17/10/2025: बिहार में दोनों तरफ सिर फुटव्वल | मेहुल चोकसी की घरवापसी होगी | फिर दलित दमन | ममदानी की बढ़त बरकरार | ट्रंप और पुतिन के रिश्ते | न उमर से कश्मीर खुश, न उमर दिल्ली से
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निधीश त्यागी, साथ में राजेश चतुर्वेदी, गौरव नौड़ियाल, फ़लक अफ़शां
आज की सुर्खियां
बिहार में महागठबंधन के दल कई सीटों पर एक-दूसरे के खिलाफ ही चुनाव लड़ रहे हैं.
कांग्रेस की बिहार सूची में अति पिछड़ा वर्ग को कम और सवर्ण उम्मीदवारों को ज्यादा जगह मिली है.
एनडीए ने बिहार चुनाव में पिछड़े और अति पिछड़े उम्मीदवारों पर अपना ध्यान केंद्रित किया है.
एनडीए में अनदेखी से नाराज ओम प्रकाश राजभर की पार्टी बिहार में 150 से ज्यादा सीटों पर लड़ेगी.
जेएनयू छात्र संघ के पूर्व अध्यक्ष धनंजय सीपीआई-एमएल के टिकट पर बिहार चुनाव लड़ेंगे.
बेल्जियम की अदालत ने भगोड़े हीरा कारोबारी मेहुल चोकसी के भारत प्रत्यर्पण को मंजूरी दे दी है.
टीएमसी पार्षद की हत्या के आरोपी रहे भाजपा नेता निर्मल घोष अब तृणमूल कांग्रेस में शामिल हो गए हैं.
जम्मू-कश्मीर में उमर अब्दुल्ला सरकार के एक साल बाद भी लोगों की उम्मीदें पूरी नहीं हुई हैं.
भाजपा ने राहुल गांधी को लेकर दो दावे किए जो सोशल मीडिया पर गलत साबित हो गए.
सिंगापुर पुलिस को गायक जुबिन गर्ग की मौत की शुरुआती जांच में कोई गड़बड़ी नहीं मिली है.
मध्य प्रदेश में अवैध खनन का विरोध करने पर दबंगों ने एक दलित युवक को पीटा और उस पर पेशाब कर दी.
अल-कायदा से संबंधों के आरोप में गिरफ्तार युवक को जमानत देते हुए हाईकोर्ट ने कहा कि सिर्फ आरोप हिरासत का आधार नहीं हो सकते.
न्यूयॉर्क मेयर पद की पहली बहस में ज़ोहरान ममदानी ने अपने प्रतिद्वंद्वियों के हमलों का सफलतापूर्वक सामना किया.
रूस के राष्ट्रपति पुतिन तारीफ और व्यापारिक सौदों के जरिए राष्ट्रपति ट्रंप को साधने की कोशिश कर रहे हैं.
बिहार चुनाव
महागठबंधन में भी सिर फुटौव्वल
बिहार विधानसभा चुनाव के लिए नामांकन प्रक्रिया तेज़ होने के साथ ही राजनीतिक दलों की रणनीतिक बिसात भी बिछ गई है. टिकट बंटवारे को लेकर दोनों प्रमुख गठबंधनों में हलचल है. सबसे ज़्यादा खींचतान महागठबंधन के भीतर देखने को मिल रही है, जहां सीटों पर सहमति न बन पाने के कारण आरजेडी और कांग्रेस ने कई सीटों पर एक-दूसरे के ख़िलाफ़ ही अपने उम्मीदवार उतार दिए हैं. वीआईपी और वाम दल भी अपनी-अपनी सूचियां जारी कर रहे हैं, जिससे गठबंधन की एकजुटता पर गंभीर सवाल खड़े हो गए हैं. वहीं, एनडीए में तस्वीर ज़्यादातर साफ़ है, लेकिन उत्तर प्रदेश की सहयोगी सुभासपा (SBSP) ने अनदेखी का आरोप लगाते हुए 150 से ज़्यादा सीटों पर चुनाव लड़ने का ऐलान कर दिया है, जो एनडीए के वोटों में सेंध लगा सकती है. दोनों गठबंधनों की सूचियों में एक बात साफ़ है - पिछड़ा और अति पिछड़ा वर्ग पर ज़बरदस्त फ़ोकस. साथ ही, जेएनयू के छात्र नेता धनंजय जैसे नए चेहरों के चुनावी मैदान में उतरने से मुक़ाबला और दिलचस्प हो गया है.
इंडियन एक्सप्रेस की रिपोर्ट के अनुसार, बिहार में महागठबंधन के भीतर सीटों के बंटवारे को लेकर गतिरोध इतना बढ़ गया है कि पहले चरण के नामांकन का समय समाप्त होने के बावजूद कोई साझा फ़ॉर्मूला नहीं बन पाया है. नतीजतन, आरजेडी, कांग्रेस और अन्य सहयोगी दलों ने एकतरफ़ा तरीक़े से अपनी-अपनी सूचियां जारी कर दी हैं और कई सीटों पर एक-दूसरे के ख़िलाफ़ ही उम्मीदवार खड़े कर दिए हैं.
आरजेडी, कांग्रेस, सीपीआई (एम-एल) लिबरेशन, सीपीआई (एम), सीपीआई और विकासशील इंसान पार्टी (वीआईपी) वाले इस गठबंधन में एक दर्जन से ज़्यादा सीटों पर पेंच फंसा हुआ है. वैशाली और लालगंज जैसी सीटों पर आरजेडी और कांग्रेस दोनों ने अपने उम्मीदवार उतार दिए हैं. वैशाली में जहां कांग्रेस ने संजीव सिंह को टिकट दिया है, वहीं आरजेडी ने अभय कुशवाहा को मैदान में उतारा है. इसी तरह लालगंज में कांग्रेस के आदित्य राज के सामने आरजेडी ने पूर्व विधायक मुन्ना शुक्ला की बेटी शिवानी सिंह को टिकट दिया है.
कांग्रेस, जो पहले ही 48 उम्मीदवारों की सूची जारी कर चुकी थी, ने पांच और सीटों पर टिकट दिए हैं. इनमें कहलगांव की सीट भी शामिल है, जो परंपरागत रूप से कांग्रेस की रही है, लेकिन आरजेडी इस पर अपना दावा छोड़ने को तैयार नहीं है. सीपीआई (एम-एल) लिबरेशन ने भी पहले चरण के लिए 14 उम्मीदवारों की घोषणा कर दी है. वीआईपी, जो अब भी अपने नेता मुकेश सहनी को उपमुख्यमंत्री उम्मीदवार के रूप में पेश करने पर अड़ी है, को अब तक 14 सीटें मिली हैं.
आरजेडी ने अभी तक अपनी पहली सूची आधिकारिक तौर पर जारी नहीं की है, लेकिन सूत्रों के मुताबिक़, उसने अब तक 48 उम्मीदवारों को टिकट सौंप दिए हैं. इनमें भोजपुरी गायक खेसारी लाल यादव (छपरा), तेजस्वी प्रसाद यादव (राघोपुर), ओसामा शहाब (रघुनाथपुर) और चंद्रशेखर (मधेपुरा) जैसे प्रमुख नाम शामिल हैं.
नई दिल्ली में सूत्रों ने इंडियन एक्सप्रेस को बताया कि आरजेडी 130-135 सीटों पर चुनाव लड़ेगी, जबकि कांग्रेस को लगभग 60, वीआईपी को लगभग 15, और वाम दलों को 28-29 सीटें मिलने की संभावना है. गठबंधन के अंदरूनी सूत्रों ने स्वीकार किया कि कुछ सीटों पर “दोस्ताना मुक़ाबला” होगा, जिसमें बछवारा सीट भी शामिल है, जहां कांग्रेस के शिव प्रकाश गरीब दास का मुक़ाबला सीपीआई के अवधेश कुमार राय से होगा.
सूत्रों ने यह भी खुलासा किया कि बुधवार रात वीआईपी और आरजेडी के बीच बातचीत लगभग टूट गई थी और सहनी गठबंधन छोड़ने की घोषणा करने वाले थे. लेकिन सीपीआई (एम-एल) के दीपांकर भट्टाचार्य ने हस्तक्षेप किया और राहुल गांधी से बात की. राहुल गांधी ने सहनी से फ़ोन पर बात करके उन्हें मनाया, जिसके बाद सहनी ने गठबंधन में बने रहने का फ़ैसला किया.
कांग्रेस की सूची: EBC पर ज़ोर कम, महिलाओं को 5 टिकट
महागठबंधन में सीटों पर चल रही लंबी खींचतान के बीच कांग्रेस द्वारा जारी की गई पहली 48 उम्मीदवारों की सूची पार्टी की रणनीति और मजबूरियों दोनों को दर्शाती है. इस सूची में अति पिछड़ा वर्ग (EBC) को कम प्रतिनिधित्व मिला है, जो इंडिया ब्लॉक के ‘अतिपिछड़ा न्याय संकल्प’ के ठीक विपरीत है.
कांग्रेस ने अपनी सूची में 27 ऐसी सीटों पर उम्मीदवार उतारे हैं जहां पार्टी 2020 में दूसरे स्थान पर रही थी. उस चुनाव में कांग्रेस ने 70 सीटों पर चुनाव लड़ा था और 19 पर जीत हासिल की थी. सूची में 14 मौजूदा विधायकों को फिर से टिकट दिया गया है.
