24/12/2025: अरावली पर पलटी सरकार | बलात्कारी नेता के खिलाफ़ पीड़िता सुप्रीम कोर्ट जाएगी | मोदी के दौरे | मुस्लिम सवाल पर प्रोफेसर निलंबित | आयुर्वेद का 'सर्जिकल स्ट्राइक' | औरतें और मोबाइल
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आज की सुर्खियां
कुलदीप सेंगर की सजा निलंबित होने पर भड़की पीड़िता, फैसले को बताया ‘मौत’, अब जाएगी सुप्रीम कोर्ट
अरावली पर्वत श्रृंखला में नई खनन लीज पर लगी पूर्ण रोक
20 साल बाद एक हुए ठाकरे बंधु
राजस्थान की एक पंचायत का अजीबोगरीब आदेश, बहुओं के स्मार्टफोन रखने पर लगाई पाबंदी
परीक्षा में ‘मुस्लिमों पर अत्याचार’ वाला सवाल पूछने पर प्रोफेसर सस्पेंड, छात्र संगठनों में रोष
रोजगार गारंटी कानून की जगह अब ‘जी-राम-जी’ योजना, विपक्ष ने बताया गरीबों पर वार
उत्तराखंड में बिजली कटौती से नाराज कांग्रेस विधायक ने काट दी अफसरों के घर की बत्ती
आंध्र प्रदेश सरकार की हरी झंडी, अब आयुर्वेदिक डॉक्टर भी कर सकेंगे सर्जरी
थाईलैंड-कंबोडिया सीमा पर भगवान विष्णु की मूर्ति तोड़ी गई, भारत ने जताई कड़ी आपत्ति
चीन के मामले में भारत का साथ नहीं देगा रूस, मोदी-पुतिन मुलाकात पर विश्लेषकों की राय
बलात्कारी पूर्व भाजपा विधायक कुलदीप सेंगर की पीड़िता सुप्रीम कोर्ट जाएगी
द हिंदू की रिपोर्ट के अनुसार, 2017 के उन्नाव बलात्कार मामले की पीड़िता ने बुधवार (24 दिसंबर, 2025) को निष्कासित भाजपा नेता कुलदीप सिंह सेंगर की जेल की सजा के निलंबन को अपने परिवार के लिए “काल (मौत)” करार दिया है. पीड़िता ने कहा है कि वह इस फैसले के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाएगी.
दिल्ली उच्च न्यायालय ने मंगलवार (23 दिसंबर, 2025) को सेंगर की सजा को निलंबित कर दिया, जो इस मामले में आजीवन कारावास की सजा काट रहा है. अदालत ने दिसंबर 2019 में निचली अदालत द्वारा दी गई दोषसिद्धि के खिलाफ उसकी अपील के निपटारे तक उसे जमानत पर रिहा करने का आदेश दिया. अपने आदेश में, उच्च न्यायालय ने निर्देश दिया कि सेंगर पीड़िता के आवास के 5 किलोमीटर के दायरे में नहीं आएगा और न ही पीड़िता या उसकी मां को धमकाएगा. अदालत ने यह भी कहा कि शर्तों का उल्लंघन करने पर जमानत अपने आप रद्द हो जाएगी. हालांकि, सेंगर अभी जेल में ही रहेगा क्योंकि वह पीड़िता के पिता की हिरासत में हुई मौत के मामले में 10 साल की सजा भी काट रहा है और उस मामले में उसे जमानत नहीं मिली है.
फैसले पर प्रतिक्रिया देते हुए, पीड़िता (जो 2017 में सेंगर द्वारा अपहरण और बलात्कार के समय नाबालिग थी) ने दिल्ली से फोन पर पीटीआई (PTI) को बताया कि उसके परिवार के सदस्यों, वकीलों और गवाहों की सुरक्षा पहले ही वापस ले ली गई थी और अदालत के इस फैसले ने उसके डर को और गहरा कर दिया है. उसने कहा, “अगर इस तरह के मामलों में दोषी को जमानत मिल जाती है, तो देश की बेटियां कैसे सुरक्षित रहेंगी? हमारे लिए, यह फैसला ‘काल’ (मौत) से कम नहीं है.” उसने दुख जताते हुए कहा, “पैसे वाले जीतते हैं, बिना पैसे वाले हारते हैं.”
सर्वाइवर, जो अपनी मां के साथ इस फैसले के खिलाफ मंडी हाउस के पास विरोध प्रदर्शन करने के लिए निकल रही थी, ने कहा कि वह उच्च न्यायालय के आदेश को उच्चतम न्यायालय में चुनौती देगी. गौरतलब है कि सुप्रीम कोर्ट के निर्देश पर अगस्त 2019 में उन्नाव रेप केस और अन्य जुड़े मामलों को उत्तर प्रदेश से दिल्ली ट्रांसफर कर दिया गया था.
स्क्रोल की रिपोर्टर रत्ना सिंह और द टेलीग्राफ (पीटीआई) की रिपोर्ट के मुताबिक, दिल्ली उच्च न्यायालय ने मंगलवार को उन्नाव रेप केस में दोषी ठहराए गए पूर्व भाजपा विधायक कुलदीप सिंह सेंगर की उम्रकैद की सजा को निलंबित कर दिया और उन्हें जमानत दे दी. अदालत ने अपने फैसले में एक महत्वपूर्ण कानूनी तकनीकी बिंदु का हवाला दिया. हालांकि, सेंगर अभी जेल से बाहर नहीं आएंगे क्योंकि वह पीड़िता के पिता की पुलिस हिरासत में हुई मौत के मामले में 10 साल की सजा काट रहे हैं और उस मामले में उन्हें जमानत नहीं मिली है.
न्यायमूर्ति सुब्रमण्यम प्रसाद और न्यायमूर्ति हरीश वैद्यनाथन शंकर की पीठ ने कहा कि घटना के वक्त सेंगर एक विधायक थे, लेकिन पॉक्सो (POCSO) एक्ट के तहत उन्हें ‘लोक सेवक’ (Public Servant) नहीं माना जा सकता. पॉक्सो एक्ट की धारा 5 के तहत, अगर कोई लोक सेवक बलात्कार करता है तो उसे ‘एग्रेवेटेड’ (गंभीर) अपराध माना जाता है और सजा सख्त होती है. निचली अदालत ने आईपीसी की धारा 21 और भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम के तहत विधायक को लोक सेवक माना था. लेकिन हाई कोर्ट ने कहा कि पॉक्सो एक्ट की धारा 2 साफ़ करती है कि परिभाषाएं केवल आईपीसी, सीआरपीसी या आईटी एक्ट से ली जा सकती हैं. चूंकि आईपीसी की धारा 21 में विधायकों को स्पष्ट रूप से लोक सेवक नहीं कहा गया है, इसलिए सेंगर पर ‘एग्रेवेटेड’ चार्ज नहीं लग सकता. अदालत ने कहा कि सेंगर पहले ही 7 साल और 5 महीने जेल में बिता चुके हैं. साधारण पॉक्सो मामले में न्यूनतम सजा 7 साल है, जिसे वे पूरा कर चुके हैं. इसलिए उनकी सजा निलंबित की जाती है.
पीड़िता का दर्द और राजनेताओं की संवेदनहीनता
इस फैसले से आहत पीड़िता ने कहा, “अगर ऐसे मामलों में दोषियों को जमानत मिलती है, तो देश की बेटियां कैसे सुरक्षित रहेंगी? हमारे लिए यह फैसला ‘काल’ (मृत्यु) से कम नहीं है.” उसने बताया कि फैसले से पहले ही उसके परिवार और गवाहों की सुरक्षा हटा ली गई थी. बुधवार को जब पीड़िता और उसकी मां इंडिया गेट पर विरोध प्रदर्शन करने पहुंचे, तो दिल्ली पुलिस ने उन्हें जबरन वहां से हटा दिया. इस घटना पर जब उत्तर प्रदेश सरकार के मंत्री ओम प्रकाश राजभर से सवाल पूछा गया, तो वे हंस पड़े और व्यंग्य में कहा, “अब घर तो उनका उन्नाव है.” इस पर लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष राहुल गांधी ने तीखी प्रतिक्रिया दी. उन्होंने एक्स (ट्विटर) पर लिखा, “बलात्कारियों को बेल और सर्वाइवर को जेल जैसा सलूक—ये कैसा न्याय है? हम सिर्फ एक मृत अर्थव्यवस्था नहीं, बल्कि एक ‘मृत समाज’ (dead society) बनते जा रहे हैं.”
जमानत की शर्तें
अदालत ने सेंगर को जमानत देते हुए कड़ी शर्तें लगाई हैं:
15 लाख रुपये का निजी मुचलका और इतनी ही राशि की तीन जमानतें.
पीड़िता के घर के 5 किलोमीटर के दायरे में आने पर रोक.
अपील लंबित रहने तक दिल्ली में ही रहना होगा.
हर सोमवार को स्थानीय पुलिस स्टेशन में हाजिरी लगानी होगी.
