22 /09/2025: अडानी को बिहार में 1020 एकड़ एक रुपये के दाम पर | एसआईआर की पूरे मुल्क़ में तैयारी | राम के नाम पर इमाम की पिटाई | गरबा को लेकर भाजपा पुलिस बनी | गोलवलकर पर आकार पटेल | वोटचोरी पर बहाने?
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निधीश त्यागी, साथ में राजेश चतुर्वेदी, गौरव नौड़ियाल, फ़लक अफ़शां
आज की सुर्ख़ियाँ
1 रुपये रेट पर 1020 एकड़: अडानी पर मेहरबान बिहार सरकार?
चुनावों से पहले वोटर लिस्ट में बड़ी फेरबदल की तैयारी
लालू परिवार में 'बाहरी' पर रार, बहन ने भाई को किया अनफॉलो
H-1B पर बड़ा यू-टर्न: क्या आपको देनी होगी $100,000 की फीस?
'राम-राम' नहीं तो मार: इमाम की दाढ़ी नोची, पाकिस्तान जाने को कहा
फिर तल्खी, फिर वही कहानी: सूर्य कुमार ने पाक कप्तान से नहीं मिलाया हाथ
एक सितारा, लाखों दीवाने: असम के आइकॉन को आखिरी सलाम
गरबा में 'संस्कारी' पुलिसिंग: पीठ दिखने वाले कपड़े बैन, आधार-तिलक पर एंट्री
हिंदू ही 'राष्ट्रीय' क्यों? गोलवलकर के विचारों के उलझे हुए तार
लोकतंत्र पर सवाल: सरकार से बहाने नहीं, जवाब चाहिए
अमेरिका-इज़राइल को झटका: ब्रिटेन, कनाडा, ऑस्ट्रेलिया ने फ़िलिस्तीन को दी मान्यता
एक ही आवाज़, कई रूप: क्या आपने असली 'महिषासुरमर्दिनी' सुनी है?
1 रुपया एकड़ सालाना के हिसाब से अडानी पावर को भागलपुर में 1,020 एकड़ जमीन पट्टे पर मिली
अडानी समूह की सहायक कंपनी, अडानी पावर को बिहार के भागलपुर ज़िले के पीरपैंती में 1,020 एकड़ ज़मीन 25 साल की लीज़ पर केवल 1 रुपये प्रति एकड़ प्रति वर्ष की दर से दी गई है, ताकि वहां एक पावर प्लांट का निर्माण और संचालन किया जा सके. यह ऐसे समय में हुआ है जब गांववालों ने आरोप लगाया है कि उनकी कृषिभूमि, विशेषकर आम और लीची के बागानों के लिए, राज्य सरकार की ओर से उन्हें पूरा या उचित मुआवजा नहीं मिला है. उक्त भूमि मुआवजा न मिलने की पृष्ठभूमि पर कुख्यात सृजन घोटाले की छाया भी मंडरा रही है. किसानों को यह भी एहसास है कि भले ही उन्हें कुछ मुआवजा मिल जाए, लेकिन उनके पास आगे जीविकोपार्जन का कोई साधन नहीं बच पाएगा. “द वायर” में आथिरा पेरिनचेरी ने अपनी लंबी रिपोर्ट में बताया है कि अडानी समूह के लिए यह अप्रत्याशित लाभ का सौदा है.
रिपोर्ट कहती है कि राज्य में पहले से ही गंभीर वायु प्रदूषण की स्थिति के बीच एक और कोयला-आधारित बिजली संयंत्र स्थापित करने की योजना ने स्थानीय समुदायों पर पड़ने वाले स्वास्थ्य प्रभावों के साथ-साथ भारत के जलवायु लक्ष्यों और नवीकरणीय ऊर्जा की ओर संक्रमण पर भी प्रश्न खड़े कर दिए हैं.
15 सितंबर को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने बिहार के पूर्णिया में लगभग 40,000 करोड़ रुपये की विकास परियोजनाओं का उद्घाटन किया. इनमें भागलपुर जिले के पीरपैंती में 25,000 करोड़ रुपये की लागत से बनने वाला 2,400 मेगावाट का कोयला-आधारित थर्मल पावर प्लांट भी शामिल है. मोदी ने कहा कि इससे बिहार पावर सेक्टर में आत्मनिर्भर होगा. प्रेस विज्ञप्ति के अनुसार यह बिहार का सबसे बड़ा निजी क्षेत्र का निवेश होगा जो “अल्ट्रा-सुपर क्रिटिकल, लो-एमिशन टेक्नोलॉजी” पर आधारित होगा. वक्तव्य में कहा गया, “यह परियोजना बिहार को समर्पित बिजली देगी और राज्य की ऊर्जा सुरक्षा मजबूत करेगी.” लेकिन प्रधानमंत्री मोदी ने यह उल्लेख नहीं किया कि अगले 25 वर्षों तक इस संयंत्र का निर्माण, स्वामित्व और संचालन अडानी पॉवर लिमिटेड (अडानी समूह की सहायक कंपनी) करेगी.
मोदी के कार्यक्रम से दो दिन पहले, 13 सितंबर को, अडानी पावर ने बिहार स्टेट पावर जेनरेशन कंपनी लिमिटेड के साथ 25 वर्षों का पावर सप्लाई एग्रीमेंट (पीएसए) किया. इस समझौते के तहत अडानी पावर तीन इकाइयों (प्रत्येक 800 मेगावाट क्षमता वाली) का एक ग्रीनफील्ड अल्ट्रा-सुपरक्रिटिकल पावर प्लांट “डिज़ाइन, बिल्ड, फाइनेंस, ओन एंड ऑपरेट” मॉडल के तहत स्थापित करेगा.
जून में जेसडब्ल्यू एनर्जी, टॉरेंट पावर और बजाज समूह की ललित पावर भी इस बोली की दौड़ में थीं. लेकिन पिछले महीने अडानी पावर को बिहार राज्य की यूटिलिटी से इस परियोजना के लिए "लेटर ऑफ इंटेंट" मिला. अडानी समूह के बयान के अनुसार पहली इकाई नियुक्त तिथि से 48 महीने के भीतर चालू हो जाएगी और अंतिम इकाई 60 महीने के भीतर.
