24/09/2025: मोदी का दोस्त, मोदी का भारत | अयोध्या मस्जिद का नक्शा ख़ारिज | हिंदी के नस्लवाद पर अपूर्वानंद | अदालतें अमीरों की तरफदार? | जुबीन को विदा कहने उमड़ा असम | डिजीटल अरेस्ट से 23 करोड़ की लूट
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निधीश त्यागी, साथ में राजेश चतुर्वेदी, गौरव नौड़ियाल, फ़लक अफ़शां
आज की सुर्खियां
दोस्ती का दम भरने वाले ट्रम्प ने मोदी के भारत को फिर ज़लील किया... अब दोस्ती का क्या...
अयोध्या में मस्जिद का नक़्शा ख़ारिज... सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले के बावजूद...
वोट के लिए गौ-पूजा और गोमांस पर जीएसटी माफ़... भाजपा का ये कैसा प्रेम...
रुपया ऐतिहासिक गर्त में... क्या 90 का स्तर भी टूटेगा...
ईडी-पुलिस का अफ़सर बन 78 साल के बैंकर को घर में 'डिजिटल गिरफ़्तार' किया... और 22 करोड़ उड़ा लिए...
अमीरों के ख़िलाफ़ असहज सवाल पूछना मना है... अदालतें अब ढाल बन रही हैं...
एक गायक, जिसके जाने पर पूरा असम रो पड़ा... आख़िर कौन थे ज़ुबीन...
'ग़लत' और 'इस्तेमाल' जैसे शब्द बोलने पर चैनलों को नोटिस... क्या आपकी हिंदी भी 'अपराध' है...
मोदी के भारत को मोदी के ट्रम्प ने फिर ज़लील किया, इस बार यूएन में
मंगलवार को न्यूयॉर्क में संयुक्त राष्ट्र महासभा (यूएनजीए) में दिए गए अपने लगभग एक घंटे के भाषण में, अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प ने दो प्रमुख संदर्भों में भारत का उल्लेख किया. दोनों ही संदर्भ भारत की स्थिति पर स्पष्ट हमले थे.
एक- ट्रम्प ने यह दावा दोहराया कि उन्होंने भारत और पाकिस्तान के बीच "एक युद्ध को रोका." उन्होंने इसे सात मामलों में से एक गिना, और इस काम के लिए एक बार फिर नोबेल शांति पुरस्कार की मांग की.
दो- भारत को लेकर दूसरा उल्लेख ज़्यादा तीखा और हाल ही में ट्रम्प और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के बीच बढ़ी सौहार्दता के बाद व्यापार वार्ताओं के दोबारा शुरू होने के मद्देनज़र कुछ हद तक आश्चर्यजनक था. ट्रम्प ने कहा, चीन और भारत रूसी तेल खरीदना जारी रखकर यूक्रेन में चल रहे युद्ध के प्राथमिक वित्तपोषक हैं."
उन्होंने यूरोपीय देशों से भी रूस और उसके तेल के खरीदारों पर प्रतिबंध लगाने का आग्रह किया. ट्रम्प ने अतीत में भी ऐसी ख़रीदारी को "पुतिन की युद्ध मशीन को ईंधन देने वाला इंजन" कहा है.
आरिश छाबड़ा की रिपोर्ट के मुताबिक, भारत ने यह तर्क दिया है कि वह बेहतर कीमतों के लिए तेल ख़रीदना जारी रखेगा, और यह भी कि रूस द्वारा यूक्रेन पर हमला करने के बाद भी अमेरिका ने एक समय पर वैश्विक कीमतों को कम रखने के लिए भारत को रूसी तेल खरीदने के लिए प्रोत्साहित किया था.
भारत को लेकर, अमेरिकी विदेश मंत्री मार्को रुबियो ने मंगलवार को कहा कि रूसी तेल ख़रीद को रोकना मुख्य मुद्दा बना हुआ है, जबकि भारत के साथ बातचीत में "काफ़ी प्रगति" हो रही है. रुबियो ने यह भी कहा कि अमेरिकी राष्ट्रपति यूक्रेन युद्ध को रोकने के लिए रूसी राजस्व को निचोड़ने के लिए और भी प्रतिबंधों पर विचार कर रहे हैं.
अयोध्या में मस्जिद का प्लान खारिज किया
अयोध्या विकास प्राधिकरण (एडीए) ने सरकारी विभागों से अनापत्ति प्रमाण पत्र (एनओसी) न मिलने का हवाला देते हुए, अयोध्या के धन्नीपुर गांव में मस्जिद के निर्माण के लिए जमा किए गए प्लान को ख़ारिज कर दिया है. 9 नवंबर, 2019 को सुप्रीम कोर्ट द्वारा सुनाए गए अयोध्या फ़ैसले के बाद, अयोध्या ज़िले की सोहावल तहसील के धन्नीपुर गांव में सुन्नी सेंट्रल वक्फ़ बोर्ड को पांच एकड़ ज़मीन आवंटित की गई थी. यह ज़मीन अयोध्या शहर से क़रीब 25 किलोमीटर दूर स्थित है. इसके बाद, 3 अगस्त, 2020 को तत्कालीन ज़िलाधिकारी अनुज कुमार झा ने इस ज़मीन का कब्ज़ा सुन्नी सेंट्रल वक्फ़ बोर्ड को सौंप दिया था.
नमिता बाजपेयी की खबर के अनुसार, मस्जिद ट्रस्ट ने 23 जून, 2021 को मस्जिद और अन्य सुविधाओं के निर्माण के प्लान को मंज़ूरी देने के लिए अयोध्या विकास प्राधिकरण में आवेदन किया था. हालांकि, तब से इस पर कोई प्रगति नहीं हुई थी.
एक पत्रकार द्वारा दायर आरटीआई के जवाब में, अयोध्या विकास प्राधिकरण ने 16 सितंबर, 2025 को सूचित किया कि लोक निर्माण विभाग, प्रदूषण विभाग, नागरिक उड्डयन, सिंचाई, राजस्व, नगर निगम, ज़िलाधिकारी और अग्निशमन सेवा सहित विभिन्न सरकारी विभागों से अनापत्ति प्रमाण पत्र (एनओसी) न मिलने के कारण प्राधिकरण ने मस्जिद ट्रस्ट के आवेदन को ख़ारिज कर दिया है. आरटीआई के जवाब में, प्राधिकरण ने यह भी बताया कि मस्जिद ट्रस्ट ने आवेदन और जांच शुल्क के रूप में 4,02,628 रुपये का भुगतान किया था.
एडीए द्वारा मस्जिद के प्लान को ख़ारिज किए जाने पर प्रतिक्रिया देते हुए, मस्जिद ट्रस्ट के सचिव अथहर हुसैन ने कहा कि सुप्रीम कोर्ट ने मस्जिद के लिए ज़मीन को अनिवार्य किया था और उत्तरप्रदेश सरकार ने यह भूखंड आवंटित किया था. उन्होंने कहा, “मैं यह नहीं समझ पा रहा हूं कि सरकारी विभागों ने अनापत्ति क्यों नहीं दी और प्राधिकरण ने मस्जिद का प्लान क्यों ख़ारिज कर दिया है?”
हुसैन ने यह भी कहा कि "साइट के निरीक्षण के दौरान, अग्निशमन विभाग ने पहुंच मार्ग की चौड़ाई से संबंधित कुछ आपत्तियां उठाई थीं. उन्होंने यह भी कहा कि अग्निशमन विभाग की एनओसी पर आपत्ति के अलावा, उन्हें अन्य विभागों की आपत्तियों के बारे में कोई जानकारी नहीं है.
यूपी के 558 सहायता प्राप्त मदरसे; ईओडब्ल्यू जांच पर हाईकोर्ट की रोक
इलाहाबाद हाईकोर्ट ने उत्तरप्रदेश के 558 सरकारी सहायता प्राप्त मदरसों में चल रही ईओडब्ल्यू (आर्थिक अपराध शाखा) की जांच पर रोक लगा दी है. ईओडब्ल्यू यह जांच राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के निर्देश पर कर रही थी. मदरसों में मानवाधिकारों के कथित उल्लंघन के आरोप थे. आयोग ने मोहम्मद तलहा अंसारी नाम के एक व्यक्ति की शिकायत पर जांच का निर्देश दिया था. जस्टिस सरल वास्तव और जस्टिस अमिताभ कुमार राय की खंडपीठ ने मानवाधिकार आयोग के आदेशों पर रोक लगाते हुए, आयोग और शिकायतकर्ता को नोटिस जारी किया. मामले की अगली सुनवाई की तारीख 17 नवंबर तय की गई है.
एमपी में गोमांस पर 0% जीएसटी, सिर्फ वोट लेने के लिए गाय की पूजा करती है बीजेपी
मध्यप्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष जीतू पटवारी ने वाणिज्यिक कर विभाग द्वारा जारी राजपत्र अधिसूचना में गोमांस को “जीएसटी से मुक्त” करने के फैसले पर आपत्ति की है. पटवारी ने कहा कि यह फैसला गोमांस के निर्यात को बढ़ावा देने के लिए लिया गया है और कांग्रेस पार्टी इसका पुरजोर विरोध करेगी. मंगलवार को पटवारी ने भोपाल में मुख्यमंत्री की आलोचना करते हुए कहा कि वे केवल वोट पाने के लिए गाय की पूजा करते हैं. उन्होंने आरोप लगाया कि भाजपा खुद गोहत्या को बढ़ावा देती है. उन्होंने कहा – "यदि दुनिया में सबसे ज्यादा बीफ कहीं से निर्यात हो रहा है, तो वह भारत से हो रहा है. नरेंद्र मोदी सरकार ने सभी रिकॉर्ड तोड़ दिए हैं. यह बीफ आखिर आ कहां से रहा है? यदि यह भारत की पवित्र गायों से है, तो इसमें भाजपा शासित कई राज्य और प्रांत शामिल हैं."
