24/11/2025: धर्मेंद्र का जाना | साफ हवा चाहने वालों पर दिल्ली पुलिस का दमन | मोदी की कायरता | थरूर की वाहवाह | कश्मीर में प्रेस फ्रीडम | खुदकुशी करते बीएलओ | इजराइल से धंधा | व्यापार घाटा 60% बढ़ा
‘हरकारा’ यानी हिंदी भाषियों के लिए क्यूरेटेड न्यूजलेटर. ज़रूरी ख़बरें और विश्लेषण. शोर कम, रोशनी ज़्यादा.
निधीश त्यागी, साथ में राजेश चतुर्वेदी, गौरव नौड़ियाल, फ़लक अफ़शां
आज की सुर्खियां
89 साल की उम्र में अलविदा कह गया हिंदी सिनेमा का असली ‘ही-मैन’
खतरे की घंटी: व्यापार घाटा 60% बढ़ा, पुराने निर्यात क्षेत्र पस्त;
कहीं आत्महत्या, कहीं हार्ट अटैक; गुजरात से बंगाल तक बीएलओ की मौतें,
नरसंहार के आरोपों के बीच भारत ने भेजा इजरायल में अब तक का सबसे बड़ा दल,
“अरुणाचल तो चीन का हिस्सा है”: शंघाई एयरपोर्ट पर भारतीय महिला का अपमान, 18 घंटे हिरासत में रखा और पासपोर्ट को बताया अवैध.
इंडिया गेट पर ‘सांसों’ के लिए संघर्ष: प्रदूषण के खिलाफ शांतिपूर्ण प्रदर्शन पर पुलिस का बलप्रयोग,
ओमैर अहमद का विश्लेषण: मोदी की ‘कायरता’ और गिरती विदेश नीति— चीन पर चुप्पी और वैश्विक मंचों से नदारद रहना भारत के लिए भारी.
एजे फ़िलिप का सवाल- ‘एट टू, थरूर!’: मोदी के भाषण पर शशि थरूर की वाहवाही से हैरानी; कहा— इतिहास से छेड़छाड़ और बिहार चुनाव की ‘नीलामी’ पर ताली बजाना दुखद.
शुभ्रांशु चौधरी का दावा: हिड़मा की मौत बस्तर के साथ धोखा; शांति वार्ता की वो ख़ुफ़िया चिट्ठी, जिसे माओवादी नेतृत्व ने दबाया और आदिवासियों को फिर छला.
आकार पटेल : कश्मीर में खामोश होती पत्रकारिता; ‘न्यू मीडिया पॉलिसी’ और छापों के ज़रिए कैसे दबाई जा रही प्रेस की आज़ादी.
लेकिन, अब कोई दूसरा धर्मेंद्र नहीं होगा
शुभ्रा गुप्ता लिखती हैं, एक अभिनेता और एक महान सितारे के रूप में अपने 60 से अधिक फलदायी वर्षों के दौरान, धर्मेंद्र को “ही-मैन” और “गरम धरम” कहा गया. ये दोनों उपनाम उस हट्टे-कट्टे, हैंडसम जाट के लिए एकदम सटीक थे, जिनके काम में हिंदी सिनेमा की हर शैली की फिल्में शामिल थीं— विशुद्ध एक्शन फिल्में, गंभीर प्रेम कहानियां और ज़ोर से हंसाने वाली कॉमेडी. लेकिन मेरे लिए, उनकी सर्वश्रेष्ठ फिल्में वे थीं जिनमें उन्होंने अपना “नरम धरम” पक्ष बाहर निकाला; उनका मजबूत शरीर एक कोमलता, एक सज्जनता को दर्शाता था, और उनका वह अद्वितीय मिश्रण, जो उनके युग के लिए इतना दुर्लभ था, उन्हें एक संपूर्ण पुरुष बनाता था, जो नरम और गरम दोनों थे.
उनकी आश्चर्यजनक रूप से विविध फिल्मोग्राफी में से चुनना मुश्किल है, जिसमें असित सेन की सामाजिक रूप से जागरूक फिल्में, जिनमें ममता (1966), बिमल रॉय और हृषिकेश मुखर्जी की फिल्में, चेतन आनंद की हकीकत (1964) (जो भारत की सर्वश्रेष्ठ युद्ध फिल्मों में से एक बनी हुई है), राज खोसला की जोरदार डाकू गाथा ‘मेरा गांव मेरा देश’ (1971) — हाथ उठाएं, जिन्होंने “मार दिया जाए, या छोड़ दिया जाए” गाने पर झूम लिया— या यादों की बारात (1973), नासिर हुसैन की ब्लॉकबस्टर जो पहली हिंदी मल्टी-स्टारर थी, शामिल हैं. मुखर्जी के साथ उनकी कई फिल्मों में, सर्वकालिक हास्य क्लासिक चुपके चुपके (1974) है, लेकिन बंदिनी (1963) या अनुपमा (1966) को कौन भूल सकता है? और, निश्चित रूप से, रमेश सिप्पी की शोले (1975) है, जिसमें उन्हें निर्विवाद रूप से सभी सितारों के समूह के सबसे बड़े स्टार के रूप में शीर्ष बिलिंग मिली थी.
जब उन्होंने शोला और शबनम (1961) और सूरत और सीरत (1962) जैसी फिल्मों से शुरुआत की थी, तब राज कपूर-देव आनंद-दिलीप कुमार की लोकप्रिय तिकड़ी अभी भी मैदान में थी. उनके समकालीनों में राजेश खन्ना, जीतेंद्र, विनोद खन्ना शामिल थे, ये सभी उन नायकों की भूमिकाओं के लिए दौड़ में थे जो गा सकते थे, नाच सकते थे, रोमांस कर सकते थे, और खलनायकों को वहीं मार सकते थे जहां सबसे ज़्यादा दर्द होता था. दशक के अंत में अमिताभ बच्चन का प्रवेश हुआ, जिन्होंने हिंदी सिनेमा के नियमों को इतनी तेज़ी से और अचानक बदल दिया कि वह आगे चलकर सभी मुख्य परियोजनाओं के लिए डिफ़ॉल्ट पसंद बन गए.
बच्चन के ज़बरदस्त उभार के सामने केवल धर्मेंद्र ही दृढ़ता के साथ खड़े रहे. राजेश खन्ना तेज़ी से और अचानक बाहर हो गए, जीतेंद्र केवल बड़ी दक्षिण भारतीय फिल्मों की मदद से ही टिक पाए, विनोद खन्ना ओशो के पुणे आश्रम के अंदर-बाहर होते रहे. एकमात्र स्टार जो पीछे नहीं हटा, वह धर्मेंद्र थे, और यह उल्लेखनीय है कि अमिताभ की कुछ सबसे बड़ी हिट फिल्मों में धर्मेंद्र उनके सह-कलाकार थे; चुपके चुपके और शोले के अलावा, जिसमें वह प्रसिद्ध रूप से हेमा मालिनी के प्यार में पड़ गए थे, विजय आनंद की पूरी तरह से मनोरंजक फिल्म राम बलराम (1981) भी थी.
उस समय हेमा का उनकी “दूसरी पत्नी” बनने के लिए सहमत होना एक बहुत बड़ा स्कैंडल था. लेकिन जहां तक उनके स्टारडम की बात थी, यह कोई बड़ी बाधा नहीं थी: उन दिनों सितारों के पास ऐसी रहस्यमयता और छूट होती थी जो सामान्य मनुष्यों के पास नहीं होती थी— अगर गरम धरम और ड्रीम गर्ल एक साथ रहना चाहते थे, तो यह ठीक था; टैब्लॉइड्स ने कहा, चलो, कम से कम वह उनके अन्य प्रेमियों, संजीव कुमार और जीतेंद्र से तो बेहतर थे. आज के सोशल-मीडिया से भरे हैंडल्स के लोकप्रिय अग्रदूत, गॉसिप प्रेस ने खूब मसाला बनाया, लेकिन जल्द ही वे धर्मेंद्र और उनके बड़े परिवार के घरेलू सुख की रिपोर्टिंग करने के लिए मजबूर हो गए, जिसने सब कुछ गरिमापूर्ण चुप्पी के साथ संभाला.
पिछले कुछ दशकों में, धर्मेंद्र छिटपुट रूप से काम करते रहे, यमला पगला दीवाना (2011, 2013) के दोनों संस्करणों में अपने बेटों सनी और बॉबी के साथ अभिनय किया, जिनकी खासियत महज़ सभी देओल को एक ही फ्रेम में लाना था; उनके प्रशंसक अपने पसंदीदा स्टार को देखने के लिए बड़ी संख्या में आते थे, भले ही उनकी उम्र साफ़ दिखती हो. यह बात कि उनके अंदर और भी बहुत कुछ बाकी था, कुछ निर्देशकों ने पकड़ी. उन्होंने श्रीराम राघवन की जॉनी गद्दार (2007) और अनुराग बसु की लाइफ इन… ए मेट्रो (2007) में अमूल्य योगदान दिया, पहले में हिंदी गाने पसंद करने वाले बदमाश के रूप में, और दूसरे में एक कट्टर रोमांटिक के रूप में. वह एक उम्रदराज़ प्रेमी की भूमिका अच्छी तरह से निभा सकते थे. यह करण जौहर की रॉकी और रानी की प्रेम कहानी (2023) में उनकी छोटी भूमिका में स्पष्ट था. हाल ही में, वह आगामी युद्ध-फिल्म ‘इक्कीस’ के बारे में ज़ोरदार तरीके से बात कर रहे थे, यह फिल्म भी राघवन की है, जो उनके सबसे बड़े प्रशंसक बने रहे.
एक स्व-निर्मित स्टार, उन्होंने एक चिरस्थायी करियर और विशाल प्रशंसक आधार बनाया— एक जो पूरी तरह से उस अंदाज़ को समर्पित था, जिसके साथ उन्होंने मनमोहन देसाई की 1977 की शानदार मनोरंजन फिल्म धरम वीर में वह स्कर्ट पहनी थी— उनकी विरासत को सनी और बॉबी आगे बढ़ा रहे हैं, जो वर्तमान में बड़ी हिट फिल्मों के साथ शीर्ष पर हैं. भतीजे अभय के सीवी में कुछ सबसे दिलचस्प इंडी-स्पिरिट वाली फिल्में हैं; हेमा के साथ उनकी बेटी ईशा का फिल्मों में एक सफल, हालांकि संक्षिप्त, कार्यकाल रहा, जिसमें मां और बेटी दोनों अभी भी उत्पाद अभियानों में दिखाई देती हैं. यह सब एक फिल्मी परिवार को बनाता है जिसने भारतीय मनोरंजन क्षेत्र में विविध योगदान दिए हैं.
लेकिन अब कोई दूसरा धर्मेंद्र नहीं होगा, जिनकी जॉनी गद्दार की अमर पंक्ति, “उम्र की बात नहीं है, यह माइलेज है” —उनका स्मारक हो सकती है.
टेलेंट हंट से शुरू हुआ सफर
धर्मेंद्र का जाना सिर्फ एक अभिनेता का जाना नहीं, बल्कि हिंदी सिनेमा के एक पूरे युग का धीमे-धीमे ओझल हो जाना है. 89 वर्ष की उम्र में मुंबई में उनका निधन उस रोशनी के बुझने जैसा है जिसने आधी सदी से भी ज़्यादा समय तक करोड़ों दर्शकों के दिलों को रोशन रखा. वह वक़्त जब मुंबई सचमुच सपनों का शहर कहलाती थी, जहाँ एक साधारण युवा, सिर्फ सपनों की पूंजी लेकर, फिल्मों की दुनिया में अपनी जगह बना सकता था, धर्मेंद्र उसी सुनहरे किस्से के नायक थे.
8 दिसंबर 1935 को पंजाब के लुधियाना जिले के नसराली गांव में जन्मे धर्मेंद्र (धर्मिंदर सिंह देओल) एक स्कूल हेडमास्टर के बेटे थे. 1948 में उन्होंने दिलीप कुमार की फिल्म शहीद देखी और उसी पल सिनेमाई दुनिया जैसे उनके भीतर बस गई. वे बार-बार मुंबई आने लगे कभी हताश होकर लौटे, कभी उम्मीद लेकर फिर आए. एक ड्रिलिंग कंपनी में नौकरी भी की, पर उनका मन तो फिल्मों में ही अटका था. फिर उन्हें फ़िल्म्फरे यूनाइटेड प्रोडूसर्स टैलेंट हंट का विज्ञापन दिखा और वे दोबारा मुंबई पहुंचे. प्रतियोगिता में वे दूसरे स्थान पर रहे, पर सफर अभी भी कठिन था. एक समय तो वे मुंबई छोड़ने ही वाले थे, पर दोस्त मनोज कुमार ने उन्हें रोक लिया.