इस परियोजना में 3 अरब अमेरिकी डॉलर (करीब 25,000 करोड़ रुपये) का निवेश किया जाएगा. संयंत्र से पैदा होने वाली बिजली राज्य की यूटिलिटीज को 6.075 रुपये प्रति यूनिट (किलोवॉट-घंटा) के भाव पर बेची जाएगी. इस समझौते में सबसे चौंकाने वाली बात यह सामने आई कि अडानी पावर को भूमि उपयोग के लिए तय 25 वर्षों की अवधि में लगभग 1,020 एकड़ जमीन केवल 1 रुपये प्रति एकड़ प्रति वर्ष के हिसाब से मिलेगी.
गांववालों का कहना है कि कई ज़मीन मालिकों को अलग-अलग दरों पर मुआवजा मिला है और उन्हें यह समझ नहीं आया कि एक समान दर क्यों लागू नहीं की गई. उनका यह भी आरोप है कि कुछ ज़मीन मालिकों को वह पूरा मुआवजा भी नहीं मिला जो 12 साल पहले राज्य सरकार ने इस बिजली संयंत्र के लिए ज़मीन अधिग्रहण करते समय देना था. ग्रामीणों का कहना है कि भविष्य में उन्हें जो लंबित भुगतान मिलेगा, वह 12 साल पहले तय दरों पर होगा, न कि मौजूदा बढ़े हुए दामों के हिसाब से.
उनका आरोप है कि जो लोग 15 सितंबर को भागलपुर जाकर प्रधानमंत्री मोदी से अपनी शिकायतें साझा करना चाहते थे, उन्हें रास्ते में गिरफ्तार कर लिया गया और उनसे मिलने से रोका गया. अपनी ज़मीन जाने के बाद बहुत से लोग चिंतित हैं कि भले ही उन्हें एक बार का मुआवजा मिल जाए, लेकिन उनके पास जीविका का कोई साधन नहीं बचेगा. बिहार में ज़मीन बहुत मूल्यवान है, क्योंकि 38 ज़िलों में से 28 ज़िले बाढ़-प्रभावित हैं. पीरपैंती क्षेत्र में 2011 की जनगणना के अनुसार ज़्यादातर लोग या तो ज़मीन मालिक-किसान हैं या कृषि मज़दूर, इसलिए खेती योग्य ज़मीन भी उनके लिए बेहद महत्वपूर्ण है.
किसानों की चिंता यह है कि उनकी खेती की जमीन छिनने के बाद उनकी आजीविका खत्म हो जाएगी. इसके अलावा, यह क्षेत्र बाढ़ ग्रस्त है और यहां के फलदार पेड़ जैसे आम-लीची स्थानीय किसानों के लिए स्थायी आय का स्रोत हैं, जो पर्यावरण और जलवायु के लिहाज से भी महत्वपूर्ण हैं. इस सौदे को लेकर विरोध और सवाल उठ रहे हैं क्योंकि यह जमीन औसत कृषि योग्य जमीन है, न कि बंजर. इस परियोजना से स्थानीय जैव विविधता, किसानों की आजीविका और पर्यावरणीय संतुलन पर नकारात्मक प्रभाव पड़ने की आशंका है.
सरकार ने यह जमीन अडानी पावर को बेहद कम किराए पर दी है, जबकि बिजली की कीमतें बिहार में अपेक्षाकृत महंगी रहेंगी, जिससे स्थानीय निवासियों पर आर्थिक बोझ पड़ेगा. इस पूरे मामले पर कांग्रेस ने सरकार और अडानी समूह पर भ्रष्टाचार और जनता के साथ अन्याय के गंभीर आरोप लगाए हैं, जबकि भाजपा पक्ष ने प्रक्रिया को औपचारिक और कानूनी बताया है. यह विवाद अब राजनीतिक और सामाजिक स्तर पर तीव्र बहस का विषय बना हुआ है. विस्तृत रिपोर्ट यहां पढ़ सकते हैं.
30 सितंबर तक एसआईआर रोलआउट के लिए तैयार रहें: राज्य चुनाव अधिकारियों को फ़रमान
चुनाव आयोग ने राज्य के मुख्य निर्वाचन अधिकारियों (सीईओ) से 30 सितंबर तक विशेष गहन पुनरीक्षण (Special Intensive Revision - SIR) के रोलआउट के लिए तैयार रहने को कहा है. मुख्य निर्वाचन अधिकारियों को निर्देश दिया गया है कि वे अपने राज्यों की मतदाता सूचियों को तैयार रखें, जो पिछले एसआईआर के बाद प्रकाशित हुई थीं. हिंदू के मुताबिक अधिकांश राज्यों में आखिरी एसआईआर 2002 और 2004 के बीच हुआ था और उन्होंने पिछले गहन पुनरीक्षण के अनुसार वर्तमान मतदाताओं की मैपिंग लगभग पूरी कर ली है. यह कदम आगामी चुनावों के लिए मतदाता सूचियों को अद्यतन और सटीक बनाने की एक बड़ी कवायद का हिस्सा है ताकि चुनावी प्रक्रिया की शुचिता सुनिश्चित की जा सके. आयोग यह सुनिश्चित करना चाहता है कि सभी पात्र मतदाताओं को सूची में शामिल किया जाए और अपात्र नामों को हटा दिया जाए.
लालू परिवार में कलह: तेजस्वी के सलाहकार के बढ़ते कद से नाराज़ रोहिणी आचार्य?
राष्ट्रीय जनता दल (राजद) के संस्थापक लालू प्रसाद के परिवार में एक बार फिर मतभेद उभरते दिख रहे हैं. इस बार विवाद का केंद्र तेजस्वी यादव के राजनीतिक सलाहकार संजय यादव का बढ़ता प्रभाव है. लालू की दूसरी बेटी रोहिणी आचार्य ने सोशल मीडिया पर कुछ ऐसी पोस्ट कीं, जिन्हें सीधे तौर पर संजय यादव पर निशाना माना जा रहा है. इसके बाद उन्होंने अपने पिता लालू प्रसाद और भाई तेजस्वी यादव को सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म 'एक्स' पर अनफॉलो भी कर दिया.
