24/10/2025: नीतीश का बढ़ता संकट | मोदी का कर्पूरी कार्ड | आंकड़ों में बिहार | विहिप का दिल्ली में छठ जिहाद | फ्रांचेस्का ऑर्सिनी पर अपूर्वानंद | यूपी सरकार में हलचल | अमेरिकी मांग पर रूस से तेल खरीदी
‘हरकारा’ यानी हिंदी भाषियों के लिए क्यूरेटेड न्यूजलेटर. ज़रूरी ख़बरें और विश्लेषण. शोर कम, रोशनी ज़्यादा.
निधीश त्यागी, साथ में राजेश चतुर्वेदी, गौरव नौड़ियाल, फ़लक अफ़शां
आज की सुर्खियां
नीतीश कुमार: दो दशकों का अध्याय, अब अंत की ओर?
महागठबंधन में तस्वीर साफ़, एनडीए में कौन कप्तान?
मोदी का कर्पूरी-राग, और ‘जंगल राज’ का डर...
कांग्रेस का सवाल: कर्पूरी की सरकार तो जनसंघ ने गिराई थी?
तेजस्वी का वादा: चिंता मुक्त सरकार, सस्ते सिलेंडर...
प्रशांत किशोर का दांव, भाजपा के बागी उम्मीदवार पर...
छठ के बहाने ‘जिहादी-मुक्त दिल्ली’, मुसलमानों का बहिष्कार?
जम्मू-कश्मीर: तीन राज्यसभा सीटें पक्की, चौथी पर सस्पेंस...
अमेरिका में H-1B की मार, ग्रामीण स्वास्थ्य सेवा पर संकट?
यूपी: दीपोत्सव से दोनों डिप्टी सीएम नदारद, सब ठीक नहीं?
आंध्र प्रदेश: चलती बस में लगी आग, 20 ज़िंदा जले...
सुप्रीम कोर्ट का फ़ैसला: UAPA में गिरफ़्तारी का लिखित कारण अनिवार्य.
बिहार
नीतीश कुमार: क्या बिहार की राजनीति का सबसे लंबा अध्याय अंत की ओर है?
द वायर हिंदी में आशुतोष कुमार पांडेय ने नीतीश कुमार पर लंबा प्रोफाइल लिखा है. गांधी मैदान से मुख्यमंत्री आवास तक की कुछ किलोमीटर की दूरी नीतीश कुमार के दो दशकों से अधिक के राजनीतिक सफ़र का प्रतीक है. उन्होंने इस दौरान ‘सुशासन बाबू’ से लेकर समीकरणों के उस्ताद तक की भूमिका निभाई. लेकिन अब सवाल उठ रहा है कि क्या उनका यह लंबा अध्याय अपने अंत की ओर बढ़ रहा है. द वायर हिंदी के लिए आशुतोष कुमार पांडेय की रिपोर्ट के अनुसार, नीतीश कुमार की कहानी मेहनत, संघर्ष और राजनीतिक चतुराई का मिश्रण है. 1970 के दशक में जेपी आंदोलन से राजनीति में कदम रखने वाले नीतीश ने शुरुआती हार के बाद 1985 में अपनी पहली विधानसभा जीत दर्ज की और फिर कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा.
रिपोर्ट में संकर्षण ठाकुर की किताब ‘ब्रदर्स बिहारी’ का हवाला देते हुए बताया गया है कि कैसे लालू प्रसाद यादव के साथ उनके रिश्ते तल्ख़ हुए. 1994 में पटना के गांधी मैदान में हुई ‘कुर्मी चेतना रैली’ को उनके राजनीतिक जीवन का एक अहम मोड़ माना जाता है, जहां से उन्होंने लालू यादव के ख़िलाफ़ अपना रास्ता अलग करने का संकेत दिया. इसके बाद जॉर्ज फर्नांडीस के साथ मिलकर उन्होंने समता पार्टी की स्थापना की. 1995 के विधानसभा चुनाव में पार्टी को भारी हार का सामना करना पड़ा, जिसके बाद नीतीश कुमार ने भाजपा के साथ गठबंधन करने का रणनीतिक फ़ैसला किया. यह गठबंधन सफल रहा और 2005 में नीतीश कुमार पहली बार पूर्ण बहुमत के साथ बिहार के मुख्यमंत्री बने.
उनके कार्यकाल को प्रशासनिक स्थिरता देने का श्रेय दिया जाता है. हालांकि, उनका राजनीतिक करियर कई नाटकीय मोड़ों से भरा रहा है. उन्होंने 2013 में भाजपा से गठबंधन तोड़ा, 2015 में अपने पुराने प्रतिद्वंद्वी लालू यादव के साथ मिलकर सरकार बनाई, 2017 में फिर भाजपा के साथ चले गए, 2022 में एक बार फिर महागठबंधन में लौटे और 2024 में वापस एनडीए में शामिल हो गए. अब तक नौ बार मुख्यमंत्री पद की शपथ ले चुके नीतीश कुमार के भविष्य पर एक बार फिर अनिश्चितता के बादल मंडरा रहे हैं. हाल ही में केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने कहा कि मुख्यमंत्री का फ़ैसला चुनाव के बाद विधायक करेंगे, जिससे यह अटकलें तेज़ हो गई हैं कि क्या भाजपा इस बार नीतीश कुमार के अलावा किसी और को मुख्यमंत्री बना सकती है.
नेतृत्व के संकट से जूझता एनडीए, महागठबंधन ने तस्वीर साफ़ की
बिहार विधानसभा चुनाव में जहां महागठबंधन ने अपने मुख्यमंत्री और उपमुख्यमंत्री पद के चेहरों को लेकर तस्वीर साफ़ कर दी है, वहीं सत्तारूढ़ एनडीए, ख़ासकर भाजपा, नेतृत्व के सवाल पर बुरी तरह बंटी हुई नज़र आ रही है. द वायर में अपनी रिपोर्ट में, पत्रकार सुरूर अहमद लिखते हैं कि एक तरफ़ कांग्रेस नेता अशोक गहलोत ने तेजस्वी प्रसाद यादव को मुख्यमंत्री और मुकेश सहनी को उपमुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित कर दिया है, तो दूसरी तरफ़ एनडीए में भ्रम की स्थिति है. केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह के इस बयान ने इसे और हवा दी है कि मुख्यमंत्री का फ़ैसला चुनाव के बाद विधायक करेंगे.
रिपोर्ट के अनुसार, इस भ्रम के बीच भाजपा के वरिष्ठ नेता और पूर्व केंद्रीय मंत्री आर. के. सिंह ने एक बड़ा धमाका करते हुए उपमुख्यमंत्री सम्राट चौधरी के ख़िलाफ़ मोर्चा खोल दिया. उन्होंने सोशल मीडिया पर मतदाताओं से सम्राट चौधरी को हराने की अपील करते हुए कहा कि उन पर गंभीर आपराधिक और भ्रष्टाचार के आरोप हैं. आर. के. सिंह का यह बयान इसलिए भी महत्वपूर्ण है क्योंकि सम्राट चौधरी को पार्टी के भीतर एक शक्तिशाली लॉबी मुख्यमंत्री पद के चेहरे के रूप में आगे बढ़ा रही है. सिंह ने न केवल सम्राट चौधरी, बल्कि जदयू के बाहुबली उम्मीदवार अनंत सिंह समेत कई अन्य दागी उम्मीदवारों को भी हराने की अपील की.
इस आंतरिक कलह का असर एनडीए के ज़मीनी कार्यकर्ताओं पर भी दिख रहा है. अमित शाह के बयान से जदयू का एक बड़ा वर्ग नाराज़ है और उन्हें लगता है कि नीतीश कुमार को किनारे लगाने की साज़िश हो रही है. वहीं, जदयू और चिराग पासवान की लोजपा के बीच भी रिश्ते बेहद तनावपूर्ण हैं. दोनों पार्टियां कई सीटों पर एक-दूसरे को कमज़ोर करने की कोशिश में लगी हैं. जदयू कार्यकर्ता 2020 के चुनाव को नहीं भूले हैं, जब लोजपा ने उनकी पार्टी को भारी नुक़सान पहुंचाया था. अब अगर उन्हें यह संकेत मिलता है कि नीतीश कुमार मुख्यमंत्री नहीं बनेंगे, तो वे चिराग के उम्मीदवारों से बदला लेने की कोशिश कर सकते हैं, जिससे एनडीए को सीधा नुक़सान होगा.
मोदी ने कर्पूरी का जयकारा लगाया, फिर जंगल राज का डर बताया
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने बिहार के समस्तीपुर से विधानसभा चुनाव अभियान की शुरुआत करते हुए सामाजिक न्याय, विकास और हिंदुत्व के मुद्दों को एक साथ साधने की कोशिश की. इंडियन एक्सप्रेस की एक रिपोर्ट के मुताबिक, पीएम मोदी ने अपने भाषण की शुरुआत जननायक कर्पूरी ठाकुर को श्रद्धांजलि देकर की, जिनका गांव रैली स्थल से कुछ ही किलोमीटर दूर है. उन्होंने कहा, “यह उनके आशीर्वाद के कारण है कि मेरे और नीतीश जी जैसे पिछड़े और ग़रीब परिवारों से आने वाले लोग इस मंच पर हैं.” पीएम ने कहा कि उनकी सरकार ने कर्पूरी ठाकुर को भारत रत्न देकर सम्मानित किया और उन्हीं से प्रेरणा लेकर ओबीसी, ईबीसी, दलितों और महादलितों को प्राथमिकता दी.
