11/10/2025: तालिबान से गले लगा भारत , पर भारत में मुस्लिमों की परवाह नहीं करेगा | पाकिस्तानी रणनीति पर सुशांत सिंह | क्राइम डाटा में मणिपुर की औरतों से ज़ुल्म गायब | गाज़ा में घरवापसी | शांति का नोबेल
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निधीश त्यागी, साथ में राजेश चतुर्वेदी, गौरव नौड़ियाल, फ़लक अफ़शां
आज की सुर्खियां
भारत में तालिबान मंत्री का दौरा विवादों में
मेवात में पुलिस हिरासत में मौत पर हंगामा
मणिपुर: महिलाओं के ख़िलाफ़ अपराध सरकारी आंकड़ों में नदारद
पाकिस्तान-सऊदी रक्षा समझौता: भारत के लिए रणनीतिक चुनौतियां
बिहार चुनाव से पहले RJD को मिली राजनीतिक बूस्ट
टाटा संस बोर्ड में दरार: ट्रस्टी ने ‘अभूतपूर्व’ विभाजन बताया
ट्रिपल आईटी नया रायपुर में AI से आपत्तिजनक तस्वीरें बनाने वाला छात्र गिरफ़्तार
असम बीजेपी नेता राजन गोहेन का इस्तीफ़ा
रायबरेली लिंचिंग: कांग्रेस प्रतिनिधिमंडल को पीड़ित परिवार से मिलने से रोका गया
सिंगापुर में जुबिन गर्ग की मौत: 2 पीएसओ गिरफ़्तार, कुल 7 गिरफ्तारियां
हिमाचल में महिलाएं घरेलू हिंसा के ख़िलाफ़ आवाज़ उठा रहीं
गाज़ा में युद्धविराम लागू, इज़राइली सेना पीछे हटी
वेनेज़ुएला की विपक्षी नेता मारिया मशादो को नोबेल शांति पुरस्कार
भारत में तालिबान: जयशंकर से मिले मुत्ताक़ी, दूतावास अपग्रेड होगा; महिला पत्रकारों को बाहर रखने पर विवाद
भारत दौरे पर आए अफ़ग़ानिस्तान के कार्यवाहक विदेश मंत्री आमिर ख़ान मुत्ताक़ी की नई दिल्ली में विदेश मंत्री एस. जयशंकर से मुलाक़ात हुई, लेकिन उनका यह दौरा एक बड़े विवाद में घिर गया. द टेलीग्राफ़ और इंडियन एक्सप्रेस की रिपोर्ट्स के अनुसार, मुत्ताक़ी की प्रेस कॉन्फ्रेंस में कथित तौर पर महिला पत्रकारों को शामिल होने से रोक दिया गया, जिससे पत्रकारों और पर्यवेक्षकों में भारी नाराज़गी है.
जयशंकर के साथ बैठक के बाद आयोजित इस प्रेस कॉन्फ्रेंस में सिर्फ़ पुरुष पत्रकार ही मौजूद थे, जिसकी चौतरफ़ा निंदा हुई. पत्रकारों ने भारत की धरती पर इस तरह के भेदभाव की अनुमति देने के लिए भारत सरकार की भूमिका पर सवाल उठाए. द हिंदू की पत्रकार सुहासिनी हैदर ने विदेश मंत्रालय से पूछा कि क्या उन्हें इस बात की जानकारी थी कि महिला पत्रकारों को आमंत्रित नहीं किया गया था और क्या मंत्रालय ने इस तरह के बहिष्कार को मंज़ूरी दी थी. उन्होंने कहा, “इससे भी ज़्यादा हास्यास्पद यह है कि तालिबान के विदेश मंत्री को भारत में महिलाओं के ख़िलाफ़ अपने घृणित और अवैध भेदभाव को लाने की अनुमति दी गई, जबकि सरकार पूरी आधिकारिक प्रोटोकॉल के साथ तालिबान प्रतिनिधिमंडल की मेज़बानी कर रही है. यह व्यावहारिकता नहीं, बल्कि समर्पण है.”
बैठक के दौरान, जयशंकर ने अफ़ग़ानिस्तान के प्रति भारत के दृष्टिकोण को रेखांकित किया. उन्होंने कहा कि भारत काबुल में अपने मौजूदा “तकनीकी मिशन” को एक पूर्ण भारतीय दूतावास में अपग्रेड करेगा. उन्होंने कहा, “यह यात्रा हमारे संबंधों को आगे बढ़ाने और भारत और अफ़ग़ानिस्तान के बीच स्थायी दोस्ती की पुष्टि करने में एक महत्वपूर्ण क़दम है.” आतंकवाद का मुक़ाबला करने पर ज़ोर देते हुए जयशंकर ने कहा, “दोनों देश सीमा पार आतंकवाद के साझा ख़तरे का सामना कर रहे हैं. हमें आतंकवाद के सभी रूपों से निपटने के लिए प्रयासों में समन्वय करना चाहिए.”
इस मुलाक़ात में भारत ने अफ़ग़ानिस्तान के लिए कई तरह की सहायता की घोषणा की, जिसमें छह नई परियोजनाएं, एम्बुलेंस का तोहफ़ा, अस्पतालों के लिए एमआरआई और सीटी स्कैन मशीनें, टीकाकरण के लिए टीके और कैंसर की दवाएं शामिल हैं. मुत्ताक़ी ने अपनी ओर से कहा कि अफ़ग़ानिस्तान भारत को “एक क़रीबी दोस्त” के रूप में देखता है और आपसी सम्मान पर आधारित संबंध चाहता है. उन्होंने कहा, “हम किसी को भी अपनी ज़मीन का इस्तेमाल दूसरों के ख़िलाफ़ करने की इजाज़त नहीं देंगे.”
लेकिन महिला पत्रकारों के बहिष्कार का मुद्दा छाया रहा. एक अन्य पत्रकार स्मिता शर्मा ने कहा कि जयशंकर के शुरुआती भाषण या संयुक्त बयान में अफ़ग़ान महिलाओं और लड़कियों की दुर्दशा का कोई ज़िक्र नहीं था. 2021 में सत्ता में लौटने के बाद से, तालिबान ने महिलाओं और लड़कियों पर गंभीर प्रतिबंध लगाए हैं, जिसमें उन्हें माध्यमिक स्कूलों, उच्च शिक्षा और अधिकांश कार्यस्थलों से प्रतिबंधित करना शामिल है. संयुक्त राष्ट्र ने महिलाओं के साथ उनके व्यवहार को “लैंगिक रंगभेद” की व्यवस्था कहा है.
मेवात में पुलिस हिरासत में मुस्लिम व्यक्ति की मौत, परिवार ने लगाया हत्या का आरोप
हरियाणा के मेवात में एक 50 वर्षीय मुस्लिम व्यक्ति की संदिग्ध परिस्थितियों में मौत हो गई. मकतूब मीडिया के लिए जुनैद लुहिंगा और ग़ज़ाला अहमद की रिपोर्ट के अनुसार, परिवार ने पुलिस पर हिरासत में हत्या का आरोप लगाया है, उनका कहना है कि हिरासत में लिए जाने के वक़्त वह ज़िंदा थे, लेकिन बाद में थाने में उनकी मौत हो गई.
लुहिंगा गांव के निवासी जमील की मौत से समुदाय में ग़ुस्सा और दुख है. परिवार और ग्रामीणों का कहना है कि पुलिस ने लापरवाही और संभवतः हिंसात्मक तरीक़े से काम किया, जिससे उनकी मौत हुई. स्थानीय लोगों के मुताबिक, जमील बुधवार, 8 अक्टूबर को काम के पैसे लेने के लिए राजस्थान के समाधिका जा रहे थे, तभी नटवर नाम के एक व्यक्ति और उसके साथियों ने उन पर हमला कर दिया. एक ग्रामीण ने बताया, “उन्होंने उनके सिर पर लाठी और ईंटों से वार किया.”
मौक़े पर पहुंची पुलिस ने घायल जमील को अस्पताल ले जाने के बजाय डींग पहाड़ी पुलिस स्टेशन ले गई. कुछ घंटों बाद, उन्हें अस्पताल ले जाया गया, जहां डॉक्टरों ने उन्हें मृत घोषित कर दिया. उनकी मौत के बाद, लुहिंगा के ग्रामीण मौक़े पर जमा हो गए और नटवर व अन्य के ख़िलाफ़ हत्या का मामला (आईपीसी धारा 302) दर्ज करने की मांग की. उन्होंने सवाल उठाया कि पुलिस ने हस्तक्षेप क्यों किया और तत्काल चिकित्सा उपचार सुनिश्चित करने में विफल क्यों रही.
