14/09/2025: पाकिस्तान से क्रिकेट पर भारत विभाजित | मोदी मणिपुर से गुज़रे | बिहार में बीएलओ की भसड़ | 35 तालिबानी मारे पाकिस्तान ने | बेगुनाह वाहिद को मुआवज़ा चाहिए | कश्मीर का इतिहास संजोते
‘हरकारा’ यानी हिंदी भाषियों के लिए क्यूरेटेड न्यूजलेटर. ज़रूरी ख़बरें और विश्लेषण. शोर कम, रोशनी ज़्यादा.
निधीश त्यागी, साथ में राजेश चतुर्वेदी, गौरव नौड़ियाल, फ़लक अफ़शां
आज की सुर्खियां
मणिपुर में 5 घंटे, 8500 करोड़ के ऐलान, लेकिन हिंसा और इंसाफ पर पीएम मोदी चुप.
पहलगाम हमले के बावजूद भारत-पाकिस्तान क्रिकेट मैच पर सरकार के बदलते सुर, देश में विरोध.
नेपाल में राजनीतिक संकट गहराया, प्रमुख दलों ने भंग संसद को बहाल करने की मांग की.
पीएम मोदी की मेगा परियोजना से ग्रेट निकोबार द्वीप के प्राचीन वर्षावन और दुर्लभ जीवों पर विनाश का खतरा.
पाकिस्तानी सेना ने अफ़ग़ानिस्तान सीमा के पास 35 तहरीक-ए-तालिबान आतंकवादियों को मार गिराया, 12 सैनिक भी मारे गए.
बीएलओ ने भसड़ मचाई बिहार की मतदाता सूची में
2006 मुंबई ट्रेन ब्लास्ट में 9 साल जेल में रहकर बरी हुए शख्स ने 9 करोड़ का मुआवज़ा मांगा.
मतदाता सूची की समीक्षा कब और कैसे हो, यह तय करना हमारा विशेषाधिकार है: चुनाव आयोग ने सुप्रीम कोर्ट से कहा.
प्रधानमंत्री इंटर्नशिप योजना को नहीं मिल रहे युवा, 1 करोड़ के लक्ष्य के मुकाबले सिर्फ 30 हज़ार ने दिखाई रुचि.
भारत में घरों की कीमतें तेज़ी से बढ़ेंगी, लाखों लोग महंगे किराये पर निर्भर होने को मजबूर होंगे: रॉयटर्स सर्वे.
अयोध्या में राम मंदिर का निर्माण अभी भी अधूरा, समयसीमा मार्च 2026 तक बढ़ाई गई.
बिहार के कई गांवों में मुस्लिम आबादी नहीं, फिर भी दशकों पुरानी मस्जिदों से गूंजती है अज़ान.
भोपाल का विवादित '90 डिग्री' पुल असल में '118-119 डिग्री' का है, विशेषज्ञ रिपोर्ट में खुलासा.
कश्मीर के युवा सोशल मीडिया के ज़रिए अपनी संस्कृति, भाषा और इतिहास को सहेज रहे हैं.
मणिपुर में मोदी 5 घंटे, दो भाषण, फैंसी ड्रेस, 8500 करोड़ के डेवलपमेंट
न हिंसा की बात, न शांति, या इंसाफ़ की, विकास के खोखले दावों से जख़्मों को पाटने की कोशिश
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 13 सितंबर, 2025 को मणिपुर का दौरा किया. मई 2023 में मैतेई और कुकी-ज़ो समुदायों के बीच जातीय हिंसा भड़कने के बाद यह उनकी पहली मणिपुर यात्रा थी. इस हिंसा में 260 से ज़्यादा लोग मारे गए हैं और 60,000 से ज़्यादा विस्थापित हुए हैं.
लगभग 4-5 घंटे की अपनी यात्रा के दौरान, प्रधानमंत्री ने हिंसा प्रभावित चुराचांदपुर और राजधानी इंफाल का दौरा किया. उन्होंने दोनों जगहों पर भाषण दिए और शांति बहाली की अपील की. साथ ही, उन्होंने विस्थापित लोगों से मुलाक़ात की और लगभग 8,500 करोड़ रुपये की विकास परियोजनाओं का ऐलान भी किया. इन परियोजनाओं का मक़सद विस्थापितों का पुनर्वास, बुनियादी ढांचे का विकास और रोज़गार पैदा करना है. एक क्लिप में बच्चों से गाने सुनते देखे गये.
प्रधानमंत्री ने चुराचांदपुर में एक जनसभा को संबोधित करते हुए कहा, "मणिपुर उम्मीद और वादों की भूमि है. दुर्भाग्य से, हिंसा ने इस शानदार क्षेत्र को जकड़ लिया था... आशा और विश्वास की एक नई सुबह मणिपुर का इंतज़ार कर रही है." वहीं, इंफाल के कांगला किले में उन्होंने कहा, "हमें मणिपुर को शांति और विकास के रास्ते पर ले जाना है."
कोरियोग्राफी तो खूब थी, बस ज़रूरी बातों पर चुप लगा गये
इंडियन एक्सप्रेस में सांगुअंग हैंगसिंग की ख़ासी तल्ख़ प्रतिक्रिया प्रकाशित हुई है. उसके अंश.
13 सितंबर को सुबह लगभग 11.40 बजे, प्रधानमंत्री इंफ़ाल में उतरे. 12.15 बजे तक, मौसम की ख़राबी के कारण सीधी आइजोल-चुराचांदपुर योजना रद्द होने के बाद, उनका बारिश से भीगा काफ़िला चुराचांदपुर की सड़क पर था. दोपहर 1 बजे से ठीक पहले, वह भारी बारिश के बीच पीस ग्राउंड पहुँचे, आंतरिक रूप से विस्थापित व्यक्तियों (आईडीपी) से मिले, आधारशिला रखी, "पूरे राज्य में" कार्यों का उद्घाटन किया, और एक सभा को संबोधित किया. राज्यपाल अजय कुमार भल्ला ने चुराचांदपुर को "विविधता और लचीलेपन का प्रतीक" कहा, "संवाद और समावेशिता" के माध्यम से "घाव भरने" का आग्रह किया, और यह भी दावा किया कि एक सीमावर्ती राज्य के रूप में, "हम अपनी भूमि पर सीमा पार से अतिक्रमण और बसावट बर्दाश्त नहीं कर सकते".
प्रधानमंत्री ने अपना भाषण "मणिपुर की भूमि साहस और दृढ़ संकल्प की भूमि है... मैं मणिपुर के लोगों की भावना को सलाम करता हूँ" के साथ शुरू किया, और फिर विकास और कनेक्टिविटी पर ध्यान केंद्रित किया. 1.35 बजे तक, उन्होंने कल्पना का सहारा लिया ("'मणि', एक रत्न जो पूर्वोत्तर की चमक को बढ़ाएगा") और दोहराया कि स्वास्थ्य और शिक्षा में पहाड़ी समुदायों के लिए महत्वपूर्ण कार्य अभी-अभी शुरू किए गए हैं. पूरे राज्य में सुरक्षा कड़ी कर दी गई; वह दिन में बाद में इंफ़ाल घाटी लौटेंगे.
यह यात्रा उद्घाटनों और आँकड़ों से भरी रही है, और जहाँ मायने रखती है वहाँ खोखली है. वसूली स्थलों को हटाने की कोई तारीख़ नहीं. सुरक्षित वापसी के लिए कोई समय-सारणी नहीं. नामों और आरोपों के साथ कोई मामले आगे नहीं बढ़ रहे हैं. हिरासत, वापसी और न्याय का भाषण में कोई ज़िक्र नहीं था. जब तक वे आश्वासन समय-सीमा के साथ नहीं आते, बाक़ी सब समारोह है, उपचार नहीं. लाभ घाटी की ओर निर्देशित हैं, और विस्थापन बेल्ट, चुराचांदपुर और कांगपोकपी/सदर हिल्स को सांकेतिक कार्य मिलते हैं. स्थिति के इलाज के रूप में विकास इस यात्रा का विषय है, मानो सड़कें और फ़ीता काटना संवाद, न्याय और सुरक्षित वापसी की योजना का विकल्प हो सकते हैं.
