20/12/2025: मनरेगा को बदलना गांधी, अंबेडकर दोनों पर हमला | दुनिया में चिंता | राजधानी ने कुचले 8 हाथी | बांग्लादेश और भारत | पीएम के मकान पर खर्च न बताएंगे | लिव इन को लेकर कोर्ट ओके
‘हरकारा’ यानी हिंदी भाषियों के लिए क्यूरेटेड न्यूजलेटर. ज़रूरी ख़बरें और विश्लेषण. शोर कम, रोशनी ज़्यादा.
निधीश त्यागी, साथ में राजेश चतुर्वेदी, गौरव नौड़ियाल, फ़लक अफ़शां
आज की सुर्खियां
नोबेल विजेता जोसेफ स्टिग्लिट्ज़ और विशेषज्ञों ने मनरेगा खत्म करने पर जताई चिंता
सोनिया गांधी का कड़ा रुख: “मनरेगा पर चला सरकार का बुलडोजर, इस काले कानून के खिलाफ लड़ेंगे”
अरावली पर संकट: नई परिभाषा से 90% पहाड़ियों से हटेगा सुरक्षा कवच, राजस्थान में उबाल।
रेल की पटरी पर मौत: असम में राजधानी एक्सप्रेस की चपेट में आने से 8 हाथियों की दर्दनाक मौत।
ट्रंप का संदेश: भारतीय परमाणु उत्तरदायित्व नियमों को अंतरराष्ट्रीय मानदंडों के अनुरूप लाने पर जोर।
जयशंकर की चेतावनी: अमेरिका और चीन के साथ रिश्तों का प्रबंधन अब पहले से कहीं अधिक जटिल।
पड़ोसी का हाल: बांग्लादेश में भारत विरोधी लहर और फरवरी के चुनावों पर दिल्ली की पैनी नजर।
सेना की तैयारी: सीएजी की रिपोर्ट में खुलासा—72% आपातकालीन खरीद समझौतों में हुई देरी।
अगस्ता वेस्टलैंड केस: मनी लॉन्ड्रिंग मामले में 7 साल बाद क्रिश्चियन मिशेल की रिहाई का आदेश।
लिव-इन पर बड़ी टिप्पणी: “अवैध नहीं हैं लिव-इन रिलेशनशिप, बालिगों को अपना साथी चुनने का पूरा हक।”
आरटीआई का जवाब: पीएम के नए आवास पर कितना हुआ खर्च? सरकार का जानकारी देने से इनकार।
इमरान पर प्रहार: तोशाखाना-2 केस में इमरान खान और बुशरा बीबी को 17-17 साल जेल की सजा।
आधुनिकता या कुरुपता? आसिम अली का विश्लेषण: क्या भारत की प्रगति ‘मैकालेवाद’ के फेर में फंस गई है?
मनरेगा
प्रमुख अंतरराष्ट्रीय विशेषज्ञों ने मनरेगा को निरस्त करने के खिलाफ मोदी सरकार को लिखा पत्र
“द वायर” के मुताबिक, नोबेल अर्थशास्त्र पुरस्कार विजेता जोसेफ स्टिग्लिट्ज़ और नौ अन्य शिक्षाविदों ने महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम (मनरेगा) के समर्थन में भारत सरकार को एक खुला पत्र लिखा है. ‘मनरेगा’ दुनिया का सबसे बड़ा अधिकार-आधारित सार्वजनिक रोजगार कार्यक्रम है, जिसे सरकार अब ‘विकसित भारत—गारंटी फॉर रोज़गार एंड आजीविका मिशन (ग्रामीण)’ विधेयक के जरिए निरस्त कर रही है. विशेषज्ञों ने इसे “ऐतिहासिक भूल” करार दिया है, जबकि मनरेगा को एक “ऐतिहासिक कानून” बताया है.
शिक्षाविदों ने कहा कि जिस अधिनियम को बदला जा रहा है, वह “आर्थिक गरिमा को एक मौलिक अधिकार के रूप में पुष्ट करता है” और अनुभवजन्य साक्ष्य “इसके प्रभाव को रेखांकित करते हैं.” उन्होंने आगे कहा, “नया फंडिंग पैटर्न (वित्तीय ढांचा) एक विनाशकारी ‘कैच-22’ (ऐसी स्थिति जिससे निकलना असंभव हो) पैदा करता है: राज्य रोजगार प्रदान करने के लिए कानूनी रूप से उत्तरदायी होंगे, जबकि केंद्रीय वित्त पोषण वापस ले लिया गया है.”
पत्र में चेतावनी दी गई है कि “पहले सामग्री लागत में केवल 25% का योगदान देने वाले राज्यों पर अब कुल लागत का 40% से 100% तक का बोझ पड़ेगा, जिससे यह सुनिश्चित हो जाएगा कि गरीब राज्य परियोजनाओं की मंजूरी में कटौती करेंगे, जो सीधे तौर पर काम की मांग को दबा देगा.”
हरकारा डीपडाइव | राजेंद्रन नारायणन के साथ
मनरेगा में बदलाव गांधी और अंबेडकर दोनों पर हमला है, कानून और अधिकार को ध्वस्त करने की कोशिश
मनरेगा, जिसे दुनिया का सबसे बड़ा गरीबी उन्मूलन कार्यक्रम माना जाता रहा है, आज एक बड़े नीतिगत और वैचारिक संकट के मुहाने पर खड़ा है. ‘हरकारा डीप डाइव’ के ताजा अंक में निधीश त्यागी ने इसी ज्वलंत विषय पर अज़ीम प्रेमजी यूनिवर्सिटी के एसोसिएट प्रोफेसर, अर्थशास्त्री और समाज विज्ञानी राजेंद्रन नारायणन से विस्तार से चर्चा की. राजेंद्रन नारायणन न केवल एक अकादमिक विशेषज्ञ हैं, बल्कि उन्होंने वर्षों तक मनरेगा के जमीनी क्रियान्वयन और इसके सामाजिक-आर्थिक प्रभावों का गहरा अध्ययन किया है. इस बातचीत का मुख्य केंद्र मनरेगा के ढांचे में लाए गए वे बदलाव हैं, जो राजेंद्रन के अनुसार, इस क्रांतिकारी कानून की आत्मा को ही खत्म करने की ओर इशारा करते हैं.
राजेंद्रन नारायणन बताते हैं कि साल 2005 में बना यह कानून ग्रामीण भारत के लिए सिर्फ एक योजना नहीं, बल्कि अनुच्छेद 21 से जुड़ा एक ‘हक’ था. लेकिन अब सरकार ने इसके फंडिंग ढांचे को केंद्र और राज्यों के बीच 90:10 से बदलकर 60:40 कर दिया है. इसे एक उदाहरण से समझाते हुए वे कहते हैं कि केंद्र अब उस मकान मालिक की तरह हो गया है जिसके पास पानी का मोटर है, और राज्यों को किराएदार की तरह अपनी हर जरूरत के लिए दिल्ली का मुंह ताकना होगा. यह बदलाव उन गरीब राज्यों—जैसे बिहार, झारखंड और छत्तीसगढ़—के लिए घातक साबित होगा जिनके पास अपने राजस्व के स्रोत बेहद सीमित हैं. राजेंद्रन का मानना है कि यह वित्तीय बोझ बढ़ाकर केंद्र सरकार अपनी जवाबदेही से पल्ला झाड़ रही है, जिससे अंततः रोजगार के अवसरों में भारी कमी आएगी.
बातचीत में यह बात प्रमुखता से उभरी कि यह नया कानून सिर्फ वित्तीय नहीं, बल्कि एक गंभीर प्रशासनिक हमला भी है. संविधान के 73वें संशोधन ने ग्राम सभाओं को जो स्वायत्तता दी थी कि वे अपने गांव के विकास का फैसला खुद करें, वह अब दिल्ली और नौकरशाही के हाथों में केंद्रित की जा रही है. राजेंद्रन के अनुसार, यह ‘राइट टू वर्क’ यानी काम के अधिकार पर सीधा प्रहार है. सरकार एक तरफ 125 दिन के काम का वादा कर रही है, लेकिन दूसरी तरफ बजट में कटौती की गई है. जमीनी हकीकत यह है कि पिछले वर्षों में औसतन 45 से 50 दिन से ज्यादा काम नहीं मिल पाया है. ऐसे में 125 दिन का दावा महज एक ‘जुमला’ प्रतीत होता है.
तकनीकीकरण के नाम पर जो ‘ई-केवाईसी’ और आधार लिंकिंग की पेचीदगियां लाई गई हैं, उन पर राजेंद्रन कड़ी आपत्ति जताते हैं. वे कहते हैं कि जानबूझकर ऐसी बाधाएं खड़ी की जा रही हैं ताकि मजदूर हताश होकर काम मांगना ही छोड़ दें. जब मजदूरों की संख्या कागजों पर कम हो जाएगी, तो सरकार यह दावा कर सकेगी कि ‘विकसित भारत’ में अब कोई काम नहीं मांग रहा. यह मजदूरों को ‘नागरिक’ से घटाकर सिर्फ एक ‘लाभार्थी’ बनाने की प्रक्रिया है. राजेंद्रन स्पष्ट करते हैं कि नागरिक वह है जो सत्ता से सवाल पूछता है और जवाबदेही तय करता है, जबकि लाभार्थी सिर्फ दया का पात्र बनकर रह जाता है. वे सरकार को आगाह करते हुए कहते हैं कि हमें ‘दयालु’ सरकार नहीं, बल्कि अधिकार देने वाली जवाबदेह सरकार चाहिए.