दिल्ली में बुधवार को सुरक्षाकर्मियों ने उन्नाव दुष्कर्म पीड़िता और उसकी बुजुर्ग माँ के साथ बदसलूकी की. वे 2017 के मामले में दोषी ठहराए गए पूर्व भाजपा विधायक कुलदीप सिंह सेंगर की जेल की सजा को निलंबित करने के दिल्ली उच्च न्यायालय के आदेश के खिलाफ प्रदर्शन कर रही थीं. रिपोर्टों और चश्मदीदों के अनुसार, सीआरपीएफ कर्मियों ने महिलाओं को मीडिया को संबोधित करने से रोका और कथित तौर पर पीड़िता की बुजुर्ग माँ को चलती बस से कूदने के लिए मजबूर किया. पीड़िता और उसकी माँ ने मंडी हाउस में मीडिया को संबोधित करने की योजना बनाई थी. हालांकि, उन्हें ले जा रही सीआरपीएफ की बस उस स्थान पर नहीं रुकी. घटना के दृश्यों में पीड़िता की माँ को चलती बस के गेट के पास खड़ा देखा गया, जहाँ सीआरपीएफ कर्मी कथित तौर पर उन्हें धक्का दे रहे थे और उतरने के लिए कह रहे थे. बार-बार दबाव के बाद, उन्हें चलती गाड़ी से कूदते हुए देखा गया, जबकि बस पीड़िता को अंदर लेकर चली गई.
रिपोर्टों में यह भी बताया गया कि बस में महिला सीआरपीएफ कर्मी मौजूद नहीं थीं. एक सीआरपीएफ अधिकारी के अनुसार, मंडी हाउस या इंडिया गेट पर विरोध प्रदर्शन की अनुमति नहीं दी गई थी, और अधिकारियों का इरादा उन दोनों को या तो जंतर मंतर ले जाने का था या उनके आवास पर वापस भेजने का. इससे पिछली रात, पीड़िता, उसकी माँ और कार्यकर्ता-वकील योगिता भयाना ने इंडिया गेट पर विरोध प्रदर्शन किया था, जहां उन्हें पुलिस ने हिरासत में ले लिया था. घटना के बाद मीडिया से बात करते हुए पीड़िता की माँ ने आरोप लगाया कि सुरक्षाकर्मियों ने उन्हें उनकी बेटी से जबरन अलग कर दिया. उन्होंने कहा, “हमें न्याय नहीं मिला. मेरी बेटी को बंधक बना लिया गया है. ऐसा लगता है कि वे हमें मारना चाहते हैं. सीआरपीएफ के लोग लड़की को ले गए और मुझे सड़क पर छोड़ दिया. “
उन्होंने आगे कहा कि वे विरोध प्रदर्शन के लिए मंडी हाउस जा रहे थे तभी उनकी बेटी को ले जाया गया. इस घटना पर प्रतिक्रिया देते हुए कार्यकर्ता योगिता भयाना ने पीड़ित परिवार के साथ किए गए व्यवहार पर सवाल उठाए. उन्होंने कहा, “क्या यह न्याय है? पीड़ित की माँ को सड़क पर फेंक दिया गया. वह रो रही है और हमें बुला रही है. पीड़िता बस में अकेली है और उसे इधर-उधर घुमाया जा रहा है.” भयाना ने यह भी कहा कि उत्तरजीवी अपनी जान को लेकर डरी हुई है.
‘पीटीआई’ की रिपोर्ट के अनुसार, फैसले पर प्रतिक्रिया देते हुए पीड़िता ने कहा कि उसके परिवार के सदस्यों, वकीलों और गवाहों की सुरक्षा पहले ही वापस ले ली गई है, और अदालत के फैसले ने उसके डर को और गहरा कर दिया है. उन्होंने कहा, “अगर इस तरह के मामले में अपराधी को जमानत मिल जाती है, तो देश की बेटियाँ सुरक्षित कैसे रहेंगी? हमारे लिए यह फैसला ‘काल’ (मौत) से कम नहीं है. जिनके पास पैसा है वे जीतते हैं, जिनके पास पैसा नहीं है वे हारते हैं.” उन्होंने यह भी कहा कि वह उच्च न्यायालय के आदेश को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती देंगी.
उल्लेखनीय है कि दिल्ली उच्च न्यायालय ने मंगलवार को 2017 के उन्नाव दुष्कर्म मामले में पूर्व भाजपा विधायक कुलदीप सिंह सेंगर को दी गई आजीवन कारावास की सजा को निलंबित कर दिया था और उसकी अपील के लंबित रहने के दौरान उसे 15 लाख रुपये के निजी मुचलके पर जमानत दे दी थी. अदालत ने कुछ शर्तें लागू कीं, जिसमें उसे दिल्ली में पीड़ित के निवास के पांच किलोमीटर के दायरे में प्रवेश नहीं करने और उत्तरजीवी या उसकी माँ को नहीं धमकाने का निर्देश दिया गया था.
सेंगर, हालांकि, जेल में ही रहेगा क्योंकि वह दुष्कर्म पीड़िता के पिता की हिरासत में हुई मौत के मामले में भी 10 साल की सजा काट रहा है और उस मामले में उसे जमानत नहीं मिली है.
अभियोजन पक्ष के अनुसार, पीड़िता, जो उस समय नाबालिग थी, का अपहरण कर सेंगर द्वारा 11 जून से 20 जून 2017 के बीच उत्तर प्रदेश के उन्नाव क्षेत्र में दुष्कर्म किया गया था. फिर उसे 60,000 रुपये में बेच दिया गया था, जिसके बाद उसे माखी पुलिस स्टेशन से बरामद किया गया था. अदालत ने सेंगर को भारतीय दंड संहिता की धारा 376 (बलात्कार) और पोक्सो अधिनियम की धारा 5(सी) और 6 के तहत दुष्कर्म का दोषी पाया था, जिसमें कहा गया था कि पीड़ित की गवाही ‘निष्पक्ष, सच्ची और श्रेष्ठ गुणवत्ता’ की थी.
इस बीच, 2012 की निर्भया सामूहिक दुष्कर्म पीड़िता की माँ, आशा देवी ने उत्तरजीवी और उसके परिवार को अपना समर्थन दिया है. पीटीआई की रिपोर्ट के अनुसार, उन्होंने कहा कि सेंगर को जमानत देने का उच्च न्यायालय का निर्णय “दुर्भाग्यपूर्ण” है और इससे समाज में “गलत संदेश” जाएगा. उन्होंने कहा, “ऐसे व्यक्ति को कैसे रिहा किया जा सकता है? इससे दुष्कर्म के अन्य आरोपियों के लिए जमानत के लिए अदालतों का दरवाजा खटखटाने के रास्ते खुल जाएंगे. यह उन लोगों को ताकत देता है जो इस तरह के अपराध करते हैं.”
अरावली बचाने की कवायद: केंद्र का बड़ा फैसला, नई खनन लीज पर लगाई पूर्ण रोक
इंडियन एक्सप्रेस की रिपोर्ट के मुताबिक, अरावली पर्वत श्रृंखला को बचाने के लिए केंद्रीय पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय (MoEF&CC) ने एक सख्त कदम उठाया है. मंत्रालय ने संबंधित राज्य सरकारों (मुख्य रूप से हरियाणा, राजस्थान और गुजरात) को निर्देश दिया है कि अरावली क्षेत्र में किसी भी नई खनन लीज (Mining Lease) को मंजूरी न दी जाए. यह प्रतिबंध दिल्ली से लेकर गुजरात तक फैले पूरे अरावली परिदृश्य पर लागू होगा.
फैसले के मुख्य बिंदु:
पूर्ण प्रतिबंध: इसका उद्देश्य अवैध और अनियमित खनन को रोकना है ताकि अरावली की भौगोलिक अखंडता बनी रहे. अरावली को मरुस्थलीकरण रोकने और भूजल रीचार्ज करने के लिए महत्वपूर्ण माना जाता है.
नए नो-गो जोन: मंत्रालय ने ‘भारतीय वानिकी अनुसंधान और शिक्षा परिषद’ (ICFRE) को निर्देश दिया है कि वह अरावली में उन अतिरिक्त क्षेत्रों की पहचान करे जहां खनन पूरी तरह से प्रतिबंधित होना चाहिए. यह पहचान पारिस्थितिक (ecological) और भूवैज्ञानिक आधार पर की जाएगी.
मौजूदा खदानें: जो खदानें अभी वैध रूप से चल रही हैं, उन पर यह प्रतिबंध लागू नहीं होगा, लेकिन राज्य सरकारों को यह सुनिश्चित करना होगा कि वे सुप्रीम कोर्ट के आदेशों और कड़े पर्यावरणीय नियमों का पालन करें.
मास्टर प्लान: ICFRE को पूरे क्षेत्र के लिए ‘सतत खनन के लिए प्रबंधन योजना’ (Management Plan for Sustainable Mining) तैयार करने को कहा गया है, जिसमें जनता की राय भी ली जाएगी.
बीएमसी चुनाव की खातिर 20 साल बाद साथ आए उद्धव और राज ठाकरे
महाराष्ट्र में 20 साल बाद ठाकरे बंधु ‘एकसाथ’ आ गए. सुधीर सूर्यवंशी के अनुसार, चचेरे भाई उद्धव ठाकरे और राज ठाकरे ने बुधवार को आगामी बृहन्मुंबई नगर निगम (बीएमसी) और अन्य नगर निगम चुनावों के लिए शिवसेना (यूबीटी) और महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना (एमएनएस) के बीच औपचारिक रूप से गठबंधन की घोषणा की. उन्होंने मराठी मतदाताओं से अपील की कि वे खुद को विभाजित न होने दें, और चेतावनी दी कि ऐसा विभाजन मुंबई पर ‘मराठी मानुष’ के अधिकार को कमजोर कर देगा.
