13/08/2025: केंचुआ की लिस्ट में मुर्दा, अदालत में जिंदा | नागरिकता की कसौटी | संकट में मोदी या भारत? | ग़ाज़ा के पत्रकार का इजराइल के हाथों मरने से पहले आखिरी बयान
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निधीश त्यागी, साथ में राजेश चतुर्वेदी, गौरव नौड़ियाल
आज की सुर्खियां
वोटिंग लिस्ट के मुर्दा, सुप्रीम कोर्ट में जिंदा पाए गये
दुनिया की सबसे उम्रदराज वोटर मिंता देवी, उम्र-124 वर्ष.. बिहार में ये कैसा "एसआईआर"?
चुनाव आयोग में गिनती का घालमेल काफी समय से जारी है
सरकार स्पष्ट नहीं बता पाई कि नागरिकता साबित करने के लिए मान्य दस्तावेज कौन-कौन से हैं?
अमेरिकी कोर्ट : 6 माह बीते, लेकिन रिश्वत केस में अडानी और अन्य को अब तक समन सर्व नहीं
मुनीर ने अंबानी की रिफाइनरी को भी टारगेट करने की धमकी दी
ग़ाज़ा में इजराइली जनसंहार पर प्रियंका के पोस्ट के बाद इजराइली राजदूत की अभद्र टिप्पणी
ग़ाज़ा में इज़राइल द्वारा मारे गए पत्रकार अनस अल-शरीफ़ का आख़िरी बयान
बिहार में "एसआईआर" :
वोटिंग लिस्ट के मुर्दा, सुप्रीम कोर्ट में जिंदा पाए गये
योगेंद्र यादव ने दो लोगों को सुप्रीम कोर्ट में पेश कर बताया, ये ज़िंदा हैं, लेकिन "मरा" बता दिया
राजनीतिक कार्यकर्ता योगेंद्र यादव ने मंगलवार को सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश जस्टिस सूर्यकांत और जस्टिस जॉयमाल्या बागची की बेंच के सामने दो ऐसे व्यक्तियों को पेश किया, जिन्हें चुनाव आयोग की बिहार में मतदाता सूची की विशेष गहन पुनरीक्षण (एसआईआर) प्रक्रिया में कथित रूप से “मृत” घोषित कर दिया गया है.
यादव ने सुप्रीम कोर्ट से कहा, “हम दुनिया के इतिहास में सबसे बड़े पैमाने पर मताधिकार छीनने की कार्रवाई देख रहे हैं. 65 लाख नाम हटाए गए हैं. भारत के इतिहास में ऐसा कभी नहीं हुआ.” उन्होंने तर्क दिया, “छूटे हुए मतदाताओं का आंकड़ा एक करोड़ पार करना तय है. यह किसी साधारण संशोधन का मामला नहीं है. कृपया इन्हें देखें—इन्हें मृत घोषित कर दिया गया है. ये सूची में नहीं दिखते, लेकिन ये जीवित हैं. इन्हें देखें.” इस पर चुनाव आयोग की तरफ से वरिष्ठ वकील राकेश द्विवेदी, दो "मृत" मतदाताओं की अचानक उपस्थिति से हैरान होकर बोले, “यह कैसा नाटक है?”
सुप्रीम कोर्ट ने चुनाव आयोग से उस याचिका पर जवाब मांगा था, जिसमें आयोग को यह निर्देश देने की मांग की गई थी कि "एसआईआर" के बाद ड्राफ्ट मतदाता सूची से हटाए गए 65 लाख मतदाताओं के विवरण सार्वजनिक किए जाएं. यादव इस मामले में याचिकाकर्ताओं में से एक हैं. अपनी दलील में यादव ने कहा कि बिहार में मतदाताओं को बाहर करने की प्रक्रिया पहले ही शुरू हो चुकी है, और यदि इसे आगे बढ़ाया गया तो देश के किसी भी हिस्से में यही नतीजा सामने आएगा.
जब जस्टिस सूर्यकांत ने पूछा कि क्या 2003 में, जब चुनाव आयोग ने आखिरी बार एसआईआर किया था, तब कोई प्रभाव अध्ययन किया गया था, तो यादव ने जवाब दिया: “कभी भी कोई तुलना नहीं की गई. इस देश के इतिहास में कभी भी सभी लोगों से संशोधन प्रक्रिया में अपने फॉर्म भरने के लिए नहीं कहा गया था. अगर यह 2003 में हुआ था, तो चुनाव आयोग को यह बताना चाहिए.” उन्होंने यह भी बताया कि भारत के चुनावी इतिहास में पहली बार ऐसा हुआ है कि मतदाता सूची में एक भी मतदाता का नाम जोड़े बगैर ही "एसआईआर" प्रक्रिया संपन्न हो गई है.
जस्टिस बागची ने कहा कि दो व्यक्तियों को मृत घोषित किया जाना संभवतः एक "अनजाने में हुई गलती" हो सकती है.“इसे सुधारा जा सकता है, लेकिन आपकी बातें बिल्कुल सही हैं,” जस्टिस ने कहा. यादव ने कहा कि ड्राफ्ट सूची से 31 लाख महिला मतदाताओं और 25 लाख पुरुष मतदाताओं के नाम हटा दिए गए हैं. यह बड़े पैमाने पर नाम हटाने की प्रक्रिया थी. वे (चुनाव आयोग) पूरे राज्य में गए और एक भी नया नाम जोड़ने की जरूरत नहीं समझी. “तो मैं अपील करता हूं... फैसला सूची के फ्रीज़ होने के बाद लिया गया तब तो फिर अगले पांच साल के लिए ‘शुभकामनाएं'. यह भयावह है.”
बीडीओ ही ईआरओ है और बिहार में बाढ़ है
यादव ने यह भी बताया कि इस समय बिहार में निर्वाचन पंजीकरण अधिकारियों (ईआरओ) पर काम का बहुत बोझ है.मैंने कभी नहीं सुना कि कानूनी आदेश प्रेस विज्ञप्तियों द्वारा बदले जाएं. चुनाव आयोग के अनुसार इन सभी 7.24 करोड़ फॉर्मों की जांच करनी होगी. चुनाव आयोग की नियम पुस्तिका का कहना है कि हर ईआरओ को हर दिन 4,600 फॉर्म का मिलान करना होता है. वही अधिकारी बीडीओ भी हैं और अभी बिहार में बाढ़ है,” यादव ने कहा.
सुप्रीम कोर्ट ने कहा, "यह भरोसे की कमी का मामला लगता है, और कुछ नहीं"
बिहार में "एसआईआर" की संवैधानिक वैधता को चुनौती देने वाले याचिकाकर्ताओं को फ़िलहाल सुप्रीम कोर्ट से कोई राहत नहीं मिली है. याचिकाकर्ताओं के एक समूह ने मंगलवार को सुप्रीम कोर्ट को बताया कि 1 अगस्त को प्रकाशित ड्राफ्ट मतदाता सूची से लगभग 65 लाख मतदाताओं को, बिना उनके नाम शामिल करने पर किसी प्रकार की आपत्ति के, बाहर कर देना ग़ैरक़ानूनी है. राजद सांसद मनोज कुमार झा और कई अन्य की ओर से पेश होते हुए वरिष्ठ वकील कपिल सिब्बल ने कहा, “निवासियों के पास आधार, राशन और एपिक कार्ड होने के बावजूद अधिकारियों ने इन दस्तावेज़ों को स्वीकार करने से इनकार कर दिया. लोग अपने माता-पिता के जन्म प्रमाण पत्र और अन्य दस्तावेज़ ढूंढ़ने के लिए संघर्ष कर रहे थे. सिब्बल की दलीलों को सुनने के बाद, जस्टिस सूर्यकांत की अध्यक्षता वाली दो जजों की बेंच ने उनसे कहा, “आप बहुत व्यापक वक्तव्य दे रहे हैं कि बिहार में किसी के पास दस्तावेज़ नहीं हैं. अगर बिहार में ऐसा हो रहा है, तो देश के अन्य हिस्सों में क्या होगा?” सुचित्रा कल्याण मोहंती के अनुसार, कोर्ट ने टिप्पणी की कि यह “ज़्यादातर भरोसे की कमी का मामला लगता है, और कुछ नहीं.” सुप्रीम कोर्ट ने इस बात से भी सहमति जताई कि चुनाव आयोग का आधार कार्ड और मतदाता पहचान पत्र को नागरिकता का निर्णायक प्रमाण न मानने का निर्णय सही है, और कहा कि नागरिकता साबित करने के लिए अन्य दस्तावेज़ों का भी सहारा लेना आवश्यक है.