यह सब तब शुरू हुआ जब रोहिणी ने आलोक कुमार नाम के एक व्यक्ति की पोस्ट को रीपोस्ट किया, जिसमें लिखा था, "आगे की सीट हमेशा शीर्ष नेतृत्व के लिए होती है. नेता की अनुपस्थिति में भी किसी को उस पर नहीं बैठना चाहिए... हम, बिहार की जनता के साथ, लालू प्रसाद या तेजस्वी प्रसाद यादव को आगे की सीट पर देखने के आदी हैं. हम किसी और को आगे की सीट पर बैठे हुए बर्दाश्त नहीं कर सकते." इस पोस्ट को तेजस्वी की 'जन विश्वास यात्रा' के दौरान संजय यादव के आगे की सीट पर बैठने के संदर्भ में देखा गया.
राजद के एक अंदरूनी सूत्र ने बताया कि रोहिणी की इस पोस्ट से पार्टी के पहले परिवार में हंगामा मच गया. उन पर संजय यादव को अप्रत्यक्ष रूप से निशाना बनाने के लिए परिवार की ओर से आलोचना का सामना करना पड़ा. इसके बाद पार्टी ने स्थिति को संभालने की कोशिश की और यात्रा के दौरान दलित नेताओं शिव चंद्र राम और रेखा पासवान को आगे की सीट पर बैठाया. रोहिणी, जिन्होंने 2022 में अपने पिता को किडनी दान करके सुर्खियां बटोरी थीं, ने सारण से लोकसभा चुनाव लड़ा था और भाजपा सांसद राजीव प्रताप रूडी से मामूली अंतर से हार गई थीं. अपनी राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं को लेकर ऑनलाइन ट्रोल होने के बाद, उन्होंने रविवार को 'एक्स' पर एक लंबी पोस्ट लिखकर अपनी स्थिति स्पष्ट की. उन्होंने लिखा, "मेरे बारे में फैलाई जा रही सभी अफवाहें निराधार हैं और मेरी प्रतिष्ठा को नुकसान पहुंचाने के उद्देश्य से एक दुर्भावनापूर्ण अभियान का हिस्सा हैं, जिसे ट्रोल, उपद्रवी तत्वों, पेड मीडिया और पार्टी पर कब्जा करने के बुरे इरादे रखने वालों द्वारा हवा दी जा रही है. मेरी कभी कोई राजनीतिक महत्वाकांक्षा नहीं रही, न है, और न होगी."
हालांकि परिवार के किसी सदस्य ने इस विवाद पर कोई प्रतिक्रिया नहीं दी, लेकिन परिवार से अलग-थलग चल रहे उनके भाई और पूर्व मंत्री तेज प्रताप यादव ने शनिवार को कहा, "मेरी बहन ने बहुत जायज़ सवाल उठाए हैं. उनकी चिंताएं (संजय यादव के बढ़ते प्रभाव के बारे में) सही हैं." संजय यादव हरियाणा से हैं और 2024 में राज्यसभा सांसद बने. उन्हें 2012 में समाजवादी पार्टी प्रमुख अखिलेश यादव ने तेजस्वी से मिलवाया था. पिछले कुछ वर्षों में, पार्टी के सत्ता ढांचे में उनका प्रभाव काफी बढ़ गया है और अब तेजस्वी की लगभग सभी बैठकें और मीडिया संवाद उन्हीं के माध्यम से होते हैं.
मौजूदा एच-1बी वीज़ा धारकों पर लागू नहीं होगा नया शुल्क, न ही ‘रिन्यूअल’ पर : व्हाइट हाउस
“एपी” की खबर के अनुसार, ‘व्हाइट हाउस’ को शनिवार रात यह स्पष्ट करना पड़ा कि कुशल तकनीकी कामगारों के लिए एच-1बी वीज़ा पर लगाया गया नया 100,000 डॉलर शुल्क सिर्फ नए आवेदकों पर लागू होगा, न कि मौजूदा वीज़ा धारकों पर.
‘व्हाइट हाउस’ की प्रेस सचिव कैरोलाइन लेविट ने “एक्स” पर पोस्ट करते हुए कहा, “जो लोग पहले से एच-1बी वीज़ा धारक हैं और इस समय देश के बाहर हैं, उनसे अमेरिका में दोबारा प्रवेश करने पर 100,000 डॉलर शुल्क नहीं लिया जाएगा. यह नियम केवल नए वीज़ा पर लागू होगा, न कि नवीनीकरण पर और न ही वर्तमान वीज़ा धारकों पर.” यह शुल्क आज रविवार को रात 12:01 बजे (ईस्टर्न टाइम) से प्रभावी होने वाला है. इसकी अवधि एक साल के लिए तय की गई है, लेकिन यदि अमेरिकी प्रशासन को इसे जारी रखना देश के हित में लगे तो इसे आगे बढ़ाया जा सकता है.
दरअसल, अमेरिकी वाणिज्य सचिव हॉवर्ड लटनिक ने कहा था कि इस बड़े शुल्क को हर साल देना होगा और यह नए वीजा चाहने वालों के साथ-साथ नवीनीकरण पर भी लागू होगा. लेकिन नए नियम लागू होने से कुछ घंटे पहले, व्हाइट हाउस ने स्थिति स्पष्ट कर दी.
इमाम ने राम-राम नहीं बोला तो पीटा, दाढ़ी नोची
अलीगढ़ में एक मस्जिद के इमाम क़ारी मुस्तक़ीम के साथ कुछ लोगों ने मारपीट की. इमाम ने आरोप लगाया कि कुछ लोगों ने पहले मुझसे राम-राम कहा. जब मैंने जवाब नहीं दिया, तो उन लोगों ने मेरी साइकिल रोक ली. इसके बाद जबरन मुझसे राम-राम बोलने को कहने लगे. जब मैंने नहीं बोला, तो मुझे बुरी तरह मारा-पीटा और मेरी दाढ़ी नोच ली. इसके बाद मुझसे कहा कि पाकिस्तान चले जाओ, यहां क्या कर रहे. मैंने किसी तरह वहां से भागकर अपनी जान बचाई. ‘दैनिक भास्कर’ के अनुसार, एएसपी मृगांक शेखर पाठक ने बताया कि यह साधारण मारपीट का मामला है. इसमें किसी तरह का धार्मिक नारा लगवाने की बात सामने नहीं आई है.
