23/08/2025 : भ्रष्टाचार पर मोदी के दावे और असलियत | घुसपैठियों का ख़ौफ़ है, आंकड़ा नहीं | न नायडू से पूछा, न नितीश से | गाज़ा में मानवनिर्मित अकाल घोषित | केरल 100% डिजिटल साक्षर
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निधीश त्यागी, साथ में राजेश चतुर्वेदी, गौरव नौड़ियाल
आज की सुर्खियाँ
भ्रष्टाचार फैक्ट-चैक: भाजपा में शामिल हुए 25 में से 23 आरोपी नेताओं को जांच में 'राहत' मिली.
विवादास्पद विधेयक: 30 दिन हिरासत में रहने पर पीएम/सीएम को पद से हटाने का विधेयक पेश, सहयोगियों से सलाह नहीं ली गई.
बिहार मतदाता सूची: सुप्रीम कोर्ट ने सूची से हटाए गए 65 लाख लोगों को ऑनलाइन दावा पेश करने की अनुमति दी.
चुनाव आयोग पर सवाल: बिहार मतदाता सूची पुनरीक्षण में आयोग की प्रक्रिया पर गंभीर सवाल उठे.
J&K पुलिसकर्मी यातना: पुलिस हिरासत में यातना के मामले में CBI ने 6 पुलिसकर्मियों को गिरफ्तार किया.
घुसपैठियों पर डेटा नहीं: विशेषज्ञ के अनुसार, भारत में अवैध आप्रवासियों की संख्या का कोई विश्वसनीय आंकड़ा नहीं है.
गाजा में अकाल: संयुक्त राष्ट्र ने गाजा में 'मानव निर्मित' अकाल की आधिकारिक पुष्टि की.
नाम बदला: यूपी के जलालाबाद कस्बे का नाम अब 'परशुरामपुरी' हो गया है.
ट्रंप के सलाहकार पर छापा: FBI ने ट्रंप के पूर्व राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार जॉन बोल्टन के घर छापा मारा.
केरल की उपलब्धि: केरल 100% डिजिटल साक्षरता हासिल करने वाला देश का पहला राज्य बना.
मोदी की भ्रष्टाचार के ख़िलाफ लड़ाई का थोड़ा सा फैक्ट चैक
चुनावी राज्य बिहार में एक जनसभा को संबोधित करते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने शुक्रवार (22 अगस्त, 2025) को कहा कि संसद में पेश किए गए नए विधेयक के साथ, "अब हर भ्रष्ट व्यक्ति जेल जाएगा, चाहे वह प्रधानमंत्री हो या मुख्यमंत्री." वहीं पश्चिम बंगाल में उन्होंने कहा, “पिछले 11 वर्षों से देश भ्रष्टाचार के खिलाफ एक दृढ़ लड़ाई लड़ रहा है. विपक्षी “इंडिया गठबंधन, जिसमें तृणमूल कांग्रेस भी शामिल है, पर आरोप लगाया गया कि ये भ्रष्टाचार को संरक्षण दे रहे हैं और सार्वजनिक जीवन में ईमानदारी सुनिश्चित करने वाले विधायी कदमों का विरोध कर रहे हैं.
मोदी ने अपने भाषणों में पिछले 11 वर्षों में भ्रष्टाचार के खिलाफ कथित दृढ़ लड़ाई का जिक्र करके उन नामों की याद दिला दी, जो केंद्रीय जांच एजेंसियों ईडी और सीबीआई की कार्रवाई से परेशान थे, लेकिन भाजपा में शामिल होने के बाद अब सुकून का राजनीतिक जीवन जी रहे हैं. इनमें भी कुछ को तो ऊंचे ओहदे मिल गए हैं. जैसे असम के सीएम हिमंता बिस्वा सरमा.
पिछले साल अप्रैल 2024 में अंग्रेजी अखबार “द इंडियन एक्सप्रेस” में दीप्तिमान तिवारी ने एक स्टोरी की थी, जिसमें बताया गया था कि 2014, यानी बीजेपी के सता में आने के बाद, से अप्रैल 2024 तक भ्रष्टाचार के आरोपों में केंद्रीय एजेंसियों की कार्रवाई का सामना कर रहे कुल 25 प्रमुख नेता भाजपा में शामिल हो चुके थे. ये विभिन्न राजनीतिक दलों से आते हैं : जैसे-कांग्रेस के 10, राकांपा और शिवसेना के चार-चार, तृणमूल कांग्रेस के तीन, तेलुगुदेशम पार्टी के दो और समाजवादी पार्टी व वाईएसआर कांग्रेस से एक-एक नेता.
इनमें से 23 मामलों में, नेताओं के इस राजनीतिक फैसले का परिणाम यह हुआ कि उन्हें “राहत” मिल गई. विपक्ष इसीलिए “वाशिंग मशीन” कहकर भाजपा पर तंज़ कसता है. पिछले 11 सालों में ऐसा कई बार देखा गया है कि सत्तारूढ़ बीजेपी या प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भ्रष्टाचार को लेकर विरोधी दलों के जिन नेताओं पर निशाना साधा, बाद में उनको ही पार्टी में ले लिया गया.
“इंडियन एक्सप्रेस” में प्रकाशित विस्तृत रिपोर्ट में असम के मुख्यमंत्री हिमंता बिस्वा सरमा, महाराष्ट्र के उप मुख्यमंत्री अजीत पवार, प्रफुल्ल पटेल, नवीन जिंदल, पूर्व मुख्यमंत्री अशोक चौहान, शुभेंदु अधिकारी, ज्योति मिर्धा, टीडीपी के वाईएस चौधरी, तापस रॉय, संजय सेठ, मधु कोड़ा, गीता कोड़ा, छगन भुजबल, प्रताप सरनाईक, सुदीप्त सेन, हसन मुश्रीफ, यामिनी यशवंत जाधव, कृपा शंकर सिंह, पंजाब के रवींद्र सिंह, दिगंबर कामत, मुकुल रॉय सहित 25 नेताओं के नाम शामिल हैं. इन सभी पर भ्रष्टाचार के कथित आरोपों में केंद्रीय जांच एजेंसियों ने कार्रवाई शुरू की थी, लेकिन भाजपा में शामिल होने के बाद सारे आरोप एक-एक कर साफ होते गए. दाग धुलते गए. इनमें भी असम के मुख्यमंत्री हिमंता बिस्वा सरमा और महाराष्ट्र के डिप्टी सीएम अजीत पवार का मामला तो अकसर याद किया जाता है. हिमंता के बारे में मौजूदा केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह तो अजीत के बारे में स्वयं प्रधानमंत्री मोदी ने भोपाल की सभा में 70 हजार करोड़ के भ्रष्टाचार का आरोप लगाया था.
