15/09/2025: घुसपैठियों से परेशान मोदी | भाजपा की उपलब्धियों पर आकार पटेल | नेपाल से भारत क्या सबक ले | दोस्त की कब्र पर अदालती फैसला पढ़ने गया | क्रिकेट मैच जीते, दुःख बरकरार | क्राउड सोर्सिंग से रोशन
‘हरकारा’ यानी हिंदी भाषियों के लिए क्यूरेटेड न्यूजलेटर. ज़रूरी ख़बरें और विश्लेषण. शोर कम, रोशनी ज़्यादा.
निधीश त्यागी, साथ में राजेश चतुर्वेदी, गौरव नौड़ियाल, फ़लक अफ़शां
आज की सुर्खियां
घुसपैठियों से डेमोग्राफी बदलने की साज़िश, मोदी का नया मिशन
अमित शाह की घोषणा के बावजूद मणिपुर में NH-2 अब भी बंद
मणिपुर मोदी के पीएम काल का सबसे अंधकारमय अध्याय
मांझी की एनडीए को चेतावनी, 20 सीटें दो नहीं तो 100 पर लड़ेंगे
एशिया कप में भारत ने पाकिस्तान को 7 विकेट से रौंदा
पहलगाम हमले का साया, टॉस पर कप्तानों ने हाथ नहीं मिलाया
शहीद की विधवा बोलीं, ये मैच हमारे ज़ख़्मों पर नमक जैसा
2006 मुंबई ब्लास्ट: दोस्त की क़ब्र पर उसकी बेगुनाही का फ़ैसला पढ़ा
भारत से बाहर जाने वाला 56% FDI ‘टैक्स हेवन’ देशों में
आकार पटेल: भाजपा का ‘रीमेक इंडिया 2025’, नफ़रती क़ानून बनाने में पूरी सफ़लता
सुशांत सिंह पड़ोसी देशों में युवा विद्रोह से सबक़, जिसे भारत नज़रअंदाज़ नहीं कर सकता
नागरिकों की पहल, क्राउडफंडिंग से रोशन हुईं 92 ऐतिहासिक इमारतें
घुसपैठिया राजनीति
डेमोग्राफिक बदलाव की साज़िश को विफल करने के लिए जल्द ही मिशन शुरू करेंगे मोदी
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने रविवार (14 सितंबर, 2025) को कहा कि केंद्र "घुसपैठियों" की मदद से देश के सीमावर्ती क्षेत्रों की जनसांख्यिकी को बदलने की साज़िश को विफल करने के लिए एक मिशन शुरू करने की तैयारी कर रहा है. उत्तर-मध्य असम के दरांग ज़िले के मंगलदोई में एक रैली को संबोधित करते हुए उन्होंने कहा कि जो लोग घुसपैठियों को पनाह देने पर तुले हुए हैं, वे बांग्लादेश की सीमा से लगे क्षेत्रों की जनसांख्यिकी को बदलने की साज़िश रच रहे हैं. मंगलदोई गुवाहाटी से लगभग 70 किमी उत्तर-पूर्व में है. हिंदू में रिपोर्ट है.
मोदी ने कहा, "यह राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए एक गंभीर ख़तरा है, जिसके लिए देश भर में एक जनसांख्यिकी मिशन की आवश्यकता है," उन्होंने भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के भारतीय नागरिकों को उनसे बचाने के लिए घुसपैठियों को बाहर निकालने के "लक्ष्य" को रेखांकित किया. उन्होंने कहा, "मैं (घुसपैठियों के समर्थक) राजनेताओं को बताना चाहता हूँ कि मैंने उनकी चुनौती स्वीकार कर ली है," उन्होंने कांग्रेस पर इन घुसपैठियों को बचाने और उनकी रक्षा करने का आरोप लगाया.
"इसे लिख लीजिए. मैं देखूँगा कि आप घुसपैठियों की रक्षा के लिए अपनी ताक़त का इस्तेमाल कैसे करते हैं और हम उन्हें हटाने के लिए अपनी जान कैसे जोखिम में डालते हैं. एक मुक़ाबला होने दीजिए. घुसपैठियों की रक्षा करने वालों को नुक़सान होगा, और मेरे शब्दों को याद रखें, देश उन्हें माफ़ नहीं करेगा," मोदी ने कहा. उन्होंने कहा कि कांग्रेस पार्टी ने सत्ता में रहते हुए घुसपैठ का समर्थन किया. उन्होंने कहा, "कांग्रेस चाहती है कि घुसपैठिए स्थायी रूप से भारत में रहें और इसका भविष्य तय करें."
कांग्रेस पर भारत-विरोधी व्यक्तियों और विचारधाराओं के साथ खड़े होने का आरोप लगाते हुए उन्होंने कहा कि जब पुरानी पार्टी वोट बैंक की राजनीति को बढ़ावा देकर सत्ता में थी तो देश का ख़ून बहा. "आज, हमारी सेनाओं ने 'ऑपरेशन सिंदूर' के दौरान आतंकवाद के सरगनाओं को उखाड़ फेंका है, लेकिन कांग्रेस, भारतीय सेना के साथ खड़े होने के बजाय, पाकिस्तानी सेना के साथ खड़ी थी. कांग्रेस के लोग आतंकवाद को पोषित करने वालों के एजेंडे को आगे बढ़ाते हैं. आपको हमेशा कांग्रेस पार्टी से सावधान रहना होगा," मोदी ने कहा.
इससे पहले, प्रधानमंत्री ने मंगलदोई में ₹6,300 करोड़ की स्वास्थ्य और बुनियादी ढाँचा परियोजनाओं की आधारशिला रखी. इनमें दरांग मेडिकल कॉलेज और अस्पताल का निर्माण, एक नर्सिंग कॉलेज और एक सामान्य नर्सिंग और मिडवाइफ़री स्कूल, 2.9 किमी का नारंगी-कुरुवा पुल, और असम के कामरूप और दरांग ज़िलों और मेघालय के री-भोई ज़िले को जोड़ने वाली 118.5 किमी की गुवाहाटी रिंग रोड शामिल है.
भारत ने पाकिस्तान को 7 विकेट से हराया
भारत ने शुरुआती दो विकेट जल्दी गंवा दिए, लेकिन अभिषेक शर्मा ने तेज़तर्रार 31 रनों की पारी खेलकर मंच तैयार कर दिया. इसके बाद कप्तान सूर्यकुमार यादव (47 रन) और तिलक वर्मा (31 रन) ने पारी को आगे बढ़ाया और "मेन इन ब्लू" ने एशिया कप ग्रुप-ए के मुकाबले में रविवार को पाकिस्तान को 7 विकेट से हरा दिया. पाकिस्तान की ओर से साइम अय्यूब सबसे सफल गेंदबाज़ रहे, उन्होंने 3 विकेट झटके.
इस जीत के साथ भारत एशिया कप में अब तक की इकलौती दो जीत दर्ज करने वाली टीम बन गई है, जिससे टीम लगभग इस हफ्ते बाद खेले जाने वाले सुपर-4 चरण के लिए क्वालिफाई कर चुकी है. इससे पहले सूर्यकुमार और उनकी टीम शुक्रवार को ओमान के खिलाफ अपना आखिरी ग्रुप-स्टेज मुकाबला खेलेगी.
दोनों कप्तानों के बीच पारंपरिक शेक हैंड नहीं हुआ, “बीसीसीआई और सरकार ने सहमति दे दी, खिलाड़ी क्या करते”
इसके पहले दुबई इंटरनेशनल स्टेडियम, जो पहले से ही आधा भरा हुआ था, के बीचोंबीच जब भारत के सूर्यकुमार यादव और पाकिस्तान के सलमान अली आगा आए तो हमेशा की तरह जोरदार शोरगुल ने दोनों कप्तानों का स्वागत किया. लेकिन एशिया कप के इस शोपीस मुकाबले के टॉस पर सूर्या और आगा के बीच पारंपरिक हाथ मिलाना नहीं हुआ. दोनों कप्तानों ने अंपायर को अपनी-अपनी टीम सूची सौंपी, कमेंटेटर – इस बार रवि शास्त्री – के साथ औपचारिक बातचीत की और फिर सीधे ड्रेसिंग रूम लौट गए.
