16 दिसंबर 2024: पुलिस टॉर्चर में दलित की मौत, सम्भल में बंद मंदिर खोला, मणिपुर में फिर बवाल, जो अमीर हैं वही डिफॉल्टर भी, संविधान और तिरंगे पर संघ का रवैया, 15 माह में नक्सल मुक्त छत्तीसगढ़ का दावा
हिंदी भाषियों का क्यूरेटेड न्यूजलेटर. ज़रूरी ख़बरें और विश्लेषण. शोर कम, रोशनी ज्यादा
निधीश त्यागी, साथ में राजेश चतुर्वेदी, मज़कूर आलम, गौरव नौड़ियाल
आज की सुर्खियां : रविवार को नागपुर में 39 नए मंत्रियों के शपथ ग्रहण करने के साथ महाराष्ट्र मंत्रिमंडल का बहुप्रतीक्षित विस्तार हो गया. भाजपा के कोटे से 19, शिवसेना (शिंदे) से 11 और एनसीपी (एपी) से 9 मंत्रियों ने शपथ ली. लिहाजा कैबिनेट में मुख्यमंत्री देवेन्द्र फड़णवीस और दो उप मुख्यमंत्रियों (एकनाथ शिंदे और अजित पवार) को मिलाकर कुल 42 मंत्री हो गए हैं. अजित पवार ने कहा है कि मंत्रियों का कार्यकाल ढाई वर्ष का होगा और उनके काम की समीक्षा के बाद तय किया जाएगा कि वे आगे मंत्री रहेंगे या नहीं. राज्य विधानसभा चुनाव के नतीजे 23 नवंबर को आए थे. 12 दिन बाद फड़णवीस, शिंदे और पवार ने शपथ ली थी और 22 दिन बाद मंत्रियों का शपथ ग्रहण हुआ है.
परभणी में पुलिस टॉर्चर से दलित की मौत: 'द वायर' की एक रिपोर्ट है कि परभणी जिला जेल में 35 साल के एक व्यक्ति सोमनाथ व्यंकट सूर्यवंशी की मौत हो गई है. जेल में हुई इस मौत ने पुलिस की कार्यप्रणाली को फिर से घेरे में ले लिया है. सूर्यवंशी पुणे के चाकन में मजदूरी करता था और साथ में लॉ की पढ़ाई भी कर रहा था. 10 दिसंबर को संविधान की प्रतिकृति के अपमान के बाद शहर में भड़की हिंसा में शामिल होने के आरोप में उसे 50 अन्य दलित बहुजन युवाओं के साथ हिरासत में ले लिया गया, जबकि वह अपने घर आया हुआ था. 14 दिसंबर को सूर्यवंशी को न्यायिक हिरासत में भेजा गया, लेकिन कुछ ही घंटों के भीतर उसकी रहस्यमयी मौत ने कई सवाल खड़े कर दिए हैं. कुछ संदेह नांदेड़ रेंज के विशेष पुलिस महानिरीक्षक (IG) शाहाजी उमाप ने पैदा किए हैं, जो इस मामले की जांच कर रहे हैं. उमाप ने दावा किया, 'सूर्यवंशी ने अचानक सीने में दर्द की शिकायत की. हम उन्हें परभणी जेल से सिविल अस्पताल ले गए. जहां उनकी मृत्यु हो गई', लेकिन जब पुलिस द्वारा दलित बहुजन बस्तियों में छापेमारी के दौरान हुई हिंसा और कथित प्रताड़ना के बारे में सवाल किया गया, तो उमाप ने जोर देकर कहा, 'सूर्यवंशी के साथ कोई यातना नहीं हुई.' कुछ मिनटों के बाद उमाप ने रिपोर्टर को दोबारा फोन कर कहा- 'कृपया अपने लेख में यह स्पष्ट करें कि सूर्यवंशी दलित समुदाय से नहीं, बल्कि घुमक्कड़ जनजाति से है.' सामाजिक कार्यकर्ताओं का कहना है कि सूर्यवंशी, जो खुद एक कानून छात्र और अंबेडकरवादी था, उसका दिसंबर 11 के विरोध से कोई लेना-देना नहीं था. सूर्यवंशी को पुलिस ने बस्ती से पकड़ा, बेरहमी से पीटा और गिरफ्तार कर लिया. पुलिस के इस अभियान के दौरान कई युवाओं और महिलाओं के साथ हिंसा की गई. सोशल मीडिया पर कई वीडियो वायरल हो रहे हैं, जिसमें पुलिस दलित बस्तियों, जैसे कि प्रियदर्शिनी नगर और भीम नगर में अत्याचार करती दिख रही है. एक सीसीटीवी फुटेज में, पुलिस को एक महिला को घेरकर जमीन पर गिराते और उसे बेरहमी से मारते हुए देखा जा सकता है.
सम्भल में 1978 से बंद मंदिर खोला: सुप्रीम कोर्ट के हुक्म के बाद भी सम्भल में सांप्रदायिक ड्रामा खत्म नहीं हो रहा. अब प्रशासन ने शाही जामा मस्जिद के नजदीक उस भस्म शंकर मंदिर को खोल दिया है, जो सांप्रदायिक दंगों के बाद वर्ष 1978 से बंद था. यह कोट दूर गरवी इलाके में है. एसडीएम ने बताया कि अतिक्रमण विरोधी अभियान के तहत इलाके का निरीक्षण करते वक्त इस मंदिर का पता चला. इस बीच जिला प्रशासन ने एएसआई (भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण) को भस्म शंकर मंदिर और वहां स्थित एक कुएं की कार्बन डेटिंग करने के लिए पत्र लिखा है. इससे पता चलेगा कि मंदिर और कुआं किस कालखंड के हैं. रविवार को उत्तरप्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने कहा, ‘यह मंदिर रातोंरात प्रकट नहीं हो गया है. यह हमारी स्थाई धरोहर और हमारे इतिहास के सत्य की नुमाइंदगी करता है.’ तीन हफ्ते पहले सम्भल की शाही जामा मस्जिद के सर्वे के विरोध में जमा लोगों पर कथित पुलिस फायरिंग में एक नाबालिग सहित पांच नौजवानों की मौत हो गई थी. उधर वाराणसी के उदय प्रताप कॉलेज (यूपी कॉलेज) परिसर में स्थित मस्जिद पर प्रदर्शन के बाद अभी भी दो ताले लटके हुए हैं. मस्जिद प्रबंधन ने कहा है कि वह प्रशासन और पुलिस से नमाज फिर से शुरू करने के लिए निर्देशों की प्रतीक्षा कर रहा है. मस्जिद और कॉलेज के गेट के बाहर भारी पुलिस बल तैनात किया गया है.