संस्थागत रूप से, स्वागत गर्मजोशी भरा था. ज़मीन पर, मिज़ाज बँटा हुआ था. चुराचांदपुर में, स्वागत इस बात पर सशर्त था कि क्या यह यात्रा उस संघर्ष को संबोधित करती है जिसके कारण आईडीपी (अंदरूनी विस्थापित लोग) बने. सुनने का अंतर अपनी कहानी ख़ुद कह रहा था. शहर लंबा चौड़ा मंच नहीं चाहता था, बल्कि बस 10 मिनट चाहता था जिसमें नाम, तारीख़ें और स्थान रिकॉर्ड पर रखे जाएँ. ऐसा नहीं हुआ: गवाही, वार्ड-स्तरीय प्रतिनिधिमंडल, या यहाँ तक कि विशिष्ट याचिकाओं को ले जाने के लिए पार्टी विधायकों के साथ एक संक्षिप्त आमने-सामने के लिए कोई खुला स्लॉट नहीं. लामबंदी, बैरिकेड्स, प्रकाश व्यवस्था, सुरक्षा परतों के दिन और असली दुख को सुनने के लिए 10 मिनट भी नहीं.
अंतिम मील वह जगह है जहाँ वादे विफल हो जाते हैं. आईडीपी को सुरक्षा और वापस लौटने के लिए एक विश्वसनीय योजना की आवश्यकता है; परिवारों को वसूली नेटवर्क को खत्म करने और उन्हें दबाए रखने की ज़रूरत है; जीवित बचे लोगों को ऐसे मामलों की ज़रूरत है जो नाम, आरोप और तारीख़ों के साथ आगे बढ़ें. न्याय का एक वादा जिसमें अपराधियों को दंडित करना, गवाहों की रक्षा करना और प्रगति की सार्वजनिक रूप से रिपोर्ट करना शामिल है - यह न्यूनतम है जो एक संघर्ष-ग्रस्त ज़िला राज्य के सर्वोच्च कार्यालय के आने पर उम्मीद करता है.
मानक बचाव प्रशासनिक मितव्ययिता है: एक प्रधानमंत्री हर जगह हर चीज़ पर बात नहीं कर सकता, इसलिए उद्घाटनों और आधारशिलाओं का एक समग्र प्रस्तुतीकरण. लेकिन यह यात्रा निर्णायक हो सकती थी. वह आईडीपी से मिले, लेकिन राहत और वापसी के लिए तारीख़ें निर्धारित नहीं कीं, प्रवर्तन और न्याय को एक समय-सारणी से नहीं जोड़ा, और विकास के वादों को सुरक्षा उपायों के साथ नहीं जोड़ा. लंबे समय की उपेक्षा का एक इतिहास बना हुआ है: त्रुटिहीन कोरियोग्राफ़ी, मूल सिद्धांतों पर चुप्पी. अब एकमात्र पैमाना यह है कि क्या यह संघर्ष-ग्रस्त राज्य अपने जीवन का पुनर्निर्माण कर सकता है.
हैंगसिंग मणिपुर स्थित एक शोधकर्ता और लेखक हैं
मोदी का दौरा छलावा, 46 बार विदेश गए लेकिन मणिपुर एक बार नहीं, कांग्रेस की आलोचना
कांग्रेस ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के मणिपुर दौरे को पीड़ित जनता के प्रति संवेदनहीनता और छलावा बताया. कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे ने कहा कि पीएम मोदी ने मणिपुर में हिंसा के बीच राहत शिविरों में रह रहे लोगों की पीड़ा को नजरअंदाज किया है. उन्होंने प्रधानमंत्री की विदेश यात्राओं की तुलना मणिपुर दौरे से करते हुए इसे केवल चुनावी प्रचार और भव्य स्वागत समारोह बताया.
खड़गे ने कहा है कि 'पीएम मोदी का मणिपुर में 3 घंटे का “पिट स्टॉप” (अल्प विराम) संवेदनशीलता नहीं, बल्कि छलावा और वहां की पीड़ित जनता का अपमान है. “एक्स” पर पोस्ट में खड़गे ने कहा कि मणिपुर में पिछले 864 दिनों से हिंसा जारी है, जिसमें करीब 300 लोग मारे गए, 67 हजार लोग बेघर हुए और 1,500 से ज्यादा लोग घायल हुए. कांग्रेस अध्यक्ष ने कहा कि इस दौरान प्रधानमंत्री ने 46 विदेशी दौरे किए, लेकिन मणिपुर की जनता से संवेदना जताने एक बार भी नहीं गए. उन्होंने कहा, “प्रधानमंत्री की पिछली मणिपुर यात्रा जनवरी 2022 में सिर्फ चुनाव प्रचार के लिए हुई थी.”
खड़गे ने कहा, “यह अचानक किया गया पिट स्टॉप न तो पश्चाताप है और न ही अपराधबोध, बल्कि यह तो खुद के लिए एक भव्य स्वागत समारोह है. पीड़ितों के जख्मों पर क्रूर प्रहार है. प्रधानमंत्री ने अपनी मूल संवैधानिक जिम्मेदारियों से मुंह मोड़ लिया है. आखिर में खड़गे ने प्रधानमंत्री से सवाल किया- 'आपका राजधर्म कहां है?'
वायनाड में पत्रकारों से बातचीत करते हुए कांग्रेस महासचिव प्रियंका गांधी वाड्रा ने प्रधानमंत्री पर भी निशाना साधा और कहा कि उन्हें बहुत पहले ही राज्य का दौरा करना चाहिए था. उन्होंने कहा, "मुझे खुशी है कि दो साल बाद उन्हें यह लगा कि (मणिपुर) जाना उचित है. उन्हें बहुत पहले जाना चाहिए था. यह बहुत दुर्भाग्यपूर्ण है कि उन्होंने वहां जो कुछ हो रहा है, उसे इतने लंबे समय तक जारी रहने दिया और इतनी बड़ी संख्या में लोगों की जान जाती रही. भारत के प्रधानमंत्रियों की यह परंपरा नहीं रही है.”
अपने भाषणों में मोदी ने मणिपुर की जिम्मेदारी लेने की बजाय खुद के कंसल्टेंट की तरह बातें की
मणिपुर में मई 2023 से शुरू हुई जातीय हिंसा के बाद राजधानी इम्फाल में अपने पहले भाषण में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने शनिवार को मैतेई-बहुल घाटी और कुकी-बहुल पहाड़ी जिलों से “सौहार्द्र का मजबूत पुल बनाने” और शांति व विकास के मार्ग पर आगे बढ़ने की अपील की. उन्होंने कहा, “मैं आज आपको विश्वास देता हूं, मैं आपके साथ हूं. भारत सरकार आपके साथ है, मणिपुर के लोगों के साथ है.”
दीप्तिमान तिवारी के अनुसार, मैतेई-बहुल इम्फाल स्थित कांगला किले में हजारों करोड़ की परियोजनाओं का उद्घाटन करने के बाद एक सभा को संबोधित करते हुए मोदी ने राज्य में हिंसा को “मणिपुर के पुरखों और आने वाली पीढ़ियों के साथ अन्याय” बताया और कहा कि राज्य की संभावनाओं को पूरा करने के लिए एकता आवश्यक है.
उन्होंने कहा, “मणिपुर में क्षमता की कोई कमी नहीं है. ज़रूरत इस बात की है कि हम संवाद के मार्ग को लगातार मज़बूत करें. हमें पहाड़ और घाटी के बीच सौहार्द्र का मजबूत पुल बनाना है. मुझे विश्वास है कि मणिपुर देश के विकास का एक मज़बूत केंद्र बनेगा.”
प्रधानमंत्री ने पहाड़ों और घाटी के विभिन्न समूहों के साथ हाल ही में शुरू की गई संवाद प्रक्रियाओं का उल्लेख करते हुए केंद्र सरकार के भरोसे की बहाली के प्रयासों को रेखांकित किया. उन्होंने कहा, "यह सरकार के प्रयासों का हिस्सा है, जिसमें संवाद, सम्मान और आपसी समझ को महत्व दिया जा रहा है, ताकि शांति स्थापित की जा सके. मैं सभी संगठनों से अपील करता हूं कि शांति के रास्ते पर चलो, ताकि आपके सपने साकार हों. अपने बच्चों के भविष्य को सुनिश्चित करें. और मैं आज आपको विश्वास देता हूं, मैं आपके साथ हूं. भारत सरकार आपके साथ है, मणिपुर के लोगों के साथ है." प्रधानमंत्री ने कहा कि उनकी सरकार मणिपुर में सामान्य स्थिति वापस लाने के लिए सभी प्रयास कर रही है और हाल की जातीय हिंसा से विस्थापित परिवारों के लिए नए उपायों की घोषणा की. "सरकार विस्थापितों के लिए 7,000 घर बनाने में सहायता दे रही है. हाल ही में हमनें 3,000 करोड़ रुपये का विशेष पैकेज मंजूर किया है. विस्थापितों की सहायता के लिए 500 करोड़ रुपये विशेष रूप से आवंटित किए गए हैं. केंद्र सरकार मणिपुर के जनजातीय युवाओं के "सपनों और संघर्षों" को अच्छी तरह समझती है.
