25/02/2025 : भाजपा प्रदेशों में सबसे ज्यादा हेट स्पीच, इंटरनेट शटडाउन में भारत आगे, कुंभ में लूट चोरी के मामले, मनरेगा के बजट फ्रीज, दिल्ली दंगों के 5 साल, पुतिन के अपमान भरे 3 साल, महायुति में अनबन
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निधीश त्यागी, साथ में राजेश चतुर्वेदी, मज़्कूर आलम, गौरव नौड़ियाल
आज की सुर्खियां
केरल में दलित बच्ची के साथ 5 साल तक सामूहिक बलात्कार, 58 गिरफ्तार
रत्नागिरि में खुदाई से निकले बुद्ध के तीन विशाल सिर
भारत की सबसे भरोसेमंद रिटायरमेंट योजना : दादी-नानी के गहनों को बेचना
दिल्ली दंगों के पाँच साल बाद
अरनब के चैनल पर भूकंप दिल्ली में, क्लिप जापान की..
चोर-लुटेरों का अड्डा भी बना कुंभ मेला
'द वायर' के लिए उमर राशिद ने कुंभ मेले में लुट रहे लोगों के बहाने कुंभ में सुरक्षा व्यवस्थाओं का जायजा लिया है. राशिद ने दो पुलिस स्टेशनों दारागंज और कुंभ मेला कोतवाली में दर्ज 315 एफआईआर की समीक्षा की और पाया कि अधिकांश अपराध चोरी और स्नैचिंग से संबंधित थे. ज्यादातर मामलों में श्रद्धालुओं से मोबाइल फोन, पैसे, गहने और बैग चुराए गए थे. कुछ दोपहिया वाहनों की भी चोरी की गई थी. डिजिटल वित्तीय धोखाधड़ी के मामले भी सामने आए, साथ ही सड़क दुर्घटनाओं में चोट लगने, बच्चों का अपहरण और नकली मुद्रा का उपयोग करने के मामले भी थे. उत्तर प्रदेश पुलिस ने कहा कि उन्होंने अब तक 12 मामलों का संज्ञान लिया है, जिसमें लोगों ने मेला से संबंधित गलत और फर्जी पोस्ट, वीडियो और फोटो फैलाए, विशेष रूप से भगदड़ को लेकर. पुलिस ने 171 सोशल मीडिया प्रोफाइल के खिलाफ कार्रवाई की है.
हालांकि, मेला में दर्ज अधिकांश मामले मूल्यवान सामान की चोरी से जुड़े हुए थे, जो कुंभ जैसे भीड़-भाड़ वाले स्थान में एक बड़ी समस्या है. उत्तर प्रदेश सरकार के अनुसार, 59 करोड़ से अधिक लोग मेले में आए हैं. चोरी के शिकार कई लोगों ने महसूस किया कि उन्हें एक संगठित गिरोह या चोरों के समूह द्वारा निशाना बनाया गया था. रमेश केटी जो कर्नाटक में सीआईडी में निरीक्षक हैं, अपनी फैमिली के साथ 11 फरवरी को मेले में पहुंचे थे. अगले दिन सुबह करीब 6 बजे, जब वे संगम घाट पर पवित्र स्नान कर रहे थे, एक समूह ने भीड़ में हलचल पैदा की. इसी कश्मकश में किसी ने रमेश की पत्नी की सोने की चेन खींचने की कोशिश की. हालांकि, उनकी पत्नी ने उसे बचा लिया, लेकिन इसी अव्यवस्था में रमेश की अपनी चेन, जो 20 ग्राम वजन की थी और लगभग 2 लाख रुपये की थी, चोरी हो गई. ऐसे कई लोग थे, जो कुंभ में जाकर लुट गए. सुरक्षा व्यवस्था में खामियों के चलते कई लोगों के लिए कुंभ दुखद यादें लेकर लौट रहा है.
वायु प्रदूषण के कारण पंजाब, हरियाणा और दिल्ली में 60% से अधिक लोग बीमार : अर्थ सेंटर फॉर रैपिड इनसाइट्स (ACRI) के सर्वेक्षण से पता चलता है कि पंजाब, हरियाणा और दिल्ली के 60% से अधिक निवासियों को जहरीली हवा के कारण सांस की बीमारियाँ हुई हैं. दिल्ली के 65% घरों के सदस्यों ने लगातार खांसी और साँस लेने में कठिनाई का सामना करने की बात कही. आठ राज्यों में किए गए इस सर्वेक्षण की मानें तो हर साल प्रदूषण की आपात स्थितियों के बावजूद, नीति निर्माताओं ने अब तक खोखले वादों और बिना सोचे-समझे की गई प्रतिक्रियाओं के अलावा कुछ नहीं किया गया है.
मनरेगा के लिए केंद्र के पास कोई अतिरिक्त पैसा नहीं : केंद्र सरकार ने वित्त वर्ष 2025 के लिए महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना (मनरेगा) के लिए कोई अतिरिक्त फंड जारी नहीं करने का फैसला किया है. इस कदम के पीछे सरकार का तर्क यह है कि 86,000 करोड़ रुपये का परिव्यय इस साल के लिए पर्याप्त होना चाहिए. द फाइनेंशियल एक्सप्रेस की रिपोर्ट के अनुसार, केंद्र सरकार का मानना है कि कुछ राज्य जो अपेक्षाकृत ‘समृद्ध’ हैं, वे फंड को डायवर्ट कर रहे हैं और ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना को जरूरतमंदों को नौकरी देने के अपने मूल उद्देश्य के बजाय वैकल्पिक आय स्रोत में बदल रहे हैं.
भाजपा नेता हेट स्पीच मामले में हिरासत में : केरल भाजपा नेता पीसी जॉर्ज ने नफरत फैलाने वाले भाषण मामले में कोट्टायम जिले की मजिस्ट्रेट अदालत के सामने सरेंडर कर दिया. सोमवार को जॉर्ज को 14 दिनों की न्यायिक हिरासत में भेज दिया गया. केरल हाईकोर्ट ने शुक्रवार को जॉर्ज की अग्रिम जमानत याचिका खारिज कर दी थी. हाईकोर्ट ने कहा था कि जॉर्ज ने 2022 में इसी तरह के एक मामले में दी गई जमानत की शर्तों का उल्लंघन किया है. जॉर्ज ने 5 जनवरी 2025 को एक टीवी चैनल में चर्चा के दौरान देश के सभी मुसलमानों की तुलना आतंकवादियों से की थी और उन्हें पाकिस्तान जाने को कहा था.
केन-बेतवा नदी जोड़ परियोजना का विरोध क्यों? दिसंबर 2024 से मध्यप्रदेश के हजारों ग्रामीण केन-बेतवा नदी जोड़ परियोजना के खिलाफ विरोध दर्ज करा रहे हैं. क्योंकि इससे कम से कम 21 गांव, बड़े वन क्षेत्र और बाघों का इलाका (आवास) प्रभावित होगा. 2019 में सुप्रीम कोर्ट द्वारा गठित एक समिति ने परियोजना के बारे में चिंताएं व्यक्त की थीं और सरकार को सिफारिश की थी कि सिंचाई के अन्य तरीके खोजे जाने चाहिए. स्वतंत्र अध्ययन भी इसी बात पर जोर देते हैं, लेकिन राष्ट्रीय जल विकास एजेंसी के प्रमुख बालेश्वर ठाकुर का कहना है कि परियोजना का विस्तृत शोध किया गया है. बीबीसी में विष्णुकांत तिवारी की रिपोर्ट में पुनर्वास का भी सवाल उठाया गया है. तिवारी ने कुछ स्थानीय लोगों से बात की है और कहा है कि कुछ लोगों को सरकारी मुआवजा अपर्याप्त लगा और कई ग्रामीण अपने भविष्य को लेकर चिंतित हैं, क्योंकि उन्हें यह नहीं बताया गया है कि उनको कहां से हटना होगा और कहां उन्हें बसाया जाएगा?
