15 नवम्बर 2024: मैली गंगा और महाकुम्भ सामने, मणिपुर में आफ्स्पा फिर से, दुनिया का हर चौथा डायबेटिक भारत में, चुनावी सर्वेक्षणों की पोलखोल, राष्ट्रवाद और देशभक्ति ऑर्वेल की निग़ाह में
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निधीश त्यागी, साथ में राजेश चतुर्वेदी, मज़कूर आलम, गौरव नौड़ियाल
सुर्खियाँ: गृह मंत्री अमित शाह ने देश को आश्वस्त किया था कि मणिपुर अब शांति के रास्ते पर है. इन दिनों जब वे चुनावों में व्यस्त हैं, बृहस्पतिवार को उनके मंत्रालय ने इम्फाल घाटी के ज्यादातर इलाकों में आर्म्ड फोर्सेस (स्पेशल पॉवर्स) एक्ट (आफ्सपा) फिर से लागू कर दिया. केंद्रीय सशस्त्र पुलिस बल की 20 और कंपनियाँ वहाँ तैनात कर दीं. इसके अलावा असम से 15 केंद्रीय रिजर्व पुलिस बल कंपनियां और त्रिपुरा से 15 सीमा सुरक्षा बल कंपनियाँ वहाँ भेजी जा रही हैं. आफ्स्पा इम्फाल घाटी से 2022 में हटा दिया गया था. इस बीच मैती समुदाय के जिरीबाम से गायब तीन औरतों और तीन बच्चों के अभी तक कोई सुराग़ नहीं मिले हैं. राज्य के पहाड़ी इलाकों पर पूरी तरह से बंद रहा, जबकि घाटी का इलाका बुधवार को बंद था. मणिपुर की हालत तनावग्रस्त बताई जा रही है.

इस बीच प्रधानमंत्री झारखंड और महाराष्ट्र में चुनाव प्रचार करते दिखलाई दिये. औरंगाबाद में उन्होंने विपक्ष को “औरंगजेब को मानने वाले” बताया और झारखंड में उनका निशाना “घुसपैठियों की पूजा करने वालों” पर रहा. इस तरह के भाषणों और मोदी सरकार की इसी तरह के बाकी हरकतों पर अमेरिकी कांग्रेशनल रिसर्च सर्विस ने भारत में धार्मिक स्वतंत्रता पर एक और आलोचना से भरी रिपोर्ट जारी की. इसका पीडीएफ यहाँ है. इसमें अमेरिका स्थित एनजीओ हिंदुत्व वॉच का हवाला देते हुए कहा गया है कि 2023 की पहली छमाही में वैमनस्य से भरे भाषणों में से ज्यादातर यानी 80% भारतीय जनता पार्टी शासित राज्यों और केंद्रशासित प्रदेशों में दिये गये. इसमें से 29% भाषण सिर्फ महाराष्ट्र में दिये गये. रिपोर्ट में यह भी लिखा है कि आधे से ज्यादा मामले आरएसएस से जुड़े संगठनों के आयोजन थे और एक तिहाई आयोजनों में खुले आम मुस्लिमों के खिलाफ हिंसा का आह्वान किया गया.
आतंकवाद की आरोपी साध्वी प्रज्ञा ठाकुर के खिलाफ गिरफ्तारी का एक और बेलेबल वारंट जारी हो गया है.
यूपीपीएससी परीक्षा एक ही पाली में होगी: प्रयागराज में उत्तर प्रदेश लोक सेवा आयोग की परीक्षाओं के अभ्यर्थियों का विरोध प्रदर्शन पिछले चार दिनों से जारी है. इस बीच प्रदर्शनकारियों की एक प्रमुख मांग राज्य सरकार ने मान ली है. सरकार ने घोषणा की है कि वह प्रांतीय सिविल सेवा परीक्षा (पीसीएस) की प्रारंभिक परीक्षा एक ही पाली में आयोजित करेगी. इन चार दिनों में उत्तर प्रदेश पुलिस ने विरोध प्रदर्शन के दौरान कथित बर्बरता के लिए 12 लोगों के खिलाफ प्राथमिकी दर्ज की है. यूपीपीएससी के अभ्यर्थी इस साल परीक्षा को दो दिनों में विभाजित करने के राज्य लोक सेवा आयोग के फैसले का विरोध कर रहे हैं. परीक्षाएं 7 और 8 दिसंबर को दो पालियों में आयोजित होने वाली थी. हालांकि, प्रदर्शनकारियों ने कहा कि जब तक उनकी सारी मांगें पूरी नहीं हो जातीं, वे आंदोलन जारी रखेंगे.
मप्र उपचुनाव के दौरान दलित बस्ती में लगाई गई आग, अंबेडकर की प्रतिमा तोड़ी : श्योपुर जिले के विजयपुर में विधानसभा उपचुनाव के बाद भयानक तनाव है. बुधवार देर रात गोहटा गांव में करीब 200 दबंगों ने दलित बस्ती में उत्पात मचाया. पथराव, आगजनी और बिजली के खंभे तो तोड़े ही, साथ में डॉक्टर भीमराव अंबेडकर की प्रतिमा भी तोड़ दी. यह घटनाएं वोटिंग के दौरान के विवाद का परिणाम बताई जा रही हैं. इस दौरान दबंगों ने पहले पथराव किया फिर 4 कच्चे घरों, ट्रांसफॉर्मर और 4-5 बिजली पोल समेत पशुओं के चारे को आग के हवाले कर दिया.
कर्नाटक के मुख्यमंत्री सिद्दारमैया ने आरोप लगाया है कि उनकी सरकार गिराने के लिए विपक्षी भारतीय जनता पार्टी ने 50 कांग्रेस विधायकों को 50 करोड़ रूपये हरेक को देने की पेशकश की. भाजपा ने इस आरोप के सुबूत मांगे हैं.
