14/11/2025: बिहार में चमत्कार या छेड़छाड़ का शिकार? | बिहार पर श्रवण गर्ग और अपूर्वानंद | अख़लाक़ की हत्या के आरोप वापस होंगे? | असम के मंत्री के पोस्ट पर विवाद : ‘लोगेन नरसंहार और फूलगोभी की खेती’
‘हरकारा’ यानी हिंदी भाषियों के लिए क्यूरेटेड न्यूजलेटर. ज़रूरी ख़बरें और विश्लेषण. शोर कम, रोशनी ज़्यादा.
निधीश त्यागी, साथ में राजेश चतुर्वेदी, गौरव नौड़ियाल, फ़लक अफ़शां
आज की सुर्खियां
श्रवण गर्ग का विश्लेषण: नतीजे या ‘सिस्टम’ का खेल?
‘नी-मो’ की प्रचंड लहर: नीतीश की रिकॉर्ड वापसी, लालू परिवार के लिए ‘बाल दिवस’ बना मायूसी का दिन.
पीके का ‘जन सुराज’ बेअसर: 25 सीटों की भविष्यवाणी उल्टी पड़ी, सोशल मीडिया के ‘चाणक्य’ ज़मीन पर फेल.
विपक्ष की रणनीति पर सवाल: ज़मीन से दूर, सोशल मीडिया पर मजबूर? बिहार में क्यों बिखरा महागठबंधन.
नीतीश का जादू बरकरार: ‘काम तो किए हैं’... 5 कारण, क्यों बिहार ने फिर जताया ‘सुशासन बाबू’ पर भरोसा.
वैष्णो देवी में विवाद: मुस्लिम डॉक्टरों की भर्ती पर बवाल, ‘हिंदू संस्था में हिंदुओं को मिले प्राथमिकता’.
दिल्ली का दम घुट रहा: ज़हरीली हवा में दिल्ली लाचार, MCD के पास पड़े रहे 28 करोड़.
असम मंत्री का विवादित पोस्ट: बिहार जीत पर ‘फूलगोभी’ का ज़िक्र, क्या कुरेदे गए 1989 के ज़ख़्म?
लाल क़िला ब्लास्ट: आधी रात को एक्शन, मुख्य संदिग्ध का घर ‘बुलडोजर’ से ध्वस्त.
7 राज्यों के उपचुनाव: अब्दुल्ला-भजनलाल को झटका, कांग्रेस की जुबली हिल्स में जीत.
अख़लाक़ लिंचिंग केस: योगी सरकार का यू-टर्न? हत्यारों पर से केस वापस लेने की अर्ज़ी.
RSS की अमेरिकी लॉबिंग: लाखों डॉलर ख़र्च, अमेरिकी कांग्रेस को साधने की कोशिश.
‘वंतारा’ के बचाव में केंद्र?: वन्यजीव आयात पर अंतरराष्ट्रीय संस्था की सिफ़ारिश को बताया ‘असंगत’.
चुनाव आयोग पर सवाल: 2003 SIR के आदेश की कॉपी क्यों नहीं दे रहा चुनाव आयोग?
E20 पेट्रोल की जल्दीबाज़ी: आपकी गाड़ी की वारंटी ख़तरे में? खाद्य सुरक्षा पर भी बड़ा संकट.
मेलघाट में मासूमों की मौत: ‘बेहद लापरवाह है सरकार’, बॉम्बे हाईकोर्ट की सख़्त फटकार.
‘ब्लू ब्यूटी’ का सच: ‘ओशन-फ्रेंडली’ प्रोडक्ट: पर्यावरण की चिंता या मार्केटिंग का छलावा?
बिहार चुनाव:
श्रवण गर्ग: नतीजे ‘राजनीतिक छेड़छाड़’ या सामाजिक इंजीनियरिंग का कमाल?
बिहार विधानसभा चुनाव के नतीजों ने न केवल राजनीतिक समीकरणों को बदल दिया है, बल्कि देश की लोकतांत्रिक प्रक्रिया पर भी गंभीर सवाल खड़े कर दिए हैं. हरकारा के साथ एक लाइव चर्चा में, वरिष्ठ पत्रकार श्रवण गर्ग ने इन परिणामों को अप्रत्याशित बताते हुए यह अंदेशा ज़ाहिर किया कि यह “राजनीतिक व्यवस्था के साथ की गई छेड़छाड़ की ओर इशारा करते हैं.” उनके अनुसार, इन नतीजों के साथ ही नीतीश कुमार का दो दशकों का राजनीतिक युग अब समाप्त हो गया है.
आंकड़ों का चौंकाने वाला खेल: 2020 बनाम 2025 : इस बार के नतीजे इसलिए भी हैरान करने वाले हैं क्योंकि 2020 के चुनाव में एनडीए और महागठबंधन के बीच जीत-हार का अंतर महज़ 12,800 वोटों का था, और वोट शेयर में केवल 0.03% का फ़र्क था. लगभग 40 सीटें 1200 से भी कम वोटों से तय हुई थीं. श्रवण गर्ग ने सवाल उठाया, “क्या पांच साल में सुशासन इतना बढ़ गया कि पूरा राज्य एकतरफा हो गया?” इस बार एनडीए को 204 सीटें मिली हैं, जबकि महागठबंधन 33 सीटों पर सिमट गया. भाजपा का स्ट्राइक रेट 95% के क़रीब रहा, जो सामान्य राजनीतिक गणित से परे है. गर्ग ने कहा कि अगर नीतीश कुमार महागठबंधन में शामिल हो भी जाते, तो भी सरकार नहीं बन पाती, जो यह दिखाता है कि भाजपा ने बिहार में क्षेत्रीय राजनीति को पूरी तरह समेट लिया है.
एग्ज़िट पोल्स और मनोवैज्ञानिक बढ़त की रणनीति : श्रवण गर्ग ने एग्ज़िट पोल्स को पहले से बनाए गए माहौल का हिस्सा बताया. उन्होंने कहा कि पोल्स में 130 से 209 सीटों की असामान्य रेंज देना एक “बारीकी से रचा गया एग्ज़िट पोल” था, जिसका मक़सद नतीजों से पहले एक निश्चित मानसिकता तैयार करना था. उन्होंने याद दिलाया, “अमित शाह ने पहले 200 सीटें कही थीं, फिर 160 तक लाए, और अब नतीजे 204 पर ठहर गए. यह महज़ संयोग नहीं हो सकता.”
वैकल्पिक तर्क: सामाजिक समीकरण और महिला वोटर : हालांकि, गर्ग ने विश्लेषक प्रणय रॉय और योगेंद्र यादव के तर्कों का भी ज़िक्र किया. प्रणय रॉय का मानना था कि 10,000 रुपये की योजना ने महिला मतदाताओं को काफ़ी प्रभावित किया, जिनकी संख्या इस बार 43 लाख अधिक थी. वहीं, योगेंद्र यादव ने कहा कि एनडीए सामाजिक रूप से एक बड़ा गठबंधन है, जबकि महागठबंधन अब भी मुस्लिम-यादव समीकरण तक सीमित है. यादव के अनुसार, विपक्ष को चुनाव आयोग पर दोष मढ़ने से पहले अपने सामाजिक आधार का विस्तार करने पर ध्यान देना चाहिए.
चर्चा में यह भी सामने आया कि करोड़ों महिलाओं तक 10,000 रुपये की योजना बेहद संगठित तरीक़े से पहुंचाई गई, जिसमें बैंक अधिकारियों की मदद की आशंका भी जताई गई. गर्ग का मानना है कि इसका फ़ायदा नीतीश से ज़्यादा भाजपा को मिला.
विपक्ष की रणनीतिक चूक और राहुल गांधी की भूमिका : श्रवण गर्ग ने विपक्ष की कमज़ोरियों पर तीखी टिप्पणी की. उन्होंने कहा कि विपक्ष ने SIR (मतदाता सूची का विशेष पुनरीक्षण) की वैधता पर सवाल उठाते हुए भी चुनाव का बहिष्कार नहीं किया. उन्होंने कटाक्ष किया, “विपक्ष चोरी तब नहीं पकड़ता जब चोरी होती है, बल्कि तब जब चोर भाग चुका होता है.” राहुल गांधी पर टिप्पणी करते हुए उन्होंने कहा, “राहुल चोर को पकड़ते हैं और फिर मलेशिया चले जाते हैं. वे काम शुरू तो करते हैं, लेकिन उसे अंजाम तक नहीं पहुंचाते.” हालांकि, उन्होंने यह भी स्वीकार किया कि आज देश में राहुल गांधी के अलावा कोई विपक्षी नेता नहीं है, इसलिए ज़िम्मेदारी भी उन्हीं की है.
