18/11/2025: चुनाव है या सियासी जीनोसाइड? | भारत की आज़ादी 'आंशिक' | माओवादी नेता मारा गया | पैसा देकर वोट खरीदा, प्रशांत किशोर | 'सत्याग्रह' ओपेरा नये अंदाज़ में.
‘हरकारा’ यानी हिंदी भाषियों के लिए क्यूरेटेड न्यूजलेटर. ज़रूरी ख़बरें और विश्लेषण. शोर कम, रोशनी ज़्यादा.
निधीश त्यागी, साथ में राजेश चतुर्वेदी, गौरव नौड़ियाल, फ़लक अफ़शां
आज की सुर्खियां
वोटर लिस्ट में बदलाव या ‘राजनीतिक नरसंहार’? पराकला प्रभाकर ने बताया बिना खून-खराबे के लोगों को खत्म करने का नया तरीका.
“जब रेफ़री ही प्रधानमंत्री चुने, तो चुनाव का क्या मतलब?” : आनंद तेलतुंबडे का सवाल - क्या भारत में चुनाव सिर्फ़ एक दिखावा रह गया है?
मोदी सिर्फ़ नफ़रत नहीं, उम्मीद भी बेचते हैं... योगेन्द्र यादव ने बताया, विपक्ष के पास इसका जवाब क्यों नहीं.
बीजेपी की ‘कोटा फैक्ट्री’ वाली चुनावी मशीन के सामने विपक्ष फेल क्यों? योगेन्द्र यादव का विश्लेषण.
“चुनाव से पहले 40,000 करोड़ बांटे, यह वोट खरीदना नहीं तो क्या है?” प्रशांत किशोर ने खोली बिहार सरकार की पोल.
एक वोटर, दो-दो जगह वोट: ऑल्ट न्यूज़ ने पकड़ी भाजपा कार्यकर्ताओं की धांधली, चुनाव आयोग की नाकामी उजागर.
इंटरनेट की आज़ादी में भारत और फिसला... ‘आंशिक स्वतंत्र’ देशों में 51वां स्थान, सरकार के हाथ में कंट्रोल के सारे हथियार.
माओवाद का अंत करीब? 50 लाख का इनामी, 76 जवानों का हत्यारा हिडमा मुठभेड़ में ढेर.
केदारनाथ में आस्था का सैलाब या कचरे का पहाड़? ऐतिहासिक भीड़ अपने पीछे छोड़ गई 2,324 टन गंदगी.
दिल्ली ब्लास्ट कनेक्शन: ईडी ने अल-फलाह यूनिवर्सिटी के संस्थापक को गिरफ्तार किया, 25 ठिकानों पर मारे छापे, मनी लॉन्ड्रिंग का शक.
68 साल की सकीना को नागरिकता साबित न कर पाने की सज़ा... भारतीय पुलिस ने सीमा पार धकेला, अब ढाका की जेल में क़ैद.
भारतीय छात्रों का अमेरिका से मोहभंग? नए नामांकन में 17% की भारी गिरावट, वीज़ा नियमों ने बढ़ाई मुश्किलें.
दुनिया में भूख का भयानक संकट: 2026 में 30 करोड़ से ज़्यादा लोग होंगे गंभीर भुखमरी के शिकार, गाज़ा-सूडान में अकाल.
त्योहारी सीज़न से पहले बड़ा झटका: भारत के हीरे-जवाहरात के निर्यात में 30% की भारी गिरावट, 50 लाख नौकरियों पर संकट.
“जिसे बिहार का ज्ञान नहीं, उसे प्रभारी बना दिया”: तारिक अनवर ने हार का ठीकरा राहुल गांधी के करीबी पर फोड़ा.
गांधी का ‘सत्याग्रह’ अब पेरिस के मंच पर... डांसर जोड़ी फिलिप ग्लास के ओपेरा को देगी नया अंदाज़.
जुबीन गर्ग की मौत का सच आएगा सामने? अमित शाह ने दी अभियोजन की मंजूरी, SIT करेगी जांच.
पराकला प्रभाकर ने एसआईआर को सियासी जीनोसाइड बताया
‘द हिंदू’ की एक रिपोर्ट के अनुसार, जाने-माने अर्थशास्त्री और राजनीतिक टिप्पणीकार पराकला प्रभाकर ने चुनाव आयोग (ईसीआई) द्वारा मतदाता सूची के ‘विशेष गहन पुनरीक्षण’ (एसआईआर) को “राजनीतिक नरसंहार” करार दिया है और नागरिकों से इसका बहिष्कार करने की अपील की है. रविवार को धारवाड़ में ‘एद्देलु कर्नाटक’ (जागो कर्नाटक) और अन्य संगठनों द्वारा आयोजित एक जागरूकता सत्र में बोलते हुए, उन्होंने ‘एसआईआर’ के विभिन्न आयामों और इसके गंभीर परिणामों पर प्रकाश डाला.
प्रभाकर ने कहा, “हमें यह समझना होगा कि ‘एसआईआर’ एक ऐसा अभ्यास है जिसे समाज के एक विशेष वर्ग द्वारा एक समान समाज (homogeneous society) स्थापित करने के लिए लाया जा रहा है. हमें दुनिया भर में अतीत में हुए ऐसे प्रयासों को देखना चाहिए. एशिया, यूरोप और अमेरिका में क्या हुआ? वहां हत्याओं का दौर चला था. लेकिन अब समय बदल गया है और हत्याएं नहीं हो रही हैं. अब किसी को मारना उसके नाम को वोटर लिस्ट से हटाने जैसा है. यह बिना खून-खराबे के नरसंहार का एक नया रूप है. ‘एसआईआर’ और कुछ नहीं बल्कि ‘राजनीतिक नरसंहार’ है.”
रिपोर्ट के मुताबिक, उन्होंने जोर देकर कहा कि नागरिकों को चुप नहीं बैठना चाहिए और इसका बहिष्कार करना चाहिए. उन्होंने यह भी कहा कि ‘एसआईआर’ के खिलाफ लड़ाई को राजनीतिक दलों के भरोसे नहीं छोड़ा जा सकता, बल्कि नागरिकों को खुद लड़ना होगा. प्रभाकर ने कहा, “हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि हमारी उदासीनता के कारण ही ‘एसआईआर’ यहां तक पहुंचा है. अगर हमने भारत के मुख्य न्यायाधीश (सीजेआई) पर जूता फेंकने की घटना या दंगों में निर्दोषों के मारे जाने, या मणिपुर के जलने जैसी घटनाओं का विरोध किया होता, तो सत्ता में बैठे लोग ‘एसआईआर’ लाने से हिचकिचाते.”
उन्होंने तर्क दिया कि ‘एसआईआर’ का असली खतरा केवल किसी पार्टी को चुनाव जिताना नहीं है, बल्कि यह संविधान को बदलने जैसा है. उन्होंने कहा, “संविधान ‘एक व्यक्ति एक वोट’ के सिद्धांत के आधार पर सार्वभौमिक वयस्क मताधिकार की गारंटी देता है. लेकिन ‘एसआईआर’ उस अधिकार को नकार रहा है.” उन्होंने यह भी आरोप लगाया कि ‘एसआईआर’ अल्पसंख्यकों, महिलाओं, निरक्षरों और गरीबों को राजनीतिक रूप से खत्म करने का एक हथियार है.
अंत में उन्होंने चेतावनी देते हुए कहा, “जो लोग नहीं चाहते कि यह देश ‘हिंदू पाकिस्तान’ बने, उन्हें सड़कों पर उतरना चाहिए और ‘एसआईआर’ को ना कहना चाहिए.”