आंदोलन का संगीत पकड़ता सह अस्तित्व के सुर
मणिपुर में जातीय संघर्ष के दो साल बाद, मैतेई समुदाय के एक जाने-माने प्रोटेस्ट-गायक और गीतकार, अखु चिंगबमबम, सात पहाड़ी समुदायों के लोक संगीतकारों के साथ मिलकर सह-अस्तित्व और क्षेत्र के साझा इतिहास पर एक गीत बना रहे हैं. यह प्रोजेक्ट उस गहरी खाई को भी उजागर करता है जो अभी भी मौजूद है, क्योंकि सुरक्षा कारणों से कोई भी कुकी संगीतकार इसमें शामिल नहीं हो सका. टेलीग्राफ में अरिजीत सेन की रिपोर्ट मणिपुर में बनते संगीत पर है. जहां एक ओर शांति और सुलह के लिए जमीनी स्तर पर प्रयास हो रहे हैं, वहीं मैतेई और कुकी समुदायों के बीच गहरी दुश्मनी और भौतिक अलगाव एक बहुत बड़ी बाधा बनी हुई है. यह उन लोगों के लिए मौजूद धमकी और डर के माहौल पर भी प्रकाश डालती है जो खुलकर अपनी बात रखते हैं.
यह प्रोजेक्ट अगस्त में पूरा हुआ और इसे उस समय अंतिम रूप दिया जा रहा है जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी राज्य का दौरा कर रहे हैं. अखु, जो राज्य की ज्यादतियों और आफ्स्पा जैसे कानूनों के खिलाफ संगीत बनाने के लिए जाने जाते हैं, ने इस प्रोजेक्ट में ताराओ, अनल, तांगखुल और अन्य समुदायों के लोक कलाकारों को एक साथ लाया है. लेकिन कुकी कलाकारों की अनुपस्थिति एक महत्वपूर्ण कमी है, क्योंकि वे अभी भी इंफाल जैसे मैतेई क्षेत्रों में सुरक्षित रूप से यात्रा नहीं कर सकते. लेख में मानवाधिकार कार्यकर्ता बबलू लोइतोंगबम और खुद अखु को मिली धमकियों का भी ज़िक्र है, जिन्हें उनके घर से बंदूक की नोक पर अगवा कर लिया गया था और बाद में रिहा कर दिया गया.
अखु का सीधे विरोध संगीत से हटकर स्वदेशी धुनों और गीतों की ओर झुकाव, डर के माहौल में आत्म-संरक्षण के एक तरीके के रूप में देखा जा सकता है. लेख में इस तरह की कलात्मक परियोजनाओं की आशा को न्याय और संवाद की कमी की कठोर वास्तविकता के विपरीत दिखाया गया है, और सरकार की निष्क्रियता की आलोचना की गई है. सवाल यह है कि क्या बिना राजनीतिक इच्छाशक्ति के केवल कला के माध्यम से इस खाई को पाटा जा सकता है. यह गीत सह-अस्तित्व का संदेश फैलाने के उद्देश्य से जारी किया जाएगा. हालांकि, सुलह के रास्ते में खड़ी बुनियादी बाधाएं - न्याय की कमी, असुरक्षा और खुले संवाद का अभाव - बनी हुई हैं. यह देखना बाकी है कि क्या जो लोग सत्ता में हैं, वे इन धुनों पर ध्यान दे रहे हैं.
क्रिकेट
पाकिस्तान से खेलने को लेकर भारत विभाजित
विदेश मंत्री एस. जयशंकर ने “पाकिस्तान और क्रिकेट” पर छह साल पहले (सितंबर 2019) कहा था, “रात में आतंकवाद और दिन में कारोबार नहीं चल सकता." उरी, पठानकोट और पुलवामा हमलों का ज़िक्र करते हुए उन्होंने कहा था, "अगर किसी रिश्ते की प्रमुख तस्वीर आतंकवाद, आत्मघाती हमले और हिंसा की हो, और फिर आप कहें—'ठीक है दोस्तों, अब चाय ब्रेक लेते हैं, चलो क्रिकेट खेलते हैं'—तो यह जनता को समझाना बहुत मुश्किल है."
आमतौर पर ऐसे मामलों में मुखर रहने वाले बीजेपी के सांसद और पूर्व मंत्री अनुराग ठाकुर भी बोले थे-“क्रिकेट और आतंकवाद एक-साथ नहीं चल सकते.”
खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी कई मर्तबा बोल चुके कि खून और पानी एकसाथ नहीं बह सकते. इस बार 15 अगस्त को उन्होंने लाल किले की प्राचीर से इसे दोहराया भी था.
मगर, इन बड़ी-बड़ी बातों के बावजूद आज रविवार 14 सितंबर को भारत-पाकिस्तान के बीच दुबई में भारतीय समयानुसार शाम आठ बजे क्रिकेट मैच खेला जाएगा. पहलगाम हमले और ऑपरेशन सिंदूर के बाद ये पहला मौका है, जब दोनों देशों की टीमें आमने-सामने होंगी. लेकिन, जिन अनुराग ठाकुर ने कहा था कि क्रिकेट और आतंकवाद साथ नहीं चल सकते, अब वही कह रहे हैं, “अंतर्राष्ट्रीय मंच पर मैच नहीं खेला जाएगा तो दूसरी टीम को अंक मिल जाएंगे.” पर देश भर में इस मैच का विरोध हो रहा है. सोशल मीडिया पर लोग तीखी प्रतिक्रिया व्यक्त कर रहे हैं और हुक्मरानों को पहलगाम आतंकी हमले की याद दिलाते हुए उनके कथित “पाखंड” पर निशाना साध रहे हैं.
बीसीसीआई टूर्नामेंट का आधिकारिक मेजबान है, लेकिन बोर्ड के ज्यादातर अधिकारी मैच देखने नहीं जाएंगे.
पहलगाम हमले में मारे गए कानपुर के शुभम द्विवेदी की पत्नी ऐशन्या ने मैच का बायकॉट करने की अपील की है. उन्होंने कहा- मेरी आंखों के सामने पति को गोली मारी गई. 26 लोग मारे गए. ऑपरेशन सिंदूर में कई जवानों की जान गई. इसके बावजूद मैच कराया जा रहा है.
कानपुर के व्यवसायी शुभम द्विवेदी, जो पहलगाम आतंकवादी हमले में मारे गए थे, की पत्नी ऐशान्या ने एशिया कप 2025 में इस रविवार होने वाले भारत-पाकिस्तान क्रिकेट मैच के बहिष्कार की अपील की है. ऐशान्या ने भारतीय क्रिकेट नियंत्रण बोर्ड (बीसीसीआई) की कड़ी आलोचना करते हुए कहा कि हमले में 26 नागरिकों, जिनमें उनके पति भी शामिल थे, की मौत के बावजूद मैच को आगे बढ़ाने का फैसला बेहद असंवेदनशील है. बीसीसीआई ने पीड़ित परिवारों की भावनाओं की अनदेखी की है. उन्होंने कहा, "बीसीसीआई के लिए उनके शहादत का कोई मूल्य नहीं है. शायद इसलिए क्योंकि उनका कोई अपना इसमें शहीद नहीं हुआ."
उन्होंने जनता से अपील की—"इस मैच का बहिष्कार कीजिए, इसे टीवी पर मत देखिए." ऐशान्या ने भारतीय क्रिकेट खिलाड़ियों की चुप्पी पर भी निराशा जताई और उनसे पाकिस्तान के खिलाफ खेलने से इनकार करने की अपील की. उन्होंने कहा, "क्रिकेट को राष्ट्रीय खेल जैसा दर्जा दिया जाता है, फिर भी केवल कुछ ही खिलाड़ियों ने बहिष्कार की बात की है. बीसीसीआई किसी को बंदूक की नोक पर खेल खेलने के लिए मजबूर नहीं कर सकता."
उन्होंने कहा, "इस मैच से पाकिस्तान को पहुंचने वाला हर रुपया निश्चित रूप से आतंकवाद में खर्च किया जाएगा. खेलकर हम उन्हीं लोगों को मजबूत कर रहे हैं जो हम पर हमला करते हैं." दिल्ली के पूर्व मुख्यमंत्री केजरीवाल ने क्लब, पब और रेस्टोरेंट्स को मैच न दिखाने की चेतावनी दी है. शिवसेना यूबीटी के प्रमुख उद्धव ठाकरे ने कहा है कि जब खून और पानी साथ नहीं बह सकते तो मैच क्यों हो रहा है? जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला ने कहा- पहलगाम में जो हुआ इसे नजरअंदाज नहीं किया जा सकता. आप यह दिखावा नहीं कर सकते कि जो कुछ हुआ वह हुआ ही नहीं.
