18/10/2025: बिहार में बढ़ता वंशवाद | मुस्लिमों की नुमाइंदगी घटी | अब बस्तर का क्या होगा? | सम्राट चौधरी शक के घेरे में | लद्दाख में कर्फ्यू, इंटरनेट बंद | गरीब रथ में आग
‘हरकारा’ यानी हिंदी भाषियों के लिए क्यूरेटेड न्यूजलेटर. ज़रूरी ख़बरें और विश्लेषण. शोर कम, रोशनी ज़्यादा.
निधीश त्यागी, साथ में राजेश चतुर्वेदी, गौरव नौड़ियाल, फ़लक अफ़शां
आज की सुर्खियां
बिहार चुनाव में महागठबंधन में सीटों पर रार, कई जगह फ्रेंडली फाइट.
बिहार की राजनीति में परिवारवाद हावी, 96 जनप्रतिनिधि राजनीतिक वंश से.
उपमुख्यमंत्री सम्राट चौधरी उम्र और शिक्षा को लेकर विवादों में घिरे.
जोकीहाट में फिर आमने-सामने तस्लीमुद्दीन के दो बेटे सरफराज और शाहनवाज.
बिहार चुनाव में मुस्लिम उम्मीदवारों की संख्या आबादी के अनुपात में कम.
माले ने 20 उम्मीदवारों की सूची जारी की, सभी मौजूदा विधायकों को मिला टिकट.
बिहार में विपक्ष ने बढ़त गंवाई, अमित शाह ने संभाला मोर्चा.
बिहार में एनडीए को झटका, लोजपा उम्मीदवार सीमा सिंह का नामांकन खारिज.
दिल्ली विश्वविद्यालय के प्रोफेसर को एबीवीपी नेता ने थप्पड़ मारा.
लद्दाख में शांति मार्च से पहले कर्फ्यू और इंटरनेट बंद.
गरीब रथ एक्सप्रेस के तीन एसी कोच में आग लगी, कोई हताहत नहीं.
क्या नक्सलियों का जाना बस्तर के सवालों का खत्म हो जाना है?
फर्जी खबर छापने के आरोप में राजस्थान पुलिस ने दो पत्रकार गिरफ्तार किए.
सुप्रीम कोर्ट ने सड़क के लिए 400 साल पुरानी मस्जिद के आंशिक विध्वंस को सही ठहराया.
फैक्ट चेक, बीजेपी का दावा झूठा, नीदरलैंड ने आरएसएस पर डाक टिकट जारी नहीं किया.
पाकिस्तान के हमलों में 10 मरे, अफगानिस्तान ने टी20 श्रृंखला से नाम वापस लिया.
गुजरात में मंदिर विवाद पर सांप्रदायिक झड़प, 8 घायल, 100 से ज्यादा वाहन तोड़े.
पुणे के कॉलेज ने दलित छात्र के प्रमाण पत्र सत्यापित करने से इनकार किया, नौकरी गई.
जेल में बंद शरजील इमाम ने बिहार चुनाव लड़ने का फैसला वापस लिया.
छत्तीसगढ़ में 210 माओवादियों का सबसे बड़ा सामूहिक आत्मसमर्पण.
दलित गायक सुब्बैया के जीवन और संगीत पर एक प्रेरक वृत्तचित्र बना.
बिहार चुनाव 2025:
महागठबंधन में सीटों पर रार और ‘फ्रेंडली फाइट’, परिवारवाद और आरोपों के बीच उम्मीदवार तय
बिहार विधानसभा चुनाव की तारीखों के ऐलान के साथ ही राजनीतिक सरगर्मियां अपने चरम पर हैं. एक तरफ जहां NDA गठबंधन एकजुटता का दावा कर रहा है, वहीं दूसरी ओर INDIA गठबंधन में सीट बंटवारे को लेकर खींचतान और असमंजस की स्थिति बनी हुई है. नामांकन के आखिरी दिन तक सीटों का औपचारिक ऐलान न हो पाना गठबंधन की अंदरूनी कलह को उजागर कर रहा है, जिसका नतीजा यह है कि कई सीटों पर सहयोगी दल ही एक-दूसरे के खिलाफ ‘फ्रेंडली फाइट’ में उतर गए हैं. इस चुनावी गहमागहमी के बीच उम्मीदवार चयन में परिवारवाद, नेताओं पर लगे व्यक्तिगत आरोप और सामाजिक समीकरणों को साधने की चुनौती जैसे मुद्दे भी हावी हैं. उपमुख्यमंत्री सम्राट चौधरी पर लगे आरोपों से लेकर सीमांचल में एक ही परिवार के दो भाइयों के बीच की राजनीतिक लड़ाई और मुस्लिम उम्मीदवारों को कम टिकट मिलने की बहस ने चुनावी माहौल को और गरमा दिया है. पेश हैं बिहार की चुनावी राजनीति से जुड़ी आज की बड़ी खबरें.
वंशवाद का बढ़ता दंश
इंडियन एक्सप्रेस की रिपोर्ट के अनुसार, बिहार की राजनीति में परिवारवाद की जड़ें काफी गहरी हैं. एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स (ADR) के एक विश्लेषण से यह बात सामने आई है कि राज्य के कुल 96 विधायक, विधान पार्षद और सांसद राजनीतिक वंशवादी पृष्ठभूमि से आते हैं. यह आंकड़ा राज्य के कुल जनप्रतिनिधियों का लगभग एक चौथाई है. राष्ट्रीय स्तर पर देखें तो देश के सभी मौजूदा विधायकों में से 21% राजनीतिक परिवारों से हैं. उत्तर प्रदेश में सबसे अधिक 141 वंशवादी विधायक हैं, लेकिन अनुपात के मामले में हरियाणा सबसे आगे है, जहां 35% जनप्रतिनिधि राजनीतिक परिवारों से हैं.
बिहार में वंशवादी नेताओं की संख्या 96 है, जो देश में तीसरी सबसे ज़्यादा है, और राज्य के कुल जनप्रतिनिधियों में इनकी हिस्सेदारी 27% है. राज्य के 40 लोकसभा सांसदों में से 15 (37.5%) की पृष्ठभूमि वंशवादी है. वहीं, 243 सदस्यों वाली विधानसभा में 66 विधायक (27%) और 75 सदस्यों वाली विधान परिषद में 16 MLC (21%) राजनीतिक परिवारों से आते हैं.
पार्टियों के हिसाब से देखें तो लालू प्रसाद के नेतृत्व वाले राष्ट्रीय जनता दल (RJD) और नीतीश कुमार के नेतृत्व वाले जनता दल (यूनाइटेड) में वंशवादी नेताओं की संख्या सबसे अधिक है. राजद के 100 मौजूदा जनप्रतिनिधियों में से 31 और जदयू के 81 में से 25 वंशवादी पृष्ठभूमि से हैं, जो दोनों पार्टियों के लिए 31% का आंकड़ा है. चिराग पासवान की लोक जनशक्ति पार्टी (रामविलास) के आठ में से चार और जीतन राम मांझी की हिंदुस्तानी अवाम मोर्चा (सेक्युलर) के छह में से तीन विधायक वंशवादी हैं.
राष्ट्रीय पार्टियों की बात करें तो बिहार में भाजपा के कुल 124 जनप्रतिनिधियों में से 21 (17%) और कांग्रेस के 45 में से 13 (29%) नेता वंशवादी हैं. लैंगिक आंकड़ों के अनुसार, बिहार में वंशवादी नेताओं में 26% महिलाएं हैं, जो 23% के राष्ट्रीय औसत से थोड़ा बेहतर है.
उम्र और शिक्षा को लेकर उठे सवालों से घिरे भाजपा के उपमुख्यमंत्री सम्राट चौधरी
बिहार के उपमुख्यमंत्री और भाजपा के वरिष्ठ नेता सम्राट चौधरी अपनी उम्र और शैक्षणिक योग्यता को लेकर उठे विवादों के कारण चुनावी गर्मी के बीच घिर गए हैं. यह मामला तब तूल पकड़ा जब चुनावी रणनीतिकार प्रशांत किशोर ने उन पर गंभीर आरोप लगाए और उनके चुनावी हलफनामे में दी गई जानकारी ने इन सवालों को और हवा दे दी. प्रशांत किशोर का आरोप है कि चौधरी ने 1995 में तारापुर में हुए एक मामले में जमानत पाने के लिए अपनी उम्र “फर्जी” तरीके से कम बताई थी, ताकि खुद को नाबालिग साबित कर सकें. किशोर का दावा है कि 1995 में चौधरी की उम्र 26 साल थी. वहीं, चौधरी ने अपने मौजूदा हलफनामे में अपनी उम्र 56 साल बताई है, जिससे 1995 में उनकी उम्र 26 साल ही बनती है.
उनकी शिक्षा को लेकर भी सवाल उठाए गए हैं. उन्होंने अपने हलफनामे में ‘कैलिफोर्निया पब्लिक यूनिवर्सिटी’ से डी.लिट की डिग्री और कामराज यूनिवर्सिटी से ‘PFC’ करने का उल्लेख किया है, लेकिन यह नहीं बताया कि ये कोर्स कब पूरे हुए. इस मामले पर सम्राट चौधरी ने इंडियन एक्सप्रेस को बताया, “मैंने डी.लिट की डिग्री के लिए कभी पढ़ाई नहीं की. यह एक मानद उपाधि है. मैंने प्री-फाउंडेशन कोर्स (PFC) भी किया है, जिसे कुछ मामलों में 10वीं के बराबर माना जाता है. जहां तक तारापुर केस की बात है, तो मेरे खिलाफ कोई केस नहीं है.”
हालांकि, इस मामले पर अब राजद और जदयू भी हमलावर हैं. राजद प्रवक्ता सुबोध कुमार ने कहा कि चौधरी को इन विवादों पर जवाब देना चाहिए. वहीं, जदयू के मुख्य प्रवक्ता नीरज कुमार ने भी कहा कि चौधरी को अपनी उम्र और शिक्षा को लेकर स्थिति साफ करनी चाहिए. भाजपा के अंदर भी कुछ नेता मानते हैं कि चौधरी को इन आरोपों का स्पष्ट रूप से जवाब देना चाहिए, ताकि विपक्ष को बेवजह का मुद्दा न मिले. सम्राट चौधरी बिहार में भाजपा के लिए एक प्रमुख कुशवाहा चेहरा हैं और उनका राजनीतिक करियर उनके पिता शकुनी चौधरी की विरासत से भी जुड़ा है, जो एक बड़े कुशवाहा नेता माने जाते थे.
