15/04/2025 : मोदी ने मुस्लिमों को पंचर बनाने वाला कहा | अंबेडकर पर बदलता संघ का रवैया | मेटा टूटेगा या बना रहेगा | डीयू का गोबरकाल शुरू | चीन की इतनी अकड़ कैसे | मुर्शिदाबाद में भाजपा की फेक न्यूज़
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निधीश त्यागी, साथ में राजेश चतुर्वेदी, मज़्कूर आलम, गौरव नौड़ियाल
आज की सुर्खियां :
देश में पहली बार तेलंगाना में अनुसूचित जातियों के वर्गीकरण की अधिसूचना जारी
मेहुल चोकसी बेल्जियम में गिरफ्तार
ओडिशा : ईसाई और आदिवासियों के गांव में पुलिस की बर्बरता
जैन मुनियों पर हमला
दिल्ली विश्वविद्यालय का गोबर काल शुरू
उत्तर प्रदेश : मजदूरों के लिए आवंटित हुए सवा चार सौ करोड़ रुपये से भी ज्यादा, ख़र्च चवन्नी नहीं
सरना धर्म आंदोलन : झारखंड में जनजातीय पहचान और राजनीति
सऊदी अरब ने भारतीयों के निजी हज कोटे में 80% की कटौती की
इस बार नहीं मिली ईसाइयों को “क्रॉस जुलूस” को अनुमति
चीन ने बढ़ते व्यापार युद्ध के बीच महत्वपूर्ण खनिजों के निर्यात पर रोक लगाई
तो मुसलमानों को पंचर नहीं बनाने पड़ते : मोदी
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने डॉ. अंबेडकर के जरिए कांग्रेस पर निशाना साधा है और मुसलमानों के प्रति अपनी “हमदर्दी” दिखाई. कहा, “देश आजाद होने के बाद जो वक़्फ़ कानून था, उसमें 2013 में कांग्रेस ने संशोधन कर दिया, ताकि चुनाव में वोट पा सके. कानून को ऐसा बना दिया कि बाबा साहेब के संविधान की ऐसी-तैसी कर दी. इसका सही उपयोग होता तो मुसलमानों को साइकिल के पंचर बनाने की जरूरत नहीं होती.”
“कांग्रेस कहती है कि ऐसा मुसलमानों के हित में किया. मैं पूछना चाहता हूं कि यदि सच्चे मन से मुसलमानों के लिए थोड़ी भी हमदर्दी है तो कांग्रेस पार्टी अपनी पार्टी का अध्यक्ष किसी मुसलमान को बनाए, लेकिन इनके नेता ऐसा कुछ नहीं करेंगे. ये सिर्फ देश के नागरिकों के अधिकारों को छीनना चाहते हैं.” मोदी के इस भाषण के बाद महाराष्ट्र कांग्रेस के अध्यक्ष हर्षवर्धन सपकल ने सवाल किया, “आरएसएस कब किसी दलित, मुस्लिम या महिला को अपना सरसंघचालक (चीफ) बनाएगा?”
इधर, मोदी के भाषण में मुसलमानों को “पंचर नहीं जोड़ने पड़ते” जैसे आपत्तिजनक शब्दों के इस्तेमाल की आलोचना की जा रही है. तृणमूल सांसद सागरिका घोष ने पंचर वाले बयान को असभ्य और शर्मनाक" बताते हुए कहा की यह "गलत, भेदभावपूर्ण और कई स्तरों पर गहरा पूर्वाग्रही है.” उन्होंने “एक्स” पर लिखा- 1) पंचर टायर ठीक करना श्रम की गरिमा और एक आवश्यक सेवा है. 2) सभी मुस्लिम टायर नहीं ठीक करते, कई कड़ी मेहनत से आज डॉक्टर, शिक्षाविद और उद्योगपति हैं. 3) “पंचरवाला” एक खास किस्म का घृणित संघी शब्द है, जिसे प्रधानमंत्री को टालना चाहिए था. " गौरतलब है कि हिंदुत्व समूहों द्वारा “पंचरवाला” शब्द का उपयोग किया जाता रहा है. जहाँ तक मोदी की बात है, तो उन्होंने पहली बार 2002 में इस शब्द का तब इस्तेमाल किया था, जब वे गुजरात के मुख्यमंत्री थे.
फैक्ट चैक : साल 1888 में बदरुद्दीन तैय्यब जी, साल 1886 में रहमतुल्लाह एम सयानी, साल 1913 में नवाब सैय्यद एम बहादुर, साल 1918 में सैय्यद हसन इमाम, साल 1921 में हाकिम अजमल खान, साल 1918 में मोहम्मद अली जौहर, साल 1924 और 1946 में अबुल कलाम आजाद और साल 1928 में मुख्तार अहमद अंसारी कांग्रेस के अध्यक्ष रहे.
संघ अंबेडकर को कभी लिलिपुट कहता था, अब भागवत कथा में हिंदुओं को साथ लाने वाले हुए
आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत ने सोमवार को डॉ. भीमराव अंबेडकर की "हिंदुओं को एकजुट करने के आजीवन प्रयासों" की सराहना की. भागवत ने कहा, “बाबासाहेब को अपने जीवन में गंभीर कठिनाइयों का सामना करना पड़ा. बचपन से ही उन्हें भेदभाव और असमानता का सामना करना पड़ा. फिर भी, अपने पूरे जीवन में उन्होंने हिंदू समाज को एक साथ लाने का प्रयास किया.” ये अलग बात है कि हिंदुओं को एक करने के बाद उन्होंने मनुस्मृति को आग लगाई और हिंदू धर्म छोड़ कर बुद्ध धर्म अपना लिया.
डॉ. अंबेडकर के बारे में संघ प्रमुख भागवत के विचार देश के गृह मंत्री अमित शाह की उस टिप्पणी के एकदम उलट प्रतीत होते हैं, जिसने संसद में खासा बवाल पैदा कर दिया था और शाह सफाई देने के लिए मजबूर हो गए थे. अंबेडकर के बारे में भागवत के कानपुर में दिए गए आज के बयान से ऐसा लगता है कि संघ और उसका पूरा कुनबा संविधान निर्माता को लेकर अपना आख्यान शिफ्ट करने में लग गया है. सियासी मजबूरियों के चलते यह यात्रा आलोचना से शुरू होकर प्रशंसा की तरफ जा रही है. “डेक्कन क्रानिकल” में अनामिका पाठक ने लिखा है, “भारतीय जनता पार्टी की वैचारिक मातृसंस्था राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने 1950 में भारत के पहले कानून मंत्री की तुलना “लिलिपुट” से करने से लेकर मोहन भागवत द्वारा भारत रत्न भीमराव अंबेडकर के नाम पर ऑडिटोरियम का उद्घाटन करने तक का लंबा सफर तय किया है.”
संविधान, अम्बेडकर के प्रति संघ की दिखावटी श्रद्धा
अंबेडकर जयंती पर भाजपा, आरएसएस के भीतर उमड़ती श्रद्धा को लेकर वरिष्ठ पत्रकार कृष्णा प्रसाद ने अपने सब्सटैक पेज नेटपेपर पर यह टिप्पणी की है. इसमें महात्मा मनु के जातियों को लेकर कितने महान विचार थे, उनकी झांकी भी है, पर हरकारा पर हम सिर्फ वे हिस्से ले रहे हैं, जो अंबेडकर और संविधान को लेकर संघ के विचार पहले रहे, जो अब शीर्षासन करते दिखलाई देते हैं.