अमेरिकी संघीय व्यापार आयोग ने मेटा प्लेटफॉर्म्स पर मुकदमा किया है. इसमें दावा किया गया है कि उसने सोशल मीडिया में उभरती प्रतिस्पर्धा को कुचलने के लिए इंस्टाग्राम और व्हाट्सएप को खरीदा है.
मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला के यह कहने के बाद भी कि पत्रकारों के साथ ज्यादती नहीं की जाएगी, चिनाब टाइम्स को जम्मू कश्मीर प्रशासन ने उस वीडियो रिपोर्ट के लिए धमकाया, जिसमें एक कार्यकर्ता रहमुतल्लाह के पीएसए के तहत गिरफ्तारी के मामले में जारी की गई थी. वीडियो में एक फोन काल रिकार्डिंग है, जिसमें रहमतुल्लाह का भाई कह रहा है कि रहमतुल्लाह के आतंकवादियों से रिश्ते की बात गलत है और यह मामला इसलिए बनाया गया क्योंकि वह नगर प्रशासन के खिलाफ आवाज़ ऊंची कर रहा था. द वायर में जहांगीर अली की पूरी रिपोर्ट.
एबीपी की नयनिमा बसु को दिये गये इंटरव्यू में चीनी विदेश मंत्रालय के अधिकारी ने माना कि ‘सीमा का मसला दोनों देशों के लिए महत्व का तो है, पर उससे दोनों देशों के संबंध पूरी तरह बंधक नहीं बन सकते क्योंकि संभावनाएं इतनी सारी हैं. काज़ान में बातचीत से साफ है कि द्विपक्षीय रिश्ते सकारात्मक दिशा में जा रहे हैं. हालांकि सीमा का मसला और तेजी से सुलझाया जाना चाहिए. एक बार जब डिसइन्गेजमेंट की प्रक्रिया पूरी हो जाएगी और कदम उठाए जाएंगे.’ इसी अधिकारी ने भारत पर सीमा के मसले पर अपनी स्थिति बदलते रहने का आरोप भी लगाया, ‘ भारत तीन लाइनों को मानता है- मैकमोहन लाइन, वास्तवविक नियंत्रण रेखा और वह, जहाँ भारतीय सेना इस समय है. चीन सिर्फ 1959 के दावे वाली रेखा को मानता है. ‘हमारे लिए वही रेखा हमेशा से है जो प्रधानमंत्री चाऊ एन लाई ने प्रस्तावित की थी. हमारे लिए वही एक लाइन है.’
ढाका ट्रिब्यून के मुताबिक ढाका हाई कोर्ट में एक याचिका दायर हुई है जिसके मुताबिक अडानी समूह के साथ किये गये सारे बिजली सप्लाई करार रद्द कर दिये जाने चाहिए. इस बीच अडानी ने डोनल्ड ट्रम्प को चुनाव जीतने की बधाई के साथ अमेरिकी इनर्जी सिक्योरिटी में 10 बिलियन डॉलर लगाने का प्रस्ताव भी दे डाला है, जिससे अमेरिका में 15000 नौकरियों के अवसर पैदा होंगे.
मुस्लिम आबादी के बारे में एक और भ्रामक पोस्ट: एक पोस्ट सोशल मीडिया में वायरल है. शायद आपके पास भी आया हो. वर्तमान समय में मुस्लिम समुदाय की प्रजनन दर 4.4 है, जबकि हिंदुओं का सिर्फ 1.94 है. फैक्ट चैकिंग प्लेटफॉर्म बूम लाइव ने अपनी जांच में पाया कि वायरल पोस्ट में 1992-93 की मुस्लिम प्रजनन दर को हिंदू, सिख, ईसाई, जैन और बौद्ध धर्म के 2019-21 के आंकड़ों के साथ जोड़ा गया है. हिंदुओं और मुसलमानों की वर्तमान प्रजनन दर क्रमशः 1.94 और 2.36 है, जबकि सिखों, ईसाइयों, जैनियों और बौद्धों के लिए यह दर वर्तमान में क्रमशः 1.61, 1.88, 1.6, 1.39 है. साथ ही पोस्ट में प्रजनन दर के आंकड़े का हवाला देते हुए कहा गया है कि देश में जल्द से जल्द 'जनसंख्या नियंत्रण कानून' क्यों जरूरी है.
श्रीलंका में चुनाव: श्रीलंका में गुरुवार को संसद के 225 सीटों के लिए वोटिंग हुई. महज दो महीने पहले देश की अर्थव्यवस्था चरमराने के बाद हुए राष्ट्रपति चुनाव में जनता विमुक्ति पेरामुना के अनुरा कुमारा दिसानायके ने जीत हासिल की थी. राष्ट्रपति दिसानायके के पास पिछली संसद में महज तीन सीटें थीं. सरकार को 225 सदस्यीय सदन में साधारण बहुमत के लिए 113 सीटें प्राप्त हासिल करनी होंगी. इस चुनाव में विभिन्न राजनीतिक दलों और स्वतंत्र उम्मीदवारों को मिलाकर कुल 8,821 प्रत्याशी मैदान में हैं.
भारत माता की मूर्ति पर फैसला: मद्रास हाईकोर्ट ने तमिलनाडु पुलिस को भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) कार्यालय से 'भारत माता' का प्रतिनिधित्व करने वाली हटाई गई मूर्ति वापस करने को कहा है. हाईकोर्ट ने कहा कि निजी स्थान पर मामलों को नियंत्रित करना राज्य का काम नहीं है और भारत माता की मूर्ति हटाना उनका अपमान करने जैसा है.
संख्यात्मक : 21 करोड़ 20 लाख
संख्या है भारत में डायबिटीज के मरीज़ों की
लांसेट के मुताबिक भारत में डायबेटिक आबादी 1980 के मुकाबले 2022 तक 10-12 % तक बढ़ चुकी है. दुनिया का हर चौथा डायबेटिक भारत में हैं. भारत के 21.4% मर्द और 23.7% औरतें डायबेटिक हैं. रिपोर्ट में चिंता जताई है कि ज्यादातर लोग इसके इलाज तक नहीं पंहुच पाते हैं. दुनिया के 30% डायबिटीज मरीज जिन्हें इलाज नहीं मिल पाता, भारत में रहते हैं. बनजोत कौर की द वायर में इसकी विस्तृत रिपोर्ट पढ़ी जा सकती है. विस्तृत पीडीएफ यहां पर.
