17/07/2025: बजाय अंजुम पर एफआईआर के, अपने गिरेबान में क्यों नहीं झांकता चुनाव आयोग | कांवड़ या पढ़ाई, गुरूजी पर कार्रवाई | नेतन्याहू संकट में | फेसबुक की डाटा चोरी | भारत से भागते करोड़पति
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निधीश त्यागी, साथ में राजेश चतुर्वेदी, गौरव नौड़ियाल
आज की सुर्खियां :
बजाय अजीत अंजुम पर एफआईआर के, चुनाव आयोग को खुद अपने गिरेबान में झांकना चाहिए
'फॉर्म कूड़ावाला दे रहा है, पावती भी नहीं मिली'
मोदी का बिहार में 53वां दौरा और चुनावी रेवड़ियां
बिहार की समस्याएँ, चुनौतियां वैसे ही क्या कम थी, कि अब एसआईआर लगा दिया गया?
बिहार के सैनिटरी पैड वाले रंजन के कंटेंट में अशोभनीय भाषा
डेटा चोरी का मामला: ज़करबर्ग और मेटा के बड़े अधिकारी कटघरे में
धुबरी तो बस शुरुआत : कॉर्पोरेट शासन के लिए आज मियां किसान, कल कोई और होगा
सीआरपीएफ को 20 नई बटालियन गठित करने की मंजूरी
मनोज सिन्हा का दावा, 'पहलगाम हमले के आतंकी पहचान लिए गए हैं, ज्यादा दिन ज़िंदा नहीं रहेंगे'
मानसून सत्र से पहले नया भाजपा पार्टी अध्यक्ष मिलने की संभावना नहीं
सीडीएस चौहान ने कहा, बीते कल के हथियार, आज की जंग नहीं जीत सकते
एनसीईआरटी की 8वीं की किताब में बदलाव, मुस्लिम शासकों की “क्रूरता” का वर्णन
‘उदयपुर फाइल्स’ : हाईकोर्ट के आदेश में हस्तक्षेप से इनकार
दस साल 23,000 करोड़पति भारत छोड़कर चले गये, क्या आप सोचते हैं ऐसा क्यों हुआ?
छुआछूत के खिलाफ कानून बेअसर?
'जय हिंद' बोलो और ज़मानत लो: अदालत के अजीब फैसले पर उठे सवाल
दिल्ली में 'बांग्लादेशी कैदियों के लिए कामचलाऊ इंतजाम', उधर मुंबई में 'बांग्लादेशी' भारतीय निकले
भुवनेश्वर में छात्रा की आत्महत्या को लेकर प्रदर्शन कई नेता घायल, 100 से अधिक कार्यकर्ता हिरासत में
महमूदाबाद की फेसबुक पोस्ट की जांच कर रही एसआईटी ने दायरा क्यों बढ़ाया? सुप्रीम कोर्ट ने उठाए सवाल
भारत-पाक विदेश मंत्री आमने-सामने: पहलगाम हमले और ‘ऑपरेशन सिंदूर’ की छाया में तल्ख़ तेवर
"मां को पाकिस्तान भेज दिया गया, अब हमें इंसाफ़ चाहिए," जम्मू की वकील फलक़ का सवाल, “क्या मुसलमान होने की सज़ा मिली?”
भारत की फैक्ट्री बनता दक्षिण, तमिलनाडु के नेतृत्व में दक्षिण भारत का औद्योगिक उभार
सत्यजीत रे के पैतृक आवास को बचाने के लिए भारत ने बढ़ाया सहयोग का हाथ
इज़रायल ने दमिश्क में सीरियाई रक्षा मंत्रालय पर हमला किया
संकट में नेतन्याहू, सहयोगी पार्टी ने छोड़ा साथ
"ज़िंदगी इतनी खूबसूरत है कि मरने का मन ही नहीं करता" - कहानी 'टर्बन टॉरनेडो' फौजा सिंह की
"कांवड़ लेने मत जाना, तुम ज्ञान के दीप जलाना": शिक्षक की कविता पर बरेली में विवाद
बिहार
बजाय अजीत अंजुम पर एफआईआर के, चुनाव आयोग को खुद अपने गिरेबान में झांकना चाहिए
बिहार में चुनाव आयोग के एसआईआर के नाम पर 'महा-फर्जीवाड़ा', बीएलओ खुद भर रहे फॉर्म, कर रहे दस्तखत, वीडियो में कैद
वरिष्ठ पत्रकार अजीत अंजुम ने अपने एक स्टिंग वीडियो के ज़रिये बिहार में चल रहे चुनाव आयोग के विशेष गहन पुनरीक्षण (Special Intensive Revision - SIR) कार्यक्रम में बड़े पैमाने पर हो रहे फर्जीवाड़े का पर्दाफाश किया है. पटना के ऐतिहासिक गांधी मैदान से जारी अपनी रिपोर्ट में अंजुम ने दिखाया है कि कैसे चुनाव आयोग के महत्वाकांक्षी कार्यक्रम का ज़मीनी क्रियान्वयन पूरी तरह से विफल और धांधली का शिकार हो चुका है. उनका वीडियो सबूतों के साथ यह रेखांकित करता है कि वोटरों के पास जाए बिना, हज़ारों-लाखों की संख्या में फॉर्म बीएलओ (बूथ लेवल ऑफिसर)द्वारा खुद ही भरे और हस्ताक्षरित किए जा रहे हैं.
पत्रकार अजीत अंजुम के खिलाफ एफआईआर दर्ज होने पर कई पत्रकारों के साथ ही एडिटर्स गिल्ड ऑफ इंडिया (EGI) ने कड़ी आपत्ति जताई है और इसे स्वतंत्र पत्रकारिता पर सीधा हमला बताया है.
अजीत अंजुम ने अपनी रिपोर्ट का केंद्र पटना से सटे फुलवारी शरीफ के 'प्रखंड सह अंचल कार्यालय' को बनाया. उन्हें सूचना मिली थी कि वहां बड़ी संख्या में बीएलओ और सुपरवाइजर बैठकर फॉर्म भर रहे हैं. अंजुम के अनुसार, जब वे बिना कैमरे के कार्यालय के अंदर गए तो वहां का नज़ारा देखकर उनकी "आंखें फटी रह गईं". एक बड़े कमरे में लगभग 30-40 बीएलओ और सुपरवाइजर बैठे थे. उनके पास 2025 की वोटर लिस्ट, खाली वोटर गणना प्रपत्र (Enumeration Forms) के बंडल और कलम थे. वे वोटर लिस्ट से नाम देखकर खुद ही फॉर्म भर रहे थे और वोटरों की जगह पर अलग-अलग तरीकों से दस्तखत भी कर रहे थे.
मोबाइल में कैद हुआ सबूत : अंजुम ने अपने मोबाइल कैमरे से लगभग 3 मिनट 16 सेकंड का एक वीडियो रिकॉर्ड किया, जो इस पूरे फर्जीवाड़े का अकाट्य सबूत है. वीडियो में साफ़ दिखता है:
बीएलओ और सुपरवाइजर मेजों पर फॉर्म के ढेर लगाकर बैठे हैं.
उनके हाथों में 2025 की वोटर लिस्ट है, जिससे मिलान कर वे खाली फॉर्म भर रहे हैं.
एक महिला बीएलओ को "विष्णुपुर पगड़ी" बूथ के फॉर्म पर दस्तखत करते हुए कैमरे ने कैद किया.
कई बीएलओ एक ही कलम से सैकड़ों फॉर्म पर अलग-अलग हस्ताक्षर करने का प्रयास कर रहे हैं.
फॉर्म के अधिकांश कॉलम खाली हैं और उन पर किसी भी मतदाता का वास्तविक हस्ताक्षर नहीं है.
जब एक व्यक्ति को शक हुआ तो उसने अंजुम से उनकी पहचान पूछी और मोबाइल पर हाथ मारा, जिसके बाद अंजुम को वहां से निकलना पड़ा.
दबाव और टारगेट का खेल : अजीत अंजुम अपनी रिपोर्ट में स्पष्ट करते हैं कि इस फर्जीवाड़े के लिए निचले स्तर के कर्मचारी या बीएलओ दोषी नहीं हैं, बल्कि वे एक भ्रष्ट और दबाव वाली व्यवस्था के शिकार हैं. उनके अनुसार, इसकी मुख्य वजहें हैं:
अवास्तविक टारगेट: चुनाव आयोग और जिला प्रशासन ने बीएलओ पर कम समय में 80-90% फॉर्म जमा करने का भारी दबाव बनाया है. जो काम तीन महीने में होना चाहिए था, उसे 15-20 दिन में खत्म करने का टारगेट दिया गया है.
दबाव की श्रृंखला: यह दबाव ऊपर से नीचे तक आ रहा है. चुनाव आयोग जिलाधिकारियों (डीएम) पर, जिलाधिकारी एसडीएम (ईआरओ) पर, एसडीएम बीडीओ पर और बीडीओ अंततः बीएलओ पर दबाव बना रहे हैं.
कार्रवाई का डर: टारगेट पूरा न कर पाने वाले बीएलओ की सैलरी रोकी जा रही है. अंजुम ने बेगूसराय का उदाहरण दिया, जहां 190 बीएलओ की सैलरी सिर्फ इसलिए रोक दी गई क्योंकि उनके काम की रफ़्तार 50% से कम थी.
इस "टारगेट पूरा करने की प्रतियोगिता" में मतदाता और लोकतांत्रिक प्रक्रिया की शुचिता बहुत पीछे छूट गई है. यह खुलासा चुनाव आयोग की पूरी प्रक्रिया पर गंभीर सवाल खड़े करता है. एक तरफ आयोग ने SIR के लिए 11 तरह के दस्तावेजों की जटिल सूची जारी की थी, जिस पर सुप्रीम कोर्ट में भी सुनवाई चल रही है. वहीं दूसरी ओर, ज़मीन पर बिना किसी दस्तावेज़, बिना मतदाता से मिले और बिना वास्तविक हस्ताक्षर के ही फॉर्म जमा हो रहे हैं. अंजुम ने सीधे मुख्य चुनाव आयुक्त ज्ञानेश कुमार को संबोधित करते हुए कहा कि उन्हें इस फर्जीवाड़े पर प्रेस कॉन्फ्रेंस करके देश को जवाब देना चाहिए. उन्होंने चुनौती दी कि चुनाव आयोग या तो उनके वीडियो को गलत साबित करे या यह माने कि बिहार में SIR के नाम पर भारी गड़बड़ी हो रही है और इसकी ज़िम्मेदारी ले.