2024 के आम चुनावों में भारतीय संविधान की पॉकेट प्रति ने भाजपा के "चार सौ पार" के अभियान को रोकने के एक साल से भी कम समय बाद—और केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह द्वारा संसद में यह गरजने के कुछ ही हफ्तों बाद कि "अम्बेडकर, अम्बेडकर, अम्बेडकर" का जाप करना एक फैशन बन गया है—14 अप्रैल 2025 के अखबार उनके पाखंड को उजागर करते हैं.
भारत के दो सबसे बड़े अखबारों (द टाइम्स ऑफ इंडिया और दैनिक जागरण) के केवल दिल्ली संस्करणों में कम से कम करदाताओं के पैसे से वित्त पोषित आठ विज्ञापन हैं, जिनमें प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, डॉ. बी.आर. अम्बेडकर के सामने नतमस्तक दिखाए गए हैं. और दोनों दैनिकों में, रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह "दूरदर्शी सुधारक" को किसी और से लिखवाई हुई श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं. दिल्ली की नवनिर्मित रबर स्टांप कहती हैं कि अम्बेडकर जयंती पर अब से 15 दिनों का आयोजन होगा, और कम नहीं.
सोमवार सुबह की ये ड्रामेबाज़ी एम.एस. गोलवलकर के घने मूंछों के पीछे मुस्कान ला देती. आरएसएस कार्यकर्ताओं की पवित्र पुस्तक 'बंच ऑफ थाट्स' में, 'गुरुजी' ने अम्बेडकर के दस्तावेज़ को कुछ खास बताने से परहेज किया था : "संविधान केवल पश्चिमी देशों के विभिन्न संविधानों से विभिन्न अनुच्छेदों का एक बोझिल और विषम एकत्रीकरण है. इसमें ऐसा कुछ भी नहीं है, जिसे हम अपना कह सकें."
30 नवंबर, 1949 को आरएसएस के मुखपत्र 'ऑर्गनाइज़र' में लिखे गए संपादकीय ने भृकुटि चढ़ाई होगी: "हमारे संविधान में प्राचीन भारत के अनूठे संवैधानिक विकास का कोई उल्लेख नहीं है. मनु के कानून स्पार्टा के लाइकर्गस या फारस के सोलोन से बहुत पहले लिखे गए थे. आज भी उनके द्वारा मनुस्मृति में उल्लिखित कानून दुनिया का प्रशंसा प्राप्त करते हैं और स्वतःस्फूर्त आज्ञाकारिता और अनुरूपता उत्पन्न करते हैं. लेकिन हमारे संवैधानिक पंडितों के लिए इसका कोई मतलब नहीं है."
यह निश्चित रूप से हिंदुत्व के पिता, वी.डी. सावरकर का मनोरंजन करता, जिन्होंने घोषणा की थी कि "मनुस्मृति वह शास्त्र है, जो हमारे हिंदू राष्ट्र के लिए सबसे अधिक पूजनीय है और जो प्राचीन काल से हमारी संस्कृति-रीति-रिवाजों, विचार और अभ्यास का आधार बन गया है.... आज मनुस्मृति हिंदू कानून है."
2025 के आसपास, वास्तविक राजनीति के कारण संघ परिवार के सर्वश्रेष्ठ और सबसे प्रतिभाशाली लोगों को मजबूरन संविधान और उसके वास्तुकार के प्रति प्रकट रूप से श्रद्धा दिखानी पड़ती है, भले ही वे उन्हें निजी तौर पर (या कभी-कभी संसद के भीतर) घृणा करते हों.
कोई आश्चर्य की बात है कि 25 दिसंबर, 1927 के ऐतिहासिक महाड आंदोलन के दौरान, डॉ. बी.आर. अम्बेडकर की उपस्थिति में मनुस्मृति की एक प्रति जलाई गई थी, जिन्हें आज संघ परिवार प्रतिक्रियास्वरूप महिमामंडित करता है?
कोई आश्चर्य की बात है कि अम्बेडकर ने, इसके जाति-आधारित भेदभाव, अन्याय और क्रूरता से व्यथित होकर, भारतीयों से 25 दिसंबर को भविष्य में 'मनुस्मृति दहन दिवस' के रूप में मनाने का आह्वान किया था?
कोई आश्चर्य की बात है कि नरेंद्र मोदी सरकार अब 25 दिसंबर को 'सुशासन दिवस' के रूप में मनाती है?
मनुस्मृति में भारतीय जातियों के बारे में क्या लिखा है, उसके कुछ हिस्से आप सब्सटैक के इस पन्ने पर पढ़ सकते हैं.
देश में पहली बार तेलंगाना में अनुसूचित जातियों के वर्गीकरण की अधिसूचना जारी
'द हिंदू' की रिपोर्ट है कि तेलंगाना सरकार ने तेलंगाना अनुसूचित जातियां (आरक्षण का युक्तिकरण) अधिनियम 2025 को लागू करते हुए अनुसूचित जातियों (SC) को तीन समूहों में वर्गीकृत करने की अधिसूचना जारी की है. 14 अप्रैल 2025 को इस वर्गीकरण के कार्यान्वयन की तिथि के रूप में अधिसूचित किया गया है. यह निर्णय सुप्रीम कोर्ट के 1 अगस्त 2024 के ऐतिहासिक फैसले के बाद आया है, जिसमें अनुसूचित जातियों और जनजातियों के भीतर उप-वर्गीकरण को संवैधानिक रूप से वैध माना गया था. इसका उद्देश्य इन समुदायों के भीतर सबसे वंचित वर्गों को अलग आरक्षण प्रदान करना है. कुल 59 उप-जातियों में से 33 को पूर्ववर्ती समूहों में ही बनाए रखा गया है, जबकि 26 उप-जातियों का पुनर्वर्गीकरण किया गया है, जो कुल एससी जनसंख्या का 3.43% हैं. इस वर्गीकरण के आधार पर अब से सरकारी नौकरियों में नई भर्तियां की जाएंगी. पहले से अधिसूचित रिक्तियों पर यह लागू नहीं होगा. सरकार ने यह भी संकेत दिया है कि 2026 की जनगणना के बाद और आंकड़ों के आधार पर एससी आरक्षण को और बढ़ाया जा सकता है. मुख्यमंत्री ए. रेवंत रेड्डी को अधिसूचना की पहली प्रति सिंचाई मंत्री एन. उत्तम कुमार रेड्डी और स्वास्थ्य मंत्री सी. दामोदर राजा नरसिम्हा द्वारा सौंपी गई. राज्य सरकार ने सभी अनुसूचित जातियों के सामाजिक, आर्थिक, शैक्षिक, रोजगार और राजनीतिक स्थिति पर आधारित डेटा को ध्यान में रखकर यह वर्गीकरण किया है.