हिंसाग्रस्त मणिपुर में फिर बवाल हुआ है. शनिवार को उपद्रवियों की गोलीबारी ने दो नाबालिग प्रवासी मजदूरों की जान ले ली. ये दोनों बिहार के गोपालगंज जिले के रहने वाले थे. ‘टाइम्स ऑफ इंडिया’ के मुताबिक पिछले साल 3 मई की हिंसा के बाद प्रवासी मजदूरों पर यह दूसरा बड़ा जानलेवा हमला है. बिहार सरकार ने मृतकों के परिवारों को दो-दो लाख रुपए की आर्थिक सहायता दी है. उधर मणिपुर पुलिस की जवाबी कार्रवाई में एक उग्रवादी भी मारा गया है. इस बीच कांग्रेस सांसद अल्फ्रेड कंगाम आर्थर ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से सवाल किया है कि वे हिंसाग्रस्त मणिपुर का दौरा क्यों नहीं कर रहे हैं? आउटर मणिपुर से सांसद आर्थर ने शनिवार को लोकसभा में संविधान पर बहस के दौरान पूछा, “4 दिसंबर, 2021 को संविधान कहां था, जब सशस्त्र बलों ने खदानों में काम करने गए 6 नागरिकों को मार डाला था.” 2021 के इस नागालैंड हत्याकांड का जिक्र करते हुए उन्होंने सवाल किया, “क्या हम इस राष्ट्र का हिस्सा नहीं हैं, अध्यक्ष महोदय?” आर्थर ने मणिपुर हिंसा के बारे में कहा कि इस सदन को यह याद दिलाने की आवश्यकता नहीं है कि 3 मई, 2023 को मणिपुर में क्या हुआ या पिछले 19 महीनों से क्या हो रहा है. लेकिन सवाल है कि “क्यों आज तक प्रधानमंत्री मणिपुर के लोगों के प्रति जवाबदेह नहीं हैं? क्या मेरा राष्ट्र इतना कमजोर है कि आप मणिपुर में लोगों की जान और संपत्ति की रक्षा नहीं कर सकते?
अगले 15 महीनों में नक्सल मुक्त छत्तीसगढ़ बनाने का दावा रविवार को केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने दावा किया है कि केंद्र और छत्तीसगढ़ सरकार मिलकर सूबे से नक्सलवाद को 31 मार्च, 2026 से पहले ही खत्म कर देंगे. शाह ने पुलिस परेड ग्राउंड में राष्ट्रपति पुलिस कलर अवॉर्ड समारोह को संबोधित करते हुए कहा- 'जब छत्तीसगढ़ नक्सलवाद से मुक्त होगा, तो पूरा देश इस समस्या से छुटकारा पा जाएगा'. शाह ने नक्सलियों से मुख्यधारा में लौटने की अपील भी इस दौरान की है. शाह ने छत्तीसगढ़ सरकार की नक्सलियों के पुनर्वास नीति की सराहना करते हुए नक्सलियों से हिंसा छोड़कर मुख्यधारा में शामिल होने की अपील की. शाह ने कहा कि छत्तीसगढ़ पुलिस ने पिछले एक साल में नक्सलवाद के खिलाफ लड़ाई में बड़ी सफलता पाई और 287 नक्सलियों को मारा है. इस बीच 1,000 नक्सली गिरफ्तार भी किए गए हैं और 837 ने आत्मसमर्पण किया है. शाह ने कहा छत्तीसगढ़ पुलिस और देश के विभिन्न सुरक्षा बलों ने पिछले एक साल में नक्सलवाद के ताबूत में आखिरी कील ठोकने का काम किया है.
टॉप 100 डिफॉल्टरों की कुल एनपीए में हिस्सेदारी 40% से ज्यादा, लोन न चुकाने वालों में अंबानी, जिंदल, जेपी समेत कई उद्योगपति
'द इंडियन एक्सप्रेस' के लिए धीरज मिश्रा की एक खबर है कि टॉप 100 डिफॉल्टरों के पास कुल एनपीए का 43 फीसदी हिस्सा है. लोन न चुका पाने वालों की संख्या में तेजी से बढ़ोतरी हो रही है. यह जानकारी आरटीआई के माध्यम से जुटाई गई है. इसमें बताया गया है कि लोन न चुका पाने वालों में मार्च 2019 तक मैन्युफैक्चरिंग, एनर्जी और कंस्ट्रक्शन सेक्टर से जुड़ी कंपनियां सबसे ऊपर हैं. रिपोर्ट के मुताबिक जिन 100 कंपनियों के पास एनपीए का 43 फीसदी से ज्यादा हिस्सा था, उनमें से 30 उधारकर्ताओं के पास कुल एनपीए का 30 फीसदी से अधिक हिस्सा था. बैंकों के पास 31 मार्च 2019 तक 9.33 लाख करोड़ रुपये का कुल एनपीए था. यह भारत की बैंकिंग प्रणाली के इतिहास में साल 2018 के बाद दर्ज की गई दूसरी सबसे अधिक खराब ऋण राशि है. लोन न चुका पाने वालों में अंबानी, जिंदल, जेपी समेत कई उद्योगपति शामिल हैं.
