19/09/2025: क्या जमानत होगी आज? राहुल के निशाने पर सीधे ज्ञानेश | अडानी पर छपी ख़बरें अभी नहीं हटेंगी | अडानी को सेबी की क्लीन चिट | दिमाग कुतरता जानलेवा एमीबा | पाकिस्तान सऊदी में रक्षा करार
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निधीश त्यागी, साथ में राजेश चतुर्वेदी, गौरव नौड़ियाल, फ़लक अफ़शां
आज की सुर्खियां
उमर ख़ालिद की याचिका... और 'जेल, ज़मानत नहीं' के लिए जाने गए जज.
राहुल गांधी का चुनाव आयोग पर बड़ा आरोप... बोले, अंदर से मिल रही है मदद.
जब कोर्ट ने अडानी से पूछा... आपको ख़ुद यक़ीन है कि मानहानि हुई?
आख़िरकार 23 महीने बाद... जेल से बाहर आएंगे आज़म ख़ान.
ज़मीन के नीचे से आई रोने की आवाज़... ज़िंदा दफ़नाई गई नवजात.
'एक पर हमला, दोनों पर हमला'... सऊदी अरब और पाकिस्तान के बीच बड़ा रक्षा समझौता.
'दिमाग़ कुतरने वाला अमीबा'... केरल में 19 लोगों की जान ली.
भारत में हर 30 मिनट में... एक नया करोड़पति परिवार.
उमर ख़ालिद की याचिका उन्हीं जज के सामने जो, 'जेल, ज़मानत नहीं' के कारण जाने गये
जब राजनीतिक कार्यकर्ता उमर ख़ालिद 19 सितंबर 2025 को ज़मानत के लिए सुप्रीम कोर्ट के सामने पेश होंगे, तो उनके भाग्य का फ़ैसला जस्टिस अरविंद कुमार करेंगे. जस्टिस कुमार वही जज हैं जिनके भारत के आतंकवाद-रोधी क़ानून की "जेल, ज़मानत नहीं" वाली व्याख्या ने सीधे तौर पर दिल्ली हाई कोर्ट द्वारा ख़ालिद और अन्य आरोपियों की ज़मानत ख़ारिज करने के फ़ैसले को प्रभावित किया. आर्टिकल 14 में बेतवा शर्मा की रिपोर्ट है.
जस्टिस कुमार, जो अब जस्टिस एनवी अंजारिया के साथ सुप्रीम कोर्ट की दो-न्यायाधीशों की बेंच का नेतृत्व कर रहे हैं, ने गुरविंदर सिंह बनाम पंजाब राज्य मामले में 2024 का फ़ैसला लिखा था. इस फ़ैसले में घोषणा की गई थी कि पारंपरिक ज़मानत सिद्धांत—"ज़मानत नियम है, जेल अपवाद है"—ग़ैरक़ानूनी गतिविधियां (रोकथाम) अधिनियम (UAPA) पर लागू नहीं होते हैं. धारा 43(डी)5 का हवाला देते हुए, जस्टिस कुमार ने निष्कर्ष निकाला कि यूएपीए के तहत जेल डिफ़ॉल्ट है, जब तक कि एक सीमित समीक्षा में आरोपी के ख़िलाफ़ सबूत कमज़ोर न पाए जाएं. दिल्ली हाई कोर्ट के 2 सितंबर 2025 के आदेश में ख़ालिद, शरजील इमाम, गुलफिशा फातिमा और मीरान हैदर को ज़मानत देने से इनकार करते हुए स्पष्ट रूप से गुरविंदर सिंह मामले और एनआईए बनाम जहूर अहमद शाह वटाली मामले का उल्लेख किया गया.
ख़ालिद और 17 अन्य लोग कथित तौर पर "बड़ी साज़िश मामले" में आरोपी हैं, जो पुलिस के अनुसार नागरिकता संशोधन अधिनियम के विरोध प्रदर्शन के दौरान 2020 के उत्तर-पूर्वी दिल्ली दंगों से संबंधित है, जिसमें 53 लोग, ज़्यादातर मुस्लिम मारे गए थे. हालांकि, सुप्रीम कोर्ट के अन्य फ़ैसले अलग दिशा में झुके हुए हैं. यूनियन ऑफ़ इंडिया बनाम केए नजीब (2021) में, अदालत ने कहा कि मुक़दमे में देरी और लंबी सुनवाई-पूर्व हिरासत ज़मानत देने के पक्ष में संतुलन बना सकती है. लेकिन ख़ालिद और अन्य को ज़मानत देने से इनकार करते हुए, जस्टिस शालिंदर कौर ने इन मिसालों की जांच की, लेकिन उन्हें इस मामले में लागू करने योग्य नहीं पाया.
दिल्ली हाई कोर्ट ने फ़ैसला सुनाया कि ख़ालिद के ख़िलाफ़ "सबूतों के मूल्य" को "कमज़ोर नहीं कहा जा सकता". यह इस तथ्य के बावजूद है कि रिपोर्टिंग से पता चलता है कि "मामला अनुमानों, अटकलों और मनगढ़ंत बातों पर बनाया गया है. सबूतों की कमी के कारण, अभियोजन पक्ष को गुमनाम 'संरक्षित' गवाहों पर भरोसा करना पड़ा जिन्होंने आरोपियों के ख़िलाफ़ समान या एक जैसे बयान दिए."
अक्टूबर 2022 में दिल्ली हाई कोर्ट द्वारा ज़मानत ख़ारिज किए जाने के बाद, ख़ालिद ने सुप्रीम कोर्ट का दरवाज़ा खटखटाया. नौ महीनों तक उनकी ज़मानत याचिका एक बेंच से दूसरी बेंच में घूमती रही, लेकिन कभी सुनी नहीं गई. पूर्व मुख्य न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़ ने एक इंटरव्यू में इसके लिए ख़ालिद के वकील द्वारा मांगे गए स्थगनों को ज़िम्मेदार ठहराया. वहीं, ख़ालिद के वकीलों का कहना था कि स्थगन का देरी की रणनीति से कोई लेना-देना नहीं था, बल्कि यह "कई राजनीतिक रूप से संवेदनशील मामलों, जिनमें ख़ालिद का मामला भी शामिल था, को जस्टिस बेला त्रिवेदी को सौंपने" की चिंता से संबंधित था, जो असाइनमेंट नियमों के विपरीत था.
फरवरी 2024 में सुप्रीम कोर्ट से अपनी याचिका वापस लेते हुए, ख़ालिद निचली अदालत में लौट आए, जहां मई 2024 में उनकी ज़मानत याचिका दूसरी बार ख़ारिज कर दी गई. इसके बाद, ख़ालिद हाई कोर्ट गए, जिसने पिछले हफ़्ते राज्य के मामले को जस का तस स्वीकार कर लिया, और आरोपों का समर्थन करने वाले सबूतों की स्पष्ट कमी को नज़रअंदाज़ कर दिया. निचली अदालत में, ख़ालिद के वकील त्रिदीप पेस ने दलील दी कि जिस भाषण के आधार पर एफ़आईआर दर्ज की गई, उसमें कोई आपराधिकता नहीं थी. पुलिस ने महाराष्ट्र के अमरावती में दिया गया केवल एक भाषण पेश किया, जो दंगों से एक हफ़्ते पहले और दिल्ली से 1,000 किलोमीटर से ज़्यादा दूर का था. पेस ने कहा, "आपको मेरे ख़िलाफ़ मामले की एफ़आईआर का आधार बनने वाला एक भाषण हासिल करने में चार महीने लग गए. भाषण में कोई आपराधिकता नहीं दिखती."
