18/12/2025: नया मनरेगा, न्यूक बिल संसद में पास | अडानी के खिलाफ़ फैसला देने की कीमत | बच्चों को चढ़ाया एचआईवी ख़ून | नौकरशाही पर हर्षंमंदर | विश्वगुरू की साख पर सुशांत सिंह | डोपिंग में भारत
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निधीश त्यागी, साथ में राजेश चतुर्वेदी, गौरव नौड़ियाल, फ़लक अफ़शां
आज की सुर्खियां
मनरेगा बिल पर संसद में संग्राम: विपक्ष ने फाड़ीं प्रतियां, भाजपा मुख्यमंत्रियों की सलाह भी दरकिनार; खेती के पीक सीजन में रुकेगा काम
हिजाब विवाद पर बिगड़े बोल: गिरिराज बोले- डॉक्टर ‘जहन्नुम’ में जाए; नीतीश के बचाव में दिया तर्क- क्या ये इस्लामिक देश है?
परमाणु ऊर्जा में अब प्राइवेट एंट्री: विपक्ष के विरोध के बावजूद ‘शांति’ बिल पास; सुरक्षा और जवाबदेही पर उठे गंभीर सवाल
धोखे से वर्दी, ताबूत में वापसी: रूस-यूक्रेन युद्ध में मारे गए राजस्थानी युवक का शव गांव पहुंचा; किचन के काम का वादा कर भेजा था जंग में
रूसी सेना में 202 भारतीय, 26 की मौत: विदेश मंत्रालय का संसद में जवाब; 7 लापता, 50 को वापस लाने की कोशिशें जारी
‘प्रधान सांसद’ के क्षेत्र से जुड़े तार?: अखिलेश का दावा- कफ सिरप का हजारों करोड़ का काला कारोबार; मोदी-योगी सरकार पर साधा निशाना
सतना में सिस्टम की जानलेवा लापरवाही: खून चढ़ाने से 5 बच्चों को हुआ HIV; माता-पिता निगेटिव, 9 महीने बाद जागी सरकार
अडाणी पर फैसला, उसी शाम तबादला: राजस्थान के जज ने कंपनी पर लगाया था जुर्माना; रातों-रात ट्रांसफर, हाई कोर्ट ने फैसले पर लगाई रोक
खेल जगत में शर्मनाक हैट्रिक: डोपिंग में भारत लगातार तीसरे साल नंबर वन; वाडा की रिपोर्ट ने खोली पोल, ओलंपिक दावेदारी को झटका
पीएमओ के ‘अदृश्य’ रणनीतिकार का पतन?: हीरेन जोशी पर सट्टेबाजी ऐप से रिश्ते का आरोप; ‘गेटकीपर’ की भूमिका पर उठे सवाल
अंग्रेजी मैकाले की नहीं, अंबेडकर की भाषा: कांचा इलैया का तर्क- भाषा विरोध असल में दलितों-पिछड़ों की तरक्की रोकने की साजिश
विदेश नीति का सबसे कठिन साल: ‘मजबूत भारत’ की छवि को धक्का; ट्रंप से उम्मीदें टूटीं, पड़ोसी भी हुए दूर- सुशांत सिंह का विश्लेषण
रीढ़ विहीन हुई नौकरशाही?: हर्ष मंदर की खरी-खरी- अब संविधान नहीं, सत्ता के प्रति वफादार हुए अफसर; बुलडोजर राज पर उठाए सवाल
‘मनरेगा’ की जगह नया विधेयक लोकसभा में पारित, विपक्ष ने विधेयक की प्रतियां फाड़ीं
लोकसभा की कार्यवाही गुरुवार को विपक्षी हंगामे के बीच विकसित भारत गारंटी फॉर रोज़गार एंड आजीविका मिशन (ग्रामीण) (VB-G RAM G) विधेयक, 2025 विधेयक के पारित होने के बाद पूरे दिन के लिए स्थगित कर दी गई. विपक्षी दल इस विधेयक के प्रावधानों का कड़ा विरोध कर रहे थे. “पीटीआई” के मुताबिक दरअसल, केंद्रीय मंत्री शिवराज सिंह चौहान जब विधेयक पर चर्चा का जवाब भाषण दे रहे थे, तब विपक्ष ने सरकार के खिलाफ नारेबाजी की और विधेयक की प्रतियां फाड़ दीं. विधेयक पारित होने के तुरंत बाद अध्यक्ष ओम बिरला ने सदन की कार्यवाही दिन भर के लिए स्थगित कर दी. शुक्रवार शीतकालीन सत्र का अंतिम दिन है. इस बीच लोकसभा से पारित होने के बाद यह विधेयक आज राज्यसभा में भी पेश कर दिया गया. हालांकि विपक्षी सदस्यों दिग्विजय सिंह और जयराम रमेश ने इसका विरोध किया और कहा कि सदस्यों को इसका अध्ययन करने के लिए कम से कम एक दिन का समय दिया जाना चाहिए. मगर मंत्री चौहान ने सदन में इसे प्रस्तुत कर दिया और इस पर चर्चा भी शुरू हो गई.
उधर लोकसभा की कार्यसूची के अनुसार, दिन में बाद में दिल्ली-राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में वायु प्रदूषण पर चर्चा होनी थी, जिसकी शुरुआत कांग्रेस सांसद प्रियंका गांधी वाड्रा द्वारा किए जाने की उम्मीद थी. पर ऐसा हो नहीं सका.
मनरेगा में कृषि कार्य शामिल करने की भाजपा मुख्यमंत्रियों की सिफारिश को मोदी सरकार ने किया दरकिनार
‘स्क्रॉल.इन’ में श्रीगिरीश जलीहाल की रिपोर्ट बताती है कि केंद्र सरकार द्वारा मनरेगा (MGNREGA) की जगह लाने के लिए प्रस्तावित नए बिल ने एक बड़ा विवाद खड़ा कर दिया है. साल 2020 में भाजपा और उनके सहयोगी दलों के सात मुख्यमंत्रियों के एक समूह ने सिफारिश की थी कि ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना का दायरा बढ़ाकर इसमें कृषि से जुड़े कार्यों को शामिल किया जाए. लेकिन मोदी सरकार ने इस सिफारिश को नज़रअंदाज़ करते हुए एक नया बिल ‘विकसित भारत गारंटी फॉर रोज़गार एंड आजीविका मिशन ग्रामीण’ (VB-G RAM G) पेश किया है.
इस नए बिल में सबसे विवादास्पद प्रावधान यह है कि कृषि के चरम मौसम (सॉविंग और हार्वेस्टिंग) के दौरान 60 दिनों तक मनरेगा के तहत काम रोक दिया जाएगा. सरकार का तर्क है कि इससे खेती के समय मजदूरों की उपलब्धता सुनिश्चित होगी. हालांकि, अर्थशास्त्री ज्यां द्रेज़ का कहना है कि यह बिल “सुधार की आड़ में मनरेगा को खत्म करने की तैयारी है.” 2018 में नीति आयोग के तहत बनी मुख्यमंत्रियों की जिस उप-समिति (जिसके संयोजक शिवराज सिंह चौहान थे) ने मनरेगा फंड का उपयोग किसानों की मदद के लिए करने का सुझाव दिया था, यह नया बिल उसके ठीक उलट है.
विशेषज्ञों का कहना है कि यह ‘ब्लैकआउट पीरियड’ मजदूरों के अधिकारों पर सीधा हमला है. अजीम प्रेमजी यूनिवर्सिटी के राजेंद्रन नारायणन का कहना है कि यह बिल “मजदूरों और किसानों के बीच एक कृत्रिम संघर्ष पैदा करने की कोशिश कर रहा है.” नरेगा संघर्ष मोर्चा ने भी इस कदम की आलोचना करते हुए कहा है कि यह ऐतिहासिक अधिकार-आधारित कानून को खत्म कर उसे सरकार की दया पर निर्भर योजना बनाने की कोशिश है.
‘निजी कंपनियों की बातों पर भरोसा करने के बजाय अपने वैज्ञानिकों की सुनें’
विपक्ष की तमाम चिंताओं, सवालों और विरोध के बीच ‘शांति’ विधेयक राज्यसभा में भी पास
राज्यसभा में गुरुवार को सस्टेनेबल हार्नेसिंग एंड एडवांसमेंट ऑफ न्यूक्लियर एनर्जी फॉर ट्रांसफॉर्मिंग इंडिया बिल, 2025 (शांति) पर तीखी बहस हुई. इस दौरान विपक्ष के कई सदस्यों ने परमाणु ऊर्जा के निजीकरण, सुरक्षा और जवाबदेही को लेकर गंभीर चिंताएं जताईं. हालांकि, विपक्ष की तमाम चिंताओं, सवालों और विरोध के बावजूद ‘शांति’ विधेयक आज राज्यसभा में भी पास हो गया.
चर्चा के दौरान, कांग्रेस सांसद जयराम रमेश ने परमाणु ऊर्जा के क्षेत्र में भारत के समृद्ध इतिहास को याद किया और इस बात पर जोर दिया कि इस क्षेत्र में महत्वपूर्ण विकास 2014 से दशकों पहले शुरू हो गया था. भाजपा के नेतृत्व वाली केंद्र सरकार की “संक्षिप्त नामों” और “आकर्षक शीर्षकों” वाली नीतियो पर कटाक्ष करते हुए उन्होंने कहा कि इस क्षेत्र में वैज्ञानिक और संस्थागत प्रगति वर्तमान प्रशासन से बहुत पुरानी है.
रमेश ने उल्लेख किया कि पहला परमाणु ऊर्जा कानून 6 अप्रैल 1948 को पारित किया गया था, जिसके बाद 15 अगस्त 1948 को परमाणु ऊर्जा आयोग की स्थापना हुई. इसके अध्यक्ष डॉ. होमी भाभा थे और के.एस. कृष्णन व शांति स्वरूप भटनागर सदस्य के रूप में सीधे प्रधानमंत्री को रिपोर्ट करते थे. उन्होंने 1950 में ‘इंडियन रेयर अर्थ्स लिमिटेड’ और 1954 में परमाणु ऊर्जा विभाग की स्थापना के साथ-साथ परमाणु ऊर्जा के शांतिपूर्ण अनुप्रयोग पर राष्ट्रीय संगोष्ठी का भी जिक्र किया, जहां भाभा ने तीन चरणों वाले परमाणु ऊर्जा कार्यक्रम की रूपरेखा तैयार की थी.