रिपोर्ट के विश्लेषण के अनुसार, पीएम मोदी ने अपने भाषण में एक संतुलन बनाने की कोशिश की. उन्होंने बार-बार “एनडीए सरकार” का ज़िक्र किया, न कि “नीतीश सरकार” का. हालांकि, उन्होंने नीतीश कुमार के नेतृत्व की सराहना की और कहा कि “इस बार भी नीतीश बाबू के नेतृत्व में” एनडीए रिकॉर्ड तोड़ने जा रहा है. इसे तेजस्वी यादव के उस आरोप का मौन जवाब माना जा रहा है जिसमें उन्होंने कहा था कि एनडीए ने नीतीश को अपना सीएम उम्मीदवार घोषित नहीं किया है.
प्रधानमंत्री ने अपने भाषण में ‘जंगल राज’ की वापसी को लेकर लोगों को आगाह किया. उन्होंने राजद और कांग्रेस पर हज़ारों करोड़ के घोटालों का आरोप लगाते हुए कहा कि बिहार के लोग ‘जंगल राज’ वालों को दूर रखेंगे. उन्होंने भीड़ से अपने मोबाइल की टॉर्च जलाने के लिए कहा और फिर राजद के चुनाव चिह्न का ज़िक्र करते हुए तंज कसा, “इतनी लाइट है, तो लालटेन चाहिए क्या?” इसके अलावा, उन्होंने विकास कार्यों का ब्योरा देते हुए कहा कि बिहार में मछली उत्पादन दोगुना हो गया है और मखाना बोर्ड की स्थापना की गई है. उन्होंने हिंदुत्व के मुद्दे को भी छुआ और कहा कि जब अयोध्या में राम मंदिर बना तो मिथिला के लोग बहुत ख़ुश हुए, क्योंकि भगवान राम उनके “दामाद” हैं.
कांग्रेस का सवाल: ‘जनसंघ ने ही गिराई थी कर्पूरी की सरकार’
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा समाजवादी आइकॉन कर्पूरी ठाकुर के पैतृक गांव का दौरा करने पर कांग्रेस ने तीखे सवाल उठाए हैं. टेलीग्राफ़ की रिपोर्ट के अनुसार, कांग्रेस नेता जयराम रमेश ने प्रधानमंत्री से तीन सीधे सवाल पूछे. उन्होंने कहा कि पीएम का यह दौरा अति पिछड़ी जातियों (EBCs) को लुभाने की एक कोशिश है, जिनसे कर्पूरी ठाकुर आते थे.
जयराम रमेश ने अपने पहले सवाल में पूछा, “क्या यह एक स्वीकृत तथ्य नहीं है कि जनसंघ - जिससे भाजपा का उदय हुआ - ने अप्रैल 1979 में बिहार में कर्पूरी ठाकुर जी की सरकार को तब गिरा दिया था जब तत्कालीन मुख्यमंत्री ने ओबीसी के लिए आरक्षण लागू किया था?” उन्होंने यह भी पूछा कि क्या उस समय आरएसएस और जनसंघ के नेताओं द्वारा कर्पूरी ठाकुर को सबसे भद्दी गालियां नहीं दी गई थीं.
अपने दूसरे सवाल में उन्होंने कहा, “क्या यह सच नहीं है कि 28 अप्रैल, 2024 को उन्होंने (पीएम मोदी ने) खुद जातिगत जनगणना की मांग करने वालों को ‘शहरी नक्सली’ कहा था और संसद तथा सुप्रीम कोर्ट दोनों में उनकी सरकार ने जातिगत जनगणना को स्पष्ट रूप से ख़ारिज कर दिया था?”
तीसरे सवाल में रमेश ने पूछा, “क्या यह सच नहीं है कि उन्होंने और राज्य में उनकी ‘ट्रबल-इंजन’ सरकार ने बिहार के 65% आरक्षण क़ानून को संविधान के तहत सुरक्षा प्रदान करने के लिए कुछ नहीं किया - एक ऐसी सुरक्षा जो कांग्रेस सरकार ने सितंबर 1994 में तमिलनाडु में एक समान क़ानून को प्रदान की थी?” कांग्रेस ने आरोप लगाया कि भाजपा का कर्पूरी ठाकुर के प्रति सम्मान सिर्फ़ चुनावी दिखावा है, जबकि उनकी विचारधारा हमेशा कर्पूरी ठाकुर के सामाजिक न्याय के सिद्धांतों के ख़िलाफ़ रही है.
तेजस्वी ने दिया भ्रष्टाचार मुक्त सरकार का वादा
राजद नेता और महागठबंधन के मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार तेजस्वी यादव ने वादा किया है कि अगर उनका गठबंधन सत्ता में आता है तो वह बिहार में एक स्वच्छ और भ्रष्टाचार मुक्त सरकार देंगे. द हिंदू की एक रिपोर्ट के अनुसार, बख्तियारपुर में एक रैली को संबोधित करते हुए तेजस्वी ने कहा कि उन्हें इस बात का दुख है कि एनडीए के 20 साल के शासन के बावजूद बिहार के किसान आज भी ग़रीब हैं और राज्य सबसे कम प्रति व्यक्ति आय वाला प्रदेश बना हुआ है. उन्होंने यह भी दावा किया कि अगर एनडीए दोबारा सत्ता में आया तो नीतीश कुमार को मुख्यमंत्री नहीं बनाया जाएगा.
राजद नेता ने यह भी वादा किया कि वह एक ऐसी सरकार पेश करेंगे जो लोगों की शिकायतों को सुनेगी और उनके लिए किफायती दवाएं और नौकरियां सुनिश्चित करेगी. अगर इंडिया गठबंधन बिहार में सत्ता में आता है, तो एक मुख्यमंत्री के रूप में, मैं यह सुनिश्चित करूंगा कि कोई अपराध न हो. बख्तियारपुर में एक रैली में यादव ने दावा किया, “एक बिहारी के तौर पर, मुझे दुःख है कि मेरा राज्य गरीब है, और बेरोजगारी, भ्रष्टाचार और आपराधिक गतिविधियां बढ़ रही हैं. बिहार में 20 साल के एनडीए शासन और केंद्र में 11 साल के बावजूद, राज्य की प्रति व्यक्ति आय सबसे कम है और किसान गरीब बने हुए हैं.”
इस बीच, तेजस्वी ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की राजद के खिलाफ की गई “जंगल राज” वाली टिप्पणी पर पलटवार करते हुए सवाल किया कि उन्होंने बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के खिलाफ क्या कार्रवाई की, यह देखते हुए कि मोदी ने खुद एनडीए सहयोगी के खिलाफ 55 मामलों का हवाला दिया था.
तेजस्वी ने कहा, “जंगल राज वह है, जहां अपराधियों को संरक्षित और समर्थन दिया जाता है और बिहार में एक भी दिन ऐसा नहीं जाता जब बलात्कार, हत्या, भ्रष्टाचार और अन्य अपराध न होते हों. वे केवल सरकारी एजेंसियों का दुरुपयोग कर रहे हैं. वे गुजरात में कारखाने लगाते हैं और बिहार में जीत की उम्मीद करते हैं.”
प्रधानमंत्री मोदी के ‘जंगल राज’ के आरोपों का जवाब देते हुए तेजस्वी ने कहा, “प्रधानमंत्री ने खुद नीतीश कुमार सरकार के 55 घोटालों को गिनाया था. उन्होंने क्या कार्रवाई की? ‘जंगल राज’ वहां है जहां घोटालों पर कोई कार्रवाई नहीं होती और अपराधी आज़ाद घूमते हैं.” उन्होंने आरोप लगाया कि देश में सबसे ज़्यादा आपराधिक गतिविधियां भाजपा शासित राज्यों में होती हैं.
तेजस्वी ने जनता से कई वादे किए. उन्होंने कहा, “अगर इंडिया ब्लॉक चुनाव जीतता है, तो तेजस्वी सीएम बनेगा और लोग ‘चिंता मुक्त’ हो जाएंगे.” उन्होंने कहा कि उनकी सरकार बिहार के लोगों के लिए शिक्षा, सस्ती दवाएं और रोज़गार सुनिश्चित करेगी. उन्होंने एलपीजी सिलेंडर की क़ीमत घटाकर 500 रुपये करने, वृद्धावस्था पेंशन को बढ़ाकर 1,500 रुपये करने, हर घर को एक सरकारी नौकरी देने और संविदा कर्मचारियों की सेवाओं को नियमित करने का भी वादा किया. उन्होंने ज़ोर देकर कहा कि उनकी सरकार लोगों की शिकायतों को सुनेगी और एक अपराध-मुक्त बिहार का निर्माण करेगी.ॉ
प्रशांत किशोर ने गोपालगंज में भाजपा के बागी उम्मीदवार को दिया समर्थन
जन सुराज पार्टी के संस्थापक प्रशांत किशोर ने बिहार के गोपालगंज में भाजपा के बागी उम्मीदवार अनूप कुमार श्रीवास्तव को अपना समर्थन देने की घोषणा की है. द हिंदू की रिपोर्ट के मुताबिक, प्रशांत किशोर ने आरोप लगाया कि उनके अपने उम्मीदवार शशि शेखर सिन्हा ने भगवा पार्टी के दबाव में चुनाव से अपना नाम वापस ले लिया. गोपालगंज में एक प्रेस कॉन्फ्रेंस में किशोर ने कहा कि श्रीवास्तव का मामला एक “अपवाद” है, क्योंकि उनकी पार्टी आमतौर पर चुनाव से ठीक पहले दूसरी पार्टियों से आए असंतुष्ट नेताओं को टिकट नहीं देती है.
किशोर ने कहा, “श्रीवास्तव, जो गोपालगंज में एक जाने-माने सामाजिक कार्यकर्ता हैं, ज़िला भाजपा अध्यक्ष के रूप में भी काम कर चुके हैं. उनका आरोप है कि पार्टी ने उनकी दावेदारी को नज़रअंदाज़ कर एक पैसे वाले व्यक्ति को मैदान में उतारा.” उन्होंने आगे कहा, “इसलिए, इस क्षेत्र में, वह और जन सुराज पार्टी दोनों भाजपा के अन्याय का शिकार हुए हैं. सिन्हा ने बुढ़ापे और ख़राब स्वास्थ्य का हवाला देते हुए चुनाव से नाम वापस ले लिया, लेकिन मुझे विश्वसनीय सूत्रों से पता चला है कि उन्होंने भाजपा के दबाव में ऐसा किया.”