नेपाल
प्रमुख दलों ने भंग संसद को बहाल करने की मांग की
बीबीसी में फणींद्र दहल (काठमांडू) और जारोस्लाव लुकिव (लंदन) की रिपोर्ट है कि नेपाल के प्रमुख राजनीतिक दलों ने देश के राष्ट्रपति से उस संसद को बहाल करने की मांग की है, जिसे उन्होंने घातक भ्रष्टाचार विरोधी प्रदर्शनों के बाद भंग कर दिया था. नेपाली कांग्रेस, सीपीएन-यूएमएल और माओवादी सेंटर सहित आठ दलों ने एक बयान में कहा कि राष्ट्रपति राम चंद्र पौडेल ने असंवैधानिक रूप से काम किया. पौडेल ने नवनियुक्त अंतरिम प्रधानमंत्री सुशीला कार्की की सिफारिश पर शुक्रवार को प्रतिनिधि सभा को भंग कर दिया था. यह विरोध आंदोलन की भी एक प्रमुख मांग थी. यह घटना नेपाल के युवा लोकतंत्र में एक बड़े संवैधानिक और राजनीतिक संकट को दर्शाती है. एक तरफ स्थापित राजनीतिक दल हैं जो अपनी शक्ति की बहाली चाहते हैं, और दूसरी तरफ एक नया विरोध आंदोलन और एक अंतरिम सरकार है जो व्यवस्था में सुधार की मांग कर रही है. यह टकराव देश के भविष्य की दिशा तय करेगा.
सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर प्रतिबंध के बाद भड़के बड़े पैमाने पर विरोध प्रदर्शनों के दौरान दंगा पुलिस के साथ झड़पों में 50 से अधिक लोग मारे गए थे. विरोध प्रदर्शनों का नेतृत्व करने वाले छात्र नेताओं के साथ एक समझौते पर पहुंचने के बाद सुशीला कार्की को अंतरिम प्रधानमंत्री नियुक्त किया गया था. सोमवार को प्रतिबंध हटा लिया गया था, लेकिन तब तक विरोध एक जन आंदोलन में बदल गया था. मंगलवार को गुस्साई भीड़ ने राजधानी काठमांडू में संसद और सरकारी इमारतों में आग लगा दी, जिससे तत्कालीन प्रधानमंत्री केपी शर्मा ओली को इस्तीफा देने के लिए मजबूर होना पड़ा.
स्थापित राजनीतिक दलों को लगता है कि उनकी शक्ति को असंवैधानिक रूप से छीना जा रहा है, जबकि "जेन ज़ेड" नामक विरोध आंदोलन संसद के विघटन को सुधार और नए चुनावों की दिशा में एक आवश्यक कदम के रूप में देखता है. अंतरिम प्रधानमंत्री, जो सुप्रीम कोर्ट की पूर्व मुख्य न्यायाधीश हैं, को एक साफ-सुथरी छवि वाली नेता के रूप में देखा जा रहा है, लेकिन उन्हें कानून-व्यवस्था बहाल करने, क्षतिग्रस्त इमारतों का पुनर्निर्माण करने और पुराने राजनीतिक दलों और नए प्रदर्शनकारियों के बीच संतुलन साधने जैसी कई चुनौतियों का सामना करना पड़ेगा. देश में अगले साल 5 मार्च को नए चुनावों की घोषणा की गई है. राष्ट्रपति पौडेल ने सभी पक्षों से संयम बरतने और चुनाव कराने में मदद करने का आग्रह किया है. अंतरिम प्रधानमंत्री कार्की के कुछ दिनों के भीतर अपने मंत्रिमंडल में मंत्रियों की नियुक्ति करने की उम्मीद है. उनकी सरकार के सामने सबसे बड़ी चुनौती देश में सामान्य स्थिति बहाल करना और सभी पक्षों को संतुष्ट करते हुए एक शांतिपूर्ण चुनावी प्रक्रिया सुनिश्चित करना होगा.
पर्यावरण
मोदी की मेगा परियोजनाएं ग्रेट निकोबार द्वीप को नष्ट कर सकती हैं
जनवरी की एक चांद रहित रात को ग्रेट निकोबार द्वीप के गलाथिया खाड़ी के नाजुक रेत वाले एक तट पर एक विशाल कछुआ अपने अंडे देने के लिए घोंसला बना रहा था. यह एक पुराना जैविक चक्र था, जिसमें लेदरबैक समुद्री कछुए लाखों सालों से विश्व के विभिन्न समुद्रों से इसी द्वीप के किनारे आते हैं. टाइम मैग़जीन ने इस पर लंबा लेख प्रकाशित किया है.
ग्रेट निकोबार द्वीप, अंडमान और निकोबार द्वीप समूह का हिस्सा है, जो भारत के मुख्य भूमि से लगभग 1000 मील दूर है. यहां ब्लैक लेदरबैक कछुए, निकोबार मैकाक बंदर, कॉकोनट केकड़े, पुराने नमक पानी के मगरमच्छ, निकोबार कबूतर जैसे दुर्लभ जीव पाए जाते हैं. द्वीप की समृद्ध जैव विविधता इसे पर्यावरण और संरक्षण के लिहाज से अत्यंत महत्वपूर्ण बनाती है.
लेकिन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी सरकार ने इस द्वीप पर एक विशाल परियोजना का ऐलान किया है, जिसमें एक कंटेनर पोर्ट, एक अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डा, पावर प्लांट, टाउनशिप और पर्यटन परियोजना शामिल हैं. इस परियोजना का उद्देश्य इस द्वीप को एक व्यावसायिक और सामरिक हब बनाना है, जिसे भारत की समुद्री और हवाई सुरक्षा और कनेक्टिविटी के लिए महत्वपूर्ण बताया जा रहा है.
परंतु, इस विकास योजना के चलते कम से कम 50 वर्ग मील के प्राचीन वर्षावन को काटा जाएगा, जिससे लाखों पेड़ों की कटाई हो सकती है. द्वीप के निवासियों, खासकर शोम्पेन जनजाति, जो बाहरी संपर्क से दूर रहती है, उनके निवास क्षेत्र पर भी भारी असर पड़ेगा. वैज्ञानिक और पर्यावरणविद इस परियोजना को द्वीप की जैव विविधता और निवासियों के लिए विनाशकारी मानते हैं.
आर्थिक दृष्टिकोण से भी इस परियोजना पर सवाल उठाए गए हैं, क्योंकि द्वीप की दूरी और भौगोलिक स्थिति के कारण निर्माण लागत बहुत अधिक होगी, और पोर्ट की वाणिज्यिक संभावनाएं सीमित हैं. इसके बावजूद सरकार ने झुंझलाते हुए पर्यावरण और सामाजिक प्रभावों का सही मूल्यांकन किए बिना परियोजना को आगे बढ़ाया है.
सरकार ने पर्यावरण संरक्षण क्षेत्र की सीमाओं को भी बदला है और गलाथिया खाड़ी को समुद्री कछुओं के लिए आरक्षित क्षेत्र से हटा दिया है. इसके बाद स्थानीय आदिवासियों और पर्यावरण कार्यकर्ताओं की आपत्तियों के बावजूद परियोजना को तीव्रता से आगे बढ़ाया जा रहा है.
हालांकि, परियोजना के समर्थक दो तर्क प्रस्तुत करते हैं. कुछ लोग ग्रेट निकोबार की स्थिति की ओर इशारा करते हैं, जो मलक्का जलडमरूमध्य से मात्र 40 समुद्री मील दूर है, जहां से दुनिया के लगभग एक-तिहाई समुद्री व्यापार का आवागमन होता है. उनका तर्क है कि द्वीप पर प्रस्तावित कंटेनर पोर्ट उन कंटेनर कार्गो का लाभ उठा सकता है, जो सिंगापुर और कोलंबो के बंदरगाहों से भारत के पूर्वी तट, बांग्लादेश और म्यांमार की ओर जाते हैं. फीडर जहाज़ यात्रा का समय आधा कर देंगे. वर्तमान में जो बंदरगाह शुल्क सिंगापुर और श्रीलंका को मिलते हैं, वे भारत में ही रहेंगे. अन्य लोग राष्ट्रीय सुरक्षा का हवाला देते हैं. उनका कहना है कि हिंद महासागर में चीन की बढ़ती उपस्थिति और प्रभाव का मुकाबला करने के लिए—और हाल ही में हिमालय में भारत-चीन तनाव को देखते हुए—भारत अंडमान और निकोबार द्वीपसमूह पर अपनी सैन्य अवसंरचना को मज़बूत कर रहा है.
