14/10/2025: एसआईआर में बंदरबांट | सीटों के बंटवारे शुरू, तनातनी भी | गाज़ा में युद्धविराम को कैसे समझें | असम भाजपा ऑफिशियली नफ़रती | पनसारे की हत्या के आरोपियों को जमानत | पहले भी मरे हैं कफ़ सिरप से
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निधीश त्यागी, साथ में राजेश चतुर्वेदी, गौरव नौड़ियाल, फ़लक अफ़शां
आज की सुर्खियां
बिहार मतदाता सूची में विपक्ष के गढ़ों से ज़्यादा नाम हटाए गए, रिपोर्ट का दावा
बीजेपी ने बिहार चुनाव के लिए 71 उम्मीदवारों की पहली सूची जारी की
बिहार एनडीए में सीट बंटवारे पर रार, नौ सीटों को लेकर नीतीश कुमार बीजेपी से नाराज़
महागठबंधन में भी खींचतान, राहुल गांधी की आपत्ति के बाद आरजेडी ने सिंबल वापस लिए
वरिष्ठ नक्सली नेता भूपति ने 60 कैडरों के साथ महाराष्ट्र में आत्मसमर्पण किया
शरजील इमाम बिहार विधानसभा चुनाव लड़ेगा, अंतरिम ज़मानत याचिका वापस ली
रिपोर्ट में दावा, असम बीजेपी का एक्स हैंडल मुस्लिम विरोधी नफरती प्रचार से भरा है
गोविंद पानसरे हत्याकांड के तीनों मुख्य आरोपियों को बॉम्बे हाईकोर्ट से ज़मानत मिली
हरियाणा में एक और पुलिसकर्मी ने की आत्महत्या, वीडियो में दिवंगत आईपीएस पर लगाए गंभीर आरोप
छत्तीसगढ़ कोल लेवी घोटाला, ईओडब्ल्यू अधिकारियों पर फ़र्ज़ी दस्तावेज़ बनाने का आरोप
जम्मू-कश्मीर, बिजली क्षेत्र में मारे गए दिहाड़ी मज़दूरों के परिवार मुआवज़े के लिए कर रहे संघर्ष
ज़हरीले कफ़ सिरप से बच्चों की मौतें जारी, पुराने मामलों में अब तक नहीं मिला इंसाफ़
गूगल विशाखापत्तनम में 15 अरब डॉलर के निवेश से अपना पहला एआई हब बनाएगा
कोर्ट के आदेश के बावजूद बांग्लादेश भेजी गई गर्भवती प्रवासी मज़दूर की वापसी का इंतज़ार
सोनम वांगचुक की हिरासत को चुनौती देने वाली याचिका पर सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई टली
आज तक की एंकर अंजना ओम कश्यप पर वाल्मीकि समुदाय की भावनाएं आहत करने का केस दर्ज
गुजरात में आरटीआई कानून बेअसर, सत्ता से सवालों का जवाब नहीं मिल रहा
गाज़ा युद्धविराम समझौता क्या स्थायी शांति लाएगा, विश्लेषकों ने उठाए सवाल
ग्रेट निकोबार प्रोजेक्ट ने प्रकृति को कानूनी अधिकार देने के मुद्दे को फिर बहस में ला दिया है
बिहार मतदाता सूची संशोधन: विपक्ष के गढ़ों में मतदाता हटाने और 2020 के चुनावी नतीजों में मज़बूत संबंध
बिहार में विशेष गहन पुनरीक्षण (SIR) को लेकर महागठबंधन (MGB) लगातार यह आरोप लगाता रहा है कि यह उनके मतदाता आधार को असमान रूप से प्रभावित कर रहा है. द वायर में पवन कोराडा की विस्तृत रिपोर्ट के अनुसार, अंतिम SIR सूची से पता चला है कि 2020 में विपक्ष द्वारा जीती गई सीटों पर NDA की तुलना में औसतन 208 ज़्यादा वोट हटाए गए हैं. मतदाता हटाने की यह प्रक्रिया भौगोलिक रूप से विपक्ष के मज़बूत गढ़ों, विशेषकर सीमांचल क्षेत्र में केंद्रित है.
विश्लेषण से पता चलता है कि 2020 में MGB द्वारा जीती गई सीटों और मतदाता हटाने की अधिक घटनाओं के बीच एक मज़बूत संबंध है. सबसे ज़्यादा मतदाता हटाए जाने वाली शीर्ष 26 सीटों में से 16 महागठबंधन ने जीती थीं और एक AIMIM ने. इस सूची में केवल नौ सीटें ऐसी थीं जहाँ राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (NDA) ने जीत हासिल की थी. यह पैटर्न उन निर्वाचन क्षेत्रों में विशेष रूप से स्पष्ट है जहाँ जीत का अंतर बहुत कम था, एक मामले में तो यह महज़ 12 वोटों (हिलसा, जिसे MGB ने जीता था) का था. आंकड़ों से यह भी पता चलता है कि MGB द्वारा जीती गई सीटों पर हटाए गए मुस्लिम मतदाताओं की संख्या लगभग दोगुनी है.
विजेता गठबंधन के अनुसार मतदाता हटाना: आंकड़े एक स्पष्ट और महत्वपूर्ण रुझान दिखाते हैं. 2020 में MGB द्वारा जीती गई सीटों पर औसतन NDA द्वारा जीती गई सीटों की तुलना में 208 ज़्यादा मतदाता हटाए गए. MGB द्वारा जीती गई सीटों पर मुस्लिम मतदाताओं को हटाने की संख्या लगभग दोगुनी (421 बनाम 224) है. कुल हटाए गए मतदाताओं में मुस्लिम मतदाताओं की हिस्सेदारी भी MGB की सीटों पर (27.2%) NDA की सीटों (16.7%) की तुलना में काफ़ी ज़्यादा है.
भौगोलिक विश्लेषण: यह घटना पूरे बिहार में एक समान नहीं है, बल्कि सीमांचल (किशनगंज, अररिया, पूर्णिया, कटिहार) जैसे विशिष्ट राजनीतिक-भौगोलिक क्षेत्रों में केंद्रित है, जो MGB/AIMIM का मज़बूत गढ़ है और जहाँ मुस्लिम आबादी ज़्यादा है. इस क्षेत्र में औसत कुल मतदाता हटाने की दर राज्य के औसत से दोगुनी से भी अधिक है. इसके विपरीत, NDA के मुख्य क्षेत्रों जैसे मगध और तिरहुत में औसत मतदाता हटाने की संख्या राज्य के औसत से काफ़ी कम है.
पार्टी-विशिष्ट प्रभाव: महागठबंधन के दो मुख्य सहयोगियों, राजद (RJD) और कांग्रेस (INC) द्वारा जीती गई सीटों पर औसत मतदाता हटाने की दर सबसे ज़्यादा है. विशेष रूप से कांग्रेस द्वारा जीती गई सीटों पर कुल और मुस्लिम मतदाताओं को हटाने की औसत दर सबसे ज़्यादा है. वहीं, NDA की सबसे बड़ी पार्टी भाजपा (BJP) की औसत मतदाता हटाने की दर राज्य के औसत से कम और अपने मुख्य प्रतिद्वंद्वी राजद से काफ़ी कम है. इस डेटा के आधार पर यह कहा जा सकता है कि बिहार में SIR अभ्यास, चाहे उसके प्रशासनिक इरादे कुछ भी हों, इस तरह से किया गया है कि इसके राजनीतिक परिणाम भारी रूप से विपक्ष के मुख्य क्षेत्रों, उसकी मुख्य पार्टियों और उसके सबसे शक्तिशाली जनसांख्यिकीय गढ़ों में केंद्रित हैं. दर्जनों सीमांत सीटों पर परिणामों को प्रभावित करने की क्षमता सिर्फ़ एक संभावना नहीं, बल्कि इस डेटा के आधार पर एक सांख्यिकीय संभाव्यता है.
भाजपा की पहली सूची जारी, 71 उम्मीदवार घोषित
भारतीय जनता पार्टी ने बिहार विधानसभा चुनावों के लिए अपने 71 उम्मीदवारों की पहली सूची मंगलवार को जारी कर दी. इस सूची में दोनों उपमुख्यमंत्रियों, सम्राट चौधरी और विजय कुमार सिन्हा सहित कई प्रमुख नेता शामिल हैं. चौधरी को मुंगेर के तारापुर से टिकट दिया गया है, हालांकि, 2021 में हुए उपचुनाव में जद (यू) के राजीव कुमार सिंह ने तारापुर सीट जीती थी. वहीं सिन्हा लखीसराय विधानसभा क्षेत्र से चुनाव लड़ेंगे.
रमाशंकर के अनुसार, 71 उम्मीदवारों में से नौ महिलाएं हैं. बिहार विधानसभा के अध्यक्ष नंद किशोर यादव का नाम इस सूची में शामिल नहीं है. पटना साहिब से यादव की जगह नए उम्मीदवार रत्नेश कुशवाहा को टिकट दिया गया है.
स्वास्थ्य मंत्री मंगल पांडे, जो विधान परिषद सदस्य (एमएलसी) हैं, को भी मैदान में उतारा गया है. वह अपने गृह जिले के सीवान विधानसभा क्षेत्र से चुनाव लड़ेंगे.
पाटलिपुत्र के पूर्व सांसद राम कृपाल यादव को दानापुर विधानसभा सीट से उम्मीदवार बनाया गया है. राम कृपाल 2024 के लोकसभा चुनाव में राजद प्रमुख लालू प्रसाद की सबसे बड़ी बेटी मीसा भारती से हार गए थे. पूर्व उपमुख्यमंत्री तारकिशोर प्रसाद कटिहार से, जबकि आलोक रंजन झा सहरसा से चुनाव लड़ेंगे. 71 उम्मीदवारों की पूरी सूची यहां है.