इस दौरान 1954 में उनकी शादी प्रकाश कौर से हो चुकी थी और 1957 में बेटा अजय (सनी देओल) भी पैदा हो चुका था. अंततः 1960 में अर्जुन हिंगोरानी ने उन्हें पहली फिल्म दिल भी तेरा हम भी तेरे में मौका दिया. धीरे-धीरे फिल्म इंडस्ट्री ने उनके आकर्षण और व्यक्तित्व को पहचाना. उस दौर में जब देव आनंद, दिलीप कुमार, राज कपूर, शम्मी, शशि कपूर जैसे का बोलबाला था, धर्मेंद्र अपनी कद-काठी और रूप के कारण अलग ही पहचान रखते थे. शुरुआती फिल्मों में उतार-चढ़ाव रहे, फिर उन्होंने बंदिनी (1962) और हक़ीक़त (1964) जैसी फिल्मों में मज़बूत सहायक भूमिकाएँ चुनीं. बंदिनी में उनकी सादगी भरी अदाकारी ने सब का दिल मोह लिया. फिर आया 1964 का मोड़,फूल और पत्थर. इसी फिल्म ने उन्हें “ही-मैन” की पहचान दी. मीना कुमारी के साथ उनकी जोड़ी लोकप्रिय हुई और उस प्रसिद्ध दृश्य ने, जिसमें वे एक वृद्ध महिला को ढकने के लिए अपना शर्ट उतारते हैं, उन्हें संवेदनशील मगर मज़बूत नायक के रूप में स्थापित कर दिया.
उनकी लोकप्रियता का यह आलम था कि जब उन्होंने जुहू में अपना बंगला बनाया, तो कहा जाता है कि गांव से आने वाला कोई भी व्यक्ति खाली हाथ नहीं लौटता था. 1960 के दशक के अंत में अनुपमा (1966), ममता (1966) और फिर सत्यकाम (1969) में उन्होंने अपने अभिनय का जादू बिखेरा. 1970 और 80 का दशक उनके लिए स्वर्णकाल साबित हुआ, जीवन मृत्यु, नया ज़माना, मेरा गांव मेरा देश, सीता और गीता, समाधि, राजा जानी, यादों की बारात, ब्लैकमेल, प्रतिज्ञा, चरस, शोले, चुपके-चुपके, धर्म वीर, उनकी लगभग हर फिल्म टिकट खिड़खी पर ब्लॉक बस्टर हुई. इस दौर में उनकी कॉमिक टाइमिंग की भी काफी सराहना हुई. ऋषिकेश मुख़र्जी की फिल्म चुपके चुपके में ड्राइवर का मज़ेदार किरदार अदा करके धर्मेंद्र ने साबित कर दिया की वह एक्शन फिल्मों तक महदूद नहीं थे.
1980 के बाद उनकी फिल्मों का स्तर गिरा, मैं इंतकाम लूंगा, जीनें नहीं दूंगा, पाप को जलाकर राख कर दूंगा जैसी कई बदनाम “ऐक्शन-रिवेंज” फिल्में आईं. पर जे.पी. दत्ता की गुलामी, बटवारा और हथियार में उनकी गंभीर अदाकारी ने एक बार फिर उन्हें हिंदी फिल्म के शानदार अदाकारों में सरफेहरिस्त करदिया. 2000 के बाद धर्मेंद्र ने कई छोटी-मोटी फिल्में सिर्फ व्यस्त रहने या प्रोडक्शन के लिए कीं. फिर रॉकी और रानी की प्रेम कहानी (2023) में शबाना आज़मी के साथ उनका रोमांटिक दृश्य सुर्खियों में रहा. तुम्हारी बातों में ऐसा उलझा जिया (2024) और इक्कीस उनके करियर की अंतिम फ़िल्में हैं. 2004 में वे भाजपा की ओर से बीकानेर से सांसद भी बने, पर संसद में उनकी उपस्थिति कम ही रही, वे अपना समय खेती, कविताओं और सादगी भरी जिंदगी में बिताना पसंद करते थे. फिल्म जगत में लोग अक्सर कहते हैं,धर्मेंद्र जितने बड़े सितारे थे, उतने ही बड़े इंसान भी. उनकी सरलता, गर्मजोशी, उदारता और बिना दिखावे वाला स्वभाव उन्हें अपने समय का “सबसे लोकप्रीय नायक” बनाता रहा.कई सारे अवॉर्ड भले ही उन्हें न मिले हों, पर दर्शकों का प्यार यह वह सम्मान है जो सिर्फ महान कलाकारों को मिलता है.धर्मेंद्र चले गए. लेकिन वीरू की मुस्कान, राका की शरारत, सत्यम की दृढ़ता, और वो दयालु आँखें, हिंदी सिनेमा के आसमान में हमेशा चमकती रहेंगी.
भारत एक मुश्किल मोड़ पर, व्यापार घाटे का 60% बढ़ना चिंताजनक स्थिति
अक्टूबर में भारत का वस्तु व्यापार घाटा (42 बिलियन डॉलर) पिछले वर्ष की तुलना में लगभग 60% अधिक होने के गंभीर परिणाम हो सकते हैं, खासकर इसका भारत की जीडीपी वृद्धि और आम लोगों की आर्थिक सेहत पर खासा असर पड़ सकता है. हालांकि, पूर्व केंद्रीय वित्त सचिव सुभाष चंद्र गर्ग लिखते हैं कि सेवा निर्यात (38.4 बिलियन डॉलर) मजबूत रहा और इसने 20 बिलियन डॉलर का अधिशेष अर्जित किया, लेकिन यह वस्तु घाटे को कम नहीं कर सका. परिणामस्वरूप, कुल व्यापार घाटा 22 बिलियन डॉलर तक पहुंच गया, जो अक्टूबर 2024 से 141% अधिक है.
गर्ग के मुताबिक, अक्टूबर का प्रदर्शन पूरे वर्ष की व्यापारिक स्थिति पर सवाल खड़े करता है. भविष्य के व्यापार पथ के आकलन के लिए, वस्तु व्यापार को पांच श्रेणियों (कृषि, पुराने औद्योगिक सामान, नए औद्योगिक सामान, सोना/कीमती धातुएं और ऊर्जा उत्पाद) में तथा सेवा व्यापार को भी पांच श्रेणियों (आईटी, शिक्षा-स्वास्थ्य, वित्तीय, परिवहन और व्यक्तिगत सेवाएं) में विभाजित करना उपयोगी है.
गर्ग के अनुसार, कृषि व्यापार भारत के लिए एक मजबूत पक्ष बना हुआ है, जिसमें 40-50 बिलियन डॉलर का वार्षिक निर्यात और लगातार अधिशेष रहता है. हालांकि, पुराने औद्योगिक सामानों (जैसे कपड़ा, इंजीनियरिंग) के निर्यात में अक्टूबर में 13% से 22% की गिरावट आई, जबकि आयात में बड़ी वृद्धि हुई (उर्वरक आयात 87% बढ़ा). इन क्षेत्रों में भारत की वैश्विक मूल्य श्रृंखलाओं में सीमित भागीदारी के कारण व्यापार संतुलन बिगड़ने की संभावना है.
नए औद्योगिक सामानों (जैसे इलेक्ट्रॉनिक्स, सौर उत्पाद) में भारत अभी भी एक मामूली खिलाड़ी है और आयात पर भारी निर्भरता रखता है. ऊर्जा आयात निर्भरता और सोने तथा चांदी के आयात में क्रमशः 200% और 528% की भारी वृद्धि के कारण व्यापार घाटे पर दबाव बना हुआ है. रत्न और आभूषण निर्यात में भी 30% की गिरावट आई है.
सेवा निर्यात अच्छा प्रदर्शन कर रहा है, लेकिन यह मुख्य रूप से आईटी सेवाओं (60% से अधिक) पर निर्भर है. एआई और वैश्विक संरचनात्मक परिवर्तनों के कारण आईटी निर्यात की दीर्घकालिक वृद्धि दर बनाए रखना चुनौतीपूर्ण हो सकता है.
कुल मिलाकर, भारत एक मुश्किल मोड़ पर है. जब तक वह मौलिक सुधार और उपाय नहीं करता, तब तक उसका रास्ता अस्थिर रहेगा. भारत को नए औद्योगिक उत्पादों (ऑटोमोबाइल सहित) के लिए एक उत्पादन और निर्यात महाशक्ति बनाने के लिए अमेरिका, यूरोपीय संघ और चीन के साथ लंबे समय से लंबित विदेशी व्यापार और निवेश समझौतों/संधियों को समाप्त करने की आवश्यकता है. हमें नए सेवा निर्यात विकास इंजन बनाने के लिए शिक्षा, स्वास्थ्य, लेखांकन, कानूनी और व्यक्तिगत सेवाओं को खोलने और यात्रा और परिवहन के बुनियादी ढांचे और सेवाओं में पूरी तरह से सुधार करने की आवश्यकता है. अगर हम समझौतों को पूरा किए बिना एक बातचीत से दूसरी बातचीत में फिसलते रहते हैं और सुधार नहीं करते हैं, तो भारत का वस्तु निर्यात कई वर्षों तक स्थिर रहने की संभावना है. चालू वर्ष में, वस्तु व्यापार घाटा लगभग 350 बिलियन डॉलर और कुल व्यापार संतुलन 125 बिलियन डॉलर तक पहुंच सकता है.
ऐसा कौनसा दबाव, जो बीएलओ कर रहे आत्महत्या? गुजरात में एक और बीएलओ की मौत
इस बीच देश में कई जगह बीएलओ द्वारा काम के दबाव में आत्महत्या करने जैसी घटनाएं भी लगातार सामने आई हैं. ऐसा कौनसा दबाव है, जिसके कारण कथित तौर पर कर्मचारियों को दिल का दौरा पड़ने के मामले भी खबरें बन रहे हैं. काम के दबाव का आरोप लगाकर कर्मचारियों ने सोमवार दोपहर कोलकाता की सड़कों पर मार्च किया. उन्होंने देश भर में, जिसमें बंगाल भी शामिल है, चल रहे चुनावी सूचियों के विशेष गहन पुनरीक्षण में अत्यधिक कार्य दबाव और व्यवस्थागत खामियों के विरोध में यह कदम उठाया. उनका कहना है कि उनसे दो साल का काम एक महीने में करवाया जा रहा है. “द टेलीग्राफ” के अनुसार, इस महीने की शुरुआत में एसआईआर शुरू होने के बाद से, बंगाल में तीन महिला बीएलओ की मृत्यु हो चुकी है, जिनमें से दो ने आत्महत्या की है. आखिरी मौत शनिवार सुबह नदिया के कृष्णानगर में हुई थी.
इसके पहले केरल और राजस्थान में बूथ-स्तरीय अधिकारी (बीएलओ) विशेष गहन पुनरीक्षण (एसआईआर) से संबंधित अत्यधिक काम के दबाव के कारण आत्महत्या कर चुके हैं. “द हिंदू” के अनुसार, हाल ही में, गुजरात के खेड़ा जिले में एक स्कूल शिक्षक, जो बीएलओ के रूप में काम कर रहे थे, की भी दिल का दौरा पड़ने से मृत्यु हो गई. बीएलओ की पहचान रामेशभाई परमार (50) के रूप में हुई है, जो जिले के कपड़वंज तालुका के जांबूडी गांव के निवासी थे. उनके परिवार ने कहा है कि उनकी मृत्यु का कारण चल रहे एसआईआर से जुड़ा “अत्यधिक कार्य दबाव” था.
गुजरात से ही आज खबर आई कि 26 वर्षीय बीएलओ और सूरत नगर निगम की तकनीकी सहायक, डिंकल शिंगोडावाला, अपने बाथरूम में संदिग्ध अवस्था में बेहोश पाई गईं और बाद में एक निजी अस्पताल में उन्हें मृत घोषित कर दिया गया. बाथरूम के अंदर गैस गीज़र होने के कारण, पुलिस अधिकारियों ने मृत्यु का कारण दम घुटना बताया है.
