तव में पीड़ित है, और पिछले कुछ वर्षों से निजी निवेश भी नहीं बढ़ा है. उन्होंने कहा, "टीसीएस जैसी कंपनियाँ भर्ती नहीं कर रही हैं, आईटी कर्मचारियों का वेतन नहीं बढ़ रहा है... ये सभी मुद्दे हैं जिनसे हमने निपटा नहीं है, और हम उन पर बैठे हैं, इसलिए हमें इस तथ्य को स्वीकार करने की ज़रूरत है".
सेना प्रमुख ने पाकिस्तान के 'ऑपरेशन सिंदूर' के नैरेटिव मैनेजमेंट का मज़ाक उड़ाया
सेना प्रमुख जनरल उपेंद्र द्विवेदी ने ज़ोर देकर कहा कि ऑपरेशन सिंदूर किसी भी पारंपरिक मिशन से अलग था और यह शतरंज के खेल जैसा था क्योंकि "हमें नहीं पता था" कि दुश्मन का अगला कदम क्या होगा. आईआईटी-मद्रास में एक समारोह में अपने संबोधन में, उन्होंने 22 अप्रैल के पहलगाम हमले के जवाब में आतंकी बुनियादी ढाँचे पर मई में भारत की निर्णायक सैन्य कार्रवाई की जटिलताओं को याद किया. द्विवेदी ने दावा किया कि केंद्र ने सशस्त्र बलों को ऑपरेशन सिंदूर को अंजाम देने के लिए "पूरी छूट" दी थी.
द्विवेदी ने हालिया संघर्ष के दौरान भारत के ख़िलाफ़ पाकिस्तान के जीत के दावे का मज़ाक उड़ाया है, और नैरेटिव मैनेजमेंट सिस्टम के महत्व को रेखांकित किया है. सेना प्रमुख ने पाकिस्तानी सेना प्रमुख असीम मुनीर के फ़ील्ड मार्शल के पद पर पदोन्नति पर सूक्ष्म कटाक्ष करते हुए कहा, "नैरेटिव मैनेजमेंट सिस्टम कुछ ऐसा है जिसे हम बड़े पैमाने पर महसूस करते हैं क्योंकि जीत दिमाग़ में होती है. यह हमेशा दिमाग़ में होती है. यदि आप किसी पाकिस्तानी से पूछें कि आप हारे या जीते, तो वह कहेगा, मेरे प्रमुख फ़ील्ड मार्शल बन गए हैं, हम ज़रूर जीते होंगे, इसीलिए वह फ़ील्ड मार्शल बने हैं".
शतरंज के खेल का रूपक इस्तेमाल करते हुए, जनरल द्विवेदी ने कहा, "ऑपरेशन सिंदूर में हमने जो किया, हमने शतरंज खेली. तो, इसका क्या मतलब है? इसका मतलब है, हमें नहीं पता था कि दुश्मन अगला कदम क्या उठाने जा रहा है, और हम क्या करने जा रहे हैं. यह कुछ ऐसा है, जिसे हम कहते हैं.. ग्रे ज़ोन. ग्रे ज़ोन यह है कि हम पारंपरिक अभियानों के लिए नहीं जा रहे हैं. लेकिन, हम कुछ कर रहे हैं, जो एक पारंपरिक अभियान से ठीक पहले का है". उन्होंने कहा, "तो, हम शतरंज की चालें चल रहे थे, और वह (दुश्मन) भी शतरंज की चालें चल रहा था. कहीं हम उसे शह और मात दे रहे थे और कहीं हम अपने को खोने के जोखिम पर उसे ख़त्म करने के लिए जा रहे थे, लेकिन यही जीवन का तरीक़ा है".
इससे पहले, एयर चीफ़ मार्शल अमर प्रीत सिंह ने शनिवार को कहा था कि ऑपरेशन सिंदूर के दौरान भारत ने पाँच पाकिस्तानी लड़ाकू जेट और एक बड़ा एयरबोर्न अर्ली वार्निंग एंड कंट्रोल (AEW&C) या पूर्व चेतावनी विमान मार गिराया था. मई में ऑपरेशन सिंदूर के तहत, भारतीय वायुसेना ने पाकिस्तान और पाकिस्तान के कब्जे वाले कश्मीर में आतंकी समूहों से जुड़े कई ठिकानों पर सटीक हमले किए थे. इस ऑपरेशन का उद्देश्य पहलगाम हमले के मद्देनज़र आतंकी बुनियादी ढाँचे को नष्ट करना और प्रमुख गुर्गों को बेअसर करना था.
