17/05/2025 : भारत तालिबान के करीब | 'जमीन पर भारत, आसमान में पाकिस्तान हावी रहा' | संस्कारी मंत्रियों के कुबचन | टहलुआ गुलामों को शाबाशी | शरणार्थियों को समुद्र में छोड़ा | बैठे कंकाल का लंबा इंतजार
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निधीश त्यागी, साथ में राजेश चतुर्वेदी, मज़्कूर आलम, गौरव नौड़ियाल
आज की सुर्खियां :
सोफिया कुरैशी; विजय शाह और मोदी का “मन”
विक्रम मिसरी के लिए कोई मुश्किल नहीं
भारत चीन को लड़ाने में लगे पश्चिम के मुल्क : रूस
‘भारत-पाकिस्तान में गलत सूचना और भ्रामक सूचनाओं की जंग’
ईडी के छापे के बाद गुजरात समाचार के मालिक को जमानत
पीएम के निजी यात्रा पर खर्च हुए जनता के 30 लाख रुपये
उस्मान ख्वाजा की ‘शांति की अपील’ राजनीतिक, तो जय शाह का ‘सशस्त्र बलों का समर्थन’ क्या
विदा की बेला पर एससीबीए की खिंचाई
रूस यूक्रेन में सीधी बातचीत, युद्ध बंदियों की अदला-बदली के अलावा कोई खास सहमति नहीं
भारत ने बढ़ाई तालिबान से नज़दीकियां
2021 में अपने अधिकारों के लिए प्रदर्शन करती महिलाओं की पिटाई तालिबानी सुरक्षाकर्मियों ने की. फाइल फोटो.
भारत और तालिबान सरकार के बीच पहले मंत्री स्तरीय संपर्क में, विदेश मंत्री एस जयशंकर ने कार्यवाहक अफ़गान विदेश मंत्री मावलवी आमिर खान मुत्तकी से बात की और अफ़गानिस्तान की सीमा पर भारत द्वारा मिसाइल हमले करने के पाकिस्तानी दावे को काबुल के खारिज करने की सराहना की. अगस्त 2021 में अमेरिका के अपनी सेना वापस बुलाए जाने के बाद तालिबान के सैन्य विजय के माध्यम से सत्ता में आने के बाद से यह पहला मंत्री स्तरीय फ़ोन कॉल है. ‘एक्स’ पोस्ट में जयशंकर ने कहा कि गुरुवार शाम को मुत्तकी के साथ उनकी ‘अच्छी बातचीत’ हुई, उन्होंने कहा, ‘वे पहलगाम आतंकवादी हमले की उनकी निंदा की गहराई से सराहना करते हैं’. संयोग से, जिस दिन अफ़गानिस्तान ने भारतीय मिसाइल हमले के बारे में पाकिस्तान के दावे को दृढ़ता से खारिज किया, उसी दिन मुत्तकी ने अफ़गानिस्तान के लिए पाकिस्तान के विशेष दूत मोहम्मद सादिक खान और चीन के विशेष प्रतिनिधि यू शियाओयोंग के साथ त्रिपक्षीय बैठक की. यद्यपि भारत, अंतरराष्ट्रीय समुदाय के साथ गठबंधन करते हुए, तालिबान सरकार को औपचारिक रूप से मान्यता नहीं देता है, फिर भी उसके साथ उसका जुड़ाव लगातार बढ़ता जा रहा है, विशेषकर तब जब काबुल के इस्लामाबाद के साथ संबंध खराब हो गए हैं.
भारत की विदेश नीति पर क्यों उठ रहे हैं सवाल
बीबीसी की एक रिपोर्ट के अनुसार, पाकिस्तान के साथ हाल ही में हुए संघर्ष के बाद मोदी सरकार की विदेश नीति पर गंभीर सवाल उठ रहे हैं. युद्ध विराम की घोषणा नई दिल्ली की ओर से नहीं, बल्कि अमेरिका की ओर से की गई थी - जो एक कूटनीतिक अपमान का संकेत था. इससे भी अधिक चौंकाने वाली बात यह थी कि राष्ट्रपति ट्रंप ने आतंकवाद का जिक्र करने से इनकार कर दिया और भारत-पाकिस्तान को समान बताया. तीसरे पक्ष की मध्यस्थता के खिलाफ भारत के लगातार रुख के बावजूद, अमेरिका ने शांति स्थापित करने का श्रेय लिया, जिसे पाकिस्तान ने भी स्वीकार किया. इस बीच, भारत ने अमेरिका का नाम लेने से परहेज किया और जोर देकर कहा कि युद्ध विराम ‘द्विपक्षीय’ था. रिपोर्ट में कहा गया है कि घटनाओं के इस क्रम ने कई विशेषज्ञों को यह तर्क देने के लिए प्रेरित किया है कि पाकिस्तान से खुद को 'अलग' करने का भारत का लंबे समय से चल रहा प्रयास विफल हो गया है, यह रेखांकित करते हुए कि भारत का कूटनीतिक रुख रणनीतिक नहीं, बल्कि प्रतिक्रियात्मक प्रतीत हुआ - जिसने संकट के दौरान मोदी सरकार की विदेश नीति की प्रभावशीलता पर तीखी चिंताएँ जताईं.
सरकार कूटनीतिक पहुंच के लिए बहुपक्षीय प्रतिनिधिमंडल गठित करेगी : केंद्र सरकार अब कूटनीतिक संपर्क बढ़ाने के लिए बहुपक्षीय प्रतिनिधिमंडलों को विदेश भेजने की तैयारी कर रही है. द हिंदू की रिपोर्ट के अनुसार, ये प्रतिनिधिमंडल - जिसमें सांसद, पूर्व राजनयिक और नीति विशेषज्ञ शामिल हैं - 23 मई से दुनिया भर में फैल जाएंगे और विदेशी सरकारों और नागरिक समाज समूहों से बातचीत करेंगे. यह प्रतिक्रिया अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प के लगातार इस दावे के बीच आई है कि चार दिनों के सैन्य गतिरोध के बाद वाशिंगटन ने ही भारत-पाकिस्तान के बीच युद्ध विराम की मध्यस्थता की थी.
रक्षा विश्लेषण
भारत ने जमीन पर नुक्सान पंहुचाया, पाकिस्तान ने हवा में : क्रिस्टीन फेयर
हाल ही में भारत और पाकिस्तान के बीच हुए सैन्य टकराव, अमेरिकी मध्यस्थता के दावों और भारत की नई प्रतिरोधी सिद्धांत पर जॉर्जटाउन विश्वविद्यालय की सुरक्षा अध्ययन की प्रोफेसर और पाकिस्तान सेना एवं लश्कर-ए-तैयबा पर महत्वपूर्ण पुस्तकों की लेखिका क्रिस्टीन फेयर ने करण थापर के साथ एक विशेष साक्षात्कार में अपने विचार रखे. वह पाकिस्तान सेना और लश्कर-ए-तैयबा जैसे आतंकी संगठनों पर कई महत्वपूर्ण और उच्च सम्मानित पुस्तकों की लेखिका हैं. उन्हें भारत की भी गहरी जानकारी है और वह धाराप्रवाह पंजाबी बोलती हैं. उन्होंने यह भी उल्लेख किया कि वह 2013 से पाकिस्तान में 'पर्सोना नॉन ग्राटा' (अवांछित व्यक्ति) रही हैं.
क्रिस्टीन फेयर के अनुसार, दोनों देशों ने सैन्य रूप से अपने-अपने हिस्से का "पाउंड ऑफ फ्लेश" (हिस्सा) हासिल किया, लेकिन यह अलग-अलग क्षेत्रों में था. भारत को जमीनी लक्ष्यों को नुकसान पहुंचाने में भारत शायद अधिक सफल रहा, जैसा कि न्यूयॉर्क टाइम्स और वाशिंगटन पोस्ट की रिपोर्टों से संकेत मिलता है. पाकिस्तान को हवाई लड़ाई में बढ़त मिली. फेयर का मानना है कि यह "99% निश्चित" है कि भारत ने दो राफेल विमान खो दिए, और संभवतः पांच विमानों तक का नुकसान हुआ.
