16 नवम्बर 2024: अडानी और पवार की डिनर डील, दीक्षाभूमि पर जयश्रीराम, सरकारी नौकरियों में वीवीआईपी भर्तियां, कराची का जहाज बांग्लादेश में, बलूचिस्तान में मराठा, ब्राह्मणवाद से लड़ते अर्जक, शमी की वापसी
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सुर्खियाँ:
अडानी की महाराष्ट्र में नेताओं के साथ बैठक को लेकर भतीजे अजित पवार के बयान से जो विवाद छिड़ा था, अब उसमें चाचा शरद पवार का बयान भी आ गया है. न्यूज लांड्री के लिए श्रीनिवासन जैन को दिये गये इंटरव्यू में शरद पवार ने कहा है- हाँ अडानी ने अपने घर पर एक गुप्त बैठक बुलाई थी, जिसमें गृहमंत्री अमित शाह के अलावा शरद और अजित पवार राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी के शीर्ष नेता शामिल थे. शरद पवार का कहना था कि उनके दल के लोग उनके पास यह मुद्दा लेकर आये थे कि पार्टी के नेताओं को बहुत सारी जाँचों में फंसाया गया है, जिससे बचने का एक ही रास्ता है कि भाजपा के साथ गठजोड़ कर लिया जाए. शरद पवार ने कहा कि मुझे इस बात पर भरोसा नहीं है. तो पार्टी नेताओं ने कहा कि सीधे ले चल कर आपकी बात करवा देते हैं. अडानी के दिल्ली वाले घर पर डिनर हुआ.
पवार ने कहा कि अडानी को वे तब से जानते थे, जब उन्हें ज्यादा लोग नहीं जानते थे. श्रीनिवासन ने जब पूछा कि अडानी तो उद्योगपति हैं वह क्यों ये मीटिंग करवा रहे थे. पवार ने कहा वे उन्हें जानते थे और उनके न्यौते पर डिनर के लिए गये थे. मैंने अपने नेताओं से कहा कि उन पर लगाए गये मामले और हो रही जाँच इस तरह से खत्म नहीं हो सकतीं. वे मामले तो आज भी चल रहे हैं. मैंने उनसे कहा था कि उन्हें उनका सामना करना चाहिए. मामले खत्म कहाँ हुए हैं, वे पूछते हैं. शरद पवार ने कहा गौतम अडानी डिनर टेबल पर मौज़ूद जरूर थे, पर वे चुप ही रहे. अजित पवार वाला इंटरव्यू आप यहां देख सकते हैं.
(ग्राफिक्स/हरकारा)
अंबेडकर की दीक्षाभूमि पर जयश्रीराम के नारे : महाराष्ट्र में भाजपा का चेहरा एवं उपमुख्यमंत्री देवेन्द्र फडणवीस ने नागपुर के संविधान चौक पर बाबासाहेब भीमराव अंबेडकर की प्रतिमा पर माल्यार्पण किया, जिसके बाद जय श्री राम के नारे गूंज उठे. यह वही स्थान है जहां संविधान निर्माता ने हिंदू धर्म का त्याग कर बौद्ध धर्म अपनाया था. टेलीग्राफ के लिए की गई स्टोरी में बसंत कुमार मोहंती लिखते हैं — दीक्षाभूमि बचाओ संघर्ष समिति (डीबीएसएस) और संविधान नागरिक समिति (एसएनएस) ने नारे लगाने वाले भाजपा कार्यकर्ताओं के खिलाफ एफआईआर दर्ज करने की मांग की है. धारगवे ने कहा, "जब उन्होंने जय श्री राम के नारे लगाए, तो हम यहां मौजूद नहीं थे. यह हिंसा फैलाने के लिए जानबूझकर किया गया काम था. हम 'जय भीम' नारे में विश्वास करते हैं, 'जय श्री राम' में नहीं. वे बाबासाहेब का अपमान करना चाहते थे."
यूपी विधानसभा में 186 पदों पर वैकेंसी निकाली गई थी. इसके लिए 2.5 लाख अभ्यर्थियों ने आवेदन किया था. इन पदों में हुई नियुक्ति में 186 में से 38 पदों पर वीवीआईपी के रिश्तेदारों की भर्ती हुई है. इसमें नौकरशाह, नेता सभी के रिश्तेदार शामिल हैं. इस नियुक्ति में हर पांचवां लाभार्थी रिश्तेदार है. यह मामला इतना बड़ा है कि उच्च न्यायालय तक ने इसे ‘चौंकाने वाला घोटाला’ करार दिया है और सीबीआई जांच के लिए कहा है.