एक संयुक्त सभा को संबोधित करते हुए उद्धव ठाकरे ने कहा कि मुंबई की रक्षा के लिए मराठी लोगों की एकता अत्यंत महत्वपूर्ण है. उन्होंने संयुक्त महाराष्ट्र आंदोलन के दौरान दिए गए बलिदानों को याद किया और उन्हें वर्तमान राजनीतिक स्थिति से जोड़ा. कहा कि शिवसेना का जन्म मुंबई में मराठी मानुष के अधिकारों और कल्याण के लिए हुआ था. कुछ लोग मुंबई पर कब्जा करना चाहते हैं; हम ठाकरे इसका विरोध करने के लिए यहां हैं. हम साथ रहने के लिए एक साथ आए हैं. अगर कोई मुंबई पर हमला करता है, तो हम इसे बर्दाश्त नहीं करेंगे और इसके लिए लड़ेंगे. उद्धव ने आगे कहा, “मैं मराठी मानुष से कहना चाहता हूं कि यदि आप विभाजित हो गए, तो मराठी मानुष मुंबई पर अपना अधिकार खो देगा.”
वहीं राज ठाकरे का कहना था कि उन्होंने हमेशा यह माना है कि महाराष्ट्र किसी भी व्यक्तिगत मुद्दे से बड़ा है और वह राज्य के व्यापक हित में साथ आने के लिए तैयार थे. एक तीखे रूपक का उपयोग करते हुए, उन्होंने आरोप लगाया कि राजनीतिक दल प्रतिद्वंद्वी संगठनों से नेताओं को तोड़ने में लगे हुए हैं. उन्होंने कहा, “महाराष्ट्र में कई बच्चा-चोर गिरोह सक्रिय हैं, और अब इसमें दो और नाम जुड़ गए हैं. दो राजनीतिक दलों ने दूसरी पार्टियों से चोरी करना शुरू कर दिया है.” उन्होंने भाजपा और उसकी मशीनरी द्वारा चलाए जाने वाले संभावित नकारात्मक और फर्जी प्रचार के प्रति भी आगाह किया. राज ठाकरे ने कहा, “मेरे पास बहुत सारे वीडियो हैं और मैं उनके दुष्प्रचार के जवाब में उन्हें जारी करूंगा. मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस को हमें हिंदुत्व के बारे में नहीं सिखाना चाहिए.”
क्यों उद्धव और राज के एकसाथ आते ही भाजपा के लिए कठिन हो गया मुक़ाबला
इस बीच शुभांगी खापरे ने लिखा है कि बृहन्मुंबई नगर निगम (बीएमसी) में शिवसेना के लगभग तीन दशक पुराने शासन को समाप्त करने की कोशिश में जुटी भाजपा को 15 जनवरी को होने वाले महाराष्ट्र निकाय चुनावों से कुछ हफ्ते पहले अपनी रणनीति बदलने के लिए मजबूर होना पड़ा है. इसका कारण है: एक समय अलग हो चुके ठाकरे भाइयों – शिवसेना (यूबीटी) प्रमुख उद्धव ठाकरे और महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना (एमएनएस) अध्यक्ष राज ठाकरे का एक साथ आना. हालांकि मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस ने सार्वजनिक रूप से ठाकरे बंधुओं के हाथ मिलाने के प्रभाव को कमतर बताया है, लेकिन भाजपा के कुछ अंदरूनी सूत्रों का कहना है कि पार्टी की कोर कमेटी द्वारा ठाकरे बंधुओं के गठबंधन से निपटने के लिए “जवाबी रणनीतियों” पर काम किया जा रहा है.
ठाकरे भाइयों द्वारा ‘मराठी मानुष’ के मुद्दे को उठाने के संकल्प के साथ, भाजपा के अंदरूनी सूत्रों ने स्वीकार किया कि हालिया स्थानीय निकाय चुनावों में पार्टी के शानदार प्रदर्शन के बावजूद बीएमसी चुनाव “आसान” नहीं होंगे. हालिया चुनावों में भाजपा नेतृत्व वाली महायुति ने 288 स्थानीय निकायों में से 207 पर जीत हासिल की थी, जबकि कांग्रेस और शिवसेना (यूबीटी) ने क्रमशः 28 और नौ सीटें जीती थीं.
भाजपा के एक सूत्र ने कहा, “जब भी नए गठबंधन बनते हैं, तो उनका कुछ प्रभाव पड़ना तय है. ठाकरे बंधुओं का पुनर्मिलन उत्साह पैदा कर सकता है, खासकर मराठी और मुस्लिम वोट बैंक को लुभाने पर उनके ध्यान केंद्रित करने के कारण.” मराठी भाषी लोग, जिन्हें ठाकरो का मुख्य आधार माना जाता है, मुंबई की आबादी का लगभग 26% हैं. इसके साथ ही मुस्लिम, जो शहर की आबादी का लगभग 11% हैं, उनके भी गैर-भाजपा ताकतों के साथ जाने की संभावना है, जिससे भाजपा की चिंता के कारण बढ़ सकते हैं. लगभग 11% दलित आबादी का एक वर्ग भी भाजपा के वोट आधार के रूप में नहीं देखा जाता है.
आंकड़ों के अनुसार, नवंबर 2024 के राज्य विधानसभा चुनावों में निराशाजनक प्रदर्शन के बावजूद उद्धव और राज मिलकर एक बड़ी राजनीतिक ताकत बनते हैं. उन चुनावों में शिवसेना (यूबीटी) को भारी नुकसान हुआ था और एमएनएस अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रही थी.
‘द इंडियन एक्सप्रेस’ द्वारा संकलित और विश्लेषित विधानसभा चुनावों के वार्ड-वार विवरण से पता चलता है कि शहर के 227 वार्डों में से 67 वार्डों (यानी 30% वार्डों) में, एमएनएस को जीत के अंतर से अधिक वोट मिले थे. जबकि विपक्षी गठबंधन महाविकास अघाड़ी, जिसमें शिवसेना (यूबीटी) के अलावा कांग्रेस और एनसीपी (एसपी) शामिल हैं, इन 39 वार्डों में आगे थी, वहीं महायुति 28 वार्डों में आगे थी.
शिवसेना (यूबीटी) और एमएनएस का गठबंधन न केवल इन 39 वार्डों में अपनी स्थिति मजबूत कर सकता है, बल्कि उन वार्डों का नतीजा भी पलट सकता है, जहां सत्ताधारी गठबंधन आगे था. इन वार्डों के भूगोल पर करीब से नज़र डालने से पता चलता है कि एमएनएस की ताकत वर्ली, दादर, माहिम, घाटकोपर, विक्रोली और दिंडोशी-मलाड तक फैले मराठी बेल्ट में है, जहां उसके उम्मीदवारों को अघाड़ी उम्मीदवारों द्वारा प्राप्त वोटों का एक-तिहाई से आधा हिस्सा मिला था.
एमएनएस का प्रभाव 123 वार्डों में देखा गया. यह कम वोट शेयर (2024 विधानसभा चुनाव में 25 सीटों से 4%) के बावजूद मुंबई के राजनीतिक भूगोल में इसके प्रभाव को दर्शाता है. उद्धव के लिए, यह गणित एक ऐसी रणनीति में बदल जाता है जहां कुछ सौ वोट भी एक वार्ड का फैसला कर सकते हैं, भले ही विधानसभा और लोकसभा चुनावों में एमएनएस इतना बड़ा कारक न हो. चूंकि दोनों का जनाधार एक ही है, इसलिए एमएनएस के साथ गठबंधन वोटों के हस्तांतरण को सुनिश्चित कर सकता है, जिससे बिखरे हुए मराठी मतदाताओं का एकीकरण हो सकता है.
ठाकरे बंधुओं के गठबंधन से भाजपा को अपने सहयोगी, एकनाथ शिंदे के नेतृत्व वाली शिवसेना पर अधिक भरोसा करने के लिए मजबूर होना पड़ सकता है, विशेष रूप से बीएमसी, ठाणे, कल्याण-डोंबिवली, नाशिक, पुणे और नवी मुंबई जैसे महत्वपूर्ण मराठी भाषी आबादी वाले नगर निगमों में.
उद्धव और राज दोनों ने, अलग-अलग पार्टियों का नेतृत्व करने और गैर-मराठी भाषियों तक पहुँचने के प्रयासों के बावजूद, मराठी मानुष को अपनी राजनीति के केंद्र में रखा है – यह वही मुद्दा है जिसका उपयोग बाल ठाकरे ने 1966 में शिवसेना की स्थापना के लिए किया था. हालांकि, उद्धव-राज पुनर्मिलन विरोध के बिना नहीं है, विशेष रूप से कांग्रेस की ओर से जो महा विकास अघाड़ी में “कट्टरपंथी” एमएनएस को शामिल करने की इच्छुक नहीं थी. विधानसभा चुनावों में महायुति की बड़ी जीत के बाद विपक्षी गठबंधन में दरारें दिखाई देने लगीं, जब महाराष्ट्र के एआईसीसी प्रभारी रमेश चेन्निथला ने घोषणा की कि कांग्रेस अकेले बीमसी चुनाव लड़ेगी.
जाट पंचायत का फरमान, 26 जनवरी से 15 गांवों में विवाहित महिलाओं के स्मार्टफोन रखने पर रोक
द हिंदू की रिपोर्ट के मुताबिक, जब दुनिया कनेक्टिविटी के हाईवे पर दौड़ रही है, तब राजस्थान के जालोर जिले में जाट समुदाय के एक वर्ग की विवाहित महिलाओं के लिए 2026 के गणतंत्र दिवस से स्मार्टफोन प्रतिबंधित कर दिए जाएंगे. यह फरमान 21 दिसंबर को गाजीपुर गांव में आयोजित एक खाप पंचायत में जारी किया गया.