कुल 48 उम्मीदवारों में से सिर्फ़ 5 महिलाएं हैं. सामान्य श्रेणी की 38 सीटों में से लगभग आधे (19) उम्मीदवार सवर्ण जातियों से हैं, जबकि अति पिछड़ा वर्ग (EBC) को सिर्फ़ 9 टिकट दिए गए हैं. यह राहुल गांधी और तेजस्वी यादव द्वारा पिछले महीने जारी किए गए EBC घोषणापत्र के दावों पर सवाल खड़े करता है.
सूची में चार मुस्लिम उम्मीदवार हैं. सूत्रों के मुताबिक़, मुसलमानों को बहुत ज़्यादा टिकट न देने का फ़ैसला “ध्रुवीकरण” की आशंका और इस “विश्वास” पर आधारित है कि मुसलमानों के पास इंडिया ब्लॉक को वोट देने के अलावा कोई विकल्प नहीं है.
इस बीच, कांग्रेस को आरजेडी के दबाव के आगे झुकना पड़ा और दरभंगा ज़िले की जाले सीट से अपने पसंदीदा उम्मीदवार मोहम्मद नौशाद आलम का नाम वापस लेना पड़ा. आलम उस रैली के आयोजक थे जिसमें कथित तौर पर प्रधानमंत्री के ख़िलाफ़ आपत्तिजनक नारा लगाया गया था. आरजेडी के आग्रह पर कांग्रेस ने आलम की जगह आरजेडी नेता ऋषि मिश्रा को कांग्रेस के सिंबल पर अपना 49वां उम्मीदवार बनाया.
बीजेपी-जेडीयू की सूची में पिछड़ा वर्गों पर फोकस, 13% टिकट महिलाओं को
बिहार में एनडीए के प्रमुख घटक दलों, बीजेपी और जेडीयू, ने अपनी-अपनी सूचियों में पिछड़ा (OBC) और अति पिछड़ा (EBC) वर्गों पर विशेष ध्यान केंद्रित किया है. दोनों पार्टियों ने लगभग 13% टिकट महिलाओं को दिए हैं.
बीजेपी की 101 उम्मीदवारों की सूची में कोई भी मुस्लिम उम्मीदवार नहीं है, जबकि जेडीयू ने 4 मुसलमानों को मैदान में उतारा है, जो 2020 में 11 से कम है. बीजेपी ने अपने 55 मौजूदा विधायकों को दोहराया है और 16 को हटा दिया है. वहीं, जेडीयू की 101 उम्मीदवारों की सूची में आधे से ज़्यादा (59) EBC और OBC समुदायों से हैं. EBC को 22 टिकट मिले हैं, जबकि सबसे ज़्यादा 13 टिकट कुशवाहा समुदाय को दिए गए हैं. मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के कुर्मी समुदाय को 12 टिकट मिले हैं. यह नीतीश कुमार की उस रणनीति को दिखाता है जिसके तहत वह EBC और ‘लव-कुश’ (कुर्मी-कुशवाहा) समीकरण पर भरोसा करते हैं.
बीजेपी की सूची में प्रमुख उम्मीदवारों में उपमुख्यमंत्री सम्राट चौधरी (तारापुर) और विजय कुमार सिन्हा (लखीसराय) शामिल हैं. पार्टी ने कई नए चेहरों को भी मौका दिया है, जिनमें लोक गायिका मैथिली ठाकुर (अलीगंज), पूर्व आईपीएस अधिकारी आनंद मिश्रा (बक्सर) और युवा दलित नेता सुजीत पासवान (राजनगर-एससी) शामिल हैं. पटना की चार सीटों में से, बीजेपी ने कुम्हरार से पांच बार के विधायक अरुण कुमार सिन्हा और पटना साहिब से सात बार के विधायक और विधानसभा अध्यक्ष नंद किशोर यादव को बदल दिया है, जो ओबीसी चेहरों पर पार्टी के बढ़ते फोकस को दर्शाता है.
जेडीयू ने अपनी सूची में 8 यादवों को भी जगह दी है, जो आरजेडी का मुख्य वोट बैंक माना जाता है. पार्टी ने लगभग 22 उम्मीदवार सामान्य श्रेणी से उतारे हैं, जिनमें 10 राजपूत और 9 भूमिहार शामिल हैं.
बीजेपी से ‘अनदेखी’ के बाद, SBSP बिहार में 153 सीटों पर लड़ेगी चुनाव
इंडियन एक्सप्रेस की रिपोर्ट के अनुसार, उत्तर प्रदेश में बीजेपी की सहयोगी सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी (SBSP) ने बिहार में एनडीए गठबंधन द्वारा नज़रअंदाज़ किए जाने का आरोप लगाते हुए 153 सीटों पर अपने उम्मीदवार उतारने की तैयारी कर ली है. SBSP के अध्यक्ष और यूपी सरकार में मंत्री ओम प्रकाश राजभर ने कहा कि अगर बीजेपी बिहार में एनडीए के तहत उन्हें 3-4 सीटें भी दे देती है, तो वह अपने सभी उम्मीदवारों को वापस ले लेंगे.
राजभर ने संवाददाताओं से कहा कि बिहार बीजेपी इकाई ने उन्हें सीटें देने में “हिचक” दिखाई क्योंकि उन्हें डर था कि “अगर हम जीत गए, तो हमें वहां एनडीए सरकार में जगह देनी होगी और कुछ विभाग भी आवंटित करने होंगे.” उन्होंने दावा किया कि पिछले साल बिहार विधानसभा उपचुनावों में बीजेपी के केंद्रीय नेतृत्व के अनुरोध पर उन्होंने अपने उम्मीदवार वापस ले लिए थे, लेकिन बदले में राज्य आयोगों में जगह देने का वादा पूरा नहीं किया गया.
SBSP बिहार की आबादी का लगभग 4.2% हिस्सा रखने वाले राजभर, राजवर, राजवंशी और राजघोष जैसे ओबीसी समूहों के बीच अपने समर्थन का दावा करती है. राजभर ने कहा कि उन्होंने बीजेपी से सिर्फ़ 4-5 सीटों की मांग की थी, लेकिन वे इसके लिए भी तैयार नहीं हुए.
SBSP का मानना है कि बिहार में अकेले चुनाव लड़ने के उनके क़दम से “बीजेपी और उसके एनडीए सहयोगियों को नुक़सान होगा.” पार्टी नेताओं का दावा है कि बक्सर, सीवान और औरंगाबाद जैसे क्षेत्रों की कई विधानसभा सीटों पर राजभर और संबंधित समूहों के लगभग 25,000 से 70,000 वोट हैं.
ओम प्रकाश राजभर ने यह भी स्पष्ट किया कि बिहार में उनकी पार्टी की लड़ाई का उत्तर प्रदेश में बीजेपी के साथ उनके गठबंधन पर कोई असर नहीं पड़ेगा. 2020 के बिहार चुनावों में, SBSP ने बसपा और एआईएमआईएम जैसी पार्टियों के साथ गठबंधन में चुनाव लड़ा था, लेकिन अपना खाता खोलने में विफल रही थी.
जेएनयू के पूर्व अध्यक्ष धनंजय लड़ेंगे बिहार विधानसभा चुनाव
जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय (जेएनयू) छात्र संघ के पूर्व अध्यक्ष धनंजय बिहार विधानसभा चुनाव में अपनी किस्मत आज़माएंगे. 2024 में जेएनयू के पहले दलित अध्यक्ष बने धनंजय को भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी-लेनिनवादी) लिबरेशन यानी सीपीआई-एमएल ने गोपालगंज की भोरे (सुरक्षित) सीट से अपना उम्मीदवार बनाया है. धनंजय, कांग्रेस के कन्हैया कुमार और सीपीआई (एम) की आइशी घोष के बाद चुनावी राजनीति में क़दम रखने वाले जेएनयूएसयू के तीसरे अध्यक्ष हैं.
गया के एक दलित परिवार से आने वाले धनंजय वर्तमान में जेएनयू में थिएटर स्टडीज़ में पीएचडी कर रहे हैं. छह भाई-बहनों में सबसे छोटे धनंजय के पिता एक रिटायर्ड पुलिसकर्मी और मां गृहणी हैं. उन्होंने अपनी स्कूली शिक्षा रांची से पूरी की और दिल्ली विश्वविद्यालय के अरबिंदो कॉलेज से राजनीति विज्ञान में स्नातक किया. इसके बाद उन्होंने अंबेडकर विश्वविद्यालय, दिल्ली से मास्टर्स की डिग्री हासिल की.
सीपीआई-एमएल के छात्र संगठन आइसा (AISA) के नेता धनंजय ने अपना राजनीतिक सफ़र अंबेडकर विश्वविद्यालय में छात्र पार्षद के रूप में शुरू किया था. पिछले साल, वह लगभग दो दशकों में जेएनयूएसयू के पहले दलित अध्यक्ष बने.
इंडियन एक्सप्रेस से पहले की बातचीत में धनंजय ने बताया था कि जातीय भेदभाव की घटनाओं ने उनकी राजनीतिक सोच को आकार दिया. उन्होंने कहा था, “जब मैं दिल्ली आया, तब भी कई घटनाएं हुईं, जहां मेरे रूममेट्स के माता-पिता पूछते थे कि मैं किस जाति का हूं. मैंने बहुत छोटी उम्र से देखा कि मेरे परिवार के साथ अलग तरह से व्यवहार किया जाता था.”