हरकारा डीपडाइव
आनंद तेलतुंबडे: विपक्ष के भ्रम से लोकतंत्र के पतन तक
हाल ही में हुए बिहार चुनाव के नतीजों ने एक बार फिर राजनीतिक पंडितों को विश्लेषण का मौका दिया है. लेकिन क्या यह विश्लेषण सिर्फ़ सीटों के जोड़-घटाव तक सीमित रहना चाहिए? हरकारा डीप डाइव पर निधीश त्यागी के साथ एक ख़ास बातचीत में, नागरिक अधिकार कार्यकर्ता और विद्वान प्रोफ़ेसर आनंद तेलतुंबडे इस सतही विश्लेषण से कहीं आगे जाते हैं. उनका तर्क है कि भारत में समस्या सिर्फ़ एक चुनाव हारने या जीतने की नहीं है, बल्कि उस पूरी लोकतांत्रिक प्रक्रिया के खत्म होने की है, जिस पर हम भरोसा करते आए हैं.
प्रो. तेलतुंबडे अपनी बातचीत की शुरुआत एक चौंकाने वाले तर्क से करते हैं, जो उन्होंने अपने एक लेख में भी दिया था—कि विपक्ष को इन चुनावों का बहिष्कार कर देना चाहिए था. उनके अनुसार, जब चुनाव कराने वाली संस्था (चुनाव आयोग) की निष्पक्षता ही सवालों के घेरे में हो, तो चुनाव में हिस्सा लेना उस धांधली को वैधता देने जैसा है. उन्होंने बताया कि 2023 में लाए गए कानून के बाद, जहाँ चुनाव आयुक्त की नियुक्ति सीधे प्रधानमंत्री के नियंत्रण में आ गई है, वहाँ निष्पक्ष चुनाव की उम्मीद करना बेमानी है.
यह बातचीत सिर्फ़ संस्थाओं पर कब्ज़े तक सीमित नहीं रहती. प्रो. तेलतुंबडे विपक्ष की भूमिका पर भी कड़े सवाल उठाते हैं. वे कहते हैं कि विपक्ष “बिजनेस एज़ यूज़ुअल” के मोड में काम कर रहा है, जबकि 2014 के बाद देश का पूरा ढाँचा बदल दिया गया है. विपक्ष ने जनता के मुद्दों पर कोई बड़ा आंदोलन खड़ा नहीं किया. जो बड़े आंदोलन (किसान आंदोलन और CAA विरोध) हुए भी, वे जनता ने ख़ुद खड़े किए और राजनीतिक दलों ने उनसे कोई सबक नहीं सीखा.
बातचीत का दायरा और बड़ा होता है जब प्रो. तेलतुंबडे भारत की स्थिति को वैश्विक परिप्रेक्ष्य में रखते हैं. वे कहते हैं कि नव-उदारवादी पूँजीवाद की विफलता के बाद दुनिया भर में तानाशाही ताकतें उभर रही हैं. लेकिन भारत की स्थिति ज़्यादा गंभीर और अनूठी है, क्योंकि यहाँ सत्ता में आई विचारधारा (RSS-BJP) ने सौ साल की तैयारी के साथ अपनी ज़मीन बनाई है. इसका मुक़ाबला करने के लिए जिस संगठित और वैचारिक स्पष्टता की ज़रूरत है, वह विपक्ष में दूर-दूर तक नज़र नहीं आती.
दलित राजनीति और युवाओं की भूमिका पर भी वे निराशाजनक तस्वीर पेश करते हैं. उनके मुताबिक़, ख़ुद को “अंबेडकरवादी” कहने वाली पार्टियाँ बिना किसी सिद्धांत के अवसरवादी बन गई हैं और नौजवान पीढ़ी नव-उदारवाद की देन है, जो व्यक्तिगत सफलता की दौड़ में इतनी उलझी है कि उसे सामूहिक और लोकतांत्रिक मूल्यों की कोई परवाह नहीं.
अंत में, प्रो. तेलतुंबडे कहते हैं कि माहौल बेहद निराशाजनक है, लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि कोई रास्ता नहीं है. पर रास्ता तभी निकलेगा जब हम यह मान लें कि पुराने तरीक़े अब काम नहीं करेंगे और इस देश की अनूठी चुनौतियों के लिए हमें अपने ही समाधान खोजने होंगे.
यह बातचीत एक चुनावी विश्लेषण नहीं, बल्कि भारतीय लोकतंत्र के भविष्य पर एक ज़रूरी चेतावनी है.
योगेन्द्र यादव: जीतते हैं मोदी और क्यों हारते हैं राहुल?
बिहार चुनाव में एनडीए की ज़बरदस्त जीत और महागठबंधन की करारी हार ने भारतीय राजनीति के दो सबसे बड़े सवालों को फिर से सामने ला खड़ा किया है: आख़िर बीजेपी और नरेंद्र मोदी बार-बार क्यों जीतते हैं? और कांग्रेस और राहुल गांधी लगातार क्यों हारते हैं? ये सवाल जितने आसान लगते हैं, इनके जवाब उतने ही जटिल हैं. भारत के जाने-माने राजनीतिक विश्लेषक और भारत जोड़ो अभियान के राष्ट्रीय संयोजक योगेंद्र यादव ने करण थापर के साथ एक इंटरव्यू में इन सवालों की गहराई से पड़ताल की.यह धारणा आम है कि नरेंद्र मोदी की जीत का राज़ सांप्रदायिकता, नफ़रत और अल्पसंख्यक विरोधी बयानबाज़ी है. योगेंद्र यादव इस बात से इनकार नहीं करते कि मोदी और बीजेपी इसका भरपूर इस्तेमाल करते हैं, लेकिन उनका मानना है कि यह पूरी तस्वीर नहीं है. मोदी की सफलता का एक बड़ा कारण उनकी सकारात्मक नैरेटिव गढ़ने की क्षमता है.
वह अपने भाषणों में एक साथ देश के गौरवशाली अतीत और सुनहरे भविष्य की तस्वीर पेश करते हैं. वह लोगों को यह एहसास दिलाते हैं कि आपका देश महान है, आपकी सभ्यता महान है और हम सब मिलकर इसे और बेहतर बना रहे हैं. यह एक ऐसा संदेश है जो हर कोई सुनना चाहता है. यादव कहते हैं कि मोदी के राजनीतिक तरकश में नफ़रत के अलावा एक राष्ट्रवादी कल्पना, बेहतर भविष्य का वादा और लोगों से जुड़ने की कला भी है, जिसे अक्सर नज़रअंदाज़ कर दिया जाता है.
इसके अलावा, बीजेपी की जीत का श्रेय सिर्फ़ मोदी के करिश्मे को नहीं, बल्कि उनकी अभूतपूर्व चुनावी मशीनरी को भी जाता है. योगेंद्र यादव इसकी तुलना कोटा के कोचिंग संस्थानों से करते हैं. जैसे कोटा ने परीक्षा की तैयारी का तरीक़ा बदल दिया, वैसे ही बीजेपी ने चुनाव लड़ने का तरीक़ा बदल दिया है. वह कहते हैं, “जैसे हमारे-आपके पुराने तरीक़ों से आज आईआईटी में एडमिशन नहीं मिल सकता, वैसे ही विपक्ष के पुराने तरीक़ों से चुनाव नहीं जीते जा सकते.” बीजेपी की यह मशीन मैक्रो और माइक्रो, दोनों स्तरों पर काम करती है, जिसमें जायज़ और नाजायज़, हर तरह के हथकंडे अपनाए जाते हैं.