वोट चोरी मामले में राहुल गांधी का चुनाव आयोग और ज्ञानेश कुमार पर सीधा आरोप
कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने गुरुवार (18 सितंबर 2025) को एक बार फिर भारत के चुनाव आयोग पर तीखा हमला बोला और मुख्य चुनाव आयुक्त (सीईसी) ज्ञानेश कुमार पर "वोट चोरों की रक्षा" करने का आरोप लगाया. नई दिल्ली स्थित कांग्रेस मुख्यालय में विशेष प्रेस कॉन्फ्रेंस को संबोधित करते हुए लोकसभा मे विपक्ष के नेता ने कर्नाटक की एक विधानसभा सीट पर बड़े पैमाने पर मतदाताओं के नाम हटाने के आरोपों को साबित करने के लिए अपने पास मौजूद "सबूत" पेश करने की बात कही.
उन्होंने कहा, "मैं ब्लैक एंड व्हाइट में सबूत दिखाने जा रहा हूं कि भारत के मुख्य चुनाव आयुक्त उन लोगों की रक्षा कर रहे हैं, जिन्होंने भारतीय लोकतंत्र को नष्ट कर दिया है. मैं यह भी दिखाऊंगा कि यह कैसे किया गया." गांधी ने कहा कि वे यह बयान पूरी जिम्मेदारी के साथ दे रहे हैं, क्योंकि वे लोकसभा में विपक्ष के नेता हैं. उन्होंने यह दावा भी किया, “हमें अब चुनाव आयोग के भीतर से मदद मिलना शुरू हो गया है. मैं साफ करना चाहता हूं कि हमें अब चुनाव आयोग के अंदर से जानकारी मिल रही है और यह प्रक्रिया रुकने वाली नहीं है."
“द न्यू इंडियन एक्सप्रेस” के अनुसार, गांधी का आरोप था कि सालों से अलग-अलग चुनावों में “कुछ ताकतें” सुनियोजित तरीके से देशभर में करोड़ों मतदाताओं को लक्षित कर उनके मतदाता पहचान पत्र कटवा रही हैं. उनका कहना था कि खासकर दलित, अल्पसंख्यक, ओबीसी और आदिवासी जैसे समुदायों के मत, जो विपक्ष को वोट देते हैं, जानबूझकर हटाए जा रहे हैं.
राहुल गांधी के मुख्य आरोप
कर्नाटक की विधानसभा सीट पर बड़े पैमाने पर वोट डिलीट करना
गांधी ने आरोप लगाया कि कर्नाटक के अलंद विधानसभा क्षेत्र, जो कांग्रेस का मजबूत गढ़ है, वहां 6,000 से अधिक वोटों को मतदाताओं के नाम से हटाया गया, जबकि खुद मतदाता इस पूरी प्रक्रिया से अनजान थे. उन्होंने कहा, "किसी ने 6,018 वोट हटाने की कोशिश की. हमें नहीं पता कि 2023 के चुनाव में अलंद सीट से कुल कितने वोट हटाए गए, लेकिन यह संख्या 6,018 से कहीं ज्यादा थी. मगर उन्हीं 6,018 वोटों की डिलीटिंग पकड़ी गई और वह भी संयोग से."गांधी ने आगे बताया, "दरअसल वहां की एक बूथ स्तर की अधिकारी ने देखा कि उनके चाचा का वोट डिलीट हो गया है. जब उन्होंने जांच की तो पता चला कि वोट पड़ोसी के नाम से हटाया गया है. लेकिन जब उन्होंने अपने पड़ोसी से पूछा, तो उसने कहा कि मैंने तो कोई वोट नहीं हटाया. न तो जिस व्यक्ति का वोट हटाया गया उसे पता था और न ही जिसने हटाया था. कोई और ताकत इस प्रक्रिया को हाईजैक कर रही थी और वोटों को डिलीट किया गया."
कांग्रेस मतदाताओं को निशाना बनाया, केंद्रीकृत सिस्टम का इस्तेमाल
राहुल गांधी ने आरोप लगाया कि निर्वाचन क्षेत्र में मतदाता विलोपन कांग्रेस समर्थकों को निशाना बनाकर किया गया और इसके लिए एक परिष्कृत केंद्रीकृत सिस्टम का इस्तेमाल हुआ. मतदाताओं के नाम हटाने के लिए आवेदन "सॉफ़्टवेयर के माध्यम से स्वतः" दायर किए गए. कर्नाटक से बाहर के मोबाइल नंबर, विभिन्न राज्यों से लाकर अलंद क्षेत्र में इस्तेमाल किए गए और इस प्रक्रिया में कांग्रेस मतदाताओं को टारगेट किया गया.
विपक्ष के नेता ने आरोप लगाया कि आवेदकों के क्रमांक में समानता पाई गई और यह स्पष्ट है कि आवेदन दायर करने के लिए केंद्रीकृत प्रणाली का प्रयोग किया गया. उनका आरोप था, "क्रम संख्या देखिए... सॉफ़्टवेयर बूथ पर पहली सूचीबद्ध नाम उठा रहा है और उसी का इस्तेमाल वोट हटाने के लिए कर रहा है. किसी ने एक ऑटोमेटेड प्रोग्राम चलाया, ताकि बूथ का पहला मतदाता ही आवेदक बन जाए. उसी व्यक्ति ने राज्य से बाहर के मोबाइल नंबर हासिल किए और उनसे आवेदन डाला. हमें पूरा यक़ीन है कि यह सब केंद्रीकृत तरीके से और बड़े पैमाने पर किया गया. यह किसी कार्यकर्ता स्तर पर नहीं हुआ, बल्कि इससे कहीं सरल और संगठित स्तर पर किया गया.”
सीईसी ज्ञानेश कुमार के खिलाफ सबूत
चुनाव आयोग पर सीधा निशाना साधते हुए गांधी ने आरोप लगाया कि मुख्य चुनाव आयुक्त (सीईसी) ज्ञानेश कुमार वोटर हटाने की साज़िश में सीधे तौर पर शामिल हैं, क्योंकि उन्होंने कर्नाटक सीआईडी की बार-बार की अपीलों के बावजूद न तो ज़रूरी आंकड़े उपलब्ध कराए और न ही कोई कार्रवाई की.
उन्होंने कहा, "मैं ज्ञानेश कुमार पर इतना सीधा आरोप इसलिए लगा रहा हूं, क्योंकि इस मामले की जांच कर्नाटक में चल रही है. कर्नाटक सीआईडी ने 18 महीनों में 18 पत्र चुनाव आयोग को भेजे हैं और सिर्फ कुछ बहुत साधारण तथ्यों की मांग की है. लेकिन चुनाव आयोग जानकारी नहीं दे रहा. वह क्यों नहीं दे रहा? क्योंकि इससे पता चल जाएगा कि यह ऑपरेशन कहां से हो रहा है और हमें पूरा यकीन है कि इसकी दिशा “किस तरफ” जाती है."
गांधी ने चुनाव आयोग से कथित वोटर डिलीशन से जुड़े आंकड़े सार्वजनिक करने की अपील करते हुए कहा, "भारत के मुख्य चुनाव आयुक्त ज्ञानेश कुमार को उन लोगों की रक्षा करना बंद करना चाहिए जो भारतीय लोकतंत्र को नष्ट कर रहे हैं. हमने यहां 100% पुख्ता सबूत रख दिए हैं. चुनाव आयोग को एक हफ़्ते के भीतर इन फोनों और इन ओटीपी से जुड़ा डेटा जारी करना होगा.