हालांकि, पुलिस ने शुरू में एफ़आईआर दर्ज करने से इनकार कर दिया, जिससे गतिरोध पैदा हो गया. ग्रामीणों ने आधिकारिक मामला दर्ज होने तक जमील का शव लेने से इनकार कर दिया. बाद में, पुलिस ने लगभग 25 ग्रामीणों को हिरासत में लिया और देर रात रिहा कर दिया. अगले दिन, दो ज्ञात और तीन अज्ञात व्यक्तियों के ख़िलाफ़ आईपीसी की धारा 302 के तहत एफ़आईआर दर्ज की गई. पोस्टमार्टम के बाद, जमील का शव गुरुवार शाम, 9 अक्टूबर को उनके परिवार को सौंप दिया गया.
हालांकि, परिवार के सदस्यों का मानना है कि जमील को पुलिस हिरासत में और पीटा गया. जमील के भाई सलीम ने मकतोब को बताया, “उन्हें नटवर नाम के दो लोगों और एक अज्ञात व्यक्ति ने रोका. उन्होंने पीछे से रॉड से हमला किया. वह गिर गए, और फिर उन्होंने एक बड़े पत्थर से हमला किया. चश्मदीदों के अनुसार, पुलिस के मौक़े पर पहुंचने तक वह ज़िंदा थे.” उन्होंने आरोप लगाया, “अस्पताल ले जाने के बजाय, पुलिस उन्हें पुलिस स्टेशन ले गई, जहां हिरासत में उनकी मौत हो गई.” जमील के परिवार में नौ बच्चे हैं, चार बेटियां और पांच बेटे. उनकी तीन बेटियों की शादी इसी साल के अंत में होनी थी.
मणिपुर
सरकारी आंकड़ों में दर्ज नहीं महिलाओं पर जुल्म
द हिंदू में नितिका फ्रांसिस की एक रिपोर्ट के अनुसार, 2023 में मणिपुर में जातीय संघर्ष के चरम पर, इमारतों को जला दिया गया, दंगे व्यापक थे, और डकैती, लूट, हत्या और हत्या के प्रयास जैसे अपराधों में भारी वृद्धि हुई. इस हिंसा की रिपोर्टों के साथ-साथ, महिलाओं के साथ बलात्कार, उत्पीड़न और यहां तक कि हत्या के भी कई प्रलेखित मामले सामने आए. सुप्रीम कोर्ट ने जुलाई 2023 में स्थिति का संज्ञान लेते हुए कहा था कि मणिपुर में जातीय संघर्षों के बीच महिलाओं के ख़िलाफ़ “अभूतपूर्व” यौन हिंसा हुई है.
इंफाल घाटी स्थित मैतेई समुदाय और पहाड़ी निवासी कुकी जनजाति के बीच संघर्ष मई 2023 में शुरू हुआ और आज तक जारी है. इन झड़पों में सैकड़ों लोगों की जान चली गई है और लगभग 70,000 लोग विस्थापित हुए हैं.
हाल ही में जारी राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) के 2023 के आंकड़ों से पता चलता है कि लगभग सभी श्रेणियों में अपराध बढ़े हैं. हालांकि, रिपोर्ट महिलाओं के ख़िलाफ़ अपराधों के संबंध में एक चौंकाने वाली विसंगति प्रस्तुत करती है: महिलाओं के ख़िलाफ़ अपराधों को सूचीबद्ध करने वाली अधिकांश प्रमुख श्रेणियों में पिछले वर्ष की तुलना में गिरावट देखी गई है.
आंकड़ों के अनुसार, आगज़नी के मामले 2022 में सिर्फ़ 27 से बढ़कर 2023 में 6,203 हो गए; डकैती के मामले 1 से बढ़कर 1,213 हो गए; और दंगों के मामले 84 से बढ़कर 5,421 हो गए. हत्याओं की संख्या लगभग तीन गुना हो गई - 47 से 151 - और हत्या के प्रयास के मामले 153 से बढ़कर 818 हो गए. संपत्ति से जुड़े अपराध भी बढ़े.
हालांकि, एनसीआरबी के आंकड़ों से पता चलता है कि महिलाओं के ख़िलाफ़ अपराधों में कोई वृद्धि दर्ज नहीं की गई. इसके विपरीत, महिलाओं के ख़िलाफ़ संज्ञेय अपराधों में 30% की गिरावट आई. बलात्कार के मामले 2022 में 42 से घटकर 2023 में 27 हो गए, जबकि महिलाओं की गरिमा को ठेस पहुंचाने के इरादे से किए गए हमले के मामले 67 से घटकर 66 हो गए, और यौन उत्पीड़न के मामले 5 से घटकर 1 हो गए. यह गिरावट उन रिपोर्टों के बावजूद है जिनमें मई 2023 के बाद से महिलाओं के ख़िलाफ़ हिंसा के कई मामले सामने आए.
महिलाओं के ख़िलाफ़ अपराधों में दर्ज की गई गिरावट और अन्य अपराध श्रेणियों में वृद्धि का यह विरोधाभास महिलाओं से जुड़े अपराधों की बड़े पैमाने पर अंडर-रिपोर्टिंग की ओर इशारा करता है. जबकि महिलाओं के ख़िलाफ़ अपराधों की कम रिपोर्टिंग पूरे भारत में एक अच्छी तरह से प्रलेखित प्रवृत्ति है, मणिपुर का मामला इस समस्या को और भी स्पष्ट रूप से उजागर करता है.
विश्लेषण
सुशांत सिंह | पाकिस्तान-सऊदी रक्षा समझौते का भारत के लिए अर्थात?
येल विश्वविद्यालय में पढ़ा रहे और रक्षा, अंतरराष्ट्रीय मामलों के जानकार सुशांत सिंह का यह लेख फॉरेन पॉलिसी में प्रकाशित हुआ है.
पिछले महीने पाकिस्तान और सऊदी अरब के बीच एक व्यापक रक्षा समझौते की घोषणा, एक जटिल क्षेत्रीय सुरक्षा ताने-बाने में महज़ एक और द्विपक्षीय समझौते से कहीं ज़्यादा है.
इस समझौते को लेबनान, सीरिया और बड़े मध्य पूर्व में इज़राइल के बेलगाम सैन्य तेवरों के बीच खाड़ी में बढ़ती असुरक्षा की प्रतिक्रिया के तौर पर पेश किया गया है. लेकिन सतह के नीचे, इस नए रक्षा समझौते के निहितार्थ ज़्यादा व्यापक हैं. यह पाकिस्तान की रणनीतिक हैसियत को बदलता है और इस्लामाबाद के साथ रियाद के रक्षा जुड़ाव को और गहरा करता है — और यह भारत की अपने पड़ोस की नीति को मौलिक रूप से जटिल बना देता है.
लगभग एक दशक की राजनयिक पैंतरेबाज़ी के बाद, जिसका मक़सद पाकिस्तान को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अलग-थलग करना था, भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी एक ऐसे ढाँचागत फेरबदल का सामना कर रहे हैं जो नई दिल्ली के प्रतिद्वंद्वी को न केवल पश्चिम एशिया में — जो ऐतिहासिक रूप से भारतीय आर्थिक प्रभाव का क्षेत्र रहा है — बल्कि भू-राजनीतिक कल्पना में भी मज़बूती से स्थापित करता है. सऊदी गारंटी पाकिस्तान को नई वैधता देती है, जिससे ऐसे प्रभाव पैदा हो रहे हैं जो उपमहाद्वीप के सैन्य संतुलन से लेकर इस्लामी दुनिया की नैरेटिव पॉलिटिक्स तक पहुँचते हैं.
यह नया समझौता एक बार के सुरक्षा इंतज़ाम से कहीं ज़्यादा है, और पाकिस्तान इस औपचारिक साझेदारी का सबसे स्पष्ट लाभार्थी है. भारत के लिए, यह तत्काल सैन्य ख़तरे और स्थायी राजनयिक चुनौतियाँ, दोनों पेश करता है. नई दिल्ली इस पर कैसी प्रतिक्रिया देती है — चाहे वो सामरिक समायोजन हो या मौलिक नीति का पुनर्मूल्यांकन — यही तय करेगा कि यह घटनाक्रम एक अस्थायी झटका है या रणनीतिक परिदृश्य में एक ज़्यादा स्थायी बदलाव.
