15/10/2025: बिहार चुनाव से पीके बाहर | एनडीए में कलह | एसएयू में बलात्कार | एबीवीपी नेताओं ने छात्राओं के वीडियो बनाए | वामपंथ अतिवादियों का प्रभाव घटा | बुद्ध के अवशेषों की घरवापसी
‘हरकारा’ यानी हिंदी भाषियों के लिए क्यूरेटेड न्यूजलेटर. ज़रूरी ख़बरें और विश्लेषण. शोर कम, रोशनी ज़्यादा.
निधीश त्यागी, साथ में राजेश चतुर्वेदी, गौरव नौड़ियाल, फ़लक अफ़शां
आज की सुर्खियां
बिहार की मतदाता सूची में विशेष पुनरीक्षण के बाद महिलाओं का लिंगानुपात रहस्यमय तरीके से घट गया है.
बिहार चुनाव से पहले सीट बंटवारे को लेकर एनडीए गठबंधन में दरारें सामने आ गई हैं.
विपक्षी महागठबंधन अपने घोषणापत्र में भूमि सुधार और बलात्कार पीड़ितों के लिए कानून का वादा कर सकता है.
प्रशांत किशोर ने बिहार चुनाव नहीं लड़ने का फैसला किया है.
कपड़े बदलती छात्राओं का वीडियो बनाने के आरोप में एबीवीपी के तीन छात्र गिरफ्तार किए गए हैं.
दिल्ली के दक्षिण एशियाई विश्वविद्यालय में छात्रा से गैंग रेप का मामला दर्ज हुआ, एफआईआर में चौंकाने वाले आरोप हैं.
गृह मंत्रालय के अनुसार, वामपंथी उग्रवाद से ‘सबसे ज़्यादा प्रभावित’ ज़िलों की संख्या घटकर तीन रह गई है.
भगवान बुद्ध के पिपरा हवा अवशेषों को पहली बार दिल्ली के किला राय पिथौरा में प्रदर्शित किया जाएगा.
नैतिक पुलिसिंग का सामना करने वाली मुस्कान शर्मा ने मिस ऋषिकेश 2025 का खिताब जीता.
गायक जुबीन गर्ग मामले के आरोपियों को ले जा रहे पुलिस काफ़िले पर गुस्साई भीड़ ने पथराव किया.
श्रवण गर्ग का विश्लेषण :दलितों पर हाल में हुए हमले एक खतरनाक राजनीतिक पैटर्न का हिस्सा हैं.
अमेरिका-भारत संबंधों के विशेषज्ञ एशले टेलिस को गोपनीय रक्षा जानकारी रखने के आरोप में गिरफ्तार किया गया है.
बिहार चुनाव
ऐन वक़्त मैदान छोड़ा या कुछ और है इस चाल में? एनडीए में कलह, महागठबंधन का मैनिफेस्टो, तेजस्वी का नामांकन, औरते कहां चली गईं मतदाता सूची से?
एक ओर सत्तारूढ़ एनडीए गठबंधन में सीट-बंटवारे को लेकर अंदरूनी कलह और असंतोष सतह पर आ गया है, वहीं दूसरी ओर विपक्षी महागठबंधन भूमि सुधार और महिला सुरक्षा जैसे अहम वादों के साथ अपने घोषणापत्र को अंतिम रूप देने में जुटा है. इस चुनावी गहमागहमी के बीच, नए राजनीतिक खिलाड़ी प्रशांत किशोर ने खुद चुनाव न लड़ने का ऐलान कर सबको चौंका दिया है. इन सबके साथ ही, राज्य की मतदाता सूची में लिंगानुपात में आई रहस्यमयी गिरावट ने भी एक नई बहस छेड़ दी है, जो चुनावी प्रक्रिया पर सवाल खड़े कर रही है. ये सभी घटनाक्रम बिहार में एक दिलचस्प और कांटे की टक्कर वाले चुनावी मुकाबले की ज़मीन तैयार कर रहे हैं.
प्रशांत किशोर ने ‘पार्टी के हित’ में लिया फैसला
जन सुराज पार्टी (JSP) के संस्थापक प्रशांत किशोर ने खुलासा किया है कि वह 6 और 11 नवंबर को होने वाले बिहार विधानसभा चुनाव नहीं लड़ेंगे. ऐसी अटकलें लगाई जा रही थीं कि वह राघोपुर विधानसभा सीट से राष्ट्रीय जनता दल (RJD) के विधायक और पूर्व उपमुख्यमंत्री तेजस्वी प्रसाद यादव के खिलाफ चुनाव लड़ सकते हैं.
मंगलवार को, JSP ने राघोपुर सीट से चंचल सिंह को अपना उम्मीदवार बनाया. न्यू इंडियन एक्सप्रेस की रिपोर्ट के अनुसार, प्रशांत किशोर ने कहा, “पार्टी ने फैसला किया है कि मुझे चुनाव नहीं लड़ना चाहिए. इसलिए, पार्टी ने राघोपुर से दूसरे उम्मीदवार को मैदान में उतारा है. मैं चुनावी रणनीति और पार्टी के समर्थन आधार को मज़बूत करने पर ध्यान केंद्रित करूँगा.” उन्होंने स्पष्ट किया कि अगर वह चुनाव लड़ते तो उनका ध्यान संगठन के ज़रूरी कामों से भटक जाता और यह फैसला पार्टी के व्यापक हित में लिया गया है.
अपनी पार्टी की चुनावी संभावनाओं के बारे में किशोर ने कहा कि पार्टी या तो शानदार जीत हासिल करेगी या फिर करारी हार का सामना करेगी. उन्होंने कहा, “मुझे 10 से कम या 150 से अधिक सीटों की उम्मीद है. बीच में कुछ भी होने की कोई संभावना नहीं है.”
किशोर के इस फैसले पर विपक्षी दलों ने तंज कसा है. RJD के प्रवक्ता मृत्युंजय तिवारी ने कहा, “किशोर ने युद्ध के मैदान में जाने से पहले ही अपनी जन सुराज पार्टी के लिए हार स्वीकार कर ली है.” इसी तरह, बिहार BJP के प्रवक्ता नीरज कुमार ने कहा, “चुनाव से पहले ही किशोर का बुलबुला फूट गया.” वहीं, JD(U) के प्रवक्ता नीरज कुमार ने इसे उनके पार्टी कार्यकर्ताओं के लिए “अपमान” बताया और कहा कि वह चुनावी लड़ाई से पहले ही भाग गए हैं.
‘एसआईआर’ के बावजूद लिंगानुपात में अस्पष्ट गिरावट
2024 के आम चुनावों में बिहार उन कुछ राज्यों में से एक था, जहाँ पुरुषों की तुलना में महिला मतदाताओं का प्रतिशत अधिक था, भले ही मतदाता सूची में पुरुषों के मुकाबले महिलाओं की संख्या कम थी. इसका एक संभावित कारण यह था कि राज्य से बड़ी संख्या में पुरुष देश के अन्य हिस्सों में चले गए थे और वे अपने निर्वाचन क्षेत्रों में वापस यात्रा करने में असमर्थ थे.
द हिंदू के लिए श्रीनिवासन वी.आर., अरीना अरोड़ा और देवयांशी बी. की रिपोर्ट के अनुसार, भारत के चुनाव आयोग (ECI) द्वारा 25 जून से 1 अगस्त के बीच 40 दिनों के भीतर अपना विशेष गहन पुनरीक्षण (Special Intensive Revision - SIR) अभ्यास करने का एक मुख्य कारण उन मतदाताओं को बाहर करना था जो सामान्य रूप से बिहार के निवासी नहीं थे, जिनमें राज्य के बाहर काम करने वाले प्रवासी भी शामिल थे. यह देखते हुए कि चुनाव में पुरुषों का मतदान महिलाओं की तुलना में कम था, यह उम्मीद की जा रही थी कि पुरुष मतदाताओं की हिस्सेदारी कम हो जाएगी, जिससे 2024 के आम चुनावों में दर्ज प्रति 1,000 पुरुष मतदाताओं पर 907 महिला मतदाताओं के लिंगानुपात में वृद्धि होगी.
हालांकि, अंतिम SIR सूची इसके विपरीत प्रवृत्ति दिखाती है. लिंगानुपात घटकर 892 पर आ गया है, जो अगस्त में जारी की गई मसौदा मतदाता सूची से भी एक अंक कम है. इससे पता चलता है कि मसौदा सूची से बाहर की गई महिलाओं को फिर से शामिल नहीं किया गया. जिन निर्वाचन क्षेत्रों में महिला मतदाताओं का मतदान पुरुष मतदाताओं से अधिक था, वहाँ अंतिम सूची में महिलाओं को मतदाता सूची से बाहर निकालने की दर भी ज़्यादा थी.
उदाहरण के लिए, गोपालगंज जैसे संसदीय क्षेत्र में, जहाँ हर 1,000 पुरुषों के मुकाबले 1,218 महिलाओं ने मतदान किया, 2024 के आम चुनावों से अंतिम SIR सूची तक लिंगानुपात में 8.38% (967 से 886) की कमी आई. किशनगंज के लिए भी यही आंकड़े क्रमशः 1,066 महिलाएं और 7% की गिरावट दर्शाते हैं. ये संख्याएं बताती हैं कि अंतिम SIR सूची में बड़ी संख्या में योग्य महिला मतदाताओं को छोड़ दिया गया हो सकता है.
सुप्रीम कोर्ट में चुनाव आयोग ने कहा था कि महिलाओं के नाम इसलिए हटा दिए गए होंगे क्योंकि वे शादी के बाद दूसरे राज्यों में चली गई थीं. फिर भी, जनगणना और बाद के सर्वेक्षणों से पता चलता है कि शादी के लिए प्रवास करने वाली महिलाओं की तुलना में काम के लिए प्रवास करने वाले पुरुषों की संख्या अधिक है. गोपालगंज और किशनगंज से द हिंदू की ग्राउंड रिपोर्ट से पता चला कि जिन महिलाओं के नाम हटाए गए थे, उनमें से कई आस-पास के गाँवों में ही चली गई थीं. 5 अक्टूबर को जब यह सवाल मुख्य चुनाव आयुक्त से पूछा गया, तो उन्होंने छूटे हुए नामों को शामिल करने की ज़िम्मेदारी राजनीतिक दलों पर डाल दी. कुल मिलाकर, SIR अभ्यास ने बिहार में मतदाता सूची को जनवरी 2025 में 7.89 करोड़ से घटाकर सितंबर 2025 में 7.42 करोड़ कर दिया, जिसमें 47 लाख मतदाताओं को हटाया गया.
विश्लेषण से पता चलता है कि एसआईआर के बाद लगभग 7 लाख अधिक महिला मतदाता “स्थायी रूप से स्थानांतरित” के रूप में चिन्हित की गईं और मतदाता सूची से हटा दी गईं, विशेष रूप से 40 वर्ष से कम उम्र की युवा महिला मतदाता. प्रवासन पर जनगणना के रिकॉर्ड या साक्षरता दरों से इस प्रवृत्ति की व्याख्या नहीं होती है.