मनरेगा के पिछले 20 सालों के सामाजिक हासिल का जिक्र करते हुए राजेंद्रन नारायणन ने एक बेहद प्रेरणादायक वाकया सुनाया. उन्होंने बताया कि कैसे कर्नाटक के एक सुदूर गांव में मनरेगा के जरिए आर्थिक रूप से स्वतंत्र हुई दलित और पिछड़ी महिलाओं ने उन मंदिरों में प्रवेश और भजन गाने का अधिकार हासिल किया, जहां पहले उन्हें अनुमति नहीं थी. वे बताते हैं कि 58 प्रतिशत महिला मजदूरों वाली यह योजना महिलाओं, दलितों और आदिवासियों के लिए सशक्तिकरण का सबसे बड़ा औजार रही है. इसे कमजोर करना समाज को वापस सामंतवाद और पितृसत्ता के दौर में धकेलने जैसा है.
अंत में, राजेंद्रन इस बदलाव को गांधी और अंबेडकर दोनों के विचारों पर एक बड़ा हमला करार देते हैं. गांधी का ‘स्थानीय शासन’ और अंबेडकर का ‘संवैधानिक अधिकारों का ढांचा’—दोनों को ही इस नए कानून के जरिए ध्वस्त किया जा रहा है. वे कहते हैं कि ‘मन की बात’ जैसे एकतरफा संवाद के जरिए लोकतंत्र नहीं चलता. हालांकि, राजेंद्रन को भरोसा है कि देश की ढाई लाख पंचायतों के करोड़ों मजदूर और नरेगा संघर्ष मोर्चा जैसे संगठन इस अन्याय के खिलाफ चुप नहीं बैठेंगे. 20 राज्यों में शुरू हुए विरोध प्रदर्शन इस बात का संकेत हैं कि ग्रामीण भारत अपने उस अधिकार को इतनी आसानी से नहीं छिनने देगा, जिसने उन्हें सिर उठाकर जीना सिखाया है. यह लड़ाई सिर्फ एक कानून की नहीं, बल्कि भारत के लोकतांत्रिक मूल्यों और सबसे गरीब नागरिक के वजूद की है.
‘मनरेगा’: मोदी सरकार ने गरीबों पर बुलडोज़र चलाया, हम सड़क पर विरोध करेंगे: सोनिया गांधी
कांग्रेस संसदीय दल की अध्यक्ष सोनिया गांधी ने शनिवार को मोदी सरकार पर महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम (मनरेगा) को खत्म करने का आरोप लगाया और कहा कि इसकी जगह एक “काला कानून” लाया जा रहा है, जिसका देश भर के लाखों कांग्रेस कार्यकर्ता विरोध करेंगे. एक वीडियो संदेश में श्रीमती गांधी ने कहा कि मनरेगा को कमजोर करके मोदी सरकार ने करोड़ों किसानों, मजदूरों और भूमिहीन गरीबों के हितों पर हमला किया है.
“डेक्कन क्रॉनिकल” के अनुसार, ग्रामीण समुदायों को संबोधित करते हुए, श्रीमती गांधी ने 20 साल पहले मनरेगा के पारित होने को याद किया, जब डॉ. मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री थे. उन्होंने कहा कि इसे संसद ने सर्वसम्मति से मंजूरी दी थी. इसे एक “क्रांतिकारी कदम” बताते हुए उन्होंने कहा कि यह योजना समाज के वंचित और सबसे गरीब वर्गों के लिए आजीविका का एक महत्वपूर्ण स्रोत बन गई थी. सोनिया गांधी के अनुसार, मनरेगा ने काम की तलाश में पलायन को रोकने में मदद की, रोजगार का कानूनी अधिकार प्रदान किया और ग्राम पंचायतों को सशक्त बनाया. उन्होंने कहा, “मनरेगा के माध्यम से, महात्मा गांधी के ग्राम स्वराज के दृष्टिकोण पर आधारित भारत के सपने को साकार करने की दिशा में एक ठोस कदम उठाया गया था.”
उन्होंने आरोप लगाया कि सरकार ने “मनरेगा पर बुलडोजर चला दिया है.” उन्होंने कहा कि महात्मा गांधी का नाम हटा दिया गया है और बिना किसी विचार-विमर्श, परामर्श या विपक्ष को विश्वास में लिए योजना की संरचना को मनमाने ढंग से बदल दिया गया है. गांधी ने कहा कि नए कानून के तहत, रोजगार पर निर्णय — जिसमें किसे काम मिलेगा, कितना और कहाँ मिलेगा — केंद्र द्वारा लिए जाएंगे, जो जमीनी हकीकत से कोसों दूर हैं.
मनरेगा को लाने और लागू करने में कांग्रेस की भूमिका पर जोर देते हुए उन्होंने कहा कि यह योजना कभी भी पार्टी-विशिष्ट नहीं थी, बल्कि राष्ट्रीय और जनहित से जुड़ी थी. उन्होंने कहा, “इस कानून को कमजोर करके मोदी सरकार ने ग्रामीण भारत के करोड़ों किसानों, मजदूरों और भूमिहीन गरीबों के हितों पर चोट की है.” अपनी प्रतिबद्धता दोहराते हुए गांधी ने कहा, “बीस साल पहले, मैंने भी हमारे गरीब भाई-बहनों के लिए रोजगार का अधिकार सुरक्षित करने के लिए संघर्ष किया था; आज, मैं इस काले कानून के खिलाफ लड़ने के लिए प्रतिबद्ध हूँ. मेरे जैसे सभी कांग्रेस नेता और लाखों कार्यकर्ता आपके साथ खड़े हैं.” कांग्रेस ने पहले कहा था कि वह इस निरस्तीकरण कानून के खिलाफ अपना विरोध जमीनी स्तर तक ले जाएगी.
गौरतलब है कि संसद ने गुरुवार को ‘विकसित भारत गारंटी फॉर रोज़गार एंड आजीविका मिशन (ग्रामीण)’ (VB-GRAM G) विधेयक पारित किया है, जो 20 साल पुराने मनरेगा की जगह लेगा.
असम: राजधानी एक्सप्रेस की चपेट में आने से आठ हाथियों की मौत, ट्रेन के पांच डिब्बे पटरी से उतरे
वन विभाग के एक अधिकारी ने बताया कि शनिवार तड़के असम के होजई जिले में सैरांग-नई दिल्ली राजधानी एक्सप्रेस की चपेट में आने से एक झुंड के आठ हाथियों की मौत हो गई और एक घायल हो गया. पूर्वोत्तर सीमांत रेलवे (एनएफआर) के एक प्रवक्ता ने कहा कि इस घटना में ट्रेन के पांच डिब्बे और इंजन पटरी से उतर गए, हालांकि यात्रियों के घायल होने की कोई सूचना नहीं मिली है.
“पीटीआई” को प्रवक्ता ने बताया कि नई दिल्ली जाने वाली इस ट्रेन के साथ यह दुर्घटना रात करीब 2:17 बजे हुई. नगांव के संभागीय वन अधिकारी सुहास कदम ने बताया कि यह घटना होजई जिले के चांगजुराई इलाके में हुई. कदम और अन्य वन अधिकारी मौके पर पहुंच गए. उन्होंने आगे बताया कि प्रभावित जमुनामुख-कामपुर खंड से गुजरने वाली ट्रेनों को ‘अप लाइन’ के जरिए डायवर्ट (मार्ग परिवर्तित) किया गया है और बहाली का काम जारी है. सैरांग-नई दिल्ली राजधानी एक्सप्रेस मिजोरम के सैरांग (आइजोल के पास) को आनंद विहार टर्मिनल (दिल्ली) से जोड़ती है
अरावली की परिभाषा पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले से राजस्थान में भारी विरोध शुरू
राजेश असनानी की रिपोर्ट है कि केंद्रीय पर्यावरण मंत्रालय द्वारा अरावली पहाड़ियों की दी गई उस परिभाषा को सुप्रीम कोर्ट द्वारा हाल ही में स्वीकार किए जाने के बाद राजस्थान में व्यापक विरोध शुरू हो गया है, जिसमें अरावली शृंखला को केवल 100 मीटर से अधिक ऊंचाई वाले भू-भागों तक सीमित कर दिया गया है. राजनीतिक नेताओं, पर्यावरण कार्यकर्ताओं, सोशल मीडिया इन्फ्लुएंसर्स और आम नागरिकों ने इसका कड़ा विरोध करते हुए चेतावनी दी है कि इस कदम के गंभीर पारिस्थितिक और आर्थिक परिणाम होंगे.
