21/07/2025: तबलीग़ पर जुल्म की सज़ा किसे मिलेगी? | मांसाहारी गाय का दूध पियेंगे | किसानों की मजबूरी, मंत्री का शौक | थरूर से कट्टी करती कांग्रेस | भाजपा का कॉरपोरेट प्रेम | ट्रम्प के कच्चे चिट्ठे
‘हरकारा’ यानी हिंदी भाषियों के लिए क्यूरेटेड न्यूजलेटर. ज़रूरी ख़बरें और विश्लेषण. शोर कम, रोशनी ज़्यादा.
निधीश त्यागी, साथ में राजेश चतुर्वेदी, गौरव नौड़ियाल
आज की सुर्खियां :
सरकार, मंत्री, मीडिया, भाजपा… तबलीग़ियों से माफ़ी कौन-कौन मांगेगा?
द नाइटमेयर: तब्लीगी जमात का उत्पीड़न
मांसाहारी गायों का दूध पिएंगे?
CID का दावा: आंध्र प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री वाई.एस. जगन मोहन रेड्डी को शराब घोटाले में हर महीने 50-60 करोड़ रुपये रिश्वत के तौर पर दिए गए
किसान आत्महत्या कर रहे हैं और कृषि मंत्री विधानसभा में रमी खेल रहे थे
कांवड़ियों ने सीआरपीएफ जवान को पीटा, लेकिन योगी ने पुष्प बरसाए
थरूर से केरल कांग्रेस ने दूरियां बढ़ाईं
कांवड़ यात्रा के बीच मुस्लिम ढाबा मालिक और कर्मचारी क्या कर रहे हैं - ग्राउंड रिपोर्ट
मुकुल केसवन: ‘एसआईआर’ को एनआरसी के संदर्भ में समझने की जरुरत
टारगेट के लिए चुनाव आयोग ने अपने ही साढ़े आठ (8.5) नियमों का उल्लंघन किया
आकार पटेल : इतनी कॉरपोरेट- फ्रेंडली कैसे हो गई भारतीय जनता पार्टी
डोनाल्ड ट्रम्प का "नग्न लैंगिकतावाद": माइल्स टेलर की किताब में सनसनीखेज खुलासे
यूक्रेन के ड्रोन हमले के कारण मॉस्को के प्रमुख हवाई अड्डों पर अफरातफरी
विरोध के बाद पुणे में ‘संत तुकाराम’ के शो बंद
विश्लेषण
सरकार, मंत्री, मीडिया, भाजपा… तबलीग़ियों से माफ़ी कौन-कौन मांगेगा?
राजेश चतुर्वेदी
मैंने, हिंदी-अंग्रेजी के मीडिया में जब यह खबर-“तबलीगी जमात : कोविड के दौरान मेहमानों को पनाह देने के केस खारिज”- देखी, तो पांच साल पहले का मंज़र याद आ गया. कोरोना आ चुका था. लंबे लॉकडाउन के दिन थे. और, हम तक कैसे-कैसे वीडियो पहुंचाए जा रहे थे. मुख्यधारा का मीडिया कैसे जहर बुझे ‘शीर्षकों’ से सामाचार परोस रहा था. मसलन, “तबलीगी जमात ने कोशिशों पर फेरा पानी, अप्रैल के अंत तक चरम पर पहुंच सकता है कोरोना का कहर”, “कोरोना वायरस का ट्रेन कनेक्शन : तबलीगी जमात से पूरे देश में यूं फैला कोविड-19”, “तबलीगी जमात कोरोना की फैक्ट्री है.” और तो और गृह मंत्रालय, मतलब सरकार संसद के उच्च सदन को बता रही थी कि “तबलीगी जमात ने देश में कई लोगों तक फैलाया कोरोना वायरस.” मध्यप्रदेश में कमलनाथ की सरकार को गिराने के बाद चौथी बार मुख्यमंत्री बने शिवराज सिंह चौहान कह रहे थे, “प्रदेश में कोरोना वायरस जमातों के कारण फैला, भोपाल में स्वास्थ्य और पुलिसकर्मियों को जमातियों ने संक्रमित किया.”
यह भी याद आया कि तबलीगी जमात के प्रमुख मौलाना साद को संपूर्ण मीडिया में किस कदर सबसे बड़े “विलेन” के बतौर पेश किया जा रहा था. साद के खिलाफ मुक़दमे दर्ज कर लिए गए थे. “ईडी” की एंट्री की ख़बरें प्रसारित की जा रही थीं. गैर इरादतन हत्या की धारा जोड़ दी गई थी.
और, इसी बीच “मस्तिष्क के आर्काइव” में पड़ा कोरोनाकाल का वह वीडियो याद आ गया, जो “न्यूज़लांड्री” ने तैयार किया था. ज्यादा बड़ा नहीं है. कुल 15 मिनट 31 सेकंड का है. इसको देखने से यह पता चलता है कि हमारे देश के “तथाकथित” मुख्यधारा के चैनल या उनके एंकर्स का वस्तुतः क्या एजेंडा रहा है? जब अर्नब गोस्वामी नामक एंकर यह कहता है कि-“कोरोना के कारण 27 जनवरी को मक्का मदीना बंद कर दिया गया था, लेकिन भारत में तबलीगी जमात का आयोजन जानबूझकर, पूरी योजना बनाकर साजिश के तहत किया गया. क्योंकि, इस देश में तबाही फैलाई जा सकती है. मरकज़ वालों को कभी माफ़ नहीं किया जाएगा. “न्यूज़ स्टेट” पर एक एंकर तबलीगी जमात को “तालिबानी जमात” बोलता सुनाई पड़ रहा है. जब इस पर आपत्ति हुई तो एंकर मुकर गया, गेस्ट शोएब जमाई से बोला, “मैंने ऐसा नहीं कहा है. अपने कान का इलाज करवा लीजिये.” इंडिया टीवी पर था- कोरोना आया, मौलाना लाया. न्यूज़ नेशन-क्या सड़क पर घूम रहे हैं कोरोना बम (तबलीगी जमात में शिरकत करने आए लोगों के विजुअल्स के साथ), ज़ी न्यूज़ पर सुधीर चौधरी द्वारा बोला जा रहा था- “हम जानते हैं, बहुत सारे लोग अब हम पर सांप्रदायिक होने का आरोप लगाएंगे. बहुत सारे लोग फिर से यह कहेंगे कि हम कोरोना वायरस के समय में धार्मिक आधार पर रिपोर्टिंग कर रहे हैं. लेकिन, यही सत्य है.”
इतना ही नहीं, “8 इंच” के यंत्र के जरिये हमें जो घर बैठे प्राप्त हो रहा था, वो भी वही था जो एंकर्स प्राइम टाइम में परोस रहे थे. बल्कि वैल्यू एडिशन था. जैसे थूक लगे नोट, सब्जियों आदि के वीडियो. जिनमें चेतावनी के साथ यह संदेश दिया जाता कि कोरोना फैलाने के लिए मुसलमान जिम्मेदार हैं. इनसे सतर्क रहो. ये जो वीडियो भेजे जा रहे थे, कम खतरनाक नहीं थे. बल्कि, इनसे जो संप्रदायिक ध्रुवीकरण होता है, वैसा, प्राइम टाइम से नहीं होता. क्योंकि आप जहां होते हो, वहां आपको “8 इंची” यंत्र पर भेज दिया जाता है. अब ये किसी से छुपा हुआ नहीं है.
बहरहाल, कोविड-19 केस में तबलीगी जमात के खिलाफ दर्ज 16 एफआईआर में लगाए गए आरोपों और आरोप पत्र को दिल्ली हाईकोर्ट ने समाप्त कर दिया. जाहिर है, सरकार कोर्ट में ऐसे ठोस सबूत पेश नहीं कर सकी, जिनसे यह साबित होता कि देश भर में कोरोना फैलाने में जमातों की कोई भूमिका थी. लेकिन, बात यहीं ख़त्म नहीं होती.