प्रशांत किशोर ने यह भी आरोप लगाया कि भाजपा उनके उम्मीदवारों पर चुनाव से हटने के लिए दबाव डाल रही है. उन्होंने अपनी पार्टी के दानापुर और ब्रह्मपुर के उम्मीदवारों की तस्वीरें केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह और धर्मेंद्र प्रधान के साथ दिखाते हुए आरोप लगाया कि शीर्ष नेतृत्व उनके उम्मीदवारों की ख़रीद-फ़रोख़्त में शामिल है. किशोर ने कहा, “हम श्रीवास्तव को जन सुराज पार्टी का सिंबल तो नहीं दे सकते, लेकिन अब से वह जन सुराज परिवार का हिस्सा होंगे और हमारा पूरा समर्थन उन्हें मिलेगा. हम भाजपा को उसी की दवा का स्वाद चखाना चाहते हैं.”
विश्लेषण:
आंकड़े बताते हैं कि जदयू-भाजपा ने बिहार को कैसे निराश किया
यह सवाल विचार करने योग्य है कि बिहार अन्य राज्यों से पीछे क्यों है. आदर्श रूप से, एक कमज़ोर आर्थिक आधार के साथ ‘सुशासन’ और ‘डबल इंजन’ के बहुप्रचारित नारों का मतलब यह होना चाहिए कि बिहार हर प्रतियोगी से बेहतर प्रदर्शन करे. इंडियन एक्सप्रेस में प्रकाशित एक लेख में, कांग्रेस पार्टी से जुड़े कुमार और सत्यवली लिखते हैं कि दो दशक के शासन के बाद जदयू-भाजपा गठबंधन बिहार और उसके लोगों की उम्मीदों पर खरा उतरने में बुरी तरह विफल रहा है.
लेख में बिहार सरकार द्वारा प्रकाशित जाति सर्वेक्षण के आंकड़ों का हवाला दिया गया है, जिसे सरकार का आधिकारिक रिपोर्ट कार्ड भी कहा जा सकता है. सर्वेक्षण का अनुमान है कि 94 लाख परिवार प्रति दिन 200 रुपये से भी कम कमाते हैं. अनुसूचित जातियों (43%), अनुसूचित जनजातियों (43%), और अति पिछड़े वर्गों (34%) में ग़रीबी सामान्य वर्ग (25%) की तुलना में बहुत ज़्यादा है. बिहार की प्रति व्यक्ति आय भारत में सबसे कम बनी हुई है.
लेखकों के अनुसार, पैसा आवंटित तो हुआ, लेकिन वह सार्वजनिक सेवाओं में सुधार पर ख़र्च नहीं हुआ. 20,000 से ज़्यादा स्कूलों में उचित बिजली नहीं है, 76,000 में कंप्यूटर नहीं हैं, और 2% से भी कम में डिजिटल लाइब्रेरी हैं. स्वास्थ्य केंद्रों में डॉक्टरों की 90% तक की कमी है. यही कारण है कि बिहार के युवा रोज़गार के लिए दूसरे राज्यों में पलायन करने को मज़बूर हैं. युवाओं में बेरोज़गारी दहाई के आंकड़ों में बनी हुई है.
औद्योगिक रोज़गार के मामले में भी बिहार प्रमुख राज्यों में सबसे नीचे है. कृषि प्रधान राज्य होने के बावजूद, पिछले दशक में बिहार में सिर्फ़ 13 कोल्ड स्टोरेज बने, जबकि गुजरात ने 459 और उत्तर प्रदेश ने 299 बनाए. ख़राब क़ानून-व्यवस्था भी निवेश की कमी का एक बड़ा कारण है. 2021 और 2023 के बीच, अपराध की घटनाओं में 25% की वृद्धि हुई. लेख का निष्कर्ष है कि वर्तमान सरकार के तहत, बिहार अपनी क्षमता का एहसास करने में विफल रहा है और कई मापदंडों पर पीछे चला गया है.
सीमांचल: उपेक्षा, गरीबी और अधूरा विकास
मोदी युग से पहले, ऐसा कोई हिंदू-मुस्लिम विभाजन नहीं था
अपनी राजनीतिक और जनसांख्यिकीय महत्ता के बावजूद, बिहार भारत के सबसे पिछड़े राज्यों में से एक बना हुआ है. इस पिछड़ेपन में भी, सीमांचल क्षेत्र — जिसमें किशनगंज, पूर्णिया, अररिया और कटिहार जैसे जिले शामिल हैं— राज्य के सबसे उपेक्षित और अविकसित क्षेत्र के रूप में सामने आता है, जिसे अक्सर “पिछड़े राज्य का पिछड़ा क्षेत्र” बताया जाता है.
बिहार में आगामी चुनावों की तैयारी के बीच, इस बड़ी मुस्लिम आबादी वाले और लंबे समय से उपेक्षित रहे सीमांचल क्षेत्र में वर्षों की सरकारी उपेक्षा को लेकर गहरा असंतोष है. 2011 की जनगणना के अनुसार, बिहार की कुल 104 मिलियन (10 करोड़ 40 लाख) आबादी में से 17 मिलियन (लगभग 17%- 1 करोड़ 70 लाख) मुस्लिम हैं, जिनमें से लगभग 28.3 प्रतिशत सीमांचल में केंद्रित हैं. यह मुस्लिम-बहुल क्षेत्र सामाजिक-आर्थिक स्तर और बुनियादी ढांचे के संकेतकों दोनों ही दृष्टि से अत्यधिक पिछड़ा हुआ है. यहां के नागरिक एक ऐसी शासन-व्यवस्था चाहते हैं जो उन्हें बेहतर जीवन के लिए मौसम और पलायन पर निर्भरता के दुष्चक्र से मुक्त कर सके, जैसा कि सीमांचल के हालात पर फ़िदा फ़ातिमा की लंबी रिपोर्ट बताती है.
स्थानीय लोगों का असंतोष: किशनगंज के लोगों ने अपनी हताशा व्यक्त करते हुए कहा कि विभिन्न सरकारों के बावजूद, यह क्षेत्र गरीबी, बेरोजगारी, खराब शिक्षा और अपर्याप्त स्वास्थ्य सेवा से जूझ रहा है. किशनगंज निर्वाचन क्षेत्र के निवासी शमशेर आलम ने क्षेत्र की स्थिति का वर्णन करते हुए कहा, “यहां कोई नौकरी नहीं है, कीमतें अधिक हैं, और सड़कें भी खराब स्थिति में हैं.” केंद्र सरकार फंड जारी न करके इस स्थिति के लिए मुख्य रूप से जिम्मेदार है. उनके अनुसार, किशनगंज की उपेक्षा का मुख्य कारण यह है कि “यह मुस्लिम बहुसंख्यक क्षेत्र है.” उन्होंने कहा, “पूर्वाग्रह के कारण यहां कोई विकास कार्य नहीं होता है.”
आलम ने अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय (एएमयू) कैंपस के मुद्दे को भी उठाया. उन्होंने कहा, “अगर किशनगंज में एएमयू का कैंपस पूरा हो गया होता, तो यह स्थानीय युवाओं के लिए एक बड़ा अवसर होता.” जबकि मलप्पुरम और मुर्शिदाबाद में एएमयू केंद्र सुचारू रूप से चल रहे हैं, 2014 में उद्घाटन किया गया किशनगंज केंद्र केवल एक पाठ्यक्रम के साथ अस्थायी इमारतों से काम कर रहा है, जो राज्य में अल्पसंख्यक शिक्षा की निरंतर उपेक्षा को दर्शाता है.
इस पर टिप्पणी करते हुए, मौलाना सोहेल नदवी ने कहा, “यह विडंबना है; यहां उच्च शिक्षा के लिए इतना बड़ा सपना था, लेकिन यह बस एक सपना ही रह गया. उम्मीद का प्रतीक था, लेकिन कभी हकीकत नहीं बन पाया.” उन्होंने व्यापार क्षेत्र में मुस्लिमों की कम उपस्थिति और उनके विकास को दबाने के लिए लगाए जाने वाले आरोपों पर भी चिंता व्यक्त की. नदवी ने जोर देकर कहा कि किशनगंज के लोगों को, हर जगह के लोगों की तरह, भोजन, कपड़े और आश्रय के साथ-साथ शिक्षा, नौकरी और स्वास्थ्य सेवा की आवश्यकता है.
नदवी ने यह भी बताया कि “आजादी के बाद से सरकार का पूर्वाग्रह स्पष्ट रहा है.” पलायन के मुद्दे पर उन्होंने कहा, “कोई स्वेच्छा से बिहार नहीं छोड़ता; हमेशा मजबूरी होती है. अवसरों और शिक्षण संस्थानों की कमी लोगों को कहीं और जाने के लिए मजबूर करती है. किशनगंज के सर्वश्रेष्ठ युवा, एक बार जाने के बाद कभी वापस नहीं आते.” उन्होंने समान अधिकारों और अवसरों के संवैधानिक सिद्धांतों का पालन करके इन समस्याओं को हल करने की उम्मीद जताई.