9 सीटों को लेकर अनमनी है नीतीश की पार्टी, बीजेपी से फिर चर्चा के लिए कहा
इस बीच एनडीए में अब तक बड़े भाई की भूमिका में रहे जद (यू) ने नौ सीटों को लेकर असंतोष व्यक्त किया है, जो भाजपा और केंद्रीय मंत्री चिराग पासवान की लोक जनशक्ति पार्टी (रामविलास) को आवंटित की गई हैं. “टाइम्स नाउ” के अनुसार, मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने सीट-बंटवारे के फॉर्मूले पर गहरी नाराज़गी व्यक्त की है. नीतीश ने अपनी चिंता पार्टी के कार्यकारी अध्यक्ष, संजय झा, और केंद्रीय मंत्री, ललन सिंह तक पहुंचाई है, और उनसे भाजपा के साथ सीट-बंटवारे की व्यवस्था पर चर्चा फिर से शुरू करने के लिए कहा है.
एनडीए के छोटे सहयोगियों, केंद्रीय मंत्री जीतन राम मांझी और राज्यसभा सांसद उपेंद्र कुशवाहा, जिन्हें छह-छह सीटें मिली हैं, ने भी सीट-बंटवारे के फॉर्मूले पर अपनी नाराज़गी व्यक्त की है. मांझी का कहना है, “हमें सिर्फ छह सीटें देकर, कम आंका है. चुनावों में इसकी कीमत एनडीए को चुकानी पड़ सकती है.” इसी तरह, कुशवाहा ने अपने कार्यकर्ताओं को “एक्स” पर लिखा, “प्रिय दोस्तों/सहयोगियों, मैं आपकी क्षमा चाहता हूं. हमें जितनी सीटें मिली हैं, वह आपकी अपेक्षाओं के अनुसार नहीं हैं.”
नीतीश ने पूछा, फॉर्मूला तो 103-102 का था, फिर 101-101 कैसे हो गया?
“द ट्रिब्यून” में दीपक मिश्रा की रिपोर्ट है कि नीतीश कुमार ने अपनी पार्टी के नेताओं से कहा कि सहमत फॉर्मूला जेडी (यू) के लिए 103 और भाजपा के लिए 102 सीटों पर चुनाव लड़ने का था, और सवाल किया कि यह दोनों के लिए 101-101 कैसे हो गया?” लिहाजा, भाजपा नेताओं को बताया गया कि मुख्यमंत्री को सीट-बंटवारे का फॉर्मूला अस्वीकार्य लगा— खासकर जिस तरह से लोजपा को सीटें वितरित की गईं. नीतीश ने कथित तौर पर भाजपा से इस व्यवस्था पर “पुनर्विचार” करने के लिए कहा.
महागठबंधन में भी ड्रामा, राहुल गांधी की आपत्ति के बाद आरजेडी ने वापस बुलाए सिंबल
एक तरफ जहां एनडीए आंतरिक तनाव सुलझाने में जुटा था, वहीं महागठबंधन में भी समानांतर नाटक सामने आया. दिल्ली से लौटने के तुरंत बाद, तेजस्वी यादव के करीबी सहयोगी भोला यादव ने राजद उम्मीदवारों को उनकी पार्टी के सिंबल लेने के लिए बुलाना शुरू कर दिया. हालांकि, जब तेजस्वी दिल्ली से पटना पहुंचे, तो उन्होंने वितरित किए गए सिंबल वापस करने का आदेश दिया. ऐसा राहुल गांधी की कड़ी आपत्ति के कारण हुआ, क्योंकि सीट-बंटवारे की बातचीत समाप्त होने से पहले सिंबल वितरित कर दिए गए थे. महागठबंधन के भीतर पहले के “ले-लो-या-छोड़-दो” वाले सीट-बंटवारे के फॉर्मूले में राजद को 134 सीटें, कांग्रेस को 54, सीपीआई-एमएल को 22, सीपीआई को 6, सीपीएम को 4, वीआईपी को 18, जेएमएम को 2, पशुपति कुमार पारस के लोजपा गुट को 3 और इंडियन इन्क्लूसिव पार्टी को 2 सीटें आवंटित की गई थीं.
राजद नेता कथित तौर पर सीपीआई-एमएल से भी नाराज हैं, क्योंकि उसने उन निर्वाचन क्षेत्रों में भी अपने उम्मीदवारों को सिंबल वितरित कर दिए हैं, जहां राजद ने पहले चुनाव लड़ा था. एक अलग मोर्चे पर, प्रशांत किशोर के नेतृत्व वाली जन सुराज पार्टी ने 65 और लालू प्रसाद के बड़े बेटे और नवगठित जनशक्ति जनता दल के नेता तेज प्रताप यादव ने भी दो उम्मीदवारों की घोषणा की है.
चुनाव लड़ेगा शरजील इमाम, कोर्ट से याचिका वापस
शरजील इमाम ने मंगलवार को दिल्ली दंगों की बड़ी साज़िश के मामले में अंतरिम ज़मानत के लिए दिल्ली की एक अदालत में दायर अपनी याचिका वापस ले ली, ताकि वह बहादुरगंज निर्वाचन क्षेत्र से स्वतंत्र उम्मीदवार के रूप में आगामी बिहार विधानसभा चुनाव लड़ सके. कड़कड़डूमा कोर्ट के अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश समीर बाजपेयी ने इमाम को याचिका वापस लेने की अनुमति दे दी.
‘लाइव लॉ’ की रिपोर्ट के अनुसार, इमाम की ओर से पेश हुए अधिवक्ता अहमद इब्राहिम ने कुछ तकनीकी मुद्दे का हवाला देते हुए आवेदन वापस लेने की प्रार्थना की. उन्होंने कहा कि चूंकि इस मामले में इमाम की नियमित ज़मानत याचिका सुप्रीम कोर्ट में लंबित है, इसलिए राहत मांगने के लिए उचित मंच होना चाहिए.
इमाम ने 15 अक्टूबर से 29 अक्टूबर तक 14 दिनों के लिए अंतरिम ज़मानत पर अपनी रिहाई की मांग की थी. यह राहत बिहार विधानसभा चुनावों के लिए अपना नामांकन दाखिल करने और प्रचार करने के लिए मांगी गई थी.
आवेदन में कहा गया था कि इमाम 5 साल से अधिक समय से लगातार जेल में हैं और उन्हें अंतरिम रूप से भी ज़मानत पर रिहा नहीं किया गया है. याचिका में कहा गया था, “चूंकि आवेदक एक राजनीतिक बंदी और छात्र कार्यकर्ता है, इसलिए वह अपने गृह राज्य बिहार से चुनाव लड़ना चाहता है. वह किसी भी राजनीतिक दल से जुड़ा नहीं है. उसके पास उसके नामांकन और चुनाव प्रचार की देखभाल और व्यवस्था करने के लिए कोई नहीं है, सिवाय उसके छोटे भाई के, जो वर्तमान में उसकी बीमार मां की भी देखभाल कर रहा है और परिवार का भरण-पोषण कर रहा है.”
वरिष्ठ नक्सली नेता भूपति ने 60 कैडरों के साथ किया आत्मसमर्पण
भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी) के पोलित ब्यूरो सदस्य और सबसे प्रमुख नक्सली नेताओं में से एक, मल्लोझुला वेणुगोपाल राव, उर्फ़ भूपति उर्फ़ सोनू, ने सोमवार देर रात 60 अन्य कैडरों के साथ हथियार डाल दिए, जो पार्टी के लिए एक महत्वपूर्ण झटका है. न्यू इंडियन एक्सप्रेस की रिपोर्ट के अनुसार, सोनू ने एक केंद्रीय समिति के सदस्य और दस डिविजनल समिति के सदस्यों सहित अन्य कैडरों के साथ महाराष्ट्र के गढ़चिरौली ज़िले में पुलिस के सामने आत्मसमर्पण किया.
सोनू को माओवादी संगठन में सबसे प्रभावशाली रणनीतिकारों में से एक माना जाता था और वह लंबे समय से महाराष्ट्र-छत्तीसगढ़ सीमा पर प्लाटून संचालन की निगरानी कर रहा था. विभिन्न राज्यों से उस पर कुल 10 करोड़ रुपये का इनाम था. सोनू न केवल पार्टी का वैचारिक प्रमुख था, बल्कि उसका संचार विशेषज्ञ भी था, जो उसे छत्तीसगढ़ के जंगलों के बाहर की दुनिया से जोड़ता था.
अधिकारियों के अनुसार, सोनू ने इस साल की शुरुआत में आत्मसमर्पण करने की इच्छा व्यक्त की थी. हाल के महीनों में सोनू और शीर्ष नक्सली नेतृत्व के बीच बढ़ते मतभेदों ने पार्टी में आंतरिक संघर्ष को जन्म दिया, जिसे उसके बाहर निकलने का एक प्रमुख कारण माना जा रहा है. सोनू ने दावा किया कि सशस्त्र संघर्ष विफल हो गया है और घटते जनसमर्थन तथा सैकड़ों कैडरों की मौत का हवाला देते हुए शांति और बातचीत की ओर बढ़ने की अपील की.
कई कैडर सदस्यों ने उसके दृष्टिकोण का समर्थन किया और उसके फ़ैसले से सहमत हुए. हालांकि, उसके इस रुख़ का अन्य वरिष्ठ कैडरों ने विरोध किया, जिन्होंने एक अन्य नेता के अधीन लड़ाई जारी रखने का फ़ैसला किया. इस साल की शुरुआत में, सोनू की पत्नी तारक्का ने भी आत्मसमर्पण कर दिया था. सोनू के सक्रिय माओवादी आंदोलन से बाहर निकलने से आंतरिक विभाजन और गहराने और संगठन के शीर्ष नेतृत्व के और कमज़ोर होने की उम्मीद है.
