12/07/2025: गलती पायलटों की? | क्या वे 75 पर रिटायर होंगे? | 500 के नकली नोटों में 37% बढ़ोतरी | बिहार में खौफ़ | कश्मीर में मीरवाइज नज़रबंद | राधिका का अपराध | प्राचीन स्त्रियां और सेक्स
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निधीश त्यागी, साथ में राजेश चतुर्वेदी, गौरव नौड़ियाल
आज की सुर्खियां :
क्या गलती पायलटों की थी?
75 : मोदी के रिटायरमेंट पर कयास
मान ने मोदी की विदेश यात्राओं का मजाक उड़ाया
मोदी के “परीक्षा पे चर्चा” के लिए खर्च बढ़ा
₹500 के नकली नोटों में 37% की बढ़ोतरी, कुल नकली नोटों में मामूली गिरावट
श्रीनगर में मीरवाइज उमर फारूक नज़रबंद, शहीद दिवस से पहले खुत्बा देने से रोका गया
बिहार में फॉर्म, डर और वोट देने का अधिकार
गिनती में शामिल होने की जद्दोजहद
महाराष्ट्र में उत्तर भारतीयों पर हमले, बिहार चुनाव में मुद्दा बनेगा?
2003 से पहले और बाद के मतदाताओं में भेदभाव अनुचित : लवासा
प्रथम मुख्य चुनाव आयुक्त का वर्तमान को पत्र
बंगाल के परिवार को बांग्लादेश निर्वासित करने पर दिल्ली सरकार से जवाब मांगा
असम में बंगाल मूल के मुसलमानों के लिए अब भाषा का इम्तिहान
कार्टूनिस्ट की याचिका पर सुनवाई करेगा सुप्रीम कोर्ट
“उदयपुर फाइल्स” की रिलीज़ पर रोक
टेनिस खिलाड़ी राधिका यादव की हत्या के आरोप में पिता दीपक यादव को एक दिन की पुलिस रिमांड
राधिका इसलिए अपराधी थी हरियाणा के सामंती समाज और पिता की नज़रों में
इस्लामाबाद में चीन-पाक वायुसेना प्रमुखों की बैठक, रक्षा सहयोग बढ़ाने पर जोर
फिर जारी हो सकते हैं नए बैंकिंग लाइसेंस
भारत-अमेरिका व्यापार वार्ता फिर से शुरू
प्राचीन स्त्रियां सेक्स के बारे में क्या सोचती थीं
जहाज हादसा
क्या गलती पायलटों की थी?
‘वॉल स्ट्रीट जनरल’ ने एक्सक्लूसिव बताते हुए ख़बर की है कि अहमदाबाद से पिछले महीने लंदन के लिए उड़ रहा एयर इंडिया का बोइंग 787 ड्रीमलाइनर इसलिए दुर्घटनाग्रस्त नहीं हुआ था कि उसमें मशीनी गड़बड़ी थी. अखबार के मुताबिक प्रारंभिक निष्कर्षों से संकेत मिलता है कि जेट के दो इंजनों में ईंधन के प्रवाह को नियंत्रित करने वाले स्विच बंद कर दिए गए थे, जिससे टेकऑफ के तुरंत बाद स्पष्ट रूप से थ्रस्ट का नुकसान हुआ, ऐसा उन लोगों ने कहा. पायलट इन स्विच का उपयोग जेट के इंजन को शुरू करने, उन्हें बंद करने, या कुछ आपात स्थितियों में उन्हें रीसेट करने के लिए करते हैं और इसलिए इस खबर के मुताबिक दुर्घटना की वजह इस जहाज के पायलटों के होने पर शक जताया जा रहा है.
एंड्रयू टेंगल, शान ली और कृष्णा पोखारेल की बाइलाइन से छपी खबर में जानकार लोगों के हवाले से कहा गया है कि ये स्विच सामान्य रूप से उड़ान के दौरान चालू रहते हैं और यह स्पष्ट नहीं है कि उन्हें कैसे या क्यों बंद किया गया. इन लोगों ने यह भी कहा कि यह स्पष्ट नहीं था कि यह कदम आकस्मिक था या जानबूझकर, या क्या उन्हें वापस चालू करने का कोई प्रयास किया गया था.
‘वॉल स्ट्रीट जनरल’ के मुताबिक अमेरिकी अधिकारियों के शुरुआती आकलनों से परिचित लोगों के अनुसार, पिछले महीने हुई एयर इंडिया दुर्घटना की जांच जेट के पायलटों की कार्रवाइयों पर केंद्रित है. और अब तक बोइंग 787 ड्रीमलाइनर में किसी समस्या की ओर इशारा नहीं करती है.
अगर स्विच बंद थे, तो यह समझा सकता है कि जेट का आपातकालीन-शक्ति जनरेटर—जिसे रैम एयर टर्बाइन, या आरएटी (RAT) के रूप में जाना जाता है—विमान के पास के मेडिकल छात्रों के छात्रावास में गिरने से कुछ क्षण पहले क्यों सक्रिय हो गया था. कुल मिलाकर, 260 लोगों की मौत हो गई, जिसमें विमान में सवार एक व्यक्ति को छोड़कर सभी शामिल थे. भारत का विमान दुर्घटना जांच ब्यूरो, जो जांच का नेतृत्व कर रहा है, से उम्मीद है कि वह शुक्रवार को स्थानीय समयानुसार एक प्रारंभिक रिपोर्ट जारी करेगा. इसने गुरुवार को टिप्पणी के अनुरोध का जवाब नहीं दिया.
भारतीय नागरिक उड्डयन अधिकारी मुरलीधर मोहोल ने जून के अंत में एनडीटीवी समाचार चैनल को बताया, "दुर्घटना के कारण के बारे में अभी कुछ नहीं कहा जा सकता क्योंकि जांच चल रही है". "यह एक बहुत ही दुर्लभ घटना है—ऐसा कभी नहीं हुआ कि दोनों इंजन एक साथ बंद हो गए हों". एयर इंडिया ने कहा कि उड़ान के कप्तान के रूप में काम करने वाले पायलट सुमीत सभरवाल ने वाइड-बॉडी, या बड़े, विमान उड़ाने में 10,000 घंटे से अधिक का समय दर्ज किया था, और उनके सह-पायलट, क्लाइव कुंदर के पास 3,400 घंटे से अधिक का अनुभव था. दोनों पायलटों के परिवार के सदस्यों ने टिप्पणी करने से इनकार कर दिया.
किसी भी दुर्घटना के कारणों को निर्धारित करने के दाँव बहुत ऊंचे होते हैं और इसमें शामिल सभी पक्षों के लिए इसके परिणाम होते हैं. इस मामले में, एयर इंडिया देश की सबसे पुरानी वाहक है और दशकों तक सरकारी स्वामित्व में रहने के बाद अपने परिचालन को पटरी पर लाने के लिए काम कर रही थी. यह दुर्घटना बोइंग के ड्रीमलाइनर से जुड़ी पहली घातक दुर्घटना थी, और यह ऐसे समय में हुई जब विमान निर्माता सुरक्षा और गुणवत्ता की समस्याओं की एक श्रृंखला से उबरने की कोशिश कर रहा है.
अंतर्राष्ट्रीय दुर्घटना जांच में अक्सर कई देश शामिल होते हैं, जिनमें वे भी शामिल हैं जहां दुर्घटनाएं हुईं और जिनकी सरकारों ने शामिल विमानों के डिजाइन को मंजूरी दी थी. कई बार, सूचना तक पहुंच और सामने आने वाले तथ्यों के विश्लेषण को लेकर असहमति हुई है.
अमेरिकी राष्ट्रीय परिवहन सुरक्षा बोर्ड भारतीय नेतृत्व वाली जांच में सहायता प्रदान कर रहा है. संघीय उड्डयन प्रशासन, जिसने 787 ड्रीमलाइनर को यात्री सेवा के लिए प्रमाणित किया था, और बोइंग और जीई एयरोस्पेस भारतीय अधिकारियों को तकनीकी सहायता प्रदान कर रहे हैं.