आरोप चुनाव आयोग पर, लेकिन भाजपा सबसे पहले जवाब देती है
एक पुरानी लोकोक्ति है- "चोर की दाढ़ी में तिनका." जिसका अर्थ है- दोषी व्यक्ति का स्वयं भयभीत या शंकाग्रस्त रहना या अपराधी का स्वयं ही अपने मन में डर से घिरे रहना. यह इस विचार को दर्शाता है कि जो व्यक्ति कोई गलत काम करता है, वह हमेशा किसी न किसी तरह से पकड़े जाने या उजागर होने के डर में रहता है, और यह डर उसके हाव-भाव या व्यवहार से झलक जाता है. दिलचस्प है कि राहुल गांधी आरोप चुनाव आयोग पर लगा रहे हैं, लेकिन उसके बचाव में सबसे पहले सामने आ जाती है भाजपा. राहुल के “वोट चोरी” के आरोपों की शृंखला में आज गुरुवार को भी यही हुआ. भाजपा ने पलटवार की मुद्रा इख़्तियार की और वह तुरंत चुनाव आयोग की ढाल बनकर पेश हुई. पार्टी के सांसद अनुराग ठाकुर ने कहा, “राहुल गांधी भारतीय संवैधानिक संस्थाओं, जैसे चुनाव आयोग, को कमजोर करने का एजेंडा चला रहे हैं. कांग्रेस की राजनीति तुष्टिकरण पर आधारित है और आज कमजोर होकर बिखर रही है. राहुल "घुसपैठियों को पहले" वाली राजनीति का एजेंडा चला रहे हैं.”
चुनाव आयोग ने जवाब देते हुए कहा कि राहुल गांधी के सभी आरोप ‘गलत’ और ‘बेबुनियाद’ हैं. क्योंकि जनता का कोई भी सदस्य ऑनलाइन किसी भी वोट को डिलीट नहीं कर सकता. किसी भी वोट को हटाने की प्रक्रिया बिना संबंधित व्यक्ति को सुनवाई का अवसर दिए नहीं की जा सकती.”
अदालत ने अडानी ग्रुप के बारे में ख़बरें और पोस्ट हटाने वाले आदेश को रद्द किया
दिल्ली की एक अदालत ने चार पत्रकारों पर लगाए गए एकतरफा आदेश को गुरुवार को रद्द कर दिया, जिसके तहत उन्हें अडानी समूह से जुड़े कथित ‘मानहानिकारक’ लेखों और वीडियो प्रकाशित करने से रोक दिया गया था.
“लाइव लॉ” के अनुसार, चार पत्रकारों रवि नायर, अबीर दासगुप्ता, अयस्कांत दास और आयुष जोशी की अपील पर सुनवाई करते हुए जिला जज आशीष अग्रवाल ने कहा कि ये लेख लंबे समय से सार्वजनिक डोमेन में उपलब्ध हैं और सिविल जज को आदेश देने से पहले पत्रकारों की बात सुननी चाहिए थी.
“यदि बाद में वरिष्ठ सिविल जज यह पाते हैं कि प्रतिवादी पक्ष द्वारा अपनी दलीलें रखने के बाद ये लेख मानहानिकारक नहीं हैं, तो उन लेखों को जिन्हें पहले ही हटाया जा चुका है, पुनः बहाल करना संभव नहीं होगा. इसलिए, मेरे मत में निचली अदालत को वादियों की प्रार्थनाओं पर प्रतिवादियों को अवसर देने के बाद ही फैसला करना चाहिए था”, “लाइव लॉ” ने जज अग्रवाल को उद्धृत करते हुए कहा.
6 सितंबर को रोहिणी कोर्ट के एक वरिष्ठ सिविल जज ने एकपक्षीय आदेश पारित करते हुए प्रतिवादियों को वह सामग्री हटाने का निर्देश दिया था, जिसे वादी पक्ष ने अपने व्यवसायों को लक्षित करने वाला मानहानिकारक कंटेंट बताया था. अब ज़िला अदालत ने उस आदेश को रद्द कर दिया है और पत्रकारों को राहत दी है. फ़िलहाल यह ऑर्डर केवल उन 4 पत्रकारों को राहत देगा जो कोर्ट गए थे.
इसके बाद, इसी आदेश के आधार पर 16 सितंबर को सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय ने कई मीडिया संस्थानों और यूट्यूब चैनलों को नोटिस भेजकर अडानी ग्रुप से जुड़े वीडियो और पोस्ट हटाने के लिए कहा था.
कोर्ट ने अडानी से कहा, क्या आपके शेयर गिरे? आपको खुद यकीन नहीं कि आपकी मानहानि हुई
पत्रकार परंजॉय गुहा ठाकुरता ने भी 6 सितंबर के ऑर्डर को दिल्ली की एक अन्य कोर्ट में चुनौती दी है. “द इंडियन एक्सप्रेस” के अनुसार, कोर्ट ने उनकी अर्जी पर सुनवाई करते हुए टिप्पणी की कि कंपनी स्वयं इस बात को लेकर सुनिश्चित नहीं दिख रही है कि पत्रकार ने वास्तव में उसकी मानहानि की है या नहीं? रोहिणी अदालत के जिला न्यायाधीश सुनील चौधरी ने अडानी कंपनी से कहा, ““क्या आपके शेयर गिरे? आप किस तरह की राहत मांग रहे हैं? आपको खुद ही यकीन नहीं है कि यह मानहानिकारक है. आप अदालत से घोषणा चाह रहे हैं, लेकिन अगर इसे मानहानिकारक घोषित ही नहीं किया गया है तो कैसे निषेधाज्ञा दी जा सकती है?”
23 माह बाद जेल से बाहर आएंगे आज़म खान, हाईकोर्ट ने जमानत दी
इलाहाबाद हाईकोर्ट ने समाजवादी पार्टी के वरिष्ठ नेता आज़म ख़ान को ज़मानत दे दी है. जस्टिस समीर जैन की बेंच ने यह आदेश सुनाया. नमिता वाजपेयी के मुताबिक, इससे पहले 21 अगस्त को कोर्ट ने दोनों पक्षों की दलीलें सुनने के बाद फ़ैसला सुरक्षित रख लिया था. आज़म खान 23 माह से सीतापुर जेल में बंद हैं, लेकिन अब वे बाहर आ जाएंगे.
कोर्ट ने यह राहत रामपुर के क्वालिटी बार ज़मीन से जुड़े केस में दी है. यह मुकदमा 2019 में राजस्व विभाग की शिकायत पर रामपुर के सिविल लाइंस थाने में दर्ज हुआ था, जिसमें कई लोगों को अभियुक्त बनाया गया था. लेकिन आज़म ख़ान का नाम 2024 में अभियुक्त के रूप में जोड़ा गया.
आज़म ख़ान को एक हफ़्ते में यह तीसरी बड़ी राहत मिली है. 16 सितंबर को रामपुर की अदालत ने उन्हें अवमानना मामले में बरी किया था. इससे पहले 10 सितंबर को हाईकोर्ट ने डूंगरपुर मामले में भी उन्हें ज़मानत दी थी.
उत्तर प्रदेश में ज़िंदा दफ़नाई गई नवजात बच्ची ज़िंदगी की जंग लड़ रही है
उत्तर प्रदेश के शहाजहांपुर में ज़िंदा दफ़नाई गई एक 20 दिन की बच्ची अपने जीवन के लिए संघर्ष कर रही है. अस्पताल के अधिकारियों ने यह जानकारी दी है. बच्ची का पता तब चला जब एक चरवाहा अपनी बकरियों को चराने के लिए उस इलाक़े में ले गया था. उसने मिट्टी के एक टीले के नीचे से हल्के रोने की आवाज़ सुनी. जब वह क़रीब गया, तो उसने एक छोटा सा हाथ मिट्टी से बाहर निकलते देखा. उसने ग्रामीणों को सूचित किया, जिसके बाद पुलिस को बुलाया गया, जिन्होंने आकर बच्ची को बाहर निकाला. बीबीसी में गीता पांडेय की रिपोर्ट है.