कार्टून | हेमंत मोरपारिया

दिल्ली दंगे साजिश केस : पांच साल बाद भी सबूतों की कमी और यूएपीए का दुरुपयोग
5 साल : इंसाफ़ के नाम पर कानून पर बदनुमा दाग़
फरवरी 2020 में नागरिकता संशोधन कानून (सीएए) के विरोध में दिल्ली के उत्तर-पूर्वी इलाकों में हुए सांप्रदायिक दंगों के बाद दिल्ली पुलिस ने 20 लोगों को "बड़ी साजिश" का आरोपी बनाया, जिनमें से 12 आज भी जेल में बंद हैं. पांच साल बाद भी मुकदमे की सुनवाई शुरू नहीं हुई है, और आरोपियों के वकीलों का कहना है कि केस ढहते सबूतों, जबरन गवाही, और शांतिपूर्ण विरोध को आतंकवाद से जोड़ने की कोशिश पर टिका है. स्क्रोल में विनीत भल्ला ने इस पर विस्तार से एक रिपोर्ट लिखी है. इससे पता चलता है कि किस तरह दिल्ली पुलिस का यह केस राजनीतिक एजेंडे और विरोध को कुचलने की मंशा को दर्शाता है. साथ ही साजिश के आरोपों में गंभीर खामियां, गवाहों की विश्वसनीयता पर सवाल, और यूएपीए का दुरुपयोग भारतीय लोकतंत्र में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के लिए खतरनाक मिसाल कायम करता है.
दिल्ली पुलिस के अनुसार, आरोपियों ने सीएए विरोधी प्रदर्शनों के बहाने चार चरणों में दंगे की साजिश रची: पहला, व्हाट्सएप ग्रुप्स के जरिए दिसंबर 2019 में दंगों का "बीटा संस्करण" (छोटे पैमाने पर हिंसा). दूसरा, मुस्लिम-बहुल इलाकों में 23 प्रदर्शन स्थल बनाना और प्रचार फैलाना. तीसरा, जनवरी-फरवरी 2020 में हथियार जमा करना और गुप्त बैठकें आयोजित करना. चौथा, फरवरी 2020 के अंत में चक्काजाम और पुलिस के साथ टकराव को हिंसा में बदलना.
अगर यह साजिश थी तो इसमें आपराधिक क्या था और उसके सबूत क्या थे? दिल्ली पुलिस, अपने सबसे निरंकुश कानून यूएपीए को लगाकर और साथ ही सालों आरोपियों को जेल में रखकर साक्ष्यों को निकाल नहीं पाई. आरोपियों के खिलाफ कोई सीधे हिंसा या हथियारों का सबूत नहीं मिला. मामला व्हाट्सएप चैट, संरक्षित गवाहों (जिनकी पहचान गुप्त रखी गई) के बयानों और कॉल डिटेल रिकॉर्ड पर निर्भर है. इनमें से अधिकतर बयानों में हिंसक योजना का कोई स्पष्ट उल्लेख नहीं है.कुछ गवाहों के बयान शब्दश: इस कदर मिलते हैं, जैसे कि दिल्ली पुलिस के तीन कॉन्स्टेबल्स के बयान एक जैसे थे, जो संभवत: फर्जीवाड़े की ओर इशारा करते हैं.
दिल्ली पुलिस की दलील है कि संरक्षित गवाहों ने आरोपियों पर गुप्त बैठकों में हिंसा की योजना बनाने, हथियार जमा करने और पुलिस/गैर-मुस्लिमों को निशाना बनाने का आरोप लगाया. हालांकि, इन दावों की पुष्टि के लिए कोई ऑडियो/वीडियो रिकॉर्ड या दस्तावेजी सबूत नहीं हैं. वकीलों का मानना है कि ये बयान पुलिस दबाव या लालच के तहत दर्ज कराए गए और मुकदमे के दौरान गिर जाएंगे.
पुलिस ने विरोध प्रदर्शनों को साजिश का हिस्सा बताया. उदाहरण के लिए, "दिल्ली प्रोटेस्ट सपोर्ट ग्रुप" जैसे व्हाट्सएप ग्रुप्स को दंगा प्रबंधन का जरिया बताया गया, जबकि इनका उद्देश्य कानूनी मदद और धन जुटाना था. वकीलों का आरोप है कि सरकार ने यूएपीए (अवैध गतिविधि निवारण कानून) का दुरुपयोग करते हुए विरोध करने वालों को आतंकवादी ठहराया है.
यूएपीए के तहत जमानत पाना मुश्किल है, क्योंकि अदालतें "प्राइमा फेसी" सबूत के आधार पर इनकार कर सकती हैं. 12 आरोपी पांच साल से जेल में बिना सुनवाई के हैं, जो संवैधानिक "स्पीडी ट्रायल" के अधिकार का उल्लंघन है. कई आरोपियों (जैसे उमर खालिद, शरजील इमाम) को अन्य केसों में जमानत मिल चुकी है, लेकिन यूएपीए के तहत नहीं.
महायुति में दरार और चौड़ी
फणनवीस सरकार द्वारा शिंदे कार्यकाल के फैसले की जांच के आदेश, कार्रवाई के भी संकेत
महाराष्ट्र में सत्तारूढ़ भाजपा गठबंधन ‘महायुति’ के भीतर बढ़ती दरार के अब स्पष्ट संकेत मिलने लगे हैं. भाजपा नेता देवेंद्र फडणवीस के नेतृत्व वाली सरकार ने उपमुख्यमंत्री एकनाथ शिंदे की शिवसेना के नेतृत्व वाली पिछली सरकार के कई फैसलों को अपने निशाने पर लिया है. 17 फरवरी को जारी एक आदेश में, देवेंद्र फडणवीस सरकार ने न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) योजनाओं और फसल खरीद के लिए नोडल एजेंसियों के चयन में ‘अनियमितताओं’ को रेखांकित किया और इस संबंध में एक ‘व्यापक नीति’ तैयार करने के लिए एक पैनल का गठन किया. भाजपा के जयकुमार रावल के नेतृत्व में राज्य के विपणन मंत्रालय ने छह सदस्यीय समिति बनाने का निर्णय ‘अनियमितताओं और केंद्र की प्रधानमंत्री अन्नदाता आय संरक्षण अभियान (पीएम-आशा) योजना’ के तहत कृषि उपज के लिए पिछली सरकार द्वारा अनुमोदित खरीद एजेंसियों द्वारा ‘पैसे की मांग’ की शिकायतों के मद्देनजर लिया है.
इंडियन एक्सप्रेस की खबर के अनुसार, पैनल का नेतृत्व करने वाले जय कुमार रावल ने कहा कि जिन एजेंसियों ने अनियमितताएं की हैं, उनके खिलाफ़ ‘निश्चित रूप से कार्रवाई की जाएगी’.