बेगूसराय में 37 मृत लोगों के नाम ड्राफ्ट मतदाता सूची में दर्ज हो गए
बिहार में कांग्रेस की बेगूसराय इकाई ने जिले के एक मतदान केंद्र पर 37 मृत मतदाताओं की सूची जमा की है, जिनके नाम 1 अगस्त को जारी ड्राफ्ट मतदाता सूची में शामिल हैं. "द हिंदू" को एक कार्यकर्ता ने बताया कि “ड्राफ्ट मतदाता सूची पर काम करते समय हमें बेगूसराय जिले के तेघड़ा विधानसभा क्षेत्र के मतदान केंद्र संख्या 274 पर कुल 37 मृत मतदाताओं के नाम मिले. इसके अलावा कई अन्य गड़बड़ियां भी मिलीं, जैसे कि कई वास्तविक मतदाताओं के नाम सूची से हटा दिए गए थे.”
कार्टून | मंजुल
दुनिया की सबसे उम्रदराज वोटर मिंता देवी, उम्र-124 वर्ष.. बिहार में ये कैसा "एसआईआर"?
मंगलवार को संसद परिसर में विपक्षी "इंडिया" ब्लॉक के सांसदों ने सफेद टी-शर्ट पहनकर प्रदर्शन किया, जिन पर “मिंता देवी 124 नॉट आउट” का नारा लिखा था. मिंता देवी कौन हैं? लोकसभा में विपक्ष के नेता राहुल गांधी ने चुनाव आयोग का जिक्र करते हुए बताया कि बिहार के दरौंदा विधानसभा सीट (सीवान लोकसभा क्षेत्र के अंतर्गत) में, अर्जानीपुर स्थित कन्या उत्क्रमित विद्यालय पर पंजीकृत, 124 वर्षीया मिंता देवी पहली बार मतदान करने वाली मतदाता हैं.
चुनाव आयोग द्वारा राज्य में होने वाले आगामी चुनावों से पहले मतदाता सूची के "एसआईआर" के तुरंत बाद, और राहुल गांधी द्वारा मतदाता सूची में हेराफेरी व धोखाधड़ी के सबूत बताए जाने वाली प्रस्तुति के बीच, मिंता देवी का नाम सामने आया है. कांग्रेस नेता पवन खेड़ा ने "एक्स" पर लिखा, "हम गर्व से मिंता देवी को गिनीज वर्ल्ड रिकॉर्ड के लिए नामांकित करते हैं: भारत में सबसे युवा दिखने वाली सबसे बुजुर्ग महिला – जो केंद्रीय चुनाव आयोग के कई चमत्कारों की देन है.
इस साल मई में, बीबीसी ने रिपोर्ट किया था कि ब्रिटेन की एथेल कैटरहैम, जो सरे के लाइटवॉटर में एक केयर होम में रहती हैं, ब्राजील की नन सिस्टर इनाह कनाबारो लुकास के निधन के बाद सबसे उम्रदराज जीवित व्यक्ति हैं. उनकी उम्र 116 वर्ष है. कैटरहैम अपना 116वां जन्मदिन 21 अगस्त को मनाएंगी. वहीं, मिंता देवी की जन्मतिथि 15 जुलाई 1900 बताई गई है.
कांग्रेस सांसद के.सी. वेणुगोपाल ने कहा, "चुनाव आयोग ने मानवजाति की बड़ी सेवा की है. उन्होंने सबसे उम्रदराज जीवित व्यक्ति, मिंता देवी की खोज की है. चुनाव आयोग द्वारा की गई भारी मतदाता धोखाधड़ी कभी स्वीकार नहीं की जाएगी. "इंडिया" ब्लॉक तब तक विरोध करता रहेगा जब तक इसे रोका नहीं जाता." कांग्रेस सांसद माणिकम टैगोर ने कहा, "यह सिर्फ एक प्रशासनिक त्रुटि नहीं है - यह बड़े पैमाने पर मतदाता धोखाधड़ी का सबूत है. संसद में विरोध प्रदर्शन के दौरान मिंता देवी के बारे में पूछे जाने पर राहुल ने जवाब दिया: "पिक्चर अभी बाकी है."
बंद दरवाज़े, गायब डेटा: चुनाव आयोग में गिनती का घालमेल काफी समय से जारी है
मुंबई: जितने मतदाता उससे ज़्यादा वोट.
यह वह गड़बड़ी है जिसे खोजी पत्रकार पूनम अग्रवाल 2018 से 2024 तक ट्रैक कर रही हैं. यह विसंगतियां इतनी बड़ी हैं कि भारत के चुनावों में दर्जनों सीटों के नतीजों को प्रभावित कर सकती हैं. अब, जब राहुल गांधी ने 7 अगस्त 2025 को एक प्रेस कॉन्फ्रेंस में "वोट चोरी" का आरोप लगाया, तो अग्रवाल ने चेतावनी दी है कि चुनाव आयोग (EC) की चुप्पी न केवल टालमटोल है, बल्कि भारत में स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनावों के विचार के लिए एक बड़ा खतरा है. आर्टीकल 14 मे कुणाल पुरोहित ने पूनम से बात की है.
आर्टिकल14 को दिए एक इंटरव्यू में, 45 वर्षीय अग्रवाल ने गांधी के आरोपों को "बहुत गंभीर" बताया. उन्होंने कहा कि यह इस बात पर "सीधा प्रहार" है कि क्या हमारे देश में वास्तव में स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव हो भी रहे हैं. दो दशकों से अधिक के अनुभव वाली एमी-नामांकित पत्रकार पूनम अग्रवाल 'ExplainX' नाम से एक यूट्यूब चैनल चलाती हैं और 2025 में आई किताब 'इंडिया इंक्ड—इलेक्शंस इन द वर्ल्ड्स लार्जेस्ट डेमोक्रेसी' की लेखिका हैं. अग्रवाल ने कहा कि वर्षों से चुनाव आयोग के भीतर पारदर्शिता में गिरावट आई है और गांधी के निष्कर्षों पर आयोग की प्रतिक्रिया जवाब देने के बजाय "और ज़्यादा सवाल खड़े कर रही है".
राहुल गांधी ने अपनी पार्टी के उम्मीदवार मंसूर अली खान की 2024 में बेंगलुरु सेंट्रल संसदीय क्षेत्र के महादेवपुरा विधानसभा क्षेत्र में हुई हार पर ध्यान केंद्रित किया. उन्होंने कहा कि उनकी पार्टी ने पाया कि पांच तरीकों से 100,250 वोट "चुराए" गए थे: कई मतदाता सूचियों में डुप्लिकेट मतदाता, नकली या अपुष्ट पते वाले मतदाता, एक ही पते पर कई मतदाता, अयोग्य मतदाता और अमान्य तस्वीरों वाले मतदाता.
अग्रवाल की चुनाव आयोग पर पहली जांच 2018 में मध्य प्रदेश राज्य चुनावों के बाद हुई, जब उन्हें पता चला कि डाले गए और गिने गए वोटों की संख्या में मेल नहीं था. 2024 के आम चुनावों के बाद, उन्होंने पाया कि कम से कम 140 लोकसभा सीटों पर डाले गए वोटों से ज़्यादा वोटों की गिनती हुई. अग्रवाल ने कहा कि बड़ा संकट चुनाव आयोग की चुप्पी और पारदर्शिता का लगातार खत्म होना है, जो दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र होने के भारत के दावे पर सीधा हमला है.
2019 से पहले, चुनाव आयोग नियमित रूप से हर निर्वाचन क्षेत्र के लिए डाले गए वोटों के पूर्ण आंकड़े अपनी वेबसाइट पर प्रकाशित करता था. लेकिन 2019 के बाद, यह प्रक्रिया बदल गई. आयोग ने शुरुआती अपडेट में पूर्ण संख्या को रोक दिया, जिससे पारदर्शिता कम होने के आरोप लगे. पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त एस.वाई. कुरैशी ने भी कहा था कि डेटा जारी करने में देरी का कोई औचित्य नहीं है. अग्रवाल के सूचना का अधिकार (RTI) कानून का उपयोग करके डेटा प्राप्त करने के प्रयासों को या तो प्रतिरोध का सामना करना पड़ा या उन्हें अनदेखा कर दिया गया.