अजीत अंजुम की यह रिपोर्ट बताती है कि बिहार में मतदाता सूची को शुद्ध करने के नाम पर चलाया जा रहा SIR अभियान अपने मक़सद से पूरी तरह भटक चुका है. यह घटिया क्रियान्वयन का एक जीता-जागता उदाहरण है, जहां प्रशासनिक दबाव के चलते लोकतंत्र की सबसे बुनियादी इकाई 'मतदाता' के अधिकारों के साथ खिलवाड़ हो रहा है. यह फर्जीवाड़ा न केवल मतदाता सूची की पवित्रता को भंग करता है, बल्कि पूरी चुनावी प्रक्रिया की विश्वसनीयता को भी संदेह के घेरे में खड़ा कर देता है. अब यह देखना होगा कि इस खुलासे के बाद चुनाव आयोग क्या कदम उठाता है.
'फॉर्म कूड़ावाला दे रहा है, पावती भी नहीं मिली'
'द हिंदू' की रिपोर्ट है कि पटना के कंकरबाग इलाके में रहने वाले कई नागरिकों ने विशेष सघन पुनरीक्षण के दौरान मतदाता नामांकन फॉर्म मिलने और जमा करने की प्रक्रिया पर गंभीर सवाल उठाए हैं. कुछ लोगों का कहना है कि बूथ लेवल अधिकारी (BLO) की बजाय नगर निगम के एक सफाई कर्मचारी यानी ‘कूड़ावाला’ ने उन्हें फॉर्म दिया. यही नहीं, जब उन्होंने भरकर फॉर्म जमा किया, तो उस पर कोई बारकोड नहीं था, और पावती (रसीद) भी नहीं दी गई. एक स्थानीय निवासी ने कहा - “अगर चुनाव वाले दिन बूथ पर हमें ये कह दिया गया कि हमने फॉर्म नहीं भरा और हमारा नाम मतदाता सूची से हटा दिया गया है, तो हम क्या कर सकते हैं?” वह खुद ही जवाब देते हैं - “कुछ भी नहीं.”
मोदी का बिहार में 53वां दौरा और चुनावी रेवड़ियां
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जब किसी चुनावी राज्य का दौरा करते हैं, तो उपहार भी साथ लेकर जाते हैं. अर्थात्, वोटरों को लुभाने के लिए बड़े प्रोजेक्ट्स की सौगात. प्रधानमंत्री बनने के बाद 18 जुलाई को बिहार के 53वें दौरे में और एक महीने में दूसरी बार, मोदी 7200 करोड़ रुपये के प्रोजेक्ट्स का शुभारंभ करेंगे, जिसमें तीन अमृत भारत एक्सप्रेस ट्रेनें, सड़क परियोजनाएं तथा इलेक्ट्रॉनिक्स और आईटी विभाग से जुड़े कुछ काम शामिल हैं. पटना से अभय कुमार ने बताया कि भाजपा अपनी चुनावी मुहिम की शुरुआत चंपारण से करने जा रही है, जहां 1917 में महात्मा गांधी ने अंग्रेजों के खिलाफ 'नील आंदोलन' शुरू किया था और राष्ट्रीय स्तर पर पहचाने गए थे. बिहार में इस वक्त चुनाव आयोग मतदाता सूची में संशोधन कर रहा है, जिस पर विपक्ष ने सत्तारूढ़ दल के पक्ष में काम करने का आरोप लगाया है. जाहिर है इस पर सवाल करने का टाइम आयोग के पास नहीं ही है.
विश्लेषण
बिहार की समस्याएँ, चुनौतियां वैसे ही क्या कम थी, कि अब एसआईआर लगा दिया गया?
- अशोक झा
बिहार में चुनाव आयोग ने जो एसआईआर (विशेष गहन पुनरीक्षण) शुरू किया है वह अगले नौ दिनों में समाप्त होने वाला है. इस पर काफी ज़्यादा बवाल मचा है पर यह बवाल यूँ ही नहीं है. इसको लेकर जो चिंताएँ ज़ाहिर की गयी हैं, वे जायज़ हैं. लोकतंत्र में मतदाता होना उतना ही महत्वपूर्ण है, जितना जान बचाने के लिए किसी जान-बचाऊ प्रभावी हथियार से लैस होना. ऐसे में इस बारे में उन लोगों की चिंताएँ बिल्कुल सही हैं, जिन्हें लगता है कि उन्हें लक्ष्य करके बिहार में यह चलाया गया है. यह “उनको लक्ष्य करके” वाली बात यूँ ही नहीं कही जा रही है, बल्कि इसके समर्थन में एकाधिक सबूत मौजूद हैं. ऐसी स्थिति में सड़क से लेकर न्यायालय तक इसके खिलाफ लड़ाई कहीं से भी कम महत्वपूर्ण नहीं है.
पर हम सब जानते हैं कि चुनाव आयोग ने जिस प्रक्रिया को आगे बढ़ा दिया, उसको रोका नहीं जा सकता भले ही उसमें कितनी भी ख़ामियाँ क्यों न हों. ऐसा जानबूझकर किया गया है और चुनाव आयोग को इसका हासिल भी मालूम है. मताधिकार से लोगों का वंचित होना या उन्हें जानबूझकर मतदाता सूची से बाहर कर देना, कोई नई बात भी नहीं है. कई बार इस आरोप में सच्चाई लगती है कि सत्ताधारी पार्टी ने चुनाव आयोग नामक संवैधानिक संस्था को अपने क़ब्ज़े में ले लिया है. सरकार जैसा चाहती है, चुनाव आयोग वैसा करने के लिए तत्पर दिखाई पड़ता है. पर ऐसा मानकर चुनाव आयोग को मनमानी नहीं करने दी जा सकती. यह अचरज की ही बात कही जाएगी कि जो बिहार खुद अपने लोगों को रोज़गार और शिक्षा नहीं दे पा रहा है, वहाँ बांग्लादेश, म्यांमार, भूटान और दूसरे देश के लोग क्यों आएँगे, जैसे कि एसआईआर के बहाने इस तरह के लोगों को ढूँढने का यहाँ प्रयास किया जा रहा है.
चुनाव आयोग जैसे चाहेगा, एसआईआर की प्रक्रिया तो पूरी कर ली जाएगी. पर इसके बाद क्या होगा?
चुनाव आयोग के इस क़दम के ख़िलाफ़ काफ़ी शोर मचा है, जो कि किसी तरह ग़लत नहीं है. पर इस शोर में दूसरे सारे अहम मुद्दे ख़ुदकुशी करते दिख रहे हैं. बिहार महज एक दूसरा राज्य नहीं है जहाँ चुनाव होने जा रहा है.
आप मानें या ना मानें, पर बिहार एक तरह से मरणासन्न है. उसे इस समय आइसीयू में होना चाहिए ताकि उसकी जान बचायी जा सके. पर बिहार के बारे में जो हो-हल्ला मचाया जा रहा है वह वैसा ही है जैसे किसी आदमी की जान बचाने की बजाय उसके अंतिम संस्कार की चिंता की जाए. बिहार के लिए सवाल अस्तित्व का है. बिहार ऐसी स्थिति में नहीं है कि कोई काम चलाऊ दवा देकर उसको कुछ समय तक ज़िंदा रखा जा सके. बिहार वास्तव में, ऐसी स्थिति में पहुँच चुका है कि उसके एक से अधिक अंग शिथिल हो चुके हैं. उसे आईसीयू में भी काफी समय तक रहना होगा. अगर आप बिहार या इस देश की उन्नति से बावस्ता हैं, तो बिहार से जुड़े आंकड़े और उनके निहितार्थ आपको सकते में डाल देंगे. किसी को भी बिहार के बचे होने पर अचरज होना स्वाभाविक है. देश की क़रीब 9% जनसंख्या का घर बिहार है .
अब ज़रा इन आँकड़ों को देखिए :
आर्थिक
सकल राज्य घरेलू उत्पाद (GSDP) की दृष्टि से देखें तो देश में उसका स्थान 28 राज्यों में 14वां है.
देश की 9% जनसंख्या वाले राज्य का देश के सकल घरेलू उत्पाद में योगदान 2% से भी कम है.
बिहार की 15.73% जनसंख्या ग़रीबी रेखा से नीचे है.
यहाँ की प्रति व्यक्ति आय (2023-24) ₹ 59,637 जबकि राष्ट्रीय औसत ₹1,72000 है.
बेरोज़गारी की दर बिहार में क़रीब 13% है.
15-29 साल के लोगों में बेरोज़गारी यहाँ 30% से भी अधिक है और यह राष्ट्रीय औसत से तीन गुना है.
वर्क फ़ोर्स में महिलाओं की भागीदारी बिहार में 10% से भी कम है.
सामाजिक :
बिहार की क़रीब 60% जनसंख्या 25 साल से कम उम्र के लोगों की है.
बिहार में जन्म दर देश में सबसे अधिक है.
बिहार में 71.2% पुरुष और 51.5% महिलाएँ साक्षर हैं (2011 की जनगणना के अनुसार)
बड़ी संख्या में लड़कियों की शादी अभी भी 18 वर्ष से कम उम्र में हो जाती है.
अर्थशास्त्री प्राची मिश्रा के अनुसार, जहाँ तक आर्थिक बदहाली की बात है, दूसरे राज्यों की बात छोड़िए, बिहार को उड़ीसा के समकक्ष आने में 17 साल लग जाएंगे. उनका कहना है कि कुछ अर्थों में बिहार अफ़्रीका के सर्वाधिक पिछड़े हुए देशों की श्रेणी में आता है या कई अर्थों में उनसे भी ज़्यादा पिछड़ा हुआ है.