हालांकि, राज्यव्यापी बीएलओ कार्यभार से संबंधित मौतों ने चिंताएं बढ़ा दी हैं. डिंकल, जो ओलपाड तालुका में अपने परिवार के साथ रहती थीं, सूरत नगर निगम के वराछा ज़ोन में तकनीकी सहायक के रूप में कार्यरत थीं और बूथ स्तरीय अधिकारी की अतिरिक्त जिम्मेदारी भी संभाल रही थीं. अचानक बीएलओ मौतों की संख्या बढ़ रही है, इससे पहले के मामलों में शिक्षकों के बीच आत्महत्या और दिल के दौरे से जुड़ी मौतें शामिल थीं. पोस्टमार्टम रिपोर्ट से यह निर्धारित होगा कि यह एक दुखद घरेलू दुर्घटना थी या व्यवस्थागत तनाव से जुड़ा एक रोके जा सकने वाला नुकसान.
यूपी में 60 से अधिक बीएलओ पर एफआईआर
“द इंडियन एक्सप्रेस” के अनुसार, नोएडा प्रशासन ने चुनावी सूचियों के विशेष गहन पुनरीक्षण के दौरान कथित लापरवाही और अवज्ञा के लिए 60 से अधिक बूथ-स्तरीय अधिकारियों और सात पर्यवेक्षकों के खिलाफ तीन पुलिस स्टेशनों में प्राथमिकी दर्ज की है, जबकि उत्तरप्रदेश के बहराइच में, कथित लापरवाही के लिए दो को निलंबित कर दिया गया है और एक भाजपा नेता की शिकायत के आधार पर तीसरे को नामजद किया गया है.
गाज़ा में जुल्म बढ़ने के बीच, भारत ने इजरायल के साथ व्यापार बढ़ाने के लिए अब तक का सबसे बड़ा प्रतिनिधिमंडल भेजा
इजरायल द्वारा गाजा नरसंहार के दौरान फिलिस्तीनियों के खिलाफ किए गए युद्ध अपराधों पर बढ़ती वैश्विक आम सहमति के बीच, भारत के वाणिज्य और उद्योग मंत्री पीयूष गोयल ने द्विपक्षीय आर्थिक और रणनीतिक जुड़ाव को गहरा करने के लिए इजरायल का तीन दिवसीय दौरा किया.
इस यात्रा के दौरान गोयल और इजरायल के अर्थव्यवस्था मंत्री निर बरकत के बीच भारत-इजरायल मुक्त व्यापार समझौते के लिए संदर्भ की शर्तों पर हस्ताक्षर किए गए. यात्रा के हिस्से के रूप में, मंत्री के साथ गए 60 से अधिक सदस्यों के भारतीय व्यापार प्रतिनिधिमंडल के साथ व्यापार और सीईओ फोरम आयोजित किये गए. भारतीय कंपनियों के 100 से अधिक प्रतिनिधि, साथ ही हाई-टेक, फार्मा, रोबोटिक्स, ऑटोमोटिव, एग्रीटेक, निर्माण और ऑनलाइन वाणिज्य क्षेत्रों की फर्मों ने इस प्रतिनिधिमंडल में भाग लिया.
यह प्रतिनिधिमंडल भारत द्वारा इजरायल भेजा गया अब तक का सबसे बड़ा प्रतिनिधिमंडल है. मंत्रालय की आधिकारिक प्रेस विज्ञप्ति में कहा गया है, “दोनों मंत्रियों ने द्विपक्षीय व्यापार, निवेश और तकनीकी सहयोग को बढ़ावा देने की अपनी प्रतिबद्धता की पुष्टि की, और विश्वास व्यक्त किया कि एक संतुलित और पारस्परिक रूप से लाभप्रद एफटीए की दिशा में बातचीत रचनात्मक रूप से आगे बढ़ेगी.”
पीयूष गोयल ने युद्ध अपराध के आरोपी इजरायली प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू और उनके कैबिनेट सदस्य बेजलेल स्मोट्रिच (जो फिलिस्तीनियों के खिलाफ अत्याचारों के लिए बार-बार आह्वान करने के कारण प्रतिबंधों का सामना कर रहे हैं), सहित अन्य अधिकारियों से मुलाकात की. “मकतूब मीडिया” के मुताबिक, गोयल ने नेतन्याहू के साथ अपनी फ़ोटो साझा करते हुए ‘एक्स’ पर लिखा, “इजरायल की हाई-टेक ताकत और भारत के पैमाने और प्रतिभा के संयोजन से हमारी नवाचार साझेदारी को मजबूत करने पर चर्चा की.”
सितंबर में, भारत की वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण और उनके इजरायली समकक्ष बेजलेल स्मोट्रिच ने नई दिल्ली में एक द्विपक्षीय निवेश समझौते पर हस्ताक्षर किए थे, जिससे विपक्षी दलों की ओर से कड़ी प्रतिक्रिया हुई थी. कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया (मार्क्सवादी) ने स्मोट्रिच की यात्रा की निंदा करते हुए कहा था कि इजरायल द्वारा “गाजा में भयानक नरसंहार” किए जाने के दौरान सरकार के लिए उनकी मेजबानी करना “शर्मनाक” है.
इस साल बोगोटा शिखर सम्मेलन और हेग समूह की पहल के दौरान 12 ग्लोबल साउथ देशों—जिनमें बोलीविया, कोलंबिया, क्यूबा, इंडोनेशिया, इराक, लीबिया, मलेशिया, नामीबिया, निकारागुआ, ओमान, सेंट विंसेंट और ग्रेनेडाइंस, और दक्षिण अफ्रीका शामिल हैं— ने इजरायल के खिलाफ व्यापक प्रतिबंधों, बंदरगाह प्रतिबंधों और व्यापार समीक्षाओं के लिए प्रतिबद्धता जताई है.
इंडिया गेट प्रदूषण विरोध: शांतिपूर्ण प्रदर्शन में पुलिस का बलप्रयोग, 5 प्रदर्शनकारी हिरासत में
द हिंदू की रिपोर्ट के मुताबिक़ , दिल्ली की बिगड़ती हवा और बढ़ते प्रदूषण के ख़िलाफ़ इंडिया गेट पर रविवार शाम 50-60 लोगों का शांतिपूर्ण प्रदर्शन शुरू हुआ, लेकिन प्रदर्शनकारियों के अनुसार पुलिस ने इसे ज़ोर-ज़बरदस्ती से रोकने की कोशिश की. लगभग दो घंटे तक चले इस विरोध के दौरान पुलिस ने 5 प्रदर्शनकारियों को हिरासत में ले लिया और उन्हें पार्लियामेंट स्ट्रीट थाने ले जाया गया.
प्रदर्शनकारियों का कहना है कि उनका उद्देश्य सिर्फ़ सरकार का ध्यान दिल्ली की बेहद ख़राब हो चुकी हवा पर लाना था, लेकिन उन्हें “सुना” नहीं गया. हिमखंड समूह की सदस्य क्रांति ने द हिंदू से कहा, “हम शांतिपूर्ण ढंग से इकट्ठा हुए थे, लेकिन पुलिस ने हमें बेरहमी से धक्का दिया और हमारी आवाज़ दबाने की कोशिश की. उन्होंने आरोप लगाया कि भारी पुलिस बल और आरएएफ की तैनाती के बीच कई प्रदर्शनकारियों, ख़ासकर महिलाओं, को पुरुष अधिकारियों ने जबरन हटाया.
प्रदर्शन के दौरान दिल्ली का एक्यूआई फिर ‘बहुत खराब’ श्रेणी में रहा और 391 दर्ज किया गया, जबकि नोएडा, हापुड़ और गाज़ियाबाद में हवा ‘गंभीर’ स्तर तक पहुँच गई. प्रदूषण अगले छह दिनों तक इसी स्तर पर बने रहने का अनुमान है.
मुख्यमंत्री रेखा गुप्ता ने कहा कि सरकार प्रदूषण कम करने के लिए हर मोर्चे पर काम कर रही है, और 271 वॉटर स्प्रिंकलर लगातार 2,000 किमी सड़कों पर उपचारित पानी छिड़क रहे हैं. वहीं, वायु गुणवत्ता प्रबंधन आयोग (सीएक्यूएम) ने ग्रेड प्रतिक्रिया कार्य योजना (ग्रेडेड रिस्पॉन्स एक्शन प्लान) के नियम और कड़े करते हुए दफ़्तरों में 50% स्टाफ वर्क फ्रॉम होम की सलाह भी दी है.
यह विरोध 9 नवंबर को हुए इसी तरह के एक और प्रदूषण-विरोधी प्रदर्शन के बाद हुआ है. प्रदर्शनकारियों का कहना है कि जब तक सरकार साफ हवा सुनिश्चित नहीं करती, वे अपनी आवाज़ बुलंद करते रहेंगे.
भारत में चीनी एयर प्यूरीफायर की बिक्री बढ़ी, प्रदूषित हवा और लग्जरी कारण
भारत स्थित “मार्केट्स एंड डेटा” की एक नई रिपोर्ट वैश्विक एयर-प्यूरीफायर की भाग-दौड़ की स्पष्ट तस्वीर पेश करती है. फर्म का कहना है कि भारत का एयर प्यूरीफायर बाजार— जो पहले से ही दम घोंटने वाले प्रदूषण, तेज रफ्तार से होते शहरीकरण और बढ़ती सार्वजनिक स्वास्थ्य चिंता के कारण बढ़ रहा है— वित्त वर्ष 2026 में 151.52 मिलियन डॉलर से बढ़कर वित्त वर्ष 2033 तक 12.23% की तीव्र चक्रवृद्धि वार्षिक दर से 381.37 मिलियन डॉलर तक पहुंचने के लिए तैयार है. और अमेरिकी शुल्कों ने चीनी निर्माताओं के लिए प्रभावी रूप से दरवाज़ा बंद कर दिया है, इसलिए वही कंपनियां जो अब भारत की ओर उमड़ रही हैं, देश को एक भागीदार के रूप में कम और अपने पुनर्निर्देशित निर्यातों के लिए एक सुविधाजनक पलायन मार्ग के रूप में अधिक मान रही हैं. “निक्केई एशिया” की रिपोर्ट के अनुसार, कई वैश्विक ब्रांड, अपना जोखिम कम करने के लिए, चुपचाप उत्पादन लाइनों को चीन से हटाकर भारत और दक्षिण पूर्व एशिया में स्थापित कर रहे हैं.
‘अरुणाचल तो चीन का हिस्सा है’: शंघाई एयरपोर्ट पर भारतीय नागरिक को 18 घंटे हिरासत में रख प्रताड़ित किया
अरुणाचल प्रदेश की एक महिला को चीन के शंघाई हवाई अड्डे पर कथित तौर पर “अठारह घंटे” तक हिरासत में रखकर प्रताड़ित किया गया, क्योंकि अधिकारियों ने उनके भारतीय पासपोर्ट को वैध मानने से इनकार कर दिया और दावा किया कि वह क्षेत्र “चीन का हिस्सा है.” महिला, पेम वांग थोंगडोक के अनुसार, वह 21 नवंबर को लंदन से जापान की यात्रा के दौरान शंघाई हवाई अड्डे पर तीन घंटे के ट्रांजिट हॉल्ट पर थीं.
मीडिया रिपोर्ट के अनुसार, थोंगडोक ने बताया, “इमिग्रेशन के बाद, मैंने अपना पासपोर्ट जमा किया और सुरक्षा पर इंतजार कर रही थी. तभी, एक अधिकारी आया और मेरा नाम लेकर चिल्लाने लगा, ‘इंडिया, इंडिया,’ और मुझे अलग कर दिया. जब मैंने पूछा, तो वह मुझे इमिग्रेशन डेस्क पर ले गई और कहा, ‘अरुणाचल, वैध पासपोर्ट नहीं है.’ जब उन्होंने सवाल किया कि उनका पासपोर्ट वैध क्यों नहीं है, तो अधिकारी ने कथित तौर पर जवाब दिया,” अरुणाचल चीन का हिस्सा है. आपका पासपोर्ट अमान्य है.”