यह घटना भारत के सबसे अधिक आबादी वाले राज्य के शाहजहांपुर ज़िले में हुई. बच्ची का इलाज वहां के सरकारी मेडिकल कॉलेज और अस्पताल की नवजात गहन चिकित्सा इकाई (neonatal intensive care unit) में चल रहा है. पुलिस ने अभी यह नहीं बताया है कि उन्हें इस अपराध के लिए किस पर शक है. लेकिन बेटियों को त्यागने और उन्हें मारने की कोशिशों के ऐसे मामलों के लिए भारत में बेटों को प्राथमिकता देने की सोच को ज़िम्मेदार ठहराया जाता है, जिसे व्यापक रूप से देश के असंतुलित लिंगानुपात का कारण माना जाता है.
मेडिकल कॉलेज के प्रिंसिपल डॉ. राजेश कुमार ने बीबीसी को बताया कि शिशु को सोमवार को लाया गया था. वह गंदगी से सनी हुई थी और सांस लेने के लिए हांफ रही थी क्योंकि उसके मुंह और नथुने में मिट्टी चली गई थी. डॉ. कुमार ने कहा, "उसकी हालत गंभीर थी, उसमें हाइपोक्सिया या ऑक्सीजन की कमी के लक्षण दिख रहे थे. उसे कीड़ों और किसी जानवर ने भी काटा था." उन्होंने आगे कहा, "24 घंटों के बाद हमने उसकी स्थिति में मामूली सुधार देखा, लेकिन तब से उसकी हालत फिर बिगड़ गई है. उसे संक्रमण हो गया है."
डॉ. कुमार का मानना है कि बच्ची को दफ़नाने के तुरंत बाद ही ढूंढ लिया गया था क्योंकि उसके "घाव ताज़े थे". उन्होंने बताया कि एक प्लास्टिक सर्जन सहित डॉक्टरों की एक टीम बच्ची का इलाज कर रही है और वे उसके संक्रमण को नियंत्रित करने की कोशिश कर रहे हैं. उन्होंने कहा, "स्थिति गंभीर है, लेकिन हम उसे बचाने की पूरी कोशिश कर रहे हैं." एक पुलिस अधिकारी ने कहा कि बच्ची के माता-पिता का पता लगाने की उनकी कोशिशें अभी तक सफल नहीं हुई हैं. राज्य की चाइल्ड हेल्पलाइन को बच्ची के बारे में सूचित कर दिया गया है.
सऊदी अरब और पाकिस्तान ने 'रणनीतिक पारस्परिक रक्षा' समझौते पर हस्ताक्षर किए
सऊदी अरब ने पाकिस्तान के साथ एक "रणनीतिक पारस्परिक रक्षा" समझौते पर हस्ताक्षर किए हैं. यह अमेरिका और इज़रायल को एक संकेत है कि राज्य अपनी सुरक्षा गठबंधनों में विविधता लाने को तैयार है ताकि वह अपनी निवारक क्षमता को मज़बूत कर सके. परमाणु-सशस्त्र दक्षिण एशियाई देश के साथ यह समझौता खाड़ी देशों द्वारा क़तर में हमास के राजनीतिक नेताओं को निशाना बनाकर किए गए इज़रायली मिसाइल हमलों से गहरी चिंता में पड़ने के एक हफ़्ते बाद हुआ है. खाड़ी देश पारंपरिक रूप से अमेरिका पर अपनी सुरक्षा गारंटी के लिए निर्भर रहे हैं.
एक वरिष्ठ सऊदी अधिकारी ने फाइनेंशियल टाइम्स को बताया, "हमें उम्मीद है कि यह हमारी निवारक क्षमता को मज़बूत करेगा — एक पर हमला दूसरे पर हमला माना जाएगा." उन्होंने आगे कहा, "यह एक व्यापक रक्षा समझौता है जो विशिष्ट ख़तरे के आधार पर सभी आवश्यक रक्षात्मक और सैन्य साधनों का उपयोग करेगा."
इस समझौते पर सऊदी क्राउन प्रिंस मोहम्मद बिन सलमान और पाकिस्तान के प्रधानमंत्री शहबाज़ शरीफ़ ने रियाद में हस्ताक्षर किए. शरीफ़ के कार्यालय ने दोहराया कि समझौते में "कहा गया है कि किसी भी देश के ख़िलाफ़ किसी भी आक्रामकता को दोनों के ख़िलाफ़ आक्रामकता माना जाएगा".
दोहा पर इज़रायली हमले, जो अमेरिका के प्रमुख ग़ैर-नाटो सहयोगियों में से एक है, ने खाड़ी नेताओं की वाशिंगटन की अप्रत्याशितता और उनकी रक्षा के प्रति उसकी प्रतिबद्धता के बारे में लंबे समय से चली आ रही चिंताओं को और बढ़ा दिया है. माना जा रहा है कि रियाद ने इस रक्षा समझौते पर हस्ताक्षर होने के बाद वाशिंगटन को सूचित कर दिया था.
सऊदी अरब और पाकिस्तान के बीच दशकों से घनिष्ठ रक्षा साझेदारी रही है. एक पूर्व पाकिस्तानी सेना प्रमुख रियाद में सऊदी के नेतृत्व वाले आतंकवाद-रोधी बल की कमान संभाल चुके हैं. सऊदी अधिकारी ने कहा, "हम इस पर एक साल से ज़्यादा समय से काम कर रहे थे और यह दो से तीन साल की बातचीत पर आधारित था." यह समझौता उन योजनाओं के बाद आया है जब रियाद अमेरिका के साथ एक रक्षा संधि करने की उम्मीद कर रहा था, जिसके तहत वह इज़रायल के साथ राजनयिक संबंधों को सामान्य करता. लेकिन 7 अक्टूबर, 2023 को हमास के हमले के बाद ये योजनाएं पटरी से उतर गईं. रियाद गाज़ा में इज़रायल के 23 महीने लंबे युद्ध और प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू की धुर-दक्षिणपंथी सरकार के आचरण से नाराज़ है.
दिमाग कुतरने वाले अमीबा, केरल में 19 मौतें
केरल हाल के महीनों में एक दुर्लभ लेकिन घातक बीमारी से जूझ रहा है, जिसने 19 लोगों की जान ले ली है. इसका कारण नेगलेरिया फाउलेरी (Naegleria fowleri) नामक एक सूक्ष्म परजीवी है, जिसे आमतौर पर "ब्रेन-ईटिंग अमीबा" कहा जाता है. यह प्राइमरी अमीबिक मेनिंगोएन्सेफलाइटिस (PAM) नामक स्थिति का कारण बनता है, जो एक दुर्लभ लेकिन लगभग हमेशा घातक मस्तिष्क संक्रमण है.
संक्रमण लगभग हमेशा जानलेवा होता है, और इससे संक्रमित होने वालों में से 98 प्रतिशत से अधिक की मौत हो जाती है. इस साल राज्य में 70 से ज़्यादा मामले सामने आए हैं. यह अमीबा तालाब, झील, नदी और ख़राब रखरखाव वाले स्विमिंग पूल जैसे गर्म ताज़े पानी में पाया जाता है. स्वास्थ्य अधिकारियों के अनुसार, यह निगलने पर बीमारी का कारण नहीं बनता है, लेकिन जब पानी नाक में प्रवेश करता है तो परजीवी नाक के रास्ते से मस्तिष्क में जा सकता है, जहां यह गंभीर सूजन और ऊतकों को नष्ट कर देता है.