पटवारी ने कहा कि मध्यप्रदेश सरकार ने गोवंशीय पशुओं के मांस पर जीएसटी दरें शून्य कर दी हैं. इसका क्या मैसेज है. गोभक्त मुख्यमंत्री के मुंह से एक शब्द नहीं निकला. पटवारी ने कहा कि कांग्रेस पार्टी इस फैसले का विरोध करेगी. हम किसी भी कीमत पर गाय नहीं कटने देंगे और गोमांस का निर्यात नहीं होने देंगे. पटवारी ने कहा कि 26 और 27 सितंबर को कांग्रेस पार्टी पूरे मध्यप्रदेश में इसके विरोध में आंदोलन करेगी.
रुपये में ऐतिहासिक गिरावट: मुद्रा बाज़ार में हड़कंप
मंगलवार को विदेशी मुद्रा बाज़ार में दहशत का माहौल रहा, क्योंकि रुपया अमेरिकी डॉलर के मुक़ाबले 0.52% गिरकर 88.7925 पर बंद हुआ, जो एक नया ऐतिहासिक निचला स्तर है. यह गिरावट विदेशी फ़ंड्स की लगातार बिकवाली के कारण हुई. “द इंडियन एक्सप्रेस” के मुताबिक, विदेशी निवेशकों को यह डर है कि अमेरिका द्वारा लगाए गए भारी शुल्क और एच-1 बी वीज़ा शुल्क में बढ़ोतरी की दोहरी मार अब भारत के सर्विस एक्सपोर्ट को बाधित करेगी और साथ ही देश को मिलने वाले प्रेषित धन को भी कम कर देगी. इससे पहले रुपये का निचला स्तर 11 सितंबर को 88.47 रुपये था. व्यापारियों को उम्मीद है कि रुपये पर दबाव जारी रहेगा और यह 90 के स्तर से ज़्यादा दूर नहीं है.
दिल्ली की सबसे बड़ी ‘डिजिटल अरेस्ट’: ईडी और पुलिस का अफसर बताकर 22.92 करोड़ रुपये ट्रांसफर कराए
यह मामला दिल्ली के सबसे बड़ी 'डिजिटल अरेस्ट' धोखाधड़ी का है, जिसमें 78 वर्षीय सेवानिवृत्त बैंकर नरेश मल्होत्रा के खाते से 22.92 करोड़ रुपये की धोखाधड़ी हुई. मल्होत्रा पिछले छह सप्ताह तक दक्षिण दिल्ली के गुलमोहर पार्क क्षेत्र में अपने दोस्तों व परिवार के साथ सामान्य दिनचर्या जीते रहे, जबकि इसी दौरान वे तीन अलग-अलग बैंकों की शाखाओं में जाकर कुल 21 लेन-देन के जरिए 16 अलग-अलग खातों में 22.92 करोड़ रुपये स्थानांतरित करते रहे.
ऋतु सरीन की खबर है कि, मल्होत्रा पर धोखेबाजों ने 'डिजिटल अरेस्ट' का शिकंजा कस दिया था. वे खुद को प्रवर्तन निदेशालय और मुंबई पुलिस का अधिकारी बता रहे थे और मल्होत्रा को हर छोटी रकम निकालने के लिए भी उनकी इजाजत लेनी पड़ती थी. उन्होंने मल्होत्रा को धमकी दी कि उनका नाम आतंकी फंडिंग में इस्तेमाल हुआ है और उन्हें बचाने के लिए आरबीआई व सुप्रीम कोर्ट में 'जमानत' के तौर पर पैसे जमा करने होंगे.
मल्होत्रा ने बताया, "ऐसा लग रहा था जैसे मैं किसी के कब्जे में हूं, मेरी सोचने-समझने की क्षमता बिल्कुल छीन ली गई थी." उन्होंने छह हफ्ते बाद 19 सितंबर को पुलिस में शिकायत दर्ज करवाई, जिसके बाद एफआईआर दर्ज हुई. दिल्ली पुलिस को इस जटिल पैसों के लेन-देन की जांच करनी पड़ी, जिसमें मात्र 21 लेन-देन के बाद मल्होत्रा का पैसा सात लेयर में टूटकर 4,236 छोटे-छोटे लेन-देन से अलग-अलग खातों में पहुंच गया.
दिल्ली पुलिस की आईएफएसओ शाखा के संयुक्त आयुक्त रजनीश गुप्ता के अनुसार, ऐसे मामलों में चोरी के पैसों को कई स्तरों में बांटा जाता है, जिससे जांच और फंड फ्रीज करना कठिन हो जाता है. उन्होंने कहा कि इस मामले में सिर्फ 2.67 करोड़ रुपये ही अब तक फ्रीज किए जा सके हैं, जबकि बाकी रकम ट्रैक करना बाकी है.
मल्होत्रा ने लगभग पांच दशक सरकारी और निजी बैंकों में वरिष्ठ पदों पर काम किया था, 2020 में रिटायर हुए. उनके घर के पास तीनों बैंक के शाखाएं थीं, लेकिन ब्रांच मैनेजर को भी लेन-देन के वक्त किसी तरह का संदेह नहीं हुआ. मल्होत्रा अपने रोजमर्रा के खर्च और स्टाफ की तनख्वाह जैसी छोटी निकासी के लिए भी धोखेबाजों की इजाजत लेते रहे. बैंक मैनेजरों का कहना है कि वे 'डिजिटल अरेस्ट' जैसी किसी बात से पूरी तरह अनजान थे क्योंकि मल्होत्रा खुद आकर खाते से रुपये ट्रांसफर करते थे, बातचीत करते और कभी-कभी चाय भी पीते थे.
19 सितंबर को जब धोखेबाज ने मल्होत्रा से 5 करोड़ रुपये और मांगे और उन्हें एक प्राइवेट कंपनी के खाते में ट्रांसफर करने को कहा, तो मल्होत्रा ने मना कर दिया. उन्होंने कहा कि वह सुप्रीम कोर्ट के रजिस्ट्रार को पैसे देंगे, लेकिन किसी निजी कंपनी को नहीं. इस पर धोखेबाज ने उन्हें तत्काल गिरफ्तार करने की धमकी दी, लेकिन मल्होत्रा अड़ गए और फोन कट गया.
अदालतें सबसे अमीर लोगों को असहज सवालों से सुरक्षा प्रदान करती हैं
भारत की अदालतों में एक असामान्य प्रवृत्ति देखने को मिल रही है: देश के कुछ सबसे अमीर और शक्तिशाली व्यक्ति, जैसे कि गौतम अडानी और मुकेश अंबानी, उन पत्रकारों, मीडिया संगठनों और राजनेताओं के ख़िलाफ़ क़ानूनी कार्रवाई कर रहे हैं, जो उनके व्यापारिक सौदों पर सवाल उठाते हैं. ये क़ानूनी मामले अक्सर मानहानि के मुक़दमे होते हैं, और अदालतों द्वारा जारी किए गए आदेश कई बार इन व्यक्तियों को जांच और आलोचना से बचाने का काम करते हैं.
यह स्थिति लोकतंत्र के लिए चिंताजनक है, क्योंकि यह जनता के जानने के अधिकार और प्रेस की स्वतंत्रता को सीमित करती है. “स्क्रॉल” के लिए नरेश फर्नांडीस ने लिखा है कि शक्तिशाली व्यक्ति अक्सर मानहानि क़ानून का उपयोग अपने ख़िलाफ़ उठने वाली आवाज़ों को दबाने के लिए करते हैं. जबकि, यह क़ानून मूल रूप से किसी की प्रतिष्ठा की रक्षा के लिए बनाया गया था, लेकिन अब इसका उपयोग असहज सवालों को रोकने के लिए किया जा रहा है. कई मामलों में, अदालतें पत्रकारों और मीडिया घरानों को संबंधित व्यक्तियों के बारे में लिखने से रोकने के लिए त्वरित आदेश जारी करती हैं. ये आदेश अक्सर एकतरफ़ा होते हैं, जहां दूसरे पक्ष (पत्रकार या मीडिया) को अपना पक्ष रखने का पर्याप्त मौक़ा नहीं मिलता.
उदाहरणस्वरूप अडानी समूह से जुड़े कुछ मामलों में, अदालत ने ऐसे आदेश जारी किए जो प्रेस को हिंडनबर्ग रिपोर्ट या अडानी के व्यापारिक क्रियाकलापों के बारे में लिखने से रोकते थे. इसी तरह, अंबानी से जुड़े एक मामले में, अदालत ने यह सुनिश्चित किया कि उनकी कंपनी के ख़िलाफ़ की गई आलोचना को ऑनलाइन प्लेटफ़ॉर्म से हटा दिया जाए. ये क़ानूनी मामले और अदालती आदेश अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के मौलिक अधिकार पर एक गंभीर ख़तरा हैं. यह पत्रकारों और जनता को उन महत्वपूर्ण मुद्दों पर सवाल उठाने से हतोत्साहित करता है जो सार्वजनिक हित में हैं.
