16/10/2025: एनडीए में भसड़ | माओवाद का बस्तर में ख़त्म होता खेल | ट्रम्प के मोदी पर दावे का खंडन | कफ़ सिरप के बाद अब एंटीबायोटिक में कीड़े | बेरोजगारी बढ़ी | जंगल खाता पान मसाला | गायब होते हाथी
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निधीश त्यागी, साथ में राजेश चतुर्वेदी, गौरव नौड़ियाल, फ़लक अफ़शां
आज की सुर्खियां
बिहार चुनाव में एनडीए में सीटों पर खींचतान, चिराग पासवान को मिली सीटों से सहयोगी नाराज़.
जदयू की उम्मीदवारों की सूची में मुस्लिम प्रतिनिधित्व घटा.
राजद ने बाहुबली शहाबुद्दीन के बेटे ओसामा को टिकट दिया.
मतदान के दौरान बुर्का पहनी महिलाओं की पहचान की जांच होगी.
बिहार मतदाता सूची में गड़बड़ी के आरोपों को चुनाव आयोग ने सुप्रीम कोर्ट में नकारा.
भारत ने ट्रंप के दावे को खारिज किया, कहा रूसी तेल पर मोदी से बात नहीं हुई.
छत्तीसगढ़ में दो बड़े नेताओं समेत 140 माओवादी आत्मसमर्पण करेंगे.
कर्नाटक सरकार सरकारी संस्थानों और सार्वजनिक जगहों पर आरएसएस की गतिविधियों पर रोक लगाएगी.
कनाडा में कपिल शर्मा के कैफे पर गोलीबारी, लॉरेंस बिश्नोई गैंग ने ली जिम्मेदारी.
अहमदाबाद विमान हादसे की न्यायिक जांच की मांग को लेकर पायलट के पिता सुप्रीम कोर्ट पहुंचे.
राजस्थान ने देश का सबसे कठोर धर्मांतरण विरोधी कानून पारित किया.
पान मसाला उद्योग के कारण खैर के जंगलों पर खतरा मंडरा रहा है.
गुजरात के सभी मंत्रियों ने दिया इस्तीफा, कल होगा नए मंत्रिमंडल का गठन.
जहरीले कफ सिरप के बाद अब ग्वालियर के सरकारी अस्पताल में बच्चों की एंटीबायोटिक दवा में कीड़े मिले.
मंत्री विजय शाह पर कार्रवाई करने वाले मध्य प्रदेश के जज का तबादला हुआ.
राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग में पद खाली होने पर दिल्ली हाईकोर्ट ने केंद्र से जवाब मांगा.
सितंबर में बेरोजगारी दर बढ़कर 5.2 प्रतिशत हुई.
नए सर्वे में भारत में हाथियों की आबादी में भारी गिरावट का अनुमान है.
नीतीश कुमार ने मुस्लिमों से पल्ला झाड़ा
बिहार में विधानसभा चुनाव की तारीख़ों के ऐलान के साथ ही राजनीतिक सरगर्मियां तेज़ हो गई हैं. एक तरफ़ जहां सत्तारूढ़ एनडीए में सीटों के बंटवारे को लेकर घमासान मचा हुआ है, वहीं दूसरी तरफ़ विपक्षी दल अपने-अपने समीकरण साधने में जुटे हैं. बुधवार को एनडीए के सहयोगी दलों ने चिराग पासवान की पार्टी को मिली सीटों पर खुलकर नाराज़गी ज़ाहिर की, जिससे बीजेपी को मुश्किलों का सामना करना पड़ा. उधर, आरजेडी ने सीवान में बाहुबली नेता मोहम्मद शहाबुद्दीन के बेटे को टिकट देकर एक बड़ा दांव खेला है. इस बीच, जेडीयू ने अपनी सूची जारी कर जातीय संतुलन बनाने की कोशिश की है, लेकिन मुस्लिम उम्मीदवारों की संख्या कम कर दी है. वहीं, चुनाव आयोग मतदाता सूची में गड़बड़ी के आरोपों पर सुप्रीम कोर्ट में अपना पक्ष रख रहा है. ये सभी घटनाक्रम बिहार के चुनावी माहौल को और दिलचस्प बना रहे हैं.
जदयू ने 101 उम्मीदवारों की सूची जारी की
बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की पार्टी जनता दल यूनाइटेड (जेडीयू) ने विधानसभा चुनावों के लिए अपने सभी 101 सीटों पर उम्मीदवारों के नामों की घोषणा कर दी है. सूची में आधे से अधिक उम्मीदवार पिछड़े और अति पिछड़े वर्गों से हैं, जबकि सिर्फ़ चार मुसलमानों को टिकट दिया गया है. पार्टी द्वारा जारी उम्मीदवारों के जाति-वार ब्योरे से यह स्पष्ट है कि ओबीसी (37) और ईबीसी (22) उम्मीदवार सूची का बड़ा हिस्सा हैं, जो पार्टी का मुख्य आधार रहे हैं.
सवर्ण जातियों (22) को भी उनकी कम आबादी को देखते हुए एक अच्छा प्रतिनिधित्व मिला है. हालांकि, मुसलमानों को दिए गए हिस्से ने अटकलों को जन्म दिया है कि क्या जेडीयू ने अब अल्पसंख्यक वोट से उम्मीद छोड़ दी है. 2020 के चुनावों में पार्टी ने 10 मुस्लिम उम्मीदवार मैदान में उतारे थे. इस बार भाजपा, जो कि 101 सीटों पर चुनाव लड़ रही है, ने किसी भी मुस्लिम उम्मीदवार को मैदान में नहीं उतारा है.
नीतीश कुमार सरकार के लगभग सभी मंत्री, जो विधान परिषद के सदस्य नहीं हैं, को अपनी सीटें बरकरार रखने का दूसरा मौक़ा दिया गया है. इनमें विजय कुमार चौधरी, बिजेंद्र प्रसाद यादव, ज़मा ख़ान, शीला मंडल और लेसी सिंह प्रमुख हैं. दलबदलुओं को भी पार्टी ने टिकट दिया है, जिसमें विभा देवी शामिल हैं, जो एक हफ़्ते से भी कम समय पहले पार्टी में शामिल हुईं. वह नवादा से चुनाव लड़ेंगी, जिसे उन्होंने पांच साल पहले आरजेडी उम्मीदवार के रूप में जीता था. इसी तरह, डॉन से नेता बने अनंत सिंह, जिन्होंने एक दशक पहले जेडीयू छोड़ दी थी, को मोकामा से फिर से पार्टी का टिकट दिया गया है.
हालांकि नीतीश कुमार महिलाओं के लिए आरक्षण के समर्थक रहे हैं, लेकिन उनकी पार्टी ने केवल 13 महिलाओं को टिकट दिया है, जो कुल का 15 प्रतिशत से भी कम है. बिहार में 243 सदस्यीय विधानसभा के लिए चुनाव दो चरणों में 6 नवंबर और 11 नवंबर को होंगे.
बिहार में जूझ रहा एनडीए, चिराग की सीटें देख नाराज़ नीतीश चिल्लाए, “जाओ, बीजेपी के साथ सुलझाओ”
बिहार चुनाव पर पटना से संतोष सिंह की रिपोर्ट है कि इस बार, एनडीए (राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन) के घर में सब ठीक नहीं है, यह बात इसके बिहार सहयोगियों में से एक उपेंद्र कुशवाहा ने स्वीकार की. इसका बहुत कुछ लेना-देना उस चीज़ से है जो 30 साल पहले शुरू हुई थी.
जनता दल (यू) के एक नेता, जो पार्टी प्रमुख और मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के करीबी हैं, ने इस विवाद की भावना को व्यक्त करने की कोशिश की, और चिराग पासवान के नेतृत्व वाली लोक जनशक्ति पार्टी (रामविलास) को एनडीए समझौते में मिली सीटों के हिस्से पर नीतीश कुमार की प्रतिक्रिया को याद किया. जद(यू) नेता ने कहा, “मुख्यमंत्री ने सूची देखी, और जब उन्होंने देखा कि जद(यू) के पास वाली, या जहां पिछली बार वह दूसरे स्थान पर रही थी, कुछ सीटें एलजेपी (रामविलास) को जा रही हैं, तो वह बहुत क्रोधित हो गए. ‘उसे (चिराग) राजगीर (एससी) और सोनबरसा (एससी) कैसे मिल सकता है? जाओ और बीजेपी के साथ इसे सुलझाओ’, मुख्यमंत्री चिल्लाए.”
चिराग के प्रति नीतीश के अविश्वास के कई कारण हैं, जिनके बारे में जद(यू) में कई लोगों का मानना है कि 2020 में बीजेपी ने उन्हें उनके वोटों को काटने के लिए उकसाया था. अंतिम गिनती में, तत्कालीन अविभाजित एलजेपी, जिसने स्वतंत्र रूप से चुनाव लड़ा था, को 32 सीटों पर जद(यू) से अधिक वोट मिले; उनमें से 26 में, एलजेपी के वोट उस अंतर से अधिक थे, जिससे जेडी (यू) हारी थी. 5 अन्य सीटों पर, एलजेपी दूसरे स्थान पर रही थी. बीजेपी 74 सीटों के साथ दूसरी सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी, जबकि जद(यू) अपने सहयोगी से काफी पीछे 43 सीटों पर सिमट गई थी.