हाईकोर्ट के निर्णय के बाद कुछ ऐसे जरूरी सवाल हैं, जो देश के सामाजिक तानेबाने और उसकी सेहत को सुरक्षित रखने के लिए किये जा सकते हैं. कि- क्या एंकर्स या मीडिया के संबंधित लोग यह बताएंगे कि संकट के उस दौर में महामारी को भी वे सांप्रदायिक रंग देने की कोशिश क्यों कर रहे थे? क्यों मुसलमानों को राष्ट्र विरोधी नागरिकों के रूप में प्रस्तुत किया जा रहा था? क्यों मौलाना साद को एक शैतान के बतौर पेश किया गया था? क्यों तबलीगी जमात के सदस्यों को कोरोना का “सुपर स्प्रेडर” बताकर मुसलमानों को टारगेट किया जा रहा था? क्यों, डॉक्टरों और स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं पर थूकने, अस्पताल के वार्डों में शौच करने, नर्सों के साथ दुर्व्यवहार करने, पेशाब की बोतलें फेंकने, चिकन बिरयानी की मांग करने के आरोप वाले वीडियो सोशल मीडिया में प्रसारित किये जा रहे थे? मुख्यधारा का मीडिया किस मकसद से इन्हें तरजीह दे रहा था?
और अब, जबकि हाईकोर्ट ने पुलिस द्वारा तबलीगी जमात पर लगाए गए तमाम आरोपों और आरोप पत्र को ख़ारिज कर दिया है, तो प्राइम टाइम में तमाम एंकर्स अपने किये पर क्षमा याचना कर शर्मिंदगी जाहिर क्यों नहीं कर रहे हैं? क्यों सरकार से ये नहीं पूछ रहे हैं कि यदि तबलीगी जमात के सदस्यों ने कोरोना का संक्रमण फैलाया (जैसा उसने संसद में कहा था) था, तो उसकी पुलिस ठोस प्रमाण क्यों नहीं जुटा पाई? यदि पुलिस ने सुबूत जुटा लिए थे तो किसने उसे कोर्ट में प्रस्तुत करने से रोका? आखिर, क्यों शिवराज सिंह चौहान (तब के सीएम) को यह कहने के लिए माफ़ी नहीं मांगना चाहिए कि “मध्यप्रदेश में कोरोना जमातों के कारण फैला? आखिर, उनके पास इस बात का क्या आधार था? और अगर आधार था या तथ्य थे, तो मुख्यमंत्री रहते अदालत में उन्होंने तथ्यों को क्यों नहीं रखवाया? या उनके पास भी कुछ नहीं था और उन्हें अथवा उनकी सरकार को ऐसा करने से रोक दिया गया था?”
कुलमिलाकर, दिल्ली हाईकोर्ट की न्यायाधीश जस्टिस नीना बंसल कृष्ण के आदेश के बाद से सब खामोश हैं. लेकिन, अंत में ये सवाल, जो शायद सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण हैं कि -“सांप्रदायिक ध्रुवीकरण के इरादे से कतिपय एंकर्स और सियासतदानों की जहरीली प्रस्तुतियों पर रोक कब लगेगी? कब “8 इंची” का धंधा रोका जाएगा? इनकी वजह से जो नुकसान हो चुका है या अब भी हो रहा है, उसकी भरपाई कैसे होगी? और, कौन करेगा?
इंसाफ सचमुच में होना होता, तो इन सब को भी टांगा जाता. पर हम अमृतकाल में हैं जहाँ हमारा धर्म नफ़रत है और गालियां मातृभाषा. इसलिए कुछ होगा नहीं.
द नाइटमेयर: तब्लीगी जमात का उत्पीड़न
सीमा चिश्ती ने 'द कैरेवन' में तब्लीगी जमात के खिलाफ कार्रवाई और मीडिया की नकारात्मक कवरेज को लेकर लंबा डिस्पैच लिखा है. इरफान खान, ब्रिसबेन, ऑस्ट्रेलिया के एक मैकेनिकल इंजीनियर, 22 मार्च 2020 को दिल्ली पहुंचे. वह तब्लीगी जमात के निज़ामुद्दीन मुख्यालय गए, जहां उन्होंने अपना नाम और पता दर्ज किया. 3 अप्रैल को पुलिस ने उन्हें क्वारंटीन में भेजा, जहां उन्हें 62 दिन बिताने पड़े, भले ही उनकी कोविड-19 जांच नकारात्मक थी. एक अमेरिकी महिला ने बताया कि क्वारंटीन सेंटर में गंदगी और मच्छरों की समस्या थी और उन्हें दो महीने तक एक कमरे में रहना पड़ा.
तब्लीगी जमात को कोविड-19 का "सुपर स्प्रेडर" बताकर बदनाम किया गया. हजारों सदस्यों पर लॉकडाउन उल्लंघन और वीजा शर्तों के उल्लंघन के आरोप लगाए गए. दिल्ली में 44 सदस्यों ने इन आरोपों को चुनौती दी और 15 दिसंबर को 150 सुनवाई, 955 जमानत याचिकाओं और कई कानूनी प्रक्रियाओं के बाद बरी हो गए.
मार्च 2020 में, तब्लीगी जमात के सदस्य निज़ामुद्दीन मरकज़ में वार्षिक बैठक के लिए एकत्र हुए थे. 13 मार्च को दिल्ली सरकार ने 200 से अधिक लोगों के धार्मिक और अन्य समारोहों पर प्रतिबंध लगाया. लॉकडाउन के कारण कई लोग मरकज़ में फंस गए. पुलिस ने मरकज़ को बंद करने का आदेश दिया, लेकिन परिवहन की अनुमति नहीं दी गई. फिर भी, जमात पर कोविड-19 फैलाने का आरोप लगाया गया.
मीडिया और सोशल मीडिया ने जमात को "कोरोना जिहाद" और "तालीबानी आतंक" जैसे शब्दों से बदनाम किया. केंद्रीय गृह मंत्रालय ने 960 विदेशी सदस्यों को ब्लैकलिस्ट किया और राज्यों को उनके खिलाफ कार्रवाई करने को कहा. कई फर्जी खबरें, जैसे जमात सदस्यों द्वारा थूकने की अफवाहें, फैलाई गईं, जो बाद में गलत साबित हुईं.
मीडिया की भूमिका : मीडिया ने तब्लीगी जमात पर अत्यधिक ध्यान केंद्रित किया, जबकि अन्य कोविड-19 हॉटस्पॉट्स को नजरअंदाज किया गया. 20 मार्च से 27 अप्रैल तक 11,074 खबरें प्रकाशित हुईं, जिनमें से टाइम्स ऑफ इंडिया ने 1,863 लेख छापे. नेताओं जैसे मुख्तार अब्बास नकवी और शोभा करंदलजे ने जमात को "तालीबानी अपराध" और "कोरोना जिहाद" जैसे शब्दों से जोड़ा.
कानूनी लड़ाई : अदालतों ने जमात के पक्ष में फैसले सुनाए. मदुरै हाई कोर्ट ने 31 विदेशियों को जमानत दी, और औरंगाबाद हाई कोर्ट ने 35 के खिलाफ FIR रद्द की, यह कहते हुए कि सरकार की कार्रवाई में "दुर्भावना" थी. दिल्ली में 36 लोगों को बरी करते हुए अदालत ने कहा कि उनके खिलाफ कोई सबूत नहीं था. तब्लीगी जमात के खिलाफ कार्रवाई और मीडिया की नकारात्मक कवरेज ने भारत में मुस्लिम समुदाय को बदनाम करने की कोशिश की. यह अल्पसंख्यकों के प्रति गहरी पूर्वाग्रह को दर्शाता है. राजीव भार्गव ने इसे सिखों के खिलाफ 1984 की अफवाहों से जोड़ा, चेतावनी दी कि मुसलमानों के खिलाफ यह नफरत स्थायी हो सकती है. यहां पढ़िए पूरा लेख.