थोंगडोक ने आरोप लगाया कि उनका पासपोर्ट जब्त कर लिया गया, और वैध वीजा होने के बावजूद उन्हें जापान के लिए अपनी अगली उड़ान में सवार होने से रोक दिया गया. वह न तो टिकट दोबारा बुक करवा पाईं, न भोजन खरीद पाईं और न ही टर्मिनलों के बीच आवाजाही कर पाईं.
उन्होंने आरोप लगाया कि कई आव्रजन कर्मियों और चाइना ईस्टर्न एयरलाइंस के कर्मचारियों ने उनका मज़ाक उड़ाया, उन पर हंसे और यहां तक कि उन्हें “चीनी पासपोर्ट” लेने का सुझाव भी दिया.
उन्होंने आगे दावा किया कि अधिकारियों ने उन पर केवल चाइना ईस्टर्न से एक नया टिकट खरीदने के लिए दबाव डाला और संकेत दिया कि ऐसा करने के बाद ही उनका पासपोर्ट वापस किया जाएगा, जिसके कारण छूटी हुई उड़ानों और होटल बुकिंग से उन्हें वित्तीय नुकसान हुआ.
प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी को लिखे एक पत्र में, थोंगडोक ने इस घटना को “भारत की संप्रभुता और अरुणाचल प्रदेश के नागरिकों का सीधा अपमान” बताया. उन्होंने आव्रजन अधिकारियों के खिलाफ कार्रवाई और भारत सरकार से आश्वासन की भी मांग की कि भविष्य में अरुणाचल प्रदेश के नागरिकों के साथ ऐसी घटनाएं नहीं होंगी.
उथले पानी का पहला युद्ध पोत ‘आईएनएस माहे’ नौसेना में शामिल
भारतीय नौसेना ने सोमवार को ‘आईएनएस माहे’ को कमीशन किया, जो माहे-क्लास का पहला पनडुब्बी रोधी और उथले पानी में चलने वाला युद्धपोत है. इसे पनडुब्बियों का शिकार करने, तटीय गश्त करने और भारत के महत्वपूर्ण समुद्री मार्गों को सुरक्षित करने के लिए डिज़ाइन किया गया है. सेना प्रमुख जनरल उपेंद्र द्विवेदी ने कहा कि यह जहाज स्वदेशी उथले पानी के युद्धपोतों की नई पीढ़ी का प्रतीक है— जो चिकना, तेज और दृढ़ता से भारतीय है.
“पीटीआई” के मुताबिक, कोचीन शिपयार्ड लिमिटेड (सीएसएल) द्वारा निर्मित यह शक्तिशाली जहाज चपलता, सटीकता और सहनशक्ति को दर्शाता है. ये सारे गुण तटवर्ती क्षेत्रों पर प्रभुत्व के लिए महत्वपूर्ण हैं. नौसेना ने कहा कि 80 प्रतिशत से अधिक स्वदेशी सामग्री के साथ, माहे-क्लास युद्धपोत डिजाइन, निर्माण और एकीकरण में भारत की बढ़ती महारत को प्रदर्शित करता है. मालाबार तट पर स्थित ऐतिहासिक तटीय शहर माहे के नाम पर रखे गए इस जहाज के प्रतीक चिन्ह में एक ‘उरूमी’ (कलरीपयट्टू की लचीली तलवार) है, जो चपलता, सटीकता और घातक सुंदरता का प्रतीक है.
गवई ने नई मिसाल कायम की, मर्सिडीज-बेंज को राष्ट्रपति भवन में ही छोड़ दिया
भारत के पूर्व मुख्य न्यायाधीश बी. आर. गवई ने सोमवार (24 नवंबर 2025) को एक नई मिसाल कायम की, जब उन्होंने अपने उत्तराधिकारी सूर्यकांत के शपथ ग्रहण समारोह के बाद आधिकारिक मर्सिडीज-बेंज कार को राष्ट्रपति भवन में ही छोड़ दिया.
न्यायमूर्ति गवई, जो 23 नवंबर को सेवानिवृत्त हुए, आधिकारिक कार से राष्ट्रपति भवन पहुंचे और समारोह के बाद अन्य वाहन से अपने आवास के लिए रवाना हुए. इस घटनाक्रम की जानकारी रखने वाले एक व्यक्ति ने बताया, “शपथ ग्रहण समारोह के बाद, न्यायमूर्ति गवई राष्ट्रपति भवन के एक वैकल्पिक वाहन में अपने घर वापस लौटे.”
इसके पहले ‘पीटीआई’ के मुताबिक, न्यायमूर्ति सूर्यकांत को सोमवार सुबह एक संक्षिप्त समारोह में राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू द्वारा 53वें सीजेआई के रूप में शपथ दिलाई गई. उन्होंने ईश्वर के नाम पर हिंदी में शपथ ली. न्यायमूर्ति कांत को 30 अक्टूबर को सीजेआई के रूप में नियुक्त किया गया था, और वह लगभग 15 महीने तक सेवा करेंगे. वह 65 वर्ष की आयु पूरी होने पर 9 फरवरी, 2027 को पद छोड़ेंगे.
वांगचुक की रिहाई; पत्नी की याचिका पर जवाब नहीं दे पाई सरकार, समय मांगा, बढ़ गई तारीख
सुप्रीम कोर्ट ने सोमवार को जेल में बंद जलवायु कार्यकर्ता सोनम वांगचुक की पत्नी गीतांजलि जे. अंगमो द्वारा दायर याचिका पर सुनवाई 8 दिसंबर तक के लिए स्थगित कर दी. याचिका में राष्ट्रीय सुरक्षा अधिनियम (एनएसए) के तहत वांगचुक की हिरासत को अवैध और मनमाना प्रयोग बताया गया है, जो उनके मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करता है. लेकिन, न्यायमूर्ति अरविंद कुमार और न्यायमूर्ति एन. वी. अंजारिया की पीठ ने सुनवाई को स्थगित कर दिया, क्योंकि केंद्र और केंद्र शासित प्रदेश लद्दाख की ओर से पेश हुए सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने वांगचुक की पत्नी द्वारा दायर जवाबी हलफनामे पर जवाब देने के लिए समय मांगा. 29 अक्टूबर को, शीर्ष अदालत ने वांगचुक की पत्नी की संशोधित याचिका पर केंद्र और लद्दाख प्रशासन से जवाब मांगा था.
“द हिंदुस्तान टाइम्स” के अनुसार, अंगमो की याचिका में कहा गया है, “निवारक शक्तियों का ऐसा मनमाना प्रयोग सत्ता का घोर दुरुपयोग है, जो संवैधानिक स्वतंत्रता और उचित प्रक्रिया के मूल पर आघात करता है, जिसके चलते हिरासत आदेश को इस अदालत द्वारा रद्द किए जाने की आवश्यकता है.”
याचिका में कहा गया है कि यह पूरी तरह से हास्यास्पद है कि लद्दाख और पूरे भारत में जमीनी स्तर की शिक्षा, नवाचार और पर्यावरण संरक्षण में उनके योगदान के लिए तीन दशकों से अधिक समय तक राज्य, राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर मान्यता प्राप्त होने के बाद, वांगचुक को अचानक निशाना बनाया जाएगा. याद रहे कि गीतांजलि ने 2 अक्टूबर को याचिका दायर कर वांगचुक की गिरफ्तारी को चुनौती दी थी. वांगचुक को 24 सितंबर को लेह हिंसा भड़काने के आरोप में राष्ट्रीय सुरक्षा अधिनियम (एनएसए) के तहत 26 सितंबर को गिरफ्तार किया गया था. वह इस समय जोधपुर जेल में बंद हैं.
ममता ने पूछा, “जब सक्षम अमला मौजूद तो डेटा कर्मियों को आउटसोर्स क्यों कर रहा चुनाव आयोग?
पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने एक साल के अनुबंध पर 1,000 डेटा एंट्री ऑपरेटरों और 50 सॉफ्टवेयर डेवलपर्स को नियुक्त करने के चुनाव आयोग के फैसले पर सवाल उठाए हैं. ममता ने सोमवार को मुख्य चुनाव आयुक्त ज्ञानेश कुमार को लिखे एक पत्र में लिखा, “मुख्य निर्वाचन अधिकारी पश्चिम बंगाल ने जिला निर्वाचन अधिकारियों को एसआईआर-संबंधी या अन्य चुनाव-संबंधी डेटा कार्य के लिए संविदा डेटा एंट्री ऑपरेटरों और बांग्ला सहायता केंद्र के कर्मचारियों को शामिल न करने का निर्देश दिया है.” ममता ने तर्क दिया है कि राज्य में जिला प्रशासन दैनिक कार्यों के लिए प्रशिक्षित कर्मियों से सुसज्जित है. ममता ने पूछा, “जिला कार्यालयों में पहले से ही ऐसे कार्य करने वाले सक्षम पेशेवरों की पर्याप्त संख्या मौजूद है, तो सीईओ की पहल पर उसी काम को एक बाहरी एजेंसी के माध्यम से पूरे एक साल के लिए आउटसोर्स करने की क्या आवश्यकता है?” उन्होंने आगे पूछा, “यदि तत्काल आवश्यकता है, तो डीईओ स्वयं ऐसी नियुक्तियां करने के लिए पूरी तरह से सशक्त हैं.” मुख्यमंत्री ने कहा कि फील्ड कार्यालयों ने हमेशा आवश्यकतानुसार अपने संविदा डेटा एंट्री कर्मियों को नियुक्त किया है.
सीईसी ज्ञानेश कुमार को गुरुवार को भेजे गए अपने पिछले पत्र में भी ममता ने अनुरोध किया था कि बंगाल में इस अभ्यास को तब तक रोका जाए जब तक कि बूथ स्तरीय अधिकारियों को उचित प्रशिक्षण नहीं मिल जाता और उन्हें यह अभ्यास करने तथा त्रुटि मुक्त मतदाता सूची तैयार करने के लिए उचित तकनीकी उपकरण नहीं सौंप दिए जाते. परंपरागत रूप से, फील्ड कार्यालयों ने हमेशा आवश्यकतानुसार अपने संविदा डेटा एंट्री कर्मियों को नियुक्त किया है. तो फिर, सीईओ का कार्यालय फील्ड कार्यालयों की ओर से यह भूमिका क्यों निभा रहा है?”
बढ़ती इनपुट लागत और अमेरिकी टैरिफ का सामना कर रहे उद्योग
इस बीच, भारत का विनिर्माण क्षेत्र बढ़ते इनपुट लागतों और अमेरिकी शुल्कों के परिणामों के तहत संघर्ष करना जारी रखे हुए है, भले ही मोदी सरकार गुणवत्ता नियंत्रण आदेश (क्यूसीओ) की आवश्यकताओं में ढील देने के लिए आगे बढ़ रही है. “द न्यू इंडियन एक्सप्रेस” की रिपोर्ट के अनुसार, 14 पेट्रोकेमिकल्स, औद्योगिक कच्चे माल और कई पॉलीमर तथा फाइबर माध्यमों के मानदंडों में ढील देने के बाद, अधिकारियों ने निर्दिष्ट स्टील उत्पादों तक यह छूट बढ़ा दी है. हालांकि, उद्योग के अंदरूनी सूत्रों ने चेतावनी दी है कि ये उपाय केवल अस्थायी राहत प्रदान करते हैं. यह कदम सोर्सिंग दबावों को कम कर सकता है और अनुपालन बाधाओं को कम कर सकता है, लेकिन यह गहरी संरचनात्मक चुनौतियों, आपूर्ति श्रृंखला की बाधाओं और लंबे समय से चली आ रही नीतिगत अनिश्चितताओं को दूर करने में विफल रहा है जो घरेलू निर्माताओं पर दबाव डालना जारी रखे हुए हैं.
कोयला और बिजली उत्पादन में गिरावट, कोर सेक्टर की वृद्धि निचले स्तर पर
भारत का विनिर्माण क्षेत्र बढ़ते दबाव का सामना कर रहा है, क्योंकि वाणिज्य और उद्योग मंत्रालय के नवीनतम आंकड़ों से पता चलता है कि देश के आठ मुख्य क्षेत्रों का उत्पादन अक्टूबर में स्थिर रहा. “बिजनेस लाइन” के मुताबिक, कोर इंडस्ट्रीज इंडेक्स (आईसीआई) 162.4 पर रहा, जो पिछले साल के इसी महीने की तुलना में 0% वृद्धि दर्ज करता है— यह 14 महीनों में सबसे खराब प्रदर्शन है. निर्माण से जुड़े क्षेत्रों और रिफाइनरी उत्पादों में वृद्धि को ऊर्जा से संबंधित खंडों, जिसमें कोयला, प्राकृतिक गैस और बिजली शामिल हैं, में महत्वपूर्ण संकुचन से ऑफसेट कर दिया गया. इसके विपरीत, अक्टूबर 2024 में कोर सेक्टर के उत्पादन में 3.8% की वृद्धि हुई थी, जबकि अगस्त 2024 में 1.5% का संकुचन दर्ज किया गया था.