नया रक्षा समझौता पाकिस्तान को तत्काल और बड़े फ़ायदे देता है. सैन्य आधुनिकीकरण के लिए सऊदी फ़ंडिंग के स्पष्ट वित्तीय लाभों के अलावा, यह वो राजनयिक बीमा मुहैया कराता है जिसकी कमी पाकिस्तान को शीत युद्ध की समाप्ति के बाद से महसूस हो रही थी. इस्लामाबाद को अब अरब दुनिया की सबसे प्रभावशाली ताक़त का समर्थन हासिल है — एक ऐसा देश जिसका आर्थिक प्रभाव मध्य पूर्व से कहीं आगे तक फैला हुआ है.
यह औपचारिक साझेदारी पाकिस्तान को सिर्फ़ मज़बूती ही नहीं देगी, बल्कि मई में भारत के साथ हुए सैन्य संघर्ष जैसे भविष्य के किसी भी संकट पर अंतरराष्ट्रीय प्रतिक्रियाओं को भी सीमित करेगी, जिससे नई दिल्ली के लिए वैश्विक समर्थन जुटाना और मुश्किल हो जाएगा.
शायद इससे भी ज़्यादा महत्वपूर्ण बात यह है कि यह व्यवस्था पाकिस्तान को उन्नत पश्चिमी सैन्य तकनीकों तक अप्रत्यक्ष पहुँच प्रदान करती है जो सऊदी चैनलों के ज़रिए आती हैं; रियाद अमेरिका और यूरोपीय रक्षा उद्योगों का एक पसंदीदा ग्राहक है. इनमें ऐसे सिस्टम शामिल हैं जो भारत के अपने शस्त्रागार के कुछ हिस्सों की नकल करते हैं, जो संभावित रूप से क्षमता के अंतर को कम कर सकते हैं. यह विडंबना साफ़ है: भारतीय सैन्य योजनाकारों ने पाकिस्तानी सेनाओं पर अपनी बढ़त का हिसाब लगाने में सालों बिताए हैं और अब उन्हें अपने दुश्मन की क्षमताओं में सऊदी-फ़ंडेड अपग्रेड्स को भी ध्यान में रखना होगा.
रक्षा समझौते का सार्वजनिक होना पाकिस्तानी सेना की व्यावसायिकता, क्षमताओं और रणनीतिक क्षमता में विश्वास मत का भी काम करता है. मई में भारत-पाकिस्तान संघर्ष के बाद, सऊदी अरब ने पाकिस्तान के सैन्य अधिकारियों को महत्वपूर्ण अंतरराष्ट्रीय मान्यता दी है, जिससे भारत के उन दावों की हवा निकल गई है कि उसने इस साल अपने प्रतिद्वंद्वी को सैन्य रूप से अपमानित किया.
इसका एक परमाणु पहलू भी है. सऊदी अरब पर अपना परमाणु सुरक्षा कवच का विस्तार करके, पाकिस्तान अपने परमाणु कार्यक्रम को एक क्षेत्रीय बराबरी वाले हथियार से बदलकर व्यापक भू-राजनीतिक प्रभाव के एक साधन में बदल रहा है. सऊदी अरब पाकिस्तानी शस्त्रागार की उत्तरजीविता और विश्वसनीयता में एक निष्क्रिय निवेशक से एक सक्रिय हितधारक बन जाएगा. इससे रियाद को इस्लामाबाद के परमाणु आधुनिकीकरण के प्रयासों का समर्थन करने के लिए प्रोत्साहन मिलता है, जिससे संभावित रूप से ऐसी प्रगति में तेज़ी आ सकती है जो उपमहाद्वीप के रणनीतिक संतुलन को बदल सकती है.
यह समझौता इस्लामाबाद की रणनीतिक स्थिरता के मूल तर्क को भी बदल देता है, क्योंकि उसके परमाणु हथियार अब सिर्फ़ भारत के बारे में नहीं हैं, बल्कि इस्लामी दुनिया के भीतर एक व्यापक निवारक समीकरण का हिस्सा हैं. पाकिस्तान की परमाणु रणनीति दूसरे मुस्लिम-बहुल देशों के लिए एक सुरक्षा गारंटी के रूप में भी काम कर सकती है, जिससे वह हितों और गठबंधनों के एक व्यापक संदर्भ में आ जाता है. इस तरह, पाकिस्तान का परमाणु रुख़ अब भारत के साथ उसकी प्रतिद्वंद्विता से परे, व्यापक भू-रणनीतिक गणनाओं से प्रभावित है. नई दिल्ली के लिए, यह पहले से ही अस्थिर दक्षिण एशियाई परमाणु समीकरण को और ज़्यादा अस्थिर बना देता है.
सैन्य विचारों से परे, सऊदी अरब के साथ रक्षा समझौता पाकिस्तान के लिए एक राजनयिक क्रांति है. सालों के अंतरराष्ट्रीय अलगाव के बाद, इस्लामाबाद अचानक खुद को इस्लाम के दो सबसे पवित्र स्थलों, मक्का और मदीना के घोषित संरक्षक के दर्जे पर पाता है. यह प्रतीकवाद दोहरे उद्देश्य को पूरा करता है. यह पाकिस्तानी सेना के मूल घरेलू नैरेटिव को मज़बूत करता है — कि वह राष्ट्र और इस्लाम का अंतिम संरक्षक है, खासकर संकट के समय में — जबकि देश गहरी राजनीतिक दरारों और आर्थिक संघर्षों का सामना कर रहा है. बाहरी तौर पर, यह इस्लामी दुनिया के लिए एक अनिवार्य शक्ति होने के पाकिस्तान के दावे को और बढ़ाता है.
भारत के लिए, जो तस्वीर बनती है, वह नुक़सानदेह है. सालों से, इस्लामी दुनिया में पाकिस्तान की स्थिति गिर रही थी; तुर्की ने उसकी अग्रणी भूमिका को चुनौती देने की कोशिश की, ईरान और क़तर जैसे देशों ने इस्लामी नेतृत्व और पहचान तथा इस्लामी नैरेटिव्स के प्रतिस्पर्धी दृष्टिकोण अपनाए, और संयुक्त अरब अमीरात जैसे देशों ने भारत के साथ गहरे व्यावसायिक और सुरक्षा संबंधों की ओर रुख़ किया. नई दिल्ली ने इस बिखराव का फ़ायदा उठाने की कोशिश की है.
आर्थिक प्रभाव, सुरक्षा साझेदारियों और कुशल नैरेटिव प्रबंधन के ज़रिए, भारत लंबे समय तक पाकिस्तान को एक अस्थिर, आतंकवाद का समर्थन करने वाले देश के रूप में चित्रित करने में सफल रहा, जो गंभीर अंतरराष्ट्रीय जुड़ाव के लायक़ नहीं है. सऊदी अरब के साथ साझेदारी मोदी के सावधानी से बनाए गए नैरेटिव को चकनाचूर कर देती है. अब, पाकिस्तान फिर से एक महत्वपूर्ण भागीदार के रूप में मेज़ पर है.
हालांकि, सऊदी अरब और पाकिस्तान के बीच इस रणनीतिक समझौते को असीमित मानना एक ग़लती होगी. दोनों देशों के सामने ऐसी बाधाएँ हैं जो इस साझेदारी के दायरे और कार्यक्षमता को सीमित करती हैं.
पाकिस्तानी सेना अपनी क्षमता से ज़्यादा फैली हुई है, जो बलूचिस्तान और ख़ैबर पख़्तूनख़्वा प्रांतों में अपने कबायली क्षेत्रों में कई विद्रोहों से जूझ रही है, साथ ही भारत और अफ़ग़ानिस्तान के साथ अपनी सीमाओं पर भी तैयारी बनाए हुए है. इससे खाड़ी में बड़ी सैन्य प्रतिबद्धताओं के लिए बहुत कम रिज़र्व बचता है. पाकिस्तान की आर्थिक कमज़ोरी भी उसकी महत्वाकांक्षाओं को कमज़ोर करने का ख़तरा पैदा करती है. सऊदी समर्थन के बावजूद, निरंतर आधुनिकीकरण के लिए स्वदेशी तकनीकी गहराई की ज़रूरत होती है; पाकिस्तान काफ़ी हद तक चीन पर निर्भर है.