मांसाहारी गायों का दूध पिएंगे?
भारत में आजकल 'नॉन वेज दूध' की काफी चर्चा हो रही है और ये चर्चा इसलिए हो रही है क्योंकि माना जा रहा है कि इसी की वजह से भारत और अमेरिका के बीच एक बड़ी ट्रेड डील रुकी हुई है. 'डॉयचे वेले' के लिए समीरात्मज मिश्र ने इसी मसले पर विस्तार से लिखा है. उन्होंने लिखा - आमतौर पर हम यही जानते हैं कि दूध तो शाकाहारी होता है क्योंकि ये गाय, भैंस, बकरी जैसे उन जानवरों से मिलता है जो खुद शाकाहारी होते हैं. लेकिन आजकल एक ऐसे दूध की चर्चा हो रही है जिसे ‘नॉन वेज' या गैर शाकाहारी कहा जा रहा है. इस दूध की चर्चा इसलिए हो रही है क्योंकि यही ‘नॉन-वेज दूध'भारत और अमेरिका के बीच होने वाले बड़े व्यापारिक समझौते में सबसे बड़ा रोड़ा बना हुआ है.
दरअसल, अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प की ओर से भारतीय उत्पादों पर टैरिफ लगाने की अंतिम तारीख नौ जुलाई से बढ़ाकर एक अगस्त कर दी गई थी. इस बीच, दोनों देशों के बीच व्यापार वार्ता भी जारी है. डोनाल्ड ट्रम्प कई बार दावा कर चुके हैं कि यह डील जल्द ही अंतिम रूप लेने वाली है.
लेकिन इस डील में एक सबसे बड़ा रोड़ा यह है कि अमेरिका, अपने कृषि और डेयरी प्रोडक्ट के लिए भारतीय बाजार को खोलने की मांग कर रहा है, लेकिन भारत इसके लिए तैयार नहीं है. भारत सरकार 'नॉन-वेज दूध' पर सांस्कृतिक चिंताओं का हवाला देते हुए अमेरिकी डेयरी उत्पादों के आयात की इजाजत नहीं देना चाहती है.
क्या है ‘नॉन-वेज दूध' : भारत में जिन पशुओं का दूध इस्तेमाल किया जाता है उन्हें आमतौर पर घास, भूसा, चोकर, खली जैसी चीजें खिलाई जाती हैं जो वनस्पतियों के उत्पाद से तैयार होती हैं. लेकिन अमेरिका और कई पश्चिमी देशों में दुधारू पशुओं को जो चारा दिया जाता है उसे जानवरों का मांस, हड्डियों के चूरे और खून से तैयार किया जाता है. इसे 'ब्लड मील' कहते हैं. ऐसे जानवरों के दूध को भारत में 'नॉन-वेज दूध' कहा जा रहा है.
ब्लड मील वास्तव में मीट पैकिंग व्यवसाय का बाई-प्रोडक्ट होता है जिसे जानवरों को मारने के बाद उनके खून को सुखाकर बनाया जाता है और दुधारू पशुओं के चारे के लिए इस्तेमाल किया जाता है.
वरिष्ठ पशु चिकित्सक और इंडियन वेटरनरी एसोसिएशन के जोनल सेक्रेटरी डॉक्टर राकेश कुमार शुक्ल कहते हैं कि ऐसे पशुओं के दूध को नॉन-वेज दूध कहे जाने के पीछे कारण यही है कि वो मांसाहारी आहार ले रहे हैं जबकि प्राकृतिक रूप से दुधारू पशु शाकाहारी होते हैं.
डीडब्ल्यू से बातचीत में डॉक्टर राकेश कुमार शुक्ल कहते हैं, "यूरोप और अमेरिका में खासतौर पर दुधारू पशुओं को मीट और रेड मीट खिलाया जाता है. उनका जो चारा तैयार किया जाता है वो अनेक पशुओं के मांस और खून की प्रोसेसिंग से बनता है. प्रोसेसिंग के जरिए इन्हें पाउडर फॉर्म में तैयार किया जाता है और फिर पशुओं के चारे में वही पाउडर मिलाकर खिलाया जाता है.”
भारत अमेरिकी डेयरी प्रोडक्ट के बारे में यह सुनिश्चित करना चाहता है कि वो ऐसे पशुओं का हो जिन्हें मांसाहारी चारा न खिलाया जाता हो. लेकिन अमेरिका के लिए ऐसा करना संभव नहीं है.
इसके पीछे एक बड़ा कारण यह भी है कि इन देशों में दुधारू पशुओं को सिर्फ दूध के लिए नहीं बल्कि मांस के लिए पाला जाता है. डॉक्टर राकेश कुमार शुक्ल कहते हैं, "मांसाहारी चारा दुधारू पशुओं को उन देशों में दिया जाता है जहां मीट बेस्ड इंडस्ट्री है. यानी जहां ये पशु मुख्य रूप से मांस के लिए पाले जाते हैं, न कि दूध के लिए. मांसाहारी चारे से पशुओं में मांस बढ़ जाता है. दूध उनके लिए इतने काम का नहीं है. पशुओं को मांस खिलाते भी इसीलिए हैं क्योंकि इससे दूध की गुणवत्ता पर असर नहीं पड़ता, लेकिन मांस की मात्रा बढ़ जाती है. इसीलिए ये अतिरिक्त दूध वो भारत में बेचना चाह रहे हैं.”
CID का दावा: आंध्र प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री वाई.एस. जगन मोहन रेड्डी को शराब घोटाले में हर महीने 50-60 करोड़ रुपये रिश्वत के तौर पर दिए गए
'इंडियन एक्सप्रेस' की रिपोर्ट है कि आंध्र प्रदेश अपराध जांच विभाग (सीआईडी) ने शनिवार को कहा कि राज्य के पूर्व मुख्यमंत्री वाई.एस. जगन मोहन रेड्डी को एक 3,500 करोड़ रुपये के कथित शराब घोटाले के तहत हर महीने 50 से 60 करोड़ रुपये की रिश्वत दी जाती थी.
सीआईडी ने यह बयान उस चार्जशीट के हवाले से दिया जो शनिवार को विजयवाड़ा की एक अदालत में दायर की गई थी. इस चार्जशीट में दावा किया गया है कि यह रकम कई शेल कंपनियों के माध्यम से वाई.एस.आर. कांग्रेस पार्टी (YSRCP) के वरिष्ठ नेताओं, राज्यसभा के पूर्व सदस्य विजयसाई रेड्डी, राजम्पेट के लोकसभा सांसद पी.वी. मिधुन रेड्डी और अंततः जगन मोहन रेड्डी तक पहुंचाई गई थी.
चार्जशीट में केसिरेड्डी राजशेखर रेड्डी को प्रमुख अभियुक्त बताया गया है, जो जगन के पूर्व आईटी सलाहकार हैं. उनके बारे में आरोप है कि उन्होंने इस धनराशि को अपने नियंत्रण में काम कर रही 30 से अधिक शेल कंपनियों के जरिए घुमाया. सीआईडी ने आरोप लगाया है कि यह धनराशि जगन को उनके मुख्यमंत्री काल (जून 2019 से मई 2024) के दौरान दी जाती रही, ताकि वह अपने पद का दुरुपयोग कर शराब वितरण नीति को कुछ कंपनियों के पक्ष में बदल सकें.