आंकड़े बताते हैं कि बिहार में विवाह के कारण हुए प्रवासन, मतदाता के पुन: पंजीकरण में अंतर और प्रणालीगत त्रुटियां महिला मतदाताओं को हटाने का कारण बनीं, जिससे उनके मताधिकार से वंचित होने की स्थिति पैदा हुई. यह बिहार की चुनावी प्रक्रिया और महिलाओं के मतदान के अधिकारों पर गंभीर सवाल उठाता है. इस बारे में “द हिंदू” में प्रकाशित विस्तृत रिपोर्ट कहती है कि प्रवासियों (जो अधिकांशतः पुरुष थे) को लक्षित करने वाले विशेष गहन पुनरीक्षण के बावजूद लिंगानुपात 907 से गिरकर 892 हो गया.
एनडीए के सीट-बंटवारे में दरार, ‘कुछ भी ठीक नहीं है’
नई दिल्ली: बिहार में राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (NDA) द्वारा सीट-बंटवारे की व्यवस्था की घोषणा के दो दिन बाद ही, सहयोगियों के बीच सीटों के आवंटन को लेकर सत्तारूढ़ गठबंधन में दरारें दिखाई देने लगी हैं. जहाँ उपेंद्र कुशवाहा की राष्ट्रीय लोक मोर्चा (RLM) और जीतन राम मांझी की हिंदुस्तानी अवाम मोर्चा (HAM) जैसे छोटे सहयोगियों ने खुले तौर पर अपनी नाराज़गी व्यक्त की है, वहीं मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की जनता दल (यूनाइटेड) [JD(U)] के सदस्यों ने भी विरोध जताया है. चिराग पासवान की लोक जनशक्ति पार्टी (रामविलास) [LJP(RV)] को दी गई 29 सीटें विवाद का मुख्य कारण बन गई हैं.
द वायर की एक रिपोर्ट के मुताबिक, बुधवार सुबह RLM प्रमुख और राज्यसभा सांसद कुशवाहा ने केंद्रीय मंत्री नित्यानंद राय और बिहार के उपमुख्यमंत्री सम्राट चौधरी के साथ बैठक के बाद घोषणा की कि “NDA में कुछ भी ठीक नहीं है”. बाद में दिल्ली पहुँचकर उन्होंने कहा कि कुछ “मुद्दे” हैं जिन्हें सुलझाना है और केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह के साथ बैठक की जाएगी.
सोमवार को घोषित सीट-बंटवारे के फॉर्मूले के तहत, भारतीय जनता पार्टी (BJP) और JD(U) पहली बार बराबरी पर आए, जहाँ दोनों पार्टियाँ 243 सीटों वाली बिहार विधानसभा में 101-101 सीटों पर चुनाव लड़ेंगी. पासवान की LJP(RV) 29 सीटों पर, जबकि मांझी की HAM और कुशवाहा की RLM छह-छह सीटों पर चुनाव लड़ेंगी.
गठबंधन में विवाद का मुख्य बिंदु पासवान की पार्टी को सीटों का बड़ा हिस्सा दिया जाना है, जिससे JD(U) के कुछ वर्ग और छोटे दल नाराज़ हैं. मंगलवार को, भागलपुर से JD(U) सांसद अजय कुमार मंडल ने नीतीश कुमार को पत्र लिखकर अपने पद से इस्तीफे की पेशकश की. उन्होंने कहा कि टिकट आवंटन में उनकी सलाह नहीं ली गई. वहीं, गोपालपुर से JD(U) विधायक गोपाल मंडल ने मुख्यमंत्री आवास के बाहर धरना दिया.
हालांकि, JD(U) के कार्यकारी अध्यक्ष संजय कुमार झा ने किसी भी तरह के मतभेद से इनकार करते हुए कहा कि नीतीश कुमार की मंजूरी से ही सभी फैसले लिए जाते हैं. केंद्रीय मंत्री मांझी ने भी मंगलवार को कहा कि JD(U) का गुस्सा जायज़ है, क्योंकि उनकी कुछ सीटें दूसरों को दे दी गई हैं. पासवान को 29 सीटें देना 2024 के लोकसभा चुनावों में उनके प्रदर्शन का इनाम माना जा रहा है, जहाँ उनकी पार्टी ने लड़ी गई सभी पाँच सीटें जीती थीं.
बिहार चुनाव: जद (यू) ने 57 उम्मीदवारों की पहली सूची जारी की, चिराग पासवान द्वारा मांगी गई 5 सीटें रखीं
नीतीश और एनडीए सहयोगी चिराग पासवान के बीच पांच सीटों—अलोली, सोनबरसा, राजगीर, एकमा और मोरवा—को लेकर विवाद खड़ा हो गया है. चिराग की लोक जनशक्ति पार्टी (राम विलास) ने इन सीटों पर चुनाव लड़ने की मांग की थी, लेकिन जद (यू) ने पहले ही इन पर अपने उम्मीदवार उतार दिए हैं. चिराग के लिए, खगड़िया ज़िले की अलोली सीट प्रतिष्ठा का विषय है, क्योंकि यह उनका पैतृक क्षेत्र है.
मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के नेतृत्व वाले जद (यू) ने बुधवार को अपने 57 उम्मीदवारों की पहली सूची जारी कर दी. टिकट वितरण को लेकर पार्टी सांसद अजय मंडल सहित कई नेताओं की आपत्तियों के बीच यह सूची जारी की गई.
जद (यू) के कार्यकारी अध्यक्ष संजय कुमार झा ने कहा कि उम्मीदवारों का चयन जातिगत समीकरणों और विशिष्ट क्षेत्रों में उनकी जीत की संभावना के आधार पर किया गया है.
नीतीश ने दांव पर लगाए ‘बाहुबली’ नेता: रमाशंकर के अनुसार, सूची में तीन बाहुबली नेता शामिल हैं— अनंत सिंह, धूमल सिंह और अमरेंद्र पांडेय उर्फ़ पप्पू पांडेय— इन सभी का आपराधिक रिकॉर्ड है और वे अपने निर्वाचन क्षेत्रों में अपनी बाहुबल के लिए जाने जाते हैं.
मुख्य उम्मीदवारों की सूची: पार्टी द्वारा जारी सूची के अनुसार, राज्य अध्यक्ष उमेश कुशवाहा महनार से, धूमल सिंह एकमा से, रमेश ऋषदेव सिंहेश्वर से, कोमल सिंह गायघाट से, सुनील कुमार भोरे से, विजय कुमार चौधरी सराय रंजन से, अश्वमेध देवी समस्तीपुर से, रामचंद्र सदा अलोली से और डॉ. मंज़ाई मृणाल वारिसनगर से चुनाव लड़ेंगे.
इसी तरह, रामानंद मंडल को सूर्यगढ़ा से, राज कुमार राय हसनपुर से, नचिकेता मंडल जमालपुर से, बल्लू मंडल खगड़िया से, कौशल किशोर इस्लामपुर से, श्रवण कुमार नालंदा से और कृष्ण मुरारी शरण (उर्फ़ प्रेम मुखिया) को हिलसा से मैदान में उतारा गया है. पूर्व मंत्री श्याम रजक फुलवारी शरीफ़ से चुनाव लड़ेंगे.
पार्टी ने अपने सभी मंत्रियों और मौजूदा विधायकों को बरकरार रखा है, जो अपने संबंधित निर्वाचन क्षेत्रों से फिर से चुनाव लड़ेंगे. अत्यंत पिछड़ा वर्ग के सदस्यों को बड़ी संख्या में टिकट दिए गए हैं, जो बिहार की आबादी का लगभग 36% हैं.
मुख्यमंत्री नीतीश कुमार 16 अक्टूबर को सराय रंजन (समस्तीपुर) से नामांकन दाखिल करते समय पार्टी उम्मीदवार विजय कुमार चौधरी—जो जद(यू) प्रमुख के भरोसेमंद सिपहसालार हैं—के साथ मौजूद रहेंगे.
महागठबंधन के घोषणापत्र में भूमि सुधार और बलात्कार पीड़ितों के लिए कानून का वादा संभव
आगामी बिहार विधानसभा चुनावों के लिए, विपक्षी महागठबंधन अपने घोषणापत्र में कई महत्वपूर्ण वादों को शामिल करने की तैयारी कर रहा है. इंडियन एक्सप्रेस की एक एक्सक्लूसिव रिपोर्ट के अनुसार, इसमें नीतीश कुमार के पहले कार्यकाल के दौरान गठित डी. बंद्योपाध्याय आयोग की भूमि सुधार सिफारिशों को लागू करना और बलात्कार पीड़ितों की मदद के लिए एक नया कानून बनाना शामिल हो सकता है.
महागठबंधन की समन्वय समिति, जिसका नेतृत्व पूर्व उपमुख्यमंत्री और RJD नेता तेजस्वी यादव कर रहे हैं, में कांग्रेस और वाम दलों सहित सभी घटक दलों के सदस्य शामिल हैं. सूत्रों के अनुसार, बंद्योपाध्याय आयोग की सिफारिशों को शामिल करने का विचार वाम दलों ने दिया था. हालांकि, कांग्रेस की ओर से कुछ हिचकिचाहट थी, क्योंकि वह भूमि-मालिक समुदायों को नाराज़ नहीं करना चाहती.
डी. बंद्योपाध्याय आयोग का गठन जून 2006 में नीतीश कुमार सरकार ने राज्य में भूमि सुधारों पर सिफारिशें देने के लिए किया था. 2008 में अपनी रिपोर्ट में, आयोग ने बटाईदारों (जो ज़मीन पर खेती करते हैं और मालिक के साथ उपज साझा करते हैं) की सुरक्षा के लिए एक नया अधिनियम, भूमि सीमा तय करने और भूमि रिकॉर्ड के कम्प्यूटरीकरण का सुझाव दिया था. हालांकि, बाद में नीतीश कुमार ने कहा था कि उनकी सरकार आयोग की सिफारिशों को मानने के लिए बाध्य नहीं है.
इसके अलावा, घोषणापत्र में बलात्कार पीड़ितों के इलाज और उनकी मेडिकल जांच के मुद्दे को भी शामिल किया जा सकता है. एक वरिष्ठ कांग्रेस नेता ने बताया, “हम यह वादा शामिल करेंगे कि बलात्कार पीड़िता को 24 घंटे के भीतर मेडिकल रिपोर्ट उपलब्ध कराई जाएगी. यह रिपोर्ट पहले पीड़िता की संपत्ति होगी, न कि स्थानीय प्रशासन या पुलिस का दस्तावेज़. इससे अदालतों में निष्पक्ष सुनवाई और त्वरित न्याय सुनिश्चित होगा.” साथ ही, OBC और अन्य वंचित वर्गों के छात्रों के लिए डिग्री कॉलेज और छात्रावास स्थापित करने जैसे वादों पर भी आम सहमति है.