बिहार मतदाता सूची
आधार से ऑनलाइन दावों की दी अनुमति, राजनीतिक दलों से भागीदार होने को कहा
बिहार में मतदाता सूची से 65 लाख से ज़्यादा लोगों के नाम हटाए जाने को लेकर चल रहे विवाद में सुप्रीम कोर्ट ने शुक्रवार को एक अहम फैसला सुनाया. अदालत ने चुनाव आयोग (ECI) को निर्देश दिया है कि जिन लोगों के नाम मसौदा मतदाता सूची से हटा दिए गए हैं, वे अब आधार कार्ड या 11 अन्य स्वीकृत दस्तावेज़ों में से किसी एक का उपयोग करके ऑनलाइन भी अपना दावा पेश कर सकते हैं. जस्टिस सूर्य कांत और जस्टिस जयमाल्य बागची की पीठ ने राजनीतिक दलों की घोर निष्क्रियता पर आश्चर्य और नाराज़गी व्यक्त करते हुए उन्हें भी इस प्रक्रिया में शामिल होने का निर्देश दिया है.
यह मामला बिहार में चुनाव से पहले हो रहे विशेष गहन पुनरीक्षण (Special Intensive Revision - SIR) से जुड़ा है, जिसकी घोषणा 24 जून को की गई थी. 2003 के बाद राज्य में यह पहला ऐसा पुनरीक्षण है, जिसके चलते कुल मतदाताओं की संख्या 7.9 करोड़ से घटकर 7.24 करोड़ रह गई है. विपक्ष का आरोप है कि यह मतदाताओं को बड़े पैमाने पर मताधिकार से वंचित करने का एक प्रयास है. गैर-सरकारी संगठन ‘एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स’ (ADR) और अन्य ने इस प्रक्रिया की वैधता और समय को लेकर सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की थी.
सुनवाई के दौरान सुप्रीम कोर्ट की पीठ ने राजनीतिक दलों के रवैये पर तीखी टिप्पणी की. पीठ ने कहा, "हम यह देखकर हैरान हैं... कि 1,60,813 बूथ लेवल एजेंट (BLA) होने के बावजूद अब तक केवल दो आपत्तियां ही दर्ज कराई गई हैं." अदालत ने आगे कहा, "दूसरी ओर, कुछ राजनीतिक दल, जिनका प्रतिनिधित्व वकील कर रहे हैं, ने दलील दी है कि उनके बीएलए को आपत्तियां जमा करने की अनुमति नहीं दी जा रही है." अदालत ने बिहार के 12 प्रमुख राजनीतिक दलों को मामले में पक्षकार बनाने का निर्देश दिया और कहा कि वे एक हलफनामा दाखिल कर बताएं कि उनके कार्यकर्ताओं ने कितने बाहर किए गए मतदाताओं की दावा फॉर्म भरने में मदद की है.
एडीआर की ओर से पेश वकील प्रशांत भूषण ने मांग की कि आयोग की वेबसाइट पर यह भी बताया जाना चाहिए कि नाम शामिल करने के लिए आवेदन के साथ कौन सा दस्तावेज़ जमा किया गया है. हालांकि, अदालत ने इस पर फैसला लेने का काम चुनाव आयोग पर छोड़ दिया.
राजद सांसद मनोज झा की ओर से पेश वरिष्ठ वकील कपिल सिब्बल ने इस पूरी प्रक्रिया के लिए और समय देने की मांग करते हुए कहा कि 30 सितंबर तक अंतिम सूची प्रकाशित करने के लिए समय बहुत कम है.
चुनाव आयोग की ओर से पेश वरिष्ठ वकील राकेश द्विवेदी ने अदालत से 15 दिन का समय मांगा. उन्होंने कहा, "राजनीतिक दल हंगामा कर रहे हैं जबकि हालात उतने बुरे नहीं हैं. हम पर भरोसा रखें और हमें कुछ और समय दें. हम यह दिखा देंगे कि किसी भी वास्तविक मतदाता को बाहर नहीं किया गया है."
अदालत के प्रमुख निर्देश
मतदाता सूची से बाहर किए गए लोग अब 1 सितंबर, 2025 तक आधार कार्ड या 11 अन्य स्वीकृत दस्तावेज़ों में से किसी एक के साथ ऑनलाइन दावा फॉर्म जमा कर सकते हैं.
राजनीतिक दलों के बूथ लेवल एजेंट (BLA) को उन 65 लाख लोगों (मृतकों या स्थायी रूप से स्थानांतरित लोगों को छोड़कर) की आपत्तियां जमा कराने में हरसंभव सहायता करने का निर्देश दिया गया है.
जहां भी भौतिक रूप से फॉर्म जमा किए जाते हैं, वहां बूथ लेवल अधिकारी (BLO) को उसकी पावती रसीद देनी होगी. हालांकि, यह रसीद इस बात का प्रमाण नहीं होगी कि फॉर्म हर तरह से पूरा है.
सभी 12 प्रमुख राजनीतिक दल 8 सितंबर को अगली सुनवाई तक एक स्टेटस रिपोर्ट दाखिल करेंगे कि उन्होंने कितने लोगों की दावा दाखिल करने में मदद की.
इस मामले में अगली सुनवाई 8 सितंबर, 2025 को होगी. अदालत ने कहा, "हमने एक आदेश पारित किया है, और हम यह देखने का बेसब्री से इंतज़ार कर रहे हैं कि इसका पालन कैसे किया जाता है." इस बीच, कांग्रेस ने सुप्रीम कोर्ट के निर्देश का स्वागत करते हुए इसे "लोकतंत्र की जीत" बताया है और कहा कि चुनाव आयोग "पूरी तरह से बेनकाब और बदनाम" हो गया है.
चुनाव आयोग अपने ही मानकों पर खरा नहीं उतरा
द इंडियन एक्सप्रेस में रितिका चोपड़ा की एक खोजी रिपोर्ट ने बिहार में चल रहे विवादास्पद विशेष गहन पुनरीक्षण (एसआईआर) को लेकर चुनाव आयोग के दावों में गंभीर विरोधाभासों को उजागर किया है. यह रिपोर्ट ऐसे समय में आई है जब सुप्रीम कोर्ट इस मामले की सुनवाई कर रहा है. चुनाव आयोग इस कवायद का यह कहकर बचाव कर रहा है कि यह 2002-03 में हुए पिछले गहन पुनरीक्षण की तरह ही है, लेकिन रिपोर्ट से पता चलता है कि वर्तमान प्रक्रिया कई मायनों में अपने ही पिछले मानकों से बहुत अलग और अधिक कठोर है.