दूसरी तरफ़, विपक्ष और ख़ासकर कांग्रेस की लगातार हार के पीछे कई कारण हैं. योगेंद्र यादव के अनुसार, विपक्ष की सबसे बड़ी विफलता एक जवाबी नैरेटिव (counter-narrative) गढ़ने में असमर्थता है. विपक्ष का नैरेटिव सिर्फ़ मोदी की आलोचना तक सीमित है. वह यह तो बताता है कि मोदी सरकार ने क्या ग़लत किया, लेकिन वह भविष्य का कोई विश्वसनीय और सकारात्मक खाका पेश नहीं कर पाता. लोग सिर्फ़ नकारात्मक बातें नहीं सुनना चाहते, उन्हें एक उम्मीद और एक योजना चाहिए.
यादव बताते हैं कि विपक्ष तीन महत्वपूर्ण चीज़ों को समझने में नाकाम रहा है: राष्ट्रवाद, अपनी सभ्यता की विरासत पर गर्व और देश के धर्मों से जुड़ाव. इन तीनों पर बीजेपी ने अपनी पकड़ बना ली है, जबकि विपक्ष इस मैदान को खाली छोड़ चुका है.
नैरेटिव की विफलता के साथ-साथ संगठनात्मक विफलता भी एक बड़ा कारण है. विपक्ष बीजेपी जैसी चुनावी मशीन के सामने टिकने में पूरी तरह नाकाम रहा है. योगेंद्र यादव कहते हैं कि यह एक सामान्य लोकतांत्रिक दौर नहीं है, हम एक ऐसे दौर से गुज़र रहे हैं जिसे ‘प्रतिस्पर्धी अधिनायकवाद’ (Competitive Authoritarianism) कहा जाता है. इसमें एक सत्तावादी सरकार अपनी वैधता साबित करने के लिए चुनावों का दिखावा करती है. ऐसे में विपक्ष के नेताओं पर मुक़दमे लादे जा रहे हैं, उन्हें ख़रीदा जा रहा है, मीडिया उनके ख़िलाफ़ है और पैसे के मामले में वे बीजेपी से मुक़ाबला करने की सोच भी नहीं सकते. इन मुश्किलों के बावजूद, यादव मानते हैं कि विपक्ष ने वह सब भी नहीं किया जो वह कर सकता था.
अक्सर यह सवाल उठता है कि क्या राहुल गांधी ख़ुद एक समस्या हैं, जो जनता को अपनी तरफ़ आकर्षित नहीं कर पाते. योगेंद्र यादव इससे पूरी तरह सहमत नहीं हैं. उनका मानना है कि जो लोग राहुल गांधी से मिलते हैं, वे उनसे बेहद प्रभावित होते हैं. वह कहते हैं, “अजीब बात है कि राहुल सामाजिक पदानुक्रम में जितना नीचे जाते हैं, आम लोगों से उनका संवाद उतना ही आत्मीय और स्नेहपूर्ण होता है.”
उनके अनुसार, समस्या राहुल गांधी के व्यक्तित्व में नहीं, बल्कि तीन चीज़ों में है. पहला, उनके पास एक दृष्टि के कुछ अंश तो हैं, लेकिन उसे प्रभावी ढंग से जनता तक पहुँचाने की क्षमता नहीं है. दूसरा, वे अपनी बड़ी दृष्टि को संगठन के स्तर पर ज़मीन पर नहीं उतार पाते. और तीसरा, वे संगठन में अच्छा काम करने वालों को इनाम और बुरा करने वालों को सज़ा देने की व्यवस्था नहीं बना पाए हैं, जो बीजेपी ने सफलतापूर्वक किया है.
यह एक अजीब विरोधाभास है कि देश का 65% युवा 75 साल के नरेंद्र मोदी को 55 साल के राहुल गांधी पर तरजीह देता है. यह दिखाता है कि कांग्रेस पार्टी अपने नेता को देश के सामने सही तरीक़े से पेश करने में बुरी तरह विफल रही है.
क्या कांग्रेस का हश्र ब्रिटेन की लिबरल पार्टी जैसा होगा, जो कभी सत्ता में थी और आज हाशिये पर है? यादव कहते हैं कि 2014 में कांग्रेस हाशिये पर जा चुकी थी, 2024 में थोड़ी बेहतर स्थिति में है. लेकिन अगर वह आने वाले चुनावों, ख़ासकर केरल और असम में अच्छा प्रदर्शन नहीं कर पाती, तो उसकी मुश्किलें बढ़ेंगी.
अंततः, बदलाव की चाबी विपक्ष के ही हाथ में है. उसे एक सुसंगत और सकारात्मक नैरेटिव गढ़ना होगा और एक ऐसी चुनावी मशीन बनानी होगी जो बीजेपी का मुक़ाबला कर सके. विपक्ष के सामने चुनौती बहुत बड़ी है, लेकिन अगर वह अपनी क्षमता का पूरा इस्तेमाल करे, तो तस्वीर बदल सकती है. जैसा कि योगेंद्र यादव कहते हैं, “अगर विपक्ष आने वाले कुछ महीनों में एक-दो चुनाव भी पलट दे, तो आज हम और आप जो बात कर रहे हैं, उसकी भाषा भी बदल जाएगी.”
फ्रीडम हाउस रिपोर्ट के मुताबिक भारत की आज़ादी आंशिक है, इंटरनेट स्वतंत्रता में 72 में 51वां स्थान
‘द वायर’ ने अमेरिकी गैर-लाभकारी संगठन ‘फ्रीडम हाउस’ की रिपोर्ट के हवाले से बताया है कि वैश्विक इंटरनेट स्वतंत्रता में लगातार पंद्रहवें वर्ष गिरावट दर्ज की गई है. मूल्यांकन किए गए 72 देशों में से 27 में गिरावट देखी गई है. ‘फ्रीडम ऑन द नेट 2025’ रिपोर्ट के अनुसार, भारत का दर्जा “आंशिक रूप से स्वतंत्र” बना हुआ है और यह 51वें स्थान पर है. आखिरी बार 2021 में संगठन ने भारत को इंटरनेट नियंत्रण के मामले में “स्वतंत्र” दर्जा दिया था.
रिपोर्ट में पाया गया है कि ऑनलाइन स्पेस में हेरफेर बढ़ा है, क्योंकि अधिकारी अपने पसंदीदा आख्यानों को बढ़ावा देने और सार्वजनिक विमर्श को बदलने की कोशिश कर रहे हैं. केन्या में सबसे बड़ी गिरावट दर्ज की गई, जबकि बांग्लादेश ने अगस्त 2024 में छात्र नेतृत्व वाले विद्रोह के बाद सबसे मजबूत सुधार दर्ज किया है. चीन और म्यांमार इंटरनेट स्वतंत्रता के लिए दुनिया के सबसे खराब वातावरण बने हुए हैं, जबकि आइसलैंड में सबसे स्वतंत्र ऑनलाइन वातावरण पाया गया.
भारत के संदर्भ में, रिपोर्ट में कहा गया है कि देश में ऑनलाइन सूचना का माहौल गलत सूचनाओं और भ्रामक सामग्री से भरा है. विशेष रूप से पहलगाम आतंकी हमले (रिपोर्ट के संदर्भ अनुसार 2025) और उसके बाद भारत-पाकिस्तान सैन्य संघर्ष के दौरान सोशल मीडिया एआई-जनित या भ्रामक वीडियो से भर गया था. दोनों देशों के सरकारी समर्थित इन्फ्लुएंसर्स ने भड़काऊ सामग्री पोस्ट की.