“द इंडियन एक्सप्रेस” में संदीप जी के अनुसार, सूर्या ने मुकाबले से कुछ घंटे पहले ही टीम को बता दिया था कि वे हाथ नहीं मिलाएंगे. हालांकि उन्होंने यह भी स्पष्ट कर दिया कि पाकिस्तानी खिलाड़ियों से हाथ मिलाना हर साथी खिलाड़ी की व्यक्तिगत पसंद पर निर्भर करेगा. खिलाड़ी इस बात से अवगत थे कि पहलगाम आतंकी हमले, जिसमें 26 लोगों की मौत हुई, और उसके बाद भारत की जवाबी कार्रवाई के चलते देश में भारी आक्रोश है. लेकिन, भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड (बीसीसीआई) और सरकार ने चूंकि, दुबई में पाकिस्तान के खिलाफ मैच खेलने की सहमति दे दी थी, इसलिए उनके पास कोई विकल्प नहीं बचा.
मैच से एक दिन पहले खिलाड़ियों की चिंताओं पर टीम मीटिंग में चर्चा की गई थी, यह बात सहायक कोच रयान टेन डोएशेट ने प्रेस कॉन्फ्रेंस में कही. “यह तो वास्तव में आज सुबह ही हमने बोला था. हम सभी की भावनाओं और गहरी संवेदनाओं से भली-भांति अवगत हैं. और, गौती (कोच गौतम गंभीर) का संदेश पूरी तरह से पेशेवर रहा है—उन चीजों की चिंता न करने का, जो हमारे नियंत्रण में नहीं हैं,” उन्होंने कहा.
“मुझे इस पर कोई शक नहीं कि खिलाड़ी भारतीय जनता की भारी बहुसंख्या की करुणा और भावनाओं को साझा करते हैं. एशिया कप लंबे समय से अधर में लटका हुआ था, और हम बस इंतज़ार कर रहे थे. एक समय तो हमें लगा कि शायद हम यहां आने वाले ही नहीं थे. लेकिन अब आप जानते हैं कि सरकार का रुख क्या है. अब टीम, विशेषकर खिलाड़ियों को, अपनी भावनाओं और संवेदनाओं को अलग रखना होगा. उम्मीद है कि जिस तरह हम खेलेंगे, वही हमारे देश के लिए हमारी भावनाओं को दर्शाएगा,” मैच शुरू होने से पहले डच कोच ने कहा.
टॉस से पहले माहौल भी ठंडा-सा था. दोनों टीमों के खिलाड़ी और सहयोगी स्टाफ लगभग साथ-साथ पिच का मुआयना कर रहे थे. लेकिन उन्होंने मुश्किल से ही एक-दूसरे को देखा या अभिवादन किया, मानो वे एक-दूसरे की मौजूदगी से अनजान हों.
भारत-पाक मैच ज़ख़्मों पर नमक छिड़कने जैसा, पहलगाम आतंकी हमले की पीड़ित की विधवा
ओडिशा की पहलगाम आतंकी हमले की एक पीड़िता की विधवा प्रियदर्शनी ने कहा है कि रविवार को पाकिस्तान के साथ एशिया कप क्रिकेट मैच खेलने का फ़ैसला उन लोगों के ज़ख़्मों पर नमक छिड़कने जैसा है जिन्होंने पहलगाम आतंकी हमले में अपने प्रियजनों को खो दिया था. प्रियदर्शनी के पति प्रशांत सत्पथी (43) उन 26 नागरिकों में शामिल थे जो 22 अप्रैल को दक्षिण कश्मीर के पहलगाम में हुए आतंकी हमले में मारे गए थे. इंडियन एक्सप्रेस में सुजीत बिसोई की रिपोर्ट है.
ओडिशा के बालासोर में अपने आवास पर संवाददाताओं से बात करते हुए, प्रियदर्शनी ने कहा कि पाकिस्तान के साथ मैच आयोजित करना उस देश की आर्थिक रूप से मदद करने जैसा है. उन्होंने कहा, "छुट्टियों पर गए उन 26 परिवारों को भूल जाइए जिन्होंने इस त्रासदी का सामना किया. उन सैनिकों के परिवार के सदस्यों का क्या जिन्होंने 'ऑपरेशन सिंदूर' के दौरान पाकिस्तानी सेना से लड़ते हुए अपनी जान गँवा दी? यह उनका भी अपमान है."
उन्होंने कहा कि सरकार ने पहलगाम आतंकी हमले के बाद कई क़दम उठाए, लेकिन यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि उसने मैच होने दिया. उन्होंने कहा, "हमने सोचा था कि 'ऑपरेशन सिंदूर' पाकिस्तान के लिए एक झटका था, और उसे आर्थिक रूप से नुक़सान होगा. लेकिन क्रिकेट मैच आयोजित करने का फ़ैसला उन्हें आर्थिक रूप से मदद करने जैसा है." प्रशांत, जो सेंट्रल इंस्टीट्यूट ऑफ़ पेट्रोकेमिकल्स इंजीनियरिंग एंड टेक्नोलॉजी (CIPET), बालासोर में एक अकाउंटेंट के रूप में काम करते थे, आतंकी हमले के दिन अपनी पत्नी और नौ वर्षीय बेटे के साथ पहलगाम में छुट्टियों पर थे. यह परिवार ओडिशा के बालासोर ज़िले के रेमुना का रहने वाला है.
एएनआई से बात करते हुए, भाजपा सांसद और पूर्व खेल मंत्री अनुराग ठाकुर ने कहा कि मैच केवल इसलिए हुआ क्योंकि यह आईसीसी द्वारा आयोजित एक बहुराष्ट्रीय टूर्नामेंट है. ठाकुर ने कहा, "जब एसीसी या आईसीसी द्वारा बहुराष्ट्रीय टूर्नामेंट आयोजित किए जाते हैं, तो देशों के लिए भाग लेना एक मजबूरी, एक आवश्यकता बन जाती है. अगर वे ऐसा नहीं करते हैं, तो उन्हें टूर्नामेंट से बाहर कर दिया जाएगा, उन्हें मैच छोड़ना होगा, और दूसरी टीम को अंक मिल जाएँगे."
दोस्त की क़ब्र पर बॉम्बे हाईकोर्ट का फ़ैसला पढ़ने मैं नागपुर क्यों गया
यह लेख स्क्रोल में अब्दुल वाहिद शेख़ ने लिखा है. उसके कुछ अंश. पेशे से टीचर वाहिद शेख 2006 मुंबई ट्रेन ब्लास्ट के आरोपी थे, जिन्हें बाद में बेगुनाह बताया गया. वे अपने जीवन के बरबाद हुए सालों की भरपाई के लिए अदालत भी जा रहे हैं.
20 जुलाई की शाम को, मैं अपने घर पर अपने बहनोई साजिद मगरूब अंसारी के साथ रात का खाना खा रहा था. वह 7/11 मुंबई ट्रेन ब्लास्ट मामले के आरोपियों में से एक थे - एक ऐसा व्यक्ति जो पहले ही 19 साल जेल में बिता चुका था और लगभग दो दशकों के बाद पहली बार 40 दिन की पैरोल पर बाहर आया था. जब हम साथ में खाना खा रहे थे, तभी मेरे फ़ीड पर एक संदेश आया: इस मामले में लंबे समय से सुरक्षित रखा गया फ़ैसला, जो इस साल जनवरी से लंबित था, अगले दिन सुनाया जाएगा.