सात सीटों पर राजद, कांग्रेस और वीआईपी के बीच ‘फ्रेंडली फाइट’
द हिंदू की रिपोर्ट के अनुसार, बिहार विधानसभा चुनाव के पहले चरण के लिए नामांकन समाप्त हो गया है, लेकिन इंडिया गठबंधन में सीट-बंटवारे पर अब तक कोई आधिकारिक घोषणा नहीं हुई है. इस असमंजस के बीच गठबंधन के घटक दलों, खासकर राजद, कांग्रेस और विकासशील इंसान पार्टी (वीआईपी) ने अपने-अपने उम्मीदवारों को टिकट बांट दिए हैं, जिसके कारण कम से कम सात सीटों पर इन पार्टियों के उम्मीदवार एक-दूसरे के खिलाफ ही मैदान में उतर गए हैं. गठबंधन के नेता इसे ‘फ्रेंडली फाइट’ बता रहे हैं, लेकिन सत्ता पक्ष इसे गठबंधन के भीतर की फूट के तौर पर पेश कर रहा है.
रिपोर्ट के अनुसार, वैशाली में राजद ने अजय कुमार कुशवाहा को मैदान में उतारा है तो कांग्रेस ने संजीव कुमार को. इसी तरह तारापुर में राजद के अरुण शाह का मुकाबला वीआईपी के सकलदेव बिंद से है. बछवाड़ा में सीपीआई के अवधेश कुमार राय और कांग्रेस के शिव प्रकाश गरीब दास आमने-सामने हैं. गौरा-बौरम में वीआईपी प्रमुख मुकेश सहनी ने अपने छोटे भाई संतोष सहनी को टिकट दिया है, जबकि राजद ने अफजल अली खान को उम्मीदवार बनाया है. लालगंज, राजापाकर और रोसेरा जैसी सीटों पर भी गठबंधन के दलों के बीच सीधा मुकाबला देखने को मिल रहा है.
इस बीच, वीआईपी प्रमुख मुकेश सहनी ने घोषणा की है कि वह खुद यह विधानसभा चुनाव नहीं लड़ेंगे और अपना पूरा ध्यान पार्टी के उम्मीदवारों को जिताने पर केंद्रित करेंगे. उन्होंने कहा कि उनकी दिलचस्पी राज्यसभा जाने में नहीं है, बल्कि वह बिहार के उपमुख्यमंत्री बनना चाहते हैं. दूसरी ओर, कांग्रेस ने चुनाव के लिए अपने 48 उम्मीदवारों की पहली सूची के साथ 40 स्टार प्रचारकों की सूची भी जारी की है, जिसमें मल्लिकार्जुन खड़गे, राहुल गांधी और सोनिया गांधी जैसे बड़े नाम शामिल हैं.
तस्लीमुद्दीन के बेटे एक बार फिर आमने-सामने
इंडियन एक्सप्रेस की रिपोर्ट के अनुसार, सीमांचल के कद्दावर नेता रहे मरहूम मोहम्मद तस्लीमुद्दीन के परिवार में राजनीतिक विरासत की जंग एक बार फिर तेज हो गई है. उनके दो बेटे, सरफराज आलम और शाहनवाज आलम, अररिया की जोकीहाट विधानसभा सीट पर एक बार फिर आमने-सामने हैं. राजद से टिकट न मिलने से नाराज बड़े बेटे सरफराज आलम ने जन सुराज का दामन थाम लिया है, जबकि छोटे बेटे शाहनवाज आलम को राजद ने अपना उम्मीदवार बनाया है. यह सीट तस्लीमुद्दीन ने पांच बार जीती थी और इसे उनके परिवार का गढ़ माना जाता है.
इस बार जोकीहाट का मुकाबला काफी दिलचस्प हो गया है. जदयू ने यहां से अपने अनुभवी नेता मंजर आलम को मैदान में उतारा है, और AIMIM के भी अपना उम्मीदवार उतारने की संभावना है. ऐसे में मुस्लिम वोटों का चार हिस्सों में बंटना लगभग तय माना जा रहा है. 2020 के विधानसभा चुनाव में भी दोनों भाइयों के बीच मुकाबला हुआ था, जब शाहनवाज ने AIMIM के टिकट पर राजद उम्मीदवार सरफराज को 6,000 से अधिक वोटों के मामूली अंतर से हराया था. हालांकि, बाद में शाहनवाज AIMIM के उन चार विधायकों में शामिल थे जो राजद में चले गए और अब वह मौजूदा राजद विधायक हैं.
तस्लीमुद्दीन ने इस क्षेत्र पर अपनी मजबूत पकड़ बनाई थी और वह केंद्र में मंत्री भी रहे. उनके निधन के बाद उनके बेटे सरफराज ने भी राजनीति में अपनी जगह बनाई. हालांकि, दोनों भाइयों के बीच राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं को लेकर तनाव बढ़ता गया. राजद प्रवक्ता मृत्युंजय तिवारी ने कहा कि सरफराज के पार्टी छोड़ने से कोई फर्क नहीं पड़ेगा, क्योंकि वह पहले भी दल बदलते रहे हैं. वहीं, राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि इस बार लड़ाई कांटे की होगी और हो सकता है कि यह सीट तस्लीमुद्दीन परिवार के हाथ से निकल जाए.
आबादी 17.7%, लेकिन उम्मीदवार कुछ ही: बिहार चुनाव में मुस्लिम प्रतिनिधित्व अभी भी कम
द हिंदू की रिपोर्ट के अनुसार, बिहार की कुल आबादी में 17.7% हिस्सेदारी रखने वाले मुस्लिम समुदाय को विधानसभा चुनाव में राजनीतिक दलों से आनुपातिक प्रतिनिधित्व नहीं मिल पा रहा है. राज्य की 243 विधानसभा सीटों में से अब तक किसी भी प्रमुख दल ने मुस्लिम उम्मीदवारों को बड़ी संख्या में टिकट नहीं दिया है. प्रशांत किशोर की नई नवेली जन सुराज पार्टी ही एकमात्र अपवाद है, जिसने 40 मुस्लिम उम्मीदवार उतारने का वादा किया है और अब तक 21 के नामों की घोषणा कर चुकी है.
यह स्थिति तब है जब बिहार की 87 विधानसभा सीटों पर मुस्लिम आबादी 20% से अधिक है और वे किसी भी उम्मीदवार की जीत-हार में निर्णायक भूमिका निभा सकते हैं. सीमांचल के जिलों कटिहार, पूर्णिया और अररिया में मुस्लिम आबादी 40% तक है, जबकि किशनगंज में यह 68% से अधिक है. इसके बावजूद, सत्तारूढ़ जदयू ने 101 सीटों पर अब तक केवल चार मुस्लिम उम्मीदवारों को टिकट दिया है. भाजपा ने अपनी 101 सीटों में से किसी पर भी मुस्लिम उम्मीदवार नहीं उतारा है. वहीं, कांग्रेस ने अब तक चार मुस्लिम उम्मीदवारों की घोषणा की है. एनडीए के सहयोगी दलों में लोजपा (रामविलास) ने एक मुस्लिम उम्मीदवार को मैदान में उतारा है.
ऐतिहासिक रूप से भी बिहार में मुस्लिमों का चुनावी प्रतिनिधित्व हमेशा कम रहा है. 1985 को छोड़कर विधानसभा में मुस्लिम विधायकों की संख्या कभी भी 10% से अधिक नहीं हुई. राज्य को अब तक केवल एक मुस्लिम मुख्यमंत्री, अब्दुल गफूर मिले हैं, जिनका कार्यकाल दो साल से भी कम का रहा. 2020 के पिछले चुनाव में केवल 19 मुस्लिम विधायक चुने गए थे. मुस्लिम समुदाय के भीतर भी, सबसे बड़ी आबादी वाले पसमांदा मुसलमानों का प्रतिनिधित्व और भी खराब रहा है. पसमांदा मुस्लिम नेता अली अनवर ने उम्मीद जताई कि कांग्रेस और राजद जैसी पार्टियां आबादी के हिसाब से हिस्सेदारी देंगी, लेकिन विश्लेषक सिराज अनवर का मानना है कि मुस्लिम समुदाय राजनीतिक दलों के लिए केवल वोट बैंक बनकर रह गया है.
बिहार की जले सीट पर कांग्रेस का दांव, राजद नेता ऋषि मिश्रा को बनाया उम्मीदवार
दरभंगा जिले की जले विधानसभा सीट पर एक दिलचस्प राजनीतिक घटनाक्रम देखने को मिला है. कांग्रेस ने पूर्व विधायक ऋषि मिश्रा को अपना उम्मीदवार घोषित किया है, जिन्होंने तीन साल पहले पार्टी छोड़कर राजद का दामन थाम लिया था. यह घोषणा उस दिन हुई जब मिश्रा ने पहले चरण के लिए नामांकन के आखिरी दिन कांग्रेस उम्मीदवार के तौर पर अपना पर्चा दाखिल किया. ऋषि मिश्रा बिहार के एक प्रसिद्ध राजनीतिक परिवार से आते हैं. उनके दादा ललित नारायण मिश्रा इंदिरा गांधी सरकार में एक प्रभावशाली मंत्री थे, जबकि उनके दादा के भाई जगन्नाथ मिश्रा बिहार के मुख्यमंत्री रह चुके हैं.
INDIA गठबंधन के सूत्रों के अनुसार, जले सीट पर एक राजद नेता को कांग्रेस के टिकट पर उतारने का फैसला दोनों सहयोगी दलों के बीच एक “समझौते” के तहत लिया गया है. चुनाव की घोषणा के बाद से ही दोनों पार्टियों के बीच सीट बंटवारे को लेकर मतभेद चल रहे थे. सूत्रों का यह भी कहना है कि इस सीट के लिए कांग्रेस की मूल पसंद मोहम्मद नौशाद थे, लेकिन कुछ महीने पहले एक विवाद के कारण उनका नाम हटा दिया गया.
