16/12/2025 : मोदी का गुजरात, गुजरात के जंगल, अडानी का प्रोजेक्ट | रुपया 91 पार | हसीना पर आतंक फैलाने का आरोप | राहुल, सोनिया पर हेराल्ड केस खारिज | रटगर ब्रेगमन का रीथ लेक्चर | केंद्र बनाम केरल
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निधीश त्यागी, साथ में राजेश चतुर्वेदी, गौरव नौड़ियाल, फ़लक अफ़शां
आज की सुर्खियां
अडानी के लिए जंगल को बताया ‘बंजर’: गुजरात सरकार ने अडानी समूह के लिए वन भूमि हटाने को केंद्र से कहा, नियमों को किया दरकिनार.
रुपया पाताल में: डॉलर के मुकाबले 91 के पार पहुंचा रुपया, महंगाई की नई मार तैयार.
भारत से ‘टेरर’ फैला रहीं हसीना? बांग्लादेश का गंभीर आरोप, पूर्व पीएम के प्रत्यर्पण की मांग दोहराई.
रत्न-आभूषण निर्यात धड़ाम: अमेरिकी टैरिफ का असर, निर्यात में 70% की भारी गिरावट.
नेशनल हेराल्ड केस में राहत: कोर्ट ने राहुल-सोनिया के खिलाफ ED की शिकायत को बताया आधारहीन, केस ख़ारिज.
सिडनी हमलावर का हैदराबाद कनेक्शन: ऑस्ट्रेलिया में खूनी खेल खेलने वाला साजिद अकरम निकला भारतीय मूल का.
बिहार वोटर नोटिस पर SC सख़्त: 10 लाख नोटिस भेजने पर चुनाव आयोग से मांगा हलफनामा, कहा- केवल खबरों पर नहीं चलेगा काम.
मनरेगा खत्म करने की तैयारी? मोदी सरकार ला रही है नया बिल, मजदूरों के ‘काम के अधिकार’ पर लटकी तलवार.
नाम बदलने की सियासत: अब मनरेगा बनेगा ‘जी राम जी’? पुरानी योजनाओं पर नया लेबल चस्पा करने की होड़.
अफ़सरों की रेटिंग पर पर्दा: 360-डिग्री मूल्यांकन पर सरकार का यू-टर्न, नियम सार्वजनिक करने से किया इनकार.
महेश लांगा को मिली ज़मानत: सुप्रीम कोर्ट ने दी राहत, लेकिन केस के बारे में लिखने पर लगाई पाबंदी.
कॉमेडियनों को अमेरिका में मिली आज़ादी: भारत में तंग हुआ दायरा, NYT ने बताया- विदेश में खुल कर बोल रहे हैं देसी कलाकार.
हिंद महासागर में ड्रैगन की नज़र: चीन का पांचवां जासूसी पोत मालदीव की ओर, समुद्री सुरक्षा पर बढ़ी चिंता.
मशीनी युग में इंसानियत की जंग: रटगर ब्रेगमन का रीथ लेक्चर- AI और बिग टेक के खतरों के बीच मानवता को बचाने की अपील.
केरल का केंद्र को खुला चैलेंज: मंजूरी नहीं फिर भी दिखाई जाएंगी ‘बैटलशिप पोटेमकिन’ और फिलिस्तीनी फिल्में.
अडानी के लिए गुजरात सरकार ने केंद्र से जंगल हटाने की मांग की
‘द रिपोर्टर्स कलेक्टिव’ के इन्वेस्टिगेशन के अनुसार, भाजपा के नेतृत्व वाली गुजरात सरकार ने केंद्र सरकार से ‘ग्रीन क्रेडिट प्रोग्राम’ के तहत वनीकरण के लिए आरक्षित वन भूमि के कई हिस्सों को मुक्त करने का अनुरोध किया था. राज्य सरकार ने कहा कि अडानी समूह ने अपनी परियोजनाओं के लिए इन वन खंडों में से चार की ‘मांग’ की थी. रिपोर्ट में बताया गया है कि केंद्र सरकार की विशेषज्ञ संस्था (ICFRE), जो ग्रीन क्रेडिट प्रोग्राम की निगरानी करती है, ने शुरुआत में इसमें हिचकिचाहट दिखाई. संस्था ने नोट किया कि जिस जमीन को हरा-भरा बनाने के लिए चुना गया था, वहां वनों की कटाई की अनुमति देना “स्वभाव से ही विरोधाभासी” है.
इसके बाद गुजरात सरकार ने एक संशोधित तर्क प्रस्तुत किया. सरकार ने एक नई याचिका में केंद्र को बताया कि इन जमीनों पर कोई भी जंगल नहीं लगाना चाहता, इसलिए इन्हें उस कार्यक्रम से हटा दिया जाना चाहिए जिसे मोदी सरकार ने अक्टूबर 2023 में बड़े धूमधाम से शुरू किया था. केंद्र सरकार ने इस मांग को स्वीकार कर लिया और अपने मौजूदा नियमों को दरकिनार करते हुए, अडानी समूह द्वारा मूल रूप से मांगे गए कुल 63.44 हेक्टेयर के चार खंडों सहित कई अन्य खंडों को ग्रीन क्रेडिट प्रोग्राम से हटा दिया. जब ‘द रिपोर्टर्स कलेक्टिव’ ने गुजरात सरकार से सवाल पूछे, तो उन्होंने अडानी समूह के लिए वन भूमि हटाने के अनुरोध से इनकार किया, हालांकि कलेक्टिव के पास मौजूद रिकॉर्ड बताते हैं कि उन्होंने मूल रूप से ऐसा किया था. अडानी समूह ने भी विस्तृत जानकारी मांगने के बाद कहा कि वे परियोजना के विवरण के बिना टिप्पणी नहीं कर सकते.
ग्रीन क्रेडिट प्रोग्राम के तहत, केंद्र सरकार कंपनियों को अपनी पर्यावरणीय जिम्मेदारियों को पूरा करने के लिए खराब हो चुकी वन भूमि पर पेड़ लगाने और ‘ग्रीन क्रेडिट’ अर्जित करने की अनुमति देती है. गुजरात सरकार ने सबसे पहले इस योजना के लिए भूमि की पहचान की थी, लेकिन जुलाई 2024 में राज्य के वन विभाग ने ICFRE को पत्र लिखकर 13 भूमि खंडों को हटाने का अनुरोध किया, जिनमें से चार के बारे में स्पष्ट रूप से लिखा गया था कि ये “अडानी कंपनी के प्रस्ताव में मांगे गए हैं”. पर्यावरण मंत्रालय के आंतरिक नोट्स भी पुष्टि करते हैं कि गुजरात सरकार ने अडानी समूह के हितों का हवाला दिया था. हालांकि, अब इन जमीनों को वनीकरण सूची से हटा दिया गया है, जिससे वहां औद्योगिक उपयोग का रास्ता साफ हो सकता है.
रुपया नए रिकॉर्ड निचले स्तर पर, डॉलर के मुकाबले 91 का आंकड़ा पार
भारतीय रुपया मंगलवार, को दोपहर के कारोबार में 36 पैसे कमजोर होकर अमेरिकी डॉलर के मुकाबले 91.14 के एक नए रिकॉर्ड निचले स्तर पर आ गया. लगातार विदेशी संस्थागत निवेशकों के बहिर्वाह के दबाव और संभावित भारत-अमेरिका व्यापार समझौते को लेकर बनी अनिश्चितता के बीच, यह लगातार चौथा सत्र था जब रुपये ने एक नया सर्वकालिक निचला स्तर छुआ है.
“इकोनामिक टाइम्स” के अनुसार, 2025 में रुपये का 6% से अधिक का अवमूल्यन हुआ है, जिससे यह एशिया में सबसे खराब प्रदर्शन करने वाली मुद्रा बन गई है. हालिया गिरावट को कई वैश्विक और घरेलू दबावों के लिए जिम्मेदार ठहराया गया है. विदेशी निवेशकों द्वारा भारतीय परिसंपत्तियों की निरंतर बिकवाली एक प्राथमिक कारण है. आयातकों की अमेरिकी डॉलर की उच्च मांग ने रुपये के मूल्य पर महत्वपूर्ण दबाव डाला है. व्यापक वैश्विक आर्थिक स्थितियां और एक विलंबित भारत-अमेरिका व्यापार समझौते के आसपास की अनिश्चितता ने सतर्क बाजार की भावना में योगदान दिया है. बढ़ता व्यापार अंतर: आयात और निर्यात के बीच का अंतर भी मुद्रा पर दबाव डाल रहा है.