मेटा टूटेगा या बना रहेगा, सुनवाई अदालत में
फेसबुक, व्हाट्सएप, इंस्टा और जकरबर्ग का भविष्य एक जज और डोनाल्ड ट्रम्प के हाथों में
'पॉलिटिको' के लिए ब्रेंडन बॉर्डेलन की रिपोर्ट है कि लगभग छह साल की जांच और कानूनी लड़ाई के बाद, इस सोमवार को संघीय व्यापार आयोग (एफटीसी) मेटा के खिलाफ एक एंटीट्रस्ट ट्रायल में आमने-सामने होगा. एक ऐसा मुकदमा जो यह तय कर सकता है कि यह टेक दिग्गज बचेगा या टूट जाएगा. अगर एफटीसी अमेरिकी जिला न्यायाधीश जेम्स बोसबर्ग को यह मनाने में सफल हो जाता है कि मेटा ने इंस्टाग्राम और व्हाट्सएप का अधिग्रहण करके अवैध सोशल मीडिया एकाधिकार को मजबूत किया, तो अगला कदम मेटा के सीईओ मार्क ज़करबर्ग द्वारा खड़ी किये गये सोशल मीडिया साम्राज्य को तोड़ने का होगा. यह प्रक्रिया एक $1.4 ट्रिलियन की कंपनी को तोड़ने की होगी. टेलीफोन की एकाधिकार कंपनी एटीएंडटी को तोड़ने के बाद यह पिछले 40 वर्षों में सबसे बड़ा प्रयास होगा, और अत्यधिक कॉर्पोरेट शक्ति के खिलाफ एक ऐतिहासिक प्रतिरोध को दर्शाएगा, लेकिन यह पूरा मामला उस समय शुरू हुआ था जब ज़करबर्ग ने राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प के साथ अपनी नई मित्रवत संबंधों की नींव नहीं रखी थी.
एफटीसी के नए प्रमुख एंड्रयू फर्ग्यूसन ट्रम्प द्वारा नियुक्त हैं और उन्होंने इस महीने की शुरुआत में कहा कि उनके वकील "मेटा के खिलाफ लड़ाई के लिए पूरी तरह तैयार हैं." लेकिन अब यह चिंता बढ़ रही है कि ट्रम्प इस केस में मेटा का समर्थन कर सकते हैं. ज़करबर्ग ने हाल ही में ओवल ऑफिस में ट्रम्प से मुलाकात की थी और रिपोर्ट के अनुसार, ट्रायल शुरू होने से पहले किसी तरह के समझौते की मांग की. इसे पहले ट्रम्प प्रशासन के समय शुरू किया गया था, फिर पूर्व राष्ट्रपति जो बाइडन की एंटीट्रस्ट टीम ने इसे आक्रामक रूप से आगे बढ़ाया, और अब यह फर्ग्यूसन के नेतृत्व में ट्रायल तक पहुंच गया है.
यह मुकदमा पिछले छह वर्षों में कई उतार-चढ़ावों से गुज़रा है. बोसबर्ग ने एफटीसी का मूल केस खारिज कर दिया था और एजेंसी को तब ही आगे बढ़ने की अनुमति दी, जब उसने अपने तर्कों को अधिक स्पष्ट किया. मेटा ने अप्रैल 2024 में समरी जजमेंट के लिए अर्जी दी थी, जिसे नवंबर में खारिज कर दिया गया और अप्रैल 2025 की ट्रायल तारीख तय की गई. मेटा के प्रवक्ता क्रिस्टोफर स्क्रो ने पिछले हफ्ते एक बयान में कहा कि एफटीसी का मुकदमा “वास्तविकता से परे” है और कंपनी प्रतिस्पर्धी सोशल मीडिया बाजार में कार्य करती है.
“ट्रायल में सबूत दिखाएंगे कि दुनिया का हर 17 साल का युवा जानता है — इंस्टाग्राम, फेसबुक और व्हाट्सएप चीनी स्वामित्व वाले टिकटॉक, यूट्यूब, एक्स (पूर्व ट्विटर), आईमैसेज और अन्य कई प्लेटफार्मों से प्रतिस्पर्धा करते हैं,” स्क्रो ने कहा. “एफटीसी द्वारा हमारे अधिग्रहण को समीक्षा और मंजूरी दिए जाने के 10 साल बाद कार्रवाई करने से यह संदेश जाता है कि कोई भी डील कभी अंतिम नहीं होती.” स्क्रो ने यह भी कहा कि एफटीसी को अमेरिकी नवाचार का समर्थन करना चाहिए, ना कि एक महान अमेरिकी कंपनी को तोड़ने का प्रयास कर चीन को एआई जैसे अहम मुद्दों पर लाभ देना चाहिए.
यह मुकदमा गर्मियों तक चलेगा और जुलाई तक खिंच सकता है. जब यह ट्रायल शुरू हो रहा है, तो तीन प्रमुख बातों पर नज़र रखी जाएगी :
1. क्या अदालत एफटीसी के तर्क को स्वीकार करेगी? यह वन बेंच ट्रायल है यानी कोई जूरी नहीं है. फैसला सिर्फ बोसबर्ग के हाथ में है, जो 2011 में पूर्व राष्ट्रपति बराक ओबामा द्वारा नियुक्त किए गए थे. वे इस समय ट्रम्प प्रशासन के साथ एक अनोखे टकराव में भी हैं, जिसमें वे वेनेजुएला से निर्वासित लोगों को एल साल्वाडोर की जेल में भेजने के ट्रम्प के प्रयासों का विरोध कर रहे हैं. ट्रम्प ने उनके महाभियोग की भी मांग की है. बोसबर्ग ने पहले भी एफटीसी के दावे को लेकर संदेह जताया है. 2021 में उन्होंने केस खारिज करते हुए कहा था कि एफटीसी यह बताने में असमर्थ रहा कि फेसबुक की बाजार हिस्सेदारी कैसे मापी गई. 2022 में जब उन्होंने संशोधित फाइलिंग को स्वीकार किया, तब भी उन्होंने कहा था कि एफटीसी के लिए यह साबित करना “कठिन कार्य” होगा. नवंबर में उन्होंने और भी अधिक संदेह जताया, कहा कि एफटीसी के दावे “इस देश के एंटीट्रस्ट कानूनों की सीमाओं तक पहुंचते हैं.” एफटीसी संभवतः ज़करबर्ग के उस इरादे पर ज़ोर देगा कि इंस्टाग्राम और व्हाट्सएप को खरीदा गया था ताकि संभावित प्रतिस्पर्धा को खत्म किया जा सके, चाहे आज के बाजार में टिकटॉक जैसे विकल्प क्यों न हों.
2. कौन-कौन से तकनीकी दिग्गज गवाही देंगे? ऐसे बड़े मुकदमे सीईओ को सार्वजनिक रूप से जवाबदेह ठहराने का दुर्लभ मौका होते हैं. इस केस में दोनों पक्षों से कई टेक अधिकारी गवाही देंगे, लेकिन यह स्पष्ट नहीं है कि सोमवार को कौन कोर्ट में मौजूद होगा.
माना जा रहा है कि ज़करबर्ग (जिन्होंने हाल ही में वाशिंगटन में एक हवेली खरीदी है), मेटा की पूर्व सीओओ शेरिल सैंडबर्ग, इंस्टाग्राम और व्हाट्सएप के पूर्व और वर्तमान अधिकारी कोर्ट में पेश हो सकते हैं. साथ ही स्नैप, पिंटरेस्ट और टिकटॉक जैसी प्रतिस्पर्धी कंपनियों के अधिकारी भी गवाही दे सकते हैं.
