11/11/2025: एक्जिट पोल की साख़ बिहार में खराब | 'नीतीश का दिमाग काम नहीं करता' | दिल्ली ब्लास्ट में मृतकों की संख्या 13 | कपिल मिश्रा 'गोली मारो' को राहत | इस्लामाबाद में फिदायीन हमला, 12 मौतें
‘हरकारा’ यानी हिंदी भाषियों के लिए क्यूरेटेड न्यूजलेटर. ज़रूरी ख़बरें और विश्लेषण. शोर कम, रोशनी ज़्यादा.
निधीश त्यागी, साथ में राजेश चतुर्वेदी, गौरव नौड़ियाल, फ़लक अफ़शां
एग्ज़िट पोल का एकतरफ़ा इशारा, बिहार में फिर एनडीए का राज.
पोल पर कितना यक़ीन? जब 2015 और 2020 में अनुमान हुए थे धड़ाम.
बिहार में भाजपा का ‘साइलेंट’ हिंदुत्व, ‘बिजली-सड़क’ ही क्यों एजेंडा.
विपक्ष का बिहार भ्रम, तेलतुंबडे का सवाल, क्या चुनाव बस एक दिखावा?
‘नीतीश का दिमाग़ काम नहीं करता’, आर के सिंह का 62,000 करोड़ का ‘अडाणी बम’.
दिल्ली ब्लास्ट के तार कश्मीर तक, 13 की मौत, एनआईए के हाथ में जांच.
‘वंदे मातरम’ पर विवाद, कांग्रेस नहीं, टैगोर-बोस थे ज़िम्मेदार?
‘ख़ून से तिलक, गोलियों से आरती’, जम्मू के स्कूल में प्रार्थना पर जांच.
दिल्ली दंगे, कपिल मिश्रा को राहत, जांच का निचली अदालत का आदेश रद्द.
दाचीगाम पार्क में सीआरपीएफ कैंप, 50 हज़ार पेड़ों की बलि पर एनजीटी में गुहार.
धर्म बदला तो दफ़न से इंकार, छत्तीसगढ़ में ईसाई परिवार से अमानवीयता.
इमारतें जलीं, विचार नहीं, एमपी में ‘हाउल कलेक्टिव’ पर फिर हमला.
वोटर लिस्ट में कन्फ्यूजन, सवाल बहुत, बंगाल में बीएलओ निरुत्तर.
तमिलनाडु-बंगाल में वोटर लिस्ट पर रार, सुप्रीम कोर्ट ने चुनाव आयोग से मांगा जवाब.
इस्लामाबाद में कोर्ट के बाहर धमाका, आत्मघाती हमले में 12 की मौत.
पाकिस्तान में ‘जनरल राज’, आसिम मुनीर बने तीनों सेनाओं के बेताज बादशाह.
बिहार
एनडीए आगे, महागठबंधन बहुत पीछे
बिहार विधानसभा चुनाव 2025 के लिए मंगलवार शाम को मतदान समाप्त होने के साथ ही जारी हुए एग्ज़िट पोल के नतीजों ने राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) के लिए एक बड़ी और स्पष्ट जीत की भविष्यवाणी की है. लगभग सभी प्रमुख सर्वेक्षण एजेंसियों ने जद(यू)-भाजपा के नेतृत्व वाले एनडीए को भारी बहुमत मिलने का अनुमान लगाया है, जबकि राजद के नेतृत्व वाला महागठबंधन काफ़ी पीछे नज़र आ रहा है. वहीं, प्रशांत किशोर की जन सुराज पार्टी के लिए यह पहली चुनावी लड़ाई निराशाजनक साबित होती दिख रही है. टेलीग्राफ़ और इंडियन एक्सप्रेस की रिपोर्टों के अनुसार, 243 सीटों वाली बिहार विधानसभा में बहुमत का आँकड़ा 122 है, और ज़्यादातर एग्ज़िट पोल एनडीए को 140 से 160 सीटों के बीच दिखा रहे हैं. मैत्राइज़ एग्ज़िट पोल ने एनडीए को 147-167 सीटें, महागठबंधन को 70-90 सीटें, और जन सुराज को 0-2 सीटें मिलने का अनुमान लगाया है. इसी तरह, दैनिक भास्कर ने एनडीए को 145-160 और महागठबंधन को 73-91 सीटें दी हैं.
अन्य एजेंसियों के अनुमान भी इसी पैटर्न पर हैं. पीपल्स पल्स ने एनडीए को 133-159 सीटें और महागठबंधन को 75-101 सीटें दी हैं, जबकि पी-मार्क ने एनडीए के लिए 142-162 और महागठबंधन के लिए 80-98 सीटों की भविष्यवाणी की है. चाणक्य स्ट्रैटेजीज़ ने एनडीए को 130-138 और महागठबंधन को 100-108 सीटें दी हैं, जो अन्य पोल की तुलना में थोड़ा क़रीबी मुक़ाबला दिखाता है. प्रशांत किशोर की जन सुराज पार्टी को ज़्यादातर पोल में 0 से 5 सीटों के बीच ही सीमित दिखाया गया है.
एनडीटीवी के ‘पोल ऑफ़ पोल्स’, जो सभी एग्ज़िट पोल का औसत है, ने सुझाव दिया है कि भाजपा-जदयू के नेतृत्व वाले एनडीए को 147 सीटें मिल सकती हैं, जबकि राजद-कांग्रेस के नेतृत्व वाला महागठबंधन सिर्फ़ 90 सीटों पर सिमट सकता है, और जन सुराज पार्टी को सिर्फ़ 1 सीट मिलने का अनुमान है.
बिहार में 6 और 11 नवंबर को दो चरणों में मतदान हुआ. दूसरे और अंतिम चरण में 67.14 प्रतिशत का रिकॉर्ड मतदान दर्ज किया गया. चुनाव के अंतिम नतीजे 14 नवंबर को घोषित किए जाएँगे. एग्ज़िट पोल सिर्फ़ अनुमान होते हैं, जो मतदाताओं से बातचीत पर आधारित होते हैं और अंतिम परिणाम इनसे अलग हो सकते हैं.
2015 और 2020 में कितने सटीक थे सर्वेक्षण?
पिछले दो बिहार विधानसभा चुनावों में, एग्ज़िट पोल के नतीजे काफ़ी हद तक ग़लत साबित हुए हैं. इंडियन एक्सप्रेस की रिपोर्ट के अनुसार, एक बार उन्होंने राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) को कम आंका, तो दूसरी बार उसका कुछ ज़्यादा ही अनुमान लगा लिया. यह विश्लेषण तब सामने आया है जब बिहार में चुनाव समाप्त हो गए हैं और एग्ज़िट पोल के नतीजों पर चर्चा हो रही है.
2020 के चुनाव : साल 2020 के विधानसभा चुनाव में, 11 एग्ज़िट पोल के औसत ने राजद के नेतृत्व वाले महागठबंधन के लिए मामूली जीत की भविष्यवाणी की थी. इन पोल के अनुसार, 243 सीटों वाली विधानसभा में महागठबंधन को 125 सीटें मिलने का अनुमान था, जो 122 के बहुमत के आंकड़े से ठीक ऊपर था. वहीं, जद(यू) के नेतृत्व वाले एनडीए को 108 सीटें दी गई थीं. हालांकि, जब अंतिम नतीजे आए, तो एनडीए ने 125 सीटें जीतकर बहुमत का आंकड़ा पार कर लिया, जबकि महागठबंधन को 110 सीटों से ही संतोष करना पड़ा. उस साल, अविभाजित लोजपा ने अकेले चुनाव लड़ा था, जबकि मुकेश सहनी के नेतृत्व वाली वीआईपी, जो अब विपक्ष के साथ है, एनडीए का हिस्सा थी. औसत के आधार पर, 11 एग्ज़िट पोल ने एनडीए को 17 सीटें कम और महागठबंधन को 15 सीटें ज़्यादा दी थीं.
उस चुनाव में, पेट्रियोटिक वोटर, पी-मार्क और एबीपी न्यूज़-सीवोटर के अनुमान नतीजों के सबसे करीब थे, क्योंकि तीनों ने एनडीए को बहुमत मिलने का अनुमान लगाया था. वहीं, न्यूज़ 18-टुडेज़ चाणक्य का अनुमान सबसे ग़लत साबित हुआ था, जिसने एनडीए को सिर्फ़ 55 और महागठबंधन को 180 सीटें दी थीं. तीन एजेंसियों - रिपब्लिक-जन की बात, इंडिया टुडे/आज तक-एक्सिस माय इंडिया, और न्यूज़ 18-टुडेज़ चाणक्य - ने महागठबंधन के लिए स्पष्ट बहुमत की भविष्यवाणी की थी.