ड्रीमलाइनर, जो 2011 में सेवा में आया, दुनिया की एयरलाइनों के बीच लोकप्रिय है और आमतौर पर अंतर्राष्ट्रीय, लंबी दूरी के मार्गों पर उपयोग किया जाता है और इसका एक उत्कृष्ट सुरक्षा रिकॉर्ड रहा है. बोइंग ने दुर्घटना में शामिल जेट को जनवरी 2014 में एयर इंडिया को डिलीवर किया था. मामले से परिचित लोगों ने कहा कि अब तक, अमेरिकी अधिकारियों के दुर्घटना जांच के शुरुआती आकलनों में उस मॉडल के विमान या उसके जीई इंजनों में कोई समस्या का संकेत नहीं मिलता है. न तो एफएए और न ही विमान और इंजन निर्माताओं ने बेड़े में किसी संभावित समस्या को दूर करने के लिए कोई सर्विस बुलेटिन या सुरक्षा निर्देश जारी किए हैं. इस तरह के कदम आमतौर पर जांच के निष्कर्षों की प्रतिक्रिया में उठाए जाते हैं यदि वे डिजाइन, रखरखाव या संचालन प्रक्रियाओं में कमियों की ओर इशारा करते हैं.
एक उद्योग प्रकाशन, ‘द एयर करंट’ ने पहले रिपोर्ट किया था कि जांच ने अपना ध्यान इंजन ईंधन नियंत्रण स्विच की गतिविधि पर केंद्रित कर दिया है. जांच के दौरान पहुंचे शुरुआती आकलन, जिसमें एक साल या उससे अधिक समय लग सकता है, नई जानकारी सामने आने पर खंडित हो सकते हैं. मामले से परिचित कुछ लोगों ने कहा कि भारतीय अधिकारियों ने जांच के बारे में जनता को बहुत कम जानकारी जारी की है, जिससे 12 जून की दुर्घटना के बाद से अमेरिकी सरकार और उद्योग के अधिकारियों में कुछ निराशा बढ़ी है. इन लोगों ने कहा कि अमेरिकी सरकार और उद्योग के अधिकारी विमान के ब्लैक बॉक्स की सामग्री को डाउनलोड करने, विश्लेषण करने और साझा करने की धीमी गति से भी निराश थे. मामले से परिचित कुछ लोगों के अनुसार, भारतीय अधिकारी पहले विमान के ब्लैक बॉक्स—फ़्लाइट-डेटा और कॉकपिट वॉयस रिकॉर्डर—को दिल्ली से दूर ले जाना चाहते थे, जहां देश ने हाल ही में ऐसे दुर्घटना डेटा के विश्लेषण के लिए एक नई प्रयोगशाला खोली है, और उसे किसी अन्य सुरक्षित स्थान पर ले जाना चाहते थे. यह योजना रद्द कर दी गई, और भारतीय जांचकर्ताओं ने दिल्ली में ही बॉक्स को डाउनलोड किया.
एक समय पर, एनटीएसबी ने जांच से अमेरिकी संसाधनों को वापस लेने की धमकी दी थी. अंत में, अमेरिकी जांचकर्ता सहायता के लिए देश में ही रहे. वे अब घर लौट चुके हैं.
75 : मोदी के रिटायरमेंट पर कयास
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक मोहन भागवत ने पता नहीं यह खुद के लिए कहा या प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के लिए, पर उनके 75 वर्ष की आयु में पद छोड़ने के संबंध में दिए गए बयान ने एक बहस को जन्म अवश्य दे दिया है. संयोग से इस सितंबर में दोनों (भागवत और मोदी) ही 75 वर्ष के हो जाएंगे. बुधवार शाम नागपुर में आरएसएस विचारक स्वर्गीय मोरोपंत पिंगले को समर्पित एक पुस्तक के विमोचन के दौरान भागवत ने कहा, “मोरोपंत पिंगले ने एक बार कहा था कि यदि आपको 75 वर्ष की आयु के बाद शॉल से सम्मानित किया जाता है, तो इसका मतलब है कि अब आपको रुक जाना चाहिए, आप बूढ़े हो गए हैं, एक तरफ हटो और दूसरों को आने दो... यह उनकी (पिंगले की) सीख थी. मोरोपंत पिंगले ने आरएसएस को बिना किसी प्रचार के काम करना और 75 वर्ष की आयु के बाद सेवानिवृत्त हो जाना सिखाया,” भागवत ने कहा.
भागवत इस साल 11 सितंबर को 75 वर्ष के होंगे, जो मोदी के 17 सितंबर से छह दिन पहले है. मोदी की सेवानिवृत्ति के बारे में चूंकि विपक्ष द्वारा पहले से अटकलें लगाई जा रही हैं, लिहाजा भागवत की टिप्पणी के बाद, कांग्रेस के संचार प्रमुख जयराम रमेश ने शुक्रवार को कहा कि भागवत ने मोदी को याद दिलाया है कि वे सितंबर में 75 वर्ष के हो जाएंगे. रमेश ने कहा, “लेकिन प्रधानमंत्री भी आरएसएस प्रमुख को बता सकते हैं कि वे भी 11 सितंबर 2025 को 75 वर्ष के होंगे! एक तीर, दो निशाने!” कांग्रेस सांसद अभिषेक मनु सिंघवी ने कहा कि “बिना अभ्यास के उपदेश देना हमेशा खतरनाक होता है.” इस बीच, शिवसेना (यूबीटी) सांसद संजय राउत ने कहा, “पीएम मोदी ने 75 पार के बाद लालकृष्ण आडवाणी, मुरली मनोहर जोशी और जसवंत सिंह जैसे नेताओं को रिटायरमेंट के लिए मजबूर किया. देखते हैं कि यह नियम अब वह खुद पर लागू करते हैं या नहीं.”
मान ने मोदी की विदेश यात्राओं का मजाक उड़ाया
पंजाब के मुख्यमंत्री भगवंत मान ने कल एक प्रेस कॉन्फ्रेंस के दौरान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की पिछले हफ्ते कई देशों की यात्रा का यह सुझाव देते हुए मजाक उड़ाया कि मोदी ने गुमनाम मुल्कों की यात्रा की. इसके बजाय उन्हें भारत में होना चाहिए था, जहां बुलडोजर देखने के लिए उतनी भीड़ जमा हो जाती है, जितनी उन देशों की कुल आबादी है. विदेश मंत्रालय ने, हालांकि मान का नाम लिए बिना कहा कि उनके गैर-जिम्मेदाराना और दुर्भाग्यपूर्ण बयान वैश्विक दक्षिण के मित्र देशों के साथ भारत के संबंधों को कमजोर करते हैं.
मोदी के “परीक्षा पे चर्चा” के लिए खर्च बढ़ा
“द वायर” में अंकित राज ने बताया है कि पिछले सात वर्षों में “परीक्षा पे चर्चा” कार्यक्रम पर खर्च में 522% की बढ़ोतरी हुई है. इस कार्यक्रम में छात्रों, शिक्षकों और अभिभावकों से प्रधानमंत्री संवाद करते हैं. 2018 में इसकी शुरुआत में 3.67 करोड़ रुपये खर्च हुए थे, जो इस वर्ष बढ़कर 18.82 करोड़ रुपये हो गए. इस कार्यक्रम के तहत आवंटन आमतौर पर कार्यक्रमों के आयोजन, प्रसारण सामग्री के निर्माण, डिजिटल प्रचार और प्रधानमंत्री मोदी के कटआउट वाले 'सेल्फी पॉइंट्स' स्थापित करने पर खर्च किया जाता है.
यह आवंटन वृद्धि ऐसे समय में हुई है जब स्कूल शिक्षा और साक्षरता विभाग की अन्य योजनाओं, अल्पसंख्यक छात्रों के लिए छात्रवृत्ति या विदेश में पढ़ाई जैसी योजनाओं के फंड में कटौती देखने को मिली है.