बीमारी बहुत तेज़ी से बढ़ती है. एक स्वास्थ्य अधिकारी के अनुसार, "जो बुख़ार, सिरदर्द, मतली और गर्दन में अकड़न से शुरू होता है, वह जल्द ही भ्रम, दौरे और कोमा की स्थिति में बदल जाता है. मौत आमतौर पर एक से दो सप्ताह के भीतर हो जाती है." डॉक्टरों का कहना है कि इसे अक्सर बैक्टीरियल मैनिंजाइटिस समझ लिया जाता है, और जब तक असली कारण का पता चलता है, तब तक मरीज़ को बचाना बहुत देर हो चुका होता है.
केरल की स्वास्थ्य मंत्री वीना जॉर्ज ने बुधवार को राज्य विधानसभा को बताया कि अमीबा ज़्यादातर जल स्रोतों में मौजूद हैं, हालांकि केवल कुछ प्रकार ही ख़तरनाक हैं. उन्होंने बताया कि राज्य में पीएएम का पहला मामला 2016 में सामने आया था, और तब से सरकार डॉक्टरों को तेज़ी से प्रतिक्रिया देने में मदद करने के लिए दिशानिर्देशों पर काम कर रही है.
स्वास्थ्य अधिकारियों ने अस्पतालों को निर्देश दिया है कि वे अचानक मैनिंजाइटिस जैसे लक्षणों और ताज़े पानी के संपर्क में आने के हालिया इतिहास वाले किसी भी मरीज़ में पीएएम का संदेह करें. इसका कोई एक इलाज नहीं है, और दुनिया भर में जीवित बचे लोगों की संख्या बहुत कम है.
विशेषज्ञों का कहना है कि रोकथाम ही सबसे अच्छा बचाव है. लोगों को सलाह दी जाती है कि वे गर्म मौसम के दौरान रुके हुए या ख़राब रखरखाव वाले ताज़े पानी में न तैरें. यदि तैरना ज़रूरी हो, तो नोज क्लिप का उपयोग करने से नाक में पानी जाने का ख़तरा कम हो सकता है. वैज्ञानिक चेतावनी देते हैं कि जलवायु परिवर्तन पीएएम का ख़तरा बढ़ा सकता है. अमीबा गर्म पानी में पनपता है और उन जीवाणुओं को खाता है जो उच्च तापमान पर फलते-फूलते हैं.
भारत में 2021-25 के बीच हर 30 मिनट में एक नया मिलियनेयर परिवार बना
देश में पिछले चार वर्षों के दौरान हर 30 मिनट में एक डॉलर करोड़पति परिवार जुड़ा है. ऐसे परिवारों की संख्या—जिनके पास कम से कम 8.5 करोड़ रुपये की संपत्ति है—2021 में 4.58 लाख से लगभग दोगुनी होकर 2025 में 8.71 लाख हो गई है. यह आंकड़ा देश में लगातार बढ़ती आय असमानताओं को भी दर्शाता है.
हुरुन इंडिया वेल्थ रिपोर्ट 2025 के अनुसार, ऐसे परिवार कुल परिवारों का सिर्फ़ 0.31% हैं. रिपोर्ट का अनुमान है कि देश में मज़बूत आर्थिक गति को देखते हुए यह संख्या और भी तेज़ी से बढ़ेगी. महाराष्ट्र, जो राज्यों में सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था भी है, 1,78,600 करोड़पति परिवारों के साथ इस सूची में सबसे ऊपर है (2021 से 194% की वृद्धि). अकेले मुंबई में 1,42,000 ऐसे परिवार हैं.
शहरों में, 79,800 करोड़पति परिवारों के साथ दिल्ली दूसरे स्थान पर है, इसके बाद बेंगलुरु अपने आईटी और स्टार्टअप इकोसिस्टम के कारण 31,600 परिवारों के साथ तीसरे स्थान पर है. अन्य प्रमुख शहरों में अहमदाबाद, कोलकाता, चेन्नई, पुणे और हैदराबाद शामिल हैं.
मर्सिडीज-बेंज इंडिया के मुख्य कार्यकारी संतोष अय्यर, जिन्होंने रिपोर्ट के सह-उत्पादन में सहयोग किया, ने कहा कि हुरुन के आंकड़े देश में धन सृजन और लक्जरी उपभोग पैटर्न की नब्ज़ को दर्शाते हैं. हुरुन इंडिया के संस्थापक और मुख्य शोधकर्ता अनस रहमान जुनैद ने कहा कि करोड़पति परिवारों की संख्या का लगभग दोगुना होना यह साबित करता है कि यहां धन सृजन की कहानी वास्तविक और लचीली दोनों है.
करोड़पति परिवारों में वृद्धि को मज़बूत इक्विटी बाज़ारों, सोने की बढ़ती क़ीमतों और बढ़ती लक्जरी खपत का समर्थन मिला है. निफ़्टी 2021 और 2025 के बीच लगभग 70% चढ़ा, जबकि सोने की क़ीमतें दोगुनी से भी ज़्यादा होकर 1.14 लाख रुपये प्रति 10 ग्राम को पार कर गईं. रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि अति-उच्च-निवल-मूल्य (ultra-high-net-worth) की स्थिति तक पहुंचना अभी भी मुश्किल बना हुआ है. 2017 में केवल 5% करोड़पति 100 करोड़ रुपये से अधिक की श्रेणी में पहुंचे, और केवल 0.01% अरबपति बने.
अपनी प्रभावशाली गति के बावजूद, देसी करोड़पति आबादी चीन के 51 लाख करोड़पति परिवारों की तुलना में मामूली बनी हुई है. जुनैद ने कहा कि रिपोर्ट का अनुमान है कि भारत में अगले दशक में करोड़पति परिवारों की संख्या दोगुनी होकर लगभग 20 लाख तक पहुंच सकती है.
भोपाल गैस त्रासदी : हाईकोर्ट ने कहा, 40 साल तक लंबित नहीं रखा जा सकता मामला
मध्यप्रदेश हाईकोर्ट ने निर्देश दिया है कि 1984 भोपाल गैस त्रासदी से जुड़े मामलों का निस्तारण ट्रायल कोर्ट जल्द से जल्द करें. अदालत ने टिप्पणी की कि “मामलों को 40 साल तक लंबित नहीं रखा जा सकता.” साथ ही हाईकोर्ट ने ऐसे मामलों की सुनवाई कर रही ट्रायल अदालतों को आदेश दिया कि वे “रजिस्टार जनरल के माध्यम से इस अदालत को हर माह रिपोर्ट भेजें.”
विश्लेषण
जी.एन. देवी : तो जनगणना आयुक्त चुनाव आयुक्त से अलग नहीं दिखेंगे
जी.एन. देवी एक भारतीय विचारक, साहित्य समीक्षक और भाषाविद् हैं. उन्हें ख़ास तौर पर 'पीपल्स लिंग्विस्टिक सर्वे ऑफ़ इंडिया' के नेतृत्व के लिए जाना जाता है, जिसका मक़सद भारत की विभिन्न भाषाओं का संरक्षण करना है. यह लेख टेलिग्राफ में प्रकाशित हुआ. उसके मुख्य अंश.
अब से एक साल बाद, लंबे समय से प्रतीक्षित और विलंबित जनगणना की प्रक्रिया शुरू हो जाएगी. इसकी शुरुआत 1 अक्टूबर, 2026 से पश्चिमी हिमालयी क्षेत्रों जैसे जम्मू-कश्मीर, लद्दाख़, हिमाचल प्रदेश और उत्तराखंड में होगी, और बाद में 1 मार्च, 2027 से भारत के अन्य सभी हिस्सों में. हर जनगणना विभिन्न कल्याणकारी नीतियों को निर्धारित करने के लिए आवश्यक और प्रामाणिक डेटा देती है.