यह प्रवृत्ति अन्य घटनाओं से भी मेल खाती है. चुनाव आयोग ने सुप्रीम कोर्ट में बिहार की मतदाता सूची से हटाए गए 6.5 मिलियन मतदाताओं के नाम उजागर करने से इनकार कर दिया. स्क्रॉल और न्यूज़लॉन्ड्री जैसी मीडिया रिपोर्ट्स ने भी मतदाता सूचियों में गंभीर गड़बड़ियां उजागर की हैं, जैसे कि नामों की जगह सिर्फ विराम चिह्नों का होना. इन आरोपों को खारिज करते हुए, चुनाव आयोग ने गांधी के दावों को "भ्रामक" कहा है और उनसे शपथ पत्र जमा करने या "बेतुके आरोप" लगाने के लिए "राष्ट्र से माफी मांगने" को कहा है. इस पर अग्रवाल ने कहा, "चुनाव आयोग को सबूतों के साथ सामने आने की ज़रूरत है. सिर्फ यह कहना कि आरोप निराधार हैं, काफी नहीं है".
सरकार स्पष्ट नहीं बता पाई कि नागरिकता साबित करने के लिए मान्य दस्तावेज कौन-कौन से हैं?
केंद्र सरकार मंगलवार को लोकसभा में स्पष्ट रूप से यह नहीं बता पाई कि भारत में नागरिकता साबित करने के लिए मान्य दस्तावेज कौन-कौनसे हैं? "द हिंदू" में विजयेता सिंह के अनुसार, लोक सभा में एक प्रश्न के उत्तर में गृह मंत्रालय ने आवश्यक "मान्य दस्तावेजों की श्रेणियों" का विशेष उल्लेख नहीं किया. मंत्रालय ने बताया कि नागरिकता का प्रावधान नागरिकता अधिनियम, 1955 और इसके नियमों द्वारा नियंत्रित होता है.
गृह मंत्रालय ने कहा कि बिहार में 1998 और 1999 के लिए जन्म पंजीकरण का डेटा उपलब्ध नहीं है.बिहार में वर्तमान में मतदाता सूची का विशेष गहन पुनरीक्षण चल रहा है, जिसमें चुनाव आयोग द्वारा मतदाता सूची में शामिल होने के लिए प्रस्तुत किए जा सकने वाले 11 दस्तावेजों में जन्म प्रमाण पत्र भी शामिल है.
कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया-लिबरेशन (सीपीआई-एल) के सदस्य सुदामा प्रसाद ने पूछा था कि भारत में नागरिकता साबित करने के लिए कौन-कौन से वैध दस्तावेजों की श्रेणियां आवश्यक हैं, और पिछले 25 वर्षों में देश में कितने जन्म प्रमाण पत्र जारी किए गए तथा क्या सरकार को राज्यों से जन्म और मृत्यु प्रमाण पत्र के जारी होने की कम कवरेज के बारे में रिपोर्ट मिली है? इसके साथ ही प्रसाद ने शीर्ष 10 राज्यों की सूची भी मांगी थी.
गृह राज्य मंत्री नित्यानंद राय ने एक लिखित उत्तर में स्वीकार्य दस्तावेजों का उल्लेख किए बिना, कहा कि नागरिकता “जन्म (धारा 3), वंश (धारा 4), पंजीकरण (धारा 5), प्राकृतिककरण (धारा 6) या क्षेत्र के विलय (धारा 7) के माध्यम से, नागरिकता अधिनियम, 1955 के तहत प्राप्त की जा सकती है. नागरिकता के अधिग्रहण और निर्धारण के लिए पात्रता मानदंड, नागरिकता अधिनियम, 1955 और उसके तहत बनाए गए नियमों के प्रावधानों के अनुसार हैं.”
उत्तर में यह भी जोड़ा गया कि देश में जन्म और मृत्यु का पंजीकरण “जन्म और मृत्यु पंजीकरण अधिनियम, 1969” नामक एक केंद्रीय कानून के प्रावधानों के अंतर्गत किया जाता है. राज्यों के पंजीकरण प्राधिकरणों से प्राप्त जन्म और मृत्यु के पंजीकरण संबंधी वार्षिक रिपोर्ट के आधार पर, महानिबंधक एवं जनगणना आयुक्त का कार्यालय “भारत के महत्वपूर्ण सांख्यिकी (सिविल पंजीकरण प्रणाली आधारित)” नामक वार्षिक रिपोर्ट प्रकाशित करता है.
इस उत्तर में कहा गया, "1998 से 2000 की अवधि के दौरान, राज्यों/संघ राज्य क्षेत्रों के कुल पंजीकृत जन्म/मृत्यु के आंकड़ों में बिहार का 1998 और 1999 का डेटा शामिल नहीं था." साल 2001 में कुल पंजीकृत जन्म/मृत्यु के आंकड़ों में उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड का डेटा शामिल नहीं था, और उत्तराखंड का डेटा वर्ष 2002-2003 में उपलब्ध नहीं था; त्रिपुरा का डेटा वर्ष 2005 और 2007-2009 में उपलब्ध नहीं था; और जम्मू-कश्मीर का डेटा वर्ष 2012 में उपलब्ध नहीं था. साल 2016 के कुल पंजीकृत जन्म और मृत्यु के आंकड़ों में मणिपुर और मेघालय का डेटा भी शामिल नहीं था.
हरकारा डीपडाइव
श्रवण गर्ग : मोदी संकट में नहीं हैं, भारत संकट में है.
“हरकारा डीपडाइव में वरिष्ठ पत्रकार श्रवण गर्ग के साथ निधीश त्यागी ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के 11वें साल और भारत के बारे में बात की. यह एक ऐसा समय है जब हर तरफ़ से चुनौतियाँ एक 'परफेक्ट स्टॉर्म' की तरह घिर आई हैं. चाहे वो डोनाल्ड ट्रम्प का लगातार दबाव हो, देश के भीतर चुनाव प्रक्रिया पर गहराता संदेह हो, या अर्थव्यवस्था और सामाजिक ताने-बाने को लेकर बढ़ती असहजता हो.
चर्चा की शुरुआत इस सवाल से हुई कि क्या यह मोदी का सबसे मुश्किल दौर है? श्रवण जी ने इस धारणा को जड़ से ही बदल दिया. उन्होंने कहा, "यह नरेंद्र मोदी का समय नहीं है, यह भारत का समय है. और नरेंद्र मोदी संकट में नहीं हैं, भारत संकट में है." उनका तर्क था कि देश ने या सत्ता ने नरेंद्र मोदी को ही देश का पर्याय बना दिया है, इसलिए जब हम उन्हें संकट में देखते हैं तो हमें लगता है कि देश संकट में है. असली ख़तरा इससे कहीं ज़्यादा बड़ा है. यह एक नेता के उतार-चढ़ाव की कहानी नहीं, बल्कि एक लोकतंत्र के "धर्म परिवर्तन" की कहानी है. एक ऐसी प्रक्रिया, जिसमें भारत का लोकतांत्रिक ढाँचा चुपचाप एक तानाशाही व्यवस्था में बदला जा रहा है. यह एक ऐसी ग्राफ्टिंग है जो हमारे देश के मूल स्वभाव या उसकी 'स्पाइन' में कभी नहीं रही.
थाईलैंड की गुफा और भारत की सुरंग
इस स्थिति को समझाने के लिए श्रवण जी ने एक शक्तिशाली रूपक का इस्तेमाल किया. उन्होंने कहा कि हम सब आज थाईलैंड की गुफा में फँसी उस फुटबॉल टीम की तरह नहीं, बल्कि झारखंड की किसी कोयला खदान या उत्तराखंड की किसी सुरंग में फँसे उन मजदूरों की तरह हैं, जिन्हें यह भरोसा नहीं है कि बाहर निकालने वाला कोई है भी या नहीं. थाईलैंड के बच्चों को अपनी सरकार, अपने लोगों और अपनी प्रार्थनाओं पर विश्वास था, इसलिए वे सुरक्षित निकल आए. क्या आज भारतीयों को अपनी संस्थाओं पर वैसा ही विश्वास है? यह सवाल आज चुनाव आयोग से लेकर न्यायपालिका तक हर संस्था पर लागू होता है. जब चुनाव आयोग एक विपक्षी नेता से हलफ़नामा माँगता है या अदालतें किसी नागरिक से उसकी 'भारतीयता' का सबूत माँगती हैं, तो यह संकट किसी व्यक्ति का नहीं, बल्कि पूरे सिस्टम के चरमराने का संकेत है.
एक 'बुली' जब बड़े 'बुली' से मिलता है
प्रधानमंत्री मोदी की छवि हमेशा एक मज़बूत और आक्रामक नेता की रही है, जो "लाल आँखें" दिखाने से नहीं डरता. लेकिन डोनाल्ड ट्रम्प के रूप में उन्हें एक ऐसा 'बुली' मिला है, जिसका जवाब देते नहीं बन रहा. रोज़ाना भारत की फजीहत हो रही है और सरकार की तरफ़ से सिर्फ़ कुनमुनाने की आवाज़ आती है. लेकिन श्रवण गर्ग अमेरिका और भारत के 'बुली' में एक बुनियादी फ़र्क बताते हैं. ट्रम्प का अमेरिका में ज़बरदस्त विरोध हो रहा है, वहाँ की संस्थाएँ और नागरिक लड़ रहे हैं, और सबको पता है कि तीन साल बाद वह चला जाएगा. इसके विपरीत, भारत में यह डर गहरा रहा है कि मौजूदा नेतृत्व शायद कभी न जाए. यह डर ही है जो लोगों को राहुल गांधी के इर्द-गिर्द एक "भावनात्मक कवच" बनाने पर मजबूर कर रहा है, क्योंकि शायद वही आख़िरी उम्मीद दिखते हैं.