हम तेरह लोगों पर आतंकवाद, राष्ट्र के ख़िलाफ़ युद्ध छेड़ने और 11 जुलाई, 2006 को मुंबई की सात उपनगरीय ट्रेनों में बम लगाने जैसे अन्य आरोपों में आरोपी बनाया गया था. इन धमाकों में 189 लोग मारे गए थे और 824 घायल हुए थे. 2015 में, नौ साल तक ग़लत तरीक़े से क़ैद रहने के बाद, मैं इस मामले में आरोपी बनाए गए लोगों में से बरी होने वाला एकमात्र व्यक्ति था. जब मैं रिहा हुआ, तो मैंने फ़ैसला किया कि मैं अपना जीवन इस मामले में अभी भी फँसे सभी निर्दोष लोगों की रिहाई सुनिश्चित करने के लिए समर्पित कर दूँगा.
उस जुलाई की शाम को, जब हम फ़ैसले का इंतज़ार कर रहे थे, मेरे अंदर उम्मीद और डर एक साथ टकरा रहे थे. मुझे समझ नहीं आ रहा था कि कैसे प्रतिक्रिया दूँ - चाहे राहत की उम्मीद करूँ या निराशा के एक और दौर के लिए तैयार रहूँ. मैं होठों पर प्रार्थना के साथ सो गया, यह कामना करते हुए कि यह फ़ैसला आख़िरकार हमारे 19 साल के अंतहीन दुख को समाप्त करेगा और अस्त-व्यस्त हो चुके जीवन को एक मुकाम पर पहुँचाएगा. लेकिन जैसे ही मैं इन विचारों से जूझ रहा था, एक नाम मुझे बार-बार परेशान कर रहा था: कमाल अंसारी. मैंने उसके साथ नौ साल सलाखों के पीछे बिताए थे. उसे मौत की सज़ा सुनाई गई थी, और एक दुखद अर्थ में वह सज़ा पूरी भी हुई - फाँसी के तख़्ते से नहीं, बल्कि न्यायिक प्रक्रिया की धीमी गति से. कमाल की 2021 में नागपुर सेंट्रल जेल में मृत्यु हो गई थी, जब मुक़दमा अभी भी चल रहा था. उसने 16 साल सलाखों के पीछे बिताए थे.
जब हाईकोर्ट ने अपना फ़ैसला सुनाया, तो वह अभियोजन पक्ष के मामले पर बेहद सख़्त था. उसने घोषणा की कि मुंबई पुलिस के आतंकवाद-रोधी दस्ते (ATS) द्वारा प्रस्तुत साक्ष्य अविश्वसनीय थे. अदालत ने कहा कि पूरा मामला तीन स्तंभों पर बनाया गया था - चश्मदीद गवाह, विस्फोटकों की बरामदगी और इकबालिया बयान - जो सभी क़ानूनी जाँच में ढह गए थे. यह फ़ैसला, चाहे कितना भी ऐतिहासिक क्यों न हो, कमाल अंसारी पर कोई असर नहीं डालता था, सिवाय इसके कि उसका नाम मरणोपरांत साफ़ हो गया था, जमीयत उलेमा-ए-हिंद के वकीलों, उसके परिवार और दोस्तों के 19 साल के अथक संघर्ष के बाद.
मुझे राहत मिली - लेकिन यह पीड़ा से भरी हुई थी. एक न्यायिक प्रणाली, जिसमें हमने अपना गहरा विश्वास निवेश किया था, एक व्यक्ति की बेगुनाही को पहचानने में लगभग दो दशक कैसे लगा सकती है, भले ही यह पहले दिन से ही स्पष्ट था? मेरा मानना है कि हमें इस मामले में कभी घसीटा ही नहीं जाना चाहिए था - और फिर भी, कमाल की तरह, हम सभी ने अपने जीवन के सबसे अच्छे साल जेल में खो दिए, सिर्फ़ इसलिए कि हम तथाकथित 'आतंक के ख़िलाफ़ युद्ध' के चरम पर भारत में एक मुसलमान थे.
कमाल की मरणोपरांत बरी होना गज़ब की बात थी - अदालतें शायद ही कभी मृतकों को फ़ैसले का लाभ देती हैं. इसके लिए, मैं जस्टिस अनिल किलोर और जस्टिस श्याम चांडक की बेंच का आभारी हूँ. मैं इस फ़ैसले के बाद से इस पर विचार कर रहा हूँ: कमाल अकेला नहीं था. मैंने एल्गार परिषद मामले में फ़ादर स्टेन स्वामी और माओवादियों से संबंध रखने के आरोपी पांडो नरोटे के बारे में सोचा, जो दोनों मुक़दमे का इंतज़ार करते हुए मर गए, यहाँ तक कि उन्हें चिकित्सा देखभाल की गरिमा से भी वंचित कर दिया गया; और उन अनगिनत क़ैदियों के बारे में जिन्हें मैंने अंदर सिर्फ़ लापरवाही के कारण मरते देखा था. जो राज्य आपको पिंजरे में बंद करता है, वह चुपचाप आपको मार भी देता है. और जब, दो दशकों के बाद, अदालत आख़िरकार आपको निर्दोष घोषित करती है, तो फिर क्या? क्या राज्य एक मौत को उलट सकता है? क्या यह जीवन के चुराए गए दशकों को बहाल कर सकता है?
फ़ैसले के दिन, मैंने नागपुर जाने का संकल्प लिया, उसकी क़ब्र के सामने खड़ा हुआ और उस फ़ैसले को पढ़ा जिसने उसे बरी कर दिया था. यह विरोधाभासों से भरा एक क्षण था: यहाँ एक ऐसा व्यक्ति लेटा था जिसने अपने जीवन के साल दोषी के रूप में बिताए थे, और अब - छह फ़ीट नीचे - बॉम्बे हाईकोर्ट ने उसे निर्दोष घोषित कर दिया. उसके लिए, इस फ़ैसले का कोई मतलब नहीं था; यह कागज़ का एक टुकड़ा था जो बहुत देर से पहुँचा था. कमाल की क़ब्र सिर्फ़ एक ग़लत आदमी का विश्राम स्थल नहीं है - यह भारत की न्यायिक प्रणाली, उसकी जाँच एजेंसियों और 'आतंक के ख़िलाफ़ युद्ध' के नाम पर फली-फूली बलि का बकरा बनाने की राजनीति पर एक स्थायी धब्बा है. असली न्याय मरणोपरांत बरी होने में नहीं है, बल्कि न्यायिक सुधारों के लिए एक आंदोलन बनाने में है जो इस तरह के अन्याय को फिर से होने से रोकता है.
भारत से जाने वाले एफडीआई का लगभग 56% ‘टैक्स हेवन’ मुल्कों में जाता है
वर्ष 2023-24 में भारतीय कंपनियों द्वारा किए गए कुल प्रत्यक्ष विदेशी निवेशों (एफ़डीआई) में से करीब 56% निवेश “टैक्स हैवन” देशों जैसे सिंगापुर, मॉरीशस, संयुक्त अरब अमीरात, नीदरलैंड्स, यूनाइटेड किंगडम और स्विट्ज़रलैंड में किए गए.
कंपनियां कम-कर वाले इन विदेशी क्षेत्रों का उपयोग अपने निवेश को चैनलाइज करने और वैश्विक उपस्थिति बढ़ाने के लिए करती हैं.
“द हिंदू” में टीसीए शरद राघवन की रिपोर्ट के अनुसार, 2023-24 में भारतीय कंपनियों के कुल 3,488.5 करोड़ रुपये के एफ़डीआई में से लगभग 1,946 करोड़ रुपये “टैक्स हैवन” देशों में गए. भारतीय रिज़र्व बैंक के आंकड़ों के विश्लेषण से पता चलता है कि केवल तीन देशों – सिंगापुर (22.6%), मॉरीशस (10.9%) और संयुक्त अरब अमीरात (9.1%) – ने वर्ष 2023-24 में भारत के कुल प्रत्यक्ष विदेशी निवेश का 40% से अधिक हिस्सा दर्ज किया.