भारत प्रधानमंत्री मोदी के लिए यह अपनी ‘छप्पन इंच’ वाली छवि को मजबूत करने का एक और अवसर था, खासकर आगामी बिहार चुनाव के मद्देनजर. फेयर का मानना है कि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भारत को थोड़ा नुक्सान हुआ. भारत यह स्थापित नहीं कर पाया कि यह एक द्विपक्षीय मुद्दा है और पाकिस्तान की इसमें कोई भूमिका नहीं है. इसके बजाय, ‘री-हाइफ़नेशन’ (भारत-पाकिस्तान को एक साथ जोड़कर देखना) और दोनों पक्षों को समान रूप से जिम्मेदार ठहराने की प्रवृत्ति देखी गई, यहां तक कि पुतिन और राष्ट्रपति ट्रम्प ने भी यही किया. ट्रम्प ने क्लिंटन युग के बाद से गायब ‘हाइफ़न’ को फिर से चर्चा में ला दिया.
फेयर के अनुसार, पाकिस्तान में इस संकट की सबसे बड़ी विजेता पाकिस्तान सेना रही. संकट से पहले सेना पर काफी घरेलू दबाव था (इमरान खान प्रकरण के कारण), लेकिन इस टकराव के बाद सेना के प्रति नकारात्मकता कम हुई और वह फिर से शीर्ष पर आ गई.
पाकिस्तानी ठिकानों को भारतीय नुकसान : फेयर भारतीय दावों (जैसे पाकिस्तान के 20% वायु सेना के बुनियादी ढांचे को नष्ट कर दिया गया) को ‘आश्चर्यजनक’ और ‘निश्चित रूप से गलत’ मानती हैं. हालांकि, वह स्वीकार करती हैं कि कुछ पाकिस्तानी हवाई क्षेत्रों में लक्ष्यों को भेदा गया और कुछ रनवे क्षतिग्रस्त हुए, लेकिन कोई बड़ा विनाश नहीं हुआ.
पाकिस्तानी विमानों को भारतीय नुक्सान : एयर मार्शल भारती के इस दावे को कि भारत ने अनिर्दिष्ट संख्या में पाकिस्तानी विमानों को मार गिराया, फेयर ने ‘बकवास’ करार दिया और कहा कि इसका कोई सबूत नहीं है. उन्होंने इसे 2019 के F-16 गिराने के दावे से भी अधिक अपमानजनक बताया.
भारतीय विमानों का नुक्सान : फेयर ने फ्रांसीसी अधिकारियों के हवाले से दो राफेल विमानों के नुकसान की पुष्टि की (90% संभावना) और कहा कि कुल नुक्सान पांच विमानों तक हो सकता है (50% संभावना). उन्होंने इसके लिए चीनी रडार की लंबी दूरी और नए भारतीय विमानों के लिए एक ‘स्वाभाविक सीखने की अवस्था’ को जिम्मेदार ठहराया, न कि पायलट की अक्षमता को. उन्होंने विशेष रूप से चीनी J-10C विमान और PL-15 मिसाइल का उल्लेख किया.
प्रधानमंत्री मोदी द्वारा घोषित नई प्रतिरोधी सिद्धांत (आतंक के हर कृत्य का निर्णायक जवाब, परमाणु ब्लैकमेल के आगे न झुकना, और आतंकवादियों तथा उन्हें प्रायोजित करने वाली सरकारों के बीच कोई भेद न करना) पर फेयर ने कहा कि उन्होंने अपनी पुस्तक ‘फाइटिंग टू द एंड’ में इसी तरह के नुस्खे दिए थे. उनका मानना है कि पाकिस्तान का व्यवहार तब तक नहीं बदलेगा, जब तक उसे इसके गंभीर परिणाम नहीं भुगतने पड़ेंगे. हालांकि, उन्होंने आगाह किया कि इस सिद्धांत में भारी जोखिम हैं और यह संकट पिछले संकट की तुलना में तेजी से बढ़ा. उन्होंने इसकी स्थिरता पर संदेह व्यक्त किया. फेयर ने यह भी कहा कि पाकिस्तानी सेना खुद को एक ‘विद्रोही संगठन’ के रूप में देखती है, जिसे भारत को हराने की जरूरत नहीं, बल्कि यह दिखाना है कि भारत उसे हरा नहीं पाया है, और यह वह कश्मीर और भारत में कहीं और आतंकवादी हमले करके करता है.
अमेरिकी भूमिका और ट्रम्प प्रशासन : फेयर ने राष्ट्रपति ट्रम्प और मार्को रुबियो के मध्यस्थता के दावों पर संदेह जताया. उनका मानना है कि दोनों पक्ष पहले से ही तनाव कम करने के रास्ते तलाश रहे थे और अमेरिका ने शायद ‘खुले दरवाजों पर धक्का’ दिया. वह ट्रम्प के दावों पर विश्वास नहीं करतीं और इस मामले में भारतीय रुख का समर्थन करती हैं.
पाकिस्तान की ओर झुकाव : फेयर का मानना है कि ट्रम्प प्रशासन के कुछ सदस्य (जैसे रुबियो) पाकिस्तान के प्रति झुकाव दिखा सकते हैं, क्योंकि पाकिस्तानी राजनयिक अमेरिकी अधिकारियों की ‘खुशामद’ में माहिर होते हैं, जबकि भारतीय राजनयिक कभी-कभी ‘चिड़चिड़े’ हो सकते हैं.
भारत-अमेरिका संबंधों पर प्रभाव : फेयर का मानना है कि ट्रम्प के ‘गलत बयानों’ से भारत-अमेरिका संबंधों के मूल ताने-बाने पर कोई असर नहीं पड़ेगा, क्योंकि यह संबंध नौकरशाही स्तर पर काफी मजबूत हो चुका है. भारतीय शायद ट्रम्प की बातों को ज्यादा गंभीरता से नहीं लेते.
संकट का मोदी द्वारा प्रबंधन : फेयर ने मोदी को परमाणु ब्लैकमेल को अस्वीकार करने और लड़ाई को पाकिस्तान के पंजाब तक ले जाने के लिए श्रेय दिया. उन्होंने कहा कि मोदी घरेलू और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर एक अच्छे प्रवक्ता रहे हैं. लेकिन, उन्होंने यह भी स्पष्ट किया कि जिन लक्ष्यों पर हमला किया गया (जैसे मुरीदके, बहावलपुर, मुजफ्फराबाद), उनसे आतंकी संगठनों की परिचालन क्षमताओं पर कोई स्थायी प्रभाव नहीं पड़ा. लॉन्चपैड आसानी से फिर से बनाए जा सकते हैं. उन्होंने इस बात पर आश्चर्य व्यक्त किया कि भारत खालिस्तानी नेताओं की तरह लश्कर या जैश के नेतृत्व को निशाना बनाने में सफल क्यों नहीं हुआ, यह दर्शाता है कि ये नेता कितने राज्य-संरक्षित हैं.
जनरल मुनीर की छवि पर प्रभाव : फेयर के अनुसार, इस संकट से जनरल मुनीर की छवि में निश्चित रूप से सुधार हुआ है और वह अपने देशवासियों की नजरों में नायक बन गए हैं. हालांकि, उनका मानना है कि यह स्थिति लंबे समय तक नहीं चलेगी, क्योंकि इमरान खान के प्रति जनता का समर्थन और सेना में भ्रष्टाचार जैसे अंतर्निहित मुद्दे अब भी मौजूद हैं.
कार्टून | मंजुल

विजय शाह और उनके संस्कार
कर्नल सोफिया कुरैशी पर की गई टिप्पणी के कारण आलोचनाओं का सामना कर रहे मध्य प्रदेश के जनजातीय मामलों के मंत्री विजय शाह के लिए यह पहली बार नहीं है, जब वे किसी विवाद में फंसे हैं.
मध्य प्रदेश हाई कोर्ट के आदेश पर पुलिस ने शाह के खिलाफ ऑपरेशन सिंदूर पर मीडिया ब्रीफिंग के दौरान कर्नल कुरैशी के बारे में आपत्तिजनक टिप्पणी करने का मामला दर्ज किया है.