कार्टून | मंजुल
आकार पटेल : कश्मीर में प्रेस को चुप करवाना
‘सूत्रों’ द्वारा कश्मीर टाइम्स नामक एक अख़बार और इसकी संपादक, अनुराधा भसीन पर छापे के संबंध में बहुत सारी बातें आरोपित की जा रही हैं.
कुछ पृष्ठभूमि ज़रूरी है, ताकि पाठक चीज़ों को परिप्रेक्ष्य में रख सकें. 2 जून 2020 को, मोदी सरकार ने ‘न्यू मीडिया पॉलिसी 2020’ की घोषणा की, एक नीति जो ख़ास तौर पर कश्मीर के लिए थी. ध्यान दें कि कश्मीर में सरकार की कार्रवाइयों के पीछे बहाना राज्य का कथित एकीकरण और उन कानूनों का उन्मूलन था जो इसे भारत के बाकी हिस्सों से अलग करते थे.
फिर भी, यहाँ एक और केवल-कश्मीर नीति थी. 50 पृष्ठों से अधिक लंबी, इसने सरकार को यह निर्धारित करने की बेलगाम शक्तियाँ दीं कि क्या ‘फ़ेक’, ‘अनैतिक’ या ‘राष्ट्र-विरोधी’ समाचार था. इसके आधार पर, यह पत्रकारों और मीडिया संगठनों के ख़िलाफ़ कानूनी और अन्य दंडात्मक कार्रवाई कर सकती थी. विदेश में मीडिया वॉचडॉग्स ने ‘फ़ेक’, ‘अनैतिक’, ‘राष्ट्र-विरोधी’ और ‘असामाजिक’ जैसे अस्पष्ट और अपरिभाषित शब्दों के उपयोग पर ध्यान दिया, जिसने दुरुपयोग के दरवाज़े खोल दिए क्योंकि उन्होंने समाचार का न्याय करने वाले नौकरशाह को कोई मार्गदर्शक मानक या सिद्धांत नहीं दिए. यह पूरी तरह से सरकार के विवेक पर था. जम्मू में प्रेस इस मामले पर चुप रहा, जबकि कश्मीर में मीडिया ने नीति के प्रति अपना कड़ा विरोध व्यक्त किया. भसीन उन बहादुर आवाज़ों में से एक थीं.
10 जनवरी 2020 को, कश्मीर में इंटरनेट की बहाली से संबंधित एक मामले की सुनवाई करते हुए, सुप्रीम कोर्ट ने निर्धारित किया कि इंटरनेट तक पहुँच भारतीयों का मौलिक अधिकार था. यह तरीक़ा था जिससे कई अख़बारों ने अगले दिन भी कहानी की रिपोर्ट की: ‘इंटरनेट तक पहुँच एक मौलिक अधिकार है, सुप्रीम कोर्ट कहता है’ और ‘सुप्रीम कोर्ट इंटरनेट यूज़र्स के अधिकार को मान्यता देता है, उनकी जवाबदेही को भी औपचारिक बनाता है’.
दुर्भाग्य से, न्याय वास्तव में नहीं हुआ और कश्मीरियों की इंटरनेट उपयोग से कुल नाकाबंदी जारी रही. सरकार ने कहा: ‘इंटरनेट तक पहुँच का अधिकार एक मौलिक अधिकार नहीं है और इस प्रकार भारत के संविधान के अनुच्छेद 19(1)(a) के तहत भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार का प्रयोग करने और/या अनुच्छेद 19(1)(g) के तहत कोई व्यापार या व्यवसाय करने के लिए इंटरनेट के माध्यम से पहुँच के प्रकार और चौड़ाई को कम किया जा सकता है.’
कश्मीरियों की इस सामूहिक सज़ा के लिए दिया गया औचित्य यह था कि ‘अगस्त 2019 के संवैधानिक विकास के बाद, पाकिस्तान हैंडलर्स ने, प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से, सोशल मीडिया पर गतिविधि बढ़ा दी है जिसका उद्देश्य क्षेत्र में शांति भंग करना, हिंसा भड़काना और आतंकवादी गतिविधियों को बढ़ावा देना है’. सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने अदालत में तर्क दिया: ‘दुर्भाग्य से, इंटरनेट जिहाद एक सफल है. यह एक वैश्विक घटना है. जिहादी नेता नफ़रत और अवैध गतिविधियों को फैलाने के लिए इंटरनेट के माध्यम से संलग्न हो सकते हैं.’ बेंच ने पूछा कि क्या कुछ प्रतिबंधों के साथ इंटरनेट एक्सेस की अनुमति दी जा सकती है. ‘इंटरनेट स्पीड में वृद्धि,’ संघ ने प्रस्तुत किया, ‘भड़काऊ वीडियो और अन्य भारी डेटा फ़ाइलों के तेज़ी से अपलोडिंग और पोस्टिंग की ओर ले जाएगी.’ ‘एकमात्र समाधान यह है कि या तो आपके पास इंटरनेट है या आपके पास इंटरनेट नहीं है,’ मेहता ने कहा.
यहाँ यह ध्यान दिया जाना चाहिए कि कश्मीर में हिंसा का चरम, 2001 में 4,000 से अधिक मारे गए, तब हुआ जब कश्मीर में कोई इंटरनेट नहीं था और यहाँ तक कि कोई मोबाइल टेलीफ़ोनी भी नहीं थी.
डेटा के अनुसार, हिंसा के स्तर और इंटरनेट तक पहुँच के बीच कोई संबंध नहीं है. लेकिन यह वह तरीक़ा नहीं था जिससे सरकार या अदालत ने इसे देखा. 2019 के संवैधानिक परिवर्तन के बाद से, जम्मू और कश्मीर में इंटरनेट एक्सेस को कम से कम 90 सरकार द्वारा लगाए गए इंटरनेट शटडाउन द्वारा बाधित किया गया है—जो दुनिया में सबसे अधिक है. दुनिया ने ध्यान दिया.
यह रिपोर्ट किया गया कि शटडाउन (कुल 17 महीने, जिसमें सात महीने शामिल हैं जब 2G मोबाइल टेलीफ़ोनी भी निलंबित थी) एक लोकतंत्र में लगाया गया अब तक का सबसे लंबा था, एक्सेस नाउ के अनुसार, अंतर्राष्ट्रीय वकालत समूह जो इंटरनेट निलंबन को ट्रैक करता है.
एमनेस्टी इंडिया ने 14 जनवरी 2020 और 4 अगस्त 2020 के बीच कुल 67 सरकार द्वारा लागू इंटरनेट शटडाउन का दस्तावेज़ीकरण किया. कश्मीर में इंटरनेट की ‘बहाली’ के बावजूद, इंटरनेट सेवाओं का मनमाना निलंबन आदर्श बना हुआ है. कोई भी घटना, और प्रशासन की कोई भी इच्छा, कश्मीरियों को एक पूर्व-आधुनिक युग में वापस भेजने का परिणाम है.
बात पर आते हैं, 10 जनवरी 2020 को सुने गए मामले में याचिकाकर्ता अनुराधा भसीन थीं, अख़बार कश्मीर टाइम्स की संपादक और प्रकाशक. उन्होंने अदालत से कहा था कि वह भारत सरकार द्वारा लगाए गए संचार प्रतिबंधों के कारण अख़बार प्रकाशित नहीं कर सकती थीं. उन्होंने इंटरनेट, मोबाइल और लैंडलाइन फ़ोन तक पहुँच पर लगाए गए प्रतिबंधों को हटाने और अन्य उपयुक्त राहत के लिए सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की (संचार के बिना मीडिया की प्रकाशित करने की असमर्थता एक और कारण है जिसकी वजह से अदालत को मामले का फ़ैसला अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के कोण से करना पड़ा). अदालत ने जैसा होना चाहिए था वैसा जवाब नहीं दिया और प्रतिबंध जारी रहे.
कश्मीर टाइम्स प्रकाशित नहीं हो सका और अपना काम बंद करने के लिए मजबूर हुआ. दुनिया ने ध्यान दिया और कारण बताया: ‘प्रतिशोध’: कश्मीर अख़बार का कार्यालय भारत के अधिकारियों द्वारा सील किया गया’, 20 अक्टूबर 2020 की एक सुर्ख़ी है.
आरोपों के मौजूदा दौर के बाद, इस सप्ताह की एक और सुर्ख़ी आई है: ‘कश्मीर टाइम्स: एक जम्मू अख़बार जो घाटी के लिए खड़ा हुआ’. रिपोर्ट कहती है कि ‘1954 में स्थापित, इसे कश्मीर के मीडिया परिदृश्य में एक प्रभावशाली और विश्वसनीय आवाज़ माना जाता है.’
यह बिल्कुल सच है और यह शर्मनाक है कि जिस तरह से इस पर हमला किया गया है और भसीन को ज़्यादा आवाज़ें नहीं मिली हैं, ख़ासकर भारत के कायर मीडिया से, उनके और उनके अख़बार के समर्थन में बोलने के लिए.
आकार लेखक, पत्रकार हैं और भारत में एमनेस्टी इंटरनेशनल के प्रमुख हैं.
ओमैर अहमद | मोदी की कायरता भारत की समस्याओं में से बस एक है
हाल ही के आसियान (ASEAN) शिखर सम्मेलन से नरेंद्र मोदी की गैरमौजूदगी ने कई सवाल खड़े कर दिए हैं. वो यूएन (UN) जनरल असेंबली से भी नदारद थे, जिसके दौरान अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प ने पाकिस्तानी प्रधानमंत्री शहबाज शरीफ और पाकिस्तानी आर्मी चीफ से मुलाकात की.
अपनी तमाम बड़ी-बड़ी बातों के बावजूद, मोदी डरपोक हैं. यह एक ऐसी बात है जो उनके पूरे राजनीतिक करियर में साफ दिखाई देती है.
करण थापर के तीखे सवालों से बचने के लिए उनका पानी पीना भूलना मुश्किल है, जो शायद इकलौता मुश्किल इंटरव्यू था जिसका उन्होंने कभी सामना किया. जब राहुल गांधी ने संसद में उन्हें गले लगाया तो वो डर के मारे भाग खड़े हुए. पंजाब में प्रदर्शनकारियों को देखते ही उन्होंने ऐसा ही किया, और दो साल से ज्यादा समय तक मणिपुर के गृह युद्ध से बचते रहे. महामारी की दूसरी लहर के दौरान, जब अनगिनत चिताओं के बोझ से श्मशान घाट चरमरा गए थे, तो पूरी सरकार ही छिप गई थी, जबकि नागरिक ऑक्सीजन सिलेंडरों के लिए हताशा में हाथ-पैर मार रहे थे. गलवान में भारतीय और चीनी सैनिकों के बीच झड़प के बाद, शी जिनपिंग के साथ उनका सारा पुराना याराना, जिनके साथ वो गुजरात में झूला झूलते थे, गायब हो गया. इसके बाद उन्होंने सार्वजनिक रूप से चीन का नाम तक नहीं लिया, और न ही उसके बाद के सालों में कभी लिया.
इसलिए, इसमें कोई हैरानी की बात नहीं है कि वो छिपना ही बेहतर समझते हैं, जबकि ट्रम्प सार्वजनिक रूप से दावा करते हैं कि उन्होंने धौंस जमाकर भारत और पाकिस्तान के बीच युद्ध को रोक दिया. बदकिस्मती से, भारतीय प्रधानमंत्री में हिम्मत की यह कमी ऐसे वक्त में सामने आ रही है जब वैश्विक व्यवस्था (global order) बिखर रही है, जिससे देश के रणनीतिक हितों को भारी नुकसान हो रहा है.