संक्षेप में यह लेख इस बात पर रोशनी डालता है कि कैसे भारत का क़ानूनी तंत्र, जो आम लोगों के लिए न्याय सुनिश्चित करने के लिए है, कुछ मामलों में शक्तिशाली और अमीर लोगों को जवाबदेही से बचाने का उपकरण बन गया है. यह लोकतंत्र में शक्ति के संतुलन और पारदर्शिता के लिए एक बड़ी चुनौती है.
जीएसटी : जब तक पुराना स्टॉक साफ़ नहीं हो जाता, नई दरों का लाभ देना मुश्किल
22 सितंबर से नई जीएसटी दरें लागू होने के बावजूद, फ़ार्मा, एफएमसीजी और टेक्सटाइल जैसे क्षेत्रों के खुदरा विक्रेता, उपभोक्ताओं को अंतिम उत्पादों की संशोधित क़ीमतों का लाभ देने के लिए संघर्ष कर रहे हैं. कई खुदरा विक्रेताओं का दावा है कि उन्हें कंपनियों से अंतिम उपभोक्ता मूल्य के बारे में स्पष्टता नहीं मिली है. कई खुदरा विक्रेताओं को उम्मीद है कि शेल्फ़ पर इसका असर दिखने में हफ़्ते लग सकते हैं.
पुष्पिता डे और सनल सुदेवन की रिपोर्ट के अनुसार, खुदरा विक्रेताओं के लिए सबसे बड़ी चुनौती पुरानी टैक्स स्लैब के तहत ख़रीदा गया बिना बिका स्टॉक है. कई खुदरा विक्रेताओं ने कहा कि जब तक पुराना स्टॉक साफ़ नहीं हो जाता, नई दरों का लाभ देना मुश्किल होगा. कुछ खुदरा विक्रेता क़ीमतों को समायोजित करने के लिए पुराने स्टॉक को नए स्टॉक के साथ मिला रहे हैं.
दिल्ली-एनसीआर में महिलाओं के कपड़ों की दुकान की मालिक पल्लवी नागपाल ने कहा, "हमें अभी तक यह स्पष्ट नहीं है कि हमें नए दरों पर उत्पादों का बिल कैसे बनाना है. अंतिम उत्पाद की क़ीमत में अब तक कोई बदलाव नहीं हुआ है."
देश भर में कपड़ों और टेक्सटाइल क्षेत्रों के खुदरा विक्रेताओं में भी इसी तरह की अनिश्चितता बनी हुई है. जबकि कुछ ने कम टैक्स के हिसाब से क़ीमतें कम की हैं, ज़्यादातर अभी भी स्पष्टता की तलाश में हैं.
वाराणसी के एक बुनकर शहीद अंसारी ने कहा, "हम तैयार उत्पादों को नई दरों पर दुकानों और वितरकों को नहीं बेच पा रहे हैं, क्योंकि उन्होंने धागे 12% की दर पर ख़रीदे थे और तैयार उत्पादों को कम जीएसटी दरों पर वितरकों को बेचना संभव नहीं होगा." उन्होंने कहा कि उद्योग संघों ने अभी तक अंतिम मूल्य निर्धारण पर कोई दिशानिर्देश जारी नहीं किया है.
फ़ार्मा खुदरा विक्रेताओं को भी ऐसी ही मुश्किलों का सामना करना पड़ रहा है. वे कहते हैं कि महीनों पहले स्टॉक ख़रीदने की वजह से तत्काल संशोधन संभव नहीं है. कोलकाता में एक फ़ार्मेसी दुकान के मालिक अभिषेक बनिक ने कहा, "अगर कुछ महीनों के बाद भी हमारे पास पुराने उत्पाद बच जाते हैं, तो हमें उन्हें कंपनियों को वापस भेजना पड़ सकता है, क्योंकि जब कम नई दरों पर दवाएं उपलब्ध होंगी तो उपभोक्ता पुराने दरों पर उत्पाद खरीदने को तैयार नहीं होंगे."
23 माह बाद सीतापुर जेल से बाहर आए सपा नेता आज़म खान
समाजवादी पार्टी के नेता आज़म ख़ान लगभग 23 महीने बाद मंगलवार को सीतापुर जेल से रिहा हो गए. उन्हें इलाहबाद हाईकोर्ट द्वारा जमानत दी गई थी. उनकी रिहाई में देरी हुई, क्योंकि एक मामले में उन्हें 6,000 रुपये का जुर्माना देना था, जिसका भुगतान उनके रिश्तेदार ने किया. एक अन्य मामले में लगाए गए नए आरोप बाद में ख़ारिज कर दिए गए. जेल के बाहर उनके समर्थक और पार्टी कार्यकर्ता बड़ी संख्या में इकट्ठा हुए थे. “द न्यू इंडियन एक्सप्रेस” के अनुसार, उनके बेटे अदीब और अब्दुल्ला ख़ान उन्हें लेने पहुंचे थे. पुलिस ने भीड़ को नियंत्रित करने के लिए धारा 144 लागू की और ड्रोन कैमरों का भी इस्तेमाल किया. सपा नेताओं शिवपाल यादव और रुचि वीरा ने उनकी रिहाई का स्वागत किया. हालांकि, उनके गृह नगर रामपुर में उनके घर पर सन्नाटा छाया रहा. बसपा में शामिल होने की अटकलों के बारे में खुद आज़म खान ने मीडिया से कहा, जो लोग ऐसी अटकलें लगा रहे हैं, उन्हीं से पूछिए.
हिंदू संगठनों ने नन और आदिवासी नाबालिगों को 5 घंटे स्टेशन पर रोका, ‘पूछताछ’ की
झारखंड राज्य अल्पसंख्यक आयोग ने मंगलवार को उस घटना पर स्वतः संज्ञान लिया, जिसमें एक ईसाई नन और 19 आदिवासी नाबालिग बच्चों से बजरंग दल और विश्व हिंदू परिषद के सदस्यों ने टाटानगर रेलवे स्टेशन पर करीब पांच घंटे तक कथित रूप से "मानव तस्करी और धार्मिक परिवर्तन के संदेह" में पूछताछ की थी.
अल्पसंख्यक आयोग के उपाध्यक्ष प्रणेश सोलोमन ने ‘पीटीआई’ से कहा कि हमें मीडिया के माध्यम से पता चला कि रेलवे पुलिस ने कैथोलिक नन और नाबालिग लड़कों-लड़कियों को रोका था. हम पुलिस विभाग को पत्र लिखेंगे, ताकि यह स्पष्ट किया जा सके कि जब उन पर लगाए गए आरोपों का कोई वैध कारण नहीं मिला, तब भी नन और बच्चों को क्यों रोका गया."
बस्तर में शिक्षा: किस तरह नेकदिल लोग और आदिवासी युवा स्कूलों को फिर से खड़ा कर रहे हैं
हाल ही में एक दोपहर, बस्तर से बने दो ज़िलों, सुकमा और दंतेवाड़ा, के दो प्राथमिक विद्यालयों में दोपहर के भोजन के बाद बच्चे अपने खाली समय में बैठे थे. दो युवा प्रशिक्षकों ने बच्चों को कागज़ और पेंसिल दिए, और कुछ के लिए पास में पड़ी पत्तियां दीं, और उनसे जो चाहे वो बनाने या सजाने के लिए कहा. प्रशिक्षकों (प्रणित सिन्हा और आशीष कुमार वास्तव) को याद है कि उन्हें उम्मीद थी कि बच्चे 'जल, जंगल, ज़मीन और खेत' को दर्शाएंगे, जो अविभाजित बस्तर की ख़ूबसूरती को दर्शाते हैं. इसके बजाय, बच्चों ने संघर्ष के सजीव दृश्य बनाए. कुछ ने पत्तियों का इस्तेमाल सैन्य शिविरों या बंदूकों को दर्शाने के लिए किया, जबकि अन्य ने बाज़ारों और घरों को बनाया जिन पर बारूदी सुरंग-रोधी वाहन या राइफल लिए पुलिसकर्मी खड़े थे.
“द हिंदू” में भास्कर बसवा की रिपोर्ट कहती है कि छत्तीसगढ़ के बस्तर में, समाज सेवक और आदिवासी युवा मिलकर स्कूल भवनों का पुनर्निर्माण कर रहे हैं. माओवादी हिंसा के कारण बंद पड़े कई स्कूलों को फिर से खोला जा रहा है और अस्थायी झोपड़ीनुमा स्कूलों को पक्के भवनों में बदला जा रहा है. यह पहल बच्चों को शिक्षा देने और उन्हें अपने घरों के पास ही स्कूल जाने का अवसर देने में मदद कर रही है. कुछ क्षेत्रों में, "शिक्षा दूत" और "ज्ञान दूत" जैसी योजनाओं के तहत स्थानीय युवाओं को भी पढ़ाने के लिए नियुक्त किया गया है. इन प्रयासों से बस्तर में शिक्षा की स्थिति में सुधार आ रहा है.
बस्तर सहित छत्तीसगढ़ के आदिवासी इलाकों में शिक्षा हमेशा से चुनौतीपूर्ण रही है. यहां की भौगोलिक कठिनाइयों, कमज़ोर अधोसंरचना, और नक्सली हिंसा के कारण हजारों बच्चों की पढ़ाई प्रभावित हुई है. सरकारी और अशासकीय संगठन, साथ ही नेकदिल स्वयंसेवी आदिवासी युवा अब स्कूल भवनों की मरम्मत, शिक्षण-सामग्री का प्रबंध, और बच्चों को फिर से स्कूल लाने के लिए सामूहिक प्रयास कर रहे हैं. कई क्षेत्रों में स्कूलों की इमारतें जर्जर हैं, शौचालय और अन्य बुनियादी सुविधाएं नहीं हैं, जिससे विशेष रूप से किशोरी बालिकाएं जल्दी स्कूल छोड़ देती हैं.