बेरोजगारी, स्वास्थ्य और भ्रष्टाचार की समस्याएं : एक अन्य निवासी रहमत आलम ने बताया कि शिक्षा एक बड़ी समस्या है, क्योंकि “जो शिक्षित हैं, वे भी बेरोजगार हैं.” उन्होंने कहा कि यहां कंपनियां स्थापित करने से बेरोजगारी संकट हल हो सकता है, लेकिन ऐसा नहीं हो रहा है, जिससे लोग काम के लिए पलायन करने को मजबूर हैं. आलम ने तीखे शब्दों में कहा, “हमें कब तक बेवकूफ समझा जाएगा? यहां के लोगों को न्याय और रोजगार के अवसर चाहिए. ये नेता सिर्फ चुनावों के बारे में सोचते हैं, वे पटना और दिल्ली में आराम से बैठते हैं जबकि यहां के लोग पीड़ित हैं.” उन्होंने इस बात पर जोर दिया कि सीमांचल में मुस्लिम और गैर-मुस्लिम दोनों शांतिपूर्वक रहते हैं और “कोई हिंदू-मुस्लिम विवाद नहीं है.”
रहमत ने चिकित्सा सुविधाओं की गंभीर कमी को उजागर करते हुए कहा, “सिलीगुड़ी में आपको अच्छे अस्पताल मिलेंगे, लेकिन हमारे पास यहां एक भी नहीं है. लोग बेरोजगारी और बीमारी से जूझ रहे हैं. यहां कोई आता भी नहीं है.” उन्होंने गरीब लोगों की मासिक आय के बारे में बताया, जो ₹500 से कम कमाते हैं, जिससे “वे मुश्किल से पेट भर पाते हैं.” उन्होंने आरोप लगाया कि “सीमांचल के लिए कुछ भी नहीं है. उद्योग होने चाहिए, चर्चा होनी चाहिए, लेकिन इसके बजाय, हमें केवल हिंदू-मुस्लिम राजनीति दिखाई देती है.” जावेद आलम के अनुसार, भ्रष्टाचार इन मुद्दों का “मूल कारण” है, और “आप जिस भी कार्यालय में जाते हैं, पैसे के बिना कुछ नहीं होता.”
शराबबंदी और राजनीतिक परिदृश्य : 81 वर्षीय मोहम्मद जब्बार, जिन्होंने अपने जीवनकाल में कई चुनाव देखे हैं, ने याद किया कि “मोदी युग से पहले, ऐसा कोई हिंदू-मुस्लिम विभाजन नहीं था.” एक अन्य निवासी श्याम गुप्ता ने शराबबंदी को एक “गलती” बताया. उन्होंने तर्क दिया कि इसे पूरे देश में प्रतिबंधित किया जाना चाहिए, न कि सिर्फ बिहार में, और कहा कि “गरीब लोगों को शराब पीने के लिए जेल भेजा जा रहा है; वह गलत है.”
नीतीश कुमार के नेतृत्व वाली सरकार द्वारा 2016 में शुरू की गई राज्यव्यापी शराबबंदी ने व्यापार को भूमिगत कर दिया है, जिससे जहरीली शराब का काला बाजार खड़ा हो गया है और कई गरीबों की जान चली गई है. 4 अप्रैल, 2025 तक, शराबबंदी के बाद से अवैध शराब के सेवन से कुल 190 लोगों की मौत हो चुकी है.
मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की समर्थक भारती देवी ने हालांकि शराबबंदी का समर्थन करते हुए कहा कि “नशा व्यापक रूप से फैल रहा है और इसे रोका जाना चाहिए.” मोहम्मद अशफाक का मानना था कि महागठबंधन सत्ता में आएगा. उन्होंने कहा, “यहां कई मुद्दे हैं; सबसे बड़ा मुद्दा बेरोजगारी है. स्वच्छ पानी नहीं है.”
परवेज अशरफ, जो कभी नीतीश कुमार का समर्थन करते थे, अब महसूस करते हैं कि “तेजस्वी कुछ कर सकते हैं.” उन्होंने भी किशनगंज में एएमयू कैंपस की स्थिति को एक प्रमुख मुद्दा बताया और स्पष्ट किया कि “गलती केंद्र सरकार की है” क्योंकि उसने फंड मुहैया नहीं कराया है.
चूंकि बिहार 6 और 11 नवंबर को चुनावों की ओर बढ़ रहा है, सीमांचल के लोग आशा करते हैं कि उनके लंबे समय से उपेक्षित संघर्षों को अंततः राजनीतिक एजेंडे में जगह मिलेगी. दशकों से, विकास, शिक्षा और रोजगार के वादे आए हैं, लेकिन हर चुनाव के बाद वे फीके पड़ गए हैं. इस बार, क्षेत्र को सुने जाने और वह ध्यान दिए जाने की नई उम्मीद है, जिसका वह हकदार है.
ज्ञान का निर्वासन: जब भारत ने अपनी ही एक प्रशंसक को दरवाज़े से लौटा दिया
20 अक्टूबर, 2025 को दिल्ली का इंदिरा गाँधी अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डा. प्रोफ़ेसर फ़्रांचेस्का ओर्सिनी चीन में एक सेमिनार में हिस्सा लेकर भारत पहुँचीं. वही भारत, जहाँ की हिंदी भाषा और साहित्य को उन्होंने अपनी ज़िंदगी के 40 साल दिए थे. वेनिस से लेकर लंदन तक, उन्होंने हिंदी की दुनिया को समझने और समझाने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी. उनके लिए भारत आना किसी सालाना तीर्थयात्रा जैसा था—यहाँ के दोस्तों, शोधार्थियों और किताबों के बीच कुछ हफ़्ते गुज़ारना.
लेकिन उस दिन कुछ अलग हुआ. उन्हें बताया गया कि वे “काली सूची” में हैं और भारत में प्रवेश नहीं कर सकतीं. कोई कारण नहीं, कोई लिखित आदेश नहीं. बस उन्हें अगली फ़्लाइट से वापस भेज दिया गया.
फ़्रांचेस्का ओर्सिनी का यह निर्वासन कोई अकेली घटना नहीं है. यह उस पटकथा का एक और दुखद दृश्य है, जो पिछले एक दशक से भारत में लिखी जा रही है. इस पटकथा का शीर्षक है—”ज्ञान और विचार का दमन”. इस कहानी के किरदार बदलते रहते हैं—कभी वे नताशा कौल होती हैं, कभी अशोक स्वैन, कभी आतिश तासीर तो कभी फ़िलिपो ओसेला. इन सभी में एक बात समान है: वे भारत में गहरी दिलचस्पी रखते हैं, लेकिन उनकी जिज्ञासा और आलोचनात्मक दृष्टि सरकार को असुविधाजनक लगती है.
जैसा कि प्रोफ़ेसर अपूर्वानंद कहते हैं, यह सरकार “ज्ञान विरोधी” है. उसे ऐसे विद्वान नहीं चाहिए जो सत्य की खोज करें, सवाल पूछें या समाज की जटिलताओं को समझें. उसे चाहिए “प्रचारक” और “कीर्तनकार”—जो सिर्फ़ अतीत का गौरवगान करें और सरकार की विचारधारा का भजन गाएँ. सच्ची जिज्ञासा को यहाँ संदेह की नज़र से देखा जाता है, क्योंकि जो सवाल करेगा, वह सत्ता के बनाए भव्य नैरेटिव पर भी सवाल उठाएगा.
सरकार का यह रवैया एक अजीब विरोधाभास पैदा करता है. एक तरफ़ हम “विश्वगुरु” बनने का सपना देखते हैं और चाहते हैं कि दुनिया हमारी महानता का लोहा माने. दूसरी तरफ़, हम उन लोगों के लिए दरवाज़े बंद कर रहे हैं जो सचमुच हमारी संस्कृति, साहित्य और इतिहास को दुनिया तक ले जाते हैं. फ़्रांचेस्का ओर्सिनी जैसे विद्वान भारत के अनौपचारिक सांस्कृतिक राजदूत हैं. जब हम उन्हें लौटाते हैं, तो हम सिर्फ़ एक व्यक्ति को नहीं, बल्कि ज्ञान और संवाद के एक पुल को तोड़ते हैं.
यह मामला सिर्फ़ वीज़ा नियमों के तकनीकी उल्लंघन का नहीं हो सकता. अगर ऐसा है भी, तो सरकार की चुप्पी और पारदर्शिता की कमी इसे और भयावह बना देती है. एक ऐसी विदुषी, जिसका कोई राजनीतिक एजेंडा नहीं रहा, उसके साथ ऐसा व्यवहार एक ठंडा संदेश देता है—अगर आप हमारे बताए रास्ते पर नहीं चलेंगे, तो आपके लिए यहाँ कोई जगह नहीं है.
यह संदेश सिर्फ़ विदेशी विद्वानों के लिए नहीं है. यह भारत के अपने छात्रों, शोधार्थियों और अध्यापकों के लिए भी है, जिन्हें लगातार राष्ट्र-विरोधी, अर्बन नक्सल और न जाने क्या-क्या कहकर चुप कराने की कोशिश की जाती है.
जब किसी देश के दरवाज़े ज्ञान के लिए बंद होने लगें, तो यह सिर्फ़ विद्वानों का नुक़सान नहीं है, यह पूरे राष्ट्र का नुक़सान है. यह उस भविष्य का नुक़सान है, जहाँ युवा सवाल पूछने से डरेंगे और विश्वविद्यालय ज्ञान के केंद्र की बजाय कीर्तन के अखाड़े बन जाएँगे. फ़्रांचेस्का ओर्सिनी तो लंदन लौट गईं, लेकिन उनका निर्वासन एक सवाल छोड़ गया है: क्या भारत भी अपने उस रास्ते पर लौट पाएगा, जहाँ ज्ञान का स्वागत होता था, निर्वासन नहीं?
