12/09/2025: मोदी के स्वागत के लिए मणिपुर तैयार नहीं | नेपाल में शांति की बहाली, सवाल बरकरार | उमर खालिद की जमानत पर आज सुनवाई | भारतीय युवकों से रूस में धोख़ा | रेखा को मोदी का फ़ोटो चाहिए
‘हरकारा’ यानी हिंदी भाषियों के लिए क्यूरेटेड न्यूजलेटर. ज़रूरी ख़बरें और विश्लेषण. शोर कम, रोशनी ज़्यादा.
निधीश त्यागी, साथ में राजेश चतुर्वेदी, गौरव नौड़ियाल, फ़लक अफ़शां
आज की सुर्खियां
पीएम मोदी की मणिपुर यात्रा को नगा व्यापार प्रतिबंध और मैतेई विद्रोही बहिष्कार का सामना
मणिपुर में दो साल से जारी जातीय हिंसा में 250 से ज्यादा मौतें, 60,000 लोग विस्थापित
विशेषज्ञों का आरोप, केंद्र और राज्य सरकारें मणिपुर हिंसा रोकने में नाकाम रहीं
पत्रकार पेट्रीशिया मुक़ीम बोलीं, मणिपुर में न्याय के बिना शांति संभव नहीं
नेपाल में 'जेन-ज़ी' विरोध प्रदर्शनों के बाद प्रधानमंत्री ओली का इस्तीफ़ा, अंतरिम नेतृत्व पर बहस
नेपाल के पूर्व पीएम की पत्नी को मीडिया ने मृत घोषित किया, वह जीवित निकलीं
नेपाल में राजनीतिक उथल-पुथल के बीच भारत को कूटनीतिक रस्सी पर चलना होगा
कनकमणि दीक्षित को नहीं लगता कि नेपाल में सेना का राज होगा
नेपाल में अंतरिम सरकार के प्रमुख के नाम पर 'जेन-जी' गुटों में सहमति नहीं
नेपाल की जेलों से भागे 22 कैदियों को भारत-यूपी सीमा पर पकड़ा गया
नेपाल में बेरोजगारी और भ्रष्टाचार से तंग 43% युवा विदेश जाने को मजबूर
सात भारतीय युवक धोखे से रूसी सेना में भर्ती, यूक्रेन मोर्चे पर भेजे गए
दिल्ली की मंत्री ने दुर्गा पूजा में पीएम मोदी की तस्वीर लगाने का आग्रह कर विवाद खड़ा किया
सीआरपीएफ़ ने राहुल गांधी द्वारा सुरक्षा प्रोटोकॉल के उल्लंघन का मुद्दा उठाया
ट्रम्प ने रूस पर दबाव बनाने के लिए यूरोपीय संघ से भारत और चीन पर 100% टैरिफ लगाने को कहा
लद्दाख के लिए राज्य के दर्जे की मांग को लेकर सोनम वांगचुक की भूख हड़ताल फिर शुरू
राष्ट्रमंडल देशों में प्रेस की स्वतंत्रता पर बड़ा ख़तरा, 2006 से 213 पत्रकार मारे गए
अनंत अंबानी के 'वनतारा' में कथित अनियमितताओं की जांच के लिए एसआईटी का दौरा पूरा
भारतीय आईटी सेक्टर पर खतरा, अमेरिका में नौकरियों की आउटसोर्सिंग पर 25% टैक्स का बिल पेश
40 क्षेत्रीय दलों की आय 2,532 करोड़ रुपये, 70% हिस्सा चुनावी बॉन्ड से आया
त्रिपुरा में धार्मिक अल्पसंख्यकों को नागरिकता देने का फैसला उल्टा पड़ा, सहयोगी दल ने किया विरोध
सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी, अगर लोकतंत्र का कोई अंग विफल रहा तो अदालत चुप नहीं बैठेगी
चुनाव आयोग ने देश भर में मतदाता सूची के विशेष पुनरीक्षण पर अंतिम निर्णय नहीं लिया
वे खुश क्यों नहीं हैं मोदी जी के मणिपुर जाने से?
पीएम मोदी की मणिपुर यात्रा को नगा व्यापार प्रतिबंध और मैतेई विद्रोही बहिष्कार का सामना
2023 में जातीय हिंसा भड़कने के बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की पहली मणिपुर यात्रा को महत्वपूर्ण चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है. यूनाइटेड नगा काउंसिल (यूएनसी) ने प्रमुख राजमार्गों पर अनिश्चितकालीन "व्यापार प्रतिबंध" लगा दिया है, और मैतेई विद्रोही समूहों के एक संगठन ने 13 सितंबर को उनकी यात्रा के दिन "पूर्ण बंद" का आह्वान किया है. यह यात्रा लंबे समय से चल रहे जातीय संघर्ष को संबोधित करने का एक उच्च-स्तरीय प्रयास है. हालांकि, विभिन्न समुदायों से मिल रहा कड़ा विरोध और भाजपा के भीतर असंतोष इस क्षेत्र की जटिल और विभाजित स्थिति को उजागर करता है. यूएनसी का प्रतिबंध, म्यांमार के साथ मुक्त आवाजाही व्यवस्था (एफएमआर) को खत्म करने और सीमा पर बाड़ लगाने के केंद्र सरकार के फैसले के सीधे विरोध में है. वहीं, छह घाटी-आधारित मैतेई विद्रोही समूहों के एक संगठन, कोऑर्डिनेशन कमेटी (कोरकॉम) ने केंद्र सरकार पर संघर्ष को ठीक से न संभालने का आरोप लगाते हुए यात्रा का बहिष्कार करने के लिए "पूर्ण बंद" का आह्वान किया है. इसके विपरीत, कुकी संगठनों के एक प्रभावशाली मंच, कुकी-ज़ो काउंसिल (केजेडसी) ने यात्रा का "दुर्लभ और ऐतिहासिक" बताकर स्वागत किया है. इसके अलावा, यात्रा से कुछ दिन पहले, उखरुल ज़िले के फुंग्यार निर्वाचन क्षेत्र में कम से कम 43 भाजपा सदस्यों ने सामूहिक रूप से इस्तीफ़ा दे दिया.
विभिन्न समुदायों की अलग-अलग प्रतिक्रियाएं मणिपुर के खंडित राजनीतिक और सामाजिक परिदृश्य को दर्शाती हैं. प्रधानमंत्री की यात्रा परस्पर विरोधी मांगों को शांत करने का एक मुश्किल प्रयास है. कुकी-ज़ो समुदाय को उम्मीद है कि पीएम मोदी भारतीय संविधान के तहत एक अलग प्रशासन की उनकी लंबे समय से चली आ रही मांग को संबोधित करेंगे. वहीं, भाजपा सदस्यों के इस्तीफे "पार्टी के भीतर परामर्श, समावेशिता और ज़मीनी नेतृत्व के सम्मान की कमी" को उजागर करते हैं, जो पार्टी के भीतर आंतरिक मुद्दों का संकेत देता है.
सरकार की पहली प्राथमिकता सुरक्षा व्यवस्था बनाए रखना होगी ताकि यात्रा योजना के अनुसार हो सके. प्रधानमंत्री द्वारा संघर्ष से विस्थापित लोगों के प्रतिनिधियों से मिलने और एक पुनर्वास पैकेज की घोषणा करने की उम्मीद है. हालांकि, व्यापक विरोध और गहरे जातीय विभाजन को देखते हुए, यह अनिश्चित है कि यह यात्रा तनाव कम करने में कितनी सफल होगी.
जिन सवालों के जवाब मोदी से मिलना मुश्किल हैं
मणिपुर मामले में क्या मोदी का देर आना दुरुस्त, आख़िर जवाबदेही किसकी
मणिपुर में शुरू हुई जातीय हिंसा को दो साल से अधिक समय बीत चुका है. इस दौरान राज्य ने अभूतपूर्व तबाही देखी. स्वतंत्र रिपोर्टें बताती हैं कि इस हिंसा में अब तक 250 से अधिक लोग अपनी जान गंवा चुके हैं, हज़ार से ज़्यादा घायल हुए हैं और 32 लोग अब भी लापता हैं. करीब 60,000 लोग अपने घरों से बेदखल होकर राहत शिविरों में जीवन गुज़रने पर मजबूर हैं. पांच हज़ार से अधिक घर इस हिंसा के चपेट में आगए हैं.
हालात इतने गंभीर रहे, लेकिन मुख्यमंत्री एन. बीरेन सिंह लंबे समय तक पद पर बने रहे, जबकि उन पर खुद हिंसा को बढ़ावा देने के आरोप लगे. बाद में राज्य में राष्ट्रपति शासन लागू किया गया, लेकिन स्थिति में अपेक्षित सुधार नहीं आया. दो सबसे बड़े समूह, बहुसंख्यक मैतेई और अल्पसंख्यक कुकी के इस दो वर्षीय गृहयुद्ध पर चुप्पी साधने के बाद 13 सितंबर को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी मणिपुर का दौरा करेंगे. जिस पर शोधकर्ता नवशरण कौर और प्रोफ़ेसर अपूर्वानंद झा ने प्रधानमंत्री के इस दौरे पर चर्चा की.
पीपुल्स यूनियन फॉर सिविल लिबर्टीज़ (PUCL), ह्यूमन राइट्स वॉच और एमनेस्टी इंटरनेशनल की रिपोर्ट में कहा गया है कि सरकार हिंसा को रोकने, दोषियों पर कार्रवाई करने और नागरिकों की सुरक्षा सुनिश्चित करने में नाकाम रही.
