13/10/2025: एनडीए ने सीट बंटवारे का एलान किया, ओवैसी ने 32 सीटों का | आई लव मुहम्मद को लेकर 4500 मुस्लिमों पर मामले दर्ज, 265 गिरफ्तार | ट्रम्प का न्यौता, पर मोदी जाएंगे नहीं | चीन, भारत पर आकार पटेल
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आज की सुर्खियां
बिहार चुनाव के लिए एनडीए में सीटों का बंटवारा फाइनल, भाजपा-जदयू 101-101 सीटों पर लड़ेंगे.
विपक्षी ‘महागठबंधन’ भी इस सप्ताह सीटों के बंटवारे की घोषणा कर सकता है.
बिहार में ओवैसी की पार्टी AIMIM भी 100 सीटों पर लड़ेगी, 32 उम्मीदवारों की पहली सूची जारी.
‘आई लव मोहम्मद’ अभियान के बाद 4500 मुसलमानों पर केस, 265 गिरफ्तार, बरेली में लक्षित कार्रवाई का आरोप.
घुसपैठ और मुस्लिम आबादी पर अमित शाह के दावों को ओवैसी ने बताया झूठ, कहा- उनका गणित कमजोर है.
विश्लेषण: 1991 में भारत और चीन बराबर थे, आज चीन पांच गुना आगे है, जानिए क्या हुआ?
मध्य प्रदेश में एक ओबीसी युवक को ब्राह्मण व्यक्ति के पैर धोकर वह पानी पीने के लिए मजबूर किया गया.
फोटो पत्रकार दानिश सिद्दीकी की हत्या पर उनके फाउंडेशन ने तालिबान के विदेश मंत्री से न्याय मांगा.
तालिबान के विदेश मंत्री ने महिला पत्रकारों को बाहर रखने को ‘तकनीकी मुद्दा’ बताया.
पाकिस्तान-अफगानिस्तान सीमा पर भीषण झड़पों में दर्जनों की मौत, तालिबान वापसी के बाद सबसे बड़ी लड़ाई.
लेख: संघ ने गांधी, 1971 और वाजपेयी के सामने तीन बड़ी हार झेलीं, अब चौथी की तैयारी है.
अमेरिकी एजेंसी का आरोप, अडानी अधिकारियों पर कार्रवाई के अनुरोध पर भारतीय अधिकारी विफल रहे.
ट्रंप ने मोदी को गाजा शांति शिखर सम्मेलन का न्योता भेजा, कीर्ति वर्धन सिंह भारत का प्रतिनिधित्व करेंगे.
लेख का दावा: कांग्रेस छोड़कर भाजपा में गए ज्यादातर नेता खुद को ठगा और इस्तेमाल किया हुआ पा रहे हैं.
दुर्गापुर में मेडिकल छात्रा से गैंगरेप, तीन गिरफ्तार, कैंपस में छात्रों का विरोध प्रदर्शन.
मणिपुर में राष्ट्रपति शासन आगे नहीं बढ़ेगा, केंद्र ने आश्वासन दिया: भाजपा विधायक का दावा.
दाढ़ी वाले गिद्ध के घोंसले में 700 साल पुरानी सैंडल मिली, वैज्ञानिकों ने इसे ‘प्राकृतिक संग्रहालय’ कहा.
पाठकों से : मंगलवार १४ अक्टूबर से हरकारा न्यूजलैटर आपके पास टैक्स्ट और पॉडकास्ट की शक्ल में शाम को आएगा.
बिहार चुनाव
एनडीए : भाजपा, जद (यू) 101-101 पर, एलजेपी 29 पर, मांझी और उपेंद्र को 6-6 सीटें
केंद्रीय मंत्री और भाजपा के बिहार चुनाव प्रभारी धर्मेंद्र प्रधान ने रविवार को घोषणा की कि बिहार विधानसभा चुनाव में भाजपा और जद (यू), दोनों 101-101 सीटों पर चुनाव लड़ेंगे, जबकि केंद्रीय मंत्री चिराग पासवान के नेतृत्व वाली लोक जनशक्ति पार्टी (एलजेपी) 29 सीटों पर अपने उम्मीदवार उतारेगी.
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और अन्य वरिष्ठ नेताओं सहित भाजपा की केंद्रीय चुनाव समिति की बैठक शुरू होते ही प्रधान ने ‘एक्स’ (पूर्व में ट्विटर) पर एक पोस्ट में कहा कि केंद्रीय मंत्री जीतन राम मांझी के नेतृत्व वाली हिन्दुस्तानी आवाम मोर्चा (हम) (सेक्युलर) और उपेंद्र कुशवाहा के नेतृत्व वाली राष्ट्रीय लोक मोर्चा (आरएलएम) दोनों 6-6 सीटों पर अपने उम्मीदवार मैदान में उतारेंगी. मांझी ने हालांकि, कम से कम 15 सीटों के लिए दबाव बनाया था, पर सीटों का ऐलान होने के बाद उन्होंने कहा,“संसद में, हमें केवल एक सीट दी गई थी, क्या हम परेशान थे? उसी तरह, अगर हमें केवल 6 सीटें मिली हैं, तो यह हाई कमान का निर्णय है. हम इसे स्वीकार करते हैं... हमें जो दिया गया है, हम उससे संतुष्ट हैं. मुझे कोई शिकायत नहीं है.”
उन्होंने दावा किया कि राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) के सभी सहयोगियों ने सौहार्दपूर्ण तरीके से सीट-वितरण की कवायद पूरी कर ली है. उन्होंने कहा, “एनडीए के सभी दलों के नेता और कार्यकर्ता खुशी के साथ इसका स्वागत करते हैं. बिहार एक और एनडीए सरकार के लिए तैयार है.”
“पीटीआई” के अनुसार, यह घोषणा जद (यू) को छोड़कर, जिसने एनडीए की प्रमुख पार्टी के साथ पहले ही एक समझ बना ली थी, वरिष्ठ भाजपा नेतृत्व और उनके सहयोगियों के बीच कई दिनों की बातचीत के बाद हुई है.
पासवान, मांझी और कुशवाहा जैसे सहयोगियों ने बातचीत में भाजपा के साथ कड़ा मोलभाव किया और कभी नरम तो कभी गरम रुख अपनाया. पासवान, अपनी पार्टी के लिए उतनी सीटों से अधिक सीटें हासिल करने में भाजपा को सहमत कराने में सफल रहे, जितनी वह पहले देने को तैयार थी.
243 सीटों वाली बिहार विधानसभा में 6 और 11 नवंबर को दो चरणों में मतदान होगा. 2020 में, मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के नेतृत्व वाली जदयू ने 115 सीटों पर और भाजपा ने 110 सीटों पर चुनाव लड़ा था, जबकि पासवान अलग से लड़े थे. यह पहला मौका है जब जदयू विधानसभा चुनाव में भाजपा से अधिक सीटों पर चुनाव नहीं लड़ रही है, जो सत्तारूढ़ गठबंधन के भीतर शक्ति के पुनर्संतुलन का एक स्पष्ट संकेत है.
महागठबंधन : इस सप्ताह संयुक्त घोषणा संभव
इस बीच विपक्षी ‘महागठबंधन’ अगले कुछ दिनों में अपनी सीटों का बंटवारा कर सकता है. और इस सप्ताह संयुक्त घोषणापत्र के साथ अपने उम्मीदवारों की घोषणा भी कर सकता है. चूंकि राजद के लालू प्रसाद और तेजस्वी यादव राष्ट्रीय राजधानी में हैं, इसलिए महागठबंधन का नेतृत्व सोमवार को बैठक कर सकता है. सीटों की घोषणा में देरी पर, कांग्रेस के जयराम रमेश ने कहा, “महागठबंधन में कुछ नए सहयोगियों को समायोजित करना है. अगले दो-तीन दिनों में, हमें उम्मीद है कि सभी सीटें घोषित कर दी जाएंगी.” पिछले बिहार चुनावों में कांग्रेस ने 70 सीटों पर चुनाव लड़ा और 19 सीटें जीतीं, जबकि राजद ने 144 सीटों पर चुनाव लड़ा और 75 सीटें हासिल की थीं.
ओवैसी की एआईएमआईएम ने भी 32 सीटों का ऐलान किया, 100 पर लड़ेगी
इधर, रमाशंकर की खबर है कि ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुस्लिमीन (एआईएमआईएम) ने 32 सीटों का ऐलान कर तीसरे मोर्चे के गठन का संकेत दिया है. यह कदम विपक्ष के ‘इंडिया’ गठबंधन को महत्वपूर्ण रूप से प्रभावित कर सकता है.
एआईएमआईएम के बिहार प्रमुख अख्तरुल ईमान ने कहा कि पार्टी किशनगंज, पूर्णिया, कटिहार, अररिया, गया, मोतिहारी, नवादा, जमुई, भागलपुर, सीवान, दरभंगा, समस्तीपुर, सीतामढ़ी, मधुबनी, वैशाली और गोपालगंज सहित कई निर्वाचन क्षेत्रों से उम्मीदवार उतारेगी. इन सीटों के लिए उम्मीदवारों का चयन भी कर लिया गया है और शीघ्र ही सूची सार्वजनिक की जाएगी.
दिलचस्प बात यह है कि एआईएमआईएम जिन अधिकांश सीटों पर उम्मीदवार उतारने की योजना बना रही है, वे वर्तमान में ‘इंडिया’ गठबंधन के सदस्यों के पास हैं. ईमान ने जोर देकर कहा कि एआईएमआईएम ने धर्मनिरपेक्ष वोटों के बंटवारे को रोकने और सांप्रदायिक ताकतों के खिलाफ एकजुट होने का प्रयास किया था, लेकिन बड़े गठबंधन सहयोगियों ने सहयोग नहीं किया, जिसके परिणामस्वरूप तीसरे मोर्चे का गठन हुआ.”
उन्होंने आगे कहा कि पार्टी ने 2025 के विधानसभा चुनावों में जिन 100 सीटों पर चुनाव लड़ने का इरादा किया है, उनमें से यह 32 उम्मीदवारों की सूची जारी की गई है. उन्होंने बताया कि घोषित सीटों के लिए उम्मीदवारों के नामों का खुलासा जल्द ही किया जाएगा.