यहाँ की शिक्षा का हाल देखिए : ‘दैनिक भास्कर’ की 8 अगस्त 2024 की एक रिपोर्ट के अनुसार बिहार में 2600 से अधिक स्कूलों को दूसरे स्कूलों के साथ मिला दिया गया. ज़ाहिर है कि भारी संख्या में छात्रों के लिए स्कूलों तक उनकी पहुँच मुश्किल कर दी गयी. ‘द टाइम्स ऑफ़ इंडिया’ की 13 अप्रैल 2022 की एक रिपोर्ट के मुताबिक भूमि के अभाव में पूरे बिहार में 1885 प्राथमिक विद्यालय बंद कर दिए गए. पिछले 10-15 सालों से ये स्कूल या तो सामुदायिक भवनों या फिर पेड़ के नीचे चल रहे थे. 26 दिसंबर 2018 की ‘हिंदुस्तान टाइम्ज़’ की एक रिपोर्ट के अनुसार, वर्ष 2017-18 में सरकारी स्कूलों में छात्रों की संख्या घटकर 1.8 करोड़ पर आ गयी जबकि 2016-17 में 1.99 करोड़ छात्रों का स्कूलों में पंजीकरण हुआ था. इसी रिपोर्ट में कहा गया है कि स्कूलों में छात्रों की संख्या पर्याप्त नहीं होने के कारण 1140 से अधिक स्कूलों को बंद कर दिए जाने की आशंका है. शिक्षा का अधिकार के तहत 1-5 तक की कक्षा के छात्रों के लिए स्कूल एक किलोमीटर की दूरी के अंदर होना चाहिए.
बिहार एक ऐसा राज्य है जहाँ से भारी संख्या में लोग रोज़गार की तलाश में देश के अलग-अलग हिस्सों में जाते हैं. एक दृष्टि से देखा जाए तो यह प्रवासियों/प्रवासी मज़दूरों का राज्य है. यहाँ की प्राथमिक शिक्षा जितनी बदहाल है उच्च शिक्षा उससे कहीं ज़्यादा बदतर है और जिन छात्रों के पास वहाँ से निकल भागने का थोड़ा भी अवसर मिलता है, वे भाग लेते हैं.
चुनाव आयोग के एसआईआर के हो-हल्ला में बिहार में सामाजिक-आर्थिक मुद्दों से जुड़े अहम सवाल फ़िलहाल पीछे धकेल दिए गए हैं, ऐसा लगता है . ऐसा भी नहीं है कि एसआईआर की प्रक्रिया के पूरा हो जाने के बाद इस पर बहस बंद हो जाएगी. इसको राजनीतिक हथियार बनाया जाएगा जो कि किसी भी तरह अनुचित नहीं है. पर जैसी कि आशंका है, आर्थिक-सामाजिक मुद्दे ज़ेरे बहस से ग़ायब ही रहेंगे. ऐसे में अगर बिहार को चुनाव के बाद ऐसी सरकार मिलती है, जो उसके आर्थिक और महत्वपूर्ण सामाजिक संकेतकों को नज़रंदाज़ कर उसे ज़्यादा सनातनी और बहुसंख्यावादी बनाने के रास्ते पर ले जाएगी, तो बिहार देश के मानचित्र से भले ही ग़ायब नहीं हो, पर उसको वहाँ बनाए रखना बहुत ही दुष्कर होगा.
लेखक बिहार के मूल निवासी हैं, पत्रकार और अनुवादक हैं.
बिहार के सैनिटरी पैड वाले रंजन के कंटेंट में अशोभनीय भाषा
पिछले हफ्ते बिहार के रतन रंजन का नाम पुलिस की तीन एफआईआर में आया था, क्योंकि उसने डिजिटल तरीके से राहुल गांधी का चेहरा सैनिटरी पैड पर चिपका दिया था. भाजपा के अमित मालवीय ने उसका बचाव करते हुए उसे "बिहार के युवाओं की आवाज और सम्मान" बताया. लेकिन, “न्यूज़ लांड्री” में अनन्या टंडन ने रंजन द्वारा पेश किये गए कंटेंट में ज्यादातर अभद्रता, महिलाओं के प्रति अशोभनीय भाषा और सांप्रदायिक बातें शामिल पाई हैं. रंजन ने आरोप लगाया था कि कांग्रेस काले जादू से ‘प्रभावित’ सैनिटरी पैड हिंदू महिलाओं में बांझपन बढ़ाने के लिए बांट रही है. एक इंटरव्यू में उसने कहा था, “दादी ने जिस तरह से नसबंदी करके हिंदुओं की संख्या कम की थी, अब पोता पैड बांट के, काला जादू करके, इसमें केमिकल मिलाकर हिंदू महिलाओं को बांट रहा है."
दिल्ली में वोटर लिस्ट के नए विशेष पुनरीक्षण की तैयारी शुरू : 'द इंडियन एक्सप्रेस' के लिए आशीष श्रीवास्तव की रिपोर्ट है कि दिल्ली में चुनाव आयोग (ECI) ने वोटर लिस्ट के संभावित विशेष सघन पुनरीक्षण से पहले की तैयारियों का खाका तैयार कर अधिकारियों को तत्काल कार्रवाई के निर्देश दिए हैं. हाल ही में पुनरीक्षण की कटऑफ तारीख अधिसूचित किए जाने के कुछ दिन बाद ही आयोग ने दिल्ली के चुनाव अधिकारियों से कहा है कि वे पूर्व-पुनरीक्षण गतिविधियों को गति दें. दिल्ली, जहां 2025 के अंत या 2026 की शुरुआत में विधानसभा चुनाव हो सकते हैं, वहां चुनाव आयोग की सक्रियता यह संकेत देती है कि यहां भी बिहार की ही तरह नए सिरे से नागरिकों को अपनी पहचान दर्ज करनी होगी.
डेटा चोरी का मामला: ज़करबर्ग और मेटा के बड़े अधिकारी कटघरे में
फेसबुक की मालिक कंपनी मेटा के सीईओ मार्क ज़करबर्ग और कंपनी के दूसरे बड़े अधिकारी एक बड़े कानूनी पचड़े में फंस गए हैं. कंपनी के ही शेयरधारकों ने उन पर 8 अरब डॉलर का मुकदमा दायर किया है, जिसकी सुनवाई शुरू हो चुकी है. शेयरधारकों का आरोप है कि ज़करबर्ग और उनकी टीम ने जानबूझकर फेसबुक यूज़र्स के डेटा का गलत इस्तेमाल होने दिया और उसकी सुरक्षा में लापरवाही बरती. यह मामला 2012 में अमेरिकी संघीय व्यापार आयोग (FTC) के साथ हुए एक समझौते का सीधा उल्लंघन है, जिसमें कंपनी ने यूज़र्स के डेटा की सुरक्षा का वादा किया था. अदालत में गवाही देते हुए एक प्राइवेसी एक्सपर्ट ने कहा कि फेसबुक की गोपनीयता से जुड़ी नीतियां "भ्रामक" थीं. इस मामले में मार्क ज़करबर्ग के अलावा कंपनी की पूर्व सीओओ शेरिल सैंडबर्ग और नेटफ्लिक्स के सह-संस्थापक रीड हेस्टिंग्स जैसे कई बड़े अरबपति भी कटघरे में हैं.
यह पूरा मामला 2018 में सामने आए कुख्यात 'कैंब्रिज एनालिटिका' घोटाले से जुड़ा है. कैंब्रिज एनालिटिका एक राजनीतिक सलाहकार फर्म थी, जिसने 2016 में डोनाल्ड ट्रंप के राष्ट्रपति चुनाव अभियान के लिए काम किया था. इस फर्म ने लाखों फेसबुक यूज़र्स के डेटा को उनकी अनुमति के बिना हासिल कर लिया था. इस घोटाले के बाद, FTC ने फेसबुक पर यूज़र डेटा की सुरक्षा न कर पाने के लिए 5 अरब डॉलर का भारी जुर्माना लगाया था. अब शेयरधारकों की मांग है कि ज़करबर्ग और दूसरे ज़िम्मेदार अधिकारी कंपनी को यह 5 अरब डॉलर का जुर्माना और दूसरे कानूनी खर्च लौटाएं, जो कुल मिलाकर 8 अरब डॉलर से ज़्यादा हैं.
दूसरी तरफ, ज़करबर्ग और उनके वकीलों ने इन सभी आरोपों को 'बेहद बढ़ा-चढ़ाकर' बताया है. उनका कहना है कि फेसबुक ख़ुद कैंब्रिज एनालिटिका के धोखे का शिकार हुई थी. इस मामले की सुनवाई वही जज कैथलीन मैककॉर्मिक कर रही हैं, जिन्होंने पिछले साल एलन मस्क के 56 अरब डॉलर के टेस्ला पे-पैकेज को रद्द कर दिया था, इसलिए इस केस पर सबकी नज़रें टिकी हैं. यह अपनी तरह का पहला बड़ा मुक़दमा है जिसमें यह आरोप लगाया गया है कि कंपनी के बोर्ड ने अपनी निगरानी की ज़िम्मेदारी निभाने में जानबूझकर कोताही बरती. इसके अलावा, ज़करबर्ग पर यह भी आरोप है कि उन्होंने कैंब्रिज एनालिटिका घोटाले की खबर बाहर आने से पहले ही कंपनी के शेयर बेचकर 1 अरब डॉलर से ज़्यादा की कमाई की, क्योंकि उन्हें अंदेशा था कि स्टॉक की कीमत गिरने वाली है. हालांकि, उनके वकीलों का कहना है कि यह बिक्री एक पहले से तय योजना के तहत हुई थी.
धुबरी तो बस शुरुआत : कॉर्पोरेट शासन के लिए आज मियां किसान, कल कोई और होगा
असम के धुबरी जिले में सरकारी ज़मीन से कई बंगाली मुस्लिम परिवारों की हाल ही में की गई बेदखली केवल एक स्थानीय प्रशासनिक कार्रवाई नहीं है, बल्कि यह एक बड़े पैटर्न का हिस्सा है. स्वतंत्र शोधकर्ता बोनोजित हुसैन के मुताबिक, आज की बेदखलियां "रणनीतिक बुनियादी ढांचे के लिए कल ज़मीन साफ़ करने" की नीति के तहत होती हैं.