हाल ही में श्रीलंका के नव-निर्वाचित राष्ट्रपति अनुरा कुमार दिसानायके की नेशनल पीपल्स पार्टी (NPP) ने संसद के तात्कालिक चुनावों में बहुमत प्राप्त किया. यह चुनाव उनके राष्ट्रपति पद संभालने के महज सात सप्ताह बाद हुआ था. रिपोर्ट्स के अनुसार, एनपीपी ने श्रीलंकाई संसद में 113 सीटें जीतीं, जबकि चुनाव से पहले डिस्सानायके के गठबंधन के पास संसद की 225 सीटों में केवल तीन सीटें थीं. साझित प्रेमदासा की पार्टी, समागी जन बालावेगया, 31 सीटों के साथ दूसरे स्थान पर रही.
डिजिटल न्यूज पब्लिशर्स के डिजीपब ने जम्मू और कश्मीर प्रशासन द्वारा 'द चिनाब टाइम्स' के खिलाफ कानूनी धमकियों की कड़ी निंदा की है. यह धमकियां समाचार पत्र के द्वारा रिपोर्ट किए गए महत्वपूर्ण स्थानीय मुद्दों से जुड़ी हुई हैं. डिजीपब ने यह चिंता व्यक्त की है कि पत्रकारों के खिलाफ बढ़ते उत्पीड़न, विशेष रूप से जंग प्रभावित क्षेत्रों जैसे जम्मू और कश्मीर में, प्रेस की स्वतंत्रता पर गंभीर आघात कर रहे हैं. उधर बांग्लादेश के एडिटर्स काउंसिल ने अंतरिम सरकार द्वारा 167 पत्रकारों की प्रेस मान्यता रद्द करने के निर्णय की आलोचना की है.
उत्तर प्रदेश के झांसी मेडिकल कॉलेज में शुक्रवार रात प्रसूति वार्ड में भयानक आग लगने से नवजात गहन चिकित्सा इकाई (NICU) में कम से कम 10 नवजातों की मौत हो गई. 37 बच्चे बचा लिये गये.
पेगासस बनाने वाले खुद ही निकालते हैं जानकारी, व्हाट्सएप से मुकदमें में खुलासा हुआ
भारत सरकार पैगासस सॉफ्टवेयर के जरिए देश में विपक्षी नेताओं, मंत्रियों, सामाजिक कार्यकर्ताओं और पत्रकारों की जासूसी करने के आरोप का खुलासा भले ही नही कर सकी हो, पर व्हाट्सएप ने अमेरिका में इस सॉफ्टवेयर बनाने वाली इजराइली कम्पनी एनएसओ को अदालत में घसीटने के बाद एक भंडाफोड़ तो करवा ही लिया है. और वह है कि सरवेलेंस का काम कंपनी खुद करती है, न कि उसके सॉफ्टवेयर का इस्तेमाल करके सरकारें. अभी तक एनएसओ कंपनी का दावा था कि वे अपना सॉफ्टवेयर सरकारों को बेचते हैं, और उसका इस्तेमाल सरकारें खुद करती हैं. पर पैगासस का इस्तेमाल अमेरिका के सुरक्षा संस्थान पेंटागन के लोगों पर किया जा रहा था, जिसके बाद राष्ट्रपति बाइडेन ने इस कंपनी को अमेरिका में ब्लैकलिस्ट कर दिया था. एनएसओ ग्रुप और व्हाट्सएप के बीच चल रहे कानूनी विवाद में दस्तावेज़ों से पहली बार यह खुलासा हुआ है कि इज़राइली साइबर हथियार निर्माता एनएसओ ग्रुप ही वह पार्टी है जो अपने हैकिंग सॉफ़्टवेयर का इस्तेमाल करके लक्षित मोबाइल फोन से जानकारी 'इंस्टॉल और निकालता' है, न कि इसके सरकारी ग्राहक. ये वही कंपनी है जिसने विवादास्पद सॉफ़्टवेयर 'पेगासस' बनाकर, दुनिया के कई मुल्कों के लोकतंत्र में सेंधमारी की है. अब जो नई जानकारी एनएसओ ग्रुप के कर्मचारियों के हलफनामों से आई है, जिनके कुछ हिस्से पहली बार गुरुवार को प्रकाशित किए गए. यह जानकारी व्हाट्सएप द्वारा एनएसओ के खिलाफ मुकदमा दायर करने के पांच साल बाद सामने आई है.