पीयूसीएल की सदस्य नवशरण कौर बताती हैं कि हिंसा की सच्चाई सामने लाने के लिए एक पीपुल्स ट्रिब्यूनल गठित किया गया. इसमें 14 सदस्य शामिल थे, जिन्होंने 10 दिन तक मणिपुर में रहकर विभिन्न जिलों में जाकर लोगों की गवाही सुनी. उन्होंने बताया कि मिश्रित परिवार, यानी कुकी और मैतेई समुदायों के बीच विवाह करने वाले परिवार सबसे अधिक प्रभावित हुए. कई मामलों में पत्नियों को जबरन सौंपने, हत्या और बलात्कार की घटनाएँ सामने आईं. छोटे किसान और दैनिक मजदूरी करने वाले परिवार अपनी ज़मीन और रोज़गार से बेदखल हो गए. महिलाओं पर यौन हिंसा का स्तर भयावह रहा. 3-4 मई की घटना में पुलिस ने महिलाओं को भीड़ के हवाले कर दिया. यह राज्य के ‘सोशल कॉन्ट्रैक्ट’ का टूटना था, क्योंकि सरकार नागरिकों को न्यूनतम सुरक्षा भी नहीं दे पाई. नवशरण का आरोप है कि मुख्यमंत्री ने हिंसा को बढ़ावा दिया और केंद्र ने भी उन्हें बचाए रखा.
लेखक अपूर्वानंद का कहना है कि मणिपुर समाज आज दो हिस्सों में बंट चुका है—कुकी और मैतेई. दोनों के बीच अविश्वास गहरा हो गया है और नेताओं तथा मीडिया ने नफ़रत फैलाने का काम किया. उन्होंने मुख्यमंत्री पर घृणा फैलाने और मैतेई समुदाय का खुला पक्ष लेने का आरोप लगाया. अपूरवानंद कहते हैं कि पुलिस और प्रशासन पर भरोसा पूरी तरह खत्म हो गया है. 60,000 लोग अब भी राहत शिविरों में हैं और कई लोग आत्महत्या तक कर रहे हैं, जैसे कोंसाम बोमेत की खुदकुशी का मामला. उन्होंने कहा कि राज्य सरकार असफल रही और केंद्र ने बहुत देर से हस्तक्षेप किया. जबतक न्याय और जवाबदेही तय नहीं होती, दोनों समुदायों के बीच अशांति रहेगी.
दोनों ने इस बातचीत में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के 13 सितंबर के मणिपुर दौरे की तैयारियों को लेकर भी सवाल उठाए. प्रशासन ने समारोह और सांस्कृतिक कार्यक्रमों की योजना बनाई थी, लेकिन लोगों ने इसका विरोध किया. इससे यह स्पष्ट होता है कि जनता प्रधानमंत्री के दौरे को उत्सव की तरह मनाने के खिलाफ है. नवशरण कौर का कहना है कि लोगों को प्रधानमंत्री से अब कोई उम्मीद नहीं है. जब तक जवाबदेही तय नहीं होगी, तब तक यह दौरा सिर्फ़ एक औपचारिकता रहेगा.
अपूर्वानंद का आरोप है कि केंद्र सरकार को हिंसा की जानकारी थी लेकिन उन्होंने जानबूझकर चुप्पी साधी. प्रधानमंत्री ने महीनों तक इस विषय पर कोई बयान नहीं दिया. प्रधानमंत्री की चुप्पी हिंसा को स्वीकार करने जैसी है. प्रधानमंत्री के हर बड़े फैसले चाहे नोटबंदी हो, कश्मीर का अनुच्छेद 370 हटाना हो या कोरोना लॉकडाउन—लोगों को अचानक और बिना तैयारी के तकलीफ़ में डालते रहे हैं. मणिपुर में भी यही होगा. उनके अनुसार, मोदी का यह दौरा भी केवल प्रदर्शन होगा, समाधान नहीं. प्रधानमंत्री मणिपुर जाकर क्या करेंगे? क्या वे पीड़ितों से माफ़ी मांगेंगे, क्या रिपोर्ट्स को मान्यता देंगे, क्या दोषियों पर कार्रवाई होगी, और क्या मुख्यमंत्री की जवाबदेही तय होगी?
मणिपुर में न्याय के बिना शांति संभव नहीं : पेट्रीशिया मुक़ीम
शिलांग टाइम्स की अनुभवी पत्रकार और संपादक पेट्रीशिया मुक़ीम ने मणिपुर में शांति समझौतों के बीच एक महत्वपूर्ण सवाल उठाया है. उन्होंने तर्क दिया है कि केवल सुरक्षा-केंद्रित दृष्टिकोण से मणिपुर में स्थायी शांति स्थापित नहीं की जा सकती. मुक़ीम का कहना है कि "सुरक्षा मुद्दों से परे, विकास के पहलू पर ज्यादा ध्यान नहीं दिया गया है, जिस पर बहुत अधिक पीड़ा टिकी हुई है. क्या ये समझौते, जो केवल कट्टर, सुरक्षा-केंद्रित उद्देश्यों के रूप में दिखाई देते हैं, वास्तव में मणिपुर में सामान्य स्थिति की ओर ले जाएंगे, जैसा कि संपादकीयों में उम्मीद की जा रही है, यह संदिग्ध है." उनका तर्क है कि जब तक पहाड़ी क्षेत्रों में विकास की कमी और न्याय की अनुपस्थिति जैसे मूलभूत मुद्दों का समाधान नहीं किया जाता, तब तक कोई भी समझौता स्थायी शांति नहीं ला सकता. उनका यह बयान नीति निर्माताओं को ज़मीनी हकीकत की ओर ध्यान आकर्षित करने और एक अधिक समग्र दृष्टिकोण अपनाने के लिए प्रेरित करता है.
मुक़ीम ने इस बात पर जोर दिया है कि संघर्ष के बाद पहाड़ी क्षेत्रों में विकास का घाटा और बढ़ गया है. उन्होंने सवाल किया कि "पहाड़ियों में किस तरह की संस्थाएं आएंगी, या विकास घाटी-केंद्रित बना रहेगा? इस एजेंडे को कौन आगे बढ़ाएगा? न्याय पर आधारित कोई भी समझौता दीर्घकालिक शांति कायम नहीं रख सकता." इसी संदर्भ में, पत्रकार रोक़िबज़ ज़मान की एक रिपोर्ट इस बात पर प्रकाश डालती है कि कुकी-ज़ो समूहों के साथ केंद्र के नए सस्पेंशन ऑफ़ ऑपरेशंस (SoO) समझौते ने मणिपुर में कोई खास उत्साह नहीं जगाया है. समझौते के तहत कुकी-ज़ो उग्रवादी समूह एक साल के लिए ऑपरेशन निलंबित करने पर सहमत हुए हैं, और कुकी-ज़ो परिषद ने राष्ट्रीय राजमार्ग-2 को खोलने का फैसला किया है. समझौतों के बावजूद, ज़मीनी स्तर पर अविश्वास बना हुआ है. SoO समझौते की शर्तों में मणिपुर की भौगोलिक अखंडता को बनाए रखने पर ज़ोर दिया गया है, जो मैतेई समुदाय की एक प्रमुख मांग थी. लेकिन, कुकी-ज़ो विद्रोही समूहों ने आरोप लगाया है कि सरकार के प्रेस सूचना ब्यूरो (PIB) ने समझौते के विवरण को तोड़-मरोड़ कर पेश किया है, जिससे भ्रम पैदा हुआ है और उनकी भावनाएं आहत हुई हैं. उनका कहना है कि अब उनकी मांग केवल स्वायत्तता नहीं, बल्कि विधायिका के साथ केंद्र शासित प्रदेश की है. यह दर्शाता है कि दोनों समुदायों के बीच राजनीतिक आकांक्षाओं को लेकर अभी भी बड़ा मतभेद है.
नेपाल
सुशीला कार्की, बालेंद्र शाह या कोई और? नेपाल में अंतरिम नेतृत्व पर बहस जारी
नेपाल में जेन-ज़ी (Gen-Z) पीढ़ी के नेतृत्व में हुए हिंसक विरोध प्रदर्शनों के बाद प्रधानमंत्री के. पी. शर्मा ओली के इस्तीफ़े से देश का राजनीतिक परिदृश्य अनिश्चित बना हुआ है. हिमालयी राष्ट्र को हिलाकर रख देने वाले युवा प्रदर्शनकारी अब इस बात पर बहस कर रहे हैं कि एक अंतरिम प्रशासन का नेतृत्व किसे करना चाहिए. यह घटनाक्रम नेपाल की राजनीति में एक महत्वपूर्ण मोड़ है, जहाँ युवा पीढ़ी भ्रष्टाचार मुक्त शासन की मांग करते हुए पारंपरिक राजनीतिक चेहरों से अलग नए नेतृत्व की तलाश कर रही है. यह आंदोलन देश के भविष्य की दिशा तय करने में युवाओं की बढ़ती भूमिका को दर्शाता है. राष्ट्रपति रामचंद्र पौडेल ने गुरुवार को सभी पक्षों से शांति बनाए रखने का आग्रह किया और संवैधानिक ढांचे के भीतर समाधान खोजने के प्रयासों की घोषणा की. यह अशांति शुरू होने के बाद उनका पहला सार्वजनिक बयान था. मंगलवार को आंदोलनकारी समूहों ने उनके कार्यालय और निजी आवास दोनों में आग लगा दी थी, जिसके बाद वह सार्वजनिक रूप से दिखाई नहीं दिए थे. अंतरिम प्रधानमंत्री की भूमिका के लिए पूर्व मुख्य न्यायाधीश सुशीला कार्की, काठमांडू के मेयर बालेंद्र शाह, नेपाल विद्युत प्राधिकरण (NEA) के पूर्व सीईओ कुलमान घिसिंग और धरान के मेयर हरका सम्पांग के नाम सबसे मज़बूत दावेदारों के रूप में उभरे हैं. युवा प्रदर्शनकारी ऐसे नेताओं की तलाश में हैं जिनका ट्रैक रिकॉर्ड साफ़-सुथरा हो और जो स्थापित राजनीतिक दलों से न जुड़े हों. सुशीला कार्की को भ्रष्टाचार के ख़िलाफ़ उनके सख़्त रुख के लिए जाना जाता है और उन्हें जेन-ज़ी का व्यापक समर्थन प्राप्त है. वहीं, कभी रैपर रहे और अब काठमांडू के मेयर बालेंद्र शाह भी युवाओं के बीच बेहद लोकप्रिय हैं. शाह ने कार्की की उम्मीदवारी का समर्थन भी किया है. कुलमान घिसिंग को देश में 18 घंटे की बिजली कटौती खत्म करने का श्रेय दिया जाता है, जबकि हरका सम्पांग को ज़मीनी नेता के तौर पर देखा जाता है. एक अंतरिम सरकार के नेतृत्व पर आम सहमति बनाने के लिए नेपाली सेना, राष्ट्रपति और जेन-ज़ी प्रदर्शनकारियों के प्रतिनिधियों के बीच बातचीत चल रही है. इस बातचीत का नतीजा यह तय करेगा कि देश को स्थिरता की ओर कौन ले जाएगा और भविष्य में चुनावों की रूपरेखा क्या होगी. सुशीला कार्की ने पुष्टि की है कि उन्होंने अंतरिम प्रधानमंत्री के रूप में सेवा देने का अनुरोध स्वीकार कर लिया है.