3. क्या ट्रम्प इस केस को पटरी से उतार देंगे? राष्ट्रपति का इस मुकदमे पर असामान्य रूप से बड़ा प्रभाव है और वाशिंगटन में एंटीट्रस्ट जानकारों को डर है कि ट्रम्प मेटा के पक्ष में हस्तक्षेप कर सकते हैं. एफटीसी ऐतिहासिक रूप से व्हाइट हाउस से स्वतंत्र रहा है, लेकिन ट्रम्प द्वारा हाल ही में डेमोक्रेटिक एफटीसी कमिश्नरों को हटाना और फर्ग्यूसन का यह कहना कि वे राष्ट्रपति के आदेशों का पालन करेंगे, इन दोनों कदमों ने ट्रम्प को अभूतपूर्व प्रभाव दे दिया है. हालांकि ज़करबर्ग और ट्रम्प पहले टकरा चुके हैं, लेकिन अब मेटा सीईओ ने ट्रम्प और रिपब्लिकन नेताओं के समर्थन को पाने के लिए भरपूर प्रयास शुरू कर दिए हैं, जिनमें कंटेंट पॉलिसी में बड़े बदलाव और कंपनी के भीतर रिपब्लिकन नेताओं की नियुक्ति शामिल हैं.
भले ही ट्रम्प ट्रायल को चलने दें, अगर एफटीसी मुकदमा जीत भी जाता है, तब भी राष्ट्रपति फर्ग्यूसन को कंपनी को न तोड़ने के निर्देश दे सकते हैं और मेटा को अदालत में हारने के बाद भी बचा सकते हैं.
मेहुल चोकसी बेल्जियम में गिरफ्तार
पंजाब नेशनल बैंक से हजारों करोड़ के लोन धोखाधड़ी मामले में आरोपी हीरा कारोबारी मेहुल चोकसी को बेल्जियम में गिरफ्तार कर लिया गया है. आधिकारिक सूत्रों ने बताया कि भारतीय जांच एजेंसियों के प्रत्यर्पण की अपील पर 12 अप्रैल को उसकी गिरफ्तारी हुई, फिलहाल वह जेल में है. वह अपने भतीजे नीरव मोदी के साथ पंजाब नेशनल बैंक के ₹13,500 करोड़ के ऋण धोखाधड़ी मामले में वांछित है.
वर्तमान में मेहुल चोकसी एंटीगुआ का नागरिक है और कुछ वर्ष पूर्व बताये गए कैंसर उपचार के लिए बेल्जियम चला गया था. उसे एंटवर्प में उसके घर के निकट गिरफ्तार किया गया. रिपोर्ट्स के अनुसार, उसने नवंबर 2023 में बेल्जियम की निवास अनुमति प्राप्त की, क्योंकि उसकी पत्नी बेल्जियम की नागरिक है. बेल्जियम के फेडरल पब्लिक सर्विस ऑफ जस्टिस (न्याय विभाग) ने “द हिंदू ” को एक लिखित बयान में कहा, "चोकसी को आगे की न्यायिक कार्यवाही की प्रतीक्षा में हिरासत में रखा गया है. हम पुष्टि करते हैं कि भारतीय अधिकारियों ने चोकसी के प्रत्यर्पण का अनुरोध प्रस्तुत किया है.”
इस बीच चोकसी के बेल्जियमी वकील साइमन बेकर्ट ने बताया कि यह कहने की आवश्यकता नहीं है कि हम इस प्रत्यर्पण का विरोध करेंगे. चोकसी को भारत में "निष्पक्ष सुनवाई" नहीं मिलेगी.
चोकसी वर्तमान में एंटीगुआ सरकार द्वारा अपनी नागरिकता रद्द करने के फैसले के खिलाफ अपील कर रहा है. उसके भतीजे नीरव मोदी को भी भारत के अनुरोध पर यूके में 2019 से हिरासत में रखा गया है और वह प्रत्यर्पण के खिलाफ अपील कर रहा है. बहरहाल, विदेश मंत्रालय ने इस नवीनतम घटनाक्रम पर कोई टिप्पणी नहीं की है.
फेक न्यूज अलर्ट
मुर्शिदाबाद में नफरत फैलाने के लिए भाजपा ने बंगाल के बाहर के फोटो लगाए
कथित सांप्रदायिक हिंसा की 9 में से 8 तस्वीरें सीएए विरोध से, 6 तस्वीरें अन्य राज्यों की

पश्चिम बंगाल के मुर्शिदाबाद ज़िले में वक़्फ़ संशोधन अधिनियम के खिलाफ बड़े पैमाने पर हिंसा भड़क गई, जिसमें कम से कम तीन लोगों की मौत हो गई. कोलकाता उच्च न्यायालय ने स्थिति को सामान्य करने के लिए केंद्रीय सशस्त्र पुलिस बल (CAPF) की तैनाती का आदेश दिया है. इस बीच तृणमूल कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) राज्य में सांप्रदायिक सौहार्द्र के बिगड़ने को लेकर एक-दूसरे पर आरोप मढ़ रही हैं. इस संदर्भ में, 13 अप्रैल 2025 को बीजेपी वेस्ट बंगाल के आधिकारिक एक्स (पूर्व में ट्विटर) हैंडल ने हिंसा और आगजनी के दृश्यों वाली 9 तस्वीरों का एक कोलाज साझा किया. हर तस्वीर पर एक हिंदू त्योहार का नाम लिखा गया था, लेकिन 'ऑल्ट न्यूज़' की पड़ताल में ये सारे मामले फेक निकले हैं.
‘गणेश चतुर्थी’ की जो तस्वीर बताकर फैलाई गई वो दिसंबर 2019 में पश्चिम बंगाल के संतरागाछी में सीएए के खिलाफ प्रदर्शन की तस्वीर निकली. ऐसे ही ‘सरस्वती पूजा’ और ‘दशहरा’ की जो तस्वीरें वायरल की गई, वो असल में दोनों तस्वीरें दिसंबर 2019 में लखनऊ में सीएए विरोधी प्रदर्शनों के दौरान ली गई थीं. केवल ‘राम नवमी’ की जो तस्वीर शेयर की गई है, वो ही साल 2023 में हावड़ा, पश्चिम बंगाल में राम नवमी के दौरान भड़की हिंसा की तस्वीर है.
इसके अलावा होली, दिवाली, ‘हनुमान जयंती’ के नाम पर शेयर की गई अधिकतर तस्वीरें फर्जी हैं. कुल मिलकार बीजेपी पश्चिम बंगाल द्वारा साझा किए गये कोलाज जिसमें 9 तस्वीरें दिखाई गई थीं, जिनमें दावा किया गया था कि ये हिंदू त्योहारों के दौरान पश्चिम बंगाल में हुई हिंसा के दृश्य हैं. उनमें से केवल एक तस्वीर (राम नवमी की) सही निकली. बाकी आठ तस्वीरें या तो अलग राज्यों की थीं (जैसे कि लखनऊ, मैंगलुरु, गुवाहाटी), या पुराने CAA विरोध प्रदर्शनों की थीं जिनका वर्तमान घटनाओं से कोई संबंध नहीं है.
हेट क्राइम
ओडिशा : ईसाई और आदिवासियों के गांव में पुलिस की बर्बरता
इधर, ओडिशा के गजपति जिले के जुबा गांव में पुलिस ज्यादती की घटना पर एक जांच रिपोर्ट आई है. “द वायर” के अनुसार रिपोर्ट में दावा किया गया है कि- पुलिस ने 22 मार्च को गांव में गांजे की खेती की सूचना के आधार पर छापा मारा और जुबा चर्च में घुसकर चार आदिवासी महिलाओं और लड़कियों को निशाना बनाया. इनमें दो नाबालिग थीं. सफाई के उपकरण तोड़ डाले और चर्च के पवित्र स्थान को अपवित्र किया. कोंध आदिवासी समूह की दो युवा महिलाओं को चर्च के अंदर डंडों से पीटा गया और फिर लगभग 300 मीटर दूर तक घसीटा गया. महिलाओं से कुछ मोबाइल फोन छीन लिए गए, जो अभी तक उन्हें वापस नहीं किए गए हैं. दो पादरियों पर भी हमला किया गया. उन पर 'पाकिस्तानी' होने और लोगों का धर्मांतरण करने का आरोप लगाया गया. लगभग 20 मोटरसाइकिलें नष्ट कर दी गईं. टीवी सेट, चावल, धान, मुर्गियां और अंडे सहित खाद्य आपूर्ति नष्ट कर दी गई.