नीतीश का भविष्य और लोकतंत्र के लिए चेतावनी : इस विश्लेषण के मुताबिक़, नीतीश कुमार का राजनीतिक भविष्य अब अनिश्चित है. ऐसी अटकलें हैं कि भाजपा ललन सिंह को मुख्यमंत्री और चिराग पासवान को उपमुख्यमंत्री बना सकती है. अंत में, श्रवण गर्ग ने चेतावनी दी कि बिहार का चुनाव नतीजा सिर्फ एक राज्य का मामला नहीं, बल्कि पूरे देश की लोकतांत्रिक व्यवस्था के लिए ख़तरे की घंटी है. उन्होंने कहा, “अगर चुनाव आयोग की विश्वसनीयता पर सवाल क़ायम रहे, तो आने वाले चुनाव सिर्फ़ एक औपचारिकता बनकर रह जाएंगे.”
बिहार में ‘नी-मो’ की लहर, नीतीश कुमार की रिकॉर्ड वापसी, लालू परिवार के लिए निराशा
बिहार विधानसभा चुनाव के नतीजों ने राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (NDA) के लिए एकतरफ़ा जीत का संकेत दिया है, जिसमें राज्य के सबसे लंबे समय तक मुख्यमंत्री रहे नीतीश कुमार एक और रिकॉर्ड कार्यकाल के लिए वापसी करने को तैयार हैं. शुक्रवार, 14 नवंबर, जो बाल दिवस भी था, राष्ट्रीय जनता दल (RJD) और उसके संस्थापक लालू प्रसाद यादव के लिए एक भूलने वाला दिन साबित हुआ. द न्यू इंडियन एक्सप्रेस की रिपोर्ट के अनुसार, लालू के बड़े बेटे तेज प्रताप यादव का प्रदर्शन उम्मीद के मुताबिक़ निराशाजनक रहा, लेकिन छोटे बेटे तेजस्वी यादव और राजद को जो नुक़सान हुआ, वह लालू के लिए ज़्यादा तक़लीफ़देह रहा होगा.
कई राजनीतिक विशेषज्ञों का मानना है कि तेजस्वी यादव की हार में लालू प्रसाद यादव के 15 साल के शासनकाल के दौरान रहे ‘जंगल राज’ की बड़ी भूमिका थी. तेजस्वी बिहार के सबसे युवा मुख्यमंत्री बनने की दौड़ में थे, लेकिन मतदाताओं ने नीतीश कुमार के शासन की तुलना में उनके कार्यकाल को बेहतर मानते हुए उन्हें पुरस्कृत किया. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की राजनीतिक केमिस्ट्री, जो दोनों वंशवाद की राजनीति के ख़िलाफ़ हैं, ने ‘सुशासन’ के वादे पर महिला मतदाताओं और आम जनता का भरोसा जीतने में कामयाबी हासिल की.
चुनाव में एनडीए की जीत के पीछे महिला मतदाताओं की भारी संख्या में भागीदारी एक प्रमुख कारण रही. ढाई करोड़ से ज़्यादा महिलाओं ने मतदान किया, जो पुरुष मतदाताओं से अधिक थे. एनडीए द्वारा डेढ़ करोड़ से ज़्यादा महिलाओं के खातों में 10,000 रुपये की वित्तीय सहायता जमा करने की घोषणा ने इसमें बड़ी भूमिका निभाई. इसके अलावा, एनडीए नेताओं ने राजद के ‘जंगल राज’ को एक डर के रूप में पेश किया और मतदाताओं को चेताया कि अगर एनडीए को वोट नहीं दिया गया तो वह दौर वापस आ सकता है. कई पर्यवेक्षकों ने कहा, “बिहार के लोग जंगल राज में नहीं पड़ना चाहते. राजद के कट्टा और अन्य चीज़ों को दिखाते गानों के क्लिप ने भी महागठबंधन को काफ़ी नुक़सान पहुँचाया.”
इस भारी जीत के बीच राजद के लिए दिन निराशाजनक रहा. तेजस्वी यादव अपनी पारंपरिक सीट राघोपुर से एक समय पर पीछे चल रहे थे, जहाँ से कभी उनके माता-पिता, लालू प्रसाद यादव और राबड़ी देवी भी प्रतिनिधित्व कर चुके हैं. हालांकि, अंत में वे 10,000 से अधिक वोटों के अंतर से जीत गए, लेकिन उनकी पार्टी राज्य में सबसे बड़ा वोट प्रतिशत हासिल करने के बावजूद केवल 25 सीटों पर सिमट गई, जो 2010 में जीती गई 22 सीटों के बाद उसका सबसे ख़राब प्रदर्शन है.
अब नीतीश कुमार के सामने बड़ी चुनौतियाँ हैं. राज्य में ग़रीबों पर 57,000 करोड़ रुपये से अधिक के माइक्रोफ़ाइनेंस क़र्ज़ का बोझ है. रोज़गार की कमी के कारण बिहारी दूसरे राज्यों में पलायन करने को मजबूर हैं. शराबबंदी ने अवैध शराब की तस्करी को जन्म दिया है, जो एक बड़ी चुनौती बनी हुई है. इसके अलावा, राज्य की प्रति व्यक्ति मासिक आय 5,700 रुपये है, जो भारत में सबसे कम है. अब देखना यह है कि नीतीश कुमार इन चुनौतियों का सामना करते हुए बिहार के सबसे महान ‘सुशासन बाबू’ के रूप में अपनी विरासत को कैसे गढ़ते हैं.
बिहार विधानसभा चुनाव परिणामों से एक बड़ा निष्कर्ष यह निकला है कि प्रशांत किशोर के नेतृत्व वाली जन सुराज पार्टी (JSP) को कोई ख़ास सफलता नहीं मिली. द न्यू इंडियन एक्सप्रेस की रिपोर्ट के मुताबिक़, बिहार में जनता दल (यूनाइटेड) के कार्यकर्ता किशोर को निशाना बना रहे हैं, जो पर्याप्त वोट हासिल करने में विफल रहे. किशोर ने पहले घोषणा की थी कि जद(यू) कभी भी 25 सीटों का आँकड़ा पार नहीं करेगी और अगर ऐसा हुआ तो वह राजनीति छोड़ देंगे. कुछ पर्यवेक्षकों का दावा है कि इन दावों ने जद(यू) समर्थकों को उत्साहित किया, जिससे उन्होंने और ज़्यादा आक्रामक तरीक़े से मतदान किया और चुनावों के दौरान सामूहिक रूप से जेएसपी को ख़ारिज कर दिया.
किशोर, जो कई पार्टियों को सत्ता में लाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने का दावा करते हैं, ने एक साल तक राज्य का दौरा किया और ऐसे नारे दिए जिन्होंने शुरू में जनता का ध्यान खींचा. हालांकि कई लोगों को उम्मीद थी कि वह चुनाव लड़ेंगे, लेकिन चुनावी मैदान से हटने के उनके फ़ैसले की आलोचना हुई. शुरुआत में, जेएसपी कुछ सीटों पर आगे दिख रही थी, लेकिन जैसे-जैसे दिन चढ़ा और मतगणना आगे बढ़ी, उसके उम्मीदवार पिछड़ने लगे. जद(यू) के एक नेता ने कहा कि जद(यू) पर प्रशांत किशोर की टिप्पणियाँ “सूरज उगते ही अंधेरे की तरह गायब हो गईं”.
विपक्षी महागठबंधन के लिए भी यह चुनाव भूलने वाला रहा. कांग्रेस का प्रदर्शन ख़राब रहा, वहीं राजद ने भी अपना अब तक का सबसे ख़राब प्रदर्शन किया. दूसरी ओर, असदुद्दीन ओवैसी की पार्टी AIMIM के लिए जश्न मनाने के कारण थे. ऐसा लगता है कि पार्टी 2020 के चुनावों में अपने प्रदर्शन से बेहतर करने की राह पर है. 2020 में मुस्लिम बहुल सीमांचल क्षेत्र में पाँच सीटें जीतने वाली AIMIM, अगर रुझान बने रहे तो इस बार एक सीट और ज़्यादा जीत सकती है.