2015 के चुनाव : साल 2015 में, बिहार की राजनीति के दो सबसे बड़े प्रतिद्वंद्वी, राजद और जद(यू), कांग्रेस के साथ मिलकर महागठबंधन के रूप में चुनाव लड़ रहे थे. उस चुनाव में एनडीए का नेतृत्व भाजपा कर रही थी और उसमें अविभाजित लोजपा, राष्ट्रीय लोक समता पार्टी (अब राष्ट्रीय लोक मोर्चा, उपेंद्र कुशवाहा के नेतृत्व में), और जीतन राम मांझी की हिंदुस्तानी अवाम मोर्चा (सेक्युलर) शामिल थीं. उस समय के छह एग्ज़िट पोल के औसत ने महागठबंधन के लिए मामूली जीत की भविष्यवाणी की थी. उनके अनुसार, गठबंधन 122 के बहुमत के आंकड़े को सिर्फ़ 1 सीट से पार करेगा, जबकि एनडीए को 114 सीटें मिलेंगी.
लेकिन नतीजे इसके बिल्कुल विपरीत थे. राजद-जद(यू)-कांग्रेस के गठबंधन ने शानदार प्रदर्शन करते हुए कुल 178 सीटें जीतीं और आराम से पूर्ण बहुमत हासिल किया. वहीं, एनडीए सिर्फ़ 58 सीटों पर सिमट गया. उस समय, तीन पोलिंग एजेंसियों ने महागठबंधन की जीत की सही भविष्यवाणी की थी, दो ने एनडीए की जीत का समर्थन किया था, और एक ने त्रिशंकु विधानसभा का अनुमान लगाया था. औसतन, इन छह पोल ने महागठबंधन के प्रदर्शन को 55 सीटें कम और एनडीए के प्रदर्शन को 56 सीटें ज़्यादा आंका था. सीएनएन आईबीएन-एक्सिस पोल महागठबंधन की भारी जीत की भविष्यवाणी के सबसे करीब था, जिसने गठबंधन को 176 सीटें दी थीं. हालांकि, इस शानदार जीत के बावजूद, यह गठबंधन 2017 में टूट गया, जब नीतीश कुमार भाजपा के साथ सरकार बनाने के लिए एनडीए के पाले में लौट आए.
बिहार में एक ‘अलग’ भाजपा: राज्य में पार्टी का हिंदुत्व पिच धीमा क्यों है?
इंडियन एक्सप्रेस की एक रिपोर्ट के अनुसार, बिहार में भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) का स्वरूप अन्य राज्यों की तुलना में काफ़ी अलग नज़र आता है, जहाँ उसका हिंदुत्व का एजेंडा काफ़ी धीमा या मौन रहता है. पिछले 20 वर्षों से मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के नेतृत्व में, और ज़्यादातर समय भाजपा के एक प्रमुख सहयोगी के रूप में, बिहार ने एनडीए का एक नया प्रयोग देखा है. राज्य में भाजपा की मज़बूत उपस्थिति के बावजूद, यहाँ एनडीए का फ़ोकस “बिजली, सड़क, पानी” पर केंद्रित रहा है, जिसमें हिंदुत्व के लिए बहुत कम गुंजाइश है. यह स्थिति उन अन्य राज्यों से बिल्कुल अलग है जहाँ भाजपा शक्तिशाली है और विकास के नारे के साथ हिंदुत्व की एक सांस्कृतिक परत भी जोड़ती है.
बिहार के पश्चिम में उत्तर प्रदेश है, जहाँ भाजपा और एनडीए के उदय का मतलब हिंदुत्व का उदय भी है. पूर्व में पश्चिम बंगाल है, जहाँ भाजपा के उभार ने हिंदुत्व को मज़बूत किया है, और रामनवमी समारोह लगभग हर साल राजनीतिक विवाद पैदा करते हैं. और भी पूर्व में असम है, जहाँ भाजपा के उदय के साथ हिंदुत्व का पुट भी आया है. इसके विपरीत, बिहार में मज़बूत होने के बावजूद, एनडीए ने सत्ता में रहते हुए अब तक हिंदुत्व से परहेज़ किया है.
रिपोर्ट के अनुसार, बिहार में रोटी-रोजी के मुद्दों के अलावा, जातिगत समीकरण धर्म के मामलों पर भारी पड़ते हैं. लेकिन यहाँ भी, नीतीश कुमार की एक ख़ास छाप दिखाई देती है. यहाँ जाति को सिर्फ़ जातिगत गौरव के रूप में नहीं, बल्कि कल्याणकारी नीतियों को लक्षित समूहों तक पहुँचाने के एक माध्यम के रूप में संगठित किया जाता है. यह संघ परिवार के उस दृष्टिकोण से गुणात्मक रूप से अलग है, जिसमें वंचित जातियों और जनजातियों के नायकों को हिंदू नायकों के रूप में प्रस्तुत किया जाता है.
कई निर्वाचन क्षेत्रों के गांवों में, एनडीए के साथ खड़ी जातियों के लोग - चाहे वे दलित, अति पिछड़ा वर्ग (ईबीसी), अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी), या उच्च जातियों के हों - सड़कों, बिजली आपूर्ति और क़ानून-व्यवस्था में हुए “बदलाव” को सत्तारूढ़ गठबंधन का समर्थन करने का कारण बताते हैं. मुसहर जैसी सबसे वंचित जातियों में से कई लोग मुफ़्त अनाज और मुख्यमंत्री महिला रोज़गार योजना के तहत महिलाओं के खातों में हाल ही में 10,000 रुपये के हस्तांतरण का हवाला देते हैं. चाहे वह ईबीसी हो, जिसे कर्पूरी ठाकुर ने बनाया और नीतीश कुमार ने पोषित किया, या महादलित, इन जातिगत श्रेणियों की पहचान गर्व के बजाय भौतिक उत्थान और कल्याण से परिभाषित होती है.
विपक्ष की आलोचना भी इसी लाइन पर चलती है, जहाँ बदलाव की इच्छा रखने वाले भी इसे सामाजिक कल्याण और विकास के संदर्भ में देखते हैं. बिहार के अविकसित और कम शहरीकरण के इतिहास को देखते हुए (2011 की जनगणना के अनुसार राज्य 89% ग्रामीण था), सभी जातियों, धर्मों और पार्टियों की प्राथमिक चिंता बुनियादी विकास है. रिपोर्ट में कहा गया है कि बिहार का एकमात्र क्षेत्र जहाँ कभी-कभी हिंदुत्व का ज़िक्र सुनाई देता है, वह सीमांचल है, जहाँ बड़ी मुस्लिम आबादी हिंदू बस्तियों के साथ रहती है.
विश्लेषण
आनंद तेलतुंबडे: विपक्ष का बिहार भ्रम और लोकतंत्र का मायाजाल
लेखक और नागरिक अधिकार कार्यकर्ता आनंद तेलतुंबडे ने स्क्रोल के लिए लिखे अपने एक लेख में तर्क दिया है कि बिहार में विपक्ष का उत्साह एक मौलिक ग़लतफ़हमी पर आधारित है. वे जिसे एक वास्तविक लोकतांत्रिक मुक़ाबला मान रहे हैं, वह असल में एक सुनियोजित प्रदर्शन बन गया है, जिसका परिणाम पहले से उन लोगों द्वारा तय किया जाता है जो न सिर्फ़ मंच बल्कि खेल के नियमों को भी नियंत्रित करते हैं. तेलतुंबडे का कहना है कि विपक्ष इस असहज सच का सामना करने से इनकार करता है कि भाजपा ने न सिर्फ़ पारंपरिक राजनीतिक तरीकों से अपनी चुनावी स्थिति को मज़बूत किया है, बल्कि उसने चुनावी परिणामों को निर्धारित करने वाले संस्थागत ढांचे पर भी क़ब्ज़ा कर लिया है.
तेलतुंबडे के अनुसार, इस क़ब्ज़े में सबसे महत्वपूर्ण क़दम भारत के चुनाव आयोग (ईसी) को अधीन करना था, जिसका उस तरह से व्यापक जन प्रतिरोध नहीं हुआ जैसा होना चाहिए था. बिहार में मतदाता सूची के विशेष गहन संशोधन के ख़िलाफ़ विपक्ष की लामबंदी उनकी संगठनात्मक क्षमता तो दिखाती है, लेकिन उनकी रणनीतिक अदूरदर्शिता को भी उजागर करती है. इस प्रक्रिया के दौरान, चुनाव आयोग ने बिहार के मसौदा मतदाता सूची से लगभग 65 लाख मतदाताओं को हटा दिया था, जिससे यह आरोप लगे कि यह उन मतदाताओं को लक्षित करने का प्रयास था जो भाजपा और उसके सहयोगियों का समर्थन नहीं करते. सुप्रीम कोर्ट के हस्तक्षेप के बाद विपक्ष ने इसे अपनी जीत बताया, लेकिन तेलतुंबडे इसे सिर्फ़ एक अस्थायी राहत मानते हैं, क्योंकि मूल समस्या—चुनाव आयोग का एक स्वतंत्र संवैधानिक निकाय से सत्तारूढ़ दल के एक उपकरण में बदलना—अभी भी अनसुलझी है.