सोमवार को इंदौर जिले में एक सार्वजनिक कार्यक्रम के दौरान शाह ने कर्नल कुरैशी को ‘आतंकवादियों की बहन’ के रूप में पेश करने की कोशिश की, जिसके बाद हाईकोर्ट ने इस पर स्वतः संज्ञान लिया.
टेलीग्राफ के मुताबिक, अप्रैल 2013 में, शाह के बयान से तब बड़ा राजनीतिक तूफान खड़ा हो गया था, जब उन्होंने आदिवासी बहुल झाबुआ जिले में एक सार्वजनिक समारोह में मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान की पत्नी पर अभद्र टिप्पणी की थी. इसके बाद उन्हें मंत्री पद से हाथ धोना पड़ा था.
मीडिया और शोध के प्रभारी प्रदेश कांग्रेस महासचिव अभय तिवारी ने इसकी जानकारी देते हुए पूछा, “अब जब उन्होंने सेना पर बेशर्मी भरी टिप्पणी की है, तो भाजपा चुप है. क्या यही उनका राष्ट्रवाद है.” कांग्रेस प्रवक्ता भूपेंद्र गुप्ता ने कहा कि जब शाह हाईकोर्ट के आदेश में उल्लिखित ‘गटर की भाषा’ का इस्तेमाल कर रहे थे, तो पूर्व संस्कृति मंत्री और महू विधायक उषा ठाकुर घटना के एक वीडियो में हंसती दिख रही थीं.
शाह ने नवंबर 2020 में एक और विवाद खड़ा किया था, जब वह वन मंत्री थे. गुप्ता ने दावा किया, “'उन्होंने कथित तौर पर बालाघाट जिले में फिल्म 'शेरनी' की शूटिंग के दौरान अभिनेत्री विद्या बालन को रात के खाने पर आमंत्रित किया था. फिल्म स्टार ने प्रस्ताव ठुकरा दिया, जिसके बाद शाह के विभाग ने शूटिंग की अनुमति वापस ले ली.” गुप्ता ने कहा, मीडिया रिपोर्ट्स के अनुसार, अभिनेत्री के शाह के साथ डिनर निमंत्रण ठुकराने के एक दिन बाद, फिल्म निर्माण टीम के वाहनों को शूटिंग के लिए वन क्षेत्र में प्रवेश करने से कथित तौर पर रोक दिया गया था. जबकि शाह ने आरोपों को खारिज करते हुए कहा कि उन्होंने शूटिंग के लिए अनुमति लेने वालों से लंच/डिनर का निमंत्रण ठुकरा दिया था.
एक और संस्कारी मंत्री
मध्य प्रदेश के एक मंत्री द्वारा कर्नल सोफिया कुरैशी को ‘आतंकवादियों की बहन’ बताकर भाजपा को मुश्किल में डालने के कुछ दिनों बाद, राज्य के उपमुख्यमंत्री जगदीश देवड़ा ने यह बयान देकर विवाद खड़ा कर दिया है कि भारतीय सेना प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के चरणों में नतमस्तक है. देवड़ा शुक्रवार को जबलपुर में नागरिक सुरक्षा स्वयंसेवकों के प्रशिक्षण सत्र में बोल रहे थे. इंडियन एक्सप्रेस की खबर के अनुसार उन्होंने कहा, “प्रधानमंत्री जी को भी धन्यवाद देना चाहेंगे, और पूरा देश, देश की वो सेना, वो सैनिक, उनके चरणों में नतमस्तक है. उनके चरणों में पूरा देश नतमस्तक है, उन्होंने जो जवाब दिया है.”
बाद में आलोचनाओं का सामना करने पर उन्होंने कहा, “कांग्रेस इसे गलत तरीके से पेश कर रही है. मेरे बयान को तोड़-मरोड़ कर पेश किया गया है और गलत तरीके से पेश किया जा रहा है. मैंने कहा कि देश की सेना ने ऑपरेशन सिंदूर में जबरदस्त काम किया है और देश की जनता भारतीय सेना के सामने नतमस्तक है. जो लोग साजिश कर रहे हैं, उनके खिलाफ सख्त कार्रवाई होनी चाहिए. मेरा मतलब था, 'देश की जनता भारत की सेना के चरणों में नतमस्तक है' क्योंकि वे हमारी और देश की रक्षा करते हैं.”
टिप्पणी
सोफिया कुरैशी; विजय शाह और मोदी का “मन”
राजेश चतुर्वेदी
कबीरदास जी कह गए हैं- “मन के हारे हार है, मन के जीते जीति. कहै कबीर हरि पाइए, मन ही की परतीति.” संत रविदास जी ने भी कहा है- “मन चंगा तो कठौती में गंगा.” कहने का मतलब पूरा खेल “मन” का है. सुबह जो मन है, वो शाम को नहीं है. शाम को है तो दुपहरिया में नहीं है. मन के सब अधीन हैं. मन का कुछ निश्चित नहीं. जो आज है, कल नहीं है. मन स्कूबा डाइविंग का है, बेयर ग्रिल्स के साथ शूट का भी है, पर मणिपुर का नहीं है. मन एक जगह नहीं टिकता. वह चंचल है. अभी जहां है, अगले क्षण कहीं और है. मन के अंदर जो है, बाहर नहीं है. कभी चूसकर खाने का है, कभी काटकर. मन हल्का है तो भारी भी है. इस पल हल्का है, अगले ही पल भारी है. हल्का है तो बिहार का है, अडानी के जलसे का है, अवॉर्ड लेने दुनिया भर में जाने का है. लेकिन भारी है, तो पहलगाम पर सर्वदलीय बैठक का नहीं है! कहा गया है- “सब जन मन के पराधीन!” कई लोग सिर्फ मन की ही सुनते हैं, ‘मन की ही बात’ करते हैं. मन से माफ करते हैं, और मन से नहीं.
याद करें, 2019 का लोकसभा चुनाव. प्रज्ञा सिंह ठाकुर, जो मालेगांव बम ब्लास्ट मामले में तब भी आरोपी थीं, को बीजेपी ने भोपाल से उम्मीदवार बनाया था. बहुत हल्ला मचा. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पार्टी के इस फैसले की वजह बताते हुए कहा था- “प्रज्ञा ठाकुर को टिकट उन लोगों को जवाब है, जिन्होंने 5 हजार साल पुरानी ऐसी संस्कृति-सभ्यता को आतंकवाद से जोड़कर बदनाम किया, जो 'वसुधैव कुटुम्बकम्' में विश्वास करती है.” लेकिन इन्हीं प्रज्ञा सिंह ठाकुर ने बीच चुनाव जब यह कहा कि “नाथूराम गोडसे देशभक्त थे, हैं और रहेंगे” - तो मोदी को आम चुनाव के दौरान ही कहना पड़ा था- “मैं उन्हें (प्रज्ञा) ‘मन’ से कभी माफ नहीं कर पाऊंगा.” मालूम नहीं, मोदी के ‘मन’ ने प्रज्ञा को माफ किया या नहीं, आज सवाल यह है भी नहीं. क्योंकि, कोई चाहे कुछ कहे- मनुष्य और उसका मन परिस्थितियों का गुलाम होता है. परिस्थिति का हिसाब लगाकर मन भी बदलते रहते हैं. कल जो मन में चढ़ा था, आज उतर चुका है. ऐसा होता है. लिहाजा आज सवाल दूसरे हैं. शायद, ज्यादा भयवाह. मसलन, कर्नल सोफिया कुरैशी के बारे में मध्यप्रदेश की भाजपा सरकार के मंत्री विजय शाह ने अपनी ‘बजबजाती’ जुबान से जो गटर बहाया है, उसका क्या करने वाले हैं मोदी जी?