यूपी में ऑल इज़ वेल? दोनों उपमुख्यमंत्रियों की अनुपस्थिति ने खड़े किए सवाल
जब उत्तरप्रदेश सरकार के शीर्ष नेता, जिनमें मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ भी शामिल थे, 19 अक्टूबर को दीपोत्सव मनाने के लिए अयोध्या में इकट्ठा हुए, तो सबका ध्यान उत्सव पर नहीं, बल्कि दोनों उपमुख्यमंत्रियों बृजेश पाठक और केशव प्रसाद मौर्य की अनुपस्थिति पर था. इससे भाजपा में दरार और नौकरशाही व भाजपा विधायकों के बीच मतभेद की बातें शुरू हो गईं.
जहां, मौर्य के करीबी लोगों ने उनके अंतिम समय में कार्यक्रम रद्द करने का कारण बिहार में व्यस्त कार्यक्रम बताया, जहां अगले महीने चुनाव होने हैं (उपमुख्यमंत्री विधानसभा चुनावों के लिए पार्टी के सह-प्रभारी हैं), वहीं पार्टी के नेताओं ने इसके लिए प्रशासनिक गड़बड़ी को दोषी ठहराया.
एक वरिष्ठ भाजपा नेता ने कहा, “यह नौ वर्षों में पहला दीपोत्सव है जिसमें उपमुख्यमंत्री बृजेश पाठक शामिल नहीं हो पाए. हालांकि, आधिकारिक तौर पर कोई कुछ नहीं कह रहा है, लेकिन संचार की इस गड़बड़ी की जांच करनी होगी. दरअसल, उत्सव के विज्ञापन में उपमुख्यमंत्रियों का कोई उल्लेख नहीं था. इतना ही नहीं, प्रोटोकॉल के अनुसार यह भी स्पष्ट नहीं था कि वे किस कार्यक्रम में शामिल होंगे और कहां बैठेंगे. राज्यपाल आनंदीबेन पटेल के साथ भी ऐसा ही मामला था, जिनका नाम स्थानीय निमंत्रण में गायब था. जवाबदेही तय करनी होगी.”
अनुपस्थिति का कारण और अंदरूनी मतभेद : भाजपा के अन्य सूत्रों ने बताया कि दोनों उपमुख्यमंत्रियों ने अंतिम समय में कार्यक्रम से हटने का फैसला इसलिए लिया क्योंकि विज्ञापनों में उनके नामों का उल्लेख नहीं था और उन्हें बैठने की जगह सहित कार्यक्रम का विवरण भी प्रदान नहीं किया गया था. जहां कुछ लोगों ने आयोजन के लिए नोडल विभाग, पर्यटन विभाग को दोषी ठहराया, वहीं अन्य ने “सूचना विभाग” को दोषी ठहराया और कहा कि विज्ञापनों की जिम्मेदारी उनकी थी.
सूत्रों ने बताया कि मौर्य बिहार में अपनी प्रतिबद्धताओं के कारण 19 अक्टूबर को देर से लखनऊ लौटे और उन्हें अगले दिन फिर वापस जाना था, यही वजह है कि उन्होंने कार्यक्रम छोड़ दिया. लेकिन सवाल इस बात का है कि यदि अगले ही दिन इन्हें वापस बिहार जाना था तो वे लखनऊ आए ही क्यों थे? हालांकि, उपमुख्यमंत्री के करीबी पार्टी नेता ने कहा, “अखिलेश यादव (समाजवादी पार्टी अध्यक्ष) बेवजह इसे एक मुद्दा बनाने की कोशिश कर रहे हैं.”
मौलश्री सेठ की रिपोर्ट कहती है कि पिछले साल लोकसभा चुनावों में यूपी में भाजपा को हुए नुकसान के बाद से ही पार्टी की राज्य इकाई में मतभेदों को लेकर अटकलें लगाई जा रही थीं. इसके तुरंत बाद, आदित्यनाथ ने 10 विधानसभा उपचुनावों की तैयारी की कमान संभाली, जबकि मौर्य ने बार-बार इस बात पर जोर दिया कि पार्टी सरकार से बड़ी है, जिसे एक परोक्ष संकेत के रूप में देखा गया कि मुख्यमंत्री पार्टी कार्यकर्ताओं की उपेक्षा कर रहे हैं और नौकरशाही के माध्यम से राज्य चला रहे हैं.
राज्य इकाई के कई नेताओं ने सितंबर में मौर्य को पार्टी के बिहार चुनाव सह-प्रभारी बनाए जाने पर भी ध्यान दिया, यह केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह द्वारा उन्हें “मेरे मित्र” कहे जाने के महीनों बाद हुआ. उस समय, एक पार्टी नेता ने कहा था कि इस पदोन्नति से उपमुख्यमंत्री को “यूपी चुनावों के साथ-साथ राष्ट्रीय राजनीति में भी एक बड़ा बढ़ावा” मिलेगा.
अमेरिका का दावा, भारत ने रूस से तेल खरीदी में कटौती की
व्हाइट हाउस ने दावा किया है कि भारत ने अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प के “अनुरोध” पर रूस से अपने तेल की खरीद “कम करना” शुरू कर दिया है. गुरुवार को एक प्रेस वार्ता को संबोधित करते हुए, व्हाइट हाउस की प्रेस सचिव कैरोलिन लीविट ने कहा, “यदि आप रूस पर लगे प्रतिबंधों को देखते और पढ़ते हैं, तो वे काफी भारी-भरकम हैं.”
लीविट, रूस की दो सबसे बड़ी तेल कंपनियों, रोसनेफ्ट और लुकऑयल पर अमेरिकी प्रतिबंधों का जिक्र कर रही थीं, जो रूस-यूक्रेन युद्ध के बीच मॉस्को के लिए प्रमुख राजस्व स्रोतों को बाधित करने के प्रयासों का एक हिस्सा हैं.
उन्होंने दावा किया, “मैंने कुछ अंतर्राष्ट्रीय खबरें देखीं जिनमें बताया गया है कि चीन रूस से तेल खरीद कम कर रहा है; हम जानते हैं कि भारत ने राष्ट्रपति के अनुरोध पर ऐसा ही किया है.”
लीविट ने कहा कि वाशिंगटन ने अपने यूरोपीय सहयोगियों से भी रूसी तेल आयात में कटौती करने का आग्रह किया है, जिसे उन्होंने मॉस्को के युद्ध-वित्तपोषण माध्यमों के खिलाफ एक “पूर्ण दबाव” (यानी, एक पूर्ण दबाव) कहा.
“द न्यू इंडियन एक्सप्रेस” की एक रिपोर्ट के अनुसार, पिछले कुछ दिनों से अमेरिकी राष्ट्रपति और उनके प्रशासन द्वारा यह दावा किया जा रहा है कि भारत ने रूस से अपने तेल आयात में काफी कमी करने का आश्वासन दिया है. ट्रम्प ने आगे चेतावनी दी थी कि यदि वह ऐसा करने में विफल रहता है तो नई दिल्ली को “भारी” शुल्क का सामना करना पड़ेगा. हालांकि, भारत लगातार यह कहता रहा है कि उसकी ऊर्जा नीति उसके अपने राष्ट्रीय हित द्वारा निर्देशित है, खासकर अपने उपभोक्ताओं के लिए किफायती और सुरक्षित ईंधन आपूर्ति सुनिश्चित करना.
अमेरिका के अनुसार, भारत मॉस्को से कच्चे तेल की खरीद के माध्यम से रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन को यूक्रेन युद्ध के वित्तपोषण में मदद कर रहा है. ट्रम्प द्वारा भारतीय वस्तुओं पर शुल्क को भारी 50% तक दोगुना करने के बाद नई दिल्ली और वाशिंगटन के बीच संबंध तनाव में आ गए हैं, जिसमें भारत द्वारा रूसी कच्चे तेल की खरीद के लिए 25% का अतिरिक्त शुल्क भी शामिल है. भारत ने अमेरिकी कार्रवाई को “अनुचित, अन्यायपूर्ण और अतार्किक” बताया है.
लीविट ने कहा कि ट्रम्प ने लंबे समय से संकेत दिया था कि वह रूस के खिलाफ “जब उन्हें लगा कि यह उचित और आवश्यक है, तो कार्रवाई करेंगे, और कल वह दिन था.” उन्होंने कहा कि ट्रम्प ने शांति समझौते की ओर बढ़ने में पुतिन द्वारा “पर्याप्त रुचि या कार्रवाई नहीं” दिखाने के लिए “लंबे समय से अपनी निराशा व्यक्त की है.”
ट्रम्प और पुतिन के इस साल के अंत में हंगरी में मिलने की उम्मीद थी, लेकिन इस बैठक को अब अनिश्चित काल के लिए स्थगित कर दिया गया है. हालांकि, लीविट ने कहा कि दोनों नेताओं के बीच बैठक “पूरी तरह से टली नहीं है” और “एक दिन फिर से हो सकती है.”
आंध्रप्रदेश में प्राइवेट यात्री बस में आग लगी, 20 ज़िंदा जले
कुरनूल से “द न्यू इंडियन एक्सप्रेस” की खबर है कि शुक्रवार तड़के कुरनूल जिले के चिन्नाटेकुरु गांव के पास राष्ट्रीय राजमार्ग-44 पर हैदराबाद से बेंगलुरु जा रही एक वातानुकूलित स्लीपर बस में आग लगने से 20 लोग जलकर मर गए और कई अन्य झुलस गए.
कुरनूल की कलेक्टर डॉ. ए. सिरी ने पुष्टि की कि अब तक 11 शव बरामद किए गए हैं, जबकि पीड़ितों की पहचान करने के प्रयास जारी हैं. उन्होंने कहा, “हैदराबाद से बेंगलुरु जा रही वेमुरी कावेरी ट्रैवल्स की बस में कुल 41 यात्री सवार थे. उनमें से, 21 लोग सुरक्षित निकलने में सफल रहे, जबकि अब तक 11 झुलसे हुए शव बरामद किए गए हैं.”