लेखक 2020 के बिहार चुनाव का उदाहरण देते हैं, जहाँ महागठबंधन शुरुआत में आगे था, लेकिन मतगणना आगे बढ़ने पर एनडीए ने मज़बूत वापसी की. अंत में, एनडीए ने 125 और महागठबंधन ने 110 सीटें जीतीं. दोनों गठबंधनों के बीच वोट शेयर का अंतर न के बराबर था - सिर्फ़ 0.03%. उस समय तेजस्वी यादव ने “वोट चोरी” और डाक मतपत्रों की गिनती में “अनियमितताओं” का आरोप लगाया था, जिसे चुनाव आयोग ने ख़ारिज कर दिया था. तेलतुंबडे के अनुसार, यह एक पैटर्न बन गया है, जहाँ क़रीबी मुक़ाबलों का फ़ैसला एनडीए के पक्ष में उन प्रक्रियाओं के माध्यम से होता है, जो एक ऐसे चुनाव आयोग द्वारा नियंत्रित होती हैं, जिसने बार-बार सत्तारूढ़ दल के हितों के साथ अपना तालमेल दिखाया है.
तेलतुंबडे के लिए, भारत में चुनावी लोकतंत्र की मृत्यु का क्षण वह था जब नरेंद्र मोदी सरकार ने चुनाव आयोग को अपने नियंत्रण में सफलतापूर्वक ले लिया, और विपक्ष की प्रतिक्रिया एक धीमी आवाज़ से ज़्यादा कुछ नहीं थी. मार्च 2023 में सुप्रीम कोर्ट ने चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति के लिए एक समिति का निर्देश दिया था जिसमें प्रधानमंत्री, विपक्ष के नेता और भारत के मुख्य न्यायाधीश शामिल हों. लेकिन सरकार ने दिसंबर 2023 में एक क़ानून पारित कर मुख्य न्यायाधीश को प्रधानमंत्री द्वारा नामित एक केंद्रीय कैबिनेट मंत्री से बदल दिया, जिससे नियुक्ति समिति में सरकार को 2-1 का बहुमत मिल गया. तेलतुंबडे इसे “एक टीम द्वारा रेफ़री पर क़ब्ज़ा” कहते हैं और विपक्ष की प्रतिक्रिया को बेहद कमज़ोर बताते हैं.
लेखक का तर्क है कि विपक्ष का इस धांधली वाले खेल में भाग लेना उस प्रणाली को लोकतांत्रिक वैधता प्रदान करता है जिसने लोकतंत्र से समझौता कर लिया है. वे चुनाव आयोग के विशिष्ट फ़ैसलों की आलोचना करते हैं, लेकिन उसकी मूल वैधता को स्वीकार करते हैं. वे लड़ाइयाँ लड़ रहे हैं, जबकि युद्ध हार चुके हैं. अंत में, तेलतुंबडे एक निराशाजनक लेकिन यथार्थवादी मूल्यांकन प्रस्तुत करते हैं: बिहार 2025 में, एनडीए यह चुनाव जीतेगा, चाहे लोग कैसे भी वोट दें, जब तक कि भाजपा रणनीतिक कारणों से हार की अनुमति न दे. उनके अनुसार, यह उस संस्थागत व्यवहार के पैटर्न पर आधारित है जो मौजूदा शासन के तहत देखा गया है.
आनंद तेलतुंबडे एक लेखक, नागरिक अधिकार कार्यकर्ता, पेट्रोनेट इंडिया लिमिटेड के पूर्व सीईओ और आईआईटी खड़गपुर तथा गोवा इंस्टीट्यूट ऑफ मैनेजमेंट में प्रोफ़ेसर रहे हैं. उनकी हालिया पुस्तक ‘द सेल एंड द सोल: ए प्रिज़न मेमॉयर’ है.
दिल्ली कार विस्फोट में मृतकों की संख्या 13 हुई, कश्मीर घाटी से 6 को हिरासत में लिया
सोमवार शाम को दिल्ली के लाल किला मेट्रो स्टेशन के पास एक कार में हुए शक्तिशाली विस्फोट के बाद जम्मू-कश्मीर पुलिस ने घाटी के विभिन्न हिस्सों में छापे मारे हैं और पूछताछ के लिए छह लोगों को हिरासत में लिया है.
हिरासत में लिए गए लोगों में डॉ. उमर नबी के दो भाई और मां शामिल हैं, उमर नबी ही वह व्यक्ति था जिसके कार चलाने का संदेह है. फ़ैयाज़ वानी की रिपोर्ट है कि पुलिस ने सोमवार शाम को पुलवामा में संदिग्ध के आवास पर छापा मारकर मोबाइल फोन और लैपटॉप सहित इलेक्ट्रॉनिक उपकरण जब्त किये हैं. उमर की भाभी ने बताया कि पुलिस उसके पति, देवर (भाई) और सास को पूछताछ के लिए हिरासत में ले गई है. भाभी ने कहा, “उसकी सगाई हो चुकी थी. उसे क्रिकेट बहुत पसंद था और जब भी वह घर आता था, तो स्थानीय लड़कों के साथ क्रिकेट खेलता था. हम पुलिस के आरोपों के बारे में जानकर सदमे में हैं. परिवार ने उसकी पढ़ाई के लिए बहुत मेहनत की थी और वह हमारे बेहतर भविष्य की उम्मीद था.”
हरकारा डीपडाइव
श्रवण गर्ग: आडवाणी ने जो सांप्रदायिकता के बीज बोए, उसकी फ़सलें अब मोदी जी काट रहे हैं
कांग्रेस के वरिष्ठ नेता शशि थरूर द्वारा भाजपा के दिग्गज लालकृष्ण आडवाणी को उनके 97वें जन्मदिन पर दी गई एक शुभकामना ने भारतीय राजनीति में एक नया भूचाल ला दिया है. थरूर ने आडवाणी को “अटूट सेवा” और सार्वजनिक जीवन का प्रतीक बताया, लेकिन यह महज़ एक शिष्टाचार भेंट नहीं थी. इसने कांग्रेस और भाजपा के बीच एक तीखी बहस छेड़ने के साथ-साथ आडवाणी की जटिल और विवादास्पद विरासत को एक बार फिर चर्चा के केंद्र में ला दिया है. इस पूरे प्रकरण पर वरिष्ठ पत्रकार श्रवण गर्ग ने हरकारा डीप डाइव में जो विश्लेषण प्रस्तुत किया, वह इस घटना को एक बड़े राजनीतिक परिप्रेक्ष्य में रखता है.
यह विवाद महज़ एक ट्वीट का नहीं है, बल्कि यह भारतीय राजनीति के दो महत्वपूर्ण मोड़ों का प्रतिबिंब है. श्रवण गर्ग के अनुसार, भारत की राजनीति में दो बड़ी घटनाएं हुईं जिन्होंने देश की दिशा बदल दी. पहली, 1977 में जेपी आंदोलन के बाद पहली गैर-कांग्रेसी सरकार का बनना. इस घटना ने यह साबित किया कि नेहरू-गांधी परिवार के बिना भी देश चल सकता है, हालांकि यह प्रयोग असफल रहा और इंदिरा गांधी भारी बहुमत से सत्ता में लौटीं.
दूसरा और शायद सबसे प्रभावशाली मोड़ 1990 में लालकृष्ण आडवाणी की रथ यात्रा थी. गर्ग इसे एक ऐसा प्रयोग मानते हैं जिसने यह स्थापित किया कि केंद्र में एक गैर-कांग्रेसी सरकार न सिर्फ़ बन सकती है, बल्कि वह सांप्रदायिक भी हो सकती है. आडवाणी की रथ यात्रा ने देश में जो ध्रुवीकरण किया, बाबरी मस्जिद विध्वंस तक का जो माहौल बनाया, उसने भारतीय राजनीति का चरित्र हमेशा के लिए बदल दिया. गर्ग कहते हैं, “इस वक्त का जो भारत है, उसके डिज़ाइनर आडवाणी हैं.” थरूर को आडवाणी को इस बात के लिए बधाई देनी चाहिए कि “आपने जो सांप्रदायिकता के बीज बोए, उसकी फ़सलें अब मोदी जी काट रहे हैं.”