रिपोर्ट में बताया गया है कि जिन कंपनियों का लोन एनपीए घोषित किया गया है, उनमें शामिल टॉप 100 कंपनियों के एनपीए 4.02 लाख करोड़ रुपये रहा. यह कुल एनपीए का करीब 43 फीसदी है. जांच से यह भी पता चलता है कि टॉप 100 बैंक डिफॉल्टर्स पर 31 मार्च 2019 तक कुल 8.44 लाख करोड़ रुपये का कर्ज था और इसमें से लगभग आधे को खराब ऋण या एनपीए घोषित किया गया था. टॉप 100 बैंक डिफॉल्टर्स में प्रमुख उद्योगपतियों की ओर से संचालित विभिन्न क्षेत्रों की बड़ी कंपनियां शामिल हैं. एनपीए की रकम हर साल बढ़ती गई. रिपोर्ट के मुताबिक 31 मार्च 2015 को कुल एनपीए 3.23 लाख करोड़ रुपये था. यह 31 मार्च 2018 तक बढ़कर 10.36 लाख करोड़ रुपये हो गया, जो अब तक का सबसे अधिक था.
‘मनमोहन को यक़ीन नहीं था कि भारत में कभी सिख प्रधानमंत्री भी बन सकता है’
‘द हिंदू’ की एक रिपोर्ट है कि पूर्व केंद्रीय मंत्री और कांग्रेस के वरिष्ठ नेता मणि शंकर अय्यर ने अपनी आत्मकथा में खुलासा किया है कि पूर्व प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह को लगता था कि भारत में कभी कोई सिख प्रधानमंत्री नहीं बन पाएगा. जगरनॉट बुक्स द्वारा प्रकाशित अपने संस्मरण 'ए मेवरिक इन पॉलिटिक्स' के दूसरे खंड में अय्यर ने उस समय को याद किया जब उन्होंने डॉ. सिंह को तृणमूल कांग्रेस (टीएमसी) में शामिल होने के लिए मनाने की कोशिश की थी. अय्यर ने अपने विचार साझा करते हुए कहा कि दिवंगत राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी को प्रधानमंत्री बनना चाहिए था. उनके अनुसार, डॉ. मनमोहन सिंह को प्रधानमंत्री पद की बजाय राष्ट्रपति पद पर आसीन होना चाहिए था. यह टिप्पणी मणि शंकर अय्यर की आत्मकथा के एक हिस्से में आई है, जहां उन्होंने राजनीतिक घटनाक्रमों और व्यक्तित्वों पर अपनी राय व्यक्त की. उनकी किताब में उस दौर में कांग्रेस पार्टी की आंतरिक राजनीति और नेतृत्व चयन के मुद्दों पर भी विस्तार से लिखा गया है.
प्राकृतिक खेती की नीति तो बनी, सवाल अमल का
पिछले हफ्ते केंद्रीय कैबिनेट ने प्राकृतिक खेती को बढ़ावा देने के लिए राष्ट्रीय प्राकृतिक खेती मिशन को मंजूरी दी, जिसके लिए 2,481 करोड़ रुपये का बजट तय किया गया है. इस योजना का लक्ष्य 10 मिलियन (1 करोड़) छोटे किसानों को 15,000 क्लस्टर्स में बांटकर 7.5 लाख हेक्टेयर भूमि तक प्राकृतिक खेती मिशन को पहुँचाना है. हालांकि, सवाल है कि बड़ी संरचनात्मक योजना के अभाव में क्या यह योजना वाकई खेल बदल पाएगी? ‘द टेलिग्राफ’ के लिए जयदीप हार्डीकर ने इसी विषय की पड़ताल की है. उन्होंने लिखा- वैश्विक स्तर पर अब ‘फूड सिस्टम्स लैंडस्केप’ दृष्टिकोण पर जोर दिया जा रहा है. हालाँकि, छोटे जोत वाले किसानों के लिए खेती में यह बदलाव संक्रमण आसान नहीं है. बढ़ती लागत, गिरती आय और बाजार की अनिश्चितता उनके सामने गंभीर बाधाएँ खड़ी करती हैं. भारत जेनेटिकली मॉडिफाइड (GM) फसलों पर भी अपना अनुसंधान जारी रखे हुए है. यह दोहरे दृष्टिकोण को दर्शाता है. एक रिपोर्ट के अनुसार, प्राकृतिक खेती में उत्पादन की वृद्धि कम हो सकती है, लेकिन फसलों में माइक्रोन्यूट्रिएंट्स और फाइबर अधिक होंगे. साथ ही रसायन और एंटीबायोटिक का उपयोग भी नहीं करना होगा.
विश्लेषण: संविधान और तिरंगे को लेकर क्या रहा है आरएसएस का रवैया ?
संसद में संविधान के 75 वर्ष पूरे होने पर चल रही चर्चा में आरएसएस और उसके नेताओं का नाम कई बार उठा है. हरकारा ने विभिन्न प्रामाणिक स्रोतों तक जाकर कुछ तथ्य बटोरने की कोशिश की है, जो भारत के संविधान और राष्ट्रीय ध्वज तिरंगे को लेकर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के रवैये को रेखांकित करते हैं.
26 नवंबर, 1949 को संविधान सभा ने संविधान को अपनाया. यह तय किया गया कि 26 जनवरी, 1950 से पूरे देश में इसे लागू किया जाएगा और फिर इस दिन को गणतंत्र दिवस के रूप में मनाया जाएगा. इसका जश्न न केवल भारत, बल्कि दुनियाभर में मनाया गया. वहीं आरएसएस ने इस ऐतिहासिक उपलब्धि पर शोक व्यक्त किया. संविधान सभा की ओर से संविधान पारित किए जाने के तीन दिन बाद 30 नवंबर, 1949 को आरएसएस के अंग्रेजी मुखपत्र ‘ऑर्गनाइजर’ ने लिखा- ‘हमारे संविधान में, प्राचीन भारत में अद्वितीय संवैधानिक विकास का कोई उल्लेख नहीं है. मनु के कानून स्पार्टा के लाइकर्गस या फारस के सोलन से बहुत पहले लिखे गए थे. आज भी मनुस्मृति में वर्णित उनके कानून दुनिया भर में प्रशंसा का विषय हैं और सहज आज्ञाकारिता और अनुरूपता को बढ़ावा देते हैं. लेकिन हमारे संवैधानिक पंडितों के लिए इसका कोई मतलब नहीं है.