पंचायत ने आदेश दिया है कि भीनमाल-खानपुर क्षेत्र के 15 गांवों की कोई भी बहू या युवती 26 जनवरी से शादियों, सार्वजनिक समारोहों और यहां तक कि पड़ोसियों के घर जाते समय भी कैमरा वाले मोबाइल फोन लेकर नहीं जाएगी. वे वॉयस कॉल के लिए केवल बेसिक कीपैड फोन का इस्तेमाल कर सकती हैं. चौधरी कबीले की सुंधामाता पट्टी पंचायत ने मोबाइल की लत और बच्चों की आंखों की रोशनी पर स्क्रीन टाइम के प्रभाव की चिंताओं का हवाला देते हुए “आम सहमति से” यह निर्णय लिया. पंच हिम्मताराम ने प्रस्ताव पढ़ा, जिसे सभी पंचायत सदस्यों और बुजुर्गों के बीच चर्चा के बाद एक प्रस्ताव के रूप में पारित किया गया और वे इस नियम को लागू करने पर सहमत हुए.
रिपोर्ट के अनुसार, सामुदायिक प्रमुख सुजनाराम चौधरी ने पंचायत बैठक की अध्यक्षता की. प्रस्ताव में कहा गया है कि शिक्षा प्राप्त कर रही लड़कियों को घर पर “सख्ती से केवल शैक्षणिक उद्देश्यों के लिए” स्मार्टफोन का उपयोग करने की अनुमति दी जाएगी, लेकिन उन्हें सामाजिक कार्यक्रमों, शादियों या पड़ोस में जाते समय डिवाइस ले जाने से रोक दिया जाएगा. सुजनाराम चौधरी ने बाद में कहा कि यह निर्णय इसलिए लिया गया क्योंकि बच्चे अक्सर अपने घर की महिलाओं के मोबाइल फोन का उपयोग करते हैं, जिससे लंबे समय तक स्क्रीन के संपर्क में रहने के कारण उनकी आंखों की रोशनी प्रभावित होती है. उन्होंने कहा, “कुछ महिलाएं बच्चों को विचलित रखने के लिए उन्हें फोन दे देती हैं, ताकि वे अपने दैनिक कामों पर ध्यान केंद्रित कर सकें.”
यह प्रतिबंध गाजीपुर, पावली, कालडा, मनोजियावास, राजीकावास, दातलावास, राजपुरा, कोड़ी, सिद्रोड़ी, आलड़ी, रोपसी, खानादेवल, सावीधर, हथमी की ढाणी और खानपुर गांवों में लागू किया जाएगा.
पंचायत की बैठक में फरमान पढ़े जाने का एक वीडियो फुटेज ऑनलाइन वायरल हुआ, जिसकी सामाजिक कार्यकर्ताओं और महिला अधिकार समूहों ने तीखी आलोचना की है. हालांकि निर्णय को लागू करने का तंत्र अस्पष्ट है, लेकिन इसे वैवाहिक घरों में “पारिवारिक सम्मान” और गोपनीयता की रक्षा के प्रयास के रूप में देखा जा रहा है. एक ‘एक्स’ (पूर्व में ट्विटर) यूजर ने 15 गांवों की महिलाओं को इस फरमान की अवहेलना करने और सामूहिक विरोध करने की सलाह दी. यूजर ने कहा, “पुरुष क्या कर सकते हैं? क्या सभी महिलाओं को जेल में डाल देंगे? यह बहुत ही हास्यास्पद है.” एक अन्य सोशल मीडिया यूजर ने कहा कि महिलाओं को प्रतिबंध को “निश्चित रूप से स्वीकार” करना चाहिए, लेकिन इस शर्त के साथ कि पुरुषों को पान, बीड़ी, सिगरेट, हुक्का और शराब का सेवन बंद करना होगा और मूंछें नहीं रखनी होंगी.
“भारत में मुस्लिम अल्पसंख्यकों के खिलाफ अत्याचारों पर चर्चा करें और उचित उदाहरण दें.”
परीक्षा में पूछे गये इस सवाल पर जामिया में प्रोफेसर को निलंबित किया
जामिया मिलिया इस्लामिया (जेएमआई) ने मंगलवार को बीए (ऑनर्स) सोशल वर्क के प्रश्नपत्र में “मुसलमानों के खिलाफ अत्याचार” पर एक सवाल सेट करने के लिए एक प्रोफेसर को निलंबित कर दिया. सोशल मीडिया उपयोगकर्ताओं द्वारा इस सवाल को “ध्रुवीकरण करने वाला और सांप्रदायिक” करार दिए जाने के बाद यह कार्रवाई की गई. भारत में सामाजिक समस्याएं’ (Social Problems in India) विषय के सेमेस्टर एग्जाम में छात्रों से पूछा गया था: “भारत में मुस्लिम अल्पसंख्यकों के खिलाफ अत्याचारों पर चर्चा करें और उचित उदाहरण दें.”
आशना बुटानी की रिपोर्ट के मुताबिक, जामिया के कई छात्रों ने इस निलंबन को रद्द करने की मांग की है और इसे “अकादमिक स्वतंत्रता पर हमला” बताया है. यह प्रश्न 21 दिसंबर को बीए सोशल वर्क सेमेस्टर-1 की ‘भारत में सामाजिक समस्याएं’ विषय की परीक्षा में आया था. प्रश्न इस प्रकार था: “उपयुक्त उदाहरण देते हुए भारत में मुसलमानों के खिलाफ होने वाले अत्याचारों पर चर्चा करें.” बाद में इस प्रश्न को कुछ उपयोगकर्ताओं द्वारा सोशल मीडिया पर साझा किया गया और यह व्यापक रूप से प्रसारित हो गया.
कार्यवाहक रजिस्ट्रार सी. ए. शेख सफीउल्लाह द्वारा हस्ताक्षरित जामिया के एक आदेश में कहा गया है कि विश्वविद्यालय ने सोशल वर्क विभाग के उस प्रोफेसर की “लापरवाही और असावधानी” को गंभीरता से लिया है, जिन्होंने यह पेपर सेट किया था.
आदेश में आगे कहा गया कि प्रोफेसर को अगले आदेश तक निलंबन पर रखा गया है, और नियमों के अनुसार पुलिस द्वारा प्राथमिकी दर्ज होने तक निलंबित रहेंगे. एक सूत्र ने बताया कि बाद में आदेश को संशोधित कर उसमें से प्राथमिकी वाला हिस्सा हटा दिया गया और इसे प्रोफेसर के साथ साझा किया गया.
हालांकि, विश्वविद्यालय के अधिकारियों ने अपडेट किए गए आदेश को साझा करने से इनकार कर दिया और इसे “गोपनीय” बताया. प्रोफेसर ने इस मामले पर टिप्पणी के अनुरोधों का कोई जवाब नहीं दिया.
द वायर में प्रकाशित पीटीआई की रिपोर्ट के अनुसार, इस सवाल का पेपर सोशल मीडिया पर वायरल होने के बाद हिंदुत्ववादी संगठनों और एबीवीपी (ABVP) ने इसे “भड़काऊ”, “सांप्रदायिक” और “एकतरफा” बताया. उनका तर्क था कि टैक्सपेयर्स के पैसे से चलने वाली यूनिवर्सिटी में ऐसे सवाल नहीं पूछे जाने चाहिए. जामिया प्रशासन ने तुरंत कार्रवाई करते हुए इसे प्रोफेसर की “लापरवाही” करार दिया और उन्हें सस्पेंड कर दिया. साथ ही, नियमों के तहत पुलिस में एफआईआर दर्ज कराने का आदेश भी जारी किया गया है. जामिया के छात्र संगठन ‘फ्रेटरनिटी मूवमेंट’ ने प्रोफेसर का समर्थन करते हुए बताया कि सिलेबस की ‘यूनिट-2’ में “महिलाओं, बच्चों, एससी-एसटी और अल्पसंख्यकों के खिलाफ अत्याचार” का स्पष्ट उल्लेख है, इसलिए यह सवाल वैध था. उन्होंने सस्पेंशन रद्द करने की मांग की है. वहीं, दिल्ली यूनिवर्सिटी टीचर्स एसोसिएशन (DUTA) ने प्रश्नपत्र और सिलेबस की समीक्षा की मांग की है.
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अपूर्वानंद : एक सवाल पर जामिया के प्रोफेसर का सस्पेंशन हमें क्यों परेशान करना चाहिए
यह घटना उस अकादमिक दुनिया की हालत बताती है जिसमें हम आज काम कर रहे हैं. हमें नहीं पता हमारे लेक्चर का कौन सा वाक्य या शब्द हमारे खिलाफ हिंसा, सस्पेंशन या बर्खास्तगी का कारण बन जाए.
हम जो भारत की शिक्षण समुदाय से हैं, हमें यह जानकर डर लगना चाहिए कि एक प्रोफेसर को अपना फ़र्ज़ निभाने की सज़ा मिली है. मैं जामिया मिलिया इस्लामिया यूनिवर्सिटी के सोशल वर्क डिपार्टमेंट के वीरेंद्र बालाजी सहारे के सस्पेंशन के बारे में लिख रहा हूँ. खबरों के मुताबिक, उन्हें ‘बीए (ऑनर्स) सोशल वर्क के फर्स्ट सेमेस्टर की परीक्षा में पूछे गए एक सवाल की वजह से सस्पेंड किया गया है. यह पेपर ‘सोशल प्रॉब्लम्स इन इंडिया’ (भारत में सामाजिक समस्याएं) का था. सवाल था: ‘भारत में मुस्लिम अल्पसंख्यकों के खिलाफ अत्याचारों पर चर्चा करें और उचित उदाहरण दें.’
यह क्वेश्चन पेपर सोशल मीडिया पर उन हैंडल्स द्वारा शेयर किया गया जो हिंदुत्व की विचारधारा को मानते और फैलाते हैं. उन्हें इस सवाल पर बुरा लगा और उन्होंने इसे पेपर को बनाने वाले शख्स के खिलाफ कार्रवाई की मांग करते हुए एक अभियान चला दिया.