जेएनयूएसयू अध्यक्ष के रूप में अपने कार्यकाल के दौरान, धनंजय ने फ़ेलोशिप स्टाइपेंड बढ़ाने और फैकल्टी भर्ती में वैचारिक पूर्वाग्रह के आरोपों का मुद्दा उठाया था. उन्होंने कहा था, “एक दलित छात्र, मेहनती और प्रतिभाशाली होने के बावजूद, इंटरव्यू में विचार नहीं किया जाता... क्योंकि एक ही विचारधारा वाले प्रोफ़ेसरों के समूह को नियुक्त किया जा रहा है.”
सीपीआई-एमएल, जिसकी बिहार के कई हिस्सों में मज़बूत संगठनात्मक पकड़ है, विधानसभा चुनावों से पहले युवाओं के बीच अपनी पहुंच बढ़ा रही है.
भगोड़े हीरा कारोबारी मेहुल चोकसी के भारत प्रत्यर्पण को बेल्जियम की अदालत से मंज़ूरी
पंजाब नेशनल बैंक (PNB) के लगभग 13,000 करोड़ रुपये के कथित ऋण धोखाधड़ी मामले में भारत में वांछित भगोड़े हीरा कारोबारी मेहुल चोकसी के प्रत्यर्पण को बेल्जियम की एक अदालत ने मंज़ूरी दे दी है. चोकसी को पांच महीने पहले बेल्जियम में गिरफ़्तार किया गया था. एंटवर्प की अदालत ने शुक्रवार को उनके प्रत्यर्पण को हरी झंडी देते हुए कहा कि भारत के अनुरोध पर बेल्जियम के अधिकारियों द्वारा की गई उनकी गिरफ़्तारी वैध थी. यह फ़ैसला चोकसी के प्रत्यर्पण को सुरक्षित करने के भारत के प्रयासों में एक महत्वपूर्ण क़दम है, हालांकि उनके पास अभी भी बेल्जियम की एक उच्च अदालत में अपील करने का अधिकार है.
यह आदेश भारत सरकार द्वारा बेल्जियम सरकार को यह आश्वासन दिए जाने के एक महीने बाद आया है कि “अगर चोकसी का प्रत्यर्पण होता है”, तो उसे मुंबई के आर्थर रोड जेल परिसर में रखा जाएगा. चोकसी को केंद्रीय जांच ब्यूरो (CBI) के प्रत्यर्पण अनुरोध के आधार पर अप्रैल में बेल्जियम में गिरफ़्तार किया गया था. पिछले महीने, एक अन्य अदालत में उनकी प्रत्यर्पण सुनवाई से ठीक पहले, बेल्जियम की एक अपील अदालत ने उनकी ज़मानत याचिका को ख़ारिज कर दिया था.
गृह मंत्रालय के संयुक्त सचिव राकेश कुमार पांडे ने 4 सितंबर को बेल्जियम के अधिकारियों को भेजे एक पत्र में कहा था कि भारत सरकार ने चोकसी के प्रत्यर्पण की मांग की है ताकि उस पर भारत में मुक़दमा चलाया जा सके. पांडे ने अपने पत्र में लिखा, “केंद्र, महाराष्ट्र सरकार की एक रिपोर्ट के आधार पर, यह आश्वासन देता है कि चोकसी को बैरक नंबर 12, आर्थर रोड जेल परिसर में रखा जाएगा. यह भी आश्वासन दिया जाता है कि उसे एक ऐसी कोठरी में रखा जाएगा जिसमें उसे उसकी संभावित हिरासत (ट्रायल से पहले और दोषी ठहराए जाने के बाद) की पूरी अवधि के दौरान कम से कम तीन वर्ग मीटर का व्यक्तिगत स्थान (फर्नीचर को छोड़कर) मिलेगा.”
पांडे ने यह भी आश्वासन दिया कि जिस हिरासत केंद्र में चोकसी को रखा जाएगा, उसमें एक साफ़, मोटी सूती चटाई, तकिया, चादर और कंबल का प्रावधान है. अधिकारी ने पत्र में आगे कहा, “चिकित्सीय आधार पर धातु के फ्रेम या लकड़ी का बिस्तर भी उपलब्ध कराया जा सकता है. पर्याप्त रोशनी, वेंटिलेशन और अनुमत निजी सामानों के लिए भंडारण की सुविधा उपलब्ध है.”
बता दें कि चोकसी और उनके भतीजे नीरव मोदी पर आरोप है कि उन्होंने मुंबई में PNB की ब्रैडी हाउस शाखा में कुछ बैंक अधिकारियों की मिलीभगत से फ़र्ज़ी ‘लेटर ऑफ़ अंडरटेकिंग’ (LoUs) के ज़रिए इस धोखाधड़ी को अंजाम दिया था.
तृणमूल पार्षद की हत्या के आरोप में गिरफ्तार भाजपा नेता टीएमसी में शामिल
पश्चिम बंगाल में भाजपा नेता निर्मल घोष, जिन पर तृणमूल कांग्रेस (टीएमसी) के एक पार्षद की हत्या का आरोप था, अब आधिकारिक तौर पर टीएमसी में शामिल हो गए हैं. घोष उन छह लोगों में से एक थे, जिन पर सत्यजीत बिस्वास की हत्या का आरोप लगा था और उन्हें इस मामले में जेल भी भेजा गया था, लेकिन बाद में अदालत ने उन्हें बरी कर दिया.
घोष का पार्टी में शामिल होने का समारोह 13 अक्टूबर को नादिया जिले के हंसखाली के बगूला में हुआ. इस दौरान टीएमसी के प्रदेश उपाध्यक्ष जय प्रकाश मजूमदार और विधायक मुकुटमणि अधिकारी मौजूद थे. ये दोनों भी भाजपा से टीएमसी में शामिल हुए थे. “द हिंदू” के अनुसार, भाजपा नेता मुकुल रॉय और राणाघाट से भाजपा सांसद जगन्नाथ सरकार उन लोगों में शामिल थे, जिनका नाम हत्या के संबंध में दर्ज की गई प्राथमिकी में था.
‘हमें मूर्ख बनाया गया है’: अब्दुल्ला सरकार से जम्मू-कश्मीर की उम्मीदें एक साल में क्यों खत्म हो गईं
श्रीनगर के बख्शी स्टेडियम में स्वतंत्रता दिवस समारोह के दौरान, मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला ने अपनी स्थिति पर एक शांत टिप्पणी की थी. उन्होंने कहा था कि पिछली बार जब वह यहां खड़े थे, तो वह एक राज्य के मुख्यमंत्री थे, जिसके पास अपना संविधान, अपना झंडा और फैसले लेने वाली विधानसभा थी. लेकिन अब, वह एक केंद्र शासित प्रदेश के मुख्यमंत्री हैं, जहां कैबिनेट के कई फैसले पारित नहीं हो पाते, फाइलें वापस नहीं आतीं, और कुछ “गायब हो जाती हैं.”
यह टिप्पणी न केवल उनकी कम हुई शक्तियों को दर्शाती है, बल्कि वर्तमान प्रशासनिक संरचना की जटिलता को भी उजागर करती है. कई राजनीतिक पर्यवेक्षकों ने “स्क्रॉल.इन” को बताया कि नेशनल कॉन्फ्रेंस (एनसी) सरकार का पहला वर्ष “शासन में विफलता” का रहा है. एक टिप्पणीकार के अनुसार, “किसी ने उनसे अनुच्छेद 370 वापस लाने की उम्मीद नहीं की होगी, लेकिन राज्य का दर्जा वापस पाने के लिए एक मजबूत लड़ाई लड़ने की उम्मीद थी.” हालांकि, मुख्यमंत्री खुद अपनी स्थिति व शक्तियों को लेकर लाचार और भ्रमित दिखाई देते हैं.
जमीनी स्तर पर, एनसी के प्रति असंतोष का माहौल है. श्रीनगर के एक व्यवसायी ने कहा कि “कश्मीर के प्रति केंद्र के कठोर दृष्टिकोण में कोई बदलाव नहीं आया है,” और चुनी हुई सरकार एक मूक दर्शक के रूप में काम कर रही है. यह असंतोष विशेष रूप से उपराज्यपाल (एलजी) के शासन के तहत आम हुई घटनाओं जैसे सरकारी कर्मचारियों की “अन्यायपूर्ण बर्खास्तगी” और बेरहम जन सुरक्षा अधिनियम (पीएसए) के इस्तेमाल पर अब्दुल्ला सरकार की चुप्पी को लेकर है.
एनसी सरकार का तर्क है कि सुरक्षा और कानून-व्यवस्था उनके अधिकार क्षेत्र में नहीं है, लेकिन आलोचकों का मानना है कि वे यह कहकर नैतिक जिम्मेदारी से बच नहीं सकते. व्यवसायी ने कहा कि “यह सरकार यह व्यक्त नहीं करती (दिखाई देती) है कि लोग किस दौर से गुजर रहे हैं.” एनसी के मुख्य प्रवक्ता तनवीर सादिक ने हालांकि, दावा किया कि पार्टी ने “इरादे और दिशा का वादा” पूरा किया है और सरकार के प्रदर्शन को आंकने के लिए अभी बहुत जल्दी है.