स्वतंत्रता की पूर्व संध्या पर 14 अगस्त, 1947 को आरएसएस के मुखपत्र ऑर्गनाइजर के संपादकीय में ‘व्हीदर’ शीर्षक से लिखा- ‘हमें अब खुद को राष्ट्रवाद की झूठी धारणाओं से प्रभावित नहीं होने देना चाहिए. मानसिक भ्रम तथा वर्तमान और भविष्य की बहुत-सी परेशानियां इस सरल तथ्य की तत्काल मान्यता से दूर हो सकती हैं कि हिन्दुस्तान में केवल हिंदू ही राष्ट्र का निर्माण करते हैं और राष्ट्रीय संरचना को उस सुरक्षित और ठोस नींव पर बनाया जाना चाहिए. राष्ट्र को स्वयं बनाया जाना चाहिए- हिंदुओं की, हिंदू परंपराओं, संस्कृति, विचारों और आकांक्षाओं पर.’
विनायक दामोदर सावरकर भी देश की संविधान में मनु के कानूनों को लागू करना चाहते थे. वह लिखते हैं- ‘मनुस्मृति वह शास्त्र है जो हमारे हिंदू राष्ट्र के लिए वेदों के बाद सबसे अधिक पूजनीय है और जो प्राचीन काल से हमारी संस्कृति-रीति-रिवाजों, विचारों और व्यवहार का आधार बन गया है. सदियों से इस पुस्तक ने हमारे राष्ट्र की आध्यात्मिक और दिव्य यात्रा को संहिताबद्ध किया है. आज भी करोड़ों हिंदू अपने जीवन और व्यवहार में जिन नियमों का पालन करते हैं, वे मनुस्मृति पर आधारित हैं. आज मनुस्मृति हिंदू कानून है. यही मौलिक है.(वीडी सावरकर, ‘मनुस्मृति में महिलाएं’)
हिंदुत्व दक्षिणपंथी और कांग्रेस के भीतर रूढ़िवादी वर्गों ने, भगवा वस्त्रधारी स्वामियों और साधुओं के साथ मिलकर हिंदू कोड बिल के अधिनियमन का विरोध किया. विरोध में वे पूरे देश में सड़कों उतरे. दिल्ली में डॉ. बीआर अंबेडकर के आवास पर धावा बोल दिया. अंबेडकर आवास पर हमले के पक्ष में उनका दिया तर्क यह था- ‘यह विधेयक 'हिंदू धर्म और संस्कृति' पर हमला है’. (इकोनॉमिक वीकली, 24 दिसंबर, 1949 और सावरकर समग्र (हिंदी में सावरकर के लेखों का संग्रह), प्रभात, दिल्ली, खंड 4, पृष्ठ 415.)
इस विधेयक पर इतिहासकार रामचंद्र गुहा की पुस्तक का एक अंश- ‘हिंदू कोड बिल विरोधी समिति ने पूरे भारत में सैकड़ों बैठकें कीं, जहां विभिन्न स्वामियों ने प्रस्तावित कानून की निंदा की. इस आंदोलन में भाग लेने वालों ने खुद को धार्मिक योद्धा (धर्मवीर) के रूप में पेश किया, जो धार्मिक युद्ध (धर्मयुद्ध) लड़ रहे थे. राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने आंदोलन के पीछे अपना पूरा जोर लगाया. 11 दिसंबर, 1949 को, आरएसएस ने दिल्ली के रामलीला मैदान में एक सार्वजनिक बैठक आयोजित की, जहां एक के बाद एक वक्ताओं ने विधेयक की निंदा की. एक ने इसे ‘हिंदू समाज पर परमाणु बम’ कहा. अगले दिन आरएसएस कार्यकर्ताओं के एक समूह ने विधानसभा भवन पर मार्च किया और ‘हिंदू कोड बिल मुर्दाबाद’ के नारे लगाए. प्रदर्शनकारियों ने प्रधानमंत्री और डॉ. अंबेडकर के पुतले जलाए और फिर शेख अब्दुल्ला की कार में तोड़फोड़ की.’ (रामचंद्र गुहा, ‘भागवत्स 'अम्बेडकर’, इंडियन एक्सप्रेस, दिसंबर 10, 2015)
भारतीय जनसंघ के संस्थापक श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने कहा था- ‘हिंदू कोड बिल हिंदू संस्कृति की शानदार संरचना को चकनाचूर कर देगा’. पुस्तक ‘बंच ऑफ थॉट्स’ में गोलवलकर ने स्पष्ट शब्दों में ऐसी नीतियों की आलोचना की- ‘हमें जाति, पंथ आदि के आधार पर समूह बनाने और सेवाओं, वित्तीय सहायता, शैक्षणिक संस्थानों में प्रवेश और ऐसे सभी अन्य क्षेत्रों में विशेष अधिकारों और विशेषाधिकारों की मांग करने पर पूरी तरह रोक लगानी चाहिए. अल्पसंख्यकों और समुदायों के बारे में बात करना और सोचना पूरी तरह से बंद कर देना चाहिए.’
इसी पुस्तक में एक अन्य स्थान पर वे लिखते हैं- ‘डॉ. अंबेडकर ने 1960 में गणतंत्र बनने के दिन से केवल 10 वर्षों के लिए 'अनुसूचित जातियों' के लिए विशेष विशेषाधिकारों की परिकल्पना की थी, लेकिन यह जारी है. इसे बढ़ाया जा रहा है. एक अलग इकाई के रूप में बने रहने में उनके निहित स्वार्थ जारी हैं. इससे बाकी समाज के साथ उनके एकीकरण को नुकसान पहुंचेगा.’