कमज़ोर होता नेता, ज़्यादा क्रूर होती सत्ता
बातचीत का सबसे चिंताजनक निष्कर्ष यह था कि जब कोई सत्तावादी नेता कमज़ोर महसूस करता है, तो वह और ज़्यादा ताक़तवर और क्रूर बन जाता है ताकि वह सत्ता में बना रहे. श्रवण जी ने डर जताया कि इंदिरा गांधी ने चुनाव करवाकर जो "ग़लती" की थी, मोदी सरकार शायद उसे न दोहराए. हो सकता है कि बिहार या लोकसभा के चुनाव ही न हों, या कोई बड़ा "व्यवस्था परिवर्तन" कर दिया जाए. यह एक अतिरंजित डर लग सकता है, लेकिन चंडीगढ़ के मेयर चुनाव में कैमरे के सामने हुई धांधली को देखकर यह डर निराधार भी नहीं लगता. जब संस्थाएँ आपकी रक्षा करने में नाकाम हो जाती हैं, तो देश की जनता क्या करे? यह बातचीत शायद हमारे समय के सबसे बड़े सवालों को उठाती है. हम एक व्यक्ति के बारे में बात नहीं कर रहे हैं, हम भारत के भविष्य के बारे में बात कर रहे हैं. यह एक ऐसी लड़ाई है जिसमें कोई भी पक्ष अब पीछे नहीं हट सकता. इसके परिणाम क्या होंगे, यह कोई नहीं जानता. लेकिन इस पर सोचना, बात करना और असहमत होना ही लोकतंत्र को ज़िंदा रखने का पहला क़दम है.
विश्लेषण | सुशांत सिंह
अमेरिका से अनबन का भारत के लिए मतलब?
फाइनेंशियल टाइम्स मे रक्षा और रणनीति मामलों के विशेषज्ञ सुशांत सिंह के लेख के कुछ अंश. लेखक येल विश्वविद्यालय में दक्षिण एशियाई अध्ययन के लेक्चरर हैं.
फ़रवरी में, भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी व्हाइट हाउस में अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प के साथ खड़े थे, और आशावाद का प्रदर्शन कर रहे थे. दोनों ने 2030 तक द्विपक्षीय व्यापार को 500 अरब डॉलर तक ले जाने का संकल्प लिया और एक नए व्यापक व्यापार समझौते का संकेत दिया. गहरी होती रणनीतिक साझेदारी को दर्शाती दोस्ती के प्रदर्शन में, मोदी ने अमेरिकी राष्ट्रपति को इस साल के अंत में होने वाले क्वाड नेताओं के शिखर सम्मेलन के लिए भारत आने का निमंत्रण दिया. ट्रम्प के नारे "मेक अमेरिका ग्रेट अगेन" की तर्ज़ पर, मोदी ने घोषणा की कि वह "मेक इंडिया ग्रेट अगेन" के लिए काम कर रहे हैं, और कहा कि "मागा प्लस मीगा मिलकर समृद्धि के लिए एक मेगा साझेदारी बनती है."
कुछ ही महीनों के भीतर, यह मेगा-साझेदारी आपसी आरोप-प्रत्यारोप और दंडात्मक कार्रवाई में बदल गई है. ट्रम्प ने भारतीय आयातों पर 25 प्रतिशत का टैरिफ़ घोषित किया, और नई दिल्ली पर 'ज़ोरदार और आपत्तिजनक' व्यापारिक बाधाएं खड़ी करने का आरोप लगाया, फिर तुरंत उन्हें बढ़ाकर कठोर 50 प्रतिशत कर दिया और आगे भी बढ़ोतरी की धमकी दी. इसका कारण भारत द्वारा रूसी तेल की निरंतर ख़रीद है, जिसे वाशिंगटन मॉस्को पर अपने प्रतिबंधों को कमज़ोर करने वाला मानता है. ट्रम्प ने इन विवादों के हल होने तक आगे की बातचीत से इनकार कर दिया है.
एक अंतरिम व्यापार सौदे को अंतिम रूप देने के प्रयास पांच दौर की बातचीत के बाद अचानक टूट गए, बावजूद इसके कि भारत अमेरिकी ऊर्जा और रक्षा आयात बढ़ाने और अमेरिकी औद्योगिक सामानों पर टैरिफ़ कम करने को तैयार था. राजनीतिक ग़लत अनुमानों और कृषि मानदंडों तथा कोटा पर कड़े रुख के कारण यह बातचीत विफल हुई, जिससे 190 अरब डॉलर का वार्षिक व्यापार अधर में लटक गया है और 46 अरब डॉलर का घाटा अनसुलझा रह गया है.
ट्रम्प की कार्रवाइयों ने एक व्यापक असर डाला है. भारत को किसी भी एशियाई साझेदार की तुलना में उच्चतम टैरिफ़ दरों के अधीन करने का फ़ैसला हिंद-प्रशांत में नई दिल्ली की महत्वाकांक्षाओं को गंभीर रूप से कमज़ोर करता है. हालांकि ऑस्ट्रेलिया, जापान, अमेरिका और भारत के विदेश मंत्रियों ने हाल ही में वाशिंगटन में मुलाक़ात की, लेकिन बहुप्रतीक्षित क्वाड नेताओं का शिखर सम्मेलन अब इस साल असंभव लगता है. इसके बजाय, अपनी आर्थिक ताक़त का ज़बरदस्ती इस्तेमाल करके, अमेरिका भारत को रूस और शायद चीन के भी क़रीब धकेलने का जोखिम उठा रहा है, जहां मोदी इस महीने के अंत में यात्रा करने की योजना बना रहे हैं.
चीन की आक्रामकता के ख़िलाफ़ भारत को एक संतुलनकारी शक्ति के रूप में खड़ा करने के बजाय - जो पिछले 25 वर्षों से भारत और अमेरिका को जोड़े हुए था - ट्रम्प नई दिल्ली को छोड़ते हुए दिख रहे हैं. इस बीच, उन्होंने पाकिस्तान को तरजीही टैरिफ़ दरों और एक तेल खोज समझौते के साथ लुभाया है, और यह सब भारत और पाकिस्तान के युद्ध के कगार पर पहुंचने के कुछ ही महीने बाद हुआ है. उन्होंने कश्मीर पर ध्यान केंद्रित किया और दोनों देशों को बराबर माना - ऐसे क़दम जिनसे भारत नफ़रत करता है. यह नाराज़गी तब और बढ़ गई जब ट्रम्प ने जून में व्हाइट हाउस में पाकिस्तान के सेना प्रमुख को दोपहर के भोजन पर आमंत्रित किया.
अगर ट्रम्प अपनी बात पर अमल करते हैं, तो भारत पर इसका आर्थिक प्रभाव गंभीर होगा. टैरिफ़ का दोगुना होना अमेरिका को होने वाले भारत के 87 अरब डॉलर के निर्यात इंजन के लिए ख़तरा है - जो उसके कुल निर्यात का 18 प्रतिशत और जीडीपी का 2 प्रतिशत से अधिक है. उद्योग विशेषज्ञ शिपमेंट में 40-50 प्रतिशत की कमी की चेतावनी देते हैं, ख़ासकर कपड़ा, आभूषण और ऑटोमोबाइल जैसे श्रम-प्रधान क्षेत्रों के लिए. छोटे और मध्यम आकार के उद्योगों को प्रतिस्पर्धात्मकता के संकट का सामना करना पड़ रहा है, जबकि जीडीपी विकास के अनुमानों को 1 प्रतिशत तक कम कर दिया गया है. तत्काल बाज़ार पर असर बहुत ज़्यादा है: कमज़ोर रुपया, आयातित महंगाई का ख़तरा, विदेशी पोर्टफ़ोलियो निवेशकों का पलायन, और विदेशी मुद्रा कर्ज़दारों के लिए बढ़ती उधार लागत.