थरूर का यह बयान उनके ‘मनमौजी’ राजनीतिक चरित्र को भी दर्शाता है. वे अक्सर पार्टी लाइन से हटकर बयान देते हैं, चाहे वह वंशवाद की आलोचना हो या प्रधानमंत्री मोदी की प्रशंसा. श्रवण गर्ग उन्हें कांग्रेस की “अतृप्त आत्मा” मानते हैं, जो पार्टी के भीतर अपने लिए जगह तलाश रहे हैं. आडवाणी की तारीफ़ करके उन्होंने मोदी समर्थकों को नाराज़ किया, तो वंशवाद की आलोचना कर वे कांग्रेस नेतृत्व के निशाने पर आते हैं.
आडवाणी की विरासत विडंबनाओं से भरी है. वे 2002 में नरेंद्र मोदी के राजनीतिक तारणहार बने, लेकिन बाद में उन्हीं मोदी ने उन्हें राजनीतिक हाशिये पर धकेल दिया. उन्होंने जिन्ना की मज़ार पर जाकर उन्हें “धर्मनिरपेक्ष” बताकर अपने ही समर्थकों को चौंका दिया. उनकी रथ यात्रा ने भाजपा को सत्ता के शिखर तक पहुँचाया, लेकिन इसकी क़ीमत देश ने गहरे सांप्रदायिक विभाजन के रूप में चुकाई. इतिहासकार रामचंद्र गुहा ने उन्हें “स्वतंत्र भारत का सबसे विभाजनकारी राजनेता” कहा है.
अंततः, थरूर के एक ट्वीट ने कई पुराने घावों को फिर से हरा कर दिया है. यह विवाद महज़ एक जन्मदिन की बधाई का नहीं, बल्कि इस बात का है कि हम अपने इतिहास के नायकों और खलनायकों को कैसे याद करते हैं. यह हमें उस सफ़र की याद दिलाता है, जिसके एक छोर पर आडवाणी की रथ यात्रा थी और दूसरे छोर पर आज का भारत खड़ा है, जिसकी फ़सल लहला रही है और पूरा देश उसकी क़ीमत चुका रहा है.
भले ही भाजपा के एजेंडे के लिए फिट हो, पर पेचीदा है ‘वंदे मातरम’ का इतिहास
पिछले सप्ताह, नरेंद्र मोदी ने भारत के राष्ट्रीय गीत ‘वंदे मातरम’ का उपयोग कर राजनीतिक और धार्मिक आधार पर देश का ध्रुवीकरण करने की कोशिश की. “द वायर” में तनिका सरकार लिखती हैं कि ‘वंदे मातरम’ भाजपा को अपने एजेंडे के लिए मुफीद लगता हो, लेकिन इस राष्ट्र गीत का इतिहास काफी जटिल है. सरकार ने प्रधानमंत्री की राजनीति और इस गीत के लेखक बंकिम चंद्र चट्टोपाध्याय के दृष्टिकोण के बीच के संबंधों और अंतरों पर रोशनी डाली है. वह लिखती हैं, “इस गीत का भव्य आयोजनों के साथ जश्न मनाने का भाजपा का फैसला स्वाभाविक ही है. धार्मिक और सांप्रदायिक जुनून को मिलाकर, और इस उत्पाद को प्रामाणिक देशभक्ति के रूप में परिभाषित करते हुए, यह गीत संघ परिवार के एजेंडे को ठीक से दर्शाता है. इसके अलावा, यह गीत और उपन्यास पारंपरिक देवता-भक्त संबंध को उलट देता है, जहां पवित्र सक्रियता पारंपरिक रूप से पहले वाले से दूसरे वाले तक जाती है. दूसरी ओर, देवी के पुत्र उनकी महिमा को बहाल करने के लिए युद्ध में जाते हैं – वे देवत्व के उद्धारकर्ता हैं, न कि इसका उलटा. यह हिंदुत्व की सोच के साथ दृढ़ता से मेल खाता है, जहां राम के भक्तों को उनके जन्मस्थान को उन्हें वापस दिलाना है.”
वंदे मातरम मसला: मोदी-शाह को टैगोर और सुभाष बोस को दोष देना चाहिए, कांग्रेस को नहीं
“द हिंदू” में स्निग्धेंदु भट्टाचार्य लिखते हैं कि मोदी और अमित शाह को ‘वंदे मातरम’ को एक छोटे संस्करण तक सीमित करने के लिए रवींद्रनाथ टैगोर को दोषी ठहराना चाहिए, न कि कांग्रेस को, और सुभाष चंद्र बोस को कटौती का समर्थन करने के लिए दोषी ठहराना चाहिए. भट्टाचार्य के मुताबिक, “कलकत्ता में हाउस अरेस्ट से ‘महान पलायन’ के बाद, बोस अप्रैल 1941 में जर्मनी पहुंचे और आज़ाद हिंद फ़ौज ने उसी साल नवंबर में ‘जन गण मन’ को राष्ट्रगान के रूप में अपनाया. हैम्बर्ग रेडियो सिम्फनी ऑर्केस्ट्रा ने सितंबर 1942 में बोस की उपस्थिति में इस धुन को भारत के राष्ट्रगान के रूप में बजाया. बोस ने वंदे मातरम को उस “अन्याय” से क्यों नहीं बचाया, जिसे प्रधानमंत्री मोदी ने इसके साथ होने का वर्णन किया? तब तक, बोस, जो एक कट्टर सांप्रदायिक विरोधी राष्ट्रवादी थे, निश्चित रूप से राष्ट्र को एकजुट करने में पूरे वंदे मातरम गीत की सीमाओं को समझ चुके थे. और भले ही विभाजन को रोकने के सभी प्रयास विफल हो गए, यह नहीं भुलाया जा सकता कि अविभाजित भारत के एक-तिहाई मुसलमानों ने 1947 में इस्लामी पाकिस्तान के बजाय धर्मनिरपेक्ष भारत को अपना घर चुना.”
जम्मू-कश्मीर के सरकारी स्कूल में ‘खून से तिलक, गोलियों से आरती’ प्रार्थना... जांच शुरू
जम्मू और कश्मीर के शिक्षा विभाग ने राजा शकील नामक एक कार्यकर्ता की शिकायत पर जांच शुरू की है. डोडा के मुख्य शिक्षा अधिकारी के पास दर्ज शिकायत में आरोप लगाया गया था कि छात्रों को “चरमपंथी और हिंसक” शिक्षा दी जा रही है. “द इंडियन एक्सप्रेस” की रिपोर्ट के अनुसार, सोशल मीडिया पर वायरल एक वीडियो में डोडा के एक सरकारी स्कूल के छात्रों को सुबह की प्रार्थना सभा के दौरान एक “अनुचित गीत” गाते हुए दिखाया गया है. वीडियो में सरकारी मिडिल स्कूल सिचल के छात्र यह गाते हुए दिखाई दे रहे हैं: “पुकारती मां भारती, खून से तिलक करो, गोलियों से आरती.” स्कूल के एक शिक्षक को पृष्ठभूमि में प्रार्थना सभा दिखाते हुए और यह कहते हुए देखा गया कि उनके प्रयासों के बाद छात्रों का एक नया वर्गीकरण हुआ है- “आप दृश्य देख सकते हैं, बच्चे स्कूल आ गए हैं, और सुबह की सभा चल रही है… जय हिंद, जय भारत!”
कोर्ट ने दिल्ली दंगों में मंत्री कपिल मिश्रा की भूमिका की जांच के आदेश को रद्द किया
दिल्ली की राउज़ एवेन्यू कोर्ट के एक विशेष न्यायाधीश ने सोमवार को एक निचली अदालत के अप्रैल में दिए उस आदेश को रद्द कर दिया, जिसमें भाजपा नेता और अब दिल्ली सरकार के विधि मंत्री कपिल मिश्रा की 2020 के दिल्ली दंगों में कथित भूमिका की आगे की जांच का आदेश दिया गया था. ‘बार एंड बेंच’ में प्रशांत झा की रिपोर्ट के अनुसार, कोर्ट ने यह फैसला सुनाया कि ट्रायल कोर्ट के न्यायाधीश “इस तरह की आगे की जांच का आदेश नहीं दे सकते थे” क्योंकि दिल्ली पुलिस की एफआईआर 59/2020 के संबंध में अदालत में पहले से ही सुनवाई चल रही है, जिसमें नागरिकता (संशोधन) अधिनियम विरोधी प्रदर्शनकारियों द्वारा दंगों के पीछे एक ‘बड़ी साजिश’ का आरोप लगाया गया है. हालांकि, ‘द वायर’ के मुताबिक, मिश्रा ने घातक दंगों से पहले खुले तौर पर हिंसा का आव्हान किया था और धमकी दी थी. विशेष न्यायाधीश ने कहा कि निचली अदालत मिश्रा के खिलाफ एक अलग एफआईआर दर्ज करने का निर्देश दे सकती थी, लेकिन केवल तभी जब वह पहले यह स्थापित कर देती कि उत्तर-पूर्वी दिल्ली के निवासी एक मुस्लिम द्वारा उसके सामने लाई गई घटना पहले से ही दिल्ली पुलिस की व्यापक एफआईआर में शामिल नहीं थी.