ऐतिहासिक रूप से भारत मधुमेह की राजधानी रहा है. इसकी पुष्टि एक बार फिर तब हुई जब 13 नवंबर को शुगर को लेकर लॉन्सेट की ताजा रिपोर्ट आई. अध्ययन अनुसार, पिछले चार दशक में भारत में मधुमेह की बीमारी बहुत तेजी से बढ़ी है. 80 के दशक में जहां 10 में 1 शुगर के मरीज होते थे तो अब हर पांचवां व्यक्ति मधुमेह की चपेट में है. आंकड़ों में देखें पिछले चार दशक में स्थिति कितनी भयावह हुई है.
1980 के दशक में भारत में भारत में पुरुषों और महिलाओं में मधुमेह की दर करीब 10% के आसपास थी.
2022 में यह 10-12 प्रतिशत बढ़ गई.
ताजा अध्ययन में भारत में कुल 21 करोड़ 2 लाख लोग शुगर पीड़ित हैं.
दुनियाभर के कुल मामलों का 26% अकेले भारत में है
किसी भी देश के अनुपात से ज्यादा पीड़ित भारत में हैं.
चिंताजनक यह है कि देश के अधिकतर मधुमेह रोगियों को इलाज नहीं मिलता.
अध्ययन के अनुसार, इस बीमारी से पीड़ित केवल 27.8% महिलाओं को इलाज मिलता है.
वहीं सिर्फ 29.3% पुरुषों को उपचार मिलता है.
पिछले चार दशक में भारत में मधुमेह के रोगियों की संख्या तो तेजी से बढ़ी, मगर इलाज उस अनुपात में नहीं मिला.
80 के दशक में भी महज 21.6% महिलाओं और 25.3% पुरुषों को उपचार उपलब्ध था.
करीब 30% इलाजरहित मरीज भारत में हैं, यानी 13 करोड़ 30 लाख मरीज.
दूसरे स्थान पर चीन है. वहां 7.8 करोड़ लोगों को इलाज नहीं मिलता.
पाकिस्तान में 2.4 करोड़ मधुमेह मरीज को इलाज नहीं मिलता.
वहीं इंडोनेशिया में उपचार न मिलने वाले मधुमेह मरीजों की संख्या 1.8 करोड़ है.
महाकुम्भ सामने और गंगा आचमन लायक नहीं
इलाहाबाद से प्रयागराज होने के बाद भी गंगा में करीब 1283 लाख लीटर बिना साफ किया गया सीवेज का पानी रोज़ गंगा में जा मिलता है. और महाकुंभ अगली जनवरी है. विवेक मिश्रा ने डाउन टू अर्थ में एक लम्बी तफ्तीश की है. जो थोड़ा विज्ञान और हकीकत जानते हैं, उनके मुताबिक यह पानी ‘आचमन योग्य’ नहीं है. और गंगा के पानी में प्रदूषण नियंत्रण, और सफाई के मामले की सुनवाई नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल में चल रही है, जिसकी आखिरी सुनवाई जस्टिस प्रकाश श्रीवास्तव के सामने 6 नवम्बर 2024 को हुई.
उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा दायर रिपोर्ट में कहा गया है कि प्रयागराज में रोज 4683 लाख लीटर सीवेज रोज निकलता है, जबकि सीवेज साफ करने की क्षमता 3400 लाख लीटर की ही है.
इसलिए करीब 1283 लीटर बिना साफ हुए ही गंगा में प्रवाहित हो जाता है.
25 नाले सीधे गंगा में खुलते हैं. 15 यमुना मेंं.
प्रयागराज में 10 सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट हैं, जिनमें से 9 चालू हालत में तो हैं, पर अपनी पूरी क्षमता पर काम नहीं कर पाते. एक बंद पड़ा है.
माधवी बुच को बचाने के लिए सेबी का सूचना देने से इनकार! पहले जवाबदेही के सवाल थे, अब पारदर्शिता के
माधवी पुरी बुच के बारे में एक आरटीआई का जवाब न देकर स्ट़ॉक एंड एक्सचेंज बोर्ड ऑफ इंडिया (सेबी) बता रहा है कि जिस जवाबदेही और पारदर्शिता की उम्मीद स्टॉक मार्केट में उतरने वाली कंपनियों से की जाती है, वह खुद सेबी पर लागू नहीं होती. पारदर्शिता सेबी के लिए एक केंद्रीय मुद्दा है, क्योंकि वह भारत का प्रमुख बाजार नियामक है. सेबी की भूमिका निवेशकों के हितों की सुरक्षा करना और वित्तीय बाजारों में उचित प्रथाओं को बढ़ावा देना है. भारत में खुदरा निवेशकों की संख्या बढ़ने के साथ, पारदर्शिता और नियामक निष्पक्षता और भी महत्वपूर्ण हो गई है, क्योंकि लाखों नए निवेशक SEBI की निगरानी पर निर्भर हैं.
द वायर में पवन कारोडा ने इसपर लम्बी रपट लिखी है. इसके मुताबिक अगस्त 2024 में ने यह दावा किया गया कि इसकी अध्यक्ष माधवी पुरी बुच, "संभावित हितों के टकराव से संबंधित मामलों से खुद को हटा लिया था." यह बयान अमेरिकी शॉर्ट-सेलर हिन्डनबर्ग रिसर्च द्वारा लगाए गए आरोपों के जवाब में था, जिसमें दावा किया गया था कि बुच के अडानी ग्रुप से जुड़ी ऑफशोर संस्थाओं से संबंध थे. SEBI के बयान के बाद, एक सूचना का अधिकार अनुरोध दाखिल किया गया, जिसमें बुच द्वारा हितों के टकराव के कारण खुद को हटा लेने वाले मामलों की जानकारी मांगी गई. सेबी ने जवाब दिया कि बुच के ‘रेक्यूजल’ पर जानकारी "तत्काल उपलब्ध नहीं है" और इसे इकट्ठा करने में खासा खर्चा आएगा. सेबी की इस दलील का आधार सूचना का अधिकार अधिनियम की धारा 7(9) थी.