नई परिभाषा के तहत, राजस्थान में अरावली श्रृंखला का लगभग 90 प्रतिशत हिस्सा, जिसमें 100 मीटर से कम ऊंची पहाड़ियाँ शामिल हैं, अब संरक्षित श्रेणी का हिस्सा नहीं माना जाएगा.
उपलब्ध आंकड़ों के अनुसार, राज्य की लगभग 1.6 लाख पहाड़ियों में से केवल 1,048 ही 100 मीटर की कसौटी पर खरी उतरती हैं. इसका मतलब है कि अधिकांश पहाड़ियों से विनियामक सुरक्षा कवच हट जाएगा.
राजस्थान केंद्रीय विश्वविद्यालय में पर्यावरण विज्ञान विभाग के प्रोफेसर लक्ष्मीकांत शर्मा ने कहा कि अरावली में अधिकांश पहाड़ियों की ऊंचाई 30 से 80 मीटर के बीच है. इस परिभाषा से लगभग पूरी श्रृंखला ही स्वतः बाहर हो जाएगी.
हालांकि सुप्रीम कोर्ट के आदेश में कहा गया है कि नए खनन की अनुमति नहीं है, लेकिन आलोचकों का तर्क है कि अवैध खनन बेरोकटोक जारी है. 2018 की एक रिपोर्ट में खुलासा हुआ था कि राजस्थान में 25 प्रतिशत अरावली पहाड़ियाँ पहले ही नष्ट हो चुकी हैं.
इसी पृष्ठभूमि में, जयपुर के बापू नगर स्थित विनोबा ज्ञान मंदिर से ‘अरावली हेरिटेज पीपुल्स कैंपेन’ शुरू किया गया है. पीयूसीएल की राष्ट्रीय अध्यक्ष कविता श्रीवास्तव ने सरकार से इस ‘समान परिभाषा’ को रद्द करने का आग्रह किया है, जिसे उन्होंने भारत की पारिस्थितिक और सांस्कृतिक विरासत के लिए खतरा बताया है.
कार्यकर्ताओं की मांग है कि गुजरात, राजस्थान, हरियाणा और दिल्ली में फैली अरावली श्रृंखला को ‘पारिस्थितिक रूप से महत्वपूर्ण क्षेत्र’ घोषित किया जाए. ‘पीपल फॉर अरावली’ की संस्थापक सदस्य नीलम अहलूवालिया ने कहा कि यह निर्णय खनन माफियाओं के हौसले बुलंद करेगा.
विशेषज्ञों ने चेतावनी दी है कि अरावली के विनाश से क्षेत्र में बारिश का पैटर्न बदल सकता है. यदि यह श्रृंखला नष्ट हो गई, तो मानसून की नमी पश्चिम की ओर पाकिस्तान की तरफ खिसक सकती है, जिससे राजस्थान में वर्षा पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा.
700 किलोमीटर लंबी अरावली श्रृंखला का लगभग 80 प्रतिशत हिस्सा राजस्थान के 27 जिलों से होकर गुजरता है. यह पूर्वी राजस्थान की पारिस्थितिक रीढ़ है. चंबल, बनास, साहिबी, कांतली, गंभीर और मोरेल जैसी कई मौसमी नदियाँ अरावली से ही निकलती हैं. अरावली की चट्टानों में पानी सोखने की अद्भुत क्षमता होती है. अध्ययनों के अनुसार, यह प्रति हेक्टेयर सालाना लगभग 20 लाख लीटर भूजल को रिचार्ज करने में मदद करती है. राजस्थान के लगभग 32 प्रमुख पेयजल जलाशय अरावली तंत्र पर निर्भर हैं. यहां की खेती और पशुपालन पूरी तरह से इन पहाड़ियों से निकलने वाली जलधाराओं पर आधारित है.जैसे-जैसे विरोध तेज हो रहा है, पर्यावरण समूहों ने इस परिभाषा की तत्काल समीक्षा की मांग की है, यह चेतावनी देते हुए कि राजस्थान की पारिस्थितिकी, जल सुरक्षा और ग्रामीण अर्थव्यवस्था गंभीर जोखिम में है.
ट्रम्प चाहते हैं, भारत के परमाणु उत्तरदायित्व नियम वैश्विक मानदंडों के अनुरूप हों, कानून पर दस्तखत
भारत के परमाणु क्षेत्र में निजी भागीदारी की अनुमति देने और किसी परमाणु दुर्घटना की स्थिति में ऑपरेटर की देयता को ₹3,000 करोड़ तक सीमित करके उत्तरदायित्व मानदंडों में ढील देने वाले ‘शांति’ विधेयक को संसद द्वारा मंजूरी दिए जाने के दो दिन बाद, अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प ने शुक्रवार (19 दिसंबर, 2025) को राष्ट्रीय रक्षा प्राधिकरण अधिनियम (एनडीएए) पर हस्ताक्षर किए. “द हिंदू” में जैकब कोशी के अनुसार, इस कानून में अमेरिकी विदेश मंत्री को भारत सरकार के साथ काम करने और “...(भारत के) घरेलू परमाणु उत्तरदायित्व नियमों को अंतरराष्ट्रीय मानदंडों के अनुरूप संरेखित करने” की सलाह दी गई है.
एनडीएए, जिस पर हर वित्त वर्ष में हस्ताक्षर किए जाते हैं, एक महत्वपूर्ण कानून है जिसके माध्यम से अमेरिका अपने रक्षा विभाग के वार्षिक बजट और खर्चों का निर्धारण करता है. इस वित्त वर्ष (अक्टूबर 2025 से सितंबर 2026) के लिए, इस विशाल दस्तावेज़ के एक हिस्से में कहा गया है कि विदेश मंत्री “...’अमेरिका-भारत रणनीतिक सुरक्षा वार्ता’ के भीतर भारत सरकार के साथ एक संयुक्त परामर्श तंत्र स्थापित और बनाए रखेंगे, ताकि 2008 के भारत-अमेरिका परमाणु समझौते के कार्यान्वयन का आकलन किया जा सके” और “...(भारत के) घरेलू परमाणु उत्तरदायित्व नियमों को अंतरराष्ट्रीय मानदंडों के अनुरूप बनाया जा सके.”
वहीं, योषिता सिंह लिखती हैं कि यह कानून चीन द्वारा पेश की गई चुनौती से निपटने और एक स्वतंत्र एवं मुक्त हिंद-प्रशांत क्षेत्र के साझा उद्देश्य को आगे बढ़ाने के लिए ‘क्वाड’ सहित भारत के साथ अमेरिका के जुड़ाव को व्यापक बनाने पर जोर देता है. अधिनियम में ‘हिंद-प्रशांत क्षेत्र में रक्षा गठबंधन और साझेदारी’ पर कांग्रेस की राय को रेखांकित किया गया है. इसके तहत, रक्षा सचिव को हिंद-प्रशांत क्षेत्र में अमेरिकी रक्षा गठबंधनों और साझेदारियों को मजबूत करने के प्रयासों को जारी रखना चाहिए ताकि “चीन के साथ रणनीतिक प्रतिस्पर्धा में अमेरिका के तुलनात्मक लाभ को आगे बढ़ाया जा सके.”
इसके प्रमुख बिंदुओं में शामिल है: सैन्य अभ्यासों में भागीदारी और विस्तारित रक्षा व्यापार के माध्यम से भारत के साथ अमेरिकी जुड़ाव को व्यापक बनाना, मानवीय सहायता, आपदा राहत और समुद्री सुरक्षा पर अधिक सहयोग सक्षम करना, क्वाड (भारत, अमेरिका, जापान और ऑस्ट्रेलिया) के माध्यम से एक स्वतंत्र और मुक्त हिंद-प्रशांत के साझा उद्देश्य को आगे बढ़ाना. रक्षा सचिव और विदेश मंत्री मिलकर हिंद-प्रशांत क्षेत्र में अमेरिका और उसके सहयोगी देशों के रक्षा औद्योगिक आधारों के बीच सहयोग मजबूत करने के लिए एक ‘सुरक्षा पहल’ स्थापित करेंगे. इसके तहत ऑस्ट्रेलिया, जापान, दक्षिण कोरिया, भारत, फिलीपींस और न्यूजीलैंड जैसे देशों को सदस्य के रूप में आमंत्रित करने की प्रक्रिया निर्धारित की जाएगी.
अगस्ता वेस्टलैंड: मनी लॉन्ड्रिंग केस में क्रिश्चियन मिशेल को रिहा करने का आदेश
दिल्ली की एक अदालत ने शनिवार को क्रिश्चियन जेम्स मिशेल को कथित अगस्तावेस्टलैंड वीवीआईपी हेलीकॉप्टर घोटाले से संबंधित प्रवर्तन निदेशालय (ईडी) द्वारा दर्ज मनी लॉन्ड्रिंग मामले में हिरासत से रिहा करने का आदेश दिया. हालांकि, वह जेल में ही रहेगा क्योंकि वह इसी मामले में सीबीआई द्वारा दर्ज भ्रष्टाचार के एक अलग मामले में भी आरोपी है. अगस्तावेस्टलैंड मामला ब्रिटिश-इतालवी फर्म से 12 वीवीआईपी हेलीकॉप्टरों का अनुबंध हासिल करने के लिए रक्षा मंत्रालय के पूर्व अधिकारियों को दी गई कथित अनियमितताओं और रिश्वत के इर्द-गिर्द केंद्रित है.
