16/09/2025: मोदी का भाषण खोखला, भाजपा नेता ने कहा | मणिपुर में चिंगारियां | वक़्फ़ पर फैसला | क्रिकेट के बवाल जारी | कैंपस में नफ़रत पर अपूर्वानंद | वंतारा मासूम है | पंजाब बाढ़ पर 7 सवाल | 19% कचरा
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निधीश त्यागी, साथ में राजेश चतुर्वेदी, गौरव नौड़ियाल, फ़लक अफ़शां
आज की सुर्खियां
वक़्फ़ एक्ट पर पूरी रोक से सुप्रीम कोर्ट का इनकार. लेकिन कई अहम प्रावधानों पर स्टे, कलेक्टर के अधिकार सीमित.
मणिपुर: NH-2 खोलने से कुकी-ज़ो काउंसिल का इनकार.
मोदी के दौरे के बाद फिर तनाव, कुकी नेता का घर फूंका.
मोदी का दौरा 'निराशाजनक', भाषण 'खोखला': BJP विधायक का हमला.
मोदी के होर्डिंग फाड़ने पर गिरफ्तारी, चुराचांदपुर में हिंसक झड़प. पुलिस पर पथराव, आंसू गैस के गोले.
कैंपस में जातिगत भेदभाव: सुप्रीम कोर्ट सख्त, UGC को 8 हफ्ते का अल्टीमेटम.
मनुस्मृति फाड़ने का मामला: RJD प्रवक्ता को राहत नहीं, कोर्ट ने पुलिस की क्लोजर रिपोर्ट खारिज की.
रिलायंस के वंतारा को सुप्रीम कोर्ट से क्लीन चिट, जांच में कोई गड़बड़ी नहीं.
अगवा ट्रक ड्राइवर पूर्व IAS प्रोबेशनर पूजा खेड़कर के घर मिला, नया विवाद.
बिहार वोटर लिस्ट मामला: हमारा फैसला पूरे देश पर लागू होगा - सुप्रीम कोर्ट.
नौकरी के लिए रूस गया, जबरन सेना में भर्ती कर यूक्रेन युद्ध में झोंका.
पैगंबर पर आपत्तिजनक पोस्ट, गिरफ्तारी के बाद शाहजहांपुर में बवाल, 200 पर केस.
गाज़ियाबाद: दलित मां-बेटे पर हमले के बाद दो समुदायों में हिंसक टकराव, PAC तैनात.
बिहार: वोटर लिस्ट से कट रहे नाम, 'SIR' से नागरिकता खोने की आशंका में ईरानी मुस्लिम.
कार्टून | मंजुल
वक़्फ़ संशोधन एक्ट
सुप्रीम कोर्ट का रोक से इनकार, लेकिन कई प्रावधानों पर स्टे, कलेक्टर के अधिकार सीमित
सुप्रीम कोर्ट ने वक्फ संशोधन अधिनियम 2025 के उस प्रावधान पर रोक लगाने से इनकार कर दिया है, जिसमें उपयोगकर्ता द्वारा वक़्फ़ का पंजीकरण अनिवार्य किया गया है. हालांकि, शीर्ष अदालत ने उस धारा को स्थगित कर दिया, जिसमें वक़्फ़ बनाने के लिए व्यक्ति का पांच वर्ष तक इस्लाम का आचरण करने वाला होना आवश्यक बताया गया था, जब तक कि राज्य सरकारें इस विषय पर नियम नहीं बना देतीं. कोर्ट ने सोमवार 15 सितंबर को अपने अंतरिम आदेश में अधिनियम में किए गए तीन बड़े बदलावों पर अंतिम फैसला आने तक रोक लगा दी. इनमें वक्फ बोर्ड में गैर-मुस्लिम सदस्यों की नियुक्ति का नियम भी शामिल है.
सीजेआई बी. आर. गवई और जस्टिस ए. जी. मसीह की बेंच ने कहा कि केंद्रीय वक्फ बोर्ड में गैर-मुस्लिम मेंबर्स की संख्या चार और राज्यों के वक्फ बोर्ड में तीन से ज्यादा न हो. सरकारें कोशिश करें कि बोर्ड में नियुक्त किए जाने वाले सरकारी सदस्य भी मुस्लिम समुदाय से ही हों. बेंच ने कहा, “हमने 1923 के अधिनियम से लेकर अब तक के विधायी इतिहास को देखा है और प्रत्येक धारा की प्रारंभिक जांच की है. पक्षकारों को सुनने के बाद हमने यह माना है कि पूरे क़ानून पर रोक लगाने का कोई मामला नहीं बनता है. लेकिन कुछ धाराएं, जिन पर आपत्ति जताई गई है, उन्हें कुछ हद तक सुरक्षा मिलनी चाहिए.” अंतरिम आदेश सुनाते हुए सीजेआई गवई ने कहा, “1995 से 2013 तक पंजीकरण की आवश्यकता थी. 2013 में इसे हटा दिया गया, इसलिए इसमें कोई नई बात नहीं है.”
“द इंडियन एक्सप्रेस” के अनुसार, सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि धारा 3(1)(r) में यह प्रावधान कि किसी व्यक्ति को वक्फ बनाने के लिए कम से कम 5 वर्ष से मुसलमान होना चाहिए, तब तक स्थगित रहेगा जब तक राज्य ऐसे नियम नहीं बनाता जिनसे यह निर्धारित किया जा सके कि कोई व्यक्ति कम से कम 5 वर्षों से इस्लाम का पालन कर रहा है या नहीं. अदालत ने टिप्पणी की कि यदि ऐसा कोई तंत्र नहीं होगा तो इससे मनमानी का खतरा रहेगा.
सुप्रीम कोर्ट ने उन प्रावधानों पर भी रोक लगा दी, जिनके तहत सरकार का नामित अधिकारी यह रिपोर्ट दे सकता है कि क्या किसी वक्फ संपत्ति ने सरकारी भूमि पर अतिक्रमण किया है, और उसके बाद राज्य वक्फ बोर्ड को रिकॉर्ड में आवश्यक संशोधन करने के लिए कह सकता है. इसमें कहा गया कि कलेक्टर को संपत्ति पर अधिकार तय करने की अनुमति देने वाला प्रावधान "शक्तियों के पृथक्करण के सिद्धांत" के विरुद्ध है. कार्यपालिका को संपत्ति के अधिकार निर्धारित करने की अनुमति नहीं दी जा सकती. जब तक नामित अधिकारी के निष्कर्ष को अंतिम रूप नहीं मिल जाता, तब तक न तो कब्ज़ा और न ही संपत्ति पर अधिकार प्रभावित होंगे. जब तक वक़्फ़ संपत्ति के स्वामित्व (टाइटल) का प्रश्न अंतिम रूप से तय नहीं हो जाता, तब तक ऐसे संपत्तियों के संबंध में किसी तीसरे पक्ष के अधिकार निर्मित नहीं किए जा सकते.
हालांकि, सुप्रीम कोर्ट ने गैर-मुस्लिम सदस्यों को वक़्फ़ बोर्डों में नामित करने की अनुमति देने वाले प्रावधान पर रोक नहीं लगाई, लेकिन यह स्पष्ट किया कि 20 सदस्यों वाले केंद्रीय वक़्फ़ बोर्ड में 4 से अधिक गैर-मुस्लिम सदस्य नहीं होंगे, और 11 सदस्यों वाले राज्य वक़्फ़ बोर्ड में 3 से अधिक गैर-मुस्लिम सदस्य नहीं होंगे.
आदेश को पर्सनल लॉ बोर्ड ने 'अधूरा और असंतोषजनक' बताया
ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड ने सोमवार (15 सितंबर) को कहा कि सुप्रीम कोर्ट का अंतरिम आदेश, जिसने विवादास्पद वक्फ़ संशोधन अधिनियम, 2025 के प्रमुख प्रावधानों पर रोक लगा दी है, लेकिन मूल कानून पर नहीं, "अधूरा और असंतोषजनक" है. बोर्ड ने इसे पूरी तरह से निरस्त करने की मांग की. बोर्ड ने कहा कि इस कानून के ख़िलाफ़ उसका चल रहा अभियान 16 नवंबर को दिल्ली के रामलीला मैदान में एक समापन रैली के साथ जारी रहेगा.
एक बयान में, बोर्ड के प्रवक्ता डॉ. एस.क्यू.आर. इलियास ने कहा कि बोर्ड को उन सभी धाराओं पर रोक की उम्मीद थी जो संविधान के मौलिक प्रावधानों का खंडन करती हैं. उन्होंने कहा, "हालांकि अदालत ने आंशिक राहत दी है, लेकिन इसने व्यापक संवैधानिक चिंताओं को संबोधित नहीं किया है, जिससे हम निराश हैं."
चीफ जस्टिस बी.आर. गवई और जस्टिस ए.जी. मसीह की बेंच द्वारा पारित अंतरिम आदेश ने उस प्रावधान पर रोक लगा दी, जिसके तहत किसी व्यक्ति को वक्फ़ के लिए संपत्ति समर्पित करने से पहले पांच साल तक इस्लाम का पालन करना आवश्यक था. साथ ही उस प्रावधान पर भी रोक लगा दी गई, जो एक सरकारी अधिकारी को यह तय करने की अनुमति देता था कि क्या वक्फ़ संपत्ति ने सरकारी संपत्ति पर अतिक्रमण किया है. इसके अलावा, केंद्रीय वक्फ़ परिषद में गैर-मुस्लिम सदस्यों की संख्या चार और राज्य वक्फ़ बोर्डों में तीन तक सीमित करने वाले प्रावधान पर भी रोक लगा दी गई.