“बहरहाल, इस परियोजना के आलोचक इसे एक बड़ी त्रुटि मानते हैं, जो ग्रेट निकोबार द्वीप के प्राकृतिक और सामाजिक ताने-बाने को स्थायी नुकसान पहुंचाएगी और यहां की दुर्लभ जैव विविधता और ऐतिहासिक जीवन शैली को खत्म कर देगी,” एम. राजशेखर ने “टाइम” मैगजीन में लिखा है.
पाकिस्तान में 35 तहरीक-ए-तालिबान आतंकवादी ढेर, 12 सैनिक भी मारे गए
द गार्डियन में जेसी विलियम्स के मुताबिक पाकिस्तानी सुरक्षा बलों ने अफगानिस्तान सीमा के पास पाकिस्तानी तालिबान (टीटीपी) के दो ठिकानों पर छापेमारी की, जिसके बाद हुई भीषण झड़पों में 35 आतंकवादी और 12 सैनिक मारे गए. सेना ने शनिवार को यह जानकारी दी. यह घटना पाकिस्तान के सामने आतंकवादी समूहों, विशेष रूप से तहरीक-ए-तालिबान पाकिस्तान (टीटीपी) के पुनरुत्थान को रोकने में आ रही चुनौतियों को रेखांकित करती है. 2021 में अफगानिस्तान पर तालिबान के कब्जे के बाद से टीटीपी को बढ़ावा मिला है, जिससे पाकिस्तान और अफगानिस्तान के बीच संबंध तनावपूर्ण हो गए हैं. पहली छापेमारी उत्तर-पश्चिमी खैबर पख्तूनख्वा प्रांत के बाजौर जिले में हुई, जिसमें 22 आतंकवादी मारे गए. दूसरी कार्रवाई दक्षिण वज़ीरिस्तान जिले में हुई, जहां 13 और आतंकवादी मारे गए. यह हाल के महीनों में खैबर पख्तूनख्वा प्रांत में हुए सबसे घातक हमलों में से एक है. पिछले महीने पाकिस्तानी सेना ने बाजौर में एक "लक्षित अभियान" शुरू किया था, जिसके कारण हजारों लोगों को विस्थापित होना पड़ा था. इस कार्रवाई के ज़रिए पाकिस्तान अपनी ताकत का प्रदर्शन कर रहा है और अफगान तालिबान को सीमा पार आतंकवाद को रोकने की उसकी ज़िम्मेदारी याद दिला रहा है. पाकिस्तानी सेना ने काबुल में तालिबान सरकार से "अपनी जिम्मेदारियों को निभाने और पाकिस्तान के खिलाफ आतंकवादी गतिविधियों के लिए अपनी धरती का इस्तेमाल न होने देने" का आग्रह किया है. सेना ने मारे गए आतंकवादियों के लिए "खवारिज" शब्द का इस्तेमाल किया, जो उन्हें धार्मिक रूप से अवैध ठहराने का एक प्रयास है. बिना किसी सबूत के भारत पर इन आतंकवादियों को समर्थन देने का आरोप लगाना इस क्षेत्र के भू-राजनीतिक खेल में एक पुरानी रणनीति है. पाकिस्तान द्वारा टीटीपी के खिलाफ सैन्य अभियान जारी रखने की संभावना है. अफगान तालिबान पर कूटनीतिक दबाव बढ़ेगा, लेकिन यह स्पष्ट नहीं है कि काबुल टीटीपी पर नकेल कसने में सक्षम या इच्छुक है या नहीं. इससे सीमा पर तनाव और झड़पें और बढ़ सकती हैं.
बिहार मतदाता सूची
स्पष्ट निर्देशों के अभाव में, बीएलओ ने मनमाने ढंग से मतदाताओं के नाम हटाए
200 बूथों के विश्लेषण और 17 बूथ लेवल अधिकारियों (बीएलओ) और 100 व्यक्तियों (जिनके नाम हटा दिए गए या उनके परिवार के सदस्य) के साक्षात्कार से पता चलता है कि मतदाता सूची से नाम हटाने के लिए अत्यधिक असंगत प्रक्रियाएं अपनाई गईं. द वायर में ये शोधपरक रिपोर्ट मोहम्मद इमरान खान, अबीर दासगुप्ता, अरुण कुमार द्विवेदी, आयुष जोशी, ओम प्रकाश मिश्रा, पार्थ एम.एन., पूजा मिश्रा, रवि नायर और साची हेगड़े की बाईलाइन के साथ प्रकाशित हुई है.
अगस्त में, एक बूथ लेवल ऑफिसर (बीएलओ) ने झुराना को सूचित किया कि वह शायद आगामी राज्य चुनावों में मतदान नहीं कर पाएंगी. उत्तर-पूर्वी बिहार के पूर्णिया शहर के बाहरी इलाके बेलौरी में अपनी झोपड़ी के बाहर बैठी झुराना ने बताया, "मैंने पिछले राज्य चुनाव में मतदान किया था."
झुराना का नाम उस मसौदा मतदाता सूची से गायब था जिसे भारतीय चुनाव आयोग (ईसीआई) ने विवादास्पद विशेष गहन पुनरीक्षण (एसआईआर) के समापन के बाद जारी किया था. यह अभ्यास बिहार के लगभग 8 करोड़ मतदाताओं की पात्रता को सत्यापित करने के उद्देश्य से किया गया था. हालांकि, उनका नाम हटाए गए मतदाताओं की उस सूची में भी नहीं है, जिसे ईसीआई ने सुप्रीम कोर्ट के निर्देश के बाद प्रकाशित किया. जब भी उनका मतदाता फोटो पहचान पत्र (एपिक) नंबर वेबसाइट पर डाला गया, तो एक त्रुटि संदेश आया: कोई परिणाम नहीं मिला.
बीएलओ ने झुराना से कहा कि उन्हें फिर से पंजीकरण के लिए अपने माता-पिता के पहचान दस्तावेज लाने होंगे. उनके माता-पिता, जो अब इस दुनिया में नहीं हैं, पश्चिम बंगाल में उनके पैतृक गांव में रहते थे, जो लगभग 100 किलोमीटर दूर है. उन दस्तावेजों को लाना आर्थिक और शारीरिक रूप से लगभग असंभव काम है.
यह स्पष्ट नहीं है कि बीएलओ ने यह मांग क्यों की, जबकि ईसीआई के एसआईआर दिशानिर्देशों के अनुसार, झुराना जैसे मतदाताओं - जिनका जन्म 1987 से पहले हुआ था - को अपने माता-पिता की भारतीय नागरिकता का प्रमाण प्रस्तुत करने की आवश्यकता नहीं है. पूर्णिया के मतदाता पंजीकरण अधिकारी (ईआरओ) पार्थ गुप्ता ने स्वीकार किया कि झुराना से ये दस्तावेज नहीं मांगे जाने चाहिए थे.
जल्दबाज़ी में लागू प्रक्रिया की खामियां
जून 2025 में, जब ईसीआई ने बिहार चुनाव से कुछ महीने पहले एसआईआर की घोषणा की, तो उसने दावा किया कि इसका उद्देश्य यह सुनिश्चित करना है कि "कोई भी योग्य नागरिक न छूटे और कोई भी अयोग्य व्यक्ति शामिल न हो." झुराना जैसे मामले जल्दबाजी में लागू की गई प्रक्रिया की खामियों को उजागर करते हैं.
चुनाव आयोग द्वारा प्रकाशित मसौदा मतदाता सूची से 65 लाख मतदाता बाहर हैं. एक विश्लेषण से पता चला कि 26 जिलों के 58 निर्वाचन क्षेत्रों में 200 बूथों पर असामान्य रूप से उच्च विलोपन दर्ज किया गया - इन बूथों में 324 से 641 मतदाताओं के नाम हटा दिए गए थे. चूंकि ईसीआई ने बिहार में प्रत्येक मतदान केंद्र के लिए मतदाताओं की संख्या 1,200 तक सीमित कर दी है, इसका मतलब है कि प्रत्येक बूथ पर कम से कम एक तिहाई मतदाता हटा दिए गए, और कुछ मामलों में तो आधे तक. कुल मिलाकर, 200 बूथों पर 77,454 मतदाता हटा दिए गए.