विपक्ष की ज़मीनी पकड़ कमज़ोर, रणनीति सोशल मीडिया तक सीमित, चुनावी प्रक्रिया पर सवाल
बिहार विधानसभा चुनाव 2025 के अप्रत्याशित नतीजों ने न केवल राजनीतिक दलों को चौंकाया है, बल्कि चुनावी प्रक्रिया और सामाजिक संकेतों पर भी गंभीर बहस छेड़ दी है. हरकारा डीपडाइव में चर्चा में पत्रकार नील माधव, प्रोफेसर अपूर्वानंद और निधीश त्यागी ने इन परिणामों का विश्लेषण करते हुए विपक्ष की रणनीतिक चूकों और ज़मीनी हक़ीक़त के बीच की खाई को उजागर किया.
नील माधव ने अपने ज़मीनी अनुभव साझा करते हुए बताया कि चुनाव प्रचार के दौरान उत्तर और दक्षिण बिहार में “उत्साह की कमी” और एक अनकहा “भय का माहौल” स्पष्ट रूप से महसूस किया गया. कई गाँवों में यह अफवाह थी कि वोट नहीं देने पर मतदाता सूची से नाम काट दिया जाएगा, ज़मीन छिन जाएगी या नागरिकता ख़तरे में पड़ जाएगी. इस डर के कारण कई लोगों ने, यहाँ तक कि प्रवासी मज़दूरों ने भी, ट्रेन से लौटकर मतदान किया. यह दर्शाता है कि मतदान का आधार विकास या मुद्दों से ज़्यादा डर और असुरक्षा पर टिका था.
चर्चा में यह बात प्रमुखता से सामने आई कि महागठबंधन के पास बिहार के लिए कोई स्पष्ट विजन या ठोस योजना नहीं थी. रोज़गार और नौकरियों जैसे अहम मुद्दों पर कोई प्रभावी संवाद नहीं किया गया. उम्मीदवारों के नाम आख़िरी समय तक तय नहीं किए गए, जिससे पार्टी के भीतर भ्रम और कमज़ोरी का संदेश गया. इससे भी बड़ी रणनीतिक चूक यह थी कि लगभग 10% सीटों पर बिना लड़े ही हार मान ली गई, जिससे कार्यकर्ताओं का मनोबल टूट गया.
प्रशांत किशोर की रणनीति पर भी गंभीर सवाल उठाए गए. पैनलिस्टों का मानना था कि इस बार पीके की टीम ने ज़मीनी स्तर पर लंबा और सघन अभियान चलाने के बजाय सोशल मीडिया और दिखावे पर ज़्यादा ध्यान केंद्रित किया. उनके द्वारा चुने गए कई उम्मीदवारों में स्थानीय स्तर पर जीत हासिल करने की क्षमता नहीं थी और युवाओं के लिए कोई ठोस भविष्य की योजना भी पेश नहीं की गई. यह विपक्ष की एक बड़ी कमज़ोरी साबित हुई.
SIR (मतदाता सूची का विशेष पुनरीक्षण) और वोटर लिस्ट से जुड़ी अनियमितताओं पर भी चिंता जताई गई. यह तर्क दिया गया कि मतदान प्रतिशत बढ़ने का एक कारण यह हो सकता है कि कुल मतदाताओं की संख्या कम कर दी गई थी. लाखों नाम हटाए जाने और नए जोड़े जाने की प्रक्रिया ने मतदान के आंकड़ों को प्रभावित किया हो सकता है, जिससे यह वास्तविक से अधिक दिखाई दिया.
महागठबंधन अपनी पारंपरिक मुस्लिम-यादव (M-Y) समीकरण पर अत्यधिक निर्भरता से बाहर नहीं निकल सका. टिकट बँटवारे में पक्षपात और कई सीटों पर मुस्लिम उम्मीदवारों की संख्या कम करने या उन्हें बदलने से स्थानीय स्तर पर नाराज़गी बढ़ी. इसी का फ़ायदा सीमांचल जैसे इलाक़ों में AIMIM जैसी पार्टियों को मिला, जिसने महागठबंधन के वोट बैंक में सेंध लगा दी.
अंत में, पैनल ने यह निष्कर्ष निकाला कि यह नतीजा केवल बिहार का नहीं है, बल्कि इसके राष्ट्रीय प्रभाव होंगे. विपक्ष को अगर चुनावी प्रक्रिया पर संदेह था, तो उसे समय रहते रणनीतिक क़दम उठाने चाहिए थे. अब जब नतीजे आ चुके हैं, तो इससे उठ रहे सवाल लोकतंत्र और चुनावी प्रक्रिया की विश्वसनीयता पर एक गंभीर प्रश्नचिह्न लगाते हैं.
पांच कारण, क्यों बिहार के लोगों का नीतीश कुमार से मोहभंग नहीं हुआ है
बिहार विधानसभा चुनाव में राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (NDA) की बड़ी जीत के साथ, नीतीश कुमार का मुख्यमंत्री के रूप में लौटना तय है. स्क्रॉल.इन में अपनी रिपोर्ट में अनंत गुप्ता लिखते हैं कि चुनाव कवर करते समय उनकी मुलाक़ात एक व्यक्ति से हुई जिसने हफ़्तों पहले ही कह दिया था, “मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ही बनेंगे, बाएं से या दाएं से.” उस व्यक्ति की यह भविष्यवाणी नीतीश की राजनीतिक स्थिति के सटीक आकलन पर आधारित थी, जो अब सच साबित हुई है. जद(यू) इस चुनाव में सबसे बड़े फ़ायदे में दिख रही है. पार्टी 243 में से 83 सीटों पर आगे है, जो 2020 की तुलना में लगभग दोगुनी है, और उसका वोट शेयर 15.4% से बढ़कर 19% हो गया है. यहाँ पाँच कारण दिए गए हैं कि बिहार ने एक बार फिर नीतीश कुमार पर भरोसा क्यों जताया.
पहला, ज़्यादातर बिहारी अभी भी नीतीश का सम्मान करते हैं. लगभग 20 वर्षों तक मुख्यमंत्री रहने के बावजूद, नीतीश कुमार के ख़िलाफ़ कोई महत्वपूर्ण सत्ता-विरोधी लहर नहीं है. स्थानीय नौकरशाहों और विधायकों पर भ्रष्टाचार का आरोप लगाने वाले भी नीतीश के बारे में सम्मान से बात करते हैं. मतदाता उन्हें सड़कें बनाने, गाँवों में बिजली पहुँचाने और महिलाओं की सुरक्षा में सुधार का श्रेय देते हैं. विपक्ष के समर्थक भी मानते हैं कि “काम तो किए हैं.” चुनाव से ठीक पहले ग़रीबों के लिए शुरू की गई कई योजनाओं, जैसे महिलाओं को 10,000 रुपये, बेरोज़गारी भत्ता और मुफ़्त बिजली, ने भी उनकी मदद की.
दूसरा, ‘सुशासन’ बनाम ‘जंगल राज’. कई बिहारी तेजस्वी यादव को उनके पिता लालू प्रसाद यादव की छाया से बाहर नहीं देख पाते. लालू और राबड़ी देवी के 1990 से 2005 तक के शासन को कई लोग ‘जंगल राज’ के रूप में याद करते हैं. इन मतदाताओं के लिए, नीतीश कुमार क़ानून के शासन और सुशासन के प्रतीक हैं. हालांकि बिहार में अपराध कम नहीं हुआ है, लेकिन ज़्यादातर मतदाता मुख्यमंत्री को किसी एक जाति के प्रति पक्षपाती नहीं मानते.
तीसरा, नीतीश का वोट बैंक सुरक्षित है. जद(यू) का समर्थन मुख्य रूप से दो सामाजिक समूहों से आता है: अति पिछड़ा वर्ग (EBC) और महिलाएँ. अति पिछड़ा वर्ग बिहार की आबादी का 36% से अधिक है, और नीतीश की पार्टी ने इस समुदाय के सबसे ज़्यादा उम्मीदवार उतारे. महिलाओं के बीच भी नीतीश अपनी नीतियों के कारण लोकप्रिय हैं, और केवल 10,000 रुपये की योजना ने इस समर्थन को और मज़बूत किया.
चौथा, बिहारी नीतीश के मानसिक स्वास्थ्य पर लगे आरोपों पर विश्वास नहीं करते. विपक्ष ने नीतीश के स्वास्थ्य को लेकर कई सवाल उठाए, लेकिन मतदाताओं पर इसका असर नहीं हुआ. ज़्यादातर लोगों का मानना था कि उम्र बढ़ने के बावजूद वे राजनीतिक रूप से पूरी तरह नियंत्रण में हैं. एनडीए के भीतर सीट-बँटवारे में उनका दबदबा इसका सबूत है, जहाँ उन्होंने एक सीट के बदले अपने सहयोगियों से दो सीटें लीं.