बोर्ड ने कहा कि यह पूरा कानून वक्फ़ संपत्तियों को कमज़ोर करने और उन पर कब्ज़ा करने का एक जानबूझकर किया गया प्रयास है. बोर्ड ने कहा, "इसलिए यह वक्फ़ (संशोधन) अधिनियम 2025 को पूरी तरह से निरस्त करने और पहले के वक्फ़ अधिनियम को बहाल करने की मांग करता है. पूरे अधिनियम पर रोक लगाने से इनकार करने से कई अन्य हानिकारक प्रावधान लागू रहेंगे."
यह कानून संसद द्वारा अप्रैल में पारित किया गया था, जब लगातार दो दिनों तक मध्यरात्रि सत्र चले थे, जिसमें विपक्षी सदस्यों ने सरकार पर "असंवैधानिक" कानून के माध्यम से मुसलमानों को शक्तिहीन करने और उन्हें "दूसरे दर्जे का नागरिक" बनाने का आरोप लगाया था. AIMPLB ने कहा कि उसका 'सेव वक्फ़' अभियान जारी रहेगा और देशव्यापी विरोध प्रदर्शन 16 नवंबर 2025 को दिल्ली के रामलीला मैदान में एक विशाल रैली के साथ समाप्त होगा.
मणिपुर से मोदी की वापसी के बाद
मैतेई लोगों के साथ समझौता होने तक मणिपुर में एनएच-2 नहीं खुलेगा: कुकी-ज़ो काउंसिल
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के मणिपुर दौरे के दो दिन बाद, कुकी-ज़ो काउंसिल (KZC), जिसने 4 सितंबर, 2025 को राष्ट्रीय राजमार्ग-2 को फिर से खोलने के लिए केंद्रीय गृह मंत्रालय के साथ एक समझौते पर हस्ताक्षर किए थे, ने सोमवार (15 सितंबर, 2025) को उस समझौते को रद्द कर दिया. उसने कहा कि जब तक दोनों समुदायों के बीच कोई समझौता नहीं हो जाता, तब तक वह राजमार्ग को फिर से खोलने की घोषणा नहीं करेगा. मई 2023 में मैतेई और कुकी-ज़ो समुदायों के बीच भड़की जातीय हिंसा के कारण राजमार्ग बंद हो गया था.
कुकी-ज़ो समूहों के एक संघ, केज़ेडसी ने एक बयान में कहा कि "चूंकि मैतेई और कुकी-ज़ो समुदायों के बीच संघर्ष का अभी भी कोई समाधान या समझौता नहीं हुआ है, इसलिए दोनों पक्षों में से किसी को भी बफ़र ज़ोन पार नहीं करना चाहिए." बयान में आगे कहा गया, "केज़ेडसी ने एनएच-02 को फिर से खोलने की घोषणा नहीं की है. इस मार्ग पर किसी भी तरह की मुक्त आवाजाही की अनुमति नहीं दी गई है. हमारा अनुरोध केवल कांगपोकपी के लोगों से था कि वे गृह मंत्रालय के निर्देशानुसार एनएच-02 पर यात्रियों की सुरक्षा बनाए रखने में सुरक्षा बलों को सहयोग दें."
बयान में यह भी कहा गया कि "बफ़र ज़ोन" का हर कीमत पर सम्मान किया जाना चाहिए. "किसी भी उल्लंघन से केवल गंभीर परिणाम होंगे और शांति तथा सुरक्षा की स्थिति और बिगड़ेगी. केज़ेडसी हमारे बयान को तोड़ने-मरोड़ने या गलत तरीके से पेश करने के किसी भी प्रयास की कड़ी निंदा करता है. इस तरह की जानबूझकर की गई विकृति एक संवेदनशील समय में अनावश्यक भ्रम और अविश्वास पैदा करती है. हम मैतेई जनता से उपरोक्त तथ्यों पर ध्यान देने और अत्यंत ज़िम्मेदारी के साथ कार्य करने का आग्रह करते हैं."
एक वरिष्ठ सरकारी अधिकारी ने 'द हिंदू' को बताया कि केज़ेडसी लोगों को भ्रमित करने के लिए शब्दों का खेल खेल रही है. उन्होंने कहा कि पहले उन्होंने कहा था कि जब तक एक अलग प्रशासन की उनकी मांग पूरी नहीं हो जाती, तब तक बफ़र ज़ोन बना रहना चाहिए. "अब वे कह रहे हैं कि जब तक दोनों समुदायों के बीच कोई समझौता या सहमति नहीं हो जाती, तब तक बफ़र ज़ोन बने रहने चाहिए. यह दर्शाता है कि वे शत्रुता की समाप्ति के लिए मैतेई समूहों के साथ बातचीत करने को तैयार हैं."
यह राजमार्ग इंफाल घाटी को नागालैंड के दीमापुर और आगे असम से जोड़ता है. यह इंफाल में हवाई अड्डे तक पहुंचने का भी मुख्य मार्ग है, जहां कुकी-ज़ो लोग 3 मई, 2023 को हिंसा भड़कने के बाद से नहीं जा पाए हैं. कांगपोकपी स्थित कमेटी ऑन ट्राइबल यूनिटी (COTU) के प्रवक्ता लुन किपगेन ने कहा कि प्रधानमंत्री का मणिपुर दौरा मिजोरम में कुछ परियोजनाओं का उद्घाटन करने के बाद महज़ एक स्टॉपओवर था. "पीएम मणिपुर में समस्या को हल करने के लिए गंभीर नहीं हैं. लेकिन, कम से 'कम उनकी यात्रा कुकियों के लिए प्रतीकात्मक है... कि राज्य में उनकी पार्टी इस संकट के लिए ज़िम्मेदार है."
भाजपा विधायक ने मोदी के मणिपुर में भाषण को खोखला और दौरे को निराशाजनक बताया
मणिपुर में मई 2023 में संकट शुरू होने के 28 महीनों से ज़्यादा वक़्त के बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के पहले दौरे को उन्हीं की पार्टी के एक विधायक ने 'निराशाजनक' और 'उम्मीदों पर विफल' बताया है. द वायर को दिए एक इंटरव्यू में, चुराचांदपुर से भाजपा विधायक पाओलियनलाल हाओकिप ने प्रधानमंत्री के दौरे और उनके भाषण का तीखा और स्पष्ट मूल्यांकन किया.
हाओकिप के मुताबिक़, प्रधानमंत्री का भाषण 'खोखली बयानबाज़ी' से ज़्यादा कुछ नहीं था. उन्होंने कहा, "कितनी भी खोखली बयानबाज़ी शांति और न्याय बहाल नहीं कर सकती. संघर्ष के संदर्भ में प्रधानमंत्री ने कुछ नहीं कहा". विधायक ने ज़ोर देकर कहा कि पीएम के पास न्याय सुनिश्चित करने के लिए कोई रोडमैप नहीं था और लोगों के लिए "आगे देखने के लिए कुछ भी नहीं है".
प्रधानमंत्री द्वारा घोषित लगभग 8,000 करोड़ रुपये की विकास परियोजनाओं पर भी हाओकिप ने सवाल उठाए. उन्होंने कहा कि इस वक़्त राज्य को इन परियोजनाओं की नहीं, बल्कि राजनीतिक समाधान की ज़रूरत है. उन्होंने यह भी बताया कि इनमें से ज़्यादातर परियोजनाएं पहले से ही पाइपलाइन में थीं. सबसे अहम बात यह है कि इन परियोजनाओं का एक बड़ा हिस्सा मैतेई बहुल घाटी के लिए है, जबकि कुकी क्षेत्रों को बहुत कम हिस्सा मिला है. यह मैतेई और कुकी समुदायों के बीच भेदभावपूर्ण व्यवहार को और गहरा करता है.
हाओकिप ने इस बात पर भी गहरी नाराज़गी जताई कि प्रधानमंत्री ने मणिपुर के किसी भी विधायक से मुलाक़ात नहीं की, यहां तक कि अपनी ही पार्टी के विधायकों से भी नहीं. न ही उन्होंने किसी नागरिक समाज संगठन या एनजीओ से बात की. उनके अनुसार, यह दौरा सिर्फ़ 'राजनीतिक दिखावे' के लिए हो सकता है, लेकिन इसने मूल मुद्दों को संबोधित नहीं किया.
जब उनसे सीधे तौर पर पूछा गया कि क्या यह दौरा विफल रहा, तो हाओकिप ने पहले इसे निराशाजनक कहा और फिर जोड़ा, "यह उम्मीदों पर खरा उतरने में विफल रहा". उन्होंने स्पष्ट किया कि मणिपुर की समस्या आर्थिक नहीं, बल्कि एक राजनीतिक समस्या है और इसका समाधान भी राजनीतिक ही होना चाहिए, जो इस दौरे से नदारद रहा.
मोदी के जाने के बाद होर्डिंग फाड़ने के मामले में गिरफ्तारी का विरोध हिंसक हुआ, आंसू गैस
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के दौरे के ठीक बाद मणिपुर के कुकी-ज़ो बहुल शहर चुराचांदपुर में रविवार को सैकड़ों युवाओं की सुरक्षाबलों के साथ झड़प हो गई. ये युवा उन दो लोगों की तत्काल रिहाई की मांग कर रहे थे, जिन्हें प्रधानमंत्री के स्वागत में लगाए गए बैरिकेड और सजावट को नुक़सान पहुंचाने के आरोप में गिरफ्तार किया गया था.