पूरा असम इकट्ठा हुआ जुबीन गर्ग को विदा कहने
द असम ट्रिब्यून की रिपोर्ट के अनुसार, मंगलवार को सोनापुर के कमरकुची में जब आग की लपटें उठीं, तो पूरा असम मौन में डूब गया. यह राज्य के प्रिय बेटे, ज़ुबीन गर्ग की अंतिम यात्रा थी. पीढ़ियों को अपनी आवाज़ देने वाले इस महान गायक का पूरे राजकीय सम्मान के साथ अंतिम संस्कार किया गया, एक ऐसी विदाई जो युगों तक राज्य की सामूहिक स्मृति में अंकित रहेगी.
असम पुलिस द्वारा दिए गए गार्ड ऑफ़ ऑनर और 21 तोपों की सलामी ने इस अंतिम संस्कार को एक गंभीर माहौल दिया. इसके बाद, एक गहरे भावुक पल में, ज़ुबीन की बहन पामी बोरठाकुर ने परिवार के सदस्यों अरुण गर्ग और राहुल गौतम शर्मा के साथ मिलकर चिता को मुखाग्नि दी. जैसे ही आग की लपटें तेज हुईं, मैदान में गायक का अमर गीत 'मायाबिनी' गूंजने लगा. यह उनकी अपनी इच्छा थी कि उनकी विदाई उनके ही संगीत के साथ हो, और यह इच्छा पूरी हुई.
हज़ारों की भीड़ श्रद्धापूर्ण मौन में खड़ी रही, जो केवल "जॉय ज़ुबीन दा" के नारों से टूट रही थी. कई लोग खुलेआम रो रहे थे, जबकि अन्य ने अपने फोन ऊंचे उठा रखे थे, ताकि वे उस हस्ती की अंतिम झलक कैद कर सकें जिसने अपने गीतों, फिल्मों और बातों से उनके जीवन को छुआ था. बीच-बीच में, लोगों की आवाज़ें भी संगीत के साथ मिल गईं, जिससे यह विदाई उनके साथ एक अंतिम संगीत कार्यक्रम की तरह बन गई.
ज़ुबीन की पत्नी गरिमा सैकिया गर्ग, पिता कपिल बोरठाकुर और परिवार के अन्य सदस्य भी अपनी भावभीनी श्रद्धांजलि देने के लिए वहां मौजूद थे और दुख की इस घड़ी में शोकग्रस्त जनता के साथ खड़े थे.
असम की यह श्रद्धांजलि केवल लोगों की ओर से नहीं थी, बल्कि इसके संस्थानों और नेताओं की तरफ़ से भी थी. नेताओं के अलावा ABSU, AASU, AJYCP, सुतिया छात्र संघ, AATSA, AKRASU, कार्बी सत्र संघ और असम साहित्य सभा सहित कई संगठन इस महान हस्ती को सम्मानित करने के लिए उपस्थित थे. कलाकार, सहकर्मी और दोस्त भी शोकग्रस्त जनता के साथ खड़े थे. पापोन, जतिन बोरा, जे.पी. दास, गर्ग के बैंड और सांस्कृतिक जगत के कई लोगों ने अपनी श्रद्धांजलि अर्पित की.
जैसे ही आग की लपटों ने गर्ग के पार्थिव शरीर को अपने में समाहित कर लिया, असम के पास उनकी अमर विरासत रह गई - उनके गीत, उनकी भावना, उनका साहस और उनका प्यार. उनका अंतिम संस्कार सिर्फ़ एक जीवन का अंत नहीं था, बल्कि एक युग का अंत था. फिर भी, लाखों लोगों के नारों, संगीत और आंसुओं में एक सच्चाई साफ़ थी - ज़ुबीन गर्ग वास्तव में असम को कभी नहीं छोड़ेंगे.
डॉ मेडुसा : क्यों पूरा असम रो रहा है ?
आंसुओं से भरी हुई.. पर बोलती हुई.. डॉ मेडुसा ने एक वीडियो जारी किया है अपने प्यारे गायक जुबीन गर्ग के बारे में, उनके महत्व के बारे में.. उनके जाने के बारे मे. यह हिंदी में उसका अनुवाद
ज़ुबिन दा.
पिछले तीन दिनों से, पूरा इंटरनेट यह सोच रहा है कि असम एक गायक की मौत पर शोक क्यों मना रहा है? वह भी इस तरह से जो इतिहास में शायद ही कभी देखा गया हो? ऐसा क्यों लगता है कि प्रकृति खुद अपने सबसे प्रिय बच्चे के खोने का शोक मना रही है? आज, जब वह पंचतत्व में विलीन हो रहे हैं, तो क्यों गायें, घोड़े, कुत्ते एक इंसान के लिए रोने में मनुष्यों का साथ दे रहे हैं? चलिए मैं आपको इसका जवाब दूँ. ताकि पूरी दुनिया समझ सके. मैं आपको ज़ुबिन गर्ग के बारे में बताती हूँ. हमारे दोस्त, हमारे बेटे, हमारे दादा.जब आप अपनी आँखें बंद करते हैं, जब अँधेरा आपको अपने आगोश में ले लेता है, जब आप ध्यान केंद्रित करते हैं, तो आप अपने दिल की धड़कन सुन पाते हैं. हम असमियों (Axomiya) के लिए, हम ज़ुबिन दा को सुनते हैं. उनके 38000 गीतों में से कोई एक, जिसमें हमें लगता है कि वह सीधे हमसे बात कर रहे हैं. ज़ुबिन दा वह साउंडट्रैक हैं जिस पर हमारी ज़िंदगियाँ चलती हैं. हमारे जीवन की हर एक घटना के लिए एक ज़ुबिन का गीत है. आपको किसी पर क्रश है? 'कुन तुमि मेघाली?' (Kun tumi meghali?). प्यार? 'तुमि सुवा जेतिया दुसोकु तुली' (Tumi suwa jetiya dusoku tuli). दिल टूटा है? 'रोड आजि केनि पाऊ?' (Rod aaji keni paau?). आप अपनी आस्था से जुड़ना चाहते हैं? ज़ुबिन दा के बोरगीत. आपके लोग? 'मुक्ति'. उन हजारों लोगों के लिए जो हमारी मातृभूमि, 'असम माँ' (Axomi Aai) से दूर हैं, वह घर से जुड़ाव हैं, वह उस आरामदायक उपस्थिति की तरह हैं जिसे हम किसी बुरे सपने से जागने पर ढूंढते हैं, वह घर हैं. वह हमारे अंदर की लड़ाई भी हैं. हिम्मत. ताकत. उन्होंने इतनी सारी व्यक्तिगत त्रासदियों का सामना किया, और फिर भी वह हमें जीवन की सभी लड़ाइयों के लिए ताकत देते हैं. जब उन्होंने सार्वजनिक रूप से अपनी सवर्ण जाति को अस्वीकार कर दिया और खुद को एक इंसान, एक कलाकार कहा, तो उन्होंने हाशिए पर पड़े लोगों के लिए आवाज़ उठाई. जब वह सीएए-विरोधी प्रदर्शनों में शामिल हुए, तो वह हमारे प्रतिनिधि बन गए. जब उन्होंने जानवरों, पेड़ों, प्रकृति के लिए बात की, तो उन्होंने यह सुनिश्चित किया कि बेज़ुबानों को भी आवाज़ मिले. उन्होंने उन शिष्टाचार के नियमों का भी पालन नहीं किया जो समाज ने एक सेलिब्रिटी के लिए तय किए थे. सत्ता में बैठे किसी भी व्यक्ति के प्रति उनकी अनास्था ने हमें यह विश्वास दिलाया कि हमें भी डरने की कोई बात नहीं है. ज़ुबिन दा ने हमारे प्यार और टूटे दिलों को आवाज़ दी, लेकिन उन्होंने एक विफल व्यवस्था और समाज के प्रति हमारी हताशा और निराशा को भी आवाज़ दी. वर्षों पहले उनकी कलम से वे अमर पंक्तियाँ निकलीं जो आज भी प्रासंगिक हैं "अंधो ज़ाख़ोन भोंडो ज़ाख़ोक, ओर्थो लुभोर नोग्नो जुजोत, जिबोन मोरोनोर स्वपनोबाहोक, मोग्नो बिभुर ओंधो ज़ुखोट" ("ondho xaaxon bhondo xaaxok, ortho lubhor nogno jujot, jibon moronor swapnabaahok, mogno bibhur ondho xukhot"), जो शासक वर्ग की आलोचना करती हैं, जो अपने व्यक्तिगत धन की नग्न खोज में लोगों के दर्द से अंधे हैं. ज़ुबिन दा एक सच्चे देशभक्त थे. एक ऐसा व्यक्ति जो अपने लोगों से इतना प्यार करता था कि वह सपनों के शहर मुंबई को छोड़कर घर वापस आ गया. उनका नाम ज़ुबिन था, जिसका अर्थ है तलवार. लेकिन ज़ुबिन दा ने हमारे अपने मन की तलवारों को तेज किया. उन्होंने हमें महसूस करना सिखाया. सोचना सिखाया. और सबसे बढ़कर, दूसरों के लिए. उन्होंने हमें बिना किसी संकोच के इंसान बनना सिखाया.