शपथ लेने के तुरंत बाद, उमर अब्दुल्ला ने दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल की तरह टकराव का रास्ता अपनाने के बजाय, सहयोग का हाथ बढ़ाया. उन्होंने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह को राज्य का दर्जा बहाल करने के लिए एक कैबिनेट प्रस्ताव सौंपने हेतु दिल्ली की यात्रा की. उन्होंने बीजेपी नेताओं को कश्मीरी शॉल भेंट किए, जिसे विपक्ष ने उपहासपूर्वक “शॉल कूटनीति” कहा. हालांकि, अब्दुल्ला को ऊपर से आश्वासन मिला था, मगर राज्य का दर्जा बहाल होना कहीं भी हकीकत के करीब नहीं दिख रहा है. नई दिल्ली ने एक ऐसे सेटअप में चुने हुए मुख्यमंत्री के साथ अपने असमान संबंधों को खुलकर बताया है, जहां केंद्र द्वारा नियुक्त उपराज्यपाल के पास महत्वपूर्ण शक्तियां हैं.
सितंबर में, मुख्यमंत्री को कथित तौर पर बीजेपी-नियंत्रित वक्फ बोर्ड के इशारे पर श्रीनगर के सबसे सम्मानित मुस्लिम तीर्थस्थल, हजरतबल के मुख्य गर्भगृह में प्रवेश नहीं करने दिया गया था. इसके अलावा, पिछले महीने गृह मंत्री अमित शाह की यात्रा के दौरान, अब्दुल्ला को नुकसान का निरीक्षण करते समय अधिकारियों और सुरक्षाकर्मियों के पीछे पृष्ठभूमि में देखा गया, जिसे कई लोगों ने चुने हुए प्रतिनिधि का “अपमान” कहा.
एक राजनीतिक टिप्पणीकार स्वीकार करते हैं कि वर्तमान प्रशासनिक संरचना, जो दो प्रतिद्वंद्वी राजनीतिक व्यवस्थाओं की बंधक है, ने शासन की गुणवत्ता को और खराब कर दिया है. एक केंद्र शासित प्रदेश की चुनी हुई सरकार के रूप में, सुरक्षा और कानून और व्यवस्था जैसे क्षेत्रों में उसका कोई दखल नहीं है, जो इस क्षेत्र में किसी भी सरकार के लिए एक बड़ी बाधा है.
युवाओं के बीच निराशा: आरक्षण नीति पर वादाखिलाफी
एनसी को वोट देने वाले कई युवा, विशेषकर आरक्षण नीति की “समीक्षा” के वादे को लेकर, निराश महसूस कर रहे हैं. एलजी प्रशासन ने सुप्रीम कोर्ट द्वारा निर्धारित 50% की सीमा का उल्लंघन करते हुए आरक्षण आवंटन को बदल दिया है, जिससे पहाड़ी भाषी समुदाय को लाभ हुआ है लेकिन सामान्य श्रेणी के छात्रों (जो जम्मू-कश्मीर की आबादी का 69% हैं) में बड़े पैमाने पर विरोध हुआ है.
चुनाव से पहले, एनसी ने नई आरक्षण नीति की “समीक्षा” करने और किसी भी अन्याय को ठीक करने का वादा किया था. लेकिन सत्ता में आने के बाद, सरकार ने समीक्षा के लिए एक कैबिनेट उप-समिति को काम सौंपा और रिपोर्ट मिलने पर उसे राय और टिप्पणियों के लिए कानून विभाग को भेज दिया. छात्र कार्यकर्ता साहिल पर्रे ने कहा कि सरकार इस मुद्दे से बचते हुए और समय को टालते हुए दिख रही है.
एनसी सरकार के पास दिखाने के लिए केवल कुछ सामाजिक कल्याण योजनाएं हैं, जैसे गरीब परिवारों को मुफ्त बिजली और चावल, महिलाओं के लिए मुफ्त बस यात्रा, और विवाह पर युवा महिलाओं के लिए वित्तीय सहायता.
हालांकि, राजनीतिक कैदियों की रिहाई या पीएसए के तहत नजरबंदी जैसी अगस्त 2019 के बाद की बड़ी चिंताओं पर पार्टी ने स्पष्ट चुप्पी बनाए रखी है. एनसी का कहना है कि उसने बार-बार नई दिल्ली के सामने ये मुद्दे उठाए हैं, और एक बार जब कानून और व्यवस्था सरकार के हाथों में लौट आएगी, तो वे इन मामलों को पारदर्शी तरीके से संबोधित करेंगे.
इन चुनौतियों के बीच, कुलगाम के एक छात्र नासिर अहमद का सवाल मौजूदा राजनीतिक स्थिति का मूल विरोधाभास व्यक्त करता है: “अगर मेरा वोट एक ऐसे नेता को चुनता है, जिसके पास कोई शक्ति नहीं है, तो मेरे वोट का मूल्य क्या है?” यह सवाल जम्मू-कश्मीर में चुनी हुई सरकार की सीमित शक्तियों और केंद्र के साथ उसके असमान संबंधों की वास्तविकता को उजागर करता है, जो एनसी सरकार के पहले वर्ष की निराशाजनक गाथा को परिभाषित करता है. सफ़वात ज़रगर ने अब्दुल्ला सरकार के एक वर्ष पूरे होने पर अपनी लंबी रिपोर्ट में लिखा है कि सरकार को अपनी राजनीतिक इच्छाशक्ति और शासन की दिशा को फिर से परिभाषित करने की तत्काल आवश्यकता है, ताकि वह अपने मतदाताओं के विश्वास को बहाल कर सके और केंद्र शासित प्रदेश की सीमाओं के भीतर प्रभावी ढंग से कार्य कर सके.
जम्मू-कश्मीर को राज्य का दर्जा न मिलना ही एक समस्या है : उमर अब्दुल्ला
इस बीच “द इंडियन एक्सप्रेस” के साथ एक इंटरव्यू में उमर ने केंद्र सरकार से पूछा कि उसने राज्य का दर्जा देने का वादा क्यों पूरा नहीं किया, और कहा कि इसे न मिलना “जाहिर तौर पर एक असर डालता है.” उन्होंने कहा कि राज्य का दर्जा न मिलने की स्थिति उनकी अपेक्षा से अधिक कठिन है, और घाटी का धैर्य अब जवाब दे रहा है. इस सवाल पर कि केंद्र शासित प्रदेश का मुख्यमंत्री होने की चुनौतियों का सही अनुमान लगाया था, या यह उससे ज़्यादा कठिन रहा है? उमर ने कहा कि “यह उम्मीद नहीं की थी कि यह उतना कठिन होगा जितना यह निकला है. मैंने यह पहले भी कहा है - एक विधानसभा वाला केंद्र शासित प्रदेश अब तक का सबसे अक्षम शासन मॉडल है. उन्होंने बीजेपी के इस तर्क को गलत बताया कि यह मॉडल दिल्ली में काम करता है. यह दिल्ली में काम नहीं करता, यह आम आदमी पार्टी की सरकार के लिए काम नहीं करता था. अभी भी बहुत अच्छी तरह से काम नहीं कर रहा है. बस फर्क यह है कि दिल्ली में चूंकि भाजपा सरकार है, इसलिए वे समस्याओं के बारे में कम बात करते हैं.
मुख्यमंत्री ने कहा कि हमारा घोषणापत्र छह महीने या एक साल का नहीं था. यह पूरे (पांच साल के) कार्यकाल के लिए एक घोषणापत्र था. कृपया हमें कार्यकाल के अंत में आंकें. लेकिन हम इस बारे में भी बहुत स्पष्ट थे कि इस घोषणापत्र के कुछ हिस्से इस धारणा पर आधारित थे कि जम्मू-कश्मीर को राज्य का दर्जा मिलेगा. वह नहीं हुआ... और यही एक समस्या है.
उमर अब्दुल्ला ने यह भी कहा कि भारत सरकार ने कभी भी यह संकेत नहीं दिया है कि वे 370 के बारे में बैठकर बात करने के लिए तैयार हैं, जबकि राज्य के दर्जे पर, उन्होंने हमेशा कहा है कि यह होगा. यहां तक कि भाजपा ने भी अपने चुनाव अभियान में लोगों से राज्य का दर्जा देने का वादा किया था. फिर वे इसे क्यों नहीं पूरा कर रहे हैं?
राहुल गांधी को टारगेट करते बीजेपी के दो झूठ
लोकसभा में प्रतिपक्ष के नेता राहुल गांधी आज शुक्रवार को दो जगह जाने वाले थे. एक- असम के गायक ज़ुबिन गर्ग के घर और दूसरा रायबरेली, जहां पिछले दिनों हरिओम वाल्मीकि की लिन्चिंग (नृशंस हत्या) कर दी गई थी. लेकिन, जैसा कि बीजेपी का तंत्र अक्सर करता है, दोनों ही यात्राओं को विवादास्पद बनाने की भरपूर कोशिश की गई. सोशल मीडिया पर लिखा गया और फिर प्रसारित-वायरल किया गया. मसलन, सोनापुर (गुवाहटी का बाहरी इलाका) पहुँचने के पहले असम के मुख्यमंत्री हिमन्त बिस्वा सरमा ने कहा, “आखिरकार 28 दिन बाद राहुल गांधी आ रहे हैं. भूपेन हजारिका के समय तो कोई कांग्रेसी नहीं आया था. कम से कम ज़ुबिन के लिए आ तो रहे हैं, मैं उनका स्वागत करता हूं.” लेकिन ऑल्ट न्यूज़ के मोहम्मद जुबेर ने उनका झूठ पकड़ लिया. सीएम साहब, जो पहले कांग्रेस में थे, की फेसबुक पोस्ट खोज निकाली, जो उन्होंने 10 नवंबर 2011 को पोस्ट की थी. इसमें हिमन्त ने फ़ोटो शेयर करते हुए लिखा है कि राहुल गांधी स्वर्गीय भूपेन हजारिका के निवास पर अपनी श्रद्धांजलि अर्पित करते हुए.