दाचीगाम पार्क में सीआरपीएफ कैंप की योजना से पर्यावरणीय चिंताएं, स्थानीय लोग एनजीटी की शरण में
हाल ही में नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल (एनजीटी) को सूचित किया गया कि श्रीनगर से सटे ज़बरवान पहाड़ियों में केंद्रीय रिजर्व पुलिस बल (सीआरपीएफ) के लिए एक कैंप स्थापित करने हेतु 1,324 कनाल (एक कनाल लगभग एक एकड़ का आठवां हिस्सा होता है) भूमि की पहचान की गई है और इसके लिए 50,000 से अधिक पेड़ गिराए जाने की प्रक्रिया में हैं. लेकिन कुछ लोगों ने एनजीटी में याचिका दायर की है जिसमें कहा गया है कि यह परियोजना दाचीगाम नेशनल पार्क के जलग्रहण क्षेत्र में आ रही है, जहां निर्माण के साथ-साथ अन्य मानवीय गतिविधियां भी निषिद्ध हैं. जहांगीर अली की रिपोर्ट है कि ज़बरवान पहाड़ियां आतंकवादी गतिविधि का एक नया केंद्र बनकर उभरी हैं, लेकिन पर्यावरणविदों का कहना है कि यहां कैंप बनाना “असुरक्षित होगा” क्योंकि यह क्षेत्र “अचानक बाढ़ और भूस्खलन के प्रति संवेदनशील है.” पिछले साल, स्थानीय ग्रामीणों ने भी अपनी ज़मीन और आजीविका खोने के डर से अदालतों का दरवाजा खटखटाया था, जिसमें आरोप लगाया गया था कि परियोजना के लिए कानूनी रूप से आवश्यक प्रभाव आकलन नहीं किए गए थे.
छत्तीसगढ़ : ईसाई धर्म अपना लिया, इसलिए मृतक के गांव में नहीं दफनाया जा सका शव
छत्तीसगढ़ के मूल निवासी रमन साहू के परिवार को गांव के लोगों के विरोध के कारण उनका शव दूसरे गांव में दफनाना पड़ा, क्योंकि उनके अपने गांव वालों ने उनके ईसाई धर्म अपनाने के कारण आपत्ति जताई थी. “द न्यू इंडियन एक्सप्रेस” में एजाज कैसर की रिपोर्ट के अनुसार, कुछ दिन पहले, एक अन्य ईसाई व्यक्ति, मनोज निषाद, के परिवार को भी ग्रामीणों के विरोध के बाद उनकी ज़मीन पर शव दफनाने में कठिनाइयों का सामना करना पड़ा था. उस मामले में, ग्रामीणों ने निषाद के परिवार से कहा था कि वे उन्हें अंतिम संस्कार करने की तभी अनुमति देंगे जब वे अपने नए धर्म को त्याग दें. छत्तीसगढ़ क्रिश्चियन फोरम के एक अधिकारी ने कहा कि “ईसाइयों को उनके मूल स्थानों पर सम्मानजनक अंतिम संस्कार के उनके संवैधानिक अधिकार से खुले तौर पर वंचित किया जा रहा है, जबकि अधिकारी भीड़ के सामने काफी हद तक असहाय दिखाई दे रहे हैं.”
आर के सिंह : नीतीश का तो दिमाग है नहीं... उनका माइंड फेड हो चुका है...
देश के पूर्व गृह सचिव और वरिष्ठ भाजपा नेता आर के सिंह ने बिहार की अपनी ही एनडीए सरकार के ख़िलाफ़ एक ऐसा मोर्चा खोल दिया है जिसने राज्य से लेकर दिल्ली तक की सियासत में भूचाल ला दिया है. न्यूज़ लॉंड्री के अतुल चौरसिया को दिये गये एक विस्फोटक इंटरव्यू में उन्होंने बिहार सरकार और अडाणी समूह के बीच हुए एक बिजली समझौते को 62,000 करोड़ रुपये का महाघोटाला करार दिया है. सिंह के इन आरोपों ने न सिर्फ़ भ्रष्टाचार का एक बड़ा मुद्दा उठाया है, बल्कि मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के स्वास्थ्य और निर्णय लेने की क्षमता पर भी गंभीर सवाल खड़े कर दिए हैं.
क्या है 62,000 करोड़ का पूरा मामला? आर के सिंह ने अपने दावों को तथ्यों के साथ पेश करते हुए बताया कि बिहार सरकार ने पीरपैंती में अडाणी समूह को थर्मल पावर प्लांट लगाने के लिए 1050 एकड़ ज़मीन महज़ 1 रुपये की सांकेतिक क़ीमत पर दे दी. इसके बाद, राज्य सरकार ने उसी समूह से 25 वर्षों तक बिजली ख़रीदने के लिए एक समझौता किया. सिंह, जो ख़ुद केंद्रीय ऊर्जा मंत्री रह चुके हैं, ने इस समझौते की तकनीकी बारीकियों को उजागर करते हुए कहा कि इसमें बिजली की दर प्रति यूनिट 1.41 रुपये ज़्यादा रखी गई थी.
उनके अनुसार, इस बढ़ी हुई दर से बिहार की जनता और सरकारी खज़ाने पर हर साल क़रीब 2500 करोड़ रुपये का अतिरिक्त बोझ पड़ेगा. 25 साल की अवधि में यह रक़म बढ़कर 62,000 करोड़ रुपये से भी ज़्यादा हो जाएगी. उन्होंने इस समझौते को पूरी तरह से फ़र्ज़ी और जनता के पैसे की खुली लूट बताया. उन्होंने यह भी सवाल उठाया कि जब एनटीपीसी जैसी सरकारी कंपनियां यही बिजली बहुत सस्ती दरों पर दे सकती थीं, तो एक निजी कंपनी को इतना बड़ा फ़ायदा क्यों पहुंचाया गया.
नीतीश कुमार और भाजपा नेतृत्व पर सीधा हमला : आर के सिंह सिर्फ़ घोटाले का आरोप लगाकर ही नहीं रुके. उन्होंने मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की मानसिक स्थिति पर भी बेहद तीखी टिप्पणी की. उन्होंने कहा, “नीतीश का तो दिमाग है नहीं... उनका माइंड फेड हो चुका है... मुझे लगता है कि शायद उनको मालूम ही नहीं कि उनसे किस तरह के कागज़ पर दस्तख़त करा लिए गए हैं.” यह बयान बिहार की राजनीति के लिए बेहद गंभीर है, क्योंकि यह सत्तारूढ़ गठबंधन के एक वरिष्ठ नेता द्वारा मुख्यमंत्री की कार्यक्षमता पर सीधा सवाल है.
इसके अलावा, सिंह ने अपनी ही पार्टी के शीर्ष नेतृत्व को भी नहीं बख्शा. उन्होंने बिहार के उप-मुख्यमंत्री सम्राट चौधरी के ख़िलाफ़ लगे आरोपों की जांच की अपनी पुरानी मांग को दोहराया. जब उनसे गृह मंत्री अमित शाह के उस बयान के बारे में पूछा गया, जिसमें उन्होंने सम्राट चौधरी को ‘और बड़ा आदमी’ बनाने का वादा किया था, तो सिंह ने इसे ‘बिल्कुल दुर्भाग्यपूर्ण’ करार दिया. उन्होंने कहा कि पार्टी का नारा ‘ना खाएंगे, ना खाने देंगे’ है, और ऐसे में दागी छवि वाले नेताओं को बढ़ावा देना इस नारे का मज़ाक उड़ाना है.
डरने को तैयार नहीं, कोर्ट जाने की दी चेतावनी : इस इंटरव्यू में आर के सिंह पूरी तरह से निडर और आक्रामक नज़र आए. उन्होंने साफ़ किया कि वे पार्टी की किसी भी अनुशासनात्मक कार्रवाई के लिए तैयार हैं. उन्होंने कहा, “क्या क़ीमत होगी? पार्टी से निकाल देंगे? मैं इसके लिए तैयार हूं.”