जद(यू) ने बाद में एलजेपी के एकमात्र नेता को अपनी ओर खींचकर बदला लिया, जो 2020 में जीते थे; विधायक बेगूसराय की मटिहानी सीट पर 333 वोटों से मुश्किल से जीते थे. इस बार की बातचीत में, जद(यू) ने एलजेपी (रामविलास) को मटिहानी सीट देने से इनकार कर दिया.
इस बार बीजेपी से कम से कम 1 सीट ज्यादा की अपनी मांग से पीछे हटकर, दोनों ने 101-101 सीटों की समान हिस्सेदारी तय की, फिर भी जद(यू) चिराग को लेकर बीजेपी के इरादों पर संदेह बनाए हुए है.
पासवान के बेटे ने 2024 के लोकसभा चुनाव एनडीए सहयोगी के रूप में लड़ा था और बिहार में लड़ी गई 5 में से 5 सीटें जीतने के बाद उन्हें केंद्रीय मंत्री के रूप में जगह मिली थी. मौजूदा चुनावों में, उनकी एलजेपी (रामविलास) को एनडीए में 29 सीटें मिली हैं, जबकि अन्य छोटे सहयोगियों राष्ट्रीय लोक मंच और हिंदुस्तानी आवाम मोर्चा (सेक्युलर) के लिए सिर्फ 6-6 सीटें बची हैं.
बिहार के पर्यवेक्षकों का मानना है कि यह सब उस दुश्मनी के भड़कने का पर्याप्त कारण है जो बहुत पुरानी है, जब नीतीश और चिराग के पिता राम विलास पासवान ने एक नेता के रूप में शुरुआत की थी. (राम विलास पासवान का निधन पिछले विधानसभा चुनावों से ठीक पहले हुआ था. )
वह दौर 1990 के दशक के मध्य का था, जब राम विलास, लालू प्रसाद और नीतीश की समाजवादी तिकड़ी बिहार के क्षितिज पर उभर रही थी. दलित नेता राम विलास चुनावी मैदान में पहले से ही आगे थे, उन्होंने 1969 में अलाउली (खगड़िया) से विधायक के रूप में अपना पहला चुनाव जीता था. वी. पी. सिंह के नेतृत्व वाली 1989 की जनता दल सरकार में राम विलास को केंद्रीय मंत्री के रूप में जगह मिली.
बिहार के सबसे बड़े जाति समूह यादवों के नेता लालू प्रसाद ने 1977 में छपरा (अब सारण) लोकसभा सीट जीतकर अपना आगमन दर्ज कराया. 1990 में, उन्हें बिहार में जनता दल सरकार का मुख्यमंत्री नामित किया गया, जिसने राज्य की जातिगत राजनीति को फिर से लिखा.
एक कुर्मी नेता, नीतीश को चुनावी सफलता सबसे बाद में मिली, उन्होंने पहली बार 1985 में हरनौत विधानसभा सीट से जीत हासिल की. इसके बाद वह तेजी से आगे बढ़े, और 1989 में, एक कांग्रेस दिग्गज को हराकर बाढ़ से लोकसभा में पहुंचे. राम विलास की तरह, उन्हें भी वी. पी. सिंह द्वारा केंद्रीय मंत्री के रूप में शामिल किया गया था.
जल्द ही, तीनों के रास्ते अलग हो गए. नीतीश 1994 में जॉर्ज फर्नांडीस के साथ मिलकर समता पार्टी बनाने के लिए जनता दल से बाहर आने वाले पहले व्यक्ति थे. लालू ने 1997 में आरजेडी का गठन किया, और राम विलास ने 2000 में एलजेपी बनाई.
नीतीश के साथ अपनी प्रतिद्वंद्विता पर एक अंतर्दृष्टि देते हुए, पासवान ने 2015 में एक साक्षात्कार में बताया था कि, 2000 में, तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने राज्य में एनडीए की जीत के बाद उन्हें बिहार के मुख्यमंत्री पद की पेशकश की थी. पासवान ने कहा कि उन्होंने मना कर दिया, क्योंकि एनडीए के पास संख्या नहीं थी, और उन्हें आश्चर्य हुआ कि नीतीश ने तुरंत पेशकश स्वीकार कर ली.
जब नीतीश कुछ दिनों बाद विश्वास मत पास नहीं कर पाए, तो पासवान कथित तौर पर अपनी खुशी छिपा नहीं पाए. और इस तरह बिहार की एक महान प्रतिद्वंद्विता शुरू हुई. पासवान ने उसी साक्षात्कार में यह भी स्वीकार किया कि जब उन्होंने 2002 में एनडीए छोड़ा, तो बीजेपी सरकार के तहत गुजरात में गोधरा दंगे ही उनका एकमात्र कारण नहीं था. वह इस बात से भी नाराज़ थे कि वाजपेयी सरकार में नीतीश को केंद्रीय रेल मंत्री के रूप में पदोन्नत किया गया, जबकि उन्हें एक कम महत्वपूर्ण पोर्टफोलियो में स्थानांतरित कर दिया गया था.
फरवरी 2005 के विधानसभा चुनावों के बाद, जिसमें एलजेपी ने 29 सीटें जीती थीं, माना जाता है कि नीतीश ने मुख्यमंत्री बनने में मदद के लिए पासवान से संपर्क किया था. हालांकि, पासवान ने त्रिशंकु सदन में किसी को भी अपना समर्थन नहीं दिया, और फिर से चुनाव हुए, जिसमें नीतीश शानदार जीत के साथ सत्ता में आए. वह तब से मुख्यमंत्री बने हुए हैं.
चिराग के करीबी सूत्रों का कहना है कि उन्हें इस बात का पछतावा है कि 2005 के अपने कदम से, पासवान ने खुद मुख्यमंत्री बनने का एक ऐतिहासिक मौका भी गंवा दिया. नवंबर 2005 में मुख्यमंत्री के रूप में लौटने के बाद, नीतीश ने एक दर्जन से अधिक सरकारी योजनाओं के लिए एक ‘महादलित’ श्रेणी बनाकर पासवान को झटका दिया. इसमें पासवानों को छोड़कर राज्य की सभी अनुसूचित जातियों को शामिल किया गया. राम विलास ने इस कदम को “असंवैधानिक” बताते हुए इसकी आलोचना की.
हालांकि, पासवान और नीतीश दोनों ही एनडीए के मामले में लचीले रहे हैं, और 2013 में, नीतीश के एनडीए से बाहर निकलने में से एक के बाद, पासवान कथित तौर पर चिराग के आग्रह पर 2014 के लोकसभा चुनावों से पहले गठबंधन में शामिल हो गए. मोदी लहर वाले उस चुनाव में, एलजेपी ने छह लोकसभा सीटें जीतीं, जबकि जद (यू) 2 सीटों पर सिमट गई (18 सीटों की गिरावट).
2019 के लोकसभा चुनावों में, पासवान और नीतीश दोनों एनडीए के सहयोगी थे. हालांकि, उन्होंने दूरी बनाए रखी. एक वरिष्ठ जद (यू) नेता ने कहा: “दोनों पार्टियों के बीच केवल एक काम करने की व्यवस्था थी.”
एक एलजेपी (रामविलास) नेता ने कहा: “नीतीश 2019 में पासवान के राज्यसभा नामांकन दाखिल करने के लिए अनिच्छा से गए थे. चिराग को अभी भी इंतजार कराए जाने का अपमान याद है.”
एनडीए में सीटों पर घमासान, चिराग पासवान को मिली सीटों से सहयोगी नाराज़
बिहार में राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) द्वारा सीट-बंटवारे की घोषणा के तीन दिन बाद ही गठबंधन के भीतर असंतोष के स्वर उठने लगे हैं. बुधवार को बीजेपी नेताओं को अपने सहयोगियों, उपेंद्र कुशवाहा की राष्ट्रीय लोक मोर्चा (आरएलएम) और जीतन राम मांझी की हिंदुस्तान आवाम मोर्चा (हम), की नाराज़गी को शांत करने में काफ़ी मशक्कत करनी पड़ी. दोनों दलों ने चिराग पासवान की लोक जनशक्ति पार्टी (रामविलास) को “अनुपातहीन” सीटें दिए जाने पर सार्वजनिक रूप से अपनी नाराज़गी व्यक्त की है. जनता दल (यूनाइटेड) ने भी इस व्यवस्था पर अपनी आपत्ति जताई है, हालांकि उसने कोई सार्वजनिक बयान नहीं दिया है.
केंद्रीय मंत्री चिराग पासवान की एलजेपी (आरवी) को 29 सीटें मिली हैं, जिसे लेकर कई लोगों का तर्क है कि यह पार्टी के पिछले चुनावी प्रदर्शन से मेल नहीं खाता. 2005 के विधानसभा चुनाव में डेब्यू करते हुए एलजेपी ने 29 सीटें जीती थीं, जो बिहार चुनाव में पार्टी का अब तक का सबसे बड़ा आंकड़ा रहा है. 2021 में एलजेपी तब विभाजित हो गई जब पासवान के चाचा पशुपति नाथ पारस पार्टी के पांच में से चार सांसदों के साथ अलग हो गए थे.