कराची से मालवाहक जहाज चटगांव पंहुचा
भारत के साथ बांग्लादेश के रिश्ते तेज़ी से बदल रहे हैं. पहले जनांदोलन के बाद वहाँ की प्रधानमंत्री शेख हसीना को भारत ने शरण दी, फिर नई व्यवस्था के साथ साबका जोड़ने में उलझने हुईं. फिर बांग्लादेश की बिजली काटने को लेकर अडानी समूह और बांग्लादेश के बीच विवाद चल ही रहा है. इसमें एक और दिलचस्प पेंच और फंसा है. पाकिस्तान का एक मालवाहक जहाज पहली बार बांग्लादेश पंहुचा है. टेलीग्राफ में देवदीप पुरोहित के मुताबिक 53 सालों में पहली बार दोनों के बीच सीधा समुद्री संपर्क हुआ है. ख़बर के अनुसार कराची से एक मालवाहक जहाज बुधवार को चिटगांग (चटगांव) बंदरगाह पहुंचा. इसने भारतीय सुरक्षा प्रतिष्ठान में चिंता की लहरें पैदा कर दी हैं, क्योंकि ये बांग्लादेश के दक्षिण-पूर्वी तट के नजदीक हैं और इस लिए इनसे भारत के पूर्वोत्तर राज्यों में समस्याएं उत्पन्न हो सकती हैं.
जब 300 से अधिक कंटेनरों के साथ मालवाहक जहाज ने चटगांव में लंगर डाला, तो बांग्लादेश में पाकिस्तान के उच्चायुक्त सैयद अहमद मारूफ भी इस मौके पर मौजूद थे. बांग्लादेश और पाकिस्तान के आधिकारिक हलकों में उत्साह के बीच बांग्लादेशी रणनीतिक मामलों के एक विशेषज्ञ ने कहा कि भारत को इन दोनों देशों के नए संबंधों को लेकर चिंता हो सकती है, क्योंकि केवल तीन महीने पहले तक पाकिस्तान-बांग्लादेश में तनावपूर्ण रिश्ते थे.
“चटगांव और मोंगला बांग्लादेश के दो प्रमुख बंदरगाह हैं और दोनों पिछले पांच दशकों से पाकिस्तान के लिए बंद हैं. दोनों देशों के बीच व्यापार सिंगापुर या कोलंबो में ट्रांसशिपमेंट के माध्यम से होता था,” विशेषज्ञ ने कहा. “अब जब पाकिस्तानी जहाज सीधे चटगांव आएंगे, तो उन वर्जित या अवैध वस्तुओं के बांग्लादेश पहुंचने की संभावनाओं से इनकार नहीं किया जा सकता, जो भारत के विद्रोही समूहों के हाथ लग सकती हैं,” उन्होंने 2004 में चटगांव में हुई हथियारों की जब्ती का जिक्र करते हुए कहा, जो दक्षिण एशिया में अवैध हथियारों की सबसे बड़ी जब्ती थी.
(चटगांव पोर्ट. साभार: गेटी)
अखबार के मुताबिक पाकिस्तान की जासूसी एजेंसी आईएसआई के एक ऑपरेशन में लगभग 1,500 चीनी गोला-बारूद, जिनकी अनुमानित कीमत 4.5 से 7 मिलियन डॉलर थी, समुद्री मार्ग से ट्रॉलर के माध्यम से चटगांव पहुंचाए गए थे. ये असम के उग्रवादी संगठन उल्फा के लिए थे, जिन्हें रास्ते में ही जब्त कर लिया गया था. भारत के कान फिर से खड़े हो गये हैं. इस समुद्री लिंक का खुलना मुहम्मद युनूस के नेतृत्व वाली अंतरिम सरकार द्वारा पाकिस्तान के प्रति नजदीकी बढ़ाने के प्रयास के रूप में देखा जा रहा है. भारत का पश्चिमी पड़ोसी पाकिस्तान शेख हसीना के कार्यकाल के दौरान बांग्लादेश में अछूत था. हसीना 5 अगस्त को विरोध की लहर के सामने देश छोड़कर भाग गई थीं. बांग्लादेश, जिसे पहले पूर्व पाकिस्तान के नाम से जाना जाता था, 1971 में पश्चिम पाकिस्तान के साथ नौ महीने के युद्ध के बाद एक स्वतंत्र राष्ट्र के रूप में जन्मा, जिसमें भारत ने बांग्लादेश के लिए लड़ने वाले स्वतंत्रता सेनानियों का समर्थन किया.
“जब से युनूस सत्ता में आए हैं, बांग्लादेश एक रीसेट मोड में है…ऐसा लगता है कि भारत के साथ थोड़ी दूरी और पाकिस्तान से अधिक जुड़ाव उनकी प्राथमिकताओं में से एक है”, एक भारतीय आब्जर्वर ने कहा.