कार्टून | अध्वर्यू
₹500 के नकली नोटों में 37% की बढ़ोतरी, कुल नकली नोटों में मामूली गिरावट
'द ट्रिब्यून' की रिपोर्ट है कि भारतीय रिज़र्व बैंक (RBI) के गवर्नर संजय मल्होत्रा ने गुरुवार को संसद की वित्त संबंधी स्थायी समिति के समक्ष पेश होकर नकली नोटों, ग्रामीण बैंकिंग और केंद्रीय बैंक की भूमिका पर महत्वपूर्ण जानकारी साझा की. रिपोर्ट के अनुसार, आरबीआई ने समिति को बताया कि वित्त वर्ष 2024-25 (FY25) में ₹500 के नकली नोटों की संख्या में साल-दर-साल 37% की बढ़ोतरी दर्ज की गई है. यह आंकड़ा बढ़कर 1,17,722 नोटों तक पहुंच गया है. हालांकि, समग्र रूप से सभी मूल्यवर्गों में पकड़े गए नकली नोटों की संख्या में 2% की मामूली गिरावट आई है. सांसदों ने बैठक में आरबीआई की भूमिका को लेकर भी सवाल उठाए. उन्होंने सुझाव दिया कि केंद्रीय बैंक को अपनी सीमाओं का विस्तार नहीं करना चाहिए और "संभावित टकराव की स्थिति" से बचना चाहिए. इसके अलावा, बैठक में ग्रामीण क्षेत्रों में बैंकिंग मित्रों (बैंकिंग सुविधा प्रदाताओं) की घटती संख्या पर भी चर्चा हुई. सांसदों ने चिंता जताई कि इससे ग्रामीण आबादी को बैंकिंग सेवाओं की उपलब्धता प्रभावित हो सकती है. आरबीआई ने नकली नोटों के बढ़ते मामलों को गंभीरता से लिया है और इसके पीछे के कारणों की जांच के संकेत दिए हैं. समिति के एक सदस्य के अनुसार, यह मामला विशेष रूप से ₹500 के नोटों के साथ अधिक गंभीर हो गया है, जिसे लेकर निगरानी और जांच तेज करने की आवश्यकता है.
नोटबंदी याद है. शायद यह वीडियो भी तब का याद हो. बारहवें मिनट पर सीधे जाएं. और कांफिडेंस देखिये.
श्रीनगर में मीरवाइज उमर फारूक नज़रबंद, शहीद दिवस से पहले खुत्बा देने से रोका गया
जम्मू-कश्मीर में 13 जुलाई को मनाए जाने वाले शहीद दिवस से पहले सियासी और धार्मिक माहौल गरमा गया है. शुक्रवार को प्रशासन ने मध्यमार्गी हुर्रियत कॉन्फ्रेंस के अध्यक्ष और कश्मीर के प्रमुख धार्मिक नेता मीरवाइज उमर फारूक को श्रीनगर स्थित जामा मस्जिद में साप्ताहिक खुत्बा (प्रवचन) देने से रोकते हुए नजरबंद कर दिया. मीरवाइज ने सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म एक्स (X) पर पोस्ट कर बताया कि प्रशासन को आशंका थी कि वह अपने खुत्बे में 13 जुलाई 1931 के शहीदों का जिक्र करेंगे. उन्होंने कहा, “इन शहीदों की कुर्बानी कश्मीरियों की सामूहिक स्मृति में बसी हुई है और कोई भी प्रतिबंध या रोक-टोक इसे मिटा नहीं सकती. कोई भी जिंदा कौम अपने शहीदों को नहीं भूलती.”
उन्होंने प्रशासन से अपील की कि 13 जुलाई को शहीदों की कब्र पर जाकर उन्हें श्रद्धांजलि देने की अनुमति दी जाए. “इंशा'अल्लाह, यदि अनुमति मिली तो हम जुहर की नमाज़ के बाद शहीदों के कब्रिस्तान जाकर श्रद्धांजलि देंगे,” उन्होंने कहा.
इस बीच, नेशनल कॉन्फ्रेंस (NC) और उपराज्यपाल मनोज सिन्हा के नेतृत्व वाले प्रशासन के बीच 13 जुलाई को शहीद दिवस के रूप में मनाने को लेकर टकराव और तेज हो गया है. गौरतलब है कि अगस्त 2019 में अनुच्छेद 370 हटाए जाने के बाद जनवरी 2020 में इस दिन को सार्वजनिक अवकाश की सूची से हटा दिया गया था.
अब, जब नेशनल कॉन्फ्रेंस के नेता उमर अब्दुल्ला अक्टूबर 2024 में फिर से मुख्यमंत्री बने हैं, पार्टी ने पीडीपी, पीपुल्स कॉन्फ्रेंस और अपनी पार्टी के साथ मिलकर इस दिन को दोबारा सार्वजनिक अवकाश घोषित करने की मांग की है. यह दिन 1931 में महाराजा हरि सिंह के शासन के खिलाफ प्रदर्शन कर रहे 22 कश्मीरियों की शहादत की याद में मनाया जाता है, जिन्हें डोगरा सेना ने श्रीनगर में गोली मार दी थी.
हालांकि, 'द वायर' की रिपोर्ट है कि भाजपा ने इस मांग का कड़ा विरोध किया है. पार्टी के वरिष्ठ नेता और जम्मू-कश्मीर विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष सुनील शर्मा ने पिछले वर्ष इन शहीदों को “गद्दार” बताया था, जिससे कश्मीर में भारी आक्रोश फैल गया था.
अब देखना यह होगा कि इस बार प्रशासन 13 जुलाई को शहीद दिवस मनाने की अनुमति देता है या नहीं. फिलहाल मीरवाइज उमर फारूक की नजरबंदी और मस्जिद में खुत्बा रोकने की कार्रवाई को लेकर घाटी में तीखी प्रतिक्रियाएं सामने आ रही हैं.
विशेष सघन पुनरीक्षण (एसआईआर)
बिहार में फॉर्म, डर और वोट देने का अधिकार
बिहार में मतदाता सूची के पुनरीक्षण के दौरान दस्तावेज़ों की जांच और फॉर्म भरने की प्रक्रिया ने लोगों में डर और भ्रम पैदा कर दिया है. चुनाव आयोग इसे सामान्य प्रक्रिया बता रहा है, लेकिन लोगों को डर है कि कहीं उनका नाम सूची से न हट जाए या नागरिकता पर सवाल न उठ जाए. जागरूकता और सही जानकारी से ही इन आशंकाओं को दूर किया जा सकता है. “हिंदुस्तान टाइम्स” में अनिर्बान गुहा रॉय और ध्रुबो ज्योति की यह रिपोर्ट बिहार में मतदाता सूची के पुनरीक्षण, उससे उपजे डर और वोट देने के अधिकार से जुड़ी चुनौतियों को उजागर करती है. इसमें बताया गया है कि चुनाव आयोग का मानना है कि डर की बातें बढ़ा-चढ़ाकर कही जा रही हैं, लेकिन जमीनी हकीकत कुछ और है.
चुनाव आयोग भले ही पुनरीक्षण को मतदाता सूची को अपडेट करने की सामान्य प्रक्रिया बता रहा है, लेकिन लोगों में डर और भ्रम की स्थिति है. कई जगहों पर नागरिकता को लेकर भी सवाल उठ रहे हैं और लोगों को फॉर्म भरने में परेशानी हो रही है. कई प्रवासी मजदूरों को व्हाट्सएप पर फॉर्म की फोटो भेजी जा रही है. कुछ लोग आवेदन रसीद की प्रिंटआउट लगा रहे हैं, तो कुछ पंचायत से निवास प्रमाण पत्र ले रहे हैं. कई लोगों को डर है कि कहीं उनका नाम मतदाता सूची से न हट जाए या नागरिकता पर सवाल न उठ जाए. खासकर सीमावर्ती जिलों और प्रवासी मजदूरों में यह डर ज्यादा है. कुछ लोगों को लगता है कि यह प्रक्रिया एनआरसी या सीएए जैसी किसी बड़ी नागरिकता जांच की शुरुआत हो सकती है. आयोग का कहना है कि 68% से ज्यादा फॉर्म अब तक इकट्ठा हो चुके हैं.