इतना ही नहीं, पिछले हफ्ते, मुख्यमंत्री कार्यालय ने जालना में रुकी हुई 900 करोड़ रुपये की आवासीय परियोजना की जांच का भी आदेश दिया था. इस परियोजना को 2023 में पुनर्जीवित करने के लिए मंजूरी तत्कालीन मुख्यमंत्री शिंदे ने दी थी. और इस महीने की शुरुआत में, राज्य ने ठोस अपशिष्ट संग्रह, झुग्गी-झोपड़ियों की सफाई और जल निकासी और शौचालय रख-रखाव के लिए 1,400 करोड़ रुपये की बीएमसी निविदा भी रद्द कर दी थी, जिसे शिंदे कार्यकाल के दौरान जारी किया गया था.
फडणवीस सरकार के ये फैसले तब आए हैं, जब उपमुख्यमंत्री शिंदे हाल ही में आयोजित कई प्रमुख आधिकारिक बैठकों में नहीं गए और उन्होंने समानांतर राहत प्रकोष्ठों की स्थापना कर दी. इतना ही नहीं, शिंदे ने परोक्ष रूप से चेतावनी के लहजे में कहा भी- “मुझे हल्के में मत लीजिए. मैं पहले ही उन लोगों से ऐसा कह चुका हूं, जिन्होंने मुझे पहले हल्के में लिया था. लोगों को यह बात ध्यान में रखनी चाहिए कि मैं बाला साहेब और दिघे साहेब का एक साधारण पार्टी कार्यकर्ता हूं. मुझे हल्के में लेने वाले देख चुके हैं कि कैसे मैंने 2022 में सरकार बदल दी और एक डबल इंजन वाली सरकार लाई, जिसे लोग चाहते थे...”
शिवसेना (शिंदे) इस बात से भी नाराज़ है कि फडणवीस ने नासिक और रायगढ़ जिलों के प्रभारी मंत्री के पद के लिए उनकी मांगें नहीं मानीं. इन घटनाक्रमों के बीच शिंदे की पार्टी ने मुख्यमंत्री राहत कोष की तर्ज पर महाराष्ट्र सचिवालय में ‘उपमुख्यमंत्री चिकित्सा राहत सहायता प्रकोष्ठ’ की स्थापना की है. इसी तरह, शिंदे के नेतृत्व वाली शिवसेना ने सीएम के वॉर रूम के अलावा अपना खुद का ‘प्रोजेक्ट को-ऑर्डिनेशन सेल’ भी शुरू किया है.
भारत की सबसे भरोसेमंद रिटायरमेंट योजना : दादी-नानी के गहनों को बेचना
भारत में, जहां औपचारिक रिटायरमेंट बचत और पेंशन योजनाओं का दायरा सीमित है, कई परिवार अपनी रिटायरमेंट सुरक्षा के लिए एक पुरानी परंपरा पर निर्भर रहते हैं, पीढ़ी दर पीढ़ी मिले परिवार के सोने को बेचना. भारतीय घरों में रखा लगभग 25,000 टन सोना, जो मुख्य रूप से ग्रामीण इलाकों में है, दुनिया का सबसे बड़ा निजी सोने का भंडार है. अनुमान है कि भारतीय अपनी 20% तक आय सोने पर खर्च करते हैं और एक ऐसे देश में जहां कुल 140 करोड़ की आबादी में केवल 73 लाख लोग ही पेंशन प्राप्त करते हैं, सोना "स्वास्थ्य बीमा, सामाजिक सुरक्षा और बच्चों के लिए एक धरोहर" के रूप में काम करता है, जैसा कि प्रीति सोनी ने ‘ब्लूमबर्ग’ के लिए की गई अपनी रिपोर्ट में कहा है. सोना हमेशा से एक सुरक्षित निवेश और संपत्ति का प्रतीक रहा है, खासकर ग्रामीण भारत में, जहां बैंकिंग और औपचारिक वित्तीय सेवाओं तक पहुंच सीमित हो सकती है. दादी-नानी के गहने, जो अक्सर एक जीवनभर की बचत और उपहारों का परिणाम होते हैं, तब एक प्रमुख संपत्ति बन जाते हैं जब पैसों की जरूरत होती है. यह परंपरा केवल एक वित्तीय आवश्यकता नहीं, बल्कि समाज में सुरक्षा और आश्वासन का एक तरीका बन चुकी है.
अमीर ही कर पा रहे हैं खर्चा : महिंद्रा ग्रुप और टाटा मोटर्स के शीर्ष अधिकारियों ने ‘फायनेंशियल टाइम्स’ के लिए क्रिस के और जॉन रीड को बताया कि उनकी सबसे महंगी कारें इस वक्त स्थिर कार बाजार में भी अच्छा प्रदर्शन कर रही हैं. वे यह बताते हैं कि यह प्रवृत्ति "यह संकेत देती है कि केवल भारत के सबसे संपन्न लोग खर्च करने के मूड में हैं." डेटा एनालिटिक्स फर्म ग्लोबल डाटा का अनुमान है कि पिछले साल भारत में एसयूवी की बिक्री में 14% की बढ़ोतरी हुई, जो कि कुल यात्री वाहन बाजार की 5% की वृद्धि से लगभग तीन गुना ज्यादा है.
2024 में 84 बार बंद हुआ इंटरनेट, म्यांमार के बाद दुनिया में दूसरे नंबर पर भारत!
डिजिटल अंधेरे में जनता को डुबोने के लिए इतना आतुर क्यों है भारत?
ग्लोबल डिजिटल राइट्स संगठन एक्सेस नाउ की रिपोर्ट के मुताबिक, भारत ने 2024 में 84 बार इंटरनेट शटडाउन लगाया, जो लोकतांत्रिक देशों में सबसे ज्यादा है. म्यांमार (85 शटडाउन) के बाद भारत इस मामले में दुनिया में दूसरे नंबर पर है. 2023 के मुकाबले शटडाउन में कमी (116 से 84) दर्ज हुई, लेकिन यह आंकड़ा चिंता का सबब बना हुआ है. यह रिपोर्ट आप हिंदी में पढ़ सकते हैं. एक तरफ भारत, सूचना प्रौद्योगिकी और अब एआई में भी दुनिया में अपना नाम गिनवाना चाहता है, दूसरी तरफ इंटरनेट संपर्क सबसे ज्यादा रोकता भी है.
इन 84 बार इंटरनेट कब क्यों बंद हुआ इसकी जानकारी भी रिपोर्ट में है. 41 शटडाउन प्रदर्शनों के दौरान हुए (जैसे किसान आंदोलन, एग्ज़िट पोल विवाद). 23 शटडाउन सांप्रदायिक हिंसा के दौरान(मणिपुर, हरियाणा, नुह जैसे इलाके). 5 शटडाउन सरकारी नौकरी परीक्षाओं में 'नकल रोकने' के नाम पर किये गये. मणिपुर (21), हरियाणा (12), जम्मूकश्मीर (12) सबसे आगे रहे.