असीम मुनीर फिर अमेरिका में
पाकिस्तानी सेना प्रमुख असीम मुनीर, जो भारत के साथ चार दिवसीय संघर्ष के बाद दूसरी बार वाशिंगटन का दौरा कर रहे हैं, ने शीर्ष अमेरिकी राजनीतिक और सैन्य नेताओं से मुलाक़ात की है, सेना ने रविवार को कहा. सेना द्वारा यहाँ जारी एक बयान में कहा गया है कि सेनाध्यक्ष (COAS) "संयुक्त राज्य अमेरिका की आधिकारिक यात्रा पर हैं". बयान के अनुसार, सेना प्रमुख ने वरिष्ठ राजनीतिक और सैन्य नेतृत्व के साथ-साथ पाकिस्तानी प्रवासियों के सदस्यों के साथ उच्च-स्तरीय बातचीत की. उनकी अमेरिका में रुकने के बारे में कोई विवरण साझा नहीं किया गया, और यह भी स्पष्ट नहीं था कि वह कब पहुँचे.
पाकिस्तानी प्रवासियों के साथ एक संवादात्मक सत्र के दौरान, मुनीर ने उनसे पाकिस्तान के उज्ज्वल भविष्य में आत्मविश्वासी बने रहने और निवेश आकर्षित करने में सक्रिय रूप से योगदान करने का आग्रह किया. सेना के अनुसार, प्रवासियों ने पाकिस्तान की प्रगति और विकास का समर्थन करने की अपनी प्रतिबद्धता की पुष्टि की. जून में, मुनीर ने अमेरिका की एक दुर्लभ पाँच-दिवसीय यात्रा की थी, जिसके दौरान उन्होंने राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के साथ एक निजी दोपहर के भोजन में भाग लिया था, जो आमतौर पर आने वाले राष्ट्राध्यक्षों या शासनाध्यक्षों के लिए आरक्षित एक अभूतपूर्व संकेत था. उस बैठक का समापन ट्रंप द्वारा तेल सौदे सहित विभिन्न क्षेत्रों में अमेरिका-पाकिस्तान सहयोग बढ़ाने की घोषणा के साथ हुआ था.
जम्मू-कश्मीर विधानसभा की नामित सीटें सरकार के दायरे से बाहर, उपराज्यपाल के पास शक्तियाँ
केंद्रीय गृह मंत्रालय ने जम्मू और कश्मीर उच्च न्यायालय को सूचित किया है कि केंद्र शासित प्रदेश के उपराज्यपाल सरकार की "सहायता और सलाह" के बिना जम्मू-कश्मीर विधानसभा में पाँच सदस्यों को नामित कर सकते हैं. मंत्रालय ने कहा कि उपराज्यपाल का कार्यालय सरकार का विस्तार नहीं है. मंत्रालय ने कहा कि नामांकन "जम्मू-कश्मीर की चुनी हुई सरकार के काम के दायरे से बाहर" थे. मंत्रालय ने अदालत में दिए अपने हलफ़नामे में कहा, "एक बार जब संसद क़ानून द्वारा उपराज्यपाल को संसदीय अधिनियम के तहत केंद्र शासित प्रदेश की सरकार से एक अलग प्राधिकरण के रूप में मान्यता देती है, तो यह आवश्यक रूप से अनुसरण करता है कि जब उपराज्यपाल को कोई शक्ति प्रदान की जाती है, तो उसे एक वैधानिक कार्य के रूप में प्रयोग किया जाना चाहिए, न कि केंद्र शासित प्रदेश सरकार के प्रमुख के रूप में उनके कर्तव्यों के विस्तार के रूप में. इसमें कोई संदेह नहीं हो सकता है कि यह उपराज्यपाल हैं जिन्हें इस वैधानिक कर्तव्य का प्रयोग अपने विवेक से, एक वैधानिक पदाधिकारी के रूप में करना है, न कि सरकार के विस्तार के रूप में, इस प्रकार, सहायता और सलाह के बिना".