अमेरिका ने गाजा पट्टी में इजरायल की नरसंहार वाली कार्रवाइयों का समर्थन किया है और ईरान पर बमबारी में हिस्सा लिया है, जो एक बिना उकसावे वाला युद्ध था. यह दक्षिण अमेरिकी समुद्र में बिना किसी कानूनी आधार के लोगों की हत्या कर रहा है और शायद वेनेजुएला की सरकार को गिराने के मकसद से एक बड़ी सेना इकट्ठा कर रहा है. दूसरे देशों में हेरफेर करने के लिए टैरिफ (tariffs) का इस्तेमाल करना, नियमों पर आधारित व्यवस्था के लिए एक और चुनौती है. इस बीच, रूस का यूक्रेन पर क्रूर आक्रमण जारी है जिसका कोई अंत नहीं दिख रहा. विश्व स्तर पर, हम प्री-इंडस्ट्रियल दुनिया के मुकाबले 1.5°C की सीमा को पार कर रहे हैं, जो और ज्यादा विनाशकारी पर्यावरणीय आपदाओं के लिए रास्ता खोल रहा है.
इन सबके बीच, भारत ने बहुत ही ‘लो प्रोफाइल’ बनाए रखा है, शायद यह जुआ खेलते हुए कि ये मुद्दे - जिनमें जलवायु परिवर्तन को छोड़कर बाकी सब भारत के तटों से दूर हैं - देश पर ज्यादा असर नहीं डालेंगे. अगर यह हिसाब-किताब था, तो हाल ही में हुआ सऊदी-पाकिस्तान समझौता एक चेतावनी की घंटी होनी चाहिए थी. हालाँकि इस मुद्दे का भारत-पाकिस्तान संबंधों से कोई सीधा जुड़ाव नहीं था, लेकिन यह इस बात का हिस्सा है कि कैसे देश अपनी चाल चल रहे हैं क्योंकि पुरानी व्यवस्था ढह रही है. जैसा कि सऊदी अरब के बदलते परमाणु रुख पर एक हालिया लेख में कहा गया है, “अगर तेहरान परमाणु बम की तरफ अपनी रफ्तार बढ़ाता है, और इजरायल क्षेत्रीय भू-राजनीति को ताकत के दम पर बदलने के लिए अपनी अघोषित क्षमताओं का इस्तेमाल जारी रखता है, तो रियाद पर भी परमाणु विकल्प को एजेंडे में रखने का दबाव और मजबूत होगा.”
एक अस्थिर वैश्विक व्यवस्था में, हथियारों की होड़ - और यहाँ तक कि परमाणु प्रसार - न केवल संभावित लगता है, बल्कि तार्किक भी. इजरायल/अमेरिका और रूस, दोनों की मनमानी के पीछे परमाणु हथियारों का बल है. ईरान पर हमले ने यह साफ कर दिया है कि सिर्फ छिपी हुई परमाणु क्षमता होना ही बचाव के लिए काफी नहीं है. कतर पर इजरायली हमले ने दिखा दिया है कि ऐसे तमाशबीन देश जिनके पास अपने खुद के ऐसे हथियार नहीं हैं - या किसी दूसरी परमाणु शक्ति की गारंटी नहीं है - उन पर कभी भी मनमर्जी से हमला किया जा सकता है. इसमें कोई हैरानी की बात नहीं है कि खाड़ी देश, और बाकी दुनिया भी, अपनी सुरक्षा को मजबूत करने की ओर देख रही है.
दुनिया की इस नई अव्यवस्था में, पाकिस्तान ने अपनी कूटनीति के साथ बड़ी चालाकी दिखाई है - एक दिन ट्रम्प की तारीफ करना, अगले दिन ईरान पर हमलों की निंदा करना, जबकि खाड़ी अरब देशों के एहसानों के बदले अपनी सेना का सौदा करना. लेकिन, दिन के अंत में, पाकिस्तान भारत के लिए वास्तव में उतना मायने नहीं रखता, सिवाय इसके कि हमारा रणनीतिक समुदाय उसको लेकर जुनूनी है. हमारे लिए जो चीज ज्यादा मायने रखती है वो है एक खुला व्यापार नेटवर्क, हमारी प्रवासी आबादी की सुरक्षा जो हमें बड़ा रेमिटेंस (पैसा) वापस भेजती है, और एक ऐसी दुनिया जहाँ हम थोड़े से फायदे के लिए बड़े अंतरराष्ट्रीय पचड़ों में न फँसें. इसके लिए, हमें ट्रम्प प्रशासन के लिए एक जवाब चाहिए - एक ऐसा जवाब जो यह जोर देकर कहे कि दुनिया की व्यवस्था केवल व्हाइट हाउस में बैठे व्यक्ति की मर्जी या सनक पर नहीं चल सकती. भारत की सुरक्षा और समृद्धि हमारी सीमाओं पर नहीं रुकती, क्योंकि अर्थशास्त्र और प्राकृतिक आपदाएं आसानी से उन्हें पार कर जाती हैं. एक समृद्ध और सुरक्षित भारत के लिए, हमें एक समृद्ध और सुरक्षित दुनिया की जरूरत है.
अब तक, हमने कुछ नहीं किया है. चीन ने ट्रम्प के टैरिफ का मजबूती से विरोध किया है, इस हद तक कि इससे उन्हें थोड़ी तकलीफ तो हुई, लेकिन वो संभालने लायक थी, और साथ ही अमेरिका को सोयाबीन खरीदने की भीख मांगने पर मजबूर कर दिया. यूरोप, अमेरिका पर अपनी रणनीतिक निर्भरता के बावजूद, इतना बड़ा है कि ट्रम्प ने थोड़ा धक्का दिया, लेकिन ज्यादा नहीं. यूरोपीय संघ के पास एक स्वतंत्र सुरक्षा ढांचा विकसित करने के साधन हैं, और वो (बहुत) धीरे-धीरे उस दिशा में बढ़ रहा है. भारत ने घुटने टेक दिए हैं. पहले ट्रम्प प्रशासन में उसने ईरान से तेल खरीदना बंद कर दिया, अब वो रूसी सप्लाई से पीछे हट रहा है. इसमें से कुछ भी रणनीतिक रूप से सोचा-समझा नहीं लगता, बस बुरी खबरों के बाद बुरी खबरों को चुपचाप निगलना है, एक ऐसी दुनिया में जहाँ भारत को बाद में याद किया जाता है.
एक दशक से ज्यादा समय से, भारत अपनी विदेश नीति के प्रधानमंत्री के इर्द-गिर्द हद से ज्यादा सिमट जाने का खामियाजा भुगत रहा है. इसने कई बार गले मिलने पर, और उस भुलाए जाने लायक पल पर खुशी मनाई जब हमने अपनी बारी में G20 की मेजबानी की. आज, जब वही प्रधानमंत्री उस दुनिया से जल्दी से पीछे हट रहे हैं जो उनके लिए बहुत भारी पड़ रही है, तो हमें अहसास होता है कि हमने क्या खो दिया है. कोई रणनीति नहीं है, कोई योजना नहीं है, बस एक ऐसी दुनिया से पीछे हटना है जिसे हम न तो प्रभावित कर सकते हैं, और न ही समझ सकते हैं.
ओमैर अहमद एक लेखक हैं. उनका पिछला उपन्यास, ‘जिमी द टेररिस्ट’, मैन एशियन लिटरेरी प्राइज के लिए शॉर्टलिस्ट किया गया था, और उसने क्रॉसवर्ड अवार्ड जीता था.
शुभ्रांशु चौधरी : हिडमा की मौत है बस्तर से धोखा
16 जनवरी 2024 बस्तर में माओवादी आंदोलन के इतिहास का एक बहुत ही अहम मोड़ था. माओवादियों ने साउथ बस्तर की अपनी सारी टुकड़ियों को इकट्ठा किया था ताकि वे छत्तीसगढ़ के बीजापुर जिले के पामेड़ इलाके में चिंतावागु नदी के पास बने धर्मावरम सीआरपीएफ कैंप पर हमला कर सकें. वे पुलिस कैंप स्थापित करने की राज्य सरकार की रणनीति को एक करारा जवाब देना चाहते थे, जो 2019 के बाद से बहुत तेज़ हो गई थी और जिसने उनका काम मुश्किल कर दिया था.
धर्मावरम हमला एक तरह से नाकाम रहा, हालाँकि उनके प्रेस नोट के मुताबिक उन्होंने “सैकड़ों स्थानीय लोगों की मदद से 600 ग्रेनेड लॉन्चर के गोले दागे थे” और 35 सुरक्षाबलों को मारने का दावा किया था. पुलिस का कहना था कि 9 जवान घायल हुए थे. एनआईए (राष्ट्रीय जांच एजेंसी) ने जाँच अपने हाथ में ले ली और कहा कि “माओवादियों ने हमले के लिए बहुत बारीक तैयारी की थी, जिसमें टारगेट कैंप की हूबहू नक़ल वाला एक डमी ट्रेनिंग कैंप बनाना भी शामिल था”. माओवादियों ने घास से बनी छद्म ड्रेस भी पहनी थी जिसकी प्रेस में काफी चर्चा हुई थी.
लेकिन जो बात कम ही लोग जानते हैं वो ये है कि उस नाकाम धर्मावरम हमले के बाद क्या हुआ. यह एक दुर्लभ पल था जब सभी माओवादी डिवीज़नल कमेटियां (डीवीसी) एक साथ थीं और उन्होंने वो सब लिखा जो उनके दिमाग में कुछ समय से चल रहा था. सभी माओवादी डीवीसी में लगभग 100 प्रतिशत आदिवासी लड़ाके हैं, हालाँकि हर कमेटी में एक तेलुगु “माइंडर” यानी सेक्रेटरी होता था जिसकी ही आमतौर पर चलती थी. उस ड्राफ्ट चिट्ठी में कहा गया, “इन पुलिस कैंपों की वजह से लोगों से मिलना और समर्थन हासिल करना मुश्किल होता जा रहा है. इसलिए हमारा सुझाव है कि लड़ाई जारी रखने के लिए एक वैकल्पिक रणनीति अपनानी चाहिए. हमें लगता है कि हमें कुछ समय के लिए हथियार डाल देने चाहिए और विकल्पों के बारे में सोचना चाहिए.”
यह ज्यादातर तेलुगु नेतृत्व वाले माओवादी आंदोलन के बहुसंख्यक आदिवासी कैडर द्वारा विद्रोह का एक बहुत ही दुर्लभ प्रदर्शन था. हालाँकि बस्तर में 99% माओवादी कैडर आदिवासी थे, फिर भी उस समय तक पार्टी की सबसे ताकतवर सेंट्रल कमेटी (सीसी) में स्थानीय आदिवासियों का कोई प्रतिनिधित्व नहीं था. साउथ बस्तर की सेक्रेटरी सुजाता (जिसने बाद में तेलंगाना पुलिस के सामने सरेंडर कर दिया), जो मशहूर माओवादी नेता किशनजी की विधवा भी है, उससे गुज़ारिश की गई कि वो इस चिट्ठी को सीसी तक ले जाए. हिड़मा, जो शीर्ष आदिवासी माओवादी नेता था और उस समय दंडकारण्य स्टेट कमेटी का हिस्सा था (उसे उसी साल बाद में सीसी में शामिल किया गया), उससे अनुरोध किया गया कि वो इस चिट्ठी के बारे में दूसरी डीवीसी की राय ले. हिड़मा को इस महीने की शुरुआत में सुरक्षा बलों ने मार गिराया.
बदकिस्मती से सीसी ने इस प्रस्ताव को खारिज कर दिया. यह उसी समय की बात है जब दिसंबर 2023 में छत्तीसगढ़ में बीजेपी के सत्ता में आने के ठीक बाद गृह मंत्री विजय शर्मा ने शांति वार्ता की पेशकश की थी. भले ही चिट्ठी खारिज कर दी गई, लेकिन उसने अपना काम कर दिया था. हिड़मा को पूरे दंडकारण्य राज्य की लगभग सभी डीवीसी का समर्थन मिला जो लोगों के करीब रहते थे और रणनीति में बदलाव की उनकी इच्छा को दर्शाते थे. जब तक बड़े नेता शामिल न हों, माओवादियों की ऐसी चिट्ठियाँ ज्यादातर कुरियर के जरिए आती-जाती हैं और इसमें लंबा समय लगता है. हाल ही में सरेंडर करने वाले माओवादी सीसी सदस्य वेणुगोपाल के अनुसार, उस चिट्ठी को सीसी में कुछ समर्थन मिला था और मई 2025 में अपनी मौत से ठीक पहले जनरल सेक्रेटरी नांबला केशव राव का मन बदलने में भी इसका हाथ था.