नए टेलीकॉम एक्ट 2023 और टेलीकॉम सस्पेंशन रूल्स 2024 को लेकर विशेषज्ञों ने जमकर फटकार लगाई है. आलोचकों का कहना है कि यह कानून 1885 के टेलीग्राफ एक्ट की 'औपनिवेशिक विरासत' को जिंदा रखता है. शटडाउन पर निरपेक्ष निगरानी तंत्र का अभाव है और यह फैसला सिर्फ केंद्र/राज्यों के सचिवों की 3 सदस्यीय कमेटी के हाथ में.
दुनिया भर में लोगों के लिए इंटरनेट एक जीवनरेखा की तरह है. पर ज्यादातर शटडाउन एशिया में ही होते हैं. 2024 में दुनिया भर में 296 शटडाउन हुए 54 देशों में सरकारों ने इंटरनेट बंद किया. इनमें से 64% मामले एशिया प्रशांत में हुए. म्यांमार, भारत, पाकिस्तान टॉप तीन में. सबसे ज्यादा बैन जिन ऑनलाइन प्लेटफॉर्म्स पर किया गया उनमें ट्विटर / एक्स (24 बार), टिकटॉक (10), सिग्नल (10) हैं.
रमन जीत सिंह चीमा (एक्सेस नाउ) का कहना है "शटडाउन समाज को अस्थिर करते हैं, मानवाधिकार उल्लंघनों को छुपाते हैं, और डिजिटल प्रगति को पीछे धकेलते हैं." भारत का यह रिकॉर्ड उसकी 'डिजिटल लोकतंत्र' की दावेदारी पर गंभीर सवाल खड़े करता है. जब तक शटडाउन के आदेश देने में पारदर्शिता और जवाबदेही नहीं आएगी, तब तक नागरिकों के अभिव्यक्ति और सूचना के अधिकार खतरे में रहेंगे.
हेट स्पीच रिपोर्ट
सबसे ज्यादा ‘हेट स्पीच’ भाजपा शासित राज्यों में
'इंडिया हेट लैब' की रिपोर्ट है कि भारत में 2024 के दौरान खतरनाक भाषणों, जिनमें हिंसा के लिए स्पष्ट अपीलें और हिंदुओं को हथियार उठाने या हथियार प्राप्त करने की प्रेरणा दी गई, का भाजपा शासित प्रदेशों में जमकर इस्तेमाल किया गया है. इन अपीलों के साथ कभी-कभी हथियारों का सीधा वितरण भी किया गया, जिसमें दरांती और तलवारें शामिल थीं. व्यापक भेदभावपूर्ण बयानों से हिंसक उपायों को सक्रिय रूप से संगठित करने का यह उभार, हिंदू राष्ट्रवादी समूहों द्वारा अपनाई गई एक योजनाबद्ध और व्यवस्थित रणनीति को उजागर करता है. 'इंडिया हेट लैब' ने साल 2024 में खतरनाक भाषण या हिंसा की अपीलों के 259 घटनाओं का दस्तावेजीकरण किया है. इनमें से 217 घटनाएं भाजपा शासित राज्यों में हुईं, जबकि दिल्ली में 7 और विपक्ष शासित अन्य राज्यों में 35 घटनाएं घटीं. महाराष्ट्र ने 64 घटनाओं के साथ इस सूची में शीर्ष स्थान प्राप्त किया, जबकि उत्तर प्रदेश (42) और मध्य प्रदेश (35) दूसरे और तीसरे स्थान पर रहे. इन तीन राज्यों ने 2024 में कुल घटनाओं का 54.4% हिस्सा दर्ज किया. विपक्षी कांग्रेस शासित हिमाचल प्रदेश राज्य में भी 16 खतरनाक भाषण की घटनाएं रिकॉर्ड की गईं.
फेक न्यूज अलर्ट
अरनब के चैनल पर भूकंप दिल्ली में, क्लिप जापान की..
दिल्ली भूकंप : पुराने वीडियोज़ को 'नई तबाही' बताने वाली मीडिया की फर्जीवाड़े भरी रिपोर्टिंग
17 फरवरी की सुबह 5:36 बजे दिल्ली में 4.0 तीव्रता के भूकंप के झटके महसूस किए गए. लेकिन, कुछ मीडिया संस्थानों और सोशल मीडिया यूजर्स ने इस घटना को 'ड्रामेबाज़ी' में बदल दिया. रिपब्लिक वर्ल्ड ने अपने यूट्यूब चैनल पर "Delhi-NCR Earthquake: पहले वीडियो डरावने" हेडलाइन से क्लिप्स शेयर किए, जिनमें से तीन फर्जी थे : इनमें से एक में बाथटब से उफनता पानी था. यह वीडियो असल में 2021 के जापान भूकंप का था, जो 'RM Video' यूट्यूब चैनल से लिया गया. दूसरा लटकते पंखे वाला फुटेज जो एएनआई हिंदी ने अगस्त 2024 में जम्मू-कश्मीर के भूकंप के दौरान शेयर किया गया था. तीसरा हिलते झूमर का था जिसे एएनआई ने जनवरी 2025 में बिहार के भूकंप के समय पोस्ट किया था. एक्स (ट्विटर) यूजर @theinformant_x ने भी पाकिस्तान के एक सीसीटीवी फुटेज को दिल्ली भूकंप का बताया, जिसे ऑल्ट न्यूज पहले ही खारिज कर चुका है. लोगों के साथ की गई चैनलों की इन बदमाशियों को ऑल्ट न्यूज़ ने पकड़ा.
ऑल्ट न्यूज ने रिवर्स इमेज सर्च कर पाया कि रिपब्लिक वर्ल्ड द्वारा दिखाए गए वीडियो 2-4 साल पुराने थे और दिल्ली भूकंप से इनका कोई संबंध नहीं था. टीवी9 भारतवर्ष ने भी बिहार के भूकंप के झूमर वाले वीडियो को दिल्ली का बताकर गलत रिपोर्टिंग की. भ्रम फैला कर टीआरपी बटोरने की रेस में मीडिया संस्थान बिना पुष्टि के वायरल वीडियोज़ को 'ब्रेकिंग न्यूज़' बना रहे हैं, जिससे जनता में अफरातफरी बढ़ती है. विज्ञापन की भूख में सनसनीखेज कंटेंट से व्यूज बटोरने की होड़ में तथ्यों की अनदेखी हो रही है. ये घटनाएं मीडिया की जल्दबाज़ी और जवाबदेही के अभाव को उजागर करती हैं. भूकंप जैसी प्राकृतिक आपदाओं पर रिपोर्टिंग में सटीक होना ज़रूरी है, न कि 'क्लिकबेट' की राजनीति.
केरल में दलित बच्ची के साथ 5 साल तक सामूहिक बलात्कार, 58 गिरफ्तार
13 वर्षीय दलित लड़की का पांच साल तक यौन शोषण करने वाले 58 आरोपियों को केरल पुलिस ने गिरफ्तार किया है. लड़की ने हाल ही में कॉलेज काउंसलर को अपने साथ हुए अत्याचारों का खुलासा किया, जिसके बाद यह मामला सामने आया. शोषण की शुरुआत तब हुई जब एक पड़ोसी युवक ने लड़की का बलात्कार कर उसके अश्लील वीडियो बनाए और ब्लैकमेलिंग शुरू की. बाद में दर्जनों पुरुषों (सहपाठी, रिश्तेदार, पड़ोसी) ने उसका शोषण किया. कुछ आरोपियों ने शादी का झूठा वादा किया, तो एक ने शिकायत करने पर मारने की धमकी दी. शोषण घर, कार, बस स्टॉप और खेतों जैसे सार्वजनिक निजी स्थलों पर हुआ.