‘पीटीआई’ की खबर है कि बीते कुछ हफ़्तों से युवकों के एक समूह द्वारा कथित रूप से मौखिक उत्पीड़न का सामना करने के बाद इमाम झगड़े में घायल हो गए और उन्हें अस्पताल में भर्ती कराया गया है. स्थानीय मुस्लिम नेताओं का दावा है कि इमाम पर हमला कुछ नारे नहीं लगाने के कारण किया गया.
सूर्य कुमार यादव ने पाकिस्तान के कप्तान से फिर हाथ नहीं मिलाया
भारत के कप्तान सूर्यकुमार यादव ने टॉस जीतकर रविवार को दुबई इंटरनेशनल क्रिकेट स्टेडियम में पाकिस्तान के खिलाफ एशिया कप सुपर-4 मुकाबले में पहले गेंदबाज़ी करने का फैसला किया, लेकिन लीग-स्टेज के मुकाबले की पुनरावृत्ति करते हुए सूर्यकुमार यादव ने एक बार फिर पाकिस्तान के कप्तान सलमान अली आगा से हाथ मिलाने से परहेज़ किया, जिससे मैदान पर पड़ोसी देशों के बीच चल रही कटुता साफ नज़र आई. यह भी उल्लेखनीय है कि मैच रेफरी भी वही एंडी पायकॉफ्ट रहे, जो भारत-पाकिस्तान के बीच खेले गए पिछले मैच में थे.इस बीच भारत ने आज के मैच में भी पाकिस्तान को हराकर छह विकेट से जीत दर्ज की. भारत के ओपनिंग जोड़ीदार अभिषेक शर्मा (39 गेंदों पर 74 रन) और शुभमन गिल (28 गेंदों पर 47 रन) ने पहले 10 ओवरों में ही 105 रन जोड़ दिए और पाकिस्तान द्वारा दिए गए 172 रन के लक्ष्य का पीछा करते हुए टीम इंडिया की जीत की नींव रखी.
असम के आइकॉन को लाखों लोगों ने दी अंतिम विदाई : ‘ज़ुबीन दा जैसा कोई नहीं हो सकता’
जब असम के सुपरस्टार ज़ुबीन गर्ग का पार्थिव शरीर रविवार सुबह गुवाहटी हवाई अड्डे पर पहुंचा, तो शहर की सड़कों पर शोकाकुल लोगों की अभूतपूर्व भीड़ उमड़ पड़ी. असम के "लाड़ले बेटे" की अंतिम यात्रा जब फूलों से सजे वाहन में रखे ताबूत के साथ शुरू हुई, तो हवाई अड्डे से उनके घर तक धीरे-धीरे बढ़ती शवयात्रा के मार्ग में लोगों का विशाल समुद्र उन्हें अंतिम बार देखने के लिए टूट पड़ा.
जुबीन गर्ग, जो गायक, गीतकार, अभिनेता, फिल्म निर्माता और असम के सबसे बड़े सांस्कृतिक प्रतीकों में से एक थे, का शुक्रवार को सिंगापुर में स्कूबा डाइविंग दुर्घटना में निधन हो गया था. वे वहां नॉर्थ ईस्ट इंडिया फेस्टिवल में भाग लेने गए थे. उनकी मौत की खबर ने सभी को गहरे सदमे में डाल दिया. सुकृता बरुआ की रिपोर्ट बताती है कि गुवाहटी में लगभग हर पड़ोस, गली और कई घरों में उनके लिए स्मारक बनाए गए. उनके लोकप्रिय गीत "मायाबिनी रातिर बुकुट" का कोरस हर स्मारक पर बजाया गया. प्रशंसकों का मानना है कि जुबीन दा जैसा कोई दूसरा नहीं हो सकता. वे एक ऐसा सांस्कृतिक प्रतीक थे, जो अलग-अलग धर्मों और समुदायों को जोड़ते थे. उनके गीत सदाबहार रहे और वे असम की संस्कृति के स्तंभ थे. उनकी सहजता, उनकी उदारता, और लोगों के लिए उनकी गहरी सहानुभूति भी उन्हें विशेष बनाती थी.
भाजपा के नेता बता रहे हैं- गरबा में कैसे कपड़े पहनें, आधार देखकर प्रवेश दें, गैर हिंदुओं को रोकें
पीठ दिखाई देने वाले परिधान, बॉलीवुड संगीत और गैर-हिंदुओं की गरबा पंडालों में मौजूदगी, हिंदू संगठनों से जुड़े कार्यकर्ताओं और सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी के विधायकों की मुख्य चिंताओं में शामिल हो गई हैं, क्योंकि सोमवार से दस दिवसीय शारदीय नवरात्रि उत्सव शुरू हो रहा है. “द न्यू इंडियन एक्सप्रेस” की खबर के अनुसार, यह मांग मध्यप्रदेश के दक्षिण-पश्चिमी हिस्से में स्थित साम्प्रदायिक रूप से संवेदनशील जिला खंडवा से उठी. हिंदू जागरण मंच के जिला संयोजक माधव झा ने कहा, “किसी भी गरबा पंडाल में पश्चिमी परिधान (जिसमें पीठ खुले कपड़े भी शामिल हैं) की अनुमति नहीं होनी चाहिए. उत्सव को पूरी तरह पारंपरिक भारतीय तरीके से मनाना चाहिए और भारतीय पारंपरिक पोशाक पहनना अनिवार्य होना चाहिए. इसके अलावा वैध पहचान पत्र दिखाने पर ही प्रवेश की अनुमति मिले. गरबा एक हिंदू उत्सव है, इसलिए गैर-हिंदुओं को इसमें शामिल होने की इजाजत नहीं दी जानी चाहिए.”
खंडवा के ही एक अन्य दक्षिणपंथी संगठन के नेता ने आगे बढ़ते हुए यहां तक कहा कि पुरुषों और महिलाओं के लिए अलग-अलग गरबा आयोजन होने चाहिए. खंडवा जिला पुलिस ने भी यह सुनिश्चित करने के कदम उठाए हैं कि उत्सव "अश्लीलता और विघ्न" से मुक्त रह सके. जिला पुलिस अधीक्षक मनोहर राय ने कहा कि गरबा आयोजकों को स्पष्ट निर्देश दिए गए हैं कि कार्यक्रम पूरी तरह से पारंपरिक तरीके से हों, अश्लील या आपत्तिजनक कुछ भी न चले. बॉलीवुड गीतों की बिल्कुल अनुमति नहीं होगी, ताकि इस त्योहार की सांस्कृतिक गरिमा बनी रहे.