पाँचवाँ, नीतीश भाजपा के प्रभाव में नहीं दबे हैं. एनडीए ने नीतीश को मुख्यमंत्री पद का चेहरा घोषित करने में झिझक दिखाई, जिससे उनके समर्थकों में नाराज़गी थी. एक समर्थक ने कहा, “आज नीतीश के दोस्त उनके दुश्मनों से ज़्यादा ख़तरनाक हैं.” हालांकि, चुनाव नतीजों ने यह स्पष्ट कर दिया है कि जद(यू) इस चुनाव में सबसे बड़ी विजेता बनकर उभरी है. चुनाव के बाद, नीतीश ने एक हिंदू मंदिर, एक मुस्लिम मज़ार और एक सिख गुरुद्वारे में प्रार्थना करके यह संकेत दिया कि वह अपने नारे “नीतीश सबके हैं” पर क़ायम हैं.
हिंदुत्व समूहों ने वैष्णो देवी चिकित्सा संस्थानों में मुस्लिम डॉक्टरों की भर्ती, एमबीबीएस प्रवेश का विरोध किया
जम्मू में युवा राजपूत सभा और कई हिंदू समूहों द्वारा श्री माता वैष्णो देवी श्राइन बोर्ड अस्पताल में मुस्लिम डॉक्टरों की नियुक्ति का विरोध करने के बाद तनाव बढ़ गया है. इन समूहों का तर्क है कि हिंदू भक्तों द्वारा वित्त पोषित संस्था को “हिंदुओं को काम पर रखने को प्राथमिकता” देनी चाहिए.
“मकतूब मीडिया” के मुताबिक, जम्मू में युवा राजपूत सभा के सदस्यों ने वैष्णो देवी श्राइन बोर्ड अस्पताल में मुस्लिम डॉक्टरों की नियुक्ति का विरोध किया, यह दावा करते हुए कि एक श्राइन-वित्त पोषित संस्था को भक्तों की धार्मिक भावनाओं को दर्शाने के लिए हिंदू चिकित्सा और सहायक कर्मचारियों को नियुक्त करना चाहिए. यह विवाद तब सामने आया जब पता चला कि नव स्थापित श्री माता वैष्णो देवी इंस्टीट्यूट ऑफ मेडिकल एक्सीलेंस (SMVDIME) में पहले एमबीबीएस बैच (2025-26) में प्रवेश पाने वाले 50 छात्रों में से 42 छात्र मुस्लिम समुदाय के थे.
विश्व हिंदू परिषद और राष्ट्रीय बजरंग दल सहित विभिन्न हिंदुत्व संगठनों ने इन प्रवेशों को “धार्मिक रूप से असंतुलित” करार दिया और हिंदू छात्रों के लिए आरक्षण या प्राथमिकता की मांग की.
वीएचपी के महासचिव बजरंग बागरा ने 1 नवंबर को उपराज्यपाल मनोज सिन्हा को लिखे एक पत्र में आरोप लगाया कि बहुसंख्यक मुस्लिम छात्रों का चयन करने से “धार्मिक असंतुलन” पैदा हुआ है, और उन्होंने प्रशासन तथा श्राइन बोर्ड से “भक्तों की धार्मिक भावना की रक्षा” करने का आग्रह किया. बागरा ने लिखा कि श्राइन बोर्ड से जुड़े संस्थानों को “भक्तों की धार्मिक भावना को उचित रूप से समायोजित करना चाहिए और यह सुनिश्चित करना चाहिए कि संस्था की प्रतिबद्धता और पहचान कमजोर न हो.”
उन्होंने आगे बोर्ड से अपनी भर्ती और प्रवेश नीतियों की समीक्षा करने का आग्रह किया ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि “संस्था की पवित्रता बनाए रखने के लिए हिंदू शिक्षकों और कर्मचारियों को नियुक्त किया जाए.”
दिल्ली की हवा खतरनाक, लेकिन प्रदूषण नियंत्रण के लिए आवंटित ₹28 करोड़ का उपयोग नहीं कर पाया एमसीडी
एक आरटीआई जवाब से पता चला है कि जहां एक ओर दिल्ली खतरनाक हवा में सांस ले रही है, वहीं दिल्ली नगर निगम (एमसीडी) ने पिछले दो वर्षों में राष्ट्रीय स्वच्छ वायु कार्यक्रम (एनसीएपी) के तहत आवंटित ₹28.77 करोड़ से अधिक की राशि का उपयोग ही नहीं किया. ‘पीटीआई’ ने एमसीडी द्वारा केंद्रीय पर्यावरण मंत्रालय को प्रस्तुत उपयोगिता प्रमाण पत्रों के आधार पर बताया है कि नागरिक निकाय ने 2023-24 वित्तीय वर्ष में पिछली आवंटन राशि से ₹26.6 करोड़ की शेष राशि के साथ प्रवेश किया था. उसी वर्ष के दौरान दिल्ली को एनसीएपी के तहत अतिरिक्त ₹8.93 करोड़ प्राप्त हुए, जिससे कुल उपलब्ध फंड ₹35.3 करोड़ से अधिक हो गया. फिर भी, दस्तावेज़ बताते हैं कि निगम ने 2023-24 में केवल ₹5.19 करोड़ का उपयोग किया, जिससे मार्च 2024 के अंत में ₹30.11 करोड़ खर्च ही नहीं हो पाए. आरटीआई जवाब में कहा गया है कि अगले वित्तीय वर्ष, 2024-25 में, दिल्ली ने इस खर्च न की गई राशि के साथ शुरुआत की और ब्याज के रूप में लगभग ₹75 लाख अर्जित किए, जिससे फंड का पूल ₹30.8 करोड़ हो गया. लेकिन मार्च 2025 तक, MCD ने केवल ₹1.34 करोड़ ही खर्च किए थे, जिससे ₹29.5 करोड़ निष्क्रिय पड़े रहे.
एनसीएपी के तहत, दिल्ली से यांत्रिक स्वीपिंग, धूल को दबाने के लिए पानी का छिड़काव, वायु गुणवत्ता निगरानी बुनियादी ढांचा, हरित बफ़र्स, और अपशिष्ट प्रबंधन में सुधार सहित कई प्रदूषण-नियंत्रण उपाय करने की अपेक्षा की जाती है. हालांकि, आरटीआई जवाब में उद्धृत निरीक्षण विवरण में कहा गया है कि जमीनी स्तर पर कार्यान्वयन “उतना प्रभावी ढंग से नहीं” किया गया, और फंड के उपयोग को “बढ़ाने की आवश्यकता है.”
रिकॉर्ड आगे संकेत देते हैं कि ‘एयर क्वालिटी चैलेंज मेथड’ (एक सुधार ढांचा, जो भविष्य की फंडिंग को प्रभावित करता है) के तहत दिल्ली के कई दायित्व अधूरे हैं. उदाहरण के लिए, शहर ने अभी तक प्लास्टिक अपशिष्ट प्रबंधन नियमों के विस्तारित उत्पादक उत्तरदायित्व (ईपीआर) ढांचे के तहत पंजीकरण नहीं कराया है, और आधिकारिक पोर्टल पर ई-कचरा संग्रह केंद्रों को अधिसूचित नहीं किया गया है. इसके अतिरिक्त, वाहन उत्सर्जन को कम करने के उद्देश्य से उठाए गए प्रमुख कदम, जैसे कि स्वचालित परीक्षण स्टेशन और वाहन स्क्रैपिंग सुविधाओं का परिचालन शुरू होना बाकी है.
बिहार में जीत के बाद असम के मंत्री के पोस्ट पर विवाद : ‘लोगेन नरसंहार और फूलगोभी की खेती’
बिहार में एनडीए की शानदार जीत के बाद, असम के मंत्री अशोक सिंघल ने “एक्स” पर फूलगोभी की एक तस्वीर साझा करते हुए कैप्शन में लिखा, “बिहार ने गोभी की खेती को मंजूरी दी.”
“इंडिया टुडे” में प्रिया पारीक की रिपोर्ट के मुताबिक, कई सोशल मीडिया उपयोगकर्ताओं का मानना है कि यह तस्वीर दुर्भावनापूर्ण रूप से “फूलगोभी दफन मामले” या ‘लोगेन नरसंहार’ को संदर्भित करती है, जो बिहार में 1989 के भागलपुर सांप्रदायिक दंगों के दौरान हुई एक क्रूर घटना थी.