इस बीच, कांग्रेस के वरिष्ठ नेता तारिक अनवर ने पार्टी द्वारा उम्मीदवारों के चयन के तरीके पर आश्चर्य व्यक्त किया है. उन्होंने कहा, “कोई एक समान मानदंड नहीं दिख रहा है. कई उम्मीदवार जो पिछले चुनावों में कुछ सौ वोटों के अंतर से हार गए थे, उन्हें हटा दिया गया है, जबकि कुछ अन्य जो बुरी तरह से हारे थे, उन्हें टिकट दिया गया है.” उन्होंने यह भी कहा कि गठबंधन को जल्द से जल्द सीट बंटवारे और उम्मीदवारों की औपचारिक घोषणा करनी चाहिए ताकि भ्रम से बचा जा सके.
माले ने 20 उम्मीदवारों की सूची जारी की, सभी 12 मौजूदा विधायकों को फिर से मैदान में उतारा
द न्यू इंडियन एक्सप्रेस की रिपोर्ट के अनुसार, बिहार में INDIA ब्लॉक की एक प्रमुख घटक, सीपीआई (एमएल) लिबरेशन ने आगामी बिहार विधानसभा चुनावों के लिए अपने 20 उम्मीदवारों की सूची जारी कर दी है. पार्टी ने अपने सभी 12 मौजूदा विधायकों पर फिर से भरोसा जताते हुए उन्हें दोबारा मैदान में उतारा है. जिन सीटों पर पार्टी को 2020 के विधानसभा चुनाव में हार का सामना करना पड़ा था, वहां नए चेहरों को मौका दिया गया है. पिछले विधानसभा चुनाव में, वामपंथी दल ने 19 सीटों पर चुनाव लड़ा था और उनमें से 12 पर जीत हासिल की थी.
उम्मीदवारों की सूची जारी करने के बाद सीपीआई (एमएल) लिबरेशन के महासचिव दीपांकर भट्टाचार्य ने कहा, “हमने गठबंधन की भावना को बनाए रखा है. हालांकि इस बार हम अधिक सीटों के हकदार थे, लेकिन हमने अंततः केवल 20 विधानसभा क्षेत्रों में चुनाव लड़ने का फैसला किया. हम इस बार कम से कम 24 सीटों पर चुनाव लड़ना चाहते थे, लेकिन ऐसा नहीं हो सका.” उन्होंने विश्वास जताया कि ‘महागठबंधन’ भारी बहुमत से चुनाव जीतेगा क्योंकि लोग एनडीए सरकार से तंग आ चुके हैं.
पार्टी के जिन प्रमुख विधायकों को फिर से नामांकित किया गया है, उनमें अमरजीत कुशवाहा, सत्यदेव राम, गोपाल रवि दास, संदीप सौरव और महबूब आलम शामिल हैं. पार्टी ने बताया कि जिन सीटों पर पहले चरण में मतदान होना है, वहां के सभी उम्मीदवारों ने पहले ही अपना नामांकन पत्र दाखिल कर दिया है.
बढ़त गंवाता विपक्ष और मोर्चा संभालते अमित शाह
एक वक़्त था, जब बिहार की राजनीति में सरगर्मी की वजह राहुल गांधी की ‘भारत जोड़ो न्याय यात्रा’ और तेजस्वी यादव की ‘जन विश्वास यात्रा’ थी. वोटर लिस्ट में गड़बड़ी और वोट चोरी के आरोप सुर्ख़ियों में थे. ऐसा लग रहा था कि ‘इंडिया’ गठबंधन यानी महागठबंधन ने चुनाव से पहले ही एक मज़बूत मनोवैज्ञानिक बढ़त बना ली है. लेकिन जैसे ही चुनावी बिगुल बजा और टिकट बंटवारे की असल राजनीति शुरू हुई, यह सारी बढ़त रेत की तरह हाथ से फिसलती नज़र आ रही है.
पटना के वरिष्ठ पत्रकार समी अहमद के साथ हरकारा डीपडाइव की बातचीत इस बात की परतें खोलती है कि कैसे महागठबंधन ने एक सुनहरा मौक़ा लगभग गंवा दिया है. सबसे बड़ी समस्या सीट बंटवारे को लेकर मची अफ़रातफ़री है. नामांकन का पहला चरण पूरा हो चुका है, लेकिन गठबंधन अभी तक यह साफ़ नहीं कर पाया है कि कौन सी पार्टी कितनी सीटों पर लड़ेगी. उम्मीदवार सिंबल लेकर नामांकन कर रहे हैं और पार्टियों के बीच समन्वय का पूरी तरह अभाव है. बछवाड़ा सीट इसका सटीक उदाहरण है, जहां कांग्रेस और सीपीआई, दोनों ने अपने उम्मीदवार खड़े कर दिए, जिससे गठबंधन की एकता पर गंभीर सवाल खड़े हो गए.
इस अस्त-व्यस्त तस्वीर के ठीक उलट, एनडीए के खेमे में भी सिर-फुटौव्वल थी, लेकिन वहां ‘डैमेज कंट्रोल’ के लिए ख़ुद अमित शाह ने मोर्चा संभाल लिया. वह तीन दिनों से बिहार में डेरा डाले हुए हैं, नाराज़ नेताओं को फ़ोन कर रहे हैं, उन्हें मना रहे हैं और वादे कर रहे हैं. समी अहमद कहते हैं कि जहां एनडीए के पास अमित शाह जैसा रणनीतिकार है, वहीं महागठबंधन में यह सवाल बना हुआ है कि आख़िर उनका नेतृत्व कौन कर रहा है? राहुल गांधी, जिन्होंने इतना अच्छा माहौल बनाया, अब कहां हैं?
इस चुनावी शोर में महागठबंधन ने अपने ही उठाए मुद्दों को पीछे छोड़ दिया है. जो बहस वोटर अधिकार, पलायन और भ्रष्टाचार पर होनी चाहिए थी, वह अब टिकट बंटवारे और अंदरूनी कलह पर हो रही है. विपक्ष ख़ुद एक मुद्दा बन गया है.
इस बीच, प्रशांत किशोर का ‘जन सुराज’ भी एक दिलचस्प कोण बना रहा है. पहले वह कहते थे कि एनडीए की हार तय है, लेकिन अब उनका कहना है कि मुक़ाबला जन सुराज और एनडीए के बीच है. यह बदलाव साफ़ इशारा करता है कि वह महागठबंधन के वोट बैंक में सेंध लगाने की तैयारी में हैं, ठीक उसी तरह जैसे ओवैसी की पार्टी करती आई है.
कुल मिलाकर, बिहार का चुनाव अब मुद्दों की लड़ाई से ज़्यादा प्रबंधन और रणनीति की लड़ाई बन गया है. महागठबंधन अगर जल्द ही अपनी पारी नहीं संभालता, तो यह मुक़ाबला तेजस्वी यादव बनाम नीतीश कुमार के बजाय, बिहार के ‘चाणक्य’ नीतीश कुमार और भारत के ‘चाणक्य’ कहे जाने वाले अमित शाह के बीच सिमट कर रह जाएगा. विपक्ष के लिए अभी भी वक़्त है, लेकिन घड़ी की सुइयां तेज़ी से घूम रही हैं.
बिहार में एनडीए को झटका, लोजपा (आरवी) उम्मीदवार का नामांकन खारिज: रिपोर्ट
बिहार विधानसभा चुनाव से पहले सत्तारूढ़ राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) को एक बड़ा झटका लगा है. मढ़ौरा से लोक जनशक्ति पार्टी (राम विलास) की उम्मीदवार सीमा सिंह का नामांकन खारिज कर दिया गया है. लाइव हिंदुस्तान की एक रिपोर्ट के अनुसार, रिटर्निंग ऑफिसर ने उनके दस्तावेजों में गड़बड़ी के कारण उनका नामांकन रद्द कर दिया. सीमा सिंह चिराग पासवान की पार्टी की प्रमुख उम्मीदवारों में से एक हैं.
जांच के दौरान तकनीकी खामियां पाए जाने के कारण सीमा सिंह सहित कुल चार उम्मीदवारों के नामांकन रद्द कर दिए गए. सिंह के अलावा निर्दलीय उम्मीदवार अल्ताफ आलम राजू और विशाल कुमार के साथ-साथ बसपा के आदित्य कुमार के कागजात भी खारिज कर दिए गए. इस घटनाक्रम से मढ़ौरा विधानसभा क्षेत्र में सियासी हलचल तेज होने की संभावना है, क्योंकि लोकप्रिय भोजपुरी अभिनेत्री से नेता बनीं सीमा सिंह को एनडीए का एक मजबूत दावेदार माना जा रहा था.
कौन हैं सीमा सिंह? सीमा सिंह एक प्रसिद्ध भोजपुरी फिल्म अभिनेत्री हैं जो लोजपा (रामविलास) में शामिल होकर चुनावी मैदान में उतरी थीं. अपने नामांकन के दौरान, उन्होंने अपनी शैक्षणिक योग्यता और संपत्ति के बारे में विस्तृत जानकारी दी थी, जिसने ध्यान आकर्षित किया था. अपने हलफनामे में, उन्होंने अपनी शैक्षणिक योग्यता नौवीं कक्षा पास घोषित की थी, जिससे उनके राजनीतिक पदार्पण को लेकर उत्सुकता और बढ़ गई थी.
दिल्ली विश्वविद्यालय प्रोफेसर को एबीवीपी नेता का थप्पड़, वीडियो वायरल
एक चौंकाने वाली घटना में, दिल्ली विश्वविद्यालय के डॉ. भीम राव अंबेडकर कॉलेज के एक प्रोफेसर को कथित तौर पर दिल्ली विश्वविद्यालय छात्र संघ (डूसू) की संयुक्त सचिव और एबीवीपी सदस्य दीपिका झा ने थप्पड़ मार दिया. यह घटना गुरुवार को दिल्ली पुलिस कर्मियों की मौजूदगी में एक अनुशासनात्मक समिति की बैठक के दौरान हुई. विवाद के केंद्र में रहे प्रोफेसर समिति के संयोजक थे. यह घटना छात्र संगठनों और शिक्षकों के बीच भारी आक्रोश का कारण बन गई है और घटना की जांच के लिए छह सदस्यीय जांच समिति का गठन किया गया है जो दो सप्ताह में अपनी रिपोर्ट सौंपेगी.