ढाका ने कहा, हसीना भारत की धरती से आतंकवादी गतिविधियों को भड़का रहीं
“द वायर” की रिपोर्ट के अनुसार, भारत ने ढाका के उन आरोपों को “स्पष्ट रूप से” खारिज किया है, जो बांग्लादेश ने नई दिल्ली के उच्चायुक्त को तलब कर लगाए थे. बांग्लादेश ने उच्चायुक्त को तलब कर पूर्व प्रधानमंत्री शेख हसीना की गतिविधियों को “भड़काऊ” बताते हुए उनका विरोध किया. साथ ही बांग्लादेशी युवा नेता शरीफ उस्मान हादी की कथित हत्या के प्रयास मामले में नई दिल्ली से सहयोग मांगा. इस बैठक के दौरान, बांग्लादेश की अंतरिम सरकार ने इस बात पर अपनी “गंभीर चिंता” व्यक्त की कि हसीना भारत की धरती से कथित तौर पर “आतंकवादी गतिविधियों” को भड़का रही हैं, जिसका उद्देश्य आगामी चुनावों को कमजोर करना है. बांग्लादेश ने हसीना और पूर्व गृह मंत्री असदुज्जमां खान कमाल के “तेजी से प्रत्यर्पण” की मांग को भी दोहराया, ताकि वे बांग्लादेशी अदालतों द्वारा सुनाए गए फैसलों का सामना कर सकें.
रत्न-आभूषण निर्यात में 70% की गिरावट
“डेक्कन क्रॉनिकल” की रिपोर्ट के अनुसार, 50% अमेरिकी टैरिफ के कारण रत्न और आभूषण क्षेत्र सबसे अधिक प्रभावित हुआ है, जिसके कारण सितंबर के बाद से अमेरिका को होने वाले निर्यात में लगभग 70% की भारी गिरावट आई है. अप्रैल और अगस्त के बीच, इन निर्यातों में पहले ही 34% की गिरावट आ चुकी थी, जो इस क्षेत्र पर गंभीर प्रभाव को उजागर करता है.
संगीता जी लिखती हैं कि अमेरिकी आयातों में उनकी हिस्सेदारी 2012 के 18.5% से तेज़ी से गिरकर अब केवल 11.5% रह गई है, जबकि भारत के कुल माल निर्यात में उनका समग्र योगदान वित्तीय वर्ष 2013 के 15% से घटकर वित्तीय वर्ष 2025 में 7% हो गया है. एक अन्य क्षेत्र जो बुरी तरह प्रभावित हुआ है, वह रेडीमेड वस्त्र का है, जहां सितंबर के बाद निर्यात में गिरावट बढ़कर 31.1% हो गई है.
नेशनल हेराल्ड केस: राहुल और सोनिया गांधी को राहत, कोर्ट ने शिकायत खारिज की
दिल्ली की एक अदालत ने मंगलवार को नेशनल हेराल्ड मामले के संबंध में कांग्रेस नेताओं राहुल गांधी और सोनिया गांधी के खिलाफ प्रवर्तन निदेशालय (ईडी) द्वारा दायर मनी लॉन्ड्रिंग शिकायत को खारिज कर दिया.
राउज एवेन्यू कोर्ट के विशेष न्यायाधीश (पीसी एक्ट) विशाल गोगने ने कहा कि धन शोधन निवारण अधिनियम (पीएमएलए) के तहत ईडी द्वारा दायर की गई यह शिकायत सुनवाई योग्य नहीं है, क्योंकि यह मामला किसी एफआईआर पर आधारित नहीं था, बल्कि भाजपा नेता सुब्रमण्यम स्वामी द्वारा एक मजिस्ट्रेट के समक्ष दायर की गई एक निजी शिकायत पर आधारित था.
अदालत ने फैसला सुनाया, “चूंकि मनी लॉन्ड्रिंग के अपराध से संबंधित वर्तमान अभियोजन शिकायत एक सार्वजनिक व्यक्ति, डॉ. सुब्रमण्यम स्वामी द्वारा दायर की गई एक शिकायत पर संज्ञान और समन आदेश पर आधारित है, न कि किसी एफआईआर पर, इसलिए वर्तमान शिकायत का संज्ञान लेना कानून में अस्वीकार्य है.”
“बार एंड बेंच” के अनुसार, अदालत ने ज़ोर देकर कहा कि ईडी पीएमएलए की अनुसूची में उल्लिखित किसी अपराध के संबंध में केवल एफआईआर के आधार पर ही मनी लॉन्ड्रिंग का मामला शुरू कर सकती है.
सिडनी हमलावरों में से एक हैदराबाद का मूल निवासी, सरकार कर रही जांच
‘द हिंदू’ की रिपोर्ट के अनुसार, ऑस्ट्रेलिया के बॉन्डी बीच पर रविवार को हुए हमले में शामिल दो बंदूकधारियों में से एक, 50 वर्षीय साजिद अकरम, हैदराबाद का मूल निवासी है. इस हमले में कम से कम 16 लोगों की मौत हो गई थी. भारतीय सरकारी अधिकारियों ने बताया कि अकरम 1998 में छात्र वीजा पर ऑस्ट्रेलिया गया था और तब से केवल दो-तीन बार ही भारत आया था. अधिकारियों के मुताबिक, उसका परिवार हैदराबाद के टोलीचौकी में रहता है और उसका बड़ा भाई डॉक्टर है. अकरम ने 2017 में अपने पिता के अंतिम संस्कार में भी भाग नहीं लिया था.
रिपोर्ट में बताया गया है कि दूसरा हमलावर, अकरम का बेटा नवीद (जो पुलिस की गोली से घायल हुआ), 2001 में ऑस्ट्रेलिया में पैदा हुआ था और वह ऑस्ट्रेलियाई नागरिक है. अकरम ने वहां एक यूरोपीय महिला से शादी की थी लेकिन अपना भारतीय पासपोर्ट बरकरार रखा था. अधिकारियों का कहना है कि अब तक की जांच में अकरम का हैदराबाद में कोई स्थानीय आतंकी लिंक सामने नहीं आया है. फिलीपींस के आव्रजन अधिकारियों ने भी पुष्टि की है कि साजिद और नवीद नवंबर 2025 में एक साथ मनीला गए थे. ऑस्ट्रेलिया के प्रधानमंत्री एंथनी अल्बानीस ने हमलावरों की उत्पत्ति पर टिप्पणी करने से इनकार कर दिया है और इसे जांच का विषय बताया है.
बिहार वोटर नोटिस मामला: सुप्रीम कोर्ट ने कहा, केवल खबरों के आधार पर चुनाव आयोग से जवाब नहीं मांग सकते
‘द इंडियन एक्सप्रेस’ की एक रिपोर्ट, जिसमें बिहार में मतदाताओं को केंद्रीय स्तर से भेजे गए लाखों नोटिसों में प्रक्रियात्मक उल्लंघन का आरोप लगाया गया था, का मामला मंगलवार को सुप्रीम कोर्ट में उठा. वरिष्ठ वकील प्रशांत भूषण ने अदालत को बताया कि यह एक “बहुत गंभीर” मामला है, जहां जन प्रतिनिधित्व अधिनियम की धारा 23 का उल्लंघन करते हुए चुनाव आयोग के केंद्रीकृत पोर्टल से 10 लाख से अधिक लोगों को नोटिस भेजे गए हैं. कानूनन केवल स्थानीय निर्वाचक निबंधन अधिकारी (ERO) ही नोटिस जारी कर सकता है.
हालांकि, सीजेआई संजीव खन्ना की पीठ ने कहा कि कोर्ट केवल अखबार की खबरों के आधार पर चुनाव आयोग (ECI) को जवाब देने के लिए नहीं कह सकता. सीजेआई ने कहा, “किसी को इसकी पुष्टि करनी होगी... आप हलफनामा दायर करें.” चुनाव आयोग की ओर से पेश वरिष्ठ वकील राकेश द्विवेदी ने आरोपों का खंडन करते हुए कहा कि वे समाचार रिपोर्टों का जवाब नहीं देंगे.
‘द इंडियन एक्सप्रेस’ की मूल रिपोर्ट में खुलासा किया गया था कि बिहार में EROs को अपने लॉग-इन पर “पहले से भरे हुए” (pre-filled) नोटिस मिले, जो उनके द्वारा तैयार नहीं किए गए थे. ये नोटिस उन मतदाताओं को भेजे गए थे जिन्होंने पहले ही दस्तावेज जमा कर दिए थे. रिपोर्ट में बताया गया कि नोटिसों में दस्तावेजों को “अधूरा” बताया गया था. चुनाव आयोग के अधिकारियों ने अनौपचारिक रूप से कहा कि यह “तार्किक त्रुटियों” (logical errors) के कारण हुआ, लेकिन इस केंद्रीकृत हस्तक्षेप ने चुनावी प्रक्रिया की अखंडता और जवाबदेही पर सवाल खड़े कर दिए हैं.
मनरेगा को खत्म करने वाला बिल? नए रोजगार गारंटी कानून पर विशेषज्ञों की चिंता
‘स्क्रॉल डॉट इन’ पर तबस्सुम बरनगरवाला की रिपोर्ट के अनुसार, केंद्र सरकार महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम (MGNREGA) को एक नए कानून से बदलने की योजना बना रही है, जिसे लेकर विशेषज्ञों ने गंभीर चिंता जताई है. प्रस्तावित ‘विकसित भारत गारंटी फॉर रोजगार एंड आजीविका मिशन (VB-G RAM G) बिल, 2025’ के बारे में अर्थशास्त्री ज्यां द्रेज और अन्य कार्यकर्ताओं का कहना है कि यह बिल मौजूदा कानून के कई महत्वपूर्ण प्रावधानों को कमजोर कर देगा जो ग्रामीण मजदूरों को सशक्त बनाते हैं.