कांग्रेस सांसद ने कहा, “डॉ. होमी भाभा ने तीन चरणों की रूपरेखा दी थी: यूरेनियम, प्लूटोनियम-थोरियम और थोरियम-यूरेनियम. आज हमने पहले चरण में महारत हासिल कर ली है, लेकिन हम दूसरे चरण में अटके हुए हैं... हमारे पास दुनिया के थोरियम भंडार का एक चौथाई हिस्सा है. हम एक यूरेनियम-कमी वाले लेकिन थोरियम-समृद्ध देश हैं.” उन्होंने परमाणु ऊर्जा आयोग के पूर्व अध्यक्ष डॉ. अनिल काकोडकर के हवाले से कहा कि भारत को “तीसरे चरण में छलांग लगाने के लिए पहले चरण में भी थोरियम का उपयोग करना चाहिए.” उन्होंने आगे कहा, “यदि हम ऊर्जा सुरक्षा चाहते हैं, तो हमें थोरियम भंडार का उपयोग करना चाहिए... हमें बाहर की निजी कंपनियों की बातों पर भरोसा करने के बजाय अपने वैज्ञानिकों की बात सुननी चाहिए.”
इस विधेयक को भारत की परमाणु ऊर्जा प्रणाली का “कुलीनतंत्र” बताते हुए, टीएमसी सांसद सागरिका घोष ने तर्क दिया कि यह कानून पर्याप्त सुरक्षा उपायों के बिना इस क्षेत्र को निजी नियंत्रण के लिए खोलता है.
समान चिंताओं को दोहराते हुए, डीएमके सांसद पी. विल्सन ने कहा कि यह विधेयक गंभीर सुरक्षा मुद्दों का समाधान करने में विफल है और इसके बजाय आपूर्तिकर्ता की जवाबदेही को कमजोर करता है. उन्होंने चेतावनी दी कि जलवायु परिवर्तन के संदर्भ में परमाणु प्रतिष्ठान असुरक्षित बने हुए हैं. उन्होंने कहा, “चक्रवात, बाढ़, हीटवेव और बढ़ते समुद्र के स्तर के साथ इस अस्थिर वातावरण में, परमाणु ऊर्जा का विस्तार करना, विशेष रूप से निजी नियंत्रण के तहत, राष्ट्रीय सुरक्षा और मानव जीवन के साथ एक जुआ है.”
विल्सन ने रेडियोधर्मी कचरे के दीर्घकालिक खतरों की ओर भी इशारा किया और कहा कि भारत के पास अभी भी कचरा निपटान के लिए कोई प्रमाणित और दोषरहित प्रणाली नहीं है. उन्होंने कहा, “यह विधेयक इस ऐतिहासिक अन्याय को सुलझाए बिना विस्तार का प्रस्ताव करता है. यह दशकों के सुरक्षा उपायों को कमजोर करता है और देश की ऊर्जा संप्रभुता के लिए खतरा पैदा करता है.”
प्रस्तावित कानून के तहत जवाबदेही की सीमाओं को रेखांकित करते हुए, विल्सन ने आगे कहा, “इस विधेयक के तहत, लगभग 3600 मेगावाट के केंद्रीय परमाणु प्रतिष्ठान के लिए ऑपरेटर की जवाबदेही केवल 3,000 करोड़ रुपये तक सीमित है, जबकि छोटे रिएक्टरों के लिए यह स्थिति और भी खराब है, जहाँ यह मात्र 100 करोड़ रुपये है. परमाणु दुर्घटनाओं के लिए कुल अधिकतम जवाबदेही 300 बिलियन (30,000 करोड़) रुपये तय की गई है, और इससे ऊपर की किसी भी लागत का बोझ सरकार को उठाना होगा. इसका अर्थ है कि निजी कंपनियों की लापरवाही का हर्जाना करदाताओं को भरना पड़ेगा.”
उन्होंने तर्क दिया कि यह प्रभावी रूप से निजी ऑपरेटरों को सीमित मुआवजा देकर बाहर निकलने का रास्ता देता है, जबकि इसका दीर्घकालिक बोझ किसानों, मछुआरों, श्रमिकों, भावी पीढ़ियों और करदाताओं पर पड़ता है.
वहीं, आप सांसद संदीप कुमार पाठक ने कहा कि यह विधेयक विदेशों से निजी परमाणु मॉडल तो आयात करता है, लेकिन उनके नियामक सिस्टम को नहीं अपनाता. भारत की तैयारियों पर सवाल उठाते हुए उन्होंने कहा कि देश कोयला संयंत्रों के लिए भी मजबूत निगरानी तंत्र बनाने में संघर्ष कर रहा है. उन्होंने पूछा, “हम कोयला संयंत्रों के लिए एक संस्थागत ढांचा नहीं ला पाए हैं, जो कि एक परिपक्व तकनीक है, तो क्या हम परमाणु ऊर्जा के लिए ऐसा कर पाएंगे?” पाठक ने इस बात पर भी जोर दिया कि परमाणु नियामकों को संसद के प्रति जवाबदेह होना चाहिए. उन्होंने कहा, “भारत में ऑपरेटर, नियामक और प्रमोटर एक ही लोग हैं. निगरानी करने वाली संस्था एक स्वतंत्र वैधानिक निकाय होनी चाहिए.”
वाईएसआर सांसद अयोध्या रामी रेड्डी अल्ला ने राज्यों और स्थानीय समुदायों को इस कानून से मिलने वाले लाभों की कमी पर चिंता जताई. उन्होंने कहा, “यह विधेयक स्थानीय रोजगार की गारंटी, प्राथमिकता के आधार पर बिजली आवंटन या सामुदायिक विकास पर मौन है.” बीआरएस सांसद के.आर. सुरेश रेड्डी ने सुरक्षा जोखिमों, पर्यावरणीय जवाबदेही की कमियों और परमाणु खनन से जुड़े मुद्दों को उठाया. सीपीएम सांसद ए.ए. रहीम ने यह आरोप लगाते हुए विधेयक का विरोध किया कि इसे मुख्य रूप से परमाणु आपूर्तिकर्ताओं को लाभ पहुँचाने के लिए लाया गया है, जबकि बसपा सांसद रामजी ने भी अपनी आपत्तियां दर्ज कराईं.
इसके विपरीत, निर्दलीय सांसद सुधा मूर्ति ने विधेयक का समर्थन करते हुए दावा किया कि इस क्षेत्र के निजीकरण से रोजगार पैदा होंगे और गरीबी कम करने में मदद मिलेगी. उन्होंने कहा, “परमाणु ऊर्जा का नाम हमेशा हिरोशिमा या नागासाकी से जोड़ा जाता है, लेकिन परमाणु ऊर्जा का उपयोग शांतिपूर्ण तरीकों से किया जा सकता है. इसीलिए इस विधेयक को ‘शांति’ विधेयक कहा गया है.”
हिजाब विवाद पर बोले गिरिराज, नीतीश ने कुछ गलत नहीं किया, आयुष डॉक्टर “जाए जहन्नुम”
केंद्रीय मंत्री गिरिराज सिंह ने “हिजाब विवाद” पर गुरुवार को बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार का बचाव करते हुए कहा कि “उन्होंने कुछ भी गलत नहीं किया.” यह भी कहा कि नौकरी स्वीकार नहीं करने वाली डॉक्टर “जहन्नुम में जा सकती है.” हाल ही में पटना में एक सार्वजनिक कार्यक्रम के दौरान एक मुस्लिम महिला डॉक्टर के साथ नीतीश कुमार के बर्ताव ने व्यापक आक्रोश पैदा कर दिया है. इस बीच विवाद के बाद नीतीश कुमार की सुरक्षा बढ़ा दी गई है. मोदी सरकार के मंत्री गिरिराज सोमवार को पटना में हुई उस घटना पर प्रतिक्रिया दे रहे थे, जहां नीतीश कुमार ने एक नवनियुक्त आयुष डॉक्टर को नियुक्ति पत्र देते समय उनके चेहरे से नकाब (हिजाब) हटा दिया था.
‘पीटीआई’ की रिपोर्ट के अनुसार, जब गिरिराज सिंह से उन खबरों के बारे में पूछा गया, जिनमें कहा गया है कि महिला ने इस घटना से हुए सदमे के कारण नौकरी लेने से इनकार कर दिया है, तो उन्होंने टिप्पणी की कि वह डॉक्टर “जहन्नुम में जा सकती है.”
सिंह ने कहा, “अगर कोई नियुक्ति पत्र लेने जा रहा है, तो क्या उन्हें अपना चेहरा नहीं दिखाना चाहिए? क्या यह कोई इस्लामिक देश है? नीतीश कुमार ने एक अभिभावक के रूप में कार्य किया.” उन्होंने तर्क दिया, “अगर आप पासपोर्ट बनवाने जाते हैं, तो क्या आप अपना चेहरा नहीं दिखाते? जब आप एयरपोर्ट जाते हैं, तो क्या चेहरा नहीं दिखाते? लोग पाकिस्तान और ‘इंग्लिस्तान’ की बातें करते हैं, लेकिन यह भारत है. भारत में कानून का राज चलता है. “ जब महिला द्वारा नियुक्ति ठुकराने के बारे में पूछा गया, तो सिंह ने कहा, “वह नौकरी से मना करे या जहन्नुम में जाए, यह उसकी पसंद है.”