डूसू की संयुक्त सचिव दीपिका झा ने कथित तौर पर डॉ. भीम राव अंबेडकर कॉलेज के एक प्रोफेसर सुजीत कुमार को दिल्ली पुलिस कर्मियों और कुछ अन्य अज्ञात लोगों की मौजूदगी में एक अनुशासनात्मक समिति की बैठक के दौरान थप्पड़ मार दिया, जिसका एक कथित वीडियो सोशल मीडिया पर वायरल हो गया है.
वीडियो में, दीपिका प्रोफेसर को थप्पड़ मारती हुई दिखाई दे रही हैं, जो उनके बगल में बैठे हैं, जिसके बाद उन्हें तुरंत एक महिला पुलिसकर्मी द्वारा खींचकर दूर बैठा दिया जाता है. इसके बाद जब प्रोफेसर सोफे से उठते हैं, तो उन्हें एक अज्ञात व्यक्ति द्वारा धक्का देकर पीछे धकेलते हुए देखा जाता है, क्योंकि गरमागरम बहस होती दिख रही है. हिंदुस्तान टाइम्स स्वतंत्र रूप से वीडियो की प्रामाणिकता की पुष्टि नहीं कर सका.
प्रोफेसर को थप्पड़ मारने की बात स्वीकार करते हुए, दीपिका ने हिंदुस्तान टाइम्स को बताया कि उन्होंने ऐसा इसलिए किया क्योंकि प्रोफेसर ने कथित तौर पर उनके साथ मौखिक रूप से दुर्व्यवहार किया, उन्हें “घूरा” और “मुस्कुराया”, हालांकि उन्होंने कहा कि उन्हें ऐसा नहीं करना चाहिए था. दीपिका ने हिंदुस्तान टाइम्स को बताया, “मैंने उनसे कहा कि मैंने उन्हें सार्वजनिक रूप से धूम्रपान करते देखा है और यह छात्रों पर अच्छा प्रभाव नहीं डालता है, उन्होंने मेरे साथ मौखिक रूप से दुर्व्यवहार किया. वह मुझे घूर भी रहे थे और मुस्कुरा रहे थे, मेरे यह कहने के बाद भी कि मैं सहज नहीं थी. जब उन्होंने मेरे साथ मौखिक रूप से दुर्व्यवहार किया, तो मैंने उन्हें थप्पड़ मार दिया जो मुझे नहीं करना चाहिए था.” डेमोक्रेटिक टीचर्स फ्रंट (डीटीएफ) के अनुसार, यह घटना कॉलेज की अनुशासनात्मक समिति की एक बैठक के दौरान हुई, जो कॉलेज में हाल ही में हुई हिंसा की एक घटना के बारे में थी, जिसमें एबीवीपी के सदस्यों ने कथित तौर पर अन्य सदस्यों के साथ मारपीट की थी.
कुमार ने दीपिका के घटना के संस्करण का खंडन किया और कहा कि एबीवीपी के सदस्य बिना बुलाए अनुशासनात्मक बैठक में घुस आए थे. उन्होंने यह भी कहा कि जहां उनके कॉलेज के छात्र डूसू के लिए मतदान नहीं करते हैं, वहीं उनके पास एक कॉलेज छात्र परिषद है जिसमें तीन पद एबीवीपी सदस्यों ने जीते थे और अध्यक्ष का पद एनएसयूआई के एक सदस्य ने जीता था, जिसके साथ कथित तौर पर लगभग एक महीने पहले कुछ एबीवीपी सदस्यों ने मारपीट की थी. उन्होंने कहा कि हमले का एक वीडियो देखने के बाद उन्होंने एबीवीपी से जुड़े तीन छात्रों को 30 सितंबर तक के लिए निलंबित कर दिया था, हालांकि, हिंसा यहीं नहीं रुकी. उन्होंने कहा कि निलंबित छात्रों में से एक ने बुधवार को उनके सामने एनएसयूआई के छात्र को फिर से पीटा.
कुमार ने यह भी कहा कि उन्हें गुरुवार को एबीवीपी सदस्यों द्वारा संयोजक पद से इस्तीफा देने के लिए मजबूर किया गया क्योंकि वह “पिटना नहीं चाहते थे”. उन्होंने कहा, “अब गुरुवार को, हम एक बैठक कर रहे थे और दिवाली का जश्न और दोपहर का भोजन भी कर रहे थे, जब लगभग 50-60 एबीवीपी के छात्र बिना बुलाए कॉलेज में घुस आए और हंगामा करने की कोशिश कर रहे थे. मैंने पुलिस को बुलाया लेकिन डूसू अध्यक्ष आर्यन मान और डूसू की संयुक्त सचिव दीपिका झा प्रिंसिपल कार्यालय के अंदर घुस गईं और मुझे संयोजक पद से इस्तीफा लिखने के लिए मजबूर किया, जो मैंने इसलिए किया क्योंकि मैं पिटना नहीं चाहता था,” उन्होंने कहा, इसके बाद कथित थप्पड़ मारने की घटना हुई. अब दिल्ली विश्वविद्यालय द्वारा इस घटना की जांच के लिए छह सदस्यीय जांच समिति का गठन किया गया है, जिसकी अध्यक्षता प्राणीशास्त्र विभाग की प्रोफेसर नीता सहगल करेंगी और उनसे कुलपति योगेश सिंह के निर्देश पर दो सप्ताह में एक तथ्यात्मक रिपोर्ट प्रस्तुत करने की उम्मीद है.
लद्दाख में मौन मार्च, कर्फ्यू और इंटरनेट बंद
नागरिक समाज द्वारा शांति मार्च के आह्वान के मद्देनजर आज (18 अक्टूबर) लद्दाख में कर्फ्यू जैसी पाबंदियां लगा दी गईं, जबकि मोबाइल इंटरनेट भी निलंबित कर दिया गया है. प्रत्यक्षदर्शियों ने कहा कि लद्दाख पुलिस ने शनिवार सुबह राजधानी लेह के स्कारा बाजार में चार अलग-अलग धार्मिक संगठनों के प्रमुखों और प्रतिनिधियों द्वारा एक प्रतीकात्मक मार्च को विफल करने का प्रयास किया, भले ही जिला प्रशासन ने भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता, 2023 (बीएनएसएस) की धारा 163 के तहत पांच या अधिक व्यक्तियों के इकट्ठा होने पर प्रतिबंध लगा दिया है.
एक वीडियो में अंजुमन मोइन-उल-इस्लाम (एएमआई), क्रिश्चियन एसोसिएशन ऑफ लेह (सीएएल), अंजुमन इमामिया के नेताओं और लद्दाख गोम्पा एसोसिएशन (एलजीए) के प्रतिनिधियों के एक सदस्य को लेह के पुलिस उपाधीक्षक ऋषभ शुक्ला, एक आईपीएस अधिकारी, से यह तर्क देते हुए दिखाया गया है कि पांच या अधिक लोगों के जमावड़े पर प्रतिबंध लगाया गया था.
एएमआई के अध्यक्ष डॉ. अब्दुल कय्यूम को पुलिस उपाधीक्षक शुक्ला से कहते हुए सुना जा सकता है, “हम केवल चार हैं.” शुक्ला, जिन्हें पिछले महीने लेह में तैनात किया गया था, ने कहा, “मीडिया सब कुछ रिकॉर्ड कर रहा है. यदि चार से अधिक लोग हैं, तो आप हमें गिरफ्तार कर सकते हैं. आप चार लोगों को नहीं रोक सकते. आप कानून का उल्लंघन कर रहे हैं.”
“मेरी बात सुनो, भाई,” शुक्ला ने कय्यूम से कहा, अचानक अंग्रेजी से हिंदी में बदलते हुए, “अगर तुम्हारी वजह से कानून और व्यवस्था की स्थिति पैदा होती है, तो तुम्हें जिम्मेदार ठहराया जाएगा. मैं तुमसे तितर-बितर होने का अनुरोध कर रहा हूं. यह हम सभी के लिए आसान होगा.”
“यह एक प्रतीकात्मक मार्च है,” अंजुमन के अध्यक्ष अशरफ अली बरचा ने अधिकारी से कहा, “इसे पूरा करने दें. यदि आप भी हमारे साथ सहयोग करते हैं, तो यह पूरी बात के लिए अच्छा होगा. इसीलिए हम केवल चार हैं. दूसरों से आप निपट सकते हैं और उन्हें वापस जाने के लिए कह सकते हैं.”
“कृपया हमें आगे बढ़ने की अनुमति दें. हम कोई कानून नहीं तोड़ रहे हैं,” सीएएल के अध्यक्ष सोनम परवेज ने लेह की वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक श्रुति अरोड़ा से आग्रह किया, जो स्कारा बाजार में घटनास्थल पर भी पहुंचीं, जहां चारों नेताओं को रोका गया था.
प्रत्यक्षदर्शियों ने पहले कहा था कि पुलिस ने चार लोगों के समूह, जिसमें एलजीए सदस्य शेडुप चंबा भी शामिल थे, को प्रतीकात्मक मार्च निकालने की अनुमति नहीं दी.
कुछ शुरुआती रिपोर्टों के अनुसार, लद्दाख बौद्ध संघ के अध्यक्ष और एलएबी के सह-अध्यक्ष चेरिंग दोरजे लकरूक सहित एलएबी-केडीए गठबंधन के कुछ नेताओं को कथित तौर पर मार्च में भाग लेने से रोकने के लिए नजरबंद कर दिया गया था.
बाद में पुलिस ने चारों धार्मिक प्रमुखों को लेह में शांति स्तूप तक मार्च करने की अनुमति दी, जिसके बाद वे शांतिपूर्वक तितर-बितर हो गए.
24 सितंबर की हिंसा के विरोध और चीन की सीमा से लगे क्षेत्र में मौजूदा राजनीतिक संकट की एक गंभीर याद के रूप में सभी नेताओं ने काली पट्टी पहनी थी.