“डेक्कन क्रॉनिकल” के अनुसार, विशेष सीबीआई न्यायाधीश संजय जिंदल, जो ईडी मामले में मिशेल की रिहाई की याचिका पर सुनवाई कर रहे थे, ने उल्लेख किया कि उन पर धन शोधन निवारण अधिनियम (पीएमएलए) के तहत अपराध का आरोप लगाया गया है, जिसमें अधिकतम सात साल की कैद का प्रावधान है और वह सात साल से हिरासत में हैं. अदालत ने कहा, “सीआरपीसी की धारा 436A के दूसरे प्रावधान के अनिवार्य प्रावधानों के मद्देनजर, उक्त आरोपी तदनुसार रिहा होने का हकदार है और उसे इस मामले में 21 दिसंबर, 2025 से आगे हिरासत में नहीं रखा जा सकता.”
धारा 436A का दूसरा प्रावधान कहता है कि किसी भी व्यक्ति को जांच, पूछताछ या मुकदमे की अवधि के दौरान उस कानून के तहत उक्त अपराध के लिए प्रदान की गई अधिकतम कारावास की अवधि से अधिक समय तक हिरासत में नहीं रखा जाएगा. मिशेल के वकील ने तर्क दिया कि दोनों एजेंसियां 12 साल से मामले की जांच कर रही हैं और उनका मुवक्किल सात साल से हिरासत में है. उन्होंने इसे “न्याय का मजाक” बताया कि जमानत मिलने के बावजूद मिशेल घर नहीं जा पा रहे हैं. अदालत के बाहर मीडिया से बात करते हुए मिशेल ने कहा कि वह सुनवाई का “आनंद” ले रहे हैं.
दिल्ली की चिंता: बांग्लादेश में भारत-विरोधी लहर, क्या हिंसा फरवरी के चुनावों में डालेगी खलल?
बांग्लादेश में उथल-पुथल के एक नए दौर के बीच, जहां ढाका में भारतीय उच्चायोग और पूरे बांग्लादेश में स्थित इसके सहायक उच्चायोगों को धमकियों का सामना करना पड़ रहा है, नई दिल्ली की चिंता इस बात से और गहरी हो गई है कि उसके हित अगले साल फरवरी में होने वाले बांग्लादेश के चुनावों से जुड़े हैं.
हिंसा के इस ताज़ा दौर की चिंगारी 12 दिसंबर को 32 वर्षीय शरीफ उस्मान हादी की गोली मारकर की गई हत्या है. हादी ने प्रधानमंत्री शेख हसीना के खिलाफ उस आंदोलन में भाग लिया था, जिसके कारण 5 अगस्त, 2024 को उन्हें सत्ता से बेदखल होना पड़ा था.
‘इंक़लाब मंच’ (क्रांति का मंच) के प्रवक्ता हादी को पिछले शुक्रवार ढाका में 12 फरवरी के चुनावों के लिए अपना अभियान शुरू करने के दौरान बाइक सवार नकाबपोश हमलावरों ने सिर में गोली मार दी थी. 18 दिसंबर को उनकी मृत्यु हो गई.
बांग्लादेश पुलिस का दावा है कि उन्होंने हादी के दो हमलावरों की पहचान कर ली है और वे सीमा पार करके भारत भाग गए हैं. इस दावे ने हादी के समर्थकों के बीच गुस्से को भड़का दिया है. यहां (दिल्ली में) अधिकारियों का कहना है कि इसी दावे ने प्रदर्शनकारियों को बांग्लादेश में भारतीय मिशनों को निशाना बनाने का एक बहाना दे दिया है. ढाका में उच्चायोग के अलावा, बांग्लादेश के चटगांव, राजशाही, खुलना और सिलहट में भारत के चार सहायक उच्चायोग हैं. इन विरोध प्रदर्शनों के कारण बांग्लादेशी नागरिकों के लिए वीजा आवेदन केंद्र को एक दिन के लिए बंद करना पड़ा.
भारत ने दिल्ली में बांग्लादेश के दूत को तलब किया और ढाका के अधिकारियों से अपने मिशनों की सुरक्षा सुनिश्चित करने को कहा. दिल्ली ने ढाका के दो सबसे प्रमुख मीडिया घरानों — सबसे बड़े अंग्रेजी दैनिक ‘द डेली स्टार’ और उसके सहयोगी संस्थान, सबसे बड़े बंगाली दैनिक ‘प्रथम आलो’ — पर हुए अभूतपूर्व भीड़ के हमले का भी संज्ञान लिया है. हसीना के आलोचकों का आरोप है कि ये संस्थान उनके “सहयोगी” और “भारत-समर्थक” थे, लेकिन वास्तविकता यह है कि इन दोनों मीडिया घरानों ने शेख हसीना की सत्तावादी सरकार के दौरान प्रेस की स्वतंत्रता का पुरजोर बचाव किया था. हसीना के कार्यालय ने उन्हें अपनी प्रेस वार्ताओं में शामिल होने से प्रतिबंधित (ब्लैकलिस्ट) कर दिया था.
विडंबना यह है कि इन दोनों समाचार संगठनों ने पिछले साल छात्रों के नेतृत्व में हुए हसीना-विरोधी प्रदर्शनों को “नया सवेरा” बताते हुए उनका समर्थन किया था. शुक्रवार को, ‘द डेली स्टार’ के संपादकीय ने इस घटना को “स्वतंत्र पत्रकारिता के लिए एक काला दिन” करार दिया, जो बदलते रुख का पहला संकेत है.
स्पष्ट रूप से, ढाका की क्रोधित भीड़ अदृश्य दुश्मनों को निशाना बना रही है, जबकि मुख्य सलाहकार प्रोफेसर मोहम्मद यूनुस के नेतृत्व वाली अंतरिम सरकार नियंत्रण पाने के लिए संघर्ष कर रही है.
शुभाजित रॉय अपनी रिपोर्ट में लिखते हैं कि दिल्ली की चिंता अधिक मौलिक है कि क्या यह कानून-व्यवस्था की ऐसी स्थिति पैदा करेगा जिसके परिणामस्वरूप फरवरी के चुनावों को स्थगित करना पड़ जाए? यह चिंता बेबुनियाद नहीं है.
हादी की हत्या चुनाव कार्यक्रम की घोषणा के ठीक एक दिन बाद हुई, जो बिना किसी संसदीय निरीक्षण या अनुमोदन के, आदेशों द्वारा चलाए जा रहे अंतरिम सरकार के 16 महीने के शासन के बाद घोषित किया गया था.
दिल्ली और अधिकांश अंतरराष्ट्रीय समुदाय के लिए, बांग्लादेश के चुनावों पर बारीकी से नज़र रखी जा रही है, क्योंकि यदि हसीना की अवामी लीग को चुनाव लड़ने की अनुमति नहीं दी जाती है, तो उनकी विश्वसनीयता पर सवाल उठाए जाएंगे.
महत्वपूर्ण बात यह है कि दिल्ली ने लगातार यह रुख बनाए रखा है — जिसमें 14 दिसंबर को विदेश मंत्रालय का बयान भी शामिल है — कि वह बांग्लादेश में “शांतिपूर्ण माहौल” में “स्वतंत्र, निष्पक्ष, समावेशी और विश्वसनीय” चुनावों के पक्ष में है. यहां “समावेशी” का मुख्य रूप से अर्थ चुनावों में हसीना की अवामी लीग का शामिल होना है. गौरतलब है कि बांग्लादेश सरकार ने “समावेशी” शब्द का उल्लेख नहीं किया है और कहा है कि वह “उच्चतम मानक” का चुनाव कराना चाहती है और ऐसा माहौल बनाना चाहती है जहां लोग मतदान के लिए प्रोत्साहित महसूस करें, जो पिछले 15 वर्षों में मौजूद नहीं था.
बांग्लादेश के विदेश मामलों के सलाहकार तौहीद हुसैन ने स्पष्ट कर दिया: “भारत के नवीनतम बयान में हमारे लिए सलाह शामिल थी. मुझे नहीं लगता कि इसकी कोई आवश्यकता है. हम पड़ोसियों से इस बारे में सलाह नहीं मांगते कि बांग्लादेश में चुनाव कैसे कराए जाने चाहिए.”