नारायणमूर्ति हफ्ते में छह दिन काम करने के पक्ष में
इंफोसिस के सह-संस्थापक एनआर नारायण मूर्ति ने हाल ही में छह दिन काम करने के हफ्ते का समर्थन किया है. उन्होंने इस पर अपनी राय व्यक्त करते हुए कहा कि वह 1986 में जब पांच दिन काम करने के हफ्ते की शुरुआत की थी, तब से अपने विचार में कोई बदलाव नहीं महसूस करते. मूर्ति ने यह भी कहा, "मुझे खेद है कि मैंने इस पर विचार बदला, लेकिन मैं इसे अपनी कब्र तक ले जाऊंगा." लगे हाथ मूर्ति ने फिर से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सराहना भी कर दी है. मूर्ति का यह बयान एक चैनल के प्रोग्राम में आया, जहाँ उन्होंने अपनी पुरानी राय का समर्थन किया और ज्यादा काम करने पर अपनी राय रखी. नारायणमूर्ति ने पहली बार इस तरह का विवादास्पद बयान नहीं दिया है. पहले भी वह हफ्ते में 70 घंटे के कार्य सप्ताह की वकालत की, यह कहते हुए कि भारत की युवा पीढ़ी को अधिक मेहनत करनी चाहिए. उन्होंने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के 100 घंटे काम करने का उदाहरण दिया. 2020 में मूर्ति ने कहा था कि बच्चों को “सफलता के लिए बलिदान” की सीख देनी चाहिए. उन्होंने कोविड के बाद वर्क फ्रॉम होम मॉडल पर भी ऐतराज जताया था. उन्होंने खुद को "कंफ्यूज्ड लेफ्टिस्ट" से "करुण पूंजीवादी" में बदलने का दावा भी किया था, हालांकि उनकी बातों से इस दावे का ठीक से पता नहीं चलता.
(ग्राफिक्स/हरकारा)
जातीय भेदभाव के कारण ठीक से बड़े नहीं होते बच्चे
इन दिनों भारत की राजनीति में जातिवार जनगणना एक बहुत बड़ा मुद्दा बना हुआ है. पक्ष-विपक्ष में बहुत सारे तर्क दिए और गढ़े जा रहे हैं. कहा जाता है कि असमान विकास में जातिगत भेदभव एक बड़ा कारक है. हाशिये के बाहर की जातियों तक न विकास ही पहुंचा है और न ही वह मुख्यधारा में शामिल हो पाए हैं. यह जानकर आपको आश्चर्य हो सकता है कि भारत में यह जातीय भेदभाव स्वास्थ्य पर भी असर डालता है. भारत में बच्चों में अविकसित शरीर के पीछे , जिसे अंगरेजी में स्टंटेड ग्रोथ कहते हैं, सामजिक भेदभाव बड़ी वजह है. आइए देखते हैं आंकड़े क्या कहते हैं. बीबीसी के सौतिक बिस्वास ने इस पर एक डिस्पैच लिखा है.
भेदभाव के कारण भारत के बच्चों में स्टंटेड बच्चों की दर उप-सहारा अफ्रीका से भी अधिक है.
भारत में पांच वर्ष से कम आयु के 137 मिलियन बच्चों में से 35% बच्चे अविकसित हैं.
सब-सहारा अफ्रीका में 49 देश शामिल हैं. दोनों ने हाल के वर्षों में महत्वपूर्ण प्रगति की है.
भारत में स्टंटेड बच्चों की दर जहां 35.7% है, वहीं उप-सहारा अफ्रीका में 33.6% है.
वैश्विक स्तर पर, पांच साल से कम उम्र के 22% बच्चे स्टंटेड ग्रोथ के शिकार हैं.
दुनिया में 5 वर्ष से कम आयु की 44% जनसंख्या भारत और सब-सहारा में पाई जाती है.
वैश्विक स्तर पर करीब 70% अविकसित बच्चे इन्हीं दो क्षेत्रों से हैं.
बच्चे के विकास को स्टंटेड तब माना जाता है, जब उसकी लंबाई उसकी आयु के अनुसार कम हो, जो कुपोषण के कारण होती है.
अध्ययन में पाया गया कि भारत में उच्च जाति समूहों के बच्चों में स्टंटेड ग्रोथ की संभावना हाशिए पर पड़े समूहों (खासकर दलित और आदिवासी) के बच्चों की तुलना में 20% कम है.
बच्चे के जीवन के पहले 1,000 दिन को ‘स्वर्णिम काल’ कहा जाता है.
2 वर्ष की आयु तक, मस्तिष्क का 80% भाग विकसित हो जाता है.
इन्हीं 2 सालों में व्यक्ति की मानसिक नींव तैयार होती है, जिससे यह तय होता है कि आजीवन उसकी मानसिक क्षमता कैसी होगी.