मीडिया ने पूर्व प्रधानमंत्री की पत्नी को मृत घोषित कर दिया था, वह रवि लक्ष्मी जिंदा निकली
नेपाल के पूर्व प्रधानमंत्री और सीपीएन (यूनिफाइड सोशलिस्ट) के वरिष्ठ नेता झाला नाथ खनाल की पत्नी रवि लक्ष्मी चित्रकार काठमांडू के कीर्तिपुर अस्पताल में जलने से हुए ज़ख़्मों का इलाज करा रही हैं. भारतीय और नेपाली मीडिया संस्थानों की शुरुआती रिपोर्टों में दावा किया गया था कि आगजनी के हमले में चित्रकार की मौत हो गई थी. यह घटना राजनीतिक उथल-पुथल के दौरान गलत सूचनाओं के प्रसार और फैक्ट-चेकिंग (तथ्यों की जांच) के महत्व को उजागर करती है. झूठी खबरों से तनाव और बढ़ सकता है, इसलिए सही जानकारी सामने लाना महत्वपूर्ण है.
द काठमांडू पोस्ट ने बाद में स्पष्ट किया कि वह जीवित हैं लेकिन उनकी हालत गंभीर है. बूम ने इस दावे की फैक्ट-चेकिंग की और नेपाल फैक्ट चेक से संपर्क किया, जिसने कीर्तिपुर के नेपाल क्लेफ्ट एंड बर्न सेंटर के निदेशक डॉ. किरण नकर्मी से पुष्टि की कि "चित्रकार जीवित हैं लेकिन उनकी हालत गंभीर है और उनका इलाज चल रहा है". मंगलवार सुबह प्रदर्शनकारियों द्वारा डल्लू स्थित खनाल के आवास में आग लगाने के बाद चित्रकार गंभीर रूप से घायल हो गईं. यह हमला नेपाल में जेन-ज़ी के नेतृत्व वाले बड़े प्रदर्शनों का हिस्सा था. ये प्रदर्शन भ्रष्टाचार के खिलाफ थे, जो सोशल मीडिया पर प्रतिबंध और काठमांडू में पुलिस फायरिंग में 30 लोगों की मौत के बाद हिंसक हो गए थे. इस घटना से पता चलता है कि विरोध प्रदर्शन कितने तीव्र और हिंसक हो गए थे, जिसमें राजनीतिक हस्तियों के परिवारों को भी निशाना बनाया जा रहा था. रवि लक्ष्मी चित्रकार की हालत पर डॉक्टर नज़र बनाए हुए हैं.
भारत को कूटनीतिक रस्सी पर चलना होगा
नेपाल में सोमवार और मंगलवार के विरोध प्रदर्शनों के बाद सड़कों पर भले ही शांति लौट आई है, लेकिन काठमांडू में सत्ता की बागडोर कौन संभालेगा, इसे लेकर अनिश्चितता बनी हुई है. इस बीच, भारत को एक "कूटनीतिक रस्सी पर चलना होगा". बीबीसी के पत्रकार अंबारसन एथिराजन के अनुसार, युवा प्रदर्शनकारियों का गुस्सा देश के सभी प्रमुख राजनीतिक दलों के खिलाफ है. विशेषज्ञों का मानना है कि भारत को किसी भी मतभेद को दूर करने के लिए नए प्रशासन तक पहुंचना होगा और साथ ही अपने राजनीतिक प्रतिष्ठान से नाराज़ युवा नेपालियों के साथ भी जुड़ना होगा. नेपाल में हालिया राजनीतिक उथल-पुथल, जिसे 'जेन ज़ी' (Gen Z) विद्रोह का नाम दिया गया है, भारत के लिए एक महत्वपूर्ण भू-राजनीतिक चुनौती है. नेपाल भारत का एक करीबी पड़ोसी है और दोनों देशों के बीच गहरे ऐतिहासिक, सांस्कृतिक और आर्थिक संबंध हैं. काठमांडू में किसी भी तरह की अस्थिरता का सीधा असर भारत पर पड़ता है. भारत के लिए यह समझना ज़रूरी है कि यह केवल एक सरकार का पतन नहीं है, बल्कि एक पूरी पीढ़ी का पुराने राजनीतिक ढांचे के खिलाफ विद्रोह है, जो भ्रष्टाचार और भाई-भतीजावाद से तंग आ चुकी है.
नेपाल में 'जेन ज़ी' प्रदर्शनकारी लोकतंत्र के लिए एक ऐसा आंदोलन चला रहे थे जो शैली और सियासत का मिश्रण था, जिसका मकसद एक पुराने प्रतिष्ठान को उखाड़ फेंकना था. न्यूयॉर्क टाइम्स की एक रिपोर्ट के अनुसार, ये विरोध प्रदर्शन इंस्टाग्राम, फेसबुक और डिस्कॉर्ड पर आयोजित किए गए थे. प्रदर्शनकारियों का मिशन भ्रष्टाचार को खत्म करना, लोकतंत्र को बढ़ावा देना और एक ऐसी entrenched (जड़ जमा चुकी) लीडरशिप को हटाना था जिसने सत्ता और धन को कुछ चुनिंदा हाथों में रखा था. लेकिन जल्द ही इस आंदोलन का माहौल बदल गया जब चरमपंथी नारे लगाते हुए कुछ समूह इसमें शामिल हो गए और प्रतिबंधित क्षेत्रों में घुस गए. इन विरोध प्रदर्शनों के दौरान, भारतीय 'गोदी मीडिया' को पत्रकारों के रूप में स्वागत नहीं किया गया, बल्कि उन्हें अफवाह फैलाने वाले और प्रचारक कहकर उनका उपहास किया गया. स्थानीय लोगों ने उनके "मनगढ़ंत मेलोड्रामा" को सिरे से खारिज कर दिया.
भारत और नेपाल के द्विपक्षीय संबंध पहले से ही तनाव मुक्त नहीं रहे हैं, खासकर सीमा विवादों को लेकर. इस नाजुक स्थिति में, भाजपा बिहार के प्रमुख सम्राट चौधरी के एक बयान ने और तनाव पैदा कर दिया. उन्होंने कहा कि नेपाल में जो हुआ वह कांग्रेस की गलती है और "अगर नेपाल आज भारत का हिस्सा होता, तो वहां शांति और खुशी होती". इस बयान के बाद, भाजपा ने अपने सभी नेताओं और सोशल मीडिया हैंडलर्स को उच्चाधिकारियों से प्राधिकरण के बिना नेपाल के बारे में बात न करने का आदेश जारी किया है. यह घटना दर्शाती है कि भारत को नेपाल के मामले में कितनी सावधानी बरतने की ज़रूरत है.
नेपाल में एक नई सरकार के गठन की प्रक्रिया चल रही है, जिसमें सेना और प्रदर्शनकारियों के बीच बातचीत हो रही है ताकि एक अंतरिम नेता चुना जा सके. भारत को इस प्रक्रिया पर करीब से नज़र रखनी होगी और यह सुनिश्चित करना होगा कि उसके संबंध नई सरकार के साथ मजबूत बनें. नई दिल्ली को न केवल काठमांडू में राजनीतिक अभिजात वर्ग के साथ, बल्कि उस युवा पीढ़ी के साथ भी संवाद स्थापित करना होगा जो बदलाव की मांग कर रही है. भारत के लिए यह एक अवसर भी है कि वह नेपाल के युवाओं को अधिक शैक्षिक और रोजगार के अवसर प्रदान करके उनके साथ अपने संबंधों को मजबूत करे.
कनकमणि दीक्षित : लगता नहीं सेना का राज होगा
द वायर में करन थापर से काठमांडू से हिमाल पत्रिका के संस्थापक संपादक और बुद्धिजीवी कनकमणि दीक्षित ने नेपाल के हालात पर लम्बी बातचीत की.
नेपाल की वर्तमान स्थिति बहुत ही तरल और अनिश्चित है. अंतरिम प्रधानमंत्री के रूप में किसी भी नाम की घोषणा, जैसे कि पूर्व मुख्य न्यायाधीश सुशीला कार्की या कुलमान घिसिंग, अभी जल्दबाज़ी होगी. दीक्षित के अनुसार, सेना, जेन ज़ेड (Gen Z) प्रदर्शनकारी, और पुराने तथा नए राजनीतिक दल सभी अभी भी अपनी स्थिति को मज़बूत करने की प्रक्रिया में हैं, इसलिए कोई स्पष्टता नहीं है.