असम बीजेपी के ‘X’ हैंडल पर नफ़रत, ज़ेनोफ़ोबिया और मुस्लिम विरोधी प्रचार की भरमार
असम में भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) का ‘X’ (पूर्व में ट्विटर) हैंडल अपने पोस्ट के ज़रिए लगातार मुसलमानों को निशाना बना रहा है. ऑल्ट न्यूज़ के लिए दिति पुजारी की रिपोर्ट के अनुसार, 7 अक्टूबर को सुप्रीम कोर्ट ने भाजपा असम प्रदेश (@BJP4Assam) और सोशल मीडिया प्लेटफ़ॉर्म ‘X’ को एक पोस्ट हटाने की मांग वाली याचिकाओं पर जवाब देने के लिए नोटिस जारी किया, जिसमें राज्य में मुसलमानों को बदनाम किया गया था.
यह विवाद 15 सितंबर के एक AI-जनित वीडियो से शुरू हुआ, जिसमें “भाजपा के बिना असम” की एक झलक दिखाई गई थी. वीडियो में कांग्रेस और उसके नेता गौरव गोगोई को निशाना बनाते हुए राज्य में मुसलमानों की भीड़ को दिखाया गया. इसमें यह दर्शाया गया कि अगर भाजपा सत्ता में नहीं होती, तो न केवल बीफ़ को वैध कर दिया जाता, बल्कि कांग्रेस पार्टी पाकिस्तान के हितों को ध्यान में रखकर राज्य चलाती. वीडियो में मुस्लिम “घुसपैठियों” को राज्य में प्रवेश करते और सरकारी ज़मीन पर कब्ज़ा करते दिखाया गया. 31 सेकंड का यह विज्ञापन इस चेतावनी के साथ समाप्त हुआ कि भाजपा के बिना, असम में 90% मुस्लिम आबादी होगी.
ऑल्ट न्यूज़ के लिए दिती पुजारी ने 1 से 12 सितंबर के बीच @BJP4Assam द्वारा साझा किए गए 100 ‘X’ पोस्ट का विश्लेषण किया और पाया कि लगभग 40% पोस्ट सांप्रदायिक प्रकृति के थे, जिन्हें घृणित कहा जा सकता है. इनमें मुसलमानों को बांग्लादेशी के रूप में संदर्भित किया गया और कांग्रेस नेता गौरव गोगोई के समर्थकों को ‘मोमिन’, ‘कंगलस मिया’, ‘पाकिस्तानी’ और ‘घुसपैठिया’ जैसे अपमानजनक शब्दों से संबोधित किया गया.
भाजपा नेताओं का दावा है कि अवैध अप्रवासियों के बारे में बात करना इस्लामोफ़ोबिया नहीं है. हालांकि, राज्य भाजपा हैंडल के पोस्ट एक अलग तस्वीर पेश करते हैं. वे गोगोई को ‘पाईजान’ और उनके अनुयायियों को ‘कंगलस’ और ‘मिया’ कहते हैं - ये सभी मुसलमानों के संदर्भ हैं - जैसे कि ये गालियां हों.
यह समस्या तब और गंभीर हो जाती है जब ज़मीनी हक़ीकत को देखा जाए. पिछले कुछ महीनों में, कई बंगाली भाषी मुसलमानों को ग़लती से बांग्लादेशी बताकर निर्वासित कर दिया गया है. जून के बाद से, असम में 3,000 से अधिक बंगाली मुसलमानों के घरों को ध्वस्त कर दिया गया है, और निवासियों को “अवैध घुसपैठिया” और अतिक्रमणकारी करार दिया गया है.
इन पोस्टों ने ‘X’ की घृणित सामग्री की निगरानी में जवाबदेही की कमी को भी उजागर किया है. ‘X’ की नीतियों के अनुसार, संरक्षित श्रेणियों से संबंधित व्यक्तियों या समूहों को लक्षित करने वाला व्यवहार निषिद्ध है. फिर भी, भाजपा असम के कई पोस्ट स्पष्ट रूप से इसका उल्लंघन करते हैं. ‘X’ ने ऐसी भाषा और सामग्री को नियंत्रित करने में विफल रहा है, जिससे राज्य में पहले से ही नाजुक सांप्रदायिक विभाजन और ध्रुवीकृत होने का ख़तरा है.
पानसरे हत्या के तीनों मुख्य आरोपियों को जमानत
बॉम्बे हाईकोर्ट की कोल्हापुर पीठ ने मंगलवार को दिवंगत कम्युनिस्ट नेता गोविंद पानसरे हत्याकांड के तीनों मुख्य आरोपियों वीरेंद्र तावड़े, शरद कालस्कर और अमोल काले को ज़मानत दे दी. ‘लाइव लॉ’ की खबर है कि सिंगल जज जस्टिस शिवकुमार दिगे ने मौखिक रूप से उन्हें ज़मानत देने का फैसला सुनाया. अभियोजन पक्ष के अनुसार तावड़े इस मामले के मुख्य षड्यंत्रकारियों में से एक है, जिसने पानसरे की हत्या की साजिश रची थी. अन्य दो आरोपियों शरद कालस्कर और अमोल काले पर भी तावड़े के साथ मिलकर साजिश रचने और पानसरे व अन्य बुद्धिजीवियों के खिलाफ युवाओं को उकसाने का मामला दर्ज किया गया था.
गौरतलब है कि पानसरे की 16 फरवरी, 2015 को उनकी पत्नी उमा के साथ गोली मारकर हत्या कर दी गई थी, जब वे कोल्हापुर में अपने घर के पास सुबह की सैर से घर लौट रहे थे. 20 फ़रवरी, 2015 को पानसरे की मृत्यु हो गई थी, जबकि उनकी पत्नी बच गईं. शुरुआत में जांच राजारामपुरी पुलिस स्टेशन कोल्हापुर द्वारा की गई. लेकिन इसके बाद सीआईडी के विशेष जांच दल (एसआईटी) और 2022 में एटीएस को सौंप दी गई. जांच के दौरान 12 आरोपियों के नाम सामने आए. एसआईटी ने 10 आरोपियों को गिरफ्तार किया और दो आरोपी, विनय पवार और सारंग अकोलकर, फरार बताए गए.
आईपीएस वाई. पूरन कुमार के बाद हरियाणा में एक और पुलिसकर्मी ने आत्महत्या की
आईपीएस अधिकारी वाई. पूरन कुमार की आत्महत्या से राष्ट्रव्यापी आक्रोश फैलने के कुछ ही दिनों बाद, हरियाणा से एक और पुलिस अधिकारी की संदिग्ध आत्महत्या का मामला सामने आया है. जानकारी के अनुसार, रोहतक की साइबर सेल में सहायक उप-निरीक्षक (एएसआई) संदीप कुमार ने मंगलवार को आत्महत्या कर ली. आत्महत्या से पहले उन्होंने दिवंगत आईपीएस अधिकारी पूरन कुमार के खिलाफ गंभीर आरोप लगाए थे.
पुलिस के अनुसार, संदीप का शव रोहतक में उनके आवास पर गोली लगने के घावों के साथ पाया गया. संदेह है कि एएसआई ने खुद को गोली मार ली. सोशल मीडिया पर वायरल हुए एक कथित 6 मिनट और 26 सेकंड के वीडियो में, संदीप ने अपने इस कदम के लिए रोहतक के आईजी कार्यालय में तैनात कुछ पुलिस अधिकारियों को जिम्मेदार ठहराया. संदीप ने आरोप लगाया कि वाई. पूरन कुमार एक “भ्रष्ट पुलिस अधिकारी” थे, जिन्होंने इस डर से अपनी जीवन लीला समाप्त कर ली कि उनका कथित भ्रष्टाचार उजागर हो जाएगा. संदीप ने आरोप लगाया कि रोहतक रेंज में तैनात होने के बाद, पूरन कुमार ने ईमानदार पुलिस अधिकारियों की जगह भ्रष्ट अधिकारियों को तैनात करना शुरू कर दिया था. “ये लोग फाइलें रोकते थे, याचिकाकर्ताओं को बुलाकर पैसे मांगते थे और उन्हें मानसिक रूप से प्रताड़ित करते थे. स्थानांतरण के बदले महिला पुलिसकर्मियों का यौन शोषण किया जाता था,” एएसआई ने कहा.
यह चौंकाने वाला घटनाक्रम उसी दिन सामने आया जब लोकसभा में विपक्ष के नेता, राहुल गांधी ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और हरियाणा के मुख्यमंत्री नायब सिंह सैनी से दिवंगत आईपीएस अधिकारी वाई. पूरन कुमार के अंतिम नोट में नामित अधिकारियों के खिलाफ तत्काल कार्रवाई करने का आह्वान किया.
छग में ईओडबल्यू अधिकारियों पर फ़र्ज़ी दस्तावेज़ बनाने का आरोप
छत्तीसगढ़ के चर्चित कोल लेवी घोटाले में राज्य आर्थिक अपराध अन्वेषण शाखा (EOW) के अधिकारियों पर फ़र्ज़ी दस्तावेज़ तैयार करने और न्यायिक प्रक्रिया को प्रभावित करने के गंभीर आरोपों पर कोर्ट के नोटिस के बाद कांग्रेस ने सरकार पर तीखा हमला बोला है. द लेंस की रिपोर्ट के अनुसार, पूर्व मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ने आरोप लगाया है कि सरकार जांच एजेंसियों के साथ मिलीभगत कर रही थी. उन्होंने एक प्रेस कॉन्फ्रेंस में कहा कि EOW के अधिकारियों पर मजिस्ट्रेट के सामने दर्ज गवाहों के बयान के नाम पर झूठे दस्तावेज़ तैयार कर सुप्रीम कोर्ट में पेश करने का आरोप है.
भूपेश बघेल ने मांग की है कि संबंधित जांच अधिकारियों को तत्काल पद से निलंबित किया जाए ताकि भविष्य में कोई अधिकारी न्यायिक प्रक्रिया को प्रभावित करने का दुस्साहस न करे. उन्होंने कहा, “सीआरपीसी की धारा 164 के तहत जो बयान लिफ़ाफ़े में बंद कर ट्रायल के दौरान जज को दिया जाता है, उसे एजेंसी सुप्रीम कोर्ट में पेश कर रही है. इससे बड़ा सबूत और क्या हो सकता है कि सरकार की यह एजेंसी लोगों को परेशान करने का काम कर रही है.”