हालांकि विश्वसनीय हैं, लेकिन पाकिस्तान की परमाणु क्षमताएँ ज़्यादा स्थापित परमाणु शक्तियों की तुलना में दायरे और परिष्कार में सीमित हैं. उन्हें घर पर कमज़ोरियों को उजागर किए बिना विश्वसनीय रूप से बढ़ाया नहीं जा सकता. ऐसा करने से पाकिस्तान की कमान संरचना पर दबाव पड़ेगा, जिससे संचार प्रणालियों, निर्णय लेने की प्रक्रियाओं और बहुस्तरीय प्राधिकरण प्रक्रियाओं में कमज़ोरियाँ सामने आ सकती हैं. इससे संवेदनशील सामग्री की आवाजाही और प्रबंधन भी बढ़ जाएगा. इसके अलावा, राजनीतिक अस्थिरता अभी भी इस्लामाबाद को परेशान करती है, जिससे दीर्घकालिक रणनीतिक सामंजस्य पर सवाल उठते हैं.
सऊदी अरब की अपनी सीमाएँ हैं. भारत एक महत्वपूर्ण आर्थिक और ऊर्जा भागीदार बना हुआ है, और खाड़ी में लाखों भारतीय कामगार सऊदी अर्थव्यवस्था में योगदान करते हैं. नई दिल्ली के साथ किंगडम के गहरे आर्थिक और सुरक्षा संबंध उसे ऐसे कार्यों के ख़िलाफ़ प्रोत्साहित करते हैं जो द्विपक्षीय संबंधों को मौलिक रूप से नुक़सान पहुँचा सकते हैं. इसका मतलब है कि सऊदी अरब पाकिस्तान के साथ साझेदारी को सावधानी से संतुलित करेगा, भारत के साथ किसी भी सीधे टकराव से बचते हुए. वैसे भी, सऊदी प्राथमिकताएँ ईरान और क्षेत्रीय स्थिरता पर केंद्रित हैं, न कि दक्षिण एशिया में संघर्ष पर.
चीन की मध्यस्थता वाली कूटनीति के ज़रिए ईरान तक सऊदी अरब की एक साथ पहुँच उसकी सुरक्षा रणनीति के विरोधाभासों को दर्शाती है. इज़राइल के ख़िलाफ़ बचाव करना, ईरान के साथ पुल बनाना, और भारत के साथ आकर्षक संबंध विकसित करते हुए पाकिस्तान को सशक्त बनाना, सऊदी अरब के लिए परस्पर विरोधी प्रोत्साहनों का एक जटिल जाल बनाता है. ये विरोधाभास अनिवार्य रूप से रियाद और इस्लामाबाद के बीच ऑपरेशनल सहयोग को सीमित करेंगे.
अंततः, सऊदी अरब-पाकिस्तान रक्षा समझौते का ऑपरेशनल प्रभाव शुरुआती आकलनों की तुलना में कहीं ज़्यादा मामूली साबित हो सकता है. पाकिस्तान का एक मज़बूत पक्ष को ज़रूरत से ज़्यादा खेलने का एक सुस्थापित इतिहास रहा है, अफ़ग़ानिस्तान पर सोवियत क़ब्ज़े के दौरान संयुक्त राज्य अमेरिका के साथ अपने संबंधों से लेकर चीन के साथ अपनी शुरुआती साझेदारी तक. सऊदी अरब के साथ संबंध भी इसी तरह के पैटर्न पर चल सकता है अगर पाकिस्तानी निर्णय-निर्माता सामरिक लाभ को मौलिक रणनीतिक फ़ायदों की ग़लती कर बैठते हैं.
फिर भी, भारत अपनी रणनीतिक सोच को अपने विरोधियों की मूर्खता पर आधारित नहीं कर सकता, और सऊदी अरब-पाकिस्तान सुरक्षा समझौते ने एक नया समीकरण बना दिया है जिसमें नई दिल्ली को काम करना होगा. सबसे तत्काल, यह सऊदी अरब के साथ भारत के संबंधों को जटिल बनाता है, जो पिछले दशक में ऊर्जा साझेदारियों, निवेश समझौतों और सुरक्षा सहयोग के ज़रिए काफ़ी गहरे हुए हैं. रियाद अब खुद को दो परमाणु-सशस्त्र प्रतिद्वंद्वियों के साथ संबंधों का प्रबंधन करते हुए पाता है.
यह गतिशीलता अंतरराष्ट्रीय विमर्श में भारत और पाकिस्तान को फिर से एक साथ जोड़कर देखे जाने का ख़तरा पैदा करती है, या उनके रिश्ते को इस तरह से जोड़ती है कि तीसरे पक्ष उन्हें अलग-अलग रणनीतिक इकाइयों के बजाय एक-दूसरे से जुड़े हुए मानने के लिए मजबूर हो जाएँ. उन भारतीय नीति-निर्माताओं के लिए जिन्होंने भारत को अपने पड़ोसी और प्रतिद्वंद्वी से स्वतंत्र एक उभरती हुई शक्ति के रूप में स्थापित करने के लिए अथक प्रयास किया है, यह एक महत्वपूर्ण झटका है.
भारत और पाकिस्तान के बीच पिछले तीन सैन्य संघर्ष — 2016, 2019 और इस साल में — सभी कश्मीर में हिंसक घटनाओं के कारण भड़के हैं. इन संकटों के दौरान सऊदी अरब तनाव कम करने में शामिल रहा है, लेकिन पाकिस्तानी स्थिरता और सुरक्षा में एक सार्वजनिक निवेश रियाद को कश्मीर विवाद के समाधान में खुद को शामिल करने के लिए प्रेरणा और ताक़त दोनों प्रदान कर सकता है.
कश्मीर में तीसरे पक्ष की भागीदारी की संभावना, जिसे लंबे समय से भारतीय नीति-निर्माताओं द्वारा एक रेड लाइन माना जाता रहा है, नई दिल्ली के लिए एक बड़ा सिरदर्द बन जाती है जब इस्लामाबाद के नए रणनीतिक साझेदार के क्षेत्रीय स्थिरता में मज़बूत हित हों.
भारत अब एक ज़्यादा ख़तरनाक दुश्मन का सामना कर रहा है. बढ़े हुए वित्तीय संसाधनों, पश्चिमी हथियारों तक अप्रत्यक्ष पहुँच और सऊदी राजनयिक समर्थन के साथ, भारत के प्रति पाकिस्तान का सैन्य रुख़ और सख़्त होगा. भले ही सऊदी अरब के साथ साझेदारी पूरी तरह से ऑपरेशनल स्तर पर सफल न हो, लेकिन इसका सांकेतिक प्रभाव निवारक परिदृश्य को बदल देता है. भारत अब एक ऐसे पाकिस्तान के ख़िलाफ़ है जिसे पूरी तरह से चीन का समर्थन प्राप्त है, रणनीतिक रूप से सऊदी अरब का सहारा है, और राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प के तहत अमेरिका की नई उदारता का फ़ायदा मिल रहा है.
यह गठजोड़ दक्षिण एशिया के रणनीतिक वातावरण को इस तरह से फिर से आकार देता है जिसका नई दिल्ली ने अनुमान नहीं लगाया था, और असहज करने वाला सच यह है कि वह नींद में चलते हुए इस मुश्किल में फँस गया है. मोदी की विदेश नीति की प्राथमिकताएँ, जो ट्रम्प, इज़राइली प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू और सऊदी क्राउन प्रिंस मोहम्मद बिन सलमान जैसे नेताओं के साथ दिखावे पर केंद्रित रही हैं, मौजूदा भू-राजनीतिक क्षण के लिए अनुपयुक्त हो सकती हैं.
व्यक्तित्व और नेताओं के बीच सीधे संबंधों पर ज़ोर ने अल्पकालिक लाभ तो दिए लेकिन कमज़ोरियाँ भी पैदा कीं. भारत को अब एक नई रणनीतिक कल्पना की ज़रूरत है जो यह स्वीकार करे कि क्षेत्रीय गठबंधनों की उभरती रूपरेखा नई दिल्ली में नहीं, बल्कि रियाद, इस्लामाबाद और बीजिंग में आकार ले रही है.
बदले हुए परिदृश्य में पाकिस्तान के वैश्विक अलगाव की बयानबाज़ी पर और ज़ोर देने से कोई ख़ास मक़सद पूरा नहीं होगा. इसके बजाय, भारत को ऐसे विचार विकसित करने चाहिए और ऐसे नेताओं को तैयार करना चाहिए जो ऐसी नीतियाँ बना सकें जो पिछले दशक के जालों से बचें. इनमें पश्चिमी उदारता पर अत्यधिक निर्भरता, पाकिस्तान के लचीलेपन के प्रति उपेक्षा का भाव, और केवल मोदी के व्यक्तित्व के बल पर अपने वैश्विक उदय के बारे में अहंकार शामिल है.