कांग्रेस ने 18 उम्मीदवारों के नामों को मंज़ूरी दी
बिहार में इंडिया गठबंधन सीट-बंटवारे को लेकर मतभेदों को सुलझाने में व्यस्त है, इसी बीच कांग्रेस ने मंगलवार को 18 उम्मीदवारों के नामों को मंज़ूरी दी और बाकी बची सीटों के लिए नामों को अंतिम रूप देने के लिए एक उप-समिति का गठन किया है.
असद रहमान की रिपोर्ट के मुताबिक, ये फ़ैसले केंद्रीय चुनाव समिति की बैठक में लिए गए. उल्लेखनीय है कि चुनाव के पहले चरण के लिए नामांकन दाखिल करने की अंतिम तिथि 17 अक्टूबर, शुक्रवार है. जानकारी के अनुसार, कम से कम 10 सीटें ऐसी हैं, जहां पार्टी टिकट के लिए कई उम्मीदवार प्रतिस्पर्धा कर रहे हैं, और इस मुद्दे को हल करने के लिए अजय माकन की अध्यक्षता में उप-समिति का गठन किया गया. बैठक में मौजूद एक सूत्र ने कहा, “कई सीटें ऐसी हैं, जहां राजद के साथ मतभेद हैं, और कुछ सीटें ऐसी हैं जहां कांग्रेस के कई दावेदार हैं.” इससे पहले हुई केंद्रीय चुनाव समिति की बैठक के दौरान 25 सीटों पर उम्मीदवारों के नाम तय किए गए थे, जिससे कुल सीटों की संख्या 43 हो गई.
एनडीए ने जहां रविवार को अपना सीट-बंटवारा कर लिया था, वहीं विपक्षी इंडिया गठबंधन सहमति तक पहुंचने के लिए संघर्ष कर रहा है. बिहार में कांग्रेस नेता भी उम्मीदवार चयन में हो रही देरी को लेकर चिंतित हैं, उनका कहना है कि इससे चुनाव परिणामों पर असर पड़ सकता है. ज्ञात हुआ है कि कांग्रेस 65 सीटों पर चुनाव लड़ने पर अड़ी है, जबकि राजद 55 सीटें देने को तैयार है. जिन सीटों पर राजद और कांग्रेस के बीच तनाव है, उनमें बछवाड़ा, नरकटियागंज और कहलगांव शामिल हैं. शुक्रवार को ख़बर थी कि दोनों पार्टियों के बीच सीट-बंटवारे की बातचीत पांच सीटों – बैसी (पूर्णिया), बहादुरगंज (किशनगंज), रानीगंज (अररिया), कहलगांव (भागलपुर) और सहरसा – के कारण अटकी हुई थी. एक सूत्र ने कहा, “सहयोगियों के बीच कुछ सीटों पर मुद्दे हल हो गए हैं, जबकि कुछ सीटों पर मतभेद अभी भी बने हुए हैं.”
विश्लेषण
वीवीपी शर्मा | मंडल के सामाजिक न्याय का पहिया अब किस तरफ़ घूमेगा?
बिहार का राजनीतिक इतिहास, जाति, पहचान की राजनीति और आधुनिकता के बीच लगातार चलते मोल-भाव की एक कहानी है. जो सतह पर चुनावी गणित जैसा दिखता है, वह असल में दशकों के अधूरे सामाजिक न्याय और अभिजात्य वर्ग के नियंत्रण को लगातार नया रूप देने का नतीजा है. प्रशांत किशोर और जन सुराज के उभार को अलग-थलग करके नहीं समझा जा सकता. यह उस राजनीतिक समाजशास्त्र की सबसे ताज़ा अभिव्यक्ति है, जिसने कभी यह तय नहीं होने दिया कि राज्य में सत्ता आख़िरकार किसकी है.
मंडल-पूर्व युग से लेकर 1990 तक, बिहार पर कांग्रेस के नेतृत्व वाली एक सवर्ण आम सहमति का शासन था. ब्राह्मण, भूमिहार, राजपूत और कायस्थ नीतियां तय करते थे और मुख्यमंत्री कार्यालय पर उनका कब्ज़ा था, जबकि अन्य—अन्य पिछड़ा वर्ग (OBC), दलित और मुसलमान—सत्ता के केंद्रों के बजाय चुनावी समूहों के रूप में संगठित किए जाते थे. उनकी भागीदारी उपस्थिति-विहीन नहीं थी; उनमें से कई ने मंत्री और विधायक पद संभाले. फिर भी, वे स्वतंत्र किरदारों के बजाय उपग्रहों की तरह थे. यह “समावेशी पदानुक्रम” का मॉडल दशकों तक इसलिए जीवित रहा क्योंकि भौतिक और वैचारिक विकल्प अभी तक उभरे नहीं थे, और समाजवादी राजनीति कांग्रेसवाद से लड़ने में इतनी व्यस्त थी कि वह प्रतिनिधित्व और बराबरी वाली राजनीति का कोई वैकल्पिक मॉडल विकसित नहीं कर पाई.
इस व्यवस्था में पहली दरार दलितों से नहीं आई, जिनके बारे में अक्सर यह मान लिया जाता है कि उनमें नेतृत्व की कमी थी, बल्कि यह उन बिखरे हुए दावों से आई जिनमें एकजुटता की कमी थी. हालांकि बिहार ने वास्तव में दलित मुख्यमंत्री देखे—भोला पासवान शास्त्री (तीन बार मुख्यमंत्री बने), राम सुंदर दास, और दशकों बाद जीतन राम मांझी—लेकिन उनमें से कोई भी एक एकीकृत दलित जनादेश का प्रतिनिधित्व नहीं करता था. उनके संक्षिप्त कार्यकाल या तो कांग्रेस या फिर सवर्ण या पिछड़ी जातियों के गठबंधनों के नेतृत्व वाले आपातकाल के बाद के गठजोड़ों की बदौलत संभव हुए. बिहार में दलित आधार ने कभी भी उस तरह की एकजुट पहचान की राजनीति हासिल नहीं की, जैसी उत्तर प्रदेश में बसपा के तहत देखी गई. पासवान, चमार, मुसहर और अन्य लोगों के बीच उप-जाति के विभाजन ने मायावती जैसी किसी हस्ती के उभार को रोक दिया. नीतीश कुमार द्वारा शुरू की गई ‘महादलित’ श्रेणी ने शोषितों को रैंकिंग देकर इन आंतरिक दरारों को और भी संस्थागत बना दिया.
असली बिखराव 1990 के दशक में मंडल के दौर में आया, जिसने अगड़ी जातियों से मध्यवर्ती OBC की ओर सत्ता के पहले वास्तविक हस्तांतरण का संकेत दिया. कर्पूरी ठाकुर (एक EBC) ने 1970 के दशक में इस बदलाव की संक्षिप्त झलक दिखाई थी, लेकिन यह लालू प्रसाद यादव थे जिन्होंने पिछड़ी जाति के गौरव को एक शासक सिद्धांत में बदल दिया. उनके और राबड़ी देवी के संयुक्त 14 साल के कार्यकाल के बाद नीतीश कुमार के 18 साल (हालांकि भाजपा और राजद को संक्षिप्त समय के लिए बैसाखी के रूप में इस्तेमाल करते हुए) का शासन आया और अभी भी जारी है. फिर भी, मंडल, अपने क्रांतिकारी वादे के बावजूद, प्रतिनिधित्व के स्थायी पुनर्गठन के बजाय एक जाति-विशेष का उत्थान बनकर रह गया. इसने यादवों और बाद में, आंशिक रूप से, कुर्मियों को सशक्त बनाया, लेकिन दलितों, EBC या धार्मिक अल्पसंख्यकों की राजनीतिक एजेंसी का विस्तार नहीं किया. इन वर्गों ने वर्षों में अपनी स्थिति में सुधार किया, लेकिन इतना नहीं कि वे सत्ता पर कब्ज़ा कर सकें. सामाजिक न्याय का पहिया घूमने तो लगा, लेकिन बीच रास्ते में ही रुक गया.
इसी मोड़ पर प्रशांत किशोर का आगमन हुआ है—जो न तो मंडल की राजनीति के स्वाभाविक दावेदार हैं और न ही कांग्रेस-युग के पदानुक्रम की पैदाइश. उनकी जाति, ब्राह्मण, बिहार की मंडल-पूर्व सामाजिक संरचनाओं का ऐतिहासिक भार वहन करती है, लेकिन राजनीति में उनका रास्ता वंशवाद या पार्टी तंत्र से नहीं, बल्कि तकनीकी सफलता, चुनावी सलाहकारी और राजनीतिक रणनीति की बाज़ार-आधारित समझ से बना है. उनकी पार्टी, जन सुराज, विधानसभा चुनावों के लिए प्रतिनिधि तरीके से टिकट बांटकर बिहार के जातीय परिदृश्य को स्वीकार करती दिख रही है. उन्होंने जो 116 उम्मीदवार मैदान में उतारे हैं, उनमें से 31 EBC, 21 OBC, 21 मुसलमान, 25 अनुसूचित जाति और जनजाति और 18 सामान्य श्रेणी से हैं. यह किशोर की ओर से इस बात की स्वीकृति है कि हर जाति अपनी आबादी को लेकर सचेत है, लेकिन सत्ता तक संतुलित पहुँच के लिए भूखी है.
किशोर का समाजशास्त्रीय महत्व इस बात में नहीं है कि वह जीतते हैं या नहीं, बल्कि इस बात में है कि उनका उभार पुराने मॉडलों की थकावट के बारे में क्या कहता है. कांग्रेस-युग की आम सहमति तीन दशक पहले ढह गई. मंडल गठबंधन पिछड़ों के केवल एक वर्ग, यानी यादवों को, वर्चस्व वाले नियंत्रण तक पहुँचाने में सफल रहा. दलित, शुरुआती मुख्यमंत्रियों के बावजूद, उधार के मंचों पर आश्रित बने हुए हैं. मुसलमानों के पास कोई स्वतंत्र वाहन नहीं है. EBC संख्यात्मक रूप से केंद्रीय और राजनीतिक रूप से हाशिए पर हैं.
ऐसे परिदृश्य में, आनुपातिक न्याय की वकालत करने वाले एक ब्राह्मण नेता का फिर से प्रवेश न तो अतीत में एक साधारण वापसी है, और न ही मंडल का सीधा अस्वीकरण. यह कांग्रेस के बिना शुरुआती कांग्रेस जैसी सोशल इंजीनियरिंग जैसा दिखता है, जिसमें पिछड़ों के दौर का सामाजिक न्याय का वादा तो है, लेकिन पिछड़े नेतृत्व के बिना. यह उम्मीदवार चयन में वैचारिक के बजाय एक पेशेवर तर्क पर भी आधारित है, जिसमें पहली बार चुनाव लड़ने वाले, पेशेवर, गैर-वंशवादी और यहां तक कि एक ट्रांसजेंडर सामाजिक कार्यकर्ता भी शामिल हैं. इसके अलावा, यह बिहार में जन्मा है, कोई आयातित मॉडल नहीं.