लेकिन यह जनगणना मूल रूप से 2021 में होनी थी. हालांकि सरकार ने कोविड-19 महामारी के बाद भी इस देरी का कारण नहीं बताया है, लेकिन कोई भी अनुमान लगा सकता है कि यह क्या हो सकता है. ऐसी फुसफुसाहट है कि हर दशक के पहले साल में जनगणना करने की स्थापित परंपरा को अस्थिर करना संसद में चुने हुए प्रतिनिधियों की संख्या में संभावित वृद्धि से जुड़ा हो सकता है. संविधान के 84वें और 87वें संशोधन के मद्देनज़र, सांसदों की संख्या काफ़ी ज़्यादा होगी. अगर 2021 की जनगणना समय पर हुई होती, तो परिसीमन की प्रक्रिया 2031 के बाद शुरू होती, जब अगली जनगणना होती. लेकिन अब, ऐसा लगता है कि परिसीमन की प्रक्रिया 2029 के आम चुनावों से पहले ही शुरू हो सकती है. तो यह कहा जा सकता है कि जनगणना में दिखाई दे रही देरी ने असल में परिसीमन की प्रक्रिया को तेज़ कर दिया है. और इसका एकमात्र आधार अक्टूबर 2026 से शुरू होने वाली जनगणना होगी.
इस संदर्भ में, तीन महत्वपूर्ण सवाल पूछने की ज़रूरत है.
पहला सवाल जातिगत जनगणना की संरचना से संबंधित है. सरकार ने घोषणा की है कि राष्ट्रीय जनगणना में जाति की गिनती होगी. आख़िरी जातिगत जनगणना 1931 में हुई थी; तब भारत का नक़्शा बहुत अलग था. उस गणना के आधार पर, उन समुदायों की आबादी का पता लगाना संभव था जिन्हें अब हम विमुक्त और घुमंतू जनजातियों (DNTs) के रूप में पहचानते हैं. DNTs वे समुदाय हैं जिन्हें औपनिवेशिक प्रशासन द्वारा लाए गए कुख्यात 1871 के आपराधिक जनजाति अधिनियम के कारण शेष भारतीय समाज से अलग कर दिया गया था. इन समुदायों पर ग़लती से "आपराधिक" का ठप्पा लगा दिया गया और उन्हें बस्तियों के रूप में जाने जाने वाले नरम जेलों में क़ैद रखा गया. इसका मतलब था कि समुदाय में हर नवजात को अपराधी होने का कलंक ढोना पड़ता था. सवाल यह है कि क्या जनगणना अधिकारी जनगणना की संरचना में ऐसी विशेषताएं शामिल करेंगे जिससे देश को DNTs की सटीक आबादी का पता चल सके. सिर्फ़ जाति के आधार पर गिनती से मदद नहीं मिलेगी; जनगणना की सूचियों में DNTs की पहचान से संबंधित एक विशिष्ट प्रश्न जोड़ना होगा. अगर ऐसा नहीं किया गया, तो देश DNTs के लिए मानवाधिकार और कल्याण के सवाल को कभी भी हल नहीं कर पाएगा.
दूसरा सवाल और भी ज़्यादा कांटेदार है. यह धर्म पर एकत्र किए जाने वाले आंकड़ों से संबंधित है. घुमंतू समुदायों के साथ अपने काम में, मैंने अक्सर ऐसे परिवारों को देखा है जो दो अलग-अलग धर्मों का पालन करते हैं. कालबेलिया, मदारी, गरुड़ी, बहरूपिया और गाड़िया लोहार अक्सर कहते हैं कि एक ही परिवार में कुछ लोग मुसलमान हैं और कुछ हिंदू. जनगणना के दौरान धर्म पर पूछा गया सवाल उत्तरदाताओं को केवल एक धर्म का नाम बताने के लिए मजबूर करता है, जिससे द्वि-धार्मिक या बहु-धार्मिक व्यक्तियों की सच्चाई छूट जाती है. जनगणना को धर्म पर एक और परत का सवाल जोड़ना चाहिए जो धार्मिक पहचान की ग़लत प्रस्तुति को रोकेगा. धर्म की गिनती का एक और भी जटिल पहलू आदिवासी समुदायों से संबंधित है. देश की कुल आबादी में आदिवासी आबादी लगभग 9% के क़रीब बनी हुई है, लेकिन वर्तमान में लगभग 13 करोड़ लोगों को लगभग हमेशा हिंदुओं और कुछ मामलों में ईसाइयों के साथ जोड़ दिया जाता है. मानवशास्त्रीय अध्ययनों से यह पता चलता है कि वे मंदिर-आधारित धर्मों का पालन नहीं करते हैं. तो क्या उन्हें गणक की मर्ज़ी पर 'हिंदू' या 'ईसाई' जैसी श्रेणियों में धकेल दिया जाएगा.
तीसरा सवाल भाषा के बारे में है. पिछली जनगणना में, नागरिकों द्वारा बताई गई 1,369 "मातृभाषाओं" को 121 "भाषाओं" के तहत 'समूहीकृत' कर दिया गया था. यह सबसे अवैज्ञानिक तरीक़े से किया गया. जनगणना का मानना है कि 'भाषा' होने के लिए, उसे कम से कम 10,000 लोगों द्वारा बोला जाना चाहिए. भाषाविज्ञान की कोई भी शाखा इस अजीब तर्क को स्वीकार नहीं कर सकती. इसी तरह, कई भाषाओं को पड़ोसी, बड़ी भाषा के उप-समूह के रूप में दिखाया गया. उदाहरण के लिए, भोजपुरी, जिसे पांच करोड़ से ज़्यादा लोग अपनी भाषा बताते हैं, उसे हिंदी की एक उप-भाषा के रूप में दिखाया गया. अकेले हिंदी के संबंध में ऐसे 55 अन्य मामले थे. जनगणना नागरिकों को उनकी भाषाई पहचान से क्यों वंचित करना चाहती है.
1880 से अच्छी तरह से स्थापित एक प्रक्रिया, जिस पर लोगों को अभी भी विश्वास है, को एक धर्म और एक भाषा की संख्या बढ़ाने के लिए इस्तेमाल करने की अनुमति नहीं दी जा सकती. अगर ऐसा किया गया, तो जनगणना आयुक्त चुनाव आयुक्त से अलग नहीं दिखेंगे. नतीजतन, परिसीमन की पहले से ही समस्याग्रस्त प्रक्रिया और भी ज़्यादा जटिल हो सकती है.
प्रेम पणिक्कर: ढोल जितने ज़ोर से बजते हैं, अंदर का व्यक्ति उतना ही कमज़ोर होता है
प्रेम पणिक्कर एक वरिष्ठ भारतीय पत्रकार और संपादक हैं. उन्हें भारत में ऑनलाइन क्रिकेट पत्रकारिता की शुरुआत करने वालों में गिना जाता है और वे अपने तीखे राजनीतिक विश्लेषण के लिए भी जाने जाते हैं. यह लेख उनके सब्सटैक से.
जन्मदिन कुछ लोगों के लिए शांत आत्मनिरीक्षण का समय होता है, दूसरों के लिए प्रियजनों के साथ उत्सव का. जब तक कि आप नरेंद्र मोदी न हों.
हर साल, मोदी का जन्मदिन एक व्यक्तिगत मील के पत्थर के रूप में नहीं, बल्कि एक राष्ट्रीय तमाशे के रूप में आता है. और हर साल, राज्य की मशीनरी इस अवसर को चिह्नित करने के लिए ज़रूरत से ज़्यादा काम करती है. इस साल भी, वही परिचित कोरियोग्राफ़ी सामने आई: मशहूर हस्तियों ने कर्तव्यनिष्ठा से पहले से लिखे गए बधाई संदेश पोस्ट किए; दुबई में बुर्ज ख़लीफ़ा को उनके चेहरे को आसमान में चमकाने के लिए इस्तेमाल किया गया; स्कूलों को फिल्में दिखाने, होमवर्क के रूप में पोस्टकार्ड अभियान आयोजित करने का निर्देश दिया गया. एक व्यक्तिगत मील का पत्थर एक अनिवार्य अनुष्ठान बन गया है, और यह हमें मोदी और उस राजनीतिक पारिस्थितिकी तंत्र के बारे में कुछ महत्वपूर्ण बताता है जो उन्हें बनाए रखता है.