नए बिल के तहत मनरेगा की मांग-आधारित प्रकृति को खत्म कर निर्णय लेने की शक्ति केंद्र सरकार के पास केंद्रित की जा रही है. अब ग्राम पंचायतें काम की मांग के आधार पर आवंटन नहीं कर पाएंगी, बल्कि केंद्र सरकार तय करेगी कि किस राज्य और क्षेत्र में कितना काम आवंटित किया जाएगा. इसके अलावा, वित्तीय बोझ का एक बड़ा हिस्सा राज्यों पर डाला जा रहा है. जहां पहले केंद्र सरकार मजदूरी का 100% भुगतान करती थी, वहीं नए प्रस्ताव के अनुसार केंद्र केवल 60% देगा और शेष राशि राज्यों को वहन करनी होगी. उत्तर-पूर्वी और पहाड़ी राज्यों के लिए यह अनुपात 90:10 होगा.
लिबटेक इंडिया के शोधकर्ता चक्रधर बुद्धा और सामाजिक कार्यकर्ता निखिल डे का कहना है कि यह बिल मजदूरों के “काम के अधिकार” को छीन लेगा. बिल में कृषि सीजन के दौरान 60 दिनों तक काम पर रोक लगाने का भी प्रस्ताव है, जिसे विशेषज्ञ मजदूरों की सौदेबाजी की क्षमता (bargaining power) को कमजोर करने और उन्हें जमींदारों या कम वेतन पर काम करने के लिए मजबूर करने वाला कदम मान रहे हैं. इसके अलावा, उपस्थिति और भुगतान के लिए आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस (AI) और डैशबोर्ड के उपयोग का प्रस्ताव भी रखा गया है, जिससे तकनीकी बाधाओं के कारण मजदूरों को काम मिलने में और मुश्किलें आ सकती हैं.
मनरेगा से ‘जी राम जी’ तक: भाजपा सरकार द्वारा योजनाओं के नाम बदलने का सिलसिला जारी

‘द इंडियन एक्सप्रेस’ की रिपोर्ट बताती है कि भाजपा सरकार द्वारा मनरेगा (MGNREGA) का नाम बदलकर ‘जी राम जी’ (G Ram G) या इसी तरह के नए नामों का प्रस्ताव देना, योजनाओं और मंत्रालयों के नाम बदलने की एक लंबी श्रृंखला का हिस्सा है. यह कदम संघ के विऔपनिवेशीकरण (decolonization) के विचार और मैकालेवाद के प्रभाव को खत्म करने के एजेंडे से प्रेरित लगता है. रिपोर्ट के अनुसार, सरकार ने गांधी-नेहरू परिवार के नामों को हटाकर दीनदयाल उपाध्याय, अटल बिहारी वाजपेयी या हिंदी नामों को प्राथमिकता दी है.
कांग्रेस का आरोप है कि सरकार केवल “पैकेजिंग और ब्रांडिंग” में माहिर है और इसका उद्देश्य पुरानी योजनाओं का श्रेय लेना है. उदाहरण के तौर पर, ‘इंदिरा आवास योजना’ को ‘प्रधानमंत्री आवास योजना’, ‘राजीव गांधी ग्रामीण विद्युतीकरण योजना’ को ‘दीनदयाल उपाध्याय ग्राम ज्योति योजना’ और ‘राजपथ’ को ‘कर्तव्य पथ’ में बदला गया. इसके अलावा, कानूनों (IPC, CrPC) के नाम बदलकर भारतीय न्याय संहिता (BNS) आदि कर दिए गए हैं. प्रधानमंत्री के आवास का पता भी रेस कोर्स रोड से बदलकर लोक कल्याण मार्ग कर दिया गया था. यह रुझान दर्शाता है कि सरकार नामों के माध्यम से एक नई राजनीतिक और सांस्कृतिक पहचान स्थापित करना चाहती है.
सिविल सेवकों की 360-डिग्री मूल्यांकन प्रणाली पर सरकार का यू-टर्न
मोदी सरकार ने सिविल सेवकों के लिए विवादास्पद ‘360-डिग्री’ मूल्यांकन प्रणाली पर चुपचाप, लेकिन महत्वपूर्ण यू-टर्न लिया है. यह उलटफेर उत्तराखंड कैडर के भारतीय वन सेवा (आईएफएस) अधिकारी संजीव चतुर्वेदी से जुड़े एक मामले में सामने आया, जिसकी सुनवाई केंद्रीय प्रशासनिक न्यायाधिकरण (कैट) की नैनीताल सर्किट बेंच कर रही थी.
नरेंद्र सेठी के अनुसार, एक नए हलफनामे में, कार्मिक और प्रशिक्षण विभाग (डीओपीटी) ने दावा किया कि मल्टी-सोर्स फीडबैक (एमएसएफ) दिशानिर्देश मंत्रिमंडल की नियुक्ति समिति (एसीसी) द्वारा नियंत्रित हैं और वे सार्वजनिक क्षेत्र में नहीं हैं. सरकार ने कहा कि नियमों को सार्वजनिक रूप से प्रकट नहीं किया जा सकता है और उन्हें केवल सीलबंद लिफाफे में न्यायाधिकरण के साथ साझा किया जाएगा. यह स्थिति कार्मिक और प्रशिक्षण विभाग के ही अक्टूबर 2023 में उसी न्यायाधिकरण के समक्ष दायर किए गए हलफनामे के एकदम उलट है, जो एक बार फिर मोदी सरकार के तहत पारदर्शिता और जवाबदेही पर सवाल उठाता है.
पत्रकार महेश लांगा को मिली अंतरिम जमानत
सुप्रीम कोर्ट ने “द हिंदू” के गुजरात-स्थित पत्रकार महेश लांगा को अंतरिम जमानत दे दी है, जिन्हें पिछले साल अक्टूबर में जीएसटी और बाद में फरवरी में धन शोधन (मनी लॉन्ड्रिंग) के एक मामले में गिरफ्तार किया गया था. जमानत की शर्त के रूप में, भारत के मुख्य न्यायाधीश सूर्यकांत, न्यायमूर्ति जॉयमाल्या बागची और न्यायमूर्ति विपुल एम. पंचोली की पीठ ने लांगा को उनके खिलाफ लगे आरोपों से संबंधित कोई भी लेख लिखने से प्रतिबंधित कर दिया है. “स्क्रॉल” के मुताबिक सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता का अदालत से कहना था कि यह एक पत्रकार द्वारा धन उगाही का गंभीर मामला है. वहीं, लांगा की तरफ से पेश वरिष्ठ वकील कपिल सिब्बल ने कहा कि “उद्योगपतियों द्वारा पत्रकारों को टारगेट किया जाना भी गंभीर मामला है.”
न्यूयॉर्क टाइम्स की रिपोर्ट: हिंदीभाषी कॉमेडियनों को अमेरिका में मिल रही आज़ादी
“न्यूयॉर्क टाइम्स” की रिपोर्ट के अनुसार, मोदी सरकार के तहत भारत में कॉमेडी के लिए जगह सिकुड़ने के कारण, हिंदी भाषी कॉमेडियन न्यू जर्सी से लेकर कैलिफ़ोर्निया तक उन दर्शकों और स्वतंत्रता की खोज कर रहे हैं, जो उन्हें अपने देश में नहीं मिलती. कुणाल कामरा का ताज़ा उदाहरण सबके सामने है, जो राजनीतिक कटाक्ष करने के लिए नाना प्रकार की मुसीबतों का सामना कर रहे हैं. जाहिर है, वरुण ग्रोवर, जो अपनी तीखे तीखी राजनीतिक व्यंग्य के लिए जाने जाते हैं, ने यह उम्मीद की थी कि प्रवासी लोग सरकार या मोदी के बारे में चुटकुलों से दूर रहेंगे, लेकिन उनका पहला अमेरिकी दौरा हाउसफुल रहा. ग्रोवर ने कहा, “यह जानना अच्छा है कि भारत के बाहर का भारत भी उतना ही विविध है, जितना कि भारत के अंदर का भारत.” उन्हें यह जानकर खुशी हुई कि उनका अनुमान गलत साबित हुआ. सौरभ दातार के मुताबिक, ऐसा ही बीते अगस्त में भारतीय कॉमेडियन ज़ाकिर खान के साथ हुआ था, जब मैडिसन स्क्वायर गार्डन में हजारों लोग ज़ोर से हँसने के लिए जमा हो गए थे. हालांकि ज़ाकिर राजनीतिक व्यंग्य करने से परहेज करते हैं.