रिपोर्ट तीन प्रमुख विरोधाभासों पर ध्यान केंद्रित करती है जो चुनाव आयोग के पक्ष को कमजोर करते हैं:
समय-सीमा में भारी अंतर: रिपोर्ट का सबसे चौंकाने वाला खुलासा समय-सीमा को लेकर है. वर्तमान में बिहार में पूरी एसआईआर प्रक्रिया, जिसमें प्रशिक्षण, घर-घर सत्यापन और दावों का निपटान शामिल है, को केवल 97 दिनों में पूरा करने का लक्ष्य है. इसके ठीक विपरीत, 2002-03 में बिहार सहित सात राज्यों में इसी प्रक्रिया के लिए आठ महीने (लगभग 243 दिन) का समय दिया गया था. यह इस बात पर गंभीर सवाल उठाता है कि क्या इतने कम समय में इतनी बड़ी और संवेदनशील कवायद को बिना त्रुटियों के पूरा किया जा सकता है.
नागरिकता के प्रमाण पर बदला रुख: चुनाव आयोग ने सुप्रीम कोर्ट में तर्क दिया है कि 2003 की मतदाता सूची में शामिल मतदाताओं की नागरिकता को एक तरह से सिद्ध माना जाना चाहिए. हालांकि, इंडियन एक्सप्रेस की रिपोर्ट बताती है कि 2002-03 के पुनरीक्षण के दौरान, मौजूदा मतदाताओं से उनकी नागरिकता का कोई प्रमाण मांगा ही नहीं गया था. नागरिकता की जांच केवल कुछ विशेष मामलों, जैसे कि पहली बार पंजीकरण कराने वाले या विदेशी नागरिकों की बड़ी आबादी वाले क्षेत्रों तक ही सीमित थी. इस बार, 2003 के बाद पंजीकृत मतदाताओं से 11 प्रकार के दस्तावेज़ों की मांग की जा रही है, जो कि पिछली प्रक्रिया के बिल्कुल विपरीत है.
वोटर आईडी कार्ड (एपिक) की भूमिका: तीसरा बड़ा विरोधाभास वोटर आईडी कार्ड (एपिक) को लेकर आयोग के बदलते रुख से संबंधित है. रिपोर्ट के अनुसार, 2002-03 के पुनरीक्षण में, एपिक सत्यापन प्रक्रिया की "रीढ़ की हड्डी" थी और अधिकारियों को हर घर में इसे जांचने का निर्देश दिया गया था. लेकिन अब, दो दशक बाद, आयोग सुप्रीम कोर्ट में यह दलील दे रहा है कि एपिक को पात्रता के प्रमाण के रूप में स्वीकार नहीं किया जा सकता क्योंकि मतदाता सूची नए सिरे से (de novo) तैयार की जा रही है.
यह रिपोर्ट स्पष्ट रूप से दर्शाती है कि बिहार में चल रही वर्तमान मतदाता सूची पुनरीक्षण प्रक्रिया न केवल जल्दबाजी में की जा रही है, बल्कि यह दस्तावेज़ीकरण के मामले में कहीं अधिक कठोर है और उस वोटर आईडी कार्ड की अहमियत को भी नकारती है जिसे कभी सत्यापन का मुख्य आधार माना जाता था. ये तथ्य सुप्रीम कोर्ट में याचिकाकर्ताओं के उन तर्कों को बल देते हैं कि यह प्रक्रिया अनुचित है और इससे लाखों वास्तविक नागरिक अपने मताधिकार से वंचित हो सकते हैं.
विश्लेषण
आनंद तेलतुंबडे : लोकतंत्र के आखिरी स्तंभ का पतन या भाजपा की रणनीतिक ढाल?
प्रसिद्ध लेखक और नागरिक अधिकार कार्यकर्ता आनंद तेलतुंबडे ने द वायर में लिखे अपने विश्लेषण में भारतीय चुनाव आयोग की निष्पक्षता पर गंभीर और चिंताजनक सवाल उठाए हैं. उनका तर्क है कि चुनाव आयोग, जो कभी भारतीय लोकतंत्र का सबसे मजबूत स्तंभ माना जाता था, अब अपनी स्वायत्तता खो चुका है और सत्ताधारी भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के लिए एक "रणनीतिक ढाल" के रूप में काम कर रहा है. तेलतुंबडे एक भयावह तस्वीर पेश करते हुए कहते हैं कि यदि आयोग जनता के जनादेश की परवाह किए बिना परिणाम घोषित करता है, तो भाजपा को सामान्य चुनावी प्रक्रिया के माध्यम से सत्ता से हटाना असंभव हो जाएगा.
तेलतुंबडे अपने तर्कों को पुष्ट करने के लिए कई घटनाओं की एक श्रृंखला का हवाला देते हैं. इसकी शुरुआत मार्च 2023 में पारित उस विवादास्पद कानून से होती है, जिसने चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति प्रक्रिया को बदल दिया. इस कानून के तहत, चयन पैनल से भारत के मुख्य न्यायाधीश (CJI) को हटा दिया गया और उनकी जगह प्रधानमंत्री द्वारा नामित एक कैबिनेट मंत्री को शामिल किया गया. तेलतुंबडे के अनुसार, इस बदलाव ने प्रभावी रूप से नियुक्तियों पर कार्यपालिका का पूर्ण नियंत्रण स्थापित कर दिया. वे चुनाव आयुक्त अरुण गोयल के मामले को इस संस्थागत क्षरण के एक प्रमुख उदाहरण के रूप में प्रस्तुत करते हैं, जिनकी अचानक स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति के ठीक अगले दिन नियुक्ति और फिर लोकसभा चुनाव से ठीक पहले उनका इस्तीफा और बाद में राजदूत के रूप में नियुक्ति, संवैधानिक पदों के "लेन-देन के सौदे" में बदलने की ओर इशारा करती है.