विधानसभा में तीन सदस्यों - दो कश्मीरी प्रवासियों (एक महिला सहित) और पाकिस्तान के कब्जे वाले कश्मीर (PoJK) समुदाय से एक सदस्य - को नामित करने की शक्तियों को संसद द्वारा जम्मू-कश्मीर पुनर्गठन अधिनियम, 2019 में संशोधन के साथ 2023 में डाला गया था. 2019 के अधिनियम में यह भी प्रावधान था कि यदि उपराज्यपाल की राय में, विधानसभा में महिलाओं का पर्याप्त प्रतिनिधित्व नहीं है, तो दो महिलाओं को नामित किया जा सकता है. इस संशोधन को कांग्रेस नेता रविंदर कुमार शर्मा द्वारा दायर एक जनहित याचिका (PIL) के माध्यम से चुनौती दी गई थी.
याचिका पर सुनवाई करते हुए, उच्च न्यायालय ने 21 अक्टूबर, 2024 को केंद्र सरकार से 2019 के अधिनियम में किए गए बदलावों पर जवाब मांगा था. इसने पूछा था, "क्या जम्मू-कश्मीर पुनर्गठन अधिनियम, 2019 की धाराएँ 15, 15-ए और 15-बी, जो विधानसभा की स्वीकृत संख्या से अधिक सदस्यों को नामित करने का प्रावधान करती हैं, और जो अल्पसंख्यक सरकार को बहुमत सरकार में और इसके विपरीत बदलने की क्षमता रखती हैं, संविधान की मूल संरचना का उल्लंघन होने के कारण संविधान के दायरे से बाहर हैं?". 2023 के संशोधन ने कुल सीटों की संख्या को मौजूदा 114 से बढ़ाकर 119 कर दिया था. सरकार ने PoJK क्षेत्रों के लिए 24 सीटें ख़ाली रखी थीं.
एबीवीपी के कारण सेंट जेवियर्स को रद्द करना पड़ा स्टेन स्वामी स्मृति व्याख्यान
मुंबई के सेंट जेवियर्स कॉलेज को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की छात्र शाखा अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद (एबीवीपी) के विरोध के बाद अपना वार्षिक स्टेन स्वामी स्मृति व्याख्यान रद्द करना पड़ा. यह शनिवार शाम को आयोजित होने वाला था.
इस व्याख्यान का विषय था “आजीविका के लिए प्रवास : दुखों के बीच आशा.” भारतीय जेसुइट और रोम स्थित ग्रेगोरियन यूनिवर्सिटी के एसोसिएट प्रोफेसर फादर प्रेम जालक्सो वर्चुअली इसमें लेक्चर देने वाले थे. कॉलेज ने कहा कि यह व्याख्यान इसलिए रद्द किया गया, ताकि व्याख्यान के दौरान अव्यवस्था और अनावश्यक विवाद से बचा जा सके, क्योंकि यह विषय कॉलेज की शैक्षिक गतिविधियों के लिए अहम है. यह इस स्मृति व्याख्यान का चौथा संस्करण था.
कॉलेज के रेक्टर, फादर कीथ डी'सूजा ने कहा, जेसुइट दृष्टिकोण से, फादर स्टेन स्वामी एक आरोपी थे, जिनका ट्रायल नहीं हुआ था और उनकी मृत्यु हो गई. हमारे भारतीय कानून के अनुसार, जब तक दोष सिद्ध न हो, तब तक व्यक्ति निर्दोष माना जाता है.”
योगिता राव के अनुसार, एबीवीपी के पत्र में कहा गया कि फादर स्वामी पर एलगार परिषद-भीमा कोरेगांव मामले में आरोप लगे थे और उन्हें यूएपीए (आतंकवाद रोधी कानून) के तहत गिरफ्तार किया गया था तथा उनका संबंध माओवादी संगठनों से था. एबीवीपी ने व्याख्यान रद्द करने की मांग की थी, अन्यथा संगठन ने व्यापक विरोध, यूजीसी में याचिकाएं और अन्य कार्रवाइयों की चेतावनी दी थी.