आजादी के बाद एमएस गोलवलकर ने लिखा- ‘हमारा संविधान भी पश्चिमी देशों के विभिन्न संविधानों के विभिन्न अनुच्छेदों का एक बोझिल और विषम संयोजन मात्र है. इसमें ऐसा कुछ भी नहीं है, जिसे हमारा अपना कहा जा सके. क्या इसके मार्गदर्शक सिद्धांतों में इस बात का एक भी संदर्भ है कि हमारा राष्ट्रीय मिशन क्या हैं और जीवन में हमारा मुख्य उद्देश्य क्या है?’ (एम.एस. गोलवलकर, बंच ऑफ थॉट्स, साहित्य सिंधु, बैंगलोर, 1966, पृष्ठ 238)
लोकतांत्रिक-धर्मनिरपेक्ष भारतीय संविधान के बदले आरएसएस हिंदू राष्ट्र बनाने का संकल्प लेता है. यह उसकी रोजाना की प्रार्थना में शामिल है. प्रार्थना इस प्रकार है- ‘प्यारी मातृभूमि, मैं तुम्हें सदा नमन करता हूं/ हे हिंदुओं की भूमि, तुमने मुझे सुख-सुविधाओं से पाला है/ हे पवित्र भूमि, भलाई की महान निर्माता, मेरा यह शरीर तुम्हें समर्पित हो/ मैं बार-बार तुम्हारे सामने झुकता हूं/ हे सर्वशक्तिमान ईश्वर, हम हिंदू राष्ट्र के अभिन्न अंग आपको श्रद्धापूर्वक प्रणाम करते हैं/ आपके उद्देश्य के लिए हमने कमर कस ली है/ इसकी सिद्धि के लिए हमें अपना आशीर्वाद दें.’ (आरएसएस, शाखा दर्शिका, ज्ञान गंगा, जयपुर, 1997, पृष्ठ-1)
राष्ट्रीय एकता परिषद (1961) के पहले सम्मेलन में गोलवलकर ने कहा- ‘आज की संघीय सरकार न केवल अलगाव की भावनाओं को जन्म देती है, बल्कि उसका पोषण भी करती है. एक तरह से एक राष्ट्र के तथ्य को पहचानने से इनकार करती है. उसे नष्ट कर देती है. इसे पूरी तरह से उखाड़ फेंकना होगा. संविधान को शुद्ध करना होगा और एकात्मक शासन प्रणाली स्थापित करनी होगी. (एसजीएसडी, खंड 1, पृष्ठ 11, 'आरएसएस-मार्केटिंग फासीवाद एज़ इंडियन नेशनलिज्म, पृष्ठ 146; या श्री गुरुजी समग्र, पृष्ठ 128, खंड 3 में उद्धृत)
1960 के दशक के मध्य में, गोलवलकर ने एक मराठी दैनिक, नवकाल को एक साक्षात्कार दिया था. इसमें एक बार फिर मनुस्मृति की प्रशंसा की थी और संविधान में दोष निकाले थे.’
गोलवलकर की एक किताब है ‘वी ऑर आवर नेशनहुड डिफाइंड’. 1946 में आए इसके चौथे संस्करण के अनुसार, ‘हिंदुस्तान के सभी ग़ैर-हिंदुओं को हिंदू संस्कृति और भाषा अपनानी होगी. हिंदू धर्म का आदर करना होगा और हिंदू जाति अथवा संस्कृति के गौरव गान के अलावा कोई विचार अपने मन में नहीं रखना होगा.’
इसी किताब के पृष्ठ 42 पर वे लिखते हैं- ‘जर्मनी ने जाति और संस्कृति की शुद्धता बनाए रखने के लिए सेमेटिक यहूदी जाति का सफाया कर पूरी दुनिया को अचंभित कर दिया था. इससे जातीय गौरव के चरम रूप की झांकी मिलती है.’
गोलवलकर की एक और किताब है ‘बंच ऑफ थॉट्स’. इस किताब में वर्ण व्यवस्था के समर्थन में लिखते हैं- ‘हमारे समाज की विशिष्टता थी वर्ण व्यवस्था. इसे आज जाति व्यवस्था बताकर उसका उपहास किया जाता है. समाज की कल्पना सर्वशक्तिमान ईश्वर की चतुरंग अभिव्यक्ति के रूप में की गई थी. इसकी पूजा सभी को अपनी योग्यता और अपने ढंग से करनी चाहिए. ब्राह्मण को इसलिए महान माना जाता था, क्योंकि वह ज्ञान दान करता था. क्षत्रिय भी उतना ही महान माना जाता था, क्योंकि वह शत्रुओं का संहार करता था. वैश्य भी कम महत्वपूर्ण नहीं था, क्योंकि वह कृषि और वाणिज्य के द्वारा समाज की आवश्यकताएं पूरी करता था और शूद्र भी जो अपनी कला कौशल से समाज की सेवा करता था.’
महिलाओं के लिए लाए गए हिन्दू कोड बिल के विरोध में गोलवलकर ने लिखा- महिलाओं को बराबरी का अधिकार मिलने से पुरुषों के लिए ‘भारी मनोवैज्ञानिक संकट’ खड़ा हो जाएगा जो ‘मानसिक रोग व अवसाद’ का कारण बनेगा. (पॉला बचेटा, जेंडर इन द हिन्दू नेशन: आरएसएस वुमेन एज आइडियोलाग्स, पृ. 124)
आरएसएस के तीसरे सरसंघचालक रज्जू भैया उर्फ राजेंद्र सिंह ने इंडियन एक्सप्रेस (14 जनवरी, 1993) में लिखा- ‘वर्तमान संघर्ष को आंशिक रूप से हमारे सिस्टम की अपर्याप्तता के लिए जिम्मेदार ठहराया जा सकता है, जो मूल भारत, इसकी परंपरा, मूल्यों और लोकाचार की जरूरतों का जवाब देने में असमर्थ है. इस देश की कुछ विशेषताओं को संविधान में प्रतिबिंबित किया जाना चाहिए. 'इंडिया दैट इज भारत' के स्थान पर हमें भारत दैट इज हिंदुस्तान कहना चाहिए था. आधिकारिक दस्तावेज समग्र संस्कृति का उल्लेख करते हैं, लेकिन हमारी संस्कृति निश्चित रूप से समग्र नहीं है. संस्कृति कपड़े पहनना या भाषा बोलना नहीं है. बहुत ही बुनियादी अर्थों में, इस देश में एक अनूठी सांस्कृतिक एकता है. कोई भी देश, अगर उसे जीवित रहना है, तो उसे खंडित नहीं किया जा सकता. यह सब दर्शाता है कि संविधान में बदलाव की जरूरत है. भविष्य में इस देश के लोकाचार और प्रतिभा के अनुकूल एक संविधान को अपनाया जाना चाहिए.