जामिया प्रशासन को कार्रवाई करने में एक दिन भी नहीं लगा. उन्होंने पपरीक्षापपत्र बनाने वाले शिक्षक की पहचान की और उन्हें निलंबित कर दिया. उनका दावा है कि चर्चा में आया यह सवाल उनकी लापरवाही का नतीजा था. इसलिए, उन्होंने कहा: “...सक्षम प्राधिकारी के निर्देश पर, पेपर सेटर, प्रो. वीरेंद्र बालाजी सहारे, डिपार्टमेंट ऑफ सोशल वर्क, JMI, को अगले आदेश तक सस्पेंड किया जाता है, और नियमों के अनुसार पुलिस में एफआईआर दर्ज कराई जाएगी...”
सहारे के सामने सिर्फ सस्पेंशन नहीं है; एफआईआर का भी खतरा है. यूनिवर्सिटी ने मामले की जाँच के लिए एक कमेटी बनाई है. कोई भी सोचेगा कि आखिर इसमें जाँच करने जैसा क्या है. यह सोशल वर्क के छात्रों को परखने के लिए बनाया गया पेपर है. उनसे उम्मीद की जाती है कि वे अपने समाज को देखें और अपनी समझ बनाएं. आदर्श रूप में, हम चाहते हैं कि वे अपनी राय रखें, डेटा और सबूतों के साथ अपनी बात कहें, और उन थ्योरीज को लेकर स्पष्टता दिखाएं जिनका वे इस्तेमाल कर रहे हैं.
प्रश्नपत्र सिलेबस और कक्षा में शिक्षण के हिसाब से होते हैं, जिसमें लेक्चर और चर्चाएं शामिल हैं. भारत में किसी भी टीचर को इससे बाहर जाने की आज़ादी नहीं है. सहारे उन छात्रों के लिए पेपर सेट कर रहे थे जिन्होंने ‘भारत में सामाजिक समस्याएं’ नाम का कोर्स पढ़ा था. उस सवाल को फिर से पढ़ें जो उनके पेपर का हिस्सा है. यह छात्रों से “भारत में मुस्लिम अल्पसंख्यकों के खिलाफ अत्याचारों पर चर्चा करने और उचित उदाहरण देने” के लिए कहता है.
मेरे जैसे आम लोग भी, जो सोशल वर्क के छात्र नहीं हैं, इस सवाल का जवाब दे सकते हैं. कोई भी समझदार इंसान इसमें कुछ भी अपमानजनक नहीं पाएगा. इसके अलावा, छात्रों के पास यह तर्क देने का भी विकल्प था – अगर वे ऐसा मानते थे – कि सवाल का आधार ही गलत है, कि भारत में मुसलमानों के खिलाफ न तो भेदभाव है और न ही अत्याचार.
लेकिन परीक्षा देने वाले छात्र नाराज़ नहीं थे; यह हिंदुत्ववादी सोशल मीडिया वॉरियर्स थे. उनका सवाल था: करदाता के पैसों से चलने वाला कोई विश्व विद्यालय भारत में मुसलमानों के खिलाफ अत्याचारों पर चर्चा की इजाज़त कैसे दे सकता है?
जामिया प्रशासन ने इस बनावटी गुस्से पर प्रतिक्रिया देने में जल्दबाजी की और पेपर सेट करने वाले सहारे को सस्पेंड करके उन्हें खुश करने की कोशिश की. ऐसा करके, उन्होंने दो बड़ी गलतियां कीं. पहली, उन्होंने गोपनीयता के सिद्धांत का उल्लंघन किया. परीक्षा का काम पूरी तरह से गोपनीय होता है. पेपर सेट करने से लेकर कॉपियां चेक करने तक, इसमें शामिल शिक्षकों की पहचान ज़ाहिर कारणों से गुप्त रखी जाती है. हम सब जानते हैं कि छात्रों को उनके मनमुताबिक नंबर न देने पर शिक्षकों को कैसे धमकाया जाता है. दूसरी, यूनिवर्सिटी ने पहले ही यह घोषित करके कि सहारे की ओर से लापरवाही हुई है, पूरी प्रक्रिया को ही छोटा कर दिया. क्या हम अब बनी कमेटी से यह उम्मीद कर सकते हैं कि वह इस आधिकारिक फैसले के खिलाफ जाएगी?
अपना फ़र्ज़ निभाने के लिए शिक्षक को सज़ा देना कोई अकेली घटना नहीं है. ज़्यादा समय नहीं हुआ जब हमने मेरठ यूनिवर्सिटी की प्रोफेसर सीमा पवार के खिलाफ दंडात्मक कार्रवाई के बारे में पढ़ा था, जिन्होंने हिंदुत्ववादियों को नाराज़ करने वाला पेपर सेट किया था. पॉलिटिकल साइंस की परीक्षा में छात्रों से पूछा गया था: “निम्नलिखित में से किसे एनोमिक ग्रुप – यानी समाज से अलग-थलग समूह – माना जाता है?” विकल्पों में दल खालसा, नक्सली समूह, जम्मू-कश्मीर लिबरेशन फ्रंट और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (RSS) शामिल थे. एक और सवाल ‘सही मिलान’ (match-the-following) का था, जिसमें बहुजन समाज पार्टी को दलित राजनीति, मंडल आयोग को ओबीसी राजनीति, शिवसेना को क्षेत्रीय पहचान की राजनीति और आरएसएस को धार्मिक और जाति-आधारित पहचान की राजनीति से जोड़ा गया था.
हिंदुत्ववादियों ने इन सवालों को देशद्रोही करार दिया और यूनिवर्सिटी प्रशासन ने पवार को परीक्षा संबंधी सभी कामों से रोककर उन्हें शांत किया. जैसा कि हम सब जानते हैं, परीक्षा ड्यूटी से मुक्त होना अक्सर राहत की बात होती है, लेकिन जब इसे सज़ा के तौर पर थोपा जाता है तो यह अपमानजनक हो जाता है.
एक टीचर को पेपर सेट करने के लिए सज़ा देने का एक और उदाहरण है. शारदा यूनिवर्सिटी के एक टीचर को नौकरी से निकाल दिया गया क्योंकि उन्होंने पॉलिटिकल साइंस का ऐसा पेपर सेट किया था जिससे हिंदुत्ववादी संगठन नाराज़ हो गए थे. सवालों में से एक में छात्रों से राजनीतिक विचारधाराओं को समझाने, रूढ़िवाद को संक्षेप में परिभाषित करने, इसके मुख्य विषयों को रेखांकित करने, फासीवाद/नाजीवाद के बुनियादी सिद्धांतों का वर्णन करने, यह समझाने कि लिबरल सोच में राज्य को एक ‘ज़रूरी बुराई’ क्यों माना जाता है, और लिबरलिज्म के मुख्य विषयों पर चर्चा करने के लिए कहा गया था.
लेकिन जिस सवाल ने राइट-विंग को भड़का दिया, वह था: “क्या आपको फासीवाद/नाजीवाद और हिंदू राइट विंग (हिंदुत्व) के बीच कोई समानताएं मिलती हैं? तर्कों के साथ विस्तार से बताएं.”
जैसा कि साफ़ है, सवाल में छात्रों के लिए यह ज़रूरी नहीं था कि वे फासीवाद और हिंदुत्व के बीच समानताएं स्वीकार ही करें. वे ‘ना’ में जवाब देने और अपनी बात को सही ठहराने के लिए स्वतंत्र थे. दरअसल, वामपंथी हलकों में भी इस तुलना पर असहमति रही है; कई लोगों ने तर्क दिया है कि हिंदुत्व फासीवाद की श्रेणी में पूरी तरह फिट नहीं बैठता. लेकिन हिंदुत्ववादियों के लिए ऐसी बारीकी (nuance) को समझना मुश्किल है.
ऐसा इसलिए है क्योंकि वे छात्रों को स्वतंत्र सोच के काबिल नहीं मानते. न ही वे मानते हैं कि शिक्षा को तार्किक आलोचना (critical reasoning) विकसित करनी चाहिए. उनके लिए शिक्षा दिमाग को कंडीशन करने का एक औज़ार है. यह एक विचारधारा का प्रचार है.
हालांकि, यह एक बड़ी बहस है. सहारे के मामले में यूनिवर्सिटी ने एक बुनियादी प्रक्रियात्मक सिद्धांत का उल्लंघन किया है: गोपनीयता. यह उल्लंघन संबंधित शिक्षक और पूरे विभाग की अकादमिक स्वतंत्रता पर एक व्यापक हमले का हिस्सा है. परीक्षा और क्लासरूम की प्रक्रियाओं की बाहरी पुलिसिंग का निश्चित रूप से पढ़ाने और सीखने पर एक डरावना असर पड़ेगा. कोई भी शिक्षक एक सवाल पर अपनी नौकरी खोने का जोखिम नहीं उठाना चाहेगा या छात्रों या बाहरी लोगों से हिंसक टकराव को न्योता नहीं देना चाहेगा.
शिक्षकों के तौर पर, हमने पहले ही देखा है कि हम अपने विषयों की बौद्धिक मांगों के हिसाब से सिलेबस और करिकुलम बनाने के लिए आज़ाद नहीं हैं. यह उस पल का राष्ट्रवाद है जो सिलेबस तय करता है. कहने की ज़रूरत नहीं है कि यह विषय और छात्रों दोनों के साथ बड़ा अन्याय है. शिक्षकों से उम्मीद की जाती है कि वे अपने क्षेत्र के प्रति अपनी प्रतिबद्धता और अपने छात्रों के उस विषय की व्यापक समझ पाने के अधिकार से बंधे रहें.