सेना प्रमुख जनरल सिग्देल की भूमिका पर दीक्षित का मानना है कि उनकी सत्ता पर कब्ज़ा करने की कोई "बोनापार्टिस्ट" मंशा नहीं है. उनका तर्क है कि नेपाल की सेना का इतिहास अन्य दक्षिण एशियाई देशों से अलग है और यह आमतौर पर राजनीतिक मामलों से दूर रहती है. दीक्षित को विश्वास है कि सेना प्रमुख कोई भी असंवैधानिक कदम उठाने से बचेंगे, क्योंकि मुख्यधारा के राजनीतिक दलों का कैडर किसी भी सैन्य तानाशाही के ख़िलाफ़ अंतहीन अस्थिरता पैदा कर सकता है.
दीक्षित ने राजनीतिक नेतृत्व की अनुपस्थिति पर गहरी चिंता व्यक्त की. उन्होंने सवाल उठाया कि कई वरिष्ठ मंत्री "सेना की सुरक्षा" में क्यों हैं, जो "नज़रबंदी" जैसा प्रतीत होता है. उन्होंने राष्ट्रपति रामचंद्र पौडेल की चुप्पी की विशेष रूप से आलोचना करते हुए कहा कि उन्हें इस संकट में नेतृत्व करना चाहिए था, न कि सेना प्रमुख को बातचीत का केंद्र बनने देना चाहिए. दीक्षित के शब्दों में, राष्ट्रपति अब तक हमें विफल कर चुके हैं.
जेन ज़ेड आंदोलन के बारे में, उन्होंने कहा कि इसने नेपाल की राजनीति में एक "भूकंपीय" पीढ़ीगत बदलाव को जन्म दिया है. उन्होंने 8 सितंबर के शुरुआती विरोध प्रदर्शन को भ्रष्टाचार के ख़िलाफ़ एक उचित क़दम बताया. हालांकि, उन्होंने ज़ोर देकर कहा कि इस शांतिपूर्ण प्रदर्शन को बाद में "घुसपैठियों" द्वारा हाईजैक कर लिया गया था. उनके अनुसार, 9 सितंबर को हुई आगज़नी और हिंसा के लिए जेन ज़ेड को ज़िम्मेदार ठहराना एक "भारी अन्याय" है.
आगे का रास्ता बताते हुए, दीक्षित ने दृढ़ता से कहा कि कोई भी समाधान नेपाल के संविधान के दायरे में ही होना चाहिए. उन्होंने देश के लिए तीन स्तंभों पर ज़ोर दिया: संविधान, संसद (जिसे फिर से सक्रिय किया जाना चाहिए), और राष्ट्रपति. संविधान के बाहर किसी भी व्यवस्था से केवल अराजकता ही फैलेगी.
अंत में, उन्होंने एक और गंभीर ख़तरे की ओर इशारा किया: राजनेता रबी लामिछाने को जेल से छुड़ाए जाने के बाद देश भर की जेलों से 33,000 कैदियों का भाग जाना, जिनमें हत्यारे और बलात्कारी भी शामिल हैं. यह देश के लिए एक बड़ी सुरक्षा चुनौती है. दीक्षित ने निष्कर्ष निकाला कि यद्यपि सेना की सड़कों पर मौजूदगी से एक तरह की शांति है, लेकिन देश एक शक्ति शून्य और गंभीर अनिश्चितता के दौर से गुज़र रहा है.
‘जेन-जी’ गुट बंटे, अंतरिम सरकार के प्रमुख पर सहमति नहीं
नेपाल में केपी शर्मा ओली सरकार के पतन के बाद अंतरिम सरकार के गठन को लेकर अनिश्चितता गुरुवार को और गहरा गई. “जनरेशन-जी” प्रदर्शनकारी समूह इस बात पर बंटे हुए हैं कि अस्थायी रूप से सत्ता कौन संभाले, वहीं राष्ट्रपति रामचंद्र पौडेल जोर देकर कह रहे हैं कि मौजूदा गतिरोध का समाधान वर्तमान संविधान के तहत ही निकाला जाना चाहिए. लेकिन, राष्ट्रपति का यह रुख नेपाली सेना प्रमुख जनरल अशोक राज सिग्देल के प्रयासों को पेचीदा बना देता है, जो चाहते हैं कि जल्द से जल्द अंतरिम व्यवस्था लागू हो. एक दिन पहले ही जनरल सिग्देल ने पूर्व मुख्य न्यायाधीश सुशीला कार्की से अंतरिम मुख्य कार्यकारी का पद संभालने का अनुरोध किया था, जिसे उन्होंने काफी मनाने और कुछ जनरेशन-जी समूहों के औपचारिक बयान के बाद स्वीकार किया. लेकिन नेपाल का वर्तमान संविधान किसी भी पूर्व मुख्य न्यायाधीश या सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश को सेवानिवृत्ति के बाद राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री या किसी अन्य राजनीतिक-वैधानिक पद पर आसीन होने की अनुमति नहीं देता, जैसा कि युबराज घिमिरे ने अपनी रिपोर्ट में बताया है.
राष्ट्रपति पौडेल ने कहा कि गतिरोध से निकलने का रास्ता मौजूदा संविधान के तहत संभव है और उसी पर आगे बढ़ना चाहिए. कम से कम चार प्रमुख दल — सीपीएन (माओवादी सेंटर), नेपाली कांग्रेस, सीपीएन (यूएमएल) और मधेश-आधारित दल — ने भी उनके आह्वान का समर्थन किया है. मगर पौडेल का बयान जनरल सिग्देल की उन कोशिशों के विपरीत है, जिनमें वे विभिन्न जनरेशन-जी समूहों और अन्य नेताओं को इस बात पर सहमत करना चाहते थे कि कोई ऐसा अंतरिम नेतृत्व बने जो किसी मौजूदा राजनीतिक दल का नेता न हो.
अगर राष्ट्रपति की पहल सफल होती है तो मामला संसद में लौट आएगा, जहां नेपाली कांग्रेस और सीपीएन (यूएमएल) का गठबंधन — जो ओली के इस्तीफ़े से पहले तक सत्ता में था — बहुमत रखता है. इससे ओली या उनके नामित व्यक्ति की वापसी की संभावना बढ़ जाती है, क्योंकि उन्होंने अभी भी अपनी संसदीय दल की नेतृत्व वाली स्थिति से इस्तीफ़ा नहीं दिया है.
संविधान और संसद को बचाने की इस मुहिम के बीच जनरेशन-जी समूह में भ्रम और विभाजन है — उसके पास कोई औपचारिक संरचना या कमांड की शृंखला नहीं है और कई गुट अलग-अलग समाधान पेश कर रहे हैं.
भले ही प्रमुख राजनीतिक दल मौजूदा संविधान को बचाने के नाम पर कुछ हद तक एकजुट दिखाई दे रहे हों, लेकिन 20 प्रदर्शनकारियों की मौत और सार्वजनिक संपत्ति के नुकसान को लेकर उनमें आरोप-प्रत्यारोप शुरू हो चुका है.
ओली ने हिंसा का दोष “असामाजिक तत्वों और अपराधियों” पर डाला, जिनके बारे में उनका दावा है कि वे जनरेशन-जी समूहों में घुसपैठ कर चुके थे. वहीं माओवादी प्रमुख पुष्प कमल दहल ‘प्रचंड’ ने सारा ठीकरा सीधे सत्तारूढ़ गठबंधन — सीपीएन (यूएमएल) और नेपाली कांग्रेस — पर फोड़ते हुए कहा, “जब मैंने भ्रष्टाचार के ख़िलाफ़ कड़े कदम उठाने शुरू किए थे तो इन्होंने मिलकर 14 महीने पहले मेरी सरकार गिराई थी.”
ओली ने यह भी आरोप लगाया कि उनके ख़िलाफ़ बाहरी हस्तक्षेप की भूमिका हो सकती है. उन्होंने कहा, “मैंने लिपुलेख और लिम्पियाधुरा को हमारे देश के नक्शे पर रखा, जहां वे वास्तव में आते हैं. मैंने यह भी कहा कि भगवान राम का जन्म नेपाल में हुआ था और मैं किसी भी बाहरी दबाव के आगे नहीं झुका.” उल्लेखनीय है कि मई 2020 में ओली सरकार ने भारत के साथ लिपुलेख-काला पानी-लिम्पियाधुरा त्रिकोण (नेपाल, भारत और चीन/तिब्बत की त्रिसंधि) पर क्षेत्रीय दावे को लेकर विवाद को और बढ़ाते हुए संविधान संशोधन विधेयक पेश किया था, ताकि नेपाल के नए नक्शे को कानूनी मान्यता दी जा सके. यह नक्शा तब सरकार द्वारा प्रकाशित किया गया जब भारत ने मानसरोवर यात्रा मार्ग पर लिपुलेख के रास्ते नई सड़क का उद्घाटन किया.
इस बीच, काठमांडू के मेयर बलेंद्र शाह ‘बालेन’, जिन्हें जनरेशन-ज़ी समूहों में बड़ा समर्थन प्राप्त है, ने संसद भंग करने और पूर्व मुख्य न्यायाधीश कार्की को अंतरिम सरकार का प्रमुख बनाए जाने के विचार का समर्थन किया है.
जेल से भागे 22 कैदियों को नेपाल-उप्र सीमा पर पकड़ा
“द हिंदू” में विजेयता सिंह की खबर है कि नेपाल में सरकार गिरने के बाद वहां की जेलों से फरार हुए कम से कम 22 कैदियों को सशस्त्र सीमा बल (एसएसबी) ने नेपाल-उत्तरप्रदेश सीमा पर पकड़ा लिया. एक वरिष्ठ अधिकारी ने बताया कि नेपाल की सेना द्वारा कैदियों की सूची साझा किए जाने के आधार पर इन कैदियों को पकड़ा गया. वर्तमान में ये कैदी उत्तरप्रदेश पुलिस की हिरासत में हैं. बताया जा रहा है कि पैमाने पर हुए हिंसक प्रदर्शनों के बाद हजारों कैदी नेपाल की जेलों से भाग निकले थे.