लेख में 2024 के लोकसभा चुनावों के बाद हरियाणा और महाराष्ट्र के विधानसभा चुनावों में आए "आश्चर्यजनक" परिणामों पर भी प्रकाश डाला गया है, जो जमीनी हकीकत और सत्ता-विरोधी लहर के विपरीत थे. विशेष रूप से महाराष्ट्र में, जहां लोकसभा चुनाव में भाजपा को करारी हार का सामना करना पड़ा था, वहीं कुछ ही महीनों बाद विधानसभा चुनाव में उसकी शानदार जीत ने राजनीतिक विश्लेषकों को हैरान कर दिया. तेलतुंबडे चुनाव आयोग के पक्षपाती व्यवहार के ठोस उदाहरण भी देते हैं. वे बेंगलुरु सेंट्रल लोकसभा क्षेत्र का जिक्र करते हैं, जहां कांग्रेस की शुरुआती बढ़त के बावजूद, एक विशेष सेगमेंट में वोटों में असामान्य उछाल के बाद भाजपा जीत गई. जब कांग्रेस ने डिजिटल मतदाता सूची की मांग की, तो आयोग ने इनकार कर दिया. बाद में हुई एक जांच में उस क्षेत्र में 1 लाख से अधिक डुप्लिकेट मतदाता, फर्जी पते और अमान्य तस्वीरों जैसी गंभीर अनियमितताएं पाई गईं.
तेलतुंबडे बिहार में चल रहे विशेष गहन पुनरीक्षण (एसआईआर) को भाजपा की एक सोची-समझी राजनीतिक रणनीति का हिस्सा मानते हैं, जिसका उद्देश्य उन समुदायों के लाखों मतदाताओं, विशेषकर समाज के निचले तबके के लोगों को मताधिकार से वंचित करना है, जो पारंपरिक रूप से भाजपा के वोटर नहीं हैं. वे अपने विश्लेषण का अंत इस निराशाजनक टिप्पणी के साथ करते हैं कि यदि चुनाव परिणाम घोषित करने वाली अंतिम संस्था ही निष्पक्ष न रहे, तो लोगों के पास क्या उपाय बचेगा. उनके शब्दों में, यह "भारतीय लोकतंत्र के लिए एक शोकगीत लिखने का समय" हो सकता है.
पनवेल में 11000 वोट दो से अधिक बार डाले गए
पिछले कुछ वर्षों में शोधकर्ताओं, पत्रकारों और यहां तक कि राजनीतिक दलों द्वारा उजागर की गई मतदाता धोखाधड़ी से जुड़ी सूक्ष्म शिकायतों पर चुनाव आयोग की मानक प्रतिक्रिया यह रही है कि चुनाव नतीजे से सबसे ज्यादा प्रभावित– यानी हारने वाले उम्मीदवार– ने कभी भी परिणाम को लेकर शिकायत दर्ज नहीं की है. इसीलिए “फ्रंटलाइन” के ताज़ा अंक में प्रकाशित अमेय तिरोडकर की रिपोर्ट का काफी महत्व है.
उन्होंने 2024 के महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव में पनवेल से विपक्षी महाविकास आघाड़ी (एमवीए) के उम्मीदवार बालाराम पाटिल के संघर्ष पर ध्यान केंद्रित किया है. पाटिल ने सबूत जुटाए थे कि उनके निर्वाचन क्षेत्र में कम से कम 25,855 नाम ऐसे थे जो एक से अधिक बार दर्ज हुए थे, और इस आधार पर उन्होंने चुनाव आयोग और बाद में अदालतों से कार्रवाई की मांग की थी. लेकिन 2024 के विधानसभा चुनाव से पहले इन अतिरिक्त ‘मतदाताओं’ के नाम हटवाने के प्रयास विफल रहे और अंततः वे भाजपा उम्मीदवार से 51,000 मतों से हार गए.
इसके बाद पाटिल और उनकी टीम ने अपनी जांच जारी रखी. इस बार उन्होंने चिन्हित किए गए बूथ-स्तरीय मतदाता सूचियों का अध्ययन किया, ताकि यह पता लगाया जा सके कि जो नाम किसी निर्वाचन क्षेत्र में एक से अधिक बार दर्ज थे, क्या उन्होंने मतदान भी एक से अधिक बार किया था. चूंकि चुनाव आयोग ने प्रमाण उपलब्ध कराने से इनकार कर दिया, पाटिल ने अपने बूथ-स्तरीय सहायकों द्वारा सुरक्षित की गई सूचियों के आधार पर गणना करवाई.
इस प्रक्रिया में यह सामने आया कि कुल 11,628 मत ऐसे थे जो दो या उससे अधिक बार डाले गए थे. यह संख्या भले ही हार के अंतर से कम हो, लेकिन इतनी बड़ी ज़रूर है कि चुनाव आयोग को उस पर गंभीरता से गौर करना चाहिए. परंतु चुनाव आयोग ने इस दिशा में जांच करने में कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई.
घुसपैठिये कितने, सिर्फ अंदाजा है, आंकड़ा नहीं
हाल ही में प्रधानमंत्री द्वारा एक उच्च-शक्ति जनसांख्यिकी मिशन की घोषणा के बाद भारत में अवैध आप्रवासन का मुद्दा एक बार फिर चर्चा में है. इस संदर्भ में, जनसांख्यिकी और प्रवासन के विशेषज्ञ प्रोफेसर एस. इरुदया राजन ने 'द वायर' को दिए एक साक्षात्कार में महत्वपूर्ण बातें सामने रखी हैं. उनका कहना है कि भारत में अवैध आप्रवासियों की संख्या को लेकर हमारे पास केवल "अनुमान" हैं, जो गैर-जनसांख्यिकी विशेषज्ञों द्वारा लगाए गए हैं. ये संख्या लाखों में भी हो सकती है और करोड़ों में भी, लेकिन विश्वसनीय और भरोसेमंद आंकड़ों का भारी अभाव है.
प्रोफेसर राजन ने स्पष्ट किया कि तथाकथित अवैध आप्रवासन, जिसे वे गैर-दस्तावेजी प्रवासन कहते हैं, एक विश्वव्यापी घटना है. उन्होंने इस बात पर जोर दिया कि लाखों भारतीय भी यूरोप और अमेरिका जैसे देशों में अवैध रूप से रह रहे हैं. उन्होंने कहा कि अगर बांग्लादेश से आने वाले अवैध अप्रवासी केवल बेहतर आर्थिक अवसरों की तलाश में आ रहे हैं, तो यह एक गंभीर समस्या नहीं है. हालांकि, अगर वे अपराधी हैं, तो सौ लोग भी एक बड़ी समस्या बन सकते हैं.