टीम ने तीन निर्वाचन क्षेत्रों - पूर्णिया, हाजीपुर और दीघा - के 200 बूथों में से 10 का दौरा किया और 100 लोगों का साक्षात्कार लिया. ईसीआई ने चार कारणों से मतदाताओं को बाहर रखा है: क्योंकि उनकी मृत्यु हो गई थी, स्थायी रूप से प्रवास कर गए थे, कई स्थानों से पंजीकृत थे, या अनुपस्थित थे. अधिकांश मतदाता जिन्हें "अनुपस्थित" या "स्थानांतरित" के रूप में चिह्नित किया गया था, वे कई वर्षों से अपने पते पर रह रहे थे. कई लोगों ने दावा किया कि उनके बीएलओ उनके घर भी नहीं आए, जबकि ईसीआई ने स्पष्ट रूप से कहा था कि एसआईआर में "घर-घर सत्यापन" शामिल होगा.
प्रक्रिया में कोई एकरूपता नहीं
पूर्वी चंपारण, वैशाली, पटना और पूर्णिया जिलों के नौ निर्वाचन क्षेत्रों में 17 बीएलओ के साथ साक्षात्कार से पता चला कि मतदाताओं को हटाने के लिए अपनाई गई प्रक्रिया में कोई एकरूपता नहीं थी. ऐसा इसलिए था क्योंकि शुरू करने के लिए कोई मानकीकृत प्रक्रिया नहीं थी.
साक्षात्कार किए गए बीएलओ के अनुसार, इन प्रशिक्षण सत्रों में, बीएलओ को अपने विवेक से मसौदा मतदाता सूची से हटाए जा रहे लोगों के लिए अपेक्षित विवरण सत्यापित करने के लिए कहा गया था. ईआरओ पार्थ गुप्ता ने बताया, "बीएलओ की व्यक्तिगत संतुष्टि... पर्याप्त है." उदाहरण के लिए, यदि मृत के रूप में चिह्नित मतदाताओं के लिए मृत्यु प्रमाण पत्र उपलब्ध थे, तो यह "बहुत अच्छा" था, लेकिन यदि नहीं, तो बीएलओ किसी विशेष मतदाता की मृत्यु की पुष्टि के लिए आसपास के लोगों से भी पूछ सकता था.
इसका मतलब था कि साक्षात्कार किए गए बीएलओ ने अपने स्वयं के, अलग-अलग मानकों को लागू किया. कुछ ने कर्तव्यनिष्ठा से अपने दावों की जांच की और रिकॉर्ड बनाए रखा, जबकि अन्य अफवाहों पर निर्भर थे. पूर्वी चंपारण के रक्सौल निर्वाचन क्षेत्र के बूथ संख्या 21 के बीएलओ विजय कुमार ने बताया कि जब उन्हें उन मतदाताओं के मामलों में क्या करना है, यह पता नहीं होता था, तो वे अपने पर्यवेक्षकों से सलाह मांगते थे. उन्होंने कहा, "जो करना है कीजिए," यह जवाब मिला.
मतदाता अपने अधिकार वापस पाने के लिए संघर्ष कर रहे
हटाए गए मतदाता अपने अधिकारों को पुनः प्राप्त करने के लिए हाथ-पैर मार रहे हैं. वे यह समझने के लिए बीएलओ का पीछा कर रहे हैं कि उन्हें क्यों हटाया गया है, और अपने शामिल किए जाने के लिए एक विश्वसनीय मामला बनाने के लिए पर्याप्त दस्तावेज इकट्ठा करने की कोशिश कर रहे हैं.
एसआईआर की पहले ही इसके दृष्टिकोण के लिए व्यापक आलोचना हो चुकी है. सबूत के तौर पर शुरू में अनुमत 11 दस्तावेजों की सूची - जैसे पासपोर्ट और जन्म प्रमाण पत्र - धनी लोगों के पक्ष में थी. सुप्रीम कोर्ट के कई निर्देशों के बाद, ईसीआई ने बिहार में मुख्य चुनाव अधिकारी को आधार कार्ड को बारहवें दस्तावेज के रूप में स्वीकार करने का निर्देश दिया, जिसे एक मतदाता पहचान प्रमाण के रूप में प्रस्तुत कर सकता है.
साक्षात्कारों से पता चला कि बहाली की प्रक्रिया गरीब और हाशिए पर रहने वाले मतदाताओं को और अधिक मताधिकार से वंचित कर रही है, जिनमें से अधिकांश के पास अपना काम छोड़कर यह सुनिश्चित करने के लिए दर-दर भटकने की सुविधा नहीं है.
बीएलओ का मनमाना रवैया
बीएलओ ने बताया कि उन्होंने सत्यापन प्रक्रिया के दौरान हर मतदाता को घर-घर जाकर दो फॉर्म बांटे. मतदाताओं को तब अपने घोषित पते, अपनी उम्र और भारतीय नागरिकता की पुष्टि करते हुए एक घोषणा पर हस्ताक्षर करना था, साथ ही प्रत्येक श्रेणी के लिए दस्तावेजी प्रमाण प्रदान करना था. जिन मतदाताओं ने अपने फॉर्म जमा नहीं किए, या अपर्याप्त समझे गए दस्तावेज जमा किए, उन्हें सूची से हटा दिया गया.
कुछ मामले सीधे थे - जैसे कि वे महिलाएं जो अपने मायके और ससुराल दोनों घरों से पंजीकृत थीं. ऐसे मामलों में, बीएलओ को बस यह पूछना था कि मतदाता किस पते को बनाए रखना चाहता है. लेकिन जब बीएलओ मतदाताओं का पता नहीं लगा सके, तो उन्होंने अलग-अलग तरीके अपनाए. कुछ ने मतदाताओं का पता लगाने के लिए बार-बार प्रयास किए और अपनी स्वयं की तथ्य-जांच प्रक्रिया तैयार की, जबकि अन्य ने अपने दावों को सत्यापित करने के लिए कोई प्रयास नहीं किया.
पटना जिले के दीघा निर्वाचन क्षेत्र में बूथ संख्या 377 के बीएलओ शिव कुमार ने बोझ मतदाताओं पर डालते हुए कहा कि यह सुनिश्चित करना उनकी जिम्मेदारी थी कि उन्हें हटाया न जाए. कुमार के बूथ में 350 से अधिक मतदाता हटा दिए गए हैं - अब तक केवल एक ने शामिल करने के लिए आवेदन दायर किया है.
कुछ बीएलओ अपने ज्ञान पर निर्भर थे. पूर्वी चंपारण के सुगौली निर्वाचन क्षेत्र में बूथ संख्या 277 के बीएलओ रवि कुमार ने कहा, "मैं गांव में रहता हूं, मुझे पता है कि कौन मर गया है, कौन चला गया है." जब उनसे पूछा गया कि क्या उन्होंने अपनी घोषणाओं को प्रमाणित करने के लिए कोई दस्तावेजी प्रमाण या गवाही दर्ज की, तो उन्होंने कहा: "मैंने नहीं किया. मैं उन्हें व्यक्तिगत रूप से जानता हूं, मुझे और क्या सबूत चाहिए?"
मताधिकार से वंचित मतदाता दहशत में
विश्लेषण किए गए 200 बूथों में, हटाए गए अधिकांश मतदाताओं - 44,139 लोग - को "स्थानांतरित" घोषित किया गया, जिसका अर्थ है कि वे स्थायी रूप से अपने पते से बाहर चले गए थे. फिर वे थे जिन्हें "अनुपस्थित" घोषित किया गया, यानी, बीएलओ उन्हें ढूंढ नहीं सके: 22,259 लोग. इसके अलावा, 8,582 मतदाताओं को मृत घोषित किया गया, जबकि 2,204 कहीं और पंजीकृत पाए गए.
पटना जिले के दीघा में रहने वाली 60 वर्षीय घरेलू सहायिका जुमैरा खातून अपने बेटे ललन का नाम हटाने को उलटने के लिए संघर्ष कर रही थीं. वह एक प्रवासी मजदूर है जो मुंबई में एक टायर फैक्ट्री में काम करता है, और साल में दो या तीन बार घर लौटता है. उसे हटाने का कारण यह था कि वह "अनुपस्थित" था. परिवार 50 से अधिक वर्षों से एक ही घर में रह रहा था.
वैशाली जिले के हाजीपुर निर्वाचन क्षेत्र के एक मोहल्ले, बघमरी के निवासी उपेंद्र पंडित और उनकी पत्नी प्रेम शीला देवी, दोनों को दो अलग-अलग कारणों से मसौदा मतदाता सूची से हटा दिया गया है. पंडित को "स्थानांतरित" या स्थायी रूप से प्रवासित के रूप में सूचीबद्ध किया गया था, जबकि देवी को हटा दिया गया था क्योंकि वह "अनुपस्थित" थीं. पंडित ने बताया, "हम कहीं नहीं गए हैं."