मोदीजी ने एकदम सही कहा- पानी और लहू एकसाथ नहीं बह सकते, लेकिन शाह ने जो गटर बहाया है, उसके साथ जो “नफरती मन की गंदगी” बह रही है, वो कैसे साफ होगी? क्या चल रहा होगा उनके मन में? चार दिन हो चुके हैं, देश-दुनिया में शाह के गटर वाले (जैसा हाईकोर्ट ने कहा है) शब्दों को पहुंचे. लेकिन, मंत्री पद से बर्खास्त करना तो दूर की बात, बीजेपी ने दो लाइन का कारण बताओ नोटिस तक नहीं दिया है. उरी और पुलवामा के वक्त सवाल पूछने की विपक्ष की कुछ गलतियों पर बीजेपी के साथ आसमान सिर पर उठाने वाला ‘गोदी मीडिया’ भी चिलमन में दुबका बैठा है. प्राइम टाइम पर क्यों नहीं हो रही कोई डिबेट? विजय शाह ने जो कहा, क्या वह शास्त्र संगत है? सनातन के अनुरूप है? देश की एकता-अखंडता को मजबूत करने वाला है? क्या इसीलिए मौन है गोदी मीडिया? या फिर, ‘ऑपरेशन सिंदूर’ की सफलता को चूंकि खुद मोदी की पार्टी और सरकार के मंत्री ने “पंक्चर” कर दिया, इसलिए “मन” मारके चुप्पी साधे ड्यूटी कर रहा है? ये सवाल इसलिए, क्योंकि पाकिस्तान और उसके पाले हुए आतंकवादियों ने भारत में “हिंदू-मुस्लिम” कराने के जिन इरादों से 26 हिंदुस्तानियों का कत्लेआम किया, विजय शाह के शब्द क्या उनको और पुख्ता नहीं कर रहे? इसीलिए मध्यप्रदेश हाई कोर्ट ने कहा कि शाह का बयान देश की संप्रभुता, एकता और अखंडता के लिए कैंसर जैसा खतरनाक है.
आखिर, राष्ट्र की सुरक्षा पर संकट के काल में दुनिया के सामने भारतीय सेना का पक्ष रखने के लिए कर्नल सोफिया कुरैशी कोई अपनी मर्जी से तो मुखातिब नहीं हो रही थीं. मोदीजी की सरकार ने ही तय किया होगा कि विदेश सचिव विक्रम मिसरी के साथ सोफिया और विंग कमांडर व्योमिका सिंह भारत का चेहरा होंगे और दुनिया भर के मीडिया के सवालों का सामना करेंगे. महत्वपूर्ण सवाल है कि विजय शाह के “मन” ने तीन में से सोफिया कुरैशी को ही क्यों चुना? वह चाहते तो मिसरी या व्योमिका का भी नाम ले सकते थे, पर नहीं. उन्होंने “हिंदू-मुस्लिम” के उसी आख्यान के मुताबिक अपनी बात रखी, जिसको असंख्य “अवचेतन मनों” के भीतर गहरे तक बैठाने के लिए उनकी पितृ संस्था और उसका विशाल परिवार 100 बरस से कड़ी मेहनत कर रहा है.
यह भी नहीं भूलना चाहिए कि “मन” तो विजय शाह के पास भी है. कई बार मनुष्य अपने ‘मन’ की बात दूसरे के ‘मन’ के हिसाब से रखता ही नहीं, करता भी है. हो सकता है, विजय शाह को लगा हो कि वह कर्नल सोफिया को ‘आतंकियों की बहन’ बताकर जो कह रहे हैं, उससे मोदीजी प्रसन्न होंगे और फिर निर्मल बाबा के शब्दों में उन पर “कृपा” आने लगेगी. वह मंत्री से प्रमोट होकर मुख्यमंत्री हो जाएंगे. तो क्या यह मान लिया जाना चाहिए कि विजय शाह ने मोदी के “मन” को पढ़कर अपनी बात रखी? क्या स्वयं मोदी ने- श्मशान-कब्रिस्तान, कपड़ों से पहचान हो जाती है दंगाइयों की, आपके पालतू पशु-मंगलसूत्र छीनकर मुसलमानों को दे देंगे, पंक्चर जोड़ने वाला, गाड़ी के नीचे पिल्ला आ जाए तो दुख होता है, वोट करते समय बजरंग बली की जय बोलिए- नहीं किया है? भारत-पाक तनाव के बीच विदेश सचिव विक्रम मिसरी और उनके परिवार के साथ घिनौना बर्ताव करने वाले कौन लोग हैं? किन लोगों ने पहलगाम में शहीद लेफ्टिनेंट विनय नरवाल की पत्नी हिमांशी को भद्दी-भद्दी गालियां इसलिए दीं, क्योंकि उन्होंने कह दिया था कि- “वह हिंदू-मुस्लिम नहीं चाहतीं. मुसलमानों और कश्मीरियों के खिलाफ घृणा न फैलाएं.” ऐसे लोगों की पहचान क्यों नहीं की गई, की जाती? बीजेपी में ही निशिकांत दुबे, गिरिराज सिंह, दिनेश शर्मा, रमेश विधूढ़ी, नितेश राणे, टी राजा सिंह जैसे तमाम लोगों की लंबी सूची है, जिन्हें रोका-टोका नहीं जाता, क्यों? इनका प्रेरणा पुंज कौन है? कहां से मिलती है शै-ऊर्जा? क्यों “बंटेंगे तो कंटेंगे” जैसे नारे वैधता पा जाते हैं? क्यों मस्जिद के नीचे खुदाई की बात की जाती है?
दरअसल, बच्चा जो घर-परिवार में बुजुर्गों या मुखिया से सीखता है, उसे ही अपने जीवन में उतारता है. जैसा होते देखेगा, वैसा करेगा. यदि गलत देखेगा, तो गलत करेगा. इसमें बच्चे का कोई दोष नहीं, उनका है, जो अपने आचार-विचार से बच्चे को गलत सीख देते हैं. गलती करने पर टोकते-रोकते नहीं. भला, क्लास में खुद सिगरेट के छल्ले उड़ाने वाला टीचर छात्रों से यह कैसे कह सकता है कि धूम्रपान शरीर के लिए हानिकारक है. और, यदि ऐसा करता है, तो क्या वह ही दोषी नहीं?
विक्रम मिसरी के लिए कोई मुश्किल नहीं
पिछले सप्ताह नियंत्रण रेखा पर चार दिनों तक लगातार गोलीबारी के बाद, ड्रोनों के शोर, ब्लैकआउट स्क्रीन और टीवी एंकरों के गुस्से के बीच, कुछ शांत आवाजों में से एक विदेश सचिव विक्रम मिसरी की थी. कर्नल सोफिया कुरैशी और विंग कमांडर व्योमिका सिंह, दो अधिकारियों के साथ, मिसरी ऑपरेशन सिंदूर के दौरान भारत की कूटनीतिक आवाज बन गए. साथ में, उन्होंने संकेत दिया कि इस ऑपरेशन में कैसे सैन्य और कूटनीतिक अनिवार्यताएं एक साथ थीं. मिसरी के लिए, संदेश स्पष्ट था : यह सुनिश्चित करना कि दैनिक ब्रीफिंग बिंदु पर हो - न तो तामझाम और न ही कर्कश. एक राजनयिक के लिए यह कोई कठिन काम नहीं था, जिसने एक विज्ञापनदाता के रूप में शुरुआत की थी. मिसरी 1989 में भारतीय विदेश सेवा (आईएफएस) में शामिल हुए, मुंबई में लिंटास इंडिया और दिल्ली में कॉन्ट्रैक्ट एडवरटाइजिंग में तीन साल बिताने के बाद, जहां उन्होंने प्रोडक्शन टीमों के साथ मिलकर काम किया. उन्होंने दुनिया भर के कुछ सबसे कठिन वार्ता मंचों पर भी अपनी बात को मजबूती से रखने का कौशल दिखाया - चीन और म्यांमार से लेकर पाकिस्तान तक, जहां वे आगरा शिखर सम्मेलन के दौरान प्रथम सचिव थे - जहां उन्होंने राजदूत के रूप में कार्य किया.