प्रारंभिक रिपोर्टों के अनुसार, दुर्घटना तड़के लगभग 2:45 बजे हुई जब एक मोटरसाइकिल बस के ईंधन टैंक से टकरा गई, जिससे भीषण आग लग गई जिसने मिनटों में पूरे वाहन को अपनी चपेट में ले लिया. इस घटना में मोटरसाइकिल चालक की भी मृत्यु हो गई.
जैसे ही आग तेजी से फैली, यात्री जलते हुए वाहन के अंदर फंस गए. कुछ शव इतने जल चुके थे कि पहचानना मुश्किल था, जिसके कारण अधिकारियों ने मृतकों के डीएनए नमूने एकत्र करने के लिए फोरेंसिक टीमों को बुलाया. दुर्घटना के कारणों की विस्तृत जांच के आदेश दिए गए हैं. हालांकि, अधिकारियों को संदेह है कि सुरक्षा मानकों में कमी के कारण हालात और बिगड़ गए होंगे.
इस बीच विपक्षी दल कांग्रेस ने जवाबदेही का सवाल उठाया है. पार्टी के अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे ने कहा कि दुर्भाग्यपूर्ण रूप से बार-बार होने वाली इन घटनाओं के लिए जवाबदेही सुनिश्चित करना अनिवार्य है. राहुल गांधी ने कहा कि इस तरह की दुर्घटनाएं सार्वजनिक परिवहन प्रणालियों की सुरक्षा पर गंभीर सवाल खड़े करती हैं.
ट्रम्प ने टेलीविजन विज्ञापनों के बाद कनाडा के साथ ट्रेड वार्ता समाप्त करने की घोषणा की
अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प ने गुरुवार को घोषणा की कि वह कनाडा के साथ “सभी व्यापार वार्ता” समाप्त कर रहे हैं, जिसका कारण उन्होंने हाल के टेलीविजन विज्ञापनों से जुड़ा “भयंकर व्यवहार” बताया, जो अमेरिकी शुल्कों का विरोध कर रहे थे. “एपी” की एक रिपोर्ट के अनुसार, सोशल मीडिया पर एक पोस्ट में, ट्रम्प ने ओटावा पर इन विज्ञापनों के माध्यम से अमेरिकी सुप्रीम कोर्ट के फैसलों को प्रभावित करने की कोशिश करने का आरोप लगाया. राष्ट्रपति ने लिखा, “शुल्क संयुक्त राज्य अमेरिका की राष्ट्रीय सुरक्षा और अर्थव्यवस्था के लिए बहुत महत्वपूर्ण हैं.”
यह घोषणा कनाडाई प्रधानमंत्री मार्क कार्नी की टिप्पणियों के बाद आई है, जिन्होंने इस सप्ताह की शुरुआत में कहा था कि ट्रम्प के शुल्कों से उत्पन्न अनिश्चितता के मद्देनजर उनकी सरकार की योजना संयुक्त राज्य अमेरिका के अलावा अन्य देशों को निर्यात दोगुना करने की है. व्हाइट हाउस ने अभी तक यह निर्दिष्ट नहीं किया है कि वार्ता कब या क्या फिर से शुरू हो सकती है.
सुप्रीम कोर्ट: यूएपीए के तहत गिरफ्तारी के लिखित आधार बताना अनिवार्य
सुप्रीम कोर्ट ने फैसला सुनाया है कि गैरकानूनी गतिविधियां (रोकथाम) अधिनियम (यूएपीए) के तहत आतंकवाद और अन्य आरोपों से संबंधित अपराधों के लिए हिरासत में लिए गए व्यक्ति को गिरफ्तारी के लिखित आधार प्रदान करना अनिवार्य है. कोर्ट ने यूएपीए और आईपीसी की विभिन्न धाराओं के तहत आरोपी अहमद मंसूर और दो अन्य की गिरफ्तारी और हिरासत को रद्द कर दिया.
हालांकि, सुप्रीम कोर्ट ने जांच एजेंसी को अनुमति दी कि वह औपचारिक रूप से कार्रवाई के आधार प्रस्तुत करने के बाद, यदि आवश्यक हो तो, आरोपियों को फिर से गिरफ्तार करने सहित नए कदम उठा सकती है.
न्यायमूर्ति एम.एम. सुंदरेश और न्यायमूर्ति विपुल पंचोली की पीठ ने मंसूर और अन्य द्वारा दायर अपील पर यह आदेश पारित किया. अपील में मद्रास हाई कोर्ट के उस दृष्टिकोण को चुनौती दी गई थी कि यदि आरोपियों को मजिस्ट्रेट के समक्ष पेश किए जाने के समय केवल गिरफ्तारी के कारणों के बारे में सूचित कर दिया जाता है, तो भी कानून का पर्याप्त अनुपालन हो जाता है.
“द टेलीग्राफ” की रिपोर्ट के अनुसार, सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि इस मामले के तथ्यों पर कोई विवाद नहीं है कि गिरफ्तारी के आधार न तो अपीलकर्ताओं और न ही उनके साथ गिरफ्तार किए गए व्यक्तियों को दिए गए थे. इसके विपरीत, जांच एजेंसी की ओर से एकमात्र तर्क यह था कि रिमांड के समय ट्रायल कोर्ट द्वारा गिरफ्तारी के कारणों को विधिवत समझाया गया था, जिसके बाद वकीलों को गिरफ्तारी के आधारों की एक प्रति दी गई थी.
शीर्ष अदालत ने कहा, “हम यह मानने को तैयार हैं कि वर्तमान अपील केवल इस आधार पर सफल होने योग्य है कि अपीलकर्ताओं की हिरासत सुनिश्चित करते समय गिरफ्तारी के आधार प्रस्तुत करने के आदेश का अनुपालन नहीं किया गया है.”
सरकारी योजना के लाभार्थियों को ठगने वाले साइबर अपराध गिरोह का भंडाफोड़, 11,000 बैंक खातों से जुड़े दस्तावेज जब्त
झालावाड़ पुलिस ने एक बड़े अंतर-राज्यीय साइबर अपराध मॉड्यूल का भंडाफोड़ करने का दावा किया है, जो कथित तौर पर केंद्र और राज्य सरकार की कल्याणकारी योजनाओं से धन निकालने में शामिल था.
ऑपरेशन शटडाउन के तहत, पुलिस ने एक रैकेट का खुलासा किया जिसने कथित तौर पर पीएम किसान सम्मान निधि, सामाजिक सुरक्षा पेंशन और विभिन्न मुआवजा कार्यक्रमों जैसी योजनाओं के तहत फर्जी दावों के माध्यम से किसानों, पेंशनभोगियों और कम आय वाले लाभार्थियों के लिए रखे गए धन को निकाल लिया. खबर है कि यह धनराशि जोधपुर, कोटा, बूंदी और दौसा में फैले जाली पहचान और खातों का उपयोग करके निकाली गई थी, जिसके लिए व्यक्तिगत डेटा झालावाड़ से प्राप्त किया गया था.
पुलिस ने दौसा के बांदीकुई निवासी कथित सरगना रामावतार सैनी सहित 30 आरोपियों को हिरासत में लिया है और ₹52 लाख नकद, लक्जरी वाहन, 35 कंप्यूटर, बायोमेट्रिक उपकरण, सैकड़ों सिम कार्ड और 11,000 से अधिक बैंक खातों से जुड़े दस्तावेज जब्त किए हैं. कुल जब्ती का मूल्य ₹3 करोड़ से अधिक है.
पुलिस अधीक्षक अमित कुमार बुडानिया ने बताया कि जनता को पुलिस के साथ आत्मविश्वास से जानकारी साझा करने के लिए शुरू किया गया एक टोल-फ्री नंबर इस सफलता में महत्वपूर्ण साबित हुआ. 8 अगस्त, 2025 को एक गुप्त सूचना प्राप्त हुई, जिसके आधार पर साइबर धोखाधड़ी का एक मामला दर्ज किया गया. शुरुआती जांच में पता चला कि कई बैंक खाते एक ही मोबाइल नंबर से जुड़े हुए थे और उन खातों में कई संदिग्ध लेनदेन और सरकारी खजाने में जमा किए गए थे, जिसके तुरंत बाद नकद निकासी की गई थी. जांच में पता चला कि मनोहरथाना और डांगीपुरा जैसे दूरदराज के इलाकों के लोग अपने बैंक खाते और पहचान दस्तावेज दूसरों को बेच रहे थे, जो अवैध रूप से सरकारी लाभों का दावा कर रहे थे. डेटा विश्लेषण ने वित्तीय गतिविधि के एक जटिल जाल का खुलासा किया. आरोपियों के बैंक स्टेटमेंट ने व्यवस्थित धोखाधड़ी के एक पैटर्न का खुलासा किया, जो जिलों में चल रहे एक सुव्यवस्थित रैकेट का संकेत देता है.
पारुल कुलश्रेष्ठ की रिपोर्ट के मुताबिक, गहन जांच करने पर, यह सामने आया कि सैनी को विभिन्न सरकारी कल्याण और पेंशन पोर्टलों, जिनमें पीएम किसान सम्मान निधि, आपदा प्रबंधन सूचना प्रणाली और भूमि सीडिंग सत्यापन प्रणाली शामिल हैं, का विस्तृत ज्ञान था. वह और उसके सहयोगी व्यक्तियों से बैंक विवरण और पहचान दस्तावेज एकत्र करके, उन्हें लाभ का वादा करके, इन प्रणालियों का शोषण करते थे. वह आधिकारिक पोर्टलों पर डेटा में हेरफेर करके अपात्र लोगों को सत्यापित लाभार्थी के रूप में दिखाता था, जिससे सरकारी खजाने से बड़ी रकम का हस्तांतरण संभव हो जाता था. इसके बाद गिरोह कथित तौर पर 50-75% कमीशन रखता था, जिससे कल्याणकारी योजनाओं के लिए रखी गई बड़ी रकम को डायवर्ट कर दिया जाता था.