बुधवार सुबह, कुशवाहा ने कहा, “इस बार एनडीए में सब कुछ ठीक नहीं है.” उनकी यह टिप्पणी उपमुख्यमंत्री सम्राट चौधरी और केंद्रीय मंत्री नित्यानंद राय के साथ उनके आवास पर 90 मिनट से अधिक चली बंद कमरे की बैठक के बाद आई. कुशवाहा मंगलवार को एक पार्टी कार्यक्रम के लिए सासाराम जा रहे थे, लेकिन यह जानने के बाद कि वह जिन छह सीटों की उम्मीद कर रहे थे, उनमें से दो (दिनारा और महुआ) पर एलजेपी (आरवी) ने दावा कर दिया है, वह बीच रास्ते से ही पटना लौट आए. इसके बाद वह गृह मंत्री अमित शाह और बीजेपी अध्यक्ष जे.पी. नड्डा के साथ एक आपात बैठक के लिए दिल्ली रवाना हो गए. शाम तक, मुद्दा सुलझा लिया गया. उन्होंने दिल्ली में मीडिया से कहा, “अब कोई भ्रम नहीं है.” सूत्रों के मुताबिक, कुशवाहा अपने लिए कैबिनेट बर्थ और राज्यसभा में एक और कार्यकाल, और अपनी पार्टी के कार्यकर्ताओं के लिए बिहार विधान परिषद में एक सीट और विभिन्न राज्य बोर्डों में पद हासिल करने में कामयाब रहे.
जेडीयू भी पासवान द्वारा सोनबरसा और राजगीर पर दावा करने से नाराज़ है - ये दोनों सीटें जेडीयू ने 2020 के चुनाव में जीती थीं. मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के करीबी सहयोगी रत्नेश सादा 2010 से लगातार तीन बार सोनबरसा जीत चुके हैं. राजगीर भी कुमार का गृह क्षेत्र है और पिछले दो कार्यकालों से जेडीयू के पास है. सूत्रों के मुताबिक, जेडीयू के ज़ोर देने पर पासवान को आख़िरकार अपना दावा छोड़ना पड़ा. यह भी पता चला है कि कुमार ने अपनी पार्टी के वरिष्ठ नेताओं से जेडीयू के हितों को कथित रूप से कमज़ोर करने के लिए सवाल किया.
हालांकि जेडीयू ने नाराज़गी नहीं जताई, लेकिन केंद्रीय मंत्री और हम अध्यक्ष जीतन राम मांझी ने कहा, “नीतीश कुमार जी का ग़ुस्सा जायज़ है. मैं उनसे सहमत हूं, जब फ़ैसला हो गया है, तो कोई और जेडीयू को आवंटित सीटों पर अपना उम्मीदवार क्यों उतार रहा है? मैं भी बोधगया और मखदूमपुर में अपने उम्मीदवार उतारूंगा.” इन दोनों सीटों पर पासवान दावा कर रहे हैं. इस बीच, पासवान अपने सहयोगियों की टिप्पणियों पर चुप हैं. उनके करीबी सूत्रों का दावा है कि वह अपनी मनचाही सीटों में से कम से कम 80% सीटें हासिल करने में कामयाब रहे हैं. बातचीत की शुरुआत में, उन्हें केवल 20 सीटों की पेशकश की गई थी, जिसे उन्होंने सीधे तौर पर अस्वीकार कर दिया था.
सीवान में शहाबुद्दीन फैक्टर की वापसी, राजद ने बेटे ओसामा को रघुनाथपुर से दिया टिकट
पटना: राष्ट्रीय जनता दल (आरजेडी) ने सीवान की राजनीति में एक बार फिर शहाबुद्दीन फैक्टर पर दांव लगाया है. पार्टी ने दिवंगत बाहुबली नेता मोहम्मद शहाबुद्दीन के 30 वर्षीय बेटे ओसामा शहाबुद्दीन को जिले की रघुनाथपुर सीट से मैदान में उतारा है. यह फ़ैसला सीवान लोकसभा सीट पर हुए हालिया अनुभव के बाद लिया गया है, जहां शहाबुद्दीन की पत्नी हिना शहाब ने निर्दलीय लड़कर आरजेडी के आधिकारिक उम्मीदवार को तीसरे स्थान पर धकेल दिया था.
2024 के लोकसभा चुनावों में, आरजेडी से टिकट न मिलने के बाद सीवान से निर्दलीय चुनाव लड़ते हुए भी हिना को 2.93 लाख वोट मिले थे. हालांकि वह जेडीयू की विजेता विजयलक्ष्मी देवी से काफ़ी पीछे रहीं, लेकिन उनके वोटों ने यह सुनिश्चित किया कि आरजेडी के तत्कालीन विधायक अवध बिहारी चौधरी 1.98 लाख वोटों के साथ तीसरे स्थान पर खिसक जाएं. इस परिणाम के तुरंत बाद आरजेडी ने हिना और ओसामा को पार्टी में फिर से शामिल कर लिया.
आरजेडी ने ओसामा के लिए सीवान विधानसभा सीट के बजाय रघुनाथपुर को चुना, क्योंकि वहां के सामाजिक समीकरण शहाबुद्दीन परिवार के लिए ज़्यादा सुरक्षित माने जाते हैं. रघुनाथपुर में यादवों की बड़ी आबादी है, जो 1952 के पहले चुनावों से ही नतीजों को निर्धारित करती रही है. पार्टी को उम्मीद है कि यादवों के साथ मुस्लिम, ईबीसी, दलित और सवर्ण वोटों के सहारे ओसामा आसानी से जीत जाएंगे, जिसमें सहयोगी सीपीआई (एम-एल) लिबरेशन और कांग्रेस की भी मदद मिलेगी.
शहाबुद्दीन 1990 के दशक के मध्य में लालू प्रसाद के मुस्लिम-यादव समीकरण में पूरी तरह फिट बैठते थे और उन्होंने सीवान लोकसभा सीट का चार बार प्रतिनिधित्व किया. 2008 में एक मामले में दोषी ठहराए जाने के बाद वह चुनाव नहीं लड़ सके. उनकी राजनीतिक विरासत उनकी पत्नी हिना ने संभाली, लेकिन वह लगातार तीन लोकसभा चुनाव हार गईं. 2021 में जेल में रहते हुए ही शहाबुद्दीन का निधन हो गया. विडंबना यह है कि जिन वामपंथी दलों के ख़िलाफ़ शहाबुद्दीन ने अपने चरम पर लड़ाई लड़ी, वे अब आरजेडी के सबसे मज़बूत सहयोगी हैं.
मतदान के दौरान बुर्का पहने महिलाओं की पहचान सत्यापित की जाएगी
कुछ विपक्षी दलों द्वारा बिहार के मतदान केंद्रों पर बुर्का पहने महिलाओं की पहचान सत्यापित करने के निर्देश को वापस लेने की मांग के बीच, चुनाव आयोग ने गुरुवार को अपने कदम का बचाव किया. आयोग ने कहा कि वह 1994 में लिए गए एक फैसले को लागू कर रहा है, जब टी.एन. शेषन चुनाव आयोग का नेतृत्व कर रहे थे. समाजवादी पार्टी ने बिहार में मतदान के दौरान बुर्का पहने महिलाओं की जांच करने के चुनाव आयोग के फैसले को वापस लेने की मांग की है.
‘पीटीआई’ के अनुसार, चुनाव आयोग के एक प्रवक्ता ने कहा कि 21 अक्टूबर, 1994 के आदेश में लिखा था, “...महिला मतदाताओं की गोपनीयता के प्रति संवेदनशीलता की रक्षा के लिए, स्थानीय रूप से उपलब्ध लेकिन पूरी तरह से सस्ते उपकरणों का उपयोग करके और स्थानीय सरलता का उपयोग करते हुए, जैसे कि चारपाई या चादर जैसे कपड़े का उपयोग करके, मतदान केंद्र में ‘पर्दानशीन’ महिलाओं की पहचान के लिए अलग बाड़े उपलब्ध कराए जाने चाहिए.”
‘घूंघट’ और बुर्का पहने महिलाओं के बारे में एक सवाल का जवाब देते हुए, मुख्य चुनाव आयुक्त ज्ञानेश कुमार ने कहा था कि मतदान केंद्रों के अंदर पहचान के सत्यापन के बारे में चुनाव आयोग के स्पष्ट दिशानिर्देश हैं और उनका सख्ती से पालन किया जाएगा.
एसआईआर के पेटिशनर कम्यूनल हैं चुनाव आयोग ने सुप्रीम कोर्ट में कहा
भारत के चुनाव आयोग (ईसीआई) ने गुरुवार को सुप्रीम कोर्ट में एक हलफ़नामे में इस बात से इनकार किया है कि बिहार में मतदाता सूचियों के विशेष गहन संशोधन (एसआईआर) में मुसलमानों को अनुपातहीन रूप से बाहर रखा गया है. आयोग ने कहा कि याचिकाकर्ताओं का “सांप्रदायिक दृष्टिकोण निंदनीय है”. आयोग ने अदालत से यह भी कहा कि इस विवादास्पद प्रक्रिया को चुनौती देने वाले याचिकाकर्ताओं का उद्देश्य “बिहार में एसआईआर को पटरी से उतारना और बाधित करना” और देश के बाकी हिस्सों में इस अभ्यास के संचालन को रोकना है.