यह घटना उस अकादमिक दुनिया की हालत बताती है जिसमें हम आज काम कर रहे हैं. हमें नहीं पता कि हमारे लेक्चर का कौन सा वाक्य या शब्द हमारे खिलाफ हिंसा, सस्पेंशन या बर्खास्तगी का कारण बन जाए. हमने देखा है कि अलग-अलग यूनिवर्सिटीज में हमारे साथी क्रिमिनल केस का सामना कर रहे हैं और कुछ को तो जेल भी भेजा गया है.
यह देखना बाकी है कि जामिया की टीचिंग कम्युनिटी सहारे के साथ खड़ी होती है या नहीं. लेकिन दूसरी यूनिवर्सिटीज के शिक्षकों को भी बोलना होगा. अगर हम इसे बिना विरोध के जाने देंगे, अगर हमने अभी पीछे धकेलने की कोशिश नहीं की, तो हमें जल्द ही पता चलेगा कि हमारे खड़े होने के लिए कोई ज़मीन ही नहीं बची है.
अपूर्वानंद दिल्ली यूनिवर्सिटी में हिंदी पढ़ाते हैं. यह लेख द वायर में अंग्रेजी में प्रकाशित हुआ
कूटनीति
सुशांत सिंह | मॉस्को का छलावा
क्रेमलिन चीन के खिलाफ किसी भी सार्थक तरीके से कभी भारत का साथ नहीं देगा. वास्तविक नियंत्रण रेखा पर अगर वास्तव में तनाव बढ़ता है, तो रूस न तो बीजिंग के खिलाफ कोई डर पैदा कर सकता है और न ही कोई कूटनीतिक दबाव बना सकता है.
दिल्ली की एक सर्द दिसंबर की रात में, नरेंद्र मोदी ने डिप्लोमैटिक प्रोटोकॉल को दरकिनार करते हुए रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन का स्वागत खुद टरमैक पर जाकर किया. फिर दोनों मोदी की सरकारी गाड़ी में बैठकर बाहर निकले. इसके बाद ‘गाइडिंग स्टार’ (मार्गदर्शक तारा) जैसी लफ्फाजी हुई और समय की कसौटी पर परखी गई साझेदारी की बातें हुईं. वॉशिंगटन और यूरोपीय राजधानियों को यह संदेश गया कि पुतिन का रूस पूरे एशिया में अछूत नहीं है. मॉस्को के लिए, सिर्फ इसी बात ने इस दौरे को सफल बना दिया. लेकिन नई दिल्ली के लिए, यही तो असली समस्या थी.
भारत-रूस वार्षिक शिखर सम्मेलन के नतीजे मामूली रहे. 2030 तक 100 बिलियन डॉलर का संशोधित व्यापार लक्ष्य, एक “प्रोग्राम 2030” आर्थिक रोडमैप, कच्चे तेल की लंबी अवधि की सप्लाई के वादे, रूसी मूल के प्लेटफॉर्म्स के लिए स्पेयर पार्ट्स का सह-उत्पादन, मोबिलिटी और माइग्रेशन समझौते, और पर्यटन व आर्कटिक सहयोग की बातें हुईं. ये सब उपयोगी हैं, हां; लेकिन बदलाव लाने वाले नहीं. किसी बड़े नए रक्षा सौदे की घोषणा नहीं हुई. रक्षा विमर्श को सावधानी से ‘सह-विकास’ का नया नाम दिया गया, लेकिन यह मुख्य रूप से पुराने हार्डवेयर को चालू रखने के बारे में है, न कि भारत को किसी नई तकनीकी लीग में पहुंचाने के बारे में.
विदेश नीति की बात करें तो, 2025 मोदी के लिए बहुत बुरा साल रहा है. भारत वर्तमान में तीन कड़ी बाधाओं का सामना कर रहा है जो एक दशक तक इसकी बड़ी रणनीति को तय करेंगी. पहला, एक खुला दुश्मन चीन जिसके साथ सीमा पर तनाव और सैन्यीकरण जारी है और अभी का सैन्य संतुलन बीजिंग के पक्ष में है. दूसरा, एक ऐसी अर्थव्यवस्था जो हेडलाइंस में तो सम्मानजनक रूप से बढ़ रही है लेकिन नौकरियों, उत्पादकता और मैन्युफैक्चरिंग की गहराई के मामले में संघर्ष कर रही है. तीसरा, एक ऐसी दुनिया जहां पूंजी, हाई टेक्नोलॉजी और महत्वपूर्ण सप्लाई चेन तक पहुंच मोटे तौर पर अमेरिका और उसके सहयोगी नेटवर्क के जरिए ही मिलती है.
इन तीनों मोर्चों पर, रूस के साथ भारी-भरकम प्रचारित ‘रीसेट’ उतना नहीं देता जितना कि फोटो-ऑप्स सुझाव देते हैं. चीन को ही ले लीजिए. भारत-चीन संबंध कम भरोसे की स्थिति में हैं. रूसी नीति अब संरचनात्मक रूप से बीजिंग के साथ जुड़ी हुई है. यूक्रेन के बाद चीनी बाजारों, वित्त और तकनीक पर मॉस्को की निर्भरता अब बहस का मुद्दा नहीं है; यह एक संरचनात्मक वास्तविकता है. भारत का मुख्य महाद्वीपीय विरोधी और उसका ‘परखा हुआ दोस्त’ इस तरह से आपस में जुड़े हुए हैं कि नई दिल्ली उस पर कोई प्रभाव नहीं डाल सकती.
उन परिस्थितियों में, मॉस्को पर दांव लगाना सबसे अच्छी स्थिति में एक ‘टैक्टिकल हेज’ (बचाव का रास्ता) है और सबसे बुरी स्थिति में एक रणनीतिक अंधापन.
क्रेमलिन चीन के खिलाफ किसी भी सार्थक तरीके से कभी भारत का साथ नहीं देगा. लाइन ऑफ एक्चुअल कंट्रोल (LAC) पर अगर वास्तव में तनाव बढ़ता है, तो रूस न तो बीजिंग के खिलाफ कोई डर पैदा कर सकता है और न ही कोई कूटनीतिक दबाव बना सकता है. मोदी-पुतिन शिखर सम्मेलन ने इसे बदलने के लिए कुछ नहीं किया. अब अर्थव्यवस्था पर विचार करें. भारत की विकास गाथा वहां दबाव में है जहां यह सबसे ज्यादा मायने रखती है: रोजगार और उत्पादकता. अपने लेबर फोर्स को खपाने और आमदनी बढ़ाने के लिए भारत को बड़े पैमाने पर मैन्युफैक्चरिंग, एडवांस टेक्नोलॉजी, और ग्रीन व डिजिटल इंफ्रास्ट्रक्चर में निवेश की जरूरत है. रूस, जो प्रतिबंधों के तहत है, जिसकी अर्थव्यवस्था सिकुड़ रही है, और जिसकी पश्चिमी तकनीक तक पहुंच सीमित है, भारत के विकास के बदलाव के लिए एक विश्वसनीय भागीदार नहीं है.
हां, कच्चे तेल की लंबी अवधि की सप्लाई के वादे हैं और रियायती ऊर्जा की बातें हैं. लेकिन वहां भी, भारतीय अधिकारियों ने लचीलापन न खोने का ध्यान रखा, यह जोर देते हुए कि ऊर्जा कंपनियां “बदलती बाजार की गतिशीलता” और प्रतिबंधों से जुड़ी व्यावसायिक बाधाओं के हिसाब से काम करेंगी. ज्यादा से ज्यादा, कच्चे तेल का आर्बिट्रेज (सस्ते में खरीदकर फायदा लेना) एक उपयोगी अवसरवादी कदम है; यह कोई विकास की रणनीति नहीं है. रूस में यूरिया प्लांट, कुछ खनिज और हाइड्रोकार्बन, आर्कटिक ऑब्जर्वेशन, और थोड़ा बहुत डिजिटल सहयोग अमेरिका, यूरोप और पूर्वी एशिया में स्थित ग्लोबल वैल्यू चेन में एकीकरण की जगह नहीं ले सकते.
तकनीक के मामले में, यह खाई और भी गहरी है. भारत को जिन फ्रंटियर क्षमताओं की जरूरत है — एडवांस सेमीकंडक्टर, अत्याधुनिक टेलीकॉम, आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस चिप्स, सोफिस्टिकेटेड एयरोस्पेस और नेवल सिस्टम — वे उन्हीं पश्चिमी और पूर्वी एशियाई इकोसिस्टम द्वारा नियंत्रित हैं जो एक ही समय में रूस को रोकने की कोशिश कर रहे हैं. मॉस्को के साथ संयुक्त बयान विज्ञान, परमाणु ऊर्जा, अंतरिक्ष और नवाचार के वादों से भरा है, फिर भी इसमें से लगभग सब कुछ उन पुराने प्लेटफॉर्म्स पर टिका है जहां रूस की बढ़त खत्म हो रही है. उस इकोसिस्टम पर राजनीतिक पूंजी लगाना जबकि दुनिया के असली टेक्नोलॉजी नेटवर्क कहीं और मजबूत हो रहे हैं, यह रणनीतिक स्वायत्तता नहीं है. यह रणनीतिक उपेक्षा है.