"यह घोटाला राज्य सरकार द्वारा शराब व्यापार पर एकाधिकार स्थापित करने और ओएफएस (ऑर्डर फॉर सप्लाई) प्रणाली को मैनुअल बनाकर कमीशनखोरी सुनिश्चित करने से जुड़ा है," चार्जशीट में कहा गया है. चार्जशीट में यह भी कहा गया है कि शराब कंपनियों ने यह रिश्वत सीएस रेड्डी के जरिये वरिष्ठ नेताओं तक पहुंचाई, जिनके द्वारा यह फिर नकद, सोना, रियल एस्टेट और विदेशों में निवेश के रूप में पुनर्निवेशित की गई. सीआईडी ने कहा कि उन्होंने लगभग ₹60 करोड़ की अवैध संपत्तियां जब्त की हैं और कुछ लेन-देन की कड़ियां दुबई और अफ्रीका तक जाती हैं, जहां संपत्ति और सोना खरीदा गया. अदालत ने अब तक इस चार्जशीट पर संज्ञान नहीं लिया है.
किसान आत्महत्या कर रहे हैं और कृषि मंत्री विधानसभा में रमी खेल रहे थे
महाराष्ट्र के कृषि मंत्री माणिकराव कोकाटे ने पिछले एक साल में एक के बाद एक कई विवादों का सामना किया है. पहले एक आपराधिक सजा के चलते उनके अपनी विधानसभा सीट गंवाने की नौबत तक आ गई थी, अब वे विधानसभा सत्र के दौरान कैमरे पर ऑनलाइन कार्ड गेम खेलते हुए पकड़े गए हैं. दरअसल, उनका एक वीडियो सोशल मीडिया पर वायरल हो गया, जिसमें वे विधानसभा सत्र के दौरान सदन में अपने मोबाइल पर 'रमी' गेम खेलते नजर आ रहे हैं. वीडियो सामने आने के बाद विपक्षी नेताओं, खासकर सुप्रिया सुले और रोहित पवार ने कड़ी आलोचना की और उन्हें बर्खास्त करने की मांग उठाई. आरोप है कि जब राज्य में किसान आत्महत्या की घटनाएं बढ़ रही हैं (अब तक 750 किसान आत्महत्या कर चुके हैं), उस वक्त कृषि मंत्री सत्र के दौरान गेम खेलने में लगे हैं. यद्यपि कोकाटे ने सफाई दी है कि उन्हें गेम के बारे में जानकारी नहीं थी, और यह ऐप किसी और ने उनके फोन में डाउनलोड किया था; वे तो सिर्फ यूट्यूब पर चर्चा सुनने की कोशिश कर रहे थे, उसी दौरान यह गेम खुल गया, जिसे वे बंद करने की कोशिश कर रहे थे.
कांवड़ियों ने सीआरपीएफ जवान को पीटा, लेकिन योगी ने पुष्प बरसाए
शनिवार को मिर्जापुर रेलवे स्टेशन पर एक सीआरपीएफ जवान के साथ मारपीट के आरोप में सात कांवड़ियों को हिरासत में लिया गया. यह घटना उस समय हुई जब मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने एक दिन पहले ही कांवड़ियों की सराहना की थी और कहा था कि कुछ लोग उन्हें झूठा बदनाम कर रहे हैं.
रेलवे सुरक्षा बल प्रभारी निरीक्षक चमन सिंह तोमर ने बताया, "सीआरपीएफ जवान ब्रह्मपुत्र मेल का इंतजार कर रहे थे, तभी उनका कांवड़ियों से टिकट खरीदने को लेकर विवाद हो गया. कांवड़ियों ने लगभग पांच मिनट तक उन्हें लात-घूंसों से पीटा. आरपीएफ मौके पर पहुंची और उन सभी को पकड़ लिया." इस घटना की पूरी रिकॉर्डिंग सीसीटीवी कैमरे में हुई थी.
सीआरपीएफ जवान, गौतम कुमार (35), वर्दी में थे और मिर्जापुर से अपनी ड्यूटी पर मणिपुर वापस लौट रहे थे. कांवड़ियों का यह समूह मिर्जापुर के एक गांव से था और वाराणसी काशी विश्वनाथ मंदिर में गंगाजल चढ़ाने जा रहे थे. लेकिन, सात कांवड़ियों के खिलाफ मामला दर्ज होने के एक दिन बाद, मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने रविवार को मेरठ में कांवड़ यात्रियों पर पुष्पवर्षा की और उनसे कानून और व्यवस्था बनाए रखने की अपील की. उन्होंने कहा कि यदि किसी को लगे कि कोई कांवड़ यात्रा में विघ्न डालने का प्रयास कर रहा है, तो वे प्रशासन से संपर्क करें. यदि कोई शरारती तत्व कांवड़ यात्रा को बदनाम करने का प्रयास करता है, तो कानून हाथ में लेने के बजाय आप प्रशासन से संपर्क करें.
थरूर से केरल कांग्रेस ने दूरियां बढ़ाईं
'द न्यू इंडियन एक्सप्रेस' की रिपोर्ट है कि कांग्रेस के वरिष्ठ नेता के. मुरलीधरन ने रविवार को पार्टी सहयोगी और तिरुवनंतपुरम सांसद शशि थरूर की कड़ी आलोचना की. उन्होंने घोषणा की कि जब तक थरूर राष्ट्रीय सुरक्षा के मुद्दों पर अपनी स्थिति नहीं बदलते, उन्हें तिरुवनंतपुरम में कांग्रेस के किसी भी कार्यक्रम में आमंत्रित नहीं किया जाएगा. मुरलीधरन ने कहा, "थरूर की हालिया टिप्पणियाँ पार्टी की सामूहिक राय से अलग हैं. वह हमारे साथ नहीं हैं, इसलिए उनके बहिष्कार का सवाल ही नहीं उठता."
यह विवाद थरूर के हाल के बयानों के बाद शुरू हुआ, जिसमें उन्होंने पाहलगाम आतंकी हमले के बाद सशस्त्र बलों और केंद्र सरकार का समर्थन किया. कोच्चि में एक कार्यक्रम में थरूर ने कहा, "मैं अपने रुख पर कायम हूं, क्योंकि यह देश के लिए सही है." उन्होंने राष्ट्रीय सुरक्षा पर दलों के बीच सहयोग को पार्टी के प्रति निष्ठा के खिलाफ मानने की प्रवृत्ति पर चिंता जताई.
मुरलीधरन ने इसे पार्टी की स्थिति को कमज़ोर करने वाला बताया और कहा कि थरूर को तब तक कार्यक्रमों में शामिल नहीं किया जाएगा, जब तक वे अपना रुख नहीं बदलते. अनुशासनात्मक कार्रवाई का फैसला राष्ट्रीय नेतृत्व पर छोड़ दिया गया है.
विवाद तब और बढ़ गया, जब थरूर ने एक सर्वे साझा किया, जिसमें उन्हें यूनाइटेड डेमोक्रेटिक फ्रंट (UDF) के मुख्यमंत्री पद का शीर्ष उम्मीदवार बताया गया. मुरलीधरन ने इस पर उनकी निष्ठा पर सवाल उठाते हुए कहा, "उन्हें पहले यह तय करना चाहिए कि वे किस पार्टी के साथ हैं." थरूर की इंदिरा गांधी और आपातकाल पर एक मलयालम दैनिक में लिखी आलोचनात्मक टिप्पणी ने भी वरिष्ठ नेताओं की नाराज़गी बढ़ाई है. मुरलीधरन ने थरूर से साफ तौर पर अपनी राजनीतिक राह चुनने को कहा.