हफ्तों की निगरानी के बाद, 70 पुलिस टीमों ने राजस्थान और मध्यप्रदेश में 700 किलोमीटर से अधिक की दूरी तय करते हुए 30 स्थानों पर एक साथ छापे मारे. झालावाड़ पुलिस मुख्यालय में एक साइबर कंट्रोल रूम ने वास्तविक समय में अभियानों की निगरानी की, समन्वय सुनिश्चित किया और सबूतों को मिटाने से रोका.
दिल्ली में विहिप का छठ के बहाने मुसलमानों का आर्थिक बहिष्कार?
विश्व हिंदू परिषद (विहिप) ने छठ पूजा के अवसर पर दिल्ली में एक नया अभियान शुरू किया है, जिसमें ‘जिहादी-मुक्त दिल्ली’ के संकल्प के साथ ‘सनातन प्रतिष्ठा’ स्टिकर वितरित किए जा रहे हैं. द वायर हिंदी के लिए अंकित राज की रिपोर्ट के अनुसार, संगठन का दावा है कि यह पहल भक्तों को ‘शुद्ध और प्रमाणित’ पूजा सामग्री उपलब्ध कराने के लिए है, लेकिन बुद्धिजीवी इसे हिंदुत्ववादी संगठन द्वारा मुस्लिम व्यापारियों के व्यवस्थित आर्थिक बहिष्कार का एक और प्रयास मान रहे हैं. दिल्ली विश्वविद्यालय के पूर्व प्रोफेसर और प्रसिद्ध इतिहासकार डॉ. शम्सुल इस्लाम कहते हैं कि ‘ये सब इसलिए किया जा रहा है ताकि दिल्ली में तमाम उपेक्षाओं को झेलते हुए रह रहे बिहार के लोगों की असल समस्याओं (पानी, बिजली और मकान आदि) पर कोई बात न हो.’
विहिप इंद्रप्रस्थ के प्रांत मंत्री सुरेंद्र गुप्ता ने घोषणा की कि दिल्ली के सभी 30 जिलों में अलग-अलग स्थलों पर संगठन के स्टॉल लगाए जाएंगे, जहां से ‘प्रमाणित, शुद्ध और उपयोगी’ पूजा सामग्री उपलब्ध कराई जाएगी. साथ ही, हिंदू दुकानदारों, ठेलेवालों और रेहड़ी-पटरी वालों को ‘सत्यापन के पश्चात’ ‘सनातन प्रतिष्ठा’ का आधिकारिक स्टिकर प्रदान किया जाएगा. यह ‘सत्यापन’ दुकान/स्टॉल के पंजीकरण, पहचान और दस्तावेजों की जांच, फिर स्थानीय प्रतिनिधि द्वारा निरीक्षण के ज़रिये निर्धारित होगा. गुप्ता ने दावा किया कि यह पहल ‘किसी के विरुद्ध नहीं, बल्कि हमारी संस्कृति, परंपरा और सनातन मान्यताओं की रक्षा के लिए है.’ हालांकि, विहिप का इतिहास बताता है कि इस तरह के अभियानों का असली उद्देश्य धार्मिक पहचान के आधार पर व्यापारियों को अलग करना होता है.
‘जिहादी-मुक्त दिल्ली’ की व्याख्या करते हुए सुरेंद्र गुप्ता बताते हैं, ‘जो जिहाद की नीयत से हिंदू बहन-बेटियों के साथ प्रेम का ढोंग रचते हैं, हिंदू देवी-देवताओं के नामों से ढाबे चलाते हैं, थूक जिहाद करते हैं, इस प्रकार की जितनी भी गतिविधियां हैं, जो जिहाद की श्रेणी में आती हैं, उन सब गतिविधियों को हम रोकेंगे.’ जब उनसे पूछा गया कि छठ पूजा का सामान बेचना जिहाद कैसे है और इसे मुसलमानों का आर्थिक बहिष्कार की कोशिश क्यों न माना जाए, तो गुप्ता ने कहा, ‘आप इसे जो भी नाम दें. हमारी सीधी सी बात हैं, जिसको हमारी देवी-देवताओं में आस्था नहीं है, जिसको हमारे धर्म में आस्था नहीं, जिसको हमारी मूर्तियों में आस्था नहीं, हमारे जय श्रीराम के नारे में आस्था नहीं, उसे हमारे त्योहार में सामान बेचने में क्या आस्था है? कहीं और बेच ले. हमसे लाभ कमाने के लिए तो उनको सब स्वीकार है. वैसे उसका मजहब इन बातों के ख़िलाफ़ है. यह दोहरा मापदंड कैसे चलेगा.’ विहिप इस अभियान को त्योहारों की खरीदारी तक सीमित नहीं कर रहा है; उनकी योजना वृहद है. धीरे-धीरे हिंदू रोजमर्रा के सामान भी यही स्टिकर देखकर खरीदेंगे और जिन्हें भी हिंदुओं को सामान बेचना है, उन्हें ‘सनातन प्रतिष्ठान’ का सर्टिफिकेट लेना ही होगा.
पिछले कुछ वर्षों में, हिंदुत्ववादी संगठनों द्वारा मुस्लिम व्यापारियों के आर्थिक बहिष्कार के कई मामले सामने आए हैं, जैसे जुलाई 2025 में कांवड़ यात्रा के दौरान दिल्ली में 5,000 दुकानों पर ‘सनातनी’ स्टिकर लगाने का अभियान, और सितंबर 2025 में इंदौर में ‘जिहादी-मुक्त बाजार’ के बैनर लगवाकर मुस्लिम व्यापारियों व कर्मचारियों को कपड़ा बाजारों से बाहर निकालना. अप्रैल 2023 में, सुप्रीम कोर्ट ने निर्देश दिया था कि भारत के राज्यों को औपचारिक शिकायत की प्रतीक्षा किए बिना घृणास्पद भाषण के मामलों को दर्ज करना चाहिए. लेकिन हिंदुत्ववादी संगठनों द्वारा मुसलमानों के बहिष्कार के खुले आह्वानों के बावजूद उन पर क़ानूनी कार्रवाई कम ही हुई है. कई विश्लेषकों ने इस तरह के आर्थिक बहिष्कार की तुलना 1930 के दशक में नाजी जर्मनी में यहूदी व्यापारों के बहिष्कार से की है. डॉ. शम्सुल इस्लाम कहते हैं कि जर्मनी में नाजियों का यहूदियों के बिजनेस पर अच्छा खासा कंट्रोल था, लेकिन यहां तो बहिष्कार केवल गरीब मुसलमानों का हो रहा है, जो फल, सब्जी, टॉफी आदि बेचते हैं.
जम्मू-कश्मीर:
इंडिया ब्लॉक को मिल सकती हैं तीन राज्यसभा सीटें, चौथी पर हो सकता है बड़ा उलटफेर
जम्मू-कश्मीर में राज्यसभा की चार सीटों के लिए हुए चुनाव में इंडिया ब्लॉक को तीन सीटों पर जीत मिलने की संभावना है, जबकि चौथी सीट पर बड़ा उलटफेर देखने को मिल सकता है. द वायर के लिए जहांगीर अली की रिपोर्ट के अनुसार, एक दशक से भी ज़्यादा समय के बाद हो रहे इस महत्वपूर्ण चुनाव के लिए शुक्रवार (24 अक्टूबर) को मतदान हुआ. नेशनल कॉन्फ्रेंस (एनसी) को कांग्रेस और पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी (पीडीपी) का समर्थन मिलने से इंडिया ब्लॉक के घटक दलों के बीच मज़बूत तालमेल दिखा.
मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला, जो एनसी के कार्यकारी अध्यक्ष भी हैं, उन पहले लोगों में से थे जिन्होंने शुक्रवार सुबह विधानसभा परिसर में अपना वोट डाला. आधिकारिक आंकड़ों के अनुसार, शुक्रवार को दोपहर 1 बजे तक 50 सदस्यों ने अपना वोट डाल दिया था. एनसी ने पूर्व मंत्री चौधरी मोहम्मद रमज़ान और सज्जाद किचलू, पार्टी के कोषाध्यक्ष गुरविंदर सिंह ओबेरॉय और प्रवक्ता इमरान नबी डार को मैदान में उतारा है. रमज़ान और किचलू को बहुमत वोटों के साथ शुरुआती दो सीटों पर आराम से जीत हासिल करने की उम्मीद है, क्योंकि सत्तारूढ़ पार्टी के पास कुल 52 सदस्यों का समर्थन है, जिसमें उसके अपने 41 विधायक, कांग्रेस के छह, पीडीपी के तीन, भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) का एक और अवामी इत्तेहाद पार्टी का एक विधायक शामिल है.
जम्मू-कश्मीर के चुनावी इतिहास में यह पहली बार है कि कांग्रेस ने राज्यसभा चुनाव में कोई उम्मीदवार खड़ा नहीं किया है, क्योंकि सत्तारूढ़ पार्टी ने पहली दो “सुरक्षित” सीटों को बांटने से इनकार कर दिया और चौथी सीट राष्ट्रीय पार्टी को दी, जिसे कांग्रेस ने “असुरक्षित” माना. भाजपा के पास 90 सदस्यीय विधानसभा में 28 विधायक हैं, जिसमें वर्तमान में 88 विधायक हैं और बुडगाम तथा नगरोटा की दो सीटें अभी ख़ाली हैं.