यहीं पर अमेरिका तस्वीर में आता है. मोदी-पुतिन के इस तमाशे का एक मकसद यह संकेत देना था कि भारत दबाव में नहीं आएगा, खासकर डोनाल्ड ट्रंप के दौर के उस प्रयोग के बाद जिसमें रूसी तेल की खरीद को लेकर भारत पर उच्च शुल्क लगाए गए थे. इन दृश्यों ने वॉशिंगटन को यह भी बताया कि यूक्रेन पर सार्वजनिक रूप से लेक्चर देना काम नहीं करेगा. उस सिग्नलिंग की कुछ उपयोगिता है. लेकिन इस तरह की नाटकीयता की एक कीमत होती है. वॉशिंगटन का सिस्टम — अमेरिकी कांग्रेस, वहां की नौकरशाही, इंडस्ट्री — उन लफ्फाजी भरे बयानों को देखता है और एक सीधा सवाल पूछता है: क्या भारत अपने लॉन्ग-टर्म हार्डवेयर, सॉफ्टवेयर और मानकों को अमेरिका के नेतृत्व वाले इकोसिस्टम के साथ जोड़ने के लिए गंभीर है, या वह अनिश्चितकालीन अपवादवाद (indefinite exceptionalism) चाहता है?
जोखिम यह नहीं है कि अमेरिका कल सुबह भारत को दंडित करेगा. जोखिम धीमा, सूक्ष्म और अधिक नुकसानदेह है. भारत जितना अधिक अपनी प्रतिष्ठा मॉस्को द्वारा पश्चिमी प्रतिबंधों की अवहेलना को कवर देने में लगाएगा, पश्चिमी राजधानियों के लिए भारत-विशिष्ट छूट, टेक्नोलॉजी वेवर्स, और संवेदनशील को-डेवलपमेंट प्रोजेक्ट्स के लिए तर्क देना उतना ही कठिन हो जाएगा. चुपचाप, इस बात पर व्यावहारिक सीमाएं दिखाई देने लगेंगी कि वॉशिंगटन और उसके सहयोगी हाई-एंड टेक, इंटेलिजेंस शेयरिंग, और सप्लाई-चेन को भारत में शिफ्ट करने पर कितना आगे जाने को तैयार हैं, भले ही ‘नेचुरल पार्टनर्स’ की लफ्फाजी जारी रहे.
पुतिन की यात्रा का बचाव करने वालों का तर्क है कि भारत केवल सिस्टम में मौजूद विरोधाभासों का लाभ उठा रहा है और अपने विकल्प सुरक्षित रख रहा है. सैद्धांतिक रूप से, एक मध्यम स्तर की शक्ति को यही करना चाहिए, लेकिन इसका क्या फायदा अगर मेज पर मौजूद विकल्प असल में मुख्य समस्याओं को हल ही नहीं करते?
इस शिखर सम्मेलन ने सीमा पर चीन को रोकने, अर्थव्यवस्था के स्ट्रक्चरल बदलाव को तेज करने, या भविष्य की इंडस्ट्रीज में बड़ी हिस्सेदारी हासिल करने की भारत की क्षमता में क्या जोड़ा? जवाब बहुत अच्छा नहीं है. एक व्यापार लक्ष्य जो पूरा हो भी सकता है और नहीं भी, कच्चे तेल की थोड़ी बहुत राहत जिसे प्रतिबंधों या शिपिंग दबाव का एक दौर खत्म कर सकता है, और एक नए नाम वाला रक्षा संबंध जो पुराने रूसी प्लेटफॉर्म्स को जिंदा रखने पर केंद्रित है. यह एक छोटा सा व्यवस्थित पैकेज तो है, लेकिन यह कोई ग्रैंड स्ट्रैटेजी (बड़ी रणनीति) नहीं है.
रूसी कूटनीतिक पैमानों से देखें तो पुतिन की यात्रा सफल रही. कोरियोग्राफी काम कर गई, संयुक्त बयान व्यापक था, “विशेष और विशेषाधिकार प्राप्त रणनीतिक साझेदारी” की पुष्टि की गई, और पुतिन को वो ग्लोबल तस्वीरें मिल गईं जिनकी उन्हें तलाश थी—एक ऐसे नेता की जो पूरी तरह से बहिष्कृत नहीं है. फिर भी, उन सख्त पैमानों से जो भारत के लिए मायने रखते हैं, इस सफलता ने एक गहरी विफलता को रेखांकित किया. इसने दिखाया कि 2025 के झटकों के बावजूद, मोदी की विदेश नीति अभी भी नतीजों के बजाय दिखावे के इर्द-गिर्द ही संगठित है.
सुशांत सिंह येल यूनिवर्सिटी में लेक्चरर हैं. यह लेख टेलीग्राफ में छपे उनके विस्तृत लेख से लिया गया है.
विदेश में 334 दिन, 100 दौरे: 2015 के बाद 2025 में पीएम मोदी सबसे ज्यादा रहे विदेश में
बिजनेस स्टैंडर्ड के पत्रकार अर्चिस मोहन की रिपोर्ट के मुताबिक, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के लिए 2025 विदेशी दौरों के लिहाज से 2015 के बाद सबसे व्यस्त साल रहा है. उन्होंने इस साल कुल 11 विदेशी दौरों में 23 देशों की यात्रा की और 42 दिन विदेश में बिताए. रिपोर्ट में दिए गए आंकड़ों के अनुसार, 2014 में सत्ता में आने के बाद से प्रधानमंत्री ने अब तक कुल 100 विदेशी दौरे किए हैं, जिनमें उन्होंने 145 देशों की यात्रा की है और कुल 334 दिन भारत से बाहर रहे हैं.
‘जी-राम-जी’ योजना ग्रामीण वास्तविकता की नासमझी
आर्टिकल-14 की सीनियर एडिटर कविता अय्यर की एक रिपोर्ट में सरकार द्वारा मनरेगा (MGNREGA) कानून को निरस्त कर उसकी जगह ‘जी-राम-जी’ (G-RAM-G) योजना लाने के फैसले का गहरा विश्लेषण किया गया है. रिपोर्ट बताती है कि 19 दिसंबर, 2025 को संसद में बिना किसी ठोस चर्चा के मनरेगा को खत्म कर दिया गया. सरकार का तर्क है कि नई योजना ‘विकसित भारत- गारंटी फॉर रोजगार एंड आजीविका मिशन (ग्रामीण)’ या ‘जी-राम-जी’ एक अपग्रेड है, जो संरचनात्मक कमियों को दूर करेगी. लेकिन आलोचकों का कहना है कि यह बदलाव ग्रामीण भारत के लाखों गरीबों के लिए एक कानूनी सुरक्षा कवच को खत्म करने जैसा है.
रिपोर्ट के अनुसार, मनरेगा के तहत काम की मांग करने का अधिकार (demand-led work) एक कानूनी गारंटी थी, जिसे अब कमजोर कर दिया गया है. नई योजना में सबसे बड़ा बदलाव यह है कि अब रोजगार गारंटी का 40% खर्च राज्य सरकारों को उठाना होगा, जो पहले से ही आर्थिक तंगी से जूझ रही हैं. इसका सीधा असर गरीब राज्यों पर पड़ेगा. इसके अलावा, नई योजना में बुवाई और कटाई के मौसम में 60 दिनों तक काम को निलंबित रखने का प्रावधान है, यह मानकर कि मजदूर खेतों में काम करेंगे. लेखिका तर्क देती हैं कि यह ग्रामीण वास्तविकता की नासमझी है क्योंकि कई किसान खुद मनरेगा मजदूर भी होते हैं.
मनरेगा ने ग्रामीण महिलाओं को घर के पास और समान वेतन वाला काम देकर सशक्त बनाया था, लेकिन नई योजना में जेंडर के पहलू की अनदेखी की गई है. रिपोर्ट में नोबेल विजेता जोसेफ स्टिग्लिट्ज़ और थॉमस पिकेटी जैसे अर्थशास्त्रियों के खुले पत्र का भी हवाला दिया गया है, जिन्होंने मनरेगा को खत्म करने को एक “ऐतिहासिक गलती” बताया है. 2020 के लॉकडाउन के दौरान मनरेगा ने करोड़ों लोगों को भूख से बचाया था, लेकिन अब इस सुरक्षा तंत्र को प्रशासनिक विवेक के भरोसे छोड़ दिया गया है.
दिल्ली की धुंध और उदासी का जिक्र न्यू यॉर्क टाइम्स में
द न्यूयॉर्क टाइम्स में भारतीय पॉडकास्टर और लेखक अनुराग माइनस वर्मा का एक लेख छपा है, जिसमें उन्होंने उत्तर भारत, खासकर दिल्ली में हर साल आने वाली प्रदूषण की आपदा का दर्दनाक चित्रण किया है. वे लिखते हैं कि भीषण गर्मी के बाद सर्दी राहत लेकर आनी चाहिए, लेकिन यह हमारे लिए “दुख का मौसम” बन जाती है. जहरीली हवा, आंखों में जलन और गले में धातु जैसा स्वाद—यह अब जीवन का हिस्सा बन चुका है.
अनुराग लिखते हैं कि एक पिता के रूप में यह उनकी बेटी की पहली सर्दी है, लेकिन उसकी मौजूदगी की खुशी प्रदूषण की चिंता में दब गई है. वे अपनी बेटी को सिर्फ गंदी खिड़कियों से बाहर की दुनिया दिखाते हैं, क्योंकि बाहर निकलना खतरनाक है. प्रदूषण अमीर और गरीब के बीच की खाई को और चौड़ा कर रहा है—अमीर लोग एयर प्यूरीफायर और एयर टाइट घरों में सुरक्षित हैं, जबकि गरीब खुली हवा में काम करने को मजबूर हैं.