वह कहते हैं कि कोकराझार जिले में अडानी समूह की प्रस्तावित थर्मल पावर परियोजना के लिए सरकार द्वारा कृषि, वन व सार्वजनिक ज़मीन ‘चुपचाप’ आरक्षित कर दी गई. इस प्रक्रिया में ग्रामवासियों को दरकिनार किया गया, जिससे छह से अधिक गांवों के बोड़ो समुदायों में विरोध भड़क गया.
हुसैन का कहना है कि राज्य सरकार इन घटनाओं को अक्सर संप्रदायिक रंग देने की कोशिश करती है. इससे "समाज में भ्रम की स्थिति बनी रहती है, ताकि विवाद पैदा हो और बिना ज़्यादा विरोध के सरकारी मशीनरी ज़मीन का अधिग्रहण कर सके."
"आज मियां (बंगाली मुस्लिम) किसान हैं. कल यह दुर्लभ खनिज संपन्न पहाड़ियों में करबी किसान होंगे, फिर पर्बतझोड़ा/बसबारी में थर्मल प्लांट के सामने बोडो घर होंगे; और फिर पूर्वी असम में ताई-अहोम, मिसिंग व चूटिया किसान पाम ऑयल और हाइड्रोपावर कॉरीडोर के रास्ते में खड़े होंगे," बोनोजित हुसैन ने लिखा है.
कई जगहों पर वन अधिकार अधिनियम और संविधान के प्रावधानों को दरकिनार कर, बिना ग्रामवासियों की सहमति या परामर्श के भूमि अधिग्रहण हो रहा है, जिसका पारिस्थितिकीय और आजीविका दोनों पर असर पड़ रहा है. स्थानीय समुदाय, चाहे वे धार्मिक या जातीय पहचान से भिन्न हों, खुद को असुरक्षित महसूस कर रहे हैं, क्योंकि अगला निशाना कोई भी हो सकता है, उन्होंने ‘प्रतिदिन टाइम’ में लिखा है.
सीआरपीएफ को 20 नई बटालियन गठित करने की मंजूरी
जम्मू-कश्मीर में ‘ऑपरेशन सिंदूर’ के बाद उभर रही नई सुरक्षा चुनौतियों और केंद्रीय सशस्त्र पुलिस बलों (CAPF) में स्टाफ की कमी को देखते हुए केंद्रीय गृह मंत्रालय (MHA) ने केंद्रीय रिज़र्व पुलिस बल (CRPF) को 20 नई बटालियन गठित करने की सैद्धांतिक मंजूरी दे दी है. इन बटालियनों के गठन से जम्मू-कश्मीर में 20,000 से अधिक अतिरिक्त सुरक्षाकर्मी तैनात किए जा सकेंगे. मीडिया रिपोर्ट्स के अनुसार, CRPF ने पहले 35 नई बटालियनों की मांग रखी थी, लेकिन गृह मंत्रालय ने फिलहाल 20 बटालियनों को स्वीकृति दी है. जल्द ही इन बटालियनों के लिए भर्ती प्रक्रिया, प्रशिक्षण केंद्रों का निर्धारण, और तैनाती की रूपरेखा तय की जाएगी.
मनोज सिन्हा का दावा, 'पहलगाम हमले के आतंकी पहचान लिए गए हैं, ज्यादा दिन ज़िंदा नहीं रहेंगे'
'हिन्दुस्तान टाइम्स' की रिपोर्ट है कि जम्मू-कश्मीर के उपराज्यपाल मनोज सिन्हा ने बुधवार को दिल्ली स्थित गांधी स्मृति में ‘जम्मू-कश्मीर: शांति की ओर’ विषय पर आयोजित एक व्याख्यान में कहा कि पहलगाम आतंकी हमले के दोषियों की पहचान हो चुकी है और उन्हें जल्द ही उनके अंजाम तक पहुंचाया जाएगा. मनोज सिन्हा ने कहा— "जो लोग इस हमले के पीछे थे, उन्हें हमने पहचान लिया है. मैं पूरे विश्वास से कह सकता हूं कि अब उनके ज़्यादा दिन नहीं बचे हैं. अच्छी खबर जल्द आएगी, लेकिन तारीख़ बताना ठीक नहीं होगा." उन्होंने यह भी कहा कि बीते पांच वर्षों में कई बड़े आतंकी संगठनों के सरगनाओं को खत्म किया गया है, और इस बार भी अंजाम वही होगा.
मानसून सत्र से पहले नया भाजपा पार्टी अध्यक्ष मिलने की संभावना नहीं
भाजपा के चुनावी प्रक्रिया से जुड़े सूत्रों ने बताया कि तकनीकी तौर पर चुनाव अगले चरण में आगे बढ़ सकते हैं, लेकिन जिन राज्यों की बात हो रही है, वे बहुत महत्वपूर्ण हैं.
फिलहाल, बीजेपी के राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी नड्डा का कार्यकाल जून पिछले साल से विस्तार पर है और पार्टी के संविधान के अनुसार, नए राष्ट्रीय अध्यक्ष का चुनाव तब ही हो सकता है, जब संगठनात्मक तौर पर आधे राज्यों के अध्यक्षों का चुनाव हो जाए.
मौजूदा समय में कई राज्यों में नए पार्टी अध्यक्ष बनाए जा चुके हैं या जल्द ही बन जाएंगे, लेकिन राष्ट्रीय अध्यक्ष पद की घोषणा में अभी और समय लग सकता है. इसका मतलब यह है कि संसद के आगामी मानसून सत्र तक बीजेपी को नया राष्ट्रीय अध्यक्ष मिलने की संभावना कम है.
अमृता मधुकल्या के अनुसार यह देरी नौ प्रमुख राज्यों में पार्टी के अंदरूनी चुनावों की प्रक्रिया पूरी न होने के चलते है, जिनमें उत्तरप्रदेश और गुजरात शामिल हैं, जहां पार्टी सत्ता में है. साथ ही कर्नाटक भी, जहां पार्टी की मजबूत उपस्थिति है. इसके अलावा पंजाब, दिल्ली, मणिपुर और मुंबई में भी चुनाव कराए जाने हैं.
चुनाव प्रक्रिया से जुड़े सूत्रों ने बताया कि तकनीकी रूप से चुनाव अगले चरण में जा सकते हैं, लेकिन ये राज्य बेहद महत्वपूर्ण हैं. पार्टी के संविधान के अनुसार, संगठनात्मक चुनावों की प्रक्रिया को आगे बढ़ाने के लिए कम से कम 19 राज्यों में ये चुनाव कराना अनिवार्य है. अब तक 27 राज्यों में यह प्रक्रिया पूरी हो चुकी है.
हाल ही में महज एक सप्ताह के अंदर 14 से अधिक राज्यों में संगठनात्मक चुनाव संपन्न हुए हैं, जिनमें त्रिपुरा में एकमात्र कुछ समस्याएं सामने आई हैं. यह चुनाव प्रक्रिया का तीसरा चरण था. नेता ने कहा, “इन राज्यों में पूरी प्रक्रिया एक हफ्ते से भी कम समय में पूरी कर ली गई.”
सीडीएस चौहान ने कहा, बीते कल के हथियार, आज की जंग नहीं जीत सकते
चीफ ऑफ डिफेंस स्टाफ (सीडीएस) जनरल अनिल चौहान ने बुधवार को कहा कि भारत पुराने हथियारों के साथ आधुनिक युद्ध नहीं जीत सकता. उन्होंने भविष्य के लिए तैयार तकनीक अपनाने और स्वदेशी हथियारों पर ध्यान केंद्रित करने की आवश्यकता पर बल दिया. सीडीएस ने ऑपरेशन सिंदूर के बारे में नई जानकारियां साझा करते हुए बताया कि भारत ने पाकिस्तान द्वारा उपयोग किए गए ड्रोन और आत्मघाती ड्रोन (लूटिंग म्यूनिशंस) को सफलतापूर्वक नाकाम कर दिया था और कोई नुकसान नहीं हुआ.
सीडीएस चौहान ने दिल्ली में एक रक्षा कार्यशाला में कहा, "ऑपरेशन सिंदूर के दौरान, 10 मई को, पाकिस्तान ने बिना हथियार वाले ड्रोन और लूटिंग म्यूनिशन्स का इस्तेमाल किया. इनमें से कोई भी भारतीय सैन्य या नागरिक ढांचे को नुकसान नहीं पहुंचा सका. अधिकांश को केनेटिक और नॉन-केनेटिक दोनों तरीकों से निष्क्रिय किया गया, और कुछ लगभग पूरी तरह से सही हालत में बरामद भी किए गए."
उन्होंने आगे कहा, “केवल आयातित आला (अत्यंत महत्वपूर्ण) तकनीक पर निर्भर नहीं रह सकते, विदेशी तकनीक पर निर्भरता हमारी तैयारियों को कमजोर करती है."
उन्होंने कहा, “ड्रोन्स का विकास क्रमिक है, लेकिन उनका इस्तेमाल युद्ध में क्रांतिकारी बदलाव लेकर आया है.” चौहान ने कहा कि युद्धक उपकरणों में हुआ विकास उन्हें छोटा, तेज, हल्का, अधिक सक्षम और सस्ता बना रहा है. उन्होंने हथियारों, टैंकों और विमानों के हल्का और प्रभावी होने के उदाहरण दिए.
राहुल गांधी को कोर्ट से राहत : कांग्रेस सांसद और लोकसभा में विपक्ष के नेता राहुल गांधी को मंगलवार को लखनऊ की एमपी-एमएलए कोर्ट से राहत मिली, जब कोर्ट ने उन्हें एक मानहानि मामले में जमानत दे दी. यह मामला 2022 के भारत जोड़ो यात्रा के दौरान भारतीय सेना के प्रतिकूल कथित टिप्पणी से जुड़ा है. गांधी पर आरोप है कि उन्होंने 9 दिसंबर 2022 को भारत-चीन सैनिकों की झड़प के संदर्भ में भारतीय सेना के लिए मानहानिकारक और आपत्तिजनक समझे जाने वाले बयान दिए थे. राहुल गांधी ने स्वयं अदालत में पेश होकर जमानत अर्ज़ी लगाई, जबकि पहले के पांच सुनवाईयों में वे अनुपस्थित रहे थे.