खंडवा से लगभग 140 किलोमीटर दूर इंदौर जिले में, भाजपा की वरिष्ठ नेता और पूर्व संस्कृति मंत्री उषा ठाकुर ने भी इन मांगों का समर्थन किया. उन्होंने कहा, “समय आ गया है कि हमारे धार्मिक नेता सुनिश्चित करें कि गरबा पंडाल सिर्फ सच्चे साधकों (आध्यात्मिक साधकों) द्वारा आयोजित किए जाएं. महिलाओं और युवतियों द्वारा खुले या अनुचित कपड़ों में गरबा में शामिल होने की प्रवृत्ति चिंताजनक है. त्योहार की भावना के अनुरूप केवल पारंपरिक वस्त्र ही स्वीकार्य होने चाहिए.”
ठाकुर, जो लंबे समय से गरबा स्थलों पर गैर-हिंदुओं के प्रवेश को प्रतिबंधित करने की पक्षधर रही हैं, ने अपने रुख को दोहराते हुए कहा, “इस्लाम में मूर्तिपूजा वर्जित है, तो फिर उस समुदाय के सदस्य गरबा कार्यक्रमों में क्यों आते हैं, अक्सर अपनी असली पहचान छुपाकर? अगर वे वास्तव में सनातनी परंपराओं की ओर झुकाव रखते हैं, तो उन्हें हिंदू धर्म में लौट आना चाहिए.”
उनकी राय को उज्जैन से भाजपा सांसद अनिल फिरोजिया ने भी समर्थन दिया. उन्होंने कहा, “किसी भी गैर-हिंदू को गरबा पंडाल में प्रवेश नहीं दिया जाना चाहिए. पहचान प्रमाणपत्र, विशेषकर आधार कार्ड, के साथ कलावा और तिलक की जांच अनिवार्य होनी चाहिए. अगर कोई गैर-हिंदू पंडाल में पाया जाता है, तो पिछले वर्षों की तरह ही उस पर कानूनी कार्रवाई की जाए.” इसी तरह की चिंता भोपाल से भाजपा के तीन बार के विधायक रामेश्वर शर्मा ने भी जताई. उन्होंने कहा कि गरबा में शामिल होने वाले पुरुषों के लिए आवश्यक होना चाहिए कि उनके माथे पर तिलक हो, देवी का प्रसाद ग्रहण करें, धोती-कुर्ता पहनें और यथासंभव अपने माता-पिता और परिजनों को भी साथ लाएं. जो भी सनातन धर्म को अपनाना चाहता है और देवी आराधना में भाग लेना चाहता है, उसका स्वागत है.”
आकार पटेल : आरएसएस के सौंवे साल पर गोलवलकर की किताब को पढ़ना और उसके गड्डमड्ड से मतलब निकालने की कोशिश करना
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ अपनी शताब्दी और सांस्कृतिक तथा, विशेष रूप से, राजनीतिक क्षेत्र में अपनी शानदार सफ़लताओं का जश्न मना रहा है. जो पाठक इस संगठन, यानी हिंदुत्व विचारधारा के स्रोत, से परिचित हैं, लेकिन यह स्पष्ट रूप से नहीं जानते कि यह विशेष रूप से किसलिए है, उन्हें इस कॉलम से लाभ हो सकता है. आरएसएस के सबसे लंबे समय तक (1940 से 1973 तक 33 वर्ष) प्रमुख एम.एस. गोलवलकर थे. दो पुस्तकें उनके नाम से जुड़ी हैं, जिनमें से एक को संगठन स्वीकार नहीं करता. दूसरी, 'बंच ऑफ़ थॉट्स', यहाँ चर्चा का विषय है और हम देखेंगे कि इसमें क्या कहा गया है. यह ध्यान दिया जाना चाहिए कि यह उस अर्थ में एक किताब नहीं है कि यह एक लिखित कृति हो, बल्कि यह गोलवलकर के भाषणों, साक्षात्कारों और उनके अंशों का संकलन है. यह इसे एक ऊबड़-खाबड़ और बिखरा हुआ एहसास देता है, लेकिन फिर भी इसे पढ़ना सार्थक है. आगे जो है, वह इस स्तंभकार द्वारा गोलवलकर के विचारों का यथासंभव निष्पक्ष तरीक़े से की गई पेशकश है.
गोलवलकर कहते हैं कि आरएसएस ने ख़ुद को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ कहा, न कि हिंदू स्वयंसेवक संघ. ऐसा इसलिए था क्योंकि 'राष्ट्रीय' का स्वाभाविक अर्थ हिंदू है और इसलिए 'हिंदू' शब्द का उपयोग करने की आवश्यकता नहीं थी. आरएसएस के पहले प्रमुख केशव हेडगेवार ने कहा था: 'यदि हम हिंदू शब्द का उपयोग करते हैं तो इसका केवल यह अर्थ होगा कि हम ख़ुद को इस भूमि के अनगिनत समुदायों में से केवल एक मानते हैं और हम इस देश के राष्ट्रवासियों के रूप में अपनी स्वाभाविक स्थिति को महसूस नहीं करते हैं'.
सावरकर की हिंदू महासभा ने एक बार यह प्रस्ताव पारित करके ग़लती की थी कि कांग्रेस को मुस्लिम लीग के साथ बातचीत करके अपनी राष्ट्रवादी स्थिति नहीं छोड़नी चाहिए, बल्कि हिंदू महासभा को ऐसा करने के लिए कहना चाहिए. इसने मुसलमानों को बराबरी का दर्जा दे दिया और इस वास्तविकता को विकृत कर दिया कि भारत पूरी तरह से और केवल एक हिंदू राष्ट्र था.
संघवाद (फ़ेडरेलिज़्म) एक समस्या थी और इससे बाहर निकलने का एकमात्र तरीक़ा संविधान में संशोधन करके एकात्मक प्रकार की सरकार घोषित करने का साहस दिखाना था. देश एक था, लोग एक थे, और इसलिए भारत में केवल एक ही सरकार और एक ही विधायिका होनी चाहिए. कार्यकारी अधिकार वितरित किया जा सकता है, लेकिन विधायी अधिकार एक होना चाहिए और राज्यों को हस्तांतरित नहीं किया जाना चाहिए. पूरे देश के लिए एक केंद्रीय विधायिका को लोकतंत्र की माँगों को पूरा करना चाहिए.