तिरंगा से भी था विरोध : दिसंबर 1929 में, कांग्रेस ने अपने लाहौर अधिवेशन में लोगों से हर अगले साल 26 जनवरी को तिरंगे को प्रदर्शित करके और उसे सलामी देकर स्वतंत्रता दिवस मनाने का आह्वान किया (यह उस समय राष्ट्रीय आंदोलन का ध्वज था जिसके बीच में चरखा था). जब 26 जनवरी, 1930 का दिन नजदीक आ रहा था, तब आरएसएस के सरसंघचालक और संस्थापक केबी हेडगेवार ने 21 जनवरी, 1930 को एक परिपत्र जारी कर सभी आरएसएस शाखाओं को राष्ट्रीय ध्वज के रूप में भगवा झंडे की पूजा करने के लिए कहा.
राष्ट्रीय सहमति का उल्लंघन करते हुए, परिपत्र में सभी शाखाओं के प्रभारियों से कहा गया कि वे रविवार, 26 जनवरी, 1930 को शाम 6 बजे अपने-अपने संघ स्थानों (जहां शाखाएं लगती हैं) पर अपने-अपने स्वयंसेवकों की बैठक करें और ‘राष्ट्रीय ध्वज, यानी भगवा ध्वज’ को प्रणाम करें.’(ध्यान देने वाली बात यह है कि इस परिपत्र को कभी वापस नहीं लिया गया.) (पालकर, एन.एच. (सं.), डॉ. हेडगेवार: पत्र-रूप भक्ति दर्शन (हेडगेवार के पत्रों का हिंदी अनुवाद), अर्चना प्रकाशन, इंदौर, 1981, पृ. 18.)
समाजवादी नेता और स्वतंत्रता सेनानी एनजी गोरे 1938 में एक ऐसी ही घटना के गवाह बने थे. जब हिंदुत्व कार्यकर्ताओं ने तिरंगा फाड़ दिया और प्रसिद्ध स्वतंत्रता सेनानियों पर शारीरिक हमला किया था. गोरे के अनुसार, ‘मई दिवस के जुलूस पर किसने हमला किया? सेनापति बापट और (गजानन) कानितकर जैसे लोगों पर किसने हमला किया? राष्ट्रीय ध्वज किसने फाड़ा? हिंदू महासभा और हेडगेवार के लड़कों ने यह सब किया. उन्हें मुसलमानों से सार्वजनिक दुश्मन नंबर 1 के रूप में नफरत करना सिखाया गया है. कांग्रेस और उसके झंडे से नफरत करना सिखाया गया है. उनके पास अपना खुद का झंडा है, 'भगवा', जो मराठा वर्चस्व का प्रतीक है.' (कांग्रेस समाजवादी, 14 मई 1938)
वीडी सावरकर ने भी तिरंगे को राष्ट्रीय ध्वज मानने से इनकार कर दिया था. इसके बहिष्कार की मांग करते हुए, उन्होंने 22 सितंबर, 1941 को एक बयान में घोषणा की- ‘जहां तक ध्वज के प्रश्न का संबंध है, हिंदुओं को ‘कुंडलिनी कृपाणंकित’ महासभा के ध्वज के अलावा हिंदू धर्म का प्रतिनिधित्व करने वाला कोई अन्य ध्वज नहीं पता है, जिस पर ‘ओम और स्वास्तिक’ अंकित है, जो हिंदू जाति और नीति के सबसे प्राचीन प्रतीक हैं, जो युगों-युगों से चले आ रहे हैं और पूरे हिंदुस्तान में सम्मानित हैं. इसलिए कोई भी स्थान या समारोह, जहां इस अखिल हिंदू ध्वज का सम्मान नहीं किया जाता है, उसका हिंदू संगठनवादियों (हिंदू महासभा के सदस्यों) द्वारा किसी भी कीमत पर बहिष्कार किया जाना चाहिए. विशेष रूप से चरखा-ध्वज खादी-भंडार का प्रतिनिधित्व कर सकता है, लेकिन चरखा कभी भी हिंदुओं जैसे गौरवशाली और प्राचीन राष्ट्र की भावना का प्रतीक और प्रतिनिधित्व नहीं कर सकता है.’ (भिड़े, ए.एस. (संपादक), विनायक दामोदर सावरकर का तूफानी प्रचार: दिसंबर 1937 से अक्टूबर 1941 तक के उनके प्रचार दौरों के साक्षात्कारों की राष्ट्रपति की डायरी से अंश, एनए, बॉम्बे पृ. 469, 473.)
गोलवलकर ने 1940 में आरएसएस मुख्यालय रेशम बाग में आरएसएस के 1350 शीर्ष स्तरीय कार्यकर्ताओं के समक्ष भाषण में कहा था- ‘एक ध्वज, एक नेता और एक विचारधारा से प्रेरित आरएसएस इस महान भूमि के हर कोने में हिंदुत्व की ज्योति जला रहा है.’ (एम.एस. गोलवलकर, श्री गुरुजी समग्र दर्शन (हिंदी में गोलवलकर की संकलित रचनाएं), खंड 1, भारतीय विचार साधना, नागपुर, पृष्ठ 11.)