आज, हमेशा के लिए, ज़ुबिन दा वह हवा बन गए हैं जिसमें हम अपनी बाकी ज़िंदगी साँस लेंगे. उनकी आत्मा हम सभी असमियों (Axomiya) का एक हिस्सा बन गई है. उनके शब्द हमेशा हमारे शरीर के हर कण में गूंजते रहेंगे. और इसीलिए हम शोक मना रहे हैं. उनके साथ, हम सब भी थोड़ा-थोड़ा मर गए हैं. धुमुहार खोते तुर बोहु जुगोर नासुन एतिया ख़ेख़ ज़ुबिन दा, ख़ांतिर सुभ्रो रोंगोत जाते तोई खोदाई जिलिकि थाको. बिदाई. (Dhumuhaar xote tur bohu jugor naasun etiya xex zubin da, xaantir xubhro rongot jaate toi xodaai jiliki thaako. Bidaai.)
अपूर्वानंद : आख़िर हम कौन सी हिंदी बोलते हैं?
लड़ाई हमेशा से हिंदी को 'शुद्ध' करने, उसे विदेशीपन से मुक्त करने, और उसमें शामिल होने वाली बोलियों को सीमित करने की रही है.
यह लेख द वायर में मूल अंग्रेजी में प्रकाशित हुआ. उसका हिंदी रूपांतर
सूचना और प्रसारण मंत्रालय ने कुछ टेलीविज़न चैनलों को नोटिस भेजकर, उन्हें अपने हिंदी कार्यक्रमों में उर्दू शब्दों को शामिल करने पर स्पष्टीकरण देने का निर्देश दिया है. उसने कहा कि वह एक नागरिक की शिकायत पर कार्रवाई कर रहा है. महाराष्ट्र के ठाणे के किन्हीं वास्तव ने मंत्रालय को पत्र लिखकर आरोप लगाया कि चैनल हिंदी में प्रसारण का दावा करते हैं, लेकिन वे लगभग 30% उर्दू के शब्द इस्तेमाल करते हैं. उन्होंने कहा, यह दर्शकों के साथ धोखाधड़ी है. इतना ही नहीं, यह एक अपराध है. मंत्रालय को उनकी आपत्ति में दम लगा और उसने तुरंत चैनलों को पत्र लिखकर मंत्रालय को अनुपालन रिपोर्ट भेजने को कहा.
मंत्रालय ने वास्तव से यह पूछने की ज़रूरत महसूस नहीं की कि वे हिंदी कार्यक्रमों में उर्दू के '30 प्रतिशत' के इस सटीक आंकड़े पर कैसे पहुंचे. न ही उसने यह पूछा कि क्या हिंदी सिर्फ़ उर्दू शब्दों से ही भ्रष्ट होती है, या क्या अंग्रेज़ी के शब्द भी इसे उतना ही भ्रष्ट करते हैं. या शायद उनका मानना है कि उर्दू हिंदी को प्रदूषित करती है जबकि अंग्रेज़ी इसे आभूषण की तरह सजाती है? और वह कौन सा तर्क है जिसके आधार पर उर्दू, अंग्रेज़ी, या अरबी के शब्दों का इस्तेमाल एक 'अपराध' बन जाता है?
विडंबना यह है कि अपने ही पत्र में, मंत्रालय ने चैनलों पर 'ग़लत' (wrong) हिंदी का इस्तेमाल करने और इसके 'इस्तेमाल' (use) को समझाने का आरोप लगाया – ये दोनों ही शब्द उर्दू से लिए गए हैं. असल में, 'हिंदी' शब्द भी – क्या यह सच में उस अर्थ में हिंदी है, जिस अर्थ में वास्तव इसका इस्तेमाल कर रहे हैं? 'हिंद' शब्द किसने गढ़ा जिससे हिंदी शब्द निकला है? यह कहां से आया? अगर कोई हिंदी के 'पूर्ण शुद्धिकरण' की मांग करे, तो उसे इसी शब्द से शुरुआत करनी होगी.
ऐसा हुआ कि जब यह नोटिस की ख़बर द वायर हिंदी की संपादक मीनाक्षी के ज़रिये मुझ तक पहुंची, तो मैं पटना में चंद्रशेखर व्याख्यान श्रृंखला के हिस्से के रूप में आलोक राय को सुन रहा था. उनके व्याख्यान में इस कहानी का पता लगाया गया कि हिंदी कैसे हिंदी बनी. उनका कहना था कि जहां एक भाषा के रूप में हिंदी को एक स्पेक्ट्रम की तरह माना जा सकता है, वहीं एक 'मानक हिंदी' के निर्माण को लेकर एक वास्तविक ऐतिहासिक चिंता रही है.
दूसरे शब्दों में, लड़ाई हमेशा से हिंदी को 'शुद्ध' करने, उसे विदेशीपन से मुक्त करने और उसमें शामिल होने वाली बोलियों को सीमित करने की रही है. इसे दूसरे तरीक़े से कहें तो, यह घुसपैठियों को बाहर निकालने और केवल तथाकथित 'मूल निवासियों' को नागरिकता देने का एक प्रयास रहा है. आलोक राय ने हमें याद दिलाया कि आकांक्षा एक ऐसी हिंदी की थी जिसमें हवन की पवित्र अग्नि की महक हो – लोबान की ख़ुशबू से काम नहीं चलेगा.
यह वास्तव और उनका समर्थन करने वाले मंत्रालय को यह याद करने में मदद कर सकता है कि इतिहास में और किसने हिंदी के बारे में इस तरह सोचा था. वास्तव के लिए, हिंदी में उर्दू शब्दों का इस्तेमाल एक अपराध के बराबर है. लेकिन गांधी का एक ऐसी हिंदी पर ज़ोर देना जो अधिक मिलनसार हो, उर्दू के साथ मिलकर हिंदुस्तानी बनी हो, इसी बात ने उनके हत्यारे नाथूराम गोडसे को नाराज़ किया था.
क्यों गोडसे, जो एक मराठी भाषी थे, हिंदी में उर्दू के मिश्रण से नाराज़ हुए होंगे? गांधी की हत्या के अपने औचित्य में, उन्होंने गांधी के हिंदुस्तानी की वकालत को अक्षम्य अपराधों में से एक के रूप में सूचीबद्ध किया था:
"गांधी की मुस्लिम-समर्थक नीति भारत की राष्ट्रभाषा के सवाल पर उनके विकृत रवैये में साफ़ तौर पर दिखती है. यह काफ़ी स्पष्ट है कि प्रमुख भाषा के रूप में स्वीकार किए जाने का सबसे पहला दावा हिंदी का है. भारत में अपने करियर की शुरुआत में, गांधी ने हिंदी को बहुत बढ़ावा दिया, लेकिन जब उन्होंने पाया कि मुसलमानों को यह पसंद नहीं है, तो वे हिंदुस्तानी के पैरोकार बन गए.
भारत में हर कोई जानता है कि हिंदुस्तानी नाम की कोई भाषा नहीं है; इसका कोई व्याकरण नहीं है; इसकी कोई शब्दावली नहीं है. यह महज़ एक बोली है, इसे बोला जाता है, लेकिन लिखा नहीं जाता. यह एक दोगली ज़बान है और हिंदी और उर्दू के बीच की एक संकर नस्ल है, और महात्मा का कुतर्क भी इसे लोकप्रिय नहीं बना सका. लेकिन मुसलमानों को ख़ुश करने की अपनी इच्छा में उन्होंने इस बात पर ज़ोर दिया कि केवल हिंदुस्तानी ही भारत की राष्ट्रभाषा होनी चाहिए. उनके अंधे अनुयायियों ने, निश्चित रूप से, उनका समर्थन किया और तथाकथित संकर भाषा का इस्तेमाल होने लगा. मुसलमानों को ख़ुश करने के लिए हिंदी भाषा के आकर्षण और पवित्रता की बलि चढ़ाई जा रही थी. उनके सभी प्रयोग हिंदुओं की क़ीमत पर थे.”
उनका हिंदू राष्ट्रवाद इस 'अशुद्धता' को बर्दाश्त नहीं कर सका. उनका मानना था कि एक शुद्ध राष्ट्र को एक शुद्ध भाषा की ज़रूरत होती है, जो अकेले ही शुद्ध भारतीय पैदा कर सकती है. गोडसे की नज़र में गांधी ने दो अपराध किए थे: मुसलमानों और ईसाइयों को भारत के भीतर रखकर उसे अपवित्र करना; और हिंदी को उर्दू से प्रदूषित करना. गोडसे का मानना था कि इसकी एकमात्र सज़ा गांधी के लिए मौत थी. गोडसे के बाद से, उनके प्रशंसकों ने बार-बार हिंदी में उर्दू शब्दों का शिकार करने की कोशिश की है. दीनानाथ बत्रा ने हिंदी को शुद्ध करना अपना मिशन बना लिया. अपने शिक्षा संस्कृति उत्थान न्यास के माध्यम से, उन्होंने और उनकी टीम ने पाठ्यपुस्तकों को जूं की कंघी की तरह खंगाला, और एक-एक करके उर्दू शब्दों को हटाया. 2017 में, उन्होंने एनसीईआरटी को एक पांच-पृष्ठीय रिपोर्ट सौंपी, जिसमें मोहल्ला, साल, दोस्त और मुश्किल जैसे शब्दों को हटाने की मांग की गई थी. यह शुद्धिकरण के लंबे अभियान का केवल एक हिस्सा था.