भारत के लिए आगे का रास्ता मोदी युग की आरामदायक निश्चितताओं को छोड़ने और इस असहज हक़ीक़त को अपनाने की मांग करता है कि क्षेत्रीय शक्ति तेज़ी से नई दिल्ली की आकांक्षाओं से नहीं, बल्कि उसके विरोधियों की रणनीतिक पसंद से परिभाषित हो रही है.
बिहार चुनाव से पहले जेडीयूृ, एलजेपी को झटका, आरजेडी में शामिल हुए कई बड़े नेता
आगामी बिहार विधानसभा चुनाव से पहले, शुक्रवार (10 अक्टूबर, 2025) को सत्ताधारी दलों के कई प्रमुख चेहरों ने विपक्ष के राष्ट्रीय जनता दल (RJD) का दामन थाम लिया. द हिंदू की रिपोर्ट के मुताबिक, यह सब पार्टी नेता तेजस्वी यादव की मौजूदगी में हुआ.
जनता दल (यूनाइटेड) के पूर्व सांसद संतोष कुशवाहा और पूर्व विधायक राहुल शर्मा, लोक जनशक्ति पार्टी (रामविलास) के वैशाली विधानसभा से पूर्व उम्मीदवार अजय कुशवाहा और जेडीयू सांसद गिरधारी यादव के बेटे चाणक्य प्रकाश रंजन आरजेडी में शामिल हो गए. इन चार नेताओं में से दो कुशवाहा समुदाय से, एक यादव समुदाय से हैं, जबकि राहुल शर्मा भूमिहार समुदाय से आते हैं जो घोसी विधानसभा सीट से विधायक रह चुके हैं. संतोष कुशवाहा पूर्णिया से दो बार सांसद रहे हैं. उन्होंने 2014 और 2019 में यह सीट जीती थी, लेकिन 2024 में निर्दलीय उम्मीदवार पप्पू यादव से हार गए थे. शर्मा, जेडीयू के परबत्ता विधायक सजीव कुमार के बाद आरजेडी में शामिल होने वाले दूसरे भूमिहार नेता हैं.
पार्टी में उनका स्वागत करते हुए, बिहार विधानसभा में विपक्ष के नेता तेजस्वी यादव ने कहा कि इन चार नेताओं के जुड़ने से पार्टी मज़बूत होगी. उन्होंने कहा, “जनता दल (यूनाइटेड) के भीतर पार्टी कार्यकर्ताओं और नेताओं का कोई सम्मान नहीं है, और कुछ नासमझ व्यक्तियों ने पार्टी को बीजेपी की मर्ज़ी के अनुसार चलाने के लिए मजबूर कर दिया है. बीजेपी की राजनीतिक प्रथाओं के कारण, जर्जर और अक्षम सरकार ने बिहार के लोगों का विश्वास और समर्थन खो दिया है.” उन्होंने आगे कहा, “बिहार की जनता बदलाव चाहती है, और इसे मज़बूत करने के लिए हर जाति के लोग आरजेडी के सामाजिक न्याय और आर्थिक न्याय के सिद्धांतों के साथ खड़े हैं.”
द हिंदू की इस रिपोर्ट में बताया गया है कि संतोष कुशवाहा ने बिहार के मंत्री विजय चौधरी, केंद्रीय मंत्री राजीव रंजन सिंह उर्फ ललन सिंह और जेडीयू के कार्यकारी अध्यक्ष संजय झा का नाम लिए बिना आरोप लगाया कि इन तीन व्यक्तियों ने पूरी पार्टी पर कब्ज़ा कर लिया है, जिससे जेडीयू में पिछड़ा वर्ग और लव-कुश समुदाय पीछे छूट गए हैं. कुशवाहा नेताओं को आरजेडी में शामिल करके, विपक्ष यह संदेश देना चाहता है कि सत्ताधारी गठबंधन के ख़िलाफ़ समुदाय के भीतर असंतोष बढ़ गया है. आरजेडी भूमिहार नेताओं को जगह देकर सामाजिक समीकरण को भी तोड़ने की कोशिश कर रही है, जो पारंपरिक रूप से बीजेपी का समर्थन करते आए हैं.
शर्मा ने भी इसी तरह की बात दोहराते हुए दावा किया कि जेडीयू में लोकतंत्र और लोकतांत्रिक अधिकारों को कुचला जा रहा है, और पार्टी कार्यकर्ताओं की भावनाओं के लिए कोई जगह नहीं है. शर्मा ने कहा, “नौकरियों और रोज़गार के वादे के बाद तेजस्वी के नेतृत्व में लोगों का विश्वास बना है, और जिस तरह से तेजस्वी ने कल [गुरुवार (9 अक्टूबर)] हर घर को रोज़गार देने की बात की, उससे मैंने उनके साथ मज़बूती से खड़े होने और उनके मिशन को पूरा करने का मन बना लिया है.” अजय कुशवाहा और चाणक्य रंजन ने भी आरजेडी में शामिल होने पर खुशी व्यक्त करते हुए कहा कि वे तेजस्वी यादव की सेवा और त्याग की भावना को देखते हुए उनके साथ आए हैं.
यूक्रेन के ख़िलाफ़ लड़ने के लिए फंसाया गया
गुजरात के मोरबी का एक युवक साहिल मजोठी, जो बेहतर भविष्य की उम्मीद में रूस गया था, अब यूक्रेन युद्ध में एक भाड़े के सैनिक के रूप में आरोपी है. द न्यू इंडियन एक्सप्रेस की रिपोर्ट के मुताबिक, यह चौंकाने वाला मामला यूक्रेनी सेना द्वारा उसके आत्मसमर्पण का एक वीडियो जारी करने के बाद सामने आया.
साहिल की मां का दावा है कि उसे फंसाया गया, जाल में उलझाया गया और एक झूठे ड्रग्स मामले के बाद रूसी सेना में शामिल होने के लिए लालच दिया गया. उनका परिवार न्याय की गुहार लगा रहा है, उनका कहना है कि उनके बेटे के सपने चकनाचूर हो गए. साहिल 9 जनवरी, 2024 को रूस के लिए रवाना हुआ था, इस उम्मीद में कि वह पढ़ाई करेगा, काम करेगा और एक बेहतर ज़िंदगी बनाएगा. वह सेंट पीटर्सबर्ग पहुंचा, जहां उसने रूसी भाषा सीखी और अपनी पढ़ाई का ख़र्च उठाने के लिए एक कूरियर कंपनी में शामिल हो गया.
एक दिन, उसे एक पार्सल डिलीवर करने के लिए कहा गया. अपने मालिक पर भरोसा करते हुए, वह आगे बढ़ गया, लेकिन उसे आने वाले तूफ़ान का अंदाज़ा नहीं था. जैसे ही उसने पार्सल डिलीवर किया, रूसी पुलिस ने उसे घेर लिया और ड्रग्स ले जाने के आरोप में गिरफ़्तार कर लिया. उसकी मां, हसीना मजोठी, उस फ़ोन कॉल को याद करती हैं जिसने उनकी दुनिया को झकझोर कर रख दिया था.
हसीना मजोठी ने कहा, “साहिल से कथित तौर पर रूसी नागरिकता स्वीकार करने के लिए कहा गया था क्योंकि इससे उसका जीवन बेहतर हो जाएगा. उसे एक घर और अन्य लाभों का वादा किया गया था. लेकिन जब परिवार रूसी सेना से जुड़े होने का दावा करने वाले लोगों द्वारा मांगी गई 10 करोड़ रुपये की फिरौती नहीं दे सका, तो धमकियां मिलने लगीं.” परिवार ने रूसी सरकार से शिकायत की, जिसने जांच की और उगाही करने वालों को धोखेबाज़ घोषित कर दिया.
लेकिन तब तक, साहिल की ज़िंदगी पहले ही मुश्किल में पड़ चुकी थी. उसे एक और रास्ता सुझाया गया- रूसी सेना में शामिल हो जाओ. कोई विकल्प न होने के कारण, साहिल ने साइन अप कर दिया. महीनों बाद, यूक्रेनी सीमा पर, सच्चाई सामने आई. यूक्रेनी सेना द्वारा जारी एक वायरल वीडियो में साहिल को आत्मसमर्पण करते हुए दिखाया गया, हाथ ऊपर उठाए, सैनिकों से कह रहा था कि वह लड़ना नहीं चाहता. परिवार अब अपने बच्चे को बचाने के लिए दर-दर भटक रहा है. हसीना ने गुजरात सरकार से मदद मांगी है. उन्होंने कहा, “मुख्यमंत्री ने हमें सोमवार को समय दिया है. हम सब कुछ प्रस्तुत करेंगे.” कांपते हाथों से उन्होंने कहा, “मेरे बेटे को फंसाया गया. कल, दूसरे लड़के भी फंसाए जाएंगे. इसे रोकना होगा. मैं प्रधानमंत्री से सख़्त कार्रवाई करने की अपील करती हूं.”