“आई लव मोहम्मद” पर रिपोर्ट : देश भर में 4500 मुसलमानों पर मामले, 265 गिरफ्तार, बरेली में लक्षित कार्रवाई
“आई लव मोहम्मद” अभियान के तहत पूरे भारत में, कुल 4,505 मुसलमानों पर मामला दर्ज किया गया और 7 अक्टूबर तक, बरेली में 89 सहित, देश भर में 265 मुसलमानों को गिरफ्तार किया गया है.” एसोसिएशन फॉर प्रोटेक्शन ऑफ सिविल राइट्स (एपीसीआर) की शुक्रवार को जारी रिपोर्ट में यह जानकारी दी गई है. रिपोर्ट आरोप लगाती है कि मौलाना तौकीर रजा खान के नेतृत्व में हुए “आई लव मोहम्मद” प्रदर्शन के बाद बरेली में मुसलमानों के खिलाफ असमान पुलिस कार्रवाई की गई और प्रशासनिक तौर पर टारगेट किया गया.
‘एपीसीआर’ द्वारा संकलित इस रिपोर्ट में दावा किया गया है कि शांतिपूर्ण विरोध प्रदर्शन का जवाब लाठीचार्ज, सामूहिक गिरफ्तारी और संपत्ति जब्ती के साथ दिया गया, जो मनमाने ढंग से और उचित कानूनी प्रक्रिया के बिना किए गए.
गज़ाला अहमद ने ‘एपीसीआर’ की रिपोर्ट के हवाले से लिखा है कि बरेली में कार्रवाई के बाद, मुस्लिम-बहुल इलाकों में अर्धसैनिक बल और अतिरिक्त पुलिस बल (पीएसी, आरपीएफ) तैनात किए गए, और इंटरनेट सेवाएं 48 घंटों के लिए निलंबित कर दी गईं, जिससे व्यापक आर्थिक व्यवधान और भय का माहौल पैदा हुआ. विरोध के दो दिन बाद, 29 सितंबर को, प्रशासन ने मजार पहलवान मार्केट में 32 दुकानों को सील कर दिया, जो एक पंजीकृत वक्फ संपत्ति (वक्फ संख्या 383) है.
तथ्य-खोज रिपोर्ट में कहा गया है कि सीलिंग वक्फ न्यायाधिकरण द्वारा जारी स्थायी स्थगन आदेश के बावजूद, बिना किसी पूर्व सूचना या दस्तावेजीकरण के की गई थी. यह बाज़ार, जिसका प्रबंधन लंबे समय से स्थानीय वक्फ समिति द्वारा किया जाता रहा है, वर्तमान में मुकदमेबाजी के अधीन है. हालांकि, किरायेदार शांतिपूर्ण कब्जे में बने हुए हैं. दुकानदारों ने कहा कि वे वक्फ बोर्ड को नियमित रूप से किराया देते हैं और आरोप लगाया कि सीलिंग विरोध प्रदर्शन से जुड़ी दंडात्मक कार्रवाई थी. बताया गया है कि यह कार्रवाई भारी पुलिस उपस्थिति में की गई, जिसने भय को बढ़ाया और असंतोष को हतोत्साहित किया.
रिपोर्ट यह भी कहती है कि गिरफ्तारी ज्ञापन जारी नहीं किए गए, प्राथमिकी की प्रतियां रोक दी गईं, और परिवारों को उनके रिश्तेदारों के ठिकाने के बारे में सूचित नहीं किया गया. स्थानीय सूत्रों ने यह भी आरोप लगाया कि हिरासत में लिए गए लोगों में नाबालिग भी शामिल थे, हालांकि उनका वर्तमान स्थान और कानूनी सहायता तक पहुंच अस्पष्ट बनी हुई है. लोगों को यह बताए बिना उठा लिया गया कि क्यों ऐसा किया जा रहा है? यहां तक कि वकीलों को भी केस के कागजात तक पहुंच नहीं दी गई.
रिपोर्ट में मुस्लिम समुदाय के प्रमुख व्यक्तियों के खिलाफ लक्षित प्रशासनिक कार्रवाइयों को भी दर्ज किया गया है, जिसमें मौलवियों और कार्यकर्ताओं से जुड़ी संपत्तियों को ध्वस्त करना और सील करना शामिल है, जिनमें से कई इंटरनेट पहुंच प्रतिबंधित होने की स्थिति में किए गए थे. इसने बरेली शहर के माहौल में एक स्पष्ट विभाजन देखा. मुस्लिम मोहल्लों में भारी गश्त की गई और वे शांत थे, जबकि हिंदू-बहुल क्षेत्र अप्रभावित और सक्रिय रहे. टीम ने निष्कर्ष निकाला कि राज्य की प्रतिक्रिया ने मुसलमानों के खिलाफ सामूहिक दंड और संस्थागत पूर्वाग्रह का एक पैटर्न प्रदर्शित किया. इसने धार्मिक अभिव्यक्ति के दमन, मनमानी गिरफ्तारी और सेंसरशिप का सुझाव देने वाले “विश्वसनीय साक्ष्य” पाए.
रिपोर्ट में उल्लेख किया गया, अधिकारियों ने एक शांतिपूर्ण विरोध के जवाब में आक्रामक और असमान उपाय किए. गिरफ्तारी, नोटिस और उचित प्रक्रिया के लिए कानूनी मानदंडों की अनदेखी की गई, जो मानवाधिकारों के उल्लंघन के समान है.
रिपोर्ट में मुस्लिम समुदाय, अधिकारियों और स्वतंत्र मध्यस्थों के बीच संवाद; पुलिस कार्रवाई, गिरफ्तारी और संपत्ति जब्ती की न्यायिक जांच; और मानवाधिकारों के उल्लंघन की जांच के लिए राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग (एनएचआरसी) के हस्तक्षेप की मांग की गई. रिपोर्ट में नागरिक समाज से मुस्लिम धार्मिक अभिव्यक्ति के अपराधीकरण का विरोध करने और दंडात्मक विध्वंस और सीलिंग अभियान के लिए स्थानीय अधिकारियों को जवाबदेह ठहराने की भी अपील की गई. रिपोर्ट कहती है कि पूरे राज्य में पारदर्शिता और न्याय के लिए बढ़ती मांगों और पुलिस की निरंतर तैनाती के साथ बरेली में स्थिति तनावपूर्ण बनी हुई है.
अमित शाह का गणित कमज़ोर, घुसपैठ और मुस्लिम आबादी पर झूठ बोल रहे हैं: ओवैसी
ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुस्लिमीन (AIMIM) के प्रमुख असदुद्दीन ओवैसी ने केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह पर घुसपैठ और सभी धर्मों में जनसंख्या वृद्धि में असमानता को लेकर दिए गए उनके बयानों पर “झूठ बोलने” का आरोप लगाया है.
एएनआई को दिए एक इंटरव्यू में ओवैसी ने दावा किया कि पहली जनगणना से लेकर 2011 की जनगणना तक मुस्लिम आबादी में 4.4 प्रतिशत की वृद्धि हुई है. अमित शाह पर तंज कसते हुए उन्होंने कहा कि उनका गणित “कमज़ोर” है.
उन्होंने कहा, “अमित शाह ने जनसंख्या को लेकर एक बयान दिया. वह एक के बाद एक झूठ बोल रहे हैं. पहली जनगणना से 2011 की जनगणना तक, मुस्लिम आबादी में 4.4 प्रतिशत की वृद्धि हुई है. मोहन भागवत ने कहा कि एक समुदाय की आबादी काफी बढ़ रही है, जबकि बाद में योगी आदित्यनाथ ने दावा किया कि स्वदेशी लोगों की आबादी घट रही है. मोहन भागवत अब तीन बच्चे पैदा करने के लिए कह रहे हैं.”
ओवैसी ने आगे कहा, “अगर किसी आबादी में 10 लोग हैं और 10 लोगों की वृद्धि होती है, तो यह 100 प्रतिशत वृद्धि की तरह दिखेगा. मुझे नहीं पता कि अमित शाह का गणित इतना कमज़ोर है.”
इसके अलावा, एआईएमआईएम प्रमुख ने केंद्रीय गृह मंत्री से सवाल किया कि वह देश में हो रही घुसपैठ को रोकें. उन्होंने कहा, “सरकारी आँकड़े बताते हैं कि मुसलमानों की कुल प्रजनन दर (Total Fertility Rate) में सबसे ज़्यादा गिरावट आई है. अगर कोई घुसपैठ कर रहा है, तो आप मंत्री हैं, आप उन्हें रोक क्यों नहीं पाते?... अगर आप हर बंगाली भाषी भारतीय मुसलमान को बांग्लादेशी कहेंगे, तो यह गलत है.”
यह बयान अमित शाह की शुक्रवार की उन टिप्पणियों के बाद आया है, जिसमें उन्होंने कहा था कि 1951 से 2011 तक की जनगणना में सभी धर्मों में जनसंख्या वृद्धि में जो असमानता देखी गई है, उसका मुख्य कारण घुसपैठ है. उन्होंने दावा किया था कि मुस्लिम आबादी में 24.6 प्रतिशत की दर से वृद्धि हुई है, जबकि हिंदू आबादी में 4.5 प्रतिशत की कमी आई है. शाह ने स्पष्ट किया कि यह गिरावट प्रजनन दर के कारण नहीं, बल्कि घुसपैठ के कारण है.
शाह ने कहा था, “आज घुसपैठ, जनसांख्यिकीय बदलाव और लोकतंत्र; मैं बिना किसी हिचकिचाहट के कहना चाहता हूँ कि जब तक हर भारतीय इन तीन मुद्दों को नहीं समझेगा, तब तक हम अपने देश, अपनी संस्कृति, अपनी भाषाओं और अपनी स्वतंत्रता को सुनिश्चित नहीं कर सकते. ये तीनों विषय आपस में जुड़े हुए हैं...”