ऐसे ही दलित युवक हरिओम वाल्मीकि के परिवार से मिलने राहुल फतेहपुर पहुंचे. लेकिन परिवारीजन तैयार नहीं थे. बीजेपी आईटी सेल के अमित मालवीय ने “एक्स” पर लिखा, “राहुल गांधी से मिलने हरिओम के परिवार ने किया इनकार, कहा-राजनीति करने न आएं.” इसके आगे मालवीय ने लिखा- राहुल गांधी का हर रोज का रूटीन है-उठो, मुंह धोओ, बेइज़्ज़ती करवाओ, फिर सो जाओ. अगले दिन फिर वही कहानी. लेकिन इसके बाद हुआ क्या, “एक्स” पर ही मालवीय को तीखे शब्दों में जवाब देने का सिलसिला शुरू हो गया. मुलाकात के फ़ोटो-वीडियो शेयर किए जाने लगे. मालवीय के लिए ऐसे शब्द इस्तेमाल किए जाने लगे कि “भाषाई मर्यादा” का ख्याल करते हुए उनको लिखा भी नहीं जा सकता. मगर राहुल गांधी ने अपने “एक्स” हैंडल पर परिवार से मुलाकात का फ़ोटो शेयर करते हुए लिखा- “हरिओम वाल्मीकि की नृशंस हत्या ने पूरे देश की अंतरात्मा को झकझोर दिया है. उनके परिवार की आंखों में दर्द के साथ एक सवाल था- क्या इस देश में दलित होना अब भी जानलेवा गुनाह है? उत्तरप्रदेश में प्रशासन पीड़ित परिवार को डराने में जुटा है. उन्होंने परिवार को मुझसे मिलने से रोकने की कोशिश भी की. यह व्यवस्था की वही विफलता है- जो हर बार गुनहगारों की ढाल बनकर पीड़ित को ही कठघरे में खड़ा कर देती है. न्याय को नज़रबंद नहीं किया जा सकता. भाजपा सरकार को चाहिए कि पीड़ित परिवार पर दबाव खत्म करे और दोषियों को सख्त से सख्त सज़ा दिलाए. मैं हरिओम वाल्मीकि के परिवार और देश के हर शोषित, वंचित और कमजोर नागरिक के साथ मज़बूती से खड़ा हूं. यह लड़ाई सिर्फ़ हरिओम के लिए नहीं - हर उस आवाज़ के लिए है जो अन्याय के सामने झुकने से इनकार करती है.”
ज़ुबिन गर्ग : सिंगापुर पुलिस को प्रारंभिक जांच में कुछ नहीं मिला, राहुल पहुंचे परिवार के पास
इधर, सिंगापुर पुलिस को असमिया गायक ज़ुबिन गर्ग की मौत की जांच पूरी करने में तीन महीने और लग सकते हैं. उसको प्रारंभिक निष्कर्षों में जहां किसी भी तरह की गड़बड़ी का संकेत नहीं मिला है, वहीं असम पुलिस ने अपनी जांच के तहत सात व्यक्तियों को गिरफ्तार किया है. इस बीच राहुल गांधी उस स्थान पर गए, जहां ज़ुबिन का अंतिम संस्कार किया गया था. उन्होंने गायक के घर जाकर परिवारजनों को भी सांत्वना दी. गांधी ने कहा, “जितनी जल्दी ज़ुबिन गर्ग के मामले में सच्चाई सामने आएगी, उतना ही बेहतर होगा, क्योंकि परिवार को शांति की ज़रूरत है. असम सरकार का यह कर्तव्य है कि वह पारदर्शी तरीके से जांच करे और परिवार को बताए कि सिंगापुर में वास्तव में क्या हुआ था. परिवार ने ज़ुबिन को खो दिया है, और वे केवल यही चाहते हैं कि सच्चाई सामने आए. ‘पीटीआई” की रिपोर्ट के अनुसार, सिंगापुर पुलिस बल (एसपीएफ) ने कहा है कि प्रारंभिक जांच में गर्ग की मौत में किसी भी तरह की गड़बड़ी का संकेत नहीं मिला है. एसपीएफ ने ऑनलाइन अफवाहों के खिलाफ भी चेतावनी दी, और कहा कि उन्हें गायक के डूबने की परिस्थितियों के संबंध में “ऑनलाइन प्रसारित हो रही अटकलों और झूठी जानकारी” के बारे में पता है.
गुजरात की नई केबिनेट : कांग्रेस से आए नेताओं को हैसियत बताई, हार्दिक पटेल और अल्पेश ठाकोर पर वज्रपात
गुजरात में भूपेंद्र पटेल मंत्रिमंडल का पुनर्गठन ऐसे कई पूर्व कांग्रेस नेताओं के लिए एक राजनीतिक वज्रपात की तरह आया है, जो मंत्री पद की उम्मीद में भाजपा में शामिल हुए थे. आज शुक्रवार को हुए मंत्रिमंडल विस्तार ने कई महत्वाकांक्षी दल-बदलुओं को निराश किया है. हार्दिक पटेल और अल्पेश ठाकोर, जो कभी भाजपा को हिला देने वाले आंदोलनों के जोशीले चेहरे थे, अब खुद को उसी पार्टी के भीतर दरकिनार पाते हैं, जिसमें वे ऊंचे पद पर चढ़ने की उम्मीद लेकर शामिल हुए थे. अन्य कांग्रेस दलबदलुओं को भी बाहर रखे जाने के साथ, भाजपा ने एक स्पष्ट राजनीतिक संदेश दिया है-“सत्ता का मार्ग पार्टी की वफादारी से होकर गुजरता है, न कि पिछले गौरव से.” एक सोची-समझी रणनीति के तहत, भाजपा ने प्रमुख दलबदलुओं की महत्वाकांक्षाओं पर अंकुश लगाया है, यह संकेत देते हुए कि गुजरात की सत्तारूढ़ पार्टी के भीतर सत्ता की बागडोर वास्तव में किसके हाथों में है. हार्दिक पटेल और अल्पेश ठाकोर को बाहर रखा जाना एक व्यापक पैटर्न का हिस्सा है. राघवजी पटेल और बलवंतसिंह राजपूत, दो पूर्व कांग्रेसी जिन्होंने पहले मंत्री पद संभाले थे, उन्हें भी हटा दिया गया. भाजपा के लिए, यह वफादारों और नए चेहरों के लिए रास्ता बनाने के लिए पुरानी नियुक्तियों की एक साफ-सुथरी छंटनी थी.
हार्दिक पटेल की राजनीतिक यात्रा विशेष रूप से प्रतीकात्मक रही है. एक समय वह पाटीदार आरक्षण आंदोलन का नेतृत्व करने के बाद भाजपा को बाहर से चुनौती देने वाली ताकत थे. कांग्रेस और फिर भाजपा में शामिल होने के बाद, उन्होंने हाई-प्रोफाइल सोशल मीडिया अभियानों और जोशीले बयानों के माध्यम से खुद को अपने वीरमगाम निर्वाचन क्षेत्र में एक बढ़ती हुई शक्ति के रूप में स्थापित किया. हालांकि, भाजपा नेतृत्व ने इसे अलग तरह से देखा. उन्हें बाहर रखकर, पार्टी ने एक शांत लेकिन दृढ़ अनुस्मारक दिया कि आंदोलन का नेतृत्व मंत्रिमंडल की शक्ति की गारंटी नहीं देता है.
अल्पेश ठाकोर को लगा झटका भी उतना ही खुलासा करता है. आरक्षण आंदोलन के दौरान ओबीसी, एससी और एसटी समुदायों द्वारा समर्थित होने के बाद, उन्होंने कांग्रेस में शामिल होने से पहले खुद को एक सामुदायिक नेता के रूप में स्थापित किया. उन्होंने बाद में इस्तीफा दे दिया और भाजपा में शामिल हो गए, कथित तौर पर उपमुख्यमंत्री पद पर निशाना साध रहे थे.
हालांकि, जब मंत्रिमंडल सूची को अंतिम रूप दिया गया, तो वाव विधायक स्वरूपजी ठाकोर को शामिल किया गया. संदेश स्पष्ट था: बड़े जन आंदोलनों का नेतृत्व करने से भाजपा के भीतर मंत्री पद की गारंटी नहीं मिलती है.
सी.जे. चावड़ा की कहानी इस पैटर्न को पूरा करती है. कभी जगदीश ठाकोर और बलदेवजी ठाकोर के साथ कांग्रेस की “जेसीबी तिकड़ी” का हिस्सा रहे, उन्होंने अपनी विजयनगर जीत के बाद मंत्री पद की उम्मीद में एक सुरक्षित कांग्रेस पद छोड़कर भाजपा का दामन थामा. लेकिन क्षत्रिय समुदाय के कोटे के तहत चुने गए संजय सिंह महिदा के पक्ष में उनका नाम काट दिया गया. चावड़ा की मंत्री बनने की महत्वाकांक्षाएं अनिश्चित काल के लिए ठंडे बस्ते में डाल दी गई हैं.