हलफ़नामे में कहा गया, “याचिकाकर्ताओं ने यह आरोप लगाने की कोशिश की है कि मुसलमानों का अनुपातहीन बहिष्कार हुआ है. यह कुछ नाम पहचानने वाले सॉफ़्टवेयर पर आधारित है, जिसकी सटीकता या उपयुक्तता पर टिप्पणी नहीं की जा सकती. इस सांप्रदायिक दृष्टिकोण की निंदा की जानी चाहिए.” हलफ़नामे में आगे कहा गया है कि मतदाता सूची डेटाबेस किसी भी मतदाता के धर्म को दर्ज नहीं करता है और मसौदा सूची से बाहर रखे गए 65 लाख व्यक्तियों को मृत्यु, स्थायी रूप से स्थानांतरित होने या एक से अधिक निर्वाचन क्षेत्र में पंजीकृत होने के कारण बाहर रखा गया था.
चुनाव आयोग ने यह भी कहा कि याचिकाकर्ताओं ने एसआईआर के बाद अंतिम सूची में हटाए गए 3.66 लाख मतदाताओं को नोटिस नहीं दिए जाने के बारे में “बहुत हो-हल्ला” मचाया था, लेकिन बाद में सुप्रीम कोर्ट द्वारा ऐसा करने का निर्देश दिए जाने के बावजूद इस तरह के मामले का एक भी विशिष्ट उदाहरण प्रदान करने में विफल रहे.
सुनवाई के दौरान याचिकाकर्ताओं ने अदालत से आग्रह किया कि चुनाव आयोग को अंतिम सूची से बाहर किए गए लोगों के नाम प्रकाशित करने का निर्देश दिया जाए, जिस पर जस्टिस सूर्यकांत और जयमाल्य बागची की पीठ ने कहा कि उसे “कोई संदेह नहीं” है कि चुनाव आयोग सूची प्रकाशित करने में अपनी ज़िम्मेदारी पूरी करेगा. अदालत ने मामले की सुनवाई 4 नवंबर तक के लिए स्थगित कर दी.
ट्रंप के दावे का भारत ने किया खंडन, कहा- रूसी तेल पर मोदी से कोई बात नहीं हुई
गुरुवार को भारत के विदेश मंत्रालय ने अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के उस दावे को खारिज कर दिया, जिसमें उन्होंने कहा था कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने उनसे रूसी तेल की खरीद रोकने का वादा किया है. विदेश मंत्रालय ने स्पष्ट किया कि दोनों नेताओं के बीच ऐसी कोई बातचीत नहीं हुई है.
हिंदुस्तान टाइम्स की रिपोर्ट के अनुसार, विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता रणधीर जायसवाल ने साप्ताहिक प्रेस कॉन्फ्रेंस के दौरान कहा, “जहां तक प्रधानमंत्री मोदी और राष्ट्रपति ट्रंप के बीच टेलीफोन पर बातचीत का सवाल है, मुझे कल दोनों नेताओं के बीच ऐसी किसी भी बातचीत की जानकारी नहीं है.”
इससे पहले, विदेश मंत्रालय ने भारत की ऊर्जा खरीद को लेकर एक बयान जारी किया था, जिसमें कहा गया था कि अस्थिर ऊर्जा बाज़ार में भारतीय उपभोक्ताओं के हितों को प्राथमिकता दी जाएगी. प्रवक्ता जायसवाल ने कहा, “भारत तेल और गैस का एक महत्वपूर्ण आयातक है. अस्थिर ऊर्जा परिदृश्य में भारतीय उपभोक्ता के हितों की रक्षा करना हमारी लगातार प्राथमिकता रही है. हमारी आयात नीतियां पूरी तरह से इसी उद्देश्य से निर्देशित होती हैं.”
ट्रंप ने क्या दावा किया था? ओवल ऑफिस से एक प्रेस कॉन्फ्रेंस के दौरान, अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने दावा किया था कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने उन्हें आश्वासन दिया है कि भारत रूसी तेल की खरीद बंद कर देगा. उन्होंने कहा, “मैं इस बात से खुश नहीं था कि भारत तेल खरीद रहा है. और उन्होंने (मोदी) आज मुझे आश्वासन दिया कि वे रूस से तेल नहीं खरीदेंगे. यह एक बड़ी रोक है.”
भारत द्वारा रूसी तेल की खरीद का मामला अगस्त से सुर्खियों में है, जब ट्रंप ने नई दिल्ली पर दंड के रूप में 25 प्रतिशत का अतिरिक्त टैरिफ लगाने की घोषणा की थी. इस अतिरिक्त दंड के साथ, भारत पर ट्रंप का कुल टैरिफ 50 प्रतिशत तक पहुंच गया था. बढ़े हुए टैरिफ के जवाब में, प्रधानमंत्री मोदी ने कहा था कि वह किसानों की आजीविका से कोई समझौता नहीं करेंगे, भले ही इसके लिए “भारी कीमत चुकानी पड़े”.
वरिष्ठ नेता रूपेश और रनिता समेत 140 माओवादी करेंगे आत्मसमर्पण
छत्तीसगढ़ में माओवाद के खिलाफ एक बड़ी सफलता मिली है. हिंदुस्तान टाइम्स की रिपोर्ट के अनुसार, सीपीआई (माओवादी) के वरिष्ठ नेता रूपेश और दंडकारण्य स्पेशल ज़ोनल कमेटी (DKZC) की माड़ डिवीजन की प्रभारी रनिता सहित लगभग 140 माओवादी शुक्रवार को जगदलपुर में मुख्यमंत्री विष्णु देव साय और गृह मंत्री विजय शर्मा के सामने औपचारिक रूप से आत्मसमर्पण करेंगे.
मुख्यमंत्री कार्यालय के एक वरिष्ठ अधिकारी ने बताया कि इन माओवादियों ने दंतेवाड़ा और बीजापुर जिलों की सीमा पर इंद्रावती नदी को पार किया है. उन्हें जगदलपुर ले जाया जाएगा, जहां आत्मसमर्पण समारोह आयोजित किया जाएगा.
आंध्र प्रदेश का रहने वाला रूपेश छत्तीसगढ़ में सक्रिय एक प्रमुख माओवादी नेता है. वह DKZC के विभिन्न डिवीजनों के बीच समन्वय का काम करता था और माड़ क्षेत्र में लॉजिस्टिक्स, संचार और प्रशिक्षण का प्रबंधन करता था. उसे केंद्रीय समिति और स्थानीय ज़ोनल ढांचे के बीच एक पुल माना जाता था. अधिकारियों का कहना है कि उसके आत्मसमर्पण से “बस्तर में संगठन की ऑपरेशनल क्षमता गंभीर रूप से कमजोर हो जाएगी.” वहीं, माड़ डिवीजन की प्रभारी रनिता संगठन की वरिष्ठ महिला कमांडरों में से एक है और बस्तर के कई जिलों में सक्रिय रही है.
एक अधिकारी ने नाम न छापने की शर्त पर बताया, “दोनों नेता गहरे जंगली क्षेत्रों में छिपे हुए थे, लेकिन हाल के ऑपरेशनल दबाव और सरकार की पहुंच के प्रयासों ने उन्हें आत्मसमर्पण के लिए मना लिया.” दशकों तक, अबूझमाड़ का विशाल, जंगली और पहाड़ी इलाका केंद्रीय समिति के सदस्यों और ज़ोनल कमांडरों के लिए एक प्रशिक्षण मैदान और कमांड हब के रूप में इस्तेमाल होता रहा है. एक वरिष्ठ पुलिस अधिकारी ने कहा, “रूपेश और रनिता का आत्मसमर्पण एक युग के अंत का प्रतीक है. माड़ और अबूझमाड़ को कभी राज्य की पहुंच से बाहर माना जाता था, यह घटना दिखाती है कि जमीनी हकीकत कितनी बदल गई है.”
यह घटनाक्रम वरिष्ठ पोलित ब्यूरो सदस्य और प्रमुख माओवादी रणनीतिकार मल्लोजुला वेणुगोपाल राव उर्फ सोनू या भूपति द्वारा महाराष्ट्र के गढ़चिरौली जिले में लगभग 60 कैडरों के साथ आत्मसमर्पण करने के ठीक दो दिन बाद हुआ है.
केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने एक्स पर लिखा, “यह बेहद खुशी की बात है कि छत्तीसगढ़ में अबूझमाड़ और उत्तरी बस्तर, जो कभी आतंक के अड्डे थे, आज नक्सल आतंक से मुक्त घोषित कर दिए गए हैं. अब दक्षिण बस्तर में नक्सलवाद का थोड़ा सा अंश बचा है, जिसे हमारे सुरक्षा बल जल्द ही खत्म कर देंगे.” राज्य सरकार आत्मसमर्पण करने वाले कैडरों को अपनी आत्मसमर्पण और पुनर्वास नीति के तहत वित्तीय सहायता, आवास सहायता और व्यावसायिक प्रशिक्षण जैसे लाभ प्रदान करेगी.
तोते में बंद जान और जंगल की लड़ाई: जब दंडकारण्य में नक्सलवाद दम तोड़ रहा है
इस हफ़्ते जब 10 करोड़ के इनामी नक्सली नेता भूपति ने सरेंडर किया, तो ख़बरों में इसे सरकार की एक और बड़ी कामयाबी बताया गया. ये सच भी है. दंडकारण्य के जंगलों में क़रीब 50 साल से चल रहा नक्सली आंदोलन अब अपनी आख़िरी सांसें गिन रहा है. लेकिन हरकारा डीप डाइव के नए एपिसोड में पत्रकार शुभ्रांशु चौधरी जो कहानी बताते हैं, वो सिर्फ़ जीत या हार की नहीं, बल्कि उन हज़ारों आदिवासियों की है जिनकी ज़िंदगी इस लड़ाई में दांव पर लग गई.