उन्होंने आगे कहा, “1951, 1971, 1991 और 2011 में जनगणना हुई... 1951 की जनगणना में, हिंदू 84 प्रतिशत थे, जबकि मुसलमान 9.8 प्रतिशत थे. 1971 में, हिंदू 82 प्रतिशत थे और मुस्लिम आबादी 11 प्रतिशत थी. 1991 में, हिंदू 81 प्रतिशत थे और मुस्लिम समुदाय 12.12 प्रतिशत था, जबकि 2011 में, हम 79 प्रतिशत थे और मुसलमान 14.2 प्रतिशत थे. मैं केवल दो धर्मों की आबादी के बारे में बात कर रहा हूँ क्योंकि मैं घुसपैठ के बारे में बात करना चाहता हूँ...”
विश्लेषण
आकार पटेल | 1991 मे भारत चीन के बराबर था. फिर क्या हुआ?
पैंतीस साल पहले, भारत ने दो रास्ते चुने, और वो आज भी उन दोनों पर ही चल रहा है. पहला रास्ता था एक नई तरह की अर्थव्यवस्था की ओर बढ़ना. इसे अनौपचारिक रूप से उदारीकरण का नाम दिया गया और इसमें विदेशी पूँजी के लिए भारत को खोलना, लाइसेंस राज को खत्म करना, और सार्वजनिक क्षेत्र के एकाधिकार को समाप्त करना शामिल था.
भले ही यह कहा नहीं गया था, लेकिन उदारीकरण का लक्ष्य जापान, ताइवान और दक्षिण कोरिया जैसे एशियाई देशों के रास्ते पर चलकर भारत का औद्योगीकरण करना था. ठीक उसी समय एक और देश हमारे साथ यही कोशिश कर रहा था, और वो था चीन. उदारीकरण की दहलीज पर, जिसकी तारीख हम 24 जुलाई 1991 मानते हैं (जब वित्त मंत्री मनमोहन सिंह ने अपना बजट पेश किया था), भारत और चीन आर्थिक विकास के एक ही पड़ाव पर थे. वर्ल्ड बैंक का कहना है कि 1991 में दोनों देशों की प्रति व्यक्ति जीडीपी 334 डॉलर थी.
कहा जाता है कि चीन को थोड़ी बढ़त हासिल थी क्योंकि उनके यहाँ खुलापन लाने की प्रक्रिया माओत्से तुंग की मृत्यु के ठीक बाद शुरू हो गई थी, यानी भारत से लगभग एक दशक पहले. लेकिन चीन एक बहुत ही बुरे दौर से निकल रहा था, जहाँ कोई निजी क्षेत्र था ही नहीं और समाज सांस्कृतिक क्रांति से ज़ख्मी था, जिसे एक-बच्चा नीति जैसी क्रूरता ने और भी कुचल दिया था. इसलिए, यह कहना ठीक होगा कि 1991 में हम असल में बराबरी पर थे.
इस रास्ते पर तब से जो हुआ है, उसे दशक-दर-दशक के हिसाब से संक्षेप में समझा जा सकता है. 1990 के दशक के अंत तक, चीन की प्रति व्यक्ति जीडीपी भारत से दोगुनी हो गई थी.
अगले दशक की शुरुआत में अटल बिहारी वाजपेयी के सालों ने हमें ‘इंडिया शाइनिंग’ का वादा दिया. लेकिन 2000 के दशक के अंत तक, चीन तीन गुना आगे निकल चुका था. मनमोहन सिंह के दौर में, चीन चार गुना ऊपर था. मोदी के न्यू इंडिया में, यह पाँच गुना ऊपर पहुँच गया.
2008 के वैश्विक वित्तीय संकट के समय तक, द इकोनॉमिस्ट, द वॉल स्ट्रीट जर्नल और द फाइनेंशियल टाइम्स जैसे प्रकाशन, जो वैश्विक अर्थव्यवस्था पर नज़र रखते हैं, ऐसे लेख छापा करते थे जिनमें यह अटकलें लगाई जाती थीं कि भारत जापान, दक्षिण कोरिया और चीन की कतार में शामिल होने की राह पर है. कोविड महामारी के आते-आते यह सब खत्म हो गया. यह मान लिया गया कि भारत वो नहीं कर रहा है और न ही कर सकता है जो एशियाई टाइगरों ने किया था, और उसे अपनी बहनों, बांग्लादेश और कुछ हद तक पाकिस्तान, की ही रफ्तार से बढ़ने के लिए छोड़ दिया गया.
इसके कई कारण हो सकते हैं, लेकिन मुख्य कारण था सरकार के तंत्र का प्रभावी ढंग से नीतियाँ बनाने और उन्हें लागू करने में असमर्थ होना. आज, भारत की प्रति व्यक्ति जीडीपी 2696 डॉलर है, जो चीन (13,303 डॉलर) की तुलना में बांग्लादेश (2593 डॉलर) और पाकिस्तान (1484 डॉलर) के ज़्यादा करीब है.
यही कारण है कि खुद सरकार भी मानती है कि ज़्यादातर भारतीयों को खाद्य सहायता की ज़रूरत है, और विकास की कहानियों के पीछे की असली समस्या नौकरियाँ और भारी असमानता है.
भले ही यह साफ़ है कि यह योजना उम्मीद के मुताबिक काम नहीं कर रही है, फिर भी भारत उसी आर्थिक रास्ते पर बना हुआ है. दूसरा रास्ता जो भारत ने 1990 में चुना था, उस पर भी वह आज तक बना हुआ है. यह रास्ता था बहुलवाद और धर्मनिरपेक्षता से दूर हटना और उस यूटोपिया की ओर बढ़ना जिसका वादा भाजपा की विचारधारा ने किया था, जिसे उसने 1996 के अपने घोषणापत्र में हिंदुत्व का नाम दिया.
बाबरी मस्जिद के खिलाफ़ पार्टी के सफल अभियान और उसके बाद हुए नरसंहारों ने भारत को पूरी तरह से एक नई दिशा में मोड़ दिया. 1951 में बनी यह पार्टी 1990 तक बिना किसी गठबंधन के अपना खुद का मुख्यमंत्री नहीं बना पाई थी. इन सभी दशकों में इसका राष्ट्रीय वोट शेयर सिंगल डिजिट में ही रहा, जो बाबरी के बाद एल.के. आडवाणी के नेतृत्व में दोगुना होकर लगभग 18% हो गया और फिर नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में फिर से दोगुना होकर 36% पर पहुँच गया.
विकास के पहले रास्ते के उलट, इस दूसरे रास्ते पर गति काफी तेज़ रही है. वाजपेयी के समय में, भाजपा अपनी अल्पसंख्यक-विरोधी राजनीति को लेकर उतनी ज़ोरदार नहीं थी जितनी आज है. ऐसा इसलिए था क्योंकि कुछ लोग मानते थे कि वाजपेयी नरम थे, हालाँकि यह भी सच है कि वह सहयोगियों पर निर्भर थे और इसलिए उन्हें हिचकिचाना पड़ता था. 2002 की घटनाओं ने यह सब बदल दिया. भाजपा को अपना नया नेता मिला, जो इन दोनों दिशाओं का साक्षात रूप था. एक ऐसे राज्य से आने के कारण जिसे 1991 के सुधारों से सबसे ज़्यादा फायदा हुआ था, उन्होंने दावा किया कि वहाँ की सापेक्ष प्रगति उनकी वजह से थी. और 2002 के नरसंहार, और वाजपेयी की उन्हें हटाने में असमर्थता ने, उन्हें भविष्य के मुख्य चेहरे के रूप में स्थापित कर दिया, जिसे वह पूरा करने में भी सफल रहे. उन्होंने 1990 में भारत द्वारा चुने गए दोनों रास्तों पर प्रगति का वादा किया, लेकिन वह इसे केवल एक पर ही आगे ले जा सके. आज, भारत की तुलना चीन से नहीं की जाती है और सरकार ने, बाकी दुनिया की तरह, यह तुलना करना छोड़ दिया है. इसके बजाय, हमने आंतरिक उत्पीड़न में सुकून पा लिया है, और इस प्रक्रिया में पाकिस्तानी सेना और बांग्लादेशी शरणार्थियों से लड़ते रहते हैं. 1990 के बाद भाजपा की चुनावी सफलता का मतलब है कि इस रास्ते को छोड़ना मुश्किल होगा, क्योंकि इन नीतियों को इनाम मिलता है.
युवा पाठकों के लिए 1990 का समय बहुत पुराना लग सकता है, लेकिन हममें से कई लोगों के लिए यह हाल की याद है. हम उन दशकों को देख सकते हैं और समझ सकते हैं कि क्या हुआ, और क्यों हुआ. आने वाले दशक भी ऐसे ही होंगे: एक अमीर और समान समाज बनने की राह पर हिचकिचाती और धीमी यात्रा, और हिंदुत्व यूटोपिया में और गहरे उतरने की एक तेज़, आत्मविश्वास से भरी यात्रा.
ओबीसी को ब्राह्मण के पैर धोने और वह पानी पीने के लिए मजबूर किया गया
मध्यप्रदेश के दमोह जिले में ओबीसी के एक युवक को कथित तौर पर एक ब्राह्मण व्यक्ति के पैर धोने और वह पानी पीने के लिए मजबूर किया गया. इस घटना की एक ‘आपत्तिजनक’ आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस (एआई) से बनी इमेज सोशल मीडिया में वायरल हो गई. पुलिस ने एफआईआर दर्ज कर ली है. ‘पीटीआई’ के अनुसार, यह घटना शनिवार को जिला मुख्यालय से 45 किलोमीटर दूर, पटेरा पुलिस स्टेशन क्षेत्र के सतरिया गांव की है. ओबीसी समुदाय के पुरुषोत्तम कुशवाहा ने कथित तौर पर इंस्टाग्राम पर एक एआई-जनरेटेड इमेज पोस्ट की, जिसमें गांव के निवासी, अन्नू पांडे को जूतों की माला पहने हुए दिखाया गया था. पोस्ट वायरल होने और इलाके में गुस्सा व तनाव भड़कने के बाद, कुशवाहा ने पोस्ट हटा दिया और सार्वजनिक रूप से माफी मांगी. लेकिन, गांव की पंचायत बुलाई गई और कुशवाहा को पांडे के पैर धोने और वही पानी पीने के लिए मजबूर किया गया. पंचायत ने उस पर 5,100 रुपये का जुर्माना भी लगाया. इस अपमानजनक कार्रवाई का एक वीडियो सोशल मीडिया पर साझा किया गया. स्थानीय अधिकारियों ने कहा कि पीड़ित ने अभी तक कोई औपचारिक शिकायत दर्ज नहीं कराई है. दमोह कलेक्टर सुधीर कुमार कोचर ने बताया कि पांडे सहित चार लोगों के खिलाफ एफआईआर दर्ज की गई है.