कीचड़ में दौड़ने के प्रैक्टिस से फिट होकर लौटा शमी
मोहम्मद शमी ने ऑस्ट्रेलिया टेस्ट सीरीज से पहले अपनी फिटनेस को साबित करने और आत्म-संकोच को दूर करने के लिए पारंपरिक और असामान्य तरीके से ट्रेनिंग की. शमी ने अपनी फिटनेस को सुधारने के लिए 'देसी ट्रेनिंग' पद्धति अपनाई, जो उनके बचपन के कोच बद्री भाई से मिली प्रेरणा थी. यह तरीका यूपी के अलीगढ़ स्थित उनके फार्म हाउस में दौड़ने और शारीरिक अभ्यास करने का था. शमी ने जिम की बजाय फार्म हाउस की कीचड़ में नंगे पांव दौड़ने की प्रैक्टिस की, जिससे उन्हें ताकत और सहनशीलता में वृद्धि मिली. प्रत्यूष राज ने 'इंडियन एक्सप्रेस' के लिए ये रिपोर्ट की है. शमी का मानना है कि इस तरह की पारंपरिक ट्रेनिंग शरीर को बेहतर तरीके से तैयार करती है. उन्होंने एक साधारण और स्वस्थ आहार को भी अपनी दिनचर्या का हिस्सा बनाया, जिसमें जंक फूड से दूर रहकर घर का बना साफ और हल्का खाना शामिल था.
विकलांग महिलाएं सेक्स ऑब्जेक्ट नहीं होतीं
बीबीसी ने दो विकलांग महिलाओं के अनुभवों को साझा किया है. उसने पाया कि विकलांगता उनकी जिंदगी में बाधा की तरह नहीं है. वह सामान्य जिंदगी जी रही हैं, मगर लोग समझते हैं कि वह उन्हें सहारा दे रहे हैं. सहानुभूति दिखाते हैं. हॉली ग्रेडर जब सिर्फ़ 16 साल की थीं, तब किसी ने उनसे पूछा कि क्या वह सेक्स कर सकती हैं. सालों तक उनसे शर्मिंदा करने वाले ऐसे कई सवाल पूछे जाते रहें. जैसे- क्या वो ‘रफ सेक्स’ कर सकती हैं या ज़रूरत पड़ी तो व्हीलचेयर पर. कैरफ़िली की 38 वर्षीय निकोला थॉमस दृष्टिहीन हैं. वह बताती हैं, ‘अधिकतर लोग जो सामान्य चीज़ें उनसे पूछते हैं, उनमें से एक है कि आप सेक्स कैसे करती हैं? जैसे जिंदगी यहीं पर आकर ठहर जाती है. यह इतना आक्रामक और निजी सवाल हैरान करने वाला होता है.’
ब्राह्मणवाद के ख़िलाफ लामबंद अर्जक संघ
अर्जक संघ की शादियां ब्राह्मणवादी रीति-रिवाजों का पूरी तरह से विरोध करती हैं. 1977 में शिव कुमार ‘भारती’ ने अर्जक परंपरा में शादी की, जिसमें न मंत्र थे, न पंडित, न कन्यादान, और न ही फेरे.'उन्होंने ऐसी प्रतिक्रिया दी, जैसे कोई बम फट गया हो!' अर्जक संघ के अध्यक्ष शिव कुमार ‘भारती’ ने 1977 में कानपुर के एक गांव में अपनी शादी के दिन हुए समाज के सार्वजनिक आक्रोश को याद करते हुए कहा. 'द वायर' के लिए ओमर राशिद ने 'अर्जक संघ' पर एक दिलचस्प रिपोर्ट की है, जिसमें वो इस संगठन के भूत, वर्तमान और भविष्य को खंगालते हैं. अर्जक संघ, जिसकी सदस्य संख्या साल दर साल घटती चली गयी, यह मानता है कि समाज की बुराइयों की जड़ें 'शिक्षा की कमी' और धार्मिक पाखंड में छिपी हैं. उमर राशिद का पूरा लेख आप अंग्रेजी में पढ़ सकते हैं.
ओमर लिखते हैं कि शिव कुमार, जो तब 27 वर्ष के थे, अर्जक संघ के सिद्धांतों से लगभग एक दशक तक जुड़े रहने के बाद उन्होंने ब्राह्मणवादी रीति-रिवाजों या हिंदू देवी-देवताओं के आह्वान के बिना शादी करने का निर्णय लिया था. हिन्दू रीति रिवाजों के बजाय उनकी शादी अर्जक परंपरा में हुई, जिसमें न मंत्रों का जाप होता है, न पंडित की उपस्थितिण. यहां कन्यादान जैसी पितृसत्तात्मक प्रथा जिसमें दुल्हन का पिता उसे दूल्हे को सौंपता है, भी नहीं होती. दंपति अग्नि के चारों ओर फेरे नहीं लेते और न ही कोई मंडप होता है.
अर्जक परंपरा में विवाह एक साधारण सामाजिक आयोजन होता है, जिसमें पुरुष और महिला दर्शकों के सामने प्रतिज्ञा-पत्र पढ़ते हुए एक-दूसरे को पति-पत्नी के रूप में स्वीकार करते हैं. वे इन दस्तावेज़ों पर हस्ताक्षर करते हैं और संगठन द्वारा नियुक्त ‘शपथ आयुक्त’ की उपस्थिति में फोटो खिंचवाते हैं.