हिंद महासागर में चीन का पाँचवाँ ‘अनुसंधान’ पोत
चीन का पाँचवाँ ‘अनुसंधान’ पोत हिंद महासागर क्षेत्र में प्रवेश कर गया है, जो इस क्षेत्र में बीजिंग की बढ़ती समुद्री उपस्थिति को दर्शाता है. “दा यांग यी हाओ” नामक यह पोत, जो समुद्र तल के मानचित्रण और खनिज अनुसंधान के लिए सुसज्जित है, वर्तमान में मालदीव जा रहा है. यह घटनाक्रम ऐसे समय में आया है, जब अन्य चीनी अनुसंधान पोत पहले से ही इस क्षेत्र में सर्वेक्षण कार्य कर रहे हैं. जाहिर है, चीन हिंद महासागर में अपनी वैज्ञानिक और रणनीतिक गतिविधि को बढ़ा रहा है.
विचार
रीथ लेक्चर्स 2025 रटगर ब्रेगमन के साथ
यह रटगर ब्रेगमन का 2025 का चौथा और अंतिम रीथ लेक्चर है, जो स्टैनफ़र्ड यूनिवर्सिटी, सिलिकॉन वैली के केंद्र में दिया गया था. इस व्याख्यान में ब्रेगमन अपनी किशोरावस्था के दार्शनिक संकट से लेकर बर्ट्रेंड रसेल से प्रेरणा, मानव विकास की कहानी, और आज के डिजिटल युग में मानवता के सामने आने वाली चुनौतियों तक का सफ़र तय करते हैं. वे आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस और सोशल मीडिया के खतरों पर चर्चा करते हुए यह सवाल उठाते हैं कि इस तकनीकी क्रांति के दौर में हमें क्या पवित्र मानना चाहिए और मानवता की रक्षा कैसे करनी चाहिए. यह व्याख्यान धर्म के पाँच मूलभूत सवालों - हम कौन हैं, हम कहाँ से आए हैं, हम कहाँ जा रहे हैं, हमें कैसे जीना चाहिए, और क्या पवित्र है - के इर्द-गिर्द घूमता है. मोरल रेवोल्यूशन नाम की अपनी व्याख्यान श्रृंखला में, उन्होंने पहले ही हमारे राजनीतिक अभिजात वर्ग को उनके पतन और गैर-गंभीरता के लिए फटकार लगाई है. उन्होंने कहा कि इतिहास हमें बहुत कुछ सिखाता है कि कैसे छोटे समूह संगठित होकर दुनिया को बदल सकते हैं और कैसे व्यक्ति पूरी तरह से हमारे जीवन जीने के तरीके को फिर से ढाल सकते हैं, कभी-कभी बहुत ही क्रांतिकारी तरीकों से. अब, यह भाषण बिग टेक के बारे में केंद्रित है. क्या यह नियंत्रण से बाहर है? क्या यह मानव होने का सार ही खतरे में डाल रहा है? उन्होंने इस व्याख्यान को मशीन के युग में मानवता के लिए संघर्ष नाम दिया है. पहले तीन लैक्चर हिंदी में आप यहां, यहां और यहां पढ़ सकते हैं.
रटगर ब्रेगमन : मशीन के युग में मानवता के लिए संघर्ष
जब मैं 15 साल का था, तो मुझे लगा कि मैंने एक विशाल दार्शनिक खोज कर ली है. देर रात, अपने पुराने पेंटियम 4 कंप्यूटर पर झुके हुए, मैंने अपना पहला निबंध लिखा, परम सत्य तक तर्क से पहुँचने का एक ईमानदार प्रयास. इसका केंद्रीय दावा साहसी और लगभग ईशनिंदा वाला था. स्वतंत्र इच्छा का अस्तित्व संभवतः नहीं हो सकता. तर्क एकदम सही लग रहा था, कम से कम मेरे किशोर दिमाग़ के लिए. जिसे हम स्वतंत्र चुनाव कहते हैं वह उन कारणों का परिणाम भर है जिन्हें हमने नहीं चुना. मेरा चरित्र? मैंने उसे नहीं चुना था. जिस परिवार में मैं पैदा हुआ? मेरी पसंद नहीं. मेरा वातावरण, आनुवंशिकी और अनुभव सब कुछ मुझे मेरे बाहर की शक्तियों द्वारा सौंपे गए.
जब निर्णय मेरे सामने आया, तो यह बस उन सभी कारकों का मिलन बिंदु था जो क्रम में गिरते डोमिनो की तरह एकत्रित हो रहे थे. मैं हाँ या ना कह सकता था, लेकिन दोनों जवाब पहले से ही उन सब चीज़ों द्वारा निर्धारित थे जो पहले आ चुकी थीं. हफ़्तों तक, मैं सुन्न अवस्था में घूमता रहा, आश्वस्त था कि मैंने एक ऐसी सच्चाई उजागर की है जो मानव समाज की नींव हिला देनी चाहिए. मैंने हर उस व्यक्ति को बताया जो सुनेगा, स्कूल में दोस्तों को, रात के खाने पर परिवार को और बाइबल अध्ययन के दौरान अपने बेचारे शिक्षक को. मैं समझ नहीं पा रहा था कि वे मेरी खोज से उतने हिल क्यों नहीं रहे थे जितना मैं था. क्योंकि अचानक वे सभी चीज़ें जिन्हें मैं स्वीकृत मानता था, सही और ग़लत के विचार, स्वर्ग और नर्क, जीवन का पूरा अर्थ मुझे मनमानी कल्पनाएँ लगने लगीं. यह एक चट्टान के किनारे पर खड़े होने और यह एहसास करने जैसा था कि मेरे नीचे की ज़मीन हमेशा से एक भ्रम थी.
तीन साल बाद, चीज़ें और भी ख़राब हो गईं. तभी मैंने विकासवाद के सिद्धांत के बारे में सीखा. मैंने चार्ल्स डार्विन और उनके बाद आने वाले वैज्ञानिकों के बारे में जो कुछ भी मिल सकता था उसे निगल लिया, और डार्विन ने खुद लिखा था कि उनके सिद्धांत को प्रकाशित करना एक हत्या की स्वीकारोक्ति जैसा लगा. मैं पूरी तरह समझ गया क्यों. एक पादरी के बेटे के रूप में, मैं हमेशा विश्वास करता था कि एक उद्देश्य होना चाहिए, एक लक्ष्य, इतिहास का एक चाप, कि सभी दर्द और अराजकता के पीछे एक मार्गदर्शक हाथ था, एक उदार शक्ति जो जीवन को अर्थपूर्ण बनाती थी. लेकिन मुझे उसे विकासवाद के साथ कैसे मिलाना था, लाखों वर्षों की अंतहीन पीड़ा के साथ, जीवन के जीवन को निगलने के साथ? कुछ समय के लिए, मैंने तिनके पकड़े. मैंने इंटेलिजेंट डिज़ाइन के बारे में ढेर सारी किताबें पढ़ीं लेकिन उन्हें अविश्वसनीय पाया. मैंने मृत्यु के निकट के अनुभवों के बारे में पढ़ा, लेकिन स्वीकार करना पड़ा कि वहाँ कुछ नहीं था. मैंने चर्च और स्कूल में दोस्तों से पूछा कि उन्होंने जो मैंने सीखा था उसे कैसे समझा, लेकिन अधिकांश इसके बारे में सोचना पसंद नहीं करते थे. और फिर एक सुबह, मैं एक कठोर एहसास के साथ उठा. मैं अब विश्वास नहीं करता था. और नहीं, वह मुक्ति की तरह महसूस नहीं हुआ. यह नुकसान की तरह लगा, एक कहानी से बाहर गिरने का एहसास.
मैंने विश्वविद्यालय में इतिहास का अध्ययन शुरू किया, और इसके साथ बौद्धिक प्रभावों की एक नई लहर आई. मैंने हरमन फ़िलिप्सन, एक प्रमुख डच नास्तिक की व्याख्यान श्रृंखला में भाग लिया. वे तेज़, मज़ाकिया और निर्ममता से तार्किक थे. और एक बिंदु पर, उन्होंने बौद्धिक ईमानदारी की आवश्यकता के बारे में एक सहज टिप्पणी की. “सभी को,” फ़िलिप्सन ने कहा, “एक बौद्धिक नायक होना चाहिए.” और मैं उत्सुक हो गया. मेरा कौन होगा? अपने छात्र छात्रावास में वापस, मैंने एक उम्मीदवार के लिए विकिपीडिया खंगालना शुरू किया. और थोड़ी देर बाद, मुझे कोई ऐसा मिला जो जीवन भर का मार्गदर्शक बन जाएगा. बर्ट्रेंड रसेल, ब्रिटिश दार्शनिक जो 1872 से 1970 तक जीवित रहे. उनकी कहानी के बारे में प्यार करने के लिए बहुत कुछ था. सबसे पहले, वे एक विशाल विचारक थे. रसेल ने दर्शनशास्त्र के बड़े सवालों में गणित की सटीकता लाई. दूसरा, मैं उनके साहस से प्रभावित था. रसेल केवल हाथी दांत के टॉवर में एक अकादमिक नहीं थे; वे एक सार्वजनिक बुद्धिजीवी थे जिन्होंने अपने विवेक पर काम किया. उन्होंने प्रथम विश्व युद्ध के ख़िलाफ़ अभियान चलाया, अपने शांतिवाद के लिए जेल गए, और परमाणु निरस्त्रीकरण की लड़ाई में एक प्रमुख आवाज़ बन गए. बार-बार, उन्होंने भीड़ के साथ जाने से इनकार कर दिया. जब वे अमेरिका आए, तो रसेल को रद्द भी कर दिया गया. ब्रुकलिन की एक माँ ने उनकी सिटी कॉलेज ऑफ़ न्यूयॉर्क में नियुक्ति को रोकने के लिए मुक़दमा दायर किया क्योंकि उन्हें डर था कि वे अपने नास्तिकता और सेक्स पर उदार विचारों से युवाओं के दिमाग़ को ज़हर देंगे. न्यूयॉर्क सुप्रीम कोर्ट सहमत हो गई और उन्हें नैतिक रूप से पढ़ाने के लिए अयोग्य घोषित कर दिया. यह तब था जब अल्बर्ट आइंस्टीन ने अपनी प्रसिद्ध टिप्पणी की कि महान दिमाग़ों को हमेशा सामान्य दिमाग़ों से हिंसक विरोध का सामना करना पड़ा है.