रिपोर्ट में कहा गया है कि गजपति जिला मानव विकास सूचकांक में सबसे निचले पायदान पर है और ओडिशा के 30 जिलों में 27वें स्थान पर है. यह अल्पसंख्यक-केंद्रित जिला है, जहां 38% ईसाई आबादी और 50% से अधिक जनजातीय आबादी निवास करती है. रिपोर्ट के अनुसार, कथित बर्बरता के 20 दिन बाद भी कोई प्रथम एफआईआर दर्ज नहीं की गई है.
जैन मुनियों पर हमला
मध्यप्रदेश में नीमच जिले के सिंगोली कस्बे में रविवार-सोमवार की मध्यरात्रि तीन जैन मुनियों पर लाठी और धारदार हथियारों से हमला करने के आरोप में छह लोगों, जिनमें एक नाबालिग भी शामिल है, को गिरफ्तार किया गया है. पुलिस अधिकारी ने बताया कि आरोपियों ने शराब के नशे में मुनियों से पैसे मांगे थे, लेकिन मना करने पर उन पर हमला कर दिया. इस हमले में मुनियों को सिर और पीठ पर चोटें आई हैं. घटना के विरोध में जैन समुदाय ने सिंगोली में बंद का आह्वान किया, जिससे सोमवार को बाजार पूरी तरह बंद रहे.
दिल्ली विश्वविद्यालय का गोबर काल शुरू
कॉलेज की प्रिंसिपल ने क्लासरूम की दीवार गोबर से लेप दी
दिल्ली यूनिवर्सिटी के लक्ष्मीबाई कॉलेज की प्रिंसिपल का क्लास रूम की दीवार को गोबर से लीपते हुए एक वीडियो वायरल हो रहा है. प्रिंसिपल प्रत्यूष वत्सला के मुताबिक यह रिसर्च प्रोजेक्ट का हिस्सा है. उन्होंने खुद ही कॉलेज के शिक्षकों के साथ यह वीडियो शेयर किया है. वीडियो में प्रिंसिपल ने बताया कि क्लास रूम को ठंडा रखने के लिए ये देसी तरीके अपनाए जा रहे हैं.
डॉ. वत्सला ने कॉलेज शिक्षकों के व्हाट्स एप ग्रुप पर लिखा, “सी ब्लॉक में गर्मी की शिकायतों को दूर करने के लिए देसी तरीकों को अपनाया जा रहा है. जिन लोगों की यहां कक्षाएं हैं, उन्हें जल्द ही ये कमरे एक नए रूप में मिलेंगे. आपके शिक्षण अनुभव को अधिक आरामदायक बनाने के प्रयास जारी हैं. मैंने खुद एक कमरे की दीवार पर गोबर लगाया, क्योंकि मिट्टी और गोबर जैसी प्राकृतिक चीजों को छूने में कोई हर्ज नहीं है. कुछ लोग बिना जानकारी के अफवाह फैला रहे हैं.”
उत्तर प्रदेश : मजदूरों के लिए आवंटित हुए सवा चार सौ करोड़ रुपये से भी ज्यादा, ख़र्च चवन्नी नहीं
मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के राज्य के चौतरफ़ा विकास के दावों के बावजूद उत्तर प्रदेश के असंगठित क्षेत्र के मजदूरों के लिए पिछले चार सालों में आवंटित सवा चार सौ करोड़ रुपये से ज्यादा रकम में से एक चवन्नी भी इनके कल्याण पर खर्च नहीं की गई है.
‘द वायर’ हिंदी ने असंगठित क्षेत्र के श्रमिकों के लिए राज्य सरकार की ओर से चलाई जा रही योजनाओं के संबंध में सूचना का अधिकार अधिनियम के तहत याचिका दायर कर प्रदेश के सामाजिक सुरक्षा बोर्ड से पिछले चार सालों में असंगठित श्रमिकों के लिए योजनाओं और उन पर हुए खर्च का ब्यौरा मांगा था.
इसके जवाब में बोर्ड ने बताया, “पहले तीन वित्त वर्षों में ‘प्रत्येक वर्ष 112 करोड़ रुपये’ तथा ‘2024-25 में 92 करोड़ रुपये विभिन्न योजनाओं के लिए आवंटित किए गए, लेकिन इस धनराशि को खर्च ही नहीं किया जा सका, क्योंकि असंगठित श्रमिकों हेतु कोई भी योजना संचालित नहीं हो रही थी.’
अगला प्रश्न था कि क्या उत्तर प्रदेश के असंगठित श्रमिकों के लिए घोषित योजनाओं के प्रचार-प्रसार की कोई व्यवस्था है? यदि हां, तो इसके लिए उपरोक्त चार वर्षों में कितना बजट आवंटित हुआ और कितना खर्च किया गया.
सामाजिक सुरक्षा बोर्ड ने जवाब दिया कि वित्त वर्ष 2021-22 में पांच लाख रुपये और 2022-23, 2023-24 और 2024-25 में प्रत्येक वर्ष सात लाख अस्सी हजार रुपये इन योजनाओं के प्रचार प्रसार के लिए आवंटित हुए थे, लेकिन कोई भी योजना संचालित नहीं होने के कारण इस धनराशि को खर्च नहीं किया जा सका.
सामाजिक सुरक्षा बोर्ड से यह भी पूछा गया कि इन वित्त वर्षों में श्रम विभाग द्वारा असंगठित क्षेत्र के कितने श्रमिकों से आर्थिक मदद के लिए आवेदन प्राप्त हुए और कितने श्रमिकों की मदद की गई. इसके जवाब में बोर्ड ने कहा कि उसे ऐसा कोई भी आवेदन प्राप्त नहीं हुआ.
भारत सरकार के पोर्टल ई श्रम के अनुसार देश में 30.68 करोड़ से अधिक असंगठित श्रमिक हैं, जिनमें आधे से अधिक महिलाएं (53.68 प्रतिशत) हैं. इसमें से उत्तर प्रदेश से क़रीब 8 करोड़ 38 लाख श्रमिक पंजीकृत हैं. यह देश के कुल पंजीकृत श्रमिकों का लगभग 27.5% हैं. इतनी बड़ी संख्या में असंगठित श्रमिक होने के बावजूद राज्य सरकार के पास इनके कल्याण की कोई योजना नहीं है.
महिला श्रमिक की स्थिति और बदतर : चूंकि देश में असंगठित क्षेत्र में काम कर रहे कुल श्रमिकों में 53% से भी अधिक स्त्रियां हैं. अनुमान लगाया जा सकता है कि उत्तर प्रदेश में चार करोड़ से ज्यादा स्त्रियां असंगठित क्षेत्र में काम करती हैं. उन्हें यह रोजगार कृषि, निर्माण और घरेलू कामकाज में मिलता है. प्रदेश में कृषि क्षेत्र में काम करने वाली महिलाओं को औसत दो सौ रुपये रोजाना मजदूरी मिलती है. यानी, उत्तर प्रदेश की महिला श्रमिक छह से आठ हजार रुपये प्रतिमाह पर काम करने को विवश हैं. वहीं, पुरुषों का औसत मासिक वेतन दस से ग्यारह हजार के आस-पास पहुंचता है. राज्य सरकार के पास इस बड़ी आबादी को न्यूनतम वेतन सुनिश्चित करवाने की कोई योजना नहीं है. असंगठित क्षेत्र में काम करने वाला तबका प्रदेश के दलित, आदिवासी और पिछड़े समुदाय से आता है. यह समुदाय अपनी बुनियादी जरूरतों के लिए दैनिक संघर्ष करता है.