सिंह की यह टिप्पणी बिहार के स्वास्थ्य मंत्री मंगल पांडेय के उस बयान के कुछ ही देर बाद आई, जिसमें पांडेय ने कहा था कि उन्हें इस घटना के कारण डॉक्टर द्वारा नियुक्ति ठुकराए जाने की कोई जानकारी नहीं है. पांडेय ने मुख्यमंत्री का बचाव करते हुए कहा, “हमारे मुख्यमंत्री द्वारा महिलाओं का हमेशा सम्मान किया गया है, उन्होंने मातृ शक्ति के सशक्तिकरण के लिए बहुत प्रयास किए हैं. “
कोलकाता की रहने वाली डॉक्टर नुसरत परवीन उन दस आयुष डॉक्टरों में शामिल थीं, जो सोमवार को नियुक्ति पत्र लेने के लिए मुख्यमंत्री सचिवालय पहुँची थीं. जब परवीन की बारी आई, तो 75 वर्षीय मुख्यमंत्री ने उनके नकाब की ओर इशारा करते हुए “यह क्या है” कहा और फिर उसे नीचे खींचकर उनका चेहरा खोल दिया. इस घटना की वैश्विक स्तर पर आलोचना हुई है, और कई लोगों ने नीतीश कुमार पर “आरएसएस के एजेंडे” के तहत मुस्लिम परंपराओं का अनादर करने का आरोप लगाया है.
इस बीच, कई विपक्षी नेताओं ने गिरिराज सिंह की टिप्पणियों को “घटिया” और “गंदी” करार दिया है. बिहार के कटिहार से कांग्रेस सांसद तारिक अनवर ने मंत्री को “घटिया मानसिकता” वाला व्यक्ति बताया. अनवर ने कहा, “ये तीसरे दर्जे के लोग हैं, इनकी सोच छोटी है. वे नहीं समझते कि हमारा देश धर्मनिरपेक्ष है. हर कोई अपने धर्म का पालन करने के लिए स्वतंत्र है. नीतीश कुमार ने जो किया वह शर्मनाक और दुखद है.”
पीडीपी नेता इल्तिज़ा मुफ्ती ने भी सिंह पर तीखा हमला बोला. उन्होंने “एक्स” पर लिखा, “इस आदमी के गंदे मुँह को साफ करने के लिए फिनाइल ही काम करेगा. हमारी मुस्लिम माताओं और बहनों के हिजाब और नकाब को छूने की हिम्मत मत करना. वरना हम मुस्लिम महिलाएं तुम्हें और तुम्हारे जैसों को ऐसा सबक सिखाएंगी जिसे तुम हमेशा याद रखोगे.”
एनसीपी (एसपी) सांसद फौजिया खान ने भी कुमार और सिंह पर निशाना साधा. उन्होंने कहा, “यह बहुत दुखद है कि जिम्मेदार लोग ऐसी हरकतें करते हैं, इससे दुनिया में गलत संदेश जाएगा. यह महिला का व्यक्तिगत निर्णय है कि वह खुद को कितना ढकती है और नकाब हटाना एक महिला को निर्वस्त्र करने के समान है. उन्हें (कुमार को) सार्वजनिक माफी मांगनी चाहिए थी, लेकिन इसके बजाय वे कह रहे हैं कि जो हुआ वह सही था. “ सिंह की टिप्पणी के बारे में पूछे जाने पर कांग्रेस सांसद इमरान मसूद ने कहा, “उन्हें मानसिक बीमारी के इलाज की जरूरत है.”
टिप्पणी | राकेश कायस्थ
समाज ये बीमार हो, नीतिशे कुमार हो
बिहार में फिर से नीतिशे कुमार हैं लेकिन इस बार बहुत ज्यादा और सचमुच बीमार हैं. नीतीश कुमार जितने बीमार है, उतनी ही बीमार पूरी हिंदी पट्टी है. क्या दोनों की बीमारी एक जैसी है, या फिर अलग-अलग है? इन दोनों में ज्यादा बीमार कौन है? ये सवाल गहन विमर्श की मांग करते हैं और इस चर्चा में केवल वही लोग शामिल हो सकते हैं, जो मानसिक स्वास्थ्य के न्यूनतम मानदंडों पर खरे उतरते हों.
पहले बात नीतीश कुमार की बीमारी की. बिहार में आयुष डॉक्टरों का नियुक्ति पत्र बांटा जा रहा था. मुख्यमंत्री नीतीश कुमार वरिष्ठ कैबिनेट मंत्रियों के साथ नये डॉक्टरों को आशीर्वाद देने के लिए उपस्थित थे. नियुक्ति पत्र हासिल करने वालों में एक नौजवान मुस्लिम डॉक्टर भी थी. मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने बेहद आपत्तिजनक ढंग से उसका नकाब खींच दिया. यह घटना 25 साल पहले हुई होती तो शायद उतनी बड़ी नहीं मानी जाती.
जेंडर सेंसेटाइजेशन किस चिड़िया का नाम है, यह पुराने समाज को पता नहीं था. बत्तीस दाँतों के बीच जीभ की तरह किसी तरह खुद को बचाती लड़कियां, औरतें घर से निकलती थीं, बस, ट्रेन से लेकर अपने कार्यस्थल डरी-सहमी रहती थीं. अनगिनत फब्तियां, बदत्तमीजियां और अक्सर छोटी-मोटे शारीरिक अतिक्रमण को भी नज़रअंदाज़ कर दिया करती थीं. लेकिन अब हालात बदल चुके हैं. कानून बन चुके हैं. खुलकर शिकायतें आ रही हैं. हर दफ्तर में कमेटी है. लोग दंडित किये जा रहे हैं और कुछ मामलों में जेल तक जा रहे हैं.
जिसे भी सेक्सुअल हरासमेंट की कानूनी परिभाषा पता है, वो समझ सकता है कि बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश ने जो किया है, वह पूरी तरह हरासमेंट और यौन अतिक्रमण के दायरे में आता है. इस केस में लड़की के पास शिकायत करने का नैतिक और कानूनी अधिकार दोनों हैं. लेकिन अब आता है, दूसरा सवाल. क्या नीतीश कुमार ने ऐसी हरकत कोई पहली बार की है? उत्तर है नहीं और यहीं से उनकी सेहत से जुड़े सवाल सिर उठाते हैं.
पिछले डेढ़-दो साल से बहुत से मौकों पर आसपास खड़ी किसी औरत के साथ नीतीश कुमार अजीब तरह की आक्रामक और लगभग हमलावर मुद्रा में नज़र आये हैं. यू ट्यूब पर सर्च कीजिये आपको बहुत सारे ऐसे फुटेज मिल जाएंगे, जब किसी महिला उम्मीदवार ने नीतीश कुमार के गले में बड़ी शालीनता से फूलों की माला डाली और बदले में नीतीश हमलावर तरीके से आगे बढ़ते हुए उसे तीन-चार हार एक साथ पहना दिये, जैसे राक्षस विवाह की तरह स्वयंवर लूट रहे हों.
बिहार विधानसभा में परिवार नियोजन के नाम पर दिया गया नीतीश कुमार का वक्तव्य उनकी मानसिक स्थिति को दर्शाता है. परिवार नियोजन की बात करते-करते नीतीश कुमार ने स्त्री-पुरुष के अंतरंग संबंधों को खाका खींचना शुरू किया. सदन में मौजूद लोगों के मना करने तक पर नहीं रुके. आज़ाद भारत के इतिहास में ऐसा पहली बार हुआ होगा जब किसी राज्य का मुख्यमंत्री विधानसभा में पोर्नोग्राफिक स्टोरी टेलर की भूमिका में दिखा.
सिर्फ ठरकपना या यौन कुंठा कहकर आप नीतीश कुमार के वास्तविक मानसिक स्वास्थ्य को परिभाषित नहीं कर सकते हैं. मैंने जितना पढ़ा है, अल्जाइमर्स और डिमेंशिया के मध्यवर्ती या अंतिम चरण में बहुत से मरीज़ों की स्थिति ऐसी हो जाती है, जब उनका अपनी यौनेच्छा पर नियंत्रण खत्म हो जाता है.
मनोविज्ञान की भाषा आप इसे hyper-sexuality या sexual disinhibition कह सकते हैं. डिमेंशिया जैसी स्थिति या बुढ़ापे में मष्तिष्क के निर्णय लेने और व्यवहार को संचालित करने वाले हिस्से यानी फ्रंटल लोब के क्षतिग्रस्त होने से भी व्यवहार और भाव-भंगिमाएं अनियंत्रित हो सकती हैं.
नीतीश कुमार अपने जीवन के सक्रिय दिनों में मानसिक रूप से काफी चुस्त रहे हैं. उनका पहले का कोई ऐसा ट्रैक रिकॉर्ड भी नहीं है, जिसके आधार पर कई दूसरे राजनेताओं की तरह उन्हें यौन कुंठा से ग्रसित या यौन अपराधी माना जा सके.
राजनीतिक रूप से भले ही मैं नीतीश कुमार को नापसंद करूं लेकिन उनकी वर्तमान मानसिक स्थिति मेरे मन में एक तरह गहरा अफसोस और करूणा का भाव जगाती है. ज़रा सोचकर देखिये पत्नी का निधन बरसों पहले हो चुका है, बेटे के साथ भी ऐसी निकटता नज़र नहीं आती. जीवित रहने की एकमात्र प्रेरणा मुख्यमंत्री की कुर्सी है. अपनी मानसिक स्थिति के साथ यह आदमी कितना अकेला है. उसे मदद और समुचित इलाज की जरूरत है लेकिन मदद करने वाला अपना शायद कोई नहीं.
सार्वजनिक व्यक्तित्व होते हुए भी नीतीश की त्रासदी बहुत हद तक निजी है. लेकिन उनकी हरकतों के बाद आई प्रतिक्रियाएं बता रही हैं कि हिंदी पट्टी या हिंदू पट्टी को एक ऐसी सड़ांध भरी बीमारी ने जकड़ लिया जिसका इलाज बहुत कठिन है.
नीतीश ने विधानसभा में परिवार नियोजन पर जब अपना ऐतिहासिक वकतव्य दिया था, तब उनकी सरकार में आरजेडी और कांग्रेस भी शामिल थे. ज़ाहिर है, बीजेपी की तरफ से इस बयान पर तीखी प्रतिक्रिया आई. बीजेपी की बहुत सी नेत्रियां नीतीश पर हमलावर हो गईं और उनसे इस्तीफा तक मांगा जाने लगा.