अंत में, रसेल के जीवन की सरासर समृद्धि थी. चार शादियाँ, एक प्रगतिशील स्कूल के संस्थापक, एक विमान दुर्घटना से बचे, साहित्य में नोबेल पुरस्कार विजेता, 60 से अधिक पुस्तकों, 2,000 लेखों और 40,000 पत्रों के लेखक. रसेल लगभग एक सदी जीए, और अंत से ठीक पहले, एक विशाल 750 पन्नों की आत्मकथा छोड़ गए मानो एक जीवन उन्हें समा नहीं सकता था. मुझे याद है एक पीला संस्करण ख़रीदना, उसके पन्ने उम्र से भंगुर थे, और शुरुआती पत्ते पर, शीर्षक के नीचे, मैं किस लिए जीया, मैंने अंग्रेज़ी में सबसे सुंदर शब्द पढ़े जो मैंने कभी देखे थे. रसेल ने लिखा:
“तीन जुनून, सरल लेकिन अत्यधिक शक्तिशाली, ने मेरे जीवन पर शासन किया.” प्रेम की लालसा, ज्ञान की खोज, और मानव जाति की पीड़ा के लिए असहनीय दया. ये जुनून, महान हवाओं की तरह, मुझे इधर-उधर उड़ा ले गए हैं, पीड़ा के एक महान महासागर पर एक अड़ियल मार्ग में, निराशा के बिल्कुल किनारे तक पहुँच गए.
जैसे ही मैंने अध्याय पलटा, मैं यह जानकर चकित रह गया कि रसेल ने उसी किशोर संकट का सामना किया था जो मैंने एक बार किया था. 15 साल की उम्र में, उन्होंने भी स्वतंत्र इच्छा पर सवाल उठाना शुरू कर दिया था. उन्होंने दर्दनाक ध्यान में लंबे घंटे बिताए थे जब उनका विश्वास घुल गया, अपनी शंकाओं को एक गुप्त नोटबुक में दर्ज करते हुए. और उन पन्नों को पढ़ते हुए, मुझे लगा जैसे मुझे समय के पार एक समान आत्मा मिल गई है, एक और किशोर अगाध में घूर रहा है. वह भय और उत्साह के मिश्रण से जकड़ा हुआ था इस विचार पर कि दुनिया उससे पूरी तरह अलग हो सकती है जो वह एक बार मानता था.
अपने पेंटियम 4 पर, मैंने यूट्यूब नामक एक उत्सुक नई वेबसाइट खोली, जहाँ मुझे 1959 से रसेल के साथ एक बीबीसी साक्षात्कार मिला. जब पूछा गया कि वे भविष्य की पीढ़ी को क्या सलाह देंगे, उन्होंने दो सिद्धांत दिए, एक बौद्धिक, एक नैतिक. उनकी बौद्धिक सलाह थी दुनिया को वैसे ही देखना जैसी वह वास्तव में है, न कि जैसी आप उसे देखना चाहते हैं. और उनकी नैतिक सलाह थी हमारे मतभेदों को सहन करना. या, उनके शब्दों में, प्रेम बुद्धिमान है, घृणा मूर्खता है.
बर्ट्रेंड रसेल ने केवल मेरी किशोर शंकाओं की प्रतिध्वनि नहीं की. उन्होंने कैसे जीना है इसका एक मॉडल पेश किया. उनके लेखन ने एक कट्टरपंथी मानवतावाद विकीर्ण किया जो उतना ही ईमानदार था जितना दयालु. यहाँ एक आदमी था जिसने अपना बचपन का विश्वास खो दिया था, जिसने शून्य का सामना किया था, और जो अभी भी उद्देश्य से भरा जीवन जीता था. उन्होंने सच्चाई का पीछा उस कठोरता के साथ किया जिसने दर्शनशास्त्र को फिर से आकार दिया. उन्होंने शांति के लिए उस हठ के साथ लड़ाई लड़ी जिसने उन्हें जेल में डाल दिया. उन्होंने स्वतंत्रता का बचाव किया तब भी जब इसकी कीमत उनकी नौकरी थी. उन्होंने प्यार किया, असफल हुए, फिर से शुरू किया और काम का एक निकाय छोड़ गए जो प्रेरित करता रहता है. और ऐसा करके, उन्होंने एक अलग तरह की अमरता प्रकट की. मृत्यु का इनकार नहीं, बल्कि अपने जीवन से एक स्मारक बनाना.
मुझे स्वीकार करना होगा कि जब मुझे पहली बार इन वार्ताओं के लिए आमंत्रित किया गया था, तो मैंने रीथ लेक्चर्स के बारे में कभी नहीं सुना था; ऐसे हैं एक डचमैन के रूप में किसी की शिक्षा में अंतराल. लेकिन आप मेरे विस्मय की कल्पना कर सकते हैं जब मुझे पता चला कि बर्ट्रेंड रसेल के अलावा और किसी ने नहीं, 1948 में पहली श्रृंखला दी थी. बेशक, मुझे इम्पोस्टर सिंड्रोम का एक बड़ा मामला था. ऐसे पदचिह्नों का अनुसरण करने के लिए मैं कौन था? मुझे इस तथ्य में कुछ सांत्वना मिली कि रसेल की शुरुआत भी सुचारु रूप से नहीं हुई. लॉर्ड रीथ ने खुद, बीबीसी के पहले डायरेक्टर जनरल ने, अपनी डायरी में लिखा, “बर्ट्रेंड रसेल द्वारा पहला रीथ लेक्चर सुनें. वह बहुत तेज़ी से गए और उनकी आवाज़ ख़राब है. हालाँकि, मैंने उन्हें एक सभ्य नोट लिखा.” क्या यह ब्रिटिश नहीं है?
रसेल ने द्वितीय विश्व युद्ध की भयावहता और परमाणु बम के आविष्कार के तुरंत बाद बात की. पहली बार, मानवता ने अपने आप को नष्ट करने की शक्ति हासिल की थी. रसेल इतिहास के एक मोड़ पर खड़े थे, यह पूछते हुए कि मानवता क्या बन गई थी और यह अभी क्या हो सकती थी. हम भी ऐसे ही एक क्षण में जी रहे हैं. युद्ध छिड़ रहे हैं, लोकतंत्र लड़खड़ा रहा है, और एक बार फिर, एक क्रांतिकारी तकनीक हमारे अस्तित्व को खतरे में डाल रही है.
इतिहास में पहली बार, हम ऐसी मशीनें बना रहे हैं जो हमारी बुद्धिमत्ता को टक्कर दे सकती हैं या उससे आगे निकल सकती हैं. दाँव शायद ही और अधिक हो सकते थे. हम धर्म के आराम के बिना इस पल का सामना कैसे कर सकते हैं? जब से मैंने अपना विश्वास खोया है, मैं सोच रहा हूँ कि इसकी जगह क्या ले सकता है. धर्म सभी उन्हीं पाँच सवालों के इर्द-गिर्द घूमते हैं. हम कौन हैं? हम कहाँ से आए? हम कहाँ जा रहे हैं? हमें कैसे जीना चाहिए? और, अगर कुछ है, तो क्या पवित्र है? अपनी सभी किताबों में, यूटोपिया फ़ॉर रियलिस्ट्स, ह्यूमनकाइंड, और मोरल एम्बिशन में, मैं उन सवालों से जूझता रहा हूँ. मेरा पूरा करियर इतिहास में वह खोजने का प्रयास रहा है जो दूसरे धर्मशास्त्र में खोजते हैं.
जब मैं एक किशोर था, तो मेरे विश्वास के नुकसान ने मुझे भूकंप की तरह मारा, और मुझे विश्वास है कि हमारी पूरी संस्कृति अब कुछ ऐसा ही अनुभव कर रही है. सनीकवाद और उदासीनता फैल रही है, और लोग अपने अभिजात वर्ग से धोखा महसूस करते हैं. मार्गदर्शन के पुराने स्रोत, विश्वास, समुदाय, परंपरा ख़त्म हो रहे हैं, फिर भी उतनी ही शक्तिशाली कोई चीज़ उनकी जगह नहीं ले पाई है. हम एक बहती हुई संस्कृति हैं, अर्थ की तलाश में लेकिन ज़्यादातर विकर्षण पा रहे हैं.