बघेल ने इसे सिर्फ़ फ़र्ज़ी दस्तावेज़ बनाने का मामला नहीं, बल्कि न्यायपालिका को गुमराह करने और लोकतंत्र की बुनियाद पर हमला बताया. उन्होंने इस पूरे मामले की निष्पक्ष और उच्च स्तरीय जांच की मांग करते हुए कहा, “अगर सुप्रीम कोर्ट में भी फ़र्ज़ी दस्तावेज़ पेश किए जा रहे हैं, तो यह बहुत ही गंभीर और ख़तरनाक संकेत है.”
यह मामला तब सामने आया जब कांग्रेस नेता गिरीश देवांगन ने न्यायिक मजिस्ट्रेट प्रथम श्रेणी (JMFC) आकांक्षा वेक की अदालत में एक आवेदन दायर किया. इसके बाद EOW चीफ़ अमरेश मिश्रा, एडिशनल एसपी चंद्रेश ठाकुर और डीएसपी राहुल शर्मा को 25 अक्टूबर को स्पष्टीकरण पेश करने के लिए नोटिस जारी किया गया है.
देवांगन के आवेदन के अनुसार, EOW ने अपराध संख्या 02/2024 और 03/2024 में जांच के दौरान धमतरी ज़िला जेल में बंद निखिल चंद्राकर को 16 और 17 जुलाई 2025 को धारा 164 के तहत दस्तावेज़ तैयार कराने के बहाने अदालत में पेश किया, लेकिन चंद्राकर का कोई बयान दर्ज ही नहीं किया गया. आवेदन में आरोप लगाया गया है कि जांच अधिकारियों ने अपने कार्यालय के कंप्यूटर पर दस्तावेज़ तैयार किए, उन्हें पेन ड्राइव में अदालत में जमा कराया और प्रिंटआउट लेकर सुप्रीम कोर्ट में पेश कर दिया. इन दस्तावेज़ों का इस्तेमाल सूर्यकांत तिवारी की ज़मानत रद्द कराने के लिए किया गया था.
जम्मू-कश्मीर के बिजली क्षेत्र में मारे गए दिहाड़ी मज़दूरों के परिवार मुआवज़े के लिए संघर्ष कर रहे हैं
2 मार्च 2020 की एक ठंडी दोपहर, शमीमा अख़्तर की ज़िंदगी एक फ़ोन कॉल से हमेशा के लिए बदल गई. श्रीनगर के बाहरी इलाके खुनमोह में एक पावर ग्रिड स्टेशन पर तैनात उनके 36 वर्षीय पति मुहम्मद अशरफ़ डार की ट्रांसमिशन लाइन की मरम्मत करते समय करंट लगने से मौत हो गई थी. आर्टिकल-14 की रिपोर्ट के अनुसार, डार उन सैकड़ों दिहाड़ी मज़दूरों में से एक थे, जो जम्मू-कश्मीर के बिजली क्षेत्र में बिना सुरक्षा उपकरणों, स्वास्थ्य बीमा या औपचारिक अनुबंधों के काम करते हैं. उनकी 9,000 रुपये की मामूली मासिक कमाई भी उनकी ज़िंदगी के साथ ही ख़त्म हो गई.
आधिकारिक आंकड़ों के अनुसार, 2010 और 2020 के बीच जम्मू-कश्मीर के बिजली क्षेत्र में हर महीने औसतन तीन दिहाड़ी मज़दूरों की मौत हुई. फिर भी, इन मज़दूरों के परिवार अक्सर बिना किसी वित्तीय सहायता या मुआवज़े के बेसहारा छोड़ दिए जाते हैं. चूंकि वे आधिकारिक कर्मचारी नहीं होते, इसलिए उन्हें जम्मू और कश्मीर (अनुकंपा नियुक्ति) नियम 1994 (SRO 43) के तहत लाभ नहीं मिलते, जो मृतक सरकारी कर्मचारियों के परिवारों को नौकरी या वित्तीय मुआवज़ा प्रदान करता है.
ऑल जेएंडके परमानेंट डेली लेबर एंड टेम्परेरी डेली लेबर इलेक्ट्रिक एम्प्लॉइज यूनियन के अध्यक्ष इरफ़ान अहमद कावा ने बताया कि 2019 में विभाग के निगम बनने के बाद से एक भी दिहाड़ी मज़दूर को स्थायी नहीं किया गया है. उन्होंने कहा, “लगभग 400 मौतों में से केवल 50 परिवारों को ही विभाग से आधिकारिक मुआवज़ा मिला है.” कई परिवार जागरूकता की कमी के कारण जनता बीमा योजना या प्रधानमंत्री सुरक्षा बीमा योजना जैसे लाभों से भी चूक जाते हैं. कुछ मामलों में, परिवारों को पुलिस में शिकायत दर्ज कराने से रोकने के लिए विभाग के कर्मचारियों और इंजीनियरों द्वारा लगभग 2 लाख रुपये का अनौपचारिक भुगतान किया जाता है.
मानवाधिकार वकील हबील इक़बाल ने बताया कि कर्मचारी मुआवज़ा अधिनियम, 1923 (ECA) के तहत इन परिवारों को कानूनी रूप से मुआवज़े का अधिकार है, लेकिन जागरूकता की कमी और कानूनी प्रक्रिया की जटिलताओं के कारण कई परिवार इसका लाभ नहीं उठा पाते. जुलाई 2025 में, बिजली विकास विभाग (PDD) ने एक मसौदा नीति प्रस्तावित की है, जिसमें दिहाड़ी मज़दूरों को कर्मचारी कल्याण योजना के दायरे में लाया जाएगा, जिससे उन्हें मृत्यु की स्थिति में 15 लाख रुपये और गंभीर चोटों के लिए 5 लाख रुपये का मुआवज़ा मिल सकेगा. हालांकि, यह नीति अभी तक लागू नहीं हुई है.
इस बीच, ज़ुबैर अहमद मीर जैसे दिहाड़ी मज़दूरों के परिवार, जिनकी 2019 में मौत हो गई थी, अभी भी अपने भाई के लिए उसी ख़तरनाक नौकरी की गुहार लगा रहे हैं, ताकि 9,000 रुपये की मासिक आय से घर का चूल्हा जलता रहे. यह जम्मू-कश्मीर के बिजली क्षेत्र में काम करने वाले दिहाड़ी मज़दूरों की निराशाजनक और ख़तरनाक वास्तविकता को उजागर करता है.
पहले भी मरते रहे हैं बच्चे जहरीले कफ़ सिरप से, पर इंसाफ नहीं मिला
अक्टूबर 2019 की एक सर्द सुबह, जम्मू के एक गाँव में मखनो देवी अपने 11 साल के बेटे रुतव को पास के उप-ज़िला अस्पताल ले गईं. रुतव ने तीन दिनों से पेशाब करना बंद कर दिया था, उसका शरीर तप रहा था और उसने खाना-पीना छोड़ दिया था. रामनगर कस्बे के अस्पताल में डॉक्टरों को उसका इलाज समझ नहीं आया और शाम तक उसे उधमपुर ज़िला अस्पताल रेफर कर दिया. लेकिन 36 किलोमीटर दूर पहाड़ी रास्ते पर एम्बुलेंस में ही रुतव ने दम तोड़ दिया. स्क्रोल के लिए तबस्सुम बरनगरवाला की रिपोर्ट के अनुसार, एम्बुलेंस ड्राइवर ने परिवार को शव के साथ सड़क पर ही छोड़ दिया. अगले तीन महीनों तक किसी ने रुतव की मौत के बारे में जानने की कोशिश नहीं की.
फरवरी 2020 में मखनो देवी को बताया गया कि उनके बेटे की मौत एक दूषित कफ़ सिरप के कारण हुई थी, जिसे उन्होंने रामनगर के एक केमिस्ट से ख़रीदकर तीन दिनों तक बेटे को पिलाया था. रुतव के बाद जम्मू के रामनगर ज़िले में 13 और बच्चों की मौत हुई. इन सभी ने ‘कोल्डबेस्ट-पीसी’ कफ़ सिरप का सेवन किया था. जो छह बच्चे बच गए, वे स्थायी विकलांगता का शिकार हो गए. यह सिरप 500 किलोमीटर दूर हिमाचल प्रदेश के सिरमौर ज़िले में फ़ार्मास्युटिकल कंपनी ‘डिजिटल विज़न’ ने बनाया था.
मखनो देवी का बयान स्थानीय पुलिस ने दर्ज किया, लेकिन उन्हें कोई मुआवज़ा नहीं मिला क्योंकि रुतव की मौत सड़क पर हुई थी और इसका कोई मेडिकल सर्टिफ़िकेट नहीं था. यह कहानी सिर्फ़ जम्मू तक सीमित नहीं है. 2020 के बाद से भारतीय फ़ार्मा कंपनियों द्वारा बनाए गए दूषित कफ़ सिरप से 172 बच्चों की मौत हो चुकी है, जिनमें भारत, गाम्बिया और उज़्बेकिस्तान के मामले शामिल हैं. हाल ही में मध्य प्रदेश के छिंदवाड़ा में भी 22 बच्चों की मौत ज़हरीले औद्योगिक सॉल्वेंट डायथिलीन ग्लाइकॉल वाले कफ़ सिरप से हुई, यही सॉल्वेंट जम्मू में हुई मौतों का कारण था.