नांबला केशव राव ने दूसरे सीसी सदस्यों को लिखना और शांति वार्ता की संभावनाएं तलाशने के लिए मध्यस्थों से संपर्क करना शुरू कर दिया था, जिसे माओवादी पार्टी का मौजूदा नेतृत्व झूठ बताकर खारिज करता है. हिड़मा, जो सीसी में स्थानीय आदिवासियों का एकमात्र प्रतिनिधि था (अब रामदेर नाम का एक और स्थानीय आदिवासी है), वन अधिकारों और स्वायत्तता के आदिवासी मुद्दों पर बातचीत में ज्यादा दिलचस्पी रखता था. जब “बातचीत के बारे में बातचीत” से सरकार की ओर से कोई ठोस आश्वासन नहीं मिला, तो वेणुगोपाल ने एक और सीसी सदस्य रूपेश के साथ सरेंडर कर दिया, जिसने “उस चिट्ठी” का समर्थन किया था. लेकिन हिड़मा नए नेतृत्व के साथ चला गया और लड़ाई जारी रखने की कसम खाई.
इसी बीच, राज्य में बीजेपी सरकार होने की वजह से नए जोश के साथ और ज्यादा कैंप लगाने की रणनीति, सरेंडर कर चुके माओवादियों और स्थानीय आदिवासी लड़ाकों की मदद से बहुत सफल साबित हो रही थी. इस आक्रामक अभियान में माओवादी पार्टी ने अपने कई तेलुगु सीसी नेताओं को खो दिया. उन्होंने शांति वार्ता की मांग करने के लिए अपने समर्थकों को सक्रिय किया, लेकिन तब पीछे हट गए जब वेणुगोपाल और रूपेश ने दावा किया कि उन्होंने सरकार से 3 मांगों पर बातचीत की है, जिसमें “आदिवासी मुद्दों” पर बातचीत की हिड़मा की मांगें शामिल नहीं थीं. अपने आखिरी दिनों में हिड़मा ने आदिवासी समाज के एक मध्यस्थ को एक और चिट्ठी भेजी थी जिसमें कहा था कि वह सरेंडर करने को तैयार है, लेकिन “वन अधिकारों और आदिवासी स्वायत्तता” के मुद्दों पर बातचीत चाहता है.
हिड़मा के समर्थकों का आरोप है कि हिड़मा की लोकेशन मौजूदा माओवादी नेतृत्व ने ही पुलिस को लीक की थी, जिन्होंने उसे मरवा दिया जब उसने “सरेंडर से पहले आदिवासी मुद्दों पर कुछ बातचीत” की मांग की. इस कहानी की सच्चाई चाहे जो भी हो, यह बिल्कुल तय लगता है कि इस चार दशक लंबे दुस्साहस में आदिवासियों को एक बार फिर सभी पक्षों द्वारा धोखा दिया गया, जिन्होंने इसके लिए सबसे बड़ी कीमत चुकाई और बदले में उन्हें लगभग कुछ नहीं मिला.
लेखक वरिष्ठ पत्रकार है और सीजीनेट स्वरा नाम से सिटीजन जर्नलिज्म के फाउंडर हैं.
नरेंद्र मोदी के रामनाथ गोयनका व्याख्यान पर थरूर की वाहवाही
एजे फ़िलिप: एट टू, थरूर!
यह एक आश्चर्य के रूप में आया—हालाँकि शायद यह नहीं होना चाहिए था—कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को छठा रामनाथ गोयनका व्याख्यान देने के लिए आमंत्रित किया गया था, जैसे कि भारत के लोग साँस रोककर उन्हें पत्रकारिता पर बोलते हुए सुनने का इंतज़ार कर रहे थे.
मेरी पहली प्रतिक्रिया अविश्वास की थी. प्रधानमंत्री के रूप में ग्यारह वर्षों में जब उन्होंने एक भी प्रेस कॉन्फ्रेंस को संबोधित नहीं किया है, तो उन्हें भारत के पत्रकारों को व्याख्यान देने का क्या अधिकार था? पत्रकारिता, आख़िरकार, जवाबदेही में निहित है, जवाब देने में, और सवालों का सामना करने में—न कि ऊँचे मंचों से दिए गए एकालापों में जहाँ जिरह का कोई ख़तरा नहीं होता.
लेकिन फिर, मैंने ख़ुद को याद दिलाया, यह पत्रकारिता के लिए एक मंच नहीं था. यह नरेंद्र मोदी के लिए उन विषयों पर ज़ोर से सोचने का एक मंच था जो उन्हें प्रिय हैं, बिना किसी विरोधाभास के डर के. आमंत्रण स्वीकार करने के लिए उन्हें दोष देना मुश्किल है; सवाल यह है कि ऐसा आमंत्रण पहली जगह क्यों दिया गया.
रामनाथ गोयनका कोई साधारण मीडिया मालिक नहीं थे. वे अपने आप में एक राजनीतिक ताक़त थे. मोदी ने दर्शकों को याद दिलाया कि गोयनका ने 1971 के आम चुनाव में विदिशा से भारतीय जनसंघ के टिकट पर चुनाव लड़ा था. जो उन्होंने ज़िक्र नहीं किया वह यह था कि पहले के एक चुनाव में, गोयनका ने वी.के. कृष्ण मेनन की उत्तर बॉम्बे से हार सुनिश्चित करने के लिए अपनी पूरी शक्ति लगा दी थी—और फिर जब मेनन जीत गए तो उन्हें अपमान निगलना पड़ा. वह ऐतिहासिक चूक आकस्मिक नहीं थी; यह सुविधाजनक थी.
मोदी ने यह भी बताया कि नानाजी देशमुख ने गोयनका से कहा था कि उनकी विदिशा में केवल अपना नामांकन दाख़िल करने और बाद में अपना चुनाव प्रमाणपत्र एकत्र करने के लिए ज़रूरत थी. जो उन्होंने छोड़ा—फिर से सुविधाजनक ढंग से—वह थी ग्वालियर राजमाता, विजया राजे सिंधिया की महत्वपूर्ण सहायता, जिन्होंने उनके लिए अथक रूप से प्रचार किया. उन्होंने, किसी से भी ज़्यादा, उन्हें उस वर्ष में फ़िनिश लाइन पार करने में मदद की जब इंदिरा गांधी ने देश में तूफ़ान मचा दिया. अगर प्रधानमंत्री इतिहास का आह्वान करना चाहते थे, तो कम से कम उन्हें इसे ईमानदारी से बताना चाहिए था.
सामान्य रूप से, मैं भाषण को बिल्कुल भी सुनने की परेशानी नहीं उठाता. मोदी किसी भी विषय पर बोलने में असमर्थ हैं बिना इसे आत्म-प्रशंसा के अभ्यास में बदले. मैंने उन्हें व्यक्तिगत रूप से केवल एक बार सुना है—श्री नारायण गुरु की महात्मा गांधी के साथ मुलाक़ात की शताब्दी के दौरान.
यहाँ तक कि उस गंभीर अवसर पर, जब किसी को भारत के महानतम सुधारकों में से एक पर प्रतिबिंब की उम्मीद थी, उन्होंने ज़्यादातर अपनी सरकार की उपलब्धियों, अपनी योजनाओं, अपनी पहलों के बारे में बात की. उस दार्शनिक-संत पर बहुत कम था जिन्होंने अपना जीवन जाति उत्पीड़न को तोड़ने के लिए समर्पित किया.
उस अनुभव को देखते हुए, मैंने YouTube पर उनके गोयनका व्याख्यान पर दोबारा जाने का कोई कारण नहीं देखा. यानी, जब तक मैं X पर शशि थरूर को भाषण की प्रशंसा करते हुए नहीं देखा. इसने मुझे चौंका दिया.
थरूर कोई राजनीतिक नौसिखिया नहीं हैं. वे चार बार के सांसद हैं. उन्होंने राष्ट्रवाद, इतिहास, कूटनीति और राजनीति पर व्यापक रूप से लिखा है. ऐसे व्यक्ति के लिए मोदी के व्याख्यान को “सम्मोहक” पाना या तो निर्णय की एक आश्चर्यजनक चूक या राजनीतिक पुनर्स्थापन का एक जानबूझकर किया गया कार्य प्रकट करता है.
हाल ही में, उन्हें बीजेपी में कांग्रेस की तुलना में अधिक गुण मिल रहे हैं. उन्हें नरेंद्र मोदी की प्रशंसा करना राहुल गांधी या प्रियंका गांधी को स्वीकार करने से आसान लगा है—सुविधाजनक रूप से भूलते हुए कि वे ख़ुद उसी राजवंश के लाभार्थी हैं जिसकी वे आलोचना करते हैं.
और कैसे समझाएँ कि वही थरूर जो प्रियंका गांधी के लिए प्रचार करने वायनाड गए थे, अब राजवंशीय राजनीति को एक बीमारी के रूप में वर्णित करते हैं? अगर वह राजवंशीय थीं, तो उनके लिए प्रचार क्यों करें? बदतर, उन्होंने मोदी के बारे में अपनी सुलहकारी टिप्पणियाँ उस समय कीं जब कांग्रेस बिहार में एक कठिन चुनाव लड़ रही थी. क्या यह अनजाने में था, या जानबूझकर?
थरूर की प्रशंसा ने मुझे पूरा व्याख्यान सुनने के लिए मजबूर किया. यह उम्मीदों पर खरा उतरा—बयानबाज़ी से भरा, सार में पतला, और पूरी तरह से ख़ुद पर केंद्रित. कुछ भी नहीं था—बिल्कुल कुछ भी नहीं—प्रशंसा करने के लिए. (वह, दो वाक्यों में, मेरी समीक्षा है.)
मोदी ने बिहार में एनडीए की जीत का श्रेय लिया, डींग मारते हुए कि महिला मतदाताओं ने पुरुषों की तुलना में अधिक संख्या में मतदान किया था. उन्होंने कहा कि नौ प्रतिशत अधिक महिलाओं ने मतदान किया था, और उन्होंने इसे “विकास” के सबूत के रूप में चित्रित किया. वे किस तरह के विकास की बात कर रहे थे? जुलाई 2024 में सत्रह दिनों की अवधि में, बिहार में बारह पुल—बड़े और छोटे—ढह गए. अगर यह विकास है, तो कोई क्षय की कल्पना करने में काँप जाता है.
मुझे समझाने दीजिए कि वास्तव में क्या बिहार को बीजेपी के नेतृत्व वाले गठबंधन को दिया. ऐसा करने के लिए, किसी को भारतीय इतिहास से एक परिचित कहानी पर दोबारा जाना चाहिए—प्लासी की लड़ाई. छात्र जानते हैं कि अंग्रेज़ केवल श्रेष्ठ हथियारों के कारण नहीं जीते. वे जीते क्योंकि मीर जाफ़र को रिश्वत दी गई और वह ग़द्दार बन गया. रिश्वत, बारूद नहीं, ने उनकी जीत और अंततः उनके साम्राज्य को सुरक्षित किया.
क्लाइव अपने समय के सबसे अमीर लोगों में से एक के रूप में इंग्लैंड लौटा. जो भारत से अमीर होकर लौटे उन्हें तिरस्कारपूर्वक “नबॉब” कहा जाता था, जो हमारे अपने शब्द “नवाब” से लिया गया है. आज भारतीय चुनाव उन समयों से एक असहज समानता रखते हैं. चुनाव विचारों की प्रतियोगिताएँ कम और वफ़ादारी की नीलामियाँ अधिक बन गए हैं. बिहार का हालिया चुनाव एक उदाहरण है.
जब मोदी पहलगाम आतंकवादी हत्याओं के तुरंत बाद बिहार गए, तो उन्होंने पीड़ितों से मुलाक़ात नहीं की. इसके बजाय, उन्होंने मतदाताओं से कहा कि उनके मतपत्र “पाकिस्तान को जवाब” होंगे. लेकिन अकेली भावना 243 में से 202 सीटें नहीं दिला सकती.