ईसीआई ने पहले मसौदा मतदाता सूची से बहिष्करण के लिए दावे और आपत्तियां दाखिल करने की अंतिम तिथि 1 सितंबर, 2025 घोषित की थी. शामिल करने के लिए आवेदनों की समय-सीमा अब बिहार के विधानसभा चुनावों से पहले नामांकन के अंतिम दिन तक संशोधित कर दी गई है - जिसकी घोषणा अभी बाकी है.
ईसीआई के प्रवक्ताओं और बिहार के मुख्य चुनाव अधिकारी विनोद सिंह गुंजियाल ने टिप्पणी के अनुरोधों का जवाब नहीं दिया.
नौ साल जेल में रहने के बाद बरी मुंबई ब्लास्ट के आरोपी ने 9 करोड़ का मुआवज़ा मांगा
बॉम्बे हाईकोर्ट के जुलाई के उस फैसले के बाद, जिसमें 2006 मुंबई ट्रेन ब्लास्ट मामले में सभी 12 आरोपियों की सज़ा को पलट दिया गया था, वाहिद दीन मोहम्मद शेख—जो 2015 में ट्रायल कोर्ट द्वारा बरी किए गए अकेले व्यक्ति थे—ने अब नौ साल की गलत क़ैद के लिए 9 करोड़ रुपये का मुआवज़ा मांगा है.
“द हिंदू” के मुताबिक, शुक्रवार (12 सितंबर 2025) को जारी एक बयान में शेख ने कहा कि उन्होंने राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग, दिल्ली और महाराष्ट्र, राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग, भारत सरकार तथा अल्पसंख्यक विकास विभाग (अल्पसंख्यक आयोग), महाराष्ट्र सरकार से संपर्क किया है और अपने साथ हुई आज़ादी, गरिमा और जीवन की दिशा में हुए “आपूरणीय नुकसान” की भरपाई करने की मांग की है.
वाहिद शेख से हरकारा डीपडाइव में हमने प्रोसेस एज पनिशमेंट सीरीज़ के तहत बात की थी. आप यहां उनकी बात सुन सकते हैं.
चुनाव आयोग ने सुप्रीम कोर्ट से कहा, एसआईआर कब और कैसे होगा, यह वह खुद तय करता है
चुनाव आयोग (ईसीआई) ने सुप्रीम कोर्ट से स्पष्ट शब्दों में कहा है कि मतदाता सूची की विशेष गहन पुनरीक्षण प्रक्रिया (एसआईआर) कब और कैसे कराई जाए, यह उसका “विशेषाधिकार क्षेत्र” है और इसमें अदालत को दखल नहीं देना चाहिए. आयोग ने कहा कि पुनरीक्षण प्रक्रिया गहन होगी या संक्षिप्त, यह “परिस्थितियों पर निर्भर करेगा.” किसी भी स्थिति में, आयोग के अनुसार यह निर्णय पूरी तरह उसी का अधिकार है और न्यायिक दायरे से बाहर है.
“द हिंदू” के अनुसार, चुनाव आयोग ने सुप्रीम कोर्ट को बताया कि विशेष गहन पुनरीक्षण के समय और जरूरत को लेकर निर्णय केवल चुनाव आयोग का होता है, कोई अन्य अथॉरिटी इसमें हस्तक्षेप नहीं कर सकती. प्रक्रिया और समय आयोग तय करता है, यह चुनावों की पारदर्शिता और निष्पक्षता सुनिश्चित करने के लिए आवश्यक है. सुप्रीम कोर्ट द्वारा इस मामले में दिए गए निर्देशों के जवाब में चुनाव आयोग ने अपनी निष्पक्ष और संवैधानिक भूमिका पर जोर दिया है तथा कहा है कि किसी भी बाहरी हस्तक्षेप को अनुमति नहीं दी जाएगी.
क्या फेल मार गई प्रधानमंत्री इंटर्नशिप योजना? सिर्फ 30 हजार युवाओं ने दिखाई रुचि
स्मार्ट सिटी की तरह क्या प्रधानमंत्री इंटर्नशिप योजना भी फेल मार गई है? इस योजना को बड़े पैमाने पर युवा और कंपनियों को जोड़ने का प्रयास माना गया था, जिसमें पांच वर्षों में 1 करोड़ इंटर्नशिप अवसर देने का लक्ष्य था. इसके बावजूद, योजना के शुरुआत के महीनों में छात्रों की ओर से स्वीकार्यता अपेक्षा से बहुत कम रही. दो चरणों में सिर्फ 30 हजार युवाओं ने इसे स्वीकार किया है.
प्रधानमंत्री इंटर्नशिप योजना का मासिक वजीफ़ा केवल 5,000 रुपये है. इसमें यह आश्वासन भी नहीं है कि किसी कंपनी में किया गया इंटर्न का समय वहां या कहीं और नौकरी पाने में गिना जाएगा. इसके अलावा, आवेदन करने से पहले यह भी स्पष्ट नहीं होता कि इंटर्न को कंपनी में किस प्रकार का काम करना होगा. ये कुछ कमियां हैं, जिन्हें इस योजना के इंटर्न्स या आवेदकों ने सामने रखा. एक ने कहा कि वजीफ़े से रहने और खाने का ख़र्च नहीं निकलता, इसलिए उसे योजना में बने रहने के लिए हर महीने अपनी जेब से 8,000 रुपये खर्च करने पड़ते हैं. विशेषज्ञों ने यह भी इंगित किया कि इस योजना में ऐसा कोई प्रावधान नहीं है, जिससे सरकार इंटर्न्स की किसी कंपनी में काम करने के दौरान हुई प्रगति को ट्रैक कर सके.
“स्क्रॉल” में जोहन्ना दीक्षा की रिपोर्ट में उन कारणों पर रोशनी डाली गई है, जिनकी वजह से प्रधानमंत्री इंटर्नशिप योजना उम्मीदवारों को आकर्षित नहीं कर पा रही है. जैसे- इंटर्नशिप की लोकेशन. कई छात्र छोटे शहरों और अर्ध-शहरी इलाकों से आते हैं, जहां से दूर स्थान पर इंटर्नशिप करना आर्थिक रूप से संभव नहीं होता. इंटर्नशिप की अवधि छात्रों के लिए पढ़ाई, परीक्षा और उच्च शिक्षा की योजना के हिसाब से अनुकूल नहीं होती. कई बार इंटर्नशिप के स्थान और प्रकार छात्रों के शिक्षा क्षेत्र या करियर आकांक्षाओं के अनुरूप नहीं होते, जिससे वे इसे स्वीकार करने में हिचकिचाते हैं. छात्र आर्थिक और आवासीय समर्थन की कमी के कारण भी इंटर्नशिप में कम रुचि दिखा रहे हैं.
भारत में तेज़ी से बढ़ने वाली हैं घरों की कीमतें, लाखों लोग महंगे किराये के घरों पर निर्भर हो जाएंगे
भारत में घरों की कीमतें अनुमान से कहीं ज्यादा तेजी से बढ़ने वाली हैं. ‘रॉयटर्स’ के संपत्ति विशेषज्ञों के सर्वेक्षण में पाया गया कि अमीर खरीदारों की बढ़ी हुई मांग इसकी मुख्य वजह है, जबकि किफायती आवास की घटती आपूर्ति के चलते लाखों लोग लगातार महंगे होते किराये के मकानों में फंसे रहेंगे.
उच्च वेतन वाली नौकरियां कुछ चुनिंदा शहरों तक सीमित रहने और मजदूरी के ठहराव ने शहरी इलाकों में काम की तलाश में आने वाले लाखों लोगों के लिए घर खरीदना मुश्किल बना दिया है, जिसके कारण ज्यादातर संभावित खरीदारों को किराये पर ही घर लेना पड़ रहा है. ‘रॉयटर्स’ द्वारा पिछले महीने किए गए एक सर्वे के अनुमानों के अनुसार, संपत्ति विशेषज्ञ मानते हैं कि औसत मकान की कीमतें इस साल 6.3% और अगले साल 7% तक बढ़ेंगी—जो अनुमान से कहीं तेज़ वृद्धि है.
राहुल त्रिवेदी बताते हैं कि कीमतों में यह बढ़ोतरी "अमीर खरीदारों की मांग से प्रेरित है”, जबकि किफायती आवास की घटती उपलब्धता और ठहरी हुई तनख्वाहों के चलते "शहरों में काम की तलाश में आने वाले लाखों लोगों के लिए घर का मालिक बनना लगभग असंभव हो गया है." परिणामस्वरूप, अधिकांश संभावित खरीदारों को लगातार बढ़ते किराए पर घर लेना पड़ रहा है.