अगस्त 2024 में, जब SEBI की जांच जारी थी, हिन्डनबर्ग ने एक फॉलो-अप रिपोर्ट प्रकाशित की, जिसमें उसने ध्यान केंद्रित किया कि अब अदानी से हटकर SEBI खुद पर आरोप लगा रही थी. रिपोर्ट में यह आरोप लगाया गया था कि SEBI की अध्यक्ष बुच के पास अदानी नेटवर्क से जुड़े ऑफशोर फंडों से अव्यक्त संबंधों के कारण संभावित हितों का टकराव हो सकता है. हिन्डनबर्ग ने दावा किया कि बुच और उनके पति ने ऐसे फंडों में हिस्सेदारी रखी थी, जिन्हें विनोद अदानी, अदानी ग्रुप के अध्यक्ष गौतम अदानी के भाई, द्वारा फंड ट्रांसफर और स्टॉक कीमतों पर प्रभाव डालने के लिए इस्तेमाल किया जाता था.
पारदर्शिता के समर्थक, कमोडोर लोकेश बत्रा (अवकाश प्राप्त) ने सेबी के द्वारा धारा 7(9) के उपयोग की आलोचना की और इसे सूचना का खुलासा न करने के लिए एक तरीका बताया. "धारा 7(9) को कभी भी सूचना की पहुंच को रोकने के लिए ढाल के रूप में नहीं इस्तेमाल किया गया था," उन्होंने कहा. "यह संसाधन प्रबंधन के लिए एक व्यावहारिक उपाय है, न कि महत्वपूर्ण सार्वजनिक हित मामलों पर जानकारी को छिपाने का तरीका."
विवेचना: साख खोने के बाद भी बजते रहेंगे चुनावी सर्वेक्षणों के झुनझने?
राजेश चतुर्वेदी
तो, 20 नवम्बर की शाम हमको एक बार फिर “शोर” सुनने की तैयारी कर लेना चाहिए. दो राज्यों, महाराष्ट्र और झारखंड में विधानसभा चुनाव इस माह के तीसरे सप्ताह में 20 तारीख को निपट जाएंगे. शाम को मतदान समाप्त होते ही एग्जिट पोल्स के नतीजे आने लगेंगे और अगले तीन दिन देश इसी शोर में डूबा रहेगा. बावजूद इसके कि सबने हाल के एग्जिट पोल्स के नतीजों का हश्र देखा. लेकिन एग्जिट पोल्स कितना मानसिक प्रभाव डालते हैं, 2 जून को गोरखपुर के चिड़िया घर की उस तस्वीर से समझा जा सकता है, जिसमें उत्तरप्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ गैंडों को खुशी-खुशी केला खिलाते नज़र आए थे. ऐसी ही तस्वीर मार्च 2022 में भी देखने में आई थी, लेकिन तब राज्य विधानसभा के नतीजे आ चुके थे और योगी दोबारा कुर्सी संभाल चुके थे. लोकसभा चुनाव में 1 जून की शाम एग्जिट पोल्स के नतीजे आए और सबने कहा कि उत्तरप्रदेश में भाजपा को 62-72 सीटें मिलेंगी. जाहिर है, योगी गैंडों-बाघ के पास गोरखपुर के चिड़ियाघर पहुंच गए. पर 4 जून को वोटों की गिनती में भाजपा को मिलीं 33 सीटें. पिछली बार से 30 कम. एग्जिट पोल्स का यही सच है?
इस संख्या पर गौर करें- “96 करोड़ 88 लाख”. इतने ही मतदाता थे इस बार के आम चुनाव में. लगभग अमेरिका, रूस, जापान, ब्रिटेन, फ्रांस, ब्राजील और बेल्जियम की आबादी के बराबर. हम अगर इस संख्या को एक बार पढ़ें और दोबारा मन ही मन दोहराएं तो सवाल उठेगा कि जिस चुनाव में 96 करोड़ 88 लाख आबादी को मतदान का अधिकार हो, वहां गणित का ऐसा कौन सा सूत्र हो सकता है, जो दुनिया की सबसे बड़ी लोकतांत्रिक प्रक्रिया, “आम चुनाव” का ठोस फलित बता सके. खासकर, ऐसी आबादी जो नाना प्रकार की विविधताओं से संपन्न हो. माने, कहीं रोटी सीधे तवे पर सेंकी जाती हो और कहीं उलटे तवे पर. और कहीं खाई ही न जाती हो. मध्यप्रदेश के मालवा इलाके के लिए प्रचलित मशहूर कहावत “पग-पग रोटी डग-डग नीर” पूरे देश पर लागू होती है ; और इसी से यह समझने की जरूरत है कि जिस देश में कदम-कदम पर खाना-पानी, बोली-बानी, बाना-ताना से लेकर आना-जाना, मुद्दे-मसले सबकुछ परिवर्तनशील हों, वहां, आप किसी के मन को पढ़ने की कोशिश तो कर सकते हैं, पर एकदम सही-सही पढ़ नहीं सकते. ऐसा भी नहीं है कि हर बार आप गलत ही हों. कभी-कभी आपका पढ़ा सही भी निकल सकता है. मगर यह तुक्के से ज्यादा कुछ नहीं. वजह, तुक्के बार-बार नहीं लगा करते. तुक्के का क्या है- लगा तो लगा, नहीं लगा तो नहीं लगा. किसी बात का कोई मलाल नहीं. इसीलिए तुक्का लगाने वाले मातम मनाते नहीं देखे जाते. फूट-फूट कर रोते तो कतई ही नहीं. लेकिन सेफोलॉजी राजनीतिक विज्ञान की एक शाखा है. इसे तुक्काबाजी की तरह नहीं लिया जाना चाहिए.