उनके अनुसार, 1.4 अरब की आबादी वाले देश के लिए कुछ लाख या दस लाख अवैध आप्रवासियों का जनसांख्यिकीय प्रभाव लगभग नगण्य है. यह प्रभाव दशमलव के कई अंकों के बाद आएगा और इसका असर केवल कुछ सीमावर्ती राज्यों तक ही सीमित रहेगा, न कि पूरे देश पर. प्रोफेसर राजन का मानना है कि इस समस्या का समाधान तीन से छह महीने के भीतर हो सकता है. इसके लिए उन्होंने एक "एमनेस्टी" (आम माफ़ी) का सुझाव दिया. इसके तहत सरकार अवैध रूप से रह रहे लोगों की पहचान कर उन्हें या तो नागरिकता प्रदान कर सकती है या फिर एक उचित प्रक्रिया के तहत उन्हें निर्वासित कर सकती है.
प्रोफेसर राजन ने यह भी कहा कि जनसांख्यिकी का दायरा केवल अवैध आप्रवासन तक सीमित नहीं है. इसमें आंतरिक प्रवासन, धर्म, भाषा, लिंग और बढ़ती उम्र की आबादी जैसे कई अन्य महत्वपूर्ण मुद्दे शामिल हैं, जिन पर तत्काल ध्यान देने की आवश्यकता है. उन्होंने कहा कि अगर उन्हें प्रधानमंत्री के जनसांख्यिकी मिशन में शामिल होने के लिए आमंत्रित किया जाता है, तो वे इसे स्वीकार करेंगे ताकि यह सुनिश्चित हो सके कि भविष्य में इस विषय पर केवल विश्वसनीय और विशेषज्ञों द्वारा तैयार किए गए आंकड़े ही प्रस्तुत किए जाएं, न कि गैर-विशेषज्ञों के अनुमान.
विवादास्पद 130वां संविधान संशोधन विधेयक
नीतीश और नायडू को विश्वास में नहीं लिया
शोभना के. नायर की रिपोर्ट के अनुसार, तीन विवादास्पद विधेयकों को लेकर भाजपा का रवैया, एक बार फिर से एनडीए के भीतर उसके अहंकार को उजागर करता है. जनता दल (यू) और तेलुगु देशम पार्टी – जो एनडीए के प्रमुख सहयोगी हैं – को मंगलवार को लोकसभा सदस्यों के बीच इन विधेयकों को पेश करने से पहले “न तो सूचित किया गया और न ही परामर्श किया गया.” जबकि ये सहयोगी हाशिये पर खड़े दल नहीं, बल्कि गठबंधन के स्तंभ हैं, फिर भी उन्हें ऐसे कानून पर पूरी तरह अंधेरे में रखा गया, जो प्रस्तावित करता है कि प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्री और मंत्री यदि “गंभीर आपराधिक आरोपों के तहत गिरफ्तार होकर हिरासत में लिए जाते हैं, तो उन्हें पद से हटा दिया जाएगा.”
एक तरह से भाजपा, जो सुविधानुसार बार-बार ‘गठबंधन धर्म’ का जाप करती है, का अपने सहयोगियों के लिए यह संदेश स्पष्ट है कि परामर्श वैकल्पिक है, लेकिन आज्ञापालन अनिवार्य.
गंभीर खतरों को लेकर गहरी चिंताएं
केंद्र की मोदी सरकार ने संविधान में एक बड़ा और संभावित रूप से दूरगामी प्रभाव वाला बदलाव प्रस्तावित किया है. गृह मंत्री अमित शाह द्वारा पेश किए गए 130वें संविधान संशोधन विधेयक, 2025 के पारित होने पर राज्यपालों और उपराज्यपालों को मंत्रियों और मुख्यमंत्रियों को हटाने की अभूतपूर्व शक्ति मिल जाएगी. यह विधेयक राष्ट्रपति को प्रधानमंत्री को बर्खास्त करने का अधिकार भी देता है, हालांकि यह संभावना लगभग शून्य है कि कोई मौजूदा प्रधानमंत्री अपने ही नियंत्रण वाली केंद्रीय एजेंसियों द्वारा गिरफ्तार किया जाएगा. अलीशान जाफ़री ने द वायर के लिए वीडियो एक्सप्लेनर बनाया है.
इस प्रस्तावित कानून के अनुसार, यदि प्रधानमंत्री, किसी मुख्यमंत्री या मंत्री को ऐसे आरोपों में गिरफ्तार किया जाता है जिसमें पांच साल या उससे अधिक की जेल की सजा हो सकती है, और वे लगातार 30 दिनों तक हिरासत में रहते हैं, तो राष्ट्रपति, राज्यपाल या उपराज्यपाल उन्हें पद से हटा सकते हैं. इसके लिए उनका अदालत में दोषी साबित होना ज़रूरी नहीं होगा. अगर हटाने का आदेश समय पर जारी नहीं होता है, तो वे स्वतः ही अपने पद से हट जाएंगे.
विधेयक के समर्थकों द्वारा इसे प्रधानमंत्री मोदी के 'न खाऊंगा, न खाने दूंगा' के संकल्प की दिशा में एक बड़ा कदम बताया जा रहा है. लेकिन इसके गंभीर खतरों को लेकर गहरी चिंताएं जताई जा रही हैं. आलोचकों का तर्क है कि यह कानून विपक्षी नेताओं को निशाना बनाने के लिए एक शक्तिशाली हथियार बन सकता है. उदाहरण के लिए, अगर यह कानून पहले से लागू होता, तो प्रवर्तन निदेशालय (ED) द्वारा दिल्ली के पूर्व मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल और तमिलनाडु के पूर्व मंत्री सेंथिल बालाजी की गिरफ्तारी के कारण उन्हें उनके पद से हटाया जा सकता था.
आलोचकों का कहना है कि यह विधेयक केंद्रीय एजेंसियों के दुरुपयोग का रास्ता खोल सकता है. आंकड़े बताते हैं कि 2014 के बाद से ईडी द्वारा नेताओं के खिलाफ दर्ज 95% मामले विपक्षी दलों के नेताओं पर हैं. यह विधेयक ऐसे समय में आया है जब भाजपा के पास संसद में अपने दम पर बहुमत नहीं है और वह 240 सांसदों के साथ अपने सहयोगियों पर निर्भर है. ऐसे में यह देखना महत्वपूर्ण होगा कि क्या नीतीश कुमार और चंद्रबाबू नायडू जैसे सहयोगी दल इस तरह के विवादास्पद संशोधन का समर्थन करेंगे. विपक्ष इसे "अगर खरीद नहीं सकते, तो उन्हें तोड़ दो" की नीति पर आधारित एक अलोकतांत्रिक कदम बता रहा है.