एक विश्लेषक ने कहा,"भ्रष्ट पूंजीवाद की नींव ज़मीन के स्वामित्व से ही शुरू होती है. जब शहरों में ज़मीन पर अमीरों का कब्ज़ा है तो किफायती आवास कैसे बनेगा? यही वजह है कि आवास आपको विकल्प नहीं देता—बल्कि आपको निराशाजनक मजबूरियां देता है."
अयोध्या में राम मंदिर का निर्माण अधूरा, मियाद आगे बढ़ाई
अयोध्या का राम मंदिर, जिसे 2024 लोकसभा चुनावों से पहले बड़े धूमधाम से उद्घाटित किया गया था, अभी भी अधूरा है. इसके निर्माण की समयसीमा अब सितंबर 2025 से बढ़ाकर मार्च 2026 कर दी गई है और इसके साथ ही निर्माण एजेंसियों एलएंडटी और टाटा की अवधि भी बढ़ाई गई है. इसलिए, जहां श्रद्धालुओं को यह बताया गया कि रामलला को आखिरकार अपना घर मिल गया है, हकीकत यह है कि यह आधा-अधूरा ढांचा चुनावी दिखावे के लिए पूरा बताया गया. यह प्राण-प्रतिष्ठा आस्था से अधिक वोटों के लिए थी—मंदिर को एक चुनावी मंच में बदल दिया गया और समयसीमाओं को आगे खिसका दिया गया.
“द न्यू इंडियन एक्सप्रेस” में मंदिर निर्माण समिति के अध्यक्ष नृपेंद्र मिश्र के हवाले से बताया गया है कि मंदिर के शिखर पर ध्वज आरोहण और फहराने की प्रस्तावित तिथि इस वर्ष 25 नवम्बर तय की गई है. मिश्र के मुताबिक, अब तक मंदिर निर्माण पर 1400 करोड़ रुपये खर्च हो चुके हैं, जिनमें से 1100 करोड़ रुपये विभिन्न निर्माण एजेंसियों को अदा किए जा चुके हैं.
इसके अतिरिक्त, मंदिर परिसर में प्रस्तावित संग्रहालय की 20 दीर्घाओं को आकार देने में लगभग 200 करोड़ रुपये खर्च होने की संभावना है. इन दीर्घाओं में भगवान राम के जीवन और समय से जुड़े प्रमुख घटनाक्रमों का प्रतिबिंब होगा—रामायण काल से लेकर राम मंदिर आंदोलन तक.
मुस्लिम आबादी नहीं, फिर भी मस्जिदों से गूंजती है अज़ान की आवाज़
“बीबीसी” में सीटू तिवारी की रिपोर्ट कहती है कि बिहार की राजधानी पटना के पास, ऐतिहासिक मगध क्षेत्र में दशकों पुरानी ऐसी मस्जिदें हैं, जो जिजीविषा और साझी विरासत की कहानी सुनाती हैं. इनमें से कई जगहों पर अब मुस्लिम आबादी नहीं है, फिर भी प्रतिदिन अज़ान की आवाज़ गूंजती है. इसे कोई अमीर संरक्षक या संस्थान नहीं, बल्कि आम स्थानीय लोग जीवित रखे हुए हैं.
दैनिक मज़दूरी करने वाले लोग, अपनी कठिनाइयों से जूझते हुए भी, इन इबादतगाहों को संजोए रखते हैं. हैरत की बात यह है कि इनमें से कुछ संरक्षक हिंदू हैं, जो चुपचाप सह-अस्तित्व की विरासत की रक्षा कर रहे हैं और यह साबित कर रहे हैं कि बंटे हुए समय में भी विरासत समुदायों को जोड़ सकती है.
भोपाल का ‘90 डिग्री’ पुल असल में ‘118-119 डिग्री’ का है
भोपाल का विवादित ‘90 डिग्री’ रेलवे ओवरब्रिज असल में समकोणीय (90 डिग्री) मोड़ पर नहीं है. मध्यप्रदेश हाईकोर्ट में पेश की गई एक विशेषज्ञ रिपोर्ट के अनुसार, मौलाना आज़ाद नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी के एक प्रोफेसर ने बताया कि पुल का मोड़ वास्तव में लगभग 118–119 डिग्री का है. यह तथ्य उस याचिका की सुनवाई के दौरान सामने आया, जिसे पुल बनाने वाली निजी कंपनी ने दायर किया था. इस कंपनी ने राज्य सरकार द्वारा उसे ब्लैकलिस्ट करने के फैसले को चुनौती दी थी, जिसे लेकर जनता में कथित खतरनाक डिज़ाइन पर विरोध हुआ था. “पीटीआई” के अनुसार, विशेषज्ञ रिपोर्ट मिलने के बाद राज्य सरकार ने अपने फैसले पर पुनर्विचार करने के लिए और समय मांगा है. लेकिन असल मुद्दा यह है कि वाहन यदि मध्यम गति से भी चल रहे हों, तो 118–119 डिग्री का मोड़ लेना भी लगभग उतना ही कठिन है, जितना 90 डिग्री का मोड़.
कश्मीरी युवा सहेज रहे हैं सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स पर इतिहास
कश्मीर की युवा पीढ़ी सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म का उपयोग करके क्षेत्र की भाषा, संस्कृति, विरासत और इतिहास को संरक्षित और बढ़ावा दे रही है. वे दशकों से चले आ रहे संघर्ष और हिंसा की कहानी के बजाय कश्मीर की एक अलग और सकारात्मक तस्वीर पेश कर रहे हैं. दशकों के संघर्ष से प्रभावित क्षेत्र में, ये डिजिटल कहानीकार कश्मीर की समृद्ध सांस्कृतिक पहचान को पुनः प्राप्त कर रहे हैं. वे न केवल युवा पीढ़ी के बीच गर्व की भावना पैदा कर रहे हैं, बल्कि दुनिया भर के दर्शकों को कश्मीर की हिंसा से परे की दुनिया से भी परिचित करा रहे हैं. मुनीर अहमद डार (Muneer Speaks), मुहम्मद फैसल (Museum of Kashmir), शेख अदनान (Shawlwala) और सीरत हाफ़िज़ जैसे कंटेंट क्रिएटर्स फेसबुक, इंस्टाग्राम और यूट्यूब जैसे प्लेटफॉर्म का उपयोग कर रहे हैं. वे कश्मीरी भाषा और कविता से लेकर पुरानी वास्तुकला, पश्मीना शॉल की कहानियां और स्थानीय व्यंजनों के पीछे के इतिहास जैसे विषयों को कवर करते हैं. कुछ लोग व्यंग्य और हास्य का भी उपयोग करते हैं, जैसे सीरत हाफ़िज़, जो वायरल मीम्स का उपयोग करके स्थानीय साहित्य को बढ़ावा देती हैं. यह आंदोलन एक प्रकार का सांस्कृतिक प्रतिरोध है, जो यह साबित करता है कि कश्मीरी संस्कृति खत्म नहीं हो रही है, बल्कि अपनी शर्तों पर याद किए जाने के लिए संघर्ष कर रही है. हालांकि, इन क्रिएटर्स को चुनौतियों का भी सामना करना पड़ता है, जैसे कि मेटा जैसे सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर कश्मीरी को एक क्षेत्रीय भाषा के रूप में मान्यता न मिलना, जिससे उनकी पहुंच प्रभावित होती है. इसके अलावा, मौखिक इतिहास को प्रस्तुत करते समय सटीकता बनाए रखना भी एक बड़ी ज़िम्मेदारी है. चुनौतियों के बावजूद, ये युवा अपना काम जारी रखने के लिए दृढ़ हैं. साहित्यिक समूह 'अदबी मरकज़ कामराज़' 2023 से कश्मीरी को गूगल ट्रांसलेट में जोड़ने के लिए अभियान चला रहा है. इन क्रिएटर्स की सफलता उनकी दृढ़ता और गूगल और मेटा जैसे वैश्विक तकनीकी प्लेटफार्मों की प्रतिक्रिया पर निर्भर करेगी. जैसा कि मुनीर डार कहते हैं, "हो सकता है कि एक दिन लोग मेरा नाम भूल जाएं, लेकिन अगर वे एक भी कश्मीरी कहानी याद रखते हैं जिसे मैंने जीवित रखने में मदद की, तो मेरे काम का अर्थ होगा". पढ़िए बीबीसी में बिस्मा फारूक़ भट्ट और आदिल अमीन आख़ून की इस पर विस्तृत रिपोर्ट
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