सेफोलॉजी के अंतर्गत चुनावों और मतदान का संख्यात्मक विश्लेषण किया जाता है. बशर्ते, यह काम वैज्ञानिक पद्धति का उपयोग कर “ईमानदारी” के साथ किया जाए. वैज्ञानिक पद्धति और ईमानदारी, दोनों इसके महत्वपूर्ण टूल्स हैं. इनके बगैर नतीजे सही या सही के नजदीक आ ही नहीं सकते. यही कारण है कि जब भी एग्जिट पोल्स गलत होते हैं तो जनमानस में कई शंकाएं उत्पन्न होती हैं और इस पूरी विधा की विश्वसनीयता पर सवाल खड़े होते हैं. यह सवाल भी उठता ही है कि एग्जिट पोल्स किए ही क्यों जाते हैं? इस कवायद से आखिर लाभ किसको होता है? कौन होता है इसका असली लाभार्थी?
याद है, छह माह पूर्व तमाम एग्जिट पोल्स कितने औंधे मुंह गिरे. पूरी दुनिया में किरकिरी हुई. ऐसे ही 2004 के चुनाव में बुरी तरह पिटे थे एग्जिट पोल्स. तो क्या यह मान लिया जाना चाहिए कि 2004 में “फील गुड फैक्टर” और इस बार के चर्चित नारे “अबकी बार 400 पार” के आलिंगन में आए थे एग्जिट पोल्स? हरियाणा विधानसभा चुनाव तो हाल ही में निपटे हैं. याद करें, क्या कहा था एग्जिट पोल्स ने? किसकी एकतरफा सरकार बनवाई थी?
नवम्बर 2023 में छत्तीसगढ़ और मध्यप्रदेश के विधानसभा चुनावों के साथ भी यही कहानी थी. विशेषकर, छत्तीसगढ़ में जिसे देखो, कांग्रेस की सरकार बनवा रहा था. मध्यप्रदेश में भी कांग्रेस को बढ़त बताई गई थी. लेकिन परिणाम क्या आए? दोनों ही राज्यों में कांग्रेस की हसरतें दफ़न हो गईं. हरियाणा के चुनाव नतीजों के बाद चुनाव आयोग, स्वयं जिसकी भूमिका सवालों के घेरे में है, के मुख्य चुनाव आयुक्त राजीव कुमार भी एग्जिट पोल्स पर प्रश्न उठा चुके हैं. उन्होंने कहा था कि एग्जिट पोल्स हम गवर्न नहीं करते, लेकिन जो करते हैं उन्हें इस पर आत्म चिंतन करने की जरूरत है कि सैंपल साइज़ क्या था, सर्वे कहां हुआ, उसका रिजल्ट कैसा आया, अगर रिजल्ट मैच नहीं किया तो कोई उत्तरदायित्व बनता है या नहीं? हालांकि, कई लोगों को राजीव कुमार के इस अंदाज़ पर हैरानी हो सकती है.
केरल से आने वाले कांग्रेस सांसद शशि थरूर ने पिछले आम चुनाव (2019) में ही बताया था कि भारत में 56 बार एग्जिट पोल्स गलत साबित हो चुके हैं. मतलब, 2024 के चुनाव में पहली बार नहीं हो रहा था ऐसा, बावजूद इसके एक साहब को एक टीवी चैनल के स्टूडियो में सुबक सुबक कर रोना पड़ता है!
और फिर, प्रश्न तो यह भी है कि यदि सचमुच मन पढ़कर नतीजा घोषित किया जा सकता, या बताया जा सकता कि कौन जीतेगा और कौन नहीं ; तो चुनाव कराकर जनता के हजारों करोड़ फिजूल खर्च करने की जरूरत ही क्या है? फिर, अब तो हमारे पास हाल के वर्षों में प्रकट हुए “माइंड रीडिंग” करने वाले ऐसे बाबा भी हैं, जिनकी कीर्ति दुनिया भर में दूर दूर तक फैल रही है. जो चेहरा देखकर झट किसी का भी कच्चा-पक्का चिट्ठा खोल देते हैं. आपके मन में क्या है, कागज पर पहले से लिखकर रखते हैं और दरबार में सबके सामने आपसे तस्दीक भी करवाते हैं. इससे बेहतर “प्रौद्योगिकी कौशल” कहां मिलेगा? आश्चर्य नहीं, किसी कुपढ़ दिमाग में यह कल्पना कौंध रही हो और आगे वन नेशन वन इलेक्शन की तर्ज पर “वन पोलिंग वन बाबा” की व्यवस्था की मांग भी सुनने को मिल जाए! वोटर वोट डालकर निकले और बाबा उसका मन पढ़कर इंस्टेंट बता दें कि किसको वोट दिया है! वोटों की गिनती का झंझट न सेफोलॉजिस्ट का रोना-धोना. सब एक झटके में खत्म. जरा सोचिए, अगर ऐसा हो जाए तो फिर चुनाव की जरूरत भी क्या रहेगी. सिर्फ बाबाओं के कौशल उन्नयन को बढ़ाना होगा. बड़ी संख्या में बाबा कौशल उन्नयन केंद्र खोलना होंगे!
स्मार्ट बिजली मीटर विरोध में किसानों का आंदोलन टिकैत के बगैर ही जोर पकड़ गया
उत्तर प्रदेश में स्मार्ट बिजली मीटर के खिलाफ किसानों और मजदूरों का संयुक्त विरोध बड़ा आकार ले रहा है. 'संयुक्त किसान मोर्चा' से जुड़े किसान संगठन ‘किसान एकता केंद्र’ के बैनर तले हाल ही में किसानों ने पश्चिमी उत्तर प्रदेश के 3 जिलों मेरठ, बागपत और शामली में बड़ा प्रदर्शन किया था, जिसमें हजारों किसान शामिल हुए. ये ख़बरें स्थानीय मीडिया मसलन ‘जनवाणी’ ने तो प्रकाशित की, लेकिन इलाके के बड़े अख़बारों ने इसे जगह नहीं दी. स्मार्ट बिजली मीटरों का सम्बन्ध अडानी की कंपनी से जुड़ा है और इस स्मार्ट मीटर योजना के खिलाफ यूपी, बिहार, उत्तराखंड और महाराष्ट्र समेत कई जगहों पर विरोध हो चुका है. हमने ‘हरकारा’ के 13 नवम्बर के अंक पर इस पर एक विस्तृत रिपोर्ट पूर्व में की है.