यह लोकतांत्रिक गणित का उपयोग करके सवर्ण सत्ता की पुनर्स्थापना का एक नया रूप है, या एक पोस्ट-मंडल राजनीतिक डिज़ाइन है जो यादवों के प्रभुत्व और कांग्रेस की पुरानी यादों, दोनों को दरकिनार करता है, यह अभी भी अस्पष्ट है. जो निश्चित है वह यह है कि बिहार का राजनीतिक समाजशास्त्र फिर से संक्रमण के दौर में है. राज्य सवर्ण-नेतृत्व वाले सांकेतिक समावेश से पिछड़ों के नेतृत्व वाले वर्चस्व के मॉडल की ओर बढ़ा, जो न्याय का चक्र पूरा करने से पहले ही रुक गया.
यह दावा करना अतिश्योक्ति नहीं होगी कि बिहार की राजनीति का अगला चरण मंडल या कांग्रेस या बसपा जैसे दावों जैसा नहीं होगा, बल्कि कुछ संकर (hybrid), लेन-देन पर आधारित और अप्रत्याशित होगा. प्रशांत किशोर एक लक्षण हैं, अभी तक समाधान नहीं. उनका उभार एक अनुत्तरित प्रश्न खड़ा करता है: क्या बिहार का राजनीतिक पहिया रुक गया है, उल्टा घूम गया है, या पूरी तरह से एक नया चक्कर शुरू कर दिया है?
यह सवाल अनिवार्य रूप से भाजपा की ओर ले जाता है. यह बिहार में कभी भी सर्वव्यापी शक्ति नहीं रही है; अविभाजित बिहार में भी, यह सत्ता की स्वाभाविक दावेदार बनने के करीब नहीं आई. सदी की शुरुआत से, राम, अयोध्या और गाय के बावजूद, यह केवल नीतीश कुमार के सामाजिक आधार पर सवार होकर ही सत्ता में रही है. अतीत की कांग्रेस के विपरीत, इसे सभी जातियों और वर्गों का समर्थन नहीं मिलता क्योंकि उसकी सांप्रदायिक विचारधारा उसकी पहुँच पर सीमाएँ लगाती है. राजद या जदयू के विपरीत, इसका कोई ऐसा नेता नहीं है जिसका अधिकार किसी प्रमुख जाति समूह पर टिका हो. इसकी हिंदुत्व पहचान इसे एक जातीय वाहन में बदलने से रोकती है, जो बिहार में राजनीतिक जड़ें जमाने के लिए एक ज़रूरी शर्त है. संचित सत्ता-विरोधी लहर अब पार्टी और नीतीश कुमार के साथ उसके गठबंधन, दोनों के ख़िलाफ़ काम कर रही है.
इसके बजाय भाजपा ब्रांड मोदी के खिंचाव, गरीबों की नकद हस्तांतरण और केंद्रीय योजनाओं पर निरंतर निर्भरता, जो भूख और बेरोज़गारों की हताशा को काबू में रखने लायक स्तर पर बनाए रखती हैं, और एक खंडित विपक्ष पर निर्भर है, जिसमें महागठबंधन का हर घटक अपने आपसी अविश्वास को सुलझाने के बजाय उसे दबाने की कोशिश करता है.
2025 के विधानसभा चुनाव शासन के दो थके हुए और ऐतिहासिक रूप से आजमाए हुए मॉडलों के बीच एक और मुकाबला होने जा रहा है. जन सुराज तीसरा चर है, एक ऐसी क्षेत्रीय ताकत जो जाति की अंतर्निहित राजनीतिक भूमिका के ख़िलाफ़ विद्रोह नहीं करती. यह विकल्पों के अभाव से उपजे ठहराव पर एक ऐसी गैर-परखी हुई प्रतिक्रिया है जो राजनीतिक वैधता पाने के लिए उत्सुक है.
लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं और बिहार में लंबी पारी खेल चुके हैं.
वामपंथी उग्रवाद से ‘सबसे ज़्यादा प्रभावित’ ज़िलों की संख्या घटकर 3 हुई: गृह मंत्रालय
द हिंदू की रिपोर्ट के अनुसार, केंद्रीय गृह मंत्रालय ने बुधवार (15 अक्टूबर, 2025) को बताया कि भारत के “रेड कॉरिडोर” में एक महत्वपूर्ण बदलाव करते हुए वामपंथी उग्रवाद (LWE) से “सबसे ज़्यादा प्रभावित” ज़िलों की संख्या छह से घटाकर तीन कर दी गई है. बयान में कहा गया है कि अब छत्तीसगढ़ के बीजापुर, सुकमा और नारायणपुर ही “सबसे ज़्यादा प्रभावित” ज़िलों की श्रेणी में हैं. इससे पहले इसी साल अप्रैल में यह संख्या 12 से घटाकर छह की गई थी, जिसमें छत्तीसगढ़ के बीजापुर, कांकेर, नारायणपुर और सुकमा; झारखंड का पश्चिमी सिंहभूम; और महाराष्ट्र का गढ़चिरौली शामिल थे.
मंत्रालय के अनुसार, माओवाद से प्रभावित ज़िलों की कुल संख्या भी 18 से घटाकर 11 कर दी गई है. मंत्रालय ने कहा, “सरकार 31 मार्च, 2026 तक माओवादी ख़तरे को पूरी तरह से ख़त्म करने के लिए प्रतिबद्ध है.” गृह मंत्रालय ने यह भी बताया कि इस साल ऑपरेशन में मिली सफलता ने पिछले सभी रिकॉर्ड तोड़ दिए हैं, जिसमें 312 LWE कैडरों को मार गिराया गया है. इनमें सीपीआई (माओवादी) के महासचिव और पोलित ब्यूरो/केंद्रीय समिति के 08 अन्य सदस्य भी शामिल हैं. अब तक लगभग 836 LWE कैडरों को गिरफ़्तार किया गया है और 1639 ने आत्मसमर्पण कर मुख्यधारा में शामिल हो गए हैं. इनमें एक पोलित ब्यूरो सदस्य और एक केंद्रीय समिति सदस्य भी शामिल हैं.
मंत्रालय ने कहा कि LWE के ख़िलाफ़ ये ऑपरेशन “राष्ट्रीय कार्य योजना और नीति” के तहत किए गए, जो “सटीक ख़ुफ़िया जानकारी पर आधारित और जन-हितैषी” थे. इन कदमों के साथ-साथ सुरक्षा की कमी वाले क्षेत्रों पर तेज़ी से कब्ज़ा किया गया और शीर्ष नेताओं के साथ-साथ ज़मीनी कार्यकर्ताओं को भी निशाना बनाया गया. इसके अलावा, गृह मंत्रालय ने कहा कि इन ऑपरेशनों में माओवादियों की फ़ंडिंग को रोकना, राज्यों और केंद्र सरकार के बीच बेहतर समन्वय स्थापित करना और माओवादी संबंधित मामलों में तेज़ी से मुक़दमा चलाना शामिल था. हाल की घटनाओं में, बुधवार को सुकमा ज़िले में ₹50 लाख के कुल इनाम वाले 27 सक्रिय माओवादियों ने पुलिस के सामने आत्मसमर्पण कर दिया. वहीं 13 और 14 अक्टूबर की दरमियानी रात, सीपीआई (माओवादी) के प्रमुख केंद्रीय समिति सदस्य मल्लोजुला वेणुगोपाल राव उर्फ भूपति सहित 61 माओवादियों ने भामरागढ़ के फोडेवाड़ा गांव में महाराष्ट्र पुलिस के सामने आत्मसमर्पण किया.
दिल्ली के दक्षिण एशियाई विश्वविद्यालय में यौन उत्पीड़न मामले में चौंकाने वाले आरोप
हिंदुस्तान टाइम्स की रिपोर्ट के अनुसार, दिल्ली पुलिस ने दक्षिण एशियाई विश्वविद्यालय (SAU) की एक 18 वर्षीय छात्रा की यौन उत्पीड़न की शिकायत के बाद गैंग रेप का मामला दर्ज किया है. मामले में दर्ज की गई एफआईआर में लड़की द्वारा चौंकाने वाले आरोप लगाए गए हैं, जिनमें मॉर्फ़ की गईं अश्लील तस्वीरें, धमकियां और उसे एक गोली खिलाने की कोशिश शामिल है. दक्षिणी दिल्ली स्थित SAU की 18 वर्षीय छात्रा ने आरोप लगाया है कि रविवार शाम को कैंपस के अंदर चार अज्ञात लोगों ने उसके साथ यौन उत्पीड़न किया, जिसके बाद मंगलवार को छात्रों ने विश्वविद्यालय परिसर में विरोध प्रदर्शन भी किया.
एफआईआर के अनुसार, बीटेक प्रथम वर्ष की छात्रा को घटना से दो-तीन दिन पहले एक अज्ञात पते से धमकी भरे ईमेल मिल रहे थे. ईमेल भेजने वाले ने कथित तौर पर मांग की कि वह शनिवार रात 11.27 बजे कैंपस के गेस्ट हाउस के पास मिले. एफआईआर में कहा गया है कि उसने ऐसा नहीं किया. अगले दिन, एक और ईमेल आया, जो कथित तौर पर अश्लील भाषा में लिखा गया था, जिसमें छात्रा को उसके हॉस्टल ब्लॉक के बाहर आने के लिए कहा गया. लड़की ने ये संदेश अपने तीन दोस्तों को दिखाए, जिन्होंने ईमेल में बताए गए समय पर उस जगह की जाँच की, लेकिन वहां कोई नहीं मिला.
मामला रविवार को तब और बिगड़ गया जब उसे अपनी डिस्प्ले पिक्चर का इस्तेमाल करके बनाई गईं मॉर्फ़ की हुईं अश्लील तस्वीरें व्हाट्सएप और टेलीग्राम पर मिलीं. साथ में भेजे गए संदेशों में धमकी दी गई कि अगर वह गेट नंबर 3 पर नहीं आई तो इन तस्वीरों को छात्रों के बीच फैला दिया जाएगा. जब वह अपने दोस्तों से फ़ोन पर संपर्क नहीं कर पाई, तो उसने एक और दोस्त को सूचित किया, लेकिन परेशान होकर उसने फ़ोन उठाना बंद कर दिया. पीड़िता ने आगे बताया कि वह जानबूझकर विश्वविद्यालय के दीक्षांत समारोह केंद्र की ओर कम भीड़ वाले रास्ते से गई, जहां निर्माण कार्य चल रहा है. उसने कहा कि वह उस जगह के पास बैठ गई जहां एक सुरक्षा गार्ड मौजूद था, जिसने एक अधेड़ उम्र के व्यक्ति को बुलाया. थोड़ी देर बाद, दो और युवक आए और उन चारों ने उसे दीक्षांत समारोह केंद्र के पास एक खाली कमरे में ले जाकर उसके साथ यौन उत्पीड़न किया.