"वे एक-दूसरे को जीवनसाथी के रूप में स्वीकार करते हैं और यह वचन देते हैं कि वे समानता के साथ व्यवहार करेंगे. अपने जीवन को सुखमय और अविनाशी बनाएंगे, तथा मानव समानता पर आधारित समाज के विकास और समृद्धि में सदा योगदान देंगे," शिव कुमार ने अपनी प्रतिज्ञाओं को याद करते हुए कहा.
अर्जक संघ, 1968 में उत्तर प्रदेश में स्थापित, ब्राह्मणवाद के खिलाफ नास्तिकों और मानवतावादियों का संगठन है. यह संगठन जातिवादी असमानता, धार्मिक पाखंड, और पितृसत्तात्मक परंपराओं को चुनौती देने के लिए बनाया गया. इसके संस्थापक राम स्वरूप वर्मा और उनके वामपंथी साथियों ने इसे जातिगत भेदभाव को खत्म करने और समानता आधारित समाज बनाने के उद्देश्य से शुरू किया.
रामचरितमानस और ब्राह्मणवाद का विरोध: 1978 में अर्जक संघ के सदस्यों ने रामचरितमानस की प्रतियों को जलाकर ब्राह्मणवादी पितृसत्ता और जातिवाद का विरोध किया. यह ऐतिहासिक घटना संघ की विचारधारा का प्रमुख प्रतीक बनी.
स्वामी प्रसाद मौर्य और अर्जक संघ का पुनर्जीवन : 2023 में अर्जक संघ के एक कार्यक्रम में स्वामी प्रसाद मौर्य ने ब्राह्मणवाद और रामचरितमानस पर तीखा हमला किया. मौर्य ने हिंदू धर्म को "छलावा" कहा और इसे दलितों, आदिवासियों, और पिछड़ों को फंसाने की साजिश बताया. उनके बयान विवादास्पद थे, लेकिन वे अर्जक संघ की विचारधारा के अनुरूप थे.
संघ का संघर्ष और अस्तित्व : अर्जक संघ, अपनी स्थापना के 56 साल बाद भी, ब्राह्मणवाद और जातिगत असमानता के खिलाफ संघर्ष कर रहा है. इसके सिद्धांतों और आंदोलनों ने मुख्यधारा में भले ही ज्यादा जगह न बनाई हो, लेकिन यह सामाजिक न्याय की दिशा में महत्वपूर्ण योगदान करता रहा है और इसकी प्रसार बिहार, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, झारखंड समेत देश के कई इलाकों तक फैला है. यह संगठन मानव समानता और न्याय पर आधारित समाज बनाने की दिशा में काम कर रहा है, जो इसे हिंदी पट्टी के जातिवादी ढांचे में एक अलग पहचान देता है.
इतिहास : बलूचिस्तान कैसे पहुंच गये मराठा!
19वीं सदी के प्रारंभ में, जब ब्रिटिश उपमहाद्वीप में अपने साम्राज्य का विस्तार करने की कोशिश कर रहे थे, उन्हें एक प्रमुख क्षेत्रीय शक्ति का सामना करना पड़ा, जो उनके उभरते साम्राज्य को ध्वस्त करने की क्षमता रखती थी – वह शक्ति थी मराठों की. तमिलनाडु से लेकर ग्वालियर और उड़ीसा तक फैले छोटे-छोटे राज्यों में बसी मराठा शक्ति, एक समय में उपमहाद्वीप का एक तिहाई हिस्सा नियंत्रित करती थी. मराठों का अपना समृद्ध इतिहास है. निकिता मोहता ने 'इंडियन एक्सप्रेस' में अपने लेख में चार-भाग की श्रृंखला में, मराठा समुदाय के इतिहास के विभिन्न पहलुओं का गहरा विश्लेषण किया है और इस समुदाय के विकास के कुछ अद्वितीय और कम ज्ञात पहलुओं को उजागर किया है.
इस लेख में बलूचिस्तान में बसे मराठा समुदाय की यात्रा का उल्लेख भी है. यह समुदाय तीसरी पानीपत की लड़ाई में हार के बाद 1761 में बंदी बना लिया गया था. इन मराठा सैनिकों को अफ़ग़ानिस्तान और बलूचिस्तान में बंदी बना लिया गया और वहां इनकी स्थिति बहुत ही दयनीय थी.