कोलकाता में डॉक्टर के बलात्कार मामले ने राष्ट्रव्यापी आक्रोश पैदा किया, लेकिन इस मामले में प्रतिक्रिया सीमित रही. दलित अधिकार कार्यकर्ता सिंथिया स्टीफन के अनुसार, "दलित महिलाएं होने पर आक्रोश कम होता है. समाज सोचता है, 'यह लड़की हमारी नहीं है.'" केरल की दलित बस्तियों ("कॉलोनियों") में रहने वाली महिलाएं गरीबी और संसाधनों के अभाव में शोषण का आसान शिकार बनती हैं. एनसीआरबी डेटा (2022) के मुताबिक देशभर में दलित महिलाओं के खिलाफ 4,241 बलात्कार के मामले दर्ज, पर वास्तविक संख्या कहीं अधिक होने का अनुमान. केरल में बाल यौन शोषण के मामले 2013 के 1,002 से बढ़कर 2023 में 4,663 हुए. विशेषज्ञों का मानना है कि स्कूलों में जागरूकता अभियानों ने पीड़ितों को बोलने का साहस दिया. इस मामले में 58 में से दो आरोपी फरार, शेष को यौन उत्पीड़न, सामूहिक बलात्कार और आईटी एक्ट के तहत ब्लैकमेलिंग के आरोप में हिरासत में लिया गया. लड़की और उसकी मां को काउंसलिंग व आश्रय दिया गया. भारत में बलात्कार केसों में सजा दर सिर्फ 27% (2022), लेकिन इस मामले में पीड़िता का बयान मुकदमे के लिए अहम माना जा रहा है.
विश्लेषण
चुनाव आयुक्त की चयन प्रक्रिया पर सवाल
'सबसे शक्तिशाली चुनाव आयोग सबसे खामियों से भरी नियुक्ति प्रणाली का शिकार'
भारत के पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त एस वाय कुरैशी ने चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति प्रक्रिया को "दुनिया की सबसे खामियों भरी प्रणाली" बताते हुए इसमें सुधार की ज़रूरत पर ज़ोर दिया है. उनके अनुसार, अमेरिका, ब्रिटेन, दक्षिण अफ्रीका जैसे लोकतंत्रों में द्विदलीय और निष्पक्ष कॉलेजियम-आधारित नियुक्ति का मॉडल अपनाया गया है, जबकि भारत में यह प्रक्रिया कार्यपालिका के प्रभुत्व में है, जो चुनाव आयोग की स्वायत्तता को कमज़ोर करती है.
वैश्विक प्रथाएं बनाम भारतीय व्यवस्था
अमेरिका : राष्ट्रपति संसद की सलाह से आयुक्तों की नियुक्ति करते हैं.
ब्रिटेन : स्पीकर समिति (सभी दलों का प्रतिनिधित्व) नियुक्ति करती है.
दक्षिण अफ्रीका : राष्ट्रपति, राष्ट्रीय विधानसभा की सिफारिश पर नियुक्त करते हैं.
भारत : 2023 के नए कानून के तहत प्रधानमंत्री, केंद्रीय मंत्री और विपक्ष के नेता की समिति नियुक्ति करती है, जिसमें सत्तारूढ़ दल का बहुमत है. कुरैशी के अनुसार, यह प्रणाली "पार्टीबद्ध" है और न्यायपालिका को बाहर करने से प्रक्रिया की पारदर्शिता खत्म होती है.
नागरिक समाज और कानूनी संघर्ष : एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स (एडीआर) जैसे संगठन 2015 से ही नियुक्ति प्रक्रिया को .पारदर्शी और द्विदलीय. बनाने की मांग कर रहे हैं. 2023 में संसद द्वारा पारित ."मुख्य चुनाव आयुक्त और अन्य चुनाव आयुक्त (नियुक्ति, सेवा शर्तें) अधिनियम" पर विवाद है, क्योंकि इसमें सीजेआई को चयन पैनल से हटाकर कार्यपालिका का नियंत्रण बढ़ा दिया गया. एडीआर ने इसकी संवैधानिकता को चुनौती दी, लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने नियुक्तियों पर रोक लगाने से इनकार कर दिया.
मार्च 2024 में, सरकार ने नए कानून के तहत दो चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति की, जबकि मामला अदालत में लंबित था. कोर्ट ने फरवरी 2025 तक सुनवाई टाल दी, जिससे नियुक्ति प्रक्रिया की वैधता पर अनिश्चितता छाई रही. 19 फरवरी 2025 को नए मुख्य चुनाव आयुक्त की नियुक्ति हुई, लेकिन यह सवाल बना हुआ है कि क्या यह प्रक्रिया लोकतांत्रिक निष्पक्षता के सिद्धांतों के अनुरूप है. कुरैशी का मानना है कि भारत जैसे बड़े लोकतंत्र के लिए निष्पक्ष और स्वायत्त चुनाव आयोग ज़रूरी है. और, वर्तमान नियुक्ति प्रणाली में पारदर्शिता और द्विदलीय भागीदारी का अभाव, चुनावी प्रक्रिया की विश्वसनीयता को खतरे में डालता है. अदालत का इस मुद्दे पर फैसला, भारतीय लोकतंत्र की दिशा तय करेगा.
विचार | ज्यां द्रेज और अमर्त्य सेन
जवाबदेही से आगे 'जिम्मेदारी' की ज़रूरत
भारत में पेंशन के इंतज़ार में विधवा, महीनों से वेतन न पाए सफाईकर्मी, गलत बिजली बिल से परेशान आम नागरिक, या रिश्वत मांगते कर अधिकारी से त्रस्त ट्रक ड्राइवर - सभी की एक ही मांग है : सरकारी संस्थाओं में पारदर्शिता और जवाबदेही. 2005 का सूचना का अधिकार कानून इस दिशा में मील का पत्थर साबित हुआ, लेकिन पिछले एक दशक में हालात बद से बदतर हुए हैं. सत्ता ने नागरिकों को नियंत्रित करने पर ज़्यादा ध्यान दिया, जवाबदेही के बजाय संस्थाओं को 'हाँ में हाँ' मिलाने वाला बना दिया.
जवाबदेही की सीमाएं
जवाबदेही का मतलब है - अधिकारियों के कामकाज को नियमों, पुरस्कार या दंड से बाँधना. मसलन, स्कूल शिक्षक की उपस्थिति ट्रैक करना आसान है, लेकिन क्या वह पढ़ाते समय पूरी लगन दे रहा है? इसका आकलन कर पाना मुश्किल है. कुछ लोग शिक्षकों के वेतन को छात्रों के प्रदर्शन से जोड़ने की वकालत करते हैं, पर यह नुस्खा खतरनाक है. शिक्षा सिर्फ नंबरों का खेल नहीं, बल्कि बच्चों के सर्वांगीण विकास से जुड़ी है. जवाबदेही के तंत्र यहाँ सीमित हैं, क्योंकि बाहरी निगरानी से शिक्षक का आंतरिक जज़्बा नहीं मापा जा सकता.