पंचायत स्तर पर कर्मचारियों को फॉर्म इकट्ठा करने में दिक्कतें आ रही हैं. कई जगहों पर लोग फॉर्म भरने से कतरा रहे हैं या जानकारी देने में हिचकिचा रहे हैं. कुछ जगहों पर स्थानीय नेताओं और पंचायत प्रतिनिधियों ने भी भ्रम फैलाया है.
गिनती में शामिल होने की जद्दोजहद
कमोबेश यही बात “द हिंदू” में शोभना के. नायर ने लिखी है. वह कहती हैं, ज़मीनी स्तर पर लोग परेशान, भ्रमित और चिंतित हैं कि अगर उनका नाम सूची में नहीं आया तो क्या होगा? उन्हें गिनती में शामिल होने के लिए जूझना पड़ रहा है. ग्रामीण इलाकों में लोग सुबह से कतार में खड़े रहते हैं. महिलाओं और पुरुषों की अलग-अलग लाइनें होती हैं. बीएलओ के पास फॉर्म जमा करने के लिए भीड़ लगी रहती है. बीएलओ फॉर्म की जांच करते हैं और कई बार दस्तावेज़ों की कमी या ग़लती के कारण फॉर्म वापस कर देते हैं. नाम जोड़ने के लिए जन्म प्रमाण पत्र, माता-पिता के नाम, पता, आधार कार्ड और अन्य दस्तावेज़ मांगे जा रहे हैं. कई लोगों के पास ये दस्तावेज़ नहीं हैं या उनमें ग़लतियां हैं, जिससे उनका नाम सूची में नहीं जुड़ पा रहा है. प्रशासन की तरफ से प्रक्रिया में पारदर्शिता की कमी और समय की कमी के कारण आम लोग परेशान हैं.
आशंकाएं और डर : लोगों को डर है कि अगर उनका नाम मतदाता सूची में नहीं आया तो वे वोट नहीं डाल पाएंगे और सरकारी योजनाओं का लाभ भी नहीं मिलेगा. कुछ लोगों को डर है कि उनका नाम जानबूझकर हटाया जा सकता है. कई लोगों को फॉर्म भरने में दिक्कत हो रही है. पढ़े-लिखे लोग भी दस्तावेज़ों की जटिलता और प्रक्रिया की अस्पष्टता के कारण परेशान हैं.
महाराष्ट्र में उत्तर भारतीयों पर हमले, बिहार चुनाव में मुद्दा बनेगा?
महाराष्ट्र में हिंदी भाषियों पर हमले की ताज़ा घटनाओं का बिहार के विधानसभा चुनावों पर क्या और कितना असर पड़ेगा, इस बारे में “स्क्रॉल” में अनंत गुप्ता की रिपोर्ट कहती है कि उत्तर भारत के हिंदी भाषियों के साथ हिंसा की ज्यादातर घटनाओं में राज ठाकरे के नेतृत्व वाली महाराष्ट्र नव निर्माण सेना के कार्यकर्ताओं की भूमिका रही है. चूंकि राज और उद्धव ठाकरे एक दूसरे के नजदीक आए हैं, लिहाजा बिहार में महागठबंधन पर इसका असर होगा. क्योंकि उद्धव के नेतृत्व वाली शिवसेना विपक्षी गठबंधन इंडिया ब्लॉक का हिस्सा है. गुप्ता से बात करते हुए बिहार के कुछ विपक्षी नेताओं ने इस मुद्दे को हल्के में लिया, लेकिन कांग्रेस के कौकब कादरी ने स्वीकार किया कि उनके राज्य में यह बड़ा मुद्दा है.
2003 से पहले और बाद के मतदाताओं में भेदभाव अनुचित : लवासा
दिलचस्प बात यह है कि नागरिकता का मुद्दा और चुनाव आयोग की इस पर अधिकारिता का सुप्रीम कोर्ट के आदेश में उल्लेख नहीं है, हालांकि 10 जुलाई को सुनवाई के दौरान यह मुद्दा उठाया गया था. यह निर्विवाद है कि केवल भारतीय नागरिकों को ही मतदान का अधिकार है (अनुच्छेद 326 के अनुसार) और विशेष गहन पुनरीक्षण (एसआईआर) से असंतुष्ट किसी ने भी इसका विरोध नहीं किया है. यह भी निर्विवाद है कि चुनाव आयोग ही मतदाता सूची तैयार करने का संवैधानिक अधिकार प्राप्त निकाय है. यह भी तथ्य है कि सरकार द्वारा नागरिकता प्रमाणित करने वाला कोई कानूनी दस्तावेज जारी नहीं किया जाता. ऐसे में नागरिकों से नागरिकता सिद्ध करने के लिए निर्णायक दस्तावेज मांगना कितना उचित है? अगर पुनरीक्षण का उद्देश्य पहचान सत्यापित करना है, तो पहले ही नियमों के अनुसार पंजीकरण अधिकारियों की संतुष्टि के बाद दोबारा यह प्रक्रिया क्यों?
बिहार के मामले में, आयोग ने अपने पिछले दो दशकों के अनुभव को दरकिनार कर दिया और प्रमाण का बोझ मतदाताओं पर डाल दिया. एक अभूतपूर्व कदम में, उसने 2003 तक के पंजीकरण को ‘पात्रता का प्रमाण’ मान लिया, जो पहले कभी नहीं हुआ था. पहले की प्रक्रिया में घर-घर जाकर परिवार के मुखिया से बिना नागरिकता संबंधी दस्तावेज के सभी वयस्क सदस्यों की जानकारी ली जाती थी. इसलिए, 2003 से पहले और बाद के मतदाताओं के बीच भेद करना तर्कहीन है.
एक नौकरशाही दृष्टिकोण और अस्पष्ट उद्देश्य, नागरिकों के लिए परेशानी का कारण बन सकते हैं. अगर आयोग दस्तावेजों की सूची बढ़ा भी देता है, तो भी 2003 से पहले और बाद के मतदाताओं में भेदभाव अनुचित है और इसकी समीक्षा होनी चाहिए. इसी तरह, जन्म तिथि के आधार पर नागरिकों के बीच अंतर करना भी अभूतपूर्व है. “द इंडियन एक्सप्रेस” में प्रकाशित अपने लेख में पूर्व चुनाव आयुक्त अशोक लवासा ने विशेष गहन पुनरीक्षण प्रक्रिया के गुण-दोषों रेखांकित किया है.
प्रथम मुख्य चुनाव आयुक्त का वर्तमान को पत्र
इस बीच आरजेडी सांसद मनोज झा ने प्रथम मुख्य चुनाव आयुक्त सुकुमार सेन की तरफ से मौजूदा मुख्य चुनाव आयुक्त को एक काल्पनिक पत्र लिखा है. “द ट्रिब्यून” में प्रकाशित इस पूरे पत्र को यहां पढ़ा जा सकता है.
प्रिय मुख्य चुनाव आयुक्त,
मैं आपको समय की सीमाओं को पार करते हुए लिख रहा हूं, केवल एक पूर्ववर्ती के रूप में नहीं, बल्कि एक ऐसे व्यक्ति के रूप में जिसे हमारे गणराज्य के सबसे प्रारंभिक वर्षों में इस पवित्र कार्य का दायित्व सौंपा गया था कि हर भारतीय—चाहे उसकी जाति, धर्म, वर्ग या क्षेत्र कुछ भी हो—निर्भय और स्वतंत्र होकर अपना वोट डाल सके. यह एक गहरा संवैधानिक कर्तव्य और ऐतिहासिक आत्मचिंतन है, और मैं आपको बताना चाहता हूं कि हमने लोकतांत्रिक स्व-शासन के इस महान प्रयोग की नींव कैसे रखी : एक गणराज्य जहां हर वयस्क, चाहे उसकी सामाजिक या आर्थिक स्थिति कुछ भी हो, समान रूप से मतदान का अधिकार रखता है.