इस घटना में 100 से अधिक मुसलमानों को मार दिया गया था, और सबूत छिपाने के लिए उनके शवों को एक खेत में दफन कर दिया गया था और ऊपर फूलगोभी के पौधे लगा दिए गए थे. तब से, फूलगोभी की छवियों का उपयोग अक्सर ‘लोगेन नरसंहार’ को याद करने के लिए किया जाता रहा है.
हाल ही में, मार्च 2025 में, नागपुर हिंसा के बीच, कुछ दक्षिणपंथी सोशल मीडिया हैंडल्स ने फूलगोभी की तस्वीरें साझा की थीं. मई 2025 में, कर्नाटक भाजपा के आधिकारिक अकाउंट ने छत्तीसगढ़ में माओवादियों के मारे जाने का जश्न मनाते हुए एक मीम पोस्ट किया था, जिसमें फूलगोभी का संदर्भ भी था.
असम के मंत्री के इस पोस्ट ने क्रूर नरसंहार के सीधे संदर्भ पर सोशल मीडिया उपयोगकर्ताओं को अविश्वास में डाल दिया. एक उपयोगकर्ता ने संदर्भ देते हुए लिखा, “संदर्भ: भाजपा के असम मंत्री द्वारा पोस्ट की गई फूलगोभी के खेत की छवि का उपयोग हिंदू चरमपंथियों द्वारा 1989 में भागलपुर में मुसलमानों की सामूहिक हत्या का महिमामंडन करने के लिए किया गया है, जहां सबूत छिपाने के लिए दफन स्थल पर फूलगोभी लगाई गई थी.”
एक अन्य उपयोगकर्ता ने टिप्पणी की, “असम के कैबिनेट मंत्री की ओर से ऐसा आना नामुमकिन है.” एक अन्य ने लिखा, “क्या यह आधिकारिक हैंडल है क्योंकि यह नहीं हो सकता कि उन्होंने बस ऐसा कह दिया हो.” एक तीसरी टिप्पणी में लिखा था, “क्या?? सचमुच? मैंने सोचा था कि यह एक पैरोडी अकाउंट है.”
लोगेन में क्या हुआ था?
हिंसा 24 अक्टूबर 1989 को शुरू हुई और दो महीने तक जारी रही, जिसने भागलपुर शहर और आसपास के 250 गांवों को अपनी चपेट में ले लिया. 1,000 से अधिक लोग मारे गए थे—जिनमें से लगभग 900 मुसलमान थे—और अन्य 50,000 विस्थापित हुए थे. उस समय यह स्वतंत्र भारत में हिंदू-मुस्लिम हिंसा की सबसे भयानक घटना थी.
लोगेन गांव में, एएसआई रामचंदर सिंह के नेतृत्व में 4,000 लोगों की भीड़ ने 116 मुसलमानों की हत्या कर दी थी. मौतों को छिपाने के लिए उनके शवों को दफन कर दिया गया और ऊपर फूलगोभी और पत्तागोभी के पौधे लगाए गए. 2007 में, पूर्व पुलिस अधिकारी सहित चौदह लोगों को हत्याओं के लिए दोषी ठहराया गया और आजीवन कारावास की सजा सुनाई गई थी.
लाल किला विस्फोट के मुख्य संदिग्ध डॉ. नबी के घर को गिराया
सुरक्षा बलों ने गुरुवार और शुक्रवार की दरमियानी रात जम्मू-कश्मीर के पुलवामा जिले में दिल्ली लाल किला विस्फोट के मुख्य संदिग्ध डॉ. उमर नबी के घर को ध्वस्त कर दिया. खबरों के अनुसार, नबी के कार चलाने की पुष्टि हुई थी, जिसकी पहचान विस्फोट स्थल से एकत्र किए गए डीएनए नमूनों से हुई, जो डॉ. उमर की मां के डीएनए से मेल खाते थे.
केंद्र सरकार ने इस विस्फोट को आतंकवादी हमला करार दिया है, और पुलिस ने गैरकानूनी गतिविधियां (रोकथाम) अधिनियम और विस्फोटक अधिनियम के तहत आरोप लगाए हैं. कई मीडिया रिपोर्टों के बावजूद, राष्ट्रीय जांच एजेंसी (एनआईए) या सरकार ने घटना में शामिल संदिग्धों के संबंध में आधिकारिक तौर पर कोई बयान नहीं दिया है.
विस्फोट के बाद, जम्मू और कश्मीर पुलिस ने रात भर छापे मारे, जिसमें डॉ. उमर के परिवार के तीन सदस्यों सहित छह लोगों को गिरफ्तार किया गया. कथित तौर पर नबी, कश्मीर के दो अन्य डॉक्टरों के संपर्क में था, जिन्हें पहले फरीदाबाद आतंकी मॉड्यूल मामले के संबंध में हिरासत में लिया गया था. पुलिस ने बताया कि उनसे 2,900 किलोग्राम विस्फोटक जब्त किया गया था.
“मकतूब मीडिया” की रिपोर्ट के मुताबिक, सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बावजूद यह तोड़फोड़ हुई है, जिसने नवंबर 2024 में यह माना था कि अभियुक्तों के घरों को ध्वस्त करना एक अवैध दंडात्मक कार्रवाई है, जब तक कि उचित कानूनी प्रक्रिया का पालन न किया जाए. कोर्ट ने यह स्पष्ट किया था कि भारतीय कानून में संपत्ति को दंड के रूप में नष्ट करने का कोई प्रावधान नहीं है और इस बात की पुष्टि की थी कि दोष सिद्ध करना विशेष रूप से न्यायपालिका का कार्य है.
इस तोड़फोड़ की आलोचना करते हुए, श्रीनगर के सांसद आगा सैयद रुहुल्लाह मेहदी ने कहा कि “घर को ध्वस्त करने से ‘सजा’ नहीं मिलेगी, यह केवल सामूहिक पीड़ा देगा.” रुहुल्लाह ने अपनी पोस्ट में कहा, “सर्दियों की कठोर रात में सबूत/अदालत के आदेश या घटना से उन्हें जोड़ने वाले किसी भी कानून के बिना एक पूरे परिवार को बेघर करना क्रूरता का कार्य है. यह उन निर्दोष लोगों को न्याय नहीं दिलाता है, जिन्हें हमने आतंकवादी हमले में खो दिया, और न ही यह न्याय के उद्देश्यों को प्राप्त करता है.” “कानूनी जांच के माध्यम से वास्तविक अपराधियों को जवाबदेह ठहराएं. सामूहिक हिरासत, जबरन पूछताछ और अवैध तोड़फोड़ शांति नहीं लाएगी, वे कश्मीर को दशकों पीछे धकेल देंगी.”
कानूनी समर्थन के अभाव के बावजूद, ऐसी तोड़फोड़, जिसे अक्सर “बुलडोजर न्याय” कहा जाता है, कई भाजपा-शासित राज्यों में आम हो गई है, जहां अधिकारी इन्हें अतिक्रमण विरोधी या आतंकवाद विरोधी उपायों के रूप में बचाव करते हैं. मानवाधिकार समूहों सहित आलोचक तर्क देते हैं कि वे मनमाने, गैर-न्यायिक और लक्षित हैं. इस साल की शुरुआत में भी, सुरक्षा एजेंसियों ने घातक पुलवामा हमले के संदिग्धों के घरों को ध्वस्त कर दिया था, जिसकी आलोचना हुई थी. अप्रैल 2025 में अधिकारियों द्वारा दक्षिण कश्मीर के कुछ हिस्सों में कम से कम सात आवासीय घरों को ध्वस्त किया गया था.