वास्तव में, “डेली स्टार” ने भी अवामी लीग को शामिल करने के मुद्दे पर किनारा कर लिया है. गुरुवार को खुद पर हुए हमले से पहले, अखबार ने कहा था: “चुनाव कार्यक्रम की घोषणा के साथ, देश अब एक रोमांचक लेकिन नाजुक दौर में प्रवेश कर गया है. विश्वसनीय चुनावों के लिए शांतिपूर्ण प्रचार सुनिश्चित करना, सभी चुनाव लड़ने वाले दलों और उम्मीदवारों को समान अवसर प्रदान करना और यह गारंटी देना कि नागरिक स्वतंत्र रूप से और बिना किसी डर के अपने अधिकारों का प्रयोग कर सकें, अनिवार्य है.” “चुनाव लड़ने वाले दलों” शब्द के प्रयोग के माध्यम से अखबार ने अवामी लीग से दूरी बनाए रखी, जिसे चुनाव लड़ने से प्रतिबंधित कर दिया गया है. समाचार पत्र ने चेतावनी दी कि “राष्ट्र पिछले तीन चुनावों—जो 2014, 2018 और 2024 में हुए थे—या उनके पहले हुई अराजक और हिंसक घटनाओं की पुनरावृत्ति बर्दाश्त नहीं कर सकता.”
दिल्ली के लिए, यह 5 अगस्त को ढाका में हुई स्थिति और उसके बाद के घटनाक्रम की याद दिलाता है. पड़ोस में अस्थिरता भारत के लिए शुभ संकेत नहीं है, ठीक उसी तरह जैसे बांग्लादेश के प्रमुख विश्वविद्यालयों के छात्र संघ चुनावों में दक्षिणपंथी इस्लामी पार्टी, जमात-ए-इस्लामी का उभार चिंताजनक है. विदेश मंत्रालय ने 14 दिसंबर को कहा, “हम उम्मीद करते हैं कि बांग्लादेश की अंतरिम सरकार शांतिपूर्ण चुनाव कराने के उद्देश्य सहित आंतरिक कानून और व्यवस्था सुनिश्चित करने के लिए सभी आवश्यक उपाय करेगी.” नई दिल्ली इस पर इसलिए भी बारीकी से नज़र रख रही है, क्योंकि अगले साल अप्रैल-मई में पश्चिम बंगाल के चुनाव होने वाले हैं. एक वरिष्ठ भारतीय अधिकारी ने ‘द इंडियन एक्सप्रेस’ को बताया, “हम नहीं चाहते कि वहां की हिंसा और स्थिति का असर हमारी अपनी घरेलू राजनीति पर पड़े.”
सेना के 72% आपातकालीन खरीद अनुबंधों में देरी
भारत के नियंत्रक और महालेखा परीक्षक (सीएजी) ने सेना के 72 प्रतिशत आपातकालीन खरीद (ईपी) अनुबंधों में देरी पाई है. यह बताते हुए कि ये अनुबंध निर्धारित समय सीमा के भीतर वितरित नहीं किए गए थे, सीएजी ने सेना द्वारा परिचालन आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए निर्धारित प्रक्रियाओं और नियमों से परे “विचलनों” को नियमित करने पर आपत्ति जताई.
“बिजनेस ऑनलाइन” के अनुसार, संसद में पेश की गई एक रिपोर्ट में, सीएजी ने सुझाव दिया कि विचलनों को केवल सेना मुख्यालय द्वारा ही नियमित किया जाना चाहिए. चालू वित्त वर्ष के लिए ईपी-6 के तहत, रक्षा मंत्रालय ने ‘ऑपरेशन सिंदूर’ के बाद महत्वपूर्ण उपकरणों की कमी को दूर करने और गोला-बारूद की आपूर्ति के लिए लगभग ₹40,000 करोड़ आवंटित किए थे. ईपी-5 का उद्देश्य उग्रवाद विरोधी आवश्यकताओं को पूरा करना था, जबकि ईपी-1 से ईपी-4 को गलवान की घटना के बाद रणनीतिक अंतराल को भरने के लिए लागू किया गया था.
रिपोर्ट के अनुसार, उभरती परिचालन आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए, रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह की अध्यक्षता वाली रक्षा अधिग्रहण परिषद (DAC) ने जुलाई 2020 में गलवान संघर्ष के बाद आपातकालीन खरीद को मंजूरी दी थी. विशेष छूट का प्राथमिक उद्देश्य त्वरित खरीद सुनिश्चित करना था. ऑडिट में जांचे गए 72 प्रतिशत अनुबंधों में सामान निर्धारित समय सीमा के भीतर वितरित नहीं किया गया था. जबकि, प्रावधानों के तहत खरीद एक वर्ष के भीतर या बोली में निर्दिष्ट समय के अनुसार पूरी होनी आवश्यक है.
सीएजी की रिपोर्ट में यह भी खुलासा हुआ कि हथियारों के पुर्जों के स्वदेशीकरण के लिए दिए गए 30 प्रतिशत आपूर्ति आदेश रद्द कर दिए गए. इसका मुख्य कारण आपूर्तिकर्ताओं की उन वस्तुओं को विकसित करने में असमर्थता थी. यह परियोजना ‘स्वदेशीकरण निदेशालय’ (DoI) द्वारा जनवरी 2010 में शुरू की गई थी, जिस पर पांच वर्षों में ₹24.32 करोड़ का खर्च आया था. रद्द होने के अन्य प्राथमिक कारणों में विक्रेताओं की प्रतिक्रिया की कमी और निर्दिष्ट सामग्री की अनुपलब्धता शामिल थी.
एनसीसी और सैनिक स्कूल: रिपोर्ट में इस बात पर प्रकाश डाला गया कि पर्याप्त संख्या में उम्मीदवारों के होने के बावजूद, सशस्त्र बलों में एनसीसी कैडेटों और सैनिक स्कूल के छात्रों का प्रवेश अनुमानित लक्ष्यों से नीचे रहा. यह कमी उत्तर-पूर्वी क्षेत्र (एनसीसी) और पूर्वी क्षेत्र (सैनिक स्कूल) में अधिक स्पष्ट थी, जो महत्वपूर्ण सुधार की आवश्यकता को दर्शाती है.
केरल और यूपी के आग्रह पर सहानुभूतिपूर्वक विचार करे चुनाव आयोग: सुप्रीम कोर्ट
सुप्रीम कोर्ट ने निर्देश दिया है कि चुनाव आयोग को ‘जमीनी हकीकत’ को ध्यान में रखते हुए, याचिकाकर्ताओं के उस अनुरोध पर ‘सहानुभूतिपूर्वक विचार’ करना चाहिए जिसमें केरल और उत्तर प्रदेश की मतदाता सूची के विशेष गहन पुनरीक्षण के गणना चरण की समय सीमा को और आगे बढ़ाने की मांग की गई है. केरल सरकार ने कहा कि यदि समय सीमा नहीं बढ़ाई गई तो बड़ी संख्या में नाम छूटने का जोखिम है, जबकि उत्तरप्रदेश सरकार ने इस ओर इशारा किया कि इस सबसे अधिक आबादी वाले राज्य में अगले विधानसभा चुनाव 2027 में होने हैं.
ओमान के साथ शून्य शुल्क पर समझौता
भारत और ओमान ने एक मुक्त व्यापार समझौते (एफटीए) पर हस्ताक्षर किए हैं. नई दिल्ली के अनुसार, यह समझौता इस पश्चिम एशियाई देश को होने वाले लगभग सभी भारतीय निर्यात पर ‘शून्य शुल्क’ का प्रावधान करेगा. व्यापक आर्थिक भागीदारी समझौते’ (सीईपीए) के हिस्से के रूप में, भारत अपनी लगभग 78% टैरिफ लाइनों पर शुल्क कम करेगा, जिससे ओमान से होने वाले 95% आयात प्रभावित होंगे, हालांकि इसमें कुछ संवेदनशील कृषि उत्पादों के साथ-साथ सोने और चांदी के बुलियन को बाहर रखा गया है. मस्कट ने कुशल भारतीय श्रमिकों के लिए भी कुछ रियायतें दी हैं.
लिव-इन रिलेशनशिप अवैध नहीं, 12 जोड़ों को सुरक्षा दें :
इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने इस सप्ताह की शुरुआत में कहा कि भले ही हर कोई लिव-इन रिलेशनशिप को पसंद न करे, लेकिन लब्बोलुआब यह है कि वे अवैध नहीं हैं. अदालत ने उत्तरप्रदेश पुलिस को उन 12 जोड़ों को सुरक्षा प्रदान करने का आदेश दिया, जिन्होंने आरोप लगाया था कि उनके परिवार उन्हें धमकी दे रहे हैं. पीठ ने कहा, “एक बार जब कोई व्यक्ति, जो बालिग है, अपना साथी चुन लेता है, तो किसी अन्य व्यक्ति, चाहे वह परिवार का सदस्य ही क्यों न हो, को आपत्ति करने और उनके शांतिपूर्ण अस्तित्व में बाधा डालने का अधिकार नहीं है.”