इस फेरबदल की कांग्रेस से कड़ी आलोचना हुई है, नेताओं का तर्क है कि हार्दिक और अल्पेश, जिन्होंने कभी भाजपा के खिलाफ हजारों लोगों को लामबंद किया था, उन्होंने पक्ष बदलकर अपने समुदायों को धोखा दिया और अब उन्हें दरकिनार कर दिया गया है. हालांकि, भाजपा के भीतर, इस कदम को शक्ति अनुशासन का एक रणनीतिक दावा माना जाता है, जो इस बात पर जोर देता है कि पार्टी के प्रति वफादारी पिछली उपलब्धियों से अधिक महत्वपूर्ण है.
दिलीप सिंह क्षत्रिय की रिपोर्ट कहती है कि गुजरात के राजनीतिक परिदृश्य में, आंदोलनकारी जो कभी सत्ता प्रतिष्ठान के खिलाफ दहाड़ते थे, अब सत्ता के द्वार के बाहर खड़े हैं, इंतजार कर रहे हैं, देख रहे हैं, और भाजपा के खेल के कड़े नियम सीख रहे हैं.
उल्लेखनीय है कि राज्यपाल आचार्य देवव्रत ने कुल 26 मंत्रियों को शपथ दिलाई, जिनमें मुख्यमंत्री भूपेंद्र पटेल भी शामिल हैं. इनमें 19 नए चेहरे हैं. मतलब पिछली केबिनेट से सिर्फ 7 चेहरे मंत्री बनाए गए हैं. सभी ने भगवद गीता हाथ में लेकर शपथ ली.
दलित दमन
मध्यप्रदेश में दबंगों ने दलित युवक को पीटा और फिर उस पर पेशाब कर दी
मध्यप्रदेश के कटनी में बहोरीबंद थाना क्षेत्र के ग्राम मटवारा में अवैध खनन का विरोध करने पर एक दलित युवक के साथ अमानवीय और घृणित घटना सामने आई है. गांव के दबंगों ने न सिर्फ युवक की बेरहमी से पिटाई की, बल्कि उस पर पेशाब कर दी. “मूकनायक” के अनुसार, पीड़ित राजकुमार चौधरी ने बताया कि उसने अपने खेत के पास हो रहे अवैध खनन का विरोध किया था. इससे गुस्साए गांव के सरपंच रामानुज पांडेय, उनके बेटे पवन पांडेय, भतीजे सतीश पांडेय और राम बिहारी ने मिलकर उसे पकड़ लिया और लोहे की रॉड से बुरी तरह पीटा. बीच-बचाव करने आई पीड़ित की मां को भी बाल पकड़कर घसीटा और मारपीट की गई. पुलिस ने शुक्रवार को चारों के खिलाफ मामला दर्ज कर लिया. जानकारी के अनुसार, पीड़ित अपनी पत्नी और चार बच्चों के साथ मजदूरी और खेती करके जीवन यापन करता है. 2021-22 में ग्राम पंचायत में मेट था. मेट पद से हटाए जाने के बाद, राजकुमार ने ग्राम पंचायत मटवारा में कथित भ्रष्टाचार और घटिया निर्माण कार्यों के खिलाफ मोर्चा खोल दिया था.
सीएम हेल्पलाइन के माध्यम से शिकायतें दर्ज कराई थीं. ग्राम पंचायत मटवारा के बारे में पांच बिंदुओं पर आरटीआई के तहत जानकारी मांगी थी. जानकारी न मिलने पर उन्होंने हाईकोर्ट में याचिका भी दायर की, जिस पर कोर्ट ने पंचायती ग्रामीण विकास विभाग को नोटिस जारी किया. इसके अलावा, पीड़ित ने कार्यों की गुणवत्ता को लेकर करीब 15 बार सीएम हेल्पलाइन पर शिकायत दर्ज कराई थी.
फरियादी का आरोप है कि उनकी इन्हीं तमाम शिकायतों और हाल ही में सरपंच की ओर से कराए जा रहे अवैध मुरम उत्खनन के विरोध के कारण यह वारदात की गई. उन्होंने बताया कि 13 अक्टूबर को उन्हें रोका गया, उनके साथ गाली-गलौज और मारपीट की गई. पीड़ित के अनुसार, पिटाई के दौरान सरपंच रामानुज पांडेय के बेटे पवन पांडे ने उनके ऊपर पेशाब किया और जातिसूचक गालियां दीं.
अल-कायदा से संबंधों के आरोप में गिरफ्तार किया, हाईकोर्ट ने कहा- सिर्फ आरोप हिरासत को उचित नहीं ठहरा सकते
इलाहाबाद हाईकोर्ट की लखनऊ बेंच ने उस मुस्लिम युवक को जमानत दे दी, जिसे प्रतिबंधित आतंकवादी संगठन अल-कायदा से कथित संबंधों के आरोप में उत्तरप्रदेश एटीएस (आतंकवाद निरोधक दस्ता) ने गिरफ्तार किया था.
सहारनपुर के रहने वाले मोहम्मद कामिल को अक्टूबर 2022 में सात अन्य लोगों के साथ एटीएस की छापेमारी की एक श्रृंखला के दौरान गिरफ्तार किया गया था, जिसमें कई मुस्लिम पुरुषों पर “स्लीपर सेल” का हिस्सा होने का आरोप लगाया गया था. एटीएस ने दावा किया था कि यह समूह राज्य की राजधानी और अन्य शहरों में हमले की योजना बना रहा था. विस्तृत सुनवाई के बाद, न्यायमूर्ति राजेश सिंह चौहान और न्यायमूर्ति अवधेश कुमार चौधरी की दो न्यायाधीशों की बेंच ने कामिल को जमानत देने का आधार पाया. आरोपी के वकीलों ने अदालत में तर्क दिया कि एटीएस के आरोपों का समर्थन करने के लिए कोई ठोस सबूत नहीं है.
उन्होंने ज़ोर देकर कहा कि यह मामला कामिल को किसी भी अवैध गतिविधि से जोड़ने वाले भौतिक प्रमाण के बजाय, काफी हद तक अनुमान और अप्रमाणित दावों पर आधारित था. अभियोजन पक्ष आरोपी की आतंकवादी गतिविधि में किसी भी सीधे संलिप्तता या किसी भी आपत्तिजनक सामग्री के कब्जे को प्रदर्शित करने में विफल रहा, और इसलिए माननीय अदालत द्वारा डिफॉल्ट जमानत दी गई.
जमानत देते समय, अदालत ने टिप्पणी की कि बिना मुकदमे के लंबे समय तक हिरासत में रखना संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत स्वतंत्रता के मौलिक अधिकार का उल्लंघन है. अदालत ने यह भी कहा कि अपर्याप्त आधारों के बिना महज़ आरोप अनिश्चितकालीन हिरासत को उचित नहीं ठहरा सकते.
न्यूयॉर्क मेयर डिबेट में ममदानी की बढ़त बरकरार
न्यूयॉर्क शहर के मेयर पद के लिए हुई पहली चुनावी बहस तीखे व्यक्तिगत हमलों और गहरे वैचारिक मतभेदों का अखाड़ा बनी. इस टकराव भरे मुक़ाबले में डेमोक्रेटिक उम्मीदवार और सर्वे में सबसे आगे चल रहे ज़ोहरान ममदानी, निर्दलीय उम्मीदवार और पूर्व गवर्नर एंड्रयू कुओमो, और रिपब्लिकन उम्मीदवार कर्टिस स्लीवा के बीच जमकर नोकझोंक हुई. कुल मिलाकर, युवा उम्मीदवार ज़ोहरान ममदानी अपने प्रतिद्वंद्वियों के हमलों को सफलतापूर्वक झेलते हुए अपनी बढ़त बनाए रखने में कामयाब रहे, जबकि कुओमो कोई बड़ा प्रभाव छोड़ने में नाकामयाब दिखे.
बहस में सबसे आक्रामक रुख 33 वर्षीय ममदानी का रहा. उन्होंने कुओमो के अनुभव वाले हमलों का जवाब उनकी ईमानदारी पर सवाल उठाकर दिया. ममदानी ने कहा, “जो मेरे पास अनुभव में नहीं है, मैं उसकी भरपाई अपनी ईमानदारी से करता हूं. और जो आपके पास ईमानदारी में नहीं है, आप उसकी भरपाई कभी भी अनुभव से नहीं कर सकते.” उन्होंने शहर के आवास संकट को अपने किराए से जोड़ते हुए कहा, “अगर आपको लगता है कि इस शहर में समस्या मेरा कम किराया है, तो कुओमो को वोट दें. अगर आप जानते हैं कि समस्या आपका ज़्यादा किराया है, तो मुझे वोट दें.” हालांकि, इज़राइल-गाज़ा संघर्ष और सार्वजनिक सुरक्षा जैसे मुद्दों पर उन्हें बचाव की मुद्रा में भी रहना पड़ा.