कांग्रेस ने इस घटना की निंदा करते हुए इसे “इंसानियत पर धब्बा” बताया है. पार्टी ने दोषियों के खिलाफ सख्त कार्रवाई की मांग की और कहा कि देश को “डॉ. बी.आर. अंबेडकर के संविधान” के अनुसार चलना चाहिए, न कि आरएसएस और बीजेपी के “पसंदीदा मनुवाद” के अनुसार. वहीं, राज्य भाजपा के मीडिया प्रभारी आशीष अग्रवाल ने विपक्षी दल पर हर अपराध का राजनीतिकरण करने का आरोप लगाया है.
दानिश सिद्दीकी फाउंडेशन की तालिबान विदेश मंत्री से न्याय की मांग
तालिबान के विदेश मंत्री आमिर खान मुत्तकी भारत की यात्रा पर हैं, लिहाजा दानिश सिद्दीकी फाउंडेशन ने पुलित्ज़र पुरस्कार विजेता भारतीय फोटो पत्रकार दानिश सिद्दीकी की हत्या पर न्याय के लिए अपनी मांग फिर से दोहराई है. दानिश की 2021 में अफ़गानिस्तान में संघर्ष को कवर करते समय हत्या कर दी गई थी. फाउंडेशन ने कहा कि सिद्दीकी को “पकड़ा गया, प्रताड़ित किया गया और मार डाला गया.” शनिवार को जारी एक बयान में, फाउंडेशन ने भारत सरकार से अंतर्राष्ट्रीय आपराधिक न्यायालय (आईसीसी) और संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार परिषद के जवाबदेही तंत्रों के माध्यम से न्याय मांगने का आग्रह किया. मार्च 2022 में, सिद्दीकी के माता-पिता ने उनके बेटे की हत्या के संबंध में युद्ध अपराधों और मानवता के विरुद्ध अपराधों के लिए मुल्ला हसन अखुंद, अब्दुल गनी बरादर और ज़बीउल्लाह मुजाहिद सहित वरिष्ठ तालिबान नेताओं को नामजद करते हुए अंतर्राष्ट्रीय आपराधिक न्यायालय में एक औपचारिक शिकायत दर्ज कराई थी.
बयान में कहा गया है, “यह दौरा तालिबान को अंतर्राष्ट्रीय मानवीय कानून के तहत अपने दायित्वों की याद दिलाने और दानिश की हत्या की स्वतंत्र जांच में सहयोग करने के लिए प्रोत्साहित करने का अवसर भी प्रदान करता है.”

मुत्तकी ने दानिश सिद्दीकी की हत्या पर खेद जताया
इस बीच, दानिश सिद्दीकी की हत्या पर, मुत्तकी ने खेद व्यक्त किया. उन्होंने कहा कि हमने चार दशकों के युद्ध का अनुभव किया. यह हमारे इतिहास में एक कड़वा दौर था. हम पिछले कुछ वर्षों में हुए सभी नुकसानों पर खेद व्यक्त करते हैं. उन्होंने आगे कहा, “हालांकि, पिछले चार वर्षों में, किसी भी रिपोर्टर को नुकसान नहीं पहुंचाया गया है.”
दानिश के चित्र आपको देखने ही चाहिए चाहे फ़ोटोग्राफी के शौकीन हों या पत्रकारिता के पेशे में. अफ़गानिस्तान की जंग हो, या कोविड का कहर या दिल्ली के दंगे, दानिश के फ़ोटो अलग हैं.
मुत्तकी की सफ़ाई; महिला पत्रकारों को बाहर करना ‘तकनीकी मुद्दा’ था, इरादतन नहीं
अफगानिस्तान के विदेश मंत्री आमिर खान मुत्तकी ने कहा है कि नई दिल्ली में शुक्रवार को हुई प्रेस कॉन्फ्रेंस से महिला पत्रकारों को बाहर करना “जानबूझकर नहीं था, बल्कि यह अधिक एक तकनीकी मुद्दा था.”
रविवार को दूसरी प्रेस मीट के दौरान, जिसके लिए पुरुष और महिला दोनों पत्रकारों को आमंत्रित किया गया था, उन्होंने कहा, “प्रेस कॉन्फ्रेंस के संबंध में कम समय के नोटिस के कारण हुआ. भागीदारी सूची विशिष्ट पत्रकारों के साथ तैयार की गई थी, और यहजानबूझकर बाहर करना नहीं, बल्कि अधिक एक तकनीकी मुद्दा था. इरादतन नहीं था.”
मुत्तकी छह दिवसीय भारत यात्रा पर हैं. 10 अक्टूबर (शुक्रवार) को नई दिल्ली में आयोजित उनकी प्रेस कॉन्फ्रेंस में महिला पत्रकारों को भाग लेने की अनुमति नहीं दी गई थी. इस घटना ने व्यापक आलोचना को जन्म दिया था. कई लोगों ने इसे तालिबान की महिला-विरोधी सोच के प्रतिबिंब के रूप में देखा, जो महिलाओं को शिक्षा और अधिकांश कार्यस्थलों तक पहुंचने से रोकने के लिए कुख्यात है. पत्रकारों ने देश में ऐसी नीतियों को प्रोत्साहित करने के लिए भारत सरकार की निंदा की थी.
तालिबान शासन के तहत लैंगिक भेदभाव के बारे में व्यापक चिंताओं का जवाब देते हुए, मुत्तकी ने दावा किया कि “शिक्षा हराम नहीं है,” और कहा कि अफगानिस्तान में वर्तमान में स्कूल जा रहे 10 मिलियन (1 करोड़) छात्रों में से 2.8 मिलियन (28 लाख) लड़कियां हैं.”
पाकिस्तान-अफगानिस्तान झड़पों में दर्जनों की मौत, तालिबान वापसी के बाद सबसे भीषण लड़ाई
पाकिस्तान और अफगानिस्तान, दोनों पक्षों ने रविवार को कहा कि रात भर चली सीमा झड़पों में दर्जनों लड़ाके मारे गए, जो तालिबान के काबुल में सत्ता में आने के बाद से पड़ोसियों के बीच सबसे गंभीर लड़ाई है. पाकिस्तानी सेना ने कहा कि झड़पों में उसके 23 सैनिक मारे गए. तालिबान ने कहा कि उसकी तरफ के नौ लोग मारे गए.
इस्लामाबाद द्वारा तालिबान से उन आतंकवादियों के खिलाफ़ कार्रवाई करने की मांग के बाद तनाव बढ़ गया है जिन्होंने पाकिस्तान में हमले तेज़ कर दिए हैं. पाकिस्तान का कहना है कि वे अफगानिस्तान में पनाहगाहों से काम करते हैं. 2021 में सत्ता में आए तालिबान ने इस बात से इनकार किया है कि उसकी धरती पर पाकिस्तानी आतंकवादी मौजूद हैं.
प्रत्येक पक्ष ने सबूत दिए बिना कहा कि उसने दूसरे पक्ष को कहीं ज़्यादा हताहत किया है. पाकिस्तान ने कहा कि उसने 200 से अधिक अफगान तालिबान और सहयोगी लड़ाकों को मार गिराया है, जबकि अफगानिस्तान ने कहा कि उसने 58 पाकिस्तानी सैनिकों को मार डाला है. रॉयटर्स स्वतंत्र रूप से इन आँकड़ों की पुष्टि नहीं कर सका.
गुरुवार को, पाकिस्तान ने काबुल और पूर्वी अफगानिस्तान के एक बाज़ार पर हवाई हमले किए, पाकिस्तानी सुरक्षा अधिकारियों और तालिबान के अनुसार, जिसके बाद तालिबान ने जवाबी हमले किए. पाकिस्तान ने आधिकारिक तौर पर हवाई हमलों को स्वीकार नहीं किया है.
अफगान सैनिकों ने शनिवार देर रात पाकिस्तानी सीमा चौकियों पर गोलीबारी की. पाकिस्तान ने कहा कि उसने बंदूक और तोपखाने से जवाब दिया. दोनों देशों ने एक-दूसरे की सीमा चौकियों को नष्ट करने का दावा किया. पाकिस्तानी सुरक्षा अधिकारियों ने वीडियो फुटेज साझा किया, जिसमें उन्होंने कहा कि अफगान चौकियों पर हमला किया जा रहा है.
पाकिस्तानी सुरक्षा अधिकारियों ने कहा कि रविवार सुबह तक गोलीबारी काफी हद तक खत्म हो गई थी. लेकिन पाकिस्तान के कुर्रम इलाके में, स्थानीय अधिकारियों और निवासियों के अनुसार, रुक-रुक कर गोलीबारी जारी रही.
काबुल ने रविवार को कहा कि उसने कतर और सऊदी अरब के अनुरोध पर हमले रोक दिए हैं. दोनों अरब खाड़ी देशों ने झड़पों पर चिंता व्यक्त करते हुए बयान जारी किए थे.
तालिबान प्रशासन के प्रवक्ता, ज़बीहुल्लाह मुजाहिद ने रविवार को कहा, “अफगानिस्तान के किसी भी हिस्से में किसी भी तरह का कोई खतरा नहीं है. इस्लामी अमीरात और अफगानिस्तान के लोग अपनी भूमि की रक्षा करेंगे और इस रक्षा में दृढ़ और प्रतिबद्ध रहेंगे.”