रिपोर्ट में ‘द वायर’ की वेबसाइट को 9 मई को कई घंटों के लिए ब्लॉक किए जाने का भी जिक्र है, जो ‘सीएनएन’ की एक रिपोर्ट पर आधारित खबर के कारण हुआ था. इसके अलावा, रिपोर्ट में डेटा गोपनीयता पर भी चिंता जताई गई है. इसमें भारत की ‘आधार’ प्रणाली का उदाहरण दिया गया है, जहाँ इससे जुड़े डेटाबेस में सेंध लगने से लाखों आधार नंबर लीक हुए, जिससे धोखाधड़ी और साइबर अपराध बढ़े.
यह ध्यान देने योग्य है कि किसी देश की सरकार द्वारा उपयोग किए जाने वाले छह प्रमुख इंटरनेट नियंत्रणों में से, भारत सभी का उपयोग करता है - सोशल मीडिया या संचार प्लेटफार्मों पर रोक, राजनीतिक/सामाजिक सामग्री को ब्लॉक करना, नेटवर्क को जानबूझकर बाधित करना, सरकार समर्थक कमेंटेटर्स द्वारा चर्चाओं में हेरफेर, और राजनीतिक सामग्री के लिए उपयोगकर्ताओं की गिरफ्तारी या उन पर शारीरिक हमले. रिपोर्ट में यह भी उल्लेख किया गया है कि भारत सरकार ने हाल ही में विवादास्पद डिजिटल पर्सनल डेटा प्रोटेक्शन (डीपीडीपी) एक्ट, 2025 के नियमों को अधिसूचित किया है, जिसे आलोचकों ने पारदर्शिता और व्यक्तिगत स्वतंत्रता के लिए बाधा बताया है.
आंध्र प्रदेश में शीर्ष माओवादी नेता हिडमा मुठभेड़ में ढेर, माओवादी आंदोलन को बड़ा झटका
‘द हिंदू’ के लिए रिपोर्टर सुमित भट्टाचार्जी लिखते हैं कि अल्लूरी सीताराम राजू (एएसआर) जिला पुलिस की स्पेशल पार्टी टीम ने मंगलवार (18 नवंबर, 2025) की सुबह आंध्र प्रदेश के मारेदुमिल्ली मंडल के नेल्लूरू गांव के पास मुठभेड़ में कुख्यात माओवादी नेता मांडवी हिडमा उर्फ संतोष, उसकी पत्नी मडकम राजे उर्फ राजक्का और चार अन्य को मार गिराया. आंध्र प्रदेश के डीजीपी हरीश कुमार गुप्ता के अनुसार, मुठभेड़ सुबह 6 से 7 बजे के बीच हुई और तलाशी अभियान जारी रहा.
हिडमा का मारा जाना पहले से ही कमजोर हो रहे माओवादी आंदोलन के लिए एक बहुत बड़ा झटका माना जा रहा है. हिडमा न केवल लंबे समय से सुरक्षा बलों को चकमा दे रहा था, बल्कि उसे एक सैन्य रणनीतिकार और भयंकर लड़ाका भी माना जाता था. वह प्रतिबंधित सीपीआई (माओवादी) की मुख्य लड़ाकू ताकत, सेंट्रल मिलिट्री कमीशन (सीएमसी) का प्रमुख था और अपने लड़ाकों का नेतृत्व करने की क्षमता के लिए जाना जाता था. 1981 में छत्तीसगढ़ के सुकमा में जन्मा हिडमा, सेंट्रल कमेटी का सबसे युवा सदस्य था और हाल के वर्षों में बस्तर क्षेत्र से सेंट्रल कमेटी में शामिल होने वाला एकमात्र आदिवासी था. वह 50 लाख रुपये का इनामी था और कम से कम 26 बड़े घातक हमलों में शामिल था. इसमें 2010 में छत्तीसगढ़ के दंतेवाड़ा में सीआरपीएफ कैंप पर हमला (जिसमें 76 जवान शहीद हुए थे) और 2013 का झीरम घाटी हमला (जिसमें कांग्रेस के कई शीर्ष नेता मारे गए थे) शामिल हैं.
रिपोर्ट के अनुसार, कभी केंद्र सरकार द्वारा देश के लिए सबसे बड़ा आतंकवादी खतरा माना जाने वाला माओवादी आंदोलन अब खत्म होने की कगार पर है. केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह सहित सरकार ने मार्च 2026 तक इस आंदोलन को समाप्त करने की समय सीमा निर्धारित की है. इसके तहत छत्तीसगढ़ और अन्य प्रभावित राज्यों में ‘ऑपरेशन कगार’ चलाया जा रहा है. सीपीआई (माओवादी), जिसके 2004 में लगभग 42 सेंट्रल कमेटी सदस्य थे, अब केवल 12 रह गए हैं. इस वर्ष ही, पार्टी के महासचिव बसवराज सहित पांच सेंट्रल कमेटी सदस्य मारे गए हैं. हिडमा उन नेताओं में से एक था जिस पर माओवादी नेतृत्व को अपने सैन्य आंदोलन को पुनर्जीवित करने की उम्मीद थी, लेकिन उसके मारे जाने के साथ ही अब इस आंदोलन का अंत निकट दिखाई दे रहा है.
अमेरिका में नए अंतर्राष्ट्रीय छात्र नामांकन में 17% की गिरावट; भारतीय शीर्ष पर कायम
अमेरिका में चल रही वीज़ा अनिश्चितताओं के बीच, नवीनतम “ओपन डोर्स 2025” रिपोर्ट, जो शैक्षणिक वर्ष 2025-26 के शुरुआती रुझान बताती है, के अनुसार नए अंतर्राष्ट्रीय छात्रों के नामांकन में 2025 में 17% की तेज गिरावट आई है, जबकि 2024 में यह गिरावट 7% थी.
अमेरिका में अंतर्राष्ट्रीय छात्रों और विदेश में अध्ययन करने वाले अमेरिकी छात्रों के डेटा का प्रमुख स्रोत, इंस्टीट्यूट ऑफ इंटरनेशनल एजुकेशन (आईआईई) द्वारा सालाना प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार, कुल गिरावट के बावजूद, भारत ने शैक्षणिक वर्ष 2024-25 में लगातार दूसरे वर्ष अंतर्राष्ट्रीय छात्रों के शीर्ष स्रोत के रूप में अपना स्थान बरकरार रखा, चीन को पीछे छोड़ दिया. नामांकन में गिरावट के कारणों में 96% संस्थानों ने वीज़ा आवेदन संबंधी चिंताओं और 68% ने यात्रा प्रतिबंधों का उल्लेख किया है.
फरीहा इफ़्तीखार के अनुसार, रिपोर्ट में बताया गया है कि भारतीय छात्रों के नए नामांकन में गिरावट सबसे अधिक स्पष्ट है, जिसका मुख्य कारण 2025 में समग्र राष्ट्रीय गिरावट को बढ़ाना है. इसके विपरीत, चीन (56%) और दक्षिण कोरिया (60%) से नामांकन स्थिर रहा या बढ़ा.