इसका एक परिणाम यह हुआ कि मध्य प्रदेश और राजस्थान की सरकारों ने अपने पुलिस विभागों को हिंदी को अरबी और फ़ारसी शब्दों से मुक्त करने का निर्देश दिया. अधिकारियों से मुक़दमा, मुलज़िम, इल्ज़ाम, इत्तिला और चश्मदीद जैसे शब्दों को 'शुद्ध' हिंदी समकक्षों से बदलने के लिए कहा गया. इस अभियान ने हमेशा आरएसएस की हिंदी की समझ से प्रेरणा ली है. 2018 में, इसकी राष्ट्रीय सभा ने भारतीय भाषाओं में विदेशी शब्दों की मौजूदगी पर चिंता व्यक्त करते हुए एक प्रस्ताव पारित किया. इससे पहले, एम.एस. गोलवलकर ने 'बंच ऑफ़ थॉट्स' पुस्तक में घोषणा की थी कि केवल संस्कृत या उसकी उत्तराधिकारी हिंदी ही भारत को एक साथ रख सकती है, जबकि फ़ारसी-मिश्रित 'विदेशी' भाषा एक ख़तरनाक विचलन थी.
शुद्धता पर यह ज़ोर कोई नया नहीं है. दो दशक से भी अधिक समय पहले, आलोक राय ने, और उनसे पहले उनके पिता अमृत राय ने, उस प्रक्रिया का अध्ययन किया था जिससे हिंदी अस्तित्व में आई. आलोक राय ने बताया कि निर्णायक क्षण 19वीं शताब्दी के अंत में नागरी लिपि के लिए आधिकारिक मान्यता हासिल करने का अभियान था, जिसकी परिणति उर्दू और हिंदी के लिए अलग-अलग मान्यता के रूप में हुई. हम शायद ही इस बात पर ध्यान देते हैं कि जो कभी केवल नागरी थी — यहां तक कि मदन मोहन मालवीय के लिए भी — उसे बाद में देवनागरी का दर्जा दे दिया गया. तर्क यह था कि हिंदी को देवभाषा संस्कृत की सबसे बड़ी बेटी के रूप में प्रस्तुत करना था. यदि संस्कृत भारतीय पहचान की आदिम आवाज़ थी, तो हिंदी को उसका सिंहासन विरासत में मिलना ही चाहिए. और संस्कृत की बेटी होने के नाते, इसे महज़ नागरी में नहीं बल्कि केवल देवनागरी में ही लिखा जा सकता था.
लेकिन कौन सी हिंदी, हिंदी कहलाने की हक़दार है? एक निबंध में, ओपन यूनिवर्सिटी के जसपाल नवील सिंह एक मार्मिक कहानी सुनाते हैं. उनके पिता, जो रावलपिंडी के पास पैदा हुए थे, विभाजन के नरसंहार से भागकर दिल्ली आ गए, और बाद में जर्मनी चले गए, जहां उन्होंने शादी की और एक परिवार बसाया. जसपाल जर्मन बोलते हुए बड़े हुए, और एक वयस्क के रूप में, उन्होंने हिंदी सीखकर अपनी जड़ों से फिर से जुड़ने की कोशिश की. एक दिन, उनके पिता ने उनकी पाठ्यपुस्तक देखने के लिए कहा – रूपर्ट स्नेल और साइमन वेटमैन की 'टीच योरसेल्फ हिंदी: ए कम्प्लीट कोर्स'. जैसे ही उन्होंने इसके पन्ने पलटे, उन्होंने अस्वीकृति में अपना सिर हिलाया. उन्होंने कहा, किताब में दिए गए शब्द हिंदी नहीं थे. शायद हिंदुस्तानी, लेकिन हिंदी नहीं. शुक्रिया, मेज़, कुर्सी, किताब, बीमार, मगर, अगर, दरवाज़ा, खिड़की जैसे शब्द – उन्होंने ज़ोर देकर कहा, ये सब विदेशी थे.
चौंकाने वाली बात यह है कि ये वे ही शब्द थे जिनका वह रोज़ाना इस्तेमाल करते थे. लेकिन एक पाठ्यपुस्तक में, वे अस्वीकार्य हो गए. इस अस्वीकृति के पीछे की स्मृति विभाजन के बाद दिल्ली में उनके स्कूली दिनों की थी. उन्होंने याद किया कि कैसे शिक्षक ऐसे शब्दों का इस्तेमाल करने पर छात्रों को सज़ा देते थे: उनकी उंगलियों के बीच एक पेंसिल फंसाकर और उसे एक किताब से तब तक मारते थे जब तक कि पेंसिल टूट न जाए – या उंगलियां टूट न जाएं. जसपाल लिखते हैं, "मेरे पिता ने भाषा को तोड़ा था, और अब शिक्षक उनकी कलम तोड़ देंगे – या उनकी उंगलियां भी. सत्ता के इस हिंसक शैक्षणिक प्रदर्शन का यही सरल नैतिक पाठ था."
विभाजन के बाद, उनके जैसे अनगिनत बच्चों ने इस 'भाषाई नस्लवाद' की हिंसा को सहा. जैसा कि सिंह कहते हैं, लोग अपने जीवन में इस मिश्रित भाषा का स्वतंत्र रूप से इस्तेमाल करते थे, लेकिन स्कूलों और आधिकारिक संदर्भों में, उन्हें एक शुद्ध, बहिष्करणवादी हिंदी को आत्मसात करने के लिए मज़बूर किया गया था.
जब तक मैं यह लिख रहा हूं, मंत्रालय एक स्पष्टीकरण जारी कर चुका है. अब उसका कहना है कि उसने केवल एक नागरिक की शिकायत को चैनलों को नियमित प्रक्रिया के अनुसार भेजा था, और अपनी ओर से कोई निर्देश जारी नहीं किया था. फिर भी, उसका पत्र चैनलों को 15 दिनों के भीतर यह बताने का निर्देश देता है कि उन्होंने क्या कार्रवाई की है.
जो खोज चल रही है वह 'शुद्ध हिंदी' की है – जैसे शुद्ध शाकाहारी भोजन की खोज. जो लोग साल भर मांस खाते हैं, वे पवित्र श्रावण मास में, शाकाहारी शुद्धता को बनाए रखने के लिए हत्या भी कर सकते हैं. इसी तरह का तर्क शुद्ध हिंदी की खोज को प्रेरित करता है.
अफ़ग़ान लड़का विमान के लैंडिंग गियर में छिपकर काबुल से दिल्ली पहुँचा
बीबीसी न्यूज़, दिल्ली से निकिता यादव की रिपोर्ट के अनुसार, 13 साल का एक अफ़ग़ान लड़का काबुल से दिल्ली तक एक ख़तरनाक सफ़र तय कर आया है. वह कम एयर के यात्री विमान के लैंडिंग गियर कंपार्टमेंट में छिपा हुआ था. अधिकारियों ने बताया कि उत्तरी अफ़ग़ानिस्तान के कुंदुज़ शहर का यह किशोर, विमान के सोमवार को उतरने के बाद दिल्ली के अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डे के रनवे पर घूमता हुआ पाया गया. भारतीय सुरक्षा कर्मियों ने उसे हिरासत में ले लिया और कई घंटों तक पूछताछ के बाद उसी उड़ान से काबुल वापस भेज दिया. लड़के ने अधिकारियों को कथित तौर पर बताया कि उसने यह यात्रा उत्सुकता के कारण की थी.
भारतीय केंद्रीय औद्योगिक सुरक्षा बल (सीआईएसएफ) के एक प्रवक्ता ने बताया कि लड़का कम एयरलाइंस की फ़्लाइट आरक्यू-4401 में किसी की नज़र में आए बिना यात्रा करने में कामयाब रहा, जो रविवार को लगभग 11:10 (05:40 जीएमटी) पर दिल्ली में उतरी थी. पुलिस ने उसे अकेले घूमते हुए पाया और पूछताछ के लिए एक तरफ़ ले गई. लड़के ने अधिकारियों को कथित तौर पर बताया कि वह विमान के पीछे के केंद्रीय लैंडिंग गियर कंपार्टमेंट में छिपा हुआ था. आगे की सुरक्षा जाँच के बाद एयरलाइन के कर्मचारियों को एक छोटा लाल रंग का ऑडियो स्पीकर भी मिला.
द इंडियन एक्सप्रेस अख़बार ने रिपोर्ट दी कि 13 साल का यह लड़का ईरान जाना चाहता था और उसे पता नहीं था कि जिस फ़्लाइट में वह घुसा था, वह दिल्ली के लिए थी, तेहरान के लिए नहीं. अख़बार के अनुसार, लड़के ने काबुल हवाई अड्डे में घुसपैठ की, यात्रियों के एक समूह का पीछा किया, और विमान के पिछले व्हील वेल में छिप गया - वह आंतरिक डिब्बा जिसमें लैंडिंग गियर रहता है. वह अपने साथ सिर्फ़ लाल रंग का स्पीकर ले गया था.
हाल ही में अमेरिका या यूरोप जाने वाली उड़ानों में छिपकर यात्रा करने वालों की घटनाएँ सामने आई हैं, अक्सर वे अपने गृह देशों से भागते हैं. लेकिन उनमें से बहुत कम ही जीवित बच पाते हैं. विशेषज्ञों का कहना है कि ऐसे कई छिपकर यात्रा करने वाले जो ऐसी उड़ानों में बच जाते हैं, वे अक्सर नीचे उतरते समय बेहोश हो जाते हैं, जिससे लैंडिंग गियर नीचे आने पर उनके गिरने से मौत का ख़तरा होता है. 2022 में, एक 22 वर्षीय केन्याई व्यक्ति एम्स्टर्डम में एक कार्गो विमान के व्हील वेल में ज़िंदा पाया गया था.