जब द वायर हिंदी ने प्रदेश के श्रम एवं सेवा योजन मंत्री मनोहर लाल और भाजपा के प्रदेश प्रवक्ता राकेश त्रिपाठी से पूछा कि सरकार ने इन श्रमिकों के कल्याण के लिए आवंटित राशि खर्च क्यों नहीं की? दोनों का एक ही जवाब था, ‘उन्हें इस विषय में कोई जानकारी नहीं है.’
सरना धर्म आंदोलन : झारखंड में जनजातीय पहचान और राजनीति
'आर्टिकल 14' के लिए शामिक बेग की रिपोर्ट है कि झारखंड में प्रकृति-पूजक सरना धर्म को आधिकारिक मान्यता देने के लिए एक मजबूत आंदोलन चल रहा है. 2011 की जनगणना में लगभग 49 लाख लोगों (जिनमें से 41 लाख झारखंड से) ने स्वयं को सरना धर्म का अनुयायी बताया था. यह आंदोलन आदिवासी पहचान, जनजातीय अस्मिता और धार्मिक मान्यता के मुद्दों को एक साथ जोड़ता है. सरना धर्म प्रकृति के साथ एक सहजीवी संबंध पर आधारित है, जिसमें पेड़-पौधों, पहाड़ों और प्राकृतिक स्थलों की पूजा होती है और मूर्ति पूजा नहीं होती. आदिवासी समाज में यह पहचान की एक महत्वपूर्ण कड़ी बन गई है. ऐसे में अगर सरना कोड मान्य नहीं किया गया तो संभावित आंदोलन और जनगणना बहिष्कार की आशंका है.
एक नजर में समझें मामला :
झारखंड की प्रमुख जनजातियां संथाल, उरांव, मुंडा और हो सरना धर्म की मान्यता के लिए एकजुट हैं.
नवंबर 2020 में, झारखंड विधानसभा ने सरना आदिवासी धर्म कोड बिल के लिए एक सर्वसम्मत प्रस्ताव पारित किया.
भाजपा के अलावा अन्य सभी प्रमुख राजनीतिक दल सरना कोड का समर्थन करते हैं.
सरना धर्म का बढ़ता प्रभाव राज्य में भाजपा को चुनावी नुकसान पहुंचा रहा है.
RSS ने सरना कोड की मांग को "ईसाई मिशनरियों की साजिश" और "हिंदू वोट बैंक को विभाजित करने का प्रयास" करार दिया है.
झारखंड के आदिवासी नेता इस मांग पर अड़े हैं कि "आदिवासी कभी हिंदू नहीं थे और न कभी होंगे".
जनगणना में 'अन्य' विकल्प हटाए जाने से आदिवासियों की चिंता बढ़ी है.
सरना आंदोलन सामाजिक सुधार से जुड़ा है - शराबखोरी, अंधविश्वास और चुनावी भ्रष्टाचार जैसी बुराइयों से लड़ रहा है.
सऊदी अरब ने भारतीयों के निजी हज कोटे में 80% की कटौती की
पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी (पीडीपी) प्रमुख महबूबा मुफ्ती ने रविवार को एक्स पर भारत के निजी हज कोटे में अचानक 80% कटौती की खबरों पर चिंता व्यक्त की और विदेश मंत्रालय से इस मामले को रियाद में अधिकारियों के समक्ष उठाकर हस्तक्षेप करने की मांग की. महबूबा ने आगे लिखा, “इस अचानक फैसले से देश भर के तीर्थयात्रियों और टूर ऑपरेटरों को भारी परेशानी हो रही है.” वहीं जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला के कार्यालय ने कहा, “52,000 से अधिक भारतीय तीर्थयात्रियों के हज स्लॉट रद्द किए जाने की खबर बेहद चिंताजनक है. इनमें से कई ने पहले ही रकम का भुगतान कर दिया है.”
‘टाइम्स ऑफ इंडिया’ की हालिया रिपोर्ट में कहा गया है कि सऊदी अरब ने मीना में निजी टूर ऑपरेटरों को आवंटित किए गए क्षेत्रों को रद्द कर दिया है. इसके बाद करीब 52,000 भारतीय हज यात्रियों का भाग्य अनिश्चित हो गया है. इस साल 4 जून से 9 जून के बीच हज होने की संभावना है.
इस बार नहीं मिली ईसाइयों को “क्रॉस जुलूस” की अनुमति
दिल्ली के कैथोलिक आर्चडायोसीस (सीएएडी) द्वारा हर वर्ष निकाला जाने वाला क्रॉस जुलूस, जो पाम संडे पर पारंपरिक रूप से आयोजित होता है, इस वर्ष नहीं हो सका. क्योंकि दिल्ली पुलिस ने कानून-व्यवस्था और यातायात चिंताओं का हवाला देते हुए इसकी अनुमति देने से इनकार कर दिया.
सीएएडी ने इस पर नाराजगी व्यक्त करते हुए कहा कि पुलिस द्वारा दिए गए कारण को स्वीकार करना मुश्किल है, खासकर तब, जब अन्य समुदायों और राजनीतिक समूहों को नियमित रूप से जुलूस और रैलियों की अनुमति दी जाती है, यहां तक कि कार्य दिवसों में व्यस्त घंटों के दौरान भी. ईसाई अब सवाल करते हैं कि क्या धार्मिक स्वतंत्रता के उनके संवैधानिक अधिकार को समान रूप से बरकरार रखा जा रहा है? इस बीच केंद्रीय मंत्री जॉर्ज कुरियन ने कहा कि "सुरक्षा कारणों" से जुलूस की अनुमति नहीं दी गई. इसी कारण शनिवार को निर्धारित हनुमान जयंती के जुलूस को भी स्वीकृति नहीं मिली थी.
विश्लेषण
आकार पटेल : आखिर इकलौता चीन काहे इतना अकड़ रहा है ट्रम्प की धौंसपट्टी के खिलाफ़
डोनाल्ड ट्रम्प के अनुसार, दुनिया भर के वाणिज्य मंत्रालय अमेरिका के सामने गुहार लगाने के लिए कतार में खड़े हैं. क्या हम भी उनमें से हैं? लगता तो नहीं. पिछले हफ्ते इस बारे में एक हेडलाइन वाणिज्य मंत्री पीयूष गोयल के बयान की थी : "हम बंदूक की नोक पर बातचीत नहीं करते." यह इसे देखने का बिल्कुल सही तरीका है, और मैं इससे सहमत हूं. संप्रभु राष्ट्रों को ज़ोर देना चाहिए कि उनके साथ बराबरी का बर्ताव हो, न कि अधीनस्थ की तरह. चीन की प्रतिक्रिया भी खासी मज़बूत है. ऐसा अब तक केवल कनाडा ने किया है. लेकिन जब तक अमेरिका ये न साफ बता पाये कि वह चाह किस तरह के नतीजे रहा है, तब तक इंतजार करना और चुप रहना भी सही है.