कांवड़ यात्रा के बीच मुस्लिम ढाबा मालिक और कर्मचारी क्या कर रहे हैं - ग्राउंड रिपोर्ट
हिंदू कैलेंडर के सावन महीने में उत्तर भारत में कांवड़ यात्रा का धार्मिक उत्सव शुरू हो गया है, लेकिन इसके साथ ही मुस्लिम ढाबा मालिकों और कर्मचारियों के लिए पहचान और रोज़गार को लेकर संकट भी गहराता जा रहा है. उत्तर प्रदेश सरकार ने इस बार कांवड़ रूट पर मौजूद सभी ढाबों, होटलों और दुकानों को QR कोड और खाद्य सुरक्षा लाइसेंस लगाने के निर्देश दिए हैं, जिन पर मालिक का नाम, पता और संपर्क नंबर स्पष्ट रूप से लिखा होना अनिवार्य है. 'बीबीसी' के लिए प्रेरणा की रिपोर्ट है कि इसका असर यह हुआ कि कई मुस्लिम मालिकों के शुद्ध शाकाहारी ढाबे भी बंद पड़े हैं, कुछ ने सुरक्षा कारणों से खुद बंद किया है, तो कुछ पर सांप्रदायिक दबाव पड़ा है. जिन ढाबों में हिंदू-मुस्लिम साझेदारी है, वहां मुस्लिम साझेदार इन दिनों अनुपस्थित रहते हैं ताकि विवाद से बचा जा सके.
कई मुस्लिम कर्मचारी या तो निकाल दिए गए हैं या खुद ही छुट्टी पर चले गए हैं. इससे उन्हें आर्थिक नुकसान और मानसिक तनाव झेलना पड़ रहा है. कुछ मामलों में मुस्लिम कर्मचारियों की पहचान छिपाने पर हिंसा और मारपीट की घटनाएं भी हुई हैं. एक मामला ऐसा भी आया जहां कर्मचारी की पैंट उतरवाकर धर्म की ‘जांच’ की गई.
हालांकि प्रशासन का दावा है कि सामाजिक सौहार्द बनाए रखने की कोशिशें की जा रही हैं, लेकिन ज़मीनी हालात में डर और असुरक्षा का माहौल साफ दिख रहा है. इस पूरे परिप्रेक्ष्य में शिक्षाविद और सामाजिक कार्यकर्ताओं ने सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की है, जिसमें कहा गया है कि QR कोड और नाम उजागर करने का निर्देश मुस्लिमों के आर्थिक बहिष्कार का औजार बन रहा है. कोर्ट पहले भी ऐसा निर्देश रोक चुका है. अब नज़र इस बात पर है कि सुप्रीम कोर्ट इस बार क्या निर्णय देता है और सरकार अपनी दलीलों में क्या नया पक्ष रखती है.
भारतीय मूल के डॉक्टर पर अमेरिका में धोखाधड़ी का आरोप : 'द इंडियन एक्सप्रेस' की रिपोर्ट है कि अमेरिका के न्यू जर्सी में भारतीय मूल के 51 वर्षीय डॉक्टर रितेश कालरा पर गंभीर आरोप लगे हैं. उन पर बिना चिकित्सीय औचित्य के 31,000 से अधिक नशीली दवाओं (ऑक्सीकोडोन और कोडीन) की पर्ची लिखने, यौन संबंधों के बदले दवाएं देने और न्यू जर्सी के स्वास्थ्य कार्यक्रम में धोखाधड़ी का आरोप है. अमेरिकी अटॉर्नी अलीना हब्बा ने कहा कि कालरा ने अपने चिकित्सा कार्यालय को "पिल मिल" में बदल दिया, जहां उन्होंने मरीजों का शोषण किया और फर्जी परामर्श के लिए बिलिंग की. जनवरी 2019 से फरवरी 2025 तक, उन्होंने कुछ दिन 50 से अधिक पर्चियां लिखीं. कालरा को गुरुवार को न्यूआर्क में मजिस्ट्रेट के सामने पेश किया गया, जहाँ उन्हें $100,000 के असुरक्षित बांड पर घर में नजरबंदी और चिकित्सा अभ्यास निलंबित करने का आदेश दिया गया. उनके वकील माइकल बाल्डासरे ने इन आरोपों को सनसनीखेज और अतिशयोक्तिपूर्ण बताया. यह मामला अमेरिका में ओपिओइड दुरुपयोग के खिलाफ चल रही कार्रवाई का हिस्सा है.
बिहार
मुकुल केसवन: ‘एसआईआर’ को एनआरसी के संदर्भ में समझने की जरुरत
“द टेलीग्राफ” में मुकुल केसवन ने लिखा है कि चुनाव आयोग द्वारा 24 जून को बिहार में मतदाता सूची के "विशेष गहन पुनरीक्षण" (एसआईआर) की घोषणा को केवल इस सरकार की नागरिकों का राष्ट्रीय रजिस्टर (एनआरसी) बनाने की प्रतिबद्धता के संदर्भ में ही समझा जा सकता है. एनआरसी की मांग असम से शुरू हुई थी. इस मांग के पीछे मुख्य उद्देश्य बांग्लादेश से आए अवैध प्रवासियों को भारतीय नागरिकता से बाहर करना था.
भाजपा की एनआरसी के प्रति उत्सुकता उसकी मुस्लिम विरोधी नीति के अनुरूप थी. बांग्लादेश एक मुस्लिम बहुल देश है. असम (और बंगाल) के सीमावर्ती जिलों में बड़ी मुस्लिम आबादी है. इस प्रकार, अवैध निवासियों को बाहर करने से मुसलमानों का निर्वाचक नामावली से बाहर होना तय था, जिसका दोहरा लाभ भाजपा को मिलता. एक ओर उसकी कट्टरपंथी राजनीति को बढ़ावा मिलता और दूसरी ओर उसके चुनावी संभावनाएं बेहतर होतीं. हालांकि, यह कहना भी जरूरी है कि असम से मुसलमानों को बाहर करने की यह इच्छा सिर्फ भाजपा नेतृत्व तक सीमित नहीं थी; असम के कई बुद्धिजीवी, छात्र नेता और राजनेता 1983 के नेल्ली नरसंहार से भी पहले से इसकी मांग करते आ रहे थे.
अवैध प्रवासियों को बाहर निकालने का अभियान हमेशा सम्मानजनक माना गया है, क्योंकि यह “राजनीतिक सामान्य बुद्धि” को अपील करता है. केसवन के अनुसार, हर स्वाभिमानी देश को नागरिकों और विदेशियों के बीच की सीमा को नियंत्रित करने का अधिकार होना चाहिए. जब संदेहास्पद विदेशियों में अधिकांश मुस्लिम होते हैं, तो एनआरसी का मुद्दा भाजपा के लिए एक स्वाभाविक चुनावी मुद्दा बन जाता है.
हालांकि, अगस्त 2019 में असम में प्रस्तुत एनआरसी की अंतिम सूची की भाजपा ने आलोचना की, क्योंकि इसमें से बाहर किए गए लगभग बीस लाख लोगों में से बड़ी संख्या बंगाली हिंदू और स्वदेशी जनजातीय समुदायों की थी. परिणामस्वरूप, इस सूची को औपचारिक रूप से अधिसूचित नहीं किया गया और भाजपा ने इसकी पुन: समीक्षा की मांग की.
टारगेट के लिए चुनाव आयोग ने अपने ही साढ़े आठ (8.5) नियमों का उल्लंघन किया
“द वायर” में पवन कोरड़ा की रिपोर्ट से पता चलता है कि बिहार में मतदाता सूची के विशेष गहन पुनरीक्षण के दौरान चुनाव आयोग को अपने स्वयं के निर्धारित लक्ष्य को पूरा करने के लिए खुद के ही साढ़े आठ (8.5) नियमों को तोड़ना पड़ा है. ये वो नियम हैं, जिनको टारगेट पूरा करने के लिए तोड़ दिया गया :
नियम (1) : बीएलओ को घर-घर जाकर फॉर्म वितरित करने होते हैं.