यह घटना गुरुवार शाम को हुई तोड़फोड़ के बाद हुई, जिसके चलते प्रशासन को व्यवस्था बनाए रखने के लिए फ्लैग मार्च करना पड़ा था. हालांकि, मई 2023 में संघर्ष शुरू होने के 28 महीनों बाद प्रधानमंत्री मोदी का शनिवार का दौरा कमोबेश शांतिपूर्ण ढंग से संपन्न हो गया था.
लेकिन रविवार दोपहर को चुराचांदपुर में माहौल तब गरमा गया जब प्रदर्शनकारियों ने पुलिस स्टेशन के एंट्री गेट को तोड़ दिया, सुरक्षाकर्मियों पर पत्थर फेंके और नारेबाज़ी की. इस दौरान उन्होंने राष्ट्रगान भी गाया. भीड़ को तितर-बितर करने के लिए सुरक्षाबलों ने आंसू गैस के गोले दागे, हालांकि इस टकराव में किसी के घायल होने की ख़बर नहीं है.
मामले को शांत करने के लिए चुराचांदपुर के पुलिस अधीक्षक पी. पांडे ने प्रदर्शनकारियों से बातचीत की. इसी बीच, एक स्थानीय अदालत ने गिरफ्तार किए गए दोनों युवकों को ज़मानत दे दी. उन पर गैरक़ानूनी रूप से इकट्ठा होने, दंगा करने, सरकारी काम में बाधा डालने और सार्वजनिक संपत्ति को नुक़सान पहुंचाने के आरोप थे. एक सुरक्षा अधिकारी के मुताबिक़, "स्थिति अब सामान्य है, लेकिन बल अभी भी अलर्ट पर हैं".
कुकी नेता का घर फूंका
मणिपुर के चुराचांदपुर जिले में तनाव उस समय बढ़ गया, जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की यात्रा के अगले ही दिन उग्र भीड़ ने कुकी नेता कैल्विन आईखेनथांग के घर को आग के हवाले कर दिया. अधिकारियों ने सोमवार को बताया कि कुकी नेशनल ऑर्गनाइजेशन (केएनओ) के नेता आईखेनथांग के आवास को रविवार देर रात आग लगा दी गई. “डेक्कन क्रानिकल” के अनुसार, केएनओ केंद्र के साथ सस्पेंशन ऑफ ऑपरेशन्स समझौते का हस्ताक्षरकर्ता है. कुकी नेता गिंजा वुआलजोंग, जो कुकी जो काउंसिल (केजेडसी) और इंडिजिनस ट्राइबल लीडर्स फोरम (आईटीएलएफ) के प्रवक्ता हैं, के घर को भी उपद्रवियों ने निशाना बनाया, लेकिन स्थानीय लोगों के समय रहते हस्तक्षेप करने से घर में आग लगने से बचा लिया गया.
इस बीच, नागरिक समाज समूह कुकी-जो काउंसिल (केजेडसी) ने सोमवार को स्पष्ट किया कि उसने एनएच-2 को फिर से खोलने की घोषणा नहीं की है और इस मार्ग पर मुक्त आवाजाही की अनुमति नहीं दी गई है.
हिंसा से पीड़ित और मन से घायल लोगों को विकास मिथक की तरह सुकून देगा?
इंडियन एक्सप्रेस में खाम खान सुआन हौसिंग ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के मणिपुर दौरे पर अपनी टिप्पणी लिखी है. वे हैदराबाद विश्वविद्यालय में राजनीति विज्ञान विभाग के प्रोफेसर और पूर्व प्रमुख हैं. वह सामाजिक विज्ञान संस्थान, नई दिल्ली में सेंटर फॉर मल्टीलेवल फेडरलिज्म के सीनियर फेलो भी हैं. लेख के कुछ अंश.
123 सप्ताह से अधिक समय तक राज्य से मुंह मोड़ने के बाद, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने आखिरकार 13 सितंबर को मणिपुर का दौरा किया. यह कि उन्होंने दो साल से अधिक की हिंसा से विभाजित और घायल दो समुदायों को संबोधित करने के लिए चुराचांदपुर में पीस ग्राउंड और इंफाल में कांगला किले का दौरा करना चुना, यह प्रतीकात्मक है और सही राजनीतिक संदेश देता है. हाल की स्मृति में सबसे प्रतीक्षित यात्राओं में से एक के अनुरूप, मोदी ने चुराचांदपुर में राज्य के लिए 7,300 करोड़ रुपये से अधिक की 19 विकास परियोजनाओं का अनावरण किया.
यह तथ्य कि प्रधानमंत्री ने भारी बारिश का सामना करते हुए सड़क मार्ग से चुराचांदपुर का दौरा किया, उनके राजनीतिक संकल्प को दर्शाता है. हालांकि, विकास पर उनके अत्यधिक जोर और मणिपुर में दो साल से अधिक की हिंसा को हल करने के लिए एक राजनीतिक रोडमैप तैयार करने में स्पष्ट विफलता को दोनों तरफ एक गंवाए हुए अवसर के रूप में देखा जा रहा है. इस मायने में, उन परिवारों के सदमे के बारे में एक निश्चित अनुपस्थिति प्रतीत होती है, जिन्होंने अपने प्रियजनों को खो दिया है और हजारों आंतरिक रूप से विस्थापित व्यक्तियों की पीड़ा को कम करके आंका गया है जो राज्य भर के विभिन्न राहत केंद्रों में अमानवीय परिस्थितियों में रहना जारी रखे हुए हैं.
पीएम मोदी के प्रति निष्पक्ष होने के लिए, विकास को हमेशा एक बड़े समतावादी और स्थानिक सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक समस्याओं को हल करने के लिए एक रामबाण के रूप में देखा गया है. चुराचांदपुर और इंफाल में पीएम मोदी के भाषण के बारे में जो बात अचूक है, वह उन विकास परियोजनाओं की रीपैकेजिंग है जो कुछ समय से काम कर रही हैं. हालांकि, गहरी जांच करने पर, ये परियोजनाएं दो समस्याओं में डूबी हुई हैं: पहला, वे ऊपर से नीचे के तरीके से कार्य करने की राज्य की प्रवृत्ति को प्रदर्शित करती हैं. दूसरा, इन परियोजनाओं के अनावरण ने राज्य के विकास पूर्वाग्रह को भी मजबूत किया है, क्योंकि ऐतिहासिक रूप से, विकास परियोजनाओं का बड़ा हिस्सा घाटी क्षेत्रों में केंद्रित रहा है.
इन परियोजनाओं के अनपेक्षित परिणामों में से एक राज्य में संरचनात्मक और जातीय दोष रेखाओं का फिर से खींचा जाना हो सकता है. परियोजनाएं समुदायों की शक्ति और संसाधनों तक असमान पहुंच को बढ़ा सकती हैं. उदाहरण के लिए, वे कुकी-ज़ोमी-हमार समूहों की सौदेबाजी की शक्ति को कमज़ोर कर सकती हैं, अन्याय की मौजूदा संरचनाओं - राजनीतिक और आर्थिक - को बनाए रख सकती हैं, और उनकी असमान नागरिकता को मजबूत कर सकती हैं.
पीएम मोदी ने अपनी लंबे समय से लंबित मणिपुर यात्रा द्वारा प्रस्तुत राजनीतिक अवसर का लाभ उठाकर शांति, विकास और विश्वास की आपसी पूरकता पर एक स्पष्ट राजनीतिक रोडमैप तैयार कर सकते थे. अपनी चुप्पी में, उन्होंने विकास पर अपनी प्राथमिकता और राजनीतिक दिखावे को सही करने का खुलासा किया. यह देखा जाना बाकी है कि क्या विकास, जैसा कि अर्थशास्त्री वोल्फगैंग सैक्स तर्क देते हैं, "एक मिथक के रूप में काम कर सकता है जो समाजों को सुकून देता है," जो पहले से ही दो साल से अधिक की हिंसा से पीड़ित और मनोवैज्ञानिक रूप से घायल हैं.
जाति-आधारित भेदभाव से निपटने के लिए सुप्रीम कोर्ट ने यूजीसी को आठ हफ़्ते की समय सीमा दी
सुप्रीम कोर्ट ने सोमवार (15 सितंबर, 2025) को विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (यूजीसी) को निर्देश दिया कि वह उच्च शिक्षा परिसरों में जाति-आधारित भेदभाव से निपटने के लिए हितधारकों से प्राप्त सुझावों पर विचार करे और उन्हें आठ सप्ताह के भीतर विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (उच्च शिक्षा संस्थानों में समानता का संवर्धन) विनियम, 2025 में शामिल करे.
जस्टिस सूर्यकांत और जस्टिस जयमाल्य बागची की बेंच छह साल पहले रोहित वेमुला और पायल तडवी की माताओं द्वारा दायर एक याचिका पर सुनवाई कर रही थी. वरिष्ठ वकील इंदिरा जयसिंह और वकील प्रसन्ना एस. और दिशा वाडेकर द्वारा प्रतिनिधित्व की गई इस याचिका में विश्वविद्यालयों में "व्यापक" जातिगत भेदभाव के ख़िलाफ़ तत्काल उपायों की मांग की गई थी, जिसके कारण उनके बच्चों की जान चली गई थी. हैदराबाद सेंट्रल यूनिवर्सिटी के पीएचडी स्कॉलर रोहित वेमुला और टी.एन. टोपीवाला नेशनल मेडिकल कॉलेज की आदिवासी छात्रा पायल तडवी ने कैंपस में जाति-आधारित पूर्वाग्रह का सामना करने के बाद क्रमशः जनवरी 2016 और मई 2019 में आत्महत्या कर ली थी.