जवाबदेही और जिम्मेदारी में फर्क को समझें. जवाबदेही (Accountability) - बाहरी दबाव से काम करना. जैसे - ड्यूटी समय पर करने का डर. जिम्मेदारी (Responsibility) - स्वेच्छा से समाज हित में कार्य करने की भावना. जैसे गाजा में बमबारी के बीच डॉक्टरों का मरीज़ों को बचाना, या पत्रकारों का सच्ची खबरें दिखाना.
यह अंतर इसलिए महत्वपूर्ण है, क्योंकि जिम्मेदारी सामाजिक प्रगति का असली इंजन है. जवाबदेही लोगों को सिर्फ नियमों का पालन करवाती है, जबकि जिम्मेदारी उन्हें खुद से बेहतर करने के लिए प्रेरित करती है. दुनिया भर के सफल स्कूल, अस्पताल, संसद सभी में यह संस्कृति रही है.
संसद के क्रिकेट मैच का ऐतिहासिक सबक : आज़ाद भारत के पहले खेल मंत्री जयपाल सिंह मुंडा ने 1950 के दशक में एक अनूठा प्रयोग किया. उन्होंने सभी दलों के सांसदों की क्रिकेट टीम बनवाई. मैच, लंच और डिनर ने सदन का माहौल बदल दिया. जयपाल सिंह ने कहा, "यह आयोजन संसद को बेहतर ढंग से चलाने में मदद करेगा." आज जहाँ संसद में गाली-गलौज है, वहाँ यह किस्सा सहयोगात्मक जिम्मेदारी की ताकत बताता है.
सामाजिक जाल : जिम्मेदारी की चुनौती
जिम्मेदारी अक्सर सामूहिक प्रयास मांगती है. उदाहरणत: अगर सभी ट्रैफिक नियम तोड़ें, तो एक व्यक्ति का लाल बत्ती पर रुकना मुश्किल हो जाता है. इसी तरह, स्कूलों में अगर शिक्षक और अभिभावक दोनों लापरवाह हों, तो बच्चों का भविष्य डूब जाता है. इस 'सामाजिक जाल' से निकलने के लिए सामूहिक जागरूकता ज़रूरी है. चुनाव में वोट डालना सहकारी जिम्मेदारी का सबसे सरल उदाहरण है. हर व्यक्ति जानता है कि उसका एक वोट कुछ नहीं बदलता, फिर भी करोड़ों लोग मतदान करते हैं - कभी पैदल चलकर, कभी घंटों लाइन में खड़े होकर. यह उनकी नैतिक प्रतिबद्धता दिखाता है. अर्थशास्त्री एडम स्मिथ ने जैसे कहा था, "मनुष्य के कर्म नैतिक नियमों से प्रेरित होते हैं, सिर्फ स्वार्थ से नहीं." और बीआर आंबेडकर ने भी, "समानता और स्वतंत्रता, बिना 'भाईचारे' (जिम्मेदारी) के अधूरी हैं."
जवाबदेही के नियम ज़रूरी हैं, लेकिन सरकारी संस्थाओं को जनहित में चलाने के लिए जिम्मेदारी की संस्कृति विकसित करनी होगी. यह तभी होगा जब हर नागरिक और अधिकारी अपने कर्तव्य को सिर्फ डर या लालच से नहीं, बल्कि आत्मसंतोष और सामाजिक दायित्व से निभाए.
यूक्रेन पर रूसी हमले के तीन साल
यूरोपीय नेता कीव में, अमेरिकी गायब
रॉयटर्स के मुताबिक रूस के साथ युद्ध के तीन साल पूरे होने पर यूक्रेन ने सोमवार को यूरोपीय नेताओं के साथ सम्मेलन आयोजित किया, लेकिन अमेरिका के शीर्ष प्रतिनिधि इस कार्यक्रम से अनुपस्थित रहे. यह अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प की जंग को लेकर नीति को दर्शाता है.
ट्रम्प ने यूक्रेनी राष्ट्रपति वोलोडिमिर ज़ेलेंस्की को "तानाशाह" बताया और युद्ध शुरू करने का आरोप लगाया. जवाब में ज़ेलेंस्की ने कहा, "ट्रम्प गलत सूचनाओं के बुलबुले में जी रहे हैं." यूक्रेन और अमेरिका के बीच $500 बिलियन के प्राकृतिक संसाधनों पर समझौते को लेकर भी तनाव है. यूक्रेन के उप-प्रधानमंत्री ओल्गा स्टेफनिशिना ने कहा कि दोनों देश जल्द ही इस पर हस्ताक्षर करेंगे.
पर यूरोपीय देशों ने यूक्रेन का समर्थन किया है. यूरोपीय आयोग अध्यक्ष उर्सुला वॉन डेर लेयेन, कनाडा के प्रधानमंत्री जस्टिन ट्रूडो, स्पेन के प्रधानमंत्री पेद्रो सांचेज समेत 15 से ज्यादा देशों के नेता कीव पहुंचे. उधर ट्रम्प प्रशासन ने साफ किया कि वह यूक्रेन को सैन्य गारंटी नहीं देगा. इसके बजाय, अमेरिका ने सऊदी अरब में रूस से सीधी वार्ता शुरू की, जिसमें यूक्रेन और यूरोप को शामिल नहीं किया गया. सम्मेलन में ज़ेलेंस्की ने कहा, "यह वर्ष स्थायी शांति का होना चाहिए. पुतिन यह शांति नहीं देंगे. हमें ताकत, समझदारी और एकता से इसे जीतना होगा."
यूरोपीय आयोग अध्यक्ष उर्सुला वॉन डेर लेयेन ने कहा, "यह सिर्फ यूक्रेन की नहीं, बल्कि यूरोप की नियति की लड़ाई है." डेनमार्क की प्रधानमंत्री मेटे फ्रेडरिक्सन ने कहा "हमें रक्षा खर्च बढ़ाना होगा. कुछ महीने ही समय बचा है, नहीं तो बहुत देर हो जाएगी."
पिछले तीन सालों से चल रही इस जंग में 6 लाख से ज्यादा यूक्रेनी शरणार्थी और हज़ारों लोग मारे गये हैं.
रूसी सेना संख्याबल में बेहतर है, पर उसके भी पसीने छूट रहे हैं क्योंकि वह उत्तरी कोरिया और भारत के अप्रशिक्षित लोगों को सैनिक बना कर जंग में झोंक रहा है. उधर यूक्रेन को अमेरिकी सहायता पर संदेह है.
पूर्व यूक्रेनी विदेश मंत्री पावलो क्लिमकिन के मुताबिक, कीव को अमेरिका के साथ संबंध बनाए रखने के साथ यूरोप, चीन और भारत से भी समर्थन जुटाना होगा. उन्होंने कहा, "ट्रम्प का तूफान थमेगा, लेकिन इसे हवा न दें."
विश्लेषण
एन ऐपलबॉम : पुतिन के अपमान भरे तीन साल
‘इस जंग में रूसी राष्ट्रपति की जीत तब तक मुश्किल है, जब तक वे यूक्रेन के समर्थकों को धोखे के लिए तैयार न कर लें’
रूस, यूरोप और बिगड़ते लोकतंत्र पर नज़र रखने वाली एटलांटिक पत्रिका की पत्रकार एन एपलबॉम ने यूक्रेन पर रूसी हमले के तीन साल पूरे होने पर ये विश्लेषण किया है.