भारत दुनिया में विशेष था क्योंकि उसने कुछ ऐसा पेश किया जो कोई और नहीं कर सकता था और वह था हिंदू विचार. हिंदू विचार की उत्कृष्टता यह थी कि केवल वही आत्मा की प्रकृति के बारे में कुछ जानता था. यह साबित किया जा सकता है क्योंकि केवल भारत में ही प्राचीन काल से व्यक्ति मानव स्वभाव के रहस्य, 'आत्मा के विज्ञान' को सुलझाने के लिए उठे. गोलवलकर कहते हैं कि ईसा ने शैतान को देखा और पैग़म्बर गेब्रियल से मिले. केवल भारत में ही ऋषियों ने वास्तव में ईश्वर को देखा. पश्चिमी लोग, चाहे वे पदार्थ के विज्ञान को कितना भी समझ लें, आत्मा के विज्ञान से अनभिज्ञ रहेंगे. यह अनूठी पेशकश ख़तरे में थी क्योंकि हिंदू अपने प्राचीन ज्ञान को छोड़ रहे थे और यह आरएसएस ही था जिसे भारत के भीतर उन्हें पुनर्जीवित करना और हिंदू समाज को संगठित करना था. यह उन चीज़ों को उलट कर ऐसा करेगा जो हिंदुओं को नुक़सान पहुँचा रही थीं. प्रगतिशील समाज बहुत अधिक छूट देने वाले थे. इससे सेक्स, भोजन, पेय, पारिवारिक जीवन और मुक्त सामाजिक मेलजोल के संबंध में अनैतिक व्यवहार को बढ़ावा मिला. इन चीज़ों से वास्तविक ख़ुशी नहीं मिली. व्यक्ति को ख़ुद को बड़े राष्ट्र में विलीन कर देना चाहिए, अन्यथा सामाजिक ताना-बाना नष्ट हो जाएगा. हिंदू दर्शन ने इसी को बढ़ावा दिया और यही हिंदुओं को ख़ुश करेगा.
सभी हिंदुओं के पास यह विशेष हिंदू ज्ञान नहीं था; केवल कुछ के पास था. आम जनमानस को ठीक से शिक्षित और प्रबुद्ध करने की आवश्यकता थी. उन्हें केवल साक्षर बनाने से उद्देश्य पूरा नहीं होगा क्योंकि यह विशेष ज्ञान तब भी अनुपस्थित रहेगा. लोग अन्य तरीक़ों से भी असमान थे. लोकतंत्र त्रुटिपूर्ण था क्योंकि यह विशेषज्ञों को बाहर रखता था और राजनेताओं को तरजीह देता था. पंचायतें तब सबसे अच्छा काम करती थीं जब उन्हें जाति के आधार पर चलाया जाता था, ताकि समग्र रूप से समाज के हितों का प्रतिनिधित्व हो सके. चुनाव प्रतिस्पर्धी नहीं बल्कि सर्वसम्मत होने चाहिए. (फिर से, अगर यह असंबद्ध और बिखरा हुआ लगता है, तो ऐसा इसलिए है क्योंकि 'बंच ऑफ़ थॉट्स' को इसी तरह से जोड़ा गया है).
भारत महासागरों से लेकर हिमालय तक का राष्ट्र था. न केवल पहाड़ों के किनारे तक, बल्कि उनके पार भी, यही कारण है कि प्राचीन लोगों के उत्तरी हिस्से में तीर्थ स्थान (कैलाश मानसरोवर) थे, जो इन क्षेत्रों को 'हमारी जीवंत सीमा' बनाते थे. तिब्बत देवताओं का निवास स्थान था और हिंदू महाकाव्य भी हिंदुओं को अफ़ग़ानिस्तान, बर्मा, ईरान और लंका का अधिकार देते हैं. भारत माता ने हज़ारों वर्षों तक, ईरान से सिंगापुर तक, दो समुद्रों में अपनी भुजाएँ डुबोई थीं, जिसमें श्रीलंका उनके पवित्र चरणों में अर्पित कमल की पंखुड़ी के समान था. भूमि पूजन इसलिए किया जाता था क्योंकि संपूर्ण पृथ्वी पवित्र थी, लेकिन भारत माता सबसे पवित्र थीं. उन्हें बुद्धि के माध्यम से जुड़ाव की नहीं, बल्कि पूर्ण भक्ति की आवश्यकता थी.
विभाजन अस्वीकार्य था क्योंकि यह भाइयों के बीच संपत्ति का बँटवारा नहीं था: कोई अपनी माँ को समझौते के रूप में नहीं काटता. हिंदू राष्ट्र की अवधारणा केवल राजनीतिक और आर्थिक अधिकारों का एक बंडल नहीं थी. यह मूल रूप से सांस्कृतिक थी, न कि राजनीतिक या क़ानूनी. यह ईश्वर की प्राप्ति की इच्छा के माध्यम से ख़ुद को प्रकट करती थी: एक 'जीवित' ईश्वर, न कि कोई मूर्ति या अमूर्त रूप. 'हमारे लोग ही हमारे ईश्वर हैं' यही प्राचीन लोगों ने कहा था. लेकिन उनका मतलब हमारे सभी लोगों से नहीं था. रामकृष्ण परमहंस और विवेकानंद ने कहा, 'मानव की सेवा करो.' लेकिन मानवता के अर्थ में मानव बहुत व्यापक है और उसे समझा नहीं जा सकता. यह कुछ सीमाओं के साथ एक सर्वशक्तिमान होना चाहिए. यहाँ मानव का अर्थ केवल हिंदू लोग थे. प्राचीन लोगों ने 'हिंदू' शब्द का इस्तेमाल नहीं किया था, लेकिन उन्होंने ऋग्वेद में कहा था कि सूर्य और चंद्रमा उसकी आँखें हैं, तारे और आकाश उसकी नाभि से बने हैं और ब्राह्मण सिर है, राजा हाथ हैं, वैश्य जाँघें हैं और शूद्र पैर हैं. जिन लोगों में यह चतुर्गुणी व्यवस्था थी, वे ही ईश्वर थे. इस जाति-परिभाषित समाज की सेवा और पूजा ही ईश्वर की सेवा थी.