छात्रा ने आरोप लगाया कि एक हमलावर ने उसके मुंह में एक गोली डालने की कोशिश की, जिसे उसने थूक दिया. पीटीआई समाचार एजेंसी ने बताया कि पीड़िता ने एफआईआर में इसे गर्भपात की गोली के रूप में पहचाना. हमलावर तब भागे जब उन्होंने पास के मेस से लोगों को बाहर निकलते सुना. हमलावरों के जाने के बाद वह सदमे में थी और बाद में उसके दोस्त उसे कैंपस थिएटर के पास मिले. दक्षिण दिल्ली के पुलिस उपायुक्त (डीसीपी) अंकित चौहान ने पुष्टि की कि पीड़िता के बयान के आधार पर एफआईआर दर्ज कर ली गई है. विश्वविद्यालय प्रशासन की प्रतिक्रिया पर आरोप लगाते हुए एफआईआर में उल्लेख है कि पीड़िता ने दावा किया कि डॉक्टर द्वारा स्थिति की गंभीरता पर ज़ोर देने के बावजूद, हॉस्टल इंचार्ज ने उसकी बात को ख़ारिज कर दिया और उल्टे महिला छात्रों पर ही आरोप लगाए. दोस्तों ने उसे पुलिस को शामिल करने और चिकित्सा सहायता लेने की सलाह दी, लेकिन हॉस्टल इंचार्ज ने कथित तौर पर पीड़िता को “नहाने और कपड़े बदलने” की सलाह दी. पीड़िता ने यह भी आरोप लगाया कि अधिकारियों ने उसे अपनी माँ या बाहरी लोगों से संपर्क करने से रोका. आख़िरकार सोमवार दोपहर पीड़िता के एक दोस्त ने पीसीआर कॉल की, जिसके बाद मामला दर्ज किया गया. मामला भारतीय न्याय संहिता की कई धाराओं के तहत दर्ज किया गया है, जिसमें धारा 70 (गैंग रेप), 62 (अपराध करने का प्रयास), 123 (ज़हर के माध्यम से चोट पहुँचाना), 140(3) (अपहरण), 115(2) (स्वेच्छा से चोट पहुँचाना), 126(2) (गलत तरीके से रोकना), और 3(5) (सामान्य इरादा) शामिल हैं.
जुबीन गर्ग : आरोपियों को नई जेल ले जा रहे काफ़िले पर पथराव
द इंडियन एक्सप्रेस की रिपोर्ट के अनुसार, असम के बक्सा में उस समय अफ़रा-तफ़री मच गई जब गायक जुबीन गर्ग की मौत के मामले में गिरफ़्तार पांच लोगों को ले जा रहे काफ़िले पर भीड़ ने पथराव कर दिया. यह घटना बुधवार दोपहर को हुई जब गुवाहाटी की एक स्थानीय अदालत द्वारा उन्हें न्यायिक हिरासत में भेजे जाने के बाद बक्सा ज़िला जेल ले जाया जा रहा था. इन पांच लोगों में गर्ग के चचेरे भाई और असम पुलिस सेवा के अधिकारी संदीपान गर्ग भी शामिल हैं, जो सिंगापुर यात्रा के दौरान उनके साथ थे और उस यॉट पर भी मौजूद थे जहां उनकी मृत्यु हुई थी. संदीपान को 8 अक्टूबर को गिरफ़्तार किया गया था. अन्य दो में गर्ग से जुड़े निजी सुरक्षा अधिकारी नंदेश्वर बोरा और परेश बैश्य शामिल हैं, जिन्हें 10 अक्टूबर को गिरफ़्तार किया गया था.
गिरफ़्तारी के बाद, सभी पांचों को पुलिस हिरासत में भेज दिया गया था, जहां मामले की जांच के लिए गठित एसआईटी ने उनसे पूछताछ की. बुधवार को उनकी पुलिस हिरासत समाप्त हो गई, और उन्हें मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट की अदालत में पेश किया गया. असम सरकार की ओर से पेश हुए वकील प्रदीप कोंवर ने कहा, “14 दिनों की पुलिस हिरासत पूरी होने के बाद, उन्हें अदालत में पेश किया गया, जिसने उन्हें न्यायिक हिरासत में भेजने का आदेश दिया.” बताया जा रहा है कि अदालत द्वारा उनकी सुरक्षा पर चिंता व्यक्त किए जाने के बाद असम सरकार ने उन्हें नई बक्सा ज़िला जेल भेजने का फ़ैसला किया, जिसका उद्घाटन इसी साल जून में हुआ था और जिसमें कोई अन्य क़ैदी नहीं है.
उन्हें बक्सा जेल में रखने के फ़ैसले से इलाके में विरोध प्रदर्शन शुरू हो गया और स्थानीय लोग जेल परिसर के बाहर इकट्ठा हो गए. बक्सा से आए दृश्यों में दिखाया गया है कि बुधवार दोपहर जब पांचों को ले जा रहा काफ़िला जेल के गेट में घुस रहा था, तो गुस्साई भीड़ ने पीछा करते हुए उन पर पत्थर फेंके. इस मामले में गिरफ़्तार दो अन्य आरोपी - गर्ग के साथी संगीतकार शेखरज्योति गोस्वामी और अमृतप्रवा महंत - 17 अक्टूबर तक पुलिस हिरासत में रहेंगे.
एबीवीपी के छात्रों ने कपड़े बदलते समय छात्राओं के वीडियो बनाए, गिरफ्तार
मध्यप्रदेश में भानपुरा (मंदसौर) के एक सरकारी कॉलेज में मंगलवार को युवा उत्सव (फेस्ट) के दौरान शर्मनाक घटना सामने आई, जब अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद (एबीवीपी) के चार छात्रों ने कपड़े बदलते समय छात्राओं के फोटो और वीडियो बना लिए. छात्राओं को जब यह पता चला तो उन्होंने हंगामा कर दिया. उन्होंने प्रभारी प्राचार्य डॉ. प्रीति पंचोली से इसकी शिकायत की. प्राचार्य ने मामले की गंभीरता को देखते हुए सीसीटीवी फुटेज जांचने के निर्देश दिए. फुटेज में चारों छात्र हरकत करते नजर आए. इसके बाद डॉ. पंचोली ने चारों छात्रों के खिलाफ भानपुरा पुलिस को लिखित शिकायत दी. पुलिस ने मामला दर्ज कर एबीवीपी के तीन छात्रों को गिरफ्तार कर लिया है. वहीं चौथा फरार है. आरोपियों में उमेश जोशी (22) निवासी प्रेमपुरिया - नगर मंत्री, एबीवीपी, अजय गौड़ (21) निवासी ग्राम कंवला - नगर सह-महाविद्यालय प्रमुख, एबीवीपी, हिमांशु बैरागी (20) निवासी ग्राम सानड़ा, कार्यकर्ता, एबीवीपी शामिल हैं. तीनों को गिरफ्तार कर न्यायालय में पेश किया गया, जहां से उन्हें जेल भेज दिया गया.
हरकारा डीपडाइव | दलितों पर बढ़ते अत्याचार
श्रवण गर्ग: तीन घटनाओं में छिपा है ख़तरनाक राजनीतिक पैटर्न
हाल के दिनों में दलित समुदाय के ख़िलाफ़ हुई तीन बड़ी और भयावह घटनाओं ने देश में एक बार फिर जातीय उत्पीड़न और हिंसा के मुद्दे को बहस के केंद्र में ला दिया है. इन घटनाओं को अलग-थलग मानने के बजाय, वरिष्ठ पत्रकार श्रवण गर्ग ने ‘हरकारा डीप डाइव’ के साथ एक बातचीत में इन्हें एक बड़े और चिंताजनक राजनीतिक पैटर्न का हिस्सा बताया है. उनके अनुसार, ये घटनाएँ देश में बढ़े हुए राजनीतिक ध्रुवीकरण और हाशिए पर पड़े समुदायों के प्रति बढ़ती असहिष्णुता का सीधा नतीजा हैं.
श्रवण गर्ग ने हाल में एक ही सप्ताह के भीतर हुईं तीन प्रमुख घटनाओं पर ज़ोर दिया, जो दलित समुदाय के अलग-अलग वर्गों की असुरक्षा को दर्शाती हैं. पहली घटना 1 अक्टूबर को रायबरेली में हुई, जहाँ हरिओम वाल्मीकि नाम के एक 38 वर्षीय दलित युवक को ड्रोन चोरी के आरोप में खंभे से बाँधकर बेरहमी से पीटा गया, जिसके बाद उसकी लाश रेलवे ट्रैक के पास मिली. गर्ग इस बात पर ध्यान दिलाते हैं कि यह घटना कांग्रेस नेता राहुल गाँधी के संसदीय क्षेत्र में हुई, जो व्यवस्था की नाकामी को उजागर करती है.
दूसरी घटना 6 अक्टूबर को सुप्रीम कोर्ट में हुई, जब देश के मुख्य न्यायाधीश, जस्टिस बी.आर. गवई पर एक वकील द्वारा जूता फेंका गया. जस्टिस गवई आज़ादी के बाद से इस पद पर पहुँचने वाले केवल दूसरे दलित व्यक्ति हैं. गर्ग इसे एक व्यक्ति पर नहीं, बल्कि उस संविधान की रक्षा करने वाली संस्था पर हमला मानते हैं, जिसका निर्माण बाबासाहेब अंबेडकर ने किया था.
तीसरी घटना 7 अक्टूबर को हरियाणा से सामने आई, जहाँ एक वरिष्ठ आईपीएस अफ़सर वाई. पूरन कुमार ने जातिगत प्रताड़ना से तंग आकर आत्महत्या कर ली. अपने सुसाइड नोट में उन्होंने राज्य के डीजीपी सहित कई वरिष्ठ आईएएस और आईपीएस अधिकारियों पर गंभीर आरोप लगाए. गर्ग बताते हैं कि यह प्रताड़ना साल 2000 से चल रही थी, यानी यह कांग्रेस और भाजपा, दोनों सरकारों के कार्यकाल में जारी रही.
श्रवण गर्ग इन तीनों घटनाओं को एक ‘अन्याय के त्रिकोण’ के रूप में देखते हैं. उनका तर्क है कि यह दलितों के लिए न्याय के पूरे तंत्र पर हमला है. उन्होंने समझाया कि एक तरफ़ आम दलित नागरिक (हरिओम) की हत्या होती है, दूसरी तरफ़ जाँच करने वाला पुलिस अफ़सर (पूरन कुमार) आत्महत्या करने पर मजबूर हो जाता है, और तीसरी तरफ़ न्याय देने वाले जज (CJI गवई) पर ही हमला हो जाता है. यह दिखाता है कि दलितों के लिए न्याय का कोई रास्ता नहीं छोड़ा जा रहा है.
गर्ग इस पूरे घटनाक्रम को देश में बढ़े हुए राजनीतिक ध्रुवीकरण से जोड़ते हैं. उनका मानना है कि सत्ता के साथ खड़े लोगों को कुछ भी करने की छूट मिल गई है, जिसका निशाना मुख्य रूप से अल्पसंख्यक और दलित बन रहे हैं. उन्होंने इस विरोधाभास की ओर भी ध्यान दिलाया कि जहाँ एक तरफ़ दलितों पर अत्याचार हो रहे हैं, वहीं भाजपा के कई प्रमुख सहयोगी दल और नेता, जैसे चिराग पासवान और जीतन राम माँझी, ख़ुद दलित या पिछड़े समुदायों से आते हैं, फिर भी वे इन मुद्दों पर चुप हैं. गर्ग के अनुसार, यह नेतृत्व अंबेडकर या कांशीराम की तरह आवाज़ उठाने के बजाय, सत्ता समीकरण में ‘एक तरह के वेंडर या दलाल’ की भूमिका निभा रहा है.