जब मैंने 1951-52 में पहले आम चुनाव कराए, तब गणराज्य नया था, विभाजन के घावों से जख्मी, अशिक्षा से बोझिल और सार्वभौमिक वयस्क मताधिकार की अवधारणा से अनजान था. फिर भी, भारतीय जनता ने चुनावी प्रक्रिया में अटूट विश्वास जताया क्योंकि उन्हें विश्वास था कि इसे संचालित करने वाला संस्थान निष्पक्षता, दृढ़ता और कार्यपालिका से पूरी स्वतंत्रता के साथ काम करेगा.
आज, उस विश्वास को डगमगाने नहीं देना चाहिए, क्योंकि बिहार से आ रही मतदाता सूची के गहन पुनरीक्षण की हालिया खबरें, बेहद चिंताजनक हैं. आरोप हैं कि यह प्रक्रिया गरीबों, भूमिहीनों और सामाजिक रूप से हाशिए पर पड़े लोगों को असमान रूप से प्रभावित कर रही है—ठीक उन्हीं के लिए जिनके लिए मतदान का अधिकार अक्सर सशक्तिकरण का एकमात्र वास्तविक साधन रहा है.
चल रहा पुनरीक्षण अभ्यास बहिष्करणकारी और सशक्तिकरण-विरोधी प्रतीत होता है. इतनी कम सूचना और समय में इतना बड़ा और दूरगामी कार्य करना विनाश का नुस्खा है. आप यह ऐसे राज्य में कर रहे हैं, जहां पलायन की दर बहुत अधिक है और भौगोलिक स्थिति बाढ़ से प्रभावित रहती है. स्पष्ट रूप से, यहां तार्किक चुनौतियों को ध्यान में नहीं रखा गया है.
कृपया यह याद रखें कि किसी भी भारतीय नागरिक का मताधिकार छीनना, चाहे जानबूझकर हो या लापरवाही से, संविधान पर गंभीर हमला है. यदि मतदाता सूची बहिष्करण का उपकरण बन जाती है, खासकर गरीबों के बहिष्करण का, तो चुनाव आयोग न केवल जनप्रतिनिधित्व अधिनियम का, बल्कि हमारे संविधान के अनुच्छेद 326 की आत्मा का भी उल्लंघन करेगा.
चुनाव आयोग केवल चुनावों का प्रशासक नहीं है. यह लोकतंत्र का प्रहरी है. इसे सभी राजनीतिक दलों से अलग रहना चाहिए. इसकी आवाज़ निर्भीक और निष्पक्ष होनी चाहिए. और, सबसे बढ़कर, इसे इस देश के सबसे दूरस्थ गांव के अंतिम मतदाता का भी विश्वास जीतना चाहिए. पक्षपाती चुनाव आयोग भारत के विचार को आहत करता है. मौन चुनाव आयोग उसे धोखा देता है.
आशा और हमारे गणराज्य की स्थायी भावना में विश्वास के साथ,
भवदीय आपका,
सुकुमार सेन
(भारत के पहले मुख्य चुनाव आयुक्त)
लेखक: मनोज झा, राष्ट्रीय जनता दल सांसद, बिहार
बंगाल के परिवार को बांग्लादेश निर्वासित करने पर दिल्ली सरकार से जवाब मांगा
कलकत्ता हाईकोर्ट ने बंगाल के एक प्रवासी परिवार की कथित हिरासत और उसकी बांग्लादेश में निर्वासन की रिपोर्ट पर दिल्ली सरकार से जवाब मांगा है. “लाइव लॉ” की रिपोर्ट के अनुसार, यह मामला जस्टिस तपब्रत चक्रवर्ती और जस्टिस रीतोब्रोतो कुमार मित्रा की डिवीजन बेंच के समक्ष सुना गया. बेंच ने सुनवाई के दौरान कहा, “कल भी इसी तरह का मामला था, जिसमें हमने कहा था कि किसी आदेश से पहले राज्य से जवाब मांगा जा सकता है, तो हम इस मामले में भी वही करेंगे.” कोर्ट ने केंद्रीय गृह मंत्रालय को भी निर्देश दिया कि दिल्ली पुलिस द्वारा छह लोगों, जिनमें नाबालिग भी शामिल हैं, के कथित निर्वासन पर बुधवार तक रिपोर्ट पेश की जाए. पीड़ित परिवार ने आरोप लगाया कि दिल्ली में बंगाल के प्रवासी मजदूरों को बांग्लादेशी घुसपैठिया बताकर हिरासत में लिया गया और बाद में उन्हें बांग्लादेश भेज दिया गया.
असम में बंगाल मूल के मुसलमानों के लिए अब भाषा का इम्तिहान
“द हिंदू” की रिपोर्ट के अनुसार, असम के मुख्यमंत्री हिमंत बिस्वा सरमा ने गुरुवार को कहा कि अगर लोग जनगणना में अपनी मातृभाषा के रूप में असमिया के बजाय बांग्ला लिखते हैं, तो सरकार राज्य में "विदेशियों" की संख्या का पता लगा सकेगी.
मुख्यमंत्री ने पत्रकारों से कहा, “हर जनगणना से पहले इस या उस भाषा को सूचीबद्ध करने को लेकर जो धमकियां दी जाती हैं, उनसे कोई प्रभावित नहीं होता.” उन्होंने कहा कि लोगों को यह विश्वास दिलाया गया था कि अगर अधिक लोग असमिया नहीं बोलेंगे, तो यह भाषा विलुप्त हो जाएगी. लेकिन असमिया भाषा वहीं रहेगी, जहां है. उन्होंने दावा किया कि जनगणना प्रविष्टियों में बांग्ला लिखने से राज्य में विदेशियों की संख्या का पता चलेगा, न कि असमिया भाषा की स्थिति को कोई खतरा होगा.
उनकी यह टिप्पणी छात्र नेता मैनुद्दीन अली के एक बयान के बाद आई, जिन्होंने राज्य की बेदखली मुहिम के खिलाफ विरोध प्रदर्शन के दौरान बंगाली मूल के मुसलमानों से जनगणना दस्तावेजों में असमिया न लिखने का आग्रह किया था.
कार्टूनिस्ट की याचिका पर सुनवाई करेगा सुप्रीम कोर्ट : सुप्रीम कोर्ट सोमवार को कार्टूनिस्ट हेमंत मालवीय की उस याचिका पर सुनवाई करेगी, जिसमें मध्यप्रदेश हाईकोर्ट द्वारा अग्रिम जमानत से इनकार किए जाने को चुनौती दी गई है. मालवीय पर पिछले महीने भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता की विभिन्न धाराओं और सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम की धारा 67(ए) के तहत मामला दर्ज किया गया था. शिकायत में आरोप लगाया गया था कि उनके कार्टून ने आरएसएस की छवि को नुकसान पहुंचाया, हिंसा भड़काई और हिंदू धार्मिक भावनाओं को आहत किया. शिकायतकर्ता ने खुद को आरएसएस और हिंदू समुदाय का सदस्य बताया था.
पाकिस्तान के समर्थन में बोलना अपराध नहीं : इलाहाबाद हाईकोर्ट का मानना है कि पाकिस्तान के समर्थन में केवल बयान देना, जब तक उसमें किसी विशेष घटना या भारत का नाम न लिया गया हो, भारतीय न्याय संहिता (बीएनएस) की धारा 152 के तहत अपराध नहीं माना जा सकता. “बार एण्ड बेंच” के अनुसार, जस्टिस अरुण कुमार सिंह देशवाल की बेंच ने कहा, “किसी घटना का उल्लेख किये या भारत का नाम लिये बिना केवल पाकिस्तान के समर्थन में बोलना, अपराध नहीं बनता.” कोर्ट ने इस बात पर भी जोर दिया कि बोले गए शब्द या सोशल मीडिया पोस्ट अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार के तहत आते हैं और जब तक वे देश की संप्रभुता या अखंडता को स्पष्ट रूप से खतरे में न डालें या अलगाववाद को बढ़ावा न दें, तब तक उन्हें संकीर्ण दृष्टि से नहीं देखा जाना चाहिए.