नीतीश जब पाला बदकर एनडीए में आ गये तो वो फिर से स्त्री उद्धारक बन गये. बीजेपी इस छवि से खुश हैं और बिहार की महिला वोटरों ने एक स्वर में बता दिया कि उन्हें नीतीश के किसी व्यवहार से कोई शिकायत नहीं. महिला उम्मीदवरों के गले में माला डालने से लेकर उनकी हर आपत्तिजनक शारीरिक भंगिमा को बीजेपी और समाज के एक बड़े हिस्से ने नज़रअंदाज किया.
लेकिन एक मुसलमान औरत नकाब पलटते ही समाज के एक बड़े हिस्से में हर्षोल्लास की लहर दौड़ पड़ी. उत्तर प्रदेश के एक मंत्री का इंटरव्यू वायरल हो रहा है. सवाल पूछने वाले पत्रकार और जवाब देने वाले मंत्री की देह-भाषा और शब्दों के चयन पर गौर कीजिये. कितनी गंदगी, कितनी लंपटता और नीचता टपक रही है.
सोशल मीडिया पर ऐसे बूढ़े भी लंगोट कसकर मैदान में उतर चुके हैं, जिन्हें नकाब उलट देने की नीतीश कुमार की हरकत क्रांतिकारी लग रही है, जिससे पर्दा प्रथा खत्म हो जाएगी. यह तर्क उतना ही बेहूदा है, जितना सड़क पर किसी की हत्या हो जाने के बाद यह दलील देना कि देश की आबादी बेलगाम तरीके से बढ़ रही है और जनसंख्या नियंत्रण जरूरी है.
अगर जबरन किसी का नकाब पलटना क्रांतिकारी है तो फिर विधासनभा में परिवार नियोजन के तरीकों पर प्रकाश डालना प्रगतिशील क्यों नहीं है? नीतीश की हरकत के समर्थक बूढ़ों को उनसे वक्त लेकर मिलना चाहिए और माँग करनी चाहिए कि वो उनके नव-विवाहित बेटी दामाद या बेटा-बहू के लिए ऐसी कोई कार्यशाला और आयोजित करें और परिवार नियोजन का महत्व बतायें.
द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान की एक दिल-दहलाने वाली तस्वीर आपने देखी होगी. एक अधेड़ यहूदी औरत भाग रही है, उसके कपड़े फटे हुए हैं और नस्ली श्रेष्ठता के मारे कुछ किशोर शिकारी कुत्तों की तरह उसका पीछा कर रहे हैं. भारतीय समाज भी उसी रास्ते पर है. क्योंकि पीड़ित एक मुसलमान है, इसलिए समाज के एक हिस्से में सेलिब्रेशन का भाव है. सोशल मीडिया पर बहुत सारी औरतें तक वो भाषा बोलती दिखाई दे रही हैं, जो एक बलात्कारी मर्द की भाषा होती है.
नीतीश कुमार बीमार हैं लेकिन उनकी बीमारी स्वैच्छिक नहीं है. वह शारीरिक ज्यादा और मनोवैज्ञानिक कम है. समाज गहरी मनोवैज्ञानिक बीमारी का शिकार है और उसने अपनी बीमारी खुद चुनी है. यह उसी तरह का मास हीस्टीरिया है, जो द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान दुनिया के कई हिस्सों में नज़र आया था. सड़ांध भरी दलदल बहुत गहरी है और गोबर पट्टी को इसमें अभी और डूबना है.
मोदी सरकार ने बड़े लॉबिस्ट को काम पर रखा, लेकिन अमेरिका के साथ ‘ट्रेड डील’ रुकी हुई है
‘फाइनेंशियल टाइम्स’ के लिए एक विस्तृत लेख में एबिगेल हॉस्लोहनर और एलेक रसेल ने राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प के अमेरिका में कूटनीति के अवसान और ‘डीलमेकर’ (सौदागरों) के उदय के अंतरराष्ट्रीय संबंधों पर पड़ने वाले दूरगामी प्रभावों का विश्लेषण किया है. वे लिखते हैं- “ट्रम्प के पहले कार्यकाल में उनके साथ व्यापक रूप से चर्चित दोस्ती के बावजूद, भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को संभवतः उचित प्रशंसा न देने के कारण नुकसान उठाना पड़ा है. मई में भारत के पुराने प्रतिद्वंद्वी पाकिस्तान के साथ चार दिनों के संघर्ष के बाद संघर्षविराम का श्रेय ट्रम्प द्वारा खुद लिए जाने से मोदी क्रोधित हो गए थे—यह पाकिस्तान की प्रतिक्रिया के बिल्कुल विपरीत था, जिसने अमेरिकी राष्ट्रपति पर जमकर प्रशंसा की बौछार की थी. मोदी सरकार ने वाशिंगटन डीसी के बड़े लॉबिस्ट और ट्रम्प के पूर्व अभियान सहायक जेसन मिलर को काम पर रखा है, लेकिन लंबे समय से प्रतीक्षित भारत-अमेरिका व्यापार सौदा अभी भी रुका हुआ है.”
जस्टिस एस. मुरलीधर: फिलिस्तीन के लिए संयुक्त राष्ट्र जांच के प्रमुख
जब संयुक्त राष्ट्र ने घोषणा की कि न्यायमूर्ति एस. मुरलीधर फिलिस्तीन में मानवाधिकारों के उल्लंघन की स्वतंत्र जांच का नेतृत्व करेंगे, तो यह केवल एक अंतरराष्ट्रीय नियुक्ति से कहीं अधिक था. अफरोज़ आलम साहिल ने उनका परिचय देते हुए लिखा है कि यह एक ‘अंतरात्मा वाले न्यायाधीश’ को मिली मान्यता है. अफ़रोज के शब्दों में, “ऐसा लगा मानो दुनिया एक ऐसे न्यायविद् को स्वीकार करने के लिए रुकी हो, जिसने अपनी प्रतिष्ठा सत्ता या पद पर नहीं, बल्कि अपनी अंतरात्मा पर बनाई है. 1984 की भोपाल गैस त्रासदी (जिसमें हजारों लोग मारे गए थे) में कॉर्पोरेट दिग्गजों का सामना करने से लेकर 2020 के दिल्ली दंगों के पीड़ितों को न्याय दिलाने तक, जस्टिस मुरलीधर ने वह रास्ता चुना है जिस पर बहुत कम न्यायाधीश चलते हैं.”
रूस पर नए अमेरिकी प्रतिबंधों ने भारत के तेल व्यापार को फिर से चर्चा में लाया
“ब्लूमबर्ग” की एक रिपोर्ट के अनुसार, यदि राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन यूक्रेन के साथ शांति समझौते को खारिज करते हैं, तो संयुक्त राज्य अमेरिका रूस के ऊर्जा क्षेत्र पर प्रतिबंधों के एक नए दौर की तैयारी कर रहा है. इन उपायों की घोषणा इसी सप्ताह की जा सकती है, और इनके माध्यम से रूस के ‘शैडो फ्लीट’ (गुप्त टैंकरों का बेड़ा) और इन निर्यातों में मदद करने वाले व्यापारियों को निशाना बनाए जाने की उम्मीद है.
यह कदम एक बार फिर रूस के साथ भारत के तेल व्यापार को सुर्खियों में ले आया है—जो भारत और अमेरिका के बीच विवाद का विषय रहा है—भले ही प्रस्तावित भारत-अमेरिका व्यापार समझौते पर कोई खास प्रगति नहीं हुई है. अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प द्वारा लुकोइल और रोस्नेफ्ट जैसी रूसी दिग्गज कंपनियों पर लगाए गए प्रतिबंधों के बावजूद, भारतीय रिफाइनर बड़ी मात्रा में गैर-प्रतिबंधित रूसी कच्चे तेल का स्रोत बने हुए हैं. ‘रॉयटर्स’ की रिपोर्ट के अनुसार, दिसंबर में रूसी तेल का भारत का आयात प्रतिदिन 10 लाख बैरल से अधिक होने की उम्मीद है, जो इन आपूर्ति प्रवाहों की मजबूती को दर्शाता है. यह स्थिति ट्रम्प के उन पिछले दावों के बावजूद है, जिनमें उन्होंने कहा था कि मोदी ने वाशिंगटन को आश्वासन दिया था कि भारत “बहुत जल्द” ऐसी खरीदारी रोक देगा.
भारत से म्यांमार जुंटा के दिखावटी चुनाव का समर्थन न करने का आग्रह
म्यांमार के मीडिया समूह ‘मिज़िमा’ ने अपनी वेबसाइट पर एक खुला पत्र प्रकाशित किया है—जिस पर 90 नागरिक और प्रतिरोध संगठनों तथा 29 व्यक्तियों के हस्ताक्षर हैं. इसमें मोदी के नेतृत्व वाली भारत सरकार से अपील की गई है कि वह सैन्य शासन वाले देश में होने वाले आगामी चुनावों का समर्थन न करे. हस्ताक्षरकर्ताओं का कहना है कि दिसंबर और जनवरी 2025 के दौरान तीन चरणों में होने वाले ये चुनाव एक “दिखावा” हैं.
गुटनिरपेक्षता का हवाला देते हुए, उन्होंने कहा है कि म्यांमार की स्थिति भारत की ऐतिहासिक नीति की तुलना में एक अलग प्रतिक्रिया की मांग करती है. पत्र में कहा गया है कि वे भारत की गुटनिरपेक्ष विदेश नीति का सम्मान करते हैं, लेकिन- “म्यांमार में वर्तमान संकट धर्म और अधर्म के बीच, और पूरी जनता तथा सैन्य तानाशाहों के एक अल्पसंख्यक समूह के बीच का संघर्ष है. इसलिए, हमारा मानना है कि इस मुद्दे पर केवल गुटनिरपेक्षता की नीति के साथ विचार करना अनुचित है.”