भारत चीन को लड़ाने में लगे पश्चिम के मुल्क : रूस
रूसी विदेश मंत्री सर्गेई लावरोव ने आरोप लगाया है कि पश्चिमी देश भारत और चीन को एक-दूसरे के खिलाफ खड़ा कर रहे हैं और दोनों पड़ोसी देशों के बीच दुश्मनी बढ़ाने के लिए दरार पैदा करने की कोशिश कर रहे हैं. मॉस्को में एक डिप्लोमैटिक क्लब की बैठक में लावरोव ने कहा कि एशिया-प्रशांत क्षेत्र में पश्चिमी रणनीतियां भारत और चीन के बीच तनाव को भड़काने के लिए बनाई गई हैं.
उन्होंने कहा, "एशिया-प्रशांत क्षेत्र में वर्तमान घटनाक्रम पर ध्यान दें, जिसे पश्चिम अब 'इंडो-पैसिफिक' क्षेत्र कहने लगा है, ताकि अपनी नीति को स्पष्ट रूप से चीन विरोधी दिशा दी जा सके - और इस प्रकार हमारे करीबी मित्र और पड़ोसी भारत और चीन को आपस में टकराव की ओर ले जाया जा सके. " लावरोव ने पश्चिमी देशों द्वारा कुछ आसियान सदस्यों को एकजुट करने के बजाय खुले तौर पर टकराव वाले फॉर्मेट्स में लुभाने की कोशिशों की भी आलोचना की और यूरेशिया में सामूहिक सुरक्षा व्यवस्था की वकालत की.
उन्होंने कहा कि पश्चिमी देश 'फूट डालो और राज करो' की नीति के तहत भारत-चीन के बीच अविश्वास और तनाव बढ़ाने की साजिश कर रहे हैं. लावरोव ने आसियान (दक्षिण-पूर्व एशियाई देशों का संगठन) की केंद्रीय भूमिका को कमजोर करने के पश्चिमी प्रयासों की भी आलोचना की.
इस बीच “द इकोनॉमिस्ट” ने अपनी एक रिपोर्ट में कहा है कि चीनी हथियारों ने पाकिस्तान को भारत के खिलाफ नई बढ़त दी है और अब अमेरिका और उसके सहयोगी इसकी पूरी जानकारी जुटाने में लगे हैं.
मीडिया
सरकार का टहलुआ गुलाम बनने की शाबाशी
निधीश त्यागी
मुख्यधारा के मीडिया को सरकार ने गुरुवार को शाबाशी दी कि उनका भारत पाकिस्तान सैन्य संघर्ष के दौरान कवरेज शानदार रहा. केंद्रीय सूचना और प्रसारण मंत्री अश्विनी वैष्णव ने कहा कि जिस तरह से चैनलों ने, प्रिंट मीडिया ने, रीजनल प्रेस ने संघर्ष में अपनी भूमिका निभाई उसके लिए उन्हें सैल्यूट बनता है. वे कह तो रहे हैं कि सेना का साथ देने का शुक्रिया, पर उनका मतलब सरकार और अपने नेता से ही है.
आप चाहे तो सोच में पड़ सकते हैं. मैं उन काबिल संपादकों, प्रोड्यूसरों और मीडिया मालिकों के चेहरों की कल्पना कर रहा हूँ, जिनकी ये सुन कर बांछें खिल रही होंगी कि खुद सरकार ही हमारे हर उस धत्कर्म की वाहवाही कर रही है, जिसके बारे में हर हलाल पत्रकार, जानकार दर्शक-पाठक मज़ाक उड़ा रहा है. औऱ यहां तक, पाकिस्तान में भी खुल कर खिल्ली उड़ाई जा रही है. विदेशों में भी. यहां पर लोगों ने अपनी जान दांव पर लगा रखी थी और मीडिया कर क्या रहा था?
भारतीय नौसेना ने कराची बंदरगाह पर हमले किए; कि भारतीय सेना ने अंतरराष्ट्रीय सीमा पार की; कि पाकिस्तान के प्रधानमंत्री बंकर में भाग गए; या कि उसके सेना प्रमुख को तख्तापलट में अपदस्थ कर दिया गया. सरकार के लिए ये संतोष की बात है कि मीडिया झूठी लंतरानियां, गपोड़ी किस्से, फर्जी रिपोर्टिंग, भड़काऊ कवरेज और नफरती जहर सुबह शाम दोपहर हर रोज परोस रहा है, उनके एंकर तोतों की तरह एक ही सुर में एक साथ एक ट्वीट कर रहे हैं और अगर उसमें कोई एक बात गायब है तो वह जनपक्षधरता है. इस झूठ और फरेब के नंगे नाच में सरकार शामिल है और ये उसकी कामयाबी है कि अपनी विश्वसनीयता को गिरवी रखकर भी वे सरकारी चाटुकारिता कर अपना उल्लू सीधा कर रहे हैं.
वैष्णव वह मंत्री हैं, जो संविधान और सच की शपथ लेकर यहां तक पंहुचते हैं. यह वह प्रेस है, जिसका काम लोकतंत्र में सच को लोगों तक पंहुचाना होता है. और सत्ता से सवाल करना होता है. सवाल, जिनके जवाब सरकार के पास नहीं हैं. इन ग्यारह सालों में देखते देखते मीडिया को एक चौकीदार से अमीबा बना दिया गया है और इस काबिलियत की भी शाबाशी है, जो हमें बताती है कि हम किस अमृत काल में आ चुके हैं.
वैष्णव को खुश होना ही चाहिए. इस समय फरेबी नैरेटिव के कारखाने में जो इंटर्न, ट्रेनी पत्रकार काम करने आएगा, इस समय जो पीढ़ी मीडिया और पत्रकारिता के कॉलेजों और विश्वविद्यालयों में पढ़ाई कर रही होगी, उसके मन में कई सवाल होंगे. उन्हें पढ़ाने वाले मीडिया लॉ और एथिक्स क्या कह कर पढ़ाएंगे. जरूरत ही नहीं रह जाएगी उन बुनियादी उसूलों और कायदे की. उसे समझ भी आ रहा होगा कि अगली बार कराची नहीं, काबुल तक पर कब्जा किया जा सकता है. रावलपिंडी ही नहीं कंधार के आगे ईरान तक मार की जा सकती है.
वैष्णव का मीडिया के लिए सैल्यूट इसलिए भी है कि अब न सच का मतलब रह गया है, इसलिए झूठ हमारा न्यू नारमल है. न भाषा का, न तहजीब का, और न विश्वसनीयता का. उन्होंने सफलतापूर्वक अपने नैरेटिव को ऐसे कोरस में बदल दिया है, जिसे चलाने वाले नवसाक्षर संपादक और व्यवहारकुशल मालिकान सरकारी इशारा पाते ही एक हांके में बदल देते हैं. एक ऐसे तमाशे में जहां न्यूज का मुकाबला एंटरटेनमेंट चैनलों से है, क्योंकि वे ज्यादा फूहड़ता, ज्यादा सनसनी, ज्यादा फेंकन, ज्यादा ड्रामा परोसते हैं. उन्होंने एटमी हथियार वाले दो मुल्कों के बीच सैन्य संघर्ष को एक वीडियो गेम से चल रहे सट्टा ऑपरेशन में बदल दिया था, जिसमें मुकाबला सच के पास जाने का नहीं था, सामने वाले से ज्यादा बड़ी टुच्ची पटकने का था.
एक जिम्मेदार सरकार होती तो फेक न्यूज फैलाने वालों पर कार्रवाई कर रही होती. पर न उन्होंने सोशल मीडिया पर झूठ फैलाने वालों पर कार्रवाई की, न नफरत और हिंसा उकसाने वालों पर. जो उन पर नहीं किया तो इन पर क्या होता. कार्रवाई जब भी की तो उन प्लेटफॉर्म्स पर, जो अब भी जिम्मेदारी से, तथ्यों के साथ और सच की पत्रकारिता कर रहे हैं. जिनसे शायद सरकार को अब भी ख़तरा महसूस होता है.