पाकिस्तानी अधिकारियों ने रविवार को कहा कि पाकिस्तान ने अफगानिस्तान के साथ 2,600 किलोमीटर (1,600 मील) की सीमा पर क्रॉसिंग बंद कर दी है, जो 1893 में अंग्रेजों द्वारा खींची गई एक विवादित औपनिवेशिक काल की सीमा है जिसे डूरंड रेखा के नाम से जाना जाता है. स्थानीय अधिकारियों ने कहा कि अफगानिस्तान के साथ दो मुख्य सीमा पार, तोरखम और चमन, और कम से कम तीन छोटी क्रॉसिंग, खारलाची, अंगूर अड्डा और गुलाम खान, रविवार को बंद कर दी गईं.
पाकिस्तानी हवाई हमले एक तालिबान नेता, विदेश मंत्री अमीर खान मुत्ताकी की भारत की एक दुर्लभ यात्रा के साथ मेल खाते हैं, जिसके परिणामस्वरूप भारत ने शुक्रवार को संबंधों को उन्नत करने की घोषणा की. भारत पाकिस्तान का पुराना प्रतिद्वंद्वी है, और इस यात्रा ने इस्लामाबाद में चिंता पैदा कर दी है.
संघ के 100 साल:
तीन बड़ी हार, चौथी की तैयारी
द वायर में आरएसएस के सौ साल होने पर वरिष्ठ पत्रकार हरीश खरे के प्रकाशित लेख के मुख्य अंश.
गांधी, 1971 के युद्ध और अटल बिहारी वाजपेयी के बाद, अपने शताब्दी वर्ष में, संघ खुद को मोदी प्रोजेक्ट में फँसा हुआ पाता है और गलती से यह मान बैठा है कि यह फँसाव एक बड़ी उपलब्धि और संतोष का विषय है.
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ अपनी शताब्दी मना रहा है और इसमें कोई आश्चर्य नहीं कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से लेकर विभिन्न किराए के कलमघसीटों तक, कई आवाज़ें संगठन की प्रशंसा में सुनी गई हैं. ऐसा लगता है जैसे संघ-मय होने की एक महामारी फैल गई है. उम्मीद के मुताबिक, हम संगठन की तथाकथित विशिष्टता—उसकी अद्वितीय निस्वार्थता, उसके शुद्ध आदर्शवाद, मातृभूमि के लिए उसके असाधारण प्रेम, राष्ट्रीय गौरव और पुनरुत्थान के प्रति उसकी बेजोड़ प्रतिबद्धता और बहुत कुछ—के दावों के नीचे दबे हुए हैं.
यह सच है कि किसी संगठन का सौ साल तक अस्तित्व में रहना ही अपने आप में किसी तरह के आयोजन का एक जायज़ अवसर बन जाता है. आरएसएस के मामले में, इस अवसर को एक विजय समारोह के रूप में बढ़ा-चढ़ाकर मनाया जा रहा है. इसलिए, संघ की विफलताओं, खासकर उन तीन बड़ी हारों के बारे में बात करना ज़रूरी है जो इस संगठन और उसके वैचारिक नारों को झेलनी पड़ीं; और उस चौथी हार के बारे में भी बात करने की ज़रूरत है जो तैयार हो रही है.
आरएसएस को पहली रणनीतिक हार महात्मा गांधी और उनके नैतिक राष्ट्रवाद के आह्वान के हाथों झेलनी पड़ी. के.बी. हेडगेवार और उनके उत्तराधिकारी, एम.एस. गोलवलकर में इतनी क्षमता ही नहीं थी कि वे भारत की “हिंदू” आबादी के एक छोटे से हिस्से को भी अपने तर्कों में कोई समझदारी दिखा पाते. गांधी पहले ही भारतीय मानस में अपने विचारों और तकनीकों को भर चुके थे, और नागपुर के योद्धा किसी भी मोड़ पर गांधी को हमारी सामूहिक कल्पना से हटा नहीं पाए. हताशा में, नाथूराम गोडसे को हत्यारे की भूमिका सौंपी गई और एक पिस्तौल दी गई. वास्तव में, 30 जनवरी, 1948 आरएसएस के दावों के लिए सबसे शानदार हार थी. गांधी एक राष्ट्रीय संत बन गए.
अगले चार दशकों में, आरएसएस और उसके ‘सांस्कृतिक राष्ट्रवाद’ को जवाहरलाल नेहरू और इंदिरा गांधी द्वारा बनाए गए ‘धर्मनिरपेक्ष राष्ट्रवाद’ के माहौल में हार पर हार का सामना करना पड़ा. यह एक तयशुदा रणनीतिक हार थी. नागपुर के बड़े नेताओं की अवधारणाएँ और विचार उस ख़ुशनुमा उत्साह के सामने टिक नहीं पाए जो नेहरू देश में अपनी शर्तों और अपने सपनों के अनुसार एक नया राष्ट्र बनाने के लिए पैदा करने में सक्षम थे. हिंदू समाज के उन अहंकारी संरक्षकों को यह समझ ही नहीं आया कि उनकी सांप्रदायिकता हमारी सभ्यता की समावेश और सामंजस्य की प्रतिभा के खिलाफ़ थी.
नेहरू ने राष्ट्र को प्रगतिशील रूप से सोचने के लिए आमंत्रित किया और हमारे पुराने समाज से आधुनिक विचारों और नवाचारों के साथ जुड़ने का अथक आग्रह किया. वहीं आरएसएस एक दूर के अतीत की ओर देख रहा था. नेहरू के पास एक पवित्र वैधता थी जो उन्हें और उनकी कांग्रेस पार्टी को ब्रिटिश उपनिवेशवाद के खिलाफ स्वतंत्रता संग्राम से मिली थी. आरएसएस के पास कोई तुलनीय सम्मान नहीं था, वैधता का तो कोई संकेत ही नहीं था, सिवाय एक तरह की विभाजनकारी बातों के. इसके विपरीत, आरएसएस ने केवल पुरातनपंथी बातों और हिंसा के लिए एक अंतर्निहित निमंत्रण की पेशकश की.
आरएसएस के पक्षपाती को केवल एक ही चीज़ उत्साहित करती थी—पाकिस्तान का जन्म और भारत में बड़ी संख्या में मुस्लिम नागरिकों का अस्तित्व. 1971 में, इंदिरा गांधी ने आरएसएस के केंद्रीय विलाप की जड़ ही खत्म कर दी जब उन्होंने पाकिस्तान से एक बांग्लादेश बना दिया. 1971 का युद्ध मोहम्मद अली जिन्ना के पाकिस्तान के लिए जितनी बड़ी रणनीतिक हार थी, उतनी ही बड़ी हार हेडगेवारों और गोलवलकरों के विचारों के लिए भी थी.
दशकों तक, आरएसएस एक हाशिए पर पड़ा संगठन बना रहा. इसके कैडर ने सांप्रदायिक हिंसा के समय यहाँ-वहाँ कुछ सड़कों पर झड़पें जीतीं; लेकिन संघ कभी भी एक दृढ़ कलेक्टर के सामने लड़ाई नहीं जीत सका. और, सैन्य साजो-सामान के प्रति अपने तमाम मोह के बावजूद, इसने कभी भी भारतीय राज्य से भिड़ने की कोशिश नहीं की.
आरएसएस की तीसरी हार उसके अपने ही एक स्वयंसेवक—अटल बिहारी वाजपेयी के हाथों हुई, जो वैश्वीकरण के वॉशिंगटन-स्थित कर्ता-धर्ताओं और मुंबई-स्थित कॉर्पोरेट दिग्गजों, दोनों की समझौतावादी पसंद बन गए थे. वाजपेयी एक ऐसी सच्चाई बन गए जिसे आरएसएस की मंजूरी के बिना स्वीकार करना पड़ा. संघ के पास यह विकल्प था कि या तो वह एक अडिग राष्ट्रवादी आवाज़ होने के अपने दिखावे पर कायम रहे या फिर वाजपेयी शासन के लिए, चाहे कितनी भी अनिच्छा से हो, एक चीयर-लीडर बनने के लिए खुद को तैयार कर ले. नागपुर की टीम ने दूसरी भूमिका को चुना, और जल्द ही उन सभी समझौतों और रियायतों में भागीदार बन गई जो भाजपा को राष्ट्रीय सत्ता का स्वाद चखने की संतुष्टि के लिए करनी पड़ीं.
आरएसएस नेतृत्व वाजपेयी के यथार्थवादी राजनीतिक कौशल और चालाकी का मुकाबला नहीं कर सका, और प्रधानमंत्री के इस कदम पर चुपचाप झुक गया कि वरिष्ठ प्रचारक गोविंदाचार्य को वनवास में भेज दिया जाए. वास्तव में, वाजपेयी शासन ने आरएसएस के कमिसारों को कभी भाव नहीं दिया. और क्योंकि आरएसएस ने वाजपेयी और आडवाणी की चुनावी गणनाओं को स्वीकार कर लिया, हिंदुत्व का मुद्दा एक सुविधाजनक जुमला बनकर अवमूल्यित हो गया.
फिर 2014 में ‘हिंदू राज’ का युग शुरू हुआ. संरक्षण के कुछ टुकड़ों का आनंद लेने के अलावा, आरएसएस के मालिकों ने खुद को मोदी के व्यक्ति-पंथ के सामने दूसरी भूमिका निभाने और साथ ही उस संगठित क्रोनी कैपिटलिज्म को आशीर्वाद देने के लिए मजबूर पाया जो मोदी शासन की पहचान बन गया है. एक आध्यात्मिक और नैतिक बंजरपन अब हमारे राष्ट्रीय पुनर्जागरण के स्व-घोषित संरक्षकों पर हावी होने का खतरा है. अपने शताब्दी वर्ष में, संघ खुद को मोदी प्रोजेक्ट में फँसा हुआ पाता है और गलती से यह मानता है कि यह फँसाव एक बड़ी उपलब्धि और संतोष का विषय है. स्पष्ट रूप से, मोहन भागवत और उनके सहयोगी स्वेच्छा से उस ओर बढ़ रहे हैं जो आरएसएस की चौथी बड़ी हार होने जा रही है.