अब खबर आ रही है कि किसान इसी मुद्दे पर 26 नवम्बर को ‘किसान एकता केंद्र’ के बैनर तले मुज़फ्फरनगर में बड़े प्रदर्शन की तैयारी कर रहे हैं. इस आंदोलन से जुड़े अमरपाल बताते हैं कि किसान स्मार्ट मीटर का विरोध कर रहा है और इसे इलाके में नहीं लगने दिया जाएगा. इसके पीछे वो बेहिसाब बढे हुए बिजली बिलों का हवाला देते हैं. किसानों ने अपनी इस लड़ाई में पश्चिम उत्तर प्रदेश के बड़े नेता और संयुक्त किसान मोर्चा से जुड़े राकेश टिकैत से भी 3 दफा समर्थन माँगा, लेकिन उन्होंने इस मामले में दिलचस्पी नहीं दिखाई.
किसानों की स्मार्ट मीटर बंद की मांग पर टिकैत चुप रहे और इसके बजाय देहरादून-दिल्ली हाइवे पर कट मांगने के मुद्दे को हवा देते रहे. किसानों का मानना है कि टिकैत ध्यान भटका रहे हैं, लिहाजा उन्होंने अपनी राहें टिकैत से पश्चिम उत्तर प्रदेश में अलग कर ली हैं. टिकैत के बगैर ही इस इलाके में तीन बड़े प्रदर्शन भी यही इशारा करते हैं.
जब टिकैत ने इस लड़ाई से हाथ खींचा तब, 'किसान एकता केंद्र' जैसा संगठन सामने आया और उसने इस आंदोलन की कमान अपने हाथ में ले ली. ये संगठन ‘संयुक्त किसान मोर्चा’ से ही जुड़ा हुआ है. पश्चिम उत्तर प्रदेश के कई किसान लम्बे वक़्त से इलाके में ऐसा मंच भी तलाश रहे थे, जिसका सरोकार सीधे या अप्रत्यक्ष तौर पर सरकार से न जुड़ा हो और किसानों के मुद्दे पर ही काम करता हो.
‘किसान एकता केंद्र’ के राष्ट्रीय अध्यक्ष डॉ. संजीव तोमर ने बताया कि किसानों की मांगों में बिजली के निजीकरण समेत प्रीपेड स्मार्ट मीटर पर रोक, सिंचाई के लिए बिना शर्त फ्री बिजली, 300 यूनिट घरेलू बिजली फ्री देने का वादा पूरा करने, बिजली निजीकरण बिल 2022 वापस लेने ,बिजली बिलों में हेरा फेरी रोकने, देहात के फीडरों को शहरी शेड्यूल में बदलने पर रोक लगाने, उपभोक्ताओं को बिना बताए लोड बढ़ाने, बिजली विभाग में व्याप्त भ्रष्टाचार रोकने और अघोषित बिजली कटौती रोकने जैसी बातें शामिल हैं.
'किसान एकता केंद्र' 26 नवम्बर को मुज़फ्फरनगर में बड़े प्रदर्शन के बाद इस मामले पर हल न आने की स्थिति में 23 मार्च को सैकड़ों किसानों संग दिल्ली कूच करेगा, जैसा कि उनकी अभी योजना है. ‘चलचित्र’ ने इस आंदोलन को कवर किया है... रिपोर्ट.
राष्ट्रवाद और देशभक्ति में फर्क: कितना सटीक जानते थे जॉर्ज ऑरवेल 2024 के बारे में ?
यह लेख द कन्वरशेसन में हाल में प्रकाशित हुआ है. जिसमें एक अमेरिकी प्रोफेसर करीब सत्तर साल पहले जॉर्ज ऑरवेल के लेखन से अमेरिका के चुनाव और दुनिया भर में उभरती प्रवृत्ति को रेखांकित करने की कोशिश कर रहा है. ऑर्वेल जो बिहार के मोतिहारी में 1903 में पैदा हुए थे और ब्रिटिश पत्रकार, लेखक और उपन्यासकार के रूप मे पूरी दुनिया में मशहूर हुए.
जनवरी 2017 में जब डोनाल्ड ट्रम्प ने संयुक्त राज्य अमेरिका के राष्ट्रपति के रूप में पहली बार शपथ ली थी, तो जॉर्ज ऑर्वेल का 1949 में प्रकाशित उपन्यास "नाइनटीन एटी-फोर" अमेज़न की बेस्टसेलर सूची में शीर्ष पर आ गया. जाहिर है, बहुत से लोगों को लगता था कि ऑर्वेल के विचार उस राजनीतिक क्षण में प्रासंगिक हो सकते हैं.
करीब आठ साल बाद, संयुक्त राज्य अमेरिका फिर से ट्रम्प के राष्ट्रपति बनने की संभावना का सामना कर रहा है. 2016 में, कई अमेरिकियों को ट्रम्प की जीत ने चौंका दिया था, और उन्हें ट्रम्प के राष्ट्रपति बनने के संभावित परिणामों से निपटना तब शुरू करना पड़ा जब वह चुनाव जीत चुके थे. लेकिन इस बार, अधिक लोग इस तरह के परिणाम के असर के बारे में पहले से सोच रहे हैं. मैं एक दर्शनशास्त्र और कानून के प्रोफेसर के रूप में बहुत समय से ऑर्वेल के लेखन का अध्ययन कर रहा हूं. मुझे लगता है कि आठ साल पहले लोगों ने यह सही निष्कर्ष निकाला था कि ऑर्वेल ट्रम्प के राष्ट्रपति बनने के बारे में महत्वपूर्ण दृष्टिकोण दे सकते हैं.
यहां तीन ऐसे विचार हैं, जिन्हें मुझे लगता है कि अमेरिकियों के लिए अपनी अगली राष्ट्रपति चुनाव की तैयारी करते समय ध्यान में रखना चाहिए.
1. राष्ट्रवाद देशभक्ति नहीं है
अपने 1945 के निबंध "नोट्स ऑन नेशनलिज़्म" में ऑर्वेल ने राष्ट्रवाद और देशभक्ति के बीच अंतर को स्पष्ट किया. ऑर्वेल के अनुसार, राष्ट्रवाद था “अपने आप को एक विशेष राष्ट्र या अन्य इकाई के साथ पहचानने की आदत, जिसे वह अच्छाई और बुराई से परे मानता है और जिसमें केवल इसके हितों को बढ़ावा देने की जिम्मेदारी होती है.”
इसके विपरीत, देशभक्ति को ऑर्वेल ने इस रूप में परिभाषित किया: “एक विशेष स्थान और जीवन के एक विशेष तरीके के प्रति समर्पण, जिसे कोई यह मानता है कि वह दुनिया में सबसे अच्छा है, लेकिन इसे दूसरों पर थोपने की इच्छा नहीं रखता.”
ऑर्वेल के देशभक्ति के विचार को समझने के लिए, मुझे एक उपमा देना उपयोगी लगता है. बहुत से माता-पिता सोचते हैं कि उनके बच्चे दुनिया के सबसे अच्छे बच्चे हैं. इसका मतलब यह नहीं कि वे यह मानते हैं कि बच्चों को रैंक करने के लिए कोई वस्तुनिष्ठ मीट्रिक होनी चाहिए. अधिकांश माता-पिता इसे समझते हैं कि ऐसा कुछ नहीं है, और वे यह नहीं कहते कि दूसरे बच्चे उनके बच्चों से अच्छे नहीं हैं. फिर भी, वे इस बात को महसूस करते हैं कि उनके अपने बच्चे सबसे अच्छे हैं.
ऑर्वेल के देशभक्त के दृष्टिकोण में भी कुछ ऐसा ही होता है. वे मान सकते हैं कि उनका देश या उनका जीवन का तरीका सबसे अच्छा है, लेकिन – और यह सबसे महत्वपूर्ण हिस्सा हो सकता है – वे दूसरों पर अपना दृष्टिकोण या जीवन का तरीका थोपने की इच्छा नहीं रखते.
नैतिक रूप से, यह राष्ट्रवाद से बिल्कुल अलग है. ऑर्वेल कहते हैं, “देशभक्ति स्वभाव से रक्षात्मक होती है, चाहे वह सैन्य रूप से हो या सांस्कृतिक रूप से. राष्ट्रवाद, दूसरी ओर, शक्ति की इच्छा से अनिवार्य रूप से जुड़ा होता है.” राष्ट्रवादी ऐसे माता-पिता की तरह होते हैं जो दूसरों के बच्चों को नीचे गिराकर अपने बच्चों को ऊपर उठाने की कोशिश करते हैं.
देश से केवल प्रेम खतरे में नहीं डालता है. अपने राष्ट्र या संस्कृति की प्रगति को अपनी सर्वोच्च प्राथमिकता बनाना अत्यधिक खतरनाक है. देशभक्ति पहले वाली चीज़ पर टिकती है, जबकि राष्ट्रवाद बाद वाली चीज़ को अपनाता है.
ऑर्वेल ने यह सही पहचाना कि जब राष्ट्रवादी अपने जीवन के तरीके को बढ़ावा देने को अपनी सर्वोच्च प्राथमिकता बनाते हैं, तो वे अंततः उसे “अच्छाई और बुराई से परे” मान लेते हैं. इससे राष्ट्रवादी अपनी जीवनशैली को बढ़ावा देने के लिए अनैतिक तरीकों को सही ठहराने के लिए प्रवृत्त हो जाते हैं.
इस तरह के राष्ट्रवादी मानसिकता का एक प्रमुख उदाहरण था ट्रम्प का 2020 के राष्ट्रपति चुनाव में हारने के बाद का व्यवहार. उन्होंने चुनाव परिणामों को पलटने के लिए झूठ बोलने और विद्रोह को बढ़ावा देने की कोशिश की.
इसी तरह, ट्रम्प के समर्थक जिन्होंने 6 जनवरी को कैपिटल पर धावा बोला, वे भी राष्ट्रवादी मानसिकता को अपनाए हुए थे. वे अपनी राजनीतिक एजेंडा को बढ़ावा देने के लिए अनैतिक तरीकों का सहारा ले रहे थे.
डोनाल्ड ट्रम्प ठीक वही करते हैं, जैसा ऑर्वेल ने राष्ट्रवादी के बारे में भविष्यवाणी की थी. वह सब कुछ, जैसा ऑर्वेल ने कहा, “प्रतिस्पर्धात्मक प्रतिष्ठा के दृष्टिकोण से” परिभाषित करते हैं और “उनके विचार हमेशा जीत, हार, विजय और अपमान पर केंद्रित रहते हैं.”
प्रतिस्पर्धात्मक प्रतिष्ठा पर केंद्रित रहना देशभक्ति नहीं है. यह शुद्ध राष्ट्रवाद है.
2. तानाशाह को कमतर आंकना आसान है
दूसरे विश्व युद्ध के बीच में 1942 में एक निबंध लिखते हुए और स्पेनिश गृहयुद्ध में एक स्वयंसेवक सैनिक के रूप में अपने अनुभवों पर विचार करते हुए ऑर्वेल ने कहा, “हमारी परंपराएँ और हमारी पिछली सुरक्षा हमें यह संजीदा विश्वास देती हैं कि अंत में सब कुछ ठीक हो जाएगा और जो सबसे ज्यादा डर लगता है, वह कभी सच नहीं होता.”
ऑर्वेल को इन आशावादी प्रवृत्तियों से चिंता थी क्योंकि उनका मानना था कि ये साक्ष्य के खिलाफ जाती हैं. इसके विपरीत, साक्ष्य यह बताता है कि चीजें आमतौर पर अपने आप ठीक नहीं होतीं. बल्कि, सामाजिक सुधार सामान्यत: समन्वित प्रयास और पीछे की ओर बढ़ने से सतर्कता की आवश्यकता होती है.
ऑर्वेल ने 1942 में कई बौद्धिकों की आलोचना की थी जिन्होंने हिटलर को “कॉमिक ओपेरा का एक पात्र” मानते हुए गंभीरता से नहीं लिया था. उन्होंने अंग्रेजी बोलने वाले देशों की भी आलोचना की थी, जो यह मानते थे कि हिटलर एक महत्वहीन पागल था और जर्मन टैंक कार्डबोर्ड से बने थे, जो युद्ध की शुरुआत तक फैशन में था.
जैसा कि कई टिप्पणीकारों और समाचार आउटलेट्स ने नोट किया है, ट्रम्प अक्सर तानाशाह की तरह बोलते हैं.
फिर भी, कई अमेरिकियों इसे एक खतरनाक लोकतंत्र के संकेत के रूप में नहीं देखते हैं. मुझे लगता है कि यह कुछ हद तक उस प्रवृत्ति से प्रेरित है जिसे ऑर्वेल ने पहचाना था, कि सच्चे बुरे चीजें नहीं होतीं – कम से कम अपने देश में नहीं.
ऑर्वेल ने बुरे परिणामों की संभावना को गंभीरता से लेने की सलाह दी थी. यही कारण है कि उनकी सबसे प्रसिद्ध किताबों, "एनिमल फार्म" और "नाइनटीन एटी-फोर" को समझा जा सकता है. अमेरिकियों के लिए भी यह जरूरी है कि वे अमेरिकी लोकतंत्र के लिए संभावित खतरों को गंभीरता से लें.
3. राष्ट्रवाद अंदर से हमला कर सकता है
आप "नाइनटीन एटी-फोर" को इस रूप में पढ़ सकते हैं कि यह ऑर्वेल का यह विचार है कि यदि कोई राजनीतिक पार्टी पूरी तरह से राष्ट्रवाद से ग्रस्त हो जाए तो वह कैसी होगी.
"नाइनटीन एटी-फोर" में, ओशनिया नामक काल्पनिक देश के पार्टी सदस्य "प्रतिस्पर्धात्मक प्रतिष्ठा" और "शक्ति की इच्छा" में व्यस्त रहते हैं. ऐसी गतिविधियाँ जैसे *टू मिनट्स हेट*, जहाँ पार्टी के सदस्य एक राजनीतिक प्रतिद्वंद्वी के वीडियो पर चिल्लाते और गाली देते थे, पार्टी के सदस्यों को “जीत, हार, विजय और अपमान” के बारे में सोचने के लिए प्रेरित करती थीं.
पार्टी का एक महत्वपूर्ण पहलू यह था कि यह बार-बार अपने ही सदस्यों पर हमला करती थी, अपहरण, यातना और हत्या के माध्यम से. ओशनिया में यह इतनी सामान्य बात बन गई थी कि इसे “वापराइजेशन” कहा जाता था. राष्ट्रवादी केवल बाहरी लोगों के लिए ही खतरा नहीं होते, बल्कि उन लोगों के लिए भी खतरा होते हैं जो भीतर से उनका समर्थन नहीं करते और उनके सत्ता में आने के लिए किसी भी कीमत पर उनके रास्ते का विरोध करते हैं.
इस दृष्टिकोण से, ट्रम्प के उन लोगों के खिलाफ दिए गए धमकियाँ, जिन्हें वह “भीतर के दुश्मन” मानते हैं, उनकी राष्ट्रीयतावादी इच्छा को दर्शाती हैं, जो सत्ता की खोज में किसी भी अमेरिकी को लक्ष्य बना सकते हैं.
ऑर्वेल के लेखन से यह स्पष्ट होता है कि मतदाताओं को ऐसे खतरों को गंभीरता से लेना चाहिए.
(मार्क सट्टा डेट्रॉयट, मिशिगन में वेन स्टेट यूनिवर्सिटी में दर्शनशास्त्र और कानून के एसोसिएट प्रोफेसर हैं. उन्होंने पर्ड्यू यूनिवर्सिटी से दर्शनशास्त्र में पीएचडी और हार्वर्ड लॉ स्कूल से जेडी (ज्यूरिस डॉक्टरेट) की डिग्री प्राप्त की है)
चलते चलते: जब दिल्ली के हिजड़ों ने बनाई अपनी मॉडलिंग एजेंसी
वेल्स में रहने वाली इला मेहरोत्रा सात साल से रूद्राणी छेत्री और उनके साथियों को फिल्म करती रही हैं. जो दिल्ली के हिजड़ा समुदाय से हैं और दुनिया की पहली ट्रांस मॉडलिंग एजेंसी बनाने की कोशिश कर रही हैं. गार्डियन ने फिल्म के रिव्यू में लिखा है- परिवारों द्वारा बहिष्कृत, ट्रांसजेंडर लोगों को रोजीरोटी चलाने के लिए अक्सर खतरनाक हालातों में जिस्मफरोशी पर निर्भर होना पड़ता है. इन सबसे तंग आकर रूद्राणी छेत्री अपनी प्रतिभा की बेहतर संभावनाओं के लिए अपनी मॉडलिंग एजेंसी खोलती है. उसका सफर बहुत उबड़खाबड़ है और खासा भावनात्मक भी. जहाँ न्यूज वाले उसका सनसनी हैडलाइन के इस्तेमाल करते हैं और फैशन वाले ट्रांस लोगों की प्रतिभाओं को दुरदुराते हैं. ‘इंडियाज़ फर्स्ट बेस्ट मॉडल एजेंसी’ का ट्रेलर देखिये.
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