मध्य वर्ग का सच
केंद्र सरकार के अनुसार, भारत के आधे से ज़्यादा मध्यम वर्ग की सालाना आय 7.5 लाख रुपये से कम है. ये आँकड़े एक असहज सच्चाई को उजागर करते हैं: लगभग 61% करदाता 2.5 लाख से 7.5 लाख रुपये के इनकम स्लैब में आते हैं, जबकि केवल 2.5% ही 25 लाख रुपये से अधिक की आय घोषित करते हैं. दूसरे शब्दों में, भारत के विकास का तथाकथित "इंजन" बस किसी तरह हांफते हुए चल रहा है.
जम्मू-कश्मीर पुलिसकर्मी को टॉर्चर: दो अधिकारियों समेत छह गिरफ़्तार
द वायर में जहांगीर अली श्रीनगर से लिखते हैं कि एक पुलिसकर्मी को हिरासत में यातना दिए जाने के दो साल से ज़्यादा समय बाद, केंद्रीय जांच ब्यूरो (CBI) ने इस मामले में जम्मू-कश्मीर पुलिस के दो अधिकारियों और चार अन्य पुलिसकर्मियों को गिरफ़्तार किया है. पिछले महीने आए सुप्रीम कोर्ट के आदेशों के बाद, केंद्रीय एजेंसी ने पुलिस कांस्टेबल खुर्शीद अहमद चौहान के मामले की जांच के लिए उप पुलिस अधीक्षक सुभाष चंदर की अध्यक्षता में एक विशेष जांच दल (SIT) का गठन किया था, जिन्हें हिरासत में कथित रूप से प्रताड़ित किया गया था. चौहान का मामला यातना से बचे लोगों और सुरक्षा बलों की हिरासत में मारे गए लोगों के परिवारों के बीच उम्मीद जगा सकता है, जो अधिकारियों से प्रतिशोध के डर से न्याय के लिए अदालतों का दरवाज़ा खटखटाने से हिचकिचाते रहे हैं.
पूछताछ के दौरान आरोपी - उप पुलिस अधीक्षक एजाज़ अहमद नाइकू, सब-इंस्पेक्टर रियाज़ अहमद और पुलिसकर्मी इम्तियाज़ अहमद, हजगनीर अहमद, शाकिर अहमद और मोहम्मद यूनिस - को बुलाया गया और फिर उन्हें गिरफ़्तार कर लिया गया. रिपोर्टों के मुताबिक़, "उन्हें श्रीनगर की एक जेल में रखा गया है."
छह दिनों तक दी गई यातना : 20 फरवरी, 2023 को, बारामूला ज़िला पुलिस लाइंस में कांस्टेबल के रूप में तैनात चौहान को नाइकू ने नशीले पदार्थ के मामले में वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक (कुपवाड़ा) के कार्यालय में रिपोर्ट करने का निर्देश दिया था. बाद में उन्हें ज़िले के एक संयुक्त पूछताछ केंद्र में शिफ़्ट कर दिया गया. अदालती दस्तावेज़ों के अनुसार, चौहान को कथित तौर पर छह दिनों तक प्रताड़ित किया गया, जिसके दौरान उनके अंडकोषों को सर्जरी से हटा दिया गया और उनके मलाशय में "वनस्पति के कण" डाल दिए गए. उनकी पत्नी रुबीना अख़्तर ने पुलिस को हमले की गंभीरता के बारे में बताया, जिसके कारण चौहान कोमा में चले गए थे.
हालांकि, कथित अपराधियों के ख़िलाफ़ कार्रवाई करने के बजाय, कुपवाड़ा पुलिस ने कहा कि चौहान ने "ब्लेड से अपनी नस काटने की कोशिश" की, जिससे उन्हें ख़ुद चोट लगी. उन पर 26 फरवरी, 2023 को भारतीय दंड संहिता की धारा 309 (आत्महत्या के लिए उकसाना) के तहत मामला दर्ज किया गया. मामले में मोड़ तब आया जब चौहान की पत्नी द्वारा सूचना का अधिकार अधिनियम के तहत दायर एक प्रश्न के ज़रिए उनके परिवार ने कथित यातना के बाद की मेडिकल जांच रिपोर्ट हासिल की. रिपोर्ट से पता चला कि यातना से बचे चौहान के "अंडकोश की थैली पर घाव थे और दोनों अंडकोष सर्जरी से हटा दिए गए थे, नितंबों से लेकर जांघों तक चोट के निशान थे, हथेलियों और तलवों में दर्द था जो किसी भारी चीज़ से लगी चोट का संकेत था, मलाशय में वनस्पति के कण मौजूद थे और कई फ्रैक्चर थे."
सुप्रीम कोर्ट का फ़ैसला : अख़्तर की याचिका पर सुनवाई के बाद, सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि यह "हमारी अंतरात्मा को झकझोर देने वाला है" कि पीड़ित के कटे हुए गुप्तांग को 26 फरवरी को जम्मू-कश्मीर पुलिस के एक सब-इंस्पेक्टर द्वारा पीड़ित के साथ श्रीनगर के एक अस्पताल में एक प्लास्टिक बैग में लाया गया था. 21 जुलाई, 2025 को जस्टिस विक्रम नाथ और संदीप मेहता की सुप्रीम कोर्ट की बेंच ने पुलिस जांच की कड़ी आलोचना करते हुए कहा कि यह "सुनियोजित तरीक़े से मामले को छिपाने और अधिकार के दुरुपयोग का एक परेशान करने वाला पैटर्न दिखाती है." सुप्रीम कोर्ट ने कहा, "इस मामले की असाधारण गंभीरता, जिसमें क्रूर और अमानवीय हिरासत में यातना शामिल है और पीड़ित के गुप्तांगों को पूरी तरह से काट दिया गया है, पुलिस की बर्बरता के सबसे क्रूर उदाहरणों में से एक है, जिसका राज्य अपनी पूरी ताक़त से बचाव करने और उसे छिपाने की कोशिश कर रहा है." शीर्ष अदालत ने यह भी आदेश दिया था कि 50 लाख रुपये की मुआवज़ा राशि आरोपी पुलिसकर्मियों के वेतन से वसूल की जानी चाहिए.