बेरोजगारी, भ्रष्टाचार और अवसरों की कमी, 43% युवा विदेश जा रहे हैं
“द हिंदू” की एक रिपोर्ट में कहा गया है कि प्रत्यक्ष कारणों से अलग, राजनीतिक अस्थिरता—जो बार-बार सरकार बदलने और अनैतिक गठबंधनों से चिन्हित रही है—ने नेपाल की गहरी सामाजिक असमानताओं को जस का तस बनाए रखा है. विशेषकर युवाओं में, जिन्हें बढ़ती बेरोजगारी के कारण पलायन के लिए मजबूर होना पड़ता है. यही उनकी नाराज़गी और विरोध प्रदर्शनों की मुख्य वजह समझी जा सकती है.
जब केपी ओली—जो अब इस्तीफ़ा दे चुके हैं—ने 2024 में नई सरकार बनाई, तो यह 1990 में नेपाल के निर्वाचित लोकतंत्र बनने के बाद से नेतृत्व परिवर्तन की 30वीं घटना थी. संवैधानिक राजतंत्र (1990-2008) से संवैधानिक गणराज्य (2008 के बाद) की ओर बढ़ने के बावजूद, नेपाल में किसी भी प्रधानमंत्री ने अब तक एक पूरा कार्यकाल पूरा नहीं किया है, जिससे यह विश्व के सबसे राजनीतिक रूप से अस्थिर लोकतंत्रों में से एक बन गया है.
विग्नेश राधाकृष्णन और श्रीनिवासन रमणी ने बताया है कि, देश में बेरोजगारी, भ्रष्टाचार और अवसरों की कमी के चलते 16-40 वर्ष के लगभग 43% युवा रोज़गार की तलाश में विदेश जा रहे हैं. नेपाल की अर्थव्यवस्था मुख्य रूप से प्रवासी कमाई (रेमिटेंस) पर निर्भर है, और देश अभी भी “कम विकसित देशों” की सूची में शामिल है. सोशल मीडिया पर नेताओं और उनके परिवारों की आलीशान जीवनशैली के वीडियोज़ ने जनता में गुस्सा बढ़ाया है.
कई नए राजनीतिक चेहरे सामने आए हैं — जैसे काठमांडू के मेयर बालेंद्र शाह, पूर्व बिजली अधिकारी कुलमान घिसिंग और धर्मन के मेयर हर्का साम्पांग. युवा बदलाव और भ्रष्टाचारमुक्त प्रशासन की मांग कर रहे हैं. अंतरिम सरकार के गठन को लेकर राष्ट्रपति और आर्मी चीफ के साथ चर्चा चल रही है, जिसमें स्वतंत्र और गैर-राजनीतिक नेतृत्व की मांग है.
गये थे कंस्ट्रक्शन वर्कर बनने, बन गये भाड़े के रूसी सिपाही
सात भारतीय युवकों ने आरोप लगाया है कि उन्हें एक एजेंट ने धोखा दिया और रूसी सेना में जबरन भर्ती कर यूक्रेन में अग्रिम मोर्चे पर भेज दिया गया. पंजाब, जम्मू और हरियाणा के रहने वाले इन युवकों ने मॉस्को में भारतीय दूतावास और विदेश मंत्री एस. जयशंकर से अपनी सुरक्षित रिहाई के लिए गुहार लगाई है.
द वायर में कुसुम अरोड़ा की रिपोर्ट है कि यह मामला एक ख़तरनाक मानव तस्करी रैकेट को उजागर करता है जो विदेश में नौकरी की तलाश कर रहे कमजोर भारतीय युवाओं को अपना निशाना बनाता है और उन्हें एक जानलेवा युद्ध क्षेत्र में धकेल देता है. यह विदेशों में भारतीय नागरिकों की सुरक्षा को लेकर भी गंभीर सवाल खड़े करता है.
इन युवकों को मॉस्को के बाहर कंस्ट्रक्शन वर्कर के रूप में प्रति माह 20 लाख रुपये देने का वादा किया गया था. लेकिन असल में, उन्हें एक रूसी सेना शिविर में ले जाया गया जहाँ उन्हें बंकर बनाने के लिए मजबूर किया गया. उन्होंने आरोप लगाया कि अधिकारियों ने उन्हें पिस्तौल से धमकाया और रूसी भाषा में लिखे अनुबंधों पर हस्ताक्षर करने के लिए मजबूर किया. यूक्रेन के डोनेट्स्क क्षेत्र के एक शिविर में फंसे इन सात लोगों की पहचान गुरसेवक सिंह, सचिन खजूरिया, सुमीत शर्मा, बूटा सिंह, गीतिक कुमार, अंकित और विजय सिंह के रूप में हुई है.
विदेश में मोटी तनख्वाह का लालच इन युवकों को धोखेबाज़ एजेंटों का आसान निशाना बना देता है. इन लोगों ने रूस जाने के लिए स्टडी और बिजनेस वीज़ा पर लाखों रुपये खर्च किए. एक पीड़ित गुरसेवक सिंह को 10 सितंबर को अग्रिम मोर्चे पर भेज दिया गया है. उनकी पत्नी, जो मॉस्को में ही हैं, ने दूतावास और विदेश मंत्रालय से संपर्क किया, लेकिन कोई कार्रवाई नहीं हुई. यह घटना विदेश में भारतीय दूतावासों की सहायता की प्रभावशीलता पर भी सवाल उठाती है.
परिवार वालों ने मदद के लिए हरियाणा के मुख्यमंत्री से संपर्क किया है, जिन्होंने विदेश मंत्री से बात करने का आश्वासन दिया है. विदेश मंत्रालय ने एक बयान जारी कर भारतीयों को रूसी सेना में शामिल होने के किसी भी प्रस्ताव से दूर रहने का आग्रह किया है और कहा है कि इस प्रथा को समाप्त करने और भारतीय नागरिकों की रिहाई के लिए रूसी अधिकारियों के साथ मामला उठाया गया है. हालांकि, इन लोगों की तत्काल सुरक्षित वापसी अनिश्चित बनी हुई है.
रेखा गुप्ता को दिल्ली दुर्गा पूजा में मोदी का फ़ोटो चाहिए
दिल्ली की मुख्यमंत्री रेखा गुप्ता ने दुर्गा पूजा समितियों से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की तस्वीर "देवी दुर्गा के चरणों के पास" रखने और "उनके लंबे जीवन और स्वास्थ्य के लिए आशीर्वाद" लेने का आग्रह करके एक विवाद खड़ा कर दिया है.
यह बयान धर्म और राजनीति के बीच की रेखा को धुंधला करने का एक और उदाहरण है, जिससे यह बहस छिड़ गई है कि क्या धार्मिक उत्सवों का इस्तेमाल राजनीतिक हस्तियों के प्रचार के लिए किया जाना चाहिए. गुप्ता ने यह अनुरोध शनिवार (6 सितंबर) को दुर्गा पूजा और रामलीला आयोजकों से सरकार के 'सेवा पखवाड़ा' का हिस्सा बनने का अनुरोध करते हुए किया था, जो 17 सितंबर को मोदी के जन्मदिन पर शुरू होगा. उन्होंने यह भी घोषणा की कि दिल्ली सरकार रामलीला और दुर्गा पूजा समितियों को 1,200 यूनिट तक मुफ्त बिजली प्रदान करेगी. गुप्ता ने कहा, "आदरणीय प्रधानमंत्री की लंबी आयु और स्वास्थ्य के लिए, ज़रूर वहां पे उनकी तस्वीर मां के चरणों के पास लगाकर उनको आशीर्वाद ज़रूर दिलाइए."
आम आदमी पार्टी (आप) ने गुप्ता के बयान की कड़ी आलोचना की है. 'आप' की दिल्ली इकाई के अध्यक्ष सौरभ भारद्वाज ने आरोप लगाया कि भाजपा "बंगाली गौरव को खरीदना चाहती है". हालांकि, भाजपा ने आरोपों को "राजनीतिक अवसरवाद" बताकर खारिज कर दिया और कहा कि केजरीवाल सरकार ने भी पूजा समितियों को अपनी तस्वीरें लगाने के लिए मजबूर किया था. यह घटना राजनीतिक दलों द्वारा अपने संदेश को फैलाने और समर्थन हासिल करने के लिए धार्मिक भावनाओं का उपयोग करने की बढ़ती प्रवृत्ति को दर्शाती है. इस बयान पर राजनीतिक बहस जारी रहने की संभावना है. आम आदमी पार्टी और अन्य विपक्षी दल इसे धार्मिक मामलों में अनुचित राजनीतिक हस्तक्षेप के रूप में पेश करेंगे, जबकि भाजपा इसे प्रधानमंत्री के अच्छे स्वास्थ्य के लिए एक सामान्य प्रार्थना के अनुरोध के रूप में बचाव करेगी. यह देखना बाकी है कि दिल्ली की दुर्गा पूजा समितियां मुख्यमंत्री के इस आग्रह पर क्या प्रतिक्रिया देती हैं.
सीआरपीएफ़ ने राहुल गांधी द्वारा 'सुरक्षा प्रोटोकॉल के उल्लंघन' का मुद्दा उठाया, कांग्रेस ने समय पर सवाल खड़े किए
केंद्रीय रिजर्व पुलिस बल (सीआरपीएफ) ने कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे को लिखे एक पत्र में पार्टी नेता राहुल गांधी द्वारा कथित सुरक्षा प्रोटोकॉल के उल्लंघन का मुद्दा उठाया है. यह मामला एक प्रमुख विपक्षी नेता की सुरक्षा को राजनीतिक सुर्खियों में लाता है, जिसमें विपक्षी दल इसे डराने-धमकाने का एक "प्रच्छन्न प्रयास" बता रहा है. यह सुरक्षा एजेंसियों और उनके द्वारा सुरक्षित व्यक्तियों के बीच समन्वय की चुनौतियों को भी उजागर करता है. लोकसभा में विपक्ष के नेता गांधी को सीआरपीएफ की वीआईपी सुरक्षा विंग "जेड प्लस (एएसएल)" सशस्त्र सुरक्षा प्रदान करती है. सूत्रों के अनुसार, खड़गे को भेजे गए पत्र में, बल की वीआईपी सुरक्षा इकाई ने गांधी द्वारा उनकी घरेलू यात्राओं के दौरान और विदेश जाने से पहले "बिना सूचना के कुछ अनियोजित यात्राओं" का उल्लेख किया है. पत्र में कहा गया है कि ऐसे अनियोजित दौरे "उच्च जोखिम" वाले वीआईपी की सुरक्षा के लिए "खतरा" पैदा करते हैं. सूत्रों के मुताबिक, पत्र में कहा गया है कि 2020 से अब तक 113 उल्लंघनों को देखा और सूचित किया गया है.