कार्टून | कीर्तीश
“उदयपुर फाइल्स” की रिलीज़ पर रोक : दिल्ली हाईकोर्ट ने गुरुवार को “उदयपुर फाइल्स : कन्हैया लाल टेलर मर्डर” फिल्म की रिलीज़ पर रोक लगा दी. यह फिल्म 11 जुलाई को सिनेमाघरों में रिलीज़ होने वाली थी. कोर्ट ने यह रोक तब तक लगाई है जब तक केंद्र सरकार, जमीअत उलेमा-ए-हिंद द्वारा दायर पुनर्विचार आवेदन पर निर्णय नहीं ले लेती. यह आवेदन सेंसर बोर्ड द्वारा फिल्म को प्रमाण पत्र देने को चुनौती देता है, जिसमें आशंका जताई गई है कि फिल्म से सांप्रदायिक तनाव भड़क सकता है. यह फिल्म 2022 में उदयपुर के दर्जी कन्हैया लाल की हत्या पर आधारित है, जिसकी हत्या कथित रूप से भाजपा नेता नूपुर शर्मा के विवादित बयान का समर्थन करने के कारण कर दी गई थी.
टेनिस खिलाड़ी राधिका यादव की हत्या के आरोप में पिता दीपक यादव को एक दिन की पुलिस रिमांड
'लाइव मिंट' की रिपोर्ट है कि गुरुग्राम की एक अदालत ने शुक्रवार को सुशांत लोक इलाके में अपने ही घर में राज्य स्तरीय टेनिस खिलाड़ी और बेटी राधिका यादव की हत्या के आरोपी दीपक यादव को एक दिन की पुलिस रिमांड में भेज दिया है. आरोपी दीपक यादव ने अपराध स्वीकार कर लिया है. शुरुआती जांच में यह सामने आया है कि मृतका अपनी टेनिस अकादमी चला रही थी, जिससे उसका पिता नाराज़ था. उसने कई बार बेटी को अकादमी बंद करने को कहा था, लेकिन जब वह नहीं मानी, तो उसने गोली मार दी. अपराध में इस्तेमाल की गई लाइसेंसी हथियार को जब्त कर लिया गया है.”गुरुवार को हुई गिरफ्तारी के बाद दीपक यादव ने कबूल किया कि वह अपनी बेटी की कमाई पर निर्भर होने के तानों से परेशान था और उसे बार-बार अकादमी बंद करने के लिए कहता था.
विश्लेषण | डॉ. सिद्धार्थ रामू
राधिका इसलिए अपराधी थी हरियाणा के सामंती समाज और पिता की नज़रों में
सामंती मन-मिजाज के पिता ने अपने पास-पड़ोस के सामंती छींटा-कशी के दबाव में आकर अपनी 25 वर्षीय नेशनल टेनिस खिलाड़ी राधिका यादव को गोलियों से भून डाला- भारत आर्थिक तौर पर भले ही पूंजीवादी समाज बन चुका हो, लेकिन लोगों का मन-मिजाज सामंती-ब्राह्मणवादी और पितृसत्तावादी ही बना हुआ है. ‘द हिंदू’ और ‘द इंडियन एक्सप्रेस’ की आज की रिपोर्ट के अनुसार गुरुग्राम हरियाणा के दीपक यादव ( 54 वर्षीय) ने अपनी 25 वर्षीय बेटी राधिका पर अपनी रिवाल्वर से पांच गोलियां बरसायीं.
यह घटना हरियाणा के किसी सुदूर गांव की नहीं है, बल्कि गुरूग्राम की है, जिसे गुड़गांव के रूप में जाना जाता है. परिवार और राधिका एक अच्छी सोसाइटी में रहते थे. पिता परंपरागत पेशे की जगह प्रॉपर्टीज का धंधा करते थे और अन्य मकानों का किराया वसूलते थे.
राधिका हरियाणा के सामंती समाज और पिता की नजर में निम्न अपराध कर रही थी-
राधिका का पहला सबसे बड़ा अपराध यह था कि वह टेनिस की खिलाड़ी होने के साथ कोचिंग भी देती थी. इससे उसकी अच्छी-खासी आय हो रही थी. घर में वह सबसे अधिक पैसा कमाने वाली हो गई थी. राधिका के पिता के कुल-खानदान, जाति-बिरादरी, नाते-रिश्तेदार और पड़ोसी यह ताना मारते थे कि दीपक और उनका परिवार अपनी बेटी की कमाई के आधार पर शानो-शौकत से रहता है. सामंती भाषा में कहें तो बेटी की कमाई पर वह और उसका परिवार जी रहा है. राधिका के पिता उसे कोंचिग करने और पैसा कमाने से रोकने की कोशिश कर रहे थे, वो मानी नहीं. वह कोंचिग देती रही और इसका सोशल मीडिया पर प्रचार भी करती रही.
राधिका का टेनिस के खिलाड़ी के तौर पर अपना स्वतंत्र व्यक्तित्व था. वह राष्ट्रीय स्तर की चैंपियनशिपप जीतने के साथ ही,अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर डबल्स की खिलाड़ी के रूप में अपनी पहचान बना रही थी. उसका यह स्वतंत्र व्यक्तित्व और उसकी सोशल मीडिया पर अभिव्यक्ति दीपक यादव के कुल-खानदान, जाति-बिरादरी और पडोसियों को नागवार गुजर रही थी.
राधिका का अपने पिता से समय-समय पर तर्क-वितर्क भी होता रहता था. गरमा-गरम बहस भी होती थी. वह अपने स्वतंत्र वजूद को छोड़ने को तैयार नहीं थी. फिर पिता दीपक यादव ने किचन में खाना पका रही राधिका पर अपने लाइसेंसी रिवाल्वर से पांच गोलियां बरसा दीं.
निम्न सवाल हैं-
राधिका लड़की की जगह लड़का होती और उसकी कमाई परिवार में सबसे अधिक होती, उसके नाम की चर्चा अन्य लोगों से अधिक होती, तो क्या उसके पिता, परिवार, कुल-खानदान, जाति-बिरादरी,नातेदार-रिश्तेदारों और पड़ोसियों के लिए कोई शर्म-हया की बात होती?
क्या ये लोग यह छींटाकशी करते कि दीपक और उसका परिवार अपनी बेटी की कमाई पर पल रहा है?
सहज-स्वाभाविक उत्तर है कि नहीं. बल्कि इसके उलट नाज़ होता, बेटे पर गर्व होता.
भारत में कितना भी पूंजीवाद विकास क्यों न हो गया हो. बाहर से यह समाज कितना ही आधुनिकृत क्यों न दिखता हो, अपने रहन-सहन, खान-पान और बोली-बानी में कितना ही आधुनिक क्यों न दिखता हो, लेकिन भारतीय आदमी का मन-मिजाज, आदर्श और जीवन-मूल्य मुख्यत: सामंती-ब्राह्मणवादी और पितृसत्तावादी बना हुआ है.
आधुनिक युग में स्वतंत्रता आंदोलन की मुख्य धारा ने सिर्फ और सिर्फ उपनिवेशवाद-साम्राज्यवाद के खिलाफ संघर्ष को मुख्य संघर्ष बनाया. सामंतवाद-ब्राह्मणवाद और पितृसत्ता के खिलाफ संघर्ष इसके निशाने पर नहीं था. बल्कि कांग्रेस के नेतृत्व में चलने वाले स्वतंत्रता आंदोलन ने सामंतवाद-ब्राह्मणवाद और पितृसत्ता को मजबूत बनाने का काम किया. कम से कम सामाजिक और सांस्कृतिक स्तर पर.