वर्तमान वित्त वर्ष में यह प्रवृत्ति और भी तेज़ होती दिख रही है, क्योंकि केवल पहली तिमाही में ही ऐसे कम-कर वाले क्षेत्रों का हिस्सा भारत के कुल बाह्य एफ़डीआई में 63% तक पहुंच गया. ग्रांट थॉर्नटन भारत के पार्टनर रियाज़ थिंगना ने “द हिंदू” से कहा, “यदि भारतीय कंपनियां भारत से बाहर निवेश कर रही हैं, तो उन्हें इन न्यायक्षेत्रों में बनी कंपनियों के माध्यम से करना समझदारी है.”
थिंगना ने कहा कि अगर कोई भारतीय कंपनी यूरोप, अमेरिका या किसी अन्य देश में अपनी सहायक कंपनी स्थापित करना चाहती है, तो सिंगापुर या अन्य कम-कर वाले न्यायक्षेत्रों में विशेष प्रयोजन माध्यम से ऐसा करना उन्हें न केवल रणनीतिक निवेशक दिलाने में मदद करता है, बल्कि हिस्सेदारी बेचने के समय बेहतर कर-स्थिति भी उपलब्ध कराता है.
उन्होंने कहा, “ये न्यायक्षेत्र दैनिक आधार पर धन और निवेश स्थानांतरित करने में भी अधिक लचीले होते हैं. इसलिए अक्सर ये निवेश केवल कर चुराने, बचाने या घटाने के लिए ही नहीं किए जाते, बल्कि इस कारण भी किए जाते हैं कि ये न्यायक्षेत्र तीसरे देशों में निवेश के लिए प्लेटफ़ॉर्म का काम करते हैं.” इस साल जून में भारत का बाह्य प्रत्यक्ष विदेशी निवेश वर्ष-दर-वर्ष आधार पर बढ़कर 5.03 अरब डॉलर हो गया, जो पिछले वर्ष इसी महीने के 2.9 अरब डॉलर से कहीं अधिक है.
अमित शाह ने घोषणा तो कर दी पर मणिपुर में एनएच-2 पर आवाजाही शुरू नहीं हो पाई
गृह मंत्रालय (एमएचए) द्वारा मणिपुर में राष्ट्रीय राजमार्ग-2 (एनएच-2) खोलने की घोषणा के कई दिन बाद भी इस सड़क पर सभी समुदायों की स्वतंत्र आवाजाही शुरू नहीं हो पाई है. यह राजमार्ग इम्फाल घाटी को कांगपोकपी पहाड़ी जिले से होते हुए नागालैंड के दीमापुर और आगे असम से जोड़ता है. यह राजमार्ग, जो जगह-जगह टूटा हुआ और गड्ढों से भरा है, भूमिबद्ध इम्फाल घाटी में आवश्यक आपूर्ति पहुंचाने के लिए बेहद अहम है. यही वह मुख्य सड़क है, जो इम्फाल हवाई अड्डे तक जाती है, लेकिन जहां तक कुकी-जो समुदाय जातीय हिंसा भड़कने के बाद से पहुंच नहीं पा रहा है.
विजयेता सिंह की रिपोर्ट है कि मणिपुर में मई 2023 से जारी हिंसा के कारण एनएच-2 (इंफाल से माओ) और एनएच-37 (इंफाल से जीरीबाम) को बार-बार बंद किया गया है. कुछ समुदायों के विरोध और सड़क पर लगे अवरोधों के चलते आवाजाही पर गंभीर असर पड़ा है. विभाग द्वारा वाहनों की सुरक्षा देने के बावजूद, जगह-जगह पर संघर्ष और अवरोधों की वजह से कई बार प्रयास विफल हुए हैं. कई समुदायों, नागरिक समाज और विरोधी गुटों ने वादी-घाटी के लोगों के लिए आवाजाही रोक दी. गृह मंत्री अमित शाह ने स्वतंत्र आवाजाही के लिए घोषणा की थी, लेकिन वास्तविक तौर पर राजमार्ग पूरी तरह खुल नहीं सका. जगह-जगह पर सुरक्षा बलों पर हमले भी हुए हैं और आम नागरिकों के साथ-साथ सुरक्षाकर्मियों को भी चोटें आई हैं.
स्थानीय लोगों का कहना है कि बंदियों और प्रशासन की सख्ती के बावजूद विरोध व तनाव लगातार बना हुआ है, जिससे आम जीवन, जरूरी सामानों की आपूर्ति और चिकित्सा जैसी मूलभूत सेवाएं प्रभावित हो रही हैं. इस संकट के चलते कुछ जगहों पर स्वास्थ्य आपातकाल जैसी स्थिति भी बन गई है, जैसे कि चुराचांदपुर जिले में रेबीज के मामले में मदद देरी से पहुंची. यह स्थिति दर्शाती है कि सरकारी घोषणा के बावजूद जमीनी स्तर पर एनएच-2 पर सामान्य यातायात बहाल होने में अभी भी समय लग सकता है.
मणिपुर में एक और बार फेल हुई मोदी सरकार
जातीय हिंसा की आग में 28 महीनों से झुलस रहे मणिपुर की धरती पर जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का आगमन हुआ, तो उम्मीदों और आशंकाओं का मिला-जुला माहौल था। उम्मीद थी कि देश का सर्वोच्च नेतृत्व शायद उन गहरे ज़ख्मों पर मरहम लगाएगा जो समाज को दो फाड़ कर चुके हैं। लेकिन, हरकारा डीपडाइव में प्रोफेसर अपूर्वानंद के साथ हुई बातचीत से जो तस्वीर उभरती है, वह दर्शाती है कि यह दौरा समाधान की दिशा में एक ईमानदार प्रयास कम, और उत्तर भारत के दर्शकों के लिए एक सुनियोजित राजनीतिक प्रदर्शन अधिक था।
प्रधानमंत्री ने अपनी यात्रा के दौरान हिंसा को "दुर्भाग्यपूर्ण" बताया और भविष्य की पीढ़ियों के साथ अन्याय की बात की। इसके समाधान के तौर पर उन्होंने ₹8500 करोड़ की विकास परियोजनाओं और विस्थापितों के लिए 7,000 नए मकानों की घोषणा की। ऊपरी तौर पर यह एक सकारात्मक कदम लग सकता है, लेकिन यह मणिपुर की त्रासदी की भयावहता के सामने नाकाफी और अप्रासंगिक प्रतीत होता है। जैसा कि प्रोफेसर अपूर्वानंद ने इंगित किया, यह "लफ्फाजी" उस कड़वी सच्चाई को नज़रअंदाज़ करती है कि इस हिंसा को भड़काने और संरक्षण देने का आरोप स्वयं उनकी ही पार्टी के मुख्यमंत्री और सरकार पर है। ऐसे में, बिना जवाबदेही तय किए केवल विकास की बातें करना, न्याय की मांग को दरकिनार करने जैसा है।
इस दौरे की सबसे बड़ी विफलता ज़मीनी हकीकत का सामना करने में रही। आज मणिपुर एक ऐसी दुखद सच्चाई जी रहा है जहाँ कुकी समुदाय के लोग मैतेई बहुल इलाकों में और मैतेई समुदाय के लोग कुकी बहुल इलाकों में जाने से डरते हैं। यह विभाजन इतना गहरा है कि प्रोफेसर अपूर्वानंद एक चुभता हुआ सवाल उठाते हैं: "क्या प्रधानमंत्री अपनी ही पार्टी के कुकी और मैतेई विधायकों को एक साथ लेकर इंफाल और चुराचांदपुर, दोनों जगहों का दौरा कर सके?" जब देश के प्रधानमंत्री भी अपनी पार्टी के भीतर यह सांकेतिक एकता स्थापित नहीं कर पाते, तो यह उनकी यात्रा की प्रतीकात्मक विफलता और ज़मीनी स्तर पर शांति बहाली की चुनौती को उजागर करता है।