वहीं, पूर्व गवर्नर एंड्रयू कुओमो को इस बहस से एक ‘ब्रेकआउट मोमेंट’ की उम्मीद थी, लेकिन वह ऐसा करने में नाकाम रहे. वह ममदानी को अनुभवहीन और अति-वामपंथी साबित करने की कोशिश करते रहे, लेकिन उन्हें अपना ज़्यादातर समय अपने कार्यकाल के दौरान लगे यौन उत्पीड़न के आरोपों और कोरोना से निपटने के तरीक़ों पर सफ़ाई देने में बिताना पड़ा. उनकी रणनीति पुरानी और अप्रभावी नज़र आई.
रिपब्लिकन उम्मीदवार कर्टिस स्लीवा ने ज़्यादातर हमले कुओमो पर ही किए, क्योंकि दोनों ही मध्यमार्गी और रूढ़िवादी वोटरों को लुभा रहे हैं. बहस में राष्ट्रपति ट्रंप से संबंधों पर भी चर्चा हुई. इस तीखी नोकझोंक के बीच किराने के बिल और नाश्ते के ऑर्डर जैसे कुछ हल्के-फुल्के पल भी आए, जिसने उम्मीदवारों के व्यक्तिगत जीवन की एक झलक पेश की.
कुल मिलाकर, इस बहस ने चुनावी समीकरण में कोई बड़ा बदलाव तो नहीं किया, लेकिन न्यूयॉर्क के भविष्य को लेकर तीनों उम्मीदवारों के बीच की गहरी वैचारिक खाई को साफ़ तौर पर उजागर कर दिया.
न्यूयॉर्क शहर के मेयर पद के लिए हुई पहली चुनावी बहस एक तीखा और टकराव भरा मुक़ाबला साबित हुई. इसमें डेमोक्रेटिक उम्मीदवार और सर्वे में सबसे आगे चल रहे ज़ोहरान ममदानी, निर्दलीय उम्मीदवार और पूर्व गवर्नर एंड्रयू कुओमो, और रिपब्लिकन उम्मीदवार कर्टिस स्लीवा के बीच जमकर व्यक्तिगत हमले हुए. 4 नवंबर को होने वाले चुनाव से पहले हुई इस बहस में इज़राइल-हमास युद्ध, राष्ट्रपति ट्रंप से संबंध और शहर में बढ़ती महंगाई जैसे गंभीर मुद्दों पर तीखी नोकझोंक देखने को मिली.
33 वर्षीय ममदानी ने आक्रामक रुख अपनाते हुए 67 वर्षीय कुओमो पर अनुभवहीनता के हमलों का जवाब उनकी ईमानदारी पर सवाल उठाकर दिया. ममदानी ने शहर के आवास संकट को अपने किराए के उदाहरण से जोड़ते हुए कहा, “अगर आपको लगता है कि इस शहर में समस्या मेरा कम किराया है, तो कुओमो को वोट दें. अगर आप जानते हैं कि समस्या आपका ज़्यादा किराया है, तो मुझे वोट दें.” वहीं, कुओमो ने ममदानी को अनुभवहीन और शहर चलाने के लिए बहुत ज़्यादा वामपंथी बताकर घेरने की कोशिश की, लेकिन उन्हें अपने कार्यकाल के दौरान लगे यौन उत्पीड़न के आरोपों और कोरोना महामारी से निपटने के तरीक़ों पर ज़्यादातर समय बचाव की मुद्रा में रहना पड़ा.
न्यूयॉर्क टाइम्स के लिए एमा जी. फिट्ज़सिमंस और माइकल गोल्ड की रिपोर्ट के अनुसार, न्यूयॉर्क शहर के मेयर पद के लिए हुई पहली आम चुनावी बहस एक कड़वा और जुझारू मुक़ाबला साबित हुई. गुरुवार को हुए इस कार्यक्रम में तीनों उम्मीदवारों ने एक-दूसरे पर तीखे व्यक्तिगत हमले किए, इज़राइल-हमास युद्ध पर जमकर असहमति जताई और अपने प्रतिद्वंद्वियों की साख पर सवाल उठाए.
डेमोक्रेटिक उम्मीदवार और सर्वे में सबसे आगे चल रहे ज़ोहरान ममदानी ने अपने मुख्य प्रतिद्वंद्वी, पूर्व गवर्नर एंड्रयू एम. कुओमो के साथ-साथ राष्ट्रपति ट्रंप के प्रति भी आक्रामक रुख अपनाया. उन्होंने यह दिखाने की कोशिश की कि वह ट्रंप के सामने मज़बूती से खड़े रहेंगे, जबकि कुओमो राष्ट्रपति के प्रति नरम हैं. वहीं, 67 वर्षीय कुओमो, जो सर्वेक्षणों में दूसरे स्थान पर हैं, ने 33 वर्षीय ममदानी पर एक मज़बूत हमला करने और खुद को एक अनुभवी विकल्प के रूप में पेश करने की कोशिश की. रिपब्लिकन उम्मीदवार 71 वर्षीय कर्टिस स्लीवा ने बोलने के लिए समय पाने के लिए संघर्ष किया और ममदानी तथा कुओमो दोनों पर निशाना साधा.
सर्वेक्षणों में मज़बूत बढ़त के बावजूद, ममदानी ने सुरक्षित खेल नहीं खेला. उन्होंने कुओमो पर आक्रामक हमला करते हुए तर्क दिया कि पूर्व गवर्नर शहर के आवास संकट को नहीं समझते और उनमें ईमानदारी की कमी है. ममदानी ने कुओमो द्वारा उनके रेंट-स्टेबिलाइज़्ड अपार्टमेंट पर किए गए हमलों पर ध्यान आकर्षित किया. इस पर ममदानी ने मतदाताओं से सीधी अपील की. “अगर आपको लगता है कि इस शहर में समस्या यह है कि मेरा किराया बहुत कम है, तो उन्हें (कुओमो को) वोट दें. अगर आप जानते हैं कि इस शहर में समस्या यह है कि आपका किराया बहुत ज़्यादा है, तो मुझे वोट दें.” जब कुओमो ने ममदानी के सीमित अनुभव की आलोचना की, तो ममदानी ने कुओमो के कार्यकाल पर सवाल उठाए. उन्होंने कहा, “जो मेरे पास अनुभव में नहीं है, मैं उसकी भरपाई अपनी ईमानदारी से करता हूं. और जो आपके पास ईमानदारी में नहीं है, आप उसकी भरपाई कभी भी अनुभव से नहीं कर सकते.”
ममदानी, जो इज़राइल के मुखर आलोचक हैं और शहर के पहले मुस्लिम मेयर बनने की दौड़ में हैं, ने गाज़ा संघर्ष पर अपने विचारों का बार-बार बचाव किया. उन्होंने कहा कि वह किसी भी ऐसे राज्य के अस्तित्व के अधिकार को मान्यता नहीं देंगे जो नस्ल या धर्म के आधार पर भेदभाव की व्यवस्था रखता हो. इस पर स्लीवा ने कहा, “यहूदियों को भरोसा नहीं है कि जब वे यहूदी विरोधी हमलों के शिकार होंगे तो आप उनके लिए खड़े रहेंगे.”
कुओमो को अपनी दावेदारी मज़बूत करने के लिए एक बड़े “ब्रेकआउट मोमेंट” की ज़रूरत थी, लेकिन ऐसा नहीं हो सका. वह ममदानी पर इज़राइल, अनुभवहीनता और अत्यधिक वामपंथी होने के पुराने आरोप ही दोहराते रहे. साथ ही, उन्हें अपने कार्यकाल के विवादास्पद पहलुओं, जैसे कि कोरोना महामारी के दौरान नर्सिंग होम में हुई मौतें और यौन उत्पीड़न के आरोपों पर अपना बचाव करने के लिए मजबूर होना पड़ा, जिससे उनका क़ीमती समय बर्बाद हुआ. स्लीवा ने कुओमो पर हमला करने में ज़्यादा दिलचस्पी दिखाई. उन्होंने कुओमो की तुलना उनके दिवंगत पिता मारियो कुओमो से करते हुए कहा, “मैं मारियो कुओमो को जानता था. आप मारियो कुओमो नहीं हैं.” यह एक राजनीतिक हक़ीक़त को दर्शाता है, क्योंकि स्लीवा और कुओमो दोनों ही मध्यमार्गी और रूढ़िवादी मतदाताओं के एक ही समूह को लुभाने की कोशिश कर रहे हैं. बहस के दौरान एक दिलचस्प मोड़ तब आया जब उम्मीदवारों ने अपने साप्ताहिक किराने के बिल का ख़ुलासा किया. तीनों ने लगभग 125 से 175 डॉलर के बीच का अनुमान लगाया. लेकिन उनके आवास की लागत में भारी अंतर था. स्लीवा ने अपना किराया लगभग 3,900 डॉलर बताया, ममदानी ने 2,300 डॉलर, जबकि कुओमो ने कहा कि वह लगभग 7,800 डॉलर का भुगतान करते हैं. यह शहर के आवास संकट की ज़मीनी हक़ीक़त को उजागर करता है.