बहुजन-दलित आंदोलन ने ब्राह्मणवाद-सामंतवाद और पितृसत्ता को निशाने पर तो लिया, लेकिन वह स्वतंत्रता आंदोलन की मुख्यधारा नहीं बन पाया. आजादी के बाद दलित-बहुजन आंदोलन ने ब्राह्मणवाद को निशाना तो बनाए रखा, लेकिन फुले, पेरियार और आंबेडकर की पितृसत्ता विरोधी संघर्ष की विरासत को करीब-करीब छोड़ दिया. आज की तारीख में यह पूरी तरह छूट चुका है. पितृसत्ता विरोधी संघर्ष के निशाने पर परिवार का ढ़ांचा होता है, उसमें भी मुख्य रूप से महिलाओं को जीवन के हर मामले में बराबरी का सवाल.
वामपंथी आंदोलन की सैद्धांतिकी और एजेंडे पर पितृसत्ता विरोधी और सामंतवाद विरोधी संघर्ष तो था, लेकिन व्यवहारिक स्तर उसने भी मुख्य तौर पर भारत में सामंतवाद की मुख्य अभिव्यक्ति ब्राह्मणवाद और पितृसत्ता को साहित्य, संस्कृति और वैचारिक स्तर पर मजबूत ही किया. एक बड़ा कारण वामपंथ के द्विज-सवर्ण नेतृत्व का ब्राह्मणवादी-सामंती और पितृसत्तावादी मन-मिजाज था.
भारत आर्थिक क्रिया-कलाप में पूंजीवाद और जीवन-मूल्यों-आदर्शों के रूप में सामंतवाद-ब्राह्मणवाद और पितृसत्ता के बीच झूल रहा है. एक और लड़की राधिका यादव इसका शिकार हो गई.
डॉ. रामू की फेसबुक पोस्ट से. लेखक सक्रिय दलित विमर्श के अलावा स्वतंत्र लेखन और पत्रकारिता करते हैं.
इस्लामाबाद में चीन-पाक वायुसेना प्रमुखों की बैठक, रक्षा सहयोग बढ़ाने पर जोर
'साउथ चाइना मॉर्निंग पोस्ट' की रिपोर्ट है कि पाकिस्तान वायुसेना प्रमुख एयर चीफ मार्शल ज़हीर अहमद बाबर सिद्दू से इस सप्ताह एक उच्चस्तरीय चीनी रक्षा प्रतिनिधिमंडल ने इस्लामाबाद स्थित एयर मुख्यालय में मुलाकात की. इस प्रतिनिधिमंडल का नेतृत्व पीपुल्स लिबरेशन आर्मी एयर फोर्स के चीफ ऑफ स्टाफ लेफ्टिनेंट जनरल वांग गांग ने किया. बैठक के दौरान दोनों पक्षों ने आपसी हितों से जुड़े विषयों, क्षेत्रीय सुरक्षा परिदृश्य और विशेष रूप से वायु शक्ति तथा संचालन समन्वय के क्षेत्र में द्विपक्षीय सहयोग को और मजबूत करने पर विस्तृत चर्चा की. लेफ्टिनेंट जनरल वांग गांग को पाकिस्तान वायुसेना की आधुनिक सैन्य संरचना, रणनीतिक पहलों और संचालन सिद्धांतों में आए परिवर्तन की एक व्यापक प्रस्तुति दी गई. एयर चीफ मार्शल ज़हीर सिद्दू ने दोनों देशों की वायु सेनाओं के बीच गहरी मित्रता को दोहराते हुए प्रशिक्षण, तकनीक और संचालन जैसे क्षेत्रों में सहयोग को और बढ़ाने की प्रतिबद्धता जताई. लेफ्टिनेंट जनरल वांग गांग ने पाकिस्तान वायुसेना की उच्च स्तरीय संचालन तत्परता और अत्याधुनिक क्षमताओं की सराहना करते हुए सहयोग बढ़ाने के प्रति रुचि जताई. यह बैठक चीन और पाकिस्तान के बीच गहराते रणनीतिक संबंधों और सैन्य सहयोग को और मजबूत करने की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम मानी जा रही है.
फिर जारी हो सकते हैं नए बैंकिंग लाइसेंस
लगभग एक दशक बाद भारत में एक बार फिर से नए बैंकिंग लाइसेंस जारी होने की संभावना जताई जा रही है. 'ब्लूमबर्ग' की एक रिपोर्ट कहती है कि वित्त मंत्रालय और भारतीय रिजर्व बैंक (RBI) के अधिकारी बैंकिंग क्षेत्र का विस्तार कर दीर्घकालिक आर्थिक वृद्धि को समर्थन देने के विकल्पों पर चर्चा कर रहे हैं. हालांकि यह बातचीत अभी प्रारंभिक चरण में है और इस पर कोई अंतिम निर्णय नहीं लिया गया है. रिपोर्ट के मुताबिक, जिन विकल्पों पर विचार किया जा रहा है उनमें बड़े कॉर्पोरेट घरानों को कुछ हिस्सेदारी प्रतिबंधों के साथ बैंकिंग लाइसेंस देने की अनुमति देना, नॉन-बैंकिंग फाइनेंस कंपनियों (NBFCs) को पूर्ण बैंक में तब्दील होने के लिए प्रोत्साहित करना और सरकारी बैंकों में विदेशी निवेशकों के लिए हिस्सेदारी बढ़ाने की प्रक्रिया को आसान बनाना शामिल है. हालांकि, अभी तक वित्त मंत्रालय या आरबीआई की ओर से इस मुद्दे पर कोई आधिकारिक बयान नहीं आया है. इस बीच, बाजार में इन संभावित बदलावों की प्रतिक्रिया देखने को मिली. शुक्रवार को सेंसेक्स और निफ्टी लगातार तीसरे दिन गिरावट के साथ बंद हुए. दोनों सूचकांक लगभग 1% गिर गए, जिसमें आईटी, ऑटो और ऊर्जा शेयरों में भारी बिकवाली प्रमुख कारण रही. वहीं विदेशी मुद्रा बाजार में भी असर दिखा. शुक्रवार को शुरुआती कारोबार में रुपया अमेरिकी डॉलर के मुकाबले 19 पैसे कमजोर होकर 85.89 पर पहुंच गया. विश्लेषकों का मानना है कि यदि यह पहल आगे बढ़ती है, तो यह भारत के बैंकिंग परिदृश्य में बड़ा बदलाव ला सकती है, विशेष रूप से कॉर्पोरेट घरानों और विदेशी निवेशकों की भागीदारी के संदर्भ में.
भारत-अमेरिका व्यापार वार्ता फिर से शुरू
भारत और अमेरिका के बीच व्यापार समझौते की गाथा एक बार फिर आगे बढ़ने जा रही है. 'द वायर' की रिपोर्ट है कि एक और भारतीय प्रतिनिधिमंडल जल्द ही अमेरिका रवाना होगा ताकि राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प की हालिया घोषणा- BRICS देशों से आयात पर 10% प्रस्तावित टैरिफ पर स्पष्टता मांगी जा सके और लंबित मुद्दों पर बातचीत जारी रखी जा सके. हाल ही में 26 जून से 2 जुलाई के बीच वाणिज्य सचिव राजेश अग्रवाल के नेतृत्व में हुई बातचीत में कुछ "प्रगति" की बात जरूर सामने आई, लेकिन कृषि और ऑटोमोबाइल क्षेत्र से जुड़े अहम मुद्दे अब भी अनसुलझे हैं. कई दौर की बैठकें हो चुकी हैं, फिर भी अभी तक कोई अंतरिम समझौता भी नहीं हो सका है.