एनसीईआरटी की 8वीं की किताब में बदलाव, मुस्लिम शासकों की “क्रूरता” का वर्णन
राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान और प्रशिक्षण परिषद (एनसीईआरटी) ने कक्षा 8वीं की सामाजिक विज्ञान की पाठ्यपुस्तक में बदलाव किए हैं. इसमें दिल्ली सल्तनत और मुगल काल के दौरान “धार्मिक असहिष्णुता” के कई उदाहरणों का उल्लेख किया गया है. इस किताब में बाबर को “क्रूर और निर्दयी विजेता, जिसने शहरों की पूरी आबादी का संहार किया” बताया गया है. अकबर के शासनकाल को “क्रूरता और सहिष्णुता का मिश्रण” कहा गया है, जबकि औरंगजेब को मंदिरों और गुरुद्वारों को नष्ट करने वाला बताया गया है. “द इंडियन एक्सप्रेस” की रिपोर्ट के अनुसार, किताब के एक अध्याय में उल्लेख है कि “ऊपर जिन आक्रमणकारियों और शासकों का उल्लेख किया गया है, उन्होंने भयानक कृत्य और अत्याचार किए”, लेकिन यह याद रखना महत्वपूर्ण है कि आज के समय में हमें, सैकड़ों साल पहले हुए इन कार्यों के लिए जिम्मेदार नहीं माना जा सकता.” एक्सप्रेस के अनुसार इस पाठ्यपुस्तक में अलग-अलग अध्यायों में मुस्लिम शासकों को “क्रूरता” के लिए विशेष रूप से रेखांकित किया गया है.
‘उदयपुर फाइल्स’ : हाईकोर्ट के आदेश में हस्तक्षेप से इनकार
सुप्रीम कोर्ट ने दिल्ली हाईकोर्ट के 'उदयपुर फाइल्स' फिल्म की रिलीज पर रोक लगाने के आदेश में हस्तक्षेप करने से इनकार कर दिया है, क्योंकि केंद्र सरकार ने फिल्म को सेंट्रल बोर्ड ऑफ फिल्म सर्टिफिकेशन (सीबीएफसी) से मंजूरी देने के खिलाफ पुनरीक्षण याचिका पर विचार करने का निर्णय लिया है. जस्टिस सूर्यकांत और जस्टिस जॉयमाल्या बागची की बेंच ने कहा कि केंद्र सरकार हाई कोर्ट के निर्देश के अनुसार फिल्म की समीक्षा कर सकती है. कोर्ट ने फिल्म निर्माताओं और रिलीज का विरोध कर रहे पक्षों से कहा कि वे एक-दो दिन प्रतीक्षा करें, क्योंकि हाईकोर्ट के 10 जुलाई के रोक आदेश के बाद केंद्र सरकार ने इस मामले की जांच के लिए एक समिति गठित की है.
दस साल 23,000 करोड़पति भारत छोड़कर चले गये, क्या आप सोचते हैं ऐसा क्यों हुआ?
पिछले एक दशक में भारत से रिकॉर्ड 23,000 करोड़पति देश छोड़कर जा चुके हैं. यह हर साल 2,000 से ज़्यादा कामयाब लोगों का पलायन है. यह आंकड़ा उन हज़ारों छात्रों और पेशेवरों से अलग है जो हर साल बेहतर भविष्य के लिए विदेश जाते हैं. देश से प्रतिभा और पैसे का यह बहाव लगातार बढ़ रहा है, लेकिन इसके गहरे असर को समझने की कोई ख़ास कोशिश नहीं हुई है. प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के पूर्व मीडिया सलाहकार और लेखक संजय बारू ने अपनी नई किताब 'ससेशन ऑफ़ द सक्सेसफुल' (कामयाब लोगों का अलगाव) में इसी मुद्दे की पड़ताल की है. बारू कहते हैं कि यह ज़िम्मेदारी हमारी है कि हम देश में ऐसा माहौल बनाएं ताकि प्रतिभाशाली लोग यहीं रुकना चाहें. यह काम केंद्र और राज्य सरकारों, प्राइवेट सेक्टर, विश्वविद्यालयों और शोध संस्थानों का है.
लेकिन ‘न्यू इंडियन एक्सप्रेस’ को दिये गये इंटरव्यू में बारू एक विरोधाभास की ओर भी इशारा करते हैं. एक तरफ सरकार को इन लोगों को देश में रोकने के उपाय करने चाहिए, वहीं दूसरी तरफ सरकार ख़ुद प्रतिभाशाली लोगों को विदेश भेजने में मदद कर रही है. उन्होंने विदेश मंत्री द्वारा शुरू की गई एक प्राइवेट पहल 'गति' (GATI - ग्लोबल एक्सेस फॉर टैलेंटेड इंडियंस) का उदाहरण दिया. बारू सवाल उठाते हैं कि सरकार को एक ऐसी प्राइवेट कंपनी की मदद क्यों करनी चाहिए जो भारतीयों को विदेश भेज रही है. इसके अलावा, हैदराबाद, बेंगलुरु और गुड़गांव जैसे शहरों में खुले 'ग्लोबल कैपेबिलिटी सेंटर्स' (GCCs) भी ज़्यादातर अमेरिकी मल्टीनेशनल कंपनियों के लिए काम कर रहे हैं. बारू अपनी किताब के एक अध्याय 'इंडियंस इन मागा' (मेक अमेरिका ग्रेट अगेन) में कहते हैं कि भारतीय चाहे अमेरिका में रहकर या भारत से अमेरिकी कंपनियों के लिए काम करके, अमेरिका को ही महान बना रहे हैं. असली सवाल यह है कि हम इस प्रतिभा का इस्तेमाल भारत को महान बनाने के लिए कैसे करें और इसके लिए हमें अपने देश में क्या सुधार करने होंगे.
छुआछूत के खिलाफ कानून बेअसर?
भारत में छुआछूत जैसी सामाजिक कुरीति को खत्म करने के लिए 'नागरिक अधिकार संरक्षण अधिनियम, 1955' (Protection of Civil Rights Act) बनाया गया था. लेकिन सरकारी आंकड़े बताते हैं कि यह कानून ज़मीन पर लगभग बेअसर साबित हो रहा है. सामाजिक न्याय और अधिकारिता मंत्रालय के अनुसार, साल 2022 में इस कानून के तहत देशभर की अदालतों में 1,273 मामले दर्ज हुए. चिंता की बात यह है कि इनमें से 97% से ज़्यादा मामले, यानी 1,242 केस, आज भी लंबित हैं और उन पर कोई फैसला नहीं आया है. इसका मतलब है कि पीड़ित न्याय के लिए सालों तक इंतज़ार कर रहे हैं.
जिन मामलों में फैसला आया भी, उनकी तस्वीर और भी निराशाजनक है. साल 2022 में सिर्फ 31 मामलों में सुनवाई पूरी हो सकी. इन 31 मामलों में से केवल एक मामले में आरोपी को दोषी ठहराया गया और सज़ा हुई, जबकि 30 मामलों में आरोपी बरी हो गए. ये आंकड़े साफ़ दिखाते हैं कि छुआछूत के खिलाफ न्याय की प्रक्रिया कितनी धीमी और लचर है. एक तरफ जहां पीड़ितों के लिए न्याय पाना लगभग नामुमकिन है, वहीं दूसरी तरफ आरोपियों के बरी होने की दर बहुत ज़्यादा है. यह स्थिति कानून के मकसद पर ही सवाल खड़ा करती है. जब किसी कानून के तहत दर्ज़ 97% से ज़्यादा मामले सालों तक अटके रहें और जिन गिने-चुने मामलों में फैसला आए, उनमें भी सज़ा न के बराबर हो, तो यह उस कानून की प्रभावशीलता और न्याय व्यवस्था की गंभीर विफलता को उजागर करता है. यह दिखाता है कि कागज़ पर कानून बना देना ही काफी नहीं है, उसे सख्ती से लागू करना और पीड़ितों को समय पर न्याय दिलाना असली चुनौती है.
'जय हिंद' बोलो और ज़मानत लो: अदालत के अजीब फैसले पर उठे सवाल
असम की एक अदालत ने हाल ही में ज़मानत का एक ऐसा आदेश दिया है, जिसकी चौतरफा आलोचना हो रही है. सोशल मीडिया पर "राष्ट्र-विरोधी" गतिविधियों के आरोप में पकड़े गए एक व्यक्ति को ज़मानत देते हुए अदालत ने शर्त रखी कि उसे 21 दिनों तक हर सुबह तीन बार 'जय हिंद' का नारा लगाना होगा. लेखक और टिप्पणीकार औरिफ मुज़फ़्फ़र का तर्क है कि यह आदेश न केवल आपराधिक न्याय प्रणाली का अपमान है, बल्कि यह दूसरी अदालतों के लिए एक खतरनाक मिसाल भी कायम करता है. इस तरह के फैसले न्याय के बजाय दिखावटी राष्ट्रवाद को बढ़ावा देते हैं.
मुज़फ़्फ़र का कहना है कि यह आदेश असम की मौजूदा राजनीति से प्रभावित लगता है और भारत के संविधान की मूल भावना के खिलाफ है. हमारा संविधान हर व्यक्ति को व्यक्तिगत स्वतंत्रता और निष्पक्ष न्याय का अधिकार देता है. किसी पर देशभक्ति का प्रदर्शन करने के लिए दबाव बनाना, खासकर जब मामला अदालत में हो, न्यायिक प्रक्रिया का मज़ाक बनाने जैसा है. अदालत का काम सबूतों और कानून के आधार पर यह तय करना है कि आरोपी को ज़मानत मिलनी चाहिए या नहीं, न कि उससे देशभक्ति का प्रमाण मांगना. इस तरह के आदेश न्याय और राजनीति के बीच की रेखा को धुंधला करते हैं. यह एक ऐसी प्रवृत्ति को जन्म दे सकता है जहां अदालतें कानूनी प्रक्रिया से हटकर प्रतीकात्मक सज़ा या शर्तें थोपने लगें. यह न्यायपालिका की निष्पक्षता और विश्वसनीयता के लिए एक गंभीर खतरा है, क्योंकि न्याय का मकसद सुधार करना है, किसी से ज़बरदस्ती नारे लगवाना नहीं.