अर्थ की वह तलाश इन व्याख्यानों में धमकी रही है. पहले में, मैंने हमारे नैतिक पतन का पता लगाया. मैंने वर्णन किया कि कैसे झूठे और धोखेबाज़ शीर्ष पर चढ़ते हैं जबकि ईमानदारी और सत्यनिष्ठा को एक तरफ़ धकेल दिया जाता है. दूसरे में, मैंने मुक्ति के लिए एक प्लेबुक रखी, उन महान नैतिक अग्रदूतों की कहानी बताई जो हमसे पहले आए थे. और तीसरे में, मैंने उनके पाठों को हमारे समय के लिए एक कार्यक्रम और योजना में बदल दिया. अगर वे तीन व्याख्यान ज़मीनी स्तर पर दिए गए उपदेश थे, तो यह आख़िरी ऊपर से देखता है, ईश्वर की दृष्टि से.
यहाँ, मैं धर्म के उन पाँच प्राचीन सवालों पर वापस आना चाहता हूँ. और उन्हें पूछने के लिए यहाँ से बेहतर कहाँ, स्टैनफ़र्ड यूनिवर्सिटी में, सिलिकॉन वैली के दिल में, जहाँ हमारे नए टेक अधिपति व्यस्त हैं ईश्वर जैसी बुद्धिमत्ता को बुलाने में?
मुझे पहले सवाल से शुरू करने दीजिए. हम कौन हैं? अपने किशोर संकट के दौरान, मुझे लगा कि जवाब गंभीर था. हमारा विकास अंतहीन दर्द और पीड़ा की कहानी की तरह लग रहा था. लेकिन बाद में, अपने शोध में, मैं एक अलग तस्वीर देखने आया, जो कहीं अधिक आशावादी है. अपनी किताब ह्यूमनकाइंड में, मैं तर्क देता हूँ कि हमारा असली फ़ायदा कभी भी सबसे मज़बूत या यहाँ तक कि सबसे चतुर जानवर होना नहीं था. इसके बजाय, हम उस चीज़ के उत्पाद हैं जिसे वैज्ञानिक सबसे मिलनसार के अस्तित्व को कहते हैं. हज़ारों वर्षों तक, वे थे जो सहयोग करने में सबसे सक्षम थे जिन्होंने अपने जीन पारित किए.
दूसरा सवाल, तो, हम कहाँ से आए? खैर, सैकड़ों हज़ार वर्षों तक, हमारे इतिहास का 95%, हम भटकने वाले शिकारी-संग्राहकों के रूप में जीते थे. और इस पुराने मिथक के विपरीत कि जीवन दयनीय और हिंसक था, हमारे समाज उल्लेखनीय रूप से समान, शांतिपूर्ण और आराम से थे. पुरातत्वविदों ने सभ्यता के उदय से पहले युद्ध का कोई गंभीर सबूत नहीं पाया है. लेकिन फिर हमने, जैसा कि महान विद्वान जेरेड डायमंड ने 1987 में लिखा, मानव जाति के इतिहास की सबसे बड़ी ग़लती की. मुझे एक छात्र के रूप में उनका निबंध पढ़ना और उनके तर्क की शक्ति से विस्मित होना याद है. खेती, डायमंड ने दिखाया, एक आपदा थी. खेतों और बाड़ों के साथ पदानुक्रम और राजा, युद्ध और ग़ुलामी आ गए. अगर चारा खोज का लंबा युग समानता की कहानी थी, तो खेती का युग उत्पीड़न की कहानी बन गया. कुछ धर्मशास्त्रियों को यह भी संदेह है कि ओल्ड टेस्टामेंट में पतन की कहानी उस नुकसान को समझने का एक प्रयास था, वह क्षण जब स्वर्ग को जोता गया.
और फिर भी, इतिहास वहाँ समाप्त नहीं हुआ. सहस्राब्दियों की पीठ तोड़ने वाली ग़रीबी के बाद, मानवता ने एक रास्ता खोज लिया, औद्योगिक क्रांति. पहली बार, आम लोग निर्वाह से बच सकते थे. हमने मशीनों का आविष्कार किया जिन्होंने हमारी शक्तियों को बढ़ाया, विशाल नई संपत्ति का उत्पादन किया, और हमारे जीवनकाल का विस्तार किया. 1750 से, हम महान त्वरण के दौर से गुज़र रहे हैं. ऊर्जा उपयोग, जनसंख्या, और उत्सर्जन सभी ने एक घातीय वक्र का पालन किया है. हम तेज़ गति से पृथ्वी को फिर से आकार दे रहे हैं. और फिर भी, इस सब के नीचे, हम वही पुरानी प्रजाति बने हुए हैं. हम ईश्वरीय शक्तियों वाले वानर हैं.
जो मुझे तीसरे सवाल पर लाता है. हम कहाँ जा रहे हैं? बड़ी टेक कंपनियों के सीईओ से पूछें, और वे आपको बताएँगे कि आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस का उदय औद्योगिक क्रांति से सौ गुना बड़ा है, कि यह वह अंतिम आविष्कार हो सकता है जो हम कभी करेंगे.
हम वर्तमान में विदेशी दिमाग़ बनाने की दौड़ में हैं, ऐसे सिस्टम जिन्हें हम समझ नहीं पाते हैं, और जिन्हें हम नियंत्रित करने में सक्षम नहीं हो सकते हैं. उन्हें इतना डिज़ाइन नहीं किया जाता जितना अस्तित्व में बुलाया जाता है. और इसलिए हमें पूछना चाहिए, क्या यह मानव जाति के इतिहास में नई, सबसे बड़ी ग़लती होगी?
खैर, संकेत अच्छे नहीं हैं. बस देखिए कि बिग टेक की पहली लहर ने हमारे साथ पहले ही क्या किया है. साक्षरता और संख्या कौशल के स्कोर गिर रहे हैं. किशोर अवसाद, चिंता, और आत्महत्या के प्रयास बढ़ रहे हैं. आमने-सामने सामाजिकता ढह रही है क्योंकि हम घर के अंदर पीछे हटते हैं, आँखें स्क्रीन से चिपकी हुई. एकांत हमारे युग की पहचान बनता जा रहा है. सबसे निराशाजनक संख्या जो मैंने देखी है वह यह है कि अमेरिकी किशोर अब 2003 की तुलना में 70% कम समय पार्टियों की मेज़बानी या भाग लेने में बिताते हैं, जब मैं 15 साल का था. 70%.
सोशल मीडिया ने कनेक्शन और समुदाय का वादा किया, लेकिन जो इसने दिया वह अलगाव और आक्रोश था. इंस्टाग्राम पर, लोग अपने 90% से अधिक समय उन लोगों से वीडियो देखने में बिताते हैं जिन्हें वे नहीं जानते. और प्लेटफ़ॉर्म उन्हें पुरस्कृत करते हैं जो सबसे ज़ोर से, सबसे ग़ुस्से में, और सबसे चरम होते हैं. या, जैसा कि नेचर में हालिया अध्ययन ने निष्कर्ष निकाला, उच्च मनोविकृति और कम संज्ञानात्मक क्षमता वाले लोग ऑनलाइन राजनीतिक जुड़ाव में सबसे सक्रिय रूप से शामिल हैं. यह सबसे मिलनसार का अस्तित्व नहीं है. यह सबसे निर्लज्ज का अस्तित्व है. तो, जैसे हमारी मानवता हमले के तहत है, चौथा सवाल हम पर ख़ुद को थोपता है. हमें कैसे जीना चाहिए? आश्चर्यजनक रूप से, मुझे विश्वास है कि हम अपने अतीत में जवाब पा सकते हैं.
अपने पिछले व्याख्यानों में, मैंने 19वीं सदी की दो नैतिक क्रांतियों के बारे में बात की, ग़ुलामी के ख़िलाफ़ लड़ाई और महिलाओं के अधिकारों के लिए संघर्ष. लेकिन मैंने अभी तक तीसरे का उल्लेख नहीं किया. संयम. कई ग़ुलामी विरोधी और मताधिकार कार्यकर्ता संयम कार्यकर्ता भी थे. यह आंदोलन आजकल काफ़ी हद तक भुला दिया गया है, लेकिन यह हमारे लिए महत्वपूर्ण सबक रखता है. उस समय, शराब एक आकस्मिक भोग नहीं बल्कि एक सामाजिक आपदा थी. कोई चेतावनी लेबल नहीं थे, कोई आयु प्रतिबंध नहीं, विज्ञापन पर कोई सीमा नहीं. सैलून हर गली के कोने पर बिखरे हुए थे, मज़दूरी बोतल में ग़ायब हो जाती थी, और परिवार हिंसा और उपेक्षा से फट गए. शराब उद्योग मानव कमज़ोरी से लाभान्वित हुआ जबकि पूरे समुदायों को तबाह कर रहा था. और इसलिए लोग इसके ख़िलाफ़ उठे. संयम आंदोलन इतिहास में सबसे बड़े लोकतांत्रिक आंदोलनों में से एक था, महिलाओं और मज़दूरों के नेतृत्व में. उनका मानना था कि असली स्वतंत्रता का मतलब पूरी तरह से उपस्थित होना था, मजबूरी पर कनेक्शन चुनना. उन्होंने व्यसन को उसके लिए देखा जो वह है, वह क्षण जब चुनाव की शक्ति अब मौजूद नहीं है. और इसलिए उन्होंने कट्टरपंथी उपायों की मांग की, उच्च कर, सख़्त लाइसेंसिंग, और यहाँ तक कि कुल निषेध.