यह यात्रा मणिपुर की विशिष्ट और गंभीर समस्या को संबोधित करने के बजाय, प्रधानमंत्री के एक बड़े उत्तर-पूर्व दौरे का हिस्सा मात्र बनकर रह गई। एक तरफ मणिपुर शोक में डूबा था, तो दूसरी तरफ प्रधानमंत्री असम में भूपेन हजारिका के शताब्दी समारोह में हिस्सा ले रहे थे। यह प्राथमिकता का अभाव दर्शाता है और मणिपुर के लोगों को यह संदेश देता है कि उनकी पीड़ा राष्ट्रीय विमर्श के केंद्र में नहीं है।
स्थानीय लोगों की भावनाओं और सत्ता की अपेक्षाओं के बीच का फासला भी स्पष्ट दिखा। जब कुछ लोगों से पारंपरिक परिधानों में नृत्य कर प्रधानमंत्री का मनोरंजन करने की अपेक्षा की गई, तो उनका जवाब था— "जिनकी आँखों में आँसू हों, वे आपके लिए नाच नहीं सकते।" यह छोटा सा प्रतिरोध उस गहरे दर्द को बयां करता है, जिसे सजावट और औपचारिकताओं के पर्दे के पीछे छिपाने की कोशिश की जा रही थी। जैसा कि एक लेख में कहा गया, "Impeccable choreography, silence on first principles" - यानी कोरियोग्राफी तो शानदार थी, लेकिन बुनियादी सिद्धांतों पर ख़ामोशी छाई रही।
इस पूरी प्रक्रिया में एक और बड़ा अपराधी हिंदी मीडिया रहा, जिसने मणिपुर की सच्चाई को हिंदी पट्टी की जनता तक पहुँचने ही नहीं दिया। नतीजतन, देश का एक बड़ा हिस्सा या तो इस त्रासदी से अनभिज्ञ है या फिर उसे घुसपैठियों द्वारा भड़काई गई हिंसा के एक सरलीकृत नैरेटिव से भर दिया गया है।
अंत में, प्रधानमंत्री का यह दौरा उन सवालों को जस का तस छोड़ गया है जो सबसे महत्वपूर्ण थे:
260 से अधिक मौतों और 60,000 से ज़्यादा विस्थापितों के लिए न्याय का रास्ता क्या है?
जिन लोगों पर हिंसा भड़काने के आरोप हैं, उनकी जवाबदेही कब और कैसे तय होगी?
दोनों समुदायों के बीच संवाद और सुलह की प्रक्रिया कैसे शुरू होगी?
घोषणाओं और फीता काटने के शोर में ये सवाल दब गए। मणिपुर को यह बता दिया गया कि उसके ज़ख्मों पर मरहम नहीं, बल्कि विकास परियोजनाओं का लेप लगाया जाएगा। लेकिन यह एक खतरनाक मिसाल है, जो पूरे भारत को यह संदेश देती है कि कैसे एक चुनी हुई सरकार अपने ही नागरिकों की पीड़ा को अनदेखा कर, प्रदर्शन की राजनीति के सहारे जवाबदेही से बच सकती है। मणिपुर का नरक सिर्फ मणिपुर का नहीं है; यह भारतीय लोकतंत्र के सामने एक आईना है, जिसमें अपनी खामियों को देखने का साहस हम सबको जुटाना होगा।
बतौर पीएम मोदी का सबसे अंधकारमय अध्याय
किसी राज्य में प्रधानमंत्री का दौरा कोई खबर नहीं होती. लेकिन यदि वही प्रधानमंत्री, दो साल से भी अधिक समय तक अभूतपूर्व जातीय हिंसा के बावजूद ‘ज़िद्दी’ ढंग से उस राज्य में जाने से इनकार करने के बाद वहां जाता है, तो प्रधानमंत्री की जिम्मेदारी, प्रतिबद्धताएं, संवेदनशीलता, प्राथमिकताएं और राजनीति को लेकर प्रश्न अवश्य उठते हैं. “द वायर” में संजय के. झा ने लिखा है कि मणिपुर, जो सामाजिक टूट-फूट, निरर्थक हिंसा और मौत के बीच लहूलुहान है, नरेंद्र मोदी की निर्दयी उदासीनता का शिकार रहा. इस कठोर उदासीनता में तब और वृद्धि हो जाती है, जब इसी अवधि के दौरान मोदी ने पापुआ न्यू गिनी, ब्रुनेई, नामीबिया, नाइजीरिया, मॉरीशस, लाओस आदि सहित कम से कम 46 देशों का दौरा किया. मणिपुर, जो उपचार की पुकार कर रहा था, अपनी चोटें सहने के लिए छोड़ दिया गया.
ऐसी उदासीनता भारत के मौलिक मूल्यों के खिलाफ है. भारत हिंसा के पालने में जन्मा था. ब्रिटिश साम्राज्य के विभाजन और आज़ादी की तैयारी के दौरान क्रूर सांप्रदायिक हिंसा फूट पड़ी. महात्मा गांधी ने नोआखाली में नफरत और हिंसा की आग बुझाने के लिए बंगाल का रुख किया. जवाहरलाल नेहरू बिहार में दंगों के दौरान पहुंचे. पूरा कांग्रेस नेतृत्व—सरदार पटेल, मौलाना आजाद, राजेंद्र प्रसाद, जयप्रकाश नारायण, आचार्य कृपलानी—प्रत्यक्ष रूप से प्रभावित जिलों में लोगों से बात कर रहा था.
ऐसे समर्पण ने स्वतंत्र भारत का राजनीतिक आदर्श स्थापित किया. राहुल गांधी दो बार मणिपुर गए और मैतेई व कूकी दोनों समुदायों के लोगों से मिले, संभवतः स्वतंत्रता संग्राम के उन नेताओं का अनुसरण करते हुए, जिन्होंने हमारी राजनीतिक संस्कृति को अपूर्व प्रतिबद्धता और संवेदनशीलता से गढ़ा.
मोदी ने जहां पलायनवाद जैसी अनुचित प्रवृत्ति दिखाई है, वहीं मणिपुर उनकी प्रधानमंत्री अवधि का सबसे अंधकारमय अध्याय बनकर याद किया जाएगा—एक ऐसा अध्याय जो गैर-जिम्मेदारी और असंवेदनशीलता से भरा हुआ है. यह लगभग प्रधानमंत्री द्वारा कर्तव्य-त्याग के बराबर था. यहां तक कि आरएसएस को भी सरकार को फटकार लगाकर यह कहने के लिए मजबूर होना पड़ा कि शांति और सद्भाव बहाल करने के लिए हर कदम उठाए जाएं. मोदी न केवल राज्य जाने से इनकार करते रहे, बल्कि वे सर्वदलीय प्रतिनिधिमंडलों से मुलाकात करने से बचते रहे और न ही उन्होंने “मन की बात” कार्यक्रम या अपने ट्वीट्स में मणिपुर का ज़िक्र किया. मणिपुर को लेकर इतनी गहरी चुप्पी थी कि विपक्षी दलों को लोकसभा में मोदी सरकार के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव लाना पड़ा. यह निस्संदेह आने वाले प्रधानमंत्रियों के लिए इस बात का “उत्कृष्ट उदाहरण” रहेगा कि लोकतंत्र में कैसा आचरण नहीं करना चाहिए.