हिंद महासागर क्षेत्र; पश्चिम की भारत से अपेक्षाएं
बीजिंग की बढ़ती आक्रामकता के बीच, पश्चिम ने हिंद महासागर क्षेत्र की सुरक्षा बनाए रखने के लिए भारत की ओर देखा है. लेकिन कृष्ण कौशिक के अनुसार, दो चिंताएं आड़े आती हैं: “क्या भारत पर्याप्त तेजी से क्षमता निर्माण कर रहा है और दूसरा, क्या नई दिल्ली बीजिंग जैसी शक्ति के खिलाफ स्टैंड लेने को तैयार है, जब तक कि उसके मूल हितों को सीधा खतरा न हो.” वास्तव में, एक वरिष्ठ सैन्य अधिकारी ने स्वीकार किया कि भारत, किसी भी अन्य देश की तरह, तब तक संघर्ष में शामिल होने की संभावना नहीं रखता जब तक कि उसे सीधे खतरे का सामना न करना पड़े. उन्होंने कहा, “हम बहुत अच्छे दोस्त नहीं हैं.”
वैश्विक शक्ति संतुलन में बदलाव ने भारत के रास्ते को और कठिन बनाया: जयशंकर
विदेश मंत्री एस. जयशंकर ने शनिवार को कहा कि अमेरिका के साथ जुड़ने और चीन के साथ संबंधों को प्रबंधित करने का भारत का कार्य काफी जटिल हो गया है, जो वैश्विक राजनीतिक और आर्थिक व्यवस्था में चल रहे गहरे मंथन को दर्शाता है. “द न्यू इंडियन एक्सप्रेस” के अनुसार, उनकी टिप्पणियां इस बात को रेखांकित करती हैं कि कैसे बदलते शक्ति संतुलन, तीव्र भू-राजनीतिक प्रतिद्वंद्विता और शीत युद्ध के बाद के काल की उन धारणाओं के कमजोर होने से भारत का विदेश नीति वातावरण नया आकार ले रहा है, जिन्होंने लंबे समय तक अंतरराष्ट्रीय संबंधों को संचालित किया था.
रिपोर्टों के अनुसार, जयशंकर ने उल्लेख किया कि आज अमेरिका के साथ व्यवहार करने में अतीत की तुलना में अपेक्षाओं और अनिश्चितताओं का एक अलग समूह शामिल है. वाशिंगटन अब मुख्य रूप से एक पूर्वानुमेय, नियमों पर आधारित वैश्विक व्यवस्था के आधार स्तंभ के रूप में कार्य नहीं कर रहा है. इसके बजाय, यह तेजी से ‘लेन-देन’ आधारित होता जा रहा है, द्विपक्षीय परिणामों और घरेलू राजनीतिक विचारों पर अधिक केंद्रित है, और अपनी लागत पर वैश्विक स्थिरता की जिम्मेदारी लेने के लिए कम इच्छुक है. भारत के लिए, यह अमेरिका के साथ जुड़ाव को और अधिक बहुस्तरीय बनाता है.
जहां रक्षा, प्रौद्योगिकी, महत्वपूर्ण आपूर्ति श्रृंखलाओं और हिंद-प्रशांत जैसे क्षेत्रों में रणनीतिक सहयोग गहरा होना जारी है, वहीं व्यापारिक घर्षण, टैरिफ (शुल्क) के मुद्दे और नीतिगत अनिश्चितता इस रिश्ते को जटिल बनाते हैं. वाशिंगटन में राजनीतिक गणनाओं का अब आर्थिक निर्णयों पर सीधा असर पड़ता है, जिससे भारत जैसे साझेदारों के लिए दीर्घकालिक निरंतरता के आधार पर योजना बनाना कठिन हो गया है.
साथ ही, चीन को प्रबंधित करने के बारे में जयशंकर का संदर्भ एक ऐसी चुनौती की ओर इशारा करता है जो संरचनात्मक और तात्कालिक दोनों है. चीन के साथ भारत के संबंध अनसुलझे सीमा विवाद, वास्तविक नियंत्रण रेखा (एलएसी) पर समय-समय पर होने वाले सैन्य तनाव और एशिया में व्यापक रणनीतिक प्रतिद्वंद्विता से आकार लेते हैं. भले ही दोनों पक्ष तनाव बढ़ने से रोकने और स्थिरता बनाए रखने की कोशिश करते हैं, लेकिन विश्वास अभी भी नाजुक बना हुआ है. चीन का बढ़ता आर्थिक वजन, तकनीकी महत्वाकांक्षाएं और आक्रामक क्षेत्रीय रुख जटिलता को और बढ़ाते हैं. भारत के लिए, चीन का प्रबंधन केवल सीमा प्रबंधन के बारे में नहीं है, बल्कि व्यापार और आपूर्ति श्रृंखलाओं में अपनी कमियों को कम करने, दक्षिण एशिया और हिंद महासागर में बीजिंग के प्रभाव का जवाब देने और उन क्षेत्रों में सीमित सहयोग के रास्ते बंद किए बिना प्रतिस्पर्धा को संभालने के बारे में भी है, जहां हित समान हैं.
जयशंकर की टिप्पणियां इस व्यापक मूल्यांकन को भी दर्शाती हैं कि दुनिया खंडित शक्ति और अस्थिर गठबंधनों के दौर की ओर बढ़ रही है. कोई भी एक देश वैश्विक परिणामों पर हावी होने में सक्षम नहीं है, और पारंपरिक गठबंधन अब ‘मुद्दा-आधारित’ गठबंधनों में बदल रहे हैं जो परिस्थितियों के साथ बदलते रहते हैं. यह वातावरण राजनयिक चपलता को प्राथमिकता देता है. उनके ढांचे के अनुसार, भारत को एक साथ कई प्रमुख शक्तियों के साथ जुड़ना चाहिए, भले ही वे शक्तियां एक-दूसरे के खिलाफ हों. यह नीतिगत विकल्पों को और जटिल बनाता है, क्योंकि एक रिश्ते को मजबूत करने के लिए उठाए गए कदमों का दूसरों पर व्यापक प्रभाव पड़ सकता है.
जटिलताएं केवल अमेरिका और चीन तक ही सीमित नहीं हैं. यूक्रेन युद्ध और उसके बाद के घटनाक्रमों ने रूस के साथ भारत के जुड़ाव को और अधिक संवेदनशील बना दिया है, क्योंकि नई दिल्ली अपने पश्चिमी सहयोगियों के दबाव का सामना कर रही है और साथ ही एक दीर्घकालिक रणनीतिक रिश्ते को सुरक्षित रखने की कोशिश कर रही है. इस बीच, यूरोप एक महत्वपूर्ण लेकिन अभी भी विकसित हो रहे भागीदार के रूप में उभर रहा है, जो अपनी आर्थिक और सुरक्षा चुनौतियों से जूझ रहा है. कुल मिलाकर, ये स्थितियां इस वास्तविकता को पुष्ट करती हैं कि भारत के विदेश नीति विकल्प बढ़ती अनिश्चितता और प्रतिस्पर्धी अपेक्षाओं के माहौल में लिए जा रहे हैं. विश्लेषणात्मक दृष्टिकोण से, जयशंकर की टिप्पणियां भारत की ‘रणनीतिक स्वायत्तता’ के प्रति निरंतर प्रतिबद्धता को उजागर करती हैं, लेकिन इसे व्यवहार में लाने की बढ़ती कठिनाई को भी दर्शाती हैं.
पीएम के नए आवास पर अब तक कितना खर्च, सरकार का बताने से इनकार
“बीबीसी” को सरकार ने यह बताने से इनकार कर दिया है कि प्रधानमंत्री के नए आवास पर अब तक जनता की कितनी राशि खर्च हो चुकी है. जुगल पुरोहित और अर्जुन परमार की रिपोर्ट में कहा गया है कि अब तक कुल खर्च से जुड़ा यह सवाल इसलिए किया गया था, क्योंकि खुद सरकार ने इसी वर्ष संसद में बताया था कि परियोजना की लागत बढ़ गई है. जाहिर है, इसके बाद “बीबीसी” ने आरटीआई के तहत जानकारी मांगी. ताकि, जन सामान्य को पता चल सके कि कितनी लागत बढ़ गई?
उल्लेखनीय है कि भारत सरकार के महत्वाकांक्षी सेंट्रल विस्टा प्रोजेक्ट के तहत प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जल्द ही राष्ट्रपति भवन के समीप बने नए कार्यालय परिसर, जिसे कथित तौर पर ‘सेवा तीर्थ’ कहा जाएगा, से अपना कार्य शुरू करेंगे. इसी परिसर के पास प्रधानमंत्री का नया आवास भी निर्माणाधीन है. इस पूरी परियोजना के 2026 तक पूरा होने की संभावना है, जिसकी अनुमानित लागत सरकार द्वारा लगभग 20,000 करोड़ रुपये बताई गई है.
परियोजना की वास्तविक स्थिति और वित्तीय पारदर्शिता को लेकर कई सवाल खड़े हो रहे हैं. हालांकि सरकार ने स्वीकार किया है कि जीएसटी दरों में वृद्धि, स्टील की कीमतों और सुरक्षा इंतज़ामों के कारण लागत बढ़ी है, लेकिन वास्तविक खर्च का विवरण देने से इनकार कर दिया है. ‘बीबीसी’ द्वारा सूचना के अधिकार (आरटीआई) के तहत मांगी गई विस्तृत जानकारी, जिसमें 30 सितंबर 2025 तक का कुल खर्च, स्वीकृत टेंडर और ठेकेदारों के नाम शामिल थे, को देने से विभाग ने मना कर दिया.