शुक्रवार शाम से ही राजधानी शहर के साथ-साथ कारगिल और क्षेत्र के अन्य हिस्सों में सुरक्षा बढ़ा दी गई थी, जबकि लेह में कुछ प्रमुख चौराहों पर बैरिकेड्स लगा दिए गए हैं ताकि लेह के जिला मजिस्ट्रेट रोमिल सिंह डोंक द्वारा धारा 163 के तहत जारी निषेधाज्ञा को लागू किया जा सके.
शनिवार को जिला प्रशासन द्वारा कारगिल में भी धारा 163 के तहत निषेधाज्ञा लागू की गई थी.
धारा 163 मजिस्ट्रेटों को सार्वजनिक समारोहों को प्रतिबंधित या प्रतिबंधित करने की व्यापक शक्तियां प्रदान करती है, भले ही सुप्रीम कोर्ट ने फैसला सुनाया है कि पुराने कानून की धारा 144 के तहत अपराध को कवर करने वाले कानून का उपयोग “असाधारण” परिस्थितियों में संयम से किया जाना चाहिए.
लद्दाख भर में शांति मार्च के मद्देनजर प्रतिबंध लगाए गए थे, जिसकी घोषणा इस सप्ताह की शुरुआत में कारगिल डेमोक्रेटिक अलायंस (केडीए) और लेह एपेक्स बॉडी (एलएबी) के संयुक्त नेतृत्व द्वारा की गई थी.
केडीए-एलबीए गठबंधन, जो लद्दाख में संवैधानिक सुरक्षा उपायों और लोकतंत्र की बहाली की मांग कर रहा है, ने लद्दाख भर के लोगों से शनिवार सुबह 10 से 12 बजे तक काली पट्टी पहनकर मार्च निकालने का आग्रह किया था.
निषेधाज्ञा के बावजूद नागरिक समाज के नेताओं ने कारगिल जिले में शांति मार्च निकाला.
काली पट्टी और काले मास्क पहने दर्जनों प्रतिभागियों ने तख्तियां लेकर कारगिल बाजार में मार्च किया और लद्दाख के लिए छठी अनुसूची का दर्जा और राज्य का दर्जा देने और जलवायु कार्यकर्ता और नवप्रवर्तक सोनम वांगचुक सहित पुलिस द्वारा हिरासत में लिए गए सभी बंदियों की रिहाई की मांग की.
लद्दाख में आज शाम 6 बजे से 9 बजे तक बिजली भी बंद रहेगी, जो निवासियों द्वारा भारतीय जनता पार्टी के नेतृत्व वाली केंद्र सरकार को उनकी चार मांगों की याद दिलाने और 24 सितंबर को सुरक्षा बलों द्वारा प्रदर्शनकारियों के खिलाफ कथित हिंसा के इस्तेमाल की निंदा करने के लिए दिन भर के विरोध का हिस्सा है.
शुक्रवार को, केंद्रीय गृह मंत्रालय ने कहा कि हिंसा की न्यायिक जांच सुप्रीम कोर्ट के सेवानिवृत्त न्यायाधीश बी.एस. चौहान के नेतृत्व में की जाएगी.
गृह मंत्रालय के बयान में कहा गया है कि जांच 24 सितंबर को लेह में “गंभीर कानून और व्यवस्था की समस्या” और “पुलिस कार्रवाई” में “चार नागरिकों की दुर्भाग्यपूर्ण मौत” की “परिस्थितियों” की जांच करेगी.
लेह पुलिस ने हिंसा के सिलसिले में बीएनएस की धारा 189, 191(2), 191(3), 190, 115(2), 118(1), 118(2), 326, 324, 326(सी), 326(एफ), 326(जी), 309, 109, 117(2), 125, 121(1), 61(2) के तहत एक प्राथमिकी (144/2025) दर्ज की है.
गृह मंत्रालय के आदेश में कहा गया है कि पूर्व एससी न्यायाधीश को “न्यायिक जांच करने में” न्यायिक सचिव के रूप में सेवानिवृत्त जिला और सत्र न्यायाधीश मोहन सिंह परिहार और प्रशासनिक सचिव के रूप में आईएएस अधिकारी तुषार आनंद सहायता प्रदान करेंगे.
विवादास्पद एससी न्यायाधीश ने कानपुर के गैंगस्टर विकास दुबे की मुठभेड़ में हत्या की न्यायिक जांच के बाद 2021 में उत्तर प्रदेश पुलिस को क्लीन चिट दे दी थी.
क्या नक्सलियों का जाना, बस्तर के सवालों का ख़त्म हो जाना है?
हरकारा के डीप डाइव में वरिष्ठ पत्रकार शुभ्रांशु चौधरी के साथ निधीश त्यागी की बातचीत इसी सवाल की आत्मा में उतरती है. शुभ्रांशु, जिन्होंने अपनी ज़िंदगी का एक बड़ा हिस्सा बस्तर को समझने और वहां शांति के लिए काम करने में लगाया है, कहते हैं कि असली चुनौती तो अब शुरू हुई है.
वह याद दिलाते हैं कि यह संघर्ष सिर्फ़ एक हिंसक विचारधारा की देन नहीं था. इसकी जड़ें ‘संवादहीनता’ में थीं. एक ऐसी व्यवस्था जिसने जंगल में रहने वाले 95% आदिवासियों से कभी उनकी भाषा ‘गोंडी’ में बात करने की ज़रूरत ही नहीं समझी. माओवादियों ने बस इसी खाली जगह को भरा. उन्होंने आदिवासियों की भाषा सीखी, उनके साथ रहे और उनके आत्मसम्मान की लड़ाई को लाल झंडे का एजेंडा थमा दिया.
आज जब नक्सली सरेंडर कर रहे हैं, तो सरकार उन्हें एक हाथ से बंदूक लेकर दूसरे हाथ से संविधान थमा रही है. लेकिन क्या सरकार उसी संविधान की पांचवीं अनुसूची और हैबिटेट राइट्स को लागू करने की हिम्मत दिखाएगी, जो आदिवासियों को उनके जंगल का मालिक बनाते हैं? शुभ्रांशु के शब्दों में, “अगर ये अधिकार सच में मिल जाएं, तो हमें लड़ने की क्या ज़रूरत है?” यही बात एक माओवादी ने उनसे कही थी.
बातचीत में 1984 के उस ‘बस्तर डेवलपमेंट प्लान’ का भी ज़िक्र आता है, जिसे इंदिरा गांधी की सहमति मिली थी लेकिन उनकी हत्या के बाद वह फाइलों में ही दफ़न हो गया. उस प्लान की दो शर्तें थीं- 100 साल तक कोई माइनिंग नहीं, 100 साल तक कोई औद्योगीकरण नहीं. आज यह बात भले ही ‘रोमांटिक’ लगे, पर यह उस गहरी समझ को दिखाती है कि बस्तर की आत्मा उसके जंगल और खेती में बसती है.
अब ख़तरा यह है कि नक्सलवाद के मलबे पर कॉर्पोरेट और ठेकेदारों का बुलडोज़र चलेगा. विकास के नाम पर आदिवासियों को उनकी ज़मीन और पहचान से बेदख़ल कर दिया जाएगा. शुभ्रांशु एक विकल्प सुझाते हैं- “क्या हम अमूल की तर्ज़ पर ‘अबुझमाड़ महुआ यूनियन लिमिटेड’ नहीं बना सकते, जिसका फ़ायदा सीधे वहां की महिलाओं को मिले?”
यह बातचीत एक चेतावनी है. बस्तर एक दोराहे पर है. यह या तो विस्थापन, शोषण और सांस्कृतिक विनाश की एक और दर्दनाक कहानी बन सकता है, या फिर यह दुनिया के सामने एक ऐसी मिसाल पेश कर सकता है, जहां दशकों की हिंसा के बाद समाज को सम्मान, संवाद और प्रकृति के साथ सह-जीवन के ज़रिए फिर से बनाया गया.
फैसला हमारी सरकारों, हमारे समाज और हम सब पर है. क्या हम बस्तर की ख़ामोशी में छिपे सवालों को सुनने के लिए तैयार हैं?
गरीब रथ के तीन एसी कोचों में आग लगी
अमृतसर से बिहार के सहरसा जा रही तीन गरीब रथ एक्सप्रेस एसी कोचों में शनिवार सुबह सरहिंद रेलवे स्टेशन के पास आग लग गई. हालांकि, किसी के हताहत होने की खबर नहीं है. हरप्रीत बाजवा के मुताबिक, आग सुबह करीब 7:30 बजे लगी, जब ट्रेन सरहिंद स्टेशन को पार कर रही थी. चूंकि ट्रेन धीमी गति से चल रही थी, इसलिए उसे तुरंत रोक दिया गया.
सरकारी रेलवे पुलिस (जीआरपी) के एक अधिकारी ने बताया कि कोच जी-19 में धुआं देखा गया. इसके बाद एक यात्री ने ट्रेन रोकने के लिए आपातकालीन चेन खींची. ट्रेन के रुकने पर, यात्रियों को प्रभावित कोच से सुरक्षित रूप से निकाल लिया गया और उनकी सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए उन्हें अन्य कोचों में स्थानांतरित कर दिया गया.
राजस्थान पुलिस ने एमपी के दो पत्रकारों को गिरफ़्तार किया, दीयाकुमारी के खिलाफ फर्जी खबरें छापने का आरोप
राजस्थान पुलिस ने उपमुख्यमंत्री दीया कुमारी के खिलाफ कथित तौर पर फर्जी और मानहानिकारक खबरों की एक श्रृंखला प्रकाशित करने और उन्हें हटाने के लिए 5 करोड़ रुपये की मांग करने के आरोप में मध्यप्रदेश से एक समाचार पोर्टल से जुड़े दो लोगों को हिरासत में लिया है.
28 सितंबर को दर्ज कराई गई शिकायत के अनुसार, आरोपी आनंद पांडे और हरीश दिवेकर ने पिछले महीने “द सूत्र” नामक समाचार पोर्टल पर कुमारी के खिलाफ कथित तौर पर एक दर्जन मनगढ़ंत और आधारहीन खबरें प्रकाशित की थीं.
शिकायतकर्ता ने दावा किया कि बाद में इन दोनों ने उपमुख्यमंत्री के परिचितों से संपर्क किया और फर्जी खबरों को हटाने तथा भविष्य में ऐसी सामग्री प्रकाशित न करने के लिए कई करोड़ रुपये की मांग की.