मांझी ने चेताया, यदि ‘हम’ को 15-20 सीटें नहीं दीं तो हम बिहार में 100 सीटों पर लड़ेंगे
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की बिहार यात्रा से एक दिन पहले, उनके कैबिनेट सहयोगी और हिंदुस्तानी अवाम मोर्चा (हम) के संरक्षक जीतन राम मांझी ने रविवार को चेतावनी दी कि यदि उनकी पार्टी को आगामी विधानसभा चुनाव (अक्टूबर-नवंबर में प्रस्तावित) में 15 से 20 सीटें नहीं दी गईं, तो वे 100 सीटों पर स्वतंत्र रूप से चुनाव लड़ेंगे. उन्होंने कहा कि हमारे पास हर जगह 10,000 से 15,000 वोटर हैं. हम जीतेंगे और छह प्रतिशत वोट भी पाएंगे.
रमाशंकर के अनुसार, मांझी ने कहा कि उनकी पार्टी का मुख्य उद्देश्य निर्वाचन आयोग से मान्यता प्राप्त करना है. उन्होंने कहा, “अगर हम चाहते हैं कि ‘हम' को मान्यता मिले, तो हमें सख्त फैसला लेना ही होगा. मान्यता पाने के लिए हमें आठ विधानसभा सीटें जीतनी होंगी. वोट शेयर और कुल वोटों को देखते हुए हमें 20 सीटें मिलनी चाहिए, क्योंकि सभी सीटें तो जीती नहीं जाएंगी.”
उन्होंने आगे कहा, “अगर हम मानें कि जिन सीटों पर हम चुनाव लड़ेंगे उनमें से 60 प्रतिशत जीतेंगे, तो 15 सीटें ही काफी होंगी, क्योंकि इस स्थिति में हम 8 सीटें जीत लेंगे. अन्यथा, हम अकेले 100 सीटों पर चुनाव लड़ेंगे. उन्होंने कहा कि एक पंजीकृत पार्टी के रूप में 10 साल पूरे करने के बाद भी, हम खुद को उपेक्षित महसूस कर रहे हैं और यह चुनाव हमारे लिए ‘करो या मरो’ की स्थिति है.
विश्लेषण
आकार पटेल | भाजपा चाहती क्या थी और हासिल क्या किया उसने?
एक अमेरिकी स्कॉलर ने एक किताब लिखी है जिसमें उन्होंने चीन के हालिया उभार को समझाने की कोशिश की है. डैन वांग की दलील है कि चीन इंजीनियरों का समाज है और वहां की सरकार इंजीनियरों का शासन है, अमेरिका के मुक़ाबले, जिसे वे वकीलों का समाज बताते हैं. वे कहते हैं कि चीन मैन्युफ़ैक्चरिंग और चीज़ें बनाने में अच्छा है, जबकि अमेरिका नहीं है. तो ऐसा क्यों है?
इसका जवाब उन फ़ैसलों से जुड़ा है जो चीन की सरकार ने लिए हैं, ख़ासतौर पर 2015 में जब उसने ‘मेड इन चाइना 2025’ योजना पेश की थी. जैसा कि वांग बताते हैं, कभी-कभी ये फ़ैसले काम नहीं करते. इंजीनियरिंग वाली सोच ने ही चीन के शंघाई में लगे क्रूर लॉकडाउन और एक-बच्चा नीति जैसी अस्वीकार्य चीज़ों को जन्म दिया. लेकिन इसी सोच की वजह से चीन ने सबसे ऊंचे स्तर की औद्योगिक नीति में सफ़लता हासिल की है: जैसे हाई-स्पीड रेल, रिन्यूएबल एनर्जी, इलेक्ट्रिक गाड़ियां, जहाज़ बनाना, और अब वह एविएशन, सेमी-कंडक्टर, रॉकेट टेक्नोलॉजी और आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस में भी बराबरी पर आ गया है.
इन सभी क्षेत्रों में, सरकार ने जो कुछ भी हासिल करने का इरादा किया, उसे पूरा करके दिखाया. यह एक दिलचस्प विषय है और हम इस कॉलम में इस पर लौटते रहेंगे. आज मैं ख़ुद से यही सवाल पूछना चाहता था: भारत की सरकार ने क्या हासिल करने का इरादा किया और क्या वह ऐसा करने में सफ़ल रही है?
अर्थव्यवस्था, नौकरियों और ख़ासकर विदेश नीति के मोर्चे पर, इसका जवाब अब साफ़ है और बहस के दोनों तरफ़ के लोग अब सिर्फ़ इस पर लड़ रहे हैं कि दोष किसका है. आज हमारा उससे कोई लेना-देना नहीं है. चलिए उस क्षेत्र को देखते हैं जहां भारत की सरकार अपने चुने हुए फ़ैसलों में सफ़ल हुई है.
इसी महीने राजस्थान ग़ैर-क़ानूनी धर्म परिवर्तन निषेध विधेयक, 2025 पारित किया गया. इसके दो मक़सद हैं: हिंदुओं और मुसलमानों के बीच अंतर-धार्मिक विवाह को अपराध बनाना और लोगों को, ख़ासकर हाशिए पर मौजूद समुदायों को ईसाई बनने से रोकना.
इस तरह के दूसरे क़ानूनों की तरह, राजस्थान का क़ानून भी धर्मांतरण को सज़ा देता है लेकिन सभी को नहीं. इसमें कहा गया है: 'अगर कोई व्यक्ति मूल धर्म यानी अपने पैतृक धर्म में वापस लौटता है, तो उसे धर्मांतरण नहीं माना जाएगा' और पैतृक धर्म को ऐसे समझाया गया है 'वह धर्म जिसमें व्यक्ति के पूर्वजों का विश्वास, आस्था या चलन था'. पाठकों को यह बताने की ज़रूरत नहीं होगी कि इसका क्या मतलब है क्योंकि यह साफ़ है. यह भाषा हमारे दौर में इस विषय पर बने पहले क़ानून में लाई गई थी. यह उत्तराखंड धर्म की स्वतंत्रता अधिनियम, 2018 था. इसके बाद हिमाचल प्रदेश (2019), उत्तर प्रदेश (2020), मध्य प्रदेश (2021), गुजरात (2021), हरियाणा (2022) और कर्नाटक (2022) में भी ऐसे क़ानून बने.
ये सभी क़ानून बीजेपी ने पास किए. राजस्थान का क़ानून इसमें कुछ नया जोड़ता है. इसने प्रचार के सभी रूपों को भी अपराध बना दिया है. यह कहता है कि मीडिया, सोशल मीडिया और मैसेजिंग ऐप के ज़रिए जानकारी, विचारों या विश्वासों का प्रसार ग़ैर-क़ानूनी है, अगर इसे धर्मांतरण के इरादे से किया गया धार्मिक प्रचार माना जाता है. यह सज़ा भी बढ़ाता है, जो अब 14 साल तक की जेल और अगर धर्म बदलने वाला व्यक्ति दलित या आदिवासी है तो 20 साल तक हो सकती है. बीजेपी के ये सभी क़ानून लगभग सभी मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करते हैं, लेकिन हमारे समाज में वे स्वीकार्य हो गए हैं. इस कॉलम को पढ़ने वालों में भी शायद ही कोई ऐसा होगा जिसे 9 सितंबर को पास हुए राजस्थान के क़ानून के बारे में पता हो, क्योंकि हमारे टीवी डिबेट जिस तरह से 'ख़बर' शब्द को समझते हैं, अब यह कोई ख़बर नहीं रही.
इस पूरी बहस को समेटने के लिए यह मानना ज़रूरी है कि सरकार ने जो करने का इरादा किया था, उसे हासिल करने में वह सफ़ल रही है. राजनीतिक रूप से, इन क़ानूनों को पलटना मुश्किल है क्योंकि सामाजिक रूप से उन्हें स्वीकार्य बना दिया गया है. जो लोग इन क़ानूनों के पक्ष में हैं या जिन्हें इनसे कोई फ़र्क नहीं पड़ता, उनकी संख्या उन लोगों से ज़्यादा है जो इन्हें रद्द कराना चाहते हैं. कर्नाटक का क़ानून 17 मई 2022 को लागू हुआ. दूसरे क़ानूनों की तरह, इसमें भी धर्म बदलने की इच्छा रखने वाले व्यक्ति को 30 दिन पहले ज़िला मजिस्ट्रेट को नोटिस देना होता है. इसके बाद अधिकारी उस आवेदन को अपने दफ़्तर और तहसीलदार के दफ़्तर के नोटिस बोर्ड पर आपत्तियां बुलाने के लिए लगाता है.