कांग्रेस ने पत्र के "समय" और इसके "तत्काल सार्वजनिक रिलीज" पर सवाल उठाया है. कांग्रेस के मीडिया और प्रचार विभाग के अध्यक्ष पवन खेड़ा ने कहा, "यह ठीक ऐसे समय में आया है जब राहुल गांधी चुनाव आयोग की मिलीभगत से की गई भाजपा की 'वोट चोरी' के खिलाफ़ आवाज़ उठा रहे हैं." एक "नियमित" माने जाने वाले संवाद का मीडिया में लीक होना एक राजनीतिक कोण का सुझाव देता है. कांग्रेस पार्टी इसे राहुल गांधी पर दबाव बनाने की कोशिश के रूप में देखती है, जो सरकार के आलोचक रहे हैं. इस मुद्दे पर राजनीतिक आरोप-प्रत्यारोप जारी रहने की संभावना है. सुरक्षा एजेंसियां प्रोटोकॉल के पालन पर जोर देती रहेंगी, जबकि कांग्रेस राजनीतिक मंशा का आरोप लगाना जारी रख सकती है. यह भविष्य में राहुल गांधी की सुरक्षा व्यवस्था को कैसे प्रभावित करता है, यह देखना महत्वपूर्ण होगा.
ट्रम्प की यूरोपीय संघ से भारत और चीन पर 100% टैरिफ लगाने को कहा
यूक्रेन में युद्ध समाप्त करने के लिए रूस पर दबाव बढ़ाने के एक संयुक्त प्रयास के तहत, अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प ने यूरोपीय संघ (ईयू) से भारत और चीन पर 100 प्रतिशत तक टैरिफ लगाने का आग्रह किया है. यह असाधारण मांग ट्रम्प ने मंगलवार को वाशिंगटन में जुटे वरिष्ठ अमेरिकी और यूरोपीय संघ के अधिकारियों की एक बैठक में फोन के ज़रिए जुड़ने के बाद की. यह बैठक रूस के लिए युद्ध की आर्थिक लागत बढ़ाने के तरीकों पर चर्चा करने के लिए आयोजित की गई थी. ट्रम्प प्रशासन का मानना है कि यदि चीन और भारत जैसे बड़े देश रूसी तेल खरीदना जारी रखते हैं, तो रूस पर लगाए गए आर्थिक प्रतिबंध उतने प्रभावी नहीं होंगे. फाइनेंशियल टाइम्स के अनुसार यह प्रस्ताव अमेरिका की रणनीति में एक महत्वपूर्ण बदलाव का संकेत देता है, जहां वह अब रूस से तेल खरीदने वाले देशों को सीधे तौर पर निशाना बनाने के लिए अपने सहयोगियों, विशेष रूप से यूरोपीय संघ को शामिल करना चाहता है.
एक अमेरिकी अधिकारी के अनुसार, ट्रम्प का मानना है कि सबसे सीधा तरीका यह है कि सभी मिलकर भारी टैरिफ लगाएं और तब तक लगाए रखें जब तक कि चीनी रूसी तेल खरीदना बंद न कर दें. एक दूसरे अमेरिकी अधिकारी ने कहा कि वाशिंगटन यूरोपीय संघ द्वारा चीन और भारत पर लगाए गए किसी भी टैरिफ के "बराबर" कदम उठाने को तैयार है, जिससे दोनों देशों से अमेरिकी आयात पर शुल्क में और वृद्धि हो सकती है. ट्रम्प ने मंगलवार को बाद में संवाददाताओं से कहा कि वह "इस सप्ताह या अगले सप्ताह की शुरुआत में" रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन के साथ बातचीत करने की उम्मीद करते हैं.
ट्रम्प का यह कदम पिछले हफ्ते पुतिन, चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग और भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के बीच एक शिखर सम्मेलन में संबंधों को मजबूत करने के बाद आया है. ट्रम्प की मांग पर प्रतिक्रिया देते हुए, एक चीनी विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता ने कहा कि बीजिंग यूक्रेन "संकट" का न तो सूत्रधार है और न ही इसका कोई पक्ष है, और उसे बलि का बकरा नहीं बनाया जाना चाहिए. अमेरिका ने पिछले महीने रूसी तेल की खरीद के कारण भारतीय आयात पर टैरिफ बढ़ाकर 50 प्रतिशत कर दिया था. हालांकि, मंगलवार शाम को ट्रम्प ने ट्रुथ सोशल पर लिखा कि भारत के साथ व्यापार वार्ता आगे बढ़ेगी और एक "सफल निष्कर्ष" पर पहुंचेगी, जो उनके दोहरे रुख को दर्शाता है.
यूरोपीय संघ के अधिकारी, यूरोपीय राजधानियों में चीन और भारत जैसे देशों के खिलाफ संभावित माध्यमिक प्रतिबंधों पर चर्चा कर रहे हैं, जो रूसी तेल और गैस खरीद रहे हैं. हालांकि, बीजिंग और नई दिल्ली के साथ यूरोपीय संघ के व्यापारिक संबंधों को देखते हुए कई देश घबराए हुए हैं. यूरोपीय आयोग की अध्यक्ष उर्सुला वॉन डेर लेयेन ने बुधवार को कहा कि आयोग "साझेदारों के साथ समन्वय में" रूस के खिलाफ प्रतिबंधों का एक नया बेड़ा जल्द ही पेश करेगा. अमेरिकी राजनयिकों ने यूरोपीय संघ की राजधानियों पर जोर दिया है कि ट्रम्प प्रशासन यूरोपीय संघ की भागीदारी के बिना रूसी तेल और गैस के खरीदारों पर दंडात्मक उपाय करने को तैयार नहीं है. एक अमेरिकी अधिकारी ने कहा, "सवाल यह है कि क्या यूरोपीय लोगों के पास युद्ध को समाप्त करने की राजनीतिक इच्छाशक्ति है?".
सोनम वांगचुक की भूख हड़ताल फिर शुरू
लद्दाख प्रशासन द्वारा उनके संस्थान के लिए भूमि आवंटन रद्द करने के तीन सप्ताह बाद, प्रसिद्ध जलवायु कार्यकर्ता और नवप्रवर्तक सोनम वांगचुक ने बुधवार को लेह में 35-दिवसीय भूख हड़ताल शुरू कर दी है. वह लद्दाख के लिए राज्य का दर्जा और संविधान की छठी अनुसूची के तहत इसे शामिल करने की मांग कर रहे हैं. लेह एपेक्स बॉडी (LAB) द्वारा समर्थित यह विरोध, केंद्र सरकार द्वारा निरंतर उपेक्षा के खिलाफ एक शांतिपूर्ण कार्रवाई के रूप में किया जा रहा है. यह घटनाक्रम केंद्र सरकार और लद्दाख के स्थानीय लोगों के बीच बढ़ते अविश्वास को उजागर करता है. 2019 में जम्मू-कश्मीर से अलग होकर केंद्र शासित प्रदेश बनने के बाद, लद्दाख के लोगों को उम्मीद थी कि उनकी अनूठी सांस्कृतिक पहचान और नाजुक पारिस्थितिकी की रक्षा की जाएगी. हालांकि, एक निर्वाचित विधानसभा की अनुपस्थिति और बाहरी औद्योगिक दबावों के डर ने स्थानीय आबादी में असुरक्षा की भावना पैदा कर दी है. सोनम वांगचुक, जो '3 इडियट्स' फिल्म के लिए प्रेरणा थे, इस आंदोलन का एक प्रमुख चेहरा बन गए हैं, और उनकी भूख हड़ताल इस मुद्दे को राष्ट्रीय स्तर पर फिर से उजागर कर रही है. वांगचुक ने आरोप लगाया कि केंद्रीय गृह मंत्रालय (MHA) ने पिछले दो महीनों से लद्दाख के नेतृत्व के साथ कोई बातचीत नहीं की है. उन्होंने कहा, "केंद्र सरकार के साथ बातचीत लगभग दो महीने पहले रुक गई. जैसे ही हमारी मुख्य मांगों - छठी अनुसूची और राज्य का दर्जा सहित - पर चर्चा शुरू होने वाली थी, केंद्र ने अचानक संचार बंद कर दिया." वांगचुक का यह विरोध इसलिए भी महत्वपूर्ण है क्योंकि यह अक्टूबर में होने वाले लेह स्वायत्त पहाड़ी विकास परिषद (LAHDC) चुनावों से ठीक पहले हो रहा है. उन्होंने सत्तारूढ़ भाजपा को 2020 के परिषद चुनावों के दौरान किए गए वादे की याद दिलाई, जिसमें लद्दाख को छठी अनुसूची का दर्जा देना उनके घोषणापत्र में सर्वोच्च प्राथमिकता थी. वांगचुक के विरोध प्रदर्शन को उनके संस्थान, हिमालयन इंस्टीट्यूट ऑफ अल्टरनेटिव लर्निंग (HIAL) के लिए भूमि आवंटन रद्द करने के प्रशासन के हालिया कदम से भी जोड़ा जा रहा है. प्रशासन ने दावा किया कि भूमि का उपयोग प्रस्तावित वैकल्पिक विश्वविद्यालय के लिए नहीं किया गया था, लेकिन वांगचुक और उनके समर्थक इसे उनकी आवाज को दबाने के लिए एक राजनीति से प्रेरित कदम मानते हैं. वांगचुक ने कहा, "यह सोनम वांगचुक पर हमला नहीं, बल्कि लद्दाख पर हमला है." इस कदम को क्षेत्र में संवैधानिक सुरक्षा उपायों की मांग करने वाले कार्यकर्ताओं को डराने-धमकाने की कोशिश के रूप में देखा जा रहा है. वांगचुक ने कहा है कि 35 दिनों की यह भूख हड़ताल विरोध का पहला चरण है. उन्होंने चेतावनी दी, "इस भूख हड़ताल में हमारी मृत्यु भी हो सकती है. अगर हम बच गए, तो हम छह और सप्ताह के लिए एक और भूख हड़ताल पर जाएंगे." आगामी पहाड़ी परिषद चुनाव भाजपा की विश्वसनीयता की परीक्षा होंगे. यदि केंद्र सरकार लद्दाख के लोगों की मांगों को संबोधित करने और बातचीत फिर से शुरू करने में विफल रहती है, तो यह विरोध और तेज हो सकता है, जिससे क्षेत्र में और अधिक राजनीतिक अस्थिरता पैदा हो सकती है.