कॉलेज ने कहा कि व्याख्यान 9 अगस्त को विश्व आदिवासी दिवस पर आयोजित किया जाना था. फादर डी'सूजा ने कहा, “व्याख्यान में आदिवासी जीवन के विभिन्न पहलुओं पर चर्चा की जाती है, लेकिन विवाद व्याख्यान के विषय से अधिक स्टेन स्वामी के नाम पर रखा जाने को लेकर है.”
ट्रम्प-पुतिन शिखर सम्मेलन से पहले ज़ेलेंस्की को मिला यूरोपीय संघ और नाटो का समर्थन
यूक्रेनी राष्ट्रपति वोलोदिमीर ज़ेलेंस्की को रविवार को यूरोप और नाटो गठबंधन से महत्वपूर्ण राजनयिक समर्थन मिला. रॉयटर्स के मुताबिक यह समर्थन इस हफ़्ते होने वाले रूस-अमेरिका शिखर सम्मेलन से पहले आया है, जिसे लेकर कीव को डर है कि व्लादिमीर पुतिन और डोनाल्ड ट्रम्प साढ़े तीन साल से चल रहे युद्ध को खत्म करने के लिए अपनी शर्तें थोप सकते हैं. अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रम्प ने शुक्रवार को घोषणा की कि वह 15 अगस्त को अलास्का में पुतिन से मिलेंगे. इससे कुछ हफ़्ते पहले तक वह युद्ध न रोकने के लिए रूस पर नए प्रतिबंध लगाने की धमकी दे रहे थे. व्हाइट हाउस के एक अधिकारी ने कहा है कि ट्रम्प ज़ेलेंस्की के शामिल होने के लिए तैयार हैं, लेकिन अभी तैयारी केवल द्विपक्षीय बैठक की हो रही है.
ट्रम्प ने कहा कि एक संभावित सौदे में "दोनों पक्षों की भलाई के लिए क्षेत्रों की कुछ अदला-बदली" शामिल हो सकती है, जिससे यूक्रेन की यह आशंका बढ़ गई है कि उस पर ज़मीन छोड़ने का दबाव डाला जा सकता है. ज़ेलेंस्की का कहना है कि यूक्रेन के बिना लिया गया कोई भी फ़ैसला "जन्म से ही मृत" और अव्यवहारिक होगा. अमेरिकी उपराष्ट्रपति जेडी वेंस ने भी कहा कि रूस और यूक्रेन के बीच बातचीत से होने वाला कोई भी समझौता शायद ही किसी भी पक्ष को पूरी तरह से संतुष्ट करेगा. उन्होंने फॉक्स न्यूज़ पर कहा, "यह किसी को भी बहुत खुश नहीं करने वाला है. रूसी और यूक्रेनी दोनों, शायद, दिन के अंत में इससे नाखुश होंगे."
शनिवार को ब्रिटेन, फ़्रांस, जर्मनी, इटली, पोलैंड, फ़िनलैंड और यूरोपीय आयोग के नेताओं ने कहा कि किसी भी राजनयिक समाधान में यूक्रेन और यूरोप के सुरक्षा हितों की रक्षा होनी चाहिए. यूरोपीय संघ की विदेश नीति प्रमुख काजा कल्लास ने रविवार को कहा, "अमेरिका के पास रूस को गंभीरता से बातचीत करने के लिए मजबूर करने की शक्ति है. अमेरिका और रूस के बीच किसी भी सौदे में यूक्रेन और यूरोपीय संघ को शामिल किया जाना चाहिए, क्योंकि यह यूक्रेन और पूरे यूरोप की सुरक्षा का मामला है."