केंद्रीय लोक निर्माण विभाग (सीपीडब्ल्यूडी) ने खर्च और टेंडरों से जुड़े सवालों पर यह कहकर पल्ला झाड़ लिया कि यह उनके कार्यालय से संबंधित नहीं है. प्रधानमंत्री आवास से जुड़ी जानकारियों को ‘सीक्रेट कैटेगरी’ (गुप्त श्रेणी) में रखा गया है. अपील दायर करने पर अधिकारियों ने आरटीआई अधिनियम की धारा 8(1)(a) का हवाला देते हुए कहा कि ऐसी जानकारी सार्वजनिक करने से भारत की संप्रभुता, अखंडता और सुरक्षा को खतरा हो सकता है. साथ ही, इसे रणनीतिक हितों और अंतरराष्ट्रीय संबंधों के लिए भी संवेदनशील बताया गया.
वर्तमान में आधिकारिक वेबसाइट पर इसे एक ‘एक्टिव प्रोजेक्ट’ के रूप में सूचीबद्ध किया गया है. सरकार इसे ‘पीढ़ियों के लिए बुनियादी ढांचा निवेश’ मानती है, लेकिन लागत में बढ़ोतरी और जवाबदेही की कमी ने इस पर बहस छेड़ दी है. जहां उपराष्ट्रपति एन्क्लेव का काम पूरा होने की बात कही जा रही है, वहीं प्रधानमंत्री आवास और कुल खर्च को लेकर अब भी स्पष्टता का अभाव है. एक तरफ “सेवा तीर्थ” जैसे आकर्षक नाम दिए जा रहे हैं, मगर जिस “लोक” की सेवा के लिए सारा आख्यान रचा जा रहा है, उसी से सच्चाई छिपाई जा रही है और पारदर्शिता नहीं बरती जा रही.
तोशाखाना-2 केस में इमरान खान और बुशरा बीबी को 17-17 साल जेल की सजा
“पीटीआई” के अनुसार, पाकिस्तान के पूर्व प्रधानमंत्री इमरान खान और उनकी पत्नी बुशरा बीबी को शनिवार को एक अदालत ने तोशाखाना-2 भ्रष्टाचार मामले में 17-17 साल जेल की सजा सुनाई. 73 वर्षीय खान, जो अगस्त 2023 से जेल में हैं, अप्रैल 2022 में सत्ता से बेदखल होने के बाद से अपने खिलाफ दर्ज कई मामलों का सामना कर रहे हैं. तोशाखाना-2 मामला 2021 में सऊदी सरकार से इस पूर्व प्रथम दंपत्ति को मिले सरकारी उपहारों में कथित धोखाधड़ी से संबंधित है.
रावलपिंडी की उच्च सुरक्षा वाली अदियाला जेल में, जहां पाकिस्तान तहरीक-ए-इंसाफ (पीटीआई) के संस्थापक वर्तमान में बंद हैं, विशेष अदालत के न्यायाधीश शाहरुख अर्जुमंद ने फैसला सुनाया. अदालत ने दोनों पर 1.64 करोड़ पाकिस्तानी रुपये का जुर्माना भी लगाया. फैसले में कहा गया, “सजा सुनाते समय अदालत ने इमरान खान की वृद्धावस्था और बुशरा बीबी के महिला होने के तथ्य पर विचार किया है. इन दोनों कारकों को ध्यान में रखते हुए कम सजा देकर नरम रुख अपनाया गया है.” दोषी करार दिए गए दोनों व्यक्ति इस फैसले के खिलाफ उच्च न्यायालय में अपील दायर कर सकते हैं.
क्या है मामला?
यह मामला जुलाई 2024 में दर्ज किया गया था. इसमें आरोप लगाया गया था कि कीमती घड़ियों, हीरे और सोने के आभूषणों सहित मूल्यवान वस्तुओं को तोशाखाना (सरकारी उपहार भंडार) में जमा किए बिना ही बेच दिया गया था.
वित्त राज्य मंत्री बिलाल अजहर कयानी ने बताया कि इन उपहारों को जमा करना कानूनी रूप से अनिवार्य था. उन्होंने कहा, “कानूनी कार्यवाही के दौरान सामने आए तथ्यों के अनुसार, आभूषणों के सेट का वास्तविक मूल्य 7 करोड़ रुपये था, लेकिन इसका मूल्यांकन केवल 58-59 लाख रुपये किया गया था. दुर्भाग्य से, बुशरा बीबी और इमरान खान ने इसे मिट्टी के मोल खरीदने की कोशिश की.”
विश्लेषण
आसिम अली: मोदी का ‘मैकालेवाद’
राजनीतिक शोधकर्ता और स्तंभकार आसिम अली का मानना है कि आधुनिकता का जो स्वरूप भारत में विकसित हो रहा है, वह अपने आदर्श मूल्यों (समानता, विज्ञान और जन-भागीदारी) से भटक गया है और एक ‘कुरुप’ या ‘अपूर्ण’ रूप ले चुका है. “द टेलीग्राफ” में वे इसकी व्याख्या करते हुए लिखते हैं कि भारत में विकृत आधुनिकता को देखकर लॉर्ड मैकाले को गर्व होगा. अंग्रेजी में लिखा गया अली का यह लेख हिंदी में प्रस्तुत है:
आधुनिकता के दो निर्णायक पहलू होते हैं. पहला, सचेत सामाजिक और राजनीतिक अभिनेताओं के रूप में जनसमूह का प्रवेश. यह जन-संस्कृति और जन-राजनीति के उत्कर्ष का प्रतीक है. इस अर्थ में, फ्रांसीसी क्रांति से लेकर भारत के अपने उपनिवेशवाद-विरोधी संघर्ष तक, आधुनिकता का वादा एक ऐसे समाज के बीजारोपण में निहित था जहां साधारण लोग (पारंपरिक अभिजात वर्ग के विपरीत) अपने जीवन की शर्तों और स्थितियों को आकार देने में सक्रिय भागीदार बनें. आधुनिकता का दूसरा पहलू सामूहिक उत्थान के साधन के रूप में विज्ञान और प्रौद्योगिकी का व्यवस्थित उपयोग है, जिसे पर्यावरण को नियंत्रित करने, सामाजिक समस्याओं को हल करने और राष्ट्रीय शक्ति के निर्माण के लिए तैनात किया गया है.
आधुनिकता के साथ हमारी मुलाकात एक बदसूरत ‘बंद गली’ में समाप्त हो गई है, इसके संकेत हर जगह मौजूद हैं. शाब्दिक रूप से, वे उस (जहर मिली) हवा में हैं जिसमें हम सांस लेते हैं. आज उत्तर भारत में रहने का मतलब न केवल घरघराहट और सांस लेने के बीच के अंतर को भूलना सीखना है, बल्कि इससे भी बदतर, अपने परिवार के सदस्यों को अपने चारों ओर मौजूद अंधेरे, विनाशकारी धुंध से एक-एक करके बीमार पड़ते देखने के लिए खुद को मजबूर कर लेना है. यह एक ऐसी समस्या है, जिसे वर्गों के पार लगभग हर कोई महसूस करता है, लेकिन छिटपुट कमजोर प्रदर्शनों को छोड़कर, जन-राजनीति में इसकी कोई अभिव्यक्ति नहीं मिलती. इस बीच, शक्तिशाली भारतीय राज्य, अपनी राजधानी में बढ़ते प्रदूषण से निपटने में एक दशक की विफलता के बाद, हाई-टेक मूर्खतापूर्ण योजनाओं (विफल क्लाउड-सीडिंग प्रयोग) और लो-टेक मूर्खतापूर्ण योजनाओं (ट्रकों पर स्प्रिंकलर और रेस्तरां के तंदूरों पर प्रतिबंध) के बीच झूल रहा है.