टाटा संस बोर्ड से रोके जाने पर ट्रस्टी ने दरार की ओर इशारा किया: ‘अभूतपूर्व... अब एक अलग युग में’
टाटा ट्रस्ट के एक गुट द्वारा टाटा संस के बोर्ड में नॉमिनी डायरेक्टर के रूप में उनकी पुनर्नियुक्ति के ख़िलाफ़ मतदान करने के बाद, टाटा ट्रस्ट के ट्रस्टी और उपाध्यक्ष विजय सिंह ने कहा कि किसी भी मुद्दे को वोट के लिए रखना संगठन के भीतर “अभूतपूर्व” था. इंडियन एक्सप्रेस की रिपोर्ट के अनुसार, उन्होंने कहा कि यह दिवंगत रतन टाटा के फ़ैसलों में “आम सहमति और एकमत” पर ज़ोर देने के ख़िलाफ़ है.
हाल ही में हुआ यह वोट, 180 अरब डॉलर के टाटा समूह के भीतर चल रहे सत्ता संघर्ष को सामने ले आया है, जिसमें एम. पल्लोनजी के निदेशक मेहरी मिस्त्री के नेतृत्व में टाटा ट्रस्ट के चार ट्रस्टियों के एक गुट ने कथित तौर पर समूह की मुख्य होल्डिंग कंपनी टाटा संस में सिंह की पुनर्नियुक्ति का विरोध किया. सिंह के ख़िलाफ़ वोट भारत के सबसे सम्मानित कॉरपोरेट घराने के भीतर विभाजन का एक दुर्लभ और सार्वजनिक संकेत था. टाटा ट्रस्ट के पास सामूहिक रूप से टाटा संस का 66 प्रतिशत हिस्सा है, जो उन्हें समूह में सबसे शक्तिशाली शेयरधारक बनाता है.
सिंह के अनुसार, वह उस बैठक में शामिल नहीं हुए जिसमें वोट हुआ था. उन्होंने कहा, “चूंकि मैं वहां नहीं था, इसलिए मेरे किसी के पक्ष या विपक्ष में मतदान करने का सवाल ही नहीं उठता. जैसा कि अब सभी जानते हैं, चार ट्रस्टियों ने टाटा संस बोर्ड पर मेरी निरंतरता के ख़िलाफ़ मतदान किया, जिसके कारण स्पष्ट रूप से नहीं बताए गए.”
आईएएस के 1970 बैच के पूर्व रक्षा सचिव, सिंह 2018 में रतन टाटा के निमंत्रण पर टाटा ट्रस्ट में शामिल हुए थे. इस विभाजन के मूल में बोर्ड की नियुक्तियों और टाटा संस की लंबे समय से लंबित लिस्टिंग पर असहमति है. जो असहमति दबी हुई थी, वह अब दो अलग-अलग गुटों में बंट गई है. एक गुट का नेतृत्व टाटा ट्रस्ट के चेयरमैन नोएल टाटा, टीवीएस समूह के वेणु श्रीनिवासन और विजय सिंह कर रहे हैं, जो निरंतरता का प्रतिनिधित्व करते हैं. उनका विरोध करने वाले गुट का नेतृत्व मेहरी मिस्त्री, सिटीबैंक के पूर्व सीईओ प्रमित झावेरी, जहांगीर अस्पताल के चेयरमैन जहांगीर एच. सी. जहांगीर और वरिष्ठ वकील डेरियस खंबाटा कर रहे हैं. इस गुट का तर्क है कि ट्रस्ट अपारदर्शी और भारी हो गए हैं, और शासन के ढांचे को जवाबदेही के समकालीन मानकों को प्रतिबिंबित करने के लिए विकसित होना चाहिए.
विश्लेषकों के अनुसार, एक लंबा आंतरिक कलह भारत के सबसे प्रमुख व्यापारिक घरानों में से एक के शीर्ष पर फ़ैसला लेने की प्रक्रिया को पंगु बना सकता है.
ट्रिपल आईटी नया रायपुर: 36 छात्राओं की आपत्तिजनक एआई तस्वीरें बनाईं, छात्र गिरफ़्तार
छत्तीसगढ़ के नया रायपुर में डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी इंटरनेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ इंफॉर्मेशन टेक्नोलॉजी (IIIT) के एक 21 वर्षीय छात्र को आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस (AI) टूल का उपयोग करके महिला छात्रों की आपत्तिजनक तस्वीरें बनाने के आरोप में गिरफ़्तार किया गया है. द टेलीग्राफ़ की एक रिपोर्ट के अनुसार, पुलिस ने गुरुवार को यह जानकारी दी.
अतिरिक्त पुलिस अधीक्षक (नया रायपुर) विवेक शुक्ला ने कहा कि आरोपी की पहचान सैय्यद रहीम अदनान अली के रूप में हुई है, जो इलेक्ट्रॉनिक्स और कम्युनिकेशन इंजीनियरिंग विभाग का दूसरे वर्ष का छात्र और बिलासपुर ज़िले का मूल निवासी है. उसे संस्थान के रजिस्ट्रार (प्रभारी) डॉ. श्रीनिवास के.जी. द्वारा दर्ज कराई गई शिकायत के बाद हिरासत में लिया गया.
एएसपी शुक्ला ने कहा, “मामला सामने आने के बाद, राखी पुलिस की एक टीम संस्थान पहुंची. प्रबंधन ने बताया कि संस्थान के बॉयज़ हॉस्टल में रहने वाले अली ने कथित तौर पर एआई इमेज जेनरेशन और एडिटिंग टूल का उपयोग करके लगभग 36 महिला छात्रों की तस्वीरों को मॉर्फ़ करके अश्लील तस्वीरें बनाई थीं.” पुलिस के अनुसार, आरोपी ने लड़कियों की निजी तस्वीरें उनके सोशल मीडिया अकाउंट से सेव की थीं और उन्हें एआई-आधारित एडिटिंग टूल का उपयोग करके अश्लील तस्वीरों और वीडियो में बदल दिया था. शुक्ला ने संवाददाताओं से कहा, “उसने कम से कम 36 लड़कियों की तस्वीरों को एआई के इमेज जेनरेशन एडिटिंग टूल का उपयोग करके संपादित किया है, जो उसके लैपटॉप, हार्ड डिस्क, पेन ड्राइव और मोबाइल फ़ोन में पाई गईं.”
संस्थान द्वारा एक आंतरिक जांच शुरू की गई जब कुछ छात्रों ने अली की गतिविधियों पर संदेह जताया और प्रबंधन को सूचित किया. शुक्ला ने कहा, “इसकी जांच के आधार पर, अली को संस्थान से निलंबित कर दिया गया और उसका मोबाइल फ़ोन और लैपटॉप ज़ब्त कर लिया गया.” रायपुर के पुलिस महानिरीक्षक अमरेश मिश्रा ने पुष्टि की कि इस मामले में सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम और भारतीय न्याय संहिता (BNS) की संबंधित धाराओं के तहत एक प्रथम सूचना रिपोर्ट (FIR) दर्ज की गई है.
असम के बीजेपी नेता राजन गोहेन का इस्तीफ़ा
असम के दिग्गज बीजेपी नेता राजन गोहेन ने गुरुवार को पार्टी से इस्तीफ़ा दे दिया. द टेलीग्राफ़ के लिए उमानंद जायसवाल की रिपोर्ट के अनुसार, उन्होंने पार्टी के पुराने कार्यकर्ताओं के साथ हो रहे व्यवहार पर नाख़ुशी जताई है. असम बीजेपी के पूर्व अध्यक्ष और नगांव से चार बार के सांसद गोहेन ने 17 अन्य पार्टी सदस्यों के साथ यहां पार्टी मुख्यालय में अपना इस्तीफ़ा सौंपा. इस घटनाक्रम को राज्य के मौजूदा पार्टी अध्यक्ष दिलीप सैकिया ने दुर्भाग्यपूर्ण और आश्चर्यजनक बताया.