मखनो देवी पूछती हैं, “हमारे बच्चों की मौत के बाद भी अगर ऐसा हो रहा है, तो सरकार क्या कर रही थी?” उन्हें अपने बेटे की मौत के लिए ज़िम्मेदार कंपनी को सज़ा मिलने की कोई उम्मीद नहीं है. उनकी निराशा निराधार नहीं है. डिजिटल विज़न कंपनी न केवल अपना उत्पादन फिर से शुरू कर चुकी है, बल्कि स्क्रॉल द्वारा प्राप्त आंकड़ों के अनुसार, दवा की गुणवत्ता के उल्लंघन के कई और मामलों में भी दोषी पाई गई है. लेकिन 2020 के मामले में जम्मू-कश्मीर हाईकोर्ट की जम्मू बेंच के एक रोक आदेश के कारण मुक़दमा आगे नहीं बढ़ पाया है.
इस मामले में कंपनी के मालिकों, पुरुषोत्तम गोयल और उनके दो बेटों को गिरफ़्तारी के एक घंटे के भीतर ज़मानत मिल गई, जबकि केमिस्ट की ज़मानत बार-बार ख़ारिज होती रही. 2021 में राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग (NHRC) के निर्देश के बाद 12 परिवारों को 3-3 लाख रुपये का मुआवज़ा मिला. सुप्रीम कोर्ट ने भी नवंबर 2022 में राज्य के ड्रग और खाद्य नियंत्रण विभाग के अधिकारियों को लापरवाह पाया, लेकिन किसी भी ड्रग इंस्पेक्टर के ख़िलाफ़ कोई कार्रवाई नहीं हुई. इस बीच, इस ज़हरीले सिरप से बचे हुए बच्चे 40% तक विकलांगता के साथ जी रहे हैं. एक पीड़ित के पिता शंभू राम कहते हैं, “भारत में एक ग़रीब व्यक्ति के जीवन की यही क़ीमत है.”
गूगल विशाखापत्तनम में बनाएगा अपना पहला AI हब, 15 अरब डॉलर का निवेश करेगा
गूगल के सीईओ सुंदर पिचाई ने सोमवार को विशाखापत्तनम में गूगल का पहला AI हब स्थापित करने की योजना की घोषणा की. उन्होंने इसे एक “ऐतिहासिक विकास” बताया, जिसमें गीगावाट-स्केल की कंप्यूटिंग क्षमता, एक नया अंतरराष्ट्रीय सबसी गेटवे और बड़े पैमाने पर ऊर्जा का बुनियादी ढांचा शामिल होगा. हिंदुस्तान टाइम्स की रिपोर्ट के अनुसार, यह घोषणा नई दिल्ली में गूगल द्वारा आयोजित एक प्रमुख कार्यक्रम ‘भारत AI शक्ति’ के दौरान की गई. कंपनी ने अगले पांच वर्षों में विशाखापत्तनम हब बनाने के लिए 15 अरब डॉलर (1,33,125 करोड़ रुपये) की निवेश योजना का भी अनावरण किया. यह अमेरिका के बाहर गूगल की सबसे बड़ी AI सुविधा होगी.
गूगल क्लाउड के सीईओ थॉमस कुरियन ने कहा कि यह नया केंद्र विशाखापत्तनम को AI नवाचार का एक वैश्विक केंद्र बना देगा, जो न केवल भारत बल्कि एशिया के अन्य हिस्सों और उससे आगे भी सेवा प्रदान करेगा. उन्होंने कहा, “यह गीगावाट-स्केल AI हब डेटा को स्थानीय रूप से संग्रहीत करेगा और विभिन्न क्षेत्रों में AI-संचालित समाधानों को शक्ति प्रदान करने में मदद करेगा.”
इस कार्यक्रम में उपस्थित आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री एन. चंद्रबाबू नायडू ने कहा कि यह परियोजना 2047 तक भारत को एक विकसित राष्ट्र बनाने के दृष्टिकोण के अनुरूप है. उन्होंने कहा, “प्रधानमंत्री मोदी स्पष्ट थे कि गूगल को इसके लिए भारत आना होगा. हमने पहले माइक्रोसॉफ्ट को हैदराबाद में लाया था, और आज गूगल विशाखापत्तनम आ रहा है. इससे हम AI का उपयोग करके 2047 तक विकसित भारत के दृष्टिकोण को प्राप्त कर सकते हैं.”
केंद्रीय इलेक्ट्रॉनिक्स और आईटी मंत्री अश्विनी वैष्णव ने कहा कि गूगल का निवेश भारत के AI मिशन में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाएगा. वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने इस सहयोग को “प्रगतिशील नीति-निर्माण और गतिशील शासन के बीच सामंजस्य का प्रतिबिंब” कहा. यह परियोजना ‘AI सिटी विजाग’ पहल का एक प्रमुख हिस्सा है, जिसका लक्ष्य 1.8 लाख तक नौकरियां पैदा करना है और यह विशाखापत्तनम को भारत के AI-संचालित भविष्य की आधारशिला के रूप में स्थापित करेगा.
गर्भवती प्रवासी मज़दूर को बांग्लादेश भेजा गया, हाईकोर्ट के आदेश के बावजूद वापसी का इंतज़ार
पश्चिम बंगाल की एक गर्भवती प्रवासी मज़दूर सुनाली खातून के ख़िलाफ़ अब एक बांग्लादेशी अदालत आरोप तय कर रही है. लगभग चार महीने पहले दिल्ली पुलिस ने उन्हें और उनके साथियों को घुसपैठिया बताकर बीएसएफ़ की मदद से बांग्लादेश भेज दिया था. द वायर की रिपोर्ट के मुताबिक़, मामले की अगली सुनवाई 23 अक्टूबर को होनी है. इस बीच, कलकत्ता हाईकोर्ट ने 26 सितंबर को केंद्र सरकार के ‘घुसपैठिया’ के दावों को ख़ारिज करते हुए फैसला सुनाया था कि सुनाली, उनके पति, बेटे और अन्य लोगों को एक महीने के भीतर भारत वापस लाया जाए.
विदेश मंत्रालय ने अभी तक इस मामले पर कोई जानकारी नहीं दी है. नतीजतन, किसी के पास इस सवाल का जवाब नहीं है कि क्या सुनाली के बच्चे का जन्म बांग्लादेशी जेल में होगा या वह अदालत द्वारा निर्धारित समय-सीमा के भीतर देश लौट पाएंगी. सुनाली और अन्य लोगों के साथ नियमित संपर्क में रहने वाले मोफ़िजुल शेख ने बताया कि अगली सुनवाई पर अगर वे दोषी मानकर आत्मसमर्पण करते हैं तो उन्हें एक साल की सज़ा या जुर्माना हो सकता है. जुर्माना भरने पर वे जेल से रिहा हो जाएंगे, लेकिन उनकी वापसी पूरी तरह से दूतावास पर निर्भर करेगी.
सुनाली के स्वास्थ्य के बारे में शेख ने बताया कि जेल के आंगन में काई जमने के कारण वह फिसल कर गिर गईं और उन्हें चोटें आईं. डॉक्टर ने उनकी जांच कर दवा दी है, लेकिन बच्चे की स्थिति जांचने के लिए ज़रूरी अल्ट्रासाउंड टेस्ट की व्यवस्था अभी तक नहीं हो पाई है.
सुनाली को उनके पति दानिश शेख (29) और आठ साल के बेटे साबिर शेख के साथ 17 जून को दिल्ली पुलिस ने गिरफ़्तार किया था. उनके साथ उनकी दोस्त स्वीटी बीबी (33) और उनके दो बच्चे भी थे. सुनाली दो दशकों से अधिक समय से दिल्ली में रह रही थीं और घरेलू सहायिका के रूप में काम करती थीं. 26 जून को उन्हें बांग्लादेश भेज दिया गया. शेख ने सुनाली से सुना कि उन्हें असम के रास्ते बांग्लादेश के कुरीग्राम इलाके में भेजा गया था. अंधेरी रात में बीएसएफ़ ने उन्हें छाती तक गहरे पानी में चलने के लिए मजबूर किया और मना करने पर दानिश और अन्य लोगों को बुरी तरह पीटा गया.
बीरभूम में सुनाली के पिता भादू शेख की हालत बहुत ख़राब है. वह गंभीर अस्थमा से पीड़ित हैं और चल-फिर नहीं सकते. उन्होंने ही हाईकोर्ट में बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिका दायर की थी. तृणमूल कांग्रेस के राज्यसभा सांसद समीरुल इस्लाम ने उन्हें आश्वासन दिया है कि सुनाली और अन्य लोगों को बिना देरी के वापस लाने के लिए हर संभव प्रयास किया जाएगा. यही उनकी एकमात्र उम्मीद है.
सोनम वांगचुक की हिरासत के ख़िलाफ़ याचिका पर सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई 15 अक्टूबर तक टली
सुप्रीम कोर्ट ने मंगलवार (14 अक्टूबर, 2025) को जलवायु कार्यकर्ता सोनम वांगचुक की पत्नी गीतांजलि जे. अंगमो द्वारा दायर याचिका पर सुनवाई बुधवार (15 अक्टूबर, 2025) तक के लिए स्थगित कर दी. हिंदू की रिपोर्ट के अनुसार, इस याचिका में वांगचुक को राष्ट्रीय सुरक्षा अधिनियम (NSA) के तहत हिरासत में लिए जाने को चुनौती दी गई है और उनकी तत्काल रिहाई की मांग की गई है.
जस्टिस अरविंद कुमार और जस्टिस एन.वी. अंजारिया की पीठ ने समय की कमी के कारण मामले की सुनवाई बुधवार के लिए स्थगित कर दी. शीर्ष अदालत ने 6 अक्टूबर को केंद्र और केंद्र शासित प्रदेश लद्दाख को नोटिस जारी किया था. हालांकि, अदालत ने हिरासत के आधार प्रदान करने की उनकी याचिका पर कोई आदेश पारित करने से इनकार कर दिया था और मामले की सुनवाई 14 अक्टूबर को तय की थी.
वांगचुक को 26 सितंबर को कड़े राष्ट्रीय सुरक्षा अधिनियम (NSA) के तहत हिरासत में लिया गया था. यह कार्रवाई लद्दाख के लिए राज्य का दर्जा और छठी अनुसूची की मांग को लेकर हुए हिंसक विरोध प्रदर्शनों के दो दिन बाद हुई, जिसमें चार लोगों की मौत हो गई थी और 90 लोग घायल हो गए थे. सरकार ने उन पर हिंसा भड़काने का आरोप लगाया था.