7 राज्यों में 8 उपचुनाव: अब्दुल्ला और भजनलाल शर्मा नहीं जिता पाए अपनी पार्टी को, कांग्रेस ने जुबली हिल्स जीती
बिहार से अलग सात राज्यों की आठ विधानसभा सीटों पर हुए उपचुनावों के नतीजे भी शुक्रवार को सामने आए. इनमें दो सीटें कांग्रेस ने जीती हैं. एक तेलंगाना में और दूसरी राजस्थान में, जहां भाजपा की सरकार है. तेलंगाना की जुबली हिल्स सीट पर भाजपा उम्मीदवार दीपक रेड्डी लंकाला काफी पीछे रहे, जबकि चुनाव प्रचार के दौरान केन्द्रीय राज्य मंत्री बंडी संजय कुमार के नफ़रती भाषणों ने मीडिया में काफी सुर्खियां बटोरी थीं. जम्मू और कश्मीर में दो सीटों पर उपचुनाव था, लेकिन सत्तारूढ़ नेशनल कॉन्फ्रेंस को दोनों ही जगहों पर हार का सामना करना पड़ा. बडगाम सीट तो वह पांच दशकों में पहली बार हारी है. पंजाब में एक सीट तरन तारन में चुनाव था और उसे आम आदमी पार्टी ने जीत लिया है. कांग्रेस और भाजपा यहां क्रमशः चौथे और पाँचवे स्थान पर रहीं. झारखंड की घाटशिला सीट भी राज्य में सत्तारूढ़ जेएमएम ने जीत ली है. इसी तरह ओडिशा की नुआपड़ा पर सत्तारूढ़ भाजपा ने कब्जा जमाया है, जबकि पूर्वोत्तर के राज्य मिजोरम में मुख्य विपक्षी पार्टी, मिज़ो नेशनल फ्रंट ने मामित जिले की डम्पा विधानसभा सीट बरकरार रखी है.
दादरी लिंचिंग
योगी आदित्यनाथ सरकार ने अख़लाक़ के हत्यारों के खिलाफ सभी आरोप वापस लेने की अर्जी दी
उत्तरप्रदेश में योगी आदित्यनाथ सरकार ने दादरी में मोहम्मद अख़लाक़ की मॉब लिंचिंग के दस आरोपियों के खिलाफ हत्या सहित सभी आरोपों को वापस लेने के लिए दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 321 के तहत एक आवेदन दायर किया है. मोहम्मद अली लिखते हैं कि उत्तरप्रदेश के राज्यपाल की लिखित मंजूरी से समर्थित यह वापसी अनुरोध गौतम बुद्ध नगर के अपर सत्र न्यायालय में दायर किया गया है. गौ मांस (बीफ) की अफवाहों से उपजी 2015 की यह लिंचिंग भीड़ की हिंसा, सांप्रदायिक ध्रुवीकरण और भोजन की राजनीति पर एक राष्ट्रीय विवाद का केंद्र बन गई थी.
“आउटलुक” में अली की रिपोर्ट के अनुसार, उत्तरप्रदेश सरकार ने गौतम बुद्ध नगर के अपर सत्र न्यायालय में, जहां मामले की सुनवाई चल रही है, आरोपियों के खिलाफ सभी आरोप वापस लेने की मांग करते हुए एक आवेदन दायर किया है. इनमें स्थानीय भाजपा नेता संजय राणा के बेटे विशाल राणा भी शामिल हैं.
आरोपियों पर शुरू में भारतीय दंड संहिता (अब भारतीय न्याय संहिता द्वारा प्रतिस्थापित) की विभिन्न धाराओं के तहत आरोप लगाए गए थे, जिनमें 302 (हत्या), 307 (हत्या का प्रयास), 323 (स्वेच्छा से चोट पहुंचाना), 504 (शांति भंग करने के इरादे से जानबूझकर अपमान करना), और 506 (आपराधिक धमकी) शामिल हैं.
28 सितंबर, 2015 की रात को हुई मोहम्मद अख़लाक़ की लिंचिंग भारत के हालिया सांप्रदायिक इतिहास के सबसे परिभाषित और भयावह क्षणों में से एक बनी हुई है. बिसहाड़ा गांव के 52 वर्षीय अख़लाक़ को उसके घर से घसीटकर भीड़ द्वारा पीट-पीटकर मार डाला गया था, जब कथित तौर पर एक मंदिर के लाउडस्पीकर ने घोषणा की थी कि उसने एक गाय को मार डाला है और अपने फ्रिज में गौमांस रखा है. उसका बेटा दानिश भी उसे बचाने की कोशिश में गंभीर रूप से घायल हो गया था.
वापसी आवेदन 26 अगस्त के एक पत्र के माध्यम से राज्य सरकार के निर्देशों पर कार्रवाई करते हुए, गौतम बुद्ध नगर के सहायक जिला सरकारी वकील, भग सिंह द्वारा 15 अक्टूबर को दायर किया गया था. आवेदन, जो अभी भी अदालत में लंबित है, यह बताता है कि उत्तरप्रदेश के राज्यपाल ने अभियोजन वापस लेने के लिए लिखित मंजूरी दे दी है. यह सरकार के उस रुख को भी दोहराता है कि घटनास्थल से बरामद मांस की पहचान एक सरकारी प्रयोगशाला द्वारा गौमांस के रूप में की गई थी.
आवेदन के साथ गौतम बुद्ध नगर के संयुक्त निदेशक (अभियोजन), बृजेश कुमार मिश्रा का एक पत्र संलग्न है, जिसमें भग सिंह को दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 321 के तहत कार्रवाई करने का निर्देश दिया गया है. यह प्रावधान एक लोक अभियोजक या सहायक लोक अभियोजक को, केवल अदालत की सहमति से, किसी मामले से पूरी तरह या विशिष्ट अपराधों के संबंध में वापसी करने का अधिकार देता है.
रिपोर्ट में कहा गया है कि अखलाक की लिंचिंग पर सर्वसम्मत निंदा प्राप्त करने के बजाय, इस हत्या ने गहरी ध्रुवीकृत प्रतिक्रियाओं को जन्म दिया. राजनेताओं, सार्वजनिक बुद्धिजीवियों और मीडिया मंचों ने हमले के पीछे की प्रेरणाओं पर विवाद किया, कुछ ने हिंसा को तर्कसंगत बनाने या कम आंकने का प्रयास किया. कई लोगों के लिए, लिंचिंग ने एक महत्वपूर्ण मोड़ का संकेत दिया—एक ऐसा क्षण जिसमें बहुसंख्यकवाद, असहिष्णुता और भोजन की राजनीति पर चिंताएं सार्वजनिक विमर्श पर हावी हो गईं. बढ़ती असहिष्णुता का हवाला देते हुए लेखकों और कलाकारों ने विरोध में अपने राज्य पुरस्कार लौटा दिए; नागरिक समूहों ने शहरों में “नॉट इन माय नेम” मार्च आयोजित किए; और विद्वानों ने चेतावनी दी कि लिंचिंग देश में उदार लोकतांत्रिक मूल्यों के गहरे पतन का संकेत है.
इस बीच, अखलाक के परिवार की न्याय की तलाश राजनीतिक विवादों में उलझ गई—जिसमें फोरेंसिक दावों और जवाबी जांचों में बदलाव से लेकर आरोपियों के समर्थन में आयोजित सार्वजनिक रैलियां शामिल हैं.
आरएसएस ने अमेरिकी कांग्रेस को प्रभावित करने के लिए लॉबिस्टों को काम पर रखा, बाद में बदल गया लॉबिंग का विषय
इस साल की शुरुआत में, आरएसएस ने ‘स्टेट स्ट्रीट स्ट्रेटेजीज़’ नामक एक कंपनी के माध्यम से, जो वन प्लस स्ट्रेटेजीज़ के रूप में व्यवसाय कर रही है, अमेरिकी कांग्रेस में लॉबिंग करने के लिए स्क्वायर पैटन बोग्स (एसपीबी) नामक एक प्रमुख कानूनी फर्म को नियुक्त किया था. “प्रिज़्म” में मेघनाद बोस और बिप्लब कुमार दास की रिपोर्ट के अनुसार, इस वर्ष की पहली तीन तिमाहियों में एसपीबी को संघ के साथ उसके काम के लिए कुल 330,000 डॉलर प्राप्त हुए. सार्वजनिक रिकॉर्ड का हवाला देते हुए वे कहते हैं कि यह पहली बार है जब आरएसएस ने अमेरिका में लॉबिस्ट नियुक्त किए हैं.