शुभ्रांशु बताते हैं कि ये आंदोलन बस्तर में कभी ‘ऑर्गेनिक’ था ही नहीं. 1977 में बंगाल और आंध्र में मिली हार के बाद, माओवादियों ने दंडकारण्य को एक ‘रियर एरिया’ यानी छिपने की सुरक्षित जगह के तौर पर चुना था. उनकी रणनीति थी कि जब हालात सुधरेंगे तो वापस लौटेंगे, लेकिन वो हालात कभी सुधरे ही नहीं.
फिर 90 के दशक में जब सरकार ने ‘जन जागरण अभियान’ के नाम पर आदिवासियों पर सख़्ती शुरू की, तो इन माओवादियों ने उन्हें एक विकल्प दिया. उन्होंने जंगल के ठेकेदारों और व्यापारियों के ख़िलाफ़ आदिवासियों का साथ दिया, और धीरे-धीरे स्थानीय युवक-युवतियां उनके साथ जुड़ते गए. ये जुड़ाव माओवाद की विचारधारा से ज़्यादा, अपनी ज़मीन और इज़्ज़त बचाने की लड़ाई का नतीजा था.
लेकिन 2015 आते-आते आदिवासियों के ‘सामूहिक विवेक’ (Collective Consciousness) ने यह महसूस करना शुरू कर दिया कि इस लड़ाई से उनके समाज को कोई दीर्घकालिक लाभ नहीं हो रहा है. उन्होंने नेताओं से बाहर निकलने का रास्ता मांगा, लेकिन उनकी आवाज़ अनसुनी कर दी गई.
आज स्थिति यह है कि आंदोलन दो हिस्सों में बंट चुका है. एक धड़ा सरेंडर करना चाहता है, लेकिन दूसरा आख़िरी सांस तक लड़ने पर आमादा है. इस लड़ाई में दोनों तरफ़ से मरने और मारने वाले बस्तर के ही आदिवासी हैं. शुभ्रांशु चौधरी एक ज़रूरी सवाल उठाते हैं - “क्रांति तो नहीं हुई. पर जिन लोगों ने आपको ज़िंदा रखा, उनके लिए आप क्या हासिल कर पाए?”
आज जब सरकार अपनी जीत का जश्न मना रही है, तब जंगलों में फंसे उन 700-800 आदिवासी कैडरों का भविष्य क्या होगा? क्या उन्हें समाज की मुख्यधारा में वापस आने का एक सुरक्षित और सम्मानित मौक़ा मिलेगा? या वे सिर्फ़ एक आँकड़ा बनकर रह जाएंगे?
इस पूरी और गहरी बातचीत को सुनने के लिए हमारा नया पॉडकास्ट एपिसोड देखें.
कर्नाटक कैबिनेट का फैसला: सरकारी संस्थानों और सार्वजनिक स्थानों पर आरएसएस की गतिविधियों पर लगेगी रोक
कर्नाटक की कांग्रेस सरकार ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) जैसे संगठनों की गतिविधियों को लेकर एक बड़ा कदम उठाया है. द हिंदू की रिपोर्ट के अनुसार, कानून और संसदीय मामलों के मंत्री एच.के. पाटिल ने गुरुवार (16 अक्टूबर, 2025) को बताया कि कर्नाटक कैबिनेट ने सार्वजनिक संपत्तियों पर ऐसे संगठनों द्वारा अतिक्रमण को रोकने के लिए एक आदेश जारी करने का फैसला किया है.
यह फैसला आईटी-बीटी मंत्री प्रियांक खरगे द्वारा मुख्यमंत्री सिद्धारमैया को लिखे गए एक पत्र के बाद आया है, जिसमें उन्होंने सरकारी स्कूलों, कॉलेजों जैसी सार्वजनिक संपत्तियों पर आरएसएस की गतिविधियों पर प्रतिबंध लगाने की मांग की थी. 12 अक्टूबर, 2025 को लिखे अपने पत्र में खरगे ने मांग की थी कि सरकारी संपत्तियों पर आरएसएस की गतिविधियों की अनुमति नहीं दी जानी चाहिए. उन्होंने लिखा, “देश के बच्चों, युवाओं, जनता और समाज की भलाई के हित में, मैं ईमानदारी से अनुरोध करता हूं कि सरकारी संपत्तियों के परिसर में आरएसएस द्वारा शाखा, संघिक या बैठक के नाम पर आयोजित सभी प्रकार की गतिविधियों पर प्रतिबंध लगाया जाए.”
मंत्री की इस मांग का भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) ने कड़ा विरोध किया था, जिसके बाद खरगे और उनके परिवार को अपमानजनक संदेश और धमकी भरे फोन भी आए. इसके बाद, मुख्यमंत्री सिद्धारमैया ने मुख्य सचिव को पड़ोसी राज्य तमिलनाडु सरकार द्वारा आरएसएस की गतिविधियों को प्रतिबंधित करने के लिए उठाए गए उपायों का अध्ययन करने का निर्देश दिया था.
गुरुवार (16 अक्टूबर, 2025) को प्रियांक खरगे ने मुख्यमंत्री को एक और पत्र लिखकर एक आधिकारिक परिपत्र (सर्कुलर) जारी करने की मांग की, जिसमें सरकारी अधिकारियों को आरएसएस और अन्य संगठनों की गतिविधियों से जुड़ने पर मौजूदा नियमों के उल्लंघन के तहत अनुशासनात्मक कार्रवाई की चेतावनी दी जाए.
कनाडा में कपिल शर्मा के कैफे पर फायरिंग, आतंकी सूची में डाले जाने के बाद लॉरेंस बिश्नोई गैंग का पहला हमला
कनाडा सरकार द्वारा आतंकी संगठन घोषित किए जाने के कुछ ही हफ्तों बाद, लॉरेंस बिश्नोई गैंग ने फिर से अपनी उपस्थिति दर्ज कराई है. हिंदुस्तान टाइम्स की रिपोर्ट के मुताबिक, गुरुवार को कनाडा के सरे में कॉमेडियन कपिल शर्मा के ‘कैप्स कैफे’ पर गोलीबारी की गई. इस हमले की ज़िम्मेदारी गैंग के सदस्य गुरप्रीत सिंह उर्फ गोल्डी ढिल्लों ने ली है, जिस पर भारत की राष्ट्रीय जांच एजेंसी (एनआईए) ने 10 लाख रुपये का इनाम रखा है.
गैंग ने इस हमले का कारण कपिल शर्मा की बॉलीवुड सुपरस्टार सलमान खान से नज़दीकी को बताया है. लॉरेंस बिश्नोई का दावा है कि काले हिरण के शिकार के मामले को लेकर सलमान खान से उसकी पुरानी दुश्मनी है. हालांकि, जांच एजेंसियां इसे सीधे तौर पर जबरन वसूली की कोशिशों से जोड़कर देख रही हैं. लॉरेंस बिश्नोई खुद कई सालों से जेल में है और वर्तमान में गुजरात की साबरमती जेल में बंद है.
यह हमला कनाडा सरकार द्वारा 29 सितंबर को बिश्नोई गैंग को “आतंकी इकाई” के रूप में सूचीबद्ध करने के तीन सप्ताह से भी कम समय में हुआ है. कनाडा ने यह कदम उन रिपोर्टों के बाद उठाया था, जिनमें कहा गया था कि यह गिरोह कनाडा के भीतर प्रवासी भारतीयों जैसे “विशिष्ट समुदायों” को निशाना बना रहा है.
इस लिस्टिंग के बाद दोनों देशों के विदेश मंत्रियों, एस. जयशंकर और अनीता आनंद ने मुलाकात की और “संबंधों को फिर से बनाने” की कोशिश की. कनाडा द्वारा इस गैंग को आतंकी सूची में डालने का एक बड़ा कारण सिख अलगाववादी हरदीप सिंह निज्जर की हत्या भी थी. जून 2023 में निज्जर की हत्या ने एक बड़ा कूटनीतिक विवाद खड़ा कर दिया था, जब तत्कालीन कनाडाई प्रधानमंत्री जस्टिन ट्रूडो ने आरोप लगाया था कि भारतीय खुफिया एजेंसियों ने “लॉरेंस बिश्नोई गैंग जैसे आपराधिक संगठनों” का इस्तेमाल हिंसा को अंजाम देने के लिए किया. हालांकि, दिल्ली ने इन आरोपों को सिरे से खारिज कर दिया था.
कनाडा में किसी संगठन को आतंकी सूची में डालने का मतलब है कि उस समूह की कनाडा में मौजूद किसी भी संपत्ति, वाहन या धन को फ्रीज या जब्त किया जा सकता है. यह कानून प्रवर्तन एजेंसियों को आतंकी अपराधों, जैसे कि फंडिंग, यात्रा और भर्ती से संबंधित मामलों में मुकदमा चलाने के लिए अधिक शक्तिशाली उपकरण प्रदान करता है.