नाटो के महासचिव मार्क रूट ने अमेरिकी नेटवर्क एबीसी न्यूज़ को बताया कि शुक्रवार का शिखर सम्मेलन "पुतिन को परखने के बारे में होगा, कि वह इस भयानक युद्ध को समाप्त करने के लिए कितने गंभीर हैं". उन्होंने यह भी कहा कि यूक्रेन को अपना भविष्य तय करने का अधिकार होना चाहिए. रूट ने कहा कि किसी सौदे में यूक्रेनी ज़मीन पर रूसी नियंत्रण को कानूनी मान्यता शामिल नहीं हो सकती, हालांकि इसमें वास्तविक (de facto) मान्यता शामिल हो सकती है. वहीं, रूसी अधिकारियों ने यूरोप पर ट्रम्प के प्रयासों को विफल करने की कोशिश करने का आरोप लगाया है. पूर्व रूसी राष्ट्रपति दिमित्री मेदवेदेव ने सोशल मीडिया पर पोस्ट किया, "यूरो-मूर्ख यूक्रेनी संघर्ष को हल करने में अमेरिकी प्रयासों को रोकने की कोशिश कर रहे हैं."
विश्लेषकों का मानना है कि यूक्रेन और यूरोप के लिए स्थिति गंभीर हो सकती है. स्कॉटलैंड में सेंट एंड्रयूज विश्वविद्यालय में रणनीतिक अध्ययन के प्रोफेसर फिलिप्स पी. ओ'ब्रायन ने लिखा, "अलास्का से जो कुछ भी निकलेगा, वह लगभग निश्चित रूप से यूक्रेन और यूरोप के लिए एक तबाही होगी." उन्होंने कहा कि यूक्रेन को एक भयानक दुविधा का सामना करना पड़ेगा कि क्या वे इस अपमानजनक सौदे को स्वीकार करते हैं या अकेले आगे बढ़ते हैं.
ज़रूर, यहाँ समाचार का संक्षिप्त संस्करण है, जो लगभग 300 शब्दों में है.
सुरक्षा परिषद में इज़राइल की आलोचना, नेतन्याहू ने ग़ाज़ा योजनाओं का बचाव किया
इज़राइल के प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू ने ग़ाज़ा शहर पर "नियंत्रण करने" की अपनी योजनाओं का बचाव करते हुए इसे युद्ध समाप्त करने का "सबसे अच्छा तरीक़ा" बताया है. वहीं, संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद की एक आपातकालीन बैठक में इज़राइल की इस योजना की भारी आलोचना हुई है. ब्रिटेन, फ़्रांस और अन्य देशों ने चेतावनी दी है कि यह योजना "अंतरराष्ट्रीय मानवीय क़ानून का उल्लंघन" कर सकती है और बंधकों की जान को और ख़तरे में डाल सकती है.
एक प्रेस कॉन्फ़्रेंस में नेतन्याहू ने दावा किया कि यह हमला "ग़ज़ा को हमास से मुक्त कराएगा". उन्होंने ग़ज़ावासियों को भूखा रखने के आरोपों से इनकार करते हुए कहा कि केवल इज़राइली बंधकों को "जानबूझकर भूखा रखा जा रहा है". उन्होंने अंतरराष्ट्रीय मीडिया पर हमास के प्रचार पर विश्वास करने और कुपोषित बच्चों की तस्वीरों को "फ़र्ज़ी" बताने का भी आरोप लगाया.
सुरक्षा परिषद में, चीन ने ग़ज़ा के लोगों के "सामूहिक दंड" को अस्वीकार्य बताया, जबकि संयुक्त राष्ट्र के अधिकारियों ने चेतावनी दी कि ग़ज़ा में भुखमरी एक बड़ी आपदा बन गई है. इसके विपरीत, अमेरिका ने इज़राइल का बचाव करते हुए कहा कि अगर हमास बंधकों को रिहा कर दे तो युद्ध आज ही समाप्त हो सकता है. अमेरिकी राजदूत ने इज़राइल पर लगे "नरसंहार" के आरोपों को "स्पष्ट रूप से झूठा" बताया.
इस बीच, इज़राइल में भी हज़ारों प्रदर्शनकारियों ने सरकार की योजना का विरोध किया है, उन्हें डर है कि इससे बंधकों की जान ख़तरे में पड़ जाएगी. हमास द्वारा संचालित स्वास्थ्य मंत्रालय के अनुसार, 2023 से इज़राइल के सैन्य अभियान में 61,000 से अधिक लोग मारे गए हैं. इज़राइल ने यह हमला 7 अक्टूबर, 2023 को हमास द्वारा किए गए हमले के जवाब में शुरू किया था, जिसमें लगभग 1,200 लोग मारे गए थे और 251 को बंधक बना लिया गया था.
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