उल्लंघन : वेस्ट चंपारण में रिपोर्ट में पाया गया कि बीएलओ ने घर-घर जाना बंद कर दिया, क्योंकि यह व्यवाहारिक रूप से संभव नहीं था. इसके बजाय, उन्होंने गाँव के चौराहे या अन्य किसी सामुदायिक स्थल पर बैठकर फॉर्म बांटे.नियम (2) : हर मतदाता को द्वितीय प्रति सहित नामांकन फॉर्म प्राप्त होना चाहिए.
उल्लंघन : अभियान सर्वे में पाया गया कि जिन लोगों को फॉर्म मिले, उनमें से सिर्फ 6% को दो प्रतियां मिलीं.नियम (3) : मतदाता को रसीद देना अनिवार्य है.
उल्लंघन: एक प्रति ही देने से यह संभव नहीं था. नागरिकों के पास यह प्रमाण नहीं बचा कि उन्होंने प्रक्रिया पूरी की है.नियम (4) : 11 अनुमोदित दस्तावेज़ ही पात्रता के लिए मान्य हैं.
उल्लंघन : बीएलओ जन्म प्रमाण-पत्र जैसे वैध दस्तावेज़ों को अस्वीकार कर मात्र आधार कार्ड लेते थे, जबकि आधार अनुमोदित सूची में नहीं है.नियम (5) : बीएलओ को फॉर्म सही भरने में जनता का मार्गदर्शन करना चाहिए.
उल्लंघन : जल्दबाज़ी में बीएलओ ने समझाना छोड़ दिया, जिससे लोग भ्रमित हो गए.नियम (6) : सत्यापित फॉर्म और दस्तावेज़ ECINet ऐप के माध्यम से अपलोड करने चाहिए.
उल्लंघन : फॉर्म जमा करने की होड़ में सत्यापन छोड़ दिया गया.नियम (7) : प्रक्रिया को कमजोर वर्गों के लिए आसान बनाना चाहिए, उनको परेशान नहीं करना चाहिए.
उल्लंघन : प्रक्रिया ने दलित, अतिपिछड़ा, मुस्लिम, और महिलाओं को नुकसान पहुंचाया. “वोटबंदी” का भय व्याप्त है.नियम (8) : ईआरओ (इलेक्टोरल रजिस्ट्रेशन ऑफिसर) को प्राप्त होते ही फॉर्म की जांच शुरू करनी चाहिए ताकि संदिग्ध मामलों की पहचान हो सके.
उल्लंघन : सत्यापन कार्य तत्काल नहीं हुआ. जिससे वास्तविक समय में समीक्षा असंभव है.नियम (8.5) : चुनाव योग को जानकारी का सार्वजनिक प्रसार व पारदर्शिता करना चाहिए.
उल्लंघन : चुनाव आयोग रोजाना प्रेस नोट जारी करता है, पर कोई प्रेस कॉन्फ्रेंस नहीं हुई. कानून की आत्मा का उल्लंघन इसलिए, क्योंकि कोई पत्रकार बिना स्क्रिप्ट के उनसे सवाल नहीं पूछ सकता कि इतनी बड़ी विसंगति, असंभव कलेक्शन रेट या ज़मीनी अव्यवस्था पर उनका क्या जवाब है?
विश्लेषण
आकार पटेल : इतनी कॉरपोरेट- फ्रेंडली कैसे हो गई भारतीय जनता पार्टी
भाजपा आज कॉरपोरेट-फ़्रेंडली पार्टी के तौर पर दिखाई देती है, और ये बात उसके समर्थक भी मानते हैं और विरोधी भी. समर्थक कहते हैं कि ये भारत के औद्योगीकरण के लिए ज़रूरी है और सरकार की बिज़नेस में कोई भूमिका नहीं है. विरोधी बेशक शिकायत करते हैं कि यह क्रोनी कैपिटलिज़्म के सामने घुटने टेकना है.
लेकिन पार्टी की शुरुआत इस तरह से नहीं हुई थी और दरअसल, कोई सिद्धांत ऐसा नहीं है जो हमें बताता हो कि भाजपा आज वह क्यों कर रही है जिसका वह कल विरोध करती थी. किसी राजनीतिक पार्टी को अपनी स्थिति बदलने का पूरा हक़ है, बेशक, लेकिन ये पूछना गलत नहीं होगा कि उसने ऐसा क्यों किया है. कांग्रेस उदारीकरण की तरफ़ पार्टी के अंदर कड़ी बहस के बाद बढ़ी थी, और इकोनॉमिक एंड पॉलिटिकल वीकली जैसे पत्रिकाओं के पन्नों पर भी. नरसिम्हा राव को अपने सुधारों को पास कराने में दिक्कत हुई थी और उन्हें अपने ही सांसदों और जनता के सामने सफ़ाई देनी पड़ी थी.
जन संघ के तौर पर अपने शुरुआती घोषणा पत्रों में भाजपा ने उन फ़्री मार्केट नीतियों का विरोध किया था जिनकी आज वह हिमायत करती है. उसने कहा था कि लेसेज फेयर (अहस्तक्षेप की नीति) सिर्फ़ कृत युग में था' (जिसे सत युग भी कहते हैं, पहला आदर्श काल जब देवता खुद धरती पर राज करते थे). इसलिए राज्य को अर्थव्यवस्था के कुछ क्षेत्रों में स्वामित्व और प्रबंधन की ज़िम्मेदारी स्वीकार करनी चाहिए. 1954 में और फिर 1971 में, जन संघ ने तय किया था कि सभी भारतीय नागरिकों की अधिकतम आय 2,000 रुपये प्रति महीने और न्यूनतम 100 रुपये होगी, 20:1 का अनुपात बनाए रखते हुए. वह इस अंतर को कम करने पर काम करती रहती जब तक कि ये 10:1 तक न पहुंच जाए जो आदर्श अंतर था और सभी भारतीयों की आय सिर्फ़ इस रेंज के अंदर ही हो सकती थी उनकी स्थिति के आधार पर. व्यक्तियों द्वारा इस सीमा से ज़्यादा कमाई गई अतिरिक्त आय को राज्य विकास की ज़रूरतों के लिए 'योगदान, कराधान, अनिवार्य ऋण और निवेश के ज़रिए' हासिल कर लेगा. पार्टी शहरों में रिहायशी घरों का साइज़ भी सीमित करती और 1000 वर्ग गज़ से ज़्यादा के प्लॉट की इजाज़त नहीं देती.
उसने रक्षा और एयरोस्पेस के अलावा सभी उद्योगों के मशीनीकरण का विरोध किया था क्योंकि वह फैक्ट्रियों में मशीनों के बजाय मज़दूर चाहती थी. उसने पहले कृषि में मशीनीकरण को प्रोत्साहित करने के बाद इसका विरोध किया. 1954 में, पार्टी ने कहा था कि "ट्रैक्टरों का इस्तेमाल सिर्फ़ कुंवारी मिट्टी तोड़ने के लिए किया जाएगा. सामान्य जुताई के मकसद से इनके इस्तेमाल को हतोत्साहित किया जाएगा." ये बेशक इसलिए था कि वह बैल और साँड को कत्ल से बचाने की कोशिश कर रही थी.
सार्वजनिक क्षेत्र के मामले में, पार्टी ने कहा था कि वह एक ऐसी आर्थिक व्यवस्था विकसित करेगी जो राज्य के उद्यमों को नुकसान न पहुंचाए बल्कि निजी उद्यमों को उनकी उचित जगह दे. उपभोक्ता वस्तुओं और लक्ज़री सामानों के आयात को हतोत्साहित किया जाएगा. स्वदेशी का मतलब था स्थानीय उद्योगों को सब्सिडी देना और टैरिफ़ सुरक्षा भी. हड़ताल और तालाबंदी समेत मज़दूर अधिकारों को हतोत्साहित किया जाएगा.