उन्होंने चेतावनी भरे लहजे में कहा कि अगर सरकार इस महाघोटाले की जांच नहीं कराती है, तो वे ख़ुद सुप्रीम कोर्ट में एक जनहित याचिका (पीआईएल) दायर करेंगे. अपने पुराने प्रशासनिक अनुभव का हवाला देते हुए उन्होंने कहा, “मैं देश का गृह सचिव रहा हूं... मेरे पास बहुत सारी जानकारी है. अगर कोई मर्यादा लांघेगा, तो मैं भी चुप नहीं बैठूंगा.” यह बयान एक खुली चेतावनी के तौर पर देखा जा रहा है.
आर के सिंह के इन खुलासों ने बिहार चुनाव के बीच एनडीए के लिए एक बड़ी असहज स्थिति पैदा कर दी है. यह मामला सिर्फ़ भ्रष्टाचार का नहीं है, बल्कि यह पार्टी के अंदर चल रही खींचतान, नेतृत्व पर उठते सवाल और एक वरिष्ठ नेता के सिद्धांतों की लड़ाई का भी प्रतीक बन गया है.
वे इमारतें जला सकते हैं, विचार नहीं: एमपी में ‘हाउल कलेक्टिव’ के अवशेषों को भी जलाया
स्थानीय प्रशासन द्वारा ध्वस्त किए जाने के महीनों बाद, मध्यप्रदेश में देवास जिले के शुक्रावासा गांव में ‘हाउल (हाउ ऑट वी लिव) कलेक्टिव’ के परिसर के अवशेषों को 30 अक्टूबर को अज्ञात व्यक्तियों द्वारा आग लगा दी गई. इस आगजनी में किताबें, दो वाहन, मशीनरी और एक आटा चक्की जलकर खाक हो गए, जो लंबे समय से कई आदिवासी परिवारों की आजीविका में सहायक थे.
हाउल समिति के सदस्य देवराज रावत के स्वामित्व वाली ज़मीन पर बना यह परिसर, पर्वतपुरा पंचायत विकास समिति (पीपीडीसी) के तहत रोज़गार, अनौपचारिक शिक्षा और सामुदायिक पहलों का केंद्र था. आदिवासियों के लिए यह आग महज़ भौतिक क्षति नहीं थी; बल्कि यह गरिमा और आत्मनिर्भरता के ‘प्रतीक स्थान’ का विनाश था.
समिति से जुड़ी एक महिला ने सुरक्षा कारणों से नाम न छापने की शर्त पर बताया, “हमने देखा कि आग किसने लगाई, लेकिन कोई बोलने की हिम्मत नहीं करता. हम गरीब और डरे हुए हैं.”
उन्होंने ‘द वायर’ को बताया कि आग लगने से पहले उसी दिन मौखिक धमकी दी गई थी. उन्होंने नीलेश पटेल और ब्रह्मानंद चौधरी पर आरोप लगाते हुए कहा कि वे परिसर की सफाई के दौरान आए और चेतावनी दी: ‘रात को देखना. गांव छोड़ने पर तुम्हें कीमत चुकानी पड़ेगी.’ महिला ने कहा कि धमकी के बाद रात में ही परिसर में आग लग गई, जिसमें वाहन, पुस्तकालय और आटा चक्की जल गए.
उन्होंने यह भी आरोप लगाया कि पुलिस पूछताछ के दौरान डर के मारे किसी गवाह ने बयान नहीं दिया, क्योंकि लोग अपनी जान को लेकर डरे हुए हैं. डबल चौकी पुलिस स्टेशन ने घटना को “छोटी सी आग” कहकर गंभीर मानने से इनकार कर दिया, जबकि पीपीडीसी सदस्य श्वेता रघुवंशी ने बताया कि पुलिस ने समिति के सदस्यों हरि सिंह रावत और देवराज को बुलाकर ‘हाउल’ का समर्थन न करने की चेतावनी दी. पुलिस ने सौरव बनर्जी (हाउल संस्थापक) को पहले से ही खतरा होने की याद दिलाई, जिसका अर्थ था कि उन्हें भी खतरे का सामना करना पड़ सकता है. इन धमकियों के बावजूद, पुलिस ने एफआईआर “अज्ञात व्यक्तियों” के खिलाफ दर्ज की.
एनसीआरबी 2023 की रिपोर्ट के अनुसार, मणिपुर के बाद दूसरे नंबर पर मध्यप्रदेश में अनुसूचित जनजातियों के खिलाफ अपराध के सबसे अधिक मामले दर्ज किए गए (2023 में 2,858 मामले). मणिपुर पहले स्थान पर था, जहां का आंकड़ा 3399 रहा.
मंजिरा टोला में हाउल परिसर आदिवासियों को रोज़गार और शिक्षा के माध्यम से आत्मनिर्भरता सिखा रहा था. यहां आटा-चक्की, मछली और मुर्गी पालन जैसी पहलें शुरू की गई थीं. ग्रामीणों का आरोप है कि आदिवासियों में विकसित हो रहे आत्मविश्वास ने स्थानीय शक्ति संतुलन को बिगाड़ दिया था. श्वेता रघुवंशी ने कहा कि परिसर बदलाव की जगह बन गया था, जहां बच्चे खेलते थे और वयस्क पढ़ना-लिखना सीखते थे.
‘द वायर’ के अनुसार, आदिवासी आजीविका की स्थिति (एसएएल) रिपोर्ट बताती है कि मध्यप्रदेश में 36.1% आदिवासी परिवारों के पास कोई ज़मीन नहीं है, और 50.3% छोटे और सीमांत किसान सीमित भूखंडों पर निर्भर हैं.
एक भील सदस्य (नाम गोपनीय) ने कहा, “उच्च जाति या ओबीसी ने अपना प्रभुत्व खोने का खतरा महसूस किया, और इसलिए उन्होंने धर्म परिवर्तन का यह घोटाला खड़ा किया. कलेक्टिव पर हमला आदिवासियों को कमज़ोर करने की एक सुनियोजित योजना थी. “
उन्होंने आगे कहा, “सच यह है कि उनकी नज़रें हमारी ज़मीन पर हैं.” भील व्यक्ति ने कहा कि उत्पीड़क उन्हें ‘राष्ट्र-विरोधी’ और ‘नक्सली’ बताते हैं, जबकि वे सिर्फ समानता चाहते थे. कलेक्टिव से जुड़े प्रणय त्रिपाठी ने इस कृत्य को “बर्बरता” करार दिया. उन्होंने कहा, “वे एक इमारत को जला सकते हैं, एक विचार को नहीं.”
आग लगने की घटना, ‘हाउल’ के संस्थापक सौरव बनर्जी की जमानत के कुछ हफ़्तों बाद और प्रशासन द्वारा कानूनी प्रक्रिया का पालन किए बिना परिसर को ध्वस्त करने के बाद हुई. समिति के सदस्यों ने राजनीतिक धमकी और प्रशासनिक उपेक्षा का आरोप लगाते हुए आग लगने की घटना की उच्च-स्तरीय जांच की मांग की है.
एसआईआर: मतदाताओं के पास ढेरों सवाल, मगर बीएलओ ‘भ्रमित’ और निरुत्तर
पश्चिम बंगाल में विशेष गहन पुनरीक्षण (एसआईआर) पूरे ज़ोरों पर है, लेकिन नए संदेह लगातार उभर रहे हैं, और लोगों को यह पता नहीं है कि जवाब किसके पास हैं. कई मामलों में, मतदाताओं ने आरोप लगाया कि बूथ-लेवल अधिकारियों (बीएलओ) के पास उनके सवालों के जवाब नहीं होते. इसलिए, उन्हें बूथ-लेवल एजेंटों (बीएलए) पर निर्भर रहना पड़ता है, जो राजनीतिक रूप से नियुक्त किए गए स्थानीय पार्टी कार्यकर्ता होते हैं. मगर, कई लोग मदद के लिए स्थानीय राजनीतिक कार्यकर्ताओं से संपर्क करने में हिचकिचा रहे हैं. “द टेलीग्राफ” में संजय मंडल की रिपोर्ट बीएलओ की अपर्याप्त ट्रेनिंग की तरफ इशारा करती है. यही कारण है कि उनके पास कई बार लोगों के सवालों के संतोषप्रद जवाब नहीं होते.
राज्य सरकार के एक वरिष्ठ अधिकारी के ड्राइवर ने उन्हें बताया कि उसके पिता का नाम 2002 की मतदाता सूची में नहीं था, लेकिन उसके चाचा का था. अधिकारी ने कहा, ‘मेरे ड्राइवर ने मुझसे पूछा कि क्या यह पर्याप्त होगा? मेरे पास इसका जवाब नहीं है.” एसआईआर के बारे में सवालों से व्हाट्सएप ग्रुप्स भरे पड़े हैं. वरिष्ठ नौकरशाहों के एक समूह में एक वृद्ध महिला ने लिखा, “एक बीएलओ एक बार हमारे परिसर में आए और पर्याप्त फॉर्म नहीं होने के कारण बिना फॉर्म दिए ही लौट गए. उन्होंने अपनी सूची में मेरा और मेरे बेटे का नाम पाया था. हमने 2002 में आयरनसाइड (कोलकाता) रोड पर नामांकन कराया था. हम उनका इंतजार कर रहे हैं. अगर हमारे अधिकारी इस मामले को देखेंगे, तो हमें राहत मिलेगी.”