जयपुर पुलिस ने शुक्रवार देर रात जारी एक बयान में कहा कि आरोपियों ने कथित तौर पर मांग पूरी न होने पर उनकी राजनीतिक और सामाजिक छवि को नुकसान पहुंचाने की धमकी भी दी थी. पुलिस ने बताया कि यही भ्रामक सामग्री “द कैपिटल” नामक एक अन्य संबद्ध वेब पोर्टल पर भी प्रसारित की गई थी.
विज्ञप्ति में कहा गया है कि तकनीकी जांच और गवाहों के बयानों से पुष्टि हुई है कि ये खबरें तथ्यों पर आधारित नहीं थीं. जांच के दौरान, यह सामने आया कि आरोपियों ने अपनी जबरन वसूली की मांग पूरी न होने पर “डिस्ट्रॉय दीया” शीर्षक से एक अभियान चलाने की धमकी दी थी.
‘पीटीआई’ की खबर है कि जुटाए गए साक्ष्यों के आधार पर, जांच अधिकारी ने शुक्रवार को पांडे और दिवेकर को मध्यप्रदेश के भोपाल से हिरासत में लिया और आगे की पूछताछ के लिए उन्हें जयपुर लाया गया. पुलिस ने कहा कि इस आपराधिक साजिश में शामिल अन्य व्यक्तियों की पहचान करने के लिए आगे की जांच जारी है.
सड़क चौड़ी करने के लिए 400 साल पुरानी अहमदाबाद मस्जिद के आंशिक विध्वंस को सुप्रीम कोर्ट ने सही ठहराया
सुप्रीमकोर्ट ने शुक्रवार (17 अक्टूबर, 2025) को गुजरात हाईकोर्ट के उस आदेश को बहाल रखा, जिसमें अहमदाबाद में 400 साल से अधिक पुराने मंचा मस्जिद परिसर के आंशिक विध्वंस की अनुमति दी गई थी, ताकि सड़क चौड़ीकरण परियोजना को सुगम बनाया जा सके. सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि यह उपाय सार्वजनिक हित में किया गया था और इससे धार्मिक स्वतंत्रता के अधिकार का उल्लंघन नहीं होता है.
न्यायमूर्ति सूर्यकांत और न्यायमूर्ति जॉयमाल्या बागची की पीठ ने टिप्पणी की कि परिसर के सिर्फ खाली हिस्से और एक सटे हुए चबूतरे को ही हटाया जाना है, जबकि मस्जिद की मुख्य संरचना को अछूता रखा जाएगा. कोर्ट ने यह भी गौर किया कि उसी नागरिक परियोजना के हिस्से के रूप में एक मंदिर, एक व्यावसायिक इकाई और एक आवासीय संपत्ति को भी विध्वंस के लिए चिन्हित किया गया है.
“द हिंदू” ब्यूरो के अनुसार, पीठ ने अपने आदेश में कहा, “राज्य के अधिकारियों के स्पष्ट रुख और हाईकोर्ट के फैसले को देखते हुए कि केवल खाली जमीन के एक हिस्से और एक चबूतरे को ही गिराया जाना है, हम फैसले में हस्तक्षेप करने का कोई कारण नहीं देखते हैं, खासकर जब सड़क चौड़ीकरण के लिए एक मंदिर, एक व्यावसायिक और एक आवासीय संपत्ति को भी विध्वंस के लिए चिन्हित किया गया है.”
हालांकि, कोर्ट ने इस सवाल को खुला छोड़ दिया कि क्या यह जगह वक्फ संपत्ति के रूप में योग्य है. कोर्ट ने स्पष्ट किया कि मुआवजे का निर्धारण करने के उद्देश्य से इस मुद्दे पर उचित कार्यवाही में फैसला किया जा सकता है.
पीठ ने आगे कहा कि संविधान का अनुच्छेद 25, जो धर्म की स्वतंत्रता की गारंटी देता है, इस मामले में लागू नहीं होता है, क्योंकि विवाद अनिवार्य रूप से संपत्ति और मुआवजे से संबंधित है. कोर्ट ने टिप्पणी की, “एक सद्भावपूर्ण सार्वजनिक हित, जो पूरे शहर के लिए फायदेमंद है, वह किसी भी संदेह से परे है.”
मंचा मस्जिद ट्रस्ट की ओर से पेश हुईं अधिवक्ता वारिशा फरासत ने राज्य के इस दावे पर विवाद किया कि मस्जिद अप्रभावित रहेगी. उन्होंने जोर देकर कहा कि यह एक 400 साल पुरानी संरचना है, इसलिए प्रार्थना कक्ष को छोड़ दिया जाना चाहिए.”
फरासत ने आगे तर्क दिया कि नगर निगम का आदेश किसी वास्तविक सार्वजनिक हित का हवाला देने में विफल रहा और इसलिए यह मनमाना था. उन्होंने तर्क दिया कि मंचा मस्जिद ट्रस्ट के तहत पंजीकृत यह मस्जिद एक संरक्षित वक्फ संपत्ति है.
इन तर्कों को खारिज करते हुए, पीठ ने दोहराया कि मस्जिद की संरचना बरकरार रहेगी. कोर्ट ने कहा, “उन्होंने (नगर निगम अधिकारियों ने) एक मंदिर, एक व्यावसायिक संपत्ति और एक आवासीय घर को भी हटाया है, जो अत्यधिक कठिनाई का मामला है. यह सब शहर की बेहतरी के लिए हो रहा है,” और आगे कहा कि याचिकाकर्ताओं की शिकायत अंततः मुआवजे से संबंधित है.
माना जाता है कि यह मस्जिद मुगल काल के दौरान बनाई गई थी. मंचा मस्जिद को स्थानीय मुस्लिम समुदाय के लिए एक महत्वपूर्ण धार्मिक और सांस्कृतिक स्थल माना जाता है. सदियों से, इसका कई बार नवीनीकरण किया गया है और यह औपचारिक रूप से मंचा मस्जिद ट्रस्ट के तहत पंजीकृत है.
फैक्ट चेक :
बीजेपी का झूठा दावा, नीदरलैंड ने आरएसएस पर डाक टिकट जारी नहीं किया
“ऑल्ट न्यूज़” ने फैक्ट चेक करके बताया है कि भाजपा ने अपने आधिकारिक “एक्स” हैंडल से, झूठा दावा किया है कि नीदरलैंड ने आरएसएस स्थापना के सौ साल पूरे होने के सम्मान में स्मृति डाक टिकट जारी किए हैं. ऑल्ट न्यूज़ के मुताबिक, बीजेपी आईटी सेल के प्रमुख अमित मालवीय और मीडिया आउटलेट “टाइम्स नाउ” ने भी इस झूठ को फैलाया.
पाकिस्तान के ताज़ा हमलों में तीन क्रिकेटरों समेत 10 मरे, अफगानिस्तान ने टी20 श्रृंखला से नाम वापस लिया
पाकिस्तान के नए हवाई हमलों के बाद अफगानिस्तान और पाकिस्तान के बीच तनाव फिर भड़क गया है. ये हमले दक्षिण-पूर्वी अफगानिस्तान के पक्तिका प्रांत में हुए, जिसमें तीन स्थानीय क्रिकेटरों सहित कम से कम दस लोग मारे गए.
अफगान अधिकारियों ने पाकिस्तान पर युद्धविराम उल्लंघन का आरोप लगाते हुए कहा कि हमलों में आवासीय क्षेत्रों को निशाना बनाया गया. पाकिस्तान ने आरोपों पर कोई टिप्पणी नहीं की है. यह तनाव अस्थायी दो दिवसीय युद्धविराम समाप्त होने के कुछ ही घंटों बाद बढ़ा. हालांकि, दोनों पक्ष कतर की मध्यस्थता में दोहा में होने वाली शांति वार्ता समाप्त होने तक युद्धविराम बढ़ाने पर सहमत हो गए हैं.
इस घटना पर प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए, अफगानिस्तान क्रिकेट बोर्ड (एसीबी) ने इस हमले को “पाकिस्तानी शासन का कायरतापूर्ण कृत्य” बताया है और पाकिस्तान सहित तीन देशों की टी20आई श्रृंखला से हटने का फैसला किया है. “द टेलीग्राफ” के मुताबिक, एसीबी ने मारे गए खिलाड़ियों की पहचान कबीर, सिब्गतुल्लाह और हारून के रूप में की. क्रिकेट स्टार राशिद खान ने हवाई हमलों की निंदा की और एसीबी के फैसले का स्वागत करते हुए कहा कि राष्ट्रीय गरिमा सबसे पहले आनी चाहिए.
गुजरात: मंदिर विवाद पर सांप्रदायिक झड़प में 8 घायल, 100 से अधिक वाहनों में तोड़फोड़
गुजरात के साबरकांठा जिले के एक गांव के मंदिर को लेकर शुक्रवार रात हुई सांप्रदायिक झड़प में कम से कम आठ लोग घायल हो गए, कई घरों पर हमला किया गया और करीब 100 वाहनों में तोड़फोड़ की गई. पुलिस ने 25 से अधिक संदिग्धों को हिरासत में लिया है.
दिलीप सिंह क्षत्रिय की रिपोर्ट के अनुसार, यह घटना प्रांतिज तालुका के माजरा गांव में चार दिन पहले आगामी दीपावली उत्सव की योजना और भैरव मंदिर के प्रशासन को लेकर हुए विवाद के बाद हुई.
मौखिक असहमति जल्द ही हिंसक झड़प में बदल गई, जब लाठियों और पत्थरों से लैस कई व्यक्तियों ने घरों और वाहनों पर हमला करना शुरू कर दिया. कम से कम 10 घरों में तोड़फोड़ की गई और एक कार को आग लगा दी गई. जब तक यह उत्पात शांत हुआ, तब तक 26 कारें, 50 से अधिक बाइक, 6 टेम्पो और 3 ट्रैक्टर टूट चुके थे.