2014 के बाद घुसपैठ के सबसे अधिक मामले भारत-बांग्लादेश सीमा पर
केंद्रीय गृह मंत्रालय द्वारा संसद में पेश किए गए आंकड़ों के अनुसार, पिछले एक दशक में भारत की ज़मीनी सीमाओं पर घुसपैठ की हज़ारों कोशिशें देखी गई हैं, जिनमें भारत-बांग्लादेश सीमा की हिस्सेदारी सबसे बड़ी है. अकेले इस साल जनवरी से नवंबर के बीच, अधिकारियों ने बांग्लादेश के साथ लगी 4,096 किलोमीटर लंबी सीमा पर 1,104 अनाधिकृत पारगमन का पता लगाया और बिना दस्तावेजों के देश में प्रवेश करने के आरोप में 2,556 लोगों को गिरफ्तार किया.
2014 से अब तक, इस सीमा पर 7,500 से अधिक ऐसी कोशिशें और लगभग 19,000 गिरफ्तारियां दर्ज की गई हैं, जो किसी भी अन्य सीमा के आंकड़ों से कहीं अधिक हैं. भारत की सभी ज़मीनी सीमाओं को मिलाकर, सुरक्षा एजेंसियों ने 2014 से अब तक 8,500 से अधिक घुसपैठ के प्रयासों का पता लगाया और 20,800 से अधिक लोगों को गिरफ्तार किया है. भारत-पाकिस्तान सीमा पर लगभग 420 प्रयास हुए, जबकि भारत-म्यांमार सीमा पर 290 से कुछ अधिक मामले दर्ज किए गए. मंत्रालय ने कहा कि इस अवधि के दौरान भारत-चीन सीमा पर ऐसा कोई मामला सामने नहीं आया है.
बांग्लादेशी के लिए ₹700 रुपये में भारतीय दस्तावेज़, 100 रुपये में हिंदू कार्ड
पश्चिम बंगाल में मतुआ समुदाय (बांग्लादेशी मूल के हिंदू दलित) के कई लोगों को भारतीय नागरिक बनने के लिए आवश्यक दस्तावेजों को जुटाना पड़ रहा है. इसके लिए उनको 700 रुपये खर्च करना पड़ रहे हैं. कोलकाता से लगभग 65 किमी दूर स्थित ठाकुरनगर में ठाकुरबाड़ी के आसपास की गलियों में लगे अस्थायी कैंप इस कवायद का मुख्य ठिकाना हैं.
देबायन दत्ता की रिपोर्ट है कि इन कैंपों में, बांग्लादेश से आए मतुआ नागरिक, नरेंद्र मोदी सरकार द्वारा लागू नागरिकता संशोधन अधिनियम (सीएए) के तहत भारतीय नागरिकता के लिए आवेदन कर सकते हैं. यह कानून पड़ोसी देशों से आए प्रताड़ित अल्पसंख्यकों (मुसलमानों को छोड़कर) के लिए भारतीय नागरिकता का मार्ग प्रशस्त करता है. इन सीएए कैंपों में, वे एक धार्मिक “पहचान पत्र” भी प्राप्त कर सकते हैं जिसमें उनके हिंदू होने का उल्लेख होता है.
कई मतुआ प्रतिकूल परिस्थितियों में भारत आए थे और उनके पास दस्तावेज नहीं हैं. सीएए के तहत नागरिकता के लिए आवेदन करने हेतु उन्हें एक ‘पात्रता प्रमाण पत्र’ प्राप्त करना होता है, जो ‘अखिल भारतीय मतुआ महासंघ’ के सीएए कैंपों में वितरित किया जा रहा है.
यह प्रमाण पत्र आवेदक की पहचान बांग्लादेशी मूल के हिंदू (मतुआ) के रूप में करता है. यह प्रमाण पत्र तब दिया जाता है, जब कोई व्यक्ति अपनी जानकारी के साथ फॉर्म भरकर सीएए के लिए आवेदन करता है और अपने आधार कार्ड व अन्य दस्तावेजों के साथ बांग्लादेश का कोई पता प्रमाण प्रस्तुत करता है. इसका खर्च लगभग 700 रुपये है. लेकिन, आवेदक यदि बांग्लादेश का पता प्रमाण देने में विफल रहता है, तो कैंप के सदस्य वहां अपने समकक्षों से संपर्क करते हैं, ताकि आवेदक के पुराने निवास स्थान का पता प्रमाण जुटाने में मदद मिल सके. इस सेवा के लिए अतिरिक्त शुल्क लिया जाता है. “द टेलीग्राफ ऑनलाइन” ने एक ऐसी ही आवेदक से बात की, जिसने बताया कि उससे 2,000 रुपये मांगे गए थे. उसके लिए यह राशि बहुत ज्यादा थी. लेकिन वह असहाय थी; बांग्लादेश से पता प्रमाण प्राप्त करने के लिए उसे कोई और समाधान नहीं सूझ रहा था.
सीएए कैंप में मौजूद महासंघ के सदस्यों के अनुसार, भारतीय नागरिकता मिलने तक यह “हिंदुत्व प्रमाण पत्र” ही “वह सब कुछ है जिसकी उन्हें आवश्यकता है.” अब तक 2 लाख से अधिक ऐसे प्रमाण पत्र जारी किए जा चुके हैं. आवेदकों को बताया जाता है कि यह “हिंदू कार्ड” भारतीय नागरिकता प्राप्त करने में फायदेमंद होगा.
हालांकि, कुछ लोगों का मानना है कि यह कार्ड उन्हें सुरक्षित रखने के लिए पर्याप्त नहीं हो सकता है, भले ही महासंघ के सदस्य दावा कर रहे हों कि आवेदन के दो महीने के भीतर नागरिकता के दस्तावेज आ जाने चाहिए.
इन कैंपों के अलावा, कई साइबर कैफे भी हैं, जहां पोस्टर लगे हैं कि “यहां सीएए आवेदन किए जाते हैं.” कुछ कैंपों का जायजा लेने पर पता चलता है कि कोई भी 100 रुपये में “हिंदू कार्ड” प्राप्त कर सकता है. कुछ कैंपों में प्रामाणिकता की कोई जांच नहीं की जा रही थी. राशि भुगतान करने के बाद, आवेदक को एक रसीद मिलती है जिसमें लिखा होता है कि 100 रुपये दान के रूप में दिए गए हैं. आवेदक को बाद की तारीख में अपना “हिंदू कार्ड” लेने के लिए बुलाया जाता है.
हालांकि, “हिंदू कार्ड” कोई गारंटी नहीं है. तृणमूल कांग्रेस ने जुलाई में आरोप लगाया था कि महाराष्ट्र में कुछ मतुआ श्रमिकों को इस “हिंदू कार्ड” और अन्य पहचान दस्तावेजों के होने के बावजूद पुलिस द्वारा “परेशान” किया गया और उन्हें “रोहिंग्या” करार दिया गया.
राजनीतिक विश्लेषक सुमन भट्टाचार्य का मानना है कि नागरिकता कब मिलेगी, इसे लेकर “निश्चितता की कमी” बंगाल में चल रहे मतदाता सूची के विशेष गहन पुनरीक्षण (एसआईआर) के बीच मतुआ समुदाय के सदस्यों को संशय में डाल रही और चिंतित कर रही है. भट्टाचार्य ने कहा, “उन्होंने असम में लोगों को डिटेंशन कैंपों में डाले जाते देखा है, और यही बात उन्हें डरा रही है.”
ढाका के वीज़ा केंद्र पर कामकाज फिर शुरू
“पीटीआई” के अनुसार, सुरक्षा चिंताओं के कारण एक दिन पहले बंद करने के बाद, भारत ने गुरुवार को ढाका में अपने वीजा आवेदन केंद्र पर परिचालन फिर से शुरू कर दिया. हालांकि, बांग्लादेश के अन्य हिस्सों में इसी तरह के दो अन्य केंद्रों को बंद कर दिया गया. दक्षिण-पश्चिम खुलना और उत्तर-पश्चिम राजशाही स्थित भारतीय वीजा आवेदन केंद्र (आईवीएसी) सुरक्षा चिंताओं के बढ़ने के कारण बंद कर दिए गए. बांग्लादेश में कुल पांच वीज़ा केंद्र हैं.
रूस-यूक्रेन युद्ध में धोखे से सेना में भर्ती किए गए राजस्थानी युवक का शव गांव पहुँचा, परिवार में मातम
‘द इंडियन एक्सप्रेस’ की रिपोर्ट के मुताबिक, रूस-यूक्रेन युद्ध में मारे गए राजस्थान के एक युवक, अजय गोदारा का शव गुरुवार को उनके पैतृक गांव पहुँचा, जहां उनका अंतिम संस्कार किया गया. अजय 28 नवंबर 2024 को एक छात्र वीज़ा पर लैंग्वेज कोर्स करने के लिए रूस गए थे. परिवार का आरोप है कि वहां उन्हें धोखे से सेना में भर्ती कर दिया गया और युद्ध के मैदान में भेज दिया गया.
अजय के चचेरे भाई प्रकाश गोदारा ने बताया कि परिवार की अजय से आखिरी बातचीत 22 सितंबर 2025 को हुई थी. प्रकाश ने कहा, “उन्हें धोखे से सैन्य गतिविधियों में शामिल किया गया. रूस में उन्हें सुरक्षित नौकरी और किचन के काम का वादा किया गया था, लेकिन उन्हें सैन्य प्रशिक्षण में धकेल दिया गया. अजय को धीरे-धीरे एहसास हुआ कि वह फंस चुके हैं और उनकी जान खतरे में है.” करीब चार महीने पहले अजय ने दो वीडियो रिकॉर्ड किए थे, जिसमें उन्होंने अपने परिवार और भारतीय अधिकारियों से मदद की गुहार लगाई थी. वीडियो में उन्होंने बताया था कि उन्हें तीन महीने की ट्रेनिंग का वादा किया गया था, लेकिन महज चार दिनों के भीतर ही उन्हें यूक्रेनी सीमा के पास वॉर-ज़ोन में भेज दिया गया. एक रिकॉर्डिंग में उन्होंने अपनी जान का खतरा बताते हुए कहा था कि यह उनका आखिरी वीडियो हो सकता है.