जम्मू-कश्मीर में न्यायेतर हत्याएं
1990 के दशक की शुरुआत में सशस्त्र विद्रोह के बाद से जम्मू-कश्मीर में यातना और न्यायेतर हत्याओं की व्यापक रूप से रिपोर्ट की गई है. इस तरह की यातना के कथित अपराधी सशस्त्र बल (विशेष शक्तियां) अधिनियम (AFSPA) जैसे क़ानूनों सहित कई कारकों के कारण बड़े पैमाने पर आधिकारिक जांच से बचते रहे हैं. एमनेस्टी इंटरनेशनल ने जम्मू-कश्मीर के 715 बंदियों का विवरण दर्ज किया है जिनकी 1990-1994 के बीच सुरक्षा बलों की हिरासत में मृत्यु हो गई. जबकि उनमें से कुछ को कथित तौर पर प्रताड़ित किया गया था जिसके परिणामस्वरूप उनकी मृत्यु हो गई, कई अन्य को गोली मार दी गई थी. 2019 में, अब निष्क्रिय हो चुके जम्मू-कश्मीर कोएलिशन ऑफ़ सिविल सोसाइटी (श्रीनगर स्थित एक मानवाधिकार वकालत समूह, जिसके संयोजक खुर्रम परवेज़ आतंकवाद विरोधी आरोपों में जेल में हैं) और एसोसिएशन ऑफ़ पेरेंट्स ऑफ़ डिसअपीयर्ड पर्सन्स की एक रिपोर्ट ने 1990-2017 के बीच जम्मू-कश्मीर में सुरक्षा बलों द्वारा यातना के 432 मामलों का दस्तावेज़ीकरण किया, जिनमें से 70% पीड़ित नागरिक थे.
जलालाबाद अब हुआ 'परशुरामपुरी' : उत्तर प्रदेश के शाहजहांपुर ज़िले में स्थित जलालाबाद कस्बे का नाम अब परशुरामपुरी कर दिया गया है. केंद्रीय गृह मंत्रालय ने राज्य सरकार के इस कस्बे का नाम बदलने के इरादे पर अपनी मंज़ूरी दे दी है. अब इस शहर पर भगवान विष्णु के छठे अवतार परशुराम की जन्मस्थली होने का दावा किया जा रहा है. शाहजहांपुर से आने वाले केंद्रीय वाणिज्य और उद्योग राज्य मंत्री जितिन प्रसाद ने कहा कि शहर का नाम बदलना "पूरे सनातनी समुदाय के लिए गर्व का क्षण है".
आदिवासी महिलाओं की बजरंग दल के ख़िलाफ़ शिकायत: छत्तीसगढ़ के दुर्ग में हाल ही में केरल की ननों की गिरफ्तारी के मामले में एक नया मोड़ आया है. बजरंग दल द्वारा जबरन धर्मांतरण के आरोप में जिन ननों को गिरफ्तार करवाया गया था, उनके साथ मौजूद आदिवासी महिलाओं ने अब राज्य महिला आयोग का दरवाज़ा खटखटाया है. इन महिलाओं ने बजरंग दल के सदस्यों के ख़िलाफ़ "मानसिक और शारीरिक रूप से प्रताड़ित करने" का आरोप लगाते हुए कार्रवाई की मांग की है.
ट्रम्प के पूर्व सुरक्षा सलाहकार पर एफबीआई छापा
एक्सियोस में हर्ब स्क्रिब्नर की रिपोर्ट है कि राष्ट्रपति ट्रम्प और उनके पूर्व राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार जॉन बोल्टन के बीच तनावपूर्ण संबंध शुक्रवार को उस समय और खराब हो गए जब FBI ने बोल्टन के मैरीलैंड स्थित घर पर छापा मारा. यह मामला इसलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि बोल्टन और ट्रम्प के बीच विदेश नीति को लेकर मतभेद थे, जिसके बाद बोल्टन ने पिछले साल अपने संस्मरण में राष्ट्रपति को पद के लिए "अयोग्य" बताया था. न्यूयॉर्क पोस्ट के अनुसार, बोल्टन के घर पर यह छापा वर्गीकृत सूचनाओं से जुड़ी एक राष्ट्रीय सुरक्षा जांच का हिस्सा था. यह FBI की तलाशी ऐसे समय में हुई है जब ट्रम्प अपने राजनीतिक विरोधियों को दंडित करने के लिए राष्ट्रपति पद की शक्ति का आक्रामक रूप से इस्तेमाल कर रहे हैं. व्हाइट हाउस प्रेस पूल से बात करते हुए ट्रम्प ने बोल्टन के छापे पर कहा, "मैं उनका प्रशंसक नहीं हूं, वह एक तरह से घटिया इंसान हैं. वह एक बहुत ही शांत व्यक्ति हैं, सिवाय टेलीविजन के, अगर वह ट्रम्प के बारे में कुछ बुरा कह सकते हैं. वह एक स्मार्ट आदमी नहीं हैं, एक बहुत ही अदेशभक्त व्यक्ति हो सकते हैं. हम इसका पता लगाएंगे."
इस घटना का संदर्भ यह है कि बोल्टन, ट्रम्प के पहले कार्यकाल के दौरान उनके कटु आलोचक थे और ट्रम्प 2.0 के दौरान भी सोशल मीडिया और साक्षात्कारों में राष्ट्रपति की आलोचना करते रहे हैं. वास्तव में, FBI छापे की खबर आने से पहले, शुक्रवार की सुबह ही बोल्टन ने एक्स (X) पर एक पोस्ट में रूस-यूक्रेन शांति वार्ता पर संदेह जताया था. दोनों के रिश्ते में गिरावट तब शुरू हुई जब व्हाइट हाउस में एक शीर्ष सलाहकार के रूप में काम करते हुए बोल्टन ने वैश्विक नीतिगत कदमों पर ट्रम्प से असहमति जताई, जो राष्ट्रपति को पसंद नहीं आया. सितंबर 2019 में बोल्टन ने व्हाइट हाउस से अव्यवस्थित तरीके से विदाई ली, और इसके तुरंत बाद उन्होंने "द रूम व्हेयर इट हैपन्ड" नामक एक संस्मरण लिखने की योजना बनाई. इस किताब में ट्रम्प के विदेश नीति के फैसलों के अंदरूनी विवरण थे, जिसने तुरंत सुर्खियां बटोरीं. ट्रम्प प्रशासन ने किताब के प्रकाशन को रोकने की कोशिश की, लेकिन एक संघीय न्यायाधीश ने बोल्टन को इसे प्रकाशित करने की अनुमति दे दी, हालांकि यह भी कहा कि बोल्टन ने "संभावित रूप से वर्गीकृत सामग्री प्रकाशित की." अब, इस छापे के साथ, यह देखना होगा कि राष्ट्रीय सुरक्षा जांच कैसे आगे बढ़ती है और इसके क्या राजनीतिक परिणाम होते हैं.