ये ख़तरा किस बात का है. उस सवाल का, जिससे कहीं असलियत न उजागर हो जाए. सवाल जो मीडिया अब नहीं करता. जैसे प्रधानमंत्री के पास सर्वदलीय बैठक में जाने का समय कैसे नहीं है, अगर उनके पास अडानी के कार्यक्रम और बिहार में चुनावी रैली में जाने का टाइम है. उन जवाबदेहियों का, जिम्मेदारियों का जिनके ठीक से न निभाए जाने के कारण पहलगाम जैसी वारदात हुई. सवाल जिनका जिक्र ‘हरकारा’ यहां और यहां करता रहा है. मुख्यधारा का मीडिया अगर देश और उसकी जनता को लेकर ईमानदार और प्रतिबद्ध होता, तो ये सवाल करता. पूछता कि हमारे जहाजों का क्या हुआ, जिनके बारे में क्या-क्या सुनने में आ रहा है. कश्मीरियों के साथ हो रही ज्यादतियों पर सवाल करता. सवाल नहीं किया कि जिस विदेश सचिव और फौजी कर्नल की बेइज्जती जब मोदी समर्थकों ने की, तो सरकार, और वैष्णव चुप कैसे रहे. वैष्णव की शाबाशी इस चुप्पी बनाए रखने की भी है.
पर अपनी पत्रकारिता और लोकतांत्रिक जिम्मेदारी को भुलाकर भारत की मुख्यधारा की मीडिया इंडस्ट्री ने सरकार का टहलुआ गुलाम बनना सहर्ष स्वीकार किया है. इसीलिए जब बहुत से एंकर जमीन पर जब उतरते हैं, जनता उनका तिरस्कार करके भगाती हुई दिखाई देती है. गोदी मीडिया अब एक संस्थागत ढांचा बना है बदौलत मोदी सरकार.
पर जैसा कि किसी ने मजे लेते हुए लिखा, रात में कराची और रावलपिंडी जीत लिया और सुबह लौटा भी दिया. एक बार ये पढ़कर हंसी आ सकती है. आप भी देखिये दूसरी बार नहीं आएगी. अश्विनी वैष्णव जितना भी खुश हो लें.
‘भारत-पाकिस्तान में गलत सूचना और भ्रामक सूचनाओं की जंग’
सेंटर फॉर द स्टडीज ऑफ ऑर्गेनाइज्ड हेट (सीएसओएच) की एक नई रिपोर्ट में 7 मई को भारत-पाकिस्तान के बीच सक्रिय शत्रुता के फैलने के बाद उभरी गलत सूचनाओं और भ्रामक सूचनाओं के रुझानों का व्यापक विश्लेषण पेश किया गया है. सैन्य जीत की झूठी रिपोर्ट, सफल हवाई हमलों को दिखाने के लिए डॉक्टर किए गए वीडियो, नष्ट हुए बुनियादी ढांचे की मनगढ़ंत तस्वीरें, रूस-यूक्रेन युद्ध और गाजा में बमबारी से पुनर्नवीनीकरण फुटेज, जेनरेटिव एआई और वीडियो गेम क्लिप का उपयोग, उच्च-प्रोफ़ाइल सैन्य और राजनीतिक हस्तियों की मृत्यु या गिरफ्तारी की अफवाहें, तख्तापलट की अफवाहें, परमाणु विकिरण रिसाव आदि सोशल मीडिया प्लेटफ़ॉम्स पर फैल गए, जिनमें ‘एक्स’, ‘फ़ेसबुक’, ‘इंस्टाग्राम’, ‘यूट्यूब’ आदि शामिल हैं. इसमें कहा गया है, “गलत सूचना और भ्रामक सूचनाओं के प्राथमिक केंद्र के रूप में ‘एक्स’ उभरा. हमने जिन 437 ‘एक्स’ पोस्ट की जाँच की, उनमें से 179 सत्यापित खातों से उत्पन्न हुए थे और केवल 73 को सामुदायिक नोट्स के साथ फ़्लैग किया गया था.”
ईडी के छापे के बाद गुजरात समाचार के मालिक को जमानत
अहमदाबाद की एक अदालत ने शुक्रवार को प्रमुख गुजराती दैनिक 'गुजरात समाचार' के मालिकों में से एक बाहुबली शाह को प्रवर्तन निदेशालय द्वारा गिरफ्तारी के एक दिन बाद स्वास्थ्य आधार पर 31 मई तक जमानत दे दी.
पिछले दो सालों से चल रही अफवाहों के बीच कि एक गुजराती व्यापारिक घराने की नज़र राज्य के इस प्रमुख अख़बार है, 73 वर्षीय बाहुबली शाह को गुरुवार की रात ईडी ने 2016 के एक पुराने सेबी मामले में गिरफ्तार किया था. मीडिया रिपोर्टों के अनुसार, गुजरात समाचार और अहमदाबाद में इसके मालिक परिवार से जुड़े कम से कम 24 परिसरों पर आयकर की तलाशी पहले ही हो चुकी है.
केंद्रीय एजेंसी ने शाह की गिरफ्तारी के पीछे के कारणों के बारे में अभी तक कोई बयान जारी नहीं किया है. ईडी ने गुरुवार शाम को अहमदाबाद में बाहुबली शाह के भाई श्रेयांश शाह द्वारा संचालित गुजराती समाचार चैनल जीएसटीवी के कार्यालयों की तलाशी ली. राष्ट्रीय राजधानी में मीडिया निकायों ने ईडी द्वारा बाहुबली शाह की गिरफ्तारी पर चिंता व्यक्त की. प्रेस क्लब ऑफ इंडिया, इंडियन विमेंस प्रेस कॉर्प्स, प्रेस एसोसिएशन, दिल्ली यूनियन ऑफ जर्नलिस्ट्स, केरल यूनियन ऑफ वर्किंग जर्नलिस्ट्स, वर्किंग न्यूज कैमरामैन एसोसिएशन ने कहा, “ईडी की कार्रवाई प्रेस की स्वतंत्रता और लोकतांत्रिक मूल्यों पर एक परेशान करने वाला हमला दर्शाती है, जो भारत में स्वतंत्र अभिव्यक्ति के अधिकार को बनाए रखते हैं.” उन्होंने एक संयुक्त बयान में कहा कि गिरफ्तारी मीडिया घरानों को चुप कराने और असहमति की आवाजों को दबाने के लिए राज्य मशीनरी के दुरुपयोग के बारे में सवाल उठाती है.
पीएम के निजी यात्रा पर खर्च हुए जनता के 30 लाख रुपये : आरटीआई एक्टिविस्ट अजय बोस के ‘एक्स’ पोस्ट के अनुसार, “आरटीआई रिकॉर्ड से पता चला है कि 30 मार्च, 2025 को नागपुर में आरएसएस के एक कार्यक्रम में पीएम मोदी की एक दिवसीय ‘निजी’ यात्रा पर जनता के 30.44 लाख रुपये खर्च हुए. इस खर्च में बैरिकेड्स पर 16.78 लाख रुपये, काफिले के वाहनों पर 9.07 लाख रुपये और भोजन पर 4.58 लाख रुपये खर्च शामिल हैं. हालांकि इसे निजी करार दिया गया, लेकिन इस कार्यक्रम में सार्वजनिक धन और राज्य मशीनरी का पूरा इस्तेमाल किया गया, जिससे पक्षपातपूर्ण उद्देश्यों के लिए करदाताओं के पैसे के दुरुपयोग पर गंभीर चिंताएं पैदा हुईं हैं.”
उस्मान ख्वाजा की ‘शांति की अपील’ राजनीतिक, तो जय शाह का ‘सशस्त्र बलों का समर्थन’ क्या : अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट परिषद (आईसीसी) की आलोचना उसके ‘चौंकाने वाले पाखंड’ पर की जा रही है - पहले ऑस्ट्रेलियाई क्रिकेटर उस्मान ख्वाजा को उनके बल्ले पर शांति प्रतीक प्रदर्शित करने से प्रतिबंधित किया गया था, जबकि इसके अध्यक्ष जय शाह ने हाल ही में पाकिस्तान-भारत संघर्ष के दौरान सार्वजनिक रूप से भारतीय सशस्त्र बलों का समर्थन किया था. आलोचकों का तर्क है कि ऑस्ट्रेलियाई बल्लेबाज उस्मान ख्वाजा को 2023 के अंत में शांति का प्रतीक ‘कबूतर’ और मध्य पूर्व में शांति के समर्थन में ‘सभी जीवन समान हैं’ वाक्यांश प्रदर्शित करने से रोके जाने के बाद से निकाय असंगत रहा है. आईसीसी ने इस इशारे को बहुत राजनीतिक माना था.