केंद्र सरकार की ओर से पेश सॉलिसिटर-जनरल तुषार मेहता ने अदालत को सूचित किया कि 2025 के विनियमों पर लगभग 391 सुझाव प्राप्त हुए हैं. उन्होंने कहा कि गुजरात में महाराजा कृष्णकुमार सिंहजी भावनगर विश्वविद्यालय के पूर्व कुलपति शैलेश एन. ज़ाला की अध्यक्षता में यूजीसी द्वारा नियुक्त एक विशेषज्ञ समिति सुझावों की जांच कर रही है और उन्हें विचार के लिए यूजीसी को भेज दिया है.
याचिकाकर्ताओं की ओर से पेश सुश्री जयसिंह ने अदालत से कहा कि मांगे गए उपायों को संबोधित करने में अत्यधिक देरी हुई है और इस बीच कई छात्रों ने आत्महत्या कर ली है. उन्होंने कहा, "इस याचिका का ध्यान विशेष रूप से जाति-आधारित भेदभाव पर है. कैंपस भेदभाव से संबंधित सुप्रीम कोर्ट के पहले के फैसले जाति के संबंध में तटस्थ थे. मेरी रुचि इलाज से ज़्यादा रोकथाम में है."
बेंच ने यूजीसी को कई सिफ़ारिशों की जांच करने का निर्देश दिया. इनमें अनुशासनात्मक परिणामों के साथ सभी प्रकार की भेदभावपूर्ण प्रथाओं पर स्पष्ट प्रतिबंध, छात्रावासों और कक्षाओं में अलगाव पर रोक, और धन के वितरण में देरी के माध्यम से उत्पीड़न को रोकने के लिए एक डिजिटल छात्रवृत्ति प्रणाली शामिल है. अदालत ने यूजीसी से ऐसी शिकायत समितियां स्थापित करने पर भी विचार करने को कहा, जिनके कम से कम आधे सदस्य अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति और अन्य पिछड़ा वर्ग समुदायों से हों.
मनुस्मृति फाड़ने का मामला: अलीगढ़ कोर्ट ने पुलिस की क्लोज़र रिपोर्ट खारिज की
उत्तर प्रदेश के अलीगढ़ ज़िले की एक अदालत ने राष्ट्रीय जनता दल (RJD) की प्रवक्ता प्रियंका भारती के ख़िलाफ़ दायर की गई प्रथम सूचना रिपोर्ट (FIR) में पुलिस द्वारा जमा की गई क्लोज़र रिपोर्ट को हाल ही में खारिज कर दिया. प्रियंका भारती पर टीवी पर एक लाइव बहस के दौरान हिंदू ग्रंथ मनुस्मृति के पन्ने फाड़ने का आरोप है.
अलीगढ़ की अतिरिक्त मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट, राशि तोमर ने 6 सितंबर को पुलिस को मामले में आगे की जांच करने और एक नई रिपोर्ट सौंपने का निर्देश दिया. अदालत का यह आदेश राष्ट्रीय सवर्ण परिषद के सचिव भरत तिवारी द्वारा दायर एक विरोध याचिका पर आया.
दिसंबर 2024 में दर्ज अपनी शिकायत में श्री तिवारी ने आरोप लगाया था कि सुश्री भारती ने लाइव टेलीविज़न पर पवित्र मनुस्मृति को फाड़कर उसका गंभीर अपमान किया है, जिससे हिंदू समुदाय के सदस्यों की धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुंची है. श्री तिवारी ने आरोप लगाया कि सुश्री भारती ने देश भर में दंगे भड़काने के लिए मनुस्मृति पर झूठी जानकारी दी थी. उन्होंने कहा कि इस घटना का वीडियो टीवी और मोबाइल प्लेटफ़ॉर्म के माध्यम से व्यापक रूप से प्रसारित हुआ था.
याचिकाकर्ता की शिकायत पर, अलीगढ़ पुलिस ने सुश्री भारती के ख़िलाफ़ भारतीय न्याय संहिता की धारा 299 (धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुंचाने के इरादे से जानबूझकर और दुर्भावनापूर्ण कार्य) के तहत मामला दर्ज किया था. अपनी विरोध याचिका में श्री तिवारी ने आरोप लगाया कि जांच अधिकारी ने सुश्री भारती के प्रभाव में आकर "अपने कानूनी विवेक का इस्तेमाल नहीं किया" और एक मशीनी तरीके से यह कहते हुए क्लोज़र रिपोर्ट दायर कर दी कि घटना दिल्ली में हुई थी और अलीगढ़ में कोई अपराध नहीं हुआ था.
सुश्री भारती ने भी इस साल की शुरुआत में अपने ख़िलाफ़ FIR को रद्द करने की मांग करते हुए इलाहाबाद हाई कोर्ट का दरवाज़ा खटखटाया था. हाई कोर्ट ने कहा था कि मनुस्मृति एक पवित्र ग्रंथ है और इसे लाइव टीवी बहस में फाड़ना एक दुर्भावनापूर्ण इरादे को दर्शाता है. जस्टिस विवेक कुमार बिड़ला और जस्टिस अनीश कुमार गुप्ता की बेंच ने कहा, "हम पाते हैं कि दो टीवी चैनलों द्वारा आयोजित एक लाइव टीवी बहस में एक विशेष धर्म की पवित्र पुस्तक 'मनुस्मृति' के पन्ने फाड़ने का कार्य प्रथम दृष्टया याचिकाकर्ता के दुर्भावनापूर्ण और जानबूझकर किए गए इरादे का प्रतिबिंब है, और यह बिना किसी कानूनी बहाने या बिना किसी उचित कारण के किया गया एक कृत्य है."
वंतारा को सुप्रीम कोर्ट से क्लीन चिट
सुप्रीम कोर्ट ने आज (15 सितंबर) यह संज्ञान लिया कि गुजरात के जामनगर में रिलायंस फाउंडेशन द्वारा संचालित वंतारा (ग्रीन्स ज़ूलॉजिकल रेस्क्यू एंड रिहैबिलिटेशन सेंटर) में जानवरों का अधिग्रहण प्रारंभिक रूप से नियामक तंत्र के भीतर है. कोर्ट द्वारा गठित एसआईटी ने विभिन्न आरोपों की जांच की, जिसमें यह भी शामिल था कि भारत और विदेश से जानवरों के अधिग्रहण में सभी कानूनों का पालन किया गया है या नहीं, खासकर हाथियों के मामले में, और जांच में कोई अनुचित कृत्य नहीं पाया गया.
“लाइव लॉ” के मुताबिक, कोर्ट ने कहा कि उसे रिपोर्ट में दिए गए निष्कर्ष को स्वीकार करने में कोई हिचकिचाहट नहीं है. क्योंकि एसआईटी द्वारा किसी भी कानून के उल्लंघन की रिपोर्ट नहीं की गई है, इसलिए शिकायतें, विशेषकर वे जो रिपोर्ट के सारांश में अनुसूची 'ए' में सूचीबद्ध हैं, बंद मानी जाती हैं.
जस्टिस पंकज मित्तल और जस्टिस पी.बी. वराले की बेंच ने कहा कि उन्होंने जानबूझकर पूर्व जस्टिस जे. चेलमेश्वर की अध्यक्षता वाली एसआईटी द्वारा प्रस्तुत रिपोर्ट को पहले से नहीं पढ़ा, क्योंकि वे इसे सुनवाई के दौरान देखना चाहते थे.
सड़क पर झगड़े के बाद अगवा ट्रक चालक पूर्व आईएएस प्रोबेशनर पूजा खेड़कर के घर पर बरामद, नया विवाद
नवी मुंबई में सड़क पर हुए झगड़े के बाद अपहृत एक ट्रक चालक को पुलिस ने पूर्व आईएएस प्रोबेशनर पूजा खेड़कर के पुणे स्थित घर से बरामद किया. पुलिस के अनुसार, ट्रक चालक 22 वर्षीय प्रहलाद कुमार को एक एसयूवी सवार युवक पुलिस स्टेशन के बहाने उस समय जबरन ले गए थे, जब उसका वाहन उनकी गाड़ी से टकरा गया था. एक अधिकारी ने बताया, “हमने ट्रक चालक और वाहन को पुणे में पूजा खेड़कर के एक बंगले में ट्रेस किया. शुरुआती विरोध के बावजूद पुलिस टीम ने घर में प्रवेश कर पीड़ित को सुरक्षित बाहर निकाला.”
“पीटीआई” के अनुसार, इस दौरान खेड़कर की मां ने टीम को घर में घुसने से रोकने की कोशिश की और बहस की. पहले से ही यूपीएससी में ओबीसी और दिव्यांग कोटे के दुरुपयोग तथा धोखाधड़ी के आरोपों का सामना कर रहीं खेड़कर का नाम अब इस नए विवाद से भी जुड़ गया है.