मई 2023 में विधानसभा चुनाव जीतने के बाद, कांग्रेस ने कहा कि वह इस क़ानून को खत्म कर देगी. अगले महीने, 15 जून को, इस शीर्षक के साथ ख़बर छपी: 'सिद्धारमैया के नेतृत्व वाली कर्नाटक सरकार ने धर्मांतरण विरोधी क़ानून वापस लिया.' लेकिन ऐसा हुआ नहीं. कुछ दिन पहले, 8 सितंबर को, ख़बर आई कि सरकार 'कर्नाटक धर्म की स्वतंत्रता के अधिकार का संरक्षण अधिनियम, जिसे लोकप्रिय रूप से धर्मांतरण विरोधी क़ानून के रूप में जाना जाता है, पर क़ानूनी राय लेगी और आगे की कार्रवाई पर फ़ैसला करेगी.'
मतलब ये कि क़ानून अभी भी जस का तस है. बीजेपी के तहत सरकार ने 2014 से भारतीयों की तरफ़ से कुछ फ़ैसले लिए, जिसके नतीजे में 2015 से बीफ़ पर क़ानून, 2018 से धर्म की स्वतंत्रता पर, 2019 से नागरिकता पर और बहुलवाद को खत्म करने और अल्पसंख्यकों को निशाना बनाने से जुड़ी दूसरी चीज़ों पर क़ानून बने. उसने यहां जो हासिल करने का इरादा किया था, वह हासिल कर लिया है. हो सकता है कि हमारे पास ‘मेड इन चाइना 2025’ जैसी कोई नीति न हो और इस मोर्चे पर हमने जो भी आधे-अधूरे प्रयास किए हैं, वे नाकाम रहे हैं. लेकिन ‘रीमेक इंडिया 2025’ नीति की पूरी जीत को स्वीकार न करना मुश्किल है, जिसके फल हम क़ानूनों, मीडिया और सच में अपने चारों ओर समाज में देख सकते हैं.
विश्लेषण
सुशांत सिंह | दक्षिण एशिया के सबक़ भारत नज़रअंदाज़ नहीं कर सकता
सुशांत सिंह का कैरेवन पत्रिका में लंबा विश्लेषण है. उसके अंश
जैसे ही नेपाल में स्थानिक भ्रष्टाचार और कई सोशल-मीडिया प्लेटफ़ॉर्म पर प्रतिबंध के ख़िलाफ़ "जेन ज़ेड" का विरोध तेज़ हुआ, नरेंद्र मोदी सरकार के समर्थकों की पहली प्रतिक्रिया "विदेशी हाथ" का आरोप लगाना थी. उन्होंने अगस्त 2024 में बांग्लादेश में छात्रों द्वारा प्रधानमंत्री शेख हसीना को अपदस्थ किए जाने के बाद भी यही राग अलापा था. ज़्यादातर विश्वसनीय विशेषज्ञ इस साज़िश के सिद्धांत को नहीं मानते. काठमांडू स्थित पत्रकार दिनेश काफ़ले ने इसे सबसे अच्छी तरह से व्यक्त किया: "यह अब सोशल मीडिया प्रतिबंध, भाई-भतीजावाद या भ्रष्टाचार के ख़िलाफ़ विरोध नहीं है; यह हमारे लोकतांत्रिक अधिकारों और हमारी मानवता को बचाने का संघर्ष है."
फिर भी, 2022 में श्रीलंका के आर्थिक पतन से लेकर बांग्लादेश और नेपाल में विद्रोह तक, दक्षिण एशिया में सरकारों का पतन एक क्षेत्रीय पैटर्न स्थापित करता है जो नई दिल्ली के लिए चिंता का विषय होना चाहिए. जैसे-जैसे युवा-संचालित प्रतिष्ठान-विरोधी आंदोलन स्थिर दिखने वाली सरकारों को गिरा रहे हैं, महत्वपूर्ण सवाल उठते हैं. क्या भारत अपने पड़ोस को नया आकार देने वाली ताक़तों से अछूता रह सकता है? क्या यह उल्लेखनीय रूप से समान आर्थिक और राजनीतिक कमज़ोरियों का सामना नहीं कर रहा है?
दक्षिण एशिया में हुई उथल-पुथल में आश्चर्यजनक समानताएँ हैं. प्रत्येक की शुरुआत शिक्षित युवाओं के बीच आर्थिक हताशा से हुई, सोशल-मीडिया समन्वय के माध्यम से बढ़ी और सफल हुई क्योंकि पारंपरिक राजनीतिक संस्थानों ने अपनी वैधता खो दी थी. ये वैचारिक क्रांतियाँ नहीं थीं, बल्कि रोज़ी-रोटी की अर्थव्यवस्था से प्रेरित व्यावहारिक विद्रोह थे. प्रदर्शनकारी नौकरियाँ, किफ़ायती जीवन, सक्षम शासन और जवाबदेह नेतृत्व चाहते थे.
भारत में इन उथल-पुथल से पहले की कई स्थितियाँ मौजूद हैं, हालाँकि संभावित रूप से बड़े पैमाने और तीव्रता पर. युवा बेरोज़गारी संकट चिंताजनक अनुपात तक पहुँच गया है. सेंटर फ़ॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकोनॉमी ने हाल ही में बताया कि 20 से 24 वर्ष की आयु के 44.5 प्रतिशत भारतीय बेरोज़गार हैं - यह बांग्लादेश, नेपाल या श्रीलंका की तुलना में बहुत अधिक दर है. शायद अंतर्निहित समस्याओं का सबसे स्पष्ट संकेतक भारत से अभूतपूर्व प्रवासन है. अकेले 2024 में छह लाख से अधिक भारतीय चले गए. इंडिया टुडे के नवीनतम 'मूड ऑफ़ द नेशन' सर्वेक्षण में एक निराशाजनक फ़ैसला दिया गया है, जिसमें साठ प्रतिशत से अधिक उत्तरदाताओं ने कहा है कि 2014 के बाद से उनकी आर्थिक स्थिति स्थिर हो गई है या बिगड़ गई है.
दीर्घकालिक स्थिरता के लिए अधिक चिंताजनक मोदी के तहत लोकतांत्रिक संस्थानों का प्रणालीगत कमज़ोरी है. अटलांटिक काउंसिल के 2025 फ़्रीडम एंड प्रॉस्पेरिटी इंडेक्स ने "2014 के बाद से राजनीतिक स्वतंत्रता में गिरावट की प्रवृत्ति" पर ध्यान दिया है. फ़्रीडम हाउस ने भारत को "स्वतंत्र लोकतंत्र" से घटाकर "आंशिक रूप से स्वतंत्र" कर दिया है, जबकि वी-डेम इंस्टीट्यूट अब देश को "चुनावी निरंकुशता" के रूप में वर्गीकृत करता है. जब लोकतांत्रिक संस्थान विश्वसनीयता खो देते हैं, जैसा कि पड़ोसी देशों में हुआ है, तो सड़क पर विरोध प्रदर्शन राजनीतिक अभिव्यक्ति का प्राथमिक माध्यम बन जाते हैं.