टैरिफ को लेकर कुछ और भी था, जो गोयल ने कह दिया और मुसीबत में पड़ गए. उन्होंने कहा कि भारत में नया धंधा खड़ा करने वाले व्यापार (दुकानदारी शब्द का उपयोग किया था) पर केंद्रित थे, न कि इनोवेशन (नवाचार) पर. गोयल ने यहां की स्थिति की तुलना चीन से की, जहां के स्टार्ट-अप्स रोबोटिक्स और उन्नत विनिर्माण और कृत्रिम बुद्धिमत्ता पर काम कर रहे थे. गोयल को उद्यमियों से तीखी प्रतिक्रिया मिली. उन्होंने भारत में कई स्टार्ट अप फर्मों की ओर इशारा किया जो उस प्रकार का काम कर रही थीं जो गोयल कह रहे थे कि उन्हें करना चाहिए.
भारत में व्यापार का इतिहास दिखाएगा कि व्यापारिक समुदाय मुख्य रूप से 20वीं सदी तक व्यापारी और बैंकर थे. 1919 में बिड़ला मैन्युफैक्चरिंग में आए, और उससे पहले पारसियों सहित कुछ गुजराती थे - टाटा स्टील की स्थापना 1910 के आसपास हुई थी.
व्यापार के साथ यह ऐतिहासिक जुड़ाव, विनिर्मित वस्तुओं के बजाय, और डिलीवरी ऐप्स जैसी चीजों तक इसका विस्तार संभवतः वह था, जिसका गोयल उल्लेख कर रहे थे, और फिर से मैं उनके व्यापक बिंदु से सहमत हूं. सवाल यह है : भारत के स्टार्टअप्स को चीन जैसा दिखने के लिए क्या चाहिए? यह सवाल व्यवसायों से पूछना सही है. यह सरकार से भी पूछना उतना ही सही है.
चीन कहां तक पहुंच गया है? पिछले साल के एक विश्लेषण ने वास्तविकता को इस तरह से प्रस्तुत किया : "चीन अब दुनिया की एकमात्र मैन्युफैक्चरिंग सुपर पॉवर है. इसका उत्पादन उसके बाद आने वाले नौ सबसे बड़े निर्माताओं के संयुक्त उत्पादन से अधिक है." इसका बहुत कुछ सरकार द्वारा औद्योगिक नीति और राजनीति के माध्यम से किए गए कार्यों के कारण है.
इसने अफ्रीका और लैटिन अमेरिका में खनिज संपन्न देशों के साथ संबंध स्थापित किए, और इसने इनमें से कई देशों में बंदरगाह और रेलवे लाइनें स्थापित कीं. इसकी सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियों, जो सरकार के स्वामित्व में हैं, ने वाणिज्यिक जहाजों और वाणिज्यिक हवाई जहाजों का निर्माण किया, ताकि वे किसी पर भी निर्भर न रहें. चीन अपने सभी पड़ोसी देशों को, जिनके साथ उसने युद्ध लड़े थे और जिनके साथ उसके चल रहे विवाद हैं, यह समझाने में कामयाब रहा कि वे इन मुद्दों को व्यापार के रास्ते में न आने दें. चीन का सबसे बड़ा व्यापारिक भागीदार संयुक्त राज्य अमेरिका या यहां तक कि यूरोपीय संघ भी नहीं है, बल्कि दक्षिण पूर्व एशियाई राष्ट्रों का संघ है, जिनमें से कई के साथ चीन के गंभीर विवाद हैं.
अमेरिका के सैन्य गठबंधनों जैसे नाटो उत्तरी अटलांटिक संधि संगठन और एयूकेयूएस और क्वाड और इसी तरह के दूसरे गठजोड़ों के बरक्स, चीन ने बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव के माध्यम से एक विकास गठबंधन रणनीति स्थापित की. इस पहल की पश्चिमी आलोचना तो जगजाहिर है ही, पर हमें यह भी जांचना चाहिए कि इसमें भाग लेने वाले देश चीन के बारे में क्या कहते और सोचते हैं.
सोचिये कि पूरी दुनिया दशकों से जलवायु परिवर्तन के बारे में चिंतित है, लेकिन चीनी सरकार ही एकमात्र ऐसी थी जिसने समस्या से निपटने और इसका फायदा उठाने दोनों के लिए एक औद्योगिक रणनीति बनाई. यह निष्कर्ष निकालकर कि उसका ऑटोमोबाइल क्षेत्र आंतरिक कंबशन इंजनों में जापानी और जर्मन फर्मों के अनुभव और उनके द्वारा धारित पेटेंट के खिलाफ मुक़ाबला नहीं कर सकता, चीन ने इलेक्ट्रिक कारों पर ध्यान केंद्रित करने का फैसला किया. इसने 2016 में 5 लाख नई ऊर्जा वाले वाहनों का उत्पादन किया, 2018 में 10 लाख और पिछले साल इसने 1 करोड़ का उत्पादन किया. पिछले साल इसने 58 लाख कारों का निर्यात किया.
सौर पैनलों को लेकर भी यही बात है, जहां फिर से चीन की सरकार ने भविष्य की तरफ देखा और उन्हें अवसर समझ में आया. आज यह दुनिया भर में उपयोग किए जाने वाले सौर सेलों का 80 प्रतिशत से अधिक और ग्रह की दो-तिहाई इलेक्ट्रिक वाहन बैटरियों का उत्पादन करता है. दुनिया की सप्लाई चेन खनन से लेकर परिष्करण, विनिर्माण और असेंबली तक चीन के माध्यम से चलती हैं. यह पूरे क्षेत्रों में, और विशेष रूप से उन क्षेत्रों में जो भविष्य में और भी अधिक महत्वपूर्ण होंगे, एकाधिकार की सीमा तक अहम हैं.
यह सच है कि इसके उद्यमियों ने शानदार काम किया है, जैसा कि हमने हाल ही में डीप सीक के साथ देखा है. और यह भी मामला है कि आम तौर जिन चीजों में हमें लगता है कि अमेरिका का दबदबा है, उनमें भी चीनी उद्यमियों की सफलता जैसे सोशल मीडिया और खुदरा को अमेरिका में टिकटॉक, शीइन और टेमू की लोकप्रियता देखी जा सकती है.
इन सबके पीछे चीन की सरकार है जिसने रणनीति और औद्योगिक नीति का पहले नक्शा बनाया, फिर रास्ता. जिसने इन जीतों को पैदा और मुमकिन किया. यह आम तौर पर उदारीकरण के लिए कही जाने वाली बात से बिल्कुल उलट है, कि सरकारों को अर्थव्यवस्था में बड़े पैमाने पर दखलंदाजी करने से बचना चाहिए. ये चीन सरकार के दखल के कारण ही है कि उनका देश यहां तक पंहुचा है और उसके उद्यमी चमक पाए हैं. यही वजह है कि ट्रम्प के टैरिफ वॉर शुरू करने के बाद अमेरिकी स्टॉक और बॉन्ड बाजार इतनी अफरातफरी वाली प्रतिक्रिया देते है, क्योंकि इसका निशाना चीन है. चीन को अमेरिका के खिलाफ खड़े होने का आत्मविश्वास है क्योंकि वह जानता है कि जो उसने योजना और कार्य के माध्यम से बनाया है, उसकी नकल करना मुश्किल है. और उसे यह समझ है कि वर्तमान में अमेरिका को शासित करने वाले लोगों की विघटन की कल्पनाओं के बावजूद दुनिया उस पर निर्भर रहेगी.