समूह में एक अन्य व्यक्ति ने लिखा, “फॉर्म का हरा अनुभाग उन लोगों के लिए है जिनका नाम 2002 की मतदाता सूची में नहीं है. मैं इस समूह में आता हूं. हालांकि, इस हरे अनुभाग को भरने के निर्देश में कहा गया है कि 2002 से किसी रिश्तेदार का नाम होना चाहिए, लेकिन मेरे पिता का नाम 2002 में सूचीबद्ध नहीं है. क्या मुझे इस फॉर्म को भरने में कोई समस्या आएगी?”
प्रश्नों में यह भी शामिल था: “मेरे वोटर कार्ड पर मेरी तस्वीर अपेक्षाकृत नई है. फिर भी, क्या हालिया तस्वीर (देना) अभी भी ज़रूरी है?”
चुनावी प्रक्रिया में पहले शामिल रहे वरिष्ठ अधिकारियों ने कहा कि निर्वाचन आयोग से पर्याप्त संचार की कमी ही भ्रम और चिंता का मुख्य कारण थी. एक अधिकारी ने कहा, “जनगणना फॉर्म भरने के बारे में जानकारी का प्रसार अपर्याप्त रहा है. निर्वाचन आयोग को जानकारी देने में अधिक तत्परता दिखानी चाहिए थी.” कई लोगों ने कहा है कि बीएलओ सहकारी हैं, लेकिन उनके पास सभी सवालों के जवाब नहीं हैं. दम दम के एक निवासी ने बताया कि उनके पिता को सेरेब्रल स्ट्रोक हुआ था और वे उस बूथ को याद करने में असमर्थ थे, जहां उन्होंने 2002 में वोट डाला था.
उन्होंने कहा, “मेरे चाचा का निधन हो चुका है, और मेरी मां का बूथ अलग था क्योंकि उन्होंने शादी के बाद इसे नहीं बदला था. मुझे यकीन है कि मेरे पिता के मामले में सुनवाई होगी. लेकिन वह लकवे से पीड़ित हैं और हिल नहीं सकते. तो, क्या कोई ऑनलाइन सुनवाई होगी?” उन्होंने कहा कि बीएलओ के पास उनके सवालों का कोई जवाब नहीं था.
राज्य सरकार के एक अधिकारी ने कहा, “ऐसा लगता है कि बीएलओ का प्रशिक्षण अपर्याप्त था. ऐसा इसलिए है, क्योंकि यह पूरी कवायद जल्दबाजी में की जा रही है. ऐसा नहीं होना चाहिए था, क्योंकि इसमें लाखों मतदाताओं के हित शामिल हैं.” एक अन्य अधिकारी ने कहा कि निर्वाचन आयोग को मॉडल प्रश्न और उत्तर तैयार करके अपनी वेबसाइट पर पोस्ट करने चाहिए थे.
तमिलनाडु और बंगाल में ‘एसआईआर’ पर सुप्रीम कोर्ट ने ईसीआई से जवाब मांगा
सुप्रीम कोर्ट ने मंगलवार को तमिलनाडु और पश्चिम बंगाल राज्यों में किए जा रहे मतदाता सूची के विशेष गहन पुनरीक्षण (एसआईआर) को चुनौती देने वाली छह याचिकाओं के एक बैच पर चुनाव आयोग (ईसीआई) से जवाब मांगा है. तमिलनाडु में एसआईआर को सत्तारूढ़ डीएमके, सीपीआई(एम) और कांग्रेस पार्टी ने शीर्ष अदालत में चुनौती दी है, जबकि पश्चिम बंगाल में कांग्रेस की राज्य इकाई ने चुनौती दी है.
“बार एंड बेंच” की रिपोर्ट के अनुसार, न्यायमूर्ति सूर्यकांत और जॉयमाल्या बागची की पीठ ने आज सभी याचिकाओं पर चुनाव को नोटिस जारी किया, लेकिन साथ ही याचिकाकर्ताओं से भी यह पूछा कि वे इस कवायद को लेकर इतने आशंकित क्यों हैं? न्यायालय ने याचिकाकर्ताओं से यह भी कहा कि यदि पीठ संतुष्ट होती है, तो वह इस कवायद को रद्द कर देगी. यह तब हुआ जब डीएमके की ओर से पेश हुए वरिष्ठ अधिवक्ता कपिल सिब्बल ने आरोप लगाया कि ‘एसआईआर’ बहुत जल्दबाजी में किया जा रहा है, जबकि पहले मतदाता सूचियों को संशोधित करने में तीन साल लगते थे. सिब्बल ने कहा, “पहले ऐसा कभी नहीं होता था. पहले इसमें 3 साल लगते थे. अब वे (ईसीआई) कह रहे हैं कि एक महीना लगेगा. जाहिर है, लाखों लोगों को बाहर कर दिया जाएगा.” न्यायालय ने कहा, “आप अपना जवाबी हलफनामा दाखिल करें. हम नोटिस जारी कर रहे हैं. अगर हम संतुष्ट हुए, तो हम इस अभ्यास को रद्द कर देंगे. हम सभी रिट याचिकाओं पर नोटिस जारी कर रहे हैं.” न्यायालय पहले से ही बिहार में एसआईआर को चुनौती देने वाली एक याचिका पर विचार कर रहा है.
डीएमके के संगठनात्मक सचिव और पूर्व राज्यसभा सदस्य आरएस भारती द्वारा दायर याचिका में आयोग के 27 अक्टूबर के आदेशों को रद्द करने की मांग की गई है. याचिका के अनुसार, चुनाव आयोग के आदेश असंवैधानिक हैं, चुनाव आयोग की शक्तियों से परे हैं, और लोक प्रतिनिधित्व अधिनियम, 1950 और मतदाताओं के पंजीकरण नियम, 1960 के प्रतिकूल हैं. याचिका कहती है कि एसआईआर, संविधान के अनुच्छेद 14, 19, 21, 325 और 326 का उल्लंघन करता है और इसके परिणामस्वरूप वास्तविक मतदाताओं को बड़े पैमाने पर मताधिकार से वंचित किया जा सकता है. इसमें बताया गया कि तमिलनाडु ने पहले ही अक्टूबर 2024 और जनवरी 2025 के बीच एक विशेष संक्षिप्त पुनरीक्षण (एसएसआर) पूरा कर लिया था, जिसके दौरान नए मतदाताओं को शामिल करने और अपात्र नामों को हटाने के लिए मतदाता सूची को अपडेट किया गया था. वह सूची तब से लगातार अपडेट की जा रही है और उसे एक और पूर्ण पैमाने पर सत्यापन की आवश्यकता नहीं है.
डीएमके के अनुसार, एसआईआर दिशानिर्देश चुनाव आयोग को व्यक्तियों की नागरिकता स्थिति को सत्यापित करने का अधिकार देते हैं, एक ऐसा कार्य जो नागरिकता अधिनियम, 1955 के तहत विशेष रूप से केंद्र सरकार के पास है. पश्चिम बंगाल की याचिकाओं में भी इसी तरह की चिंताएं व्यक्त की गईं.
यह प्रस्तुत किया गया कि “विभिन्न राज्यों में स्थिति अलग है. तमिलनाडु में इस मानसून के मौसम में बहुत बारिश होगी. अन्य राज्यों में ऐसा नहीं हो सकता है. नवंबर और दिसंबर के दौरान हमेशा भारी बारिश होती है. यह पूरे देश में एक समान नहीं है. बीएलओ समेत अन्य अमले को बाढ़ राहत का भी प्रबंधन करना होगा. दिसंबर-जनवरी तमिलनाडु में फसल कटाई का मौसम भी है. समय अनुकूल नहीं है. क्रिसमस की छुट्टियां भी घोषित की जाएंगी, जिससे जनगणना प्रक्रिया में न्यूनतम भागीदारी हो सकती है. यह अन्य राज्यों में प्रासंगिक नहीं हो सकता है.” उन्होंने समय सीमा और इस एसआईआर से संबंधित विवरणों की कमी के बारे में भी आशंका जताई.
सिब्बल ने कहा, “ऐसे क्षेत्र हैं, जहां बिल्कुल कनेक्टिविटी नहीं है. आप इन सब चीजों को कहां अपलोड करने जा रहे हैं. हमारे पास दस्तावेजों को जमा करने के लिए कोई समय सीमा नहीं है, नोटिस कौन देगा, नोटिस का प्रारूप क्या होगा, आदि कुछ भी निर्दिष्ट नहीं है.”