गाज़ा में आधिकारिक तौर पर अकाल, मानवनिर्मित!
बीबीसी न्यूज़ के अनुसार संयुक्त राष्ट्र प्रमुख एंटोनियो गुटेरेस ने गाज़ा शहर और उसके आसपास के इलाकों में अकाल की पुष्टि को "मानवता की विफलता" बताया है. उन्होंने इस स्थिति को "मानव निर्मित आपदा" कहा, जब संयुक्त राष्ट्र समर्थित एक संस्था (IPC) ने क्षेत्र के कुछ हिस्सों में खाद्य असुरक्षा की स्थिति को चरण 5 तक बढ़ा दिया, जो सबसे उच्चतम और गंभीर स्तर है. यह मामला इसलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि इंटीग्रेटेड फूड सिक्योरिटी फेज क्लासिफिकेशन (IPC) की रिपोर्ट के अनुसार, गाज़ा में पांच लाख से अधिक लोग "विनाशकारी" परिस्थितियों का सामना कर रहे हैं, जिसमें "भुखमरी, अभाव और मृत्यु" शामिल है. इज़राइल ने इस रिपोर्ट को "पूरी तरह से झूठ" बताते हुए खारिज कर दिया है और क्षेत्र में भुखमरी से इनकार किया है. हालांकि, इज़राइल के इनकार उन तथ्यों का सीधा खंडन करते हैं जो 100 से अधिक मानवीय समूहों, ज़मीनी गवाहों, कई संयुक्त राष्ट्र निकायों और ब्रिटेन सहित इज़राइल के कई सहयोगियों ने कहे हैं.
रिपोर्ट में अनुमान लगाया गया है कि मध्य अगस्त से सितंबर के अंत के बीच, अकाल दीर अल-बलाह और खान यूनिस तक फैल जाएगा, और लगभग 641,000 लोग विनाशकारी परिस्थितियों का सामना करेंगे. युद्ध की शुरुआत के बाद से, गाज़ा के हमास द्वारा संचालित स्वास्थ्य मंत्रालय ने कुपोषण से 271 मौतों की सूचना दी है, जिसमें 112 बच्चे शामिल हैं. 41 वर्षीय रीम तौफीक खादर ने कहा, "अकाल की घोषणा बहुत देर से हुई, लेकिन यह अभी भी महत्वपूर्ण है." संयुक्त राष्ट्र के सहायता प्रमुख टॉम फ्लेचर ने कहा कि यह अकाल पूरी तरह से रोका जा सकता था, लेकिन "इज़राइल द्वारा व्यवस्थित बाधा" के कारण भोजन फिलिस्तीनी क्षेत्र तक नहीं पहुंच सका. ब्रिटेन के विदेश सचिव डेविड लैमी ने इस अकाल को "नैतिक आक्रोश" बताया. इज़राइली प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू ने एक बयान में कहा कि इज़राइल की भुखमरी की कोई नीति नहीं है. अब IPC रिपोर्ट आने के बाद, उम्मीद है कि एक तत्काल और बड़े पैमाने पर प्रतिक्रिया की आवश्यकता होगी ताकि अकाल से संबंधित मौतों में और वृद्धि को रोका जा सके, जबकि इज़राइल गाज़ा शहर पर कब्जा करने के उद्देश्य से एक नए सैन्य आक्रमण की तैयारी कर रहा है.
केरल 100% डिजिटल साक्षर
अपने बहुप्रशंसित 100% साक्षरता अभियान के बाद, केरल ने पूर्ण डिजिटल साक्षरता हासिल करके एक और मील का पत्थर पार कर लिया है. यह इसलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि केरल अब कुल डिजिटल साक्षरता हासिल करने वाला पहला राज्य बन गया है. मुख्यमंत्री पिनाराई विजयन ने गुरुवार (21 अगस्त) को इसकी आधिकारिक घोषणा की. राज्य सरकार के 'डिजी केरल' डिजिटल साक्षरता कार्यक्रम के तहत राज्य भर में 21.87 लाख लोगों ने प्रशिक्षण पूरा किया है, जो पहले "डिजिटल रूप से निरक्षर" थे. इस कहानी की शुरुआत 2021 में तिरुवनंतपुरम के एक ग्रामीण क्षेत्र पुल्लमपारा से हुई, जहां 'डिजी पुल्लमपारा' नामक एक परियोजना शुरू की गई थी, जो बाद में 'डिजी केरल' के लिए एक मॉडल बनी.
इस अभियान में 1980 के दशक के अंत के ऐतिहासिक संपूर्ण साक्षरता अभियान की तरह ही एक जमीनी स्तर का आंदोलन देखा गया, जिसमें राज्य ने डिजिटल अंतर को पाटने के लिए अपने मजबूत स्थानीय स्व-शासन तंत्र का पूरा उपयोग किया. एक सर्वेक्षण के माध्यम से 21.88 लाख डिजिटल रूप से निरक्षर लोगों की पहचान की गई, और 2.57 लाख स्वयंसेवकों ने उन्हें प्रशिक्षित किया. प्रशिक्षण में स्मार्टफोन के बुनियादी उपयोग से लेकर सोशल मीडिया एप्लिकेशन, बिल भुगतान और सरकारी सेवाओं तक पहुंच शामिल थी. प्रशिक्षण पूरा करने वालों में 13 लाख से अधिक महिलाएं, आठ लाख पुरुष और 1,644 ट्रांसजेंडर व्यक्ति शामिल हैं. 90 वर्ष से अधिक आयु के 15,221 लोगों ने भी इसमें भाग लिया. यह उपलब्धि केरल की उस संरचित योजना का हिस्सा है, जिसमें इंटरनेट को एक बुनियादी अधिकार बनाना (केरल फाइबर ऑप्टिक नेटवर्क परियोजना के माध्यम से) और सरकारी सेवाओं को डिजिटल बनाना (के-स्मार्ट परियोजना) शामिल है. अब 'डिजी केरल 2.0' के हिस्से के रूप में, सरकार का लक्ष्य सभी को सरकारी सेवाओं तक पहुंचने के लिए प्रशिक्षित करना, साइबर धोखाधड़ी पर जागरूकता कक्षाएं प्रदान करना और उन्हें फर्जी खबरों को पहचानने और अस्वीकार करने के लिए लैस करना है, जिससे वे एक जिम्मेदार और सुरक्षित डिजिटल नागरिकता का नेतृत्व कर सकें.
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