1957 में, पार्टी ने घोषणा की कि वह आर्थिक व्यवस्था में "क्रांतिकारी बदलाव" लाएगी, जो "भारतीय जीवन मूल्यों के अनुकूल होगा." हालांकि, इनका विस्तार नहीं किया गया और न ही क्रांतिकारी बदलाव का ये विषय किसी भविष्य के घोषणा पत्र में दोबारा उठाया गया. 1967 में, पार्टी ने कहा कि वह नियोजित अर्थव्यवस्था के विचार का समर्थन करती है, लेकिन योजना में बदलाव करेगी और "क्षेत्रीय और प्रोजेक्ट के हिसाब से सूक्ष्म आर्थिक नियोजन की व्यवस्था अपनाएगी." उसने राज्य के हस्तक्षेप की मांग की, लेकिन हर जगह नहीं. उसने निजी निवेश को प्रोत्साहित किया लेकिन रक्षा क्षेत्र में बिल्कुल नहीं.
पार्टी के नागरिक स्वतंत्रता के नज़रिए में भी इसी तरह का बदलाव आया है. दोबारा इस पलटी का कोई स्पष्टीकरण नहीं दिया गया है. 1954 में, जन संघ ने कहा था कि वह संविधान के पहले संशोधन को निरस्त करेगी जिसने "उचित प्रतिबंध" लगाकर भाषण की स्वतंत्रता को सीमित किया था. इस संशोधन ने असल में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता छीन ली थी क्योंकि उचित प्रतिबंध की सूची बहुत व्यापक और विस्तृत थी. जन संघ ने महसूस किया था कि ये कुछ ऐसा था जिसे बिना चुनौती दिए नहीं छोड़ा जा सकता था. हालांकि, 1954 के बाद, पहले संशोधन को निरस्त करने और भारतीयों को भाषण, संघ और सभा की स्वतंत्रता वापस दिलाने की ये मांग जन संघ के घोषणा पत्रों से गायब हो गई. दिलचस्प बात ये है कि जन संघ ने कहा था कि वह निवारक निरोध कानूनों को भी निरस्त करेगी जो उसके मुताबिक व्यक्तिगत स्वतंत्रता के बिल्कुल विरुद्ध थे. ये वादा 1950 के दशक में बार-बार किया गया था. हालांकि, 1967 तक उसने इस मांग में शर्त लगानी शुरू कर दी और कहा कि "इस बात का ध्यान रखा जाएगा कि पांचवें स्तंभ के लोगों और बाँटने वाले तत्वों को बुनियादी अधिकारों का फ़ायदा उठाने न दिया जाए." समय के साथ, संघ और भाजपा निवारक निरोध के सबसे उत्साही समर्थक बन गए, और आज जमानत नहीं जेल उनकी सिविल सोसाइटी और राजनीतिक विरोधियों के लिए घोषित नीति है.
सवाल ये है कि पार्टी ने इतनी बेतहाशा एक तरफ़ से दूसरी तरफ़ झूलने का काम क्यों किया है और इस बदलाव की व्याख्या क्यों नहीं की है? जवाब ये है कि मूल स्थिति में कोई सोच-विचार था ही नहीं. जन संघ के घोषणा पत्र अक्सर कांग्रेस के तहत भारत में जो कुछ हो रहा था उसी की प्रतिक्रिया में बनाए जाते थे. अगर नेहरू ने भूमि सुधार शुरू किया, तो जन संघ ने एक-दो पैराग्राफ़ जोड़ दिए कि उनका भूमि सुधार कैसे बेहतर होगा. जब इंदिरा ने भूमि की हद की बात की, तो जन संघ ने तय किया कि उनकी भूमि की हद क्या होगी. नियोजित अर्थव्यवस्था ठीक थी, लेकिन जन संघ इसे सूक्ष्म स्तर पर और गहराई से योजना बनाएगी और ये प्रोजेक्ट-केंद्रित भी होगी. मशीनीकरण अच्छा था लेकिन ज़्यादा मशीनीकरण नहीं क्योंकि इससे बेरोज़गारी बढ़ती है इसलिए ये भारतीय आधुनिकीकरण होना चाहिए. इसी तरह की और बातें.
और जब, जब 1991 में कांग्रेस ने अपना आर्थिक नज़रिया बदला, तो भाजपा ने भी उसके साथ बदलाव किया. और इसीलिए आज हम खुद को यहां पाते हैं.
डोनाल्ड ट्रम्प का "नग्न लैंगिकतावाद": माइल्स टेलर की किताब में सनसनीखेज खुलासे
माइल्स टेलर, जो ट्रम्प प्रशासन में होमलैंड सिक्योरिटी के चीफ ऑफ स्टाफ रहे और "एनोनिमस" के छद्म नाम से न्यूयॉर्क टाइम्स में ट्रम्प की आलोचना करने वाले लेख के लेखक थे, ने अपनी नई किताब 'ब्लो बैक : अ वॉर्निंग टू सेव डेमोक्रेसी फ्रॉम द नेक्स्ट ट्रम्प' में डोनाल्ड ट्रम्प के महिलाओं के प्रति आपत्तिजनक व्यवहार का खुलासा किया है. ‘न्यूज़वीक’ द्वारा प्राप्त किताब के अंशों में कुछ चौंकाने वाली घटनाओं का जिक्र है, जो ट्रम्प प्रशासन में महिलाओं को असहज करती थीं.
इवांका ट्रम्प के प्रति अश्लील टिप्पणियां : किताब में सबसे विवादास्पद दावा यह है कि ट्रम्प ने अपनी बेटी इवांका ट्रम्प के बारे में अश्लील टिप्पणियां कीं. सहायकों के अनुसार, ट्रम्प ने इवांका के "स्तनों और नितंबों" के बारे में बात की और यह भी कहा कि "उनके साथ यौन संबंध कैसे होंगे." इस पर तत्कालीन चीफ ऑफ स्टाफ जॉन केली ने ट्रम्प को फटकार लगाते हुए याद दिलाया कि इवांका उनकी बेटी हैं. केली ने टेलर से इस घटना को "दृश्यमान घृणा" के साथ बताया और ट्रम्प को "बेहद दुष्ट व्यक्ति" कहा. ट्रम्प का इवांका के प्रति यह व्यवहार नया नहीं है. 2006 में 'द व्यू' शो में ट्रम्प ने कहा था, "अगर इवांका मेरी बेटी न होती, तो शायद मैं उनके साथ डेटिंग करता. क्या यह भयानक नहीं है?" 2015 में रोलिंग स्टोन को दिए साक्षात्कार में उन्होंने कहा, "वह वाकई कुछ खास है, क्या खूबसूरती है. अगर मैं खुशहाल शादीशुदा न होता और, आप जानते हैं, उनका पिता न होता..."
महिलाओं के प्रति ट्रम्प का व्यवहार : टेलर ने ट्रम्प के प्रशासन में महिलाओं, चाहे वह निम्न-स्तरीय सहायक हों या कैबिनेट सचिव, के प्रति "खुला लैंगिकतावाद" का वर्णन किया है. उन्होंने होमलैंड सिक्योरिटी सचिव (2017-2019) कर्स्टजेन नील्सन के साथ बैठकों में ट्रम्प के अनुचित व्यवहार को देखा. ट्रम्प ने नील्सन को "स्वीटी" और "हनी" कहकर संबोधित किया और उनके मेकअप व कपड़ों की आलोचना की. नील्सन ने टेलर से फुसफुसाकर कहा, "मुझ पर भरोसा करो, यह महिलाओं के लिए स्वस्थ कार्यस्थल नहीं है."