डोनाल्ड ट्रम्प ने पिछले सप्ताह वोलोडिमिर ज़ेलेंस्की के बारे में जो कुछ भी भद्दी और बेईमान बातें कहीं, उनमें से सबसे भद्दी बात बिल्कुल भी बेईमान नहीं थी. ट्रम्प ने ज़ेलेंस्की के बारे में कहा, "मैं सालों से देख रहा हूं, और मैं उन्हें बिना किसी पत्ते के बातचीत करते हुए देख रहा हूं." "उनके पास कोई पत्ते नहीं है. और आप इससे ऊब जाते हैं."
ऊब जाते हैं. रुकिए और इस वाक्यांश के बारे में सोचिए. ट्रम्प ने इसे कई दिनों तक चली झूठों की झड़ी में जोड़ दिया, जिनमें से कई के बारे में उन्हें पता होना चाहिए कि वे झूठे हैं. वह युद्ध की उत्पत्ति के बारे में, ज़ेलेंस्की के लोकप्रिय समर्थन के बारे में, यूक्रेन के लिए अमेरिकी धन के स्तर के बारे में, यूरोपीय धन के विस्तार के बारे में, पिछली वार्ताओं की स्थिति के बारे में झूठ बोल रहे हैं. लेकिन ऊब गए - कम से कम, इसमें सच्चाई की झलक है. ट्रम्प वास्तव में युद्ध से ऊब गए हैं. वह इसे समझ नहीं पाते हैं. वह नहीं जानते कि यह क्यों शुरू हुआ. वह नहीं जानते कि इसे कैसे रोकना है. वह चैनल बदलना चाहते हैं और कुछ और देखना चाहते हैं.
साथ ही, उनके पास कोई पत्ते नहीं हैं : यह शायद ट्रम्प के सच्चे विश्वास को भी दर्शाता है. डोनाल्ड ट्रम्प के लिए, एकमात्र वास्तविक पत्ते बड़ा पैसा और कड़ी शक्ति हैं. उनकी दुनिया में खिलाड़ी वे लोग हैं, जिन्हें कोई अदालत रोक नहीं सकती, कोई पत्रकार सवाल नहीं कर सकता, कोई विधायक विरोध नहीं कर सकता. ऐसे लोग जिनका पैसा कुछ भी खरीद सकता है, जिनकी शक्ति को जांचा या संतुलित नहीं किया जा सकता.
लेकिन ट्रम्प गलत हैं. ज़ेलेंस्की के पास भले ही पैसा न हो, और वह व्लादिमीर पुतिन या शी जिनपिंग जैसे क्रूर तानाशाह न हों. फिर भी उनके पास अन्य प्रकार की शक्ति है. वह एक ऐसे समाज का नेतृत्व करते हैं, जो खुद को संगठित करता है, जिसके स्थानीय नेता हैं जिनकी वैधता है और एक ऐसा तकनीकी क्षेत्र है, जो जीत के लिए समर्पित है - एक ऐसा समाज जो दुनिया भर में बहादुरी का प्रतीक बन गया है. उनके पास एक ऐसा संदेश है, जो लोगों को चुप रहने के लिए डराने के बजाय कार्य करने के लिए प्रेरित करता है.
रूस के पूर्ण पैमाने पर आक्रमण की तीसरी वर्षगांठ पर आज, रुकिए और याद रखें कि उस रात क्या हुआ था, जब यह शुरू हुआ था. मेरे पास उस सप्ताह कीव के लिए हवाई जहाज के टिकट थे, लेकिन मेरी उड़ानें रद्द कर दी गईं, और 24 फरवरी, 2022 को, मैं जागती रहा और टेलीविजन पर युद्ध की शुरुआत देखी, स्क्रीन से आ रही विस्फोटों की आवाज़ें सुन रही थी. उस रात, हर किसी ने उम्मीद की थी कि रूस अपने बहुत छोटे पड़ोसी पर कब्जा कर लेगा. लेकिन वह मौका कभी नहीं आया. छह सप्ताह बाद, मैं कीव पहुँची और सुना और देखा कि इसके बजाय क्या हुआ था : हिट दस्ते, जिन्होंने ज़ेलेंस्की को मारने की कोशिश की थी; कीव के उपनगर बुचा में नागरिकों की हत्याएं; यूक्रेनी पत्रकार जो कहानी बताने की कोशिश करते हुए देश भर में घूमते थे; नागरिक जो सेना में शामिल हो गए थे; वेट्रेस जिन्होंने सैनिकों के लिए खाना बनाना शुरू कर दिया था.
तीन साल बाद, सभी बाधाओं और सभी भविष्यवाणियों के खिलाफ, नागरिक, पत्रकार, सैनिक और वेट्रेस अब भी एक साथ काम कर रहे हैं. यूक्रेन की दस लाख लोगों की सेना, जो यूरोप में सबसे बड़ी है, अब भी लड़ रही है. यूक्रेन का नागरिक समाज अब भी स्वयंसेवा कर रहा है, अब भी सैनिकों के लिए धन जुटा रहा है. यूक्रेन के रक्षा उद्योग ने खुद को बदल लिया है. 2022 में, मैंने छोटी-छोटी वर्कशॉप देखीं जो कार्डबोर्ड और गोंद जैसे दिखने वाले सामानों से ड्रोन बनाती थीं. 2024 में, यूक्रेनी कारखानों ने 15 लाख ड्रोन का उत्पादन किया, और इस साल वे और भी अधिक बनाएंगे. भूमिगत नियंत्रण केंद्रों में लोगों की टीमें अब हर महीने हजारों लक्ष्यों को भेदने के लिए अपने जरूरत के मुताबिक बनाए बीस्पोक सॉफ्टवेयर का उपयोग करती हैं. उनके काम से पता चलता है कि रूस ने पिछले वर्ष के अधिकांश समय तक आक्रामक होने के बावजूद क्षेत्र पर केवल धीरे-धीरे कब्जा क्यों किया है. युद्ध के अध्ययन संस्थान का अनुमान है कि वर्तमान दर से, रूस को यूक्रेन के शेष 80 प्रतिशत पर कब्जा करने में 83 वर्ष लगेंगे.
रूस के पास उस तरह के संगठन और दृढ़ संकल्प के खिलाफ अनिश्चित काल तक लड़ने के लिए संसाधन नहीं हैं. पुतिन का सैन्य उत्पादन उनके देश की नागरिक अर्थव्यवस्था को नष्ट कर रहा है. मुद्रास्फीति आसमान छू गई है. अब पुतिन के जीतने का एकमात्र तरीका - यूक्रेन की संप्रभुता को नष्ट करने में अंततः सफल होने का एकमात्र तरीका - यूक्रेन के सहयोगियों को युद्ध से ऊबने के लिए राजी करना है.
वह ट्रम्प को यूक्रेन को मिल रहा अमेरिकी समर्थन रोकने के लिए राजी करके जीतता है, क्योंकि ज़ेलेंस्की के पास कोई पत्ते नहीं है, और यूरोपीय लोगों को यह विश्वास दिलाकर कि वे भी नहीं जीत सकते. इसलिए पुतिन के पैसे ने टेनेसी में अमेरिकी इनफ्लूएंसरों को खरीदा और शायद कई अन्य जगहों पर भी. और इसलिए उनकी प्रचार मशीनरी ने जर्मनी के चुनावों में रूस समर्थक धुर दक्षिणपंथियों का समर्थन किया, साथ ही पूरे महाद्वीप में अन्य रूस समर्थक पार्टियों का समर्थन किया. पुतिन जमीन पर नहीं जीत सकते, लेकिन वह अपने दुश्मनों के दिमाग में जीत सकते हैं - अगर हम उन्हें ऐसा करने देते हैं.