राजनीतिक विश्लेषकों के अनुसार, तीसरी और चौथी सीट के लिए मुकाबला और पेचीदा हो सकता है अगर छह निर्दलीय विधायक या एनसी से जुड़े लोग अनुपस्थित रहते हैं या क्रॉस-वोट करते हैं. राज्यसभा चुनाव के लिए मतदान लोकसभा चुनावों के विपरीत एक गोपनीय प्रक्रिया नहीं है, लेकिन नियमों के तहत निर्दलीय विधायक अपने चिह्नित मतपत्रों को मतदान एजेंटों को दिखाने के लिए बाध्य नहीं हैं, जिसने जम्मू-कश्मीर में अटकलों को तेज़ कर दिया है. पीपुल्स कॉन्फ्रेंस के सज्जाद लोन ने घोषणा की है कि वे मतदान से दूर रहेंगे, जबकि जेल में बंद आम आदमी पार्टी के विधायक मेहराज-उद-दीन मलिक ने अदालत द्वारा शारीरिक रूप से चुनावों में भाग लेने की उनकी अर्ज़ी को ठुकराए जाने के बाद इस सप्ताह की शुरुआत में जेल से अपना वोट डाला.
मुख्यमंत्री अब्दुल्ला ने सभी चार सीटों पर जीत हासिल करने का विश्वास जताया है, लेकिन विशेषज्ञों का मानना है कि निर्दलीय विधायकों की वोटिंग प्राथमिकताएं, अनुपस्थित रहने वाले और सत्तारूढ़ पार्टी का समर्थन करने का वादा करने वाले ही अंतिम नतीजों का फ़ैसला करेंगे. अब्दुल्ला ने पिछले हफ़्ते पत्रकारों से कहा, “यह चुनाव बताएगा कि कौन भाजपा का समर्थन करता है और कौन उसका विरोधी है. पिछले एक साल में किसी भी पार्टी ने भाजपा का समर्थन नहीं किया है और वह अपने दम पर एक भी सीट नहीं जीत सकती.” भगवा पार्टी ने अपने जम्मू-कश्मीर अध्यक्ष सत शर्मा, राकेश महाजन और डॉ. अली मोहम्मद मीर को मैदान में उतारा है और कम से कम एक सीट जीतने के लिए उसे गैर-भाजपा वोटों की ज़रूरत है.
तमिलनाडु में मतदाता सूची का विशेष गहन पुनरीक्षण एक सप्ताह में होगा शुरू
चुनाव आयोग (ईसीआई) ने शुक्रवार को मद्रास हाईकोर्ट को सूचित किया कि तमिलनाडु मतदाता सूची का विशेष गहन पुनरीक्षण (एसआईआर) एक सप्ताह के भीतर शुरू हो जाएगा, जैसा कि “लाइव लॉ” ने रिपोर्ट किया है. यह घोषणा ऐसे समय में आई है, जब तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एमके स्टालिन ने बिहार में इस प्रक्रिया की आलोचना करते हुए, इस कवायद की तुलना “आग से खेलने” से की है.
गुरुवार को, चुनाव आयोग ने दो दिवसीय सम्मेलन के दौरान राज्यों के मुख्य निर्वाचन अधिकारियों को अपने-अपने राज्यों/केंद्र शासित प्रदेशों में विशेष गहन पुनरीक्षण (एसआईआर ) के लिए अपनी तैयारियों को अंतिम रूप देने का निर्देश दिया था.
रिपोर्टों से पता चलता है कि चुनाव आयोग अगले कुछ दिनों में देश भर में ‘एसआईआर’ को लागू करने का कार्यक्रम घोषित करने के लिए पूरी तरह तैयार है. इस प्रक्रिया का पहला चरण 10 से अधिक राज्यों और एक केंद्र शासित प्रदेश में लागू किया जाएगा, जिनमें चुनाव वाले राज्य असम, तमिलनाडु, पुडुचेरी, केरल और पश्चिम बंगाल शामिल हैं.
मद्रास हाईकोर्ट अन्नाद्रमुक के पूर्व विधायक बी. सत्यानारायणन द्वारा दायर एक याचिका पर सुनवाई कर रहा था, जिसमें चुनाव आयोग को टी नगर निर्वाचन क्षेत्र के 229 बूथों की पूर्ण और पारदर्शी पुनः सत्यापन कराने का निर्देश देने की मांग की गई थी. आयोग के स्थायी वकील, निरंजन राजगोपालन, ने कोर्ट को बताया कि एसआईआर एक सप्ताह के भीतर शुरू हो जाएगा और इस पुनरीक्षण के माध्यम से याचिकाकर्ता की शिकायत का प्रभावी ढंग से निवारण किया जाएगा.
अमेरिकी ग्रामीण स्वास्थ्य सेवा के ख़त्म होने का डर: एच-1बी शुल्क वृद्धि से चिंतित भारतीय डॉक्टर
डॉ. महेश अनंत, अर्कांसस के बेट्सविले इलाक़े में कुछ ही इंटरवेंशनल कार्डियोलॉजिस्ट में से एक हैं, जो एक ग्रामीण क्षेत्र है. बीबीसी न्यूज़ कैलिफ़ोर्निया के लिए सविता पटेल की रिपोर्ट के अनुसार, 11,000 की आबादी वाला यह शहर आसपास के गांवों और कस्बों के लिए एक केंद्र के रूप में कार्य करता है, जिससे डॉ. अनंत का जीवन रक्षक अभ्यास अपरिहार्य हो जाता है. मद्रास मेडिकल कॉलेज से स्वर्ण पदक विजेता, डॉ. अनंत अमेरिका के छोटे और दूरदराज़ के शहरों में काम करने वाले हज़ारों अप्रवासी डॉक्टरों में से एक हैं. अमेरिका में देखभाल प्रदान करने वाले 25% डॉक्टर विदेशी-प्रशिक्षित हैं. हालिया आंकड़ों से पता चलता है कि उनमें से 64% विशाल ग्रामीण क्षेत्रों में अभ्यास करते हैं, जहां अमेरिकी स्नातक काम करने से कतराते हैं, जिससे देश की स्वास्थ्य सेवा प्रणाली में एक महत्वपूर्ण अंतर भर जाता है. इनमें से कई डॉक्टर एच-1बी वीजा पर हैं और कुछ तो ग्रीन कार्ड का इंतजार करते हुए अपना पूरा करियर इन्हीं पर बिताते हैं, जिससे वे अप्रत्याशित नौकरी छूटने और दीर्घकालिक अस्थिरता के प्रति संवेदनशील हो जाते हैं.
इसलिए पिछले महीने डोनाल्ड ट्रम्प प्रशासन द्वारा नई एच-1बी वीजा आवेदकों के लिए कुशल-श्रमिक शुल्क को 100,000 डॉलर (£74,359) तक बढ़ाने की घोषणा ने अमेरिका में काम करने वाले लगभग 50,000 भारत-प्रशिक्षित डॉक्टरों के बीच डर और चिंता पैदा कर दी. इस कदम के बाद के दिनों में, यह स्पष्ट नहीं था कि यह चिकित्सा पेशेवरों को कैसे प्रभावित करेगा, जिससे उनके भविष्य के बारे में अनिश्चितता बढ़ गई, उन लोगों के लिए भी जिन्होंने अमेरिका में करियर और समुदायों के निर्माण में वर्षों बिताए हैं. जैसे-जैसे आक्रोश फैला, व्हाइट हाउस के एक प्रवक्ता ने 22 सितंबर को ब्लूमबर्ग को ईमेल के ज़रिये बताया कि “घोषणा संभावित छूट की अनुमति देती है, जिसमें चिकित्सक और चिकित्सा निवासी शामिल हो सकते हैं.” सोमवार को, अमेरिकी अधिकारियों ने घोषणा की कि शुल्क “किसी भी पहले जारी और वर्तमान में वैध एच-1बी वीजा पर लागू नहीं होता है.”
हालांकि यह स्पष्टीकरण उन डॉक्टरों को कुछ राहत दे सकता है जो पहले से ही अमेरिका में एच1-बी वीजा पर काम कर रहे हैं, फिर भी यह सवाल बने हुए हैं कि क्या भविष्य में भारतीय चिकित्सा पेशेवरों की अमेरिका में स्थिर आपूर्ति जारी रहेगी. वीजा वृद्धि पर पहले के कार्यकारी आदेश में कहा गया है कि यदि होमलैंड सिक्योरिटी के सचिव यह स्थापित करते हैं कि कुछ श्रमिकों की नियुक्ति “राष्ट्रीय हित में है” तो उच्च शुल्क माफ किया जा सकता है. लेकिन चिकित्सा उद्योग और समूह बताते हैं कि इस बात का कोई संकेत नहीं है कि चिकित्सा क्षेत्र सहित किसी भी श्रेणी के श्रमिकों को इस शुल्क से छूट दी गई है.
कई लोगों को चिंता है कि डॉक्टरों और अन्य श्रमिकों को काम पर रखने के लिए अस्पतालों के लिए उच्च लागत पूरे सिस्टम में फैल सकती है. पिछले महीने, अमेरिकन मेडिकल एसोसिएशन (एएमए) के नेतृत्व में 50 से अधिक समूहों ने होमलैंड सिक्योरिटी के सचिव क्रिस्टी नोएम को लिखा, इस बात पर ज़ोर दिया कि शुल्क वृद्धि अस्पतालों को एच-1बी डॉक्टरों को काम पर रखने से हतोत्साहित कर सकती है, जिससे भविष्य की आपूर्ति पाइपलाइनों को प्रभावित किया जा सकता है और उन समुदायों में रोगियों की देखभाल तक पहुंच सीमित हो सकती है जिन्हें इसकी सबसे ज़्यादा ज़रूरत है. एएमए के अध्यक्ष डॉ. बॉबी मुक्कामला कहते हैं, “हमें स्वास्थ्य प्रणालियों से पता चला है कि यह शुल्क विनाशकारी होगा.” भारतीय अप्रवासी डॉक्टरों के बेटे, डॉ. मुक्कामला एएमए का नेतृत्व करने वाले पहले भारतीय मूल के डॉक्टर हैं. शोध के अनुसार, अमेरिका में पांच में से एक अप्रवासी डॉक्टर भारतीय मूल का है.
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