कांग्रेस नेता ने आरएसएस को भारत का तालिबान बताया
वरिष्ठ कांग्रेस नेता और कर्नाटक के एमएलसी बी.के. हरिप्रसाद ने रविवार (12 अक्टूबर, 2025) को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को “भारतीय तालिबान” बताया और कहा कि यह दक्षिणपंथी संगठन एक पंजीकृत संस्था नहीं है. उन्होंने कहा कि आरएसएस राज्य में शाखाएं चला रहा है लेकिन उसने पुलिस से अनुमति नहीं ली है. उन्होंने कहा, “आरएसएस एक पंजीकृत संस्था नहीं है,” और इसे सार्वजनिक स्थानों, जैसे मैदानों और पार्कों में कार्यक्रम आयोजित करने के लिए संबंधित अधिकारियों से अनुमति लेनी होगी.
कांग्रेस नेता की यह टिप्पणी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा अपनी शताब्दी समारोह पर आरएसएस के योगदान की प्रशंसा करने के कुछ दिनों बाद और उस दिन आई जब आरएसएस ने बेंगलुरु शहर के विभिन्न इलाकों में एक मार्च निकाला.
पत्रकारों से बात करते हुए, कांग्रेस नेता ने कहा, “आरएसएस भारत का तालिबान है. वे एक ऐसा संगठन हैं जो सरकार के साथ पंजीकृत नहीं है. उन्हें यह दिखाने दें कि उनका संगठन पंजीकृत है.”
उन्होंने आरएसएस को एक “अंडरवर्ल्ड” संगठन करार दिया जो “गैर-जिम्मेदाराना” तरीके से कार्यक्रम आयोजित कर रहा है. उन्होंने कहा कि 1948 में कांग्रेस सरकार ने आरएसएस पर प्रतिबंध लगा दिया था, और अब केंद्र सरकार को इसके प्रतिबंध पर निर्णय लेना है.
“अगर आप सार्वजनिक स्थानों पर किसी भी तरह का कार्यक्रम आयोजित करना चाहते हैं, तो आपको पहले सरकार से अनुमति लेनी होगी. अगर आप अनुमति लेकर ऐसा करते हैं तो हमें कोई आपत्ति नहीं है. लेकिन आरएसएस की शाखाएं (शाखाएं) कई वर्षों से लाठियों और तलवारों के साथ बिना किसी अनुमति के चल रही हैं.”
उन्होंने कहा, “अगर आप फ़िलिस्तीन के पक्ष में विरोध करते हैं, तो आपको तुरंत पुलिस द्वारा गिरफ्तार कर लिया जाएगा. लेकिन पुलिस सरकारी मैदानों में आरएसएस की शाखाएं आयोजित करने की अनुमति देती है. मैं सवाल कर रहा हूँ कि ऐसा क्यों है.”
श्री हरिप्रसाद ने कहा कि तमिलनाडु सरकार ने आरएसएस सदस्यों के खिलाफ़ कार्रवाई की है और स्कूलों और कॉलेजों में कार्यक्रम आयोजित किए हैं. उन्हें गिरफ्तार किया गया है, और मामले दर्ज किए गए हैं. उन्होंने मांग की कि कर्नाटक में भी इसी तरह की कार्रवाई की जाए.
अडानी अधिकारियों के खिलाफ़ कार्रवाई करने में भारतीय अधिकारी विफल रहे: अमेरिकी एजेंसी की रिपोर्ट
नई दिल्ली: भारतीय अधिकारियों ने अडानी समूह के अधिकारियों को समन और शिकायतें तामील करने के उनके अनुरोधों पर कार्रवाई नहीं की है. यह बात अमेरिकी प्रतिभूति और विनिमय आयोग (SEC), जो भारतीय फर्म के खिलाफ़ कथित सुरक्षा धोखाधड़ी और 265 मिलियन डॉलर की रिश्वतखोरी घोटाले की जांच कर रहा है, ने शुक्रवार (12 अक्टूबर) को अदालत को बताई.
रॉयटर्स ने रिपोर्ट किया कि अडानी समूह के खिलाफ़ मामले ने अमेरिका में राष्ट्रीय ध्यान आकर्षित किया है, क्योंकि राज्य नियामक भारतीय अधिकारियों से इस मामले में सहयोग प्राप्त करने का प्रयास कर रहा है.
2024 में, ब्रुकलिन के अभियोजकों ने अडानी समूह पर भारतीय अधिकारियों को रिश्वत देने का आरोप लगाया था ताकि वे भारतीय समूह की सहायक कंपनी अडानी ग्रीन एनर्जी द्वारा उत्पादित बिजली खरीदें. SEC की शिकायत में दावा किया गया कि जिन भारतीय अधिकारियों को रिश्वत से फायदा हुआ, उन्होंने बाद में कंपनी की भ्रष्टाचार-विरोधी प्रथाओं के बारे में झूठी आश्वस्त करने वाली जानकारी देकर अमेरिकी निवेशकों को “गुमराह” किया.
रॉयटर्स के अनुसार, भारतीय कानून और न्याय मंत्रालय और अडानी समूह दोनों ने उनके सवालों का जवाब नहीं दिया. अडानी समूह ने पहले SEC के आरोपों को “निराधार” बताया था और कहा था कि वह इन आरोपों को खारिज करवाने के लिए “सभी संभव कानूनी सहारा” लेगा. जनवरी 2025 में, अडानी ग्रीन एनर्जी ने आरोपों की समीक्षा के लिए स्वतंत्र कानूनी फर्मों को नियुक्त किया था.
शुक्रवार को, SEC ने न्यूयॉर्क की एक जिला अदालत को बताया कि उसने अडानी समूह के संस्थापक गौतम अडानी और उनके भतीजे सागर अडानी को कानूनी दस्तावेज़ तामील करने के प्रयास में भारत के कानून मंत्रालय से बार-बार संपर्क किया. मंत्रालय के साथ नवीनतम संचार 14 सितंबर को हुआ था, लेकिन डिलीवरी की कोई पुष्टि स्वीकार नहीं की गई है, ऐसा SEC ने कहा.
SEC की फाइलिंग में कहा गया है, “SEC भारत के कानून और न्याय मंत्रालय के साथ संवाद करना जारी रखेगा और हेग सर्विस कन्वेंशन के ज़रिए प्रतिवादियों को समन तामील कराने की कोशिश जारी रखेगा.”
ट्रंप ने मोदी को शर्म-अल-शेख गाज़ा शांति शिखर सम्मेलन का न्यौता भेजा, कीर्तिवर्धन जाएंगे
गाज़ा शांति शिखर सम्मेलन 2025: प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप और मिस्र के राष्ट्रपति अब्देल फतह अल-सिसी द्वारा सोमवार, 13 अक्टूबर को मिस्र के शर्म-अल-शेख में होने वाले “शांति शिखर सम्मेलन” में भाग लेने के लिए आमंत्रित किया गया है.
हालांकि, प्रधानमंत्री कार्यालय (PMO) ने अभी तक गाज़ा पट्टी में युद्ध को समाप्त करने के उद्देश्य से आयोजित इस अंतरराष्ट्रीय शिखर सम्मेलन में मोदी की भागीदारी की पुष्टि नहीं की है. पर देर शाम खबर आई कि विदेश राज्य मंत्री कीर्ति वर्धन सिंह सोमवार 13 अक्टूबर को मिस्र के लाल सागर रिसॉर्ट शहर में होने वाले ‘शर्म अल-शेख शांति शिखर सम्मेलन’ में भारत का प्रतिनिधित्व करेंगे. मिस्र के राष्ट्रपति अब्देल फतह अल-सीसी द्वारा आयोजित और अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प की सह-अध्यक्षता में यह उच्च-स्तरीय बैठक गाजा और व्यापक मध्य पूर्व में स्थायी शांति लाने पर केंद्रित होगी.
मिस्र के राष्ट्रपति के प्रवक्ता के अनुसार, “शांति शिखर सम्मेलन” सोमवार दोपहर को शर्म-अल-शेख में अब्देल फतह अल-सिसी और ट्रंप की संयुक्त अध्यक्षता में आयोजित किया जाएगा, जिसमें 20 से अधिक देशों के नेता भाग लेंगे.
बयान में कहा गया, “शिखर सम्मेलन का उद्देश्य गाज़ा पट्टी में युद्ध को समाप्त करना, मध्य पूर्व में शांति और स्थिरता स्थापित करने के प्रयासों को मज़बूत करना, और क्षेत्रीय सुरक्षा और स्थिरता का एक नया अध्याय खोलना है.” इसमें यह भी कहा गया, “यह शिखर सम्मेलन अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के क्षेत्र में शांति प्राप्त करने के दृष्टिकोण और दुनिया भर के संघर्षों को समाप्त करने के उनके अथक प्रयास के प्रकाश में हो रहा है.”
यदि प्रधानमंत्री मोदी अपनी भागीदारी की पुष्टि करते हैं, तो यह उन्हें राष्ट्रपति ट्रंप से मिलने का एक अवसर प्रदान करेगा. ट्रंप से मिलने के अलावा, यह शिखर सम्मेलन कई अन्य कारणों से भी महत्वपूर्ण होगा—यह मध्य पूर्व में अपनी उपस्थिति दर्ज कराने, फ़िलिस्तीनी मुद्दे और सामान्य रूप से शांति के प्रति एक अच्छा संकेत देने, और मिस्र के साथ द्विपक्षीय संबंधों को बढ़ावा देने का एक मौका होगा.
हाल के द्विपक्षीय तनाव, जिसमें 50 प्रतिशत अमेरिकी टैरिफ और बढ़े हुए एच-1बी वीज़ा शुल्क देखे गए हैं, के बीच नई दिल्ली के साथ अपने पहले संपर्क में, अमेरिका के नामित राजदूत सर्जियो गोर ने शनिवार को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से मुलाकात की और अपनी यात्रा को गर्मजोशी और उत्साहपूर्ण शब्दों में वर्णित किया.
पिछले महीने, अपनी सीनेट पुष्टि सुनवाई के दौरान, गोर द्विपक्षीय संबंधों को लेकर आशावादी थे और उन्होंने भारत को एक “रणनीतिक साझेदार” बताया था “जिसका प्रक्षेप पथ क्षेत्र और उससे आगे को आकार देगा.” 9 से 14 अक्टूबर तक भारत में मौजूद गोर ने शनिवार को विदेश मंत्री एस. जयशंकर, राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजीत डोभाल और विदेश सचिव विक्रम मिसरी से भी मुलाकात की.