सोमवार को जारी रिपोर्ट के अनुसार, 2024-25 में अमेरिका में 3,63,019 भारतीय छात्र नामांकित थे, जो पिछले वर्ष से 10% अधिक है. कुल 1,177,766 अंतर्राष्ट्रीय छात्रों में भारतीयों की संख्या 30.8% थी. चीन 2,65,919 छात्रों के साथ दूसरे स्थान पर रहा, जो 4% की गिरावट है. 2023-24 में भारत 15 वर्षों में पहली बार चीन को पछाड़कर सबसे बड़ा स्रोत बना था.
कुल अंतर्राष्ट्रीय छात्रों की संख्या 2024-25 में 4% बढ़कर 1,177,766 हो गई. हालांकि, नए अंतर्राष्ट्रीय छात्रों की संख्या 7% घटकर 2,77,118 रह गई. नए स्नातक छात्रों की संख्या 5% बढ़ी, जबकि नए स्नातकोत्तर छात्रों की संख्या 15% कम हुई.
डोनाल्ड ट्रम्प प्रशासन के तहत सख्त वीज़ा नियमों ने अनिश्चितता पैदा की है. 2024-25 में 57% अंतर्राष्ट्रीय छात्रों ने “स्टेम” (विज्ञान, टेक्नोलॉजी, इंजीनियरिंग, गणित) क्षेत्रों में अध्ययन किया.
वीज़ा जारी करने में भी महत्वपूर्ण बदलाव आए हैं. वित्तीय वर्ष 2024 में भारतीय छात्रों को जारी किए गए एफ वीज़ा (पूर्णकालिक छात्रों के लिए) में वित्तीय वर्ष 2023 की तुलना में 33.2% की भारी गिरावट आई है. एम वीज़ा (व्यावसायिक) में 18.2% और जे वीज़ा (विनिमय) में 1.7% की गिरावट आई. चीन के लिए एफ वीज़ा में 3.6% की गिरावट आई, जबकि एम और जे वीज़ा में वृद्धि हुई.
बिहार:
प्रशांत किशोर ने महिलाओं को 10,000 रु देना वोट खरीदने के बराबर बताया
जन सुराज पार्टी के प्रमुख प्रशांत किशोर ने जो बताया है, उससे सचमुच चुनाव आयोग की भूमिका पर गंभीर सवाल खड़ा होता है. बिहार के चुनाव नतीजे आने के बाद पहली बार मीडिया से मुखातिब किशोर ने बिहार सरकार की कड़ी आलोचना करते हुए मंगलवार को कहा कि विभिन्न आजीविका कार्यक्रमों के तहत चुनाव से पहले बड़े पैमाने पर नकद वितरण करना “वोट खरीदने” के बराबर था. “द इंडियन एक्सप्रेस” के अनुसार, उन्होंने कहा, “देश के इतिहास में पहली बार किसी राज्य सरकार ने चुनाव से पहले लगभग ₹40,000 करोड़ खर्च किए या देने का वादा किया.” उन्होंने कहा, “सरकार की स्वरोजगार योजना के तहत हर विधानसभा क्षेत्र में लगभग 60,000 से 62,000 महिलाओं को ₹10,000 दिए गए, इस आश्वासन के साथ कि यदि सत्तारूढ़ गठबंधन सत्ता में वापस आता है, तो उन्हें छह महीने के भीतर ₹2 लाख और मिलेंगे.”
उन्होंने आगे कहा कि इस पैसे को वितरित करने और संदेश पहुंचाने के लिए जीविका दीदी, आशा और आंगनवाड़ी कार्यकर्ताओं सहित सरकारी कर्मियों का इस्तेमाल किया गया. किशोर ने कहा, “इन नेटवर्कों के माध्यम से लगभग ₹29,000 करोड़ वितरित किए गए. यदि यह पैसा वास्तव में रोज़गार सृजन के लिए था, न कि केवल वोट खरीदने के लिए, तो सरकार को अब उन सभी महिलाओं को वादा किया गया ₹2 लाख देना चाहिए, जिन्हें ₹10,000 मिले थे.”
उन्होंने मुख्यमंत्री नीतीश कुमार से छह महीने के भीतर इस वादे को पूरा करने का आग्रह किया. उन्होंने कहा, “अगर सरकार ऐसा करने में विफल रहती है, तो यह स्पष्ट हो जाएगा कि पैसा किसी योजना के तहत नहीं, बल्कि केवल वोट खरीदने के लिए दिया गया था.” उन्होंने कहा, “अगर नीतीश कुमार की सरकार छह महीने के भीतर 1.5 करोड़ महिलाओं में से प्रत्येक को ₹2 लाख प्रदान करती है, तो मैं राजनीति से संन्यास ले लूंगा. अगर वह ऐसा नहीं करती है, तो हम इन महिलाओं के साथ खड़े होंगे और उनके अधिकार सुरक्षित करने के लिए लड़ेंगे.” राजनीति से संन्यास की अटकलों को खारिज करते हुए प्रशांत किशोर ने कहा कि हार तब तक नहीं होती जब तक आप मैदान नहीं छोड़ते. अपनी स्थिति की तुलना महाभारत के पौराणिक पात्र अभिमन्यु से करते हुए उन्होंने कहा, “भले ही अभिमन्यु को घेर कर मार दिया गया था, लेकिन पांडवों ने अंततः जीत हासिल की. उन्होंने आगे कहा, “जो लोग मानते हैं कि मैं बिहार छोड़ दूंगा, वे गलत हैं. हम पीछे नहीं हटेंगे. पिछले तीन वर्षों में किए गए काम से दोगुना मेहनत करेंगे.” जन सुराज के संस्थापक ने कहा कि लोगों की अपेक्षाओं को पूरा न कर पाने के लिए “प्रायश्चित के कार्य” के रूप में, वह 20 नवंबर को बिधरवा गांधी आश्रम में एक दिवसीय मौन व्रत रखेंगे.
तीन भाजपा कार्यकर्ताओं ने दो जगह वोट डाले
बिहार में विशेष गहन पुनरीक्षण के कारण मसौदा सूची से 7 लाख ‘डुप्लीकेट’ नाम हटा दिए गए थे, लेकिन लगता है कि चुनाव आयोग भाजपा से जुड़े कम से कम तीन ऐसे व्यक्तियों के नाम हटाने से चूक गया, जो बिहार के साथ-साथ देश में एक अन्य जगह पर भी मतदाता के रूप में पंजीकृत थे.
“ऑल्ट न्यूज़” के अभिषेक कुमार की जांच से पता चलता है कि उत्तराखंड भाजपा किसान मोर्चा के सोशल मीडिया समन्वयक प्रभात कुमार ने बिहार विधानसभा चुनावों के पहले चरण में मतदान किया, लेकिन उन्होंने पिछले साल आम चुनावों के दौरान अपने गृह राज्य (उत्तराखंड) में भी मतदान किया था.
भगवा पार्टी की दिल्ली इकाई में पूर्वांचल मोर्चा के प्रमुख संतोष ओझा ने बिहार के पहले चरण में मतदान किया और साथ ही इस साल की शुरुआत में दिल्ली विधानसभा चुनाव के दौरान भी मतदान किया था. तीसरे हैं नागेंद्र पांडे, जो दिल्ली में भाजपा के बूथ स्तर के कार्यकर्ता थे और जिन्होंने फरवरी में दिल्ली विधानसभा के लिए मतदान किया था, ने भी 6 नवंबर को बिहार के सीवान से अपना वोट डाला. इन सभी के वोटर आईडी दो जगहों पर सक्रिय प्रतीत होते हैं.