अब, भले ही आरएसएस ने वन प्लस के माध्यम से ‘एसपीबी’ को काम पर रखा, लेकिन बाद वाली फर्म द्वारा 1995 के लॉबिंग डिसक्लोजर एक्ट के तहत दायर पंजीकरण फॉर्म में कहा गया है कि कोई भी विदेशी संस्था नहीं है, जो उसके ग्राहक की गतिविधियों को “प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से, पूर्ण रूप से या प्रमुख हिस्से में, योजना, पर्यवेक्षण, नियंत्रण, निर्देशित, वित्तपोषित या सब्सिडी देती है.” एसपीबी को 1938 के फॉरेन एजेंट्स रजिस्ट्रेशन एक्ट (एफएआरए) के तहत विदेशी एजेंट के रूप में भी सूचीबद्ध नहीं किया गया है. यह स्पष्ट नहीं है कि ऐसा करना आवश्यक था या नहीं, लेकिन कुछ विशेषज्ञों ने इस बात पर सवाल उठाए कि आरएसएस, फॉरेन एजेंट्स रजिस्ट्रेशन एक्ट के तहत ‘एसपीबी’ को पंजीकृत किए बिना अपनी गतिविधियां कैसे संचालित कर पा रहा है.” आरएसएस के लिए ‘एसपीबी’ के पंजीकरण फॉर्म में लॉबिंग का विषय भी “अमेरिका-भारत द्विपक्षीय संबंध” सूचीबद्ध किया गया था, लेकिन बाद की फाइलिंग में यह “अमेरिकी अधिकारियों से आरएसएस का परिचय कराना” में बदल गया. अमेरिका में ही रह रहे मेघनाद और बिप्लब की यह लंबी और खास रिपोर्ट यहां विस्तार से पढ़ी जा सकती है.
मोदी सरकार वंतारा के बचाव में उतरी, वन्यजीवों के आयात पर सीआईटीईएस की सिफारिशों को असंगत बताया
ऐसा लगता है कि केंद्र सरकार “वंतारा” के बचाव में उतर आई है. उसने संकटग्रस्त वन्यजीवों और वनस्पतियों के अंतर्राष्ट्रीय व्यापार पर कन्वेंशन (सीआईटीईएस) की भारत को लुप्तप्राय वन्यजीवों का आयात न करने की सिफारिश को “अपरिपक्व और असंगत” करार दिया है. सीआईटीईएस ने पिछले दिनों कहा था कि जब तक परमिट जारी करते समय उचित सावधानी नहीं बरती जाती और उसकी सिफारिशों को लागू नहीं किया जाता, तब तक वन्य जीवों का आयात नहीं करना चाहिए.
‘सीआईटीईएस’ के सचिवालय ने यह स्थगन इस निष्कर्ष पर जारी किया था कि भारत ने कथित तौर पर कुछ जंगली जानवरों के मूल की पुष्टि नहीं की थी, जिन्हें अनंत अंबानी के जामनगर स्थित ‘बचाव-पुनर्वास केंद्र’ वंतारा में आयात किया गया था, लेकिन सरकार ने ज़ोर देकर कहा है कि उसके पास एक “सख्त” और “प्रभावी” अनुपालन तंत्र मौजूद है; सरकार ने कहा कि सीआईटीईएस को अवैध आयात के कोई सबूत नहीं मिले और इसके स्थगन में कानूनी आधार की कमी है. “द वायर” में आथिरा पेरिंचेरी ने इस संबंध में विस्तृत जानकारी दी है.
बिहार में 2003 एसआईआर के आदेश की कॉपी मांगी, लेकिन चुनाव आयोग ने देने से इनकार किया
सामाजिक कार्यकर्ता अंजलि भारद्वाज ने जून में चुनाव आयोग के विशेष गहन पुनरीक्षण (एसआईआर) को लेकर सूचना के अधिकार (आरटीआई) के तहत दो प्रश्न दायर किए थे. दोनों में से किसी से भी कोई उपयोगी जानकारी नहीं मिली, लेकिन आयोग की ओर से भ्रमित करने वाले जवाब ज़रूर प्राप्त हुए.
देशव्यापी एसआईआर आयोजित करने का निर्णय लेते समय चुनाव आयोग ने जिस स्वतंत्र मूल्यांकन या अध्ययन पर भरोसा किया था और उसके पास जो भी संबंधित पत्राचार और रिकॉर्ड उपलब्ध था, उसकी प्रतिलिपि मांगे जाने पर, आयोग ने शुरू में केवल बिहार एसआईआर के लिए अपने दिशानिर्देशों की एक प्रतिलिपि प्रदान की. जब अपील की गई, तो आयोग ने अविश्वसनीय रूप से कहा कि उसने “2025 में पूरे देश में ‘एसआईआर’ शुरू करने का निर्णय अभी तक नहीं लिया है,” भले ही बिहार के दिशानिर्देशों में स्पष्ट रूप से कहा गया कि उसने यह निर्णय लिया है.
बिहार में 2003 के एसआईआर को अधिसूचित करने वाले आदेश की प्रतिलिपि मांगे जाने पर, चुनाव आयोग ने न केवल यह महत्वपूर्ण दस्तावेज़ प्रदान नहीं किया, बल्कि जब अपील की गई तो उसने इस तथ्य के संबंध में आरटीआई अधिनियम की धारा 8(3) का हवाला दिया कि मांगा गया दस्तावेज़ 20 वर्ष से अधिक पुराना है. लेकिन भारद्वाज बताती हैं कि वह धारा “वास्तव में यह बताती है कि अधिनियम के तहत सूचीबद्ध अधिकांश छूटें 20 वर्षों के बाद लागू होना बंद हो जाएंगी. आरटीआई अधिनियम, किसी भी तरह से, 20 वर्ष से अधिक पुरानी जानकारी के खुलासे को छूट नहीं देता है.”
बिना तैयारी एथेनॉल पेट्रोल लागू: भारत ने खाद्य सुरक्षा और पर्यावरण को जोखिम में डाला
भारत सरकार ने पूरे देश में E20 पेट्रोल लागू करने की घोषणा की है. E20 पेट्रोल से मुराद है कि ऐसे ईंधन में 20% एथेनॉल और 80% पेट्रोल शामिल होगा. सरकार का दावा है कि उसने यह लक्ष्य तय समय से पांच साल पहले हासिल कर लिया है. लेकिन विशेषज्ञों का कहना है कि देश के ज़्यादातर वाहन अभी इसके लिए तैयार नहीं हैं. यह रिपोर्ट “आर्टिकल 14” के लिए स्वतंत्र वकील नीलोत्पल दत्ता द्वारा लिखी गई है, जो संवैधानिक और मानवाधिकार से जुड़े मुद्दों पर काम करती हैं.
इस लेख में आशंका जताई गयी है कि, यह कदम बिना पर्याप्त तैयारी और कानूनी प्रक्रिया के उठाया गया है, जिससे देश के करोड़ों वाहन, किसान और उपभोक्ता प्रभावित हो सकते हैं. भारत में दिसंबर 2023 तक लगभग 38.5 करोड़ वाहन पंजीकृत थे, जिनमें करीब 32 करोड़ पेट्रोल पर चलने वाले हैं.
विशेषज्ञों के मुताबिक, अधिकतर वाहन केवल E0 या E10 (10% एथेनॉल तक) के लिए डिजाइन किए गए हैं.
E20 पेट्रोल का उपयोग इन वाहनों के लिए इंजन खराब होने, जंग लगने और माइलेज घटने जैसी समस्याएँ पैदा कर सकता है.
वाहन कंपनियाँ और बीमा कंपनियाँ सतर्क : वाहन निर्माता कंपनियाँ जैसे मारुति, ह्युंडई, किया और जीप ने अपने वारंटी नियमों में स्पष्ट किया है कि E20 पेट्रोल का उपयोग करने पर वारंटी अमान्य हो जाएगी. बीमा कंपनियों ने भी कहा है कि गलत ईंधन के उपयोग से हुए नुक़सान पर कोई बीमा दावा नहीं मिलेगा. वाहन उद्योग संगठन SIAM ने चेतावनी दी है कि पुराने वाहनों को E20 पर चलाना “व्यावहारिक रूप से असंभव” है.
तकनीकी खतरे और माइलेज में गिरावट : एथेनॉल पानी को सोखता है, जिससे इंजन के फ्यूल पाइप, टैंक और धातु के हिस्सों में जंग लगने का ख़तरा बढ़ जाता है. वैज्ञानिक अध्ययनों में पाया गया है कि E20 जैसे उच्च मिश्रण वाले ईंधन से इंजन की उम्र घटती है.
एथेनॉल की ऊर्जा पेट्रोल से कम होती है. E10 से माइलेज लगभग 4% घटता है, जबकि E20 से क़रीब 8% तक होसकता है.
सरकार इसे “मामूली अंतर” कह रही है, लेकिन वाहन मालिकों को हर लीटर पर कम माइलेज मिलेगी.