सोनम वांगचुक ‘राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए हानिकारक’ गतिविधियों में शामिल: लेह प्रशासन ने सुप्रीम कोर्ट को बताया
जलवायु कार्यकर्ता सोनम वांगचुक के ख़िलाफ़ राष्ट्रीय सुरक्षा अधिनियम (NSA) के इस्तेमाल का बचाव करते हुए, लद्दाख प्रशासन ने सुप्रीम कोर्ट को बताया है कि उचित प्रक्रिया का “ईमानदारी और कड़ाई से” पालन किया गया. इंडियन एक्सप्रेस की रिपोर्ट के अनुसार, लेह के ज़िला मजिस्ट्रेट (DM) द्वारा दायर हलफ़नामे में कहा गया है कि हिरासत का आदेश “व्यक्तिगत संतुष्टि” के बाद पारित किया गया था कि वांगचुक की गतिविधियाँ राज्य की सुरक्षा और सार्वजनिक व्यवस्था के रखरखाव के लिए हानिकारक थीं, और सभी संवैधानिक सुरक्षा उपायों का पालन किया गया.
अधिकारी ने कहा, “हिरासत का आदेश मेरे सामने रखे गए सामग्री पर विधिवत विचार करने के बाद और उन परिस्थितियों पर व्यक्तिगत संतुष्टि पर पहुंचने के बाद पारित किया गया, जो अधिकार क्षेत्र की स्थानीय सीमाओं के भीतर प्रचलित थीं. वांगचुक राज्य की सुरक्षा, सार्वजनिक व्यवस्था के रखरखाव और समुदाय के लिए आवश्यक सेवाओं के लिए हानिकारक गतिविधियों में शामिल रहे हैं, जैसा कि हिरासत के आधारों में उल्लेख किया गया है. मैं हिरासत में लिए गए व्यक्ति की हिरासत से संतुष्ट था और अब भी संतुष्ट हूँ.”
लेह के DM ने कहा कि जब सोनम वांगचुक को 26 सितंबर को हिरासत में लिया गया, तो उन्हें “राष्ट्रीय सुरक्षा अधिनियम, 1980 के तहत उनकी हिरासत के तथ्य के साथ-साथ उन्हें केंद्रीय जेल, जोधपुर, राजस्थान में स्थानांतरित किए जाने के तथ्य के बारे में स्पष्ट रूप से सूचित किया गया था.”
हिरासत के आधारों के संचार के संबंध में, DM ने कहा कि अनुच्छेद 22 के तहत प्रक्रियात्मक सुरक्षा उपायों का ईमानदारी और कड़ाई से पालन किया गया है. उन्होंने कहा, “बिना किसी देरी के और राष्ट्रीय सुरक्षा अधिनियम, 1980 की धारा 8 के तहत निर्धारित पांच दिनों की अवधि के भीतर, हिरासत के आधारों के साथ-साथ मेरे द्वारा व्यक्तिगत संतुष्टि पर पहुंचने के लिए उपयोग की गई सामग्री को हिरासत में लिए गए व्यक्ति को सूचित किया गया था.”
उन्होंने यह भी कहा कि वांगचुक ने “राष्ट्रीय सुरक्षा अधिनियम, 1980 की धारा 10 के तहत आवश्यक कोई अभ्यावेदन नहीं किया है.” हालांकि, याचिकाकर्ता (वांगचुक की पत्नी) ने भारत के माननीय राष्ट्रपति को एक पत्र भेजा है, जिसकी एक प्रति सलाहकार बोर्ड के समक्ष भी रखी गई है. सलाहकार बोर्ड ने हिरासत में लिए गए व्यक्ति को लिखित रूप से सूचित किया है कि यदि वह चाहे तो सूचना की तारीख से एक सप्ताह के भीतर एक अभ्यावेदन कर सकता है.
आज तक की एंकर अंजना ओम कश्यप और चेयरमैन अरुण पुरी के ख़िलाफ़ वाल्मीकि समुदाय की भावनाएं आहत करने का केस दर्ज
लुधियाना पुलिस ने हिंदी समाचार चैनल ‘आज तक’ की एंकर और मैनेजिंग एडिटर अंजना ओम कश्यप, इंडिया टुडे ग्रुप के चेयरमैन और एडिटर-इन-चीफ़ अरुण पुरी और मीडिया कंपनी लिविंग मीडिया इंडिया लिमिटेड (इंडिया टुडे ग्रुप) के ख़िलाफ़ वाल्मीकि समुदाय की भावनाएं आहत करने के आरोप में मामला दर्ज किया है. इंडियन एक्सप्रेस की रिपोर्ट के अनुसार, यह कार्रवाई भारतीय वाल्मीकि धर्म समाज (BHAVADHAS) की शिकायत पर की गई.
BHAVADHAS ने अपनी शिकायत में कहा है कि अंजना ओम कश्यप ने अपने शो में प्राचीन संत वाल्मीकि के ख़िलाफ़ अपमानजनक टिप्पणी की, जिसे चैनल के आधिकारिक सोशल मीडिया पेजों के माध्यम से प्रसारित किया गया. BHAVADHAS के राष्ट्रीय समन्वयक चौधरी यशपाल ने कहा, “हम कश्यप की तत्काल गिरफ़्तारी की मांग करते हैं, और उन्हें एक राष्ट्रीय चैनल पर संत वाल्मीकि के ख़िलाफ़ बोले गए अपने शब्दों के लिए माफ़ी भी मांगनी चाहिए.”
यह एफ़आईआर जानबूझकर धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुंचाने के लिए धारा 299 और एससी/एसटी (अत्याचार निवारण) अधिनियम की धारा 3(1)(v) के तहत दर्ज की गई है. लुधियाना के पुलिस कमिश्नर स्वपन शर्मा ने कहा, “कानूनी राय लेने के बाद मामला दर्ज किया गया है. कम से कम 13 दलित/एससी संगठनों ने शिकायत की थी कि शो में एंकर द्वारा इस्तेमाल किए गए लहजे और शब्द अपमानजनक और अनुचित थे.”
इस घटनाक्रम पर प्रतिक्रिया देते हुए, कश्यप ने एक बयान में कहा, “टीवी टुडे नेटवर्क लिमिटेड लुधियाना में दर्ज एफ़आईआर में भगवान महर्षि वाल्मीकि जी के बारे में कथित अपमानजनक टिप्पणियों के आरोपों का पुरज़ोर खंडन करता है. विचाराधीन कार्यक्रम सम्मानजनक और संतुलित था, जो पत्रकारिता की नैतिकता का पूरी तरह से पालन करते हुए और सभी धर्मों और समुदायों के प्रति पूर्ण सम्मान के साथ संचालित किया गया था.” उन्होंने कहा कि कुछ चुनिंदा संपादित और भ्रामक क्लिप को दुर्भाग्य से ऑनलाइन प्रसारित किया गया हो सकता है, जो कार्यक्रम की सामग्री और इरादे को ग़लत तरीके से प्रस्तुत करते हैं. नेटवर्क ने कहा कि वह झूठे आरोपों के ख़िलाफ़ उचित कानूनी संरक्षण और निवारण के लिए माननीय न्यायालय का रुख़ करेगा.
गुजरात में आरटीआई कानून दफ़न, सत्ता से सवालों का जवाब नहीं मिलता
सूचना के अधिकार (आरटीआई) अधिनियम को लागू हुए दो दशक बीत जाने के बाद, गुजरात का पारदर्शिता रिकॉर्ड राज्य की शासन संबंधी कमियों का आईना बन गया है. नौकरशाही के पर्दे को भेदने के लिए दृढ़ नागरिकों द्वारा 21 लाख से अधिक आरटीआई आवेदन दाखिल किए गए हैं. लेकिन, जानकारी देने में सरकार के खराब रवैये, दंडात्मक कार्रवाई के निराशाजनक रिकॉर्ड और व्हिसलब्लोअर (भंडाफोड़ करने वालों) को सुरक्षा प्रदान करने में विफलता ने एक समय के सुधार को जवाबदेही संकट में बदल दिया है.
दिलीप सिंह क्षत्रिय की रिपोर्ट के अनुसार, गुजरात में, दो दशकों में 21.29 लाख आरटीआई आवेदनों की बाढ़ नागरिकों के उत्साह और अधिकारियों के लगातार प्रतिरोध दोनों को दर्शाती है. केवल शिक्षा, गृह और राजस्व विभागों में ही 58% आवेदन आए, जो कुछ महत्वपूर्ण क्षेत्रों में सार्वजनिक शक्ति के केंद्रीकरण को उजागर करते हैं. अधिकारियों ने स्वीकार किया है कि मजबूत डिजिटल प्रकटीकरण दबाव को कम कर सकता था, लेकिन राज्य की कार्यान्वयन मशीनरी ने कभी गति नहीं बदली.
20 वर्षों में, एक भी पत्रकार या नागरिक समाज के सदस्य को सूचना आयुक्त के रूप में नियुक्त नहीं किया गया है—जिससे पूरी प्रक्रिया नौकरशाही के दायरे तक ही सीमित रह गई है, जो नागरिक प्रतिनिधित्व के बिना नागरिकों के जानने के अधिकार पर निर्णय लेती है.