इन घटनाओं से भारत की घरेलू राजनीति को भी उलट-पुलट करने का ख़तरा है. मोदी, जिनकी विदेश नीति की उपलब्धियों के बढ़ा-चढ़ाकर किए गए दावे और एक मज़बूत नेता की उनकी छवि - जो ट्रम्प जैसे नेताओं के साथ उनके कथित व्यक्तिगत संबंधों पर टिकी थी - भारत के मध्यम वर्ग के बीच उनकी राजनीतिक हैसियत का अभिन्न अंग रही है, अब उन्हें तीखी घरेलू आलोचना का सामना करना पड़ रहा है. विपक्षी भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस पार्टी ने उन्हें ट्रम्प के दबाव के आगे झुकने के लिए "नरेंद्र सरेंडर" का नाम दिया. अमेरिका समर्थित हिंदू राष्ट्रवादी समूह, जो मोदी के लिए राजनीतिक रूप से महत्वपूर्ण हैं, ट्रम्प के भारत पर हमलों से ख़ुद को अलग-थलग महसूस कर रहे हैं.
मोदी की भारतीय जनता पार्टी पिछले चुनाव में अपना संसदीय बहुमत खो चुकी है, और यह वर्तमान विवाद उनके आर्थिक प्रबंधन और कूटनीतिक विकल्पों पर फिर से सवाल खड़े करता है. चीन से निपटने में उनकी कमज़ोरी, जो ट्रम्प द्वारा ठुकराए जाने से और बढ़ गई है, एक और घरेलू कमज़ोरी बन सकती है. यह 2005 में वीज़ा से इनकार किए जाने के बाद से मोदी का सबसे निचला अमेरिकी क्षण है, जो उन्हें 2002 में गुजरात में मुस्लिम विरोधी हिंसा के दौरान मुख्यमंत्री की भूमिका के कारण नहीं दिया गया था.
खतरे में भारत के तीन दशकों का आर्थिक उभार और एक उभरती हुई शक्ति के रूप में उसकी सावधानीपूर्वक बनाई गई स्थिति है, जो अमेरिकी रणनीतिक समर्थन की छाया में बनी थी. ट्रम्प ने भारत के रोडमैप को फाड़ दिया है. इसकी जगह रणनीतिक भटकाव, नए समीकरण या अंततः सुलह ले सकती है.
2020 में, मोदी ने अहमदाबाद में 100,000 लोगों की एक रैली में ट्रम्प की मेज़बानी की थी. जब उन्होंने आख़िरी बार हाथ मिलाया, तो स्टेडियम में रोलिंग स्टोन्स का गाना गूंज उठा: "यू कांट ऑलवेज़ गेट व्हाट यू वांट". यह पता चलता है कि, ट्रम्प के साथ, मोदी वह हासिल नहीं कर सकते जो वह चाहते हैं - या जिसकी भारत को ज़रूरत है.
विश्लेषण | प्रेम पण्णिकर
संकट के हर क्षण में मोदी शहादत की मुद्रा दिखा अभिनय कर सहानुभूति बटोरने लगते हैं
2016 में, मैंने बज़फीड के लिए लिखा था कि नोटबंदी कैसे "अब तक का सबसे बड़ा जादू का खेल" थी. इस चाल का सार यह नहीं था कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भारत की 86% मुद्रा को रातों-रात गायब कर दिया था — असली चाल यह थी कि देश के सबसे शक्तिशाली व्यक्ति को इसका सबसे बड़ा, सबसे उत्पीड़ित शिकार बनाकर पेश करना. उस लेख से एक अंश:
"भाइयों बहनों, मैं जानता हूं मैंने कैसी कैसी ताकतों से लड़ाई मोल ली है... मैं जानता हूं कैसे कैसे लोग मेरे खिलाफ हो जाएंगे, मैं जानता हूं... सत्तर साल का उनका मैं लूट रहा हूं, मुझे जिंदा नहीं छोड़ेंगे, मुझे बर्बाद करके रहेंगे... उनको जो करना है, करें..."
नौ साल बाद, जब भारत खुद को दंडात्मक अमेरिकी शुल्कों के निशाने पर पाता है, मोदी फिर से खुद को भारतीय किसानों के कारण के लिए एक इच्छुक शहीद के रूप में पेश करने में कामयाब होते हैं — वही किसान, जिन्हें मोदी ने एमएसपी आंदोलन के दौरान आंदोलनजीवी कहा था. और इस बीच की अवधि में, उनका जादू का खेल कुछ कहीं अधिक परिष्कृत में विकसित हो गया है: उत्पीड़न का एक निरंतर प्रदर्शन जो व्यक्तिगत पीड़ा के कवच से शक्ति की रक्षा करता है.
"मैं जानता हूं कि व्यक्तिगत स्तर पर मुझे भारी कीमत चुकानी होगी, लेकिन मैं इसके लिए तैयार हूं," उन्होंने घोषणा की.
यह एक बहुत परिचित अभिनय है, जो संकट के क्षणों में मोदी को कमजोर सेवक, अपने लोगों के लिए खुद को बलिदान करने के लिए तैयार चौकीदार के रूप में पेश करता है. यह वही भावनात्मक रजिस्टर है जिसे उन्होंने अपने गलत नोटबंदी अभ्यास से आई प्रतिक्रिया का सामना करने के लिए तैनात किया था, जब उन्होंने घोषणा की थी:
"मैं जानता हूं मेरे खिलाफ कौन सी ताकतें हैं. वे शायद मुझे जीने नहीं देंगे, वे मुझे बर्बाद कर देंगे, क्योंकि उनकी 70 साल की लूट खतरे में है, लेकिन मैं तैयार हूं".
पीड़ित होने का व्यवस्थित हथियारीकरण नया नहीं है. यह इस बात से शुरू होता है कि कैसे उन्होंने खुद को चायवाला की उत्पत्ति की पौराणिक कथा पर सवार होकर राष्ट्रीय कल्पना में स्थापित किया और इस प्रकार एक स्थायी बाहरी व्यक्ति की स्थिति बनाई जो सभी विपरीत सबूतों के बावजूद बची रहती है — भारत के कुलीनों के साथ उनके आरामदायक रिश्ते, महंगी आयातित लक्जरी वस्तुओं के लिए उनका शौक, यहां तक कि "गुम वर्ष" जब वह, अपने खुद के खाते के अनुसार, हिमालय में तपस्या कर रहे थे और/या दिल्ली विश्वविद्यालय में "संपूर्ण राजनीति विज्ञान" कोर्स में शानदार प्रदर्शन कर रहे थे या, यदि आप इंटरनेट के सबूतों पर विश्वास करते हैं, अमेरिका में, फ्रांस में और अन्य जगहों पर यात्रा कर रहे थे.
यह सावधानीपूर्वक तैयार की गई पौराणिक कथा तलवार और ढाल दोनों के रूप में काम करती है. जब मोदी शोक प्रकट करते हैं कि उन्हें किसानों की रक्षा के लिए "व्यक्तिगत कीमत चुकानी" पड़ेगी, तो वह दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र के नेता के रूप में नहीं बोल रहे, बल्कि उस कमजोर व्यक्ति का चरित्र निभा रहे हैं, जो संघर्ष को समझता है. उनके आलोचक एक प्रधानमंत्री को चुनौती नहीं दे रहे — विशेष रूप से वह जिसने कुछ समय पहले न्यूनतम समर्थन मूल्य मांगने वाले किसानों पर क्रूर राज्य दमन छोड़ा था; बल्कि, वे आम आदमी के चैंपियन पर हमला कर रहे हैं.
मोदी ने आलोचना को वर्गीय संघर्ष में बदलने के लिए चायवाला ट्रोप को तैनात किया, और संस्थागत चुनौती को "लुटियन्स एलीट" की साजिश में. कि वह गौतम अडानी के निजी विमान में देश का दौरा करते हुए यह सब कर सकते हैं, यह जादू का हिस्सा है.
प्रतिभा इसकी स्थापना में निहित है. अन्य राजनेताओं के विपरीत जिन्हें समय-समय पर अपनी लोकलुभावनवादी प्रामाणिकता को फिर से स्थापित करना होता है, मोदी की मूल कहानी और पीड़ित कथा उनके साथ चलती है, जब भी शक्ति जवाबदेही से टकराती है तो तैनात होने के लिए तैयार.
पीड़ित कथा तानाशाही उपायों के लिए नैतिक औचित्य प्रदान करती है, जबकि अति-मर्दाना मजबूत आदमी की छवि, सावधानीपूर्वक तैयार की गई और निरंतर प्रचार के माध्यम से बनाए रखी गई, लोकलुभावनवादी छवि को बनाए रखने के लिए आवश्यक है.