इस खबर के बाद से परिवार गहरे सदमे में है. अजय अपने पीछे माता-पिता और एक बहन छोड़ गए हैं. परिवार ने बताया कि वीडियो सामने आने के बाद उन्होंने केंद्रीय मंत्री अर्जुन राम मेघवाल और कैबिनेट मंत्री सुमित गोदारा से संपर्क कर अजय की सुरक्षित वापसी की गुहार लगाई थी, लेकिन दुखद रूप से उनका शव ही वापस आ सका.
रूसी सेना में भर्ती 202 भारतीयों में से 26 की मौत, 7 लापता: विदेश मंत्रालय
‘द हिंदू’ की एक रिपोर्ट के अनुसार, विदेश मंत्रालय ने गुरुवार (18 दिसंबर, 2025) को राज्यसभा में जानकारी दी कि 2022 से अब तक 202 भारतीयों के रूसी सशस्त्र बलों में भर्ती होने की आशंका है. इनमें से 26 लोगों की जान जाने की खबर है, जबकि 7 लोग लापता बताए गए हैं. विदेश राज्य मंत्री कीर्ति वर्धन सिंह ने एक लिखित जवाब में बताया कि रूसी पक्ष के मुताबिक कम से कम दो भारतीयों का अंतिम संस्कार रूस में ही कर दिया गया है.
मंत्री ने बताया कि “सरकार के ठोस प्रयासों के परिणामस्वरूप 119 लोगों को समय से पहले सेवामुक्त (discharge) करा लिया गया है. वहीं, 50 अन्य व्यक्तियों को जल्द से जल्द सेवामुक्त कराने के प्रयास जारी हैं.” यह जवाब तृणमूल कांग्रेस के सांसद साकेत गोखले और कांग्रेस सांसद रणदीप सिंह सुरजेवाला द्वारा पूछे गए सवालों के संदर्भ में दिया गया था, जिसमें उन्होंने रूसी सेना में अवैध रूप से काम कर रहे या जबरन काम कराए जा रहे भारतीयों की संख्या और हताहतों के बारे में जानकारी मांगी थी.
कीर्ति वर्धन सिंह ने कहा कि केंद्र सरकार रूसी सरकार के साथ लगातार संपर्क में है ताकि रूसी सेना में मौजूद सभी भारतीय नागरिकों की सुरक्षा और उनकी जल्दी रिहाई सुनिश्चित की जा सके. यह मामला दोनों पक्षों के नेताओं, मंत्रियों और अधिकारियों के बीच होने वाली बातचीत सहित विभिन्न स्तरों पर उठाया जा रहा है.
17 दिसंबर को ‘द हिंदू’ ने रिपोर्ट दी थी कि पिछले तीन महीनों में रूस-यूक्रेन युद्ध क्षेत्र में मारे गए दो भारतीयों के शव दिल्ली लाए गए थे. मृतकों की पहचान राजस्थान के 22 वर्षीय अजय गोदारा और उत्तराखंड के 30 वर्षीय राकेश कुमार के रूप में हुई थी. कथित तौर पर, दोनों छात्र वीजा पर रूस गए थे, लेकिन एजेंटों द्वारा उन्हें हेल्पर और क्लीनर की नौकरी का झांसा देकर गुमराह किया गया और बाद में रूसी सेना में भर्ती कर दिया गया. यह तब हो रहा है जब मास्को ने 2024 में आश्वासन दिया था कि वह अब भारतीयों को सेना में भर्ती नहीं करेगा.
मंत्री ने अपने जवाब में कहा, “मंत्रालय ने 10 मृत भारतीय नागरिकों के पार्थिव शरीर को भारत लाने और दो का स्थानीय स्तर पर अंतिम संस्कार करने में सहायता प्रदान की है. 18 भारतीयों, जो मृत या लापता बताए गए हैं, के परिवार के सदस्यों के डीएनए नमूने रूसी अधिकारियों के साथ साझा किए गए हैं ताकि कुछ मृतकों की पहचान स्थापित करने में मदद मिल सके.” उन्होंने यह भी बताया कि मास्को स्थित भारतीय दूतावास पार्थिव शरीर को सुरक्षित क्षेत्र में लाए जाने के बाद पहचान प्रक्रिया और आवश्यक दस्तावेजीकरण में मदद करता है.
अखिलेश यादव का आरोप: ‘प्रधान सांसद’ के क्षेत्र से जुड़े हैं कफ सिरप रैकेट के तार, हजारों करोड़ का घोटाला
‘द टेलीग्राफ’ और ‘पीटीआई’ की रिपोर्ट के मुताबिक, समाजवादी पार्टी (सपा) के अध्यक्ष अखिलेश यादव ने गुरुवार को उत्तर प्रदेश की भाजपा सरकार पर तीखा हमला बोला. उन्होंने आरोप लगाया कि कोडीन-आधारित कफ सिरप का अवैध सप्लाई नेटवर्क, जो अब “हजारों करोड़ रुपये” का हो चुका है, राज्य में पनप रहा है और सत्ता में बैठे लोग इसे संरक्षण दे रहे हैं.
यादव ने कहा, “कोडीन और कफ सिरप को लेकर चिंता सिर्फ उत्तर प्रदेश के आम लोगों तक सीमित नहीं है. यह पूरे देश के लिए चिंता का विषय है. यह रैकेट एक प्रधान सांसद (वाराणसी सांसद) के क्षेत्र से शुरू हुआ और इसके तार न केवल देश भर में बल्कि विदेशों तक फैले हुए हैं.” पूर्व मुख्यमंत्री ने दावा किया कि जो कुछ करोड़ के घोटाले के रूप में शुरू हुआ था, वह अब एक बहुत बड़े ऑपरेशन में बदल गया है, जिसके महत्वपूर्ण लिंक मोदी के निर्वाचन क्षेत्र से सटे जिलों में हैं. उन्होंने आरोप लगाया, “पूरा ऑपरेशन राज्य से ही चलाया जा रहा है.”
अखिलेश यादव ने इस कथित रैकेट को औरैया जिले सहित कई जगहों पर बच्चों की मौत से जोड़ा और अधिकारियों पर तथ्यों को दबाने का आरोप लगाया. उन्होंने दावा किया कि डॉक्टरों पर मौत के कारण को स्वीकार न करने का दबाव डाला जा रहा है, “जबकि वे इसके बारे में जानते हैं.”
अधिकारियों के अनुसार, इस नेटवर्क से जुड़े वित्तीय लेनदेन और मनी ट्रेल की जांच की जा रही है और प्रवर्तन निदेशालय (ED) भी समानांतर जांच कर रहा है. खाद्य एवं औषधि सुरक्षा प्रशासन के अधिकारियों ने बताया कि कोडीन-आधारित सिरप शेड्यूल एच के तहत आते हैं और प्रिस्क्रिप्शन पर बेचे जाने पर कानूनी हैं, लेकिन बिना दस्तावेजों के बड़ी मात्रा में आपूर्ति होने पर इनका दुरुपयोग नशीले पदार्थ के रूप में होता है. अधिकारियों ने बताया कि 28 जिलों में 128 प्रतिष्ठानों के खिलाफ भारतीय न्याय संहिता और एनडीपीएस अधिनियम की संबंधित धाराओं के तहत एफआईआर दर्ज की गई है.
यादव ने राज्य सरकार की कानून प्रवर्तन प्रतिक्रिया पर सवाल उठाते हुए अन्य मामलों में बुलडोजर के लगातार उपयोग के साथ तुलना की. उन्होंने टिप्पणी की, “ऐसा लगता है कि सरकार के बुलडोजर का ड्राइवर भाग गया है और चाबी खो गई है.” उन्होंने चयनात्मक कार्रवाई का आरोप लगाते हुए कहा कि राज्य भर में 22 प्रमुख बुलडोजर कार्रवाइयों में से अधिकांश प्रभावित लोग पीडीए (पिछड़ा, दलित, अल्पसंख्यक) वर्गों से थे.
सपा प्रमुख ने चल रहे मतदाता सूची के विशेष गहन पुनरीक्षण (SIR) पर भी हमला बोला और आरोप लगाया कि अधिकारियों पर उनकी पार्टी से जुड़े मतदाताओं के नाम हटाने का दबाव है. उन्होंने इसे “एनआरसी” करार देते हुए चुनाव आयोग और भाजपा के बीच मिलीभगत का आरोप लगाया. इसके अलावा, उन्होंने यूपी लोक सेवा आयोग की भर्ती में कथित अनियमितताओं, पिछड़े वर्गों को उचित आरक्षण न मिलने, यूरिया की कमी, रुकी हुई धान खरीद, बढ़ती बेरोजगारी, महंगाई और बिगड़ती कानून व्यवस्था जैसे मुद्दों को भी उठाया.
हीरेन जोशी: पीएमओ के ‘अदृश्य’ रणनीतिकार का उदय और विवादों के बीच पतन की कहानी
‘द वायर’ के लिए सृष्टि जसवाल की एक विस्तृत रिपोर्ट प्रधानमंत्री कार्यालय (पीएमओ) के बेहद प्रभावशाली लेकिन लो-प्रोफाइल अधिकारी, हीरेन जोशी की भूमिका और उनके इर्द-गिर्द चल रही हालिया अटकलों पर रोशनी डालती है. रिपोर्ट के अनुसार, हीरेन जोशी पिछले एक दशक से पीएम नरेंद्र मोदी की ‘छाया’ की तरह काम कर रहे थे और उनकी सोशल मीडिया और डिजिटल रणनीति के मुख्य सूत्रधार थे. हालांकि, दिसंबर की शुरुआत से ही सोशल मीडिया पर उनके हटाए जाने और महादेव सट्टेबाजी ऐप से जुड़े होने के आरोपों को लेकर अफवाहें गर्म हैं.