असली नाटक मतदाता सूचियों के विशेष गहन संशोधन के साथ शुरू हुआ. 2024 की सूची को आधार के रूप में उपयोग करने के बजाय, चुनाव आयोग ने 2003 की सूचियों को पुनर्जीवित किया. सत्तर लाख नाम ग़ायब हो गए. चार लाख नए नाम दिखाई दिए. पैटर्न परेशान करने वाले सवाल उठाते हैं जिनका जवाब देने में आयोग ने कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई.
इस बीच, आयोग ने धैर्यपूर्वक तब तक इंतज़ार किया जब तक कि सभी नई कल्याणकारी योजनाएँ घोषित नहीं हो गईं, मॉडल आचार संहिता को प्रभावी होने देने से पहले. और फिर 26 सितंबर को मास्टरस्ट्रोक आया: मुख्यमंत्री महिला रोज़गार योजना की शुरुआत.
योजना के तहत, 1.1 करोड़ महिलाओं को छोटे व्यवसाय शुरू करने के लिए ₹10,000 और ₹2 लाख के बीच सहायता का वादा किया गया था. कुछ दिनों के भीतर—दिनों के भीतर, हफ़्तों के नहीं—21 लाख महिलाओं को ₹10,000 प्रत्येक स्थानांतरित कर दिया गया था. यह पहली किस्त थी.
किसी को याद रखना चाहिए कि ₹10,000 बिहार में कोई मामूली रक़म नहीं है, जिसकी प्रति व्यक्ति आय भारत में सबसे कम है—₹32,227. लाखों महिलाओं के लिए, यह एक अप्रत्याशित लाभ था, और हर अप्रत्याशित लाभ के पीछे एक डर छिपा होता है: क्या होगा अगर सरकार बदल जाए? क्या यह लाभ ग़ायब हो जाएगा?
क्या यह फिर आश्चर्यजनक है कि महिलाओं ने इतनी बड़ी संख्या में मतदान किया? कि लगभग 80 प्रतिशत मतदान दर्ज किया गया? कि सत्तारूढ़ गठबंधन ने चुनावों में बहार मारी?
और यह सिर्फ़ एक योजना थी. 125 यूनिट से कम की खपत करने वाले दो करोड़ घरों के लिए बिजली के बिल माफ़ कर दिए गए. सामाजिक सुरक्षा पेंशन बढ़ाकर ₹1,100 प्रति माह कर दी गई. बेरोज़गार युवाओं को दो वर्षों के लिए ₹1,000 प्रति माह मिला. बिहार में हर घर का मालिक एक लाभार्थी बन गया.
बीजेपी इसे विकास के लिए एक वोट कहती है. लेकिन एनडीए ने पिछले बीस वर्षों में अधिकांश समय बिहार पर शासन किया है. उन वर्षों में, बिहार हर सूचकांक के तल पर रहा है—शिशु मृत्यु दर, मातृ स्वास्थ्य, साक्षरता, महिला शिक्षा, बुनियादी ढाँचा. अगर यह विकास है, तो कोई विकल्प पर काँप जाता है.
जन सुराज पार्टी ने आरोप लगाया है कि विश्व बैंक के ₹14,000 करोड़ इन भुगतानों को वित्तपोषित करने के लिए डायवर्ट किए गए थे. अगर वह आरोप आंशिक रूप से भी सच है, तो भारत ने अभी-अभी अंतर्राष्ट्रीय धन द्वारा वित्तपोषित दुनिया का पहला चुनाव देखा है. अगर चुनाव नीलामियाँ बन जाएँ, तो लोकतंत्र एक वस्तु बन जाता है.
शेक्सपियर ने जूलियस सीज़र में लिखा कि “दोष, प्रिय ब्रूटस, हमारे सितारों में नहीं, बल्कि हममें है.” बिहार का चुनाव हमें असहज सवाल पूछने के लिए मजबूर करता है. अगर मतदान प्रक्रिया ही भ्रष्ट हो जाती है—प्रलोभनों के माध्यम से, सूचियों में हेरफेर के माध्यम से, रणनीतिक देरी के माध्यम से—तो लोकतंत्र का क्या रह जाता है? अगर वोट ख़रीदे जा सकते हैं, तो लोकतंत्र ख़ुद बिक्री के लिए जाने से पहले कितना समय?
इस परेशान करने वाली पृष्ठभूमि के ख़िलाफ़, मोदी के गोयनका व्याख्यान ने एक और परिचित प्रवृत्ति प्रदर्शित की: बयानबाज़ी के लाभ के लिए इतिहास में हेरफेर. वे थॉमस बैबिंगटन मैकाले पर हमला करने के लिए 200 साल पीछे गए, एक धोखाधड़ी वाले अंश को उद्धृत करते हुए जो व्यापक रूप से प्रसारित हुआ है लेकिन कोई विद्वतापूर्ण आधार नहीं है.
गढ़ा गया उद्धरण दावा करता है कि मैकाले ने भारत भर में यात्रा की, कोई भिखारी या चोर नहीं पाया, भारत की संपत्ति और नैतिकता की प्रशंसा की, और निष्कर्ष निकाला कि ब्रिटेन को भारत की सांस्कृतिक रीढ़ को नष्ट करना चाहिए. कोई सबूत नहीं है—कोई नहीं—कि मैकाले ने कभी ऐसा बयान लिखा या दिया. विद्वानों ने इसे बार-बार ख़ारिज किया है. यह उनके लेखन में प्रकट नहीं होता. वे भारत में थे जब उन्होंने कथित तौर पर ये शब्द ब्रिटिश संसद में कहे. इसके अलावा, इस्तेमाल की गई भाषा आधुनिक है, किंग जेम्स के बाइबिल के संस्करण में पाई जाने वाली भाषा नहीं.
सच है, मैकाले का भारतीय शिक्षा पर विवरण यूरोपीय श्रेष्ठता में विश्वास को प्रतिबिंबित करता है. वे एक औपनिवेशिक प्रशासक थे, भारतीय संस्कृति के चैंपियन नहीं. उनके पिता एक मिशनरी थे जिन्होंने उनमें वे मूल्य डाले जिन्हें मोदी, अफ़सोस, समझ नहीं सकते. लेकिन तथ्य मायने रखते हैं. उद्धरण मायने रखते हैं. इतिहास मायने रखता है. भारत के प्रधानमंत्री को एक महान समाचार पत्रकार को समर्पित स्मारक व्याख्यान में गढ़े गए इतिहास को उद्धृत करने का कोई अधिकार नहीं है.
मोदी भी अनजान लग रहे थे—या स्वीकार करने के लिए अनिच्छुक—कि ब्रिटिश से पहले भारत में शिक्षा वास्तव में कैसी थी. शिक्षा कुछ विशेषाधिकार प्राप्त जातियों तक सीमित थी. निचली जातियों और महिलाओं को संस्कृत ग्रंथों को पढ़ने से रोक दिया गया था. सार्वभौमिक स्कूली शिक्षा के विचार हिंदू सामाजिक व्यवस्था से नहीं आए. मिशनरियों, सुधारकों और औपनिवेशिक प्रशासकों ने शिक्षा के विस्तार में प्रमुख भूमिका निभाई. दुनिया को वेदों के बारे में तब पता चला जब मैक्स मुलर को 1847 में ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी द्वारा ऋग्वेद का अनुवाद करने के लिए नियुक्त किया गया, एक परियोजना जिसे पूरा होने में 27 साल लगे. कोई उनके मकसदों की आलोचना कर सकता है, लेकिन कोई उनके योगदान को मिटा नहीं सकता.
मैकाले ने भारत को भारतीय दंड संहिता भी दी, जो अभी भी देश में सबसे कम संशोधित कानूनों में से एक है. अमित शाह ने इसे एक देसी-ध्वनि वाले विकल्प से बदल दिया होगा, लेकिन जैसा कि प्रतिष्ठित वकील कपिल सिब्बल ने टिप्पणी की, यह Google Translate का उपयोग करके हिंदी में अनुवादित पुराने IPC जैसा दिखता है—धारा संख्याओं को ताश के पत्तों की तरह फेंटा गया.
जो थरूर की प्रशंसा को अधिक हैरान करने वाला बनाता है वह यह है कि वे ख़ुद मोदी के सबसे तीखे आलोचकों में से एक रहे हैं. उनकी किताब द पैराडॉक्सिकल प्राइम मिनिस्टर मोदी के राजनीतिक व्यक्तित्व, प्रशासनिक शैली और वैचारिक परियोजना का एक निरंतर, विस्तृत विच्छेदन है. मोदी के लिए शायद ही कोई प्रशंसा इसके पन्नों में पाई जाती है. यदि कुछ भी, तो किताब भारत को अंध नायक पूजा के ख़तरों के बारे में चेतावनी देती है.
और फिर भी—यहाँ वे थे, एक भाषण की तालियाँ बजाते हुए जो तथ्यात्मक रूप से ग़लत, ऐतिहासिक रूप से संदिग्ध, राजनीतिक रूप से पक्षपाती और बयानबाज़ी से अनुमानित था.
मोदी ने रामनाथ गोयनका मंच का उपयोग पत्रकारिता पर प्रतिबिंबित करने के लिए नहीं बल्कि कांग्रेस पर हमला करने के लिए किया—यहाँ तक कि इसकी यूपीए मंत्रालयों पर भी जिसमें थरूर ख़ुद ने सेवा की. उन्होंने उन सरकारों पर पिछड़े ज़िलों की उपेक्षा करने का आरोप लगाया. उन्होंने तथ्यों को नज़रअंदाज़ किया. उदाहरण के लिए, गोयनका ने अपना अख़बार तमिल या हिंदी में नहीं, अंग्रेज़ी में शुरू किया. और थरूर ने उनकी तालियाँ बजाईं. क्यों?
महत्वाकांक्षा? रीअलाइनमेंट? राजनीतिक रूप से प्रासंगिक बने रहने की कोशिश? थरूर के आंतरिक घेरे के बाहर कोई नहीं जानता. लेकिन प्रतीकवाद महत्वपूर्ण है. जब बुद्धिजीवी शक्तिशाली लोगों की प्रतिध्वनि करना शुरू कर देते हैं बजाय उन्हें प्रश्न करने के, तो लोकतंत्र अपनी महत्वपूर्ण जाँचों में से एक खो देता है.
बिहार चुनाव ने भारतीय राजनीति में एक ख़तरनाक मिसाल क़ायम की है. वोट ख़रीदना अब गुप्त नहीं है; यह राज्य मशीनरी के माध्यम से संस्थागत है. चुनाव आयोग संविधान द्वारा सौंपी गई भूमिका निभाने में तेज़ी से अनिच्छुक दिखाई देता है. कल्याणकारी योजनाओं की घोषणा की जाती है, लागू की जाती है, और साँस लेने वाली गति से हथियार बनाई जाती हैं. राजनीतिक प्रचार बहस से नहीं बल्कि वित्तीय स्थानांतरण से संचालित होता है.
बिहार का फ़ैसला विकास के लिए एक वोट नहीं था. यह डर, प्रलोभन, हेरफेर और नक़दी की बाढ़ से आकार लेने वाला वोट था. मोदी का रामनाथ गोयनका व्याख्यान, इन मुद्दों को रोशन करने से बहुत दूर, चुनिंदा इतिहास और पक्षपाती छाती-ठोंकने का एक और अभ्यास था. और फिर भी, शशि थरूर ने इसकी तालियाँ बजाईं—एक ऐसा कार्य जो उतना ही हैरान करने वाला है जितना निराशाजनक. शायद इसलिए अंतिम शब्द शेक्सपियर को जाने चाहिए, जिनकी बुद्धिमत्ता अभी भी सदियों में गूँजती है: “जो बीत गया वह प्रस्तावना है.”
जब तक भारत अपनी चुनावी प्रक्रियाओं में सुधार नहीं करता, अपनी संस्थाओं की स्वतंत्रता पुनः स्थापित नहीं करता, और राजनीतिक बहस की गरिमा बहाल नहीं करता, भविष्य असहज रूप से अतीत की तरह दिख सकता है—जहाँ शक्ति ख़रीदी जाती है, अर्जित नहीं की जाती, और जहाँ सच वैकल्पिक है, आवश्यक नहीं. अभी के लिए, मैं केवल इतना कह सकता हूँ, ग़ुस्से से ज़्यादा दुःख की भावना के साथ: एट टू (तुम भी), थरूर?
लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं.
अपील :
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