तारिक अनवर ने हार का ठीकरा कृष्णा अल्लावरु पर फोड़ा
कटिहार से लोकसभा सांसद और कांग्रेस के सबसे अनुभवी चेहरों में से एक तारिक अनवर का मानना है कि बाकी सब चीजों से ऊपर, कृष्णा अल्लावरु को पार्टी का बिहार प्रभारी नियुक्त करना ही राज्य में पार्टी की हार का कारण बना. अनवर ने “द प्रिंट” से कहा, “इस बार मैं शुरू से ही डरा हुआ था, क्योंकि जिस व्यक्ति को बिहार का कोई ज्ञान नहीं है, जिसके पास कोई अनुभव नहीं है, जिसने कभी चुनाव नहीं लड़ा, उसे वहां भेजा गया था. मुझे लगा कि यह शुरू से ही एक गलत फैसला था. उनका काम करने का तरीका सही नहीं था. जब आप गलत शुरुआत करते हैं, तो आप अंत सही होने की उम्मीद कैसे कर सकते हैं?”
आंध्रप्रदेश से ताल्लुक रखने वाले अल्लावरु को विपक्ष के नेता राहुल गांधी के बहुत करीब माना जाता है और उन्हें मोहन प्रकाश की जगह फरवरी में पार्टी का बिहार प्रभारी नियुक्त किया गया था. अल्लावरु की नियुक्ति के समय पर सवाल उठाते हुए, अनवर ने कहा कि एक प्रभारी से कुछ ही महीनों के भीतर बिहार जैसे जटिल राज्य को समझने की उम्मीद करना अवास्तविक था.
उन्होंने तर्क दिया कि बिहार में अपनी कमजोर संगठनात्मक उपस्थिति और 2020 के विधानसभा चुनावों में कम स्ट्राइक रेट को देखते हुए कांग्रेस को 50 से अधिक सीटों पर चुनाव नहीं लड़ना चाहिए था. उन्होंने बिहार कांग्रेस अध्यक्ष राजेश राम की संगठनात्मक साख पर भी सवाल उठाया और कहा कि वह अध्यक्ष पद के लिए सही चुनाव नहीं थे.
अनवर ने तर्क दिया कि कांग्रेस को शीर्ष-स्तरीय सुधारों पर निर्भर रहने के बजाय जमीनी स्तर के काम पर लौटना चाहिए. हमारा जमीनी संगठन कमजोर है. बूथ प्रबंधन नहीं है. अध्यक्ष या पर्यवेक्षक को बदलने से काम नहीं चलेगा.”
अनवर ने कहा कि बिहार में ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुस्लिमीन (एआईएमआईएम) के पांच उम्मीदवारों की जीत बढ़ती “हिंदू सांप्रदायिकता” की प्रतिक्रिया के रूप में मुस्लिम समुदाय में कट्टरपंथियों के बढ़ते प्रभाव को दर्शाती है. यह चेतावनी देते हुए कि “सांप्रदायिक ताकतें मुस्लिम समुदाय में प्रवेश कर चुकी हैं”, उन्होंने एआईएमआईएम और भाजपा को “एक ही सिक्के के दो पहलू” बताया.
केदारनाथ यात्रा: ऐतिहासिक भीड़ ने पैदा किया 2,324 टन कचरे का संकट
केदारनाथ धाम में तीर्थयात्रियों की संख्या में अभूतपूर्व वृद्धि देखी गई. कथित तौर पर 17.68 लाख से अधिक भक्त दर्शन के लिए पहुंचे. लेकिन, बढ़ती भीड़ ने एक विशाल अपशिष्ट प्रबंधन संकट पर भी गंभीर ध्यान आकर्षित किया है, क्योंकि इस वजह से 2,324 टन कचरा इकट्ठा हुआ.
नरेंद्र सेठी के अनुसार, केदारनाथ मंदिर, जिसके कपाट लगभग छह महीने के मौसम के बाद 23 अक्टूबर को बंद हो गए थे, अब इस भारी भीड़ के परिणामों से जूझ रहा है.
उत्तराखंड पर्यटन विकास बोर्ड के एक वरिष्ठ अधिकारी ने कहा, “इस साल कचरे की मात्रा पिछले मौसमों की तुलना में काफी बढ़ गई है. हमने पिछले तीर्थयात्रा चक्र की तुलना में इस साल 325 टन अधिक कचरा एकत्र किया.”
प्लास्टिक की बोतलें, फेंके गए बरसाती कोट और अन्य गैर-जैव सामग्री से बने कूड़े की मात्रा ने मंदिर परिसर और दुर्गम ट्रेकिंग मार्गों पर दस दिवसीय गहन सफाई अभियान को आवश्यक बना दिया. जैविक कचरे को लगभग 70 किलोमीटर दूर रेंटोली में जिला मुख्यालय तक ले जाना पड़ता है, जिसमें भारी लॉजिस्टिक लागत आती है.
पर्यावरण विशेषज्ञ नाजुक हिमालयी पारिस्थितिकी तंत्र पर अनियंत्रित पर्यटन के बढ़ते प्रभाव पर गंभीर चिंता व्यक्त कर रहे हैं. पर्यावरणविद् चंदन नयाल ने “न्यू इंडियन एक्सप्रेस” को बताया, “325 टन की वृद्धि गहन चिंता का विषय है. इन संवेदनशील क्षेत्रों में बढ़ती मानवीय गतिविधि पारिस्थितिक संतुलन को गंभीर रूप से बाधित कर रही है. हम ट्रेकिंग और साहसिक पर्यटन के दौरान भी कचरे में इसी तरह की वृद्धि देख रहे हैं.”
नयाल ने एक महत्वपूर्ण मुद्दे पर प्रकाश डाला, “यहां प्लास्टिक कचरे का सबसे दुर्भाग्यपूर्ण पहलू यह है कि यह बर्फ के पिघलने को तेज़ करता है, जिससे पर्यावरण और अस्थिर हो जाता है. पर्यटन, चाहे वह धार्मिक हो या साहसिक-आधारित, को सख्ती से पर्यावरण-अनुकूल बनना चाहिए.”
ईडी ने अल-फलाह के संस्थापक सिद्दीकी को गिरफ्तार किया, 25 स्थानों पर छापे मारे
“द इंडियन एक्सप्रेस” की खबर है कि प्रवर्तन निदेशालय (ईडी) ने लाल किला विस्फोट के बाद जांच के दायरे में आए अल-फलाह विश्वविद्यालय के अध्यक्ष और संस्थापक, जावद अहमद सिद्दीकी को मनी लॉन्ड्रिंग के आरोप में गिरफ्तार कर लिया है. यह गिरफ्तारी मंगलवार शाम को हुई. इसके पहले प्रवर्तन निदेशालय (ईडी) ने 10 नवंबर के दिल्ली ब्लास्ट की जांच के सिलसिले में मंगलवार को दिल्ली एनसीआर में 25 स्थानों पर तलाशी ली. जिन परिसरों में छापेमारी की गई, उनमें अल-फलाह विश्वविद्यालय और इस संस्था से जुड़े व्यक्तियों से संबंधित स्थान शामिल हैं. “न्यू इंडियन एक्सप्रेस” के अनुसार, ट्रस्ट और विश्वविद्यालय के वित्त और प्रशासन की देखरेख करने वाले प्रमुख कर्मियों के ठिकानों पर भी छापे मारे गए हैं.