तानाशाही पीड़ित की संरचना
बेनिटो मुसोलिनी के इटली की "विकृत विजय" के खिलाफ चिल्लाने से लेकर व्लादिमीर पुतिन के नाटो षड्यंत्रों की चेतावनी तक, मजबूत आदमी लंबे समय से एक विरोधाभासी अभिनय को पूर्ण कर चुके हैं — उत्पीड़न का दावा करते हुए अजेयता का प्रक्षेपण करना. खुद को शत्रु ताकतों के शिकार के रूप में प्रस्तुत करके, वे नीतिगत विवादों को व्यक्तिगत साहस के परीक्षण में बदल देते हैं, और आलोचना को विश्वासघात, यहां तक कि देशद्रोह में. जब मोदी कहते हैं कि वह टैरिफ युद्ध में "व्यक्तिगत कीमत" चुकाने के लिए तैयार हैं, तो वह एक सदी पुरानी प्लेबुक के लिए पहुंच रहे हैं, उत्पीड़ित मजबूत आदमी की, घेराबंदी में फिर भी अटूट.
एडॉल्फ हिटलर जर्मनी को वर्साय की संधि के अपमानित पीड़ितों के रूप में चित्रित करके और अंतर्राष्ट्रीय यहूदी षड्यंत्रों के रूप में सत्ता में आया. और यहां तक कि तानाशाह के रूप में भी, उसने खुद को हत्या और तोड़फोड़ के षड्यंत्रों के निशाने के रूप में पेश किया, और इसका उपयोग सफाई को सही ठहराने के लिए किया.
बेनिटो मुसोलिनी ने खुद को विदेशी आलोचकों द्वारा व्यक्तिगत रूप से बदनाम किए गए व्यक्ति के रूप में प्रस्तुत किया, इस प्रकार सभी आलोचनाओं को उनकी गरिमा और राष्ट्र के सम्मान पर हमलों में बदल दिया.
जोसेफ स्टालिन, स्पेन के फ्रैंको, अर्जेंटीना के जुआन पेरोन, इंडोनेशिया के सुकर्णो, सर्बिया/यूगोस्लाविया के स्लोबोदान मिलोसेविच, जिम्बाब्वे के रॉबर्ट मुगाबे, रूस के पुतिन, तुर्की के एर्दोगान, डोनाल्ड ट्रम्प तक — जिन्होंने कानूनी जांच और महाभियोग को इस बात के प्रमाण में बदल दिया कि वह "डीप स्टेट" के खिलाफ "लोगों के लिए लड़ रहे थे" — इन सभी मजबूत आदमियों ने, और अन्य ने, अलग-अलग सफलता की डिग्री के साथ मजबूत-आदमी-को-पीड़ित प्लेबुक का बहुत प्रभावी उपयोग किया है.
समकालीन तानाशाहवाद पर अनुसंधान दिखाता है कि कैसे "कांटेदार ऐतिहासिक चेतना" लोकलुभावनवादी नेताओं को वर्तमान क्षणों को अपमान और महानता के बीच अस्तित्व संबंधी विकल्पों के रूप में प्रस्तुत करने की अनुमति देती है. मोदी की "भारी कीमत चुकाने के लिए तैयार" बयानबाजी इसी सटीक पैटर्न का पालन करती है, नीतिगत असहमतियों को सभ्यतागत संघर्षों में बदल देती है.
इस तकनीक की प्रभावशीलता इसकी भावनात्मक अपील में निहित है — सारी तर्कसंगत आलोचना "पीड़ित" कवच से उछल जाती है क्योंकि, आखिरकार, आप पीड़ित पर हमला नहीं कर सकते. यह एक फीडबैक लूप बनाता है, जिसमें आलोचना उत्पीड़न कथा को मान्य करती है, जो बदले में शक्ति के आगे समेकन को सही ठहराती है, जो नई आलोचना उत्पन्न करती है, जो उत्पीड़न को "साबित" करती है.
जबकि ऊपर सूचीबद्ध मजबूत आदमियों ने अपने-अपने देशों के लिए उपयुक्त तरीकों से इस चाल को तैनात किया है, कुछ मुख्य समानताएं हैं: (1) नेता का भाग्य राष्ट्रीय भाग्य के बराबर है और इस प्रकार, व्यक्ति की आलोचना को राष्ट्र पर ही हमले के रूप में फिर से प्रस्तुत किया जाता है. (2) मजबूत आदमी पीड़ित होने का दावा करके और असीमित शक्ति को चरम दबाव में निस्वार्थ सेवा के रूप में फिर से परिभाषित करके नैतिक उच्च भूमि का दावा करता है. (3) "मैं हमले का निशाना हूं" असंतोष को चुप कराने के लिए एक खाली चेक बन जाता है और (4) मिथक-निर्माण इन कथाओं को समय के आधिकारिक इतिहास में स्थापित करता है, नेता की वैधता को और भी गहराई से जड़ में जमाता है.
जबकि चायवाला ट्रोप ने तकनीक का फील्ड टेस्ट किया, नोटबंदी ने टेम्प्लेट को संस्थागत बनाया और हथियारबंद किया. मोदी ने खुद को "शक्तिशाली ताकतों" से लड़ने वाले अकेले योद्धा के रूप में पेश किया जो "उसे नहीं छोड़ेंगी", जबकि वह भारत की मौद्रिक प्रणाली को रातों-रात बदलने के लिए राज्य शक्ति का उपयोग कर रहे थे. यहां, पीड़ित भी आक्रमणकारी था, एक दोहरापन जो अधिकतम लचीलेपन की अनुमति देता है: जब प्रभुत्व की आवश्यकता होती है तो शक्ति, जब सहानुभूति की जरूरत होती है तो पीड़ा.
"रणनीतिक रूप से अपहृत पीड़ित" पर एक कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय का पेपर दिखाता है कि कैसे समकालीन तानाशाह इस संतुलन को पूर्ण करते हैं. वे शिकायत के माध्यम से शासन करते हैं जबकि शक्ति जमा करते हैं, हमेशा अपने अधिकार को एक मांगा गया पुरस्कार के बजाय एक अनिच्छुक बोझ के रूप में प्रस्तुत करते हैं. (याद रखें कि कैसे 2016 में, उच्च-मूल्य नकदी पर रातों-रात प्रतिबंध की घोषणा के हफ्तों बाद मोदी ने एक रैली में कहा था: "मेरे विरोधी मेरा क्या कर सकते हैं? मैं एक फकीर हूं. मैं अपना झोला लेकर चला जाऊंगा."?)
उत्पीड़न चक्र: संकट, प्रदर्शन, लाभ
मोदी का प्रदर्शनकारी पीड़ित एक अनुमानित चक्र का पालन करता है. एक संकट उभरता है—चाहे नोटबंदी की अराजकता हो, किसान प्रदर्शन हों, या ट्रम्प के शुल्क हों. मोदी तुरंत खुद को अभिनेता के बजाय निशाना बनाकर, निर्णयकर्ता के बजाय रक्षक के रूप में पेश करते हैं. निर्मित सहानुभूति के माध्यम से नीतिगत और राजनीतिक लाभ मिलते हैं, और अगले संकट के साथ चक्र दोहराया जाता है.
वर्तमान टैरिफ ड्रामा इस पैटर्न का पूरी तरह से उदाहरण देता है. पारंपरिक राजनयिक प्रवचन में शामिल होने के बजाय, मोदी व्यापार बातचीत को व्यक्तिगत बलिदान में बदल देते हैं. "भारत कभी भी अपने किसानों, डेयरी क्षेत्र और मछुआरों की भलाई से समझौता नहीं करेगा. और मैं व्यक्तिगत रूप से जानता हूं कि मुझे इसकी भारी कीमत चुकानी होगी". वैश्विक आर्थिक चुनौती व्यक्तिगत शहादत बन जाती है, नीतिगत विकल्प व्यक्तिगत लागत बन जाता है.
यह फ्रेमिंग कई कार्य करती है. यह आलोचना को टाल देती है — मेरा मतलब है, आप उस व्यक्ति पर हमला कैसे कर सकते हैं जो आपकी ओर से पीड़ित है? यह सहानुभूति उत्पन्न करती है — आप उस निस्वार्थ नेता के लिए कैसे महसूस नहीं कर सकते जो अपने लोगों के लिए बलिदान कर रहा है? (बस वह व्यक्तिगत रूप से टैरिफ के कारण क्या बलिदान कर रहा है यह अनपूछा और अनुत्तरित रहता है.) और यह तानाशाही उपायों के लिए बहाना और कवर दोनों प्रदान करती है — आखिरकार, असाधारण चुनौतियों से निपटने के लिए असाधारण शक्ति की आवश्यकता होती है.
मोदी शिकायत के माध्यम से शासन करते हैं जबकि लोकतंत्र धीरे-धीरे धुएं के पर्दे के पीछे गायब हो जाता है.