एमएस गोलवलकर ने 14 जुलाई, 1946 को नागपुर में आरएसएस के मुख्यालय में गुरुपूर्णिमा सभा को संबोधित करते हुए कहा था- ‘यह भगवा ध्वज ही था, जो समग्र रूप से भारतीय संस्कृति का प्रतिनिधित्व करता था. यह ईश्वर का अवतार था. हमारा दृढ़ विश्वास है कि अंत में पूरा देश इस भगवा ध्वज के सामने झुकेगा.’ (गोलवलकर, एम.एस., श्री गुरुजी समग्र दर्शन, खंड 1, भारतीय विचार साधना, नागपुर, एनडी, पृष्ठ 98.)
स्वतंत्रता की पूर्व संध्या पर जब प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के तिरंगा फहराने के लिए लाल किले की प्राचीर तैयार की जा रही थी. तब वक्त भारत के हर हिस्से में आम आदमी तिरंगे के साथ मार्च कर रहा था और घरों की छतों पर राष्ट्रीय ध्वज फहरा रहा था. तब आरएसएस के अंग्रेजी मुखपत्र ऑर्गनाइजर ने 14 अगस्त, 1947 के अपने अंक में लिखा- ‘भाग्य की मार से सत्ता में आए लोग भले ही हमारे हाथों में तिरंगा थमा दें, लेकिन हिंदू कभी भी इसका सम्मान नहीं करेंगे और इसे नहीं अपनाएंगे. तीन शब्द अपने आप में एक बुराई है और तीन रंगों वाला झंडा निश्चित रूप से बहुत बुरा मनोवैज्ञानिक प्रभाव पैदा करेगा और देश के लिए हानिकारक है.’
ऑर्गनाइजर ने एक संपादकीय (‘राष्ट्र का ध्वज’ 17 जुलाई, 1947) इससे पहले भी तब लिखा था, जब भारत की संविधान सभा की समिति ने राष्ट्रीय ध्वज के रूप में तिरंगे के पक्ष में निर्णय लिया था- ‘हम इस बात से बिल्कुल सहमत नहीं हैं कि ध्वज भारत में सभी दलों और समुदायों को स्वीकार्य होना चाहिए. यह सरासर बकवास है. ध्वज राष्ट्र का प्रतिनिधित्व करता है और हिंदुस्तान में केवल एक राष्ट्र है, हिंदू राष्ट्र. हम सभी समुदायों की इच्छाओं और इच्छाओं को संतुष्ट करने के उद्देश्य से ध्वज का चयन नहीं कर सकते. हम ध्वज का चयन उसी तरह नहीं कर सकते जैसे हम दर्जी को अपने लिए शर्ट या कोट बनाने का आदेश देते हैं.’
स्वतंत्रता के बाद भी आरएसएस ने तिरंगे को राष्ट्रीय ध्वज मानने से इनकार कर दिया था. ‘बंच ऑफ थॉट्स’ में ‘ड्रिफ्टिंग एंड ड्रिफ्टिंग’ नामक निबंध में गोलवलकर ने लिखा- ‘हमारे नेताओं ने हमारे देश के लिए एक नया झंडा स्थापित किया है. उन्होंने ऐसा क्यों किया? यह सिर्फ बहकने और नकल करने का मामला है. हमारा देश एक प्राचीन और महान राष्ट्र है, जिसका अतीत गौरवशाली है. तो क्या हमारे पास अपना कोई झंडा नहीं था? क्या इन हजारों सालों में हमारे पास कोई राष्ट्रीय प्रतीक नहीं था? निस्संदेह हमारे पास था. तो फिर हमारे दिमाग में यह पूर्ण शून्यता क्यों है?’ (गोलवलकर, एम.एस., बंच ऑफ थॉट्स, साहित्य सिंधु प्रकाशन, बैंगलोर, 1966, पृ. 237-38.)
पटना पुस्तक मेले के बदलते रंग : 'द मूकनायक' ने पटना पुस्तक मेले के हाल का जायजा लिया है. आदित्य अभि के एक लेख के हवाले से कहा गया है कि पुस्तक मेले के मुख्य कार्यक्रमों को भी देखें, तो उसमें 90 प्रतिशत भागीदारी सवर्ण लेखकों की ही नजर आ रही है. इसमें स्त्रियों की भी अतिअल्प भागीदारी है. मेला आयोजन समिति के मुख्य कार्यक्रमों में जिन लेखक संस्कृतिकर्मी को शामिल किया गया है उसमें नाममात्र के दलित लेखक हैं, जबकि ओबीसी और महिला लेखक तो लगभग नदारद ही हैं. उन्होंने लिखा- 'मेला आयोजकों का यह निर्लज्ज जातिवाद नहीं तो क्या है कि उषा किरण खान पर मेले में दो-दो कार्यक्रम किये जा रहे हैं और जन्मशताब्दी वर्ष होने के बावजूद यहां कर्पूरी ठाकुर पूरे आयोजन से ही गायब हैं.'
भीमबेटका की तरह के ही गुफाचित्र पर उनकी कोई पूछ नहीं.. ‘विंध्य फर्स्ट’ के लिए अंजली द्विवेदी ने एक रिपोर्ट की है, जो रीवा जिले से 45 किलोमीटर दूर सिरमौर के घने जंगलों के बीच सदियों पुरानी कई दुर्लभ कलाकृतियों और रहस्यमयी शैलचित्रों को लेकर है. सिरमौर के पहाड़ी इलाके में घनी झाड़ियों और विशाल चट्टानों के बीच कई ऐसी दुर्लभ रॉक पेंटिंग हैं, जिनकी तुलना यूनेक्सो द्वारा विश्वधरोहर घोषित मध्य प्रदेश के भीमबेटका की रॉक पेंटिंग से की जाती है. ये शैलचित्र, इतिहास के गहरे गर्त में समाएं हुए हैं, जो मानव सभ्यता के प्रारंभिक जीवन के बेस कीमती प्रमाण हैं. माना जाता है कि सिरमौर के जंगलों में पाने जाने वाले ये शैलचित्र करीबन 10 हजार साल पुराने हैं, लेकिन इनाक सरंक्षण नहीं किया जा रहा है.