कांग्रेस छोड़कर भाजपा में गए नेता खुद को ठगा और इस्तेमाल किया हुआ पा रहे हैं
कांग्रेस छोड़कर भारतीय जनता पार्टी में अपनी अंतरात्मा की आवाज़ सुनकर शामिल हुए नेताओं पर पी रमन ने द वायर में एक तल्ख़ लेख लिखा है. उसके प्रमुख अंश.
अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी के कोषाध्यक्ष के रूप में अपने लंबे वर्षों के दौरान सीताराम केसरी कहा करते थे, “कांग्रेस में रहते हुए आप हीरो होते हैं, बाहर निकलते ही ज़ीरो बन जाते हैं.” यह बयान कितना सटीक है. आज वो हर कहीं दीखने वाले गुलाम नबी आज़ाद कहाँ हैं? अगर शशि थरूर भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के सांसद बन जाते, तो क्या उन्हें नियमित मोदी स्तुति और स्तोत्र से परे कुछ भी लिखने की अनुमति होती?
भाजपा में गए कांग्रेसी दलबदलुओं के कब्रिस्तान को देखिए, उनमें से अधिकांश निराश और उदास हैं: विजय बहुगुणा, कैप्टन अमरिंदर सिंह, गिरिधर गमांग और किरण रेड्डी जैसे पूर्व मुख्यमंत्री और रीता बहुगुणा, कृपा शंकर सिंह और दिलीप रे जैसे लोग. नारायण राणे, आर.पी.एन. सिंह, भुवनेश्वर कलिता और अशोक चव्हाण जैसे अन्य लोग साधारण सांसदों के रूप में अपना समय काट रहे हैं. तीसरे समूह में ज्योतिरादित्य सिंधिया, बीरेन सिंह, जितिन प्रसाद, राधाकृष्ण विखे पाटिल और त्रिपुरा के मुख्यमंत्री माणिक साहा हैं, जिन्हें उनकी राजनीतिक उपयोगिता के कारण उच्च पदों पर बनाए रखा गया है.
2022 में, रीता बहुगुणा ने अपनी लोकसभा सीट छोड़ने की पेशकश की थी, अगर उनके बेटे मयंक जोशी को भाजपा के विधानसभा उम्मीदवार के रूप में मैदान में उतारा जाता. मयंक को टिकट नहीं मिला और वे समाजवादी पार्टी में शामिल हो गए. अशोक चव्हाण के बहनोई और अन्य लोगों ने उन्हें छोड़ दिया और कांग्रेस में वापस चले गए. गिरिधर गमांग खुद कांग्रेस में लौट आए. ओडिशा के भाजपा नेता दिलीप रे ने अपने चुनाव में धांधली के लिए एक भाजपा नेता को दोषी ठहराया. पंजाब में, अमरिंदर सिंह ने भाजपा उम्मीदवार के लिए प्रचार नहीं किया.
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने बार-बार कांग्रेस की वंशवादी राजनीति की आलोचना की है, लेकिन भाजपा में कांग्रेस के दलबदलुओं का एक बड़ा हिस्सा वंशवादी है. ज्योतिरादित्य सिंधिया, जितिन प्रसाद, आर.पी.एन. सिंह, रीता और विजय बहुगुणा, विश्वजीत राणे, सुनील जाखड़, अशोक चव्हाण और अनिल एंटनी सभी कांग्रेस के लाड़ले बच्चे थे.
मोदी शासन के पहले छह वर्षों के लिए, अन्य दलों से दलबदल भाजपा के समर्थन आधार का विस्तार करने और कांग्रेस को तोड़ने और हतोत्साहित करने का एक साधन था. एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स (ADR) के अनुसार, 2016 और 2020 के बीच राज्यों में 170 कांग्रेस विधायकों ने भाजपा का दामन थामा. दूसरी ओर, भाजपा छोड़ने वाले विधायकों की संख्या 18 थी.
दलबदल मोटे तौर पर तीन श्रेणियों के थे. पहले, व्यक्तिगत नेता जो मानते थे कि कांग्रेस डूब रही है और सुरक्षित और बेहतर करियर की संभावनाओं के लिए एक उभरती हुई भाजपा में शामिल हो रहे हैं. दूसरे में ‘ऑपरेशन लोटस’ के तहत आयोजित दलबदल थे. पतले बहुमत वाले विपक्ष-शासित राज्य प्राथमिक लक्ष्य थे. ADR अध्ययन में बताया गया है कि मध्य प्रदेश, कर्नाटक, मणिपुर, गोवा और अरुणाचल प्रदेश में विपक्षी सरकारें दलबदल के कारण गिर गईं.
महाराष्ट्र में, शिवसेना विधायकों को धोखा देने के लिए एक समन्वित अभियान चलाया गया. अजित पवार के नेतृत्व वाले विधायकों के एक समूह को भाजपा की ओर लाने का एक समान प्रयास किया गया. अजित और उनकी पत्नी पर कई भ्रष्टाचार के मामलों में जांच चल रही थी. नौ बागी NCP विधायकों में से चार - अजित पवार, प्रफुल्ल पटेल, छगन भुजबल और हसन मुश्रीफ - भाजपा के साथ हाथ मिलाने से पहले मनी-लॉन्ड्रिंग के मामलों में ED द्वारा जांच के दायरे में थे.
जल्द ही, इनमें से अधिकांश मामले संबंधित एजेंसियों द्वारा वापस ले लिए गए. पिछले साल, राहुल गांधी ने एक दलबदलू के बारे में बात की जो अपनी माँ के सामने असहाय होकर ‘रो रहा था’, सोनिया गांधी से कह रहा था कि वह कांग्रेस इसलिए छोड़ रहा है क्योंकि वह जेल नहीं जाना चाहता. झारखंड की कांग्रेस विधायक अंबा प्रसाद ने कहा कि उन्हें ED के छापों का सामना करना पड़ा क्योंकि उन्होंने भाजपा में शामिल होने और उसके उम्मीदवार के रूप में चुनाव लड़ने से इनकार कर दिया था.
एक कांग्रेस सांसद संजय पाटिल ने भाजपा में दलबदल के बाद कहा, “अब ED मुझे नहीं छुएगी.” उन्होंने अपने दोस्त हर्षवर्धन पाटिल का हवाला दिया, जिन्होंने भी दलबदल किया था, यह कहते हुए: “अब मुझे गहरी नींद आती है. चूंकि मैं भाजपा में हूँ, इसलिए एजेंसियां मुझसे सवाल पूछने की हिम्मत नहीं करेंगी.”
दुर्गापुर में मेडिकल छात्रा से गैंगरेप, तीन गिरफ़्तार, कैंपस में विरोध प्रदर्शन
पश्चिम बंगाल के दुर्गापुर में शुक्रवार रात (10 अक्टूबर) को एक मेडिकल कॉलेज की छात्रा से गैंगरेप के मामले में तीन लोगों को गिरफ्तार किया गया है. यह घटना आईक्यू सिटी मेडिकल कॉलेज और अस्पताल के पास एक सुनसान इलाके में हुई.
रिपोर्ट्स के मुताबिक, कॉलेज की द्वितीय वर्ष की एक छात्रा, जो ओडिशा के जलेश्वर की रहने वाली है, के साथ कथित तौर पर उसके एक सहपाठी और कम से कम तीन अन्य लोगों ने कॉलेज से बमुश्किल एक किलोमीटर दूर गैंगरेप किया. छात्रा अपने सहपाठी के साथ रात का खाना खाने बाहर गई थी, जब उसे कथित तौर पर बदमाशों ने एक जंगली इलाके में खींच लिया.
यह घटना बंगाल के कई परिसरों - जिनमें आर.जी. कर मेडिकल कॉलेज और अस्पताल, साउथ कलकत्ता लॉ कॉलेज और आईआईएम कलकत्ता शामिल हैं - से पिछले 15 महीनों में सामने आए यौन उत्पीड़न के आरोपों की एक श्रृंखला के बीच हुई है. इस हमले ने दुर्गापुर के दिल में डर और आक्रोश की भावना पैदा कर दी है.
घटना के बारे में जानने के बाद, पीड़िता के माता-पिता और रिश्तेदार शनिवार सुबह जलेश्वर से दुर्गापुर पहुँचे. मीडिया से बात करते हुए, उसके पिता ने कहा, “राज्य में महिलाओं के लिए कोई सुरक्षा नहीं है. मेरी बेटी यहाँ सुरक्षित नहीं है.”
पीड़िता के पिता ने दुर्गापुर के न्यू टाउनशिप पुलिस स्टेशन में उसके सहपाठी वासिफ अली और तीन अज्ञात बदमाशों के खिलाफ़ प्राथमिकी दर्ज कराई है. अपनी शिकायत में, उन्होंने आरोप लगाया, “उसका सहपाठी मेरी बेटी को झूठे बहाने से सुनसान जगह पर ले गया.” उन्होंने यह भी दावा किया कि बदमाशों ने उससे 5,000 रुपये और उसका मोबाइल फोन छीन लिया.
पुलिस सूत्रों ने कहा कि पीड़िता का सहपाठी अली, जो मालदा का रहने वाला है, को हिरासत में लिया गया है, जबकि अन्य आरोपी - जिनके बारे में माना जाता है कि वे उसे जानते थे - अज्ञात हैं. पुलिस ने अली से कई बार पूछताछ की है ताकि उसके बयानों को पीड़िता के बयान से मिलाया जा सके और तीन युवा बदमाशों के बारे में जानकारी इकट्ठा की जा सके, जिनके बारे में माना जाता है कि वे स्थानीय निवासी हैं.
शनिवार दोपहर छात्रों ने आईक्यू सिटी मेडिकल कॉलेज में तत्काल सुरक्षा उपायों और पीड़िता के लिए न्याय की मांग को लेकर विरोध प्रदर्शन किया. छात्रों ने जोर देकर कहा कि गैंगरेप में शामिल सभी लोगों की पहचान की जानी चाहिए और उन्हें अनुकरणीय दंड दिया जाना चाहिए.