प्रेस फ्रीडम
राष्ट्रमंडल देशों में प्रेस की स्वतंत्रता पर बड़ा ख़तरा, 2006 से 213 पत्रकार मारे गए: रिपोर्ट
राष्ट्रमंडल के 56 सदस्य देशों में से कई में राष्ट्रीय क़ानून प्रेस की स्वतंत्रता को गंभीर रूप से बाधित करते हैं और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार को अनुचित रूप से प्रतिबंधित करते हैं. यह बात कॉमनवेल्थ ह्यूमन राइट्स इनिशिएटिव (CHRI), कॉमनवेल्थ जर्नलिस्ट्स एसोसिएशन (CJA), और कॉमनवेल्थ लॉयर्स एसोसिएशन द्वारा प्रकाशित एक शोध रिपोर्ट में सामने आई है. यह रिपोर्ट राष्ट्रमंडल देशों में पत्रकारों और सरकार के आलोचकों की गंभीर स्थिति को उजागर करती है. यह बताती है कि कैसे पुराने और दंडात्मक क़ानूनों का इस्तेमाल असहमति को दबाने के लिए किया जा रहा है. यह लोकतंत्र के चौथे स्तंभ यानी मीडिया की स्वतंत्रता पर सीधे हमले को दर्शाता है और लोकतांत्रिक जवाबदेही के लिए एक बड़ा ख़तरा है. रिपोर्ट के अनुसार, 2006 और 2023 के बीच 19 राष्ट्रमंडल देशों में 213 पत्रकार मारे गए, और 96% मामलों में अपराधियों को न्याय के कठघरे में नहीं लाया गया. रिपोर्ट में कहा गया है कि 41 राष्ट्रमंडल देशों में मानहानि के लिए आपराधिक दंड बरकरार है; 48 में राजद्रोह से संबंधित क़ानून हैं; और 37 में ईशनिंदा जैसे क़ानून हैं. ये निष्कर्ष 30 से अधिक वरिष्ठ पत्रकारों और 35 वकीलों से मिली गवाही पर आधारित हैं.
रिपोर्ट में इस बात पर ज़ोर दिया गया है कि औपनिवेशिक युग के इन प्रतिबंधों का बना रहना अंतरराष्ट्रीय मानवाधिकार मानकों का सीधा उल्लंघन है. अक्टूबर 2024 में राष्ट्रमंडल नेताओं द्वारा मीडिया की स्वतंत्रता पर सिद्धांतों को अपनाने के बावजूद, ज़मीनी हकीकत में बहुत कम बदलाव आया है. रिपोर्ट राष्ट्रमंडल की पिछली निष्क्रियता की आलोचना करती है, जिसने कुछ सदस्य देशों में दमन और दंड से मुक्ति के माहौल को बढ़ावा दिया है.
रिपोर्ट को प्रकाशित करने वाले तीनों संगठनों ने सभी सदस्य देशों से सार्वजनिक भाषण को अपराध की श्रेणी में लाने वाले क़ानूनों को तत्काल निरस्त करने का आह्वान किया है. वे मीडियाकर्मियों और सार्वजनिक प्रहरी की भूमिका निभाने वाले अन्य लोगों को हिंसा और धमकी से बचाने के लिए निर्णायक कार्रवाई की भी मांग कर रहे हैं. राष्ट्रमंडल मंत्रिस्तरीय कार्रवाई समूह (CMAG) से भी आग्रह किया गया है कि वह मीडिया की स्वतंत्रता पर प्रणालीगत प्रतिबंधों को संबोधित करने के अपने जनादेश को पूरा करे.
अनंत अंबानी के 'वनतारा' का एसआईटी दौरा पूरा
सुप्रीम कोर्ट द्वारा नियुक्त विशेष जांच दल (SIT) ने अनंत अंबानी के 'वनतारा' चिड़ियाघर और बचाव-और-पुनर्वास केंद्र में कथित अनियमितताओं की जांच के सिलसिले में पिछले हफ़्ते सुविधा का तीन दिवसीय दौरा संपन्न किया. यह जांच उन आरोपों के बाद हो रही है कि वनतारा ने जंगल से अवैध रूप से पकड़े गए जानवरों का अधिग्रहण किया हो सकता है. वनतारा, जिसे दुनिया की सबसे बड़ी चिड़ियाघर और पुनर्वास सुविधा के रूप में प्रचारित किया गया है, एक हाई-प्रोफाइल परियोजना है. इस पर लगे आरोपों और सुप्रीम कोर्ट द्वारा SIT के गठन से इस परियोजना की पारदर्शिता और पशु कल्याण के प्रति इसकी प्रतिबद्धता पर गंभीर सवाल खड़े हो गए हैं.] यह मामला भारत में वन्यजीव संरक्षण और निजी संस्थाओं के संचालन में नियमों के पालन के महत्व को रेखांकित करता है. पत्रकार मौलिक पाठक की रिपोर्ट के अनुसार, SIT ने वनतारा के वरिष्ठ अधिकारियों से मुलाक़ात की, जानवरों के स्थानांतरण और क़ानूनी अनुमतियों से संबंधित दस्तावेज़ों की जांच की, और वहां के बाड़ों का भी निरीक्षण किया.SIT ने सुविधा को एक प्रश्नावली भरने के लिए भी कहा है और जांच में सहायता के लिए सीबीआई, ईडी और गुजरात पुलिस सहित अन्य एजेंसियों का सहयोग भी लिया है. सुप्रीम कोर्ट ने 25 अगस्त को पूर्व न्यायाधीश जे. चेलमेश्वर की अध्यक्षता में SIT का गठन किया था, जिसे 12 सितंबर तक अपनी रिपोर्ट सौंपनी है.
भारतीय आईटी सेक्टर पर मंडराया ख़तरा, अमेरिका में नौकरियों की आउटसोर्सिंग पर 25% टैक्स का बिल पेश
अमेरिकी कंपनियों के लिए भारत में तकनीकी नौकरियों को आउटसोर्स करना और अधिक महंगा हो सकता है, यदि पिछले हफ़्ते अमेरिकी सीनेट में पेश किया गया एक विधेयक क़ानून बन जाता है. रिपब्लिकन सीनेटर बर्नी मोरेनो ने अमेरिकी सीनेट में 'द हॉल्टिंग इंटरनेशनल रिलोकेशन ऑफ एम्प्लॉयमेंट एक्ट' (The Halting International Relocation of Employment Act) बिल पेश किया. इस बिल का उद्देश्य विदेशों में कर्मचारी रखने वाली अमेरिकी फर्मों से 25% टैक्स वसूलना है. भारत के आईटी आउटसोर्सिंग राजस्व का 60% से अधिक अमेरिकी ग्राहकों से आता है. यदि यह क़ानून बन जाता है, तो यह अमेरिकी कंपनियों को भारत में नौकरियों को आउटसोर्स करने से मिलने वाले लागत लाभ को समाप्त कर देगा. यह पहली बार है जब अमेरिकी टैरिफ बहस में सेवा उद्योग का उल्लेख किया गया है.
40 क्षेत्रीय दलों की आय 2,532 करोड़ रुपये, 70% हिस्सा चुनावी बॉन्ड से आया: एडीआर रिपोर्ट
नई दिल्ली: एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स (ADR) की गणना के अनुसार, लगभग 40 क्षेत्रीय दलों ने मार्च 2024 में समाप्त हुए वित्तीय वर्ष में 2,532 करोड़ रुपये की आय दर्ज की है. एडीआर ने पाया कि इस धन का लगभग तीन-चौथाई (70%) हिस्सा चुनावी बॉन्ड के माध्यम से आया. यह रिपोर्ट राजनीतिक दलों, विशेष रूप से क्षेत्रीय दलों की फंडिंग में चुनावी बॉन्ड की अत्यधिक महत्वपूर्ण भूमिका को उजागर करती है. सुप्रीम कोर्ट द्वारा चुनावी बॉन्ड को असंवैधानिक घोषित किए जाने से पहले, यह राजनीतिक चंदे का एक प्रमुख स्रोत था. ये आंकड़े राजनीतिक फंडिंग में पारदर्शिता की बहस को और तेज़ करते हैं. रिपोर्ट के अनुसार, उस वर्ष आय के मामले में तीन सबसे बड़ी पार्टियां भारत राष्ट्र समिति (BRS), तृणमूल कांग्रेस (TMC) और बीजू जनता दल (BJD) थीं. बीआरएस ने 685.51 करोड़ रुपये की उच्चतम आय दर्ज की, इसके बाद टीएमसी ने 646.39 करोड़ रुपये और बीजेडी ने 297.81 करोड़ रुपये की आय दर्ज की. इन शीर्ष पांच दलों की आय 40 क्षेत्रीय दलों द्वारा घोषित कुल आय का 83.17% थी. रिपोर्ट में एक महत्वपूर्ण बात यह भी सामने आई है कि 20 क्षेत्रीय दलों का डेटा समय सीमा के 313 दिन बाद भी चुनाव आयोग की वेबसाइट पर उपलब्ध नहीं कराया गया था.