अहमदाबाद विमान हादसे की न्यायिक जांच की मांग, पायलट के पिता और पायलट फेडरेशन ने सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की
अहमदाबाद में 12 जून को हुए एयर इंडिया के विमान हादसे की जांच को लेकर मृतक पायलट के पिता और फेडरेशन ऑफ इंडियन पायलट्स ने सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया है. द हिंदू की रिपोर्ट के अनुसार, उन्होंने इस हादसे की सुप्रीम कोर्ट के एक पूर्व न्यायाधीश की अध्यक्षता में अदालत की निगरानी में न्यायिक जांच की मांग की है. इस हादसे में 260 लोगों की मौत हो गई थी.
मृतक कैप्टन सुमीत सभरवाल के 91 वर्षीय पिता पुष्कराज सभरवाल ने इस दुखद घटना की “निष्पक्ष, पारदर्शी और तकनीकी रूप से मजबूत” जांच की मांग की है. याचिका में कहा गया है, “दुर्घटना के सटीक कारण की पहचान के बिना एक अधूरी और पक्षपातपूर्ण जांच, भविष्य के यात्रियों के जीवन को खतरे में डालती है और बड़े पैमाने पर विमानन सुरक्षा को कमजोर करती है, जिससे संविधान के अनुच्छेद 21 का उल्लंघन होता है.”
याचिका में केंद्रीय नागरिक उड्डयन मंत्रालय, डीजीसीए और एएआईबी के महानिदेशक को प्रतिवादी बनाया गया है. यह याचिका 10 अक्टूबर को दायर की गई थी और दीपावली की छुट्टियों के बाद इस पर सुनवाई होने की संभावना है.
याचिका में आरोप लगाया गया है कि एयरक्राफ्ट एक्सीडेंट इन्वेस्टिगेशन ब्यूरो (AAIB) और डायरेक्टर जनरल ऑफ सिविल एविएशन (DGCA) द्वारा की गई आधिकारिक जांच “दोषपूर्ण, पक्षपातपूर्ण और तकनीकी रूप से कमजोर” है. 12 जुलाई, 2025 को जारी की गई प्रारंभिक रिपोर्ट में दुर्घटना का कारण गलत तरीके से पायलट की गलती को बताया गया, जबकि कई प्रणालीगत और तकनीकी विफलताओं को नजरअंदाज कर दिया गया जो निर्णायक भूमिका निभा सकती थीं.
याचिका के अनुसार, “जांच दल ने एक व्यापक तकनीकी जांच करने के बजाय, मृत पायलटों पर अनुचित रूप से ध्यान केंद्रित किया है, जो अब अपना बचाव नहीं कर सकते. साथ ही इलेक्ट्रिकल, सॉफ्टवेयर या डिजाइन-स्तर की विफलताओं के संभावित सबूतों को नजरअंदाज कर दिया गया है.”
याचिकाकर्ताओं ने कहा कि कैप्टन सुमीत सभरवाल का 30 वर्षों से अधिक का बेदाग करियर था, जिसमें 15,638 घंटे की घटना-मुक्त उड़ान शामिल थी. उनका कहना है कि जांच टीम में डीजीसीए के अधिकारियों का वर्चस्व है, जो प्राकृतिक न्याय के सिद्धांत का उल्लंघन है, क्योंकि जो संस्थाएं नागरिक उड्डयन को विनियमित करने और निगरानी के लिए जिम्मेदार हैं, वे प्रभावी रूप से खुद की जांच कर रही हैं.
सबसे कठोर है राजस्थान का धर्मांतरण विरोधी कानून: आजीवन कारावास और बुलडोजर कार्रवाई
राजस्थान में पारित नया धर्मांतरण विरोधी कानून, 2025, भारत का अब तक का सबसे कठोर धर्मांतरण विरोधी कानून बन गया है, जिसमें आजीवन कारावास, संपत्ति की जब्ती और विध्वंस जैसे अभूतपूर्व दंड प्रस्तावित हैं. आर्टिकल-14 में निदा कैसर और सबा गुरमत की रिपोर्ट के अनुसार, यह कानून मनमाने ढंग से बुलडोजर से विध्वंस की प्रवृत्ति को प्रभावी रूप से कानूनी जामा पहनाता है, जो विशेष रूप से धार्मिक अल्पसंख्यकों को निशाना बनाता है.
इस कानून के पारित होने के साथ, राजस्थान तथाकथित जबरन धर्म परिवर्तन पर अंकुश लगाने के लिए कानूनी उपाय करने वाला भारत का 12वां राज्य बन गया है, जिनमें से नौ पर भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) का शासन है. यह कानून तथाकथित “बुलडोजर न्याय” को कानूनी मंजूरी देता है, जिसे पहले एक गैर-न्यायिक सजा के मॉडल के रूप में देखा जाता था.
यह कानून संविधान के अनुच्छेद 25 का उल्लंघन करता है, जो प्रत्येक नागरिक को अपने धर्म का पालन करने और प्रचार करने की स्वतंत्रता देता है. इसके अलावा, यह अनुच्छेद 21 (जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता), अनुच्छेद 14 (कानून के समक्ष समानता) और अनुच्छेद 15 (धर्म, जाति, लिंग के आधार पर भेदभाव के खिलाफ अधिकार) के भी विरुद्ध है.
कानून में प्रावधान है कि यदि किसी संपत्ति का उपयोग “अवैध धर्मांतरण” के लिए किया गया है, तो जांच के बाद उस संपत्ति को जब्त कर लिया जाएगा, भले ही धर्मांतरण के कार्य मालिक की सहमति से किए गए हों या नहीं. साथ ही, यदि ऐसी संपत्ति पर कोई अवैध निर्माण है, तो उसे ध्वस्त कर दिया जाएगा.
रिपोर्ट में मध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेश जैसे बीजेपी शासित राज्यों के उदाहरण दिए गए हैं, जहां जबरन धर्मांतरण के महज आरोपों के बाद राज्य के अधिकारियों द्वारा घरों और व्यवसायों को ध्वस्त कर दिया गया, जो मुख्य रूप से मुसलमानों के थे. यह कानून न केवल धार्मिक अल्पसंख्यकों की स्वतंत्रता और सुरक्षा के लिए खतरा पैदा करता है, बल्कि यह न्याय के संवैधानिक विचार को भी पलट देता है. इसमें किसी भी व्यक्ति को शिकायत दर्ज करने की अनुमति है, अपराध गैर-जमानती हैं, और धर्मांतरण की इच्छा रखने वाले किसी भी व्यक्ति को 90 दिन पहले जिला अधिकारियों को सूचित करना होगा, जिससे उन्हें उत्पीड़न का सामना करना पड़ सकता है.
पान मसाला खा जाएगा खैर के जंगलों को
भारत में तेजी से बढ़ता पान मसाला उद्योग देश के जंगलों के लिए एक गंभीर खतरा बन गया है. कार्बनकॉपी में एम राजशेखर की एक खोजी रिपोर्ट में उत्तर प्रदेश के सुहेलवा वन्यजीव अभयारण्य में खैर (Acacia catechu) के पेड़ों की अवैध कटाई का खुलासा किया गया है. खैर के पेड़ से ‘कत्था’ निकलता है, जो पान मसाला का एक प्रमुख घटक है. आकर्षक कत्था व्यापार, कमजोर संस्थान और भ्रष्ट अधिकारियों की मिलीभगत इस जंगल को विनाश की ओर धकेल रही है.
रिपोर्ट के अनुसार, जहां भारत समग्र वन क्षेत्र में वृद्धि का दावा करता है, वहीं उसके प्राकृतिक जंगल बड़ी परियोजनाओं और लकड़ी की तस्करी के कारण दबाव में हैं. चंदन और लाल चंदन के बाद, अब खैर के पेड़ों को खतरनाक दर से काटा जा रहा है. लगभग 20 साल पहले, मध्य प्रदेश में खैर के स्टॉक में गिरावट के बाद, लकड़ी माफिया ने सुहेलवा जैसे क्षेत्रों का रुख किया. आज सुहेलवा जैसे स्थानों पर खैर के पेड़ कम होने के कारण, यह व्यापार अब जम्मू-कश्मीर, हिमाचल, उत्तराखंड और भारत के पूर्वोत्तर भागों में स्थानांतरित हो रहा है.
सुहेलवा वन्यजीव अभयारण्य, जो कभी बाघों और तेंदुओं का घर था, आज खाली हो चुका है. अवैध कटाई ने जंगल के पारिस्थितिकी तंत्र को नष्ट कर दिया है. लकड़ी की तस्करी का अर्थशास्त्र चौंकाने वाला है. बिचौलिए लकड़ी काटने वालों को लगभग 1,000 रुपये प्रति क्यूबिक मीटर देते हैं, जबकि कत्था फैक्ट्रियां इसे 3,000-5,000 रुपये में खरीदती हैं. एक क्यूबिक मीटर खैर से लगभग 189 किलो कत्था बनता है, जिसे फैक्ट्रियां 2,000 रुपये प्रति किलो तक बेचती हैं, जिससे एक क्यूबिक मीटर लकड़ी का अंतिम मूल्य लाखों में पहुंच जाता है.