रिपोर्ट में बताया गया है कि 2023 में दिल्ली में लगभग 17,000 मौतें वायु प्रदूषण से जुड़ी हो सकती हैं. सरकार हर साल पानी के छिड़काव और धूल नियंत्रण जैसे पुराने उपाय करती है, जो नाकाम साबित होते हैं. चीन ने अपनी एक पार्टी वाली व्यवस्था से प्रदूषण पर काबू पा लिया, लेकिन भारत की विभाजित राजनीति और नौकरशाही इसमें विफल रही है. सबसे दुखद यह है कि प्रदूषण अभी भी भारत में चुनावी मुद्दा नहीं है.
बिजली कटौती के विरोध में कांग्रेस विधायक ने अधिकारियों के घरों की बिजली काटी
उत्तराखंड में बिजली संकट आम लोगों को परेशान किये हुए है. अनियमित बिजली आपूर्ति और सुबह के समय तीन घंटे से अधिक की लंबी कटौती से नाराज होकर, झबरेड़ा से कांग्रेस विधायक वीरेंद्र जाती ने बिजली विभाग के अधीक्षण अभियंता और अधिशासी अभियंताओं के सरकारी आवासों पर पहुंचकर उनके घर की बिजली काट दी.
विधायक ने कहा कि पिछले 15 दिनों से वह बिजली विभाग के अधिकारियों से सुबह के समय रोस्टरिंग (बिजली कटौती) बंद करने की अपील कर रहे थे, क्योंकि इससे जनता को भारी असुविधा हो रही थी. दूसरी ओर, बिजली विभाग के अधिकारियों ने कटौती का बचाव करते हुए कहा कि बिजली की कमी के कारण वे रोस्टरिंग करने को मजबूर हैं और यह स्थिति आगे भी जारी रहने की संभावना है.
रुड़की से तपन सुशील की रिपोर्ट के अनुसार, मंगलवार सुबह, वीरेंद्र जाती अपने कुछ समर्थकों के साथ फोल्डिंग सीढ़ी और प्लास लेकर सिविल लाइंस क्षेत्र में वरिष्ठ बिजली अधिकारियों के आवास पर पहुंचे. वहां उन्होंने खुद बिजली के खंभों और छतों पर चढ़कर उनके घरों का कनेक्शन काट दिया. जिन अधिकारियों को निशाना बनाया गया उनमें यूपीसीएल के अधीक्षण अभियंता विवेक राजपूत, अधिशासी अभियंता (ग्रामीण) विनोद पांडे और उत्तराखंड पावर ट्रांसमिशन कॉरपोरेशन के अधिशासी अभियंता अनुपम सिंह शामिल हैं. एसपी (ग्रामीण) एस.सी. सुयाल ने बताया कि इस मामले में विधायक जाती और उनके समर्थकों के खिलाफ एफआईआर दर्ज कर ली गई है.
आंध्रप्रदेश में आयुर्वेदिक डॉक्टर भी सर्जरी करेंगे
स्वास्थ्य, चिकित्सा शिक्षा और परिवार कल्याण मंत्री सत्या कुमार यादव ने उन आयुर्वेदिक डॉक्टरों को स्वतंत्र रूप से ऑपरेशन करने की मंजूरी दे दी है, जिन्होंने सर्जिकल अध्ययन में पीजी (स्नातकोत्तर) कोर्स पूरा किया है और जिनके पास उचित प्रशिक्षण है.
“द हिंदू” की खबर है कि यह निर्णय भारतीय पारंपरिक चिकित्सा को आधुनिक उपचार विधियों के साथ एकीकृत करने की दिशा में एक कदम है. मंत्री की यह मंजूरी ‘भारतीय चिकित्सा केंद्रीय परिषद (पीजी आयुर्वेद शिक्षा) संशोधन विनियम, 2020’ और ‘नेशनल कमीशन फॉर इंडियन सिस्टम्स ऑफ मेडिसिन’ द्वारा जारी दिशा-निर्देशों के अनुरूप है.
मंत्री द्वारा दी गई अनुमति के अनुसार, आयुर्वेदिक छात्र अब 39 ‘शल्य तंत्र’ (सामान्य सर्जरी) प्रक्रियाओं और 19 ‘शालाक्य तंत्र’ (आंख, कान, नाक, गला, सिर, और दंत चिकित्सा से संबंधित बीमारियां) प्रक्रियाओं को अंजाम दे सकते हैं.
2020 के नियम यह स्पष्ट करते हैं कि शल्य और शालाक्य के पीजी छात्रों को व्यावहारिक रूप से प्रशिक्षित किया जाना चाहिए, ताकि वे अपनी पीजी डिग्री पूरी करने के बाद स्वतंत्र रूप से विशिष्ट सर्जरी करने में सक्षम हों.
इनमें से कुछ सर्जरी में संक्रामक रोगों से संबंधित प्रक्रियाएं, दुर्घटनाओं के कारण क्षतिग्रस्त ऊतकों को हटाना, घावों का उपचार और टांके लगाना, बवासीर और फिशर का उपचार, सिस्ट, मोतियाबिंद और ट्यूमर को हटाना, मांसपेशियों से संबंधित उपचार और स्किन ग्राफ्टिंग प्रक्रियाएं शामिल हैं.
यूक्रेन के लिए नया शांति प्रस्ताव: ज़ेलेंस्की ने दिए पूर्वी मोर्चे से सैनिकों की वापसी और विसैन्यीकृत क्षेत्र के संकेत
बीबीसी और पोलिटिको की रिपोर्ट के अनुसार, यूक्रेन के राष्ट्रपति वोलोडिमिर ज़ेलेंस्की ने एक नए शांति प्रस्ताव का विवरण दिया है, जिसमें रूस के साथ युद्ध खत्म करने के लिए पूर्वी यूक्रेन से यूक्रेनी सैनिकों की वापसी और वहां एक विसैन्यीकृत क्षेत्र (demilitarised zone) बनाने की संभावना शामिल है. यह 20-सूत्रीय योजना अमेरिका और यूक्रेनी दूतों के बीच फ्लोरिडा में हुई बातचीत के बाद तैयार की गई है.
ज़ेलेंस्की ने बताया कि अमेरिका द्वारा समर्थित इस योजना में यूक्रेन को नाटो (NATO) की सदस्यता के समान ही मजबूत सुरक्षा गारंटी दी गई है. अगर रूस दोबारा आक्रमण करता है, तो अमेरिका और यूरोपीय देश सैन्य प्रतिक्रिया देंगे और सभी वैश्विक प्रतिबंध फिर से लागू कर दिए जाएंगे. डोनबास क्षेत्र को लेकर प्रस्ताव में एक “मुक्त आर्थिक क्षेत्र” (free economic zone) बनाने की बात कही गई है, जहां न तो यूक्रेनी सेना होगी और न ही रूसी. ज़ेलेंस्की ने स्पष्ट किया कि किसी भी क्षेत्र से यूक्रेनी सैनिकों की वापसी तभी होगी जब वहां अंतरराष्ट्रीय बल तैनात हों और उसे यूक्रेनी प्रशासन और पुलिस द्वारा संभाला जाए, न कि रूसी पुलिस द्वारा.
ज़ेलेंस्की ने कहा, “दो ही विकल्प हैं: या तो युद्ध जारी रहे, या फिर सभी संभावित आर्थिक क्षेत्रों के बारे में कुछ फैसला लिया जाए.” उन्होंने यह भी बताया कि ज़ापोरिज़्झिया परमाणु संयंत्र को संयुक्त रूप से संचालित करने के अमेरिकी प्रस्ताव से यूक्रेन सहमत नहीं है. योजना में यूक्रेन को यूरोपीय संघ (EU) में शामिल करने और 800,000 सैनिकों की सेना रखने की अनुमति का भी प्रस्ताव है. हालांकि, डोनबास में मुक्त आर्थिक क्षेत्र बनाने के लिए जनमत संग्रह (referendum) की आवश्यकता होगी. रूस ने अभी तक इस प्रस्ताव पर अपनी प्रतिक्रिया नहीं दी है, लेकिन पुतिन पहले ही पूरे पूर्वी यूक्रेन पर नियंत्रण की मांग कर चुके हैं.
थाईलैंड-कंबोडिया सीमा पर भगवान विष्णु की मूर्ति तोड़ी गई, भारत ने जताई कड़ी आपत्ति
हिंदुस्तान टाइम्स की रिपोर्ट के मुताबिक, भारत के विदेश मंत्रालय (MEA) ने थाईलैंड-कंबोडिया सीमा पर भगवान विष्णु की मूर्ति तोड़े जाने की घटना पर कड़ी प्रतिक्रिया दी है. सोमवार को थाईलैंड की सेना द्वारा कथित तौर पर एक बुलडोजर से 2014 में बनी विष्णु प्रतिमा को गिरा दिया गया था. यह घटना दोनों देशों के बीच सीमा पर चल रहे सैन्य संघर्ष के बीच हुई.
विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता रणधीर जायसवाल ने बुधवार को जारी एक बयान में कहा, “क्षेत्रीय दावों के बावजूद, ऐसे अपमानजनक कृत्य दुनिया भर के अनुयायियों की भावनाओं को आहत करते हैं और ऐसा नहीं होना चाहिए.” उन्होंने कहा कि हिंदू और बौद्ध देवी-देवता इस क्षेत्र के लोगों के लिए पूजनीय हैं और हमारी साझा सभ्यतागत विरासत का हिस्सा हैं. भारत ने दोनों पक्षों से संवाद और कूटनीति के जरिए शांति बहाल करने की अपील की है.
कंबोडिया ने भी इस घटना की निंदा करते हुए दावा किया है कि मूर्ति उनके क्षेत्र में थी. सोशल मीडिया पर मूर्ति तोड़े जाने का वीडियो वायरल होने के बाद लोगों में भारी गुस्सा है. थाईलैंड के अधिकारियों ने अभी तक इस पर कोई प्रतिक्रिया नहीं दी है.
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