दिल्ली में 'बांग्लादेशी कैदियों के लिए कामचलाऊ इंतजाम', उधर मुंबई में 'बांग्लादेशी' भारतीय निकले
पहचान को लेकर दिल्ली और मुंबई की दो तस्वीरें सामने आई हैं, जो एक गंभीर विरोधाभास दिखाती हैं. एक तरफ दिल्ली में कथित बांग्लादेशी नागरिकों को रखने के लिए कामचलाऊ डिटेंशन सेंटर बनाए जा रहे हैं. वहीं दूसरी तरफ मुंबई में बंगाली भाषी भारतीय मज़दूरों को ही 'बांग्लादेशी' समझकर उनके साथ ज़्यादती की जा रही है. दिल्ली में उपराज्यपाल के आदेश के बाद कई जगहों, जैसे एक सामुदायिक भवन, एक होटल और एक बंद पड़ी पुलिस चौकी को अस्थायी डिटेंशन सेंटर में बदल दिया गया है. यहां बांग्लादेशी नागरिकों को उनके देश वापस भेजने से पहले रखा जाता है. हालांकि अधिकारी इन सेंटरों में भोजन और दवाओं के पर्याप्त इंतज़ाम का दावा करते हैं, लेकिन मानवाधिकार कार्यकर्ता इन केंद्रों की कानूनी वैधता पर सवाल उठा रहे हैं.
लेकिन हर कोई जिसे 'बांग्लादेशी' बताया जा रहा है, वह असल में बांग्लादेशी नहीं है. मुंबई में काम करने वाले पश्चिम बंगाल के कई भारतीय प्रवासी मज़दूरों को पुलिस ने 'बांग्लादेशी' समझकर पकड़ लिया और उन्हें जबरन बांग्लादेश की सीमा में धकेल दिया. बाद में वे या तो वापस आ गए या उन्हें लौटाया गया. जॉयदीप सरकार की रिपोर्ट के अनुसार, लगभग सभी पीड़ित मज़दूरों ने बताया कि अधिकारियों ने उनके पैसे, फोन और दस्तावेज़ ज़ब्त कर लिए. उनके आधार और वोटर कार्ड को 'फर्जी' बताकर खारिज कर दिया गया. कुछ ने भारतीय सीमा सुरक्षा बल (BSF) के जवानों द्वारा पिटाई और अपमानजनक तलाशी का भी आरोप लगाया. एक मज़दूर ने बताया कि इन घटनाओं के बाद उसके ठेकेदार ने उसे सलाह दी, "बंगाली बोलना खतरनाक है. हिंदी सीखो, लुंगी पहनना बंद करो." यह घटनाएं दिखाती हैं कि कैसे भाषा और पहनावे के आधार पर भारतीय नागरिकों को ही अपने देश में विदेशी समझकर प्रताड़ित किया जा रहा है, जो डर का माहौल पैदा कर रहा है.
भुवनेश्वर में छात्रा की आत्महत्या को लेकर प्रदर्शन कई नेता घायल, 100 से अधिक कार्यकर्ता हिरासत में
'डेक्कन क्रॉनिकल' की रिपोर्ट है कि भुवनेश्वर में बुधवार को उस वक्त हालात तनावपूर्ण हो गए जब बीजू जनता दल (बीजेडी) ने एक छात्रा की आत्महत्या के मामले में शासन की लापरवाही के खिलाफ विधानसभा घेराव का प्रयास किया. प्रदर्शन के दौरान पुलिस ने वाटर कैनन और आंसू गैस के गोले चलाए, जिससे कई जगह झड़पें हुईं. बता दें कि फकीर मोहन स्वायत्त कॉलेज की एक छात्रा ने हाल ही में यौन उत्पीड़न मामले में न्याय न मिलने पर आत्महत्या कर ली थी. बीजेडी ने इस पूरे मामले का सीधा आरोप भाजपा सरकार पर लगाया और कहा कि छात्रों की सुरक्षा और न्याय प्रक्रिया में पूरी तरह से विफलता हुई है. प्रदर्शन का नेतृत्व बीजेडी के वरिष्ठ नेताओं संजय दास बर्मा, अरुण साहू और प्रणब प्रकाश दास ने किया. कार्यकर्ताओं ने पीएमजी स्क्वायर के पास पुलिस बैरिकेड्स तोड़कर विधानसभा और लोक सेवा भवन की ओर कूच करने की कोशिश की. इस दौरान पुलिस और प्रदर्शनकारियों के बीच हिंसक झड़पें हुईं.
महमूदाबाद की फेसबुक पोस्ट की जांच कर रही एसआईटी ने दायरा क्यों बढ़ाया? सुप्रीम कोर्ट ने उठाए सवाल
'लाइव लॉ' के लिए डेबी जैन की रिपोर्ट के मुताबिक सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश सूर्यकांत ने 16 जुलाई को हुई सुनवाई के दौरान टिप्पणी की - “हम यह पूछ रहे हैं कि एसआईटी, पहली नजर में, खुद ही क्यों भटक रही है?” महमूदाबाद के वकील कपिल सिब्बल ने बताया कि जांच टीम उनके मुवक्किल से पिछले दस वर्षों में की गई अंतरराष्ट्रीय यात्राओं के बारे में भी पूछताछ कर रही है, जबकि यह केस फेसबुक पोस्ट से जुड़ा है. सिब्बल ने यह भी स्पष्ट किया कि अली खान महमूदाबाद अब तक चार बार एसआईटी के सामने पेश हो चुके हैं. इस पर जस्टिस सूर्यकांत ने पुलिस से तीखी टिप्पणी करते हुए कहा - “आपको महमूदाबाद की ज़रूरत नहीं है, आपको तो एक शब्दकोश की ज़रूरत है.” इशारा साफ था कि पुलिस की जांच का फोकस सोशल मीडिया पोस्ट के वास्तविक संदर्भ और भाषा को समझने के बजाय, गैरजरूरी मुद्दों पर जा रहा है.
भारत-पाक विदेश मंत्री आमने-सामने: पहलगाम हमले और ‘ऑपरेशन सिंदूर’ की छाया में तल्ख़ तेवर
तियानजिन में आयोजित शंघाई सहयोग संगठन (एससीओ) के विदेश मंत्रियों की बैठक में भारत और पाकिस्तान के शीर्ष राजनयिक पहली बार हालिया सैन्य संघर्ष के बाद एक मंच पर साथ दिखे. 'द वायर' की रिपोर्ट है कि दोनों देशों के विदेश मंत्रियों ने एक-दूसरे का नाम नहीं लिया, लेकिन पहलगाम आतंकी हमले और उसके बाद हुए चार दिवसीय ड्रोन व मिसाइल संघर्ष की छाया उनके बयानों में स्पष्ट दिखी. भारत के विदेश मंत्री एस. जयशंकर ने एससीओ से आतंकवाद के खिलाफ “कठोर और स्पष्ट रुख़” अपनाने की अपील की. उन्होंने पहलगाम हमले को “जम्मू-कश्मीर की पर्यटन अर्थव्यवस्था को नुकसान पहुंचाने और धार्मिक फूट डालने के लिए जानबूझकर किया गया हमला” बताया. जयशंकर ने संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद (UNSC) की उस कड़ी निंदा का भी ज़िक्र किया, जिसमें कहा गया था कि हमले के “आयोजकों, वित्तपोषकों और समर्थकों को जवाबदेह ठहराया जाए”. उन्होंने कहा, “हमने वही किया है, और करते रहेंगे.” पाकिस्तान के विदेश मंत्री इशाक डार ने भारत का नाम लिए बिना पलटवार करते हुए कहा कि पहलगाम हमले के लिए बिना किसी “विश्वसनीय जांच या सबूत” के दोष मढ़ना इस क्षेत्र को गंभीर संघर्ष के कगार पर ले गया है. उन्होंने कहा, “हिंसा के मनमाने इस्तेमाल को सामान्य बनाना खतरनाक चलन है.” उन्होंने क्षेत्र में संवाद और राजनयिक प्रयासों को स्थायित्व का एकमात्र रास्ता बताया और द्विपक्षीय समझौतों के पालन पर ज़ोर दिया. भारत की सर्जिकल स्ट्राइक और 'ऑपरेशन सिंदूर' के जवाब में पाकिस्तान की यह आपत्ति सामने आई है. जयशंकर की यह चीन यात्रा पांच साल बाद किसी भारतीय विदेश मंत्री की पहली यात्रा थी, जो भारत-चीन सीमा गतिरोध में नरमी के संकेत के रूप में देखी जा रही है.
कार्टून | सैनिटरी पैनल्स
"मां को पाकिस्तान भेज दिया गया, अब हमें इंसाफ़ चाहिए," जम्मू की वकील फलक़ का सवाल, “क्या मुसलमान होने की सज़ा मिली?”
पहलगाम आतंकी हमले के बाद भारत सरकार ने 62 वर्षीय रख़्शंदा राशिद को पाकिस्तान डिपोर्ट कर दिया, जबकि वह 1989 से वैध वीज़ा पर भारत में रह रही थीं. ‘स्क्रोल’ के लिए सफ़वत ज़रगर की रिपोर्ट है कि अब सुप्रीम कोर्ट में केंद्र सरकार ने उनकी वापसी पर रोक की मांग की है. 32 वर्षीय वकील फलक़ ज़हूर ने जब अपनी मां को पाकिस्तान की सीमा पर विदा किया, तो उनकी आंखों में आंसू नहीं थे, बल्कि एक ऐसा खालीपन था, जिसे शब्दों में बयान नहीं किया जा सकता. “अगर मां मर जातीं, तो शायद मुझे सुकून होता. तब लगता कि वो किसी और दुनिया में हैं, खुदा के पास हैं. लेकिन ये जो हाल है, ये तो ज़िंदा होकर मरने जैसा है,” फलक़ ज़हूर ने कहा. फलक़ की मां रख़्शंदा राशिद, जो पाकिस्तान की नागरिक हैं, 1989 में शादी के बाद जम्मू आ गई थीं. तब से अब तक, वो हर साल लॉन्ग टर्म वीज़ा (LTV) का नवीनीकरण करवाती रहीं, लेकिन 22 अप्रैल को पहलगाम हमले के बाद भारत सरकार ने अचानक रख़्शंदा को 29 अप्रैल को अटारी बॉर्डर से पाकिस्तान डिपोर्ट कर दिया. उस वक्त भी उनका वीज़ा रिन्यूअल का आवेदन केंद्र के पास लंबित था.