पंजाब बाढ़ 2025 : डाउन टू अर्थ ने पूछे 7 सवाल
पंजाब इस समय करीब चार दशकों में सबसे गंभीर बाढ़ का सामना कर रहा है. 1,900 से अधिक गांव जलमग्न हो चुके हैं, लगभग 3 लाख एकड़ कृषि भूमि पानी में डूब गई है, 50 से अधिक लोगों की मौत हो चुकी है, और लाखों लोग सीधे प्रभावित हुए हैं. यह बाढ़ 1988 की तबाही के बाद की सबसे विनाशकारी मानी जा रही है. जबकि इसे मात्र एक प्राकृतिक आपदा माना जा रहा है, यह समझना महत्वपूर्ण है कि सरकार, बांध प्रबंधन, और संरचनात्मक योजना में मानवीय गलतियों ने पंजाब की वर्तमान गंभीर स्थिति में कितना योगदान दिया है. “डाउन टु अर्थ” में हरिंदर हैप्पी और निशीता सूद ने “पूरी व्यवस्था” के सम्मुख 7 सवाल उठाए हैं :
(1) पंजाब या हिमाचल प्रदेश में क्यों एक भी बाढ़ नियंत्रण बांध नहीं बनाया गया?
पंजाब के आसपास के सभी बांध, जैसे रंजीत सागर, भाखड़ा, और पोंग, मुख्य रूप से नहर जलाशय और बिजली उत्पादन के लिए बने हैं तथा इनकी बाढ़ रोकने की क्षमता नहीं है. बड़े बांधों से अचानक जल निकासी से नदियों और नीचे के समुदायों को भारी नुकसान होता है. हाल के वर्षों के रुझानों को देखते हुए, सतलज, बीस, रावी, और घग्गर नदियों पर बाढ़ नियंत्रण बांध और छोटे बांध बनाए जाने चाहिए थे. इसके बावजूद राज्य ने ऐसी कोई संरचनात्मक योजना नहीं बनाई, जिससे इस संकट को कम किया जा सके.
(2) पंजाब में कोई नवीनतम आपदा प्रबंधन योजना क्यों नहीं है?
राज्य आपदा प्रबंधन प्राधिकरण की वेबसाइट पर उपलब्ध नवीनतम योजना 2011 की है. जिला स्तर की योजनाएं भी अपडेट नहीं हैं. यह 2005 के आपदा प्रबंधन अधिनियम का उल्लंघन है, जो स्थानीय परिस्थिति के आधार पर योजनाएं बनाकर आपदा से बचाव सुनिश्चित करता है.
(3) बांधों में पानी के स्तर, गेट खोलने और जल आवागमन का डेटा सार्वजनिक क्यों नहीं किया गया?
बांध सुरक्षा अधिनियम, 2021 के धारा 35(ई) के अनुसार यह जानकारी सार्वजनिक करनी अनिवार्य है, लेकिन नियमित बुलेटिन जारी नहीं किए गए. 2023 की बाढ़ में यह डेटा उपलब्ध था और कई अनियमितताएं पाई गईं, लेकिन इस साल भाखड़ा ब्यास प्रबंधन बोर्ड (बीबीएमबी) ने कोई जानकारी जारी नहीं की.
(4) पंजाब सरकार ने बाढ़ से संबंधित महत्वपूर्ण सूचना जैसे बांध का जल स्तर, नदियों का जल स्तर, बाढ़ में जान-माल का नुकसान, प्रभावित गांवों की स्थिति, और आगामी बारिश का पूर्वानुमान प्रेस ब्रीफिंग या नियमित बुलेटिन क्यों नहीं जारी किए? अधिकांश जानकारी निजी चैनलों, समाचार पत्रों और सोशल मीडिया माध्यमों से आ रही है. कोविड-19 संकट की तरह एक केंद्रीकृत सरकारी सूचना मंच होना चाहिए था, जहां रोजाना प्रेस ब्रीफिंग के जरिए जनता को सूचित किया जाता.
(5) बीबीएमबी में पंजाब की हिस्सेदारी क्यों कम की गई है, जबकि इसका राज्य पर प्रभाव सीधा है? केंद्र सरकार ने डैम सुरक्षा अधिनियम, 2021 के तहत पंजाब की हिस्सेदारी घटाई, जिसका किसानों ने विरोध किया था. 2023 में द्रव्यमान बढ़ने पर जल निकासी देरी से हुई, जिससे नदियां अचानक उफान पर आईं और व्यापक नुकसान हुआ. साथ ही, बीबीएमबी में मानव संसाधन की गंभीर कमी है, जो बांध प्रबंधन की दक्षता को प्रभावित करती है.
(6) पंजाब के सिंचाई मंत्री ने विधानसभा में जब बार-बार यह कहा कि बाढ़ का खतरा नहीं है, तब आज इतनी तबाही क्यों है? मंत्री ने 2023 के जल स्तर का पिछले वर्षों से तुलना की, लेकिन जलवायु परिवर्तन को नजरअंदाज कर दिया गया. जुलाई में भारी बारिश की चेतावनी के बावजूद ऐसी रिपोर्ट देकर जनता को झूठी सुरक्षा दी गई, जिससे वे बिना तैयारी के आपदा का सामना करने लगे.
(7) यह आपदा राष्ट्रीय आपदा क्यों घोषित नहीं की गई?
1,500 से अधिक गांव डूब चुके हैं, लाखों एकड़ फसल बर्बाद हो गई है, और हजारों परिवार बेघर हुए हैं, तब भी केंद्र सरकार और राष्ट्रीय मीडिया से इस पर पर्याप्त ध्यान नहीं मिल रहा. पंजाब सरकार ने नहरों, नालों और जल निकास के उचित रख-रखाव में विफलता क्यों दिखाई? अवैध खनन अभी भी नदियों के किनारे गैरकानूनी रूप से जारी है, जिससे समस्या और बढ़ रही है. प्राकृतिक जल प्रवाह का हस्तक्षेप भारी नुकसान पहुंचा रहा है और नदियों के मार्गों को बहाल करना आवश्यक है.
बाढ़ के बाद की स्थिति
बाढ़ के बाद का समय अक्सर बाढ़ से भी अधिक चुनौतीपूर्ण होता है. लगभग 3 लाख एकड़ क्षेत्र में लगी वर्तमान धान की फसल नष्ट हो चुकी है, जो किसानों के साथ-साथ भारत की खाद्य सुरक्षा और कृषि निर्यात के लिए गंभीर चिंता का विषय है. गेहूं की अगली फसल भी इस क्षेत्र में भारी बालू, मैदानी अवसाद और जलभराव के कारण प्रभावित हो सकती है. किसानों को अपने खेतों से बालू निकालकर उसे बेचने की अनुमति दी जानी चाहिए, ताकि वे नुकसान की कुछ भरपाई कर सकें और खेत फिर से उपजाऊ बन सकें. पंजाब में व्यापक फसल बीमा योजना नहीं है, और वर्तमान मुआवजा दरें भी पर्याप्त नहीं हैं. केंद्र सरकार से प्रति एकड़ 50,000 रुपये के मुआवजे की मांग की गई है जो कम नहीं होनी चाहिए.
किसानों के अलावा गैर-कृषक परिवारों जैसे भूमि रहित मजदूरों, दैनिक वेतनभोगियों और ग्रामीण कारीगरों को भी मुआवजा मिलना चाहिए. राज्य सरकार को पंचायतों और स्थानीय निकायों की मदद से सभी को उचित मुआवजा सुनिश्चित करना चाहिए.
केंद्र सरकार ने पंजाब के कई फंड रोक रखे हैं, जिन्हें तुरंत जारी कर देना चाहिए, साथ ही इस बाढ़ के लिए विशेष राहत पैकेज भी देना जरूरी है. प्रभावित क्षेत्र खासतौर पर पाकिस्तानी सीमा के पास हैं, जहां लोग पहले से असमंजस में हैं. यह आपदा सिर्फ प्राकृतिक नहीं बल्कि मानवीय लापरवाही और सरकार की विफलता का नतीजा है. अब जिम्मेदारियां टालने के बजाय जनता सत्य, पारदर्शिता और न्याय की मांग करती है.
बिहार एसआईआर पर हमारा फैसला पूरे देश में लागू होगा: सुप्रीम कोर्ट
सुप्रीम कोर्ट ने सोमवार (15 सितंबर 2025) को कहा कि वह इस मुद्दे पर "टुकड़ों-टुकड़ों में राय" नहीं देना चाहता और बिहार में चल रही चुनाव आयोग की विशेष गहन पुनरीक्षण (एसआईआर) प्रक्रिया पर उसका फैसला पूरे देश में लागू होगा. जस्टिस सूर्यकांत और जस्टिस जॉयमाल्या बागची की बेंच ने कहा, “बिहार एसआईआर पर हमारा फैसला पूरे भारत के एसआईआर पर लागू होगा.” साथ ही, अदालत ने यह भी स्पष्ट किया कि वह चुनाव आयोग को देशभर में ऐसी प्रक्रिया चलाने से रोक नहीं सकती.
सत्य प्रकाश की रिपोर्ट के अनुसार, बेंच ने बिहार एसआईआर प्रक्रिया को चुनौती देने वाली याचिकाओं को 7 अक्टूबर को अंतिम बहस के लिए सूचीबद्ध किया. अदालत ने कहा कि उसका यह अनुमान है कि चुनाव आयोग, जो एक संवैधानिक प्राधिकारी है, बिहार में एसआईआर के दौरान कानून का पालन कर रहा होगा. बेंच ने चेतावनी भी दी कि अगर किसी भी चरण पर कोई अवैधता पाई गई, तो बिहार में पूरी एसआईआर प्रक्रिया को रद्द कर दिया जाएगा.
याचिकाकर्ताओं ने आग्रह किया कि इस मामले को 1 अक्टूबर से पहले सुना जाए, क्योंकि उस दिन बिहार की अंतिम मतदाता सूची प्रकाशित होने वाली है. लेकिन बेंच ने इस अनुरोध को ठुकरा दिया और कहा, “इससे हमें क्या फर्क पड़ेगा? यदि हमें लगेगा कि कोई अवैधता हुई है, तो हम कार्रवाई कर सकते हैं.”