आज, हम एक नए व्यसन उद्योग का सामना कर रहे हैं, शराब और व्हिस्की का नहीं, बल्कि ऐप्स और एल्गोरिदम का. स्टैनफ़र्ड के कई सबसे प्रतिभाशाली दिमाग़ एक एकल महान मोलोक बना रहे हैं, एक ध्यान अपहरण करने वाली मशीन जो हमारा फ़ोकस निगल जाती है, हमारा समय चुरा लेती है, और हमें घंटे-दर-घंटे खोखला छोड़ देती है. और एआई इसे सबकुछ सुपरचार्ज करने की धमकी देता है. लेकिन यहाँ सिलिकॉन वैली के लिए मेरी चेतावनी है. मुझे लगता है कि आप एक ड्रैगन जगा रहे हैं. सार्वजनिक ग़ुस्सा हलचल कर रहा है, और यह एक सदी पहले संयम अभियान के रूप में उतना ही भयंकर और अटल आंदोलन में बढ़ सकता है. पोल के बाद पोल पाता है कि पश्चिम भर में लोगों को लगता है कि एआई लगभग हर चीज़ को बदतर बना देगा जिसकी उन्हें परवाह है, हमारे स्वास्थ्य और संबंधों से लेकर हमारी नौकरियों और लोकतंत्रों तक. 3:1 के अंतर से, लोग अधिक विनियमन चाहते हैं. इतिहास दिखाता है कि यह आंदोलन नागरिकों के एक छोटे समूह द्वारा कैसे प्रज्वलित किया जा सकता है और यह कितना शक्तिशाली हो सकता है.
जैसे बर्ट्रेंड रसेल ने परमाणु हथियारों की दौड़ के ख़िलाफ़ बड़े पैमाने पर विरोध का नेतृत्व किया, हम जल्द ही एआई हथियारों की दौड़ के ख़िलाफ़ बड़े पैमाने पर प्रतिरोध देख सकते हैं. एक सदी पहले, संयम कार्यकर्ता शराब पर पूरी तरह से प्रतिबंध लगाने के लिए कांग्रेस के माध्यम से एक संवैधानिक संशोधन को धक्का देने में कामयाब रहे. अब, जो लोग कुछ समान रूप से कठोर उकसाने से बचना चाहते हैं उन्हें अतीत से सीखना चाहिए.
और यह मुझे अंतिम सवाल पर लाता है. क्या पवित्र है? इतिहास के इस मोड़ पर, हमें सबसे ऊपर क्या बचाना और ख़र्च करना चाहिए? रसेल की तरह, मुझे विश्वास है कि जवाब स्वर्ग में नहीं मिलना है, बल्कि यहाँ पृथ्वी पर, हमारे अपने मानव स्वभाव में. प्रेम की लालसा पवित्र है. ज्ञान की खोज पवित्र है. मानव जाति की पीड़ा के लिए असहनीय दया पवित्र है. और छोटी चीज़ें भी हैं. हँसी और गीत, दोस्ती के बंधन, खेल का आनंद, कला का चमत्कार, प्रकृति की सुंदरता, ध्यान का उपहार, सारी मानवता पवित्र है. यह वह रहस्योद्घाटन है जो हमारे इतिहास से बहता है. हम पतित पापी नहीं हैं. हम उगते हुए वानर हैं. मानव साहसिक कार्य का असली अर्थ स्वर्ग में नहीं मिलना है, बल्कि उस भविष्य में जिसे हम एक साथ बना सकते हैं.
और मुझे लगता है कि यह वह जगह भी है जहाँ स्वतंत्र इच्छा का मेरा युवा इनकार पूरा चक्र लगाता है. जब मैं 15 साल का था, तो यह शून्य में घूरने की तरह लगा. अगर वास्तव में कोई नियंत्रण में नहीं है, तो नैतिकता में क्या बचा है? लेकिन समय के साथ, मैं विपरीत निष्कर्ष पर पहुँचा हूँ. अगर हमारे जीवन इतिहास द्वारा आकार लिए गए हैं, उन ताकतों द्वारा जिन्हें हमने कभी नहीं चुना, तो लोग क्या के लायक हैं का पूरा विचार टूट जाता है. बेशक, आप इसे सबसे स्पष्ट रूप से व्यसन में देख सकते हैं. जब कोई चुनने की क्षमता खो देता है, तो उन्हें दोष देना कुछ नहीं करता. यह कहना कि कोई स्वतंत्र इच्छा नहीं है नैतिकता को कमज़ोर नहीं करता. यह इसे मज़बूत बनाता है. यह गर्व और स्थिति की दीवारों को तोड़ता है जो हमें अलग करती हैं और हमारे नैतिक चक्र को चौड़ा करती हैं. मुझे क्वेकर्स की याद आती है, शांत असंतोषियों का छोटा संप्रदाय जिसने ग़ुलामी के ख़िलाफ़ लड़ाई में अग्रणी भूमिका निभाई. वे सभी में ईश्वर में विश्वास करते थे, एक आंतरिक प्रकाश जो हर मनुष्य में समान रूप से चमकता है. उनके लिए, ग़ुलामी सिर्फ़ क्रूर नहीं थी. यह पवित्र का अपवित्रीकरण था.
मुझे विश्वास है कि क्या पवित्र है इस पर संघर्ष हमारे समय का परिभाषित संघर्ष है. दक्षिणपंथ पर शक्तिशाली आवाज़ें ज़ोर देती हैं कि जो सबसे अधिक मायने रखता है वह अपने जनजाति, अपनी मिट्टी, अपनी तरह के प्रति वफ़ादारी है. वे ऐसे बोलते हैं मानो प्रेम एक दुर्लभ संसाधन है, कुछ जिसे साझा करने के बजाय जमा करना है. वे कल्पना करते हैं कि नैतिक चक्र को कसना हमारी करुणा को मज़बूत बनाता है. लेकिन इसके विपरीत सच है. असली कृतज्ञता प्रेम के चक्र को सिकोड़ती नहीं. यह इसे बड़ा करती है.
जिन लोगों ने अतीत के महान नैतिक आंदोलनों का निर्माण किया, ग़ुलामी विरोधी, मताधिकार वादी, नागरिक अधिकार नेता, अपने परिवारों और देशों के प्रति कम समर्पित नहीं थे. वे अधिक थे. ब्रिटिश ग़ुलामी विरोधी जिन्होंने दास व्यापार समाप्त किया उन्होंने अपने देश को महान बनाया. अमेरिकी नागरिक अधिकार अभियानकर्ता जिन्होंने अलगाव को उतारा उन्होंने राष्ट्र को इसके सिद्धांत के करीब लाया. वे सच्चे देशभक्त थे. और वह भी वह भावना थी जिसमें मैं पला-बढ़ा. मेरे माता-पिता ने मुझे सिखाया कि करुणा परिवार या राष्ट्र की सीमा पर नहीं रुकती. समय के साथ, मैंने पाया कि भाषा और रीति के अंतरों के नीचे, हम समान विश्वास साझा करते हैं. ईमानदार होने के लिए, मैंने लंबे समय से विश्वास बनाम अविश्वास के बारे में बहस में रुचि खो दी है. मैंने अपनी युवा नास्तिकता की निश्चितता भी खो दी है. हाँ, आस्तिकता अभी भी मेरे लिए बहुत संभावित नहीं लगती है, लेकिन जो एक बार स्पष्टता की तरह लगा उसने एक गहरे प्रकार के अज्ञेयवाद का रास्ता दिया है. उदासीनता नहीं, बल्कि इस पर विस्मय कि हम कितना नहीं जानते, नहीं कर सकते, और शायद अब भी नहीं जानना है.
जो मायने रखता है, मुझे लगता है, लोग क्या विश्वास करते हैं नहीं, बल्कि वे क्या करते हैं. एक पेड़ अपने फल से जाना जाता है. और फिर, मुझे ग़ुलामी विरोधी की याद आती है. यह आंदोलन स्वतंत्रता और समानता के प्रबोधन आदर्शों के साथ ईसाई करुणा का संलयन था. यह मंच और पर्चा, आंतरिक प्रकाश और प्राकृतिक अधिकार था. एक साथ, उन्होंने मानवता की सबसे पुरानी और क्रूरतम संस्थाओं में से एक को गिरा दिया.