न्यायमूर्ति कांत ने कहा, “आप लोग इतने आशंकित क्यों हैं? उन्हें जवाब देना होगा. वे इसे करेंगे.” इसके बाद सिब्बल ने एक महीने में प्रक्रिया पूरी करने की अत्यधिक जल्दबाजी पर सवाल उठाया. सिब्बल ने कहा, “प्रक्रिया शुरू हो गई है. पहले, कम से कम अभ्यास के दौरान, नोटिस दिया जाता था. अब उन्होंने वह प्रक्रिया बदल दी है. प्रकाशन से पहले लाखों फॉर्मों को डिजिटाइज़ नहीं किया जा सकता है. यह आखिरकार एक हास्यास्पद कवायद होने जा रही है. हमें यह समझ नहीं आता कि यह इतनी जल्दी क्यों हो रही है.” उन्होंने यह भी कहा कि एसआईआर को एक विरोधात्मक अभ्यास नहीं होना चाहिए. उन्होंने तर्क दिया, “यह एक महीने में नहीं हो सकता है. बंगाल की स्थिति बहुत खराब है. वहां कोई कनेक्टिविटी नहीं है. कोई 5G नहीं, कोई 4G नहीं है.” इस पर न्यायमूर्ति कांत ने कहा, “आप लोग ऐसा दिखाना चाहते हैं, जैसे देश में पहली बार मतदाता सूची तैयार की जा रही है.” सिब्बल ने तब कहा कि मतदाता सूचियों के पुनरीक्षण में पहले तीन साल लगते थे न कि एक महीना. अंततः, न्यायालय ने ईसीआई को तमिलनाडु और पश्चिम बंगाल में एसआईआर को चुनौती देने वाली सभी नई याचिकाओं पर अपना जवाब दाखिल करने के लिए कहा.
इस्लामाबाद में आत्मघाती हमला, 12 की मौत
पाकिस्तान की राजधानी इस्लामाबाद में एक अदालत के बाहर हुए आत्मघाती हमले में कम से कम 12 लोगों की मौत हो गई है और 27 अन्य घायल हो गए हैं. बीबीसी की एक रिपोर्ट के अनुसार, देश के गृह मंत्री मोहसिन नक़वी ने इन आँकड़ों की पुष्टि की है.
मंत्री मोहसिन नक़वी ने बताया कि हमलावर की योजना ज़िला अदालत के अंदर हमला करने की थी, लेकिन वह भीतर घुसने में नाकाम रहा. उन्होंने कहा कि अधिकारियों की पहली प्राथमिकता हमलावर की पहचान करना है और इस घटना में शामिल लोगों को न्याय के कटघरे में लाया जाएगा. अभी तक यह साफ़ नहीं हो पाया है कि इस हमले के पीछे किसका हाथ है.
इस्लामाबाद में हाल के वर्षों में आत्मघाती धमाके दुर्लभ रहे हैं. मंगलवार को घटनास्थल से मिले फुटेज में एक जली हुई कार और पुलिस की घेराबंदी दिखाई दे रही थी. मंत्री नक़वी ने बताया कि घायल 27 लोगों का इलाज चल रहा है. उन्होंने यह भी कहा कि हमलावर ने लगभग 15 मिनट तक इंतज़ार करने के बाद एक पुलिस कार के पास ख़ुद को उड़ा लिया. घटना स्थानीय समय के अनुसार दोपहर 12:39 बजे हुई. पाकिस्तान के राष्ट्रपति आसिफ़ अली ज़रदारी ने इस “आत्मघाती धमाके की कड़ी निंदा” की है.
एक वकील, रुस्तम मलिक, जो उस समय अदालत के बाहर अपनी कार पार्क कर रहे थे, ने एएफ़पी समाचार एजेंसी को बताया कि उन्होंने एक “ज़ोरदार धमाका” सुना. उन्होंने कहा, “पूरी तरह से अफ़रा-तफ़री का माहौल था. वकील और आम लोग परिसर के अंदर भाग रहे थे. मैंने गेट पर दो शव देखे और कई कारें जल रही थीं.”
इस बीच, पाकिस्तान के प्रधानमंत्री शहबाज़ शरीफ़ ने दावा किया है कि इस हमले में “भारत द्वारा सक्रिय रूप से समर्थित” चरमपंथी समूह शामिल थे. एक बयान में उन्होंने कहा कि “भारत के आतंकवादी प्रॉक्सी द्वारा पाकिस्तान के निहत्थे नागरिकों पर आतंकवादी हमले निंदनीय हैं.” दिल्ली ने इन आरोपों पर अभी कोई प्रतिक्रिया नहीं दी है, हालांकि वह पहले भी ऐसे दावों का खंडन कर चुका है.
सत्ता पर कब्जा मुनीर को: पाकिस्तान के 27वें संशोधन से लोकतंत्र और शरीफ़ हाशिये पर
पाकिस्तान में 27वें संवैधानिक संशोधन के साथ, सेना ने देश की सत्ता पर अपनी पकड़ और मज़बूत कर ली है, जिससे नागरिक सरकार और लोकतंत्र दोनों हाशिये पर चले गए हैं. टेलीग्राफ़ में प्रकाशित परन बालाकृष्णन की एक रिपोर्ट के अनुसार, इस संशोधन ने सेना प्रमुख आसिम मुनीर को अभूतपूर्व शक्तियाँ दे दी हैं, जिससे वे नौसेना और वायु सेना के भी समग्र कमांडर बन गए हैं.
इस संशोधन के तहत, सेना प्रमुख को अब ‘चीफ़ ऑफ़ डिफ़ेंस फ़ोर्सेज़’ (सीडीएफ़) के रूप में जाना जाएगा. यह प्रावधान विशेष रूप से वायु सेना के भीतर गहरे असंतोष को जन्म दे रहा है, जिसका मानना है 2019 के भारत-पाकिस्तान संघर्ष और मई में हुए चार-दिवसीय युद्ध में उसने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी. वायु सेना ख़ुद को हमेशा एक पेशेवर और अपेक्षाकृत अराजनीतिक सेवा मानती रही है, जो सेना के बार-बार शासन और राजनीति में हस्तक्षेप करने के विपरीत है.
अख़बार ‘डॉन’ ने टिप्पणी की, “यह योजना संस्थागत संस्कृतियों, लंबे समय से चली आ रही अंतर-सेवा प्रतिद्वंद्विता और नागरिक निगरानी तथा सैन्य स्वायत्तता के बीच के नाज़ुक संतुलन से टकराती है.”
इस संशोधन में एक और असाधारण खंड था, जिसमें सेना प्रमुख और मौजूदा प्रधानमंत्री दोनों को पद छोड़ने के बाद भी मुक़दमे से आजीवन छूट देने का प्रस्ताव था. हालांकि, भारी प्रतिक्रिया के बाद प्रधानमंत्री शहबाज़ शरीफ़ ने ख़ुद को इससे अलग कर लिया और इस प्रावधान को वीटो कर दिया.
यही नहीं, संशोधन के तहत एक नए ‘संघीय संवैधानिक न्यायालय’ (एफ़सीसी) का गठन किया जाएगा, जिसे पाकिस्तान के सुप्रीम कोर्ट की शक्तियों को कम करने के एक तरीक़े के रूप में देखा जा रहा है. इसके अलावा, एक नया ‘न्यायिक आयोग पाकिस्तान’ (जेसीपी) संवैधानिक मामलों की सुनवाई कौन करेगा, यह तय करेगा, जिसमें कार्यपालिका का बहुमत होगा. ‘डॉन’ ने अपने एक संपादकीय में इसे “सुप्रीम कोर्ट और उच्च न्यायालयों का शोक-संदेश” बताया.
रिपोर्ट के अनुसार, विश्लेषकों का मानना है कि मुनीर द्वारा शक्तियों का यह आक्रामक केंद्रीकरण आत्मविश्वास के बजाय असुरक्षा का संकेत हो सकता है—उन्हें सेना के भीतर असंतोष या अन्य सेवाओं से प्रतिरोध का डर हो सकता है. पाकिस्तान के पूर्व ख़ुफ़िया प्रमुख और रक्षा मंत्री जनरल यासीन मलिक ने भी इन बदलावों की तीखी आलोचना करते हुए इसे “संस्थागत असंतुलन और संभावित आपदा” को निमंत्रण देना बताया है. इमरान ख़ान की पार्टी तहरीक-ए-इंसाफ़ ने इस पूरे संशोधन को सेना प्रमुख के हाथों में सारी सत्ता केंद्रित करने का प्रयास बताकर इसकी निंदा की है.
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