सैकिया ने कहा, “मैंने इस मुद्दे की जानकारी हमारे केंद्रीय नेतृत्व को दे दी है.” 72 वर्षीय गोहेन 1991 में पार्टी में शामिल हुए थे और 1999 में नगांव लोकसभा सीट जीतने के बाद से कभी नहीं हारे थे. हालांकि, उन्हें 2019 के लोकसभा चुनावों के लिए बीजेपी का उम्मीदवार नहीं बनाया गया और न ही उन्हें 2021 में विधानसभा का टिकट दिया गया. तब से वह पार्टी में हाशिये पर थे और गुरुवार का उनका फ़ैसला अपेक्षित था.
अपने इस्तीफ़े के बाद, गोहेन ने संवाददाताओं से कहा: “हम अटल बिहारी वाजपेयी, एल.के. आडवाणी, मुरली मनोहर जोशी जैसे पार्टी के दिग्गजों और उनके आदर्शों और स्नेह को देखकर पार्टी में शामिल हुए थे, न कि आज के ज़िम्मेदार लोगों को देखकर. हमारी चिंताओं को देखने वाला कोई नहीं है.” गोहेन ने कहा, “आज स्थिति यह है कि जो लोग दूसरी पार्टियों से आए हैं, वे हमारा इस्तेमाल कर रहे हैं जैसा वे ठीक समझते हैं... जिन्होंने पार्टी को अपने जीवन के बेहतरीन दिन दिए, उन्हें सुरक्षा देने वाला कोई नहीं है... इसलिए, मैंने छोड़ने का फ़ैसला किया है.” उन्होंने यह भी कहा कि बीजेपी राज्य के हित में काम नहीं कर रही है.
रायबरेली लिंचिंग: कांग्रेस ने प्रतिनिधिमंडल को पीड़ित परिवार से मिलने से रोका
कांग्रेस पार्टी ने शुक्रवार (10 अक्टूबर, 2025) को आरोप लगाया कि रायबरेली में पीट-पीटकर मार डाले गए एक दलित व्यक्ति हरिओम वाल्मीकि के परिवार से मिलने और वित्तीय सहायता प्रदान करने जा रहे पार्टी के एक प्रतिनिधिमंडल को स्थानीय प्रशासन ने फ़तेहपुर में रोक दिया. द हिंदू की रिपोर्ट के मुताबिक, पार्टी ने परिवार के साथ खड़े रहने का संकल्प लिया और अधिकारियों की कार्रवाई को सत्तावादी बताया.
उत्तर प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष अजय राय ने कहा, “रायबरेली में, दलित व्यक्ति हरिओम वाल्मीकि को सरकार के संरक्षण में चल रहे गुंडों ने बेरहमी से पीट-पीटकर मार डाला. आज, फ़तेहपुर कांग्रेस कमेटी के ज़िला अध्यक्ष महेश द्विवेदी जी और शहर अध्यक्ष मोहम्मद आरिफ़ ‘गुड्डा’ जी के नेतृत्व में एक कांग्रेस प्रतिनिधिमंडल पीड़ित परिवार से मिलने और वित्तीय सहायता प्रदान करने जा रहा था. लेकिन प्रशासन ने इस प्रतिनिधिमंडल को ज़बरदस्ती रोक दिया. सरकार दलितों से इतनी नफ़रत करती है और उनके समर्थन में उठने वाली किसी भी आवाज़ को दबाना चाहती है.”
मृतक को 1 अक्टूबर को चोर होने की अफ़वाहों के बीच एक भीड़ ने पीट-पीटकर मार डाला था. घटना के वायरल वीडियो में, पुरुषों का एक समूह पीड़ित को पीटता हुआ दिखाई दे रहा है, जो कमज़ोर आवाज़ में “राहुल गांधी” सहित कुछ शब्द कहते हुए सुना जा सकता है. आरोपी उसे पीटते रहते हैं और हिंदी में कहते हैं, “यहां सब बाबा के साथ हैं.” वीडियो के वायरल होने के बाद हंगामा मच गया, जिसके बाद रायबरेली पुलिस ने एक सब-इंस्पेक्टर सहित तीन कर्मियों को निलंबित कर दिया, स्टेशन हाउस ऑफिसर (एसएचओ) संजय कुमार को हटा दिया और पांच आरोपियों को गिरफ़्तार कर लिया. लोकसभा में विपक्ष के नेता और स्थानीय सांसद राहुल गांधी, जिनका नाम भी वायरल वीडियो में आया था, ने 5 अक्टूबर को मृतक के परिवार से बात की और मदद व समर्थन का आश्वासन दिया.
जुबिन गर्ग की मौत के मामले में उनके 2 निजी सुरक्षा अधिकारी गिरफ़्तार
गायक जुबिन गर्ग से जुड़े दो निजी सुरक्षा अधिकारियों (पीएसओ) को असम पुलिस ने शुक्रवार सुबह सिंगापुर में उनकी मौत के सिलसिले में गिरफ़्तार कर लिया. इंडियन एक्सप्रेस की रिपोर्ट के अनुसार, इस मामले में गिरफ़्तारियों की कुल संख्या सात हो गई है.
दोनों पीएसओ, नंदेश्वर बोरा और परेश बैश्य, को 2013 में असम सरकार द्वारा सुरक्षा प्रदान करने का फ़ैसला किए जाने के बाद दिवंगत सुपरस्टार से जोड़ा गया था. यह फ़ैसला उग्रवादी समूह उल्फ़ा द्वारा बिहू समारोह के दौरान हिंदी गाने गाने के ख़िलाफ़ उसके फ़रमान की अवहेलना करने पर जान से मारने की धमकी के बाद लिया गया था.
पुलिस अधिकारियों के अनुसार, दोनों तब से जांच के दायरे में थे जब गर्ग की मौत की जांच कर रही एसआईटी ने उनके बैंक खातों में “उनकी ज्ञात वेतन आय से कहीं ज़्यादा अनियमित वित्तीय लेनदेन” का पता लगाया. एक पीएसओ के खाते में 70 लाख रुपये और दूसरे के खाते में 40 लाख रुपये पाए गए. जुबिन की पत्नी गरिमा सैकिया गर्ग ने गुरुवार को संवाददाताओं से कहा था कि उन्हें पता था कि उन्होंने अपने परोपकारी कार्यों के सिलसिले में पीएसओ को पैसे दिए थे, लेकिन वह “उनके वित्तीय लेनदेन से अवगत नहीं थीं.”
एसआईटी प्रमुख एम.पी. गुप्ता ने इंडियन एक्सप्रेस को बताया कि दोनों पीएसओ की गिरफ़्तारी की पुष्टि करते हुए कहा कि वे जुबिन के साथ सिंगापुर नहीं गए थे, जहां 19 सितंबर को उनकी मृत्यु हो गई थी. इससे पहले, असम पुलिस ने नॉर्थईस्ट इंडिया फेस्टिवल के आयोजक श्यामकनु महंत, जुबिन के प्रबंधक सिद्धार्थ शर्मा, उनके साथी संगीतकार शेखरज्योति गोस्वामी और अमृतप्रवा महंत, और उनके चचेरे भाई असम पुलिस सेवा अधिकारी संदीपन गर्ग को गिरफ़्तार किया था. ये सभी उनके साथ सिंगापुर गए थे और उस यॉट आउटिंग में उनके साथ थे जिसमें उनकी मौत हुई थी.
हिमाचल में महिलाएं कैसे घरेलू हिंसा के ख़िलाफ़ बोल रही हैं और लड़ रही हैं
कांगड़ा ज़िला, हिमाचल प्रदेश: राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (NFHS) 2019-21 के नवीनतम उपलब्ध आंकड़ों के अनुसार, हिमाचल में घरेलू हिंसा की दर देश में तीसरी सबसे कम है, जो लक्षद्वीप और गोवा के बाद है. लेकिन आर्टिकल-14 पर मानसी राठी और आमिर बिन राफ़ी की रिपोर्ट एक अलग तस्वीर पेश करती है. राज्य में लिंग आधारित वैवाहिक हिंसा में वृद्धि हुई है, 18-49 आयु वर्ग की 8.3% महिलाओं ने अपने पति द्वारा शारीरिक या यौन हिंसा की सूचना दी है, जबकि NFHS 2015-16 में यह 5.9% थी.