पंजाब का युवा रूसी सेना में जबरन भर्ती, अब ‘मौत की कगार पर’: परिवार मदद की गुहार लगा रहा
पंजाब के मोगा ज़िले के 25 वर्षीय बूटा सिंह के रूस जाने के लगभग एक साल बाद, कथित वीडियो सामने आए हैं, जिनमें वह रूसी सेना की वर्दी पहने दिखाई दे रहा है और भारत सरकार से खुद को वहां से निकालने की बेताबी से अपील कर रहा है.
मोगा ज़िले के धरमकोट का निवासी बूटा सिंह एक एजेंट के ज़रिये रूस गया था. परिवार का कहना है कि उपयुक्त नौकरी पाने की उम्मीद में उसने केवल 3.50 लाख रुपये देकर रूस का रास्ता लिया, लेकिन उसे जबरन रूसी सेना में भर्ती कर यूक्रेन युद्ध में झोंक दिया गया. परिवार के मुताबिक, पंजाब के कई युवा पढ़ाई के नाम पर वीज़ा लेकर विदेश जाते हैं पर उनका असली उद्देश्य काम-धंधा तलाशना होता है, ताकि घर पर संघर्ष कर रहे परिवार की आर्थिक मदद कर सकें.
“द इंडियन एक्सप्रेस” से बातचीत में उसकी बहन करमजीत कौर ने बताया कि वह पिछले साल दिल्ली के एक एजेंट के माध्यम से रूस गया था, जिससे उसकी पहचान यूट्यूब के ज़रिये हुई थी. करमजीत कौर ने कहा, “हमें हाल ही में पता चला कि उसे जबरन युद्ध के मैदान में भेजकर रूसी सेना में भर्ती कर लिया गया है. उसे किसी भी हथियार का इस्तेमाल करना नहीं आता. वह मौत की कगार पर है. हम केंद्र और पंजाब सरकार से अपील करते हैं कि उसे वापस लाया जाए.”
विभिन्न मीडिया रिपोर्टों के मुताबिक कथित वीडियो में बूटा सिंह चार अन्य लोगों के साथ दिखाई दे रहा है, जो खुद को हरियाणा और जम्मू-कश्मीर के निवासी बताते हैं. उनमें से एक व्यक्ति कहते हुए सुनाई देता है- “हम मॉस्को आए थे, जहां हमारी मुलाकात एक महिला से करवाई गई. उसने दावा किया था कि कंप्यूटर ऑपरेटर, ड्राइवर जैसी छोटी-मोटी नौकरियों के लिए रिक्तियां हैं. हमें केवल इन्हीं नौकरियों में दिलचस्पी थी. हमारे दस्तावेज़ ले लिए गए और हमें आकर्षक तनख्वाह का लालच दिया गया.”
पैगंबर मोहम्मद और कुरान के खिलाफ पोस्ट, 200 लोगों पर मामला
उत्तरप्रदेश के शाहजहांपुर में पुलिस ने जुमे के दिन पैगंबर मोहम्मद और कुरान के खिलाफ आपत्तिजनक सोशल मीडिया पोस्ट को लेकर भड़के विरोध प्रदर्शन के सिलसिले में 200 अज्ञात लोगों के खिलाफ मामला दर्ज किया है. यह कदम उस समय उठाया गया, जब पुलिस ने 45 वर्षीय एक व्यक्ति को पैगंबर मोहम्मद और कुरान के खिलाफ अपमानजनक सोशल मीडिया पोस्ट करने पर गिरफ्तार किया. "पीटीआई” के मुताबिक, गिरफ्तारी के तुरंत बाद कई लोग थाने में घुसने की कोशिश करने लगे और नारेबाजी की. विरोध प्रदर्शन हिंसक हो गया और प्रदर्शनकारियों ने दो दोपहिया वाहनों में आग लगा दी. पुलिस की यह समझाने की कोशिशों के बावजूद कि ऐसे पोस्ट करने वाला व्यक्ति गिरफ्तार किया जा चुका है, आंदोलनकारी पीछे नहीं हटे.
“स्काई” ने सोचा होगा, हाथ न मिला के लोकप्रिय हो जाएंगे, पर आलोचना हो रही है
सूर्यकुमार यादव, जिन्हें “स्काई” के नाम से जाना जाता है, ने सोचा होगा कि दुबई में एशिया कप के मुकाबले के बाद जब उन्होंने और उनकी टीम ने हार चुकी पाकिस्तानी टीम से हाथ मिलाए बिना मैदान छोड़ दिया, तो वह बेहद लोकप्रिय हो जाएंगे. लेकिन सोशल मीडिया पर उनकी कड़ी आलोचना हो रही है. आम धारणा यह है कि मैच खेलकर और अपनी फीस लेकर उनका यह रुख, जिसे पहलगाम नरसंहार के पीड़ितों के समर्थन में बताया जा रहा है, पाखंडपूर्ण लगता है.
बीसीसीआई, जिसने टीम को पाकिस्तान के खिलाफ खेलने की अनुमति दी, उस पर भी जमकर निशाना साधा गया है. भाजपा सरकार, जो आमतौर पर अतिराष्ट्रवाद का झंडा उठाने से कभी नहीं चूकती, दावा कर रही है कि यह निर्णय इसलिए लिया गया, क्योंकि यह बहुपक्षीय टूर्नामेंट था. लेकिन कोई भी प्रशंसक बताएगा कि यह एशिया कप टूर्नामेंट इतना महत्वपूर्ण नहीं माना जाता.
टिप्पणीकार भी यादव के फैसले से हैरान हैं. पत्रकार पीटर लालोर ने भी लिखा—“भारत का एक शत्रुतापूर्ण पड़ोसी के साथ खेल आयोजनों में भाग लेने से हिचकना समझा जा सकता है, लेकिन जब भी दोनों टीमें मैदान पर भिड़ीं, तब तक एक साझा मानवीय भावना और कभी-कभी सहानुभूति भी दिखी है—कम से कम अब तक.”
इस बीच, पाकिस्तान ने भारत के इस रवैये के खिलाफ आधिकारिक विरोध दर्ज कराया है. दिलचस्प यह है कि टूर्नामेंट में आगे चलकर दोनों टीमें फिर से आमने-सामने हो सकती हैं. तब क्या होगा?
टिप्पणी
अपूर्वानंद : कैंपस की हवा में नफ़रत का ज़हर
लेडी श्री राम (एलएसआर) कॉलेज के छात्रों के निजी चैट ग्रुप ग़ुस्से और घृणा से भरे पड़े हैं. पूर्व छात्र भी बहुत ज़्यादा परेशान हैं. उनका आक्रोश उनके कॉलेज में राजनीति विज्ञान विभाग द्वारा आयोजित एक कार्यक्रम से उपजा है, जहां एक पूर्व राजनयिक, दीपक वोहरा ने स्त्री-द्वेष, जातीय पूर्वाग्रह और भद्दी सांप्रदायिकता से भरा भाषण दिया. उनके भाषण का ब्योरा पढ़ना घिनौना है. यह लगभग अविश्वसनीय लगता है कि देश के बेहतरीन शिक्षण केंद्रों में से एक माने जाने वाले संस्थान के मंच से ऐसे बयान दिए जा सकते हैं. कल्पना कीजिए: एक तथाकथित सम्मानित वक्ता ख़ुद को "मोदी का चमचा, महा चमचा" घोषित कर रहा हो, मुसलमानों का मज़ाक उड़ा रहा हो, महिलाओं के लिए अश्लील भाषा का इस्तेमाल कर रहा हो, और प्रिंसिपल भी सहमति में तालियां बजा रही हों और नाच रही हों. इससे ज़्यादा अपमानजनक और क्या हो सकता है.
फिर भी जो बात ज़्यादा गहरी चुभती है, वह है दर्शकों की प्रतिक्रिया. हंसी, तालियां, नफ़रत फैलाने वाले वक्ता के साथ तस्वीरें लेने और ऑटोग्राफ़ मांगने के लिए मची होड़—इन सबने भाषण से ज़्यादा ज़ख़्म दिए. यह सच है कि अब तक दिल्ली विश्वविद्यालय और अन्य संस्थान अक्सर ऐसे वक्ताओं को आमंत्रित करते हैं जो जातीय नफ़रत, सांप्रदायिक ज़हर और कट्टरता फैलाते हैं.
अब हम ज़्यादातर प्रशासकों, शिक्षकों और अधिकार के पदों पर बैठे लोगों से नैतिक या पेशेवर ईमानदारी की उम्मीद नहीं करते. उनका पतन हमें दुखी भले ही करता हो, पर अब हमें हैरान नहीं करता. जो चौंकाने वाला है, वह है युवा मन का भ्रष्ट होना. यह कैसे संभव है कि एक महिला कॉलेज के अधिकारियों ने अपने परिसर में स्त्री-द्वेषपूर्ण गालियों की अनुमति देने की हिम्मत की. ऐसा कैसे हुआ कि हॉल ने ज़ोरदार हूटिंग और विरोध के बजाय सहमति भरी तालियों से जवाब दिया.