आने वाले बिहार चुनावों के संदर्भ में, गर्ग का मानना है कि इन घटनाओं का ज़मीन पर क्या असर होगा, यह देखना महत्वपूर्ण होगा. उन्होंने अपनी बात को समाप्त करते हुए टिप्पणी की कि आज दलितों के पास “राहुल गाँधी तो हैं, पर महात्मा गाँधी नहीं हैं,” जो उनके नेतृत्वहीन होने की पीड़ा को दर्शाता है.
महाराष्ट्र में बौद्ध धर्म; अंबेडकर की दृष्टि ने दलितों के जीवन को कैसे बदला
1936 में, बाबासाहेब अंबेडकर ने बॉम्बे में ‘मुक्ति कोण पथे? (मुक्ति का मार्ग क्या है?) नामक भाषण दिया था, जिसमें उन्होंने बताया कि कैसे हिंदू धर्म ने दलितों को सामाजिक और आर्थिक विकास दोनों से वंचित किया है, प्रभावी रूप से उन्हें उनकी मानवता से वंचित कर दिया है. यह शक्तिशाली संदेश 14 अक्टूबर, 1956 को हिंदू धर्म छोड़ने और मुक्ति तथा दलित उत्थान के मार्ग के रूप में बौद्ध धर्म को अपनाने के उनके फ़ैसले में परिणत हुआ.
यह स्वीकार करना महत्वपूर्ण है कि विदेश से शिक्षा प्राप्त विद्वान, एक प्रमुख राजनीतिक नेता, और संविधान की मसौदा समिति के अध्यक्ष, साथ ही कई अन्य महत्वपूर्ण समितियों के सदस्य का दर्जा प्राप्त करने के बाद भी, अंबेडकर के व्यक्तिगत अनुभव जातिगत भेदभाव के साथ बने रहे. इन अनुभवों ने उनके इस विश्वास को मज़बूत किया कि जब तक “अछूत” हिंदू जाति व्यवस्था का हिस्सा बने रहेंगे, तब तक वे अपमान और असमानता से बच नहीं सकते.
अंबेडकर का दृढ़ विश्वास था कि बौद्ध धर्म अपनाना धार्मिक कानूनों के प्रभुत्व को त्यागने का एक साधन है, जो व्यक्तियों के साथ-साथ समूह के कार्य और व्यवहार की दिशा निर्धारित करते हैं. अत्त दीप भव (अपना प्रकाश स्वयं बनो) की बौद्ध अवधारणा को अपनाना और स्वयं को सशक्तिकरण के स्रोत के रूप में समझना, जो धनी जाति समूहों के संरक्षण से स्वतंत्र हो, दलितों को स्वतंत्र होने, अपने स्वयं के कार्य करने और कल्याण प्राप्त करने के लिए सशक्त बनाता है.
महाराष्ट्र में विशेष रूप से महार समुदाय के कई दलितों ने उनके मार्ग का अनुसरण किया और बौद्ध धर्म अपना लिया. यह सिर्फ नागपुर की दीक्षाभूमि में मौजूद लगभग चार लाख लोग ही नहीं थे, जिन्होंने धर्म परिवर्तन किया; कई अन्य लोगों ने पूरे महाराष्ट्र में, गांवों और उपनगरीय क्षेत्रों सहित, छोटे समूहों में धर्म परिवर्तन कार्यक्रम आयोजित किए. इस घटना ने इस क्षेत्र में पहले हिंदू धर्म का पालन करने वाले कई लोगों के लिए एक परिवर्तनकारी क्षण को चिन्हित किया. अंबेडकर के साथ 22 प्रतिज्ञाओं का पाठ करना, जिसमें किसी भी हिंदू देवी-देवता और अनुष्ठानों का पालन न करने की प्रतिज्ञा शामिल थी, परिवर्तन का एक क्रांतिकारी कार्य था.
कम से कम महाराष्ट्र के मामले में (2011 की जनगणना के अनुसार, राज्य में बौद्धों की आबादी लगभग 6.5 मिलियन है, या कुल आबादी का 5.81%), बौद्ध अनुयायियों की एक समर्पित आबादी की दो पीढ़ियां तैयार होने के बाद, बौद्ध धर्म ने गौरव और सशक्तिकरण की भावना को बढ़ाने और लोगों को अन्यायपूर्ण सामाजिक और राजनीतिक व्यवस्थाओं के ख़िलाफ़ लड़ने में सक्षम बनाने में सकारात्मक योगदान दिया है. महाराष्ट्र में बौद्ध धर्म अपनाने वाले अंबेडकरवादी दलित, अपनी पहचान को व्यक्तिगत और सामूहिक दोनों स्तरों पर अभिव्यक्त करने के मामले में, अन्य हिंदू निम्न-जाति समूहों की तुलना में कई अंतर प्रदर्शित करते हैं.
अन्य निम्न जाति समूहों की तुलना में बौद्ध व्यक्तिगत और सामूहिक रूप से अधिक स्वायत्तता महसूस करते हैं. यह स्वायत्तता विशेष रूप से पारंपरिक जाति-आधारित व्यवसायों को छोड़ने के उनके फ़ैसले में स्पष्ट है, जैसे कि मृत जानवरों की खाल उतारना, मैला ढोना और मानव मल का निपटान करना - ऐसे काम जो मानवीय जीवन के मूल्य को कम करते हैं. बौद्धों ने न सिर्फ़ इन पारंपरिक भूमिकाओं से दूरी बनाई है, बल्कि शिक्षा और आरक्षण नीतियों के लाभ से उन्होंने बेहतर पद भी हासिल किए हैं और ऊर्ध्वगामी आर्थिक गतिशीलता प्राप्त की है.
महाराष्ट्र में बौद्धों की साक्षरता दर 83.17% है, जो राज्य की साक्षरता दर 82.34% से अधिक है. महाराष्ट्र में लगभग 47.76% बौद्ध शहरी क्षेत्रों में रहते हैं, जो राज्य के औसत 45.22% से थोड़ा अधिक है, जो शहरी प्रवासन और बेहतर रोज़गार के अवसरों तक पहुंच की प्रवृत्ति को दर्शाता है. उनकी कार्य सहभागिता दर 43.15% है, जो कुल अनुसूचित जातियों के औसत 40.87% और राष्ट्रीय औसत 39.79% दोनों से अधिक है, जो अधिक आर्थिक भागीदारी को दर्शाता है.
बौद्ध धर्म की शुरुआत ने महाराष्ट्र के समुदायों को दुनिया भर के बौद्ध समाजों से भी परिचित कराया है और उनके साथ संबंध स्थापित किए हैं. व्यापक वैश्विक संदर्भ से इस संपर्क ने, अंतर्राष्ट्रीय बौद्ध संगठनों से मिले स्वागत की भावना के साथ, महाराष्ट्र में बौद्ध समुदायों के आत्मविश्वास को महत्वपूर्ण रूप से बढ़ाया है.
सशक्तिकरण की यह भावना बौद्ध महिलाओं में प्रबल रूप से महसूस की जाती है, जो ऐतिहासिक रूप से सामाजिक और पारिवारिक दोनों स्तरों पर जाति और पितृसत्तात्मक प्रभुत्व की शिकार रही हैं. महाराष्ट्र में अंबेडकरवादी दलित महिला विद्वानों और विपुल लेखिकाओं की उपस्थिति दलित समाज में महिलाओं के लिए सशक्त स्थिति का प्रमाण है.
स्थानीय स्तर पर, बुद्ध विहारों में बैठकों में भाग लेने वाली महिलाएं न सिर्फ़ धार्मिक विश्वासों से प्रेरित होती हैं, बल्कि दूसरों के साथ बातचीत करने, उन्हें प्रभावित करने वाले मुद्दों पर चर्चा करने, विभिन्न कार्यक्रमों या योजनाओं पर मार्गदर्शन लेने और पारिवारिक मतभेदों को सुलझाने की इच्छा से भी प्रेरित होती हैं. वास्तव में, ये महिला समूह अब अंबेडकर जयंती और बुद्ध जयंती जैसे महत्वपूर्ण आयोजनों को मनाने में अग्रणी भूमिका निभाते हैं.
दलितों, विशेष रूप से दलित महिलाओं, में सशक्तिकरण की बढ़ी हुई भावना के साथ, दलित आबादी के ख़िलाफ़ जाति-आधारित हिंसा की बढ़ती घटनाएं भी सामने आई हैं, जो ज़्यादातर गुप्त रूप से होती हैं, लेकिन पर्याप्त राजनीतिक समर्थन हासिल होने पर खुले तौर पर भी हो सकती हैं. हालांकि, सशक्तिकरण की यही भावना समुदाय को सामूहिक रूप से और मज़बूती से उत्पीड़न के ऐसे कृत्यों का विरोध करने में भी सक्षम बनाती है.
आलोचकों का दावा है कि अंबेडकर का यह विश्वास कि बौद्ध धर्म अपनाने से दलितों को जातिगत उत्पीड़न से बचने में मदद मिलेगी, साक्ष्यों द्वारा समर्थित नहीं है. कई बौद्ध अभी भी अपने दैनिक जीवन में भेदभाव का अनुभव करते हैं, सवर्ण हिंदुओं की तुलना में गरीब बने हुए हैं, जातिगत रेखाओं के साथ विखंडन का अनुभव करते हैं और एकजुटता की कमी देखते हैं. यह स्वीकार करना आवश्यक है कि यह कथन सत्य है, लेकिन केवल एक निश्चित सीमा तक. यह मान लेना कि धर्म परिवर्तन अकेले दलितों के बीच भेदभाव और गरीबी को समाप्त करने का जादुई समाधान है, अनुचित होगा, विशेष रूप से जाति समूहों में आय और धन की ऐतिहासिक असमानताओं को देखते हुए. इसके अतिरिक्त, आर्थिक उदारीकरण के प्रभावों ने दलितों के सामने आने वाली आर्थिक स्थितियों को और बढ़ा दिया है, जिससे समानता और सशक्तिकरण का मार्ग अधिक जटिल हो गया है.
जबकि अंबेडकर की दृष्टि और उसके बाद बौद्ध धर्म अपनाने से वास्तव में गौरव और स्वायत्तता की भावना बढ़ी है, वे समाज में अभी भी प्रचलित प्रणालीगत मुद्दों के लिए एकमात्र उपाय नहीं हैं. जाति-आधारित उत्पीड़न और आर्थिक विषमताओं को दूर करने के लिए एक बहुआयामी कार्यक्रम की आवश्यकता है, जो अंबेडकर की विरासत द्वारा शुरू किए गए आध्यात्मिक और सांस्कृतिक परिवर्तनों के साथ-साथ सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक सुधारों को भी शामिल करे.