समय के साथ, बलूचिस्तान में बसे मराठा समुदाय के लोग धीरे-धीरे अपनी संस्कृति और परंपराओं को बचाए रखने में सफल हुए. भले ही उन्हें इस्लाम अपनाने के लिए मजबूर किया गया, लेकिन वे अभी भी मराठी रीति-रिवाजों को अपने जीवन में शामिल करते हैं. उदाहरण के तौर पर, उनके विवाह की रस्में और नामकरण जैसी परंपराएं अभी भी मराठा संस्कृति से जुड़ी हुई हैं. यह समुदाय, जो पहले ज़मीनी संपत्ति नहीं रख सकता था और मजदूरी करता था, अब कृषि कार्यों में निपुण हो चुका है और बलूचिस्तान की समृद्धि में योगदान दे रहा है. यह यात्रा मराठों के दृढ़ संकल्प और सांस्कृतिक अस्तित्व की कहानी है, जो दशकों से संघर्षों का सामना करने के बावजूद जीवित है.
(साभार: हिस्ट्री कैफे)
लेख में इस बात पर भी जोर दिया गया है कि बलूचिस्तान में आज भी मराठा समुदाय के नाम, जैसे पेशवानी और बुगटी मराठा, प्रचलित हैं, जो उनके भारतीय मूल को दर्शाते हैं. उनका यह संघर्ष और जीवित संस्कृति न केवल भारत में बल्कि बालेचिस्तान में भी महत्व रखता है.
निकिता का यह लेख इस समुदाय के अस्तित्व की लड़ाई और उनके साहस को उजागर करता है, जो आज भी अपने ऐतिहासिक और सांस्कृतिक परंपराओं को जीवित रखने के लिए संघर्ष कर रहे हैं.
मराठों के इसी बिसरे इतिहास पर साल 2023 में, बलोच नाम से एक मराठी फिल्म भी आई है, जो अमेजन प्राइम पर उपलब्ध है. इस फिल्म का निर्देशन प्रकाश पवार ने किया है. यह फिल्म इतिहास के एक भूल चुके अध्याय को उजागर करती है, जब पानीपत की तीसरी लड़ाई के बाद 1761 में मराठा बंदियों को बलूचिस्तान भेजा गया था. फिल्म में इन बंदियों के संघर्ष और उनकी सांस्कृतिक धरोहर को बचाए रखने की कहानी को दर्शाया गया है.
निकिता की रिपोर्ट बताती है कि आज कराची स्थित सोशल मीडिया इन्फ्लुएंसर्स समीर के और विशाल राजपूत पाकिस्तान में मराठी समुदाय के जीवन को डाक्यूमेंट कर रहे हैं, खासकर उनके गणपति उत्सवों को. उनके यूट्यूब वीडियो में मराठी परंपराओं की झलक मिलती है, जिसमें हलवा-पुरी-मोदक जैसे त्योहारी भोजन से लेकर भावनात्मक विसर्जन समारोहों तक का विस्तृत चित्रण किया गया है, जो इस समुदाय की समृद्ध सांस्कृतिक धरोहर को जीवित रखता है.
हालांकि छत्रपति शिवाजी द्वारा स्थापित शासन 1800 के दशक के प्रारंभ तक समाप्त हो चुका था, लेकिन महाराष्ट्र में मराठों का प्रभाव अभी भी बहुत गहरा है. 1960 में महाराष्ट्र राज्य की स्थापना के बाद से, राज्य के 20 में से 12 मुख्यमंत्री मराठा समुदाय से रहे हैं, जिनमें वर्तमान मुख्यमंत्री एकनाथ शिंदे भी शामिल हैं. मराठा समुदाय से संबंधित मुद्दे, जैसे कि आरक्षण की मांग, राज्य के चुनावों में लगातार एक प्रमुख विषय बनते रहे हैं.
पर्यावरण बचाने की कीमत बड़ी है
अज़रबैजान के बाकू में जारी यूएन की जलवायु वार्ता के दौरान जलवायु वित्त पर प्रकाशित एक रिपोर्ट में कहा गया है कि तमाम उभरती अर्थव्यवस्थाओं और विकासशील देशों को 2030 तक हर साल लगभग 2.4 ट्रिलियन अमेरिकी डॉलर की आवश्यकता जलवायु परिवर्तन के प्रभाव को कम करने और उससे बचने के लिए चाहिए. चीन को छोड़कर. $2.4 ट्रिलियन का मतलब आज के दिन भारतीय रुपए में लगभग ₹199.2 लाख करोड़ की रकम है. वक्त के साथ ये रकम बढ़ती जाएगी, ऐसा भी रिपोर्ट में कहा गया है.
'द वायर' के लिए लिखी अपनी रिपोर्ट में आथिरा पेरिंचेरी लिखती हैं कि उसी दिन COP में एक और रिपोर्ट जारी की गई, जिसमें कहा गया कि भारत को 1.5°C तक वैश्विक तापमान वृद्धि को सीमित करने के पेरिस समझौते के लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए 2035 तक अपने कार्बन उत्सर्जन में भारी कटौती करनी होगी.