इन समानताओं के बावजूद, भारत में कई ऐसी विशेषताएँ हैं जो पूर्ण प्रणालीगत पतन के ख़िलाफ़ प्रतिरक्षा प्रदान कर सकती हैं. इसके विशाल आकार, जटिलता और संघीय ढांचे के अलावा, पिछले दशक के संस्थागत क्षय के बावजूद, यह अपने पड़ोसियों की तुलना में अधिक मज़बूत लोकतांत्रिक बुनियादी ढाँचा रखता है. हालाँकि, ये स्पष्ट ताक़तें तनाव में कमज़ोरियाँ बन सकती हैं. भारत का पैमाना अशांति को रोकने के बजाय बढ़ा सकता है.
भारत अनिवार्य रूप से राज्य के पतन के लिए अभिशप्त नहीं है, लेकिन मौजूदा रुझान चिंताजनक हैं. बढ़ती कमज़ोरियों पर मोदी सरकार की प्रतिक्रिया - और अधिक केंद्रीकरण, संस्थागत कब्ज़ा और डिजिटल शटडाउन - अंतर्निहित समस्याओं को बढ़ाती दिख रही है. दक्षिण एशिया का संदेश स्पष्ट है: अधूरे आर्थिक वादे, अनसुलझे शासन विफलताएँ और कमज़ोर लोकतांत्रिक संस्थान विस्फोटक स्थितियाँ पैदा करते हैं जिन्हें एक छोटी सी चिंगारी भड़का सकती है.
रूपाणी की अंतिम यात्रा का खर्च भाजपा ने नहीं दिया, बिल के लिए पूर्व सीएम के घर भेजा
गुजरात के पूर्व मुख्यमंत्री विजय रूपाणी की अंतिम यात्रा का खर्च उठाने से भाजपा ने इनकार कर दिया. पार्टी की ओर से कहा गया कि अंतिम संस्कार में खर्च हुए 20-25 लाख रुपए रूपाणी परिवार देगा. “दैनिक भास्कर” में जिग्नेश कोटेचा की खबर है कि अंतिम यात्रा के दौरान फूल, टेंट और अन्य व्यवस्था करने वाले व्यापारी जब जुलाई में रूपाणी के घर गए और परिवार से पैसे मांगे तो परिवार को पता चला कि पार्टी की ओर से भुगतान नहीं किया गया है. उन्हें यह जानकर दुख हुआ. हालांकि उन्होंने पैसे चुका दिए. रूपाणी के पारिवारिक मित्र ने बताया, “पैसे का सवाल नहीं है, लेकिन बीजेपी का ऐसा रवैया बेहद तकलीफदेह है. पार्टी ने पहले कोई सूचना भी नहीं दी. वहीं, इस मामले में सौराष्ट्र के दो बड़े नेता हस्तक्षेप कर चुके हैं. उन्होंने मध्यस्थता करके स्थिति को शांत करने की कोशिश की. विजय रूपाणी का निधन 12 जून को अहमदाबाद में एअर इंडिया विमान दुर्घटना में हुआ था.16 जून को राजकोट में गार्ड ऑफ ऑनर के साथ उनका अंतिम संस्कार किया गया था.
चलते चलते
रात में पेरिस की तरह चमकता भारतीय शहर

जैसे ही वातानुकूलित बस पूर्वी भारतीय शहर कोलकाता के व्यस्त ट्रैफ़िक से गुज़रती है, टूर लीडर सुजॉय सेन यात्रा कार्यक्रम के कई दर्शनीय स्थलों को सूचीबद्ध करते हैं. लेकिन ज़्यादातर हेरिटेज टूर के विपरीत, यह सूर्यास्त के बाद होता है. और इसका मुख्य फ़ोकस सिर्फ़ इतिहास या वास्तुकला नहीं है, बल्कि इमारतों को रोशन करने वाली रोशनी है. कोलकाता इल्यूमिनेशन प्रोजेक्ट शहर के कई हेरिटेज टूर और वॉक में नवीनतम जुड़ाव है. यह प्रोजेक्ट कोलकाता रिस्टोरर्स नामक एक नागरिक समूह की दिमागी उपज है. इसके पीछे की शक्ति मुदर पथेरिया हैं. वह कहते हैं, "यह कोई वास्तविक संगठन नहीं है. कोई समिति नहीं है, कोई अध्यक्ष नहीं है. यह सिर्फ़ एक लेबल है. एक व्हाट्सएप ग्रुप." पथेरिया कहते हैं कि उन्होंने शहर को रोशन करने की योजना के साथ शुरुआत नहीं की थी. उन्होंने दोस्तों और सहयोगियों से पैसे जुटाए और एक पुरानी इमारत को रोशन किया. इसके बाद वह इस काम में लग गए. कुछ ही हफ़्तों में उन्होंने भारतीय भूवैज्ञानिक सर्वेक्षण के भवन को भी रोशन कर दिया. जल्द ही उन्हें शहर के सबसे प्रसिद्ध पतों में से एक - राजभवन, राज्यपाल की हवेली, जो कभी ब्रिटिश वायसराय का निवास था, को रोशन करने की अनुमति मिल गई.
वह कहते हैं, "लगभग 21 महीनों में हम लगभग 92 इमारतों तक पहुँच गए हैं." "मॉडल सरल है. यह आपकी संपत्ति है, मेरी रोशनी. आप केवल बिजली का भुगतान करते हैं और मैं उस लागत की पहले से गणना कर लेता हूँ." लेकिन जैसे-जैसे प्रोजेक्ट का विस्तार हुआ, पथेरिया ने महसूस किया कि एक समस्या थी जिसका उन्होंने अनुमान नहीं लगाया था. इमारतें अक्सर जीर्ण-शीर्ण अवस्था में थीं और रोशनी ने इस पर प्रकाश डाला. इससे पहले कि वे रोशन कर पाते, उन्हें मरम्मत और जीर्णोद्धार की आवश्यकता थी. उदाहरण के लिए, 150 साल पुराना हॉग मार्केट, एक विशाल गोथिक बाज़ार. उसकी घड़ी ने काम करना बंद कर दिया था. उन्हें स्वपन दत्ता मिले, जो चौथी पीढ़ी के घड़ी सुधारक हैं. दत्ता को 'घड़ी-बाबू' के नाम से जाना जाता है.
कोलकाता रिस्टोरर्स वास्तव में इमारतों को नहीं, बल्कि शहर में गर्व की भावना को बहाल करने की कोशिश कर रहे हैं. कभी ब्रिटिश भारत की राजधानी रहे इस शहर की क़िस्मत आज़ादी के बाद से धूमिल हो गई है. इसकी वास्तुकला तेज़ी से गायब हो रही है, क्योंकि पुराने घरों की जगह अपार्टमेंट और मॉल ले रहे हैं. पथेरिया यह दिखाना चाहते हैं कि विरासत का जीर्णोद्धार नागरिकों के नेतृत्व में और क्राउडसोर्सिंग से हो सकता है. वह कहते हैं, "सिर्फ़ 22 मिलियन रुपये से, हमने 92 इमारतों, आठ या नौ घड़ियों और कुछ 1,300 समाधि-शिलाओं का जीर्णोद्धार किया है." पथेरिया का लक्ष्य 200 इमारतों तक पहुँचना है. वह कहते हैं, "तब यह रात में देश के सबसे अद्भुत शहरों में से एक होगा. क्योंकि वास्तुकला पहले से ही वहाँ है." आप बीबीसी की इस रिपोर्ट पर जाकर कोलकाता को नई रौशनी में देख सकते हैं.
आज के लिए इतना ही. हमें बताइये अपनी प्रतिक्रिया, सुझाव, टिप्पणी. मिलेंगे हरकारा के अगले अंक के साथ. हरकारा सब्सटैक पर तो है ही, आप यहाँ भी पा सकते हैं ‘हरकारा’...शोर कम, रोशनी ज्यादा. व्हाट्सएप पर, लिंक्डइन पर, इंस्टा पर, फेसबुक पर, यूट्यूब पर, स्पोटीफाई पर , ट्विटर / एक्स और ब्लू स्काई पर.