यूरोपीय और अमेरिकी, डेमोक्रेट और रिपब्लिकन, बोरियत और ध्यान भटकाने के प्रलोभनों का विरोध कर सकते हैं. हम रूसी प्रचार के कुटिलताओं, विनाशवाद और झूठों के आगे घुटने टेकने से इनकार कर सकते हैं, भले ही वे संयुक्त राज्य अमेरिका के राष्ट्रपति द्वारा दोहराए जा रहे हों. और हम यह मानने से इनकार कर सकते हैं कि यूक्रेन के पास कोई पत्ते नहीं है, हमारे पास कोई पत्ते नहीं है, और लोकतांत्रिक दुनिया के पास डोनाल्ड ट्रम्प और एलोन मस्क के अलावा शक्ति के कोई स्रोत नहीं हैं.
इस युद्ध में तीन साल हो गए हैं, और दांव उतने ही ऊंचे हैं, जितने उस रात थे, जब यह शुरू हुआ था. पुतिन, जिन्होंने कल पूरे युद्ध में सबसे बड़े हमलों में से एक शुरू किया, अब भी यूक्रेन की संप्रभुता, नागरिक समाज, लोकतंत्र और स्वतंत्रता को नष्ट करने की कोशिश कर रहे हैं. वह अभी भी दुनिया को यह दिखाना चाहते हैं कि अमेरिकी शक्ति का युग खत्म हो गया है, कि अमेरिका यूरोप, एशिया या कहीं भी सहयोगियों की रक्षा नहीं करेगा. वह अब भी उन नियमों और कानूनों को रद्द करना चाहते हैं, जिन्होंने यूरोप को आठ दशकों तक शांतिपूर्ण बनाए रखा, ताकि न केवल रूस की सीमा से लगे देशों में, बल्कि पूरे महाद्वीप और यहां तक कि दुनिया भर में अस्थिरता और भय पैदा किया जा सके.
युद्ध तभी खत्म होगा, वास्तव में खत्म होगा, जब पुतिन इन लक्ष्यों को छोड़ देंगे. तब तक कोई भी शांति समझौते को स्वीकार न करें जो उन्हें यह रखने की अनुमति देता है.
धुर दक्षिणपंथियों की बढ़त को बताया 'आखिरी चेतावनी'
'द गार्डियन' की खबर है कि जर्मनी चुनाव में जीतने वाले कंजरवेटिव गठबंधन के नेता फ्रेडरिक मर्स ने कहा कि जर्मनी के संघीय चुनाव में दक्षिणपंथी समर्थन का दोगुना होना "आखिरी चेतावनी" है, ताकि देश की मुख्यधारा की पार्टियां प्रभावी नेतृत्व प्रदान करें. सोमवार को जब उनकी सीडीयू-सीएसयू गठबंधन ने 28.5% वोट के साथ पहली पोजीशन हासिल की, तो अगले जर्मन चांसलर बनने की दिशा में बढ़ रहे मर्स ने कहा कि केंद्र की पार्टियों को एंटी-इमिग्रेशन पार्टी एएफडी के वोटर बेस में हुई बढ़ोतरी को गंभीरता से लेना चाहिए. "यह वास्तव में जर्मनी में लोकतांत्रिक केंद्र की राजनीतिक पार्टियों के लिए एक आखिरी चेतावनी है कि वे मिलकर समाधान खोजें," मर्स ने एक प्रेस कॉन्फ्रेंस में कहा. यहां देखें, जर्मनी के चुनाव नतीजे का पूरा परिणाम.
चलते-चलते
उड़ीसा में बुद्ध के तीन विशाल सिर खुदाई में मिले
ओडिशा में इन दिनों मिट्टी के ढेरों को हटाकर पुरातात्विक खजाने को उजागर करने का काम किया जा रहा है. पिछले 70 दिनों से भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (एएसआई) के 50 सदस्यों की टीम रत्नागिरी में पसीना बहाने में लगी है. अब तक जो हासिल हुआ है, वो ओडिशा के बौद्ध इतिहास में नए ऐतिहासिक साक्ष्यों के उदय का संकेत देता है.
भारत की पहली महिला पुरातत्वविद् और एएसआई की पूर्व महानिदेशक देबाला मित्रा द्वारा रत्नागिरी से दो विशाल वर्गाकार मठ, एक बड़ा स्तूप, मंदिरों का समूह और कई मूर्तियों की खुदाई के छह दशक बाद, ओडिशा के “रत्नों की पहाड़ी” के रूप में विख्यात रत्नागिरी में मठों की दक्षिणी दिशा में एक बड़ा बौद्ध मंदिर अब एक टीले से सामने आ रहा है.
एएसआई के पुरी सर्किल ने पिछले साल 5 दिसंबर से साइट की खुदाई शुरू की है और पिछले एक महीने में उसको तीन विशाल बुद्ध के सिर, पुण्य के लिए भेंट किए जाने वाले सैकड़ों वोटिव स्तूप, पत्थर के शिलालेख और बौद्ध देवताओं और देवियों की मूर्तियां मिली हैं, जो दुनिया के लिए अब तक अज्ञात पुरातात्विक समृद्धि की ओर इशारा करती हैं.
रत्नागिरि पर बौद्ध अवशेष पहली बार 1905 में पुरातत्वविद् एमएम चक्रवर्ती द्वारा देखे गए थे और बाद में साइट की पहली व्यवस्थित खुदाई 1958 से 1961 तक मित्रा द्वारा की गई थी. उन्होंने तब साइट को 5वीं शताब्दी ईस्वी में तारीख दी थी, जिसका विकास 12वीं शताब्दी ईस्वी तक जारी रहा. इतिहासकारों के अनुसार 13वीं शताब्दी ईस्वी में मुस्लिम आक्रमण के परिणामस्वरूप इसका पतन शुरू हुआ. दिसंबर 2024 की खुदाई से पहले मुख्य मठ के दक्षिणी भाग में एक बौद्ध सिर और कुछ अन्य संरचनात्मक अवशेष दिखाई दे रहे थे.
भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के अधीक्षण पुरातत्वविद् डीबी गणनायक के अनुसार खुदाई का उद्देश्य यह पता लगाना है कि रत्नागिरि में एक पूजा सभा या प्रार्थना हॉल के रूप में एक पवित्र बौद्ध मंदिर परिसर मौजूद था या नहीं? ललितगिरि और उदयगिरि जैसे समकालीन स्थलों के विपरीत, जिनमें मंदिर परिसर हैं, रत्नागिरि की पिछली खुदाई में ऐसी कोई संरचना नहीं मिली थी. “चूंकि इस टीले की खुदाई नहीं की गई थी और इस पर कुछ पुरातात्विक अवशेष देखे गए थे, लिहाजा हमने खोज के लिए खोदना शुरू किया. अब दो महीने की खुदाई के बाद, हमें लगता है कि यहीं मंदिर परिसर स्थित था,” उन्होंने कहा. “द न्यू इंडियन एक्सप्रेस” में डायना साहू की पूरी स्टोरी यहां पढ़ सकते हैं.
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