केंद्रीय एजेंसी ने एक प्रेस विज्ञप्ति में कहा, “ईडी की यह कार्रवाई वित्तीय अनियमितताओं, शेल कंपनियों, आवास संस्थाओं और मनी लॉन्ड्रिंग की जांच का हिस्सा है. अल-फलाह समूह से जुड़ी नौ शेल कंपनियां, जो सभी एक ही पते पर पंजीकृत हैं, की जांच की जा रही है.
जुबीन गर्ग की मौत मामले में अमित शाह ने अभियोजन की मंजूरी दी
“पीटीआई” के अनुसार, केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने असम के सांस्कृतिक प्रतीक जुबीन गर्ग की मौत के मामले में असम सरकार को भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता (बीएनएसएस) की धारा 208 के तहत मंजूरी दे दी है. मुख्यमंत्री हिमंत बिस्वा सरमा ने कहा कि इस मंजूरी से राज्य पुलिस को आरोप पत्र दाखिल करने की अनुमति मिलती है. सरमा ने “एक्स” पर पोस्ट किया कि यह जुबीन की मौत से जुड़े आरोपियों के खिलाफ आगे बढ़ने की मंजूरी है.
गर्ग की मौत सिंगापुर में हुई थी, जहां वह नॉर्थ ईस्ट इंडिया फेस्टिवल में भाग लेने गए थे. 19 सितंबर को उनकी मृत्यु हो गई थी और उनके अंतिम संस्कार के बाद, कई प्राथमिकी दर्ज की गईं, जिसके बाद राज्य सरकार ने मामलों की जांच के लिए सीआईडी के तहत एक विशेष जांच दल का गठन किया. इसके बाद, इस संबंध में फेस्टिवल आयोजक श्यामकानु महंत, उनके प्रबंधक सिद्धार्थ शर्मा और अन्य सहित सात लोगों को गिरफ्तार किया गया था.
डब्ल्यूएफपी: 2026 में 30 करोड़ से अधिक लोग गंभीर भुखमरी का सामना करेंगे
विश्व खाद्य कार्यक्रम (डब्ल्यूएफपी) ने कहा है कि फंडिंग में कटौती दुनिया भर में गहराते भूख संकट को और बदतर कर देगी, यह चेतावनी देते हुए कि अगले साल 30 करोड़ से अधिक लोग गंभीर खाद्य असुरक्षा का सामना करेंगे.
संगठन ने मंगलवार को जारी अपनी 2026 ग्लोबल आउटलुक रिपोर्ट में कहा, “खाद्य असुरक्षा के चिंताजनक स्तर पर बने रहने की उम्मीद है.” संयुक्त राष्ट्र एजेंसी ने कहा कि अनुमानित 318 मिलियन लोग 2026 में गंभीर खाद्य असुरक्षा का सामना करेंगे, जो “संकट” स्तर या उससे भी बदतर के बराबर है, और यह संख्या 2019 की तुलना में दोगुनी से भी अधिक है.
इनमें से, लगभग 41 मिलियन लोगों के “आपातकालीन” चरण या उससे भी बदतर स्थिति में होने का अनुमान है, जो विश्व स्तर पर स्वीकृत भूख निगरानी प्रणाली पर आईपीसी4 या उच्चतर वर्गीकरण के बराबर है.
‘डब्ल्यूएफपी’ को उम्मीद है कि वह 2026 में लगभग 110 मिलियन लोगों को ही भोजन उपलब्ध करा पाएगा, जिससे खाद्य सहायता की आवश्यकता वाली वैश्विक आबादी का एक बड़ा हिस्सा इसकी सहायता से वंचित रह जाएगा.
“अल जजीरा” में प्रकाशित खबर के अनुसार, संगठन ने कहा कि उसका अनुमान है कि 2026 के लिए उसकी परिचालन आवश्यकता 13 बिलियन डॉलर होगी. वर्तमान पूर्वानुमान बताते हैं कि डब्ल्यूएफपी को इस राशि का केवल लगभग आधा ही प्राप्त हो सकता है.
डब्ल्यूएफपी की कार्यकारी निदेशक सिंडी मैक्केन ने एक बयान में कहा, “दुनिया गाजा और सूडान के कुछ हिस्सों में एक साथ अकाल से जूझ रही है. 21वीं सदी में यह पूरी तरह से अस्वीकार्य है.” “भूख अधिक गहरी होती जा रही है. हम जानते हैं कि शुरुआती, प्रभावी समाधान जीवन बचाते हैं, लेकिन हमें अत्यधिक समर्थन की सख्त जरूरत है.”
गाजा शहर और उसके आस-पास के क्षेत्रों में, इजरायली सेना द्वारा गाजा पर महीनों लंबी पूर्ण नाकेबंदी लगाए जाने के महीनों बाद, आईपीसी ने अगस्त में अकाल की घोषणा की थी. पूरे फिलिस्तीनी क्षेत्र में भूख संकट गंभीर बना हुआ है, क्योंकि इज़राइल भोजन, ईंधन, पानी और दवाओं की आपूर्ति पर प्रतिबंध जारी रखे हुए है. सूडान के अल-फ़ाशेर और कडुगली में इस महीने की शुरुआत में अकाल की स्थितियों की पुष्टि हुई थी, साथ ही दारफुर और कोरडोफ़ान के 20 अन्य क्षेत्रों में - जो अर्धसैनिक रैपिड सपोर्ट फोर्सेज और सूडानी सेना के बीच युद्ध के मैदान हैं - के भी अकाल की चपेट में आने का खतरा है.
नागरिकता साबित न कर पाईं, पुलिस ने सीमा पर छोड़ दिया : 68 साल की सकीना बेगम अब ढाका की जेल में क़ैद
असम की 68 साल की सकीना बेगम, जो महीनों से लापता थीं, अब ढाका के काशिमपुर जेल में बंद हैं. द वायर में परवेज़ अहमद रोनी की रिपोर्ट के अनुसार, उन्हें बिना पासपोर्ट-वीज़ा के बांग्लादेश में घुसने के आरोप में गिरफ़्तार किया गया है, जबकि उनका परिवार आरोप लगाता है कि उन्हें भारत से जबरन बांग्लादेश की सीमा के अंदर धकेल दिया गया था. सकीना पिछले 53 दिनों से हिरासत में हैं.
सकीना बेगम असम के नलबाड़ी जिले के बरकुरा गांव की रहने वाली हैं. मई में असम पुलिस उन्हें “हस्ताक्षर करवाने” के नाम पर अपने घर से ले गई थी. इसके बाद वे अचानक ग़ायब हो गईं और महीनों तक परिवार उनसे संपर्क नहीं कर पाया. जून की शुरुआत में वे ढाका के मीरपुर -भाषांतेक इलाके में सड़क किनारे बीमार हालत में मिलीं, जहां 40 वर्षीय जाकिया बेगम नाम की महिला ने उन्हें अपने घर ले जाकर इलाज और देखभाल दी.
जाकिया और मोहल्ले के लोगों ने उनकी पहचान जानने की कोशिश की और आख़िरकार बीबीसी बांग्ला के एक रिपोर्टर की मदद से सकीना के परिवार का पता लगाया गया . रिपोर्ट वायरल होने के बाद बांग्लादेश पुलिस ने सकीना को हिरासत में ले लिया और कंट्रोल ऑफ एंट्री एक्ट, 1952 के तहत केस दर्ज कर अदालत में पेश किया. अदालत ने उन्हें जेल भेजने का आदेश दिया.