एक तरफ़, यह क्लासिक व्यक्ति-पंथ का निर्माण है. शासक राज्य का प्रतीक बन जाता है—जैसा कि लुई XIV ने प्रसिद्ध रूप से घोषित किया था, "L'État, c'est moi" (मैं ही राज्य हूं)—और उसका जश्न मनाना राष्ट्र का जश्न मनाने के रूप में प्रस्तुत किया जाता है. सतह पर, यह शक्ति का प्रदर्शन है: "देखो नेता कितना सार्वभौमिक रूप से प्रिय है". लेकिन अगर आप लेंस को थोड़ा सा घुमाएं, तो जो ध्यान में आता है वह ताक़त नहीं बल्कि असुरक्षा है. अगर नेता अपनी जगह पर सुरक्षित होता, तो क्या बच्चों को उसे पोस्टकार्ड लिखने के लिए घसीटने की ज़रूरत होती. क्या फिल्म स्क्रीनिंग और सेलिब्रिटी ट्वीट्स को कोरियोग्राफ़ करने की ज़रूरत होती.

तानाशाहों का विरोधाभास यह है कि वे कभी भी कमज़ोर दिखने का जोखिम नहीं उठा सकते. उन्हें आत्मविश्वास, नियंत्रण और अनिवार्यता का प्रदर्शन करना होता है. और फिर भी, उस सावधानी से बनाए गए पोटेमकिन मुखौटे के पीछे अपनी पकड़ खोने की हमेशा मौजूद चिंता होती है. मोदी का पूरा राजनीतिक करियर एक छवि के इर्द-गिर्द बनाया गया है: चाय बेचने वाले का तपस्वी बेटा, 56 इंच के सीने वाला निस्वार्थ कार्यकर्ता, एक ऐसा वक्ता जो कभी सोता नहीं और कभी थकता नहीं. उस छवि को देखभाल के साथ चमकाया गया है, तमाशे से पोषित किया गया है, और जांच से बचाया गया है. लेकिन जन्मदिन मुश्किल होते हैं. अगर उन्हें बिना मनाए छोड़ दिया जाए, तो वे उस आदमी को सिर्फ़ एक और राजनेता और, इससे भी बदतर, एक बूढ़े होते हुए राजनेता के रूप में उजागर करेंगे. और इसलिए मशीनरी इस तारीख़ को स्थायित्व, अपरिहार्यता और स्थायी महानता के प्रतीक में बदलने के लिए काम में लग जाती है.
इस सार्वजनिक धूमधाम के नीचे एक गहरी, कुतरने वाली असुरक्षा है. मज़बूत नेताओं को आराधना गढ़ने की ज़रूरत नहीं होती; सुरक्षित संस्थानों को तालियों का आदेश देने की ज़रूरत नहीं होती. जब कोई नेता बच्चों से जन्मदिन की शुभकामनाएं मांगता है, जब उसे खेल और सिनेमा की दुनिया की मशहूर हस्तियों से दूसरों द्वारा लिखी गई स्क्रिप्ट पढ़ने की ज़रूरत होती है, तो यह हमें उसकी ताक़त के बारे में कम और उसके डर के बारे में ज़्यादा बताता है.
यह सब सिर्फ़ मोदी के लिए नहीं है क्योंकि उनकी पार्टी के लिए, दांव और भी ऊंचे हैं. मोदी सिर्फ़ उनके प्रधानमंत्री नहीं हैं, वे उनका ब्रांड हैं—पार्टी के पास एकमात्र पैन-इंडिया ब्रांड. उनकी व्यक्तिगत छवि आंतरिक विरोधाभासों पर पर्दा डालती है; यह सहयोगियों को लाइन में रखती है और आधार को एक साथ रखती है. उनके जन्मदिन को किसी और की तरह बीत जाने देना सामान्य स्थिति की एक झलक का जोखिम उठाना होगा, और सामान्य स्थिति एक व्यक्ति-पंथ के लिए ख़तरनाक है.
यह सब कुछ ख़ास नया नहीं है. चीन में माओ की वर्षगांठ बड़े पैमाने पर आयोजित तमाशे थे. उत्तर कोरिया का किम परिवार जन्मदिन को पूजा के अनिवार्य कृत्यों में बदल देता है. यहां तक कि इंदिरा गांधी ने भी आपातकाल के वर्षों के दौरान, अपनी छवि का राष्ट्रीयकरण करने के विचार के साथ खिलवाड़ किया था. प्रत्येक मामले में, दिखावे का पैमाना नेता की वास्तविक लोकप्रियता से नहीं, बल्कि शासन की असुरक्षा की सीमा से संबंधित होता है.
सबक़ यह है: जितने ज़ोर से ढोल बजते हैं, अंदर का व्यक्ति उतना ही कमज़ोर होता है. मोदी, निस्संदेह, एक लोकप्रिय नेता हैं. फिर भी, उनके जन्मदिन को एक राष्ट्रीय कार्यक्रम में बदलने पर ज़ोर देना यह बताता है कि लोकप्रियता, अगर बिना देखभाल के छोड़ दी जाए, तो फीकी पड़ सकती है और इसलिए इसे अंतहीन रूप से प्रदर्शित और पुष्ट किया जाना चाहिए.
तो अगली बार जब ड्रोन मोदी का चेहरा उकेरने के लिए आसमान में उड़ें, या आपका बच्चा होमवर्क पूरा करने में मदद मांगने के लिए घर आए—यानी, मोदी को कम से कम एक बड़ी उपलब्धि का उल्लेख करते हुए एक पोस्टकार्ड लिखें—तो इसे चिंता के कबूलनामे के रूप में पढ़ें; एक ऐसे सिस्टम के निशान के रूप में जो डरता है कि अगर नेता को महज़ इंसान के रूप में देखा गया तो क्या होगा.
शायद इन जन्मदिन के तमाशों की असली कहानी यही है—कि वे जितनी ज़्यादा मोमबत्तियां जलाते हैं, उतना ही वे उजागर करते हैं कि परछाइयों में क्या छिपा है.
ताकत का तमाशा और लोकतंत्र को बचाने की कोशिश
टिमोथी स्नाइडर : अमेरिका पर कोई और हमला नहीं करेगा. हम खुद पर हमला बोल सकते हैं.
टिमोथी स्नाइडर अमेरिकी इतिहासकार और लेखक हैं, जो अधिनायकवाद और लोकतंत्र के लिए पैदा हो रहे ख़तरों पर लिखते हैं. उनकी सबसे चर्चित किताबों में 'ऑन टिरनी' (On Tyranny) और 'ब्लडलैंड्स' (Bloodlands) शामिल हैं. यह लेख उनके सब्सटैक से.
ट्रम्प की नीति की समग्र रूपरेखा काफ़ी स्पष्ट है: तानाशाहों के लिए एक अनुकूल माहौल बनाने के लिए विदेशों में संयुक्त राज्य अमेरिका को कमज़ोर करना, और साथ ही देश के भीतर तानाशाही को संभव बनाने के लिए अमेरिकी सशस्त्र बलों का इस्तेमाल एक डराने-धमकाने वाली ताक़त के रूप में करना.