वर्तमान में, भारत के कार्बन उत्सर्जन का स्तर 2005 की तुलना में 135-150% अधिक है. रिपोर्ट के अनुसार, इसे 2035 तक 18% तक लाना होगा, जो कि भारत जैसे देश के लिए चुनौतीपूर्ण होगा. कार्बन की यह कटौती ऊर्जा, उद्योग, और परिवहन जैसे क्षेत्रों में बड़े बदलावों की मांग करती है, जिसमें नवीकरणीय ऊर्जा को प्राथमिकता देना और उत्सर्जन-घटाने वाली तकनीकों को अपनाना शामिल है.
रिपोर्ट से पता चलता है कि विकासशील देशों की स्थिति सबसे ज्यादा खराब है. इन देशों में जलवायु संकट से निपटने की क्षमता सीमित है और उन्हें जलवायु आपदाओं से निपटने के लिए न केवल तकनीकी, बल्कि वित्तीय मदद की भी जरूरत है.
दुनिया के नए रहस्य भी खोल रहा है क्लाइमेट चेंज
इटली के आल्प्स में एक पर्वतारोही ने बर्फ पिघलने के बाद 280 मिलियन साल पुरानी एक प्रागैतिहासिक पारिस्थितिकी तंत्र के पहले संकेतों की खोज की है. यह खोज पुरानी छापों और जीवाश्मों के रूप में हुई, जो उभयचरों और सरीसृपों के पैरों के निशान हैं. ये निशान उस समय के हैं जब पृथ्वी की सतह अलग थी और इन जीवों ने यहां एक जटिल पारिस्थितिकी तंत्र बनाया था. वैज्ञानिकों का मानना है कि यह खोज इस क्षेत्र के जलवायु और भूगर्भीय इतिहास को समझने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकती है. बर्फ के पिघलने से इन छापों के प्रकट होने की घटना जलवायु परिवर्तन के बढ़ते प्रभाव को भी उजागर करती है, क्योंकि यह उन क्षेत्रों को उजागर कर रहा है जो हजारों वर्षों से बर्फ के नीचे छिपे हुए थे. यह खोज प्रागैतिहासिक युग और उस समय के जीवन की समझ को गहरा करने का एक महत्वपूर्ण कदम मानी जा रही है.
(तस्वीर: एलियो डेला फेररा / म्यूज़ियो डी स्टोरिया नैचुरेल डी मिलानो)
चलते-चलते: पाली में ऐसा क्या ख़ास था संस्कृत के मुकाबले
पाली भाषा भगवान बुद्ध के समय के दौरान बोली जाती थी और इसे "क्लासिकल भाषा" के रूप में मान्यता दी. पाली भाषा का इतिहास और इसका योगदान भारतीय जैन और बौद्ध संस्कृति में महत्वपूर्ण रहा है. पाली भाषा की उत्पत्ति को समझने के लिए सबसे आसान तरीका यह है कि भाषा का नाम किसी क्षेत्र या जनसंख्या पर आधारित हो, जैसे गुजराती भाषा गुजरात से या तमिल भाषा तमिलनाडु से आई है, लेकिन पाली के साथ ऐसा नहीं है. पाली एक प्राचीन मध्य इंडो-आर्यन भाषा थी, जो मौर्य सम्राट अशोक के शासनकाल के दौरान राज्य भाषा के रूप में प्रयोग की जाती थी.
यह भाषा विशेष रूप से थेरवाद बौद्ध धर्म के शास्त्रों में प्रयुक्त होती थी, जिनमें भगवान बुद्ध के उपदेशों को संकलित और संरक्षित किया गया था. पाली का प्रमुख उद्देश्य बौद्ध धर्म के शिक्षाओं को जन-जन तक पहुँचाना और उन शिक्षाओं को लिपिबद्ध करना था. यह भाषा आज भी बौद्ध धर्म के अनुयायियों द्वारा श्रद्धा और अध्ययन के उद्देश्य से इस्तेमाल की जाती है. पाली एक प्राचीन मध्य इंडो-आर्यन भाषा थी, जो मौर्य सम्राट अशोक के शासनकाल के दौरान राजदरबार की आधिकारिक भाषा के रूप में प्रयोग होती थी. सम्राट अशोक ने अपनी शासन व्यवस्था को सुदृढ़ करने और बौद्ध धर्म के प्रचार-प्रसार के लिए पाली का उपयोग किया. इसके कारण पाली भाषा को धार्मिक और राजनीतिक संदर्भ में बहुत महत्व मिला. आज चलते-चलते में देखिए 'द टेलीग्राफ' के हवाले से पाली की ये कहानी...
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