त्रिपुरा में उल्टा पड़ा नागरिकता देने का फैसला
केंद्रीय गृह मंत्रालय का कुछ धार्मिक अल्पसंख्यकों को नागरिकता देने का फैसला त्रिपुरा में उलटा पड़ गया है, जहां सत्तारूढ़ भाजपा की सहयोगी पार्टी टिपरा मोथा और विपक्षी भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी), दोनों ने इस कदम को संवैधानिक सिद्धांतों से अधिक राजनीतिक गणनाओं को तरजीह देने वाली साज़िश करार दिया है. सप्ताहांत में आयोजित एक प्रेस कॉन्फ्रेंस में टिपरा मोथा के विधायक रंजीत देबबर्मा ने घोषित किया कि उनकी पार्टी नागरिकता संशोधन नीतियों को पूरी तरह अस्वीकार करती है. देबबर्मा ने कहा, “टिपरा मोथा कभी भी नागरिकता (संशोधन) अधिनियम का समर्थन नहीं करेगी. हम इस आदेश को कभी स्वीकार नहीं करेंगे.”
'अगर लोकतंत्र का कोई अंग अपने कर्तव्यों का निर्वहन करने में विफल रहता है तो अदालत चुप नहीं बैठेगी': सुप्रीम कोर्ट
सुप्रीम कोर्ट ने एक राष्ट्रपति संदर्भ (Presidential Reference) की सुनवाई के अंतिम दिन दृढ़ता से कहा कि यदि कोई संवैधानिक प्राधिकारी अपने कर्तव्यों का निर्वहन करने में विफल रहता है, तो वह "चुप नहीं बैठेगा" और शक्तिहीन नहीं रहेगा, चाहे वह कितना भी ऊंचा क्यों न हो. यह टिप्पणी उन राज्यपालों के संदर्भ में की गई जो विधेयकों को मंजूरी देने में देरी करते हैं. यह फैसला न्यायपालिका की स्थिति को संविधान के संरक्षक के रूप में मज़बूत करता है. यह उन राज्यपालों को एक कड़ा संदेश भेजता है, जिन पर विपक्ष-शासित राज्यों में विधेयकों पर बैठकर शासन में बाधा डालने का आरोप लगता रहा है.
भारत के मुख्य न्यायाधीश बी.आर. गवई ने गुरुवार को केंद्र सरकार से पूछा, "यदि लोकतंत्र का एक अंग अपने कर्तव्यों के निर्वहन में विफल रहता है, तो क्या अदालत, जो संविधान की संरक्षक है, शक्तिहीन होकर चुप बैठने को मजबूर होगी?" यह सुनवाई सुप्रीम कोर्ट के 8 अप्रैल के एक फैसले पर राष्ट्रपति के संदर्भ को लेकर हो रही है, जिसमें राज्यपालों और राष्ट्रपति के लिए उनके समक्ष रखे गए विधेयकों पर विचार करने के लिए तीन महीने की समय सीमा तय की गई थी. केंद्र सरकार ने सभी विधेयकों के लिए एक समान समय-सीमा "थोपने" का विरोध किया.
यह मामला कई राज्य सरकारों और केंद्र द्वारा नियुक्त राज्यपालों के बीच चल रहे टकराव में एक महत्वपूर्ण घटनाक्रम है. अदालत ने स्पष्ट किया कि वह राज्यपाल को किसी विशेष तरीके से निर्णय लेने के लिए नहीं कह सकती, लेकिन वह राज्यपाल को निर्णय लेने के लिए कह सकती है. अदालत राज्यपालों की विवेकाधीन शक्तियों पर एक संवैधानिक नियंत्रण स्थापित करने का प्रयास कर रही है, ताकि यह सुनिश्चित हो सके कि निर्वाचित विधायिकाओं द्वारा पारित कानूनों को अनिश्चित काल तक रोका न जा सके. सुप्रीम कोर्ट ने राष्ट्रपति संदर्भ पर अपना फैसला सुरक्षित रख लिया है.
मोदी का लेख, ‘भागवत कृपा’ पाने की बेताबी भरी कोशिश : कांग्रेस
कांग्रेस ने आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत के 75वें जन्मदिन पर आज के प्रमुख अखबारों में प्रकाशित लेखों को लेकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर तीखा हमला किया. कांग्रेस ने इसे “आरएसएस नेतृत्व की कृपा पाने की बेताबी भरी कोशिश” करार दिया. कांग्रेस महासचिव जयराम रमेश ने कहा, “प्रधानमंत्री ने स्वामी विवेकानंद के 1893 के शिकागो भाषण का ज़िक्र किया और 11 सितंबर 2001 को अमेरिका में हुए आतंकी हमलों का भी उल्लेख किया. लेकिन, ज़ाहिर है, उन्होंने 11 सितंबर 1906 को पूरी तरह नज़रअंदाज़ कर दिया, जब महात्मा गांधी ने जोहान्सबर्ग में दुनिया को सत्याग्रह का विचार दिया था.” इसे उन्होंने “हद से ज़्यादा किया गया सम्मान” बताया. व्यंग्य करते हुए उन्होंने टिप्पणी की, “बेशक, प्रधानमंत्री से यह उम्मीद करना बहुत ज़्यादा है कि वे सत्याग्रह की उत्पत्ति याद रखें, क्योंकि सत्य शब्द ही उनके लिए पराया है.”
लोकसभा में कांग्रेस के मुख्य सचेतक माणिकम टैगोर ने 75 वर्ष की आयु पर वरिष्ठ भाजपा नेताओं के साथ हुए व्यवहार की तुलना करते हुए मोदी पर प्रहार किया. उन्होंने लिखा, “आडवाणी जी: ‘नियम है नियम, पद छोड़ो.’ मुरली मनोहर जोशी जी: ‘नियम है नियम, शालीनता से सेवानिवृत्त हो जाओ.’ मोहन भागवत जी: मोदी ‘विज़डम एंड ट्रस्ट’ पर कविता लिखते हैं.” यह टिप्पणी उन्होंने “एक्स” पर पोस्ट की.
प्रधानमंत्री का यह संवाद ऐसे समय हो रहा है, जब उनकी पार्टी ने अब तक अध्यक्ष जे.पी. नड्डा के उत्तराधिकारी का चुनाव नहीं किया है, जबकि उनके कार्यकाल को समाप्त हुए डेढ़ साल से भी अधिक का समय हो गया है. इस मुद्दे पर आरएसएस के साथ गतिरोध सुलझाने में पार्टी विफल रही है.
अजय आशीर्वाद महाप्रशस्ता के अनुसार, संघ ऐसा अध्यक्ष चाहता है, जो केवल मोदी और शाह का “रबर स्टाम्प” न बने. इसीलिए संघ ने मोदी के राजनीतिक विरोधी संजय जोशी का नाम आगे रखा, जिससे पहले से ही अस्थिर माहौल, परिवार में और भी बिगड़ गया. संभावना है कि बिहार चुनाव तक भाजपा नया अध्यक्ष चुन लेगी, लेकिन “सहमति होती नहीं दिख रही” और यह केवल “समय की बात है कि कोई एक दूसरे को पछाड़ दे.
(Credit: X/@manickamtagore)
चुनाव आयोग ने देश भर में ‘एसआईआर’ कराने पर अंतिम निर्णय नहीं लिया
चुनाव आयोग (ईसीआई) इस साल के अंत से पहले मतदाता सूची का विशेष गहन पुनरीक्षण (एसआईआर) शुरू कर सकता है, लेकिन अभी तक यह तय नहीं हुआ है कि यह प्रक्रिया एकसाथ पूरे देश में या चरणबद्ध तरीके से की जाएगी. इस मुद्दे पर बुधवार को हुई उच्च-स्तरीय बैठक में मौजूद कम से कम पांच अधिकारियों ने यह जानकारी दी.
अधिकारियों के अनुसार, अभी कोई अंतिम फैसला नहीं लिया गया है, क्योंकि मामला सुप्रीम कोर्ट में लंबित है. वृंदा तुलसियान का कहना है कि आयोग संभवतः कोर्ट के ठोस निर्देश की प्रतीक्षा करेगा. विशेष पुनरीक्षण की घोषणा वर्ष के अंत तक की जा सकती है.
बैठक में सभी राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों के प्रतिनिधि मौजूद थे, नागालैंड इसका अपवाद रहा. सम्मेलन आठ घंटे तक चला और इसमें राज्य-स्तरीय तैयारियों की समीक्षा की गई.
उद्घाटन भाषण में मुख्य निर्वाचन आयुक्त ज्ञानेश कुमार ने विशेष पुनरीक्षण की अहमियत पर जोर देते हुए कहा कि इसमें अयोग्य नामों को हटाकर योग्य मतदाताओं को शामिल किया जाना चाहिए. उन्होंने कहा – “कोई भी जो भारत का नागरिक नहीं है, जिसकी उम्र 18 वर्ष से कम है या जो एक से अधिक जगहों पर पंजीकृत है, उसे मतदाता सूची में नहीं रहना चाहिए. कांग्रेस नेता अभिषेक मनु सिंघवी ने सवाल उठाया कि जब लगभग सभी लेन-देन के लिए आधार अनिवार्य है, तो इस प्रक्रिया में आधार को शामिल क्यों नहीं किया गया. वहीं, पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने कहा कि चुनाव से 2-3 महीने पहले एसआईआर करना संभव नहीं है. यह जल्दबाजी में केवल भाजपा को लाभ पहनचाने की कोशिश है.
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