इस अवैध व्यापार के पीछे कई कारण हैं. वन विभाग की खराब निगरानी, कर्मचारियों की कमी, और स्थानीय कर्मचारियों की मिलीभगत प्रमुख हैं. रिपोर्ट में बताया गया है कि कटाई और परिवहन परमिट प्राप्त करने के लिए दिए जाने वाले अनौपचारिक भुगतान का हिस्सा 93% तक है. विभाग ने मांग का अनुमान लगाकर खैर के बागान लगाने जैसी कोई दूरदर्शी नीति भी नहीं अपनाई. नतीजतन, भारत अपनी पान मसाला की आदत को पूरा करने के लिए अपने ही प्राकृतिक वनों को नष्ट कर रहा है.
गुजरात के सभी मंत्रियों का इस्तीफा, कल नया मंत्रिमंडल बनेगा
गुजरात में मुख्यमंत्री भूपेंद्र पटेल सरकार के सभी 16 मंत्रियों ने गुरुवार को इस्तीफा दे दिया. कल शुक्रवार को गांधीनगर में सुबह 11.30 बजे नई कैबिनेट की शपथ होगी.
इस फेरबदल को राज्य में 2027 में होने वाले विधानसभा चुनाव की तैयारी से जोड़ा जा रहा है. मंत्रिमंडल में नए चेहरे शामिल किए जा सकते हैं, जिनमें दो उप मुख्यमंत्री भी हो सकते हैं. भाजपा ने अन्य राज्यों में भी यही व्यवस्था कर राखी है. अभी गुजरात मंत्रिमंडल में मुख्यमंत्री सहित 17 मंत्री थे, जिनमें 8 कैबिनेट और 8 राज्य मंत्री थे. अब यह संख्या बढ़ सकती है. कांग्रेस से भाजपा में आए विधायक भी मंत्री बन सकते हैं. गुजरात विधानसभा में 182 विधायक हैं. “पीटीआई” के अनुसार, इस माह की शुरुआत में राज्य मंत्री जगदीश विश्वकर्मा को केन्द्रीय मंत्री सी.आर. पाटिल की जगह भाजपा की प्रदेश ईकाई का अध्यक्ष नियुक्त किया गया था.
जहरीले कफ सिरप से दर्जनों बच्चों की मौतों के बाद, ग्वालियर के सरकारी अस्पताल में अब एंटीबायोटिक में कीड़े
मध्यप्रदेश में जहरीले कफ सिरप से बच्चों की मौतों के मामलों के बीच, ग्वालियर के एक सरकारी अस्पताल में एक बच्चे को दी गई एंटीबायोटिक दवा की बोतल में कथित तौर पर कीड़े मिलने की शिकायत सामने आई है. मीडिया रिपोर्टों ने गुरुवार को यह जानकारी दी.
इन रिपोर्टों के अनुसार, एक महिला द्वारा शिकायत किए जाने के बाद, जिसके बच्चे को वह दवा दी गई थी, मुरार कस्बे के सरकारी अस्पताल में एज़िथ्रोमाइसिन ओरल सस्पेंशन के पूरे स्टॉक को सील कर दिया गया है, और नमूने जांच के लिए भोपाल की एक प्रयोगशाला में भेजे गए हैं.
एज़िथ्रोमाइसिन आमतौर पर बच्चों को विभिन्न संक्रमणों के लिए प्रिस्क्राइब की जाती है. कथित तौर पर, यह दवा मध्यप्रदेश स्थित एक कंपनी द्वारा निर्मित एक जेनेरिक संस्करण थी.
“द न्यू इंडियन एक्सप्रेस” के अनुसार, ड्रग इंस्पेक्टर, अनुभूति शर्मा ने मीडिया को बताया कि “मुरार के सरकारी अस्पताल में एक महिला ने एज़िथ्रोमाइसिन ओरल सस्पेंशन की एक बोतल में कीड़े होने की शिकायत की.” हालांकि शिकायतकर्ता द्वारा लाई गई बोतल पहले से ही खुली हुई थी, लेकिन मामले की तुरंत जांच की गई. रिपोर्टों में कहा गया है कि अस्पताल में संग्रहीत और वितरित की गई सभी 306 बोतलों को वापस मंगा लिया गया है और जब्त कर लिया गया है. कुछ बोतलों के प्रारंभिक निरीक्षण में कीड़ों के कोई लक्षण नहीं दिखे, लेकिन सुरक्षा की पुष्टि के लिए परीक्षण किया जा रहा है. कुछ बोतलों को भोपाल की एक प्रयोगशाला में भेजा गया है, जबकि एक नमूना कोलकाता में केंद्रीय औषधि प्रयोगशाला को भी भेजा जाएगा.
यह घटना छिंदवाड़ा जिले में किडनी फेलियर के कारण कथित तौर पर 24 बच्चों की मौत के बाद हुई है, जिन्होंने मिलावटी कोल्ड्रिफ कफ सिरप का सेवन किया था. इस त्रासदी के कारण विश्व स्वास्थ्य संगठन (डबल्यूएचओ) ने पहले ही भारत में पहचाने गए तीन “घटिया” ओरल कफ सिरप—कोल्ड्रिफ, रेस्पीफ्रेश टीआर और रीलाइफ के खिलाफ अलर्ट जारी किया था.
कर्नल सोफिया कुरैशी को आतंकियों की बहन बताने वाले मंत्री विजय शाह के केस का संज्ञान लेने वाले जज का ट्रांसफर
कर्नल सोफिया कुरैशी को आतंकियों की बहन बताने वाले मंत्री विजय शाह के बयान का स्वतः संज्ञान लेने वाले मध्यप्रदेश हाईकोर्ट के जज जस्टिस अतुल श्रीधरन का ट्रांसफर कर दिया गया है. जस्टिस श्रीधरन ने दमोह में कुशवाहा समाज के युवक से ब्राह्मण वर्ग के युवक के पैर धुलवाने के हालिया मामले का भी स्वत: संज्ञान लिया था और तीखी टिप्पणियां की थीं.
जानकारी के अनुसार, सुप्रीम कोर्ट कॉलेजियम ने पहले जस्टिस श्रीधरन को छत्तीसगढ़ हाईकोर्ट भेजने की अनुशंसा की थी, लेकिन केंद्र सरकार के आग्रह पर पुनर्विचार करते हुए 14 अक्टूबर को आदेश संशोधित किया गया और अब वे इलाहाबाद हाईकोर्ट जाएंगे. “लाइव लॉ” के अनुसार, जस्टिस श्रीधरन को 2016 में मध्यप्रदेश हाईकोर्ट के न्यायाधीश के रूप में पदोन्नत किया गया था. 2023 में, उन्हें उनके अनुरोध पर जम्मू-कश्मीर और लद्दाख हाईकोर्ट में स्थानांतरित कर दिया गया था, क्योंकि उनकी बेटी ने मध्यप्रदेश में वकालत शुरू कर दी थी. मार्च 2025 में, वह मध्यप्रदेश हाईकोर्ट लौट आए थे.
मध्यप्रदेश हाईकोर्ट में, जस्टिस श्रीधरन उस खंडपीठ का हिस्सा थे, जिसने राज्य के कैबिनेट मंत्री विजय शाह द्वारा कर्नल सोफिया कुरैशी के खिलाफ अपमानजनक टिप्पणी करने के बाद संज्ञान लिया था. जस्टिस श्रीधरन और जस्टिस अनुराधा शुक्ला की खंडपीठ ने शाह के खिलाफ स्वत: संज्ञान लेते हुए मामला शुरू किया, और कर्नल के खिलाफ उनकी टिप्पणियों को “खतरनाक” बताया था.
जस्टिस श्रीधरन ने कहा था, “उनकी टिप्पणियां खतरनाक हैं, क्योंकि अब वे इस देश के सशस्त्र बलों तक पहुंचने लगी हैं,” और भारतीय न्याय संहिता (बीएनएस) की विभिन्न धाराओं के तहत तत्काल प्राथमिकी दर्ज करने का आदेश दिया था. न्यायालय की यह कार्रवाई शाह द्वारा कर्नल कुरैशी पर लक्षित एक टिप्पणी में उन्हें “आतंकवादियों की बहन” कहे जाने के बाद हुई थी. खास बात यह है कि जस्टिस श्रीधरन ने जम्मू और कश्मीर हाईकोर्ट में नज़रबंदी के मामलों पर बारीकी से जांच शुरू की थी.
बीते 14 अक्टूबर को जस्टिस श्रीधरन ने दमोह के पैर धुलाई कांड पर स्वत: संज्ञान लेते हुए कहा था- ‘ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र’ सभी अपनी स्वतंत्र पहचान का दावा कर रहे हैं. यदि इस पर नियंत्रण नहीं किया गया तो डेढ़ सदी के भीतर खुद को हिंदू कहने वाले लोग आपस में लड़कर अस्तित्वहीन हो जाएंगे. उन्होंने इस मामले में एनएसए के तहत कार्रवाई के निर्देश दिए थे.
खाली पड़ा है राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग, दिल्ली हाईकोर्ट ने केंद्र से जवाब मांगा
दिल्ली हाईकोर्ट ने राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग (एनसीएम) में लंबित रिक्तियों पर केंद्र सरकार से जवाब मांगा है. मुख्य न्यायाधीश देवेंद्र कुमार उपाध्याय और न्यायमूर्ति तुषार राव गेडेला की खंडपीठ ने मुजाहिद नफीस द्वारा दायर एक जनहित याचिका (पीआईएल) पर सुनवाई करते हुए, जिन्होंने खुद को पूरे भारत में अल्पसंख्यकों के कल्याण के लिए काम करने वाली अल्पसंख्यक समन्वय समिति का संयोजक बताया, यह कहा कि आयोग इतने लंबे समय तक बिना अध्यक्ष नहीं रह सकता.