फलक का कहना है - “हमने 16 जनवरी को वीज़ा की मियाद खत्म होने से पहले ही एक्सटेंशन के लिए आवेदन कर दिया था, लेकिन गृह मंत्रालय तीन महीने तक चुप रहा – ना मंजूरी, ना इंकार.” पहलगाम हमले के बाद जिन लोगों को निष्कासन से छूट दी गई थी, उनमें लॉन्ग टर्म वीज़ा धारक शामिल थे, लेकिन इसके बावजूद जम्मू पुलिस ने रख़्शंदा को 28 अप्रैल को 'लीव इंडिया नोटिस' थमा दिया. उनके परिवार ने कहा, किसी ने उनकी गुहार नहीं सुनी और उन्हें मजबूरी में मां को रवाना करना पड़ा.
हाईकोर्ट ने कहा, 10 दिन में वापस लाओ परिवार ने अगले ही दिन जम्मू-कश्मीर हाईकोर्ट में याचिका दायर की. 6 जून को कोर्ट ने आदेश दिया कि केंद्र सरकार 10 दिनों के भीतर रख़्शंदा को वापस लाए और परिवार से मिलाए. जस्टिस राहुल भारती ने आदेश में लिखा - “मानवाधिकार किसी भी इंसान के जीवन का सबसे पवित्र हिस्सा हैं… ऐसे हालात में संवैधानिक अदालतों को एसओएस की तरह दखल देना होता है.” लेकिन केंद्र सरकार ने 29 जून को इस आदेश को चुनौती दी और 2 जुलाई को डिवीजन बेंच ने आदेश पर अंतरिम रोक लगा दी. अब अगली सुनवाई 17 जुलाई को है.
गृह मंत्रालय ने अपनी अपील में कहा कि अदालत ने राष्ट्रीय सुरक्षा के दृष्टिकोण को नजरअंदाज किया. भारत और पाकिस्तान के बीच युद्ध जैसी स्थिति को देखते हुए पाकिस्तानी नागरिकों की मौजूदगी पर संदेह है. रख़्शंदा राशिद “भारत की नागरिक नहीं हैं”, इसलिए उन्हें रहने का कोई संवैधानिक अधिकार नहीं है. भारत-पाकिस्तान के बीच प्रत्यर्पण संधि नहीं है, इसलिए किसी को वापस लाने का आदेश “असंवैधानिक” है.
“अगर हिंदू पाकिस्तानी महिलाओं को छूट मिली, तो मेरी मां को क्यों नहीं?” केंद्र सरकार ने पहलगाम हमले के बाद पाकिस्तानी हिंदू और सिख अल्पसंख्यकों को राहत दी. उन्हें डिपोर्ट नहीं किया गया, भले ही उनका वीज़ा प्रोसेसिंग में था या उन्होंने अब तक आवेदन नहीं दिया हो. “अगर हिंदू और सिख पाकिस्तानी महिलाओं को छूट दी गई, तो मेरी मां को क्यों नहीं? सिर्फ इसलिए कि वो मुसलमान हैं?” फलक़ ज़हूर पूछती हैं.
अब कहां हैं रख़्शंदा? लाहौर के एक पेइंग गेस्ट रूम में अकेली. उनके पास कोई करीबी रिश्तेदार नहीं. मां-बाप 1989 में ही गुज़र गए थे. मोबाइल में सिम नहीं चलती, कभी-कभार WiFi मिलने पर वीडियो कॉल हो जाती है. उनकी आंखें कमज़ोर हैं, एक बार पैरालिसिस अटैक भी हो चुका है. फलक ने कहा - “वो बिल्कुल अकेली हैं. उनके लिए हर दिन एक संघर्ष है.” रख़्शंदा ने 1996 में भारतीय नागरिकता के लिए आवेदन भी किया था और उन्हें विभिन्न एजेंसियों से नो ऑब्जेक्शन सर्टिफिकेट भी मिल चुके हैं. वकील अंकुर शर्मा के मुताबिक, “अगर वीज़ा एक्सटेंशन का आवेदन समय से किया गया हो, और उसे रिजेक्ट नहीं किया गया हो, तो उसे वैध माना जाता है.”
भारत की फैक्ट्री बनता दक्षिण, तमिलनाडु के नेतृत्व में दक्षिण भारत का औद्योगिक उभार
तमिलनाडु, जिसे अक्सर “भारत का ग्वांगडोंग” कहा जाता है, वैश्विक निवेशकों को आकर्षित करने के लिए टैक्स छूट, आसान नियम और तेज़ इंफ्रास्ट्रक्चर परियोजनाएं पेश कर रहा है. यह पहल एक ऐसे दौर में आ रही है, जब भारत लालफीताशाही से मुक्त होकर राज्य-आधारित लचीलापन दिखा रहा है.
जैसे-जैसे ये राज्य आर्थिक रूप से ताक़तवर हो रहे हैं, उनकी नाराज़गी भी बढ़ रही है. खासकर राष्ट्रीय कर संग्रहण में अपने "असमान और भारी योगदान" को लेकर. दक्षिणी राज्यों का आरोप है कि वे कम संसाधन वापस पाते हैं, जबकि वे राष्ट्रीय खजाने में सबसे ज़्यादा योगदान देते हैं. मोदी सरकार और भाजपा, जिसकी दक्षिण भारत में पकड़ सीमित है, को अब बढ़ते विरोध का सामना करना पड़ रहा है. इन राज्यों में स्थानीय भाषाओं को संवैधानिक सुरक्षा की मांग से लेकर जनसंख्या आधारित संसदीय पुनर्गठन का विरोध भी जोर पकड़ रहा है.
सत्यजीत रे के पैतृक आवास को बचाने के लिए भारत ने बढ़ाया सहयोग का हाथ
'द वायर' की रिपोर्ट है कि भारत सरकार ने मशहूर फिल्म निर्माता सत्यजीत रे के बांग्लादेश स्थित पैतृक आवास को तोड़े जाने से बचाने और उसके पुनर्निर्माण में सहयोग देने की पेशकश की है. यह ऐतिहासिक संपत्ति मैमनसिंह (बांग्लादेश) में स्थित है और लंबे समय से उपेक्षा के कारण जर्जर हो चुकी थी. विदेश मंत्रालय ने बयान जारी कर कहा कि "यह अत्यंत खेदजनक है कि मैमनसिंह स्थित वह इमारत, जो कभी सत्यजीत रे के दादा और प्रसिद्ध साहित्यकार उपेन्द्र किशोर राय चौधुरी की थी, अब एक नए भवन के लिए तोड़ी जा रही है." यह संपत्ति बांग्लादेश सरकार के स्वामित्व में है और वर्षों से उपेक्षा और रखरखाव की कमी के चलते इसकी हालत बिगड़ती गई. स्थानीय प्रशासन द्वारा नई इमारत बनाने के लिए इसे ध्वस्त करने की प्रक्रिया शुरू की गई है.
इज़रायल ने दमिश्क में सीरियाई रक्षा मंत्रालय पर हमला किया
'द गार्डियन' की रिपोर्ट है कि सीरिया के दक्षिणी सूवेदा प्रांत में सरकारी सेना और ड्रूज़ लड़ाकों के बीच चल रहे खूनी संघर्ष के बीच, इज़राइल ने बुधवार को दमिश्क स्थित रक्षा मंत्रालय पर दो हवाई हमले किए. इन हमलों में एक व्यक्ति की मौत और 18 लोग घायल हुए. मंत्रालय की इमारत के चार मंजिल ढह गए. इज़राइली सेना के अनुसार, ये हमला सीरियाई राष्ट्रपति अहमद अल-शराआ को संदेश था और यह चेतावनी दी गई कि सरकारी सेना दक्षिण सीरिया में तैनात न हो. इज़रायल खुद को ड्रूज़ समुदाय का रक्षक बताने की कोशिश कर रहा है, जिसे स्थानीय ड्रूज़ नेता “विदेशी हस्तक्षेप” मानकर खारिज कर रहे हैं.
सूवेदा में अरब बेडुइन और ड्रूज़ समुदायों के बीच हुई हिंसा के बाद स्थिति और बिगड़ी. बीते चार दिनों में 250 से ज़्यादा लोग मारे गए हैं. मंगलवार को एक शादी समारोह हाल में 16 निहत्थे लोगों की हत्या कर दी गई, जिसमें सीरियाई सेना की भूमिका पर सवाल उठे. सीरियाई सरकार ने मानवाधिकार उल्लंघनों की निंदा की है, लेकिन सोशल मीडिया पर सामने आए वीडियो में सरकारी सैनिकों को मज़हबी घृणा फैलाते और ड्रूज़ धार्मिक नेताओं की तस्वीरें रौंदते देखा गया.
इस हिंसा से नाराज़ इज़रायली ड्रूज़ों ने गोलान हाइट्स से सीरिया में प्रवेश की कोशिश की, जिसे इज़राइली सेना ने रोका. पीएम नेतन्याहू ने चेतावनी दी कि सीमा पार करना “जानलेवा” हो सकता है. हालात इस वक्त सीरियाई सरकार के लिए 2011 के बाद सबसे बड़ी चुनौती बनते जा रहे हैं.