देखिए कौन भेड़िया बनकर रो रहा है
वास्तव में, मोदी भेड़िया बनकर नहीं रो रहे, वह धुएं के पर्दे डाल रहे हैं जबकि अपनी प्रचार मशीन, और कब्जे में मीडिया के लिए चारा प्रदान कर रहे हैं, पानी को और भी मैला करने के लिए. उनकी प्रदर्शनकारी शहादत की अदा सफल होती है सटीक रूप से क्योंकि वह उन दर्शकों के लिए खेल रहे हैं जो एक दशक से अधिक की चायवाला पौराणिक कथा से तैयार है.
असली नुकसान रंगमंच और वास्तविकता, प्रदर्शन और नीति के बीच अंतर करने की हमारी सामूहिक क्षमता का क्षरण है.
हमारे समय का सबसे बड़ा जादू का खेल जारी है. चाल वही रहती है: शक्ति को शक्तिहीन दिखाना जबकि लोकतंत्र धीरे-धीरे गायब हो जाता है. मोदी ने शासन को प्रदर्शन कला में, पीड़िता को राजकला में, और उत्पीड़न को शक्ति में बदल दिया है. और दर्शक तालियां बजाते रहते हैं, भले ही गणराज्य पर्दे के पीछे गायब हो जाए.
जैसा कि मैंने 2016 में नोटबंदी के बाद के बारे में लिखा था, कुछ चालें इतनी शानदार होती हैं कि हम यह देखना भूल जाते हैं कि वास्तव में क्या छुपाया जा रहा है.
(वरिष्ठ पत्रकार पण्णिकर स्मोक सिगनल्स नाम के सब्सटैक पेज पर लिखते है. और क्या बढ़िया लिखते हैं.)
मुनीर ने अंबानी की रिफाइनरी को भी टारगेट करने की धमकी दी
"टाइम्स ऑफ इंडिया" की खबर है कि पाकिस्तान के सेना प्रमुख आसिम मुनीर ने गुजरात के जामनगर में स्थित रिलायंस इंडस्ट्रीज लिमिटेड की रिफाइनरी को भी टारगेट करने की धमकी दी है. उन्होंने कहा कि अगर भविष्य में भारत के साथ कोई सैन्य संघर्ष होता है तो इसे निशाना बनाया जाएगा. यह पहली बार है जब किसी पाकिस्तानी सैन्य नेता ने भारत की आर्थिक संपत्तियों, खासकर तेल संबंधी संस्थानों को टारगेट करने की मंशा जाहिर की है. जामनगर रिफाइनरी का भारत के आर्थिक क्षेत्र में महत्वपूर्ण स्थान है, क्योंकि यह देश की कुल रिफाइनिंग क्षमता का लगभग 12% है और यह बड़ी मात्रा में पेट्रोलियम उत्पादों का निर्यात भी करता है.
अमेरिकी कोर्ट : 6 माह बीते, लेकिन रिश्वत केस में अडानी और अन्य को अब तक समन सर्व नहीं
अमेरिका के सिक्योरिटीज एंड एक्सचेंज कमिशन (एसईसी) ने न्यूयॉर्क की एक अदालत को सूचित किया है कि उसने भारत की सहायता मांगी थी, लेकिन छह महीने बीत जाने के बाद भी गौतम अडानी, उनके भतीजे सागर अडानी, और अडानी समूह को समन सर्व नहीं किए गए हैं.
एसईसी ने 11 अगस्त को पूर्वी जिले की अदालत में एक स्टेटस रिपोर्ट दायर की, जिसमें कहा गया कि उसने "हाग सेवा कन्वेंशन के तहत भारतीय अधिकारियों से सहायता मांगी थी," लेकिन उन अधिकारियों ने अभी तक कुछ नहीं किया है." यह समन एक मामले से संबंधित है, जो पिछले वर्ष 20 नवम्बर को दायर किया गया था, जिसमें अमेरिकी अभियोजकों ने गौतम अडानी, सागर अडानी, और अन्य के खिलाफ रिश्वतखोरी, प्रतिभूति धोखाधड़ी और संबंधित साजिशों के आरोप लगाए हैं. एसईसी की शिकायत में आरोप है कि आरोपियों ने सोलर एनर्जी कॉर्पोरेशन ऑफ इंडिया (एसईसीआई) के माध्यम से सौर ऊर्जा सौदों को सुरक्षित करने के लिए कुल 2,029 करोड़ रुपये की रिश्वत दी थी. एसईसी ने अडानी समेत सभी पक्षों के वकीलों को भी सीधे नोटिस भेजे हैं.
E20 फ्यूल पर सरकार का स्पष्टीकरण: बेहतर राइड क्वालिटी, बीमा दावों पर अफ़वाहों का खंडन
पेट्रोलियम और प्राकृतिक गैस मंत्रालय (MoPNG) ने मंगलवार को एक विस्तृत बयान जारी किया. इसमें पेट्रोल में इथेनॉल मिलाने को लेकर चल रहे विवादों पर सफ़ाई दी गई. मंत्रालय ने कहा कि E20 फ्यूल न सिर्फ़ बेहतर राइड क्वालिटी देता है, बल्कि इससे किसानों की आय भी बढ़ती है और विदेशी मुद्रा भंडार पर भी सकारात्मक असर पड़ता है. बयान में उन दावों का भी खंडन किया गया है, जिनमें कहा जा रहा था कि बीमा कंपनियाँ इस मिश्रित ईंधन से वाहनों को होने वाले नुक़सान के लिए क्लेम देने से इनकार कर रही हैं.
मंत्रालय ने तर्क दिया कि E20 मिश्रित ईंधन से बेहतर एक्सेलरेशन मिलता है और E10 की तुलना में लगभग 30% कम कार्बन उत्सर्जन होता है. मंत्रालय ने माना कि "कुछ पुराने वाहनों" में रबर के कुछ हिस्सों और गैस्केट को बदलने की ज़रूरत पड़ सकती है, क्योंकि वे बिना इथेनॉल वाले ईंधन के लिए डिज़ाइन किए गए थे. हालांकि, मंत्रालय ने कहा कि यह बदलाव सस्ता है और इसे गाड़ी की ज़िंदगी में सिर्फ़ एक बार किसी भी अधिकृत वर्कशॉप में नियमित सर्विसिंग के दौरान आसानी से कराया जा सकता है. बयान में माइलेज में "भारी" कमी के दावों को "भ्रामक" बताया गया. मंत्रालय ने कहा कि माइलेज कई चीज़ों पर निर्भर करता है, जैसे चलाने की आदतें, रखरखाव, टायर का दबाव और एयर कंडीशनिंग का लोड.
ग़ाज़ा में इजराइली जनसंहार पर प्रियंका के पोस्ट के बाद इजराइली दूत की अपमानजनक टिप्पणी
शिवसेना (यूबीटी) की एक सांसद भी कांग्रेस के साथ आ गई हैं. उन्होंने फ़लस्तीन में "नरसंहार" को लेकर कांग्रेस सांसद प्रियंका गांधी वाड्रा के सोशल मीडिया पोस्ट पर इज़राइली राजदूत की तीखी प्रतिक्रिया की निंदा की है और राजनयिक के ख़िलाफ़ उचित कार्रवाई की मांग की है.
प्रियंका वाड्रा ने मंगलवार को एक्स पर पोस्ट किया था कि "इज़राइली राज्य नरसंहार कर रहा है."
वाड्रा के पोस्ट में कहा गया, "इसने 60,000 से ज़्यादा लोगों की हत्या की है, जिनमें से 18,430 बच्चे थे. इसने कई बच्चों समेत सैकड़ों लोगों को भूखा मार डाला है और लाखों लोगों को भूखा मारने की धमकी दे रहा है. चुप्पी और निष्क्रियता के ज़रिए इन अपराधों को होने देना अपने आप में एक अपराध है. यह शर्मनाक है कि भारत सरकार तब चुप खड़ी है, जब इज़राइल फ़लस्तीन के लोगों पर यह तबाही मचा रहा है."
इस पोस्ट का जवाब देते हुए भारत में इज़राइल के राजदूत रूवेन अज़ार ने कहा, "शर्मनाक तो आपका धोखा है. इज़राइल ने 25,000 हमास आतंकवादियों को मारा है. इंसानी जान की भयानक क़ीमत हमास की घिनौनी रणनीति की वजह से चुकानी पड़ रही है, जिसमें वे नागरिकों के पीछे छिपते हैं, भागने या सहायता लेने की कोशिश कर रहे लोगों पर गोलीबारी करते हैं और रॉकेट दागते हैं. इज़राइल ने ग़ाज़ा में 20 लाख टन भोजन की सुविधा दी, जबकि हमास उन्हें ज़ब्त करने की कोशिश करता है, जिससे भुखमरी पैदा होती है. पिछले 50 सालों में ग़ाज़ा की आबादी में 450% की वृद्धि हुई है, वहां कोई नरसंहार नहीं हुआ है. हमास के आंकड़ों पर यकीन न करें."