हालांकि, धर्म परिवर्तन की सभी सीमाओं और चुनौतियों के बावजूद, अब हमारे पास महाराष्ट्र में दो पीढ़ियों से बौद्ध अनुयायियों का एक समर्पित वर्ग है, जिसने व्यक्ति के साथ-साथ सामाजिक अस्तित्व के अर्थ को महत्वपूर्ण रूप से बदल दिया है. यह एक समतावादी, सशक्त समाज के अंबेडकर के सपने को पूरा करने की दिशा में एक बड़ा कदम है. सुहास भस्मे का यह लेख अंग्रेजी में “द वायर” में पढ़ा जा सकता है. भस्मे टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंसेज में फ़ैकल्टी मेम्बर हैं.
सोनम वांगचुक: केंद्र ने सुप्रीम कोर्ट से कहा, पत्नी के साथ नोट्स साझा करने पर कोई आपत्ति नहीं
केंद्र सरकार ने बुधवार (15 अक्टूबर) को सुप्रीम कोर्ट को बताया कि उसे लद्दाख के सामाजिक कार्यकर्ता सोनम वांगचुक द्वारा उनकी हिरासत को चुनौती देने के लिए तैयार किए गए नोट्स को उनकी पत्नी डॉ. गीतांजलि जे. आंगमो के साथ साझा करने पर कोई आपत्ति नहीं है. केंद्र के इस बयान पर ध्यान देते हुए, कोर्ट ने राष्ट्रीय सुरक्षा अधिनियम (एनएसए) के तहत वांगचुक की हिरासत को चुनौती देने वाली गीतांजलि आंगमो की याचिका को 29 अक्टूबर तक के लिए स्थगित कर दिया, क्योंकि याचिकाकर्ता के वकील, सीनियर एडवोकेट कपिल सिब्बल, ने याचिका में कुछ अतिरिक्त आधारों और राहतों को शामिल करने के लिए संशोधन करने की इच्छा व्यक्त की थी.
“लाइव लॉ” के अनुसार, जस्टिस अरविंद कुमार और जस्टिस एनवी अंजारिया की पीठ के समक्ष, सिब्बल ने कहा कि वांगचुक को अपनी पत्नी के साथ नोट्स साझा करने की अनुमति नहीं दी जा रही थी. सिब्बल ने कहा, “उन्होंने हिरासत पर कुछ नोट्स बनाए हैं, जिन्हें वह अपनी पत्नी के वकील को देना चाहते थे. वह जो भी नोट्स तैयार करते हैं, वह वकील की सहायता के हकदार हैं. हम बस इतना चाहते हैं कि वे नोट्स पास कर दिए जाएं.”
केंद्र की ओर से सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने जवाब दिया कि उन्हें नोट्स को पत्नी के साथ साझा करने में कोई समस्या नहीं है, लेकिन हिरासत के आधार पत्नी को देने में हुई देरी को हिरासत को चुनौती देने का आधार नहीं बनाया जाना चाहिए. उन्होंने यह भी कहा कि वांगचुक ने चुनौती के आधार पर नोट्स तैयार करने के लिए एक लैपटॉप की मांग की थी.
सिब्बल ने स्पष्ट किया कि वे हिरासत को केवल उन्हीं आधारों पर चुनौती दे रहे हैं, जो उन्हें केंद्र द्वारा दिए गए हैं. उन्होंने कहा कि याचिकाकर्ता को एक अंतरिम आवेदन दाखिल करके अपनी प्रार्थनाओं में संशोधन करने की अनुमति दी जा सकती है, ताकि मामले को जारी रखा जा सके, जिसे कोर्ट ने स्वीकार कर लिया. न्यायमूर्ति कुमार ने एसजी मेहता को सूचित किया कि कोर्ट उस मुद्दे पर कोई राय व्यक्त नहीं करेगा.
अनुच्छेद 32 के तहत दायर यह याचिका एक बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिका है, जिसमें वांगचुक की रिहाई की मांग की गई है. वह जोधपुर की जेल में बंद हैं. आंगमो ने हिरासत को अनुच्छेद 22 के तहत अवैध बताया है, क्योंकि उनमें से किसी को भी गिरफ्तारी के आधार प्रदान नहीं किए गए हैं.
कहां गायब हो गया आठवां वेतन आयोग, सरकार की चुप्पी ने कई सवाल खड़े किए
परंपरा के अनुसार, आठवें वेतन आयोग की सिफ़ारिशें 1 जनवरी 2026 से लागू होनी हैं, जिसमें अब तीन महीने से भी कम समय बचा है. हालांकि, भारत सरकार ने अभी तक 8वें वेतन आयोग का गठन नहीं किया है और उसकी चुप्पी कई सवाल खड़े कर रही है.
सुभाष चंद्र गर्ग के मुताबिक, इस साल जनवरी में - दिल्ली चुनावों से कुछ दिन पहले - सूचना और प्रसारण मंत्री अश्विनी वैष्णव ने एक रहस्यमय घोषणा की थी कि केंद्रीय मंत्रिमंडल 8वें वेतन आयोग के गठन और 1 जनवरी 2026 से काफी पहले इसके कार्यान्वयन पर चर्चा कर रहा है.
आश्चर्यजनक रूप से, अगस्त 2025 में, भारत सरकार ने एक लोकसभा प्रश्न का उत्तर देते हुए कहा कि 8वें वेतन आयोग के गठन का कोई प्रस्ताव नहीं है. तो, क्या हो रहा है? 8वां वेतन आयोग कहां गायब हो गया है? क्या नरेंद्र मोदी सरकार के पास कोई और तरकीब है?
सीमा पर घातक हिंसा के बाद पाकिस्तान-अफगानिस्तान के बीच 48 घंटे का सीजफायर
पाकिस्तान ने बुधवार को घोषणा की कि वह अफ़ग़ानिस्तान के साथ 48 घंटे के संघर्ष विराम पर सहमत हो गया है. यह घोषणा सीमा पर कई दिनों से चल रही भीषण हिंसा के बाद की गई है, जिसमें दोनों पक्षों के दर्जनों लोग मारे गए हैं.
“द न्यू इंडियन एक्सप्रेस” की रिपोर्ट के अनुसार, मंत्रालय ने कहा, “पाकिस्तान सरकार और अफगान तालिबान शासन ने - तालिबान के अनुरोध पर... आज शाम 6 बजे (0100 GMT) से अगले 48 घंटों के लिए एक अस्थायी संघर्ष विराम लागू करने का फ़ैसला किया है.” इस बीच, तालिबान सरकार ने भी अपनी सेना को पाकिस्तान के साथ इस संघर्ष विराम का सम्मान करने का आदेश दिया.
हाल के वर्षों में पड़ोसियों के बीच यह हिंसा सबसे घातक थी, जो रात भर चली लड़ाई के साथ और बढ़ गई थी. पाकिस्तान ने दावा किया कि उसने दर्जनों अफगान सुरक्षा बलों और आतंकवादियों को मार गिराया और सैन्य साजो-सामान को नष्ट कर दिया. अधिकारियों ने इसे “अकारण” हमला बताया था. हालांकि, तालिबान सरकार ने पाकिस्तान पर नागरिकों को निशाना बनाने का आरोप लगाया. तालिबान ने बताया कि दक्षिणी कंधार प्रांत के स्पिन बोल्डक क्षेत्र में पाकिस्तानी सेना द्वारा कथित तौर पर गोलाबारी किए जाने से 20 से अधिक लोग मारे गए और 100 से अधिक घायल हुए.
अमेरिका-भारत संबंधों का विशेषज्ञ गिरफ्तार, रक्षा जानकारी को अवैध रूप से रखने का आरोप
अमेरिका-भारत संबंधों पर एक प्रमुख विशेषज्ञ, जिन्होंने अमेरिका के प्रशासनों को लगातार सलाह देने का काम किया है, को राष्ट्रीय रक्षा जानकारी को अवैध रूप से अपने पास रखने के आरोप में गिरफ्तार किया गया है. उनके घर पर एक हज़ार से अधिक पन्नों के अति गोपनीय और गोपनीय दस्तावेज़ पाए गए हैं.
“रॉयटर्स” की रिपोर्ट के मुताबिक, 64 वर्षीय एशले टेलिस, जिन्होंने पूर्व रिपब्लिकन राष्ट्रपति जॉर्ज डब्ल्यू. बुश की राष्ट्रीय सुरक्षा परिषद में सेवा दी थी और जिन्हें एफबीआई अदालत के एक शपथ पत्र में विदेश विभाग के एक अवैतनिक सलाहकार और पेंटागन के ठेकेदार के रूप में सूचीबद्ध किया गया है, को सप्ताहांत में गिरफ्तार किया गया और सोमवार को उन पर आरोप लगाए गए. ये दस्तावेज़ मंगलवार (14 अक्टूबर, 2025) को सामने आए. शपथ पत्र में कहा गया है कि टेलिस पर राष्ट्रीय रक्षा जानकारी को अवैध रूप से अपने पास रखने से संबंधित संघीय कानूनों का उल्लंघन करने का आरोप है.
संघीय अभियोजकों ने आरोप लगाया है कि टेलिस ने हाल के वर्षों में कई बार चीनी सरकार के अधिकारियों से मुलाकात की है, जिसमें सितंबर 2022 और अप्रैल 2023 में वर्जीनिया के एक उपनगर के रेस्तरां में रात के खाने पर हुई बैठकें शामिल हैं. अप्रैल 2023 की बैठक के दौरान, टेलिस और चीनी अधिकारियों को कथित तौर पर ईरानी-चीनी संबंधों और उभरती प्रौद्योगिकियों, जिसमें आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस (एआई) शामिल है, के बारे में बात करते हुए सुना गया था.
अमेरिकी न्याय विभाग के एक बयान में कहा गया है कि यदि टेलिस दोषी पाए जाते हैं, तो उन्हें 10 साल तक की कैद और ढाई लाख डॉलर तक का जुर्माना हो सकता है. एशले टेलिस वॉशिंगटन थिंक टैंक कारनेगी एंडोमेंट फॉर इंटरनेशनल पीस में भी एक वरिष्ठ फेलो हैं.
12वीं सदी का एक स्मारक ‘पिपरहवा’ रत्नों की प्रदर्शनी के लिए तैयार हो रहा है
दक्षिण दिल्ली के महरौली की एक व्यस्त सड़क के कोने में छिपा एक पार्क किसी भी अन्य शहरी पार्क जैसा दिखता है, सिवाय इसके कि यहां हाल ही में निर्मित एक हॉल के ऊपर 12वीं सदी के शासक पृथ्वीराज चौहान की एक विशाल मूर्ति स्थापित है.
दिव्या ए. के अनुसार, आने वाले दिनों में, यह साधारण-सा 12वीं सदी का स्मारक, जिसमें दिल्ली के पहले शहर-राय पिथौरा के अवशेष शामिल हैं, एक और कारण से सार्वजनिक स्मृति में अपनी पहचान बनाएगा. और, वो है-“भगवान बुद्ध के पिपरहवा अवशेषों के प्रदर्शन स्थल” के रूप में, जिन्हें प्राचीन कपिलवस्तु से लगभग 130 साल पहले उत्खनित किए जाने के बाद पहली बार प्रदर्शित किया जाएगा.