खेती, पानी और खाद्य सुरक्षा पर असर : एथेनॉल मुख्य रूप से गन्ना, मक्का और चावल से बनता है. एक लीटर एथेनॉल तैयार करने में लगभग 2,860 लीटर पानी लगता है. देश के 548 जिलों में पहले से ही जल संकट है, जिससे स्थिति और बिगड़ सकती है.
2024 में भारत पहली बार मक्का का आयातक देश बन गया, क्योंकि बड़ी मात्रा में मक्का अब एथेनॉल उत्पादन में जा रही है. सरकार ने 2025 में 5.2 मिलियन टन सरकारी चावल एथेनॉल बनाने के लिए दिया, जो लगभग 9 करोड़ लोगों को एक साल का राशन देने जितना है.
कानूनी और प्रशासनिक प्रक्रिया पर सवाल : E20 पेट्रोल लागू करने के लिए कोई नया कानून या संसदीय बहस नहीं हुई है. 2025 में पेट्रोल मानक (IS 2796) में संशोधन कर अब केवल E20 को मानक ईंधन घोषित कर दिया गया है. इस बदलाव के बाद E0 और E10 पेट्रोल बाज़ार से ग़ायब हो गए हैं. तीन याचिकाएँ अदालतों में दायर हुईं, लेकिन दिल्ली हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट ने हस्तक्षेप से इनकार कर दिया है. अब तक संसद में इस नीति पर कोई बहस या जांच नहीं हुई है.
दूसरे देशों से तुलना : अमेरिका में अधिकतर वाहन E10 पर चलते हैं और E15 केवल 2001 या उसके बाद के मॉडल के लिए मान्य है. ब्राज़ील ने 1970 से धीरे-धीरे E20–E30 तक का मिश्रण अपनाया है. यूरोपीय संघ में अधिकतर पेट्रोल E5 या E10 है, और E20 से ऊपर के मिश्रण बहुत सीमित हैं. भारत ने इन देशों के विपरीत, कानूनी ढाँचे या चरणबद्ध तैयारी के बिना सीधे E20 लागू कर दिया.
मेलघाट में कुपोषण से शिशुओं की मौत पर बॉम्बे हाईकोर्ट की सख़्त फटकार: सरकार का रवैया बेहद लापरवाह
बॉम्बे हाईकोर्ट ने बुधवार को केंद्र और महाराष्ट्र सरकार को राज्य के जनजातीय इलाकों में कुपोषण से शिशुओं की मौतों पर “बेहद लापरवाह रवैया” अपनाने के लिए कड़ी फटकार लगाई. अदालत ने कहा कि सरकार की इस निष्क्रियता ने वर्षों पुरानी समस्या को और गहरा कर दिया है.
“द हिंदू” के मुताबिक, महाराष्ट्र के ज़िला अमरावती के मेलघाट क्षेत्र में शिशु मृत्यु और कुपोषण से जुड़ी कई याचिकाओं पर सुनवाई के दौरान न्यायमूर्ति रेवती मोहिते डेरे और न्यायमूर्ति संदीश पाटिल की खंडपीठ ने स्थिति को “हृदयविदारक” बताया और कहा कि “सरकार को इस पर गहरा विमर्श करने की ज़रुरत है.
मेलघाट में बड़ी जनजातीय आबादी रहती है और यह कुपोषण से हुई पहली मौत नहीं है. यहाँ के लोगो के लिए
कुपोषण लंबे समय से गंभीर समस्या बना हुआ है. जून 2025 से अब तक 0 से 6 महीने की उम्र के 65 शिशुओं की मौत कुपोषण के कारण हुई है.
अदालत ने कहा कि 2001 से अब तक कई आदेश जारी होने के बावजूद स्थिति जस की तस है, क्योंकि सरकार ने उन आदेशों को लागू करना मुनासिब नहीं समझा है. वहीं, राज्य सरकार ने अदालत में दावा किया कि मौतों का कारण कुपोषण नहीं, बल्कि निमोनिया है. जिस पर सरकार की जानिब से कोई जवाब अदालत के समक्ष नहीं रखा गया.
अदालत ने कहा, “यह आपकी गंभीरता को दिखाता है. आपका रवैया बेहद लापरवाह है और कई सवालों के जवाब अब भी बाक़ी हैं।”राज्य सरकार द्वारा पेश दस्तावेज़ों पर टिप्पणी करते हुए अदालत ने कहा,“सब कुछ कागज़ों पर अच्छा लगता है, लेकिन ज़मीनी हक़ीक़त इससे बहुत अलग है.
“ब्लू ब्यूटी” या “ओशन-फ्रेंडली”: क्या पर्यावरण के लिए सुरक्षित हैं ये प्रोडक्ट्स, या सिर्फ मार्केटिंग का छलावा?
आजकल पर्सनल केयर इंडस्ट्री अपने प्रोडक्ट्स को “ओशन-फ्रेंडली”, “रीफ-सेफ” और “ग्रीन ब्यूटी” जैसे शब्दों से बेच रही है, लेकिन असलियत में इन दावों के पीछे कोई ठोस नियम या मानक मौजूद नहीं हैं. कई विशेषज्ञों का कहना है कि कंपनियाँ “पर्यावरण संरक्षण” के नाम पर छल कपट कर रही है.
यह लेख Earth • Food • Life परियोजना द्वारा प्रकाशित किया गया है. लेखिका केट पेटी, जो एक शिक्षिका, लेखिका, योग प्रशिक्षिका और सामाजिक कार्यकर्ता हैं, इस लेख में बताती हैं कि कैसे बड़ी-बड़ी कंपनियाँ “पर्यावरण-फ्रेंडली” टैगलाइन और ग्रीन ब्रांडिंग का इस्तेमाल कर उपभोक्ताओं को भ्रमित करती हैं। वे बताती हैं कि इन आकर्षक नारों और समुद्र-सुरक्षा के दावों के पीछे अक्सर कोई ठोस पर्यावरणीय प्रतिबद्धता नहीं होती, और कई बार ये उत्पाद खुद ही पर्यावरण और समुद्री जीवन के लिए हानिकारक साबित होते हैं.
कोरल रीफ्स, जो पृथ्वी की समुद्री जैव विविधता के लिए बेहद ज़रूरी हैं, कुपोषण, रासायनिक सनस्क्रीन और माइक्रोप्लास्टिक्स से बुरी तरह प्रभावित हो रहे हैं. अध्ययनों से पता चला है कि सनस्क्रीन में मौजूद केमिकल्स, जैसे ऑक्सिबेंज़ोन और ऑक्टिनोक्सेट, कोरल को नुक़सान पहुंचाते हैं. कई ब्रांड “रीफ-सेफ” या “ओशन-सेफ” टैग लगाकर उत्पाद बेचते हैं,विशेषज्ञों का कहना है कि यह शब्द अक्सर भ्रामक होते हैं. कई “मिनरल-बेस्ड” प्रोडक्ट्स में मौजूद नैनोपार्टिकल्स भी समुद्री जीवों बुरी तरह क्षति पहुंचते हैं. इसी तरह अब कई कंपनियाँ “ब्लूवॉशिंग” यानी समुद्र संरक्षण के नाम पर झूठे दावे कर रही हैं. वे “ग्रीन पैकेजिंग” दिखाकर उपभोक्ताओं को यह विश्वास दिलाती हैं कि उनका प्रोडक्ट पर्यावरण के लिए हानिकारक नहीं है. लेकिन हक़ीक़त इसके बरअक्स है, दरअसल यह सब ब्रांडिंग की चाल है, जो उपभोक्ताओं को “अच्छा महसूस” कराने के लिए बनाई गई है.
अमेरिका में ओशन-सेफ प्रोडक्ट्स के लिए कोई संघीय मानक या नियम नहीं है. कई कंपनियों, जैसे बनाना बोट, टारगेट, सन बर्न पर भ्रामक “रीफ-फ्रेंडली” लेबलिंग के लिए मुक़दमे भी चल चुके हैं.
अपील :
आज के लिए इतना ही. हमें बताइये अपनी प्रतिक्रिया, सुझाव, टिप्पणी. मिलेंगे हरकारा के अगले अंक के साथ. हरकारा सब्सटैक पर तो है ही, आप यहाँ भी पा सकते हैं ‘हरकारा’...शोर कम, रोशनी ज्यादा. व्हाट्सएप पर, लिंक्डइन पर, इंस्टा पर, फेसबुक पर, यूट्यूब पर, स्पोटीफाई पर , ट्विटर / एक्स और ब्लू स्काई पर.