इस झड़प में आठ लोग घायल हुए, जिनमें से तीन की हालत गंभीर है. सभी घायलों को तत्काल उपचार के लिए हिम्मतनगर के अस्पतालों में भर्ती कराया गया है. ग्राम पंचायत सदस्य जगदीशभाई पटेल ने कहा, “वे पटेल के घर गए, उसमें तोड़फोड़ की और त्योहार के विवाद को दंगे में बदल दिया.” स्थिति नियंत्रण से बाहर होते ही एसपी सहित वरिष्ठ पुलिस अधिकारी गांव पहुंचे. कड़ी सुरक्षा बनाए रखने और किसी भी नए संघर्ष को रोकने के लिए माजरा में भारी पुलिस बल तैनात किया गया है.
जातिगत भेदभाव: यूके ने डिग्री-नौकरी दी, लेकिन पुणे के कॉलेज ने दलित से सब छीन लिया
ससेक्स विश्वविद्यालय, लंदन से हाल ही में स्नातक हुए प्रेम बिरहाडे नामक एक युवा दलित को कथित तौर पर लंदन के हीथ्रो एयरपोर्ट में मिली नौकरी से हाथ धोना पड़ा. वंचित बहुजन अघाड़ी (वीबीए) के प्रमुख प्रकाश अंबेडकर के अनुसार, पुणे के मॉडर्न कॉलेज ऑफ आर्ट्स, साइंस एंड कॉमर्स ने जाति आधारित भेदभाव के चलते उनके शैक्षणिक प्रमाणपत्रों को सत्यापित करने से इनकार कर दिया.
प्रकाश अंबेडकर ने आरोप लगाया कि पुणे के मॉडर्न कॉलेज की प्रिंसिपल, डॉ. निवेदिता गजानन एकबोटे, जो भाजपा की युवा शाखा की महाराष्ट्र उपाध्यक्ष भी हैं, ने अपने राजनीतिक और वैचारिक रुझान को प्रशासनिक निर्णयों को प्रभावित करने दिया. उन्होंने कहा, “जब प्रेम उच्च अध्ययन के लिए लंदन गए थे, तब सत्यापन दिया गया था. लेकिन जब उन्होंने रोजगार के लिए इसे दोबारा मांगा, तो कॉलेज प्रशासन ने उनकी जाति के बारे में पूछताछ की.”
प्रकाश अंबेडकर ने इस घटना को व्यवस्थागत जातिगत भेदभाव का एक ज्वलंत उदाहरण बताया, जो तमाम सामाजिक और आर्थिक बाधाओं को पार करने के बाद भी दलित युवाओं को परेशान करता है. उन्होंने जवाबदेही की मांग की और कहा कि यह मामला उन अनगिनत दलित छात्रों के भेदभाव को दर्शाता है, जिनके अवसर केवल उनकी जाति के कारण बाधित होते हैं.
एक वायरल वीडियो में, प्रेम ने अपने सभी दस्तावेज़ दिखाते हुए कहा, “मैं भीख नहीं मांग रहा हूं, मैं अपना अधिकार मांग रहा हूं.” एक अन्य पोस्ट में उन्होंने लिखा, “यूके ने मुझे डिग्री और नौकरी दी, लेकिन पुणे के एक कॉलेज ने वह अवसर छीन लिया.”
हालांकि, कॉलेज की प्रिंसिपल डॉ. निवेदिता गजानन एकबोटे ने दावा किया कि छात्र के असंतोषजनक आचरण के कारण, कॉलेज की नीति के अनुरूप, उन्होंने कोई और सिफारिश पत्र जारी नहीं करने का निर्णय लिया है. लेकिन उनके स्वयं के पत्र में यह स्वीकार किया गया है कि छात्र को अतीत में तीन सिफारिश पत्र (एलओआर) और एक बोनाफाइड सर्टिफिकेट जारी किए जा चुके हैं.
“मकतूब मीडिया” में एक रिपोर्ट के अनुसार, इस मुद्दे ने व्यापक विवाद को जन्म दिया है, जिससे ऑनलाइन आक्रोश फैल गया है. वरिष्ठ अधिवक्ता संजय हेगड़े और लेखक राजू पारुलेकर सहित कई लोगों ने इस घटना की निंदा करते हुए इसे पुणे के शैक्षणिक गलियारों में गहरे जड़ें जमाए जातिवाद का एक कठोर उदाहरण बताया है.
जेल में बंद शरजील इमाम ने बिहार चुनाव लड़ने का फैसला वापस लिया
जेल में बंद कार्यकर्ता और जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय (जेएनयू) के शोध छात्र शरजील इमाम, जो बहादुरगंज निर्वाचन क्षेत्र से एक स्वतंत्र उम्मीदवार के रूप में बिहार विधानसभा चुनाव 2025 लड़ने की तैयारी कर रहे थे, ने घोषणा की है कि उन्होंने और उनकी टीम ने चुनाव नहीं लड़ने का फैसला किया है.
“मकतूब मीडिया” के मुताबिक, इमाम ने जेल से जारी एक बयान में कहा कि यह फैसला 2 सितंबर, 2025 को दिल्ली हाईकोर्ट द्वारा उनकी जमानत याचिका खारिज किए जाने और 9 सितंबर को अपील दायर होने के बाद सुप्रीम कोर्ट द्वारा अंतरिम राहत देने से इनकार करने के बाद लिया गया है. इमाम ने कहा, “मामले को अक्टूबर के अंत तक के लिए स्थगित कर दिया गया है. हमें उम्मीद थी कि चुनाव के समय तक मैं जमानत पर बाहर आ जाऊंगा.”
उन्होंने खुद को और अपनी टीम को “पारंपरिक राजनेता” नहीं, बल्कि “हाशिए पर पड़े वर्गों के लिए आवश्यक संरचनात्मक बदलावों के बारे में एक नए लोकतांत्रिक संदेश के वाहक” के रूप में वर्णित किया, जो उनके अनुसार मुख्यधारा की राजनीतिक बहस में अनुपस्थित है. उन्होंने कहा, “राजनीतिक अभिनेताओं के इस नए उभरते वर्ग के कुछ प्रतिनिधियों में से एक होने के नाते, मेरा कर्तव्य है कि मैं जनता तक पहुंचूं और अपने लोकतांत्रिक संदेश को सरलतम शब्दों में व्यक्त करूं. हालांकि, राज्य ने हमारे रास्ते में बाधाएं खड़ी कर दी हैं, और मैं व्यक्तिगत रूप से प्रचार करने और अपने निर्वाचन क्षेत्र के लोगों के साथ स्वतंत्र रूप से घुलने-मिलने में असमर्थ रहूंगा.”
इमाम ने कहा कि उनकी टीम को ऐसे परिणाम की आशंका थी, लेकिन एक राजनीतिक कैदी के रूप में उन पर लगे गंभीर प्रतिबंधों के कारण वे पर्याप्त रूप से तैयारी नहीं कर पाए. उन्होंने कहा, “एक राजनीतिक कैदी के रूप में, खासकर बाहरी दुनिया के साथ संवाद करने में, मुझे जो अत्यधिक प्रतिबंधों का सामना करना पड़ता है, उसे देखते हुए एक महीना बिल्कुल भी पर्याप्त नहीं था - हमें और समय चाहिए था.”
यह दोहराते हुए कि उनका काम जारी रहेगा, इमाम ने कहा कि उनकी “प्राथमिक जिम्मेदारी संरचनात्मक बदलाव के बारे में हमारे संदेश को फैलाना है - विकेंद्रीकरण, चुनाव की एक पद्धति के रूप में आनुपातिक प्रतिनिधित्व, जाति समूहों में अल्पसंख्यकों का आरक्षण और धार्मिक स्वायत्तता.” उन्होंने कहा कि वे “उस दिशा में काम करते रहेंगे” और उनका लक्ष्य है कि जो लोग हमारे वोट चाहते हैं, उन्हें इन मूलभूत मुद्दों को संबोधित करने के लिए मजबूर करें. इमाम ने कहा कि उनके “प्रयास व्यर्थ नहीं गए हैं” और पिछले महीनों में सीखे गए सबक “हमारी भविष्य की कार्रवाई और आगामी चुनावों के लिए उपयोगी होंगे.”
इमाम को जनवरी 2020 में यूएपीए और राजद्रोह के आरोपों के तहत सीएए और एनआरसी विरोधी विरोध प्रदर्शनों के दौरान दिए गए उनके भाषणों के लिए गिरफ्तार किया गया था. बिहार के जहानाबाद के काको गांव के 35 वर्षीय इस कार्यकर्ता को 28 जनवरी, 2020 को दिल्ली पुलिस के सामने आत्मसमर्पण करने के बाद से ही जेल में रखा गया है. उन्हें छह मामलों में जमानत मिल चुकी है, लेकिन वह दिल्ली दंगों की साजिश मामले के तहत जेल में हैं, जो दो साल से अधिक समय से दिल्ली हाईकोर्ट में लंबित है.
छत्तीसगढ़ में 210 माओवादियों का सबसे बड़ा सामूहिक सरेंडर
पिछले तीन दिनों में हथियार डाल चुके लगभग 210 माओवादियों ने शुक्रवार को छत्तीसगढ़ में औपचारिक रूप से आत्मसमर्पण कर दिया. सुरक्षा अधिकारियों ने इसे राज्य में विद्रोहियों का अब तक का सबसे बड़ा सामूहिक आत्मसमर्पण बताया है.
“द टेलीग्राफ” के अनुसार, माओवादियों ने जगदलपुर में मुख्यमंत्री विष्णु देव साय की उपस्थिति में एक समारोह में आत्मसमर्पण किया. इनमें 120 माओवादी ऐसे थे, जिन्होंने गुरुवार को बीजापुर में हथियार डाले थे, और 50 माओवादी ऐसे थे जिन्होंने बुधवार को कांकेर में बीएसएफ कैंप में आत्मसमर्पण किया था.
अधिकारी ने बताया कि विद्रोहियों ने 153 हथियार सौंपे, जिनमें 19 एके-47 राइफलें, 17 सेल्फ-लोडिंग राइफलें, 23 इंसास राइफलें, एक इंसास लाइट मशीन गन, तीन दर्जन .303 राइफलें, चार कार्बाइन और 11 बैरल ग्रेनेड लॉन्चर शामिल हैं.