मैंने इन व्याख्यानों में जो करने की कोशिश की है वह इतिहास को कम्पास के रूप में उपयोग करना है, यह दिखाने के लिए कि पतन नवीनीकरण में कैसे समाप्त हो सकता है, नैतिक क्रांतियाँ कैसे होती हैं, और भविष्य इस बात पर कैसे निर्भर करता है कि हम क्या पवित्र मानते हैं. पूरी श्रृंखला नियतिवाद और स्वतंत्रता, आवश्यकता और आकस्मिकता, इतिहास और एजेंसी पर एक ध्यान रही है. और यह मेरे धर्मनिरपेक्ष धर्म का दिल है. दुनिया को देखने के दो तरीके. जब हम दूसरों को देखते हैं, तो हमें उनके कार्यों के पीछे के कारणों को देखना चाहिए, इतिहास, किस्मत, वे घाव जो उन्होंने कभी नहीं चुने, और दोष के बजाय समझ के साथ प्रतिक्रिया करनी चाहिए. लेकिन जब हम दर्पण में देखते हैं, तो हमें कार्य करने की अपनी स्वतंत्रता को पहचानना चाहिए.
जैसा कि किर्केगार्ड ने कहा: “जीवन को केवल पीछे की ओर समझा जा सकता है, लेकिन इसे आगे की ओर जीया जाना चाहिए.”
तो आइए हम अपने आप को पूरी तरह से काम में फेंक दें. हम जानते हैं कि यह आसान नहीं होगा. भविष्य में कोई गारंटी नहीं है, कोई निश्चितता नहीं कि हमारी प्रजाति सहन करेगी या हमारी कहानी अच्छी तरह से समाप्त होगी. लेकिन यह हमेशा मानव स्थिति रही है. हम जो जानते हैं वह यह है. बार-बार, प्रतिबद्ध नागरिकों के छोटे समूहों ने इतिहास के चाप को न्याय की ओर मोड़ा है. और जो भी परिणाम हो, कोशिश में सुंदरता है, साहस के हर कार्य में सुंदरता, सत्य की हर चिंगारी में, हर समृद्ध और पूर्ण जीवन में. हम पत्थर में स्मारक नहीं बना सकते जो हमेशा के लिए टिकें, लेकिन हम समय में स्मारक बना सकते हैं. धन्यवाद.
केरल फिल्म फेस्टिवल में रोकी गई फिल्मों की सूची और उनमें से उपलब्ध ट्रेलर
केंद्र की मंज़ूरी न मिलने के बावजूद सभी फ़िल्में दिखाई जाएंगी, चार को मिली छूट
तिरुवनंतपुरम में चल रहे 30वें इंटरनेशनल फ़िल्म फ़ेस्टिवल ऑफ़ केरल (IFFK) में स्क्रीनिंग को लेकर चल रहा विवाद अब नए मोड़ पर है. डेक्कन हेराल्ड्स की रिपोर्ट के मुताबिक़ केंद्र सरकार से मंज़ूरी का इंतज़ार कर रही 19 फ़िल्मों में से चार को आधिकारिक सेंसर छूट मिल गई है. वहीं, केरल सरकार और केरल चलच्चित्र अकादमी ने साफ़ कर दिया है कि केंद्र की मंज़ूरी न मिलने के बावजूद सभी फ़िल्में तय कार्यक्रम के अनुसार दिखाई जाएंगी.
केरल चलच्चित्र अकादमी के अध्यक्ष रेसुल पुकुट्टी ने मंगलवार को कहा कि IFFK में किसी भी फ़िल्म की स्क्रीनिंग नहीं रोकी जाएगी. यह फ़ेस्टिवल 12 दिसंबर को शुरू हुआ था और 19 दिसंबर को समाप्त होगा.
रेसुल पुकुट्टी ने इंस्टाग्राम पर जारी वीडियो संदेश में कहा कि “IFFK में फ़िल्मों की स्क्रीनिंग को लेकर जो भी विवाद था, उसे ख़त्म करते हुए हम केरल सरकार की अधिसूचना के अनुसार सभी फ़िल्मों की स्क्रीनिंग तय कार्यक्रम के मुताबिक़ कर रहे हैं। लॉन्ग लिव सिनेमा. ”
सूत्रों ने समाचार एजेंसी PTI को बताया कि यह फ़ैसला केरल की वामपंथी सरकार द्वारा अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के पक्ष में खड़े होने के बाद लिया गया. पहले 19 फ़िल्मों की स्क्रीनिंग पर रोक लगी थी अब लगभग 15 फ़िल्मों को सेंसर छूट नहीं मिली है , जिनमें फिलिस्तीन संघर्ष से जुड़ी फ़िल्में और सर्गेई आइज़ेनस्टीन की 100 साल पुरानी क्लासिक बैटलशिप पोटेमकिन भी शामिल हैं.
‘द न्यूज मिनट’ की रिपोर्ट के अनुसार, केंद्रीय सूचना और प्रसारण मंत्रालय (I&B Ministry) ने केरल अंतरराष्ट्रीय फिल्म महोत्सव (IFFK) 2025 में 19 फिल्मों के प्रदर्शन की अनुमति देने से इनकार कर दिया था. रोकी गई फिल्मों में फिलिस्तीन पर आधारित कई फिल्में और सोवियत दौर की 100 साल पुरानी क्लासिक फिल्म ‘बैटलशिप पोटेमकिन’ (Battleship Potemkin) शामिल हैं, जिसे सिनेमा के इतिहास में एक महत्वपूर्ण फिल्म माना जाता है.
महोत्सव के आयोजकों का कहना है कि ऐसा पहली बार हुआ है जब इतनी बड़ी संख्या में फिल्मों को छूट (exemption) नहीं मिली है, जिससे शेड्यूल गड़बड़ा गया है. रोकी गई फिल्मों में स्पेनिश फिल्म ‘बीफ’ (जो एक रैप सिंगर पर है और खाने से संबंधित नहीं है) और संध्या सूरी की ‘संतोष’ (जातिवाद पर आधारित) भी शामिल हैं. दिग्गज फिल्म निर्माता अडूर गोपालकृष्णन ने इस फैसले की आलोचना करते हुए इसे “अज्ञानता” करार दिया है और कहा कि ‘बैटलशिप पोटेमकिन’ जैसी फिल्म को रोकना समझ से परे है. महोत्सव की उपाध्यक्ष कुकू परमेश्वरन ने बताया कि उन्हें 9 फिल्मों के प्रदर्शन रद्द करने पड़े, जिससे प्रतिनिधियों में निराशा है.
जिन चार फ़िल्मों को केंद्र सरकार की ओर से आधिकारिक छूट दी गई है, वे हैं, बीफ, ईगल्स ऑफ़ थे रिपब्लिक, हार्ट ऑफ़ द वुल्फ और वन्स अपॉन अ टाइम इन ग़ज़ा. बीफ एक युवा महिला लाती की कहानी है, जो अपने पिता की मौत के बाद शोक, भेदभाव और लैंगिक बाधाओं से जूझते हुए फ्रीस्टाइल रैप के ज़रिए अपनी आवाज़ खोजती है. बाकी फ़िल्में भी समकालीन राजनीतिक और सामाजिक मुद्दों से जुड़ी हैं.
बाकी 15 फ़िल्में अब भी केंद्र की मंज़ूरी का इंतज़ार कर रही हैं. इनमें सबसे चर्चित नाम Battleship Potemkin का है, जो 1905 में रूसी युद्धपोत पर हुए विद्रोह को दिखाती है और सिनेमा इतिहास की सबसे प्रभावशाली फ़िल्मों में गिनी जाती है. सूत्रों के मुताबिक़, कई अटकी हुई फ़िल्में फिलिस्तीन संघर्ष से संबंधित हैं. पर केरल सरकार ने केंद्र के खिलाफ़ जाते हुए सारी फिल्में दिखाने का फैसला किया है. IFFK जैसे बड़े अंतरराष्ट्रीय फ़िल्म फ़ेस्टिवल में सेंसर छूट और केंद्र की भूमिका पर यह विवाद अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और सांस्कृतिक स्वायत्तता को लेकर नई बहस खड़ी करता है. ख़ासतौर पर तब, जब राज्य सरकार केंद्र के फ़ैसले के बावजूद फ़िल्में दिखाने का फ़ैसला ले रही है.
कांग्रेस सांसद शशि थरूर ने Battleship Potemkin को मंज़ूरी न मिलने को “हास्यास्पद” बताया और सोशल मीडिया पर इस पर सवाल उठाए.
IFFK का 30वां संस्करण 12 से 19 दिसंबर तक तिरुवनंतपुरम में आयोजित हो रहा है.
इन फ़िल्मों पर रोक लगी थी, ट्रेलर के लिंक के साथ:
द ग्रेट डिक्टेटर:
ए पोएट: अनकन्सील्ड पोएट्री:
रेड रेन:
ऑल दैट्स लेफ़्ट ऑफ़ यू:
रिवरस्टोन:
बामाको:
द आवर ऑफ़ द फ़र्नेसेज़:
टनल्स: सन इन द डार्क:
बीफ़:
क्लैश:
ईगल्स ऑफ़ द रिपब्लिक:
टिम्बकटू:
बैटलशिप पोटेमकिन:
अपील :
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