सकीना की बेटी रासिया बेगम ने बताया कि उनकी मां कई सालों से भारत में ही अपनी नागरिकता साबित करने की लड़ाई लड़ रही थीं. 2012 में विदेशी घोषित होने के बाद वे 2016 से 2019 तक कोकराझार डिटेंशन सेंटर में रहीं. सुप्रीम कोर्ट से राहत मिलने पर उन्हें नियमित रूप से पुलिस में रिपोर्ट करना होता था. 25 मई को वे आखिरी बार पुलिस स्टेशन गईं. परिवार का दावा है कि अगले ही दिन उन्हें बीएसएफ ने बांग्लादेश बॉर्डर के पास छोड़ दिया. बीएसएफ ने इस मामले पर बीबीसी को कोई जवाब नहीं दिया.
जाकिया, जो खुद आर्थिक रूप से संघर्षरत घरेलू कामगार हैं, अब सकीना की रिहाई के लिए बांग्लादेश कोर्ट में लड़ाई लड़ रही हैं. वकील रहमतुल्लाह ने बताया कि तीन बार ज़मानत याचिका देने के बावजूद कोर्ट ने हर बार इसे खारिज कर दिया है. भारत में नागरिकता का मामला लंबित है और बांग्लादेश उन्हें अपना नागरिक मानने से इनकार कर रहा है. परिवार ने आधार कार्ड और कई दस्तावेज़ जमा किए हैं, लेकिन उनकी घर वापसी अभी भी अनिश्चित है. 10 नवंबर को ढाका कोर्ट में जब परवेज़ रोनी ने सकीना से बात करने की कोशिश की, तो वे घबराई हुई थीं और बार-बार अपनी बेटी के बारे में पूछ रही थीं. थोड़ी देर बाद पुलिस उन्हें जेल वैन में ले गई. ढाका स्थित भारतीय उच्चायोग ने कहा कि ‘हमें आधिकारिक सूचना नहीं मिली है. जैसे ही मिलेगी, हम मामले को देखेंगे’.
भारत के रत्न-आभूषण निर्यात-आयात में गिरावट
अक्टूबर 2025 में भारत के रत्न और आभूषण (जेम्स और ज्वेलरी) के निर्यात और आयात में बड़ी कमी आई है. यह जानकारी जेम एंड ज्वेलरी एक्सपोर्ट प्रमोशन काउंसिल (जीजेईपीसी) ने वाणिज्य मंत्रालय को दी है. यह गिरावट अक्टूबर 2024 की तुलना में बहुत कम है. जीजेईपीसी के अनुसार, अक्टूबर 2025 में जेम्स और ज्वेलरी के निर्यात में 30.57% की भारी गिरावट हुई है, जबकि आयात में भी 19% की कमी आई है.
“द वायर” के अनुसार,अमेरिका, ब्रिटेन और अन्य देशों में सोने के आभूषण जैसे लग्ज़री सामान की मांग कम हुई है. सोने-चांदी (बुलियन) के दाम लगातार बदलने से विदेशी खरीदारों ने ऑर्डर घटाए या टाल दिए. बुलियन की कीमतों में उतार-चढ़ाव से भारतीय निर्यातकों की मार्जिन भी कम हो जाती है.भारत रफ डायमंड, सोना और चांदी का आयात कर उसे प्रोसेस करके निर्यात करता है. इसलिए जब निर्यात कम होता है, तो आयात भी स्वाभाविक रूप से घट जाता है.
इसका असर आम उपभोक्ताओं पर भी पड़ रहा है, सोना खरीदना महंगा होता जा रहा है, चाहे शादी-ब्याह के लिए हो या निवेश के लिए.सरकारी आंकड़ों के अनुसार, ज्वेलरी सेक्टर में 50 लाख से ज़्यादा लोगों को रोजगार मिलता है और यह भारत की जीडीपी में 7% योगदान देता है.
अप्रैल–अक्टूबर 2025 की अवधि में कुल जेम्स और ज्वेलरी निर्यात में 2.72% की गिरावट आई है. हालांकि इसी अवधि में आयात 3% बढ़ा है. कट और पॉलिश डायमंड के निर्यात में अक्टूबर 2025 में लगभग 27% की गिरावट आई, जबकि आयात में 36% की कमी आई. कारेट वैल्यू में निर्यात लगभग 8% गिरा.अमेरिका में उच्च टैरिफ और नए शुल्कों को लेकर अनिश्चितता भी इस गिरावट की एक बड़ी वजह है. इसके साथ ही वैश्विक बाजारों में बढ़ती प्रतिस्पर्धा, श्रम लागत में बढ़ोतरी और डॉलर के मुकाबले रुपया कमज़ोर होने से भी उद्योग पर असर पड़ा है.
चीन में कमज़ोर मांग और आर्थिक सुस्ती ने भारत के डायमंड उद्योग को और नुकसान पहुंचाया है. भारत का विश्व बाजार में हिस्सा लगातार घट रहा है.लेब-ग्रोउन डायमंड के निर्यात में भी अक्टूबर 2025 में एक साल पहले की तुलना में 35% की भारी गिरावट आई.
चलते चलते
गांधी के ‘सत्याग्रह’ पर संगीतकार फिलिप ग्लास के ओपेरा की अब नई अनूठी पेशकश
‘द न्यूयॉर्क टाइम्स’ की रिपोर्ट के अनुसार, कोरियोग्राफर (नृत्य निर्देशक) बॉबी जीन स्मिथ और ओर श्राइबर पेरिस ओपेरा के प्रीमियर के लिए फिलिप ग्लास के ओपेरा ‘सत्याग्रह’ को अपने अनूठे अंदाज में प्रस्तुत करने जा रहे हैं. यह 1980 की कृति महात्मा गांधी और शांतिपूर्ण प्रतिरोध के प्रति उनके समर्पण पर आधारित है, जिसका प्रदर्शन 10 अप्रैल से 3 मई तक होगा.
स्मिथ और श्राइबर की मुलाकात तेल अवीव में बतशेवा डांस कंपनी में नर्तकों के रूप में हुई थी और वहीं उन्हें एक-दूसरे से प्यार हुआ. तब से, वे नृत्य की दुनिया में एक सेलिब्रिटी जोड़े बन गए हैं और कॉन्सर्ट डांस की सीमाओं से परे अपने काम के लिए जाने जाते हैं. इस प्रोजेक्ट के बारे में बात करते हुए, बॉबी जीन स्मिथ ने बताया कि पेरिस ओपेरा के जनरल डायरेक्टर अलेक्जेंडर नेफ ने उन्हें इसके लिए चुना, क्योंकि इस पीस के संगीत में पहले से ही इतनी गति है कि यह स्वाभाविक लगा.
स्मिथ ने कहा, “’सत्याग्रह’ का संगीत आपको अभिभूत कर देता है और यह आपको जाने नहीं देता. यह दबाव आपको आगे बढ़ने के लिए मजबूर करता है.” श्राइबर ने कहा कि सत्याग्रह दृढ़ता, रचनात्मकता और लचीलेपन का एक गहरा अभ्यास है. उन्होंने कहा, “अहिंसक प्रतिरोध की ताकत के साथ हिंसा का मुकाबला करना एक कट्टरपंथी और गहरा मानवीय कार्य है. मेरे लिए गांधी के कार्यों को पढ़ना बहुत प्रभावशाली रहा.”
यह जोड़ी कला के विभिन्न रूपों के बीच की बाधाओं को तोड़ने का प्रयास करती है, चाहे वह कोई नया पीस हो, ओपेरा का निर्देशन हो या फिल्म में काम करना. एक झलक यहां पर.
अपील :
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