हमें बताया गया है कि कॉलेज के भीतर से असहमति की आवाज़ें उठी हैं. छात्र अपने निजी व्हाट्सएप ग्रुप में ग़ुस्सा और घृणा व्यक्त कर रहे हैं. पूर्व छात्र निंदा के बयान जारी कर रहे हैं. वे इस बात पर ज़ोर देते हैं कि यह अकल्पनीय है कि छात्रों ने वास्तव में ऐसी गंदगी की प्रशंसा की हो. और फिर भी, तथ्य यह है: जब वोहरा ने ताना मारा कि अगर उनका नाम "दीपक मोहम्मद" होता, तो उनकी चार पत्नियां हो सकती थीं और प्रिंसिपल उनमें से एक हो सकती थीं, तो हॉल तालियों से गूंज उठा. कोई भी छात्र आपत्ति करने के लिए खड़ा नहीं हुआ. कोई शिक्षक भी नहीं. और न ही प्रिंसिपल.
यह याद रखने लायक़ है कि कुछ समय पहले, इसी कॉलेज ने अपनी ही पूर्व छात्रा और प्रोफ़ेसर, निवेदिता मेनन को कैंपस में प्रवेश करने से रोक दिया था क्योंकि उसने घोषणा की थी कि संस्थान "अराजनीतिक" है. क्या वोहरा का अश्लील, नफ़रत भरा प्रदर्शन अराजनीतिक था. या इसे "सांस्कृतिक राष्ट्रवादी" के भाषण के रूप में माफ कर दिया जाएगा. ऐसा लगता है कि जो कोई भी कुछ भी कह सकता है और उसे हेट स्पीच नहीं माना जाता है.
अश्लीलता और भद्देपन के ऐसे प्रदर्शन कैंपस में आम हो गए हैं. कभी-कभी, इस उदाहरण की तरह, वे शालीनता की हर सीमा को पार कर जाते हैं. कहीं और, वे राष्ट्रवाद की भाषा बोलते हुए एक ज़्यादा परिष्कृत चेहरा पहनते हैं. लेकिन सामग्री वही रहती है: संकीर्णता, आक्रामकता और शत्रुता. एलएसआर की इस रिपोर्ट के साथ, मिरांडा हाउस के एक कार्यक्रम के बारे में पढ़ा जाता है, जिसे एक हिंदी दैनिक द्वारा आयोजित किया गया था, जहां मंच विशेष रूप से आरएसएस और भाजपा के नेताओं और प्रवक्ताओं को दिया गया था, जिसमें किसी अन्य विश्वास प्रणाली के लिए कोई जगह नहीं थी. क्या किसी कॉलेज को ऐसे अख़बार के साथ सहयोग करना चाहिए जो मुस्लिम विरोधी नफ़रत का सक्रिय प्रचारक माना जाता है. कोई शिक्षण संस्थान ऐसी साझेदारी को कैसे उचित ठहरा सकता है जो उसके अपने ही छात्रों के एक वर्ग के लिए ख़तरा हो.
प्रशासकों का कर्तव्य यह सुनिश्चित करना है कि कैंपस हर छात्र, शिक्षक और कर्मचारी के लिए सुरक्षित रहें. इसके लिए साफ़ सीमाएं खींचने की ज़रूरत है. किसी भी समुदाय के ख़िलाफ़ नफ़रत या हिंसा भड़काने वाले भाषणों को कोई लाइसेंस नहीं दिया जा सकता. अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर ऐसे ज़हर के उपदेशक के रूप में जाने जाने वाले किसी भी व्यक्ति को आमंत्रित नहीं किया जा सकता. कुछ लोग इसे लोकतांत्रिक अधिकार का मामला बताकर इसका बचाव कर सकते हैं. लेकिन जब नफ़रत को बिना किसी चुनौती के प्रसारित किया जाता है, तो लक्षित समुदाय से संबंधित लोग चुप रहने के लिए मजबूर हो जाते हैं.
वे सार्वजनिक स्थान पर अदृश्य हो जाते हैं. यह स्वयं लोकतांत्रिक भागीदारी को सिकोड़ता है, इसे अलोकतांत्रिक बनाता है. प्रशासकों की पहली ज़िम्मेदारी परिसरों को सुरक्षित बनाना है. सुरक्षा से परे, उन्हें सभी के लिए आत्मविश्वास और आराम की जगह बनानी चाहिए. हर किसी को, विशेष रूप से उन लोगों को जो समाज में असुरक्षित महसूस करते हैं, उन्हें कैंपस में यह आश्वासन महसूस होना चाहिए कि यह एक सुरक्षित स्थान है जहां अधिकारी उनकी परवाह करते हैं.
हां, विश्वविद्यालयों को विविध आवाज़ें सुननी चाहिए. लेकिन सांप्रदायिकता या स्त्री-द्वेष का प्रचार करने वाला एक विविध दृष्टिकोण लोकतांत्रिक नहीं है; यह वास्तव में लोकतंत्र का गला घोंटता है. और जब ऐसा उस समय होता है जब असहमति को असंभव बना दिया गया है, तो यह बहस का विस्तार नहीं करता; यह उसे मार देता है.
कैंपस का मक़सद छात्रों को शिष्टाचार में प्रशिक्षित करना भी है; यहीं वे सभ्य भाषण और आचरण का अर्थ सीखते हैं. वे सीखते हैं कि कोई भी दूसरे का उसके शरीर, आस्था, भाषा या विश्वासों के लिए मज़ाक नहीं उड़ा सकता. महिलाओं, दलितों, मुसलमानों, ईसाइयों, या किसी भी समुदाय, विशेष रूप से जो कमज़ोर हैं, के ख़िलाफ़ अपमानजनक शब्दों की अनुमति नहीं है. यह सभ्य व्यवहार की न्यूनतम आवश्यकता है.
यदि कोई पिछले दशक की कैंपस की घटनाओं की जांच करे, तो एक पैटर्न उभरता है: राष्ट्रवाद के बैनर तले, संकीर्णता और आक्रामकता को वैध बनाया जा रहा है. वक्ता उस भाषा के उपयोग को भूल गए हैं और बदले में, छात्रों को भी यह भूलने के लिए प्रोत्साहित कर रहे हैं, जो समाज में अन्याय और उन लोगों की उपस्थिति के प्रति सचेत हो जो पीढ़ियों से ऐसे अन्याय का बोझ उठाकर जी रहे हैं. कैंपस का सार्वजनिक चेहरा तेज़ी से ऐसे लोगों से चिह्नित हो रहा है, जिन्हें किसी भी सभ्य समाज के मानकों के हिसाब से, इसके दरवाज़ों के बाहर रखा जाना चाहिए था.
प्रशासक इस क्षरण के लिए ज़िम्मेदार हैं. उन्होंने अशिष्टता के इस जुलूस का नेतृत्व करना चुना है. इससे भी ज़्यादा दुखद युवाओं की भागीदारी है. फिर समाज या देश के लिए क्या आशा बची है. आरएसएस में शामिल होने वाले छात्र इसे एक व्यावहारिक आवश्यकता के रूप में समझाते हैं: अनुसंधान या नौकरियों की सुविधा के लिए. शिक्षक भी अपने समझौतों को यह कहकर सही ठहराते हैं कि उन्हें पदोन्नति की आवश्यकता है. वे ज़ोर देकर कहते हैं कि वे ख़ुद सांप्रदायिक नहीं हैं, लेकिन ऐसे वक्ताओं का समर्थन करने के अलावा उनके पास कोई विकल्प नहीं है. लेकिन कोई इस तरह के तर्क से कैसे सहानुभूति रख सकता है. क्या शिक्षकों और प्रोफ़ेसरों को यह नहीं दिखता कि आरएसएस को वैधता देकर, वे एक ऐसे संगठन को मज़बूत कर रहे हैं जिसकी नींव ही मुसलमानों और ईसाइयों के प्रति नफ़रत और हिंसा पर आधारित है.
हो सकता है कि वे ख़ुद कभी किसी मुस्लिम दोस्त या छात्र पर हाथ न उठाएं, लेकिन जिस विचारधारा को वे कैंपस में खुली छूट दे रहे हैं, वह दूसरों को उस दोस्त को नुक़सान पहुंचाने के लिए उकसाती है. यदि संगठन के अनुयायी कैंपस में बीफ़ रखने के आरोप में किसी मुस्लिम छात्र के घर पर हमला करते हैं, तो क्या शिक्षक यह कहकर बस अपने हाथ धो सकते हैं, "लेकिन हमने यह नहीं किया".
लेडी श्री राम और मिरांडा हाउस के प्रमुखों, कुलपतियों और शिक्षण संस्थानों के नेताओं को यह समझना चाहिए कि जब भी वे नफ़रत और हिंसा के किसी भी संदेश को अनुमति देते हैं और उसे बढ़ावा देते हैं, तो उसके बाद होने वाली किसी भी हिंसा या चोट के लिए वे भी ज़िम्मेदार हैं. ऐसे वक्ताओं को माइक देकर, वे भविष्य के हत्यारों और लिंच मॉब के लिए ज़मीन तैयार कर रहे हैं. चुनाव उनका है.
अपूर्वानंद दिल्ली विश्वविद्यालय में हिंदी पढ़ाते हैं और साहित्यिक व सांस्कृतिक आलोचना लिखते हैं. यह लेख अंग्रेजी में फ्रंटलाइन में प्रकाशित हुआ.
प्रदूषण
भारत में 93 लाख टन में से 19% कचरा खुला छोड़ दिया जाता है
तेजी से बढ़ता प्लास्टिक प्रदूषण एक गंभीर वैश्विक पर्यावरणीय समस्या है, क्योंकि यह पारिस्थितिक तंत्रों, उनके कार्यों, सतत विकास और अंततः मानवता के सामाजिक-आर्थिक तथा स्वास्थ्य आयामों को गहराई से प्रभावित करता है. “द हिंदू” में प्रकाश नेलियत ने अपनी रिपोर्ट में लिखा है कि “यदि वर्तमान प्रवृत्तियां जारी रहती हैं, तो 2060 तक वैश्विक प्लास्टिक कचरा लगभग तीन गुना बढ़कर 1.2 अरब टन तक पहुंच सकता है.”