इस बीच ‘द इकोनोमिस्ट’ में एमा होगन ने भारत के सामने खड़े एक बड़े सवाल को उठाया है - “अब जब अमेरिका का राष्ट्रपति कोई ऐसा है जो किसी से भी डील करने को तैयार दिखता है, यहां तक कि चीन से भी, तो भारत का भविष्य कैसा होगा? ट्रम्प के पहले कार्यकाल और फिर जो बाइडन के नेतृत्व में अमेरिका-चीन संबंधों में आई ठंडक से भारत को लाभ मिल रहा था, लेकिन एक अधिक जटिल, बहुध्रुवीय दुनिया में जहां अमेरिकी राष्ट्रपति खुद को ‘महान सौदागर’ और ‘महान शांति निर्माता’ दोनों के रूप में देखना चाहते हैं, भारत को वह रणनीतिक बढ़त शायद अब नहीं मिलेगी. लेकिन जैसा कि पिछले साल में हमने देखा है, 12 महीनों में बहुत कुछ बदल सकता है.” विश्लेषकों का मानना है कि ट्रम्प के इस नए टैरिफ प्रस्ताव से भारत के लिए अमेरिका के साथ व्यापार करना और कठिन हो सकता है. आने वाले हफ्तों में भारत के राजनयिकों और व्यापार विशेषज्ञों के लिए यह बेहद चुनौतीपूर्ण समय होगा.
चलते-चलते
प्राचीन स्त्रियां सेक्स के बारे में क्या सोचती थीं

"एक स्त्री को चाहिए कि वह अपनी लज्जा को अपने वस्त्रों के साथ उतार फेंके" यह पंक्ति प्राचीन यूनानी विचारक थिआनो से जुड़ी एक चिट्ठी से ली गई है, जिसमें वह एक अन्य महिला को विवाह और शारीरिक संबंधों को लेकर सलाह देती हैं. यह सिर्फ एक व्यक्तिगत राय नहीं, बल्कि उस समय की कुछ स्त्रियों के अनुभवों और दृष्टिकोण का प्रतीक है, जो आज की आम धारणा से अलग है कि प्राचीन काल की महिलाएं यौनिकता को लेकर सिर्फ संकोची या मौन थीं.
डेज़ी डन की किताब ‘द मिसिंग थ्रेड’ प्राचीन दुनिया के इतिहास को महिलाओं की दृष्टि से प्रस्तुत करती है. इस पुस्तक में लेखिका डेज़ी डन यह खोजने का प्रयास करती हैं कि प्राचीन महिलाएं अपनी यौनिकता के बारे में स्वयं क्या सोचती थीं और यह पुरुष-प्रधान, स्त्री-विरोधी धारणाओं के बिल्कुल विपरीत है.
ईसा पूर्व 7वीं सदी में यूनान में सक्रिय कवि सेमोनीड्स ऑफ अमोर्गोस के अनुसार, महिलाएं कुल दस प्रकार की होती हैं. उनके अनुसार कुछ महिलाएं सुअर जैसी होती हैं, क्योंकि वे सफाई से ज्यादा खाने में रुचि रखती हैं. कुछ लोमड़ी जैसी, क्योंकि वे असामान्य रूप से चौकस होती हैं. कुछ को उन्होंने गधी जैसी कहा, जो यौन रूप से उन्मुक्त होती हैं. कुछ कुतिया जैसी, जो अवज्ञाकारी होती हैं. इसके अलावा उन्होंने और भी प्रकार बताए — उग्र समुद्र-सी महिलाएं, लालची धरती जैसी, चोरी-छिपे काम करने वाली नेवले जैसी, आलसी घोड़ी जैसी, बंदर जैसी भद्दी और अंत में केवल एक ही अच्छी स्त्री — मधुमक्खी जैसी परिश्रमी महिला.
इस सूची में महिलाओं का जो वर्गीकरण किया गया है, वह उस समय की स्त्री-विरोधी मानसिकता को उजागर करता है. इनमें से सबसे रहस्यमयी मानी जाती हैं वे महिलाएं जिन्हें उन्होंने "गधी जैसी" कहकर यौन रूप से उच्छृंखल बताया — जो पुरुष लेखन में स्त्री यौनिकता को समझने की एक एकतरफा, काल्पनिक और कई बार भयभीत करने वाली कोशिश का प्रतीक है.
डेज़ी डन की किताब ‘द मिसिंग थ्रेड’ (अनुपस्थित धागा) में बीबीसी के लिए लिखे गए उनके लेख के आधार पर यह साफ हो जाता है कि प्राचीन विश्व की स्त्रियां केवल ‘संकोचशील गृहिणी’ नहीं थीं, बल्कि वे अपनी देह, इच्छा और स्वतंत्रता को समझती थीं, अनुभव करती थीं और कभी-कभी व्यक्त भी करती थीं.
7वीं सदी ईसा पूर्व की यूनानी कवयित्री सैफो, जो लेस्बोस द्वीप की थीं, अपने गीतों में स्त्री के भीतर की तीव्र यौन अनुभूतियों को बेहद संवेदी रूप में दर्ज करती हैं — “दिल की धड़कनें तेज़, जुबान लड़खड़ाती है, नसों में आग, आंखों में अंधेरा, और शरीर में कंपन…” इन पंक्तियों में सैफो स्त्री की ‘वासना’ को कमजोरी या पाप की तरह नहीं, बल्कि एक स्वाभाविक और सुंदर अनुभव के रूप में चित्रित करती हैं.
रोम के उदय से पहले के एत्रुस्कन समाज में, महिलाओं के कब्रों में कामोत्तेजक कला, सेक्स टॉयज़ (जैसे 'ऑलिसबोई') और पुरुषों के साथ प्रेमालाप करते चित्र मिले हैं. यह दिखाता है कि उस समय की महिलाएं सेक्स से संकोच नहीं करती थीं, बल्कि उसे सौंदर्य और सामाजिक स्मृति का हिस्सा मानती थीं.
पोम्पेई के वेश्यालयों की दीवारों पर दर्ज भित्तिचित्रों और ग्राहकों की टिप्पणियों से ज़ाहिर होता है कि सेक्स सार्वजनिक था और स्त्रियां इसका हिस्सा थीं, हालांकि शोषण और असमानता के बीच. लेकिन कुछ वेश्याएं, जैसे कि पोलिआर्किस, अपने कमाए पैसे से मंदिर में कामदेवी एफ्रोडाइट की मूर्ति बनवाने में योगदान देती थीं. उनके लिए सेक्स यादगार बनने का एक दुर्लभ मौका था — एक ऐसा मौका जो बाकी स्त्रियों को कभी नहीं मिलता.
अरिस्टोफनीज़ का नाटक लिसिस्ट्राटा (411 ई.पू.) मजाकिया है, लेकिन उसमें युद्ध की पीड़ा झेलती स्त्रियों की स्थिति को गंभीरता से रखा गया है. प्रोक्ने नामक पात्र अपने पहले यौन अनुभव को ‘घबराहट और भ्रम’ भरा कहती है — जो उस समय की युवतियों की सच्चाई हो सकती है.
सुल्पीसिया, एक रोमन कवयित्री, अपने प्रेमी से दूर होने के दर्द को अपने जन्मदिन पर लिखती हैं. लेस्बिया, एक अन्य कवयित्री, कहती हैं — “प्रेमी से जो बातें कही जाती हैं, उन्हें हवा और बहते पानी पर लिख देना चाहिए.” यहां सेक्स नहीं, भावनात्मक अंतरंगता और आत्मीयता को केंद्र में रखा गया है.
डेज़ी डन का यह लेख और उनकी किताब इस ओर इशारा करती है कि प्राचीन स्त्रियां न केवल यौनिकता की वाहक थीं, बल्कि वे उसमें अपना आनंद भी खोजती थीं. उन्हें जब मौका मिला, उन्होंने खुद को लिखा — कभी फूलों की माला से, कभी कविता की पंक्तियों में, और कभी पत्थर पर उकेरे गए प्रेमालाप में. आज जब हम स्त्री यौनिकता पर बात करने से कतराते हैं, यह याद रखना ज़रूरी है कि हमारी सभ्यताएं स्त्रियों की इच्छा और कल्पना से ही बनी हैं. वे सदियों से न केवल पुरुषों के लिए बल्कि खुद के लिए भी जीती रही हैं — अपनी देह और आत्मा के संपूर्ण अधिकार के साथ.
पाठकों से अपील :
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