लेबनान, गाजा ही नहीं सीरिया में भी जंग छेड़े बैठा है इजरायल : सीरियाई विद्रोही नेता अबू मोहम्मद अल-जोलानी ने कई दफा कहा कि हयात तहरीर अल-शाम (एचटीएस) को इजरायल के साथ संघर्ष में कोई दिलचस्पी नहीं है, बावजूद इसके इजरायल ने रात भर सीरिया में दर्जनों जगहों पर हवाई हमले किए. इजरायल का पहले से ही सीरिया के गोलान हाईट्स इलाके में कब्जा है और पिछले दिनों बने हालात का फायदा उठाकर उसने गोलान हाइट्स बफर ज़ोन पर कब्जा जमा लिया था. इधर अबू मोहम्मद अल-जोलानी ने सीरियाई मीडिया से कहा- 'ईरानियों के जाने के बाद अब सीरिया में किसी भी विदेशी हस्तक्षेप के लिए कोई बहाना नहीं है. हम इजराइल के साथ संघर्ष में शामिल होने की प्रक्रिया में नहीं हैं.' 'हरकारा' के आठ, नौ और दस दिसंबर के अंक में हमने सीरिया के मौजूदा राजनीतिक घटानाक्रम के संदर्भ में विस्तार से लिखा है.
ईरानी गायिका परस्तू अहमदी की हिरासत और रिहाई: 'ईरान फ्रंट पेज' की खबर है कि ईरान में एक ऑनलाइन कॉन्सर्ट के दौरान हिजाब नहीं पहनने के आरोप में एक महिला सिंगर को गिरफ्तार किया गया. महिला सिंगर का नाम परस्तू अहमदी है. महिला ने बुधवार, 11 दिसंबर को यूट्यूब पर कॉन्सर्ट का वीडियो अपलोड किया था. इस वीडियो में अहमदी स्लीवलेस ड्रेस पहनकर गाना गा रही थीं. वीडियो अपलोड होने के बाद गुरुवार को एक कोर्ट में अहमदी के खिलाफ केस दर्ज किया गया था. इसके बाद शनिवार को परस्तू अहमदी को गिरफ्तार कर लिया गया. अहमदी की उम्र 27 साल है. हालांकि, रविवार सुबह सिंगर को रिहा कर दिया गया. अहमदी को उनके बैंड ‘हाइपोथेटिकल कॉन्सर्ट’ के दो अन्य संगीतकारों के साथ शनिवार देर रात हिरासत में लिया गया था. 1979 ईरानी इस्लामी क्रांति के बाद से ईरान में महिलाओं के एकल प्रदर्शन और कुछ विशेष संगीत शैलियों पर कड़े प्रतिबंध लागू हैं.
एक बैगा चित्रकार का जाना
अंतरराष्ट्रीय स्तर पर बैगा चित्रकारी की पहचान बन चुकीं पद्मश्री से सम्मानित जोधइया बाई बैगा का रविवार की शाम मध्य प्रदेश के उमरिया जिले में स्थित उनके ग्राम लोढ़ा में निधन हो गया. उमरिया में जोधाइया के साथ काम करने वाले निमिष स्वामी ने बताया है कि वह करीब 86 वर्ष की थीं और 11 महीनों से बीमार चल रहीं थीं. उनके शरीर का दाहिना हिस्सा इसी साल 24 जनवरी को पैरालाइसिस से ग्रस्त हो गया था. औपचारिक शिक्षा से दूर जोधइया बाई बैगा ने 67 वर्ष की उम्र में चित्रकला सीखनी शुरू की थी, उनके गुरु मशहूर चित्रकार आशीष स्वामी ने चित्रकला का प्रशिक्षण दिया था. जिसके बाद जोधइया बाई की चित्रकला का लोहा पूरी दुनिया ने माना था, जोधइया बाई को 84 साल की आयु में पहला राष्ट्रीय नारी शक्ति सम्मान वर्ष 2022 में और 2023 में 85 वर्ष की आयु में देश का प्रतिष्ठित पद्म श्री सम्मान मिला था. कला संग्राहक, लेखक और लोक कला के पैरोकार मिच क्राइट्स जोधाइया बाई को मशहूर गोंड कलाकार जनगढ़ सिंह स्याम के समकक्ष रखते हैं. क्राइट्स के अनुसार जोधाइया के काम में एक सक्षक्त कला दृष्टि, गज़ब की मौलिकता और सच्चाई है.
चलते चलते: सल्वाडोर डाली की इस तस्वीर को खींचा कैसे गया
तब न आर्टीफिशियल इंटेलिजेंस थी, न स्पेशल इफेक्ट. सर्रियल पेंटर सल्वाडोर डाली और एक उतने ही खुराफाती फोटोग्राफर फिलीप हाल्समैन की साझा ख़बत से ये फोटो खींचा गया था. डाली एटोमीकस नाम के इस फोटो में इतनी नाटकीयता पैदा करने के लिए.. जिसमें तीन बिल्लियां हवा में हैं.. पानी के छपाके हैं, डाली है, उछलती हुई कुर्सी और पीछे पेंटिंग भी.. बीबीसी ने इस फोटो के मुमकिन होने के पीछे की कहानी बनाई है..
आज के लिए इतना ही. हमें बताइये अपनी प्रतिक्रिया, सुझाव, टिप्पणी. मिलेंगे हरकारा के अगले अंक के साथ. हरकारा सब्सटैक पर तो है ही, आप यहाँ भी पा सकते हैं ‘हरकारा’...शोर कम, रोशनी ज्यादा. व्हाट्सएप पर, लिंक्डइन पर, इंस्टा पर, स्पोटीफाई पर , ट्विटर / एक्स और ब्लू स्काई पर.