भारत विश्व के सबसे बड़े प्लास्टिक प्रदूषकों में से एक है, जो लगभग 9.3 मिलियन टन प्लास्टिक कचरा हर साल पैदा करता है. इसमें से लगभग 19% कचरा बिना संग्रह या प्रबंधन के खुला छोड़ दिया जाता है. बड़े शहरों जैसे दिल्ली और मुंबई में प्लास्टिक कचरे का सही प्रबंधन न होने से जलप्रपात और बाढ़ की समस्याएं बढ़ती हैं, जो सार्वजनिक स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव डालती हैं.
विश्व में हर साल लगभग 400 मिलियन टन प्लास्टिक उत्पादित होते हैं, जिसमें से केवल 9% प्लास्टिक कचरे का रीसाइक्लिंग (पुनरावर्तन) होता है. लगभग 11 मिलियन टन प्लास्टिक कचरा हर साल समुद्रों में पहुंचता है, जो समुद्री जीवन और पारिस्थितिकी तंत्र को गंभीर रूप से नुकसान पहुंचाता है. प्लास्टिक की अत्यधिक उत्पादन दर और उपयोग, विशेष रूप से सिंगल-यूज (एक बार इस्तेमाल होने वाले) प्लास्टिक्स का बढ़ता चलन, इस संकट के मुख्य कारण हैं.
प्लास्टिक बहुत मजबूत और टिकाऊ होता है, इसका नष्ट होना 1000 वर्षों तक भी ले सकता है, जिससे यह पर्यावरण में लंबे समय तक बना रहता है. कई बार प्लास्टिक मिश्रित होता है, जो पुनरावर्तन को कठिन बनाता है. अधिकतर प्लास्टिक पैकेजिंग को एक बार इस्तेमाल कर फेंक दिया जाता है, जिससे इसे ठीक से संभालने की अवसंरचना की कमी से प्रदूषण फैलता है.
प्लास्टिक प्रदूषण से समुद्री जीव और अन्य जीव-जंतु प्रभावित होते हैं, जो भोजन श्रृंखला और पारिस्थितिकी को नुकसान पहुंचाता है. प्लास्टिक के जल और मिट्टी में जाने से जहरीले पदार्थ फैलते हैं. जलवायु परिवर्तन में भी प्लास्टिक की बड़ी भूमिका है, क्योंकि लगभग 99% प्लास्टिक्स जीवाश्म ईंधन से उत्पादित होते हैं, और उत्पादन प्रक्रिया में ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन होता है. 2050 तक प्लास्टिक से होने वाले कार्बन उत्सर्जन विश्व के कुल शेष कार्बन बजट का लगभग 13% तक पहुंच सकता है.
वैश्विक स्तर पर कचरा संग्रह और पुनरावर्तन अवसंरचना अपर्याप्त है. लगभग 2 अरब लोग ऐसे क्षेत्रों में रहते हैं, जहां कचरा संग्रह की सुविधाएं नहीं हैं. विकसित और विकासशील देशों में कचरा प्रबंधन में बड़ी कमियां हैं, जिसके कारण प्लास्टिक कचरा खुले में, जल स्रोतों में, या उद्देश्यों के बिना जलाया जाता है. इससे वायु और जल प्रदूषण होता है और जीवों का जीवन खतरे में पड़ता है.
गाज़ियाबाद में दलित मां-बेटे पर हमला, तनाव हिंसक भिड़ंत में बदला
गाज़ियाबाद के मसौता गांव में रविवार शाम को दलित और राजपूत समुदायों के बीच टकराव हो गया. दोनों पक्षों के बीच भारी पथराव हुआ, जिसके चलते पुलिस को अतिरिक्त बल मौके पर भेजना पड़ा. कानून-व्यवस्था बनाए रखने के लिए पीएसी को तैनात किया गया है और कई पुलिस टीमें गांव में डेरा डाले हुए हैं. “द ऑब्ज़र्वर पोस्ट” के अनुसार, तनाव की शुरुआत शनिवार को हुई, जब एक दलित युवक की बाइक, राजपूत युवकों की कार से टकरा गई. आरोप है कि कार सवारों ने युवक को थप्पड़ मार दिया. बाद में जब युवक अपनी मां के साथ शिकायत करने गया, तो उनके साथ भी मारपीट की गई. इस घटना ने दोनों समुदायों के बीच बड़ा टकराव भड़का दिया.
बिहार में ईरानी मुसलमानों को ‘एसआईआर’ से नागरिकता खोने का डर
बिहार के किशनगंज में ईरानी मूल के शिया मुस्लिम समुदाय के करीब 600 लोग रहते हैं. पिछले दो दशकों से सिलसिलेवार इनका नाम मतदाता सूची से हटाया जा रहा है. अब बिहार एसआईआर के तहत शेष बचे मतदाताओं में से भी लगभग 20 लोगों को दस्तावेज़ दोबारा जमा करने का नोटिस मिला है, जिससे समुदाय में गहरी चिंता और असुरक्षा का माहौल है. “मैन मीडिया” में तंज़ील आसिफ़ की रिपोर्ट कहती है कि ईरानी मूल के मुसलमानों का इतिहास 125 वर्ष पुराना है और अब उन्हें नागरिकता खोने का डर सता रहा है.
लैंसेट : वजन कम करने वाली दवाओं की अधिक खुराक से तेजी से घटाया जा सकता है वज़न
सेमाग्लूटाइड की साप्ताहिक उच्च खुराक (7.2 मि.ग्रा.) मोटापे से ग्रस्त वयस्कों में, जिनमें टाइप-2 डायबिटीज़ वाले लोग भी शामिल हैं, वजन कम करने और उससे संबंधित स्वास्थ्य परिणामों में उल्लेखनीय सुधार कर सकती है. यह निष्कर्ष दो बड़े अंतरराष्ट्रीय फेज़-3 क्लिनिकल ट्रायल्स में सामने आया है.
ये परिणाम “द लैंसेट डायबिटीज़ एंड एंडोक्राइनोलॉजी जर्नल” में प्रकाशित हुए हैं. अध्ययन से संकेत मिलता है कि सेमाग्लूटाइड की अधिक खुराक उन मोटापे से ग्रस्त लोगों के लिए एक नई, आशाजनक चिकित्सा पद्धति हो सकती है—खासकर उनके लिए जिन्हें पहले से उपलब्ध उपचारों से पर्याप्त वजन घटाने में सफलता नहीं मिली. अनुराधा मस्कारेन्हास के अनुसार, स्टेप अप और स्टेप अप डायबिटीज़ क्लिनिकल ट्रायल्स से पहली बार यह पता लगाया गया कि क्या पहले से स्वीकृत 2.4 मि.ग्रा. खुराक को बढ़ाकर 7.2 मि.ग्रा. करना सुरक्षित है और क्या इससे अतिरिक्त वजन घटाने में मदद मिलती है.
यूनिसेफ़ की रिपोर्ट : मोटापे की महामारी का सामना कर रहा भारत
भारत में कुपोषण लंबे समय से एक बड़ी चुनौती रहा है. हाल के वर्षों में, देश ने अपनी जनसंख्या के कमजोर वर्गों के लिए भोजन सुनिश्चित करने के लिए महत्वपूर्ण कदम उठाए हैं, हालांकि ये कदम पर्याप्त नहीं हैं. वहीं, देश की युवा आबादी का एक बड़ा हिस्सा अब अधिक वजन और मोटापे से पीड़ित है, और यह समूह बढ़ रहा है. पिछले सप्ताह जारी की गई ‘यूनिसेफ’ की एक रिपोर्ट ने ‘नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे’ (एनएफएचएस) के आंकड़ों का हवाला देते हुए 2006 से 2021 के बीच बच्चों और किशोरों में मोटापे में चिंताजनक वृद्धि का संकेत दिया है. खास बात यह है कि पांच वर्ष से कम उम्र के अधिक वजन वाले बच्चों की संख्या इन 15 वर्षों में दोगुनी से भी अधिक हो गई है. भारत पहले ही कुछ वर्षों में वयस्क मोटापे के मामले में शीर्ष पांच देशों में शामिल हो चुका है. और यदि यूनिसेफ रिपोर्ट की भविष्यवाणियां सच होती हैं, तो 2030 तक देश विश्व के कुल मोटापे के 11 प्रतिशत हिस्से के लिए जिम्मेदार होगा.
‘एनएफएचएस’ के अनुसार, पांच वर्ष से कम उम्र के 36 प्रतिशत बच्चे कुपोषित हैं, और केवल 11 प्रतिशत बच्चे जो 6 महीने से 23 महीने की उम्र के बीच स्तनपान कराते हैं, उन्हें पर्याप्त आहार मिलता है. 15 से 49 वर्ष की आयु के 57 प्रतिशत महिलाएं एनिमिया से पीड़ित हैं. “भारत की बड़ी आबादी कैलोरी की कमी से जूझ रही है, जबकि बड़ी संख्या में लोग कैलोरी की अधिकता का सामना कर रहे हैं — पर दोनों ही समूहों को पर्याप्त पोषण नहीं मिल रहा है,” कौशिक दासगुप्ता ने लिखा है.
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