शनिवार शाम को, भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) [सीपीआई(एम)] ने एक रैली का आयोजन किया और कॉलेज अधिकारियों और दुर्गापुर न्यू टाउनशिप पुलिस स्टेशन दोनों को एक ज्ञापन सौंपा, जिसमें प्रशासन और पुलिस से कड़ी कार्रवाई की मांग की गई. भाजपा ने भी न्यू टाउनशिप पुलिस स्टेशन के सामने विरोध प्रदर्शन किया.
इस बीच, पुलिस की एक टीम ने रविवार सुबह घटनास्थल पर पहुँचकर जांच जारी रखी है. इलाके की घेराबंदी कर दी गई है और तलाशी अभियान में सहायता के लिए ड्रोन तैनात किए गए.
मणिपुर में राष्ट्रपति शासन आगे नहीं बढ़ेगा, केंद्र ने दिया आश्वासन: भाजपा विधायक का दावा
मणिपुर के भाजपा विधायक के. एच. इबोमचा ने रविवार को दावा किया कि केंद्र के नेताओं ने राज्य के विधायकों के एक प्रतिनिधिमंडल को आश्वासन दिया है कि राष्ट्रपति शासन के विस्तारित कार्यकाल को आगे नहीं बढ़ाया जाएगा.
दिल्ली से इम्फाल हवाई अड्डे पर लौटने पर पत्रकारों से बात करते हुए, इबोमचा ने कहा, “हम केंद्रीय नेतृत्व को मणिपुर की वर्तमान राजनीतिक स्थिति से अवगत कराने गए थे. यह हमारा पहला उद्देश्य था.”
कम से कम 26 भाजपा विधायक प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह से मिलने के लिए राष्ट्रीय राजधानी गए थे. हालांकि, ‘पीटीआई’ की खबर यह स्पष्ट नहीं है कि भाजपा विधायकों की प्रधानमंत्री मोदी और गृह मंत्री शाह से मुलाकात हो पाई या नहीं. अपनी सप्ताह भर की यात्रा के दौरान, उनमें से एक प्रतिनिधिमंडल ने भाजपा के राष्ट्रीय महासचिव बीएल संतोष और पूर्वोत्तर प्रभारी संबित पात्रा से मुलाकात की.
इबोमचा ने कहा, “हमने केंद्र सरकार से शांति प्रक्रिया को तेज करने और इसके बाद राज्य में एक लोकप्रिय सरकार के गठन का भी आग्रह किया.”
उन्होंने दावा किया, “केंद्र ने हमें आश्वासन दिया है कि जल्द ही एक लोकप्रिय सरकार स्थापित की जाएगी. राष्ट्रपति शासन की छह महीने की विस्तारित अवधि को आगे नहीं बढ़ाया जाएगा.” मणिपुर में राष्ट्रपति शासन 13 फरवरी को लगाया गया था और बाद में 13 अगस्त को इसे बढ़ाया गया था.
दाढ़ी वाले गिद्ध के घोंसलों में मिली 700 साल पुरानी सैंडल
दाढ़ी वाला गिद्ध, एक बड़ा शिकारी पक्षी है जिसका असामान्य आहार मुख्य रूप से हड्डियों का होता है, और यह लंबे समय से पक्षी विज्ञानियों को आकर्षित करता रहा है. लेकिन अब, एक नए अध्ययन ने दिखाया है कि हड्डी खाने वाले ये पक्षी पहले सोचे गए से भी ज़्यादा दिलचस्प क्यों हो सकते हैं. वैज्ञानिकों के अनुसार, उनके सावधानी से बनाए गए घोंसले, जो कई पीढ़ियों तक काम आते हैं, “प्राकृतिक संग्रहालय” के रूप में भी काम कर सकते हैं, जो सदियों पुरानी सांस्कृतिक कलाकृतियों को संरक्षित करते हैं.
स्पेन में, शोधकर्ताओं ने 2008 और 2014 के बीच एक दर्जन दाढ़ी वाले गिद्धों के घोंसलों का अध्ययन किया. टीम ने उनकी परत-दर-परत विश्लेषण किया, जिसमें 200 से अधिक मानव-निर्मित वस्तुएं मिलीं, जिन्हें पक्षियों ने निर्माण सामग्री के रूप में इस्तेमाल किया हो सकता है. इन वस्तुओं की कार्बन डेटिंग से पता चला कि ये घोंसले कम से कम 13वीं शताब्दी के हैं, जिसमें सबसे पुरानी कलाकृति 700 साल से अधिक पुरानी एक सैंडल है. यह निष्कर्ष 11 सितंबर को इकोलॉजी जर्नल में प्रकाशित हुए.
स्पेन के जाका में स्पेनिश नेशनल रिसर्च काउंसिल के पाइरेनियन इंस्टीट्यूट ऑफ इकोलॉजी के एक पारिस्थितिकीविद् और प्रमुख लेखक एंटोनी मार्गालिडा ने कहा, “हम जानते थे कि दाढ़ी वाला गिद्ध एक ऐसी प्रजाति है जो निर्माण के लिए वस्तुओं को अपने घोंसले तक ले जा सकती है, लेकिन हम मिली वस्तुओं की संख्या और उनकी उम्र से हैरान थे.” उन्होंने आगे कहा, “इसका मतलब है कि सदियों से इस्तेमाल की जाने वाली ये जगहें गुणवत्तापूर्ण स्थान हैं जिनका उपयोग विभिन्न पीढ़ियों ने प्रजनन के लिए किया है.”
वैज्ञानिकों ने कहा कि यह शोध न केवल सांस्कृतिक कलाकृतियों को खोजने के नए रास्ते खोलता है, बल्कि यह इस प्रजाति के भविष्य के संरक्षण प्रयासों में भी मदद कर सकता है.
दाढ़ी वाला गिद्ध एकमात्र ज्ञात कशेरुकी (vertebrate) है जो हड्डियों को खाने में माहिर है, जो इस जीव के आहार का 90% तक हिस्सा होता है. जब अध्ययन के लेखक ऐतिहासिक घोंसलों को खोजने निकले - वे स्थल जो अब स्थानीय विलुप्ति या अनुपयुक्त आवास कारकों के कारण उपयोग में नहीं हैं - तो उनकी मुख्य रुचि हड्डी के अवशेषों को खोजने में थी. लेकिन शोधकर्ताओं ने कहा कि ऐतिहासिक घोंसलों में उलझी हुई प्रचुर मात्रा में कलाकृतियों को पाकर वे आश्चर्यचकित रह गए.
उस सैंडल के अलावा, जो बुनी हुई टहनियों और घासों से बना था, घोंसलों के भीतर मिली अन्य वस्तुओं में मध्ययुगीन चमड़े का एक रंगा हुआ टुकड़ा जो एक मुखौटे जैसा दिखता है, 18वीं शताब्दी की एक टोकरी के अवशेष, एक क्रॉसबो का तीर, घोड़ों के लिए रस्सियाँ और साज-सामान, और बहुत कुछ शामिल था. मार्गालिडा ने कहा कि सैंडल अब तक की सबसे पुरानी कलाकृति है, लेकिन अध्ययन दल को अभी अन्य वस्तुओं की कार्बन डेटिंग करनी है.
मार्गालिडा के अनुसार, ये निष्कर्ष मानव संस्कृति पर एक दिलचस्प नज़र डालते हैं. उन्होंने कहा, “यह हमें इस बारे में जानकारी दे सकता है कि लोग कैसे कपड़े पहनते थे, वे कैसे शिकार करते थे (गुलेल और क्रॉसबो के माध्यम से), और पारिस्थितिकी तंत्र में कौन सी घरेलू और जंगली प्रजातियां सबसे प्रचुर मात्रा में थीं.”
चूंकि दाढ़ी वाले गिद्ध, जिनके पंखों का फैलाव लगभग 10-फुट (3-मीटर) होता है, चट्टानी गुफाओं या चट्टानी क्षेत्रों में घोंसला बनाना पसंद करते हैं, जहाँ स्थिर तापमान और आर्द्रता होती है, हड्डी के अवशेष, मानव निर्मित वस्तुएं और अन्य घोंसले की सामग्री अपेक्षाकृत अच्छी तरह से संरक्षित रह सकती है.
कॉर्नेल लैब ऑफ ऑर्निथोलॉजी के निदेशक एमेरिटस जॉन फिट्ज़पैट्रिक ने एक ईमेल में कहा, “यह अध्ययन एक आकर्षक पक्षी और मानव संस्कृति के इतिहास के बीच के अंतर्संबंध को समझने में दाढ़ी वाले गिद्ध के स्थान पर एक नई रोशनी डालता है, और वास्तव में एक बिल्कुल नया दृष्टिकोण प्रदान करता है.” फिट्ज़पैट्रिक इस नए शोध में शामिल नहीं थे.
अध्ययन के अनुसार, दक्षिणी स्पेन में, जहाँ शोधकर्ताओं ने घोंसले बरामद किए, दाढ़ी वाले गिद्ध 70 से 130 वर्षों से स्थानीय रूप से विलुप्त हो चुके हैं. इन घोंसलों के स्थलों को खोजने के लिए, अध्ययन के लेखकों ने ऐतिहासिक रिकॉर्ड देखने के साथ-साथ क्षेत्र के पुराने निवासियों से बात करने में वर्षों बिताए, जिन्हें वे पक्षी याद थे जब वे आसपास थे.
यह शोध वन्यजीवों पर मनुष्यों के बड़े प्रभाव को भी उजागर करता है. फिट्ज़पैट्रिक ने कहा, “यह उन विशाल जंगली आवासों को बनाए रखने के महत्व को रेखांकित करता है जो मनुष्यों द्वारा बनाए गए और परिदृश्य में छोड़े गए कुछ सबसे खराब विषाक्त पदार्थों से काफी हद तक मुक्त रहते हैं, ताकि दाढ़ी वाले गिद्धों जैसे बड़े और चट्टान-जैसे ठोस जिज्ञासु जीव भी उनके साथ खेल सकें और उन्हें घर ले जा सकें.”
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