अनुपालन सुनिश्चित करने के लिए बने जुर्माना तंत्र को एक दंतहीन बाघ में बदल दिया गया है. पिछले दो दशकों में, केवल 1,284 लोक सूचना अधिकारियों पर ही जुर्माना लगाया गया, जो कुल ₹1.14 करोड़ था—निर्णित मामलों के 1% से भी कम. केवल 74 पीआईओ पर अनुशासनात्मक कार्रवाई हुई. यह उस संस्कृति को दर्शाता है, जहां अपारदर्शिता फलती-फूलती है और उल्लंघन शायद ही कभी दंडित होते हैं. राज्य की डिजिटल पारदर्शिता की स्थिति भी दयनीय है. आरटीआई अधिनियम की धारा 4(1)(बी) के तहत 26 विभागों के 2025 ऑडिट में पाया गया कि केवल 35% ने अपना डेटा अपडेट किया था. अन्य 38% ने पुराना डेटा दिखाया, 19% में महत्वपूर्ण नियमावली और बजट रिकॉर्ड नहीं थे, और 8% की वेबसाइट काम नहीं कर रही थी. जबकि शिक्षा और स्वास्थ्य जैसे विभागों ने समय-समय पर अपडेट दिखाया, शहरी विकास और कानूनी विभाग दशक पुराने फ़ाइलों पर निर्भर रहे—जो नियमित ऑडिट अनिवार्य करने वाले सुप्रीम कोर्ट के निर्देशों का खुला उल्लंघन है.
आंकड़े इस बात पर भी जोर देते हैं कि आरटीआई उपयोगकर्ताओं के लिए खतरा वास्तविक है. अकेले गुजरात में, सत्ता से सवाल करने की हिम्मत करने वाले 18 आरटीआई उपयोगकर्ताओं ने अपनी जान गंवाई है. राष्ट्रीय स्तर पर, 78 कार्यकर्ताओं की हत्या हुई है, यहां तक कि व्हिसलब्लोअर संरक्षण अधिनियम, 2014 बड़े पैमाने पर लागू नहीं किया गया है. ये मौतें एक गहरे अपारदर्शी सिस्टम में पारदर्शिता खोजने की लागत की भयानक याद दिलाती हैं.
फिर भी, आरटीआई अधिनियम जीवित है—राज्य के कारण नहीं, बल्कि लोगों के कारण. किसानों, पत्रकारों और कार्यकर्ताओं—जिनमें से 20 को आरटीआई चैंपियन के रूप में दर्ज किया गया है—ने शिक्षा, स्वास्थ्य, कृषि, पर्यावरण और शहरी शासन जैसे क्षेत्रों में भ्रष्टाचार को उजागर किया है. उनका साहस दिखाता है कि आरटीआई की वास्तविक शक्ति हमेशा ज़मीनी स्तर से आई है—सत्ता के गलियारों से नहीं.
दो दशक बाद, गुजरात की आरटीआई यात्रा सशक्तिकरण और क्षरण के चौराहे पर खड़ी है. नागरिकों ने जवाबदेही की लौ को जीवित रखा है, लेकिन राज्य का कमजोर अनुपालन, अप्रभावी दंड, और व्हिसलब्लोअर की सुरक्षा की उपेक्षा गहरी छाया डालती है. जब तक शासन निर्णायक रूप से कागजी कार्रवाई से कार्रवाई की ओर नहीं बढ़ता, पारदर्शिता का वादा अपने ही फ़ाइलों के नीचे दब सकता है.
गाज़ा युद्धविराम
कैसे समझें इस शांति के आभास को
अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप की मध्यस्थता में गाज़ा में हुआ युद्धविराम समझौता अपने साथ राहत की साँस लेकर आया है. बंधकों की रिहाई और लड़ाई का रुकना एक बड़ी उपलब्धि है. लेकिन क्या यह स्थायी शांति की ओर एक क़दम है, या महज़ एक और टकराव से पहले का ठहराव? दुनिया भर के विश्लेषक इस समझौते के अलग-अलग पहलुओं पर नज़र डाल रहे हैं. सीएनएन के लिए ब्रेट मैकगर्क सवाल करते हैं कि ज़मीनी हक़ीक़त क्या होगी - हमास का अगला क़दम क्या होगा, गाज़ा में शासन कौन चलाएगा और पुनर्निर्माण कैसे होगा? हारेत्ज़ के लिए जैक खूरी इस समझौते को एक ऐसे मोड़ के रूप में देखते हैं, जहाँ इज़राइल और फ़िलिस्तीनी दोनों अपने-अपने अस्तित्व के संकट से जूझ रहे हैं और संघर्ष को सुलझाने के बजाय उसे केवल प्रबंधित करने की पुरानी स्थिति में लौट आए हैं. वहीं, अल जज़ीरा के लिए जेफ़री सैक्स और सिबिल फ़ारेस ट्रंप की योजना को “औपनिवेशिक” बताते हुए एक वैकल्पिक योजना पेश करते हैं, जो फ़िलिस्तीनी संप्रभुता पर केंद्रित है. द गार्डियन के लिए हुसैन आगा और रॉबर्ट मैली इस समझौते को “नरक से दुःस्वप्न तक का सफ़र” कहते हैं, जो किसी कूटनीतिक जीत का नहीं, बल्कि ताक़त के नंगे खेल का नतीजा है.आइए इन विश्लेषणों को विस्तार से समझते हैं.
ब्रेट मैकगर्क (CNN): गाज़ा समझौते से उठते तीन बड़े सवाल
ब्रेट मैकगर्क, जो पहले अमेरिकी राष्ट्रीय सुरक्षा के वरिष्ठ पदों पर काम कर चुके हैं, इस समझौते के व्यावहारिक पहलुओं पर ध्यान केंद्रित करते हैं और तीन मुख्य सवाल उठाते हैं:
हमास क्या करेगा? मैकगर्क याद दिलाते हैं कि पिछले बंधक सौदे में हमास ने युद्धविराम का इस्तेमाल सुरंगों से बाहर निकलकर गाज़ा में अपना नियंत्रण फिर से स्थापित करने के लिए किया था. इस बार भी हमास सड़कों पर फ़िलिस्तीनियों को इकट्ठा कर रहा है, लेकिन हालात अलग हैं. नए सौदे के तहत इज़राइली सेना गाज़ा पट्टी के आधे से ज़्यादा हिस्से में मौजूद रहेगी, और विदेशी सैन्य बलों को उन क्षेत्रों में आने की इजाज़त होगी ताकि हमास वापस न आ सके. लगभग सभी अरब और मुस्लिम देशों का समर्थन भी इस सौदे को है, जो हमास से हथियार डालने का आह्वान करता है. अगर गाज़ा का पुनर्निर्माण होना है, तो हमास को अपनी सत्ता का झूठा दावा छोड़ना होगा.
क्या अंतरिम राजनीतिक और सुरक्षा ढाँचा बन रहा है? बंधकों की रिहाई के अलावा, इस सौदे का सबसे महत्वपूर्ण हिस्सा गाज़ा के लिए एक अंतरिम सुरक्षा बल और राजनीतिक संरचना की स्थापना है. अगर यह ढाँचा खड़ा हो जाता है, तो ट्रंप की 20-सूत्रीय योजना सफल हो सकती है. लेकिन अगर ऐसा नहीं होता, तो हमास समय के साथ फिर से ताक़त के बल पर अपनी सत्ता स्थापित कर सकता है. आने वाले हफ़्तों में यह देखना होगा कि क्या देश इस सुरक्षा बल में योगदान देने के लिए तैयार हैं और क्या एक अंतरिम सरकार बिना किसी झगड़े के बन सकती है. अमेरिकी सेना की भूमिका इसमें अहम होगी, जो गाज़ा के बाहर रहकर स्थिति की निगरानी करेगी.
क्या पुनर्निर्माण की कोई ठोस योजना बन रही है? गाज़ा के पुनर्निर्माण में एक दशक से ज़्यादा और खरबों डॉलर लगेंगे. यह मोसुल के पुनर्निर्माण से भी ज़्यादा जटिल है, जहाँ ISIS को हराने के लिए भारी लड़ाई हुई थी. गाज़ा के पुनर्वास के लिए अमेरिका के नेतृत्व में एक वैश्विक प्रयास की ज़रूरत होगी, जिसमें हमास से न जुड़े फ़िलिस्तीनी और अमेरिका के क्षेत्रीय सहयोगी शामिल हों. मिस्र में होने वाले शिखर सम्मेलन का फ़ोकस इसी पर होना चाहिए. लेकिन अगर हमास सुरक्षा नियंत्रण छोड़ने से इनकार करता है, तो कोई भी देश गाज़ा के पुनर्निर्माण के लिए संसाधन देने को तैयार नहीं होगा.
जैक खूरी (हारेत्ज़): दोनों पक्ष वापस वहीं खड़े हैं, जहाँ से शुरू हुए थे
अपनी जिम्मेदार पत्रकारिता के लिए जाने जाने वाले इजरायली अख़बार हारेत्ज़ के लिए लिखते हुए जैक खूरी का मानना है कि यह युद्धविराम गाज़ा में युद्ध का अंत नहीं, बल्कि एक नए और शायद सबसे जटिल चरण की शुरुआत है.
इज़राइल के लिए: जैसे ही बंधकों की वापसी का भावनात्मक दौर थमेगा, 7 अक्टूबर के नरसंहार और युद्ध की विफलताओं की जांच के लिए एक राजकीय जांच आयोग की मांग फिर से उठेगी. इज़राइल के अंदर राजनीतिक जवाबदेही का दौर शुरू होगा.
फ़िलिस्तीनियों के लिए: स्थिति कहीं ज़्यादा जटिल है. जैसे ही विस्थापित लोग अपने घरों को लौटेंगे और तबाही का मंज़र देखेंगे, हमास को उस समझौते को सही ठहराने की कोशिश करनी होगी, जिसे उसे स्वीकार करने के लिए मजबूर किया गया. इस समझौते में हमास के लिए कोई बड़ी नैतिक या प्रतीकात्मक जीत नहीं है, जैसे मारवान बरग़ूती या अहमद सादात जैसे किसी बड़े क़ैदी की रिहाई. हमास को अब यह तय करना होगा कि वह एक प्रतिरोधी आंदोलन बना रहना चाहता है या एक राजनीतिक ताक़त, जो भविष्य में PLO में शामिल हो सके.