इस बीच आईसीसी अध्यक्ष और भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड (बीसीसीआई) के सचिव जय शाह ने सार्वजनिक रूप से भारतीय सेना के लिए समर्थन व्यक्त किया – जिसके बाद कई लोगों ने सवाल उठाया कि आईसीसी अपनी नीतियों को कैसे लागू करता है और क्या शक्तिशाली राष्ट्रीय हित निर्णयों को प्रभावित कर रहे हैं. शाह के आईसीसी के तहत, ऐसा लगता है कि युद्ध स्वीकार्य है, शांति उत्तेजक है.
विदा की बेला पर एससीबीए की खिंचाई
भारत के मुख्य न्यायाधीश (सीजेआई) बीआर गवई ने शुक्रवार को सुप्रीम कोर्ट के वकीलों के संघ की आलोचना की, क्योंकि उन्होंने अगले महीने सेवानिवृत्त हो रही जस्टिस बेला एम त्रिवेदी के लिए विदाई समारोह का आयोजन नहीं किया. उन्होंने कहा, ‘ऐसा रुख नहीं अपनाया जाना चाहिए था’.
इंडियन एक्सप्रेस के मुताबिक, जस्टिस त्रिवेदी 9 जून को सेवानिवृत्त हो रही हैं, लेकिन शुक्रवार उनका आखिरी कार्य दिवस है, क्योंकि वह एक पारिवारिक विवाह के लिए अमेरिका जा रही हैं. न्यायालय में एक औपचारिक बेंच रखने की परंपरा है, जहां निवर्तमान न्यायाधीश अपने अंतिम कार्य दिवस पर सीजेआई के साथ बैठते हैं. सुप्रीम कोर्ट बार एसोसिएशन (एससीबीए) के लिए भी निवर्तमान न्यायाधीश के लिए उनके अंतिम कार्य दिवस की शाम को विदाई समारोह आयोजित करना परंपरा है. शुक्रवार को वकीलों के संगठन ने जस्टिस त्रिवेदी के लिए ऐसी कोई विदाई समारोह की सूचना नहीं दी. वहीं, वरिष्ठ अधिवक्ता राजू रामचंद्रन ने फेसबुक पर कहा कि करीब पांच दशक तक सदस्य रहने के अपने अनुभव में एससीबीए ने कभी ‘क्षुद्र’ व्यवहार नहीं किया. उन्होंने लिखा, “न केवल सख्त, बल्कि सबसे असभ्य लोग भी विदाई दे रहे हैं.” उन्होंने लिखा कि जस्टिस त्रिवेदी के मामले में ऐसा न कर ‘बार ने हिम्मत और समझदारी दिखाई है’.
हिरासत में आदिवासी की मौत की सीबीआई जांच : सुप्रीम कोर्ट ने मध्य प्रदेश में आदिवासी व्यक्ति की हिरासत में यातना के कारण हुई मौत की सीबीआई जांच के आदेश दिए हैं. पीठ ने कहा कि राज्य पुलिस मामले की जांच ‘निष्पक्ष और पारदर्शी तरीके’ से नहीं कर रही है.
स्क्रोल ने इंडियन एक्सप्रेस के हवाले से लिखा हे, जुलाई में देवा पारधी और उसके चाचा गंगाराम पारधी को चोरी के आरोप में गिरफ्तार किया गया था. बाद में उसी रात देवा पारधी के परिवार को बताया गया कि उसकी मौत हो गई है.
40 रोहिंग्या शरणार्थियों को समुद्र में फेंक देने की रिपोर्ट पर स्क्रोल की फैक्ट फाइंडिंग
भारतीय अधिकारियों द्वारा कथित तौर पर समुद्र में छोड़े गए 40 रोहिंग्या शरणार्थियों के पास यूएनएचसीआर कॉर्ड थे. तस्वीर स्क्रोल से.
40 रोहिंग्याओं को अंडमान सागर में दिल्ली पुलिस के फेंक देने के वायरल हुई खबरों की तथ्यात्मक जांच स्क्रोल के लिए विनीत भल्ला ने की है. उन्होंने इस पर काफी विस्तार से लिखा है. यहां पेश है उसका सार.
8 मई की शाम दिल्ली में एक युवा रोहिंग्या शरणार्थी को म्यांमार से एक फ़ोन आया. जहाँ से उसका परिवार अपने समुदाय के खिलाफ़ नरसंहार से बचने के लिए भागा था. वह फोन उसके माता-पिता का था. उन्होंने बताया कि भारतीय अधिकारियों ने उन्हें अंडमान सागर में नौसेना के जहाज ने जबरन उतार दिया और सिर्फ़ लाइफ़ जैकेट के सहारे म्यांमार के इलाके में तैरकर जाने के लिए मजबूर किया. उस युवा रोहिंग्या ने बताया कि दो दिन पहले ही दिल्ली पुलिस ने उन्हें 41 अन्य लोगों के साथ हिरासत में लिया था.
वहां ज़मीन पर उतरने के बाद, माता-पिता ने किसी तरह एक स्थानीय मछुआरे से फ़ोन मांग कर उसे फ़ोन किया. युवक ने बताया, “माता-पिता को डर था कि म्यांमार की सेना उन्हें किसी भी समय गिरफ़्तार कर सकती है और उन्हें ले जा सकती है.” लेकिन वे भाग्यशाली रहे कि वे तैरकर म्यांमार के ऐसे हिस्से में पहुंचे, जो म्यांमार की राष्ट्रीय एकता सरकार के नियंत्रण में है, जो देश की नागरिक सरकार है और 2021 के तख्तापलट के बाद से निर्वासन में है, जहां सेना का नियंत्रण नहीं है.
म्यांमार की राष्ट्रीय एकता सरकार के अधिकारियों ने स्क्रोल को पुष्टि की कि 40 रोहिंग्या शरणार्थी इसके सशस्त्र विंग, पीपुल्स डिफेंस फ़ोर्स की हिरासत में हैं. सरकार के उप मानवाधिकार मंत्री और इसके एकमात्र रोहिंग्या सदस्य आंग क्याव मो ने बताया कि बचाए गए शरणार्थियों ने रक्षा बल के सदस्यों को बताया कि उन्हें समुद्र में जबरन धकेलकर भारत से निर्वासित कर दिया गया था.
उन्होंने स्क्रॉल को बताया, “हम 40 रोहिंग्याओं की सुरक्षा सुनिश्चित करने और उन्हें आवश्यक मानवीय सहायता प्रदान करने के लिए स्थानीय पीपुल्स डिफेंस फोर्स के साथ समन्वय कर रहे हैं. हम यह सुनिश्चित करने के लिए अपनी पूरी कोशिश करेंगे कि वे अपने परिवारों से संपर्क कर सकें.”
स्क्रॉल ने शरणार्थियों द्वारा दिल्ली में अपने परिवारों को किए गए दो फोन कॉल की रिकॉर्डिंग की समीक्षा की, जिसमें समुद्र में उनके जबरन विस्थापन और म्यांमार में आगमन का विवरण दिया गया है. एक फोन रिकॉर्डिंग में, एक शरणार्थी कह रहा था कि उसे और अन्य लोगों को अधिकारियों ने पीटा. उन्होंने उन पर पहलगाम आतंकवादी हमले से जुड़े निराधार आरोप लगाए और दावा किया कि उन्होंने हिंदुओं को मार डाला है. बता दें कि रोहिंग्या समुदाय और कश्मीर में हमले के बीच ऐसे किसी भी संबंध का समर्थन करने वाला कोई सार्वजनिक सबूत नहीं है.