संकट में नेतन्याहू, सहयोगी पार्टी ने छोड़ा साथ
'एसोसिएटेड प्रेस' की रिपोर्ट है कि इज़रायल के प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू को बुधवार को बड़ी राजनीतिक चोट लगी, जब उनकी प्रमुख सहयोगी पार्टी शास ने सत्ता गठबंधन से अलग होने की घोषणा कर दी. इससे उनकी सरकार 120 सदस्यीय संसद में अल्पमत में आ गई है. शास, जो एक अल्ट्रा-ऑर्थोडॉक्स यहूदी पार्टी है और लंबे समय से इज़रायली राजनीति में किंगमेकर की भूमिका निभाती रही है, सेना भर्ती कानून (मिलिट्री ड्राफ्ट बिल) को लेकर उपजे मतभेदों के कारण गठबंधन से हट गई. यह इस सप्ताह गठबंधन छोड़ने वाली दूसरी अल्ट्रा-ऑर्थोडॉक्स पार्टी है. शास मंत्री माइकल माल्कीली ने कहा — “वर्तमान परिस्थितियों में सरकार में बने रहना और उसका साझेदार होना असंभव है.” हालांकि शास ने स्पष्ट किया कि वह सरकार के खिलाफ बाहर से अस्थिरता नहीं फैलाएगी और कुछ विधेयकों पर समर्थन दे सकती है, जिससे नेतन्याहू को थोड़ी राहत मिल सकती है. शास और यूनाइटेड टोरा ज्यूडइज़्म के बाहर निकलने के बाद नेतन्याहू की सरकार के पास अब सिर्फ 50 सांसदों का समर्थन रह गया है, जो बहुमत से काफी नीचे है. हालांकि, शास के इस्तीफे पर 48 घंटे की कानूनी अवधि लागू होगी, जिससे नेतन्याहू के पास समझौते की कोशिश करने का मौका है.
"ज़िंदगी इतनी खूबसूरत है कि मरने का मन ही नहीं करता" - कहानी 'टर्बन टॉरनेडो' फौजा सिंह की
फौजा सिंह ने 95 वर्ष की उम्र में चंडीगढ़ में एक दफा पत्रकारों से कहा था - "ज़िंदगी इतनी खूबसूरत है कि मरने का मन ही नहीं करता." 114 वर्ष की उम्र में मशहूर धावक फौजा सिंह का निधन हो गया. वे पंजाब के जालंधर जिले के ब्यास गांव में एक सड़क पार करते समय एक अज्ञात वाहन की चपेट में आ गए. 'द इंडियन एक्सप्रेस' के लिए अंजू अग्निहोत्री छाबा की रिपोर्ट है कि यह वही जगह थी जहां उनका बेटा कुलदीप सिंह कभी एक ढाबा चला रहा था और जिसकी याद में यह छोटी-सी दुकान अब भी चल रही थी.
100 की उम्र में रचा था इतिहास : साल 2011 में टोरंटो मैराथन में 8 घंटे 11 मिनट में दौड़ पूरी कर, फौजा सिंह ने ‘सबसे बुजुर्ग मैराथन धावक’ का तमगा हासिल किया. हालांकि गिनीज वर्ल्ड रिकॉर्ड्स ने यह मान्यता नहीं दी, क्योंकि उनके पास जन्म प्रमाणपत्र नहीं था – उनके ब्रिटिश पासपोर्ट में जन्मतिथि 1 अप्रैल 1911 दर्ज है, जबकि भारत सरकार का पत्र बताता है कि उस समय रिकॉर्ड नहीं रखे जाते थे.
दुख से शुरू हुई थी दौड़ : फौजा सिंह की दौड़ की शुरुआत एक निजी त्रासदी से हुई. 1994 में उनके बेटे कुलदीप की उनके बनाए जा रहे ढाबे की छत गिरने से मौत हो गई थी. उस वक्त उनकी पत्नी का निधन भी दो साल पहले हुआ था. सदमे से टूट चुके फौजा को उनका बेटा सुखजिंदर इंग्लैंड ले गया. वहां उन्होंने सैर शुरू की, फिर दौड़ और फिर दुनिया के मंचों पर छा गए.
एडिडास ब्रांड एंबेसडर, ओलंपिक मशालधारी : साल 2000 में 89 वर्ष की उम्र में उन्होंने पहली मैराथन दौड़ी. उसके बाद लंदन, टोरंटो, हांगकांग, मुंबई – हर शहर में वे एक किंवदंती बन चुके थे. एडीडास ने उन्हें ब्रांड एंबेसडर बनाया, वे 2012 के लंदन ओलंपिक में मशाल लेकर दौड़े.
महारानी से मुलाकात और मीठे किस्से : वे महारानी एलिज़ाबेथ द्वितीय से भी मिले, जहां उन्हें दो दिन तक सिखाया गया कि ‘गले मत लगना, बस हाथ मिलाना’. वे सफर में "वर्ल्ड ट्रैवलर, सेंचुरियन मैराथनर" लिखे बोर्डिंग पास के साथ उड़ते, फ्लाइट में पायलट उन्हें सलाम करते.
जीवनशैली: "जिस दिन दौड़ना बंद, उसी दिन बैठ जाना" उन्होंने 2013 में मैराथन से संन्यास लिया, लेकिन चलना कभी नहीं छोड़ा. वे रोज़ाना घंटों गांव में टहलते थे, रोज़ एक किलो आम खाते थे, खुद बनाए पेड़ों के फल तोड़ते थे और सुबह की शुरुआत देसी पिन्नी से करते थे. वो जहां भी जाते, लोग डॉलर पकड़ाते, लेकिन वे सारे पैसे गुपचुप गुरुद्वारे की गुल्लक में डाल देते. जब नेस्ले ने उन्हें चेक भेजने का कहा, तो उन्होंने अमृतसर की एक चैरिटी संस्था का नाम दे दिया.
अंतिम साल और आखिरी दिन पिछले तीन वर्षों से वे ब्यास में अपने छोटे बेटे हरविंदर सिंह के साथ रहते थे. 14 जुलाई को वे अपने बेटे की याद में बने ढाबे की ओर जा रहे थे, जब उन्हें एक वाहन ने टक्कर मार दी. फौजा सिंह सिर्फ एक धावक नहीं, बल्कि उम्मीद, जज़्बे और जिंदादिली का दूसरा नाम थे.
कनाडा से आए एनआरआई की गिरफ्तारी : धावक फौजा सिंह की सड़क दुर्घटना में मृत्यु के मामले में कनाडा बेस्ड एनआरआई अमृतपाल सिंह ढिल्लों को जालंधर ग्रामीण पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया है. अमृतपाल सिंह ढिल्लों, उम्र 26 वर्ष, दासुपुर गांव (जालंधर के करतारपुर क्षेत्र) का निवासी है. वह कनाडा में वर्क परमिट पर रह रहा था और जून के अंतिम सप्ताह में पंजाब लौटा था. उसने हाल ही में कपूरथला के एक व्यक्ति से पुरानी टोयोटा फॉर्च्यूनर खरीदी थी. फौजा सिंह अपने खेत और दिवंगत बेटे के नाम पर बने ढाबे की ओर सड़क पार कर रहे थे, तभी एक तेज़ रफ्तार वाहन ने उन्हें टक्कर मार दी. प्रत्यक्षदर्शियों के अनुसार, टक्कर इतनी ज़ोरदार थी कि उनका शरीर 6-7 फीट हवा में उछल गया. आरोपी तक पहुंचने के लिए पुलिस ने 35 वाहनों की सीसीटीवी फुटेज खंगाली और इसके बाद घटनास्थल से मिले टोयोटा फॉर्च्यूनर के हेडलाइट के टूटे हुए हिस्से से मॉडल का मिलान किया गया. रजिस्ट्रेशन नंबर के जरिए पता चला कि वाहन कपूरथला के वरिंदर सिंह के नाम था, जिन्होंने इसे अमृतपाल को बेचा था. पूछताछ में अमृतपाल ने हादसे में अपनी भूमिका स्वीकार की.
चलते-चलते
"कांवड़ लेने मत जाना, तुम ज्ञान के दीप जलाना": शिक्षक की कविता पर बरेली में विवाद
(साभार : सोशल मीडिया)
बरेली के एमजीएम इंटर कॉलेज बहेड़ी के शिक्षक डॉ. रजनीश गंगवार सोशल मीडिया पर वायरल एक वीडियो में छात्रों को सुनाई गई कविता “कांवड़ लेने मत जाना, तुम ज्ञान का दीप जलाना” को लेकर विवादों में आ गए हैं. शिक्षक पर इस कविता को लेकर एफआईआर दर्ज की गई है, जिसकी आलोचना भी हो रही है. कुछ वर्ग इसे धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुंचाने वाला मान रहा है, जबकि कई लोग इसे शिक्षा को प्राथमिकता देने का संदेश बता रहे हैं.
शिक्षक का कहना है कि निजी रंजिश में ओछी मानसिकता के लोगों ने उनपर एफआईआर दर्ज करवाई है. उन्होंने कहा - 'मैंने कविता छोटे बच्चों के लिए लिखी थी और वो आडंबर के खिलाफ बोलते रहेंगे. सरकार स्कूल बंद कर मदिरालय खोल रह हे और कांवड को प्रोत्साहित कर रही है, जो कि गलत है. इसके खिलाफ सबको बालना चाहिए.'
"नीयत प्रेरणा की थी" डॉ. रजनीश गंगवार ने मीडिया से बात करते हुए स्पष्ट किया कि "12 जुलाई की प्रार्थना सभा में छात्र अनुपस्थित थे. एनएसएस कार्यक्रम अधिकारी होने के नाते मैंने यह समझा कि शायद सभी छात्र कांवड़ लेकर गए हैं. मैंने केवल उन्हें पढ़ाई के प्रति प्रेरित करने के लिए यह कविता सुनाई थी. मेरा उद्देश्य किसी की धार्मिक भावना को ठेस पहुंचाना नहीं था. कुछ लोग मिथ्या आरोप लगाकर मुझे बदनाम कर रहे हैं."
वायरल वीडियो के बाद कुछ वर्गों ने शिक्षक के खिलाफ कार्रवाई की मांग की है, जबकि कई शिक्षाविद और छात्र अभिभावक उनके समर्थन में आ गए हैं. लोगों का कहना है कि डॉ. गंगवार ने केवल शिक्षा के महत्व को रेखांकित करने की कोशिश की, न कि किसी धार्मिक परंपरा पर टिप्पणी की. कॉलेज के प्रधानाचार्य अशोक गंगवार ने शिक्षक से स्पष्टीकरण मांगा है. डीआईओएस (जिला विद्यालय निरीक्षक) अजीत कुमार सिंह ने कहा - "शिक्षक ने अपना पक्ष स्पष्ट कर दिया है. उनकी मंशा शिक्षा के लिए प्रेरणा देना था, लेकिन उन्हें संवेदनशील मामलों में बोलने से बचने की सलाह दी गई है."
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