एक राजनयिक की नकारात्मक टिप्पणियों के साथ अपना अनुभव साझा करते हुए शिवसेना सांसद प्रियंका चतुर्वेदी ने उम्मीद जताई कि विदेश मंत्रालय (MEA) राजदूत को फटकार लगाएगा. चतुर्वेदी ने कहा, "पहले भी, मैं पोलैंड के राजदूत (अब पूर्व) के मुझ पर किए गए ट्वीट हमले के ख़िलाफ़ विशेषाधिकार प्रस्ताव लाना चाहती थी, लेकिन विदेश मंत्री (MEA) के साथ चर्चा के बाद मैंने इसे न उठाने का फ़ैसला किया. हालांकि, इससे उन्हें हमारे ही देश में भारतीय सांसदों से इस लहज़े और अंदाज़ में बात करने का हौसला मिल रहा है. यह अस्वीकार्य है."
कांग्रेस के संचार प्रमुख जयराम रमेश ने कहा कि पार्टी ग़ाज़ा में इज़राइल के जारी नरसंहार पर वाड्रा द्वारा व्यक्त दर्द और पीड़ा के जवाब में अज़ार द्वारा इस्तेमाल किए गए शब्दों की निंदा करती है. रमेश ने कहा, "मोदी सरकार से यह उम्मीद करना बहुत ज़्यादा है कि वह राजदूत की प्रतिक्रिया पर गंभीर आपत्ति जताएगी, क्योंकि सरकार ने पिछले 18-20 महीनों में ग़ाज़ा में इज़राइल के विनाश पर बोलने के मामले में अत्यधिक नैतिक कायरता दिखाई है. हम इस पर आपत्ति जताते हैं और इसे पूरी तरह से अस्वीकार्य मानते हैं."
ग़ाज़ा में इज़राइली हमले में मारे गए पत्रकार अनस अल-शरीफ़ का आख़िरी बयान
“मैं आपको फ़िलिस्तीन का अवाम सौंपता हूँ, उसके मासूम बच्चों सहित जिन पर ज़ुल्म हुआ है, जिन्हें सपने देखने का, हिफ़ाज़त और अमन में रहने का मौक़ा नहीं मिला. “
ग़ाज़ा में इज़राइल द्वारा मारे गए फ़िलिस्तीनी पत्रकार अनस अल-शरीफ़ का यह बयान गार्डियन में छपा, जो उनकी मौत के बाद सोशल मीडिया पर साझा किया गया था, अंग्रेज़ी में यहाँ पढ़ा जा सकता है. ये अनुवाद पीयूष ओझा ने हरकारा को उपलब्ध करवाया है.
“यह मेरी आख़िरी ख़्वाहिश और पैग़ाम है. यदि ये लफ़्ज़ आप तक पहुँचते हैं तो जानिए कि इज़राइल मुझे मारने में और मेरी आवाज़ ख़ामोश करने में कामयाब हुआ है.
सबसे पहले, सलाम अलैकुम, आप पर अल्लाह की रहमतें और बरकतें रहें. ख़ुदा जानता है कि जबसे जबालिया शरणार्थी शिविर के गली-कूचों की ज़िंदगी में मैंने आँखें खोली हैं, मैं पूरी ताक़त, पूरी मेहनत से अपने लोगों का सहारा, उनकी आवाज़ बनने की कोशिश करता रहा हूँ. मुझे उम्मीद थी कि ख़ुदा मुझे इतनी ज़िंदगी देगा कि मैं अपने ख़ानदान और अज़ीज़ों के साथ अपने आबाई कस्बे, अस्क़लान (अल-मजदल), जो इज़राइल के कब्ज़े में है, लौट सकूँगा. लेकिन अल्लाह की मरज़ी पहले और उसका हुक़्म टाला नहीं जा सकता.
मैंने अपनी ज़िंदगी में हर तरह का दर्द सहा है, कई बार दु:ख झेला है, बहुत खोया है, लेकिन मैं कभी बिना तोड़े-मरोड़े, बिना झूठ बोले, नंगा सच जस-का-तस सबके सामने रखने में नहीं हिचकिचाया ताकि अल्लाह के सामने उनके ख़िलाफ़ गवाही रहे जिन्हें हमारा क़त्ल मंज़ूर था, जो चुप रहे, जिन्होंने हमारा गला घोंटा, हमारे बच्चों और ख़वातीन के बिखरे जिस्म देखकर जिनके दिल नहीं दहले, जिन्होंने डेढ़ साल से ज़्यादा चल रहे हमारे लोगों के क़त्लेआम को रोकने के लिए कुछ नहीं किया.
मैं आपको फ़िलिस्तीन सौंपता हूँ -- मुस्लिम दुनिया के ताज़ का जवाहर, दुनिया के हर आज़ाद आदमी के दिल की धड़कन. मैं आपको फ़िलिस्तीन का अवाम सौंपता हूँ, उसके मासूम बच्चों सहित जिन पर ज़ुल्म हुआ है, जिन्हें सपने देखने का, हिफ़ाज़त और अमन में रहने का मौक़ा नहीं मिला. उनके पाक जिस्म हज़ारों टन इज़राइली बमों और मिसाइलों से कुचले गए, उन्हें चिथड़े-चिथड़े कर के दीवारों पर फेंक दिया गया. मैं आपसे इसरार करता हूँ कि ज़ंजीरों से चुप न हों, सरहदों में नहीं बँधें. जब तक हमारी चुराई गई सरज़मीन पर इज़्ज़त और आज़ादी का सूरज नहीं चमकता है तब तक इस ज़मीन और इसके अवाम की आज़ादी के सबब बने रहिए.
मैं अपना परिवार आपकी देखरेख में सौंपता हूँ. मेरी आँखों की रोशनी, मेरी प्यारी बेटी शाम आपको सौपता हूँ जिसे बड़ा होते देखने का सपना पूरा करने का मौक़ा मुझे नहीं मिला. मेरा प्यारा बेटा सलाह आपको सौंपता हूँ; मैं चाहता था कि जब तक वह मेरा बोझ अपने कंधों पर लेकर हमारी मंज़िल की ओर बढ़ने की ताक़त हासिल नहीं कर लेता है मैं उसका सहारा बनकर उसकी जिंदगी में साथ दूँ. मैं मेरी प्यारी माँ आपको सौंपता हूँ जिनकी मुबारक दुआएँ मुझे वहाँ लाई हैं जहाँ मैं आज हूँ, जिनकी अरदास मेरा बख़्तर थी और जिनकी रोशनी मुझे राह दिखाती रही है. मैं अल्लाह से दुआ करता हूँ कि वह उन्हें ताक़त दे और मेरी तरफ़ से उन्हें अच्छे से अच्छा सिला दे.
मैं आपको मेरी ज़िंदगी की साथी, मेरी प्यारी अह्लिया, उम्म सलाह (बयाँ), भी सौंपता हूँ जिन्हें जंग ने कई दिनों, कई महीनों तक मुझसे जुदा रखा लेकिन उन्होंने फिर भी झुके बग़ैर, जैतून के पेड़ की तरह तनकर हमारा रिश्ता वफ़ादारी से निभाया. उन्होंने धीरज रखा, अल्लाह पर भरोसा किया और मेरी ग़ैरहाज़िरी में पूरी ताक़त और अक़ीदत से ज़िम्मेदारी निभाई. मैं गुज़ारिश करता हूँ कि आप उनके साथ खड़े रहें, अल्लाह के बाद आप भी उनका सहारा बनें.
अगर मेरी मौत होती है तो मैं अपने उसूलों पर क़ायम रहते हुए मर रहा हूँ. मैं अल्लाह के सामने कह रहा हूँ कि मुझे उसका हुक़्म मंज़ूर है, यक़ीनन मैं उससे मिलूँगा, और मुझे यक़ीन है कि अल्लाह के पास होना बेहतर है, लाज़वाल है. अल्लाह, मुझे शहीदों में शामिल करे, मेरे गुज़श्ता और आनेवाले गुनाह माफ़ करे और मेरे लहू से ऐसी रोशनी पैदा करे जो मेरे लोगों और मेरे ख़ानदान की आज़ादी की राह रोशन करे. अगर मुझमें कमी रही हो तो मुझे माफ़ कीजिए और रहम से मेरे लिए दुआ कीजिए क्योंकि मैंने अपना अहद निभाया, कभी बदला नहीं और उससे दग़ा नहीं किया.
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