पॉलिटिको के लिए निक रीसमैन और जेफ़ कोल्टिन की रिपोर्ट के अनुसार, न्यूयॉर्क शहर के मेयर पद की पहली चुनावी बहस में डेमोक्रेटिक उम्मीदवार ज़ोहरान ममदानी ने मज़बूत प्रदर्शन किया, जबकि एंड्रयू कुओमो और कर्टिस स्लीवा उन पर कोई बड़ा प्रभाव डालने में नाकाम रहे. ममदानी ने शहर की महंगाई और आवास संकट के अपने मुख्य एजेंडे को प्रभावी ढंग से पेश किया और कोई बड़ी ग़लती नहीं की. 33 वर्षीय ममदानी ने इस बहस में साबित कर दिया कि वह एक बेहतरीन संवादकर्ता क्यों हैं. सर्वेक्षणों में दोहरे अंकों की बढ़त के साथ, उन्हें बस कोई बड़ी ग़लती करने से बचना था, और वह इसमें सफल रहे. उन्होंने अपने प्रतिद्वंद्वियों के हमलों का सहजता से सामना किया और अपने मुख्य मुद्दों पर केंद्रित रहे. कुओमो को ममदानी के ख़िलाफ़ एक “ब्रेकआउट मोमेंट” की सख़्त ज़रूरत थी, लेकिन वह ऐसा करने में असफल रहे. एक अंडरडॉग (कमज़ोर उम्मीदवार) के रूप में चुनाव लड़ना कुओमो के लिए हमेशा मुश्किल रहा है. वह तथ्यों को शुष्क तरीक़े से पेश करते रहे और उनके ज़्यादातर हमले वही पुराने थे जो वह प्राइमरी चुनाव में भी इस्तेमाल कर चुके थे और जो तब भी काम नहीं आए थे. रिपब्लिकन उम्मीदवार स्लीवा ने राष्ट्रपति ट्रंप के साथ काम करने का वादा किया. यह एक रणनीतिक क़दम है, क्योंकि कुओमो उनके रिपब्लिकन समर्थकों को अपनी ओर खींचने की कोशिश कर रहे हैं और स्लीवा को MAGA (मेक अमेरिका ग्रेट अगेन) समर्थकों को अपने साथ रखने की ज़रूरत है. वह जानते हैं कि ममदानी और कुओमो ट्रंप से नफ़रत करने वाले डेमोक्रेटिक मतदाताओं को खोने का जोखिम नहीं उठा सकते. पूर्व गवर्नर ने बहस का ज़्यादातर समय अपने बचाव में बिताया. उन्हें बेघर लोगों के लिए फ़ंडिंग, मानसिक स्वास्थ्य कार्यक्रमों और अपने कार्यकाल के दौरान लगे यौन उत्पीड़न के आरोपों पर हमलों का जवाब देना पड़ा. इन सबमें उनका क़ीमती समय बर्बाद हो गया, जिसका उपयोग वह ममदानी के ख़िलाफ़ एक मज़बूत तर्क बनाने के लिए कर सकते थे. हालांकि ममदानी का प्रदर्शन कुल मिलाकर मज़बूत रहा, लेकिन सार्वजनिक सुरक्षा और इज़राइल जैसे मुद्दों पर उनकी कमज़ोरियां भी उजागर हुईं. पुलिस कदाचार की जांच करने वाले पैनल पर बात करते समय वह असहज दिखे. इन मुद्दों पर कुओमो ज़्यादा मज़बूत नज़र आते हैं और यह ममदानी के लिए आगे भी एक चुनौती बनी रह सकती है.
ट्रंप को साधने की पुतिन की रणनीति: चापलूसी और बिजनेस डील का दांव
न्यूयॉर्क टाइम्स के लिए एंटोन ट्रॉयनोव्स्की की रिपोर्ट के अनुसार, राष्ट्रपति ट्रंप के साथ हफ्तों से बढ़ते तनाव के बाद, रूस के राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन ने फोन उठाया. क्रेमलिन ने कहा कि गुरुवार को दोनों नेताओं के बीच यह बातचीत रूस की पहल पर हुई थी. यह एक तरह से इस बात की स्वीकृति है कि यूक्रेन के किसी भी युद्ध क्षेत्र जितनी ही महत्वपूर्ण प्राथमिकता ट्रंप को शांत रखना है.
भले ही पुतिन यूक्रेनी शहरों पर बमबारी कर रहे हैं और देश के पूर्व में एक भीषण युद्ध लड़ रहे हैं, लेकिन उन्होंने ट्रंप की चापलूसी करने, रूसी-अमेरिकी व्यापारिक सौदों की संभावना दिखाने और यह संदेश देने में दर्जनों घंटे लगाए हैं कि रूस अपनी आक्रामकता को समाप्त करने के लिए बातचीत को तैयार है. इस रणनीति ने पुतिन को रूस के युद्ध प्रयासों पर अंकुश लगाए बिना अमेरिकी राष्ट्रपति द्वारा बार-बार दी जाने वाली समय-सीमा और प्रतिबंध की धमकियों से बचने में मदद की है.
उदाहरण के लिए, जून में, जब ट्रंप के कुछ रिपब्लिकन सहयोगी रूस के ख़िलाफ़ प्रतिबंधों के लिए दबाव डाल रहे थे, तब पुतिन ने ट्रंप को जन्मदिन की बधाई देने के लिए फोन किया था. ट्रंप ने कहा कि पुतिन ने ‘बहुत अच्छी तरह’ से व्यवहार किया, और वे प्रतिबंध कभी नहीं लगे. इसी तरह अगस्त में, जब ट्रंप पुतिन को युद्ध समाप्त करने के लिए 12-दिन की समय सीमा लागू करने की धमकी दे रहे थे, तो रूसी नेता ने व्हाइट हाउस के दूत और ट्रंप के करीबी दोस्त स्टीव विटकॉफ की तीन घंटे की बैठक के लिए मेज़बानी की, जिसने अलास्का में दोनों राष्ट्रपतियों के शिखर सम्मेलन के लिए मंच तैयार किया.
इस हफ़्ते, ग़ाज़ा में हुए संघर्ष-विराम ने पुतिन को ट्रंप को फोन करने और उनकी प्रशंसा करने का एक नया बहाना दे दिया. हालांकि, पुतिन के लिए ज़्यादा प्रासंगिक यह तथ्य था कि यूक्रेन के राष्ट्रपति वलोडिमिर ज़ेलेंस्की शुक्रवार को व्हाइट हाउस का दौरा करने वाले थे. पुतिन के प्रवक्ता, दिमित्री पेसकोव ने शुक्रवार को कहा, “हमने राष्ट्रपति ट्रंप की मध्य पूर्व की सफल यात्रा के तुरंत बाद फोन पर बातचीत का प्रस्ताव रखा. राष्ट्रपति पुतिन का पहला विचार, निश्चित रूप से, ट्रंप को ऐसी सफलता पर बधाई देना था.”
यह इस साल पुतिन की अमेरिकी नेता के साथ आठवीं फोन पर बातचीत थी. क्रेमलिन के आधिकारिक बयानों के अनुसार, पुतिन ने इस साल ट्रंप और विटकॉफ के साथ लगभग उतनी ही बैठकें और कॉल की हैं, जितनी उन्होंने अपने सबसे करीबी अंतरराष्ट्रीय सहयोगी, बेलारूस के राष्ट्रपति अलेक्जेंडर जी. लुकाशेंको के साथ की हैं.
क्रेमलिन न केवल ट्रंप की प्रशंसा करके, बल्कि व्यापारिक सौदों की पेशकश करके भी उन्हें लुभाने के लिए और अधिक रचनात्मक होने की कोशिश कर रहा है. फरवरी में, पुतिन ने कहा था कि अमेरिकी कंपनियां साइबेरिया में एल्यूमीनियम उत्पादन विकसित करने और रूसी कब्जे वाले यूक्रेन में दुर्लभ पृथ्वी धातुओं के खनन में मदद कर सकती हैं. गुरुवार को, उनके एक वरिष्ठ सहयोगी, किरिल दिमित्रिज ने एक्स पर पोस्ट किया कि एलन मस्क की टनलिंग कंपनी पूर्वी रूस और अलास्का के बीच एक “पुतिन-ट्रंप सुरंग” बना सकती है. गुरुवार की कॉल के बाद ट्रंप ने सोशल मीडिया पर पोस्ट किया, “जब यूक्रेन के साथ युद्ध खत्म हो जाएगा, तो हमने रूस और संयुक्त राज्य अमेरिका के बीच व्यापार के बारे में भी बहुत समय बात की.”
क्रेमलिन के दृष्टिकोण से, यह आकर्षण रणनीति प्रयास के लायक रही है. ऐसा लगता है कि यह ट्रंप को यूक्रेन के लिए अमेरिकी सहायता में उल्लेखनीय वृद्धि करने से रोकने में सफ़ल रही है. इसका एक नया संकेत गुरुवार की कॉल के बाद मिला, जब ट्रंप ने इस बारे में संदेह व्यक्त किया कि क्या वह यूक्रेन को शक्तिशाली टॉमहॉक क्रूज मिसाइलें प्रदान करने के इच्छुक होंगे. कार्नेगी रशिया यूरेशिया सेंटर के निदेशक अलेक्जेंडर गाबुएव ने कहा, “पुतिन ने ट्रंप के अहंकार को कैसे सहलाना है, यह सीखने में कोई समय बर्बाद नहीं किया है.” उन्होंने भविष्यवाणी की कि जब तक बुडापेस्ट शिखर सम्मेलन की तैयारी होगी, तब तक संयुक्त राज्य अमेरिका यूक्रेन को दी जाने वाली महत्वपूर्ण सहायता रोक देगा. “भले ही इससे रूस को एक महीने का समय मिल जाए - यह पहले से ही एक अच्छा निवेश है.”
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