खूरी के अनुसार, यह समझौता मूल रूप से बंधकों और क़ैदियों की अदला-बदली और मानवीय सहायता का एक सौदा है. यह शासन, सुरक्षा या भविष्य की राजनीतिक व्यवस्था के बड़े सवालों का कोई जवाब नहीं देता. आख़िरकार, दोनों पक्ष बातचीत के एक और दौर के बाद उसी जगह लौट आए हैं: अगले विस्फोट तक संघर्ष का प्रबंधन करना.
जेफ़री सैक्स और सिबिल फ़ारेस (अल जज़ीरा): ट्रंप के प्लान का एक ग़ैर-औपनिवेशिक विकल्प
सैक्स और फ़ारेस ट्रंप की 20-सूत्रीय शांति योजना को एक “औपनिवेशिक ढाँचे” में क़ैद मानते हैं. उनका तर्क है कि यह योजना फ़िलिस्तीनी संप्रभुता को अनिश्चित काल के लिए टाल देती है और ट्रंप, टोनी ब्लेयर जैसे बाहरी लोगों को फ़िलिस्तीनी शासन के ट्रस्टी के रूप में पेश करती है.
वे इसके जवाब में एक “ग़ैर-औपनिवेशिक” योजना पेश करते हैं, जो फ़िलिस्तीनी संप्रभुता और राज्य का दर्जा देने पर आधारित है. उनकी योजना के मुख्य बिंदु हैं:
फ़िलिस्तीनी संप्रभुता: शासन शुरू से ही फ़िलिस्तीनी अथॉरिटी (PA) के हाथ में हो, न कि किसी बाहरी बोर्ड के.
निश्चित समय-सीमा: इज़राइली सेना की वापसी और 2026 की शुरुआत तक पूर्ण फ़िलिस्तीनी संप्रभुता के लिए एक स्पष्ट और छोटी समय-सीमा तय की जाए.
आर्थिक योजना: आर्थिक योजना फ़िलिस्तीनियों के हाथ में हो, न कि कोई “ट्रंप आर्थिक विकास योजना” थोपी जाए.
उनका मानना है कि एक सदी से भी ज़्यादा समय से फ़िलिस्तीनियों को बाहरी औपनिवेशिक नियंत्रण के अधीन रखा गया है. फ़िलिस्तीनी लोगों को संरक्षण की नहीं, संप्रभुता की ज़रूरत है. एक वास्तविक शांति योजना को अंतर्राष्ट्रीय क़ानून और दो-राज्य समाधान का समर्थन करने वाली वैश्विक इच्छा के अनुरूप होना चाहिए.
हुसैन आगा और रॉबर्ट मैली (द गार्डियन): नरक से दुःस्वप्न तक का सफ़र
द गार्डियन में हुसैन आगा और मैली ट्रंप की शांति योजना का एक तीखा और निराशावादी विश्लेषण करते हैं. उनका कहना है कि यह योजना 7 अक्टूबर के भयानक कृत्यों के लिए फ़िलिस्तीनियों से प्रायश्चित की मांग करती है, लेकिन उसके बाद हुई इज़राइली बर्बरता के लिए नहीं. यह गाज़ा के “अतिवाद को ख़त्म करने” की बात करती है, लेकिन इज़राइल के कब्जे को समाप्त करने की नहीं.
वे इस समझौते को एक बड़ी उपलब्धि मानते हैं, लेकिन केवल इसलिए कि यह गाज़ा के लोगों के जीवन को “भयानक नरक से महज़ एक दुःस्वप्न” में बदल देगा. यह समझौता कूटनीति का नतीजा नहीं, बल्कि “ताक़त के नंगे खेल” का परिणाम है. यह इज़राइल और हमास के बीच नहीं, बल्कि अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रंप, तुर्की के राष्ट्रपति अर्दोआन और क़तर के अमीर के बीच एक सौदा था. हमास को अमेरिका से ज़्यादा तुर्की और क़तर की गारंटियों पर भरोसा था.
इस पूरी प्रक्रिया में मान्यता प्राप्त फ़िलिस्तीनी नेतृत्व (PA) की “पूरी तरह से अनुपस्थिति” पर वे गहरी चिंता जताते हैं. यह फ़िलिस्तीनियों के भविष्य के बारे में बातचीत थी, जिसमें कोई आधिकारिक फ़िलिस्तीनी प्रतिनिधि ही नहीं था.
अंत में, वे चेतावनी देते हैं कि इज़राइल ने फ़िलिस्तीनियों की इच्छा को तोड़ने की कोशिश की, लेकिन इसके बजाय, अत्याचारों, हत्याओं और विनाश की यादों से और भी कट्टरपंथी तत्व पैदा हो सकते हैं, जो बदला लेने की कोशिश करेंगे. उनका मानना है कि यह संघर्ष क्षेत्र, सीमाओं या सुरक्षा व्यवस्था पर कोई तकनीकी विवाद नहीं है. यह दो लोगों के बीच एक गहरा, स्थायी, भावनात्मक संघर्ष है. जब तक इस हक़ीक़त का सामना नहीं किया जाता, तब तक कोई भी योजना सफल नहीं होगी.
ग्रेट निकोबार ने प्रकृति के कानूनी अधिकारों के मुद्दे को ज़िंदा किया
ग्रेट निकोबार द्वीप पर 72,000 करोड़ रुपये की विशाल समग्र अवसंरचना विकास परियोजना ने एक बार फिर पर्यावरण अधिकारों और पारिस्थितिक न्याय पर बहस को तेज कर दिया है. यह परियोजना एक ट्रांसशिपमेंट पोर्ट, टाउनशिप, बिजली संयंत्र और एक अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डे के निर्माण की परिकल्पना करती है, जिसके लिए 130 वर्ग किलोमीटर तक के अछूते उष्णकटिबंधीय वनों को नष्ट करने की आशंका है. ये वन अंडमान और निकोबार जैव विविधता हॉटस्पॉट का हिस्सा हैं.
“द हिंदू” में अनवर सादत की रिपोर्ट कहा गया है कि ग्रेट निकोबार विवाद ने “प्रकृति के अधिकारों” पर चर्चा को फिर से जीवंत कर दिया है, जिससे भारत की पर्यावरणीय प्रशासन प्रणाली में कमियों का पता चलता है और यह आवश्यकता रेखांकित होती है कि पारिस्थितिक तंत्रों को कानूनी रूप से अधिकार-संपन्न इकाइयों के रूप में मान्यता दी जाए.
सुप्रीम कोर्ट के 2013 के नियमगिरि पहाड़ प्रकरण (ओडिशा माइनिंग कॉर्पोरेशन लिमिटेड बनाम पर्यावरण एवं वन मंत्रालय) के निर्णय ने स्वदेशी और पारिस्थितिक अधिकारों की रक्षा के लिए एक सशक्त मिसाल कायम की थी. अदालत ने वन अधिकार अधिनियम, 2006 (एफआरए) के अंतर्गत ग्राम सभा को यह अधिकार दिया कि वे उन खनन प्रस्तावों पर निर्णय लें, जो उनके सांस्कृतिक, पर्यावरणीय और आजीविका संबंधी अधिकारों को प्रभावित करते हैं.
इस निर्णय ने सामुदायिक सहमति के सिद्धांत को बनाए रखा और ग्राम सभाओं को परंपराओं, संसाधनों तथा समुदाय की पहचान की रक्षा का दायित्व सौंपा.
यह सिद्धांत ग्रेट निकोबार पर भी लागू होता है. रिपोर्ट के अनुसार, परियोजना के लिए वन विचलन की स्वीकृति से पहले लिटिल और ग्रेट निकोबार की जनजातीय परिषदों से ठीक से परामर्श नहीं किया गया, जो कि सहभागी पर्यावरण निर्णय-निर्माण के लिए एक प्रमुख उपकरण, वन अधिकार अधिनियम, 2006 का उल्लंघन है.
यह भी आरोप है कि अंडमान और निकोबार प्रशासन ने केंद्र सरकार को गलत जानकारी दी कि जनजातीय अधिकारों का निपटान कर दिया गया है. दुनिया भर के कई देशों और न्यायालयों ने अब ‘पृथ्वी न्यायशास्त्र’ या प्रकृति के अधिकार का दृष्टिकोण अपनाया है.
इक्वाडोर (2008 में संविधान के माध्यम से), बोलीविया, कोलंबिया और न्यूजीलैंड जैसे देशों ने नदियों, वनों और पारिस्थितिक तंत्रों को विधिक ईकाई के रूप में अस्तित्व, विकास और पुनर्जनन का अधिकार प्रदान किया है. उदाहरण के लिए, न्यूजीलैंड में व्हांगानुई नदी (2017) और कोलंबिया में आत्रातो नदी (2016) को कानूनी अधिकार-संपन्न इकाइयों के रूप में मान्यता दी गई है. इन दृष्टांतों में, पारिस्थितिक तंत्र को मात्र ‘संपत्ति’ या ‘संसाधन’ के बजाय अधिकारों के धारक के रूप में देखा जाता है, जिनका संरक्षण विकास के दावों पर प्राथमिकता रखता है.
रिपोर्ट के मुताबिक, ग्रेट निकोबार परियोजना का विवाद इस बात पर प्रकाश डालता है कि भारत को अपने पर्यावरणीय शासन और विकास-संरक्षण संतुलन के दृष्टिकोण पर पुनर्विचार करने की आवश्यकता है. एक ऐसा कानूनी ढांचा अपनाना, जो प्रकृति को कानूनी अधिकार प्रदान करे, पारिस्थितिक रूप से संवेदनशील क्षेत्रों और शोम्पेन जैसे कमजोर जनजातीय समुदायों की सुरक्षा के लिए एक आवश्यक कदम हो सकता है.
संक्षेप में, ग्रेट निकोबार परियोजना लक्षण के तौर पर भारत में पारिस्थितिक न्याय की स्थिति को दर्शाती है और प्रकृति के कानूनी अधिकारों को स्थापित करने की वैश्विक आवश्यकता का समर्थन करती है.
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