कांग्रेस प्रवक्ता पवन खेड़ा ने हाल ही में एक प्रेस कॉन्फ्रेंस में जोशी पर पीएमओ के भीतर बैठकर संदिग्ध गतिविधियों में शामिल होने का आरोप लगाया था. रिपोर्ट में बताया गया है कि जोशी को पीएम मोदी का ‘गेटकीपर’ माना जाता था, जो मीडिया नैरेटिव को नियंत्रित करने और सोशल मीडिया पर पीएम की छवि को गढ़ने का काम करते थे. आरोप है कि वह न्यूज़ चैनलों की बहसों को निर्देशित करते थे और आलोचकों पर नज़र रखते थे. लेख में दावा किया गया है कि ‘ऑपरेशन सिंदूर’ के बाद उभरे ‘विश्वगुरु’ की छवि को हुए नुकसान और अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रंप के दावों को संभालने में विफलता के कारण जोशी और पीएम के रिश्तों में खटास आई.
रिपोर्ट में एक पूर्व पत्रकार और राजनीतिक सलाहकारों के हवाले से बताया गया है कि पीएमओ के भीतर आंतरिक कलह भी चल रही थी, विशेष रूप से जोशी और एक अन्य अधिकारी प्रतीक दोषी के बीच. फिलहाल, हीरेन जोशी के भविष्य को लेकर स्थिति स्पष्ट नहीं है, लेकिन रिपोर्ट यह दर्शाती है कि सूचना और धारणा के इस खेल में एक समय का सबसे शक्तिशाली व्यक्ति अब खुद चर्चा और विवाद के केंद्र में है.
थैलेसीमिया पीड़ित 5 बच्चों को खून चढ़ाने के बाद हुआ एचआईवी संक्रमण
‘द इंडियन एक्सप्रेस’ में आनंद मोहन जे की एक चौंकाने वाली रिपोर्ट मध्य प्रदेश के सतना जिले में स्वास्थ्य विभाग की भारी लापरवाही को उजागर करती है. जिला अस्पताल में रक्ताधान (blood transfusion) के बाद थैलेसीमिया से पीड़ित पांच बच्चों में एचआईवी संक्रमण की पुष्टि हुई है. सबसे दुखद पहलू यह है कि इन सभी बच्चों के माता-पिता एचआईवी निगेटिव हैं.
रिपोर्ट के मुताबिक, मार्च और अप्रैल 2025 के बीच इन संक्रमणों की पुष्टि हो गई थी, लेकिन सिस्टम की खामियों के कारण इसकी जानकारी राज्य स्तर के अधिकारियों तक लिखित में नहीं पहुँचाई गई. सतना की एड्स कंट्रोल नोडल ऑफिसर डॉ. पूजा गुप्ता ने बताया कि उन्होंने सिविल सर्जन को मौखिक रूप से जानकारी दी थी, लेकिन बच्चे की पहचान छिपाने के लिए लिखित रिपोर्ट नहीं दी गई. इस संवादहीनता के कारण समय पर ज़रूरी कदम नहीं उठाए जा सके.
अब जांच में सबसे बड़ी चुनौती उन रक्तदाताओं को ट्रेस करना है, जिनसे संक्रमण फैलने की आशंका है. लगभग 200 डोनर्स में से अब तक केवल 10 से 12 का ही पता लगाया जा सका है. कई फोन नंबर गलत हैं या डोनर्स दोबारा जांच के लिए आने से इनकार कर रहे हैं. पीड़ितों में एक 15 साल की लड़की के पिता ने बताया कि उनकी बेटी को नियमित खून चढ़ाने की ज़रूरत पड़ती थी और हाल ही में सारे ट्रांसफ्यूजन सतना जिला अस्पताल में ही हुए थे. नौ महीने बाद अब अधिकारियों को नोटिस जारी किए जा रहे हैं, लेकिन परिवारों के लिए यह एक कभी न खत्म होने वाला दर्द बन गया है.
अडानी समूह की फर्म पर जुर्माना लगाने वाले जज का उसी दिन तबादला, हाई कोर्ट ने फैसले पर लगाई रोक
स्क्रोल की रिपोर्ट के अनुसार, राजस्थान में एक नाटकीय घटनाक्रम में, एक कमर्शियल कोर्ट के जज का उसी दिन तबादला कर दिया गया, जिस दिन उन्होंने अडानी समूह के नेतृत्व वाली एक फर्म के खिलाफ फैसला सुनाया था. रिपोर्टर श्रीगिरीश जलीहाल बताते हैं कि 5 जुलाई को जयपुर कमर्शियल कोर्ट के जज दिनेश कुमार गुप्ता ने फैसला दिया कि अडानी की फर्म ने राजस्थान सरकार की कंपनी की कीमत पर 1,400 करोड़ रुपये से अधिक का परिवहन शुल्क अनुचित रूप से कमाया.
जज गुप्ता ने अपने आदेश में अडानी के नेतृत्व वाली ज्वाइंट वेंचर कंपनी ‘परसा केंटे कोलियरीज लिमिटेड’ पर 50 लाख रुपये का जुर्माना लगाया और राज्य सरकार को निर्देश दिया कि वह इस सौदे की सीएजी (CAG) ऑडिट की मांग करे. लेकिन उसी दिन शाम को, राजस्थान की भाजपा सरकार के विधि विभाग ने एक आदेश जारी कर जज को उनके पद से हटा दिया और राजस्थान हाई कोर्ट ने उन्हें ब्यावर जिले में स्थानांतरित कर दिया.
इसके दो सप्ताह बाद, 18 जुलाई को हाई कोर्ट ने जज गुप्ता के उस आदेश पर रोक लगा दी जिसमें अडानी की फर्म पर जुर्माना और ऑडिट की बात कही गई थी. विवाद का मूल छत्तीसगढ़ की खदानों से कोयले के परिवहन शुल्क को लेकर है. जज ने कहा था कि रेलवे साइडिंग बनाने की जिम्मेदारी कंपनी की थी, और इसमें विफलता का बोझ उसे खुद उठाना चाहिए था, न कि सड़क परिवहन का खर्चा सरकार से वसूलना चाहिए था.
अंग्रेज़ी विरोध और मैकाले का नाम: दलित-बहुजन की तरक्की रोकने की साज़िश
‘द वायर’ में प्रकाशित अपने लेख में कांचा इलैया शेपर्ड तर्क देते हैं कि आरएसएस और भाजपा द्वारा अंग्रेजी भाषा और लॉर्ड मैकाले पर किया जा रहा हमला दरअसल दलितों, आदिवासियों और शूद्रों की प्रगति को रोकने का एक प्रयास है. लेखक का कहना है कि यह हमला मुसलमानों या ईसाइयों के खिलाफ नहीं, बल्कि उन वंचित वर्गों के खिलाफ है जो अंग्रेजी शिक्षा के माध्यम से उच्च जातियों के बराबर खड़े होने की कोशिश कर रहे हैं.
लेखक के अनुसार, दलित-बहुजन समाज के लिए अंग्रेजी मैकाले की भाषा नहीं, बल्कि बाबासाहेब अंबेडकर की भाषा है. अंबेडकर ने अंग्रेजी को मुक्ति का हथियार बनाया और संविधान भी इसी भाषा में लिखा. लेखक बताते हैं कि तेलंगाना के जाति सर्वेक्षण के आंकड़े दिखाते हैं कि ब्राह्मण और अन्य उच्च जातियां अंग्रेजी शिक्षा में सबसे आगे हैं और निजी संस्थानों का लाभ उठा रही हैं.
लेख में तर्क दिया गया है कि भाजपा सरकार सरकारी स्कूलों से अंग्रेजी हटाकर वंचित वर्गों को वैश्विक अवसरों से दूर रखना चाहती है, जबकि अमीर और उच्च वर्ग के बच्चे महंगे निजी स्कूलों में अंग्रेजी सीखकर विदेश जा रहे हैं. कांचा इलैया लिखते हैं कि अगर दलित-आदिवासी और ओबीसी समुदाय अंग्रेजी नहीं सीखते हैं, तो वे आने वाले कई सदियों तक शोषित ही रहेंगे. उनके मुताबिक, यह ‘मैकाले उन्माद’ असल में सामाजिक न्याय और समानता के खिलाफ एक सुनियोजित राजनीति है.
शर्मनाक हैट्रिक: डोपिंग के मामलों में भारत लगातार तीसरे साल दुनिया में नंबर वन
‘द हिंदू’ की रिपोर्ट के मुताबिक, वर्ल्ड एंटी-डोपिंग एजेंसी (WADA) की ताजा रिपोर्ट ने भारतीय खेलों की साख पर गंभीर सवाल खड़े कर दिए हैं. भारत लगातार तीसरे साल दुनिया में डोपिंग (प्रतिबंधित दवाओं का सेवन) के मामलों में शीर्ष पर रहा है. वाडा की रिपोर्ट के अनुसार, 2024 में भारत की नेशनल एंटी-डोपिंग एजेंसी (NADA) द्वारा एकत्र किए गए 7,113 नमूनों में से 260 पॉजिटिव पाए गए.
यह आंकड़ा भारत के लिए एक बड़ी शर्मिंदगी का विषय है, खासकर तब जब देश 2030 कॉमनवेल्थ गेम्स और 2036 ओलंपिक की मेजबानी का सपना देख रहा है. रिपोर्ट के मुताबिक, एथलेटिक्स (76 मामले), वेटलिफ्टिंग (43) और कुश्ती (29) में सबसे ज्यादा डोपिंग के केस मिले हैं. भारत के बाद इस लिस्ट में फ्रांस, इटली, रूस और अमेरिका का नंबर आता है.
हालांकि, नाडा ने अपने बचाव में कहा है कि उन्होंने टेस्टिंग की संख्या बढ़ाई है, इसलिए मामले ज्यादा दिख रहे हैं. लेकिन आईओसी (IOC) ने पहले ही भारत में परफॉर्मेंस बढ़ाने वाली दवाओं के बेतहाशा इस्तेमाल पर चिंता जताई थी. हाल ही में एक यूनिवर्सिटी गेम्स के दौरान डोपिंग अधिकारियों के पहुँचने पर कई एथलीट्स के भाग जाने की खबरें भी सामने आई थीं, जो ज़मीनी हकीकत को बयां करती हैं.