दिल्ली अदालत ने अडाणी पर रिपोर्टिंग रोकने के आदेश के ख़िलाफ़ अपील को स्थानांतरित करने से इंकार किया
द वायर की रिपोर्ट के अनुसार, दिल्ली की रोहिणी कोर्ट में प्रधान ज़िला और सत्र न्यायाधीश ने मंगलवार (23 सितंबर) को पत्रकार परंजॉय गुहा ठाकुरता और न्यूज़ लॉन्ड्री द्वारा अडाणी के ख़िलाफ़ रिपोर्टिंग पर रोक लगाने वाले एकतरफ़ा (एक्स-पार्टी) गग ऑर्डर के ख़िलाफ़ दायर अपीलों को उस न्यायाधीश को स्थानांतरित करने से इनकार कर दिया, जिसने पहले चार अन्य पत्रकारों को उसी मामले में राहत दी थी. इससे पहले सोमवार (22 सितंबर) को, ज़िला न्यायाधीश सुनील चौधरी ने इन अपीलों को न्यायाधीश आशीष अग्रवाल के पास स्थानांतरित कर दिया था.
लेकिन प्रधान ज़िला और सत्र न्यायाधीश गुरविंदर पाल सिंह ने मंगलवार को टिप्पणी की कि चूंकि परंजॉय की अपील पर बहस ज़िला न्यायाधीश चौधरी के समक्ष हुई थी, इसलिए मामले को उन्हीं के पास रखा जाना चाहिए, जैसा कि लाइव लॉ ने रिपोर्ट किया है. शुरुआत में प्रधान न्यायाधीश ने कहा था कि "औचित्य की मांग है कि आदेश उसी जैसे न्यायाधीश द्वारा पारित किया जाए," लेकिन बाद में उन्होंने गुहा ठाकुरता का प्रतिनिधित्व कर रहे वकील अपार गुप्ता से पूछा कि क्या उन्हें इस बात पर आपत्ति है कि अपील की सुनवाई ज़िला न्यायाधीश चौधरी करें. जवाब में, गुप्ता ने कहा कि अगर न्यायाधीश चौधरी और न्यायाधीश अग्रवाल द्वारा पारित आदेशों के बीच विसंगतियाँ आती हैं तो मुश्किलें पैदा हो सकती हैं. प्रधान न्यायाधीश ने कहा, "आप दूसरे कोर्ट का आदेश दिखाएँ. एक पहले ही तय हो चुका है. अपीलीय कोर्ट (न्यायाधीश चौधरी) को दूसरे कोर्ट का फ़ायदा मिलेगा. वह और ज़्यादा बुद्धिमान हो जाएगा."
न्यूज़ लॉन्ड्री की अपील पर भी ऐसा ही आदेश पारित किया गया था. अब दोनों अपीलों की सुनवाई बुधवार (24 सितंबर) को होनी है. 18 सितंबर को, न्यायाधीश अग्रवाल ने पत्रकार रवि नायर, अबीर दासगुप्ता, अयस्कान्त दास और आयुष जोशी को अडाणी एंटरप्राइज लिमिटेड (एईएल) को कथित तौर पर बदनाम करने वाली कहानियाँ प्रकाशित करने से रोकने वाले एकतरफ़ा आदेश पर रोक लगा दी थी. उसी दिन, न्यायाधीश चौधरी ने गुहा ठाकुरता की एकतरफ़ा गग ऑर्डर के ख़िलाफ़ याचिका पर आदेश आरक्षित रखा था. हालांकि, न्यायाधीश अग्रवाल ने एक अलग मामले में चार अन्य पत्रकारों के लिए उसी आदेश को रद्द कर दिया था. इसके बाद, न्यायाधीश चौधरी ने मामले को स्थानांतरित कर दिया था.
रोहिणी कोर्ट ने 6 सितंबर को एक एकतरफ़ा अंतरिम आदेश पारित किया था, जिसमें कई पत्रकारों और कार्यकर्ताओं को एईएल को कथित तौर पर बदनाम करने वाले लेखों और सोशल मीडिया पोस्ट को हटाने और अगली सुनवाई तक फर्म के ख़िलाफ़ ऐसी सामग्री प्रकाशित न करने का निर्देश दिया गया था. पत्रकार संगठनों ने एकतरफ़ा आदेश के साथ-साथ बाद में सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय द्वारा मीडिया घरानों और कई यूट्यूब चैनलों को अडाणी समूह का उल्लेख करने वाली सामग्री को हटाने के लिए जारी किए गए नोटिस पर चिंता और निराशा व्यक्त की थी.
ओवैसी की पार्टी बिहार के मैदान में फिर उतरेगी
द हिंदू की रिपोर्ट के अनुसार, हैदराबाद के सांसद असदुद्दीन ओवैसी मंगलवार को बिहार विधानसभा चुनावों से पहले राज्य पहुँचे. उनकी पार्टी, ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुस्लिमीन (एआईएमआईएम), 20 से अधिक सीटों पर उम्मीदवार उतार सकती है. एआईएमआईएम के अध्यक्ष के रूप में, ओवैसी कई सालों से बिहार विधानसभा में अपनी पार्टी की उपस्थिति का विस्तार करने की कोशिश कर रहे हैं. उनका मुख्य ध्यान सीमांचल क्षेत्र के पिछड़ेपन को उजागर करना रहा है, जिसका श्रेय उन्होंने पहले राष्ट्रीय जनता दल (आरजेडी) और जनता दल (यूनाइटेड) की सरकारों को दिया है.
एआईएमआईएम का अभियान, जो बुधवार (24 सितंबर) को शुरू होने वाला है, पूर्णिया, कटिहार, अररिया और किशनगंज के सीमांचल ज़िलों पर केंद्रित होगा. 'सीमांचल न्याय यात्रा' नामक इस अभियान में उन निर्वाचन क्षेत्रों में रोड शो और जनसभाएँ शामिल होंगी जहाँ पार्टी ने पहले चुनाव लड़ा है. पहले दिन, अभियान किशनगंज, ठाकुरगंज और बहादुरगंज को कवर करेगा. दूसरे दिन, यह कोचाधमन, जोकीहाट, अररिया और पूर्णिया से होकर गुजरेगा. राज्य के अन्य हिस्सों में और भी रैलियों की योजना बनाई गई है.
चुनाव से पहले, एआईएमआईएम के बिहार नेतृत्व, अमौर विधायक अख़्तरुल ईमान के नेतृत्व में, इंडिया गठबंधन में शामिल होने की मांग की थी. पार्टी ने मंत्री पद की मांग नहीं की थी, लेकिन सीमांचल के लिए एक विशेष पैकेज, छह सीटों पर चुनाव लड़ने का अवसर और दलितों, पिछड़े वर्गों और अल्पसंख्यकों के लिए आनुपातिक प्रतिनिधित्व की मांग की थी. इस प्रस्ताव पर कोई प्रतिक्रिया नहीं मिली थी.
2020 के बिहार चुनावों में, एआईएमआईएम ने 19 उम्मीदवार उतारे और पाँच सीटें जीतीं - अमौर, कोचाधमन, बैसी, जोकीहाट और बहादुरगंज. मंगलवार को बिहार पहुँचने के बाद, ओवैसी ने कहा कि पार्टी के कार्यकर्ता कई हफ़्तों से तैयारी कर रहे थे. उन्होंने पत्रकारों से कहा, "अख़्तरुल ईमान के नेतृत्व में अभियान पहले ही शुरू हो चुका है. हम अप्रैल में आए थे और कहा था कि हम चुनाव लड़ेंगे. सीमांचल में चार दिवसीय कार्यक्रम में विभिन्न विधानसभा क्षेत्रों का दौरा करना शामिल होगा. हम वहाँ लोगों से मिलेंगे और जनसभाएँ आयोजित करेंगे."
एलन मस्क के पिता पर बाल यौन शोषण के कई आरोप, अरबपति बेटे ने किया था हस्तक्षेप: रिपोर्ट
एलन मस्क ने अपने जीवन के कई पहलुओं को सार्वजनिक रूप से प्रदर्शित करने में कोई संकोच नहीं किया है. वे अपने सोशल नेटवर्क X पर रोज़ाना पोस्ट करते हैं, दो जीवनियों में सहयोग कर चुके हैं और अक्सर पॉडकास्ट और सम्मेलनों में बोलते हैं. लेकिन उनके जीवन का एक हिस्सा ऐसा है जिसके बारे में उन्होंने ज़्यादा कुछ नहीं बताया है - अपने पिता, एरोल मस्क से उनका लंबे समय से चला आ रहा अलगाव.
न्यूयॉर्क टाइम्स की एक जांच में यह बात सामने आई है कि एलन मस्क के अपने पिता से रिश्ते टूटने का एक महत्वपूर्ण कारण एरोल मस्क के ख़िलाफ़ बाल यौन शोषण के आरोप हैं. द टेलीग्राफ़ में प्रकाशित न्यूयॉर्क टाइम्स के किर्स्टन ग्राइंड और जॉन एलिगॉन की रिपोर्ट के अनुसार, ये आरोप बार-बार एलन मस्क के जीवन में सामने आते रहे हैं, क्योंकि रिश्तेदारों ने मदद के लिए उनसे संपर्क किया और उन्होंने कभी-कभी हस्तक्षेप करने के लिए कार्रवाई भी की.