इशिता मिश्रा की रिपोर्ट के मुताबिक, केंद्र सरकार के वकील को मामले में निर्देश प्राप्त करने के लिए समय देते हुए, अदालत ने कहा कि याचिका एक बहुत ही महत्वपूर्ण मुद्दा उठा रही है.
अदालत ने कहा, “सुनवाई की अगली तारीख का इंतजार न करें. कृपया सुनिश्चित करें कि चीजें आगे बढ़ना शुरू हों.” याचिका में कहा गया है कि एनसीएम के अध्यक्ष, उपाध्यक्ष और सदस्यों के पद अप्रैल से खाली पड़े हैं, जिस महीने इकबाल सिंह लालपुरा ने अध्यक्ष के रूप में अपना कार्यकाल पूरा किया था.
अल्पसंख्यक मामलों के मंत्रालय के तहत काम करने वाले और अर्ध-न्यायिक शक्तियां रखने वाले राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग में अध्यक्ष और उपाध्यक्ष सहित सात सदस्य होने चाहिए. राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग अधिनियम, 1992 में छह अल्पसंख्यक समुदायों - मुस्लिम, ईसाई, सिख, बौद्ध, पारसी और जैन - में से प्रत्येक से एक सदस्य की नियुक्ति अनिवार्य है.
याचिका में कहा गया है, “केंद्र द्वारा इसके प्रमुख और सदस्यों की नियुक्ति करने में विफलता के कारण राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग का काम पूरी तरह से और व्यवस्थित रूप से बाधित हो रहा है.”
याचिका में आगे कहा गया है कि सरकार की निष्क्रियता इस तथ्य से और भी बढ़ गई है कि यह उच्च न्यायालय के एक पिछले आदेश की भावना का सीधा उल्लंघन है, जिसमें उसने इस तरह की देरी पर अपना असंतोष व्यक्त किया था.
बेरोज़गारी दर सितंबर में बढ़कर 5.2% हुई, ग्रामीण क्षेत्रों में तेज़ी से वृद्धि
सितंबर में श्रम बाज़ार की गति धीमी हुई, क्योंकि राष्ट्रीय सांख्यिकी कार्यालय (एनएसओ) द्वारा बुधवार को जारी आवधिक श्रम बल सर्वेक्षण (पीएलएफएस) के मासिक आंकड़ों के अनुसार, बेरोज़गारी दर अगस्त में 5.1 प्रतिशत से मामूली रूप से बढ़कर सितंबर में 5.2 प्रतिशत हो गई. वहीं, ग्रामीण क्षेत्रों में बेरोज़गारी में वृद्धि तेज़ी से देखी गई.
“बिजनेस स्टैंडर्ड” में शिवा राजोरा की रिपोर्ट के अनुसार, 15 वर्ष और उससे अधिक आयु के लोगों के लिए बेरोज़गारी दर (वर्तमान साप्ताहिक स्थिति – सीडब्ल्यूएस) अगस्त में 4.3 प्रतिशत से बढ़कर सितंबर में 4.6 प्रतिशत हो गई, जो जून के बाद से सबसे अधिक है.
शहरी क्षेत्रों के लिए, बेरोज़गारी दर अगस्त में 6.7 प्रतिशत से मामूली रूप से बढ़कर सितंबर में 6.8 प्रतिशत हो गई. आंकड़ों से पता चला कि संबंधित अवधि में पुरुषों के बीच बेरोज़गारी दर 5 प्रतिशत से बढ़कर 5.1 प्रतिशत हो गई, जबकि महिलाओं के बीच यह 5.2 प्रतिशत से बढ़कर 5.5 प्रतिशत हो गई. इस बीच, श्रम बल भागीदारी दर (एलएफपीआर), जो काम करने या काम की तलाश करने वाले लोगों के अनुपात का एक माप है, सितंबर में 55.3 प्रतिशत दर्ज की गई, जो अगस्त में 57.4 प्रतिशत थी.
अगस्त में 57 प्रतिशत की तुलना में शहरी क्षेत्रों में एलएफपीआर सितंबर में 50.9 प्रतिशत पर अपरिवर्तित रही. पुरुषों के लिए, एलएफपीआर अगस्त में 77 प्रतिशत से घटकर सितंबर में 77.1 प्रतिशत हो गई. महिलाओं के लिए, एलएफपीआर अगस्त में 33.7 प्रतिशत से बढ़कर सितंबर में 34.1 प्रतिशत हो गई.
15-29 वर्ष की आयु वर्ग के युवाओं के बीच, बेरोज़गारी दर 14.6 प्रतिशत से बढ़कर 15 प्रतिशत हो गई. महिलाओं के लिए बेरोज़गारी दर मामूली रूप से 13.5 प्रतिशत से बढ़कर 13.9 प्रतिशत हो गई, जबकि पुरुषों के लिए यह 17.8 प्रतिशत पर अपरिवर्तित रही. ये आंकड़े महत्वपूर्ण हैं, क्योंकि इस आयु वर्ग से संबंधित लोग श्रम बाजार में पहली बार प्रवेश कर रहे हैं और यह मेट्रिक उनके प्रतिबिंब को दर्शाता है.
भारत में हाथी आबादी के अनुमान में भारी गिरावट
भारत में जंगली हाथियों की आबादी के अनुमान में एक-चौथाई की तेज़ी से गिरावट आई है, एक नए ‘डीएनए सिस्टम’ को शामिल करते हुए किए गए एक सरकारी सर्वेक्षण से पता चला है, जो अब तक की सबसे सटीक लेकिन गंभीर गणना है.
भारत दुनिया के शेष जंगली एशियाई हाथियों की बहुसंख्यक आबादी का घर है, एक प्रजाति जिसे प्रकृति के संरक्षण के लिए अंतर्राष्ट्रीय संघ (आईयूसीएन) द्वारा संकटग्रस्त के रूप में सूचीबद्ध किया गया है और सिकुड़ते आवास के कारण इस पर खतरा लगातार बढ़ रहा है.
“एएफपी” के अनुसार, इस सप्ताह जारी की गई भारतीय वन्यजीव संस्थान की नई अखिल भारतीय हाथी आकलन रिपोर्ट जंगली हाथियों की आबादी को 22,446 बताती है - जो 2017 में अनुमानित लगभग 29,964 से कम है, यानी 25 प्रतिशत की गिरावट.
इस सर्वेक्षण में 21,000 से अधिक गोबर के नमूनों के आनुवंशिक विश्लेषण, कैमरा ट्रैप के एक विशाल नेटवर्क और 6,67,000 किलोमीटर (4,14,400 मील) पैदल सर्वे का उपयोग किया गया. हालांकि, शोधकर्ताओं ने कहा कि कार्यप्रणाली में बदलाव का मतलब है कि परिणाम “पिछले आंकड़ों से तुलनीय नहीं हैं और इसे एक नई निगरानी आधार रेखा माना जा सकता है.”
रिपोर्ट में यह भी चेतावनी दी गई है कि ये आंकड़े भारत के सबसे प्रतिष्ठित जानवरों में से एक पर बढ़ते दबाव को दर्शाते हैं. इसमें कहा गया है, “भारत में हाथियों का वर्तमान वितरण उनके ऐतिहासिक क्षेत्र का महज एक छोटा अंश प्रस्तुत करता है,” यह अनुमान लगाते हुए कि वे अब उस क्षेत्र के केवल 3.5 प्रतिशत हिस्से पर ही कब्ज़ा करते हैं, जिस पर वे कभी घूमते थे. आवास हानि, विखंडन और बढ़ते मानव-हाथी संघर्ष इस गिरावट को बढ़ा रहे हैं.
रिपोर्ट में आगे कहा गया है, “बिजली के झटके और रेलों की टक्करें बड़ी संख्या में हाथियों की मौत का कारण बनती हैं, जबकि खनन और राजमार्ग निर्माण आवासों को बाधित करते हैं, जिससे मानव-वन्यजीव संघर्ष तेज होता है.”
पश्चिमी घाट—जो कर्नाटक, तमिलनाडु और केरल तक फैले हरे-भरे दक्षिणी ऊंचे मैदान हैं—लगभग 12,000 हाथियों के साथ एक प्रमुख गढ़ बने हुए हैं. लेकिन यहां भी, व्यावसायिक वृक्षारोपण, खेत की बाड़बंदी और मानवीय अतिक्रमण के कारण आबादी तेजी से एक-दूसरे से कटती जा रही है. एक अन्य प्रमुख आबादी केंद्र भारत के पूर्वोत्तर में स्थित है, जिसमें असम और ब्रह्मपुत्र के बाढ़ के मैदान शामिल हैं, जहां 6,500 से अधिक हाथी निवास करते हैं.
रिपोर्ट में कहा गया है, “इन कोमलकाय विशालकाय जीवों की भलाई सुनिश्चित करने के लिए गलियारों और कनेक्टिविटी को मजबूत करना, आवास को बहाल करना, सुरक्षा में सुधार करना और विकास परियोजनाओं के प्रभाव को कम करना समय की मांग है.”
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