डीपडाइव
सुशांत सिंह : भारत की विदेश नीति का सबसे कठिन इम्तिहान
हरकारा डीप डाइव में रक्षा और अंतरराष्ट्रीय रणनीति विशेषज्ञ सुशांत सिंह ने हमारे साथ इंटरव्यू में बताया कि वर्ष 2025, एक ऐसा साल है, जो विदेश नीति और वैश्विक रणनीति के लिहाज़ से बेहद निराशाजनक रहा है. उनके अनुसार, यह साल न सिर्फ भारत के लिए बल्कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के लिए भी अब तक के सबसे कठिन वर्षों में से एक रहा.
2014 के बाद जिस “मज़बूत भारत” की छवि और नैरेटिव गढ़ा गया था, 2025 में वह कई मोर्चों पर ढहता दिखा. पाकिस्तान के साथ 88 घंटे तक चले संघर्ष, जिसे ‘ऑपरेशन सिंदूर’ कहा गया, के बाद भारत की रणनीतिक स्थिति मज़बूत होने के बजाय और कमज़ोर होती दिखाई दी. चीन के साथ भारत ने समझौते किए, लेकिन ये अधिकतर एकतरफा रहे और चीन की ओर से कोई ठोस रियायत नहीं मिली. रूस और अमेरिका, दोनों के साथ भारत ठोस उपलब्धियों के बिना ही खड़ा दिखा.
अमेरिका के संदर्भ में सुशांत सिंह बताते हैं कि ट्रंप 2.0, ट्रंप 1.0 से बिल्कुल अलग है. MAGA और स्वदेशी (नेटिविस्ट) सोच के साथ ट्रंप की वापसी को भारत में मोदी सरकार के लिए फायदेमंद माना जा रहा था, लेकिन वास्तविकता इसके उलट रही. फरवरी 2025 में मोदी-ट्रंप मुलाक़ात के बावजूद भारत ट्रंप प्रशासन की प्राथमिकता नहीं बन पाया. अमेरिका में भारत का राजदूत लंबे समय तक तैनात नहीं हुआ, मोदी और ट्रंप की आगे कोई सीधी मुलाक़ात नहीं हुई, और टैरिफ, H1-B वीज़ा, माइग्रेशन तथा ट्रेड डेफिसिट जैसे मुद्दों पर अमेरिका का रुख सख़्त बना रहा. अवैध भारतीय प्रवासियों को हथकड़ियों में वापस भेजा जाना और क्वाड व इंडो-पैसिफ़िक मंचों पर भारत की सीमित भूमिका इसी गिरावट की ओर इशारा करती है.
भारत-पाकिस्तान संघर्ष के बाद सीज़फायर की घोषणा ट्रंप द्वारा पहले की गई, और भारत ने उन्हें इसका श्रेय देने से परहेज़ किया. इसके बावजूद अमेरिकी नेशनल सिक्योरिटी स्ट्रेटजी में ट्रंप द्वारा सीज़फायर कराने का ज़िक्र मौजूद है, जिससे व्हाइट हाउस में भारत को लेकर असहजता और नाराज़गी बनी रही.
रूस के साथ भारत के रिश्तों पर बात करते हुए सुशांत सिंह कहते हैं कि ट्रंप की समस्या मूल रूप से रूस नहीं, बल्कि भारत से “पे-बैक” की अपेक्षा है. भारत की रूस पर गहरी सैन्य निर्भरता जैसे हथियार, गोला-बारूद और स्पेयर पार्ट्स, एक बड़ी रणनीतिक कमज़ोरी है. सस्ते तेल का लाभ आम नागरिकों तक नहीं पहुंचता, और रूस-चीन संबंध भारत के कारण कमज़ोर पड़ने की कोई संभावना नहीं दिखती. रूस के साथ भारत की नीति ज़्यादातर प्रतीकात्मक ही नज़र आती है.
यूक्रेन युद्ध पर भारत की स्थिति को सुशांत नैतिक रूप से अस्पष्ट मानते हैं. “This is not an age of war” (यह युद्ध का ज़माना नहीं है) जैसे बयानों को वे निरर्थक बताते हैं. उनके अनुसार, ज़मीन पर कब्ज़े को स्वीकार करना भविष्य में चीन के लिए खतरनाक मिसाल बन सकता है. यूरोप के तीन राजदूतों द्वारा भारत की आलोचना में लिखा गया लेख भी इस बात का संकेत है कि अंतरराष्ट्रीय मंच पर भारत की स्थिति कमज़ोर हुई है.
यूरोप खुद 2025 में संकट से जूझ रहा है. ट्रंप प्रशासन ने यूरोप को रणनीतिक रूप से अलग-थलग कर दिया है. यूरोप भारत के साथ व्यापार समझौते चाहता है, लेकिन यूरोपीय संघ की आंतरिक राजनीति, फ्रांस, जर्मनी, हंगरी जैसे देशों के अलग हित, इन राहों में बाधा बन रही है. यूक्रेन पर भारत की नीति से यूरोप में भारत की छवि सुधरने की संभावना कम दिखती है. इसके साथ ही, यूरोप में अति दक्षिणपंथी राजनीति के उभार का असर भारतीयों और प्रवासियों पर भी पड़ रहा है.
चीन को सुशांत सिंह “एलीफेंट इन द रूम” बताते हैं. भारत-चीन के बीच सामान्य रिश्ते चीन की शर्तों पर हुए हैं. अलबत्ता, सीमा सामान्य नहीं हुई, पेट्रोलिंग पर पाबंदी है और भारतीय सेना अब भी तैनात है. चीन ने कोई ठोस रियायत नहीं दी, जबकि भारत रेयर अर्थ, मशीनरी, सोलर पैनल जैसी सप्लाई के लिए अभी भी चीन पर निर्भर बना हुआ है. 2024–25 में यह साफ हो गया कि चीन भारत से कहीं बड़ी शक्ति है.
दक्षिण एशिया में भी भारत की स्थिति कमज़ोर हुई है. चीन का प्रभाव बढ़ा है और भारत की साख घटी है. सार्क (दक्षिण एशियाई क्षेत्रीय सहयोग संगठन) को 2015 के बाद निष्क्रिय किया गया, BIMSTEC और BBIN सफल नहीं हो पाए. बांग्लादेश भारत से दूर हुआ, मालदीव से भारतीय सैनिक हटाने पड़े, और नेपाल, श्रीलंका, म्यांमार व अफगानिस्तान में अस्थिरता बनी रही. भारत अपने पड़ोसियों का “दिल जीतने” में असफल रहा.
हर्षमंदर: नौकरशाही का पतन, संविधान का संकट
‘हरकारा डीप डाइव’ से वरिष्ठ सामाजिक कार्यकर्ता और रिटायर्ड आईएएस अधिकारी हर्ष मंदर ने नौकरशाही, संविधान और लोकतंत्र की मौजूदा हालत पर बातचीत की. हर्ष मंदर ने प्रशासन को भीतर से और बाहर से दोनों रूपों में देखा है, एक अधिकारी, नीति-निर्माता और नागरिक अधिकार कार्यकर्ता के तौर पर.
वे बताते हैं कि सरदार पटेल ने सिविल सर्विस को “देश का स्टील फ्रेम” इसलिए कहा था, क्योंकि उसकी ज़िम्मेदारी संविधान की रक्षा करना और नफरत व हिंसा के समय भी न्याय को कायम रखना है. हर्ष मंदर के अनुसार आज भी अधिकारियों के पास क़ानून से मिली ताक़त मौजूद है, लेकिन उसका इस्तेमाल अब पहले की तुलना में बहुत कम होता जा रहा है.
आईएएस अकादमी में प्रशिक्षण के दौरान वे नए अधिकारियों से कहा करते थे कि उनकी पहली ज़िम्मेदारी संविधान के प्रति है, न कि चुनी हुई सरकार के प्रति. अगर सरकार का कोई आदेश संविधान या गरीबों के हितों के ख़िलाफ़ हो, तो उसे मानने से इनकार करना अधिकारी का अधिकार ही नहीं, उसका कर्तव्य है. 1984 के दंगे, बाबरी मस्जिद आंदोलन, भूमि सुधार और नर्मदा आंदोलन जैसे अनुभवों का ज़िक्र करते हुए वे बताते हैं कि आदेश न मानना संभव होता है, यह मजबूरी नहीं, बल्कि चुनाव का सवाल होता है.
हर्ष मंदर संसद, न्यायपालिका और मीडिया के कमज़ोर होने की बात करते हैं, लेकिन नौकरशाही के नैतिक पतन को सबसे गंभीर मानते हैं. वे एक आदर्श सिविल सर्वेंट के तीन गुण बताते हैं, नैतिक साहस, संवेदना और ईमानदारी, जो आज दुर्लभ होते जा रहे हैं.
बुलडोज़र कार्रवाई पर वे कहते हैं कि बिना कानूनी प्रक्रिया के घर गिराना संविधान और प्राकृतिक न्याय के ख़िलाफ़ है. उन्हें दुख है कि शायद ही कोई कलेक्टर इसे रोकने को तैयार दिखता है, जबकि यह उसका अधिकार और ज़िम्मेदारी दोनों है.
चुनाव आयोग पर भरोसे को लोकतंत्र की रीढ़ बताते हुए वे कहते हैं कि केवल निष्पक्ष होना नहीं, निष्पक्ष दिखना भी ज़रूरी है. सीसीटीवी फुटेज नष्ट करना या डेटा देने से इनकार करना जनता के भरोसे को तोड़ता है.
वे जन और तंत्र के रिश्ते में आए बदलाव की ओर इशारा करते हैं कि जहां अधिकार की जगह दया की भाषा ने ले ली है और सरकार खुद को राजा की तरह देखने लगी है. ईडी और सीबीआई जैसी संस्थाओं का दुरुपयोग इस बदलाव को और गहरा करता है. उनके अनुसार समस्या युवाओं में नहीं, बल्कि उस समाज में है जिसने उनसे बराबरी, मोहब्बत और इंसाफ के सपने छीन लिए हैं. वे नौजवानों से कहते हैं कि अपने आदर्शों को मज़बूती से थामे रखें, क्योंकि क़ानून आज भी ताक़त देता है और बेहतर समाज व शासन की उम्मीद अब भी उन्हीं से जुड़ी हुई है.
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