म्यांमार में हिरासत में लिए गए शरणार्थियों की पहचान सत्यापित करने के लिए, स्क्रॉल ने राष्ट्रीय एकता सरकार द्वारा प्रदान की गई 40 शरणार्थियों के नाम और आयु की सूची की तुलना दिल्ली में उठाए गए 43 शरणार्थियों की सूची से की. छत्तीस नाम एक जैसे या काफी हद तक समान पाए गए. आगे की पुष्टि तब हुई, जब स्क्रॉल ने म्यांमार में हिरासत में लिए गए शरणार्थियों की तस्वीरें दिखाईं - जिन्हें राष्ट्रीय एकता सरकार ने भी साझा किया - दिल्ली में एक रोहिंग्या शरणार्थी को, जिसके परिवार के सदस्य 6 मई को हिरासत में लिए गए लोगों में शामिल थे. उसने पाँच को पहचाना और राहत व्यक्त की कि वे सुरक्षित हैं. आप पूरा लेख यहां देख सकते हैं.
संयुक्त राष्ट्र ने रोहिंग्या शरणार्थियों को समुद्र में फेंके जाने की जांच शुरू की : संयुक्त राष्ट्र ने रोहिंग्या शरणार्थियों को भारतीय नौसेना के जहाज से अंडमान सागर में जबरन उतारे जाने की रिपोर्ट सामने आने के बाद जांच शुरू की है. द हिंदू की रिपोर्ट है कि संयुक्त राष्ट्र ने ‘अनुचित, अस्वीकार्य कृत्यों’ की जांच के लिए संयुक्त राष्ट्र के एक विशेषज्ञ की नियुक्ति की घोषणा की है और भारत सरकार से रोहिंग्या शरणार्थियों के साथ अमानवीय और जानलेवा व्यवहार से बचने का आग्रह किया है, जिसमें म्यांमार में खतरनाक परिस्थितियों में उन्हें वापस भेजना भी शामिल है.
म्यांमार में मानवाधिकारों की स्थिति पर संयुक्त राष्ट्र के विशेष दूत टॉम एंड्रयूज ने रोहिंग्या शरणार्थियों को नौसेना के जहाजों से समुद्र में फेंके जाने को अपमानजनक बताया और कहा कि 3 मार्च को उन्होंने भारत सरकार को पत्र भेजकर म्यांमार से आए शरणार्थियों और शरण चाहने वालों की व्यापक, मनमाने और अनिश्चितकालीन हिरासत पर चिंता जताई गई थी, साथ ही शरणार्थियों को म्यांमार वापस भेजे जाने के आरोपों के बारे में भी बताया था. इ एंड्रयूज ने कहा कि भारत अंतरराष्ट्रीय दायित्वों के इन ज़बरदस्त उल्लंघनों के लिए ज़िम्मेदार लोगों को ज़िम्मेदार ठहराए.
रूस यूक्रेन में सीधी बातचीत, युद्ध बंदियों की अदला-बदली के अलावा कोई खास सहमति नहीं
एसोसियेटड प्रेस के मुताबिक रूस और यूक्रेन के बीच 2022 के आक्रमण के शुरुआती हफ्तों के बाद पहली सीधी शांति वार्ता शुक्रवार को दो घंटे से भी कम समय में समाप्त हो गई. हालाँकि दोनों पक्ष बड़े पैमाने पर युद्धबंदियों की अदला-बदली पर सहमत हुए, लेकिन लड़ाई समाप्त करने की प्रमुख शर्तों पर वे स्पष्ट रूप से बहुत दूर रहे.
यूक्रेन के लिए एक प्रमुख शर्त, जिसका उसके पश्चिमी सहयोगियों ने समर्थन किया है, शांतिपूर्ण समाधान की दिशा में पहले कदम के रूप में एक अस्थायी युद्धविराम है. क्रेमलिन ने ऐसे किसी भी युद्धविराम का विरोध किया है. यूक्रेनी विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता जियोर्गी तिखी ने कहा, "हमें इस बुनियादी बिंदु पर रूस से 'हाँ' नहीं मिली है." वहीं, रूसी प्रतिनिधिमंडल के प्रमुख व्लादिमीर मेडिंस्की ने "परिणाम से संतुष्ट" होने की बात कही और कहा कि मॉस्को संपर्क जारी रखने को तैयार है. दोनों पक्षों ने 1,000-1,000 युद्धबंदियों की अदला-बदली पर सहमति व्यक्त की, जो अब तक की सबसे बड़ी अदला-बदली होगी.
यूक्रेनी राष्ट्रपति वलोडिमिर ज़ेलेंस्की ने कहा कि उन्होंने अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प और फ्रांस, जर्मनी, ब्रिटेन व पोलैंड के नेताओं के साथ वार्ता पर चर्चा की. उन्होंने रूस द्वारा "पूर्ण और बिना शर्त युद्धविराम" को अस्वीकार करने पर कड़े प्रतिबंधों का आग्रह किया. एक वरिष्ठ यूक्रेनी अधिकारी के अनुसार, रूस ने बातचीत के दौरान यूक्रेनी सेना को बड़े क्षेत्रों से हटाने की नई, "अस्वीकार्य मांगें" भी पेश कीं.
पश्चिमी नेताओं ने रूस के रुख को "अस्वीकार्य" बताया है और नए प्रतिबंधों पर विचार किया जा रहा है. तुर्की के विदेश मंत्री ने वार्ता की शुरुआत करते हुए जल्द से जल्द युद्धविराम की महत्ता पर जोर दिया था.
चलते-चलते
हजार साल से बैठे हुए कंकाल को तिरपाल की छाया से मुक्ति के बाद ढंग की छत मयस्सर
एक हज़ार साल पुराना मानव कंकाल, जो भारत में पद्मासन या ध्यान मुद्रा में बैठा दफ़नाया गया था, आखिरकार छह साल के लंबे इंतज़ार और लालफ़ीताशाही की अड़चनों के बाद एक संग्रहालय पहुँच गया है. सोचिए, 2019 में जब गुजरात में यह कंकाल मिला, तो यह इतिहास के कई राज़ खोलने वाला था. लेकिन हैरत की बात है कि इसे पश्चिमी गुजरात में खुदाई स्थल के पास ही एक असुरक्षित तिरपाल के नीचे छोड़ दिया गया था. मानो कोई अनमोल धरोहर यूं ही धूल फांक रही हो! बीबीसी के रौक्सी गागडेकर डाहरा ने ये रिपोर्ट की है.
लेकिन अब, गुरुवार को इस ऐतिहासिक कंकाल को बड़े ही एहतियात और विशेषज्ञों की देखरेख में कुछ ही मील दूर, वडनगर के आर्कियोलॉजिकल एक्सपीरियंशियल म्यूज़ियम में स्थानांतरित कर दिया गया है. अधिकारियों का कहना है कि जल्द ही प्रशासनिक प्रक्रियाएं पूरी होने के बाद इसे आम जनता के देखने के लिए रखा जाएगा. फिलहाल, यह म्यूज़ियम के रिसेप्शन के पास एक सुरक्षा घेरे में अपनी नई जगह पर विराजमान है. पुरातत्वविद अभिजीत अम्बेकर, जिन्होंने इस कंकाल की खोज की थी, बेहद खुश हैं कि इस महत्वपूर्ण खोज को वह तवज्जो मिल रही है जिसकी यह हकदार है. उन्होंने बताया कि यह एक दुर्लभ खोज है, क्योंकि भारत में ऐसे अवशेष केवल तीन अन्य जगहों पर ही मिले हैं! विशेषज्ञों का मानना है कि यह कंकाल संभवतः सोलंकी राजवंश (940 से 1300 ईस्वी) के समय का है. सबसे दिलचस्प बात यह है कि यह उस समय की "समाधि प्रथा" पर भी प्रकाश डाल सकता है, जिसमें पूजनीय और श्रद्धेय व्यक्तियों को दाह संस्कार करने के बजाय उन्हें समाधिस्थ यानी दफनाया जाता था. यह कंकाल न केवल गुजरात के प्राचीन इतिहास को समझने में मदद करेगा, बल्कि यह भी बताएगा कि कैसे उस दौर में लोगों को दफ़नाया जाता था और उनकी क्या मान्यताएं थीं.
पाठकों से अपील-
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