यह रिपोर्ट व्यक्तिगत पत्रों, ईमेल और परिवार के सदस्यों के साक्षात्कारों पर आधारित है. एरोल मस्क के ख़िलाफ़ आरोप उनके पांच बच्चों और सौतेले बच्चों से संबंधित हैं, जिन पर दक्षिण अफ़्रीका और कैलिफ़ोर्निया में उनके साथ दुर्व्यवहार करने का आरोप लगाया गया था. पहला आरोप 1993 में सामने आया जब एरोल मस्क की 4 साल की सौतेली बेटी ने रिश्तेदारों को बताया कि उन्होंने उसे घर पर छुआ था. एक दशक बाद, उसी सौतेली बेटी ने कहा कि उसने उन्हें अपने गंदे अंडरवियर को सूंघते हुए पकड़ा था. हाल ही में 2023 में, परिवार के सदस्यों और एक सामाजिक कार्यकर्ता ने तब हस्तक्षेप करने का प्रयास किया, जब उनके तत्कालीन 5 वर्षीय बेटे ने कहा कि उसके पिता ने उसके नितंबों को टटोला था.
पुलिस और अदालती रिकॉर्ड के अनुसार, तीन अलग-अलग पुलिस जांच शुरू की गईं. दो जांचें समाप्त हो गईं, जबकि तीसरी का क्या हुआ यह स्पष्ट नहीं है. 79 वर्षीय एरोल मस्क को किसी भी अपराध में दोषी नहीं ठहराया गया है.
इन आरोपों ने मस्क परिवार के भीतर कलह पैदा कर दी है, और कुछ रिश्तेदारों ने मदद के लिए एलन मस्क का दरवाज़ा खटखटाया. लगभग 2010 में, एक रिश्तेदार ने एलन मस्क को कुछ आरोपों के बारे में पांच पन्नों का एक पत्र लिखा और उनसे हस्तक्षेप करने का आग्रह किया. यह स्पष्ट नहीं है कि एलन ने पत्र पढ़ा था या नहीं, लेकिन उनके एक सहायक ने एक रिश्तेदार को संदेश भेजा था. अरबपति ने अपने सौतेले परिवार और अपने पिता की तीसरी शादी से हुए भाई-बहनों को वित्तीय सहायता भी प्रदान की है. एक बार उन्होंने उन परिवार के सदस्यों को कैलिफ़ोर्निया में रखने की कोशिश की, ताकि वे एरोल मस्क से दूर रहें.
एरोल मस्क ने न्यूयॉर्क टाइम्स के सवालों के जवाब में कहा कि "ये रिपोर्ट झूठी और पूरी तरह से बकवास हैं." उन्होंने कहा कि ये आरोप परिवार के सदस्यों द्वारा गढ़े गए थे जो "बच्चों को झूठी बातें कहने के लिए उकसा रहे थे" और वे एलन मस्क से पैसे निकलवाने की कोशिश कर रहे थे. एलन मस्क और उनके निजी वकील ने टिप्पणी के अनुरोधों का जवाब नहीं दिया. हालांकि, 2017 में, एलन ने रोलिंग स्टोन पत्रिका को बताया था कि उनके पिता ने "लगभग हर बुरा काम किया है जिसके बारे में आप सोच सकते हैं." 2023 में प्रकाशित जीवनी में, एलन मस्क ने कहा कि वह एरोल मस्क से कोई संवाद नहीं करते हैं.
यह मामला तब और जटिल हो गया जब उस सौतेली बेटी, जिस पर 4 साल की उम्र में कथित तौर पर हमला हुआ था, ने बाद में 20 के दशक में एरोल के साथ एक बच्चे को जन्म दिया. हाल के महीनों में, परिवार के कुछ सदस्य एरोल मस्क के एलन मस्क की प्रसिद्धि का फ़ायदा उठाने के प्रयासों से नाराज़ हुए हैं. परिवार की एक सदस्य, एल्मी स्मिट, ने एक पॉडकास्ट पर जाकर इन आरोपों के बारे में बात की.
रिपोर्ट में यह भी उल्लेख किया गया है कि एलन मस्क ने लगभग 2023 में अपनी पूर्व सौतेली बहन की मदद के लिए प्रति माह 30,000 रैंड (लगभग $1,700) देना शुरू किया था. उसी साल, उन्होंने सोशल मीडिया पर अपने पिता के बारे में एक दुर्लभ टिप्पणी की. उन्होंने लिखा कि उन्होंने और उनके भाई किम्बल ने अपने पिता का समर्थन करने के लिए एक शर्त रखी थी कि एरोल मस्क बुरे व्यवहार में शामिल नहीं होंगे. एलन ने लिखा, "इसके बावजूद उन्होंने वैसा ही किया."
एक मर्द की तरह नाचना: अस्ताद देबू ने कैसे बनाये अपने मुहावरे
द इंडिया फ़ोरम पर कनिका बत्रा द्वारा प्रकाशित पुस्तक समीक्षा में केतू एच. कटराक की पुस्तक 'अस्ताद देबू: एन आइकॉन ऑफ़ कंटेम्परेरी इंडियन डांस' की समीक्षा की गई है, जहाँ अस्ताद देबू और समकालीन भारतीय नृत्य पर चर्चा की गई है. अस्ताद देबू का करियर भारतीय नृत्य की दिशाओं से गहराई से जुड़ा था, इस हद तक कि उनकी शैली ने भारतीय दर्शकों की नृत्य की समझ को आकार दिया और फिर से आकार दिया.
केतू एच. कटराक की पुस्तक 'अस्ताद देबू: एन आइकॉन ऑफ़ कंटेम्परेरी इंडियन डांस' पर आधारित यह लेख, समकालीन भारतीय नृत्य में अस्ताद देबू के योगदान और भारतीय समाज में पुरुष नर्तकों के संघर्षों पर प्रकाश डालता है. भारत में नृत्य को पारंपरिक रूप से एक स्त्री गतिविधि माना जाता है, जिससे पुरुष नर्तकों को अक्सर उपहास और लैंगिक रूढ़ियों का सामना करना पड़ता है. महेश दत्तानी के नाटक 'डांस लाइक ए मैन' से लेकर हालिया फिल्म 'रॉकी और रानी की प्रेम कहानी' तक, यह संघर्ष कला और सिनेमा में प्रतिबिंबित हुआ है. इन चुनौतियों के बीच, अस्ताद देबू (1947-2020) एक ऐसे प्रकाश स्तंभ के रूप में उभरे, जिन्होंने अपनी कला से भारतीय दर्शकों की नृत्य की समझ को हमेशा के लिए बदल दिया.
देबू ने 1970 के दशक में अपने करियर की शुरुआत की, जब भारतीय कलाकार वैश्विक कला रूपों से प्रेरित हो रहे थे. उदय शंकर की तरह, देबू ने भी कथक और कथकली जैसे भारतीय शास्त्रीय नृत्यों का प्रशिक्षण लिया और उन्हें पश्चिमी आधुनिक नृत्य तकनीकों के साथ मिलाकर एक अनूठी शैली विकसित की. उनकी कला किसी एक रूप तक सीमित नहीं थी; यह एक वैश्विक संलयन था जिसने नृत्य को एक व्यापक और समकालीन परिभाषा दी. उनकी शुरुआती प्रस्तुतियाँ ऊर्जावान थीं, जबकि बाद में उन्होंने एक अधिक ध्यानपूर्ण और धीमी गति वाली शैली अपनाई.
केतू कटराक की जीवनी देबू के कलात्मक नवाचारों का विस्तृत विवरण प्रस्तुत करती है. देबू ने केवल पैरों की गति पर ध्यान केंद्रित करने के बजाय, अपनी कमर और रीढ़ की हड्डी का उपयोग करके नृत्य में क्रांति ला दी. उन्होंने अपने प्रदर्शन को एक शानदार दृश्य अनुभव बनाने के लिए वेशभूषा, प्रकाश व्यवस्था और प्रॉप्स का अनूठा उपयोग किया. उनकी कला सामाजिक रूप से भी समावेशी थी; उन्होंने बधिर नर्तकों के साथ काम किया और उनके लिए विशेष तकनीकें विकसित कीं, जैसे ताल को समझने के लिए दृश्य संकेतों का उपयोग करना. उन्होंने वंचित बच्चों के साथ भी काम किया, जो कला के प्रति उनकी गहरी सामाजिक प्रतिबद्धता को दर्शाता है.
देबू को कला जगत में पहचान मिलने में काफी समय लगा, लेकिन वे कभी निराश नहीं हुए. 1995 में संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार और 2007 में पद्म श्री से सम्मानित होने के बाद, उन्होंने युवा कलाकारों को प्रोत्साहित करने और उन्हें आगे बढ़ाने को अपना मिशन बना लिया. कटराक की किताब न केवल कलाकार देबू को, बल्कि उनके पीछे के व्यक्ति को भी सामने लाती है - एक उदार मित्र, एक समर्पित गुरु और एक समलैंगिक व्यक्ति, जिन्होंने एक ऐसे युग में अपनी पहचान को गरिमा के साथ जीया जब यह आसान नहीं था. उन्होंने अपनी कामुकता को सार्वजनिक रूप से घोषित नहीं किया, लेकिन उनकी कला में, विशेष रूप से वेशभूषा और शारीरिक अभिव्यक्तियों के माध्यम से, इसकी सूक्ष्म झलकियाँ मिलती थीं.
2020 में अस्ताद देबू के निधन से भारतीय नृत्य ने अपना एक चमकता सितारा खो दिया. हालाँकि, उनकी विरासत उनके प्रशिक्षित शिष्यों और उनके द्वारा स्थापित 'अस्ताद देबू डांस फाउंडेशन' के माध्यम से जीवित है. उन्होंने न केवल समकालीन भारतीय नृत्य को एक नई दिशा दी, बल्कि पुरुष नर्तकों के लिए सम्मान और स्वीकृति का मार्ग भी प्रशस्त किया.
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