दलित सुब्बैया अपने विरोध संगीत के बारे में एक प्रेरक वृत्तचित्र में जीवित हैं
“मेरी आवाज़ मेरी अपनी नहीं है, यह हज़ारों दलितों की आवाज़ है.” यह घोषणा तमिल गायक, गीतकार और कवि दलित सुब्बैया ने की थी.
ग्रिदारन एमकेपी का वृत्तचित्र ‘दलित सुब्बैया’ 2022 में दिवंगत हुए कलाकार को एक प्रेरक श्रद्धांजलि है, जो सामाजिक कारणों के प्रति उनकी अटूट प्रतिबद्धता के साथ-साथ विरोध संगीत की शक्ति की याद दिलाता है. दलित सुब्बैया ने अगस्त में केरल के अंतर्राष्ट्रीय वृत्तचित्र और लघु फिल्म महोत्सव में शीर्ष पुरस्कार जीता. तमिल फिल्म उद्योग में एक संपादक के रूप में काम करने वाले ग्रिदारन, सुब्बैया की कहानी को उनके परिवार के सदस्यों और सहयोगियों के साथ बातचीत के माध्यम से फिर से प्रस्तुत करते हैं. सुब्बैया के प्रदर्शन के अभिलेखीय फुटेज उनकी आवाज़, गीत और एक न्यायपूर्ण और समतावादी समाज के लिए दृष्टि की जीवन शक्ति की गवाही देते हैं. स्क्रोल ने सुब्बैया पर बनी डॉक्यूमेंट्री पर लंबा फीचर लिखा है.
सुब्बैया का व्यक्तित्व - गर्मजोश, मजाकिया, निडर, संयमित लेकिन चुंबकीय भी - उनके शो से स्पष्ट है. ग्रिदारन ने स्क्रॉल को बताया, “वह अपनी राजनीति में शानदार थे, जिस तरह से वह भाषण देते थे, जो गीत उन्होंने लिखे और गाए.” यह फिल्म सुब्बैया की चिंताओं की सीमा को उजागर करती है - जातिगत भेदभाव, दहेज, वर्ग विभाजन, स्वच्छता कार्यकर्ता, सांप्रदायिकता, श्रीलंकाई गृहयुद्ध, बहुसंख्यकवाद. वृत्तचित्र में एक पात्र कहता है, “उन्होंने तमिलनाडु का इतिहास गीतों में लिखा.”
एक दृश्य में, स्कूल की लड़कियां सुब्बैया और उनके मंडली के सदस्यों द्वारा एक सड़क के कोने पर प्रदर्शन करते हुए चलती हैं. तमिलनाडु में सुब्बैया की बहुत प्रतिष्ठा थी, उनकी रचनाएँ, विशेष रूप से ‘वेल्ला मुदियाधवर अंबेडकर’ (अपराजेय अंबेडकर), कार्यकर्ता समूहों, जमीनी स्तर के संगठनों और विदुथलाई चिरुथिगल काची जैसी राजनीतिक पार्टियों के बीच लोकप्रिय थीं. फिर भी, प्रगतिशील हलकों से परे कई लोग सुब्बैया के बारे में नहीं जानते थे, या यह कि उन्होंने ‘वेल्ला मुदियाधवर अंबेडकर’ की रचना और लेखन किया था, ग्रिदारन ने कहा. ग्रिदारन ने कहा, “मैं भी इस तरह से उनके पास से गुज़रा होगा जब वह सड़कों पर प्रदर्शन कर रहे थे, यह जाने बिना कि वह कौन थे या उनके गीत दलित सशक्तिकरण के बारे में हैं.” “फिल्म बनाते समय मुझे एहसास हुआ कि दलित सुब्बैया मेरे बारे में, मेरी समस्याओं के बारे में गा रहे हैं.”
दलित सुब्बैया तमिलनाडु में विरोध संगीत पर फिल्मों की 10-भाग की श्रृंखला का हिस्सा है. पा रंजीत की प्रोडक्शन कंपनी नीलम फिल्म्स द्वारा प्रस्तुत और याज़ी फिल्म्स द्वारा निर्मित, इस श्रृंखला में उन 10 संगीतकारों की प्रोफाइल हैं जिन्हें 2021 में ‘मारगाझिल मक्कलिसा’ में सम्मानित किया गया था. 2019 से आयोजित और रंजीत के संगठन नीलम कल्चरल द्वारा आयोजित यह त्योहार ऐतिहासिक रूप से उत्पीड़ित, श्रमिक वर्ग और दलित समूहों की सांस्कृतिक प्रथाओं पर प्रकाश डालता है.
जिस समय सुब्बैया को ‘मारगाझिल मक्कलिसा’ में सम्मानित किया गया था, उस समय ग्रिदारन प्रायोगिक तमिल फिल्म ‘कुथिराईवाल’ का संपादन कर रहे थे, जिसका सह-निर्देशन मनोज लियोनेल जहसन और श्याम सुंदर ने किया था. जब तक ‘कुथिराईवाल’ पूरी हुई और ग्रिदारन वृत्तचित्र पर काम करने लगे, तब तक सुब्बैया का निधन हो चुका था. ग्रिदारन ने कहा, “हालांकि मैं उनसे कभी नहीं मिल पाया, लेकिन मैं उनके अंतिम संस्कार में शामिल हुआ.” “उनके अंतिम संस्कार के जुलूस में, मैंने भीड़ को सैकड़ों तक बढ़ते देखा, जो शुरू में लगभग 10-15 लोगों से बनी थी.” शोक मनाने वालों में रैपर अरिवु भी थे.
दलित सुब्बैया अपने विषय के प्रारंभिक वर्षों को फिर से बनाने के लिए एनीमेशन का उपयोग करता है. 1952 में करप्पन पिचाई के रूप में जन्मे, उनके नाम से जुड़े कलंक को दूर करने के लिए उनके स्कूल के एक शिक्षक द्वारा उनका नाम बदलकर सुब्बैया कर दिया गया. तमिल में, ‘पिचाई’ का अर्थ जरूरतमंदों को दी जाने वाली भिक्षा है. जातिगत दंगों के बाद, सुब्बैया का परिवार मदुरै में अपने गांव से पांडिचेरी चला गया. सुब्बैया ने खुद को बेजुबानों के लिए बोलने के लिए समर्पित कर दिया, मार्क्सवादियों, प्रगतिशील ईसाइयों, समाजवादियों और दलितों के साथ काम किया.
सुब्बैया की वामपंथी विचारधारा ने उन्हें अपने बेटों का नाम स्पार्टाकस, 71 ईसा पूर्व के ग्लेडिएटर के नाम पर रखने के लिए प्रेरित किया, जिसने एक दास विद्रोह का नेतृत्व किया, और गोर्की, रूसी लेखक मैक्सिम गोर्की के नाम पर. फिल्म में, स्पार्टाकस सुब्बैया एक किस्सा साझा करते हैं कि कैसे उनके पिता को उनके स्कूल में यह समझाने के लिए आना पड़ा कि उन्होंने अपने बड़े बेटे को एक प्रतीकात्मक नाम क्यों दिया था जिसका उच्चारण करना भी मुश्किल था.
परिवार से उनकी तंगहाली, बच्चों के लिए चीजें खरीदने के लिए पैसे की कमी, फिल्में देखने या किताबें खरीदने से मिलने वाली छोटी-छोटी खुशियों के बारे में दर्दनाक वाक्ये हैं. यह पता चलता है कि सुब्बैया शॉन कॉनरी अभिनीत जेम्स बॉन्ड फिल्मों के प्रशंसक थे. सुब्बैया के ‘वॉयस ऑफ लिबरेशन’ मंडली के सदस्यों के साथ बातचीत - उनमें से एक बस कंडक्टर - उनकी श्रमिक वर्ग की पृष्ठभूमि, उनकी सौहार्द, सुब्बैया के लिए उनके प्यार और सम्मान को उजागर करती है. लोकप्रिय गायक जैसे कि चिन्नापोन्नू और किदक्कुझी मरिअम्मल, जिन्होंने मारी सेल्वराज की ‘कर्णन’ (2021) में ‘कंडा वारा सोल्लुंगा’ गाया था, पहले सुब्बैया के साथ प्रदर्शन कर चुके हैं, ग्रिदारन ने कहा.
ग्रिदारन ने कहा, “हम में से बहुतों के लिए, संगीत का मतलब फिल्मी संगीत या लोक संगीत है, लेकिन सुब्बैया के क्रांतिकारी गीत लोगों के बारे में थे.”
सुब्बैया के उग्र गीत, जो एक ऐतिहासिक रूप से हाशिए पर पड़े समुदाय के भीतर से उभरे और इसकी चिंताओं को एक व्यापक आबादी तक ले गए, को हमेशा उनका श्रेय नहीं दिया गया, ग्रिदारन को पता चलता है. सुब्बैया के मूल गीतों में से एक को मुख्यधारा की फिल्म ‘वेट्टाइकरन’ के लिए विनियोजित किया गया था, जिसमें तमिल स्टार विजय ने अभिनय किया था. केवल चार पंक्तियों का उपयोग किया गया और बाकी गीतों को छोड़ दिया गया, एक मंडली के सदस्य बताते हैं.
शायद विरोध संगीत के धीरज पर अंतिम शब्द खुद सुब्बैया का है. वह फिल्म में एक ज्वलंत, प्रतिष्ठित उपस्थिति हैं, जैसे कि वह अभी भी आसपास हैं.
जब गीत से संबंधित समस्या मर जाती है, तो गीत भी मर जाता है, सुब्बैया अपने एक प्रदर्शन के दौरान कहते हैं.
ग्रिदारन ने कहा, “फिल्मों के लोकप्रिय गीत लोगों तक आसानी से पहुंच जाते हैं, लेकिन वे गीत नहीं जो वास्तव में लोगों के बारे में हैं.” “फिल्म बनाने के दौरान, मैं सुब्बैया के गीतों में जाति के बारे में संदेश, सामाजिक व्यवस्था की उनकी आलोचना और क्रांतिकारी परिवर्तन के उनके संदेश से बहुत प्रेरित था. बेशक, अगर वह जीवित होते, तो फिल्म पूरी तरह से अलग होती. क्योंकि वह नहीं रहे, हम सभी ने वृत्तचित्र में अतिरिक्त प्रयास किया.”
सुब्बैया का एक गीत यहां सुनिये.
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