संभावना है कि इस महीने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा इसका उद्घाटन किया जाएगा. संस्कृति मंत्रालय द्वारा आयोजित की जा रही क़िला राय पिथौरा प्रदर्शनी में एक और अनूठा कदम उठाया जाएगा- कोलकाता स्थित भारतीय संग्रहालय के कब्जे में मौजूद बौद्ध अवशेषों और नई दिल्ली के राष्ट्रीय संग्रहालय सहित विभिन्न अन्य संग्रहालयों की इसी तरह की महत्वपूर्ण वस्तुओं के साथ पिपरहवा के गहने भी प्रदर्शित किए जाएंगे.
पिपरहवा अवशेष, जिनमें रत्न और गहने शामिल हैं, को 1898 में विलियम क्लैक्सटन पेप्पे ने उत्तरप्रदेश के वर्तमान सिद्धार्थनगर ज़िले के पिपरहवा गांव में एक स्तूप के उत्खनन के दौरान खोजा था. उनके पड़पोते क्रिस पेप्पे के कब्जे में ये अवशेष हाल ही में भारत को वापस सौंपे गए, जब सोथबी हांगकांग में इनकी निर्धारित नीलामी को रोक दिया गया था.
मंत्रालय के अधिकारियों ने “द इंडियन एक्सप्रेस” को बताया, “यह प्रदर्शनी पहली बार पिपरहवा अवशेषों को एक साथ लाएगी, जिन्हें 19वीं शताब्दी के अंत में यूनाइटेड किंगडम ले जाया गया था, और राष्ट्रीय संग्रहालय और भारतीय संग्रहालय के संग्रह में रखे गए भगवान बुद्ध के पिपरहवा अवशेषों को भी प्रदर्शित करेगी.”
बौद्ध विरासत में पवित्र माने जाने वाले पिपरहवा अवशेषों में, जिन्हें भगवान बुद्ध के रिश्तेदार शाक्य द्वारा जमा किया गया था, उनके हड्डी के टुकड़े, क्रिस्टल के ताबूत और सोने के आभूषण भी शामिल हैं. जहां प्रत्यावर्तित पेप्पे संग्रह में 349 कीमती रत्न अवशेष और सोने की वस्तुएं हैं, वहीं भारतीय संग्रहालय के संग्रह में 221 रत्न अवशेष, छह अवशेष पात्र (किसी पवित्र व्यक्ति के अवशेषों वाला पात्र) और एक संदूक शामिल है.
रत्न अवशेष, जिनमें जटिल रूप से उकेरे गए कमल के फूल, पत्तियां और बौद्ध त्रिरत्न (तीन रत्न) प्रतीक शामिल हैं, कारेलियन, नीलम, पुखराज, गार्नेट, मूंगा, क्रिस्टल, शंख और सोना सहित विभिन्न प्रकार के अर्ध-कीमती पत्थरों और धातुओं से तैयार किए गए हैं. इसी साल जून में, “द इंडियन एक्सप्रेस” ने इन अवशेषों के प्रदर्शन के लिए मंत्रालय की योजनाओं के बारे में ख़बर दी थी.
महरौली स्थल पर ऐतिहासिक और पुरातात्विक वस्तुओं के माध्यम से भगवान बुद्ध के जीवन की कहानी बताते हुए और भारत में उनके पदचिह्नों का पता लगाते हुए, मंत्रालय भारत की सांस्कृतिक विरासत की स्वदेश वापसी पर भी ध्यान केंद्रित करेगा.
मंत्रालय द्वारा कई कानूनी नोटिसों के माध्यम से सोथबी की नीलामी को ठीक समय पर रोक दिया गया था. दो महीने तक, मंत्रालय ने सोथबी और पेप्पे परिवार के साथ गुप्त रूप से काम किया, ताकि इन अवशेषों को हांगकांग से भारत वापस लाया जा सके, जो एक बड़े चीनी प्रभाव वाला क्षेत्र है.
मंत्रालय द्वारा तैयार की गई, इन गहनों की वापसी विरासत स्वदेश वापसी में एक नया मॉडल बन गई है - जिसमें उनकी घर वापसी के लिए सार्वजनिक-निजी भागीदारी की अनुमति दी गई थी. पिरोजशा गोदरेज नामक परोपकारी व्यक्ति ने एक अघोषित लागत पर इन गहनों को अधिग्रहित करने के लिए कदम बढ़ाया था.
एक वरिष्ठ मंत्रालय अधिकारी का कहना है, “यह (इन गहनों की वापसी) न सिर्फ़ भारत की सांस्कृतिक कूटनीति का प्रमाण है, बल्कि बौद्ध धर्म की समृद्ध विरासत का सम्मान करने की दिशा में भी एक महत्वपूर्ण कदम है. कोलकाता में भारतीय संग्रहालय में पहले से ही संरक्षित रत्नों के साथ इन बहुमूल्य कलाकृतियों की वापसी, बौद्ध संस्कृति के संरक्षक के रूप में भारत की भूमिका को मज़बूत करती है.”
छह महीने तक चलने वाली इस प्रदर्शनी में, जो स्मारक के अंदर 1,013 वर्ग मीटर के क्षेत्र में आयोजित होगी, “एए” पुरावशेषों — जो भारतीय कानून के तहत असाधारण रूप से उच्च ऐतिहासिक, सांस्कृतिक और धार्मिक मूल्य की वस्तुओं का एक वर्गीकरण है — को तापमान नियंत्रित परिस्थितियों में और 24/7 सुरक्षा के घेरे में रखा जाएगा.
हालांकि भारतीय कानूनों के तहत “एए” पुरावशेषों को हटाना और बेचना सख्त मना है, लेकिन पिछले कुछ वर्षों में अंतरराष्ट्रीय नीलामी बाज़ारों में ऐसे कई पुरावशेष पाए गए हैं. जब “द इंडियन एक्सप्रेस ने हाल ही में महरौली स्थल का दौरा किया, तो मौके पर तेज गति से काम चल रहा था.
चलते चलते
मॉरल पुलिसिंग का सामना करने वाली भारतीय महिला - और एक सौंदर्य प्रतियोगिता जीती
बीबीसी न्यूज़ गीता पांडेय की रिपोर्ट के अनुसार, मुस्कान शर्मा ने उन पुरुषों का डटकर सामना किया जिन्होंने उनके कपड़ों को लेकर उन्हें धमकाने की कोशिश की - और फिर उन्होंने लोगों का दिल और एक सौंदर्य प्रतियोगिता दोनों जीती. 23 वर्षीय मुस्कान, जिन्हें पिछले हफ़्ते उत्तरी भारतीय राज्य उत्तराखंड में मिस ऋषिकेश 2025 का ताज पहनाया गया, ने बीबीसी को बताया कि भले ही यह एक छोटी स्थानीय प्रतियोगिता थी, “इसने मुझे मिस यूनिवर्स जैसा महसूस कराया”. शर्मा की जीत भारत में सुर्खियां बटोर रही है क्योंकि यह एक वायरल वीडियो के बाद हुई है जिसमें वह एक व्यक्ति से ज़ोरदार बहस करती दिख रही हैं जो 4 अक्टूबर की प्रतियोगिता से ठीक एक दिन पहले उनकी रिहर्सल में घुस आया था.
शर्मा ने बताया कि घुसपैठिए तब आए जब वे दोपहर के भोजन के लिए रुके थे. वीडियो में राष्ट्रीय हिंदू शक्ति संगठन नामक एक हिंदू समूह के ज़िला प्रमुख राघवेंद्र भटनागर को शर्मा और अन्य प्रतियोगियों द्वारा पहने गए स्कर्ट और पश्चिमी परिधानों पर आपत्ति जताते हुए दिखाया गया है. भटनागर उन्हें कहते सुनाई दे रहे हैं, “मॉडलिंग ख़त्म हो गई, घर वापस जाओ. यह उत्तराखंड की संस्कृति के ख़िलाफ़ है.” इस पर शर्मा पीछे हटने से इनकार कर देती हैं और कहती हैं, “आप उन दुकानों को क्यों नहीं बंद करवाते जो इन्हें [पश्चिमी कपड़ों को] बेचते हैं?” वह फिर उनसे कहती हैं कि उन्हें अपनी ऊर्जा महिलाओं के कपड़ों से भी बदतर चीज़ों - जैसे शराब और धूम्रपान जैसी सामाजिक बुराइयों पर ख़र्च करनी चाहिए. जब वह व्यक्ति चिल्लाकर कहता है, “मुझे मत बताओ कि क्या करना है,” तो वह पलटकर जवाब देती हैं, “अगर आपको चुनने का अधिकार है, तो हमें भी है. हमारी राय भी उतनी ही मायने रखती है जितनी आपकी.”
शर्मा कहती हैं कि भटनागर पर उनकी प्रतिक्रिया “सहज” थी. उन्हें डर था कि कहीं उनका सपना टूट न जाए. अगले दिन, कार्यक्रम योजना के अनुसार हुआ और शर्मा ने ताज जीता. वह कहती हैं, “यह एक दोहरी जीत की तरह महसूस हुआ.” शर्मा का कहना है कि उनके माता-पिता ने प्रतियोगिता में भाग लेने के उनके फ़ैसले का हमेशा समर्थन किया है. भारत में महिलाओं के पहनावे पर बहस नई नहीं है, जहां पश्चिमी कपड़ों, खासकर जींस को अक्सर युवाओं के “नैतिक पतन” से जोड़ा जाता है. हिंदुस्तान टाइम्स के अपने कॉलम में नमिता भंडारे लिखती हैं कि आपत्ति शर्मा और अन्य प्रतियोगियों के कपड़ों पर नहीं, बल्कि “उनकी स्वतंत्रता और आकांक्षा” पर है. शर्मा अपनी सफलता का श्रेय अपनी मां को देती हैं और मानती हैं कि उनकी कहानी अब अन्य महिलाओं को अन्याय के ख़िलाफ़ खड़े होने के लिए प्रोत्साहित करेगी. अपने भविष्य के बारे में वह कहती हैं, “मैं अगले साल मिस उत्तराखंड और फिर मिस इंडिया के लिए जाऊंगी. उसके बाद, मैं देखूंगी कि ज़िंदगी मुझे कहां ले जाती है.”
आज के लिए इतना ही. हमें बताइये अपनी प्रतिक्रिया, सुझाव, टिप्पणी. मिलेंगे हरकारा के अगले अंक के साथ. हरकारा सब्सटैक पर तो है ही, आप यहाँ भी पा सकते हैं ‘हरकारा’...शोर कम, रोशनी ज्यादा. व्हाट्सएप पर, लिंक्डइन पर, इंस्टा पर, फेसबुक पर, यूट्यूब पर, स्पोटीफाई पर , ट्विटर / एक्स और ब्लू स्काई पर.