एक अन्य घटना में, मार्च 2019 की एक बैठक में ट्रम्प ने नील्सन और अन्य महिला कर्मचारियों पर सीमा नीति को लेकर गुस्सा निकाला. सीनियर काउंसलर केलीन कॉनवे ने इस बैठक के बाद ट्रम्प को "महिलाविरोधी धमकाने वाला" कहा, हालांकि कॉनवे के कार्यालय ने इस बयान से इनकार किया. एक और मजेदार लेकिन आपत्तिजनक घटना में, ट्रम्प ने ओवल ऑफिस की बैठक के दौरान व्हाइट हाउस प्रेस सचिव सारा हकाबी सैंडर्स को उनकी निजी सहायक समझ लिया. उन्होंने कहा, "अरे, सारा, तुमने बहुत वजन कम कर लिया है!" जब उन्हें गलती का एहसास हुआ, तो उन्होंने हल्के-फुल्के अंदाज में कहा, "उफ़!"
राजनीतिक प्रभाव और चेतावनी : टेलर का मानना है कि ट्रम्प का यह व्यवहार 2024 के राष्ट्रपति चुनाव में उनकी संभावनाओं को नुकसान पहुंचा सकता है. उन्होंने न्यूज़वीक को बताया, "वह एक विकृत व्यक्ति हैं, जिनसे निपटना मुश्किल है. फिर भी, हम आश्चर्यजनक रूप से उन्हें फिर से राष्ट्रपति चुनने पर विचार कर रहे हैं." टेलर ने चेतावनी दी कि ट्रम्प का दूसरा कार्यकाल और भी खतरनाक हो सकता है, क्योंकि वह "प्रतिभाशाली लोगों को दरकिनार करते हैं और महिलाओं के प्रति अपमानजनक दृष्टिकोण को सामान्य करते हैं." उन्होंने कहा कि ट्रम्प ने रिपब्लिकन पार्टी में एक "घृणित स्वर" स्थापित किया है, जिसके कारण अन्य "मैगा" उम्मीदवार भी इसी तरह का व्यवहार दिखाते हैं.
यह खुलासा पत्रकार ई. जीन कैरोल के यौन उत्पीड़न और मानहानि के मामले में ट्रम्प के दोषी पाए जाने के बाद आया है. ट्रम्प ने सभी आरोपों को खारिज किया है और इसे राजनीति से प्रेरित बताया है. इवांका ने 2016 में सीबीएस न्यूज़ को दिए साक्षात्कार में कहा था कि उनके पिता "ग्रोपर" नहीं हैं और "महिलाओं का पूरा सम्मान करते हैं." टेलर, जो 2022 तक रिपब्लिकन पार्टी के सदस्य थे, अब सेंट्रिस्ट फॉरवर्ड पार्टी में हैं. 2018 में उनके "एनोनिमस" लेख ने ट्रम्प प्रशासन की कड़ी आलोचना की थी. 2020 में उन्होंने अपनी पहचान उजागर की और ट्रम्प के पुनर्निर्वाचन के खिलाफ अभियान चलाया. उनकी किताब ट्रम्प के व्यवहार को उजागर करने के साथ-साथ लोकतंत्र के लिए खतरे की चेतावनी देती है.
यूक्रेन के ड्रोन हमले के कारण मॉस्को के प्रमुख हवाई अड्डों पर अफरातफरी
'कीव पोस्ट' की रिपोर्ट है कि रूस पर यूक्रेन के ड्रोन हमले के कारण मॉस्को के प्रमुख हवाई अड्डों को अस्थायी रूप से बंद कर दिया गया. हवाई अड्डों के बंद होने के कारण कम से कम 140 उड़ानें रद्द कर दी गईं. स्थानीय अधिकारियों ने ये जानकारी दी है. रूसी रक्षा मंत्रालय के मुताबिक़, शनिवार सुबह से रूस के ऊपर 230 से ज़्यादा यूक्रेनी ड्रोन गिराए गए, जिनमें से 27 राजधानी मॉस्को के ऊपर गिराए गए. रूस की एविएशन निगरानी एजेंसी के मुताबिक़, मॉस्को के चार प्रमुख हवाई अड्डों का काम रुका और 130 से अधिक उड़ानों को दूसरे स्थानों पर मोड़ना पड़ा. इस बीच, स्थनीय अधिकारियों के मुताबिक़, यूक्रेन पर रात में किए गए रूस के हवाई हमलों में कम से कम तीन लोगों की मौत हो गई. 'बीबीसी' ने रूस के टूर ऑपरेटर्स एसोसिएशन के हवाले से छाापा है कि हमले के कारण मॉस्को हवाई अड्डे 24 घंटे में 10 बार बंद किए गए.
विरोध के बाद पुणे में ‘संत तुकाराम’ के शो बंद
पुणे शहर में हाल ही में रिलीज़ हुई ‘संत तुकाराम’ फिल्म के शो अचानक बंद कर दिए गए हैं. फिल्म के निर्देशक और लेखक आदित्य ओम ने इस पर अपनी गहरी चिंता व्यक्त की है और प्रशासन से सुरक्षा की मांग की है ताकि फिल्म के शो दोबारा शुरू हो सकें.
आदित्य ओम ने सोशल मीडिया पर लिखा कि उनकी फिल्म को सेंसर बोर्ड से यू (U) सर्टिफिकेट मिला है और बिना किसी कट के पास हुई है. इसके बावजूद, पुणे पुलिस की ओर से जारी एक एडवाइजरी के बाद शहर के अधिकतर सिनेमाघरों ने शो बंद कर दिए हैं. इस वजह से फिल्म को भारी आर्थिक नुकसान हुआ है और भविष्य में इसके प्रदर्शन पर भी खतरा मंडरा रहा है.
उन्होंने अपने पोस्ट में कहा - “फिल्म को पूरी श्रद्धा और समर्पण से बनाया गया है, ताकि संत तुकाराम महाराज के विचार, मूल्य और शिक्षाएं दुनिया तक पहुँच सकें. हमारे शो बंद कर दिए गए हैं, जिससे निर्माताओं और दर्शकों दोनों के हितों को नुकसान हुआ है. कृपया हमें और हमारे दर्शकों को पर्याप्त सुरक्षा प्रदान करें ताकि शो सुचारु रूप से चल सकें और संविधान प्रदत्त अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता कायम रह सके.”
पुणे पुलिस द्वारा जारी पत्र में लिखा गया कि ‘संत तुकाराम संस्थान’ और कुछ अन्य संगठनों द्वारा फिल्म के खिलाफ आपत्ति जताई गई है. पुलिस ने सभी सिनेमाघर मालिकों को सावधानी बरतने के निर्देश दिए और विशेष सुरक्षा उपाय करने को कहा है ताकि कोई अप्रिय घटना न हो.
आदित्य ओम ने अपने पोस्ट में महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस, पुणे पुलिस आयुक्त अमितेश कुमार और पुणे पुलिस से निवेदन किया कि दर्शकों और सिनेमाघरों को पर्याप्त सुरक्षा दी जाए ताकि शो फिर से चालू हो सकें. फिल्म 18 जुलाई को रिलीज़ हुई थी और अभी भी देश के अन्य हिस्सों में चल रही है. निर्देशक ने कहा कि यह फिल्म पूरी निष्ठा और श्रद्धा के साथ बनाई गई है और इसका उद्देश्य केवल संत तुकाराम महाराज के आदर्शों और शिक्षाओं का प्रचार करना है.
पाठकों से अपील :
आज के लिए इतना ही. हमें बताइये अपनी प्रतिक्रिया, सुझाव, टिप्पणी. मिलेंगे हरकारा के अगले अंक के साथ. हरकारा सब्सटैक पर तो है ही, आप यहाँ भी पा सकते हैं ‘हरकारा’...शोर कम, रोशनी ज्यादा. व्हाट्सएप पर, लिंक्डइन पर, इंस्टा पर, फेसबुक पर, यूट्यूब पर, स्पोटीफाई पर , ट्विटर / एक्स और ब्लू स्काई पर.