इसमें और भी बहुत कुछ है, और हम इसे किसी और दिन उठाएँगे.
संजय के झा | 'वोट-चोरी' के आरोपों पर चाहिए विश्वसनीय समाधान, चालबाज़ी और बहाने नहीं
असली खतरा क्या है: लोकतंत्र की रक्षा के लिए लगाई गई गुहार, या उसे नष्ट करने की कोई कार्रवाई? लोकतंत्र तब खोखला होता है जब संवैधानिक सिद्धांतों को रौंदा जाता है, न कि तब जब कोई न्याय के लिए चिल्लाता है. दोष अनैतिक कार्यों को दें, न कि धार्मिक आक्रोश को. चुनावी कदाचार को लेकर मुख्य चुनाव आयुक्त (सीईसी) और प्रधानमंत्री को उतनी ही चिंता होनी चाहिए जितनी कि विपक्ष के नेता (एलओपी) को. राजनीतिक टीकाकार संजय झा ने द वायर में लिखे अपने कॉलम मे लोकतंत्र, संविधान और सरकार को लेकर कई सवाल उठाए हैं.
वे लिखते हैं, कि संविधान के अनुच्छेद 324 में सीईसी को निष्पक्ष चुनाव कराने का अधिकार दिया गया है, न कि सरकार के इशारे पर काम करने का. क्या यह सच नहीं है कि महाराष्ट्र में विपक्षी दलों ने 2024 में भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के नेताओं पर एक मोबाइल ऐप की मदद से वोट जोड़ने और हटाने का आरोप लगाते हुए शिकायत दर्ज कराई थी? क्या उस शिकायत पर कार्रवाई हुई?
भाजपा भी राहुल गांधी पर भारत के लोकतंत्र को पटरी से उतारने की साजिश रचने का आरोप लगाकर गलत दिशा में जा रही है. उनके द्वारा उठाए गए मुद्दे लोकतंत्र के स्वास्थ्य के लिए महत्वपूर्ण हैं और ईमानदार जवाब के पात्र हैं. उन्हें बदनाम करने या डराने-धमकाने के प्रयास राष्ट्र के लिए किसी काम के नहीं होंगे क्योंकि चिंता लोकतंत्र को लेकर है, कांग्रेस को लेकर नहीं.
चुनाव आयोग का काम कुछ महत्वपूर्ण चिंताओं का जवाब देना है: क्या राज्य के बाहर बैठे लोग वोटों को हटाने के लिए ऑनलाइन आवेदन दाखिल कर रहे हैं? थोक में मतदाताओं को जोड़ने और हटाने की शिकायतें इतनी आम क्यों हो गई हैं? वीडियो-रिकॉर्डिंग उन उम्मीदवारों को क्यों नहीं दी जा सकती जो इसकी मांग करते हैं?
प्रधानमंत्री को सिर्फ़ दो सवालों के जवाब देने हैं: इस कटु राजनीतिक माहौल को कम करने के लिए लोकतांत्रिक सहमति से सीईसी की नियुक्ति क्यों नहीं की जा सकती? और 2023 में चुनाव आयुक्तों को उनके कामों के कानूनी परिणामों से छूट देने के लिए कानून क्यों पारित किया गया?
17 सितंबर को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के 75वें जन्मदिन पर एक विवाद खड़ा हो गया, जब कुछ लोगों ने भाजपा पर जन्मदिन की शुभकामनाओं की लहर पैदा करने का आरोप लगाया. आलोचकों ने कहा कि यह अभियान यह दिखाने के लिए रचा गया था कि मोदी का आकर्षण अभी कम नहीं हुआ है. जैसे ही शाहरुख खान से लेकर मुकेश अंबानी तक, उद्योगपतियों, मशहूर हस्तियों और खेल सितारों ने वीडियो जारी किए, सोशल मीडिया पर संदेह का बादल मंडराने लगा.
सवाल यह उठता है: क्या मोदी को ऐसे समर्थन की ज़रूरत है? क्या एक नेता, जो 13 साल मुख्यमंत्री और 11 साल प्रधानमंत्री रहा हो, उसे इस तरह की प्रशंसा के ज़रिए लगातार अपनी छवि सुधारने की ज़रूरत है? क्या मोदी एक सच्चे नेता के रूप में ज़किया जाफ़री, स्टेन स्वामी, बिलकिस बानो या उमर खालिद जैसे लोगों की #MyModiStory पर ध्यान देंगे? क्या उन्हें अटल बिहारी वाजपेयी की प्रसिद्ध #MyModiStory याद है: 'राजधर्म का पालन करो'?
सरकार के MyGovIndia प्लेटफॉर्म ने 'कैसे मोदी ने सोए हुए शेर को जगाया' थीम पर एक अभियान चलाया. इसमें दावा किया गया कि भारत उनके कार्यकाल में "वैश्विक विनिर्माण केंद्र" बन गया है. हालांकि, आंकड़े एक अलग कहानी बताते हैं. भारत का कुल वैश्विक माल निर्यात में हिस्सा मुश्किल से 1.6% है जबकि चीन का हिस्सा 14.33% है.
आज़ादी के बाद पहले कुछ दशकों में, भारत ने सार्वजनिक क्षेत्र की इकाइयों, स्वास्थ्य सेवा, शिक्षा और नागरिक बुनियादी ढांचे का एक बड़ा नेटवर्क स्थापित किया था. हरित क्रांति से लेकर अंतरिक्ष प्रौद्योगिकी तक, थर्मल पावर से लेकर परमाणु ऊर्जा तक, "सोए हुए शेर" ने यह सब प्रचार के शोर के बिना हासिल किया था.