यह भूलना आसान है कि देश ने अपनी किशोरावस्था में आधुनिकता की प्रतिज्ञाबद्ध भूमि की ओर बढ़ने वाले समाज का उत्साह संजोया हुआ था. उस खोज के दो महान प्रतीकों — एम.के. गांधी और जवाहरलाल नेहरू — की विरासत को बिगाड़ने के वर्तमान शासन के अथक प्रयास उस सांस्कृतिक ऊतक को काटने की इच्छा से उपजे हैं जो हमें उनके मुक्तिदायी प्रोजेक्ट्स से जोड़ता है. ‘भारत छोड़ो’ आंदोलन ने गांधीवादी लोकाचार से प्रेरित भारतीय छात्रों, श्रमिकों और किसानों की उस प्रभावशाली क्षमता को दिखाया था, जिसके दम पर उन्होंने कांग्रेस नेतृत्व (जिनके सभी नेता जेल में थे) के बिना एक आक्रामक जन आंदोलन को आगे बढ़ाया. बिद्युत चक्रवर्ती ने गांधी की अपनी जीवनी में लिखा, “आंदोलन पर एक सरसरी नज़र डालने से पता चलता है कि भारत छोड़ो अभियान एक लोकप्रिय राष्ट्रवादी उभार था जो गांधी के नाम पर शुरू हुआ था लेकिन उन सीमाओं से काफी आगे निकल गया था, जिनकी गांधी ने कल्पना की होगी.” भारतीय जनता को जन-राजनीति में नायक की भूमिका निभाते हुए देखने के बाद, ब्रिटिश साम्राज्य समझ गया था कि उसका समय समाप्त हो गया है, क्योंकि वह एक चुने हुए अभिजात वर्ग और एक शांत जनता पर निर्भर था. इसके बाद सार्वभौमिक वयस्क मताधिकार के साथ लोकतंत्र की स्थापना जनता के प्रति कोई उदार रियायत नहीं थी, बल्कि उनकी राजनीतिक एजेंसी की मान्यता थी.
गांधी के मिथक को कांग्रेस काल के दौरान ही घरेलू बना दिया गया था, उनकी कट्टरपंथी राजनीतिक कार्रवाई की विरासत को ‘कमजोर वर्गों’ के लिए कल्याणकारी योजनाओं की ब्रांडिंग तक सीमित कर दिया गया था. भाजपा-आरएसएस नेतृत्व उस फीकी श्रद्धांजलि को भी बर्दाश्त नहीं कर पा रहा है, जैसा कि मनरेगा से गांधी का नाम हटाने में देखा जा सकता है. गांधी के मिथक का एकमात्र वैध कार्य अब विदेशी दर्शकों के लिए एक अनुष्ठानिक सहारे के रूप में कार्य करना है, जिसका उपयोग राज्य की छवि को चमकाने के लिए किया जाता है, जबकि वह उन्हीं कानूनों के तहत नागरिक कार्यकर्ताओं को जेल भेजता है, जिनका उपयोग कभी गांधी को जेल भेजने के लिए किया गया था.
यदि मुक्तिदायी जन-राजनीति के प्रतीक गांधी की छवि को मिटाने की कोशिश की जा रही है, तो विकासशील राज्य के शीर्ष पर एक तर्कसंगत, प्रगतिशील बुद्धिजीवी वर्ग के प्रतीक नेहरू की छवि पर बार-बार हमला किया जाता है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का ‘मैकालेवाद’ का नैरेटिव इसका नवीनतम अवतार है. फिर भी, वर्तमान की निराशा के खिलाफ, नेहरूवादी आधुनिकता के शुरुआती दशकों की उपलब्धियां और भी चमकने लगती हैं.
इस अवधि के दौरान भारतीय सार्वजनिक क्षेत्र द्वारा निर्मित बड़े बांध — जिन्हें नेहरू ने “पुनरुत्थानशील भारत के नए मंदिर” के रूप में बनाया था— कोई अहंकारी सफेद हाथी नहीं थे. उन्होंने एक साथ कई संकटों का समाधान किया: सिंचाई का विस्तार, पनबिजली पैदा करना और बाढ़ को कम करना. जैसा कि रामचंद्र गुहा ने बताया, भाखड़ा-नांगल बांध (जो उस समय 680 फीट के साथ दुनिया का दूसरा सबसे ऊंचा बांध था और जिसमें मिस्र के पिरामिडों से दोगुना कंक्रीट लगा था) ने लगभग दस लाख किलोवाट बिजली पैदा की और सात मिलियन (70 लाख) एकड़ से अधिक भूमि की सिंचाई की.
सोवियत संघ के तत्कालीन नेता निकिता ख्रुश्चेव को निर्माण स्थल का निरीक्षण करने ले जाया गया था. उस सोवियत प्रतिनिधिमंडल ने भारत के तकनीकी अभिजात वर्ग के साथ तकनीकी आदान-प्रदान किया, जिसका उद्देश्य देश की भारी औद्योगिक और रक्षा क्षमताओं को मजबूत करना था. इन महत्वाकांक्षाओं को साकार करने के लिए, नेहरू ने कई भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थानों (आईआईटी) की स्थापना की देखरेख की, जिससे उच्च प्रशिक्षित इंजीनियरों का एक भंडार बना. फिर भी आधुनिकता के उनके दृष्टिकोण में सामाजिक विज्ञान के लिए उदार सार्वजनिक समर्थन भी शामिल था, जिसका समापन उनकी मृत्यु के कुछ वर्षों बाद जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय (जेएनयू) की स्थापना के रूप में हुआ.
जैसा कि मरीना-एलेना हेयिंक ने दिखाया है, कांग्रेस और कम्युनिस्ट विपक्ष दोनों ने को एक ‘उपनिवेशवाद-विरोधी’ राष्ट्रीय विश्वविद्यालय के रूप में परिकल्पना की थी, जिसका उद्देश्य बनारस हिंदू विश्वविद्यालय और अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय जैसे औपनिवेशिक काल के संस्थानों की संभ्रांतवादी और सांप्रदायिक विरासतों से आगे बढ़ना और आधुनिकता के लिए एक धर्मनिरपेक्ष, समतावादी और विकासात्मक मार्ग तैयार करना था.
1909 में, रूसी धर्मशास्त्री सर्गेई बुल्गाकोव ने देश में सांस्कृतिक पतन का निदान करते हुए देखा था कि “रूस अन्य चीजों के साथ-साथ अपने बुद्धिजीवी वर्ग का नवीनीकरण किए बिना खुद को नवीनीकृत नहीं कर सकता.” क्या भारत अपने बुद्धिजीवी वर्ग का नवीनीकरण कर सकता है? क्या वैज्ञानिक और इंजीनियर, लेखक और कलाकार, अर्थशास्त्री और विद्वान एक स्वायत्त सामाजिक शक्ति के रूप में एकजुट हो सकते हैं, जो लोकप्रिय क्षेत्रों में असहमति की ऊर्जाओं को एक साथ बांधने और इक्कीसवीं सदी के भारत के लिए एक आधुनिक दृष्टिकोण को स्पष्ट करने में सक्षम हो?
ऐसा नवीनीकरण तब तक असंभव है जब तक कि बुद्धिजीवी वर्ग 1991 के बाद के नवउदारवादी आम सहमति और ‘समावेशी विकास’ की उसकी मृगतृष्णा से बंधा रहता है— अभिजात वर्ग के लिए विकास, बाकी के लिए टुकड़े. जैसा कि जो स्टडवेल ने एशियाई विकासशील राज्यों पर अपनी उत्कृष्ट पुस्तक में टिप्पणी की है, भारत एक बाजार-निर्देशित और सेवा-आधारित मॉडल द्वारा ठहराव के लिए अभिशप्त है जो केवल एक छोटे अल्पसंख्यक के लिए उच्च गुणवत्ता वाला रोजगार पैदा करता है. उन्होंने लिखा, “इसका कोई रास्ता नहीं है कि बैंगलोर की विशेषज्ञ आईटी फर्में या मुंबई के वित्तीय अभिजात वर्ग भारत को जापान, कोरिया, ताइवान या चीन की विकासात्मक सफलता तक पहुंचाएंगे.” पिछले दशक ने इस निर्णय की और पुष्टि की है: चीनी फर्में अब इलेक्ट्रिक वाहनों (ईवी) और हरित प्रौद्योगिकियों पर हावी हैं, जबकि भारतीय तकनीकी विशेषज्ञ मुख्य रूप से संपन्न लोगों के लिए ऑनलाइन किराने की डिलीवरी में कुछ मिनट कम करने में उत्कृष्ट रहे हैं.
अपने 1949 के निबंध, “समाजवाद क्यों?” में अल्बर्ट आइंस्टीन ने तर्क दिया था कि “विज्ञान, अधिक से अधिक, केवल उन साधनों की आपूर्ति कर सकता है जिनके द्वारा कुछ उद्देश्यों को प्राप्त किया जा सके. लेकिन उद्देश्य स्वयं उच्च नैतिक आदर्शों वाले व्यक्तित्वों द्वारा परिकल्पित किए जाते हैं.” भारत में उच्च शिक्षा पर दशक भर से चल रहा हमला किसी भी ऐसे वैकल्पिक दृष्टिकोण को रोकने के लिए है जिसमें समानता और मुक्ति आधुनिक भारत के लक्ष्य हों. एक नवीकृत विकासात्मक परियोजना के जुड़वां स्तंभों के रूप में विज्ञान और मानविकी के संयुक्त विकास के बिना, भारतीय आधुनिकता विकृत रहेगी: एक संकीर्ण, अनुत्तरदायी अभिजात वर्ग द्वारा शासित एक प्रतिक्रियावादी समाज, जो भीड़ और पाखंडियों की मदद से, राजनीतिक रूप से शांत और सांस्कृतिक रूप से अवरुद्ध आबादी पर शांतिपूर्वक शासन करेगा.
मैकाले को, वास्तव में, गर्व होगा.
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