52 वर्षीय ममता, जो अपने पति, भारतीय सेना के एक सेवानिवृत्त लांस नायक द्वारा दशकों से हिंसा का शिकार थीं, ने आख़िरकार अपनी चुप्पी तोड़ी. उन्होंने कहा, “मैं सिर्फ़ दोपहर के भोजन के लिए दाल बना रही थी. कोई लड़ाई नहीं, कोई बहस नहीं. अचानक, मुझे यह भयानक दर्द महसूस हुआ. वह मुझे लकड़ी की छड़ी से बार-बार मार रहे थे, ठीक मेरे कंधे पर.” 30 साल की शादी में पहली बार, ममता ने पंचायत और बाद में पुलिस से संपर्क किया. लेकिन हिंसा जारी रही, जब तक कि जुलाई 2025 के पहले सप्ताह में, ममता ने आख़िरकार घर छोड़ने का फ़ैसला नहीं कर लिया.
रिपोर्ट में कहा गया है कि हिमाचल में दुर्व्यवहार पर प्रतिक्रिया देने के तरीक़ों में एक पीढ़ीगत अंतर है. एक सामाजिक कार्यकर्ता तृप्ता ने कहा, “20 और 30 के दशक की युवा महिलाएं अब बहुत अलग हैं. वे अच्छी तरह से शिक्षित, आत्मनिर्भर और अपने अधिकारों के प्रति जागरूक हैं. वे वित्तीय, मानसिक और शारीरिक शोषण को जल्दी पहचान लेती हैं, और वे कार्रवाई करने के बारे में दो बार नहीं सोचतीं.”
रिपोर्ट में 28 वर्षीय ज्योति कुमारी की कहानी भी है, जिन्होंने अपनी तीन साल की बेटी के लिए हिंसा के ख़िलाफ़ लड़ने का फ़ैसला किया. उन्होंने अपने पति के ख़िलाफ़ कानूनी कार्रवाई की और अगस्त 2022 में, अपने और अपनी बेटी के लिए गुज़ारा भत्ता का मामला दायर किया. 2024 में, धर्मशाला ज़िला अदालत ने उनके पति को हर महीने 3,000 रुपये का गुज़ारा भत्ता देने का आदेश दिया, जिससे उन्हें अपना जीवन फिर से बनाने का एक साधन मिला.
इसी तरह, 35 वर्षीय कल्पना देवी ने सालों के दुर्व्यवहार के बाद 2018 में अपने पति को छोड़ दिया. एक एनजीओ की मदद से, उन्होंने घरेलू हिंसा की शिकायत दर्ज की और 2022 में तलाक़ के लिए अर्ज़ी दी. आज, वह एक कपड़ों की दुकान पर काम करती हैं और उन्होंने एक ऐसी शांति पाई है जो कभी असंभव लगती थी. ममता की कहानी में वैवाहिक बलात्कार का भी ज़िक्र है, जो भारत में अभी भी क़ानूनी है, जिससे अनगिनत महिलाएं हिंसा के सबसे अंतरंग रूपों के लिए कानूनी सहारे के बिना रह जाती हैं.
यह रिपोर्ट दर्शाती है कि जागरूकता और समर्थन के ज़रिए, हिमाचल की महिलाएं दशकों पुरानी चुप्पी को तोड़ रही हैं और अपने अधिकारों के लिए लड़ रही हैं, जो पूरे देश के लिए एक सबक़ है.
गाज़ा में युद्धविराम लागू, इज़राइली सेना पीछे हटी
अल जज़ीरा की रिपोर्ट के अनुसार, इज़राइली सेना ने गाज़ा समझौते के तहत सहमत रेखा के पीछे अपने सैनिकों को वापस खींच लिया है, जिससे एन्क्लेव के दक्षिणी हिस्सों से विस्थापित परिवारों का उत्तर की ओर जाना शुरू हो गया है. इससे पहले, इज़राइल की सरकार ने युद्धविराम समझौते के “पहले चरण” को मंज़ूरी दी थी, जिसमें बंदियों की अदला-बदली और गाज़ा के कुछ हिस्सों से इज़राइल की वापसी शामिल है.
हमास की वार्ता टीम के प्रमुख, खलील अल-हय्या ने कहा कि समूह को संयुक्त राज्य अमेरिका और मध्यस्थों से गारंटी मिली है कि युद्धविराम समझौते के पहले चरण पर सहमति का मतलब है कि गाज़ा पर युद्ध “पूरी तरह से समाप्त हो गया है.”
इज़राइली सरकार द्वारा शांति योजना की पुष्टि, जो शुक्रवार सुबह हुई, गाज़ा में 24 घंटे के भीतर लड़ाई रुकने का मार्ग प्रशस्त करती है, जबकि हमास को इज़राइली बंदियों को रिहा करने के लिए 72 घंटे की समय-सीमा दी गई है. अक्टूबर 2023 से गाज़ा पर इज़राइल के युद्ध में कम से कम 67,194 लोग मारे गए हैं और 1,69,890 घायल हुए हैं. माना जाता है कि हज़ारों और लोग नष्ट हुई इमारतों के मलबे के नीचे दबे हुए हैं. 7 अक्टूबर, 2023 के हमलों के दौरान इज़राइल में कुल 1,139 लोग मारे गए थे और लगभग 200 को बंदी बना लिया गया था.
वेनेज़ुएला की विपक्षी नेता मारिया मशादो को नोबेल शांति पुरस्कार, उन्होंने ट्रंप को किया समर्पित
ओस्लो: वेनेज़ुएला की विपक्षी नेता मारिया कोरिना मशादो ने शुक्रवार को देश में तानाशाही से लड़ने के लिए 2025 का नोबेल शांति पुरस्कार जीता. रॉयटर्स की ग्लोडिस फाउश की रिपोर्ट के अनुसार, उन्होंने यह पुरस्कार अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप को समर्पित किया, जिन्होंने बार-बार इस पर अपना हक़ जताया था.
58 वर्षीय मशादो, जो एक औद्योगिक इंजीनियर हैं और छिपकर रह रही हैं, को 2024 में वेनेज़ुएला की अदालतों ने राष्ट्रपति पद के लिए चुनाव लड़ने से रोक दिया था, जिससे वह राष्ट्रपति निकोलस मादुरो को चुनौती नहीं दे सकीं, जो 2013 से सत्ता में हैं. पुरस्कार संस्था के सचिव क्रिस्टियन बर्ग हार्पविकेन के साथ एक फ़ोन कॉल में मशादो ने कहा, “हे भगवान... मेरे पास शब्द नहीं हैं.” उन्होंने कहा, “मैं आपका बहुत-बहुत धन्यवाद करती हूं, लेकिन मुझे उम्मीद है कि आप समझेंगे कि यह एक आंदोलन है, यह पूरे समाज की उपलब्धि है. मैं सिर्फ़ एक व्यक्ति हूं. मैं निश्चित रूप से इसकी हक़दार नहीं हूं.”
बाद में, उन्होंने एक्स पर एक पोस्ट में अंग्रेज़ी में कहा: “मैं यह पुरस्कार वेनेज़ुएला के पीड़ित लोगों और राष्ट्रपति ट्रंप को हमारे उद्देश्य के निर्णायक समर्थन के लिए समर्पित करती हूं!” ट्रंप, मादुरो के कट्टर आलोचक हैं और अमेरिका उन कई देशों में से एक है जो उनकी सरकार की वैधता को मान्यता नहीं देता है.
नोबेल समिति ने अपने प्रशस्ति पत्र में कहा, “जब सत्तावादी सत्ता पर कब्ज़ा कर लेते हैं, तो स्वतंत्रता के उन साहसी रक्षकों को पहचानना महत्वपूर्ण है जो उठते हैं और विरोध करते हैं.” यह तुरंत स्पष्ट नहीं था कि क्या वह 10 दिसंबर को ओस्लो में पुरस्कार समारोह में शामिल हो पाएंगी. यदि वह शामिल नहीं होती हैं, तो वह उन शांति पुरस्कार विजेताओं की सूची में शामिल हो जाएंगी जिन्हें पुरस्कार के 124 साल के इतिहास में ऐसा करने से रोका गया है, जिसमें 1975 में सोवियत असंतुष्ट आंद्रेई सखारोव, 1983 में पोलैंड के लेक वालेसा और 1991 में म्यांमार की आंग सान सू की शामिल हैं.
पिछले साल दिसंबर में हरकारा में हमने ऐन एपलबाम का लेख प्रकाशित किया था हिंदी. वेनेजुएला की नेता मारिया कोरीना मचाडो की लोकतांत्रिक पहल के बारे में. कि आज उन्हें शांति का नोबेल मिला बजाय किसी ट्रम्प के, राहत की बात है. https://open.substack.com/pub/harkara/p/7d2?r=4n5st3...
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