अमेरिका के विरोध के बावजूद ब्रिटेन, कनाडा और ऑस्ट्रेलिया ने फिलीस्तीनी राज्य को मान्यता दी
ब्रिटेन, कनाडा और ऑस्ट्रेलिया ने रविवार को पुष्टि की कि वे अब औपचारिक रूप से फिलिस्तीनी राज्य को मान्यता देते हैं. इस फैसले से इज़राइल पर गाजा में मानवीय संकट को कम करने का दबाव बढ़ गया है और तीन बड़े अमेरिकी सहयोगी देशों की स्थिति ट्रम्प प्रशासन से टकराव में आ गई है. लंबे समय से अपेक्षित ये घोषणाएं न्यूयॉर्क में होने वाली संयुक्त राष्ट्र महासभा की वार्षिक बैठक की पूर्व संध्या पर आईं. “द न्यूयॉर्क टाइम्स” के अनुसार, फ्रांस और पुर्तगाल ने भी इस सप्ताह संयुक्त राष्ट्र में फिलिस्तीनी राज्य की मान्यता के पक्ष में मतदान करने का वादा किया है, जिससे वे उन लगभग 150 सदस्य देशों में शामिल हो जाएंगे, जिन्होंने पहले ही ऐसा कर दिया है. तीन महाद्वीपों में फैली यह समन्वित कार्रवाई इज़राइल के प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू की कूटनीतिक अलगाव की स्थिति को और गहरा कर देगी. लेकिन अब तक फिलिस्तीनी राज्य को मान्यता देने की इन पहलों से इज़राइल के हमास के खिलाफ सैन्य अभियान पर कोई रोक नहीं लगी है, जिसने गाजा में दसियों हज़ार लोगों की जान ले ली है और इस पूरे क्षेत्र के बड़े हिस्से को खंडहर में बदल दिया है. यह कदम दो-राष्ट्र समाधान का समर्थन करने के उद्देश्य से उठाया गया है, भले ही इसका अमेरिका ने कड़ा विरोध किया और इज़राइल ने नाराज़गी जाहिर की. प्रधानमंत्री मार्क कार्नी ने “एक्स” पर कनाडा की मान्यता की घोषणा करते हुए जुलाई में दिए अपने बयान को दोहराया. उन्होंने कहा कि पश्चिमी देशों में गाज़ा में बढ़ते संघर्ष को लेकर निराशा बढ़ रही है. हमें उम्मीद है कि यह शांति के उस रास्ते को मजबूत करेगा, जो दो राज्यों के साथ-साथ रहने पर आधारित है.
‘एपी’ की रिपोर्ट के मुताबिक, ऑस्ट्रेलिया ने भी पुष्टि की कि उसने औपचारिक रूप से फिलीस्तीनी राज्य को मान्यता दे दी है. वह उन देशों की श्रृंखला में शामिल हो गया है, जो इस हफ्ते होने वाली संयुक्त राष्ट्र महासभा से पहले इसी तरह के कदम उठा रहे हैं. उम्मीद है कि फ्रांस और अन्य देश भी इस दिशा में आगे बढ़ेंगे, जबकि ब्रिटेन और पुर्तगाल रविवार को ही मान्यता की घोषणा कर सकते हैं. अमेरिका और इज़राइल ने इस कदम की आलोचना करते हुए कहा कि इससे उग्रपंथियों का हौसला बढ़ेगा और हमास को इनाम जैसा संदेश जाएगा. यह मान्यता ऐसे समय पर सामने आई है जब गाज़ा में युद्ध और अधिक तीव्र हो गया है और अंतरराष्ट्रीय दबाव लगातार बढ़ रहा है कि समाधान निकाला जाए. पश्चिमी देश अब स्थायी शांति हासिल करने के लिए नए सिरे से कूटनीतिक प्रयासों की वकालत कर रहे हैं.
महालय पर आपने 'महिषासुरमर्दिनी' का कौन-सा संस्करण सुना?
एक औसत बंगाली के लिए, महालय की सुबह बीरेंद्र कृष्ण भद्र के प्रतिष्ठित संस्कृत स्तोत्र मंत्रों के साथ शुरू होती है. उनकी प्रसिद्ध आवाज़ देवीपक्ष का आगमन करती है, जो पितृपक्ष के अंत का प्रतीक है. यह रेडियो कार्यक्रम 'महिषासुरमर्दिनी' ऑल इंडिया रेडियो द्वारा 1931 से प्रसारित किया जा रहा है.
लेकिन यहां एक छोटा सा रहस्य है. संभव है कि आप 'महिषासुरमर्दिनी' का जो संस्करण सुन रहे हैं, वह आपके पड़ोसी द्वारा सुने जा रहे संस्करण जैसा न हो. ऐसा इसलिए है क्योंकि 'महिषासुरमर्दिनी' का रेडियो संस्करण अतीत में कई बार रिकॉर्ड किया गया था. दशकों से, ऑल इंडिया रेडियो और निजी रेडियो स्टेशनों ने प्रसारण के विभिन्न संस्करणों को प्रसारित किया है—कुछ आकाशवाणी स्टूडियो में फिर से रिकॉर्ड किए गए, कुछ रीमास्टर किए गए, और कुछ धूल भरे अभिलेखागार से फिर से खोजे गए. आकाशवाणी कोलकाता की उप महानिदेशक सुचिस्मिता रॉय ने हाल ही में घोषणा की कि रेडियो स्टेशन इस साल 'महिषासुरमर्दिनी' का 1972 का संस्करण प्रसारित करेगा. आकाशवाणी के अधिकारियों को भी यह बताने में कठिनाई होती है कि कार्यक्रम के कितने संस्करण मौजूद हैं. आकाशवाणी में प्रोग्रामिंग प्रमुख के सहायक निदेशक, किंशुक सरकार के अनुसार, सबसे लोकप्रिय संस्करण 1962, 1966 और 1972 में रिकॉर्ड किए गए थे. उन्होंने यह भी कहा कि आकाशवाणी ने रेडियो कार्यक्रम की ऑडियो रिकॉर्डिंग के अधिकार एचएमवी (अब सारेगामा) को बेच दिए थे, जिसके परिणामस्वरूप शो के कैसेट और सीडी संस्करणों की व्यापक बिक्री हुई और निजी एफएम स्टेशनों को अपने चैनलों पर कार्यक्रम प्रसारित करने की अनुमति मिली. लेकिन कौन सा स्टेशन कौन सा संस्करण प्रसारित करता है? रहस्य यहीं से शुरू होता है. कोई भी निश्चित रूप से नहीं जानता. शायद यही 'महिषासुरमर्दिनी' का असली जादू है—यह पुरानी यादों का अहसास और भद्र की आवाज़ का चिरस्थायी खिंचाव है जो हमें हर साल अपने रेडियो सेट पर प्ले बटन दबाने के लिए मजबूर करता है.
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