यह योजना काम करती है या नहीं, यह इस पर निर्भर करता है कि हम इसे कैसे देखते हैं, या यूँ कहें कि, क्या हम इसे न देखने का विकल्प चुनते हैं. सबसे बुरी स्थिति में, हम इस सामान्य बदलाव पर ध्यान न देने का विकल्प चुनते हैं, जब हमारे शहर सैन्यीकृत हो रहे होते हैं तो हम दूसरी तरफ़ देखने लगते हैं, और फिर यह दिखावा करते हैं कि हमारे पास अपने लोकतंत्र को त्यागने के अलावा कोई और चारा नहीं था.
इसके लिए बहाने खोज लिए जाएँगे. अपराध के बारे में झूठ. हिंसा की घटनाओं का शोषण.
आइए हम इन बहानों को अंतर्निहित नीति के साथ भ्रमित करने की ग़लती न करें.
संयुक्त राज्य अमेरिका में सत्तावाद की ओर संक्रमण हम पर निर्भर करता है. ट्रम्प के प्रतिमान में, यह सब एक शो है, और हमारी भूमिका छोटे-मोटे किरदारों की है. हमें एक ऐसी पटकथा दी गई है जिसमें कोई शब्द नहीं है और हम कुछ न करने के अपने इशारे का इंतज़ार करते हैं.
यहाँ महत्वपूर्ण शब्द, जो मुझे लगता है कि मैं बहुत ज़्यादा पढ़ रहा हूँ, "शो ऑफ़ फ़ोर्स" (ताक़त का प्रदर्शन) है. संयुक्त राज्य अमेरिका में नेशनल गार्ड (और मरीन) की तैनाती का वर्णन (अक्सर) इसी तरह किया गया है.
लेकिन यह किस तरह की ताक़त है. और यह किस तरह का शो है. और हम इसे एक "शो" के रूप में देखने से कैसे आगे बढ़ सकते हैं जिसमें हमारी कोई भूमिका नहीं है, जिसमें हम कोई अभिनय नहीं करते.
हमें अपने सहज अमेरिकी सैन्यवाद से सावधान रहना होगा. यह हमें बिना सोचे-समझे फ़ासीवाद की ओर ले जाता है.
ये तैनातियाँ स्पष्ट रूप से ग़ैरक़ानूनी हैं. और इन्हें आतंक फैलाने के लिए डिज़ाइन किया गया है. इसकी क़ानूनियत मुक़दमों और अंततः सुप्रीम कोर्ट के लिए एक मामला है – इस रास्ते पर चलना ही होगा, हालाँकि इस कोर्ट को क़ानून में बहुत कम रुचि है, और आत्म-विनाश में बहुत ज़्यादा, इसलिए उम्मीद न्यूनतम है.
सेवा के सदस्यों को जो करने का आदेश दिया जा रहा है वह साफ़ तौर पर ग़लत है. यह अमेरिकी क़ानून का उल्लंघन है, भले ही इस या शायद बाद के किसी सुप्रीम कोर्ट द्वारा यह तय करने में कितना भी समय लगे. यह उस लंबी और सही मायने में मूल्यवान मिसाल का उल्लंघन है कि सैनिकों का इस्तेमाल क़ानून प्रवर्तन के लिए नहीं किया जाना है. यह सशस्त्र बलों को रखने के मूल उद्देश्य का अपमान करता है, जो यह है कि वे किसी देश की हमले से सैन्य रक्षा के लिए हैं.
आतंक, हालांकि, काफ़ी हद तक हम पर निर्भर है. क्या हम आतंकित होना चुनते हैं.
कुछ लोग हैं, जैसे कि बिना दस्तावेज़ वाले श्रमिक, जिनके पास डरने का अच्छा कारण है. और फिर वे लोग हैं, हम में से कई, जिनके पास रचनात्मक रूप से सोचने और प्रतिक्रिया करने का अवसर है.
मीडिया में, किसी को "शो" में सहयोजित होने के बारे में चिंतित होना पड़ता है. परिभाषा के अनुसार, सैनिक संयुक्त राज्य अमेरिका की रक्षा नहीं कर रहे हैं यदि वे इसके शहरों में घूम रहे हैं, और फिर भी उन्हें देशभक्ति के प्रतीकों का लाभ मिलता है. आत्म-आक्रमण के बारे में एक कहानी को गंभीर रूप से सुंदर सैनिकों के साथ चित्रित करना तटस्थ नहीं है. यह फ़ासीवाद की ओर एक क़दम है. यह यह अहसास पैदा करने में मदद करता है कि, अंत में, वे "सिर्फ़ आदेशों का पालन कर रहे थे" और देशभक्त थे.
ये शहरी आत्म-आक्रमण की तैनातियाँ सेवा के अन्य सदस्यों के लिए एक जाल हैं. शहर-दर-शहर सैनिकों को भेजकर, ट्रम्प इस सांख्यिकीय संभावना को बना रहे हैं कि कुछ होगा – एक अवैध और अनैतिक मिशन से परेशान एक सेवा सदस्य की आत्महत्या, एक फ़्रेंडली फ़ायर की घटना, एक प्रदर्शनकारी की शूटिंग – जिसका वे इसके बारे में झूठ बोलकर कोई बड़ा संकट पैदा करने के लिए उपयोग कर सकते हैं. या वे अपने रूसी दोस्तों द्वारा किसी घटना को अंजाम देने का इंतज़ार कर सकते हैं, या किसी एक दक्षिणपंथी व्यक्ति द्वारा दूसरे को गोली मारने का, और फिर विपक्ष को दोष दे सकते हैं.
यह उनका तरीक़ा है, और मुझे संदेह है कि यही उनकी योजना है.
तैयार रहने का एकमात्र तरीक़ा उन भविष्य को देखना है जो निष्क्रियता के साथ आते हैं. यदि हम सशस्त्र सेवाओं में अपने दोस्तों और परिवार के साथ इन जोखिमों के बारे में संवाद नहीं करते हैं, तो हम सह-अपराधी हैं जब सत्तावाद लाने के लिए उनका उपयोग और दुरुपयोग किया जाता है. यदि हम "शो ऑफ़ फ़ोर्स" को हमें प्रभावित कर निष्क्रिय बनाने की अनुमति देते हैं, तो हम एक ऐसी प्रक्रिया में महत्वाकांक्षी तानाशाहों की सहायता कर रहे हैं जिसे वे अपने दम पर हासिल नहीं कर सकते.
मैंने यह यूक्रेन के नीप्रो में एक हवाई हमले के अलर्ट के दौरान लिखा था. मुझे यूक्रेन में अकादमिक काम करना था, और जिस इतिहास परियोजना के लिए मैं देश में आया था, वह कुछ सहकर्मियों के सक्रिय ड्यूटी पर होने और अन्य के मिसाइलों और ड्रोनों के कारण sleepless (बिना सोए) रहने से आसान नहीं हुई. हालांकि, वे सभी आए.
मैं इससे डरा नहीं था और मैं आपको डराने के लिए इसका उल्लेख नहीं कर रहा हूँ. इसके विपरीत, मैं इसका उल्लेख चीज़ों को सही नज़रिए से देखने में हमारी मदद करने के लिए कर रहा हूँ.
यूक्रेन पर रूस द्वारा आक्रमण किया जा रहा है.
बाहर से कोई हम पर आक्रमण नहीं करेगा. हम केवल ख़ुद पर आक्रमण कर सकते हैं.
और ऐसा होता है या नहीं यह हम पर निर्भर है: कि क्या हम समग्र तर्क को देखने का विकल्प चुनते हैं, क्या हम चीज़ों को वैसे ही नाम देने का विकल्प चुनते हैं जैसी वे हैं, क्या हम एक-दूसरे से बात करने का विकल्प चुनते हैं, और क्या हम नागरिकता, शालीनता और मानवता के काम को जारी रखने का विकल्प चुनते हैं.
पाठकों से अपील :
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