अमेरिकी स्टॉक और बॉन्ड बाजार इस युद्ध में केवल एक राष्ट्र पर टैरिफ के प्रभाव पर हिंसक प्रतिक्रिया देते हैं जिसे ट्रम्प ने शुरू किया है और वह है चीन. चीन को अमेरिका के खिलाफ खड़े होने का आत्मविश्वास है क्योंकि वह जानता है कि जो उसने योजना और कार्य के माध्यम से बनाया है, उसकी नकल करना मुश्किल है. और उसे यह समझ है कि कितनी ही वर्तमान में अमेरिका को शासित करने वाले लोग ये कल्पना कर लें कि वे चीन को अलगथलग कर देंगे, उनके बावजूद भी दुनिया की उस पर निर्भरता कहीं नहीं जाने वाली.
(स्तंभकार और लेखक होने के अलावा आकार पटेल एमनेस्टी इंडिया के अध्यक्ष हैं.)
चीन ने बढ़ते व्यापार युद्ध के बीच महत्वपूर्ण खनिजों के निर्यात पर रोक लगाई
'न्यूयॉर्क टाइम्स' के लिए कीथ ब्रैडशर की रिपोर्ट है कि चीन ने कार, सेमीकंडक्टर, एयरोस्पेस और रक्षा उपकरणों में उपयोग होने वाले अत्यंत आवश्यक दुर्लभ खनिजों और चुम्बकों (मैग्नेट्स) के निर्यात पर रोक लगा दी है. यह कदम अमेरिका द्वारा 2 अप्रैल को लगाए गए नए टैरिफ के जवाब में उठाया गया है.
चीन ने छह भारी दुर्लभ धातुएं निर्यात करने से रोक दी हैं. रेयर अर्थ मैग्नेट्स जो ड्रोन, रोबोट, इलेक्ट्रिक कारें, मिसाइलें और स्पेसक्राफ्ट जैसी तकनीकों में उपयोग होते हैं. चीन दुनिया के कुल उत्पादन का 90% इन चुम्बकों का उत्पादक है और भारी दुर्लभ धातुओं का लगभग पूरा रिफाइनिंग चीन में ही होता है. अमेरिकी कंपनियों के पास बड़ी मात्रा में स्टॉक नहीं है, क्योंकि वे महंगे कच्चे माल में पूंजी फंसाना नहीं चाहती. दूसरी ओर, जापानी कंपनियों ने 2010 के संकट से सबक लेकर सालभर का स्टॉक जमा कर रखा है. अगर अमेरिका और चीन के बीच समाधान नहीं हुआ तो यह संकट लंबा खिंच सकता है.
निर्यात क्यों रुका? चीन सरकार एक नया निर्यात लाइसेंसिंग सिस्टम बना रही है. जब तक यह सिस्टम लागू नहीं होता, तब तक इन खनिजों और चुम्बकों का निर्यात रुक गया है. अमेरिकी रक्षा कंपनियों को स्थायी रूप से इन वस्तुओं की आपूर्ति रोकी जा सकती है. लाइसेंस जारी करने की प्रक्रिया धीमी है, जिससे उद्योग जगत में चिंता फैल गई है.
अमेरिका और दुनिया पर प्रभाव
कार और इलेक्ट्रिक वाहन निर्माण : शक्तिशाली मैग्नेट्स की कमी से उत्पादन रुक सकता है.
सेना और रक्षा क्षेत्र : ड्रोन और रोबोट्स के निर्माण पर सीधा असर पड़ेगा.
कंप्यूटर चिप और एआई सर्वर : इन खनिजों के बिना कैपेसिटर नहीं बन सकते.
क्या पूरी दुनिया प्रभावित होगी? हां, चीन न सिर्फ अमेरिका बल्कि जापान, जर्मनी जैसे देशों को भी निर्यात रोक रहा है.
कुछ बंदरगाहों पर निर्यात में थोड़ी छूट दी जा रही है, अगर उत्पादों में भारी धातुएं नहीं हैं.
दूसरे बंदरगाह सख्ती से हर शिपमेंट की जांच कर रहे हैं.
रेप का आरोपी पादरी गिरफ्तार : कोयंबटूर पुलिस ने पिछले साल 17 और 14 साल की दो नाबालिग लड़कियों से यौन उत्पीड़न के आरोपी 37 साल के फरार चल रहे पादरी डी जॉन जेबराज को शनिवार शाम गिरफ्तार कर लिया. जेबराज क्रॉस कट रोड पर किंग्स जेनरेशन चर्च का पादरी है. ईसाई भक्ति गीतों के लिए सोशल मीडिया पर उसके बहुत प्रशंसक हैं.
चलते-चलते
मारियो वर्गास लोसा, नोबेल विजेता पेरूवियन लेखक का 89 वर्ष की आयु में निधन
स्पेनिश और पेरू के महान लेखक मारियो वर्गास लोसा, जिन्होंने पांच दशकों तक अपनी बौद्धिक प्रखरता और काव्यात्मक गद्य से पाठकों को मंत्रमुग्ध किया और लगभग अपने देश के राष्ट्रपति बन गए थे, का रविवार को 89 वर्ष की आयु में निधन हो गया. उनके बेटे अलवारो वर्गास लोसा ने बताया कि उनका निधन राजधानी लीमा में परिवार के बीच शांतिपूर्वक हुआ.
20वीं सदी के लैटिन अमेरिकी साहित्य "बूम पीढ़ी" के प्रमुख प्रकाश स्तंभ, वर्गास लोसा ने 2010 में "आँट जूलिया एंड द स्क्रिप्टराइटर," "डेथ इन द एंडीज," और "द वॉर ऑफ दी एंड ऑफ द वर्ल्ड" जैसी कृतियों के लिए साहित्य का नोबेल पुरस्कार जीता. हालांकि, उन्होंने जल्द ही उन समाजवादी विचारों को त्याग दिया, जिन्हें उनके कई समकालीनों ने अपनाया था. उनके रूढ़िवादी विचारों और राजनीति में दखल ने लैटिन अमेरिका के वामपंथी बौद्धिक वर्ग को नाराज किया. 1990 में, उन्होंने पेरू के राष्ट्रपति पद का चुनाव लड़ा, लेकिन अल्बर्टो फुजीमोरी से हार गए. हार से निराश होकर, लेखक स्पेन चले गए, लेकिन लैटिन अमेरिका में प्रभावशाली बने रहे, और वेनेजुएला के तत्कालीन राष्ट्रपति ह्यूगो चावेज़ जैसे वामपंथी नेताओं की कड़ी आलोचना करते रहे. अपने दर्जनों उपन्यासों, नाटकों और निबंधों में, वर्गास लोसा ने विभिन्न दृष्टिकोणों से कहानियां कहीं और कथा शैलियों के साथ प्रयोग किए. उनकी रचनाओं ने उन्हें 1960 के दशक में लैटिन अमेरिकी साहित्य के पुनरुत्थान का नेतृत्व करने वाली पीढ़ी का एक मूलभूत व्यक्ति बना दिया. उनके काम अक्सर नेताओं और उनके अधीन लोगों के बीच बेचैन करने वाले संबंधों की जांच करते थे. पेरू की राष्ट्रपति डीना बोलुआर्टे ने उन्हें "अब तक का सबसे प